Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र उक्त तीन प्रकार की संज्ञाओं में से दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा से ही संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार समझना चाहिए। यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारादि दस प्रकार की संज्ञाएँ आगम में कही गई हैं तो उन्हें संज्ञी क्यों न माना जाय ? उसका समाधान दिया गया है कि एकेन्द्रियों में यद्यपि उक्त दस प्रकार की संज्ञाएँ अवश्य होती हैं तथापि वे अति अल्पमात्रा में होने से तथा मोहादिजन्य होने से अशोभन होती हैं अतएव उनकी गणना संज्ञी में नहीं की जाती है। जैसे किसी व्यक्ति के पास दो चार पैसे हों तो उसे पैसेवाला नहीं कहा जाता। इसी तरह कुरूप व्यक्ति में रूप होने पर भी उसे रूपवान नहीं कहा जाता / यही बात यहाँ भी समझ लेनी चाहिए। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दीर्घकालिक संज्ञा नहीं होती है, अतएव वे संज्ञी नहीं हैं। असंज्ञी 11. बेदद्वार-स्त्री की पुरुष में, पुरुष की स्त्री में, नपुंसक की दोनों में अभिलाषा होना वेद है / वेद तीन हैं-१. स्त्रीवेद, 2. पुरुषवेद और 3. नपुंसकवेद / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नपुंसकवेद वाले हैं / इनका सम्मूछिम जन्म होता है / नारक और सम्मूछिम नपुंसकवेदी ही होते हैं।' 12. पर्याप्तिद्वार-सूत्रक्रमांक 12 के विवेचन में पर्याप्ति-अपर्याप्ति का विवेचन कर दिया है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ और ये चार ही अपर्याप्तियां पाई जाती हैं। ये चारों अपर्याप्तियाँ करण की अपेक्षा से समझना चाहिए / लब्धि की अपेक्षा से तो एक ही प्राणापान अपर्याप्ति समझनी चाहिए। क्योंकि लब्धि अपर्याप्तक भी नियम से आहार, शरीर, इन्द्रिय पर्याप्ति तो पूर्ण करते ही हैं / अगले भव की आयु बांधे बिना कोई जीव मरता नहीं और अगले भव की आयु उक्त तीन पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर ही बंधती है। 13. दृष्टिद्वार-दृष्टि का अर्थ है जिनप्रणीत वस्तुतत्व की प्रतिपत्ति (स्वीकृति)। दृष्टि तीन प्रकार की है-१. सम्यग्दृष्टि, 2. मिथ्यादृष्टि और 3. सम्यग्मिथ्या (मिश्र) दृष्टि / जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की सही-सही प्रतिपत्ति सम्यग्दृष्टि है। जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की विपरीत प्रतिपत्ति मिथ्यादष्टि है। जैसे जिस व्यक्ति ने धतूरा खाया हो उसे सफेद वस्तु पीली प्रतीत होती है, इसी तरह जिसे जिनप्रणीत तत्त्व मिथ्या लगता हो और जो उस पर अरुचि करता हो वह मिथ्यादृष्टि है। जो दृष्टि न तो सम्यग् हो और न मिथ्या ही हो, ऐसी दृष्टि मिश्रदृष्टि है / / सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव उक्त तीन दृष्टियों में से मिथ्यादृष्टि वाले हैं। उनमें सम्यग्दृष्टि नहीं होती। सास्वादनसम्यक्त्व भी उनमें नहीं पाया जाता। सास्वादनसम्यक्त्व वाले भी उनमें 1. नारकसंमूछिमा नपुंसका-इति भगवद्वचनम् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :