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सुदर्शिनी टीका भ० ३ सू० ४ कोमुनिरदशादानाविद्यतमाराधयति ? ७३५ श्रोत्तराध्ययनमूने- "चेयापच्चेण भते ! जीवे किं जणयइ ? वेयारच्चेग तित्थयर नागोय कम्म निबंध || " ( उत्त०अध्य, २९ )
टीकार्य' न' न च ' अचियत्तस्य' अमीतिरस्स= मीतिरहितस्य प्रतीति रहितस्य नासाध्यागमनमनिच्छत इत्यर्थः, 'घर' गृह ' पत्रिस' प्रविशति, न च जमतीतिकस्य ' भत्तपाण ' भक्तपान ' गेहइ ' गृह्णाति, न च अमीतिकस्य अमतीतिकस्यापीठफल काय्यासस्तारकवस्त्रपाद कम्पलदण्ड कम्पलरजोहरणनिपद्याची पोरसवस्रिका पादमोन्नादि भाजनभाण्डोपध्युपकरण, ज्ञान की अविनाभाविनी है। तीर्थकर प्रकृति नियमतः केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली होती है, इसलिये ज्ञानार्थी होकर वैयावृत्य करता है ऐसा अर्थ हमारा निर्दोष ही है । उत्तराभ्ययन सूत्र में यही बात कही है - -" वेयावच्चेण भते । जीवे किं जनयइ ? वेयावच्चेण तित्थयर नागोय कम्म निह " ( उत्तराध्घ अ २९ घोल ४३ )
तथा जो साधु ( न य अचियत्तस्स घर पविसइ) साधु के अपने घर पर आने से अप्रीति अथवा अमतीति-अविश्वास वाला होता है वह अचित्त कहलाता है ऐसे व्यक्ति के घर में साधु प्रवेश नहीं करता है, तथा (न व अचियत्तस्मभत्तपाण गिण्हह ) उस अप्रीति और अप्रतीति- अविश्वास वाले के घर से भक्त पान नही लेता है, और ( न य अचियत्तस्स पीढ फलगसेज्जासयारगवत्थपायकथल दडग रओहरण निसेज्ज घोलपट्टगमुहपोतियपायपुछणाइ भाषण भडीवहि उबगरण सेवइ) न उस अप्रीति और अप्रतीति वाले के पीठ, फलक, शय्या,
નની અવિનાભાવિની પ્રકૃતિ છે તીર્થંકર પ્રકૃતિ સ્વાભાવિક રીતે જ કેવળજ્ઞા નને ઉત્પન્ન કરનારી હાય છે, તેથી જ્ઞાનાથી થઈ ને વૈયાવૃત્ય કરે છે એવે અમે દર્શાવેલે અર્થ નિર્દોષ જ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ r વાત કરી छे-' बेयावन्चेर्ण भते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेण तित्थयरमगोय कम्म निबधइ " ( उत्तराध्य २ २७ पोस ४३ ) तथा के साधु "न य अचियत्तइस पर पविसइ" साधु पोताने घेर भाववाथी के व्यक्ति सप्रीति अथवा अविश्वास વાળા થાય છે તે અચિયત્ત કહેવાય છે—એવી વ્યક્તિના ઘરમા માધુ પ્રવેશ કરતા નથી, તથા न य अचियत्तस्म भत्तपाण गिण्हइ " ते अभीति भने अविश्वाभवाणाना घरेथी माहारयाली सेता नथी, भने “ न य अचियत्तस्स पीढफलग सेज्जासथारगवत्थपायकन लदडगरजोहरण निसेज्जचोलपट्टगमुहपोत्तिय पायपु छणाइमायणभडोवहिउबगरण सेवइ " તે અપ્રીતિ અને અવિશ્વાસવાળાના
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