Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 68] [जीवाजीवाभिगमसूत्र समुद्घात और वैक्रियसमुद्घात / उनका प्राहार व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है और व्याघात होने पर कभी तीन दिशा, कभी चार दिशा और कभी पांच दिशों के पुद्गलों के ग्रहण का होता है / वे जीव देवगति, मनुष्यगति और नरकगति में उत्पन्न नहीं होते। उनकी स्थिति जघन्य से अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् / हे आयुष्मन् श्रमण ! एक गति वाले, दो प्रागति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। यह बादर वायुकाय और वायुकाय का कथन हुआ। विवेचन-वायु ही जिनका शरीर है वे जीव वायुकायिक कहे जाते हैं / ये दो प्रकार के हैंसूक्ष्म और बादर / सूक्ष्म वायुकायिकों का वर्णन पूर्वोक्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए / अन्तर यह है कि वायुकायिकों के शरीर का संस्थान पताका (ध्वजा) के आकार का है। बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहे गये प्रकारों का यहाँ उल्लेख करना चाहिए / वहाँ इनके प्रकार इस तरह बताये गये हैं पूर्वीवात-पूर्व दिशा से आने वाली हवा / पश्चिमीवात-पश्चिम दिशा से आने वाली हवा / दक्षिणवात-दक्षिण दिशा से आने वाली हवा / उदीचीनवात-उत्तर दिशा से आने वाली हवा। ऊर्ध्ववात-ऊर्ध्व दिशा में बहने वाली हवा / अधोवात-नीची दिशा में बहने वाली हवा / तिर्यग्वात-तिरछी दिशा में बहने वाली हवा / विदिशावात--विदिशाओं से आने वाली हवा / वातोभ्रम-अनियत दिशाओं में बहने वाली हवा / वातोत्कलिका---समुद्र के समान तेज बहने वाली तूफानी हवा / वातमंडलिका-वातोली, चक्करदार हवा / उत्कालिकावात-तेज प्रांधियों से मिश्रित हवा / मण्डलिकावात--चक्करदार हवाओं से प्रारंभ होकर तेज प्रांधियों से मिश्रित हवा / गुंजावात-सनसनाती हुई हवा। झंझावात-वर्षा के साथ चलने वाला अंधड़ अथवा अशुभ एवं कठोर हवा / संवर्तकवात-तिनके आदि उड़ा ले जाने वाली हवा अथवा प्रलयकाल में चलने वाली हवा / धनवात-रत्नप्रभापृथ्वी आदि के नीचे रही हुई सघन-ठोस वायु / तनुवात-घनवात के नीचे रही हुई पतली वायु। शुद्धवात-मन्दवायु अथवा मशकादि में भरी हुई वायु / इसके अतिरिक्त भी अन्य इसी प्रकार की हवाएँ बादर वायुकाय हैं। ये बादर वायुकायिक जीव दो प्रकार के है—पर्याप्त और अपर्याप्त / अपर्याप्त जीवों के शरीर के वर्णादि पूरी तरह संप्रकट नहीं होते हैं, अतएव विशिष्ट वर्णादि की अपेक्षा उनके भेद नहीं किये गये हैं। जो पर्याप्त जीव हैं उनके वर्णादि संप्रकट होते हैं, अतएव विशिष्ट वर्णादि की अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org