________________ 104] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पम के असंख्यातवें भाग की आयु वाले युगलिक मनुष्य रहते हैं / इन द्वीपों में सदैव तीसरे आरे जैसी रचना रहती है। यहाँ के स्त्री-पुरुष सर्वांग सुन्दर एवं स्वस्थ होते हैं / वहाँ रोग तथा उपद्रवादि नहीं होते हैं / उनमें स्वामी-सेवक व्यवहार नहीं होता। उनकी पीठ में 64 पसलियाँ होती हैं। उनका आहार एक चतुर्थभक्त के बाद होता है तथा मिट्टी एवं कल्पवृक्ष के पुष्प-फलादि का होता है। वहाँ की पृथ्वी शक्कर से भी अधिक मोठी होती है तथा कल्पवृक्ष के फलादि चक्रवर्ती के भोजन से अनेक गुण अच्छे होते हैं। यहाँ के मनुष्य मंदकषाय वाले, मृदुता-ऋजुता से सम्पन्न तथा ममत्व और वैरानुबन्ध से रहित होते हैं / यहाँ के युगलिक अपने अवसान के समय एक युगल (स्त्री-पुरुष) को जन्म देते हैं और 79 दिन तक उसका पालन-पोषण करते हैं। इनका मरण जंभाई, खांसी या छींक आदि से होता हैपीड़ापूर्वक नहीं / ये मरकर देवलोक में जाते हैं। कर्मभूमिक मनुष्य दो प्रकार के हैं-आर्य और म्लेच्छ (अनार्य) / शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर, आदि अनेक प्रकार के म्लेच्छों के नाम प्रज्ञापनासूत्र में बताये गये हैं। आर्य दो प्रकार के हैं ऋद्धिप्राप्त आर्य और अद्धिप्राप्त आर्य / ऋद्धिप्राप्त प्रार्य छह प्रकार के हैं-१. अरिहंत, 2. चक्रवर्ती, 3. बलदेव, 4. वासुदेव, 5. चारण और 6. विद्याधर / अर्नाद्धप्राप्त प्रार्य नौ प्रकार के हैं—१. क्षेत्रआर्य, 2. जातिप्रार्य, 3. कुलमार्य, 4. कर्मआर्य, 5. शिल्पप्रार्य, 6. भाषामार्य, 7. ज्ञानार्य, 8. दर्शनार्य और 9. चारित्रमार्य / 1. क्षेत्रपार्य-साढे पच्चीस देश के निवासी क्षेत्रमार्य हैं / इन क्षेत्रों में तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलदेवों और वासुदेवों का जन्म होता है / 2. जातिआर्य-जिनका मातृवंश श्रेष्ठ हो (शिष्टजनसम्मत हो)। 3. कुलआर्य-जिनका पितवंश श्रेष्ठ हो। उग्र, भोग, राजन्य आदि कुलार्य हैं। 4. कर्मप्रार्य-शिष्टजनसम्मत व्यापार आदि द्वारा आजीविका करने वाले कर्ममार्य हैं। 5. शिल्पार्य-शिष्टजन सम्मत कलाओं द्वारा जीविका करने वाले शिल्पार्य हैं / 6. भाषाप्रार्य-शिष्टजन मान्य भाषा और लिपि का प्रयोग करने वाले भाषाप्रार्य हैं। सूत्रकार ने अर्धमागधी भाषा और ब्राह्मी लिपि का उपयोग करने वालों को भाषार्य कहा है। उपलक्षण से वे सब भाषाएँ और लिपियाँ ग्राह्य हैं जो शिष्टजनसम्मत और कोमलकान्त पदावली से युक्त हों। 7. ज्ञानप्रार्य-पांच ज्ञानों-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान की अपेक्षा से पांच प्रकार के ज्ञानआर्य समझने चाहिए। 8. दर्शनार्य-सरागदर्शन और वीतरागदर्शन की अपेक्षा दो प्रकार के दर्शनार्य समझने चाहिए। 9. चारित्रार्य सरागचारित्र और वीतरागचारित्र की अपेक्षा चारित्रमार्य दो प्रकार के जानने चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र में विस्तृत जानकारी दी गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org