________________ 96] [जीवाजीवाभिगमसूत्र से कि तं भुयगपरिसप्पा ? भेदो तहेव / चत्तारि सरीरगा, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइमागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं / ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुष्वकोडी। सेसेसु ठाणेसु जहा उरपरिसप्पा, गवरं दोच्चं पुडविं गच्छंति। से तं भयपरिसप्पा, से तं थलयरा। [39.] (गर्भज) स्थलचर क्या हैं ? (गर्भज) स्थलचर दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पद और परिसर्प / चतुष्पद क्या हैं ? चतुष्पद चार तरह के हैं, यथा ___एक खुर वाले आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार कहने चाहिए / यावत् ये स्थलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं--पर्याप्त और अपर्याप्त। इन जीवों के चार शरीर होते हैं। अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से छह कोस की है। इनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। ये मरकर चौथे नरक तक जाते हैं, शेष सब वक्तव्यता जलचरों की तरह जानना यावत् ये चारों गतियों में जाने वाले और चारों गतियों से आने वाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह चतुष्पदों का वर्णन हुआ। परिसर्प क्या हैं ? परिसर्प दो प्रकार के हैं-उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प / उरपरिसर्प क्या हैं ? उरपरिसर्प के पूर्ववत् भेद जानने चाहिए किन्तु प्रासालिक नहीं कहना चाहिए। इन उरपरिसों की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन है। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि है / ये मरकर यदि नरक में जाते हैं तो पांचवें नरक तक जाते हैं, सब तिर्यंचों और सब मनुष्यों में भी जाते हैं और सहस्रार देवलोक तक भी जाते हैं / शेष सब वर्णन जलचरों की तरह जानना / यावत् ये चार गति वाले, चार प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह उरपरिसॉं का कथन हुआ / भुजपरिसर्प क्या हैं ? भुजपरिसॉं के भेद पूर्ववत् कहने चाहिए। चार शरीर, अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से दो कोस से नौ कौस तक, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि / शेष स्थानों में उरपरिसों की तरह कहना चाहिए / यावत् ये दूसरे नरक तक जाते हैं / यह भुजपरिसर्प का कथन हुआ / इसके साथ ही स्थलचरों का भी कथन पूरा हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org