________________ प्रथम प्रतिपत्ति : मनुष्यों का प्रतिपादन] [101 इनमें तीनों दृष्टियां पाई जाती हैं। चार दर्शन पाये जाते हैं। ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं-वे कोई दो ज्ञान वाले, कोई तीन ज्ञान वाले, कोई चार ज्ञान वाले और कोई एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं, जो तीन ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी हैं अथवा मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी हैं / जो चार ज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं / जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियम से केवलज्ञान वाले हैं। इसी प्रकार जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं। वे मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी भी हैं। उनमें दोनों प्रकार का साकार-अनाकार उपयोग होता है। . उनका छहों दिशाओं से (पुद्गल ग्रहण रूप) आहार होता है। वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से पाकर भी उत्पन्न होते हैं। उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती है। ये दोनों प्रकार के समवहत-असमवहत मरण से मरते हैं। ये यहाँ से मर कर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं / भगवन् ! ये जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले कहे गये हैं ? गौतम ! पांच गति वाले और चार प्रागति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं। आयुष्मन् श्रमण ! यह मनुष्यों का कथन हुआ। विवेचन–मनुष्य सम्बन्धी प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार कहते हैं कि मनुष्य दो प्रकार के हैं—सम्मूछिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य / सम्मूछिम मनुष्यों के विषय में प्रश्न किया गया है कि ये कहाँ सम्मूछित होते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया गया है। अर्थात् प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार इसका उत्तर जानना चाहिए। प्रज्ञापनासूत्र में इस विषय में ऐसा उल्लेख किया गया है "पैतालीस लाख योजन के लम्बे चौड़े मनुष्यक्षेत्र में जिसमें अढ़ाई द्वीप-समुद्र हैं, पन्द्रह कर्मभूमियां, तीस अकर्मभूमियां और छप्पन अन्तर्वीप हैं-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों के ही 1 उच्चार (मल) में, 2 प्रस्रवण (मूत्र) में, 3 कफ में, 4 सिंघाण-नासिका के मल में, 5 वमन में, 6 पित्त में, 7 मवाद में, 8 खून में, 9 वीर्य में, 10 सूखे हुए वीर्य के पुद्गलों के पुनः गीला होने में, 11 मृत जीव के कलेवरों में, 12 स्त्री-पुरुष के संयोग में, 13 गांवनगर की गटरों में और 14 सब प्रकार के अशुचि स्थानों में ये सम्मूछिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण इनकी अवगाहना होती है। ये असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सब पर्याप्तियों से अपर्याप्त रह कर अन्तर्मुहुर्त मात्र की आयु पूरी कर मर जाते हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org