________________ प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज खेचरों का वर्णन [97 40. से कि तं खहयरा? खहयरा चउग्विहा पण्णत्ता, संजहा- .. .. . . . . . चम्मपक्खी तहेव मेदो, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभाग, उसकोसेणं धणपुहुत्तं / ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागो; सेसं जहा जलयराणं नवरं जाव तच्चं पुढवि गच्छति जाव से तं खयर-गम्भवक्कं तिय-चिदियतिरिक्खजोणिया, से तं तिरिक्खजोणिया। [40] खेचर क्या हैं ? खेचर चार प्रकार के हैं, जैसे कि चर्मपक्षी आदि पूर्ववत् भेद कहने चाहिए / इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व / स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग, शेष सब जलचरों की तरह कहना / विशेषता यह है कि ये जीव तीसरे नरक तक जाते हैं। यह खेचर गर्भव्युत्क्रांतिक पंचेन्द्रिय तियंचयोनिकों का कथन हुआ / इसके साथ ही तियंचयोनिकों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन [३९-४०]-इन सूत्रों में स्थलचर गर्भव्युत्क्रान्तिक और खेचर गर्भव्युत्क्रान्तिक के भेदों को बताने के लिए निर्देश किया गया है कि सम्मूछिम स्थलचर और खेचर की भांति इनके भेद समझने चाहिए। सम्मूछिम स्थलचरों में उरपरिसर्प के भेदों में प्रासालिका का वर्णन किया गया है, वह यहाँ नहीं कहना चाहिए। क्योंकि प्रासालिका सम्मूछिम ही होती है, गर्भव्युत्क्रान्तिक नहीं। दूसरा अन्तर यह है कि महोरग के सूत्र में 'जोयणसयंपि जोयणसयपुहुत्तिया वि जोयणसहस्संपि इतना पाठ अधिक कहना चाहिए / तात्पर्य यह है कि सम्मूछिम महोरग की अवगाहना उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व की है जब कि गर्भज महोरग की अवगाहना सो योजनपृथक्त्व एवं हजार योजन की भी है। शरीरादि द्वारों में भी सर्वत्र गर्भज जलचरों की तरह वक्तव्यता है, केवल अवगाहगा, स्थिति और उद्वर्तना द्वारों में अन्तर है। चतुष्पदों की उत्कृष्ट अवगाहना छह कोस की है, उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, चौथे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की उद्वर्तना है अर्थात् इस बीच सभी जीवस्थानों में ये मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं / उरपरिसॉं की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन है। उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्वर्तना पांचवें नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की है अर्थात् इस बीच के सभी जीवस्थानों में ये मरकर उत्पन्न हो सकते हैं। भुजपरिसों की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व अर्थात् दो कोस से लेकर नौ कोस तक की है। उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्वर्तना दूसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक है अर्थात् इस बीच के सब जीवस्थानों में ये उत्पन्न हो सकते हैं। खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भेद सम्मूछिम खेचरों की तरह ही हैं / शरीरादि द्वार गर्भज जलचरों की तरह हैं, केवल अवगाहना, स्थिति और उद्वर्तना में भेद है। खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org