________________ प्रथम प्रतिपत्ति : बादर वनस्पतिकायिक] [57 जो अपर्याप्त जीव हैं, उनके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श प्रादि प्रप्रकट होने से काले प्रादि विशेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले नहीं कहे जाते हैं किन्तु सामान्यतया शरीर होने से वर्णादि अप्रकट रूप से होते ही हैं / जो जीव पर्याप्त हैं उनमें वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से नाना प्रकार हैं। वर्णादि के भेद से और तरतमता से उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं। उनकी सब मिलाकर सात लाख योनियाँ हैं / एक पर्याप्त जीव की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं / जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त जीव हैं। बादर अप्कायिक जीवों के सम्बन्ध में 23 द्वारों को लेकर विचारणा बादर पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए। जो अन्तर है वह इस प्रकार है संस्थानद्वार में अप्कायिक जीवों का संस्थान बुद्बुद के प्राकार का जानना चाहिए / स्थितिद्वार में जघन्य अन्तर्मुहर्त, उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना चाहिए / शेष सब वक्तव्यता बादर पृथ्वीकायिकों की तरह ही समझना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे अप्कायिक जीव प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण कहे गये हैं। यह अप्कायिकों का अधिकार हुआ। वनस्पतिकायिक जीवों का अधिकार 18. से कि तं वणस्सइकाइया? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णता, सं जहा सुहमवणस्सइकाइया य बायरवणस्सइकाइया य / [18] वनस्पतिकायिक जीवों का क्या स्वरूप है ? वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक / 16. से कि तं सुहमवणस्सइकाइया ? सुहुमवणस्सइकाइया दुविहा पण्णता, संजहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / तहेव णवरं अणित्यंत्यसंठाणसंठिया, दुतिया दुआगतिया अपरित्ता अणंता अवसेसं जहा पुढविकाइयाणं, से तं सुहुमवणस्सइकाइया। [19] सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव क्या हैं कैसे हैं ? सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं पर्याप्त और अपर्याप्त, इत्यादि वर्णन सूक्ष्म पृथ्वीकायियों के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनियत है / वे जीव दो गति में जाने वाले और दो गतियों से पाने वाले हैं। वे अप्रत्येकशरीरी (अनन्तकायिक) हैं और अनन्त हैं / हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! यह सूक्ष्म वनस्पतिकाय का वर्णन हुआ। बादर बनस्पतिकायिक 19. से किं तं बायरवणस्सइकाइया ? बायरवणस्सइकाइया दुविहा पण्णता, तं जहा-पत्तेयसरीरबायरवणस्सहकाइया य साधारणसरीर वायरवणस्सइकाइयाय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org