Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 66] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मारने से मरते नहीं आदि कथन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए / तेवीस द्वारों की विचारणा में सब कथन सूक्ष्म पृथ्वीकाय की तरह समझना चाहिए। विशेषता यह कि सूक्ष्म तेजस्कायिकों का शरीर-संस्थान सइयों के समूदाय के समान है। च्यवनद्वार में ये सूक्ष्म तेजस्कायिक वहाँ से निकल कर तिर्यंचगति में ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्यगति में उत्पन्न नहीं होते / आगम में कहा गया है कि 'सप्तम पृथ्वी के नैरयिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा असंख्यात वर्षों की आयु वाले अनन्तर मर कर मनुष्य गति में नहीं जाते।' गति-प्रागति द्वार में तेजस्कायिक तियंचगति में ही जाते हैं और तियंचगति, मनुष्यगति से आकर उनमें उत्पन्न होते हैं / इसलिए ये एक गति वाले और दो प्रागति वाले हैं। बादर तेजस्कायिक-बादर तेजस्कायिक जीव वे हैं जो बादरनामकर्म के उदय वाले हैं / उनके अनेक प्रकार हैं, जैसे-इंगाल, ज्वाला, मुमु र यावत् सूर्यकांतमणि निश्रित / यावत् शब्द से अचि, अलात, शुद्धाग्नि, उल्का, विद्युत्, अशनि, निर्घात, संघर्षसमुत्थित का ग्रहण करना चाहिए / इंगाल का अर्थ है-धूम से रहित जाज्वल्यमान खैर आदि की अग्नि / ज्वाला का अर्थ है-अग्नि से संबद्ध लपटें या दीपशिखा / मुर्मुर का अर्थ है--भस्ममिश्रित अग्निकण-भोभर / अचि का अर्थ है-मूल अग्नि से असंबद्ध ज्वाला / अलात का अर्थ है--किसी काष्ठखण्ड में अग्नि लगाकर उसे चारों तरफ फिराने पर जो गोल चक्कर-सा प्रतीत होता है, वह उल्मुल्क या अलात है। शुद्धाग्नि--लोहपिण्ड आदि में प्रविष्ट अग्नि, शुद्धाग्नि है / उल्का-एक दिशा से दूसरी तरफ जाती हुई तेजोमाला, चिनगारी / विद्युत्-आकाश में चमकने वाली बिजली / अशनि-आकाश से गिरते हुए अग्निमय कण / निर्धात–वैक्रिय सम्बन्धित वज्रपात या विद्युत्पात / संघर्ष-समुस्थित–अरणि काष्ठ की रगड़ से या अन्य रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि / सूर्यकान्तमणि-निसृत--प्रखर सूर्य किरणों के स्पर्श से सूर्यकांतमणि से निकली हुई अग्नि / और भी इसी प्रकार की अग्नियां बादर तेजस्कायिक हैं। ये बादर तेजस्कायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / अपर्याप्त जीवों के वर्णादि स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होते हैं। पर्याप्त जीवों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार और संख्यात योनियां हो जाती हैं। इनकी सात लाख योनियां हैं / एक पर्याप्त की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं। शरीर आदि 23 द्वारों की विचारणा सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए / विशेषता यह है कि इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन रात-दिन की है / आहार बादर पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए। 1. सत्तमी महिनेरइया तेऊ वाऊ प्रणतरुव्वद्रा। नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सब्वे / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org