Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति : औदारिक प्रसों का वर्णन] उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं / इनकी सात लाख योनियाँ हैं / एक पर्याप्त वायुकाय जीव की निश्रा में नियम से असंख्यात अपर्याप्त वायकाय के जीव उत्पन्न होते हैं। शरीर आदि 23 द्वारों की विचारणा में इन बादर वायुकायिक जीवों के चार शरीर होते हैं-औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण / समुद्धात चार होते हैं वैक्रियसमुद्धात, वेदनासमुद्घात, कषायसमदघात और मारणांतिकसमुदघात / स्थितिद्वार में जघन्य से अन्तर्महर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की स्थिति जाननी चाहिए / आहार निर्व्याघात हो तो छहों दिशा के पुद्गलों का होता है और व्याघात की स्थिति में कभी तीन, कभी चार और कभी पाँच दिशाओं के पुद्गलों का होता है / लोकनिष्कृट (लोक के किनारे) में भी बादर वायुकाय की संभावना है, अतएव व्याघात की स्थिति बन सकती है / शेष द्वार सूक्ष्म वायुकाय की तरह जानने चाहिए। उपसंहार करते हुए कहा गया है कि हे आष्युमन श्रमण ! ये जीव एक तिर्यंचगति में ही जाने वाले और तिर्यंच, मनुष्य इन दो गतियों से पाने वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यातलोकाकाश के प्रदेश प्रमाण हैं / यह वायुकाय का कथन पूरा हुआ। औदारिक त्रसों का वर्णन 27. से कि तं पोराला तसा पाणा ? ओराला तसा पाणा चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-- बेइंदिया, तेइंदिया, चरिंदिया, पंचेंदिया। [27] औदारिक त्रस प्राणी किसे कहते हैं ? औदारिक त्रस प्राणी चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / विवेचन--'औदारिक त्रस' पद में दिया गया औदारिक' पद गतित्रस का व्यवच्छेदक है। तेजस्काय और वायुकाय रूप गतित्रस से भिन्नता बताने के लिए 'अोरा ला तसा' कहा गया है / औदारिक का अर्थ है--स्थूल, प्रधान / मुख्यतया द्वीन्द्रियादि जीव ही त्रस रूप से विवक्षित हैं, अतएव ये औदारिक त्रस कहलाते हैं / ये चार प्रकार के हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय / द्वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन और रसना रूप दो इन्द्रियाँ हों, वे द्वीन्द्रिय हैं। त्रीन्द्रिय--जिन जीवों के स्पर्शन, रसना और घ्राण रूप तीन इन्द्रियाँ हों, वे श्रीन्द्रिय हैं। चतुरिन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु रूप चार इन्द्रियाँ हों, वे चतुरिन्द्रिय हैं। पंचेन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप पाँच इन्द्रियाँ हों, वे पंचेन्द्रिय जीव हैं। पूर्व में कहा जा चुका है कि इन्द्रियों का यह विभाग द्रव्येन्द्रियों को लेकर है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा से नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org