Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 72] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोलोम, नुपूर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचिमुख, गोजलौका, जलौका (जोंक), जालायुष्क, ये सब लोकपरम्परानुसार जानने चाहिए। शंख-समुद्र में उत्पन्न होने वाले शंख। शंखनक समुद्र में उत्पन्न होने वाले छोटे-छोटे शंख। घुल्ला-घोंघा / खुल्ला-समुद्री शंख के आकार के छोटे शंख / वराटा--कौडियां / सौत्रिक, मौलिक, कल्लुयावास, एकावर्त, द्वि-प्रवर्त, नन्दिकावर्त, शम्बूक, मातृवाह, ये सब विविध प्रकार के शंख समझने चाहिए। सिप्पिसंपुट-सोपड़ियाँ / चन्दनक-अक्ष (पांसा) / समुद्रलिक्षा-कृमिविशेष / ये सब तथा अन्य इसी प्रकार के मृतकलेवर में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि द्वीन्द्रिय समझने चाहिए। ये द्वीन्द्रिय जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार शरीरादि 23 द्वारों की विचारणा इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं औदारिक, तैजस एवं कार्मण / अवगाहनाद्वार-इन जीवों की शरीर-अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट से बारह योजन की होती है / संहननद्वार-इन जीवों के छेदवति–सेवातं संहनन होता है। यहाँ मुख्य संहनन ग्रहण करना चाहिए, औपचारिक नहीं। क्योंकि इन जीवों के अस्थियां होती हैं। संस्थानद्वार-इन जीवों के हंडसंस्थान होता है / कषायद्वार-इनमें चारों कषाय पाये जाते हैं। संज्ञाद्वार-इनमें चारों आहारादि संज्ञाएँ होती हैं। लेण्याद्वार--इन जीवों में प्रारम्भ की कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन लेश्याएँ पायी जाती हैं। इन्द्रियद्वार-इनके स्पर्शन और रसन रूप दो इन्द्रियाँ हैं / समुद्घातद्वार-इनमें तीन समुद्घात पाये जाते हैं—वेदना, कषाय और मारणांतिक समुद्घात / संज्ञाद्वार--ये जीव संज्ञी नहीं होते / असंज्ञी होते हैं / वेदद्वार-ये जीव नपुंसकवेद वाले होते हैं। ये सम्मूछिम होते हैं और जो संमूछिम होते हैं वे नपुंसक ही होते हैं / तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-नारक और संमूछिम नपुंसकवेदी होते हैं।' पर्याप्तिद्वार-इन जीवों के पांच पर्याप्तियाँ पर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं और पांच अपर्याप्तियाँ अपर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं / दृष्टिद्वार-ये जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन मिश्रदृष्टि वाले नहीं होते। इसकी स्पष्टता इस प्रकार है१. नारकसमूच्छिनो नपुंसकानि / --तत्त्वार्थ सू. प्र. 2 सू. 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org