________________ 80] जीवाज़ीवाभिगमसूत्र वृत्तिकार ने अनिष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार दिया हैअनिष्ट-जिसकी इच्छा ही न की जाय, प्रकान्त अकमनीय, जो सुहावने न हों, अत्यन्त अशुभ वर्णादि वाले, अप्रिय--जो दिखते ही अरुचि उत्पन्न करें, अशुभ-खराब वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले, अमनोज्ञ-जो मन में प्राह्लाद उत्पन्न नहीं करते क्योंकि विपाक दुःखजनक होता है, अमनाम-जिनके प्रति रुचि उत्पन्न न हो। संस्थानद्वार-नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय-दोनों प्रकार के शरीर हुण्डसंस्थान वाले हैं। तथाविध भवस्वभाव से नारकों के शरीर जड़मूल से उखाड़े गये पंख और ग्रीवा आदि अवयव वाले रोम-पक्षी की तरह अत्यन्त वीभत्स होते हैं। उत्तरविक्रिया करते हुए नारक चाहते हैं कि वे शुभ-शरीर बनायें किन्तु तथाविध अत्यन्त अशुभ नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभ शरीर ही बना पाते हैं अतः वह भी हुण्डसंस्थान वाला ही होता है / कषायद्वार–नारकों में चारों ही कषाय होते हैं। संज्ञाद्वार-नारकों में चारों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं। लेण्याद्वार-नारकों में शुरू की तीन अशुभ लेश्याएं कृष्ण, नील और कापोत पाई जाती हैं। पहली और दूसरी नरक-भूमि में कापोतलेश्या, तीसरी नरक के कुछ नरकावासों में कापोतलेश्या और शेष में नीललेश्या; चौथी नरक में नीललेश्या, पांचवीं के कुछ नरकावासों में नीललेश्या और शेष में कृष्णलेश्या; छठी में कृष्णलेश्या और सातवीं नरक में परम कृष्णलेश्या पाई जाती है / भगवतीसूत्र में कहा है-'पादि के दो नरकों में कापोतलेश्या, तीसरी में मिश्र (कापोतनील), चौथी में नील, पांचवीं में मिश्र (नील-कृष्ण), छठी में कृष्ण और सातवीं में परम कृष्णलेश्या होती है।" इन्द्रियद्वार-रयिकों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्ष, श्रोत्र ये पांच इन्द्रियां होती हैं। समुद्घातद्वार-इनके चार समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय, वैकिय और मारणान्तिक / संज्ञीद्वार-ये नारकी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं। जो गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) मर कर नारकी होते हैं वे संज्ञी कहे जाते हैं और जो संमूछिमों से आकर उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं / ये रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, आगे के नरकों में नहीं / क्योंकि अविचारपूर्वक जो अशुभ क्रिया की जाती है उसका इतना ही फल होता है। कहा है कि असंज्ञी जीव पहली नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग (सर्पादि) पांचवीं नरक तक, स्त्री छठी नरक तक और मनुष्य एवं मच्छ सातवीं नरक तक उत्पन्न होते हैं।' 1. काऊ य दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थिए / पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा // --भगवतीसूत्र 2. प्रसन्नी खलु पढमं दोच्चं व सिरीसवा तइय पक्खी। सीहा जति चउत्थि उरगा पुण पंचमि पुढवि / / छट्टि व इत्थियात्रो मच्छा भणूया य सत्तमि पुढदि। एसो परमोवानो बोद्धब्बो नरयपुढवीसु // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org