________________ 90] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वाला होता है तब इन पूर्वोक्त स्थानों में आसालिक संमूछिम रूप से उत्पन्न होता है। यह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना (उत्पत्ति के समय) और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना और उसके अनुरूप ही लम्बाई-चौड़ाई वाला होता है। यह पूर्वोक्त स्कंधावार प्रादि की भूमि को फाड़ कर बाहर निकलता है / यह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अन्तर्मुहुर्त की आयु भोग कर मर जाता है / यह प्रासालिक गर्भज नहीं होता, यह संमूछिम ही होता है। यह मनुष्यक्षेत्र से बाहर नहीं होता / यह प्रासालिक का वर्णन हुआ / महोरग---प्रज्ञापनासूत्र में महोरग का वर्णन इस प्रकार है महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कोई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कोई अंगुलपृथक्त्व के, कई वितस्ति (बेंत बारह अंगुल) के होते हैं, कई वितस्तिपृथक्त्व के होते हैं, कई एक रत्नि (हाथ) के होते हैं, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के होते हैं, कई कुक्षि (दो हाथ) प्रमाण होते हैं, कई कुक्षिपृथक्त्व के होते हैं, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण होते हैं, कई धनुषपृथक्त्व के होते हैं, कई गव्यूति (कोस या दो हजार धनुष) प्रमाण होते हैं, कई गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण के होते हैं, कई योजन (चार कोस) के होते हैं, कई योजनपृथक्त्व के होते हैं। (कोई सौ योजन के, कोई दो सौ से नौ सौ योजन के होते हैं और कई हजार योजन के भी होते हैं / )* ये स्थल में उत्पन्न होते हैं परन्तु जल में भी स्थल की तरह चलते हैं और स्थल में भी चलते हैं / वे यहाँ नहीं होते, मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं / समुद्रों में भी पर्वत, देवनगरी प्रादि स्थलों में उत्पन्न होते हैं. जल में नहीं। इस प्रकार के अन्य भी दस अंगल आदि की वाले महोरग होते हैं। यह अवगाहना उत्सेधांगुल के मान से है। शरीर का माप उत्सेधांगुल से ही होता है। इस प्रकार अहि, अजगर आदि उरःपरिसर्प स्थलचर समूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अयर्याप्त इत्यादि कथन तथा 23 द्वारों की विचारणा जलचरों की भांति जानना चाहिए / अवगाहना और स्थिति द्वार में अन्तर है। इनकी अवगाहना जधन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से योजनपृथक्त्व होती है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तिरेपन हजार वर्ष की होती है। शेष पूर्ववत् यावत् ये चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात होते हैं / भुजगपरिसर्प-प्रज्ञापनासूत्र में भुजगपरिसर्प के भेद इस प्रकार बताये गये हैं--गोह, नकुल, सरट (गिरगिट), शल्य, सरंठ, सार, खार, गृहकोकिला (घरोली-छिपकली), विषम्भरा (वसुंभरा), मूषक, मंगूस (गिलहरी), पयोलातिक, क्षीरविडालिका आदि अन्य इसी प्रकार के भुजपरिसर्प तिर्यंच / यह भुजपरिसर्प संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / शेष वर्णन पूर्ववत् समझना। तेवीस द्वारों की विचारणा में जलचरों की तरह कथन करना चाहिए, केवल अवगाहनाद्वार और स्थितिद्वार में अन्तर जानना चाहिए। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगूल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बयालीस हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् यावत् ये जीव चार गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। . * कोष्ठक में दिया हुमा अंश गर्भज महोरग की अपेक्षा समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org