Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: भवस्थिति का प्रतिपादन] [113 अवसपिणियों तक / क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गलपरावर्त तक / प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त तक स्थावर स्थावररूप.में रह सकता है। भंते ! स जीव अस के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी-प्रवपिणियों तक / क्षेत्र से असंख्यात लोक / भगवन् ! स्थावर का अन्तर कितना है ? गौतम ! जितना उनका संचिट्ठणकाल है अर्थात् असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल से; क्षेत्र से असंख्येय लोक / भगवन् ! स का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल / भगवन् ! इन बसों और स्थावरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े त्रस हैं / स्थावर जीव उनसे अनन्तगुण हैं। यह दो प्रकार के संसारी जीवों की प्ररूपणा हुई। यह द्विविध प्रतिपत्ति नामक प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई। विवेचन—इस सूत्र में प्रस और स्थावर जीवों को भवस्थिति, कायस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया है। स्थावर जीवों की भवस्थिति जघन्य से अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट से बावोस हजार वर्ष को कही है / यह स्थिति पृथ्वीकाय को लेकर समझना चाहिए, क्योंकि अन्य स्थावरकाय को उत्कृष्ट भवस्थिति इतनी संभव नहीं है। __ त्रसकाय की जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही है। यह देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए / अन्य त्रसों की इतनी उत्कृष्ट भवस्थिति नहीं होती। कायस्थिति का अर्थ है-पुनः पुनः उसी काय में जन्म लेने पर उन भवों की कालगणना / जैसे स्थावरकाय वाला जितने समय तक स्थावर के रूप में जन्म लेता रहता है, वह सब काल उसको कायस्थिति समझनी चाहिए। स्थावर जीव की कायस्थिति कितनी है ? इसका अर्थ यह है कि स्थावर जीव कितने समय तक स्थावर के रूप में लगातार जन्म लेता रहता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक स्थावर स्थावर के रूप में जन्म-मरण करता रहता है / इस अनन्तकाल को काल और क्षेत्र की अपेक्षा से स्पष्ट किया गया है। काल से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक स्थावर स्थावर के रूप में रह सकता है। क्षेत्र की अपेक्षा से इस अनन्तता को इस प्रकार समझाया गया है कि अनन्त लोकों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उन्हें प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने से जितना समय लगता है वह समय अनन्त अवपिणी-उत्सपिणीमय है। इसी अनन्तता को पुद्गलपरावत के मान से बताते हुए कहा गया है कि असंख्येय पुद्गलपरावर्तों (क्षेत्रपुद्गलपरावों) में जितनी उत्सपिणियां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org