________________ प्रथम प्रतिपत्ति: द्वीन्द्रिय-वर्णन] हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं, यथा-~ोदारिक, तेजस और कार्मण / हे भगवन ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अंगूल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से बारह योजन की अवगाहना है / उन जीवों के सेवार्तसंहनन और हुंडसंस्थान होता है। उनके चार कषाय, चार संज्ञाएं, तीन लेश्याएँ और दो इन्द्रियाँ होती हैं। उनके तीन समुद्घात होते हैं---वेदना, कषाय और मारणांतिक / ये जीव संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी हैं। नपुंसकवेद वाले हैं। इनके पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं / ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन सम्यगमिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) नहीं होते हैं। ये अवधिदर्शन वाले नहीं होते हैं, चक्षुदर्शन वाले नहीं होते हैं, अचक्षुदर्शन वाले होते हैं, केवलदर्शन वाले नहीं होते / हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से दो ज्ञान वाले हैं-मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी / जो अज्ञानी हैं वे नियम से दो अज्ञान वाले हैं-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी / ये जीव मनोयोग वाले नहीं हैं, वचनयोग और काययोग वाले हैं। ये जीव साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं / इन जीवों का आहार नियम से छह दिशाओं के पुद्गलों का है। इनका उपपात (अन्य जन्म से आकर उत्पत्ति) नरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवालों को छोड़कर शेष तिर्यंच और मनुष्यों से होता है / इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बारह वर्ष की है। ये मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं / हे भगवन् ! ये मरकर कहां जाते हैं ? गौतम ! नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले तियंचों मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों में जाते हैं / अतएव ये जीव दो गति में जाते हैं, दो गति से आते हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। यह द्वीन्द्रिय जीवों का वर्णन हुआ। विवेचन---द्वीन्द्रिय जीवों के प्रकार बताते हुए सूत्रकार ने पुलाकृमि यावत् समुद्रलिक्षा कहा है / यावत् शब्द से यहाँ वे सब जीव-प्रकार ग्रहण करने चाहिए जो प्रज्ञापनासूत्र के द्वीन्द्रियाधिकार में बताये गये हैं। परिपूर्ण प्रकार इस प्रकार हैंपुलाकृमि-मल द्वार में पैदा होने वाले कृमि / / कुक्षिकृमि-कुक्षि (उदर) में उत्पन्न होने वाले कृमि / गण्डोयलक-गिंडोला / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org