________________
प्रदर्शिनी टीका अ० १२३ सू० यातकर्म तथाविधफलनिरूपणम् १६ रत्नप्रभादिपु 'हुलिय' शीघ्रम् ' उवाज्जति ' उत्पधन्ते । कयम्भूतेषु नरकेपु ?इत्याह---' महालएसु' महालयेपु-क्षेत्रस्थितिभ्या महत्सु 'वयरामयकुहरुद निस्संधिदारविरहियनिम्मरभूमितलखरामरिसरिसमणिरयघरचारएमु पञमयकु. डय-रुन्द्र-निस्सन्धिद्वारविरहितनिर्दिभूमितलग्वराऽमर्शविपमनरकघरचारकेषु
चत्रमयकुडयानिधनभित्तयः, रुन्दाः-विस्तीर्णाः, देशी-शब्दोऽयम् , पिस्तोर्णपाचकः निस्सन्धयः सन्धिरहिताः, द्वारविरहिताः गमनागमनद्वारवनिता , निर्मादभूमितला:-कठोरतरभूमिभागाः, तथा ग्वराम कठिनस्पर्शा', पिमाः उच्चा चा , नरकगृहा-नरकवासा एव चारका मन्दिगृहाः येषु नरकेपु ते तथा तेपु, "महोसिण-सयापतत्त-दुग्गन्ध-विस्म-उपेयजणगेसु' महोप्णसदाप्रतप्त-दुर्गध (असुभ कम्मरहुला) प्राणीवधजन्य पकर्म के भार से अत्यत दवे हुए होकर (नरएस्सु ) रत्नप्रभा आदि पृथियों में (हुलिय) शीघ्र ही (उचवजति ) उत्पन्न हो जाते है । ये नरक (महालयेसु) क्षेत्र तथा स्थिति की अपेक्षा महान् हैं तथा ( वयरायमकुड्गुरु दनिस्सधिदारविरहिय निम्मदव भूमितल खरामरिसविसमणिरयघरचारएसु) (निरयघरचारएसु) नरकावासरूपचन्दिगृह (वयरामयकुड) वनभित्तिवाले है। (रुद ) अत्यत विस्तृत है (निस्सधि ) सन्धि रहित है। (दारविरहिय) गमनागमन के साधनभूत द्वार से हीन और (निम्मध्व) मृदुता रहित (खरामरिस ) कठोरतर (विसम) ऊंचे नीचे भूमिभागवाले है । (महोसिण सयापतत्त-दुग्गधविस्स-उब्वेयजणगेसु) (महोसिण) इनमें सदा उप्णजन्य वेदना रहा करती है । (सयापतत्त) ये निरन्तर तापसे व्याप्त
७१ मनुष्य समाथी भरी " असुभ कम्मबहुला " प्रायने १२णे अत्पन्न ययेा पापभाना सारथी मत्यात मायेस सवा ते । “ नरपसु" २४ प्रभा मा पृथ्वीमोभा 'हुलिय" तरत " उववज्जति" अपन तय छे ते न२४ " महालयेसु" क्षेत्र मने स्थितिनी अपेक्षा महान छ तथा "वयरामय कुडु रुद निस्सधिदार विरहिय निम्मदव भूमितल सरामरिसविसम णिरयधर चारएसु" "निरयधरचारएमु” न२वास३५ मन्थि " वयरामय फुड" पनी हिवासोवा छ, 'रुद" सत्यत विस्तृत छ, “निस्सधि" सन्धिरखित छ ' दारविरहिय" म१२ ४५२ भाटेना द्वाराथी •डित छ, भने "निम्मदव " भृताथी २हित “सरामरिस" अठोरमा २ " विसम" GI नीय भूमि son छे "महोसिण सयापतत्त-दुग्गधविस्स-उव्वेयजणगेसु" " महोसिण" तभी साता अन्य वना २६ ४२ छ, 'सयापतत्त"