Book Title: Prashna Vyakaran Sutram
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1090
________________ २४० प्रभम्याकरण अरुचिकरेपित्यर्थः, ' फामेनु' । पपु भ्यः, 'अन्ने' भन्येषु च बहुरि हेम' बहुविधेषु 'एवमाइएसु' एमादि के पु-पर प्रकारेषु वडगुरुसीय उसिणलक्खेम' कर्फशगुरुगीतोष्णरक्षेपु कगाः कठिना, गुस्ता माराः, भीताः शीतलाः, उष्णाम् तापनाः, लक्षा=परमाः एषा इन्दस्तेषु क्योक्तेयु स्पर्भेषु च 'समण' श्रमणेन-साधुना 'न मसियण' न रोष्टव्यम्पो न कर्तव्य इत्यर्थ, न हीलियन ' न हीलितव्यम् अपना नव्या , न निदियचन निन्दि तव्यम् , स्त्रमनसि निन्दा न कर्त्तव्या, 'नबिसियन ' न ग्विसितव्यम् परममक्षे च निन्दा न कर्तव्या, 'न छिदिया 'न उत्तव्यम् छेदन न कर्त्तव्यम् । 'न मिदियर' न भेत्तव्यम्-भेदन न कर्तव्यम् , 'न बहेका' न हन्तव्यम्-विनाशो न कर्तव्यः, तथा-वद्विपये जुगुवतियापि' जुगुप्मात्तिकाऽपि स्वस्य परस्प चा हृदि 'उप्पाएउ' उत्पादयि तु 'नलमा' न लभ्या-नोचिता यया पूर्वोक्तस्पी अयविषये स्वस्य पाम्य वा हदि जुगुप्मा प्रादुर्भवेन तथा कर्तव्यमिति भावः । अमणुन्नपावगेसु ) उन अमनोजपापक-अचिकारक-स्पर्शो में, तथा (एवमाइएसु यहुविहेसु कम्पगुम्सीय उसिणलुखेसु) इन से भिन्न और जो कर्कश, गुरु, शीत, उष्ण, रुक्ष स्पर्श है उनमें (समणेण न रुसियन्व, न हीलियन्च, न निंदियन्च, न गरहियन्य, न खिप्तियध, न छिदियच, न भिदियञ्च, न वहेयव्य, न दुगुगवत्तियाविलभाउप्पाएउ साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिये, उनकी अवहेलना नही करनी चाहिये। निंदा नहीं करनी चाहिये । गर्दी नहीं करनी चाहिये। उन पर खिसयाना नहीं चाहिये। उस अमनोज स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य का छेदन नहीं करना चाहिये । भेदन नहीं करना चाहिये। नाश नहीं करना चाहिये । और न अपने तथा परके मन मे उनपर ग्लानि उत्पन करने मभनाइ ५४-मयि२४ -पभा, तथा ' एमाइएसु बहुविहेसु कक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु" ते गत भी ५ र ६श, गुरु, शीत, Gasy, स्पश छ भनी प्रत्ये “समणेण न रुसियन, न हीलियव्व न निदियव्य , न गरहियब, न खिसियव्य, न किंदियब, न मिदियब्ध, न, वहेयन, न दुगुहायत्तिया वि लभा उम्पाएउ " साधुसे र य -नये नही, तमन्ना એવહેલના ન કરવી જોઈએ નિદા ન કરવી જોઈએ ગહ ન કરવી જોઈએ તેમના પર ખિસિયાવું જોઈએ નહી તે અમનેz cપર્શવાળા દ્રવનુ છેઠન કરવું જોઈએ નહી, ભેદન કરવું જોઈએ નહી નાશ કરવો જોઈએ નહી અને પિતાના કે અન્યના મનમાં તેમના પ્રત્યે કલાનિ ઉત્પન્ન કરવાની પ્રવૃત્તિ ન

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