________________ [79 प्रथम प्रतिपत्ति : नरयिक-वर्णन] नारकियों की भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है जो जन्मकाल में होती है। उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा से है। इनकी उत्तरवैक्रियिकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से है। अलग-अलग नैरयिकों की भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी उत्कृष्ट अवगाहना इस कोष्टक से जाननी चाहिएपृथ्वी का नाम भवधारणीय अवगाहना उत्तरवैक्रियिकी अव. (1) रत्नप्रभा..." 7 / / / धनुष 6 अंगुल 15 // धनुष 12 अंगुल (2) शर्कराप्रभा........ 15 // धनुष 12 अंगुल ३१धनुष (3) बालुकाप्रभा ........ 31 / धनुष 62 / / धनुष (4) पंकप्रभा'..... 62 / / धनुष 125 धनुष (5) धूमप्रभा...... 125 धनुष 250 धनुष (6) तमःप्रभा....... 250 धनुष 500 धनुष (7) अधःसप्तमपृथ्वी 500 धनुष 1000 धनुष संहननद्वार-नारक जीवों के शरीर संहनन वाले नहीं होते। छह प्रकार के सहननों में से कोई भी संहनन उनके नहीं होता, क्योंकि उनके शरीरों में न तो शिराएँ (धमनी नाड़ियाँ) होती हैं और न स्नायु (छोटी नाड़ियाँ), उनके शरीर में हड्डियां नहीं होती। संहनन की परिभाषा हैअस्थियों का निचय होना / जब नैरयिकों के शरीर में अस्थियां हैं ही नहीं तो संहनन का सवाल ही नहीं उठता। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि पहले एकेन्द्रिय जीवों में सेवार्त संहनन बताया गया है, किन्तु उनके भी अस्थियां नहीं होती हैं ? इसका समाधान यह है कि एकेन्द्रियों के औदारिक शरीर होता है और उस शरीर के सम्बन्ध मात्र की अपेक्षा से औपचारिक सेवार्तसंहनन कहा है / वास्तव में तो अस्थिनिचयात्मक ही संहनन है। प्रज्ञापना आदि में देवों को वनसंहनन वाले कहा गया है सो वह भी गौणरूप से और उपचारमात्र से कहा गया है। देवों में पर्वतादि को उखाड़ने की शक्ति है, उन्हें इस कार्य में जरा भी शारीरिक श्रम या थकावट नहीं होती, इस दृष्टि से उन्हें वज्रसंहननी कहा गया है / वस्तु-दृष्टि से तो वे असंहननी ही है। कोई यह शंका कर सकता है कि 'शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार देवों में मुख्य रूप से संहनन मानना घटित हो सकता है। यह शंका सिद्धान्तबाधित है, क्योंकि इसी सूत्र में संहनन की परिभाषा 'अस्थिनिचयात्म' की गई है और स्पष्ट कहा गया है कि अस्थियों के अभाव में नरयिकों में छह संहननों में से कोई संहनन नहीं होता। पुनः शंका हो सकती है कि, यदि नारकियों के संहनन नहीं हैं तो उनके शरीरों का बन्ध कैसे घटित होगा? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि- तथाविध पुद्गलस्कन्धों की तरह उनके शरीर का बन्ध हो जाता है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं वे उन नैरयिकों के शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org