Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 50] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जब वह जीव ऊपर के द्वितीयादि प्रतरगत पश्चिम दिशा में होता है तब उसके अधोदिशा भी अधिक हो जाती है। केवल एकपर्यन्तवर्तिनी दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याहत रहती है / ऐसी स्थिति में वह जीव पूर्वोक्त चार और अधोदिशा मिलाकर पांच दिशाओं में स्थित पुद्गलों को ग्रहण करता है। ___आहारद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्राय:बहुलता से पांचों वर्गों के, दोनों गंधवाले, पांचों रसवाले और पाठों स्पर्शवाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और उनके पूर्ववर्ती वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुणों को परिवर्तित कर अपूर्व वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुणों को पैदा कर अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को प्रात्मप्रदेशों से प्राहार के रूप में ग्रहण करते हैं। 19. उपपातद्वार-जहाँ से पाकर उत्पत्ति होती है वह उपपात है / ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, देवों से आकर भी उत्पन्न नहीं होते / ऐसा ही भवस्वभाव है कि देव और नारक सूक्ष्म पृथ्वीकाय के रूप में उत्पन्न नहीं होते। ये जीव असंख्यात वर्षों की आयुवाले तियंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपयप्ति तिर्यंचों से प्राकर उत्पन्न होते हैं / असंख्यात वर्षायु तियंच इनमें उत्पन्न नहीं होते / प्रकर्मभूमि के, अन्तरद्वीपों के और प्रसंख्यात वर्ष की प्रायुवाले कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यों से आकर उत्पन्न हो सकते हैं। . 20. स्थितिद्वार-स्थिति से मतलब उसी जन्म की आयु से है / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक भी अन्तर्मुहूर्त ही है / लेकिन जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक समझना चाहिए / 21. समवहत-असमवहत द्वार-मारणान्तिकसमुद्घात करके जो मरण होता है, वह समवहत है मौर मारणान्तिकसमुद्घात किये बिना जो मरण होता है, वह असमवहत है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दोनों प्रकार का मरण है। 22. च्यवनद्वार-वर्तमान भव पूरा होने पर उस भव का अन्त होना च्यवन है / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मर कर न तो नारकों में उत्पन्न होते हैं और न देवों में उत्पन्न होते हैं / वे तिर्यचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो असंख्यात वर्षों की आयु वाले भोगभूमि के तियंचों को छोड़ कर शेष एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त सब तिर्यंचों में उत्पन्न हो सकते हैं / यदि वे मनुष्यों में उत्पन्न हों तो अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले मनुष्यों को छोड़ कर शेष पर्याप्त या अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / इस कथन द्वारा यह भी सिद्ध किया गया है कि आत्मा सर्वव्यापक नहीं है और वह भवान्तर में जाकर उत्पन्न होती है। 23. गति-आगति द्वार-जीव मर कर जहां जाते हैं वह उनकी गति है और जीव जहां से पाकर उत्पन्न होते हैं वह उनकी आगति है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दो गति वाले और दो प्रागति वाले हैं / ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक मर कर तिर्यंच और मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं, नारकों और देवों में नहीं / अतः तिर्यंचगति और मनुष्यगति ही इनकी दो गतियाँ हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org