________________ प्रथम प्रतिपत्ति: हीन्द्रिय का वर्णन] [73 जिस प्रकार घण्टा को बजाये जाने पर महान् शब्द होता है और वह शब्द क्रमशः होयमान, , होता हुआ लटकन तक ही रह जाता है, इसी तरह सम्यक्त्व से गिरता हुमा जीव क्रमश: गिरतागिरता सास्वादन सम्यक्त्व की स्थिति में आ जाता है और ऐसे सास्वादन सम्यक्त्व वाले कतिपय जीव मरकर द्वीन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। अतः अपर्याप्त अवस्था में थोड़े समय के लिए सास्वादन सम्यक्त्व का सम्भव होने से उनमें सम्यग्दष्टित्व पाया जाता है / शेषकाल में मिथ्यादृष्टिता है, तथा भव-स्वभाव से तथारूप परिणाम न होने से उनमें मिश्रदृष्टिता नहीं पाई जाती तथा कोई मिश्रदृष्टि वाला उनमें उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि 'मिश्रदृष्टि वाला जीव उस स्थिति में नहीं मरता' यह प्रागम वाक्य है।' दर्शनद्वार–इनमें अचक्षुदर्शन ही पाया जाता है, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन नहीं। ज्ञानद्वार--ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा ज्ञानी हैं। ये ज्ञानी मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी है। मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा अज्ञानी है। ये अज्ञानी मतिअज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं। योगद्वार-ये मनोयोगी नहीं हैं। वचनयोगी और काययोगी हैं। उपयोगद्वार--ये जीव साकार-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं। आहारद्वार-नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार ये जीव करते हैं। द्वीन्द्रियादि जीव त्रसनाडी में ही होते हैं अतएव व्याघात का प्रश्न नहीं उठता। उपपात-ये जीव देव, नारक और असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच-मनुष्यगति से आकर पैदा होते हैं। स्थिति-उन जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की है / समवहतद्वार-ये समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। च्यवनद्वार-ये जीव मरकर देव, नारक और असंख्यात वर्षों की प्रायुवाले तिर्यचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच मनुष्य में उत्पन्न होते हैं / गति-आगतिद्वार-ये जीव पूर्ववत् दो गति में जाते हैं और दो गति से आते हैं। ये जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। घनीकृत लोक के ऊपर-नीचे तक दीर्घ एक प्रदेश वाली श्रेणी में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ये द्वीन्द्रियजीव हैं। असंख्यात का यह प्रमाण बताया गया है / क्योंकि प्रसंख्यात भी असंख्यात प्रकार का है। ___ इन द्वीन्द्रिय-पर्याप्त अपर्याप्त की सात लाख जाति कुलकोडी, योनिप्रमुख होते हैं। पूर्वाचार्यों के अनुसार जातिपद से तियंचगति समझनी चाहिए। उसके कुल हैं-कृमि, कीट, वृश्चिक आदि। ये कुल योनि-प्रमुख होते हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं / जैसे एक ही गोबर या कण्डे , की योनि में कृमिकृत, कीट और वृश्चिककुल आदि होते हैं / इसी प्रकार एक ही योनि में 1. 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org