________________ प्रथम प्रतिपत्ति: देवों का वर्णन] [107 होकर सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) एक ही रूप में अभिव्यक्त हो जाता है।' __ जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान वाले भी हैं और तीन अज्ञान वाले भी हैं / जो दो अज्ञान वाले हैं वे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं / जो तीन अज्ञान आले हैं वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। योगद्वार----मनुष्य मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी भी है और अयोगी भी है। शैलेशी अवस्था में अयोगित्व है। उपयोगद्वार और आहारद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना / उपपातद्वार--सातवीं नरक को छोड़कर शेष सब स्थानों से मनुष्यों में जन्म हो सकता है। सातवीं नरक का नैरयिक मनष्य नहीं होता। सिद्धान्त में कहा गया है कि-सप्तम पृथ्वी नैरयिक, तेजस्काय, वायूकाय और असंख्य वर्षायू वाले अनन्तर उर्तित होकर मनुष्य नहीं होते। स्थितिद्वार--मनुष्यों को जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। समवहतद्वार-मनुष्य मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। उद्वर्तनाद्वार—ये सब नारकों में, सब तिर्यंचों में, सब मनुष्यों में और सब अनुत्तरोपपातिक देवों तक उत्पन्न होते हैं और कोई सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाते हैं और निर्वाण को प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त कर देते हैं। गति-आगतिद्वार-मनुष्य पांच गतियों में (सिद्धगति सहित) जाने वाले और चार गतियों से आने वाले हैं। हे प्रायुष्मन् श्रमण ! ये प्रत्येकशरीरी हैं और संख्येय हैं। मनुष्यों की संख्या संख्येय कोटी प्रमाण है। इस प्रकार मनुष्यों का कथन सम्पूर्ण हुआ / देवों का वर्णन 42. से किं तं देवा? देवा चउग्विहा पण्णत्ता, तंजहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया / से कि तं भवणवासी ? 1. शंका----आवरणदेसविगमे जाइं विजंति मइसुयाई णि / प्रावरणसम्वविगमे कहं ताई न होंति जीवस्स / / समाधान-मलविद्धमणेयक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः / कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः // यथा जात्यस्य रत्नस्य नि:शेषमलहानितः / स्फूटकरूपाऽभिव्यक्तिविज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org