Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 108] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भवणवासी दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-- असुरा जाव थणिया / से तं भवणवासी। से किं तं बाणमंतरा? देवभेदो सन्धो भाणियव्यो जाव ते दुविहा पण्णता, तंजहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / तओ सरीरगा–वेउन्विए, तेयए, कम्मए / ओगाहणा दुविहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउठिवया य / तस्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त रयणीयो। उत्तरवेउब्विया जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइमागं उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं। ___ सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंघयणी वट्ठी, व छिरा व हारू णेव संधयणमस्थि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसि संघायत्ताए परिणमंति / किसंठिया ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरदेउव्विया य / तत्थ णं जे भवधारणिज्जा ते णं समचउरंससंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते णं नाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाम्रो, छ लेस्साओ, पंच इंदिया, पंच समुग्धाया, सन्नी वि, असन्नी वि, इथिवेया वि, पुरिसवेया वि, णो णपुंसकवेदी, पज्जत्ती अपत्तीओ पंच, विट्ठी तिषिण, तिण्णि बंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि, जे नाणो ते नियमा तिग्णाणी, अण्णाणी भयणाए, दुविहे उवओगे, तिविहे जोगे, आहारो णियमा छदिसि; ओसन्न कारणं पडुच्चं वण्णओ हालिद्दसुक्किलाई जाव आहारमाहरति / उववाओ तिरियमणुस्सेहि, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोबमाई, दुविहा वि मरंति, उध्वट्टित्ता नो नेरइएसु गच्छंति तिरियमणुस्सेसु जहासंभवं, नो देवेसु गच्छंति, दुगतिआ, दुआगतिआ परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो, से तं देवा; से तं पंचेंदिया; से तं ओराला तसा पाणा / [42] देव क्या हैं ? देव चार प्रकार के हैं, यथा-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक / भवनवासी देव क्या हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के कहे गये हैंअसुरकुमार यावत् स्तनितकुमार / वाणमन्तर क्या है ? (प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार) देवों के भेद कहने चाहिए। यावत् वे संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। उनके तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। अवगाहना दो प्रकार की होती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी / इनमें जो भवधारणीय है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ की है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है। देवों के शरीर छह संहननों में से किसी संहनन के नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें न हड्डी होती है न शिरा (धमनी नाड़ी) और न स्नायु (छोटी नसें) हैं, इसलिए संहनन नहीं होता। जो पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org