________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : स्त्रियों का वर्णन [117 स्त्रीत्व के सात लक्षण माने गये हैं-१ योनि, 2 मृदुत्व, 3 अस्थैर्य, 4 मुग्धता, 5 अबलता, 6 स्तन और 7 पुंस्कामिता ( पुरुष के साथ रमण की अभिलाषा)।' पुरुषवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो उसे पुरुषवेद कहते हैं / पुरुषवेद का बाह्य चिह्न लिंग, श्मश्रु-केश आदि हैं। पुरुष में कठोर भाव की प्रधानता होती है अतः उसे कोमल तत्त्व की अपेक्षा रहती है। पुरुषवेद का विकार तृण की अग्नि के समान है जो शीघ्र प्रदीप्त हो जाती है और शीघ्र शान्त हो जाती है / स्थूल दृष्टि से पुरुष के सात लक्षण कहे गये हैं-१ मेहन (लिंग), 2 कठोरता, 3 दृढता, 4 शूरता, 5 श्मश्रु (दाढ़ी-मूंछ), 6 धीरता और 7 स्त्रीकामिता। नपुसकवेद-स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा जिस कर्म के उदय से हो वह नपुंसकवेद है। नपुंसक में स्त्री और पुरुष दोनों के मिले-जुले भाव होते हैं। नपुंसक की कामाग्नि नगरदाह या दावानल के समान होती है जो बहुत देर से शान्त होती है। नपुंसक में स्त्री और पुरुष दोनों के चिह्नों का सम्मिश्रण होता है। नपुंसक में दोनों-मृदुत्व और कठोरत्व का मिश्रण होने से उसे दोनों-स्त्री और पुरुष की अपेक्षा रहती है। नारक जीव नपंसकवेद वाले ही होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जोव और असंज्ञी पंचेन्द्रिय नपुंसकवेद वाले ही होते हैं / सब संमूछिम जीव नपुंसकवेदी होते हैं। गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों में तीनों वेद पाये जाते हैं। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ही होता है, नपुंसकवेद नहीं होता। उक्त तीनों वेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। वेदमोहनीय की उपशमदशा में उसकी सत्ता मात्र रहती है, उदय नहीं रहता / वेद का सर्वथा क्षय होने पर अवेदीअवस्था प्राप्त हो जाती है। स्त्रियों का वर्णन 45. [1] से किं तं इत्थोओ? इत्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा--- 1. तिरिक्खजोणियाओ, 2. मस्तित्थीओ, 3. देवित्थिओ। से कि तं तिरिक्खजोणिणिस्थीओ? . तिरिक्खजोणिणित्थीयो तिविहाओ पण्णतामो, तंजहा१. जलयरीओ, 2. थलयरीओ, 3. सहयरीओ। 1. योनिमदुत्वमस्थैर्य मुग्धताऽबलता स्तनो। पुस्कामितेति चिह्नानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते // -मलयगिरिवृत्ति 2. मेहनं खरता दाढ्यं, शौण्डीयं श्मश्रु धृष्टता। स्त्रीकामितेति लिगानि सप्त पुस्त्वे प्रवक्षते / / -मलयगिरिवृत्ति 3. स्तनादिश्मश्रुकेशादि भावाभावसमन्वितं / नपुंसकं बुधा प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् // –मलयगिरिवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org