Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 102 [जीवाजीवाभिगमसूत्र इन सम्मूछिम मनुष्यों में शरीरादि द्वारों की वक्तव्यता इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं--प्रौदारिक, तैजस और कार्मण। अवगाहनाद्वार–इनकी अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है। संहनन, संस्थान, कषाय, लेण्याद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना / इन्द्रियद्वार- इनके पांचों इन्द्रियां होती हैं। संजीद्वार और वेदद्वार द्वीन्द्रिय की तरह जानना / पर्याप्तिद्वार में--पांच अपर्याप्तियां होती हैं / ये लब्धिअपर्याप्तक होते हैं। दप्टि, दर्शन, ज्ञान, योग, उपयोग द्वार पृथ्वीकायिकों के समान जानने चाहिए . पाहारद्वार द्वीन्द्रियों की तरह है / उपपात--नै रयिक. देव, तेजस्काय, वायुकाय और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष . जीवस्थानों से पाकर उत्पन्न होते हैं। स्थिति-जयन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण / जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कुछ अधिक जानना चाहिए। ये समवहत भी मरते हैं और असमवहत भी। उदवर्तना-नै रयिक, देव और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष जीवस्थानों में मरकर उत्पन्न होते हैं। इसलिए गति-प्रागतिद्वार में दो गति वाले और दो प्रागति वाले (तिर्यक और मनुष्य) हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं / हे आयुष्मन् श्रमण ! यह सम्मूछिम मनुष्यों का वर्णन हुआ / गर्भज मनुष्यों का वर्णन-गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीन प्रकार के हैं-१. कर्मभूमिक, 2. अकर्मभूमिक और 3. अन्तद्वीपज / कर्मभूमिक-कर्म-प्रधान भूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिक हैं। कृषि वाणिज्यादि अथवा मोक्षानुष्ठानरूप कर्म जहाँ प्रधान हों वह कर्मभूमि है। पांच भरत, पांच ऐरवत और 5 महाविदेह-ये 15 कर्मभूमियाँ हैं। इन्हीं भूमियों में जीवन-निर्वाह हेतु विविध व्यापार, व्यवसाय, कषि, कला आदि होते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में मोक्ष के लिए अनुष्ठान, प्रयत्न आदि हो सकते हैं। अतएव ये कर्मभूमियां हैं। इनमें ही सब सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्थाएँ होती हैं। इनमें उत्पन्न मनुष्य कर्मभूमिक मनुष्य हैं। अकर्मभूमिक-जहाँ असि (शस्त्रादि), मषि (साहित्य-व्यापार कलाएँ) और कृषि (खेती) आदि कर्म न हो तथा जहाँ मोक्षानुष्ठान हेतु धर्माराधना आदि प्रयत्न न हों ऐसी भोग-प्रधान भूमि अकर्मभूमियां हैं / पाँच हैमवत, पांच है रण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु-ये तीस अकर्मभूमियां हैं / इन 30 अकर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अकर्मभूमिक हैं / यहाँ के मनुष्यों के भोगोपभोग के साधनों को पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है, इसके लिए उन्हें कोई कर्म नहीं करना पड़ता। पाँच हैमवत और पांच है रण्यवत क्षेत्र में मनुष्य एक कोस ऊँचे, एक पल्योपम की आयु वाले और वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। इनकी पीठ की पस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org