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सुशिनी टीकाम०५ सू०९ 'घाणेन्द्रियसवा'नामर तृतीयभावनानिरूपणम् ९१९ ऋतुजः कालोचितः पिण्डिमा पिण्डिभूतो बहुलो निर्वाग्मिो दुत्तरप्रदेशगामी यो गन्धः, स विधते येपु तेयु टव्येपु, तथा-'अण्णेस य एरमाइएस गयेसु 'अन्येषु चैवमादिकेपु गन्पु, काम्भतेपु ? इत्याह ' मणुण्णभदएसु' मनोज्ञभद्र केपु 'तेमु' तेषु गन्धेषु न सज्जियत्र 'न सक्तव्यम् 'जाव' यारह-यावत्करणात्-न रक्तव्यम् , न गद्धितव्यम् , न मोहितव्यम् , न रिनिवातापत्तव्यः, न लोब्धम् , न तोप्टव्यम् , न हसितव्यम्, इतिसग्राह्यम् । तथा-अमणः 'तन्य' तत्र गन्धविषये 'सइ च मइ च स्मृति च मतिं च 'न पुज्जा ' न कुर्यात् । 'पुणरवि' पुनरप्युच्यते-'पाणिदिएण' त्राणेन्द्रियेण 'अमणुण्णपागाइ ' अमनोज्ञपापकान् , कि जिनमें सुगन्ध ऋतु के अनुकूल पिण्डीभत होकर रह रही हो और दूर प्रदेशतक जिन की यह सुगंध फैल रही हो उपस्थित होने पर उन में तथा (अण्णेसु एबमाइएसु मणुगभद्दएमु ) इन से भिन्न इसी प्रकार के और भी जो मनोज भद्रक गधयुक्त पदार्थ हों उनके समक्ष मे आने पर (समणेण ) सायु को उनकी (तेसु) उन मनोज मद्रक गंधो मे (न सज्जियच जाव न सइ च मड च तत्थ कुज्जा) आसक्त नहीं होना चाहिये-यावत् उनमें स्मृति को और अपनी मति को नहीं लगाना चाहिये । यहा यावत् शब्द से " न रज्जियश्च न गिज्झियय, न मुज्झियन्च, न चिणिधाय आवज्जियव्च, न लुभियन्व, न तुसियव्य न हसियञ्च" इन पदों का संग्रह किया गया है । इनका अर्थ पर ले कर दिया गया है वहा से समझ लेना चाहिये।
इसी तरह अमनोज पाप गप में रोप आदि न करना चाहिये इसी यात को कहते हैं-(पुणरवि) इसी तरह से (घाणिदिएण) घ्राणेन्द्रिय અનુકુળ સુગધ ભરેલી હોય અને તેમની તે સુગધ દૂર દૂરના પ્રદેશ સુધી ફેલાતી डाय, सपा मुगधित ट्र०ये। भाद डाय तो तेभा तथा “ अण्णेसु एवमाइण्सु मणुण्णभहएस" रात तमना २१४ भनाश भद्र गधा पहा डाय ते पासे जाय तो ५५ " समणेण" साधुसे तेमनी " तेसु" ते ते भनागपामा "न सज्जियव्व जाब न सइ च मइ च तथज्जा" आमत થવું જોઈએ નહી ત્યાથી શરૂ કરીને તેને યાદ કરવી નહી કે તેનો વિચાર पा! ४२व नही त्या सुधा सभ देवानुछ मही यावत् शपथी “न रज्जियव्य, न गिज्झियव्य , न मुग्झियव्व , न विणिवाय आवज्जियव्य, न लुभियव्य, न तुसियव्य, न हसियव्य " से पहोने। मथ अडएर ४२वाना, छे तमना અર્થ આગળ આવી ગયા છે તે ત્યાથી સમજી લેવા
એ જ પ્રમાણે અમનોજ્ઞ પાપક ગધ પ્રત્યે રોષ આદિ કરવા જોઈએ नहीं कर पात सूत्रधार ४ छ-"पुणरवि " 20 शते 'पाणिदिएण" धागे