Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन] वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करते हैं वे प्रात्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट (छुए हुए) होते हैं। अस्पृष्ट पुद्गलस्कंधों का ग्रहण नहीं होता। जो पुद्गलस्कन्ध आत्मप्रदेशों में अवगाढ होते हैं, उन्हें ही वे ग्रहण करते हैं, अनवगाढ को नहीं। स्पर्श अवगाहक्षेत्र के बाहर भी हो सकता है जबकि अवगाहन उसी क्षेत्र में होता है। अतः अलग-अलग प्रश्न और उत्तर किये गये हैं। अवगाढ पुद्गलस्कन्ध दो प्रकार के हैं-अनन्तरावगाढ और परम्परावगाढ / जिन आत्मप्रदेशों में जो व्यवधानरहित होकर रहे हुए हैं वे अनन्तरावगाढ हैं और जो एक-दो-तीन आदि प्रदेशों के व्यवधान से रहे हुए हैं वे परम्परावगाढ हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अनन्तरावगाढ पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, परंपरावगाढ को नहीं। ये अनन्तरावगाढ पुद्गल अणुरूप (थोड़े प्रदेश वाले) भी होते हैं और बाहर (विपुल प्रदेश घाले) रूप भी होते हैं / ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। वह पृथ्वीकायिक जीव जितने क्षेत्र में अवगाढ है उस क्षेत्र में ही बह ऊर्ध्व या तिर्यक् स्थित प्रदेशों को ग्रहण करता है। जिस अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल में वह जीव उपभोगयोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है वह उस अन्तर्मुहूर्त काल के आदि में, मध्य में प्रोर अन्त में भी ग्रहण करता है। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अपने लिए उचित आहारयोग्य पुद्गलस्कंधों को ग्रहण करते हैं, अपने लिए अनुचित का ग्रहण नहीं करते। ___ ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव स्वविषय पुद्गलों को भी आनुपूर्वी से ग्रहण करते हैं, अनानुपूर्वी से नहीं / अर्थात् ये यथासामीप्य वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं-दूरस्थ को नहीं। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन यथा-पासन्न पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उन्हें व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से ग्रहण करते हैं / व्याघात होने पर कभी तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं, कभी पांच दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। व्याघात का अर्थ है- अलोकाकाश से प्रतिस्खलन (रुकावट) / इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है जब कोई सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोकनिष्कुट में (आखरी किनारे पर) नीचे के प्रतर के प्राग्नेय कोण में रहा हा हो तो उसके नीचे अलोक होने से अधोदिशा में पूदगलों का अभाव होता है, आग्नेयकोण में स्थित होने से पूर्व दिशा के पुद्गलों का और दक्षिणदिशा के पुद्गलों का प्रभाव होता है। इस तरह अधोदिक् पूर्वदिक और दक्षिणदिक—ये तीन दिशाएँ अलोक से व्याप्त होने से इनमें पुद्गलों का अभाव है, अतः शेष तीन दिशात्रों के पुद्गलों का ही ग्रहण संभव है / इसलिए कहा गया है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव व्याघात को लेकर कभी तीन दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। जब वही जीव पश्चिमदिशा में वर्तमान होता है तब उसके पूर्वदिशा अधिक हो जाती है। दक्षिण दिशा और अधोदिशा-ये दो दिशाएँ ही अलोक से व्याप्त होती हैं इसलिए वह जीव चार दिशाओं से-ऊर्ध्व, पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से पुद्गलों को ग्रहण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org