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सुदर्शिनीटीका भ०५ सू०८ चक्षुरिन्द्रियसपर'नामकद्वितीयभायनानिरूपणम् ९०६ प्ठस्य सप्तभेदाः । तद्यथा अरुग-दुम्पर-स्पर्शजिह-करकपाल-काऊन-पौण्डरीक दरणि । इति, महत्त्व चैपामसाध्यत्वात्। सामान्यकुष्ठस्यैकादश भेदाः, स्थूलामारुक १ महाकुप्ठे २ स्कुप्ठ ३ चर्मदल ४ विसर्प ५ परीमर्प ६ पिचर्चिका ७ सिध्म ८ कटिभ ९ पामा १० शतारुष्क ११ सज्ञकाः। एव सर्माणि कुप्ठान्यष्टा दश । यद्यपि सर्व कुष्ठ सन्निपातजमेर जायते, तथापि-वातादिदोपोत्कटतया वामन, अधिल्लग-जन्मान्ध, एफचक्षु-काना, विनिहतचक्षु-जन्म के याद होने वाला अधा, सपिसल्लक-सपिशाच-भृतादि आवेश वाला, अथवा सर्पिशल्यक-घसीते हुए चलने वाला हृदयरोगी, व्याधिपीडित, इन सब को देखकर इनमें द्वेप तथा घृणा नहीं करनी चाहिये।
पूर्वोक्त पदों का अलग-अलग अर्थ इस प्रकार है-गडी-वातपित्त और सन्निपात-वातादि त्रिदोप मिश्रित विकार से उत्पन्न होने के कारण चार प्रकार के कठ रोगवाला, कुष्ठी-कुष्ठ अठारह प्रकार का होता है, जिसमे सात प्रकार के महाकुष्ठ होते हैं और ग्यारह प्रकार के सामान्यकुण्ठ होते है । (१) अरुण २ दुम्बर ३ स्पर्शजिह्व ४ करकपाल ५ काकन ६ पौण्डरिक और ७ दद्र । ये असाध्य होने से महाकृष्ठ माने गये हैं। सामान्य कुष्ठ ग्यारह प्रकारके ये है-१स्थूलामारुक २ महाकुष्ठ ३ एककुष्ठ४ चर्मदल ५ विसर्प ६ परिसर्प विचचिका ८ सि म ९ किटिभ १० पामा शतारुक ११ । यद्यपि सर ही कुष्ठ सन्निपात से ही उत्पन्न होते है तथापि वातादिक दोपों की उत्कटता से इसमे भेद माना गया લૂલા, વામન, જન્માધ, વાણીયા જન્મ પછી આધળા બનેલા, સપિસલકસપિશાચ-ભૂતાદિ વળગાડવાળા, અથવા સપિશલ્યક-ઢસડાતા ચાલના હદયરોગી, વ્યાધિ પીડિત અને રોગ પીડિત એ બધાને જોઈને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ અથવા ઘણું કરવી જોઈએ નહી પૂર્વોક્ત પદેને અલગ અલગ અર્થ આ પ્રમાણે छ-"गडी"-पात पित्त भने सन्निपात-पाताल त्रिोष मिश्रित विधारथी उत्पन्न वान डा२णे यार प्रा२ना शिवाणा, “कुष्ठी "- Yष्ट मढ२ ५४॥२॥ હોય છે, જેમાં સાત પ્રકારના મહાકુષ્ટ હોય છે અને અગિયાર પ્રકારના सामान्य जुट जय (१) अरुण, (२) हु०१२, 3) २५Are, (४) ४२ ४पास, (४) १४न, (६) यो उरी मने (७ ६ मे साते असाध्य डावपाथी મહાકુષ્ઠ ગણાય છે અગિયાર પ્રકારના સામાન્ય કુષ્ટ આ પ્રમાણે છે–(૧) સ્થલાभारण, (२) भाट, (3) ४(४) यमस, (५) विस ५ (6) परीस (७) वियर्थि!, (८) भिम(6) टिम (१०) पामा, (११) ता२०४ ने मार કુષ્ટ સન્નિપાતથી જ ઉત્પન્ન થાય છે છતા પણ વાતાદિક દેવેની પ્રબળતાને