________________ 84] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्पन्न होते हैं। यदि वे देवों में उत्पन्न हों तो वानव्यन्तर देवों तक उत्पन्न होते हैं (प्रागे के देवों में नहीं)। .. ये जीव चार गति में जाने वाले, दो गतियों से आने वाले, प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात कहे गये हैं। यह जलचर संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का वर्णन हुआ। विवेचन-(सूत्र 33 से 35 तक) प्रस्तुत सूत्रों में संमूच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के पांच भेद-मत्स्य, कच्छप, मकर, ग्राह और सुंसुमार तो बताये हैं परन्तु मत्स्य आदि के प्रकारों के लिए प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया है / प्रज्ञापनासूत्र में वे प्रकार इस तरह बताये गये हैं मत्स्यों के प्रकार-श्लक्ष्ण मत्स्य, खवल्ल मत्स्य, युग मत्स्य, भिब्भिय मत्स्य, हेलिय मच्छ, मंजरिया मच्छ, रोहित मच्छ, हलीसागर, मोगरावड, वडगर तिमिमच्छ, तिमिंगला मच्छ, तंदुल मच्छ, काणिक्क मच्छ, सिलेच्छिया मच्छ, लंभण मच्छ, पताका मत्स्य पताकातिपताका मत्स्य, नक्र मत्स्य, और भी इसी तरह के मत्स्य / कच्छयों के प्रकार-कच्छपों के दो प्रकार हैं-अस्थिकच्छप और मंसलकच्छप / ग्राह के पांच प्रकार-दिली, वेढग, मुदुग, पुलग और सीमागार / मगर के दो भेद-सोंड मगर और मृट्ट मगर / सुसुमार-एक ही प्रकार के हैं / ये मत्स्यादि सब जलचर संमूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से दो प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। शरीरादि 23 द्वारों की विचारणा चतुरिन्द्रिय की तरह जानना चाहिए / जो विशेषता है वह इस प्रकार है अवगाहनाद्वार में इनकी जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यात भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन है। इन्द्रियद्वार में इनके पांच इन्द्रियां कहनी चाहिए / संजीद्वार में ये असंज्ञी ही हैं, संज्ञी नहीं-संमूछिम होने से ये समनस्क (संज्ञी) नहीं होते। उपपातद्वार में ये असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। स्थितिद्वार में जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की स्थिति है। उद्वर्तनाद्वार में ये चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं / नरक में उत्पन्न हों तो पहली रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, इससे आगे की नरकों में नहीं / सब प्रकार के तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों में कर्मभूमि के मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / देवों में भवनपति और वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org