________________ 110] [जीवाजीवाभिगमसूत्र के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर-नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर शेष पाठ सौ योजन प्रमाण मध्य भाग में हैं। इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं और इनके आवास तीनों लोकों में हैं / अथवा जो वनों के विविध पर्वतान्तरों, कंदरान्तरों आदि प्राश्रयों में रहते हैं वे वाणन्यन्तर देव है। वाणव्यन्तरों के पाठ भेद हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिचाश / इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / / ज्योतिष्क-जो जगत् को द्योतित-प्रकाशित करते हैं वे ज्योतिष्क कहलाते हैं अर्थात् विमान / जो ज्योतिष विमानों में रहते हैं वे ज्योतिष्क देव हैं / अथवा जो अपने अपने मुकुटों में रहे हुए चन्द्रसूर्यादि मण्डलों के चिह्नों से प्रकाशमान हैं वे ज्योतिष्क देव हैं। इनके पाँच भेद हैंचन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा / इनके भी दो भेद हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / वैमानिक----जो ऊर्ध्वलोक के विमानों में रहते हैं वे वैमानिक हैं। ये दो प्रकार के हैं--- कल्पोपन्न और कल्पातीत / कल्पोपन्न का अर्थ है-जहाँ कल्प-प्राचार-मर्यादा हो अर्थात् जहाँ इन्द्र, सामानिक, त्रायास्त्रिश आदि की मर्यादा और व्यवहार हो, वे कल्पोपपन्न हैं। जहाँ उक्त व्यवहार या मर्यादा न होवे वे कल्पातीत हैं। कल्पोपन्न के बारह भेद हैं-१ सौधर्म, 2 ईशान, 3 सानत्कुमार, 4 माहेन्द्र, 5 ब्रह्मलोक, 6 लान्तक, 7 महाशुक्र, 8 सहस्रार, 9 अानत, 10 प्राणत, 11 प्रारण और 12 अच्युत / इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त / कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं. वेयक और अनुत्तरोपपातिक / गंवेयक देव नौ प्रकार के हैं-१ अधस्तन-अधस्तत, 2 अधस्तन-मध्यम, 3 अधस्तन-उपरिम, 4 मध्यम-अधस्तन, 5 मध्यममध्यम, 6 मध्यम-उपरिम, 7 उपरिम-अधस्तन, 8 उपरिम-मध्यम और 9 उपरिम-उपरिम / इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो भेद हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों के 5 भेद हैं-१ विजय, 2 वैजयंत, 3 जयंत, 4 अपराजित और 5 सर्वार्थसिद्ध / इनके भी प्रत्येक के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / देवों में जो पर्याप्त, अपर्याप्त का भेद बताया है उसमें अपर्याप्तत्व अपर्याप्तनामकर्म के उदय से नहीं समझना चाहिए। किन्तु उत्पत्तिकाल में ही अपर्याप्तत्व समझना चाहिए / सिद्धान्त में कहा है-नारक, देव, गर्भज तियंच, मनुष्य और असंख्यात वर्ष की आयु वाले उत्पत्ति के समय ही अपर्याप्त होते हैं।' देवों की शरीरादि 23 द्वारों की अपेक्षा निम्न प्रकार की वक्तव्यता हैशरीरद्वार-देवों के तीन शरीर होते हैं वैक्रिय, तैजस और कार्मण / अवगाहनाद्वार-भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ प्रमाण है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक लाख योजन। 2. नारयदेवातिरियमणय गब्भजा जे असंखवासाऊ / एए उ अपज्जत्ता, उववाए चेव बोद्धव्या / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org