________________ [जीवाजीवामिगमसूत्र इसमें से जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से पांच सौ धनुष / जो उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना है वह जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है। भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संहनन कैसा है ? गौतम ! छह प्रकार के संहननों में से एक भी संहनन उनके नहीं है क्योंकि उनके शरीर में व तो हड्डी है, न नाडी है, न स्नायु है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं, वे उनके शरीररूप में इकट्ठे हो जाते हैं। भगवन ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौनसा है ? गौतम ! उनके शरीर दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / जो भवधारणीय शरीर हैं वे हुंड संस्थान के हैं और जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं वे भी हुंड संस्थान वाले हैं। उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, पांच इन्द्रियां, प्रारम्भ के चार समुद्घात होते हैं / वे जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं / वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं / वे तीन दृष्टि वाले और तीन दर्शन वाले हैं / वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं / जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं–भतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी / जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञान वाले और कोई तीन प्रज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। उनमें तीन योग, दो उपयोग एवं छह दिशाओं का आहार ग्रहण पाया जाता है / प्रायः करके वे वर्ण से काले प्रादि पुद्गलों का प्राहार ग्रहण करते हैं / तियंच और मनुष्यों से पाकर वे नरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे दोनों प्रकार से (समवहत और असमवहत) मरते हैं / वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैंसंमूछिमों में वे नहीं जाते, अतः हे आयुष्मन् श्रमण ! वे दो गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येक शरीरी और असंख्यात कहे गये हैं / यह नैरयिकों का कथन हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के प्रकार बताकर तेवीस द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। नरयिक जीव सात प्रकार के हैं-१. रत्नप्रभापृथ्वी-नरयिक, 2. शर्कराप्रभापृथ्वीनैरयिक, 3. वालुकाप्रभा-नैरयिक, 4. पंकप्रभापृथ्वी-नैरयिक, 5. धूमप्रभापृथ्वी-नैरयिक 6. तमःप्रभापृथ्वी-नैरयिक और 7. अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक / ये नैरयिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त / इनके शरीरादि द्वारों की विचारणा इस प्रकार है शरीरद्वार-नरयिकजीवों में औदारिकशरीर नहीं होता। भवस्वभाव से ही उनका शरीर वैकिय होता है / अत: वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये तीन शरीर उनमें पाये जाते हैं। __ अवगाहना उनकी अवगाहना दो प्रकार की है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी। जो जन्म से होती है वह भवधारणीय है और जो भवान्तर के वैरी नारक के प्रतिघात के लिए बाद में विचित्र रूप में बनाई जाती है वह उत्तरवैक्रियिकी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org