________________ 100] ... . [जीवाजीवाभिगमसूत्र ते णं भंते ! जीवा कतिगतिआ कतिम्रागतिया पण्णता? गोयमा ! पंचगतिया चउआगतिया परित्ता संखिज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं मणुस्सा। [41] मनुष्य का क्या स्वरूप है ? मनुष्य दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सम्भूछिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य / भगवन् ! सम्मूछिम मनुष्य कहाँ सम्मूछित होते हैं--उत्पन्न होते हैं ? .. गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर (गर्भज-मनुष्यों के अशुचि स्थानों में सम्मूछित) होते हैं, यावत् अन्तर्मुहूर्त की आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। भंते ! उन जीवों के कितने शरीर होते हैं ? गौतम ! तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तेजस और कार्मण / (इस प्रकार द्वार-वक्तव्यता कहनी चाहिए।) यह सम्मूछिम मनुष्यों का कथन हुआ / गर्भज मनुष्यों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज / इस प्रकार मनुष्यों के भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहने चाहिए और पूरी वक्तव्यता यावत् छद्मस्थ और केवली पर्यन्त / ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं। भंते ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! पांच शरीर कहे गये हैं-प्रौदारिक यावत् कार्मण / उनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्याता भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस की है। उनके छह संहनन और छह संस्थान होते हैं। भंते ! वे जीव, क्या क्रोधकषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले या प्रकषाय हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं। भगवन् ! वे जीव क्या प्राहारसंज्ञा वाले यावत् लोभसंज्ञा वाले या नोसंज्ञा वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं। भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले या अलेश्या वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं। वे श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयोग और नोइन्द्रिय उपयोग वाले हैं। उनमें सब समुद्घात पाये जाते हैं, यथा-वेदनासमुद्धात यावत् केवलीसमुद्घात / वे संज्ञी भी हैं, नोसंज्ञी-प्रसंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले भी हैं, पुंवेद, नपुंसकवेद वाले भी हैं और प्रवेदी भी हैं / इनमें पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं / (भाषा और मन को एक मानने की अपेक्षा)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org