Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति : साधारण वनस्पति का स्वरूप] साधारणशरीरी वनस्पति की पहचान-१. जिस मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल, बीज, आदि को तोड़े जाने पर समान भंग हो अर्थात् चक्राकार भंग हो, समभंग हो अर्थात् जो प्राडी-टेढ़ी न टूटकर समरूप में टूटती हो वह वनस्पति साधारणशरीरी है। 2. जिस मूल, कंद, स्कंध और शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो वह अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए। 3. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, पत्र, पुष्प आदि के तोड़े जाने पर उसका भंगस्थान चक्र के आकार का सम हो / 4. जिसकी गांठ या पर्व को तोड़ने पर चूर्ण निकलता हो। 5. जिसका पृथ्वी के समान प्रतरभेद (समान दरार) होती हो वह अनन्तकायिक जानना चाहिए। 6. दूध वाले या बिना दूध वाले जिस पत्र की शिराएँ दिखती न हों, अथवा जिस पत्र की संधि सर्वथा दिखाई न दे, उसे भी अनन्त जीवों वाला समझना चाहिए। पुष्पों के सम्बन्ध में आगम निर्देशानुसार समझना चाहिए / उनमें कोई संख्यात जीव वाले, कोई असंख्यात जीव वाले और कोई अनन्त जीव वाले होते हैं / प्रत्येकशरीरी वनस्पति के लक्षण-१. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज को तोड़ने पर उसमें हीर दिखाई दे अर्थात् जिसका भंग समरूप न होकर विषम हो-दतीला हो। 2. जिसका भंगस्थान चक्राकार न होकर विषम हो। 3. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध या शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वे वनस्पतियां प्रत्येकशरीरी जाननी चाहिए। पूर्वोक्त साधारण वनस्पति के लक्षण जिनमें न पाये जावें वे सब प्रत्येकवनस्पति जाननी चाहिए। प्रत्येक किशलय (कोंपल) उगते समय अनन्तकायिक होता है, चाहे वह प्रत्येकशरीरी हो या साधारणशरीरी !' किन्तु वही किशलय बढ़ता-बढ़ता बाद में पत्र रूप धारण कर लेता है तब साधारणशरीरी से प्रत्येकशरीरी हो जाता है / - ये बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त / जो अपर्याप्त हैं उनके वर्णादि विशेषरूप से स्पष्ट नहीं होते हैं। जो पर्याप्त हैं उनके वर्गादेश से, गंधादेश से, रसादेश से और स्पर्शादेश से हजारों प्रकार हो जाते हैं / इनकी संख्यात लाख योनियां हैं। प्रत्येक वनस्पतिकाय की 10 लाख और साधारण वनस्पति की 14 लाख योनियाँ हैं। पर्याप्त जीवों की निश्रा में अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं। जहां एक बादर पर्याप्त है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त अपर्याप्त पैदा होते हैं / प्रत्येक वनस्पति की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और साधारण वनस्पति की अपेक्षा अनन्त अपर्याप्त समझने चाहिए / 1. 'उग्गेमाणा अणंता'। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org