Book Title: Prashna Vyakaran Sutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1056
________________ ९१४ प्राध्याकरण कुथितो दुर्गन्धयुक्तो यः स तथोक्तस्त 'दपरामि' द्रव्यराशि-पुरीपादिद्रव्यममूह च दृष्ट्वा 'एवमाइएमु' मादिकेपु-एच मकारेषु 'अमणुन्नपारगेमु' अमनोनपापकेपु, तथा-एभ्यः 'अन्नेम' अन्येपु च 'तेसु तेषु अमनोनपापकेषु समुपस्थितेषु 'समणेण 'अमणेन साधुना न रुसियन्य' न रोप्टव्यम् , 'जार' यावत्पदाद 'न हीलितव्यम् , न निन्दितव्यम् , न रिसितव्यम्, न रेत्तव्यम् , न भेत्तव्यम् न हन्तव्यम् , इति । पट्पदानि सग्राद्याणि । तया-अमणेन , दुगुडापत्तियावि' जुगुप्सात्तिकाऽपि न 'लभा' लम्या 'उपाण्उ ' उत्पादयितुम् । एवम्-अकुहिय च दब्यरासि ) कृमिसरित सढे टुप दुगंधित पदार्थ को और पुरीप आदि द्रन्य समूह को देय कर के इनमें तथा (अन्नेसु य एव. माइएसु) इनसे भिन्न और जो इसी तरह के (अमणुण्णपावण्सु तेसु) अमनोज्ञ अशुभ पदार्थ समक्ष उपस्थित हो उनके ऊपर (समणेण) साधुको (न रुसियव्य ) रोप नहीं करना चाहिये । यावत् पद से (न हीलियव्य ) अवज्ञा नहीं करनी चाहिये, उनकी (न निदियव्य) निंदा नही करना चाहिये, (न खिसियन्व) उनकी दूसरे के सामने निंदा नही करनी चाहिये । इसी तरह (न डिदियन्त्र ) अमनोज्ञरूप आकृति का छेदन नही करना चाहिये । (न भिदियच्च) न भेदन करना चाहिये। (न बहेयव्य ) न अनिष्ट रूपवाले व्यत्तिका वध करना चाहिये । इसी प्रकार से इन पदार्थों के ऊपर साधु को (न दुगुछा वत्तियावि लब्भा उप्पाएउ ) जुगुप्सावृत्ति भी उत्पन्न करना उचित नही है । (एव) इस शने “ सकिमिणकुहिय च दव्वरासिं " भिसडित सता दुर्गध युत पहायान न्मने पुरीष माहि द्रव्य समूडन ने तमा तथा " अन्नेसुय एवमाइएसु" से रात मे ना ln " अमणुण्णपावएसु तेसु" ममनाश, शुभ पहा पासे भाप होय तमना ५२ " समणेण " साधु " न रुसियन्व" शेष न ४२ न" न हीलियम्" तनी न ४२वी. मे, “न " निदिव्य " भनी निहन ४२वीन, "न सिसियव्व " मानी PM निह न ४२वी नये, ये प्रभारी "न बिंदियव्व " ममनोज्ञ भावना १२तुनु छेदन ४२२१ नही, “न भिंदियव्य , सहन सक्यु नहर, 'न वई यव्ध " अनिष्ट ३५वामी तिने १५ सपन नही मे प्रमाणे से पहायें प्रत्ये माधुणे "न दुगुछा--वत्तियो वि लम्भा उप्पाएउ । शु-सा वृत्ति ५४ रामवी ते योग्य नथी "एब" मानते " चाखुइदिय

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