________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्थलचरों का वर्णन] [91 खेचर-खेचर के 4 प्रकार हैं-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी / प्रज्ञापना में इनके भेद इस प्रकार कहे हैं--- चर्मपक्षी अनेक प्रकार के हैं-वग्गुली (चिमगादड़), जलौका, अडिल्ल, भारंडपक्षी जीवंजीव, समुद्रवायस, कर्ण त्रिक और पक्षीविडाली आदि / जिनके पंख चर्ममय हों वे चर्मपक्षो हैं। रोमपक्षी-जिनके पंख रोममय हों वे रोमपक्षी हैं। इनके भेद प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार कहे हैं-- ढंक, कंक, कुरल, वायस, चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस (लाल चोंच एवं पंख वाले हंस) पादहंस, पाड, सेडी, वक, बलाका (बकपंक्ति), पारिप्लव, क्रौंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर, शतवत्स (सप्तहस्त), गहर, पौण्डरोक, काक, कामंजुक, बंजुलक, तीतर, वर्तक (बतक),लावक, कपोत, कपिजल, पारावत, चिटक, चास, कुक्कुट, शुक, वर्हि (मोरविशेष) मदनशलाका (मैना), कोकिल, सेह और वरिल्लक आदि / ___ समुद्गकपक्षी-उड़ते हुए भी जिनके पंख पेटी की तरह स्थित रहते हैं वे समुद्गकपक्षी हैं / ये एक ही प्रकार के हैं / ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते। बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते हैं / विततपक्षी-जिनके पंख सदा फैले हुए होते हैं वे विततपक्षी हैं। ये एक ही प्रकार के हैं। ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते, बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते हैं। ये खेचर संमूछिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् / शरीर अवगाहना आदि द्वारों की विचारणा जलचरों की तरह करनी चाहिए। जो अन्तर है वह अवगाहना और स्थितिद्वारों में है। इनकी उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है और स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की है / ये जीव चार गति वाले, दो प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यहाँ स्थिति और अवगाहना को बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ भी किन्हीं प्रतियों में हैं। वे इस प्रकार हैं जोयणसहस्स गाउयपुहुत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं / दोण्हं पि धणपुहत्तं समुच्छिम वियगपक्खीणं // 1 // संमुच्छ पुग्धकोडी चउरासीई भवे सहस्साई। तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं // 2 // इनका अर्थ इस प्रकार है-सम्मूछिम जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन को है, चतुष्पदों की गव्यूति (कोस) पृथक्त्व है, उरपरिसॉं की योजनपृथक्त्व को है / सम्मूछिम भुजगपरिसर्प और पक्षियों की धनुषपृथक्त्व की है / सम्मूछिम जलचरों को उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटी है। चतुष्पदों को चौरासी हजार वर्ष की है, उरपरिसपो की तिरपन हजार वर्ष को है, भुजपरिसॉं को बयालीस हजार वर्ष की है, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष की है। यह सम्मूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org