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प्रश्नव्याकरण • हयाए ' अली रुपचनविरमणपरिरक्षणार्थम्-मृपावादाविरमणमतपरिक्षणाय सन्ति ।
तासु ' पहम ' प्रथमा समितियोगलक्षणां भावनामाह-सोऊग' श्रुत्वा मुगुक समीपे समाकर्ण्य, तथा-'परमह' परमार्थ-परमतत्त्व प्रथमभारनारहस्य 'संवरह' सरार्थ-सवरस्य-मृपावादविरविलक्षणम्य अर्थ प्रयोजन-मोक्षलक्षणम् , अथवा सवरा कर्मनिरोधएर अर्थः प्रयोजन यस्य स त तथोक्तम् , यद्वा-सवरस्यप्रस्तुतसंपरा ययनस्य अर्थधान्य ' मुहह' मुन्छ-सम्यक जागिऊण' झाला न-नै 'वेगिय' वेगित-नदीपनाह वेगयुक्त पचन वक्तव्यमित्यग्रेण सम्बन्धः, तथा-न नैव तुरिय' सरित-पात्यारत् त्वरायुक्त रचनचाञ्चल्याद, नम्व करते हैं-'तस्स इमा' इत्यादि।
टीकार्थ-(तस्स वीयस्स वयस्स इमा पच भावणाओ) उस प्रसिद्ध द्वितीय महाव्रत की ये वक्ष्यमाण पांच भावनाएँ ( अलियवयणवेरमण परिरक्सणयाए) उस अलीकवचन विरमणरूप सत्यव्रत की रक्षा के लिये है। उनमें (पढम) प्रथम भावना इस प्रकार है-(परमट्ट सवरह सोऊण) सुगुरु के समीप प्रथम भावना के रहस्य को कि जो रहस्य मृपावाद विरतिरूप प्रयोजन पाला है, अथवा कर्मनिरोधरूप सवर हा जिसका प्रयोजन है, अथवा इस प्रस्तुत सवराध्ययन के वाच्या का सुनकरके (सुदु जाणिऊण) अच्छी तरह जान करके (न वेगिय ) नदी के प्रवाह की तरह वेगयुक्त वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये इस प्रकार "वत्तब" शब्द का सध सब के साथ लगा लेना चाहिये। (न तुरिय) पात्या-वधूरे-की तरह त्वरायुक्त वचन चचलता से युक्त " तस्स इमा" त्याह
टा--" तस्स बीयरस वयस्स इमा पच भावणाओ" ते प्रसिद्ध मात भारतनी सा वक्ष्यमा पाय लावनामा “ अलियवयणवेरभणपरिरक्खणट्टयाए" ते मसी-मसत्य-विरभ३५ सत्यप्रतनी परिक्षाने भाटे छे तमा " पढम" पडती भावना प्रमाणे -" परमट्ट स वरद सोऊण" सहशु२ પાસે પહેલી ભાવનાનુ રહસ્ય કે જે મૃષાવાદ વિરતિરૂપ પ્રજનવાળું છે, અથવા કર્મ નિરોધરૂપ સ વર જ જેનું પ્રયોજન છે, અથવા આ પ્રસ્તુત सध्ययन वाय्यार्थ सामनी 'सुजाणिऊण " सारी शत लएनि " न वेगिय "नहीन प्रवाईनीभ वेशयुक्त पयन साधुये मालवा જોઈએ નહીં આ રીતે “વક્તવ્ય” શબ્દને સબધ બધા સાથે જોડી લેવો "न तुरिय" पात्या-पधुर।- (परायुक्त " न चवल" घानी गात