________________ 76] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रोभंजलिका, जलचारिक, गंभीर, नीनिक, तंतव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर, भरिली, जरुला, तोट्ट, बिच्छू, पत्रवृश्चिक, छाणवृश्चिक, जलवृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोमयकीट / इसी प्रकार के अन्य प्राणियों को चतुरिन्द्रिय जानना चाहिए। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त-दो भेद हैं इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए / तेवीस द्वारों की विचारणा भी त्रीन्द्रिय जीवों की तरह समझना चाहिए / जो अन्तर है वह इस प्रकार है-- अवगाहनाद्वार-इनकी अवगाहना उत्कृष्ट चार कोस को है। इन्द्रियद्वार-इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं। दर्शनद्वार-ये चक्षुदर्शन और प्रचक्षुदर्शन वाले हैं। स्थितिद्वार-इनकी उत्कृष्ट स्थिति छह मास की है। शेष सब कथन त्रीन्द्रियों की तरह जानना चाहिए यावत् ये चतुरिन्द्रिय जीव असंख्यात कहे गये हैं। पंचेन्द्रियों का कथन 31. से कि तं पंचेंदिया? पंचेंदिया चउग्विहा पण्णत्ता, तंजहा रइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा। - [31] पंचेन्द्रिय का स्वरूप क्या है ? पंचेन्द्रिय चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव / विवेचन-निकल गया है इष्टफल जिनमें से वे निरय' हैं अर्थात् नरकावास हैं। उनमें उत्पन्न होने वाले जीव नैरयिक हैं / प्राय: तिर्यक्लोक की योनियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यक्योनिक या तिर्यक्योनिज हैं। __'मनु' यह मनुष्य की संज्ञा है / मनु की सन्तान मनुष्य हैं / जो सदा सुखोपभोग करते हैं, सुख में रमण करते हैं, वे देव हैं। नरयिक-वर्णन 32. से किं तं नेरइया। नेरइया सत्तविहा पण्णता, तंजहा–रयणप्पमापुढविनेरइया जाय अहेसत्तमपुढविनेरइया। ते समासमो दुविहा पण्णत्ता, तंजहा–पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / 1. तत्र प्रयम्-इष्टफलं कर्म, निर्गतं अयं येभ्यस्तेनिरया नरकावासाः / -वृत्ति / 2. प्रायः तिर्यग्लोके योनयः उत्पत्तिस्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः / / 53. मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा। मनोरपत्यानि मनुष्याः। ... ... 4. दीव्यन्तीति देवाः / मलयवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org