Book Title: Prashna Vyakaran Sutram Author(s): Ghasilal Maharaj Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti Catalog link: https://jainqq.org/explore/009349/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Oshcooooooooodhchdhshobchchdchchchiches जनाचार्य-जैनधर्मदिवारर-पूज्यश्री-घासीलालजी-महाराज पिरचितया मुदर्शिन्यान्यया व्यारयया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादसहितम् ॥प्रभव्याकरण-संगम PRASHNAVYAKARANA SUTRAM 8pcpppppppppppppppppppppppppppp όφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφφέ नियोजक सस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानिपण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराज प्रकाशक पालि(मरवाड)निवासि-श्रेछन. श्रीमतः मुकनचन्दजी वालिया महाशय तथा अ सौ. तद्धर्मपत्नी सुकनयाई-प्रदत्त द्रव्यसाहाय्येन अ०भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धारसमितिप्रमुग्वः श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल-मङ्गलदासभाई-महोदयः मु० राजकोट प्रथमा-भावृत्ति बीर-सवत् विक्रम संवत् ईसवीसन ર૮૮ ૨૦૧૮ प्रति १००० मूल्यम्-रू. २०-०-० ασφφφφφφφφφφφφφφφφφφ, Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણુ થી અ, ભા. ૐ સ્થાનકવાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, ૐ ગરેડિયા કૂવા રેડ, ગ્રીન્đાજ સે, રાજકીટ, ( સૌરાષ્ટ્ર ) Published by ' Shri Akhil Bharat S S Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road,RAJKOT, (Saurashtra ), W Ry, India × પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૦૦૦ ૨૪૮૮ વીર સવ વિક્રમસવત્ ૨૦૧૮ ઈસ વી સ ન ૧૯૬૨ X મુદ્રક ( મણિલાલ છગનલાલ રાહ પ્રમાત પ્રિન્ટિંગ પ્રેસ, ઘીફાટા । . અમદાવાદ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mm प्रश्नव्याकरणसूत्रकी विषयानुक्रमणिका अनुक्रमांक विषय पृष्ठा १ मङ्गलाचरण १--२ २ अवतरणिका ३-१३ प्रथम अध्ययन-प्रथम भाग ३ आस्रव और सवर के लक्षणों का निरूपण १३-१८ ४ पहला अधर्मद्वार का निरूपण १९-२६ ५ " मृपानादरूप" दसरा अधर्मद्वार का निरूपण २७-३५ ६ “ ययाकृत् " नामके तीसरा अधर्मद्वार का निरूपण ३६-३९ ७ स्थलचर चतुष्पद प्राणीयों का निरूपण ४०-४२ ८ " उरः परिसर्प" के भेदों का निरूपण ४३-४४ ९ भुजपरिसर्प के भेदों का निरूपण ४५-१६ १० खेचर जीवों का निरूपण ४७-५० ११ माणियों के वधके प्रकार का निरूपण ४१-५३ चतुरिद्रिय जीवोंकी हिंसा करने वालोंके प्रयोजनका निरूपण ५४-६२ १३ पृथिवीकाय जीवों के हिंसा के कारण का निरूपण ६३-६७ १४ अपकाय जीवों की हिंसा करने के प्रयोजन का निरूपण ६८१५ 'वायुकाय ' जीवों की हिंसा करनेके प्रयोजनका निरूपण६ ९-७० 'वनस्पतिकाय' जीवोंकी हिंसा करने के प्रयोजनका निख्यण ७०-७४ १७ स्थावरादि जीवों को कैसे २ भावों से युक्त होकर हिंसक जन मारते है उनका निरूपण ७४-८४ १८ जातिनिर्देशपूर्वक मदबुद्धि वाले लोक कौन २ जीवों को मारते है उनका निरूपण ८५-८६ १९ कोन २ जीव पाप करते है उनका निरूपण २० जैसे २ कर्म करते है वैसा ही फल प्राप्त होनेका निरूपण ९१-९६ २१ नरक मे उत्पत्ति के अनन्तर वहा के दुःखानुभवका निरूपण ९७-१०४ २२ पापि जीव नरकों मे कैसी २ वेदना को कितने काल भोगते है उनका निरूपण १०५-१०६ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ नारकीय जीव क्या २ कहते है वह वर्णन १०६-१०८ २४ परमाधार्मिक नारकीय जीरों के मति क्यार करते है उनका कथन " २५ ॥ वेदनाओं से पीडित नारक जीवों के आक्रद का निरूपण १११-११७ २६ परमाधार्मिकों के द्वारा की गई यातनाओं के प्रकार का . निरूपण ११७-११८ २७ यातना के विषय मे आयुधों (शखों) के प्रकारों का निरूपण ११९-१२१ २८ परस्पर में वेदना को उत्पन्न करते हुए नारकी यों कि दशा का वर्णन १२१-१२७ २९ नारक जीवों के पश्चात्ताप का निरूपण ,१२८-१३० ३० तिर्यग्गति जीवो के दुःखों का निरूपण १३१-१३६ ३१ चतुरिन्द्रिय जीवों के दुःख का निरूपण १३७-१३८ ३२ त्रिन्द्रिय जीवो के दु ख का निरूपण १३८-१३९ ३३ द्विन्द्रिय जीवों के दुःख का वर्णन ३४ एकेन्द्रिय जीव के दुःख का वर्णन १४१-१४४ ३५ दुखों के प्रकार का वर्णन १४५-१५१ ३६ मनुष्यभव मे दुःखों के प्रकार का निरूपण १५२-१६३ दूसरा अध्ययन ३७ अलीकवचन का निरूपण १६४-१६८ ३८ अलीकवचन के नाम का निरूपण १६८-१७४ ३९ जिस भाव से अलीक वचन कहा जाता है उसका निरूपण १७४-१७९ ४० नास्तिकवादियों के मत का निरूपण १८०-२०५ ४१ अन्य मनुष्यों के मृपामापण का निरूपण २०६-२१४ ४२. मृपावादियों के जीव पातक वचन का निरूपण २१५-२४१ ४३ मृपावादियो को नरक प्राप्तिरूप फलमाप्ति का वर्णन २४२-२५२ ४४ अलीक वचन का फलितार्थ निरूपण २५३-२५६ अभ्ययन ४५ अदत्तादान के सरूप का निरूपण २५७-२६१ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ अदत्तादान के तीस नामों का निरूपण २६४-२६९ ४७ पञ्चम अन्तरगत तसरों (चोरों) का वर्णन २७०-२७५ ४८ परधनलुब्ध राजाओं के सरूप का निरूपण २७६-२८२ ४९ परधन में लुन्द्ध राजाओं के सग्राम का वर्णन २८३-२९६ ५० अदत्तादान (चोरी) के प्रकार का निरूपण २९७-३०१ ५१ सागर के स्वरूप का निरूपण ३०२-२०६ ५२ तस्कर के कार्य का निरूपण ३०७-३१७ ५३ अदत्तादान के फल का निरूपण ३१७-३२२ ५४ चोर लोक क्या फल पाते है उनका निरूपण ३२२-३३० ५५ अदत्तग्राही चोर कैसे होकर कैसे फल को पाते है उनका निरूपण ३३०-३४६ ५६ अदत्ताग्राही चोर जिस फल को पाते है उसका निरूपण ३४७-३५४ ५७ अदत्तग्राही चोर की परलोक मे कौन गति होती है उनका निरूपण ३५४-३६० ५८ जीव ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्मो से बधदशाको प्राप्तकर ससारसागर में रहते हैं इस प्रकार का ससारगागर के स्वरूप का निरूपण ३६०-३७७ ५९. किस प्रकार के अदत्ताग्राही चोरों को किस प्रकार का फल मिलते है उनका निरूपण ३७८-३८६ ६० तीसरे अध्ययन का उपसहार ३८७-३९० चोथा अध्ययन ६१ अब्रह्म के स्वरूप का निरूपण ३९१-३९५ ६२ अब्रह्म के नामों का और उसके लक्षणों का निरूपण ३९५-४०० ६३ मोह से मोहित बुद्धिवालों से अब्रह्म के सेवन के प्रकारों का निरूपण ४००-४०३ ६४ चक्रवर्त्यादिको का और उनके लक्षणों का वर्णन ४०३-४१९ ६५ बलदेव और वासुदेव के स्वरूप का निरूपण ४१९-४४३ ६६ अब्रह्म सेवी कौन होते है ? उनका निरूपण ४४३-४४४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ युगलिकों के स्वरूप का निरूपण ४४५-४६७ ६८ युगलिनीयों के स्वरूप का निरूपण ४६७-४८५ ६९ चौथे अन्तर का निरूपण ४८५-४९४ ७. चोथा अध्ययन का उपसहार ४९४-४९८ पांचवा अध्ययन । ७१ परिग्रह के स्वरूप का निरूपण ४९९-५०६ ७२ परिग्रह के तीस नामों का निरूपण ५०७-५१२ ७३ जिस प्रकार से जो जीव परिग्रह करते हैं उनका निरूपण ५१२-५२७ ७४ मनुष्य के परिग्रह का निरूपण ५२८-५३२ ७५ परिग्रह से जीव को किस फल की प्राप्ति होती है उनका निरूपण ५४०-५४६ ७६ पाचवा अध्ययन का उपसहार ५४७-५५० दूसरा भाग-पला अध्ययन ७७ पाचसवर द्वारों के नाम और उनके लक्षणों का निरूपण ५५१-५५८ ७८ प्रथमसवरद्वार का निरूपण ५५९-५६९ ७९ अहिंसा के महात्म्य का निरूपण ५७०-५७२ ८. अहिंसा धारण करने वाले महापुरुष के स्वरूप का निरूपण ५७३-६०१ ८१ अहिंसा को पालन करने को उद्यत होने वालों के कर्तव्य का निरूपण ६०२-६१६ ८२ अहिंसावत की ' ईर्यासमिति' नाम की प्रथम भावना का निरूपण ६१७-६२२ ८३ 'मनोगुप्ति' नाम की दूसरी भावना का निरूपण ६२३-६२५ ८.४ 'वचनसमिति' नाम की तीसरी भावनाके स्वरूप का निरूपण ६२६-६२८ ८५ 'एपणासमिति' नामकी चौथी भावना के स्वरूप का निरूपण ६२९-६३९ ८६ 'निक्षेप' नामकी पांचवी भावना का निरूपण ६४०-६४२ ८७ प्रथम अध्ययन का उपसहार ६४३-६४८ दूसरा अध्ययन ८८ सत्य के स्वरूप का निरूपण ६४९-६८४ ८९. अनावचिन्त्य समिति' नाम की प्रथम भावना के Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरूप का निरूपण ૬૮૧-૧૮૮ ९० 'क्रोधनिग्रहरूप ' दूसरी भावना का निरूपण ६८९-६९२ ९१ 'लोभनिग्रहस्प ' तीसरी भावना का निरूपण ६९३-६९६ ९२ 'धैर्य' नाम की चौथी भावना के बरप का निरूपण ६९७-७०० ९३ पाचवी 'मौन' भावना के स्वरूप का निरूपण ७००-७०४ ९४ अध्ययन का उपसहार ७०५-७१० तीसरा अध्ययन ९५ अदत्तदानविरमण के स्वरूप का निरूपण ७११-७२१ ०६ कैसा मुनि अदत्तादानादि त्रत का आराधन नहीं ___करते उसका निरूपण ७२२-१२७ ९७ कैसा मुनि इस व्रत का पालन कर सकते है उसका निरूपण ७२७-७४० "९८ 'विविक्तवसतित्रास' नाम की प्रथम मावना का निरूपण ७४१-७४७ ९९ ' अनुज्ञातसस्तारक ' नामकी दूसरी भावना का निरूपण ७४८-भ५१ १०० शय्यापरिकर्म वर्जन ' रूप तीसरी भावना का निरूपण ७५२--७५६ १०१ 'अनुज्ञातभक्त ' नामक चौथी भावना का निरूपण ৬৭৩-৬৪০ १०२ 'विनय ' नामकी पांचवी भावना का निरूपण ७६१-७६४ १०३ अध्ययन का उपसहार ७६५-७७० चौथा अध्ययन १०४ ब्रह्मचर्यके स्वरूप का निरूपण ७७१-७८८ १०५ ब्रह्मचर्य आराधन का फल ७८९-७९५ १०६ ब्रह्मचारी को आचरणीय और अनाचणीय आदिका निरूपण ७९६-८०३ १०७ 'अससक्त वासवसति' नामकी मम भावना का निरूपण ८०४-८०८ १०८ 'स्वीकथा विरति ' नामकी दसरी भावना का निरूपण ८०९-८१५ १०९ 'स्त्रीरूप निरीक्षण ' वर्जन नामकी तीसरी भावना का निरूपण ८१६-८१८ ११० 'पूनरत पूर्वक्रीडितादि ' विरति नामकी चौथी भावना का निरूपण ८१९-८२५ १११ 'मणीतभोजनवर्जन' नामकी पांचवी भावना का निरूपण ८२६-८२९ ११२ चतुर्थ अध्ययन का उपसहार ८३०-८३४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचया अध्ययन ११३ परिग्रहविरमण का निरूपण ८३५-८४५ ११४ त्रसस्थावर पिपयक अपरिग्रह का वर्णन ८४६-८५२ ११५ अकल्पनीय वस्तु का निरूपण ८५३-८६० ११६ कल्पनीय अशनार्दिक का निरूपण ८६०-८७० ११७ सयवाचार पालक की स्थिति का निरूपण ८७१-८८९ ११८ 'निस्पृहा ' नामकी पहली भावना का निरूपण ८९०-९०० ११९ चक्षुरिन्द्रिय सवर' नामकी दूसरी भावना का निरूपण ९०२-९१५ १२० 'घ्राणेन्द्रियसवर' नामकी तीसरी भावना का निरूपण ९१६-९२२ १२१ जिहूवेन्द्रियसवर ' नामकी चौथी भावना का निरूपण ९२३-९२९ १२२ ' स्पर्शेन्द्रियसवर' नामकी पाचवी भावना का निरूपण ९३०-९४१ १२३ अध्ययन का उपसहार ९४२-९४८ १२४ दशमाङ्ग मे श्रुतस्कधादि का निरूपण ९४९१२५ शास्त्रमशस्ति ९५०-९५३ -समाप्त: Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૬, ૫૦૬) આપનાર આવ મુખ્ખીશ્રી 3. 10 સ્વ. રોઝ મુકુન્દચદજી માલીયા (પાલીવાળા) અમદાવાદ. 1 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठसाहेब श्री मुकनचन्दजी वालियाजीका संक्षेपमें जीवनचरित्र श्रीमान् सेठ साहय श्री मुकनचन्दजी साहय पाली ( मारबाढ़ ) के निवासी थे । आपका शुभ जन्म सवत् १९४० फाल्गुन कृष्ण पक्ष रविवारको हुआ था। आपका पवित्र वा सदा धर्मशील, विद्याप्रेमी और उदारचरित रहा है । आपके परम पूज्य पितामह श्रीमान् सेठ सा श्रीपूनमचन्दजी साहन नालिया थे । सेठ सा. श्री पूनमचन्दजी साहब नालिया के दो पुत्र थे, एक श्री राजारामजी माहय और दूसरे श्रीअगरचन्दजी साहय । आगे चलकर श्रीमान् सेठसा, श्री राजारामजी सा के श्री ताराचन्दजी साह और श्रीमुकनचन्दजी साहन करके दो पुत्र थे, किंतु अगरचन्दजी सा के पुत्र नहीं था । इसी लिए श्रीमान अगर चन्दजीसाहने अपने माईके ही पुत्र श्रीमुकनचन्दजी सोहनको दत्तक (गोद ले लिया । श्रीमान सेठ साहन श्री मुकनचन्दजी शुरू से ही पडे होनहार, धर्मशील और उदार थे। सौभाग्य से आपकी धर्मपत्नी श्रीमती श्री सृगनक्कुथर याईजी भी धर्मशीलता एव उदार व्यवहार मे आपके ही समान थी श्रीमती श्री मुगनकुवर पाइजी की धर्मश्रद्धा का सुप्रभाव आज भी आपके कुटुन पर अच्छी तरह दिखाई देता है । आप दोनों ने धर्म के दीपक से न केवल अपने परिवार को ही प्रकाशित किया है, किंतु जीवन मे अपने मपर्क मे आनेवाले सभी धर्म प्रेमी जिज्ञासुओं को धर्म श्रद्वालु बनाने का पवित्रकार्य किया है । यों सेठ साहब श्री मुकनचन्दजी सा बड़ी सरल प्रकृतिके मज्जन थे । व्यापार आपका समुद्रपार अनेक देशो में फैला हुआ था। आपकी जमींदारी भी खुप थी । आपके रहन-सहन और व्यवहार से सदा सादगी टपकनी थी । जितने आप Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - મ શેઠ શામજી વેલજી વગણું કેટ, રોડ ગામ ગામજીવી જાટ, છે. મીશ્રી લાલજી અને જેમત-ગજજી લુણીયા અમદાના Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીએ (અ)નેક હરખચંદ કાલીદાસ વારીઆ ભાણવડ, શ્રી ઠારી હરગોવિદભાઈ ચદ જાટ, રોઠ શ્રી રતિલાલ મગળદાસભાઈ અમદાવાદ, - .. -. - (સ્વ) . શ્રી ધારશીભાઈ જીવણભાઈ | લાપર () શેઠ આત્માગમ માણેક્ષાલ અમદાવાદ, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ उदारर-चरित थे, उतने ही आप शास्त्रों के ज्ञाता मो थे । साम करके धर्मशास्त्रमे आपका अच्छा प्रवेश था। ज्योतिषशास्त्र के नी आप मर्मज्ञ ये कहने का तात्पर्य यह है कि मोने में युग की तरह आप पर भगवती, सरस्वती और देवी लक्ष्मी दोनो का समान रपसे आशीर्वाद का हाथ रहा। पाली के आनालवृद्ध सभी आपके गुणों को आज भी भूले नहीं है । आपकी तरफ से पालीमें कन्याशाला, हाईस्कुल आदि शैक्षणिक संस्थाएँ चल रही हैं, जिनमें प्रति वर्ष कई विद्यार्थी विद्यालाभ प्राप्त कर रहे है। गरीब, अपग और अनाथों के लिए भी आपकी तरफ से सदावत अनाथालय और प्याज चल रही हैं | आयविल खाता भी आपकी तरफ से पाली में चल रहा है आपका स्वर्गवास सवत् २०१८ कार्तिक शुद्ध द्वितीया शुक्रवार को हुआ । श्रीमात् सेठ श्री मुकुनचन्दजी सा. के श्री रस्तिमलजी श्री मोहनराजजी श्री माणेकलालजी श्री मदनलाग्जी ये चार पुत्र और एक पुत्री श्री वसतकुवर मौजूद है, एव सबसे पटे पुत्र श्री सोहनराजजी सा. एव सबसे छोटी पुत्री श्री सज्जनकुवरपाई स्वर्गस्थ है। सेठ साहब के पाच पौत्र है, तीन पौत्रियां है और एक प्रपौत्र है इस तरह सेठ मायने अपने सामने चार पीढियों को फलते फुलते देखा है । पूज्य आचार्य श्री जैनधर्मदिवाकर आगमोद्धारक श्री महाराज साहब श्री घासीलालजोकी देखरेख मे वर्षो से कई शास्त्र ग्रन्थोका लेखन, प्रकाशन और सपादन होरहा है । समस्न जैनागमोका आप भारतकी अद्यतन भाषा में संस्कृत - प्राकृत हिन्दी गुजरातीमे-सरल व्याख्या करके जैन धर्मकी अभिवृद्धि कर रहे है । श्रीमान सेटसाहब के सुपुत्रोने अपने पिताश्री के पुण्यस्मरणार्थ शास्त्र प्रकाशनमे उदार सहायता की है । श्रीमान् सेठ सा की पाली - जोधपुर-व्यावर - अहमदाबाद-मुंबई मे अनेक पेढ़िया है । इश्वर कृपा से बालियानीके परिवार सुन्वमपत्ति का सदा अनुभव करते रहे । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T श्री राजारामजी श्री ताराचन्द ३ सेठ श्री पूनमचन्दजी गलिया श्री सोहनराजजी श्री मगर चन्दजी 1 I श्री मुकनचन्दजी अपने भाई के लड़के श्री मुम्नचन्दजी को गोद लिया श्री इस्तीमलजी श्री वसतपुयरवाई था माणेकलालजी श्री मोहनराजजी I (१) पाच पोत्र (२) तिन पात्रीयां (३) एक पौन थो मदनलालजी 1 श्री सज्जनकुपरवाई Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીએ (સ.)રો શ્રા દિનેશભાઈ કાન્તિલાલ શાહુ અમદાવાદ htted (સ.) ી અનવાલ શામળદાસ ભાવસ અમદાનાદ શ્રી વિનોદકુમાર વીરાણી-રાજકાટ (દીક્ષા લીધા પહેલા શાસ્ત્રાભ્યાસ કરતા) ગૅડ શ્રી જેમિશભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ (+ ) શશ્ન ૨ગજીભાઈ માહતલાલ શાહ અમાનાદ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 然没光染发炎治党治党治党总 છેશ્રી અખિલ ભારત વેતામ્બર સ્થાનક્વાસી જૈન શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ ગરેડીયાકુવા રેડ-ગ્રીન લોજ પાસે, રાજકેટ 染染染米米米米米米米米米染染带染染染带染染带染家 紫米米※※※※※※※※洗染染染米米米米米米 દાતાઓની નામાવલી શરૂઆત તા. ૧૮-૧૦-૪૪થી તા ૩૧-૧૨-૬૧ સુધીમા દાખલ થયેલ મેમ્બરના મુબારક નામ. લાઈફ મેમ્બરેનુ ગામવાર કકાવારી લિસ્ટ (નાની ભેટની રકમ આપનારનુ, તથા રૂ ૨૫૦થી ઓછી રકમ ભરનારનું નામ આ યાદીમાં સામેલ કરેલ નથી) 论染带染染料染染带染染染带热 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૬ રોડ મીશ્રીલાલજી જેવતરાજજી લૂણીયા ચડાવતવાળા અમદાવાદ ૫૧૦૨ ૧૭ શેઠ રામજીભાઈ રામજી વિરાણી એન્ડ સમરતબેન રામજી વિરાણી ટ્રસ્ટ ૧૮ એક જૈન ગૃહસ્વ નેટ “ઘાટકાપરવાળા શેઠ માણેકલાલ એ પાલડી છાસ સ્ટેન્ડ પાસે પ્લેટ ન જમીન સમિતિને ભેટ મળેલ છે અને જેનુ રજીસ્ટર તા ૨૩-૩-૨૦ ના રાજ થઈ ગયેલ છે ૩ શ્વેતા ગુલાબચંદ પાનાચંદ ૪ મ્હેતા માણેકલાલ અમુલખરાય સઘવી પીતાખ્ખુરદાસ ગુલાબચંદ ગુજકેાટ ૫૦૦૧ અમદાવાદ ૧૪૨૫ મહેતા તરફથી અમદાવાદમા ૨૫૦ વાળી ૬૮ ચે વાર મુરબ્બીશ્રીઓ–૨ ૫ ( ઓછામા ઓછી રૂ।. ૧૦૦૦ ની રકમ આપનાર) નખર નામ ૧ વકીલ જીવરાજભાઇ વર્ધમાન કોઠારી હા કહાનદાસભાઇ તથા વેણીલાલભાઈ કાઠારી ર દેશી પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૫ ૬ લલ્લુભાઈ ગોરધનદાસ ચેરીટેબલટ્રસ્ટ હુ શેઠે વાડીલાલ લલ્લુભાઈ ૧૩ દેશી કપુરચંદ અમરશી હા દલપતરામભાઈ ૧૪ મગડીયા જગજીવનદાસ રતનશી રૂપિયા જેતપુર ૩૬૦૫ શજાટ ૩૫૦૪ રાજકાટ ૩૨૮૯૫ના ઘાટકેાપર ૩૨૫૦ જામનગર ૩૧૧ ગામ અમદાવાદ ७ નામદાર ઠાકર સાહેખ લખધીરસિંહજી મહાદુર ૮ શેઠ હેરચંદ કુવરજી હા શેઠ ન્યાલચંદ હેરચંદ શાહે છગનલાલ હેમચંદ વસા હા માહનલાલભાઈ તથા મેતીલાલભાઈ ૯ ૧૦ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સ ઘ હા શેઠ ચન્દ્રકાત વીકમચંદ ૧૧ શ્વેતા સામદ તુલસીદાસ તથા તેમના ધર્મપત્ની અ. સૌ મણીગૌરી મગનલાલ ૧૨ શ્વેતા પાપટલાલ માવજીભાઈ ૨૫૦૦ મારી ૨૦૦૦ સિદ્ધપુર ૨૦૦૦ સુબઇ ૨૦૦૦ મારખી ૧૯૬૩ રતલામ ૨૦૦૦ જામજોધપુર ૧૫૦૨ જામજોધપુર ૧૦૦૨ દામનગર ૧૦૦૨ ૧૫ શેઠ માણેકલાલ ભાણજીભાઈ પેારણ દર ૧૬ શ્રીમાન ચદ્રસિહજી સાહેબ મ્હેતા (રેલ્વે મેનેજર) કલકત્તા ૧૦૦૧ ૧૦૦૧ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આદ્યમુરબ્બીશ્રીઓ-૧૮ (ઓછામા એછી રૂ।. ૫૦૦૦ની કમ આપનાર) ન ખર ૧ શેઠ શાતીલાલ મ ગળદાસભાઇ તણીતા મીલમાલીક ૨ શેઠ હરખચંદ કાળીદાસભાઈ વારીયા હા શેડ લાલચ દભાઈ, નગીનભાઈ વૃજલાલભાઈ તથા વલ્રભદાસભાઈ ૩ કોઠારી જેચ≠ અજરામર હા હરગેવિંદભાઈ એચ દભાઈ ૪ શેઠ ધારશીભાઈ જીવનભાઈ પ સ્વ પિતાશ્રી છગનલાલ શામલદાસના સ્મરણાર્થે હા શ્રી ભાગીલાલ છગનલાલભાઈ ભાવસાર હું સ્વ શેઠ દિનેશભાઈના સ્મરણાર્થે નામ હા શેઠે કાતિલાલ મણીલાલ જેશીગભાઈ છ શેઠ આત્મારામ માણેકલાલ હ શેઠ રૂપિયા અમદાવાદ ૧૫૦૦૦ ૧૧ ગ્રાહ ૨ગજીભાઇ માહનલાલ ૧૨ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કદેવીમાઇ વીરાણી સ્મારકટ્રસ્ટ હા શેઠ દુલ ભજી વીરાણી ગામ ભાણવડ ૬૦૦૦ ગુજકેટ પર૫૧ બારમી ૧૦૦૧ અમદાવાદ પરપા અમદાવાદ ૫૦૦૦ ચીમનલાલભાઈ શાતીલાલભાઇ તથા પ્રમુખભાઈ અમદાવાદ ૬૦૧ ૮ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઇ વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા શેઠ શામજી વેલજી વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૯ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સ્મારક ટ્રસ્ટ હા માતુશ્રી કડવીખાઈ વીરાણી ૧૦ શેઠ પાચાલાલ પીતાઅરદાસ રાજકોટ ૫૦૦૦ અમદાવાદ પુરા અમદાવાદ ૫૦૧ રાજકાય ૫૦. ૧૭ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઇ વીરાણી સ્મારકટૂસ્ટ હા શ્રીમતિ મણીક વરકેનદુલ ભજી વીરાણી રાજકોટ ૫૦૦૦ ૧૪ શ્રી શામજી વેલજી વીરાણી અને શ્રી કડવીબાઈ વીરાણી સ્મારકેટ્રસ્ટ હા છે.ટાલાલ શામજી વીરાણી ૧૫ સ્વ માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હું ભાવસાર એગીલાલ છગનલાલ અને કુટુ બજને રાજકાય ૫૦૦૦ અમદાવાદ ૫૦૦૦ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ » ૫૦૧ ૧૫ શેઠ ગોવિંદભાઈ પટભાઈ ૫૦૦ ૧૬ શેઠ રામજી શામજી વીરાણી ૧૭ સવ પિતાશ્રી નદાજીના સ્મરણાર્થે હા વેચદ શાતિલાલ (જાબુવાળા) મેઘનગર ૫૦૧ ૧૮ શ્રી જેનસ્થા સઘ હા શેઠ ઠાકરની કરનજી થાનગઢ ૫૦૦ ૧૯શેઠ તારાચદ પુખરાજજી ઔર ગાબાદ ૫૦૦ ૨૦ શ્રી સ્થા ન મઘ * ૫૦૦ ૨૨ મહેતા મુળચંદ રાઘવજી હા મગનલાલભાઈ તથા દુર્લભજીભાઈ પ્રોફા ૫૦ ૨૨ શેઠ હરખચ૮ પુરૂત્તમ હા ઇન્દુકુમાર ચોરવાડ ૫૦૦ ૨૩ , કેશરીમલજી વરતીમલજી ગુગલીયા મલાડ ૫૦૧ ૨૪ શ્રી સ્થાનિસઘ હા, બાટવીયા અમીચ દ ગીરધરભાઈ ખાખીજાળીયા ૫૦૧ ૨૫ શ્રી ખીમજીભાઈ બાવાભાઈ ફુલચંદભાઈ ગુલાબચ દભાઈ, નાગરદાસભાઈ જમનાદાસભાઈ મુબઈ ૫૦૧ ૨૬ શેઠ મણલાલ મોહનલાલ ડગલીહા મુળજીભાઈ મણીલાલભાઈ મુબઈ ૫૦૧ ૨૭ ૩ કાતીલાલભાઇના સ્મરણાર્થે હા શેઠ બાલચ દ સાકરચદ , ૫૦૧ ૨૮ કામદાર–રતીલાલ દુર્લભજી (જેતપુરવાળા) ,, ૫૦૧ ૨૯ શાહ જયતીલાલ અમૃતલાલ શીવ ૫૦૧ ૩૦ વેરા મણીલાલ લહમીદ * ૫૦૧ ૩૧ શેઠ ગુલાબચદ ભુદરભાઈ તથા કસ્તુરબેન હે ભાઈ અને પચ દ ખારોડ ૫૦૧ ૩૨ મહાન ત્યાગી બેન ધીરજકુવર ચુનીલાલ મહેતા ધ્રાફા ૫૦૧ ૩૩ શ્રી સ્થા જૈન સઘ પ્રોફા પ૧ ૩૪ શ્રી મગનલાલ છગનલાલ શેઠ રાજકોટ ૫૦૧ ૩પ શેઠ ચતુરદાસ ઠાકરશી તથા અ સૌ ન દકુવરબેન જામનગર ૫૦૩ ૩૬ શેઠ દેવચદ અમરશી (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસગે ભેટ) ભાણવડ ૫૦૧ ૩૭ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ (બેન ધીરજકુવરની દીક્ષા પ્રસગે ભેટ) ભાણવડ ૫૧ ૩૮ વકીલ વાડીલાલ નેમ દ રાહ વિરમગામ ૫૦૧ ૩૯ મહેતા શાન્તિલાલ મણીલાલ હા કમળાબેન મહેતા અમદાવાદ ૨૫૬ ૪૦ શ્રીયુત લાલચ દજી તથા એ સૌ ધસાબેન ૪૧ શેઠ મોહનરાજજી મુકુન દઈ બાલીયા ૫૦૧ ૪૨ સ્વ શેઠ ઉકાભાઈ ત્રીભવનદાસના સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્નીલમીબાઈ ગીરધર તરફથી હા મરઘાબેન તથા મગુબેન અમદાવાદ ૫૦૧ 9 ૫૦૧ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અમદાવાદ ૧૦૦૦ ૧૭ મહેતા સમચ દ નેણશીભાઈ (કાચીવાળા) મોરબી ૧૦૧ ૧૮ શાહ હરિલાલ અનોપચદ ખે ભાત ૧૦૦૧ ૧૫૯ મેદી કેશવલાલ હરીચક્ર અમદાવાદ ૧૦૦૧ ૨૦ કોઠારી છબીલદાસ હરખચદ મુબઈ ૧૦૦૦ ૨૧ કેકારી ૨ ગીલદાસ હરખચદ ભાલનગર ૧૦૦૦ ૨૨ શાહે પ્રેમચંદ માણેકચઢતથા આ સી અમન અમદાવાદ ૧૦૦૩ ૨૩ - શેઠ કરમશી જેઠાભાઈ સેમિયા હા એ સૌ સાકરબેન મુબઈ ૧૦૦૦ ૨૪ શેઠ પોપટલાવ ચત્રભૂજ કે ઠારી સુરેન્દ્રનગર ૧૦૦૧ ૨૫ શ્રી સ્થા, જેના લીમડી મ પ્રદાયના સમાગુણ નીધી પુજ્ય શ્રી લાધાજી સ્વામીના શીષ્ય પ્રખર પડીત રત્ન શ્રી ઉત્તમચંદજી મહારાજના સ્મર પુજ્ય લાધાજી સ્વામી પુસ્તકાલય તરફથી હ શેઠ જેશી ગભાઈ પાચાલાલ સહાયક મેમ્બરે-૧૨૫ (ઓછામાં ઓછી રૂ ૫૦૦ની રકમ આપનાર) ન બર ગામ રૂપિયા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ ઝાભાઈ વેલશીભાઈ વઢવાણશહેર ૭૫૦ ૨ શેઠ નરોત્તમદાસ ઓઘડભાઈ જોરાવરનગર ૭૦૦ ૩ શેઠ રતનશી હીરજીભાઈ હા ગોરધનભાઈ જામજોધપુર પપપ ૪ ખાટવીયા ગીરધર પરમાણુ દ હ અમીચ દભાઈ ખાખીજાળીયા પર ૫ મિોરબીવાળા સંઘવી દેવચંદ નેણશીભાઈ તથા તેમના ધર્મપત્ની સૌ મણીબાઈ તરફથી હા મુળચદ દેવ દ સ ઘવી મલાડ ૫૧૧ ૬ વેરા મણીલાલ પિપટલાલ અમદાવાદ ૫૨ ૭ ગોસલીયા હરીલાલ લાલચ દ તથા ચ પાબેન ગોસલીયા , ૫૨ ૮ શાહ મનહરલાલ પ્રાણજીવનદાસ મુ બઈ પ૦૧ ૯ શેઠ ઈશ્વરલાલ પુરુત્તમદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૦ શેઠ ચ દુલાલ છગનલાલ ૫૦૧ ૧૧ શાહ શાતિલાલ માણેકલાલ ૫૦૧ ૧૨ શેઠ શીવલાલ ડમભાઈ (કરાચીવાળા) લીમડી ૫૧ ૧૩ કામદાર તારાચ દ પિપટલાલ ધોરાજીવાળા રાજકેટ ૫૦૦ ૧૪ મહેતા મેહનલાલ કપુરચદ નામ પ૦૦ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છે ૫૦૦ ૬૨ અ સૌ લીલાવતીબેન ઈશ્વરલાલ ૬૩ હેમા પ્રભુદાસ ભાણજી કલકત્તા પપ૧ ૬૪ શેઠ લક્ષમણદાસ મેજરામ અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૫ શ્રી સ્વા જેન મોટા સ ઘ રાજકેટ ૫૦૧ ૬૬ શેઠ ચાદમલ બીરધીચ નામિક સીટી ૫૦૧ ૨૭ ઝવેરી માણેકચંદજી પન્નાલાલ કાલાણી હ ધનવંતીબેન તથા કિરણબેન દિહી ૫૦૧ ૬૮ શેઠ હસરાજજી પૂર્ણમલજી કાકરીયા ગોળાવ ૫૦૧ ૬૯ શ્રી સ્થા જૈન સભા કલકત્તા ૫૦૧ ૭૦ શેઠ તેજસિહજી ફતલાલજી છાજેડ ઉદેપુર ૫૦૧ ૭૧ શેઠ રતનચદ લક્ષ્મીચંદ મુબઈ ૫૦૦ ૭૨ શાહ ઉમરથી ભીમશીભાઈ (સ્વ પિતાશ્રી ભીમશીભાઈ તથા માતુશ્રી પાલાબાઈ તથા ધર્મપત્ની પાનબાઈના સ્મરણાર્થે) મુબઈ પર ૭૩ શાહ શામલભાઈ અમરસીભાઈ અમદાવાદ ૫૦૨ ૭૪ મહેતા ચન્દ્રકાન્ત નૌતમલાલ મુબઈ ૫૦૧ ૭૫ શેઠ ભીખચક્ર લાલચક્ર પીપલગામ ૫૦૧ ૭૬ બેન મોહિનીબેન મહેતા મુ બઈ ૫૦૧ ૭૭ શ્રીમતી મોઘીબેન નવલચદ શાહ લીમડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૫૦૧ હ મતીબેન ૭૮ શ્રીમતી વિમલાજી સૂરજમલ મહેતા બેલગામ ૫૦૧ ૭૯ ઉદાણી નિહાલચક્ર હાકેમચન્દ્ર વકીલ બી એ એસ એલ બી, રાજકેટ ૫૦૧ ૮૦ સ્વ કઠારી મગનલાલજી કુન્દનમલજીને સ્મરણાર્થે હ તેમના ધર્મપત્ની રાજકુવરબેન સતારા ૭૫૧ ૮૧ શેઠ મોહનલાલજી મ છાલાલજી હ રમણીકલાલ (મુનિશ્રી ફતેચ મ ના શિષ્ય ૫ મુનિશ્રી કનૈયાલાલજી મ ના ઉપદેશથી) જયપુર ૫૦૧ ૮૨ શેઠ કનૈયાલાલજી સેહનલાલજી કાવડિયા પારડી ૧૦૧ ૮૩ શેઠ પ્રતાપમલજી કપુરચદજી સાટેરાવવાળા (પૂજ્ય ફતેચ દજી મ ના શિષ્ય મિશ્રીલાલજી મ ના શિષ્ય ચાદમલજી મ ના ઉપદેશથી) અમદાવાદ ૫૦૧ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ૪૩ પારેખ જ્યંતીલાલ મનસુખલાલ રાજકોટવાળા લા વિનુભાઈ 15 શ્રી સ્થા.જૈન સઘ ૪૪ ૪૫ શ્રી સ્થા. જૈન સંઘ મટાદ ૨૦૧ (રાર) પીપળગાંવ પન્ ૪૬ શેઠ ગુડમલજી શેષમલજી જોવર ૪૭ સ્વ. તુરખીયા લહેરચંદ માણેકચંદના સ્મરણાર્ય તેમના ધર્મ પત્ની જીવતીખાઈ તરફથી હા ભાઈ જય તીલાલ તથા પૂનમચ દભાઇ ૪૮ શાહે અણુળદાસ શુકનરાજી હા યુકેનરાચ્છ ૪૯ ભાવસાર ખાડીદાસ ગણેશભાઇ ૫૦ અ સૌ હીશમેન માણેકલાલ મહેતા પર મહેતા શાતીલાલ મગનલાલ તથા આ સૌ પદમાવતી શાતિલાલ મહેતા ૫૧ વાકાનેર ૫૧ પરશેઠ હીરાચદજી વનેચંદજી કટારીયા ૫૩ શેઠ છેટુભાઇ હરવિદાસ કઢાીવાળા ૫૪ પારેખ રતિલાલ નાનચંદ મેારીવાળા તરફથી તેમના પિતાશ્રી નાનચંદ ગેવિદજીના સ્મરણાર્થે તથા તેમના ધમપત્ની આ સૌ વસત બહેનના અાઈતપ નિમિત્ત હા ભુપતલાલ રતિલાલ વાદરા પ અમદાવાદ ૧૦ન ધંધુકા ૧૦૧ પાટāાપર ૫૦૧ અમદાવાદ ૫૦૦ હુબલી ૨૦૧ મુંબઈ ૫૧ અમદાવાદ પર ૫૫ સ્વ. શાહ ત્રીભાવનદાસ મગનલાલના સ્મરણાથે તેમના ધર્મ પત્ની શીવકુ વરબાઇ તરફથી હા રતીલાલ ત્રીભાવનદાસ શાહે અમદાવાદ ૫૧૧ ૫૬ શ્રીમાન નાથાલાલ માણેકચંદ પારેખ ૫૭ શ્રી લીમડી સપ્રદાયના ગચ્છાધીપતિ પૂ આચા સુ બઈ (માટુંગા) ૨૦૧ મહેરાજ શ્રી લાધાજી સ્વામીના સ્મરણાર્થે હા શેઠ જેશીગભાઈ પાચાલાલ (મહરાજ શ્રી ટાલાલજી સદાન દીના ઉપદેશથી) ૫૮ સ્વ શ્રી વિનયમૂર્તિ શ્રી લક્ષ્મીચ દજી મહાસાજના સ્મરણાર્થે હા શેઠ જેશી ગભાઇ પાચાલાલ (મહેશજશ્રી કેટાલાલજી સદાન દીના ઉપદેશથી) પહે ખા મ્ર પ્રભાવતીબેન કેશવલાલ ઉજ્જૈનવાલા તરફથી તેમની દીક્ષા પ્રસ ગે અમદાવાદ ૫૦૧ અમદાવાદ ૫૦૧ વીરમગામ ૫૧ ૬૦ શેઠ શ્રીયુત હરજીવનદાસ રાયગઢ હા છબીલદાસ હરજીવન અમદાવાદ ૫૦૧ ૬૧ શેઠ પેાપટલાલ હુંસરાજ તથા દિવાળીબેનના સ્મરણાર્થ હા શેઠ બાબુલાલ પેપટલાલ અમદાવાદ ૫૦૨ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ન ભર નામ ગામ પિયા ૯૮ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ હ. પ્રમુખ બનીલાલ કટારીયા હિનઘાટ ૫૦૧ ૯૯ લાલાજી રામલાલજી રોગનલાલજીઅનેક ગુણાલકૃત મહાસતીજી મહદેવીના ઉપદેશથી) દીલ્હી ૫૦૧ ૧૦૦ વ મહેતા માળજી મણીલાલજીના મરણાર્થે હ તેમના ધર્મપત્ની ગુણવતીબહેન મહેતા પિચેરી ૫૦૧ ૧૦૧ બાટવીયા વનેચદ અમીચંદ (મહાવીર ટેક્ષટાઈલ ટેમ) બેગર ૫૫૩ ૧૦૨ શ્રીયુત તાગચર ગેલડા ટ્રસ્ટ મદ્રાસ ૫૦૧ ૧૦૩ ગેગુલરાજજી પુનમચંદજી મહેતા કીસનગઢ ૫૫૧ ૧૦૪ છે. અગમલજી ત્રીકમચદજી ઈદર મીટી ૫૫૧ ૧૦૫ કાનુગા ધી ગડમલજી મુલતાનમલજી કવાડ ગઢમીયાણા વાળા અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૦૬ લાલાજી નવતનચદજી ચડીયાના ધર્મપત્ની શ્રીમતી રાજકુમારીબેન દિલ્હી ૫૦૧ ૧૦૭ શેઠ ચીમનલાલ રૂષભચદ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૦૮ શેઠ કાનજી પાનાચદ ભીમાણી ટ્રસ્ટ કલકત્તા ૫૦૧ ૧૦૯ શેઠ ગીરધરલાલ હ મગજ કામા , ૫૦૧ ૧૧૦ અનેક ગુણાલકૃત મહાસતી મેહનદેવીજીના ઉપદેશથી વધમાં બધુઓ તરફથી દિલહી ૫૦૧ ૧૧૧ સ્વ વિનયચંદજી પારેખના ભણુર્થે લાલા પૂર્ણચદજી રતનચંદજી પારેખની વતી હ શ્રીમતી પ્રેમાદેવી ( શાત સ્વભાવી મહાસતીજી કુલકુવરબાઈના ઉપદેશથી) દીહી ૫૦૧ ૧૧૨ શ્રીમતી બદામબાઈ મીથીલાલજી લૂણુયા ચડાવતવાળા અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૩ શેઠ ભગ્નકુમાર મણલાલ દલાલ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૪ રાહ હરખચદ અમરચંદ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૫ શાહ જગજીવનદાસ વન્દાવનદાસ અમદાવાદ ૫૦૧ ૧૧૬ શેઠ હસરાજ લહમીદ કામાણી જૈનભૂવન કલકત્તા ૫૦૧ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪ શ્રીમાન લાલાજી રેશનલાલજી અમરલાલજી બત પ૧ હ મોતીલાલજી ૮૫ શ્રીમાન ભૂરમલજી દલીચંદજી સાકરિયા (૫ મે થી સ્વામીદાસજીના સ પ્રદાય પૂમ થી ફતેચંદજી મ ના શિષ્ય ૫ મુની શ્રી કનૈયાલાલજી મ ના ઉપદેશથી સારાવ ૫૦૧ ૮૬ સ્વ ગરીશ કર કાળીદાસ દેસાઈના મરણાર્થે હ ભૂપતલાલ ગીરીશકર ઈર ૫૦૧ ૮૭ શેઠ સાહેબ શ્રી નરામભાઈ હસરાજભાઈ કમાણી જમશેદપુર ૫૦૧ ૮૮ સ્વ મહાસજી શ્રી ધનદેવીજી મ મા ને ઓરણા સ્વ ખૂબચદજી સખલાલના ધર્મપત્ની શ્રીમતી જયદેવી તરફથી (મહાસતીજી શ્રી સુદનામતિજી તથા કુલમતીના ઉપદેશથી દિહી ૫૦૧ ૮૯ શ્રીમાન લાલા કપૂરચદજી બેથરાના ધર્મપત્ની શ્રીમતી વસતદેવી હા લાલા રાજમલજી હેમચ દજી તરફથી (મહાસતી શ્રી સુદર્શનામતિજી તથા ફૂલમ તિજી મહાદેવીને ઉપદેથી) દિલ્હી પ૦૧ ૯૦ સ્વ મહાસતીજી શ્રી દ્રૌપતાદેવીજી મ સા ના સ્મરણાર્થે શ્રી એસ એસ જૈન મહિલા સઘ તરફથી (અનેક ગુણલકૃત મહાસતીજી શ્રી મહાદેવજી મ સા ની પ્રેરણાથી) દિલ્હી પ૦૧ ૯૧ સ્ત્ર લક્ષ્મીચંદજીના સ્મરણાર્થે નગિનાદેવી સુજ તીન તરફથી હસ્તે સઘવી હેમતકુમાર જૈન દિલ્હી ૫૦૧ ત્ર ૩ પિતાશ્રી લાલા ઝવેરી ઘનમલજી સુજ તી ના સ્મરણાર્થે હસ્તે શ્રીમતી નગીના દેવી દિલ્હી ૫૦૧ ૯૩ લાલાજી કસ્તુરચન્દજી ખુશાલચન્દજી સચેતી હ જ્ઞાનચ દેજી અલવર ૫૦૧ ૯૪ પૂજ્ય પિતાશ્રી દુર્લભજી સેમચદ દફતરી હે ગીરીશકર દુર્લભજી દફતી મુંબઈ પ૦૦ ૫ શેઠ સોમચંદ જેઠાલાલ ઘેલાણી હ ચુનીલાલભાઈ જેઠીયાવાળા મુખઈ ૫૦૬ ૯૬ શેઠ ફેજમલજી સુલતાનસીહજી બેરદીયા અમદાવાદ ૫૦૧ ૭ શેઠ છગનલાલ શામજીવિરાણી તથા શ્રીમતી વૃજકુવરબેન છગનલાલ વિરાણી સ્ટફડ તરફથી શેઠ છગનલાલ ભાઈના સ્મરણાર્થે રાજકેટ ૫૦૧ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ શ્રી છીપાળ દરીયાપુરી આઠકટી સ્થા જૈન સંઘ હા શેઠ ચ દુલાલ અચરતલાલ ૨૫૧ ૧૪ શાહ ચીનુભાઈ બાલાભાઈ Clo શાહ બાલાભાઈ મહાસુશલાલ ૨૫૧ ૧૫ શાહ ભાઈલાલ ઉજમશી ૨૫૧ ૧૬ શ્રી સુખલાલ ડી શેઠ હા ડો કે સરસ્વતીબેન શેઠ ૨૫૧ ૧૭ શ્રી સૌરાષ્ટ્ર થા જૈન સંઘ હા શેઠ કાતિલાલ જીવણલાલ ૨૫૧ ૧૮ મોદી નાથાલાલ મહાદેવદાસ ૨૫t ૧૯ શાહ મોહનલાલ ત્રીકમલાલ ૨૫૧ ૨૦ શ્રી છોટી થા જૈન સંઘ હા શેઠ પાચાલાલ પિતાબામ ૨૫૧ ૨૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા ભાઈલાલ અમૃતલાલ ર૫૧ ૨૨ શાહ નવનીતરાય અમુલખાય ૨૫૧ ૨૩ શાહ મણીલાલ આરારામ ૨૫ ૨૪ શેઠ ચીનુભાઈ સાકરચંદ ૨૫૧ ૨૫ શાહ વિરજીવનદાસ ઉમેદચદ ૨૫૬ ૨૬ શાહ રજનીકાત કરતુરચદ ૨૫૧ ૨૭ સ ઘવી જીવસુલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૨૮ શાહ શાતિલાલ મોહનલાલ ધ્રાગધ્રાવાળા ૨૫૨ ૨૯ અ સૌ બેન તનબેન નાદેચા હ શેઠ ધુલજી ચ પાલાલજી ૨૫૧ ૩૦ શાહ હરિલાલ જેઠાલાલ ભાડલાવાળા ૨૫૧ ૩૧ શ્રી સરસપુર દરીયાપુરી આઠ કેટી થા જેન ઉપાશ્રય હા ભાવસાર ભેગીલાલ છગનલાલ ૨૫૧ ૩૨ શેઠ પુખરાજજી સમતીરામજી પુનમિયા બાદડીવાળા ૨૫. ૩૩ સ્વ પિતાશ્રી જવાહરલાલજી તથા પૂજ્ય ચાચાજી હજારીમલજી બરડીયાના સમરણાર્થે હા મુળચ દ જવાહરલાજી બરડીયા ૩૪ વ ભાવસાર બબાભાઈ (મગળદાસ) પાનાચ દના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની પુરીબેન ૨૫૧ ૩૫ સ્વ પિતાશ્રી રવજીભાઈ તથા સ્વ માતુશ્રી મુળીબાઈના સ્મરણાર્થે હા કકલભાઈ કે ઠારી ૩૬ ભાવસાર કેશવલાલ મગનલાલ ૨૫૧ ૩૭ શાહ કેશવલાલ નાનચંદ જાખડાવાળા હા, પાર્વતીબેન ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૧૭ | દાદાજી સ્વ કપુરચદજી તથા દાદીજી કેસરબેન ચિરડીયાના સ્મરણાર્થે હલાલા ફલચ દજી અને શ્રીમતી વીમલકુવરી જવેરી નીવતી શ્રીમતી નગીનાદેવી (મહાસતીજી. ફુલમતીજીના ઉપદેશથી) ૧૧૮ શેઠ નગીનદાસ છેટાલાલ ૧૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ ગણેશમલ ગુલાબચદ ૧૨૦ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ ૧૨૧ શ્રી સરાક જૈન વિદ્યાલય ૧૨૨ ગાધી ભુરાલાલ નાનચદ ૧૨૩ શ્રીમાન હિમતસિંહજી સાહેબ ગલુડીયા એડીસનલ કમીશનર અજમેર ડીવીઝનવાળાના ધર્મપત્ની આ સૌ માણેકકુ વરબેન તરફથી હ ખુશાલસિહજી ગુડીયા દિલ્હી ૫૦૧ અમદાવાદ ૫૦૧ બરારા ૫૦૧ ભદેસર ૫૦૧ કુમારડી ૫૦૧ મુબઈ ૫૦૧ જયપુર ૫૫૧ ૫૮૪–લાઈફ મેમ્બર અમદાવાદ તથા પરાઓ ન ખર નામ ૨૫૦ ગામ રૂપિયા ૧ શેઠ ગીરધરલાલ કરમચંદ ૨૫૧ ૨ શેઠ ઇટાલાલ વખતચદ હા ફકીરચ દભાઈ ૨૫૧ ૩ શાહ કાતિલાલ ત્રીભવનદાસ ૨૫૧ ૪ શાહ પિપટલાલ મોહનલાલ ૨૫૧ ૫ શેઠ પ્રેમચંદ સાકરચંદ ૬ શાહ રતીલાલ વાડીલાલ ૨૫૧ ૭ શેઠ લાલભાઈ મગળદાસ ૨૫૧ ૮ સ્વ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હા કાનજીભાઈ અમૃતલાલ દેશાઈર૫૧ ૯ શાહ નટવરલાલ ચદુલાલ ૨૫૧ ૧૦ શાહ નરસિંહદાસ ત્રીભવનદાસ ૨૫૧ ૧૧ શાહ બીપીનચદ તથા ઉમાકાત ચુનીલાલ પાણી ૩૦૧ ૧૨ શ્રી શાહપુર દરિયાપુરી આઠકેટી સ્થા જૈન ઉપાશ્રય હ વહીવટ કર્તા શેઠ ઇશ્વરલાલ પુરુત્તમદાસ ૨૫૧ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૩ ૬૩ અ સૌ એન લાભુબેન મગનલાલ હું શાહે અમૃતલાલ મનજીભાઈ વઢવાણુ શહેરવાળા ૬૪ અ સૌ બેન કાન્તાબેન ગારધનદાસ (ચાદમુનિના ઉપદેશથી ) ૬૫ દેશી ફુલચ દ સુખલાલભાઈ એટાદવાળાના મરણામે હું ઢાળી છબીલદામ ફુલચ દભાઈ ૬૬ લાલાજી ગમકુવરજી જૈન ૬૭ શેઠ છેટાલાલ ગુલાબચંદ પાલનપુરવાળા ૬૮ શાહ ધીરજલાલ મેાતીલાલ ૬૯ સધવી સૂ`કાત ચુનીલાલના મરણાથે હસ ઘવી જીવણુલાલ ચુનીલાલ ૭૦ ભાવમાર મેાહનલાલ અમુલખરાય ૭૧ મહેતા મૂળચદ મગનલાલ ૭૨ Üધ નરસિંહદાસ માકરચંદના ધ પત્ની રેવાબાઇના સ્મરણાર્થે હું હરીલાલ નરસિંહદાસ ૭૩ શાહ કુલચદભાઈ મુલચંદ હું હસમુખભાઈ કુલચ દભાઇ ૭૪ શેઠશ્રી મિશ્રીલાલજી જવાહીરલાલજી ખરડીયા ૭૫ શાહે લલ્લુભાઈ મગનભાઈ ચુડાવાળા હું જશવ તલાલ લલ્લુભાઈ ૭૬ કુમારી પુષ્પાબેન હીગલાલ (ચાદમુનિના ઉપદેશથી) ૭૭ શાહ મણીલાલ ઠાકરશી હકમળાબેન મણીલાલ લખતરવાળા (ચાદમુનિના ઉપદેશથી ) ૭૮ કુમારી નલીનીબેન ય તીલાલ ૭૯ ૧ ઉમેદરામ ત્રીભુવનદાસના ધર્મપત્ની કાશીબાઇના સ્મરણાર્થે હા રાતિલાલ ઉમેદરામ ( ચાઇનિના ઉપદેશથી ) ૮૦ સ્વ ભાવસાર મેાહનલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની ઢિવાળીબાઈના મચ્છ્વાર્થ હૈં રતીલાલ માણેકલાલ ( ચાદમુનિના ઉપદેશથી ) ૮૧ મહેતા દેવીદજી ખુમચદજી ધાકા ગઢસીયાણાવાળાના સ્મરણાર્થે હું મહેતા ચુનીલાલ હેરમાનચે દે ૮૨ ઘાસીલાલજી માહનલાલજી કાઠારી દે॰ લક્ષ્મી પુસ્તક ભંડાર ૮૩ ૧૦ શેઠ નાથાલાલ રતનાભાઈ માફીયાના મરણાર્થે પુનાબેન તરફથી હુ કરશનભાઈ ( ચામુનિના ઉપદેશથી) ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૨ ૩૮ શાહ જીતેન્દ્રકુમાર વાડીલાલ માણેકચંદ રાજસીતાપુરવાળા ૩૯ શ્રી સાબરમતી સ્થા.જૈન સઘ હા શેઠ મણીલાલભાઈ પૃષ્ઠ ભાવસાર ટાલાલ છગનલાલ પા ૨૫૦ ૨૫૧ ૪૧ ભાવસાર શકરાભાઈ છગનલાલ ૫૧ ૪૨ અ સૌ એન જીવીબેન રતિલાલ હા ભાવસાર રતિલાલ હરગાવિંદદાસ ૨૫૧ ૪૩ ભાવસાર માગીલાલ જમનાદાસ પાટણવાળા ૫૧ ૪૪ સ ઘવી માલુભાઇ કમળશી તથા તેમના ધર્મ પત્નીએ આ ગૌ ચપાર્મેન તથા વસ તમેન તરફથી ૪૫ અ સૌ. વિદ્યાબેન વનેચદ દેસાઈ વર્ષીતપ તથા અઢાઇપ્રસ ગે હા ભુપેન્દ્રકુમાર વનેચ ૬ દેસાઈ ૪૬ શાહે નટવરલાલ ગેાકળદાસ ૪૭ અ સૌ સરસ્વતીબેન મણીલાલ છગનલાલ ૪૮ અ સૌ કકુબેન (ભાવસાર ભાગીલાલ છગનલાલના ધર્મ પત્ની) ૪૯ અ સૌ સવિતાબેન (જયતીલાલ ભોગીલાલના ધર્મ પત્ની ) ૫૦ અ સૌ શાતાબેન (દીનુભાઈ ભોગીલાલના ધર્મ પત્ની) ૫૧ અ સૌ સુનદાબેન (રમણલાલ ભાગીલાલના ધર્મપત્ની) પર શેઠ હીરાજી રૂગનાથજીના સ્મરણાર્થે હું વાગમલજી રૂગનાથજી ૫૩ શેઠ મણીલાલ મેઘાભાઇ ૫૪ પટવા સુમેરમલજી અનેાપચ દજી જોધપુરવાળા ૫ સ્વ. માણેકલાલ વનમાળીદાસ શેઠના સ્મરણાર્થે હારમણુલાલ માણેકલાલ ૫૬ સ્વ શાહે ધનરાજજી ખેમરાજજીના સ્મરણાર્થે હા કનૈયાલાલ ધનરાજજી પણ શ્રી સાર ગપુર દે આ કા સ્વા જૈન સાધ હા શાહે રમણુલાલ ભગુભાઇ ૫૮ દેશી હરજીવનદાસ જીવરાજ તથા લક્ષ્મીમાઇ લહેરચંદના સ્મરણાર્થે હું દોશી મનહરલાલ કરશનદામ મુળીવાળા ૫૯ શાહ પુનમચંદ તેડુંચઢ ૬૦ શ્રીયુત ચતુરભાઈ ન દલાલ ૬૧ શ્રીયુત અમૃતલાલ ઇશ્વરલાલ મહેતા ૫૧ ૪૨૭ ૨૫૧ ૩૫૧ ૩૦૯ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ પા ૫૧ ૫૧ ૨૫૧ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૦૫ શાહ મહાસુખલાલ ભાઈલાલ ( દાન દી ૫ડિત મુનિશ્રો છેટાલ મહારાજના ઉપદેશથી) ૧૦૬ અ સૌ કાતાબેન કાળીદાસ કે કુમાર બુક બાઈડીંગ વર્કસ ૧૦૭ સ્વ હીંમતલાલ મગનલાલના સ્મરણાર્થે તેમના સુપુત્રો મેનમેં દારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી ૧૦૮ અ સૌ કાન્તાબેનના સ્મરણાર્થે હા ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ ૧૦૯ શ્રી ઉમેદચદ ઠાકરશી કે યુ ટ પાણી એન્ડ સન્સ ૧૧૦ | માતુશ્રીના સ્મરણાર્થે હ ભાવસાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૧૧૧ શાહ નાતીલાલ મોહનલાલ ૧૧૨ સરસ્વતી પુસ્તક ડાર હે પ્રભુદાસ મહેતા ૧૧૩ સરસવતી પુસ્તક ભડર હા શહ ભુરાલાલ કાળીદાસ ૧૧૪ સ્વ, પિતાશ્રી મોતીલાલને સ્મરણાર્થે હા મહેતા રણજીતલાલજી મોતીલાલ ઉદેપુરવાળા ૧૧૫ શેઠ પરસેત્તમદાસ અમરમીના ધર્મપત્ની સ્વ કુસુમબેનના સ્મરણ તથા અ ની સવીતાબેનના માસખમણના નિમિત્તે હ શેઠ મેમચદ પરસોત્તમદાસ (પિર્ટ સુદાનવાળા) ૧૧૬ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચદ્રજી ડુગરવાલ રાજાજી કરડાવાળા (મુનિશ્રી માગીલાલજીના ઉપદેશથી). ૧૧૭ ડે ધનજીભાઈ પુરસોત્તમદાસ ૧૧૮ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર ૧૧૯ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર ૧૨૦ સરસ્વતી ભડાર ૧૨૧ શેઠ ગેરિલાલજી સુગનલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૨૨ શેઠ કનૈયાલાલજી સુરાણુ પીપલોદાવાળા ૧૨૩ કામદાર વાડીલાલ દતીલાલ (સાબરમતી) ૧૨૪ કુમારી ચ પાબેન ભેગીલાલ ભાવસાર ૧૨૫ કુમારી ઉપાબેન જ્ય તીલાલ ભાવસાર ૧૨૬ કુમારી ચદ્રાબેન જયતીલાલ ભાવસાર ૧૨૭ કુમારી જયશ્રી રમણલાલ ભાવસાર ૧૨૮ શાહ ડાહ્યાભાઈ અબાલાલ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૨ ઉપર ૨૮૦ થ૫૧ ૨૪૧ ૨૫૧ ૩૫૧ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૮૪ શાહ મણીલાલ છગનલાલ ૮૫ ભાવસાર જયતીલાલ ભોગીલાલ ૮૬ ભાવસાર દિનુભાઈ ભેગીલાલ ૮૭ ભાવસાર રમણલાલ જોગીલાલ ૮૮ ભાવસાર કનુભાઈ સાકરચંદ ૮૯ શેઠ ભેરૂમલજી સાહેબ જોધપુરવાળા ૯૦ સવ બનાણી વર્ધમાન રામજીભાઈ કુદણવાળાના સ્મરણાર્થે હ શાંતિલાલ વર્ધમાન ૯૧ સવ કચરાભાઈ લહેરાભાઈના સ્મરણાર્થે હ શાતિભાઈ કચરાભાઈ હર એક સ્વધર્મી બધુ હ શાહ રખભદાસજી જયતિલાલજી ૯૩ અ સૌ સરસ્વતીબેન મણીલાલ ચતુરભાઈ શાહ (સાદી છોટાલાલ મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી) ૯૪ ચીમનલાલ મણીલાલ શાહ (રરીયાપુરી સંપ્રદાયના પૂત્ર તપસ્વી મહારાજશ્રી માણેકચ દ્રજીના શિષ્ય મુનિશ્રી મગનલાલજી મહારાજશ્રીના સ્મરણાર્થે ) ૯૫ બેન જેકુવર પ્રજલાલ પારેખ ૯૬ શેઠ પુનમચ છ જવાહરલાલજી બરડીયા ૯૭ અ સ લીલાવતી ધીરજલાલ મહેતા છે કે ધીરજલાલ ત્રીકમલાલ મહેતા ૯૮ શેઠ રાજમલજી ઘાસીલાલજી કે ઠારી કોશીથલવાળા હશેઠ ચુનીવાલ ભગવાનજી કે રતીલાલ ચુનીલાલ ૧૦૦ ભાગ્યવતી અરવી દકુમાર ઠે અરવી દકુમાર સકરાભાઈ ભાવસાર ૧૦૧ અ સૌ ચ ચળબેન મનસુખલાલ હા મનસુખલાલ જેઠાલાલ રૂપેરા ૧૦૨ સ્વ આસીબાઈ તથા વસ્તીમલજી ભેમાજીના સમરણાર્થે હા શેક મીશ્રીમલજી દેવચ દજી ઓસવાલ કેરુવાળા ૧૦૩ સ્વ શેઠ કીશનમલજી માડેતના સ્મરણાર્થે શીરેમલજી કીશનમલજી જતવાલા ૧૦૪ સ્વ શેઠ વકતાવરમલજીના સ્મરણાર્થે હા શેઠ ઘી માલાલજી મુકનરાજજી શી વારીયા (જોધપુરવાલા) ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૦૫ શાહ મહાસુખલાલ ભાઈલાલ (મદાનદી પડિત મુનિશ્રો ટાલ મહારાજના ઉપદેશથી). ૧૦૬ અ મ કતાબેન કાળીદાસ કે કુમાર બુક બાઈડીંગ વર્કસ ૧૦૭ વ હીંમતવાલ મગનલાલના માર્ગે તેમના સુપુત્રો મેમસં દ્વારકાદાસ એન્ડ બ્રધર્સ તરફથી ૧૦૮ અ સી કાન્તાબેનના સ્મરણાર્થે હા ભાવસાર નાગરદાસ હરજીવનદાસ ૧૦૯ શ્રી ઉમેદચદ ઠાકરશી કે યુ ટી ગોપાણી એન્ડ સન્સ ૧૧૦ પૂ માતુશ્રીના સ્માર્થે હા ભાવમાર ભોગીલાલ છગનલાલ ૧૧૧ શાહ શાંતીલાલ મોહનલાલ ૧૧૨ સરસ્વતી પુસ્તકભડાર હો પ્રભુદાસ મહેતા ૧૧૩ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર હ હ ભુરાલાલ કાળીદાસ ૧૧૪ ૩, પિતાશ્રી મોતીલાલના સ્મરણાર્થે હા મહેતા રણુજીલાલજી મોતીલાલ ઉદેપુરવાળા ૧૧૫ શેઠ પરસોત્તમદાસ અમીના ધર્મપત્ની સ્વ કુસુમબેનના સ્મરણ તથા અ મી સવીતાબેનના માસખમણના નિમિત્તે હા શેઠ મોમચદ પરસેત્તમદાસ (પિર્ટ સુદાનવાળા) ૧૧૬ શ્રીમાન જોરાવરમલજી ધર્મચક્રજી ડુગરવાલ રાજાજી કરડાવાળા (મુનિશ્રી માગીલાલજીના ઉપદેશથી) ૧૧૭ ડે ધનજીભાઈ પુરસોત્તમદાસ ૧૧૮ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર ૧૧૯ સરસ્વતી પુસ્તક ભડાર ૧૨૦ સરસ્વતી ભડાર ૧૨૧ શેઠ ગેરિલાલજી સુગનલાલજી ઉદેપુરવાળા ૧૨૨ શેઠ કનૈયાલાલજી સુરાણા પીપલેટાવાળા ૧૨૩ કામદાર વાડીલાલ દતીલાલ (સાબરમતી) ૧૨૪ કુમારી ચ પાબેન ભોગીલાલ ભાવસાર ૧૨૫ કુમારી ઉપાબેન જયતીલાલ ભાવસાર ૧૨૬ કુમારી ચદ્રાબેન જયતીલાલ ભાવસાર ૧૨૭ કુમારી જયશ્રી રમણલાલ ભાવસાર ૧૨૮ શાહ ડાહ્યાભાઈ આ બાલાલ ૩૦૧ ૨૫. ૨૫. ૩૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૨ ૨૫૨ ૨૮૦ થ૫૧ ૨૪૧ ૨૫૧ ૩૫૧ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૨૯ બરડિયા ચારમલજી ઝવાહર લાલજી ૧૩. શ્રી વિજયદાન સુરેશ્વરજી જ્ઞાનમ દીર પિષધશાળા ૧૩૧ શેઠ પાનાચંદ ઝવેરચ દ સારગપુર ઉપાશ્રય ટ્રસ્ટ હ વકીલ બાબુભાઈ હીંમતલાલ અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા ગાડાલાલ ભીખાલાલ અજમેર ૧ શેઠ ભુરાલાલ મોહનલાલ ડુગરવાલ અવર ૧ શ્રીમતી ચંપાદેવી કે બુઢામલજી રતનમલજી સચેતી ૨ શેઠ ચાદમલજી મહાવીર પ્રસાદ પાલાવત ૩ શ્રીયુત રૂષભકુમાર સુમતિકુમાર જૈન આસનસેલ ૧ બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની મણીબાઈ તરફથી હા રસિકલાલ, અનિલકાત, તથા વીનોદરાય આટકોટ ૧ મહેતા ચુનીલાલ નારણદાસ આણંદ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હા મનસુખલાલભાઈ આકેલા શેઠ કચનલાલ રાઘવજી અજમેરા ડે મેસર્સ અજમેરા છપર્સ એન્ડ કુ (૫ સદાનદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી). ઇગતપુરી ૧ શેઠ પન્નાલાલ લખીચદ જૈન ઈન્દોર ૧ અ સ બેન દયાબેન મેહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા (અ સી બેન વિદ્યાબેનના વષીતપ નિમિતે) હા અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૭ ઉદયપુર ૨૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ રણછતલાલજી મોતીલાલ હિંગડ ૨ શ્રીમતી હીનીબાઈ ઠે રણજીતલાલજી મોતીલાલજી હિંગ ૩ અ સી બેન ચન્દ્રાવતી તે શ્રીમાન બહેતલાલ નાહના ધમંપની, હા ગેડ રણુજીલાલજી મોતીલાલજી હિંગડ ૪ શેઠ છગનલાલજી બાગ્રેચા પ શેઠ મગનલાલ બાગ્રેચા દ વ ગેઠ ડાળલાલજી લોઢાના અરાર્થે હા શેડ દોલતસિંહજી લેતા ૭ સ્વ શેઠ પ્રતાપમલજી રાખલાના સ્માર્થે હા પ્રાણલાલ હીરાલાલ રાખલા ૮ શેઠ ભીમરાજજી થાવગ્રદજી બાફણા ૯ શ્રીયુત માહબલાલજી મહેતા ૧૦ શેઠ પન્નાલાલજી ગડેરાલાલજી હી ગડ ૧૧ શેઠ દીપચ દજી પન્નાલાલજી લોઢા ૧૨ . કસ્તૂરદજી નારૂમલજી ૧૩ શ્રી યૂ એલ ડેરી ૧૪ બાબૂ પશૂરામ છગનલાલજી શેઠ ૧૫ શેઠ કનૈયાલાલજી કારૂલાલજી જૈન ૧૬ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ આમડ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૩૫૧ ઉપલેટા ૨૫૧ ૧ શેઠ જેઠાલાલ ગોરધનદાસ ૨ સ્વ બેન સતે બેન કચરા હા ઓતમચદભાઈ, ઇટાલાલભાઈ મથા અમૃતલાલભાઈ વાલજી (કલ્યાણવાળા) ૩ શેઠ ખુશાલચંદ કાનજીભાઈ હા પ્રતાપભાઈ ૪ દેશી વિઠ્ઠલજી હરખચદ ૫ મ ઘાણું મુળશ કર હરજીવનભાઈને સમરણાર્થે હા તેમના પુત્ર જય તીલાલ રમણીકલાલ ૨૫૧ ૨૫૧ ર૫૧ ૨૫૧ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૧ ૩૫૧ ૩૫૧ ૨૫ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧૨૯ બરડિયા ચાઇમલજી ઝાહીર લાલજી ૧૩૦ શ્રી વિજયદાન સુરેશ્વરજી જ્ઞાનમ દીર પિષધશાળા ૧૩૧ શેઠ પાનાચંદ ઝવેરચદ સારાપુર ઉપાશ્રય ટ્રસ્ટ હ વકીલ બાબુભાઈ હીંમતલાલ અમલનેર ૧ શાહ નાગરદાસ વાઘજીભાઈ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા ગાડાલાલ ભીખાલાલ અજમેર ૧ શેઠ ભુરાલાલ મોહનલાલ ડુગરવાલ અવર ૧ શ્રીમતી ચંપાદેવી કે બુદ્ધામલજી રતનમલજી સચેતી ૨ શેઠ ચાદમલજી મહાવીર પ્રસાદ પાલાવત ૩ શ્રીયુત રૂષભકુમાર સુમતિકુમાર જૈન આસનસેલ ૧ બાવીશી મણીલાલ ચત્રભુજના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની મણીબાઈ તરફથી હા રસિકલાલ, અનિલકાત, તથા વીનેદરાય આટકોટ ૧ મહેતા ચુનીલાલ નારણદાસ આણંદ શેઠ રમણીકલાલ એ કપાસી હા મનસુખલાલભાઈ આકેલા શેઠ કચનલાલ રાઘવજી અજમેરા કે મેસર્સ અજમેરા બંપર્સ એન્ડ કુ (પૂ સદાનદી મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી) ઇગતપુરી ૧ શેઠ પન્નાલાલ લખીચદ જૈન ઈન્દર ૧ અ સી બેન દયાબેન મોહનલાલ દેસાઈ જેતપુરવાળા _(અ સો બેન વિદ્યાબેનના વષીતપ નિમિતે) હા અરવિંદકુમાર તથા જીતેન્દ્રકુમાર ૨ શ્રીયુત ભાઈલાલ છગનલાલ તુરખીયા ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩પ૧ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ કિગ્રામગઢ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શેડ દેવચ દ અમુલખભાઈ કલ્યાણ ૧ સ ઘવી ઠાકરશીભાઈ મઘજીના સ્મરણાર્થે હ શાહ હિમતલાલ હરખચ ૮ કાનપુર ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ કુદણી-(આટકેટ) ૧ દેશી રતીલાલ ટેકરી કેલકી ૧ પટેલ ગોવિદલાલ ભગવાનજી ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણી (તેમના સ્વ સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે) ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૨ કમ્પાલા ૧ સ્વ શેઠ નાનચ દ મોતીચદ ધ્રાફાવાળાના સ્મરણાર્થે હ તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ ૨૫૧ ૨ શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળા ૨૫૧ કુશળગઢ ૧ શેઠ ચ પાલાલજી દેવચંદજી ૨૫૧ ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા ગુલાબચદ લીલાધર ४०१ ખારાઘોડા ૧ સ્વ પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચ દ રાહ તથા - સ્વ અ સી બેન જમકુબાઈ તથા લીલાબાઈના સ્મરણાર્થે હ નરસિંહદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૨ વ, શેઠ ઓઘડલાલ લક્ષમીચદના સ્મરણાર્થે હ ભાઈચદઓઘડભાઈ ૨૫૧ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ ઉમરગાવ રાડ ૧ શાહ માહનલાલ પેપટલાલ પાનેલીવાળા એડન કેમ્પ ૧ મહેતા પ્રેમચદ માણેકચદના સ્મરણાર્થે હાં રાયચ દભાઇ, પેાપટલાલભાઇ તથા રશ્મીકલાલભાઈ ૨ શાહ જગજીવનદાસ પુણ્યે!ત્તમદાસ ૩ શાહુ ગાળદાસ શામજી ઉદાણી કલકત્તા ૧ શ્રી કલકત્તા જૈન વે સ્થા (ગુજરાતી) સઘ લાલ ૧ શેઠ મેહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ર્ડા. માર્ચ દ મગનલાલ શેઠ હાડા રતનચઃ મયાચ ઈં હા મારફતીયા ચદુલાલ મણીલાલ ૫ સ્વ શ્રીયુત વાડીલાલ પરશે।ત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા ઘેલાભાઇ તથા આત્મારામભાઈ ૬ શીંહ નાગરદાસ કેશવલાલ છ શ્રી સ્થા. જૈન સઘ હા શેઠ આત્મારામભાઈ મેાહનલાલભાઈ કી ૨૫૧ ૫૧ ૩ સ્વ નાથાલાલ ઉમેચક્રના સ્મરણાર્થે હા શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શેઠ મણીલાલ તલકચદના સ્મરણાર્થે ૧ શ્રી સ્થા દરિયાપુરી જૈન સઘ હા ભાવસાર દામેાદરદાસભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ ૨ પાવતીબેન હૈ જેસી ગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઇ કરજણ ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ મીયાયામ કરજણુ ૨૫૧ કટાર ૧ સ્થા જૈન સાઘ હું જેસીગભાઈ પાચાલાલ તરફથી ( માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી ) હું ઢાકારભાઈ રામય દ્ર ૨૫૧ ૨૫૧ પા ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૯ કરામગઢ ૧ શ્રી શ્વે સ્વ જૈન સંઘ હ ગેડ દેવચદ અમુલખભાઈ ૨પ૧ ૨૫૧ ૩૦૦ કલ્યાણ ૧ સ ઘવી ઠાકરનીભાઈ મેઘજીના સ્મરણારે હ શાહ હી મતલાલ હરખચ દ કાનપુર ૧ શાહ રમણીકલાલ પ્રેમચંદ કુદણ-(આટકેટ) ૧ દેશી તીલાલ ટોકરશી કેલકી ૧ પટેલ વિદલાલ ભગવાનજી ૨ પટેલ ખીમજી જેઠાભાઈ વાઘાણું (તેમના સ્વ સુપુત્ર રામજીભાઈના સ્મરણાર્થે) ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૨ કપાલા ૧ સ્વ શેઠ નાનચદ મોતીચદ ધ્રાફાવાળાના સ્મરણાર્થે હ તેમના સુપુત્ર જમનાદાસ નાનચંદ શેઠ ૨૫૧ ૨ શ્રીમતી હીરાબેન, રતીલાલ નાનચંદ શેઠ ધ્રાફાવાળા ૨૫૧ કુશળગઢ ૧ શેઠ ચ પાલાલજી દેવચ દરજી ૨૫૧ ખાખીજાળીયા ૧ બાટવીયા ગુલાબચદ લીલાધર ૪૦૧ ખારાઘોડા ૧ સ્વ પિતાશ્રી હરજીવનદાસ લાલચદ શાહ તથા સ્વ અ સી બેન જમકુબાઈ તથા લીલાબાઈના કમરણાર્થે હ નરસિંહદાસ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૨ સ્વ શેઠ ઓઘડતાલ લીચ દના સ્મરણાર્થે હ ભાઈચંદ ઓઘડભાઈ ૨૫૧ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮ ઉમરગાંવ રાડ ૧ શાહ માહનલાલ પાપટલાલ પાનેલીવાળા એડન કેમ્પ ૧ મહેતા પ્રેમચદ માણેકચંદના સ્મરણાર્થે હા રાયચદભાઇ, પાપટલાલભાઇ તથા રસીકલાલભાઈ ૨ શાહ જગજીવનદાસ પુરૂષોત્તમદાસ ૩ શાહુ ગાકળદાસ શામજી ઉદાણી કલકત્તા ૧ શ્રી કલકત્તા જૈન વે. સ્થા (ગુજરાતી) સઘ લાલ હા મારફતીયા ચદુલાલ મણીલાલ ૫ સ્વ શ્રીયુત વાડીલાલ પરશાત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા ઘેલાભાઈ તથા આત્મારામભાઈ ૬ શીંહ નાગરદાસ કેશવલાલ છ શ્રી સ્થા.જૈન સઘ હા શેઠ આત્મારામભાઈ માહનલોલોઈ કી ૧ શેઠ માહનલાલ જેઠાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શેઠ આત્મારામ મેહનલાલ ૨૫૧ ૨ ડૉ. મયાચદ મગનલાલ શેઠ હાડા રતનચક્ર મયાચ ૪ ૨૫૧ ૩ સ્વ.નાથાલાલ ઉમેદચ દના સ્મરણાર્થે હા શાહ રતીલાલ નાથાલાલ ૨૫૧ ૪ શેઠ મણીલાલ તલકચદના સ્મરણાર્થે ૧ શ્રી સ્થા દરિયાપુરી જૈન સ ઘ હા ભાવસાર દામેાદરદાસભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ ૨ પાર્વતીબેન કે જેસીગભાઈ ઈશ્વરલાલભાઈ કરજણ ૧ શ્રી સ્થાનકવાસી જૈન સઘ મીયાયામ કરજણ ૫૧ કાર ૧ સ્થાં જૈન સાઘ હું જેસીગભાઈ પાચાલાલ તરફથી ( માધવસિંહજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી ) હું ઢાંકારભાઈ રામચંદ્ર ૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કે કામદાર જુડાલાલ કેશવજીના માથે હા * હરીલાલ જુઠાલાલ કામદાર ૩૦૧ ૪ સ્વ કેડારી પાશર મા ચદના સ્માર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની પ્રભાકુ વબેન ૨૫૧ ૫ કઠાની ગુલાબચંદ રાયચદ ગુનવાળા ૨૫૧ દ માણી રમાનાથભાઈ નાનજી હ ચુનીલાલભાઈ ૨૫૧ ૭ માસ્તર હકીમચદ દીપચંદ શેઠ ૨૫૧ ગોદીયા ૧ સ્પા જૈન સંઘ હ હ પ્રેમચંદ છોટાલાલ (શેડ પિટલાલભાઈફથી) ૨૫૧ ગેધરા ૧ શાહ ત્રીભોવનદાસ છગનલાલ ૩૦૧ ૨ ૫ પ્રેમચંદ કરમીના સ્મરણાર્થે હા ગહ ચુનીલાલ પ્રેમચંદ ૩૦૧ ઘટકણ ૧ શાહ ચ દુલાલ કેશવલાલ ૨૫૧ ઘોલવડ (થાણું) ૧ મહેતા ગુલાબચંદ ગભીરમલજી ઘડનદી ૧ શેડ ચકભાણ શોભાચદ ગાદીયા ચુડા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા રતીલાલ મગનલાલ ગાંધી ચેટીલા ૧ શાહ વનેચંદ જેઠાલાલ શ્રી સ્વા, જૈન સઘને ભેટ ચારભુજારેડ ૧ શેઠ માગીલાલજી હીરાચદજી બાબેલ ૩૦૧ જમશેદપુર ૧ દેશી ઝવેરચદ વલભજી ૨૫૧ જલેસર (બાલાર) ૧ સ ઘવી નાનચદ પિપટભાઈ થાનગઢવાળા ' ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫ર ૩૦૦ ૨૫૧ ખીચન ૧ શેઠ કીશનલાલ પૃથ્વીરાજ માલું ખુરદારેડ ૧ શેઠ ગીરધારીલાલજી સીતારામજી ખેડપવાળા ૨ શેઠ નરસિંહદાસ તિલાલજી લાવાળા ( મુનિશ્રી ચાદમલજીના ઉપદેશથી) ખ ભાત ૧ શેઠ માણેકલાલ ભગવાનદાસ ૨ શેઠ ત્રીવનદાસ મગળદાસ ૩ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ ૪ શાહ ચ દુલાલ હરીલાલ ૫ શાહ સાકરચદ મેહનલાલ ૬ શાહે શકરાભાઈ દેવચંદ ૭ શાહ સુખલાલ દોલતરાદ ૮ ગાંધી બાપુલાલ મોહનલાલ ૯ બેન લલિતા માણેકલાલ ગાધીગામ ૧ શાહ મેરારજી ન ગજી એન્ડ કપની ગુ દાલા ૧ શાહ માલશી ઘેલાભાઈ ગુલાબપુરા૧ શ્રી સ્થા જૈન વર્ધમાન સંઘ હ માગીલાલજી ઉકારમલજી ધપવાળા ૨ શ્રી એસવાલ પચાયત હે ગુલાબચ દજી ચેરડીયા ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ગેડલ ૧ સ્વ ભાખડા વછરાજ તુલસીદાસના ધર્મપત્ની કમલબાઈ તરફથી હા માણેકચદભાઈ તથા કપુરચ દભાઈ ૨ પીપળીયા લીલાધર દામોદર તરફથી તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ ૨૫૧ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હ નામભાઈ જસાપુરવાળા) ૪ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ જેતલસર ૧ શાહ લહમીદ કપુરચદ ૨ કાદાર લીલાધર જીવનના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની જોકબેન તવી હ શાતિલાલભાઈ ગોડલવાળા જોધપુર ૧ શેઠ નવરતમલજી ધનવતસિંહજી ૨ શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપલજી સામસુખા ૩ શેઠ પુખરાજજી પદમરાજજી ભડારી ૪ શેઠ વસ્તીમલ આનદમલજી સામસુખા જોરાવરનગર Oા જૈન સંઘ હ શેડ ચ પકલાલ ધનજીભાઈ ઝરીયા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શેઠ કયાલાલ બી મોદી ડેડાયચા ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ સા ૧ ઢસાગામ સ્થા જૈન સ ઘ હ એક સંગ્રહસ્થા તરફથી ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા ન સ હ બગડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (ઢસા જ કશન) ૨૫૧ તાસગાવ ૧ સ્વ ચુનીલાલજી દુગડના સમરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની ઢાઢુબાઈના તરફથી હા શેઠ રામચંદજી ૩૫૧ થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભવનદાસ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા સુખલાલભાઈ ૪ હસાબેન અરવીદ હા ભાઈ રવીચદ માણેકચંદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨ જયપુર ૧ શ્રીમાન શેઠ શીરેમલજી નવલખાના ધર્મપત્ની અ પ્રેમલતાદેવી ૨૫૧ જસવગઢ ૧ શ્રીમાન સુન્દરલાલજી નેમચંદજી તકેસમાં ૩૫૧ જામખ ભાળીયા ૧ શેઠ વસનજી નારણજી ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા મહેતા રણછોડદાસ પરમાણુનદ ૨૫૧ ૩ સ ઘવી પ્રાણલાલ લવજીભાઈ ૨૫૧ જામન ૨ ૧ શાહ છોટાલાલ કેશવજી ૨૫૧ ૨ વેરા ચીમનલાલ દેવજીભાઈ ૨૫૧ ૩ ડે સાહેબ પી પી શેઠ ૨૫૦ ૪ શાહ રંગીલદાસ પિપટલાલ પ વકીલ મણીલાલ ખેગારભાઈ પુનાતર ૨૫૧ જુનાદેવ ૧ ઘેલા ત્રીકમજી લાધાભાઈ ૨૫૧ જીતાવી ૧ શેઠ મણીલાલ મીઠાભાઈ હ હરિલાલભાઈ (હાટીનામાળીયાવાળા) જામજોધપુર ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ મહેતા પિપટલાલ માવજીભાઈ ૩૮૭ ૨ શાહ ત્રીભોવનદાસ ભગવાનજી પાનેલીવાળા ૨૫૧ ૩ દેશી માણેકચંદ ભવાન ૨૫૧ ૪ પટેલ લાલજી જુઠાભાઈ ૨૫૧ ૫ શેઠ બાવનજી જેઠાભાઈ ૨૫૧ ૬ શેઠ વ્રજલાલ ચુનીલાલ ૨૫૧ જેત રે ૧ કોઠારી ડોલરકુમાર વેણુલાલ ૨૫૧ ૨ અ સૌ બેન સુજકુવર વેણીલાલ કોઠારી ૨૫૧ ૨૫૧ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૩ શેઠ અમૃતલાલ હીરજીભાઈ હે નરભેરામભાઈ જસાપુરવાળા) ૪ દેશી છોટાલાલ વનેચંદ ૦૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ જેતલસર ૧ શાહ લક્ષ્મીચદ કપુ દ ૨ કાદાર લીલાધર વગરના જ તેમના ધર્મપત્ની જબકબેન તરફથી હ શાતિલાલભાઈ ગેડલવાળા જોધપુર ૧ શેઠ નવરતમલજી ધનવતસિંહજી ૨ શેઠ હસ્તીમલજી મનરૂપલજી સામસુખા ૩ શેઠ પુખરાજજી પદમરાજજી ભડાગી ૪ શેઠ વતીમલજી આન દમલજી સામસુખા જોરાવરનગર સઘ હ શેડ ચપકલાલ ધનજીભાઈ ઝરીયા ૧ શ્રી રથા જૈન સંઘ હ શેઠ કનૈયાલાલ બી મેદી ડેડાયચા ૧ શ્રી સ્થા જેન મઘ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૦ ૧ ઢસાગામ સ્થા જૈન મઘ હ એક ગૃહસ્થ તરફથી ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ બગડિયા નરભેરામ જેઠાલાલ (ઢસા જ કશન) ૨૫૧ તાસગાવ. ૧ સ્વ ચુનીલાલ દુગડના મણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની ઢોટુંબાઈના તરફથી હે શેઠ રામચદજી ૩૫૧ થાનગઢ ૧ શાહ ઠાકરશીભાઈ કરશનજી ૨ શેઠ જેઠાલાલ ત્રીભોવનદાસ ૩ શાહ ધારશીભાઈ પાશવીરભાઈ હા સુખલાલભાઈ ૪ હંસાબેન અરવીદ હા ભાઈ રવીચદ માણેકચંદ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ દહાણુરેડ ૧ શાહ હરજીવનદાસ ઓઘડ ખધાર (કગીવાળા) ૨૫૧ દાહોદ ૧ શેઠ માણેકલાલભાઈ એ ગારજી ૨૫૧ દિલ્હી ૧ લાલાજી પૂર્ણચદજી જૈન (સેન્ટ્રલ બેકવાળા) ૩૫૧ ૨ શ્રીયુત કિશનચદજી મહેતાબચદજી ચારડીયા હા શ્રીમતી નગીનાદેવી તથા શ્રીયુત મહેતાબચદ જૈન ૨૫૧ ૩ અ સૌ સજજનબેન ઈદરમલજી પારેખ ૨૫૧ ૪ લાલાજી મીઠનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૩૦૧ ૫ લાલાજી ગુલશનલાલજી જૈન એન્ડ સન્સ ૩૦૧ ૬ બેન વિજ્યાકુમારી જૈન કે મહેતાનચદ જૈન (વયેવૃદ્ધ સરલ સ્વભાવી ફુલમતીજી મહાસતિજીની પ્રેરણાથી). ૭ શ્રીમાન લાલાજી રતનચદજી જૈન ઠે આઈ સી હેઝીયરી ૨૫૧ ૮ ૩ લાલાશ્રીચદજી ડુંગરીયાના સ્મરણાર્થે રાજસ્થાન ન્યાયાધિકારી હકમચંદજી જૈનના સુપુત્ર જીતેન્દ્રકુમાર વકીલના સુપુત્ર અનિલકુમાર તરફથી ભેટ હ વિનયકુમારી ૩૫૧ ૯ સ્વ લાલા ચપાલાલજી ચેરડીયાના સ્વારણાર્થે લાભચદજી તથા હીરાલાલજી તરફથી હ શાતાદેવી ૩૫૧ ૧૦ એક સદુગ્રહસ્થ તરફથી હ મહેતાબચદજી જૈન ૩૦૧ ૧૧ એક સ્વયમી બધુ તરફથી હસ્તે વિજિયાકુમારી બેન ૪૦૧ ૧૨ બાબુ નિર જન સિહજી જૈન ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ મણીલાલ જેચ દભાઈ ૨૫૧ ધાર ૧ શેઠ સાગરમલજી પનાલાલજી ૨૫૧ ધાગધ્રા ૧ ભાવદીક્ષિત અ સૌ રૂપાળીબેન હિમતલાલ સંઘવીની તપશ્ચર્યાથે સઘવી ચીમનલાલ પુરસોતમદાસ સ ઘવી તરફથી ૩૦૫ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૦ ૨ ઘવી નરસિહદાન વખતચદ ૩૦૧ ૩ શ્રી સ્થા જૈન મોટા સઘ હ મ ગળછ જીવરાજ ૨૫૧ ૪ ઠકકર નારણદાસ હરગોવિંદદાસ ૨૫૧ ૫ કઠારી કપુરચદ મગળજી ધોરાજી ૧ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૩૫૧ ૨ અ સી બચીબેન બાબુભાઈ ૨૫૧ ૩ ધી નવસરાષ્ટ્ર ઓઈલ મીલ મા લીમીટેડ ૨૫૧ ૪ રવ ગયચદ પાનાચદના સ્મરણાર્થે હ ચીમનલાલ રાયચંદ શાહ ૩૦૧ ૫ ગાધી પિપટલાલ જેચદભાઈ ૬ દેસાઈ છગનલાલ ડાહ્યાભાઈ લાઠવાળાના ધર્મપત્ની દિવાળીબેન તરફથી હ કુમારી હસુમતી ૨૫૧ એક સંગ્રહસ્થ હ મહેતા પ્રભુદાસ મુળજીભાઈ ૨૫૧ ૮ શેઠ દલપતરામ વસનજી મહેતા ૨૫૧ ૯ ૩ પિતાશ્રી ભગવાન કચરાભાઈના તથા ચિ હસાના સ્મરણાર્થે હ પટેલ દલીચદ ભગવાનજી ૩૦૧ ૧૦ મહેતા હેમચદ કાળીદાસ જામખભાળીયાવાળા ૨૫૧ ધ ધુકા ૧ શેઠ પિપટલાલ ધારશીભાઈ ૨૫૧ ૨ સવ ગુલાબ દભાઈના સ્મરણાર્થે હ વેરા પિપટલાલ નાનચદ ૨૫૧ ૩ શ્રી ચત્રભુજ વાઘજીભાઈ વસાણી ૨૫૧ ધુલીયા ૧ શ્રી અમોલ જૈન જ્ઞાનાલય હ શેઠ કનૈયાલાલ છાજેડ ૨૫૧ નડીયાદ ૧ શાહ મોહનલાલ ભુરાભાઈ ૨૫૧ નારાયણું ગામ ૧ શેઠ મોતીલાલજી હીરાચદજી ચેરડીયા બેરીવાળા ૨૫૧ ન દુરબાર ૧ શ્રી થા જૈન સંઘ હ શેઠ પ્રેમચદ ભગવાનલાલ ૨૫૧ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ નાગાર ૧ શ્રીપાલભાઈ એન્ડ કુા સાગરમલજી લુકડ ડેરવાળા તરફથી પાલનપુર ૧ એન લક્ષ્મીખાઈ હુ મહેતા હરીવાલ પીતાખરદાસ ૨ લેાકાગચ્છ સ્થા. જૈન પુસ્તકાલય હુ કેશવલાલ છ શાહ પાણમણા ૧ શ્રી સ્થા. જૈન સધ હું શાહુ છેટાલાલ પૂંજાભાઈ પાલેજ ૧ સ્વ. મનસુખલાલ મેહનલાલ સ ઘવીના સ્મરણાર્થે હૈ ભાઈ ધીરજલાલ મનસુખલાલ પ્રાતીજ ૧ સ્થા જૈન સઘ હું શ્રીયુત અબાલાલ મહાસુખરામ પુના ૧ શેઠ ઉત્તમચદજી કેવળચ દ્રજી પાકા ફાલના ૧ મહેતા પુખરાજજી હસ્તીમલજી સાદડીવાલા ૨ મહેતા કુંદનમલજી અમરચદ્રજી સાદડીવાલા અગસરા ૧ શેઠ પાપટલાલ રાઘવજી રાયડીવાળા હું નાનચંદ્ર પ્રેમચંદ્ન શાહ ૨ સ્વ માતુશ્રી જખકમાઇના સ્મરણાર્થે હું દેશાઈ વૃજલાલ કાળીદાસ બરવાળા-ઘેલાશા ૧ ૫ મેહનલાલ નરસિંહદાસના સ્મરણાર્થે હુ તેમના ધર્મપત્ની સુરજબેન મારારજી બદનાવર ૧ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન શ્રાવક સઘ હું મિશ્રીલાલ જૈન વકીલ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૦ ૨૫૧ ૩૦૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ર૭ બાલોતરા ૧ શાહ જેઠમલજી હરતીમલજી ભગવાનદાસજી ભામારી ૨૫૧ બીદડા ૧ શાહ કાનજી શામજીભાઈ બીકાનેર ૧ શેઠ ભેરુદાનજી શેઠીયા ૨૫૪ બેરા ૧ શેઠ ગાગજી કેશવજી (જ્ઞાનભકાર માટે) ૨૫૧ બેલારી ૧ શ્રી થા ન સઘ હ શેઠ હજમલજી હસ્તીમલજી રાક ૨૫૧ બેરમે ૧ શ્રી બેમો શ્વા જેન અઘ હ મહેતા નવલચદ હાકેમચંદ ૨૫૧ બે ગલોર ૧ શેઠ કોશનલાલજી કુલચ દજી સાહેબ ૨૫૧ ૨ અજમેરા છેટાલાલ માનસિગ ૩૫૧ બેટાદ ૧ સ્વ વસાણ હરગોવિંદદાસ છગનલાલના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની છબલબેન ૨૫૧ એડેલી ૧ શાહ પ્રવીણચન્દ્ર નરસિંહદાસ સાણ વાળા ૨૫૧ ૨ શાહ ગીરધરલાલ સાકરચંદ ૨૫૧ ભાણવડ ૧ શેઠ જેચંદભાઈ માણેકય દભાઈ ૩૫ર ૨ સઘવી માણેકચંદ માધવજી ૨૫૧ ૩ શેઠ લાલજી માણેકચંદ લાલપુરવાળા ૨૫૧ ૪ શેઠ રામજી જીણુભાઈ ૨૫૧ પ શેઠ પદમશી ભીમજી ફરીયા ૬ ફેફરીયા ગાડાલાલ કાનજીભાઈ હા એ સૌ શાતાબેન વસનજી ૨૫૧ ૭ ર્વી મહેતા પૂનમચદ ભવાનના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની દિવાળીબેન લીલાધર (ગુદાવાળા) ૨૧ ૨૫૧ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ભાવનગર ૧ સ્વી કુંવરજી બાવાભાઈના સ્મરણાર્થે હે શાહ લહેરચદ કુવરજી ૩૦૧ ભાદરણુ ૧ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હા પટેલ ધુલાભાઈ ઝવેરભાઈ ભીલવાડા ૧ શ્રી શાતિ જૈન પુસ્તકાલય હ ચાદમલજી માનમલજી સ ઘવી ૨૫૧ ૨ શેઠ ભીમરાજજી મીશ્રીલાલજી ૩૦૧ ભીમ ૧ ચપકલાલજી જૈન પુસ્તકાલય હે શેઠ છેગામલજી માગી વાલજી ૨૫૧ ભુસાવલ ૧ શેઠ રાજમલજી નદલાલજી ચેરીટેબલટ્રસ્ટ ૨૫૧ જાય ૧ જ્ઞાન મદિરના સેક્રેટરી શાહ કુવરજી જીવરાજ ૨૫૧ મદ્રાસ ૧ શેઠ મેઘરાજજી દેવીચદજી મહેતા ૨૫૧ ૨ મહેતા મણીલાલ ભાઈચદ ૨૫૧ ૩ મહેતા સુરજમલ ભાઈચદ ૨૫૧ ૪ મહેતા બાપાલાલ ભાઈચદ ૨૫૧ મનફરા ૧ સ્થા છેકેટ સ્થા જૈન સંઘ મનેર ૧ શાહે શેરમલજી દેવીચ દજી જશવ તગઢવાળા હ. પૂનમચંદજી શેરમલજી બોલ્યા ૨૫૧ ૨૫૧ માનકુવા ૨૫૧ ૧ ૩ મહેતા કુવરજી નાથાલાલના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની કુવરબાઈ હરખચ દ (માનકુવા સ્થા જૈન સ ધ માટે) માડવી ૧ શ્રી સ્થા છકેટી જૈન સંઘ હ મહેતા ચુનીલાલ વેલજી হঙ9 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૦ માંડવા ૧ શ્રી માડવા રહ્યા ન માઘ હ અ મિ કચનગૌરી રતીલાલ ગોસલીયા (ગઢડાવાળા) ૨૫૧ માલેગાવ ૧ શ્રી વા જેને સઘ હ ફતલાલ માલ જૈન ૨૫૧ ભાગલ ૧ શાહ ત્રીભોવનદાસ નાનજી ૨૫૦ ૨ દેશી ગીરધરલાલ જેઠાલાલ મુબઈ તથા પરાઓ ૧ 4 શ્રી પિતાશ્રી કુદનમલજી મેતીલાલજી મુળાના સ્મરણાર્થે હું શેઠ મોતીલાલજી જુમલજી (અહમદનગશ્વાળા) ૨૫૧ ૨ વર્ધમાન ખ્યા ન સા હ કામદાર રૂપચર બીવલાલ (અ ઘેરી) ૨૫૧ ૩ અ શ્રી કમળાબેન કામદાર હ કામદાર રૂપચ દ શીવલાલ (અ ઘેરી) ૨૫૧ ૪ વ માતુશ્રી કડવીબાઈના સ્મરણાર્થે હ તેમના પત્ર હકમીચદ તારાચદ દેશી (અ ઘેગી) ૨૫૧ ૫ શાહ હરજીવન કેશવજી ૨૫૧ ૬ શાહ રમણીકલાલ કાળીદાસ તથા અ સી કાન્તાબેન રમણીકલાલ ૨૫૧ ૭ સઘવી હિમતલાલ હરજીવનદાસ ૨૫૧ ૮ વેગ પાનાચ દ સ ઘજીના સ્મરણાર્થે હ ત્રબલાલ પાનાચદ એન્ડ બ્રધર્સ ૯ શાહ રામજી કરશનજી થાનગઢવાળા ૧૦ સ્વ જટાશક દેવજીભાઈ દોશીના સ્મરણાર્થે હ રણ છેડદાસ (બાબુલાલ) જટાશક દેશી ૩૦૧ ૧૧ ઘેલાણું વલભજી નરભેરામ હ નરસીંહદાસ વલભજી ૧૨ કપાસી મેહનલાલ શીવલાલ ૧૩ ત્રીભોવનદાસ માનસિયભાઈ દેઢીવાળાના સ્મરણાર્થે હ વાહ હરખચદ ત્રીભોવનદાસ ૨૫૧ ૧૪ ખેતાણી મલાલ કેવજી (વડીયાવાળા) ઘાટકોપર ૧૫ સ્વ પિતાશ્રી શામળજી વ્યાણજી ગેડલવાળાના સમરણાર્થે હું વૃજલાલ શામળજી બાવીસી ૩૦૧ ૧૬ શાહ રવિચંદ મુખલાલભાઈ (દાદર) ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૧૭ સ્વ આશારામ ગીરધરલાલના સ્મરણાર્થે હ શાંતિલાલ આસારામ વતી જશવ તલાલ તિલાલ ૨૫૧ ૧૮ ગાધી કાતીલાલ માણેકચદ ૨૫૧ ૧૯ શાહ રવજીભાઈ તથા ભાઈલાલભાઈની કુ (કાદીવલી) ૨૫૧ ૨૦ અ સ લાઝુબેન હ રલજીભાઈ શામજી , ૨૫૧ ૨૧ સ્વ માતુશ્રી માણેકબાઈના સ્મરણાર્થે હ શેઠ વલભદાસ નાનજી ૩૦૧ ૨૨ એક સદગૃહસ્થ હ શેઠ સુદરલાલ માણેકલાલ ૨૫૧ ૨૩ શેઠ ખુશાલભાઈ એ ગારભાઈ ૨૫૦ ૨૪ શેઠ ચુનીલાલ નરભેરામ વેકરીવાળા ૨૫૧ ૨૫ સ્વ માતુશ્રી ગમતીબાઈના સ્મરણાર્થે હ શાહ પિટલાલ પાનાચદ ૨૫૧ ૨૨ કેટેચા જયંતીલાલ રણછોડદાસ મિભાગ્યચદ જુનાગઢવાળા ૨૭ વેરા ઠાકરશી જસરાજ ૨૫૧ ૨૮ કોઠારી સુખલાલજી પુનમચ દજી (ખારાડ) ૨૫૧ ૨૯ અ સૌ બેન કુદનગૌરી મનહરલાલ સંઘવી ૨૫૧ ૩૦ કે ઠારી રમણલાલ કસ્તુરચદભાઈ ૨૫૧ ૩૧ દેશાઈ અમૃતલાલ વર્ધમાનના સ્મરણાર્થે હ દલીચદ અમૃતલાલ દેસાઈ ૩૨ સ્વ ત્રીભોવનદાસ વ્રજપાળ વિછીયાવાળાના સમરણાર્થે હા હરગેવિંદદાસ ત્રિવનદાસ અજમેર ૨૫૧ ૩૩ તેજાણું કુબેરદાસ પાનાચંદ ૨૫૧ ૩૪ શેઠ સરદારમલજી દેવીચદજી કાડીયા (સાદડીવાળા) ૨૫૧ ૩૫ શેઠ નેમચદ સ્વરૂપચદ ખ ભાતવાળા હ ભાઈ જેઠાલાલ નેમચદ ૨૫૧ ૩૬ શાહ કરશીભાઈ હીરજીભાઈ ૩૦૧ ૩૭ શ્રીમતી મણીબાઈ વૃજલાલ પારેખ ચેરીટેબલ ટ્રસ્ટ ફંડ હ વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ ૨૫૧ ૩૮ દડિયા અમૃતલાલ મોતીચદ (ઘાટકે પર) ૨૫૧ ૩૯ દેશી ચત્રભુજ સુદરજી ૪૦૧ ૪૦ દેશી જુગલકિશોર ચત્રભુજ ૪૦૧ ૪૧ દેશી પ્રવિણચદ ચત્રભુજ ૪ર શેઠ મનુભાઈ માણેકચ દ હ ઝાટકીયા નરભેરામ મોરારજી, ૨૫૧ ૪૩ શાહ કાતિલાલ મગનલાલ ૨૫૧ ૩૮૧ ૨૫૧ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૪ શેઠ મણીલાલ ગુલાબચંદ ઘાટકોપર પણ ૪૫ શેઠ છગનલાલ નાનજીભાઈ ૨૫૧ ૪૬ શાહ શીવજી માભાઈ ૩૫૧ ૪૭ મેસર્સ સવાણી રામપાર્ટ ક હ શેઠ માણેકલાલ વાડીલાલ ૪૮ શાહ નગીનદાસ કલા, (વેરાવળવાળા) ૨૫૧ ૪૯ મહેતા રતીલાલ ભાઈચ દ ૨૫૧ ૫. શાહ પ્રેમજી હીરજી ગાલા ૨૫૧ ૫૧ બેન કેશાઈ ચદુલાલ જેશીંગભાઈ શાહ ૨૫૧ પર પારેખ ચીમનલાલ લાલચદ સાયલાવાળાના ધર્મપત્ની આ સી ચચળબાઈના મૂરતાર્થે હા સારાભાઈ ચીમનલાલ ૨૫૧ ૫૩ ધી મરીના મોર્ડન હાઈલ દ્રઢ ફડ હા શાહ મણીલાલ ઠાગી ૨૫૧ ૫૪ મહેતા મોટર સ્ટોર્મ છે અને પચદ ડી મહેતા ૨૫૧ ૫૫ શેઠ રમીકલાલ પ્રભાશકર મોરબીવાળા તફ઼વી તેમના માતુશ્રી મણીબેનના સ્મરણાર્થે ૩૦૧ પદ શ્રીયુત જામવતલાલ ચુનીલાલ વોરા ૨૫૦ ૫૭ શાહ કુવરજી હમરાજ ૨૫૧ ૫૮ દડીયા જેની ગલાલ ત્રીકમજી ૨૫૧ પ૯ માટી અભેચંદ સુરચદ રાજકોટવાળા હા રે માલાલ અભેચ દ ૨૫૧ ૬૦ શાહ જેઠાલાલ ડામી પ્રાગધાવાળા હા શાહ વાડીલાલ જેઠાલાલ ૨૫૦ ૬૧ સ્વ પિતાશ્રી ભગવાનજી હરાચદ જસાણના સ્મરણાર્થે હા લક્ષ્મીચ દભાઈ તથા કેશવલાલભાઈ ૩૫૧ ૬૨ સ્વ પિતાશ્રી શાહ અબાલાલ પુરુષોત્તમદાસના સ્મરણાર્થે હા શાહ બાપાલાલ અબાલાલ ૨૫૧ ૬૩ સ્વ કસ્તુરચદ અમરશીના સ્મરણાર્થે હા તેમના ધર્મપત્ની ઝવેરબેન મગનલાલ વતી જય તીલાલ કસ્તુરચદ મસ્કારીયા (ચુડાવાળા) ૨૫૧ ૬૪ શેઠ ડુંગરશી હમરાજ વીસરીયા ૨૫૧ દિપ શાહ રતનશી મેણશીની કે ૧૫૧ ૬૬ શેઠ શીવલાલ ગુલાબચદ મેવાવાળા ૨૫૧ ૬૭ શાહ ચ દુલાલ કેશવલાલ ૨૫૧ ૬૮ સ્વ પિતાશ્રી વીરચદ જેસીગ શેઠ લખતરવાળાના સ્મરણાર્થે હા કેશવલાલ વચ્ચદ ૨૫૧ ૬૯ ચદુલાલ કાનજી મહેતા ૨૫૧ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ૨૫૧ , ૨૫૧ બ ૩૦૧ ૭૦ શ્રી વર્ધમાન સ્થા જૈન સંઘ હે કેશરીમલજી અનેપચદજી ગુગલીયા (મલાદ) ૨૫૧ ૭૧ મખ્ય પિતાશ્રી મનુભાઈ મનાભાઈના સ્મરણાર્થે હા શાહ કાનજી પતભાઈ ૭૨ અ સૌ પાનબાઈ હા, શેઠ પદમશી નરસિંહભાઈ ૨૫૧ ૭૩ સ્વ નાગશીભાઈ સેજપાલના સ્મરણાર્થે રામજી નાગશી , ૩૦૧ ૭૪ સ્વ ગોડા વણરશી વિનદાસ સરસઈવાળાના સ્મરણાર્થે હા જગજીવન વણારશી ગડા , ૨૫૧ ૫ સ્વ. કાનજી સુળજીના સ્મરણાર્થે તથા માતુશ્રી દિવાળીબાઈના ૧૬ ઉપવાસના પારણા પ્રસગે હા જ્ય તિલાલ કાનજી ૨૫૧ ૭૬ શાહ પ્રેમજી માલશી ગ ગર ૭૭ શાહ વેલશી જેસીંગભાઈ છાસરાવાળા તરફથી તેમના ધર્મપત્ની સ્વ નાનબાઈના સ્મરણાર્થે ૭૮ વ પિતાશ્રી રાયશી વેલશીના સ્મરણાર્થે હા શાહ દામજી રાયશીભાઈ ૭૯ શાહ વરજા ગભાઈ શીવજીભાઈ ૨૫૧ ૮૦ શાહ ખીમજી મુળજી પુજા ૮૧ એ સૌ સમતાબેન શાતિલ લ કે શાતીલાલ ઉજમશી શાહ ) ૨૫૧ ૮૨ વ કેશવલાલ વછરાજ કોઠારીના સમરણાર્થે સૂરજબેન તરફથી હે તનસુખલાલભાઈ ૮૩ સ્વ પિતાશ્રી હસરાજ હીરાના સ્મરણાર્થે હા દેવશી હસરાજ કચ્છ બીદડાવાળા ૨૫૧ ૮૪ ઘેલાણું પ્રભુલાલ ત્રિીકમજી (બેરીવલી) ઉપર ૮૫ શેઠ ત્રણકલાલ કસ્તુરચદ લીમડી અજરામર શાયખડાને ભેટ (માટુંગ)૨૫૧ ૮ અ સી બેન રજનગરી કે શાહ ચ દુલાલ લક્ષમીચદ , ૨૫૧ ૮૭ શાહ નટવરલાર દીપચદ તરફથી તેમના ધર્મપત્ની આ સૌ સુશીલાબેનના વલીંતપની ખુશાલીમાં ૨૫૧ ૮૮ દેશી ભીખાલાલ વૃજલાલ પાળીયાદવાળા ૨૫ ૮૯ શાહ પાળજી માનસ ગ ૨૫૧ ૩૦૧ » ૨૫૧ > ૨૫૧ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨ • ૨૫૦ (દાદર) .. ઇ ૨૫૧ * ૨૫૧ રેસા ૨૫૧ ૯. દેશી કુલચ દ માકચ દ ૯૧ ગેડ ચપકલાલ ચુનીલાલ ભાવાળા - ૨૫૧ ૨ શ્રી વર્ધમાન આા જેન શ્રાવક એ ઘ ૭ નાહ વિચદ મુખલાલ ૯૩ ગતિલાલ ડગી અદા ૯૪ શાહ કરશન લધુભાઈ ૫ કિસનલાલ સી મહેતા શીવ ૨૫૧ ૯૬ માતુશ્રી જીવીભાઈના સ્મરણાર્થે હ શામજી શીવજી કચ્છ ગુદાળાવાળા ૯૭ વ શાહ ગયી કચગભાઈના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની નેણબાઈ વતી હ જેઠાલાલ રાયની ૯૮ શુશીલાબેન શકરાભાઈ કે નવીનચંદ્ર વસતલાલ શાહ વિલેપાર્લે ૨૫૧ ૯૯ બેન ચદનબેન અમૃતલાલ વારિવા ૨૫૧ ૧૦૦ વ કાળીદાસ જેઠાલાલ શાહના સ્મરણાર્થે હ સુમનલાલ કાળીદાસ (કાનપુરવાળા) ૩૦૧ ૧૦૧ શાહ ત્રીભોવન ગોપાળજી તથા અ મી. બેન કસુ બા ત્રીભવન (થાનગઢવાળા ). શીવ ૨૫૧ મુળી ૧ શેઠ ઉજમશી વીરપાળ હ. શેઠ કેશવલાલ ઉજમશી ૩૦૧ મોરબી ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૧ દેશી માણેકચંદ સુદરજી બામા ૧ શ્રીયુત નાથાલાલ ડી મહેતા ૨ શાહ દેવરાજ પિથરાજ મહેસાણું ૧ શાહ પદમશી સુરચદના સ્મરણાર્થે હ શીવલાલ પદમશી યાદગીરી ૧ શેઠ બાદરમલજી સુરજમલજી બેકર્સ ૨૫૦ ૨૫૧ ૨૫૦ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪. રતલામ ૧ અનેક ભકતજને તરફથી હ શ્રીમાન કેશરીમલજી ડક ( શ્રી કેવળચદ મુનિશ્રીના ઉપદેશથી) ૨૫૧ રાણપુર ૧ શ્રીમતી માતુશ્રી સમરતબાઈના સ્મરણાર્થે હ ડે નરોતમદાસ ચુનીલાલ કાપડીયા ૨ રવ પિતાશ્રી લહેરાભાઈ ખીમજીને સ્મરણાર્થે હ શેઠ કાળીદાસ લહેરાભાઈ વસાણી ૨૫૧ ૩૦૧ રાણુવાસ ૩૦૧ ૧ શેઠ જવાનમલજી નેમીચ દજી હા બાબુ રીપબચદજી રાયચુર ૧ સ્વ માતુશ્રી મેઘીબાઈના સ્મરણાર્થે હે શાહ શીવલાલ ગુલાબચદ વઢવાણવાળા ૨ કાળુરામજી ચાદમલજી સચેતી ૨૫૧ ૨૫૧ ૪૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ રાજકેટ ૧ વાડીલાલ ડાઈગ પ્રિન્ટીગ વર્કસ ૨ શેઠ રતીલાલ ન્યાલચંદ ચીત્તલીયા ૩ શેઠ મનુભાઈ મુળચદ (એનજીનીયર સાહેબ ) ૪ શેઠ શાતિલાલ પ્રેમચદ તેમના ધર્મપત્નીના વષીતપ પ્રસંગે ૫ શેઠ પ્રજારામ વિઠ્ઠલજી ૬ બેન સખાળા નૌતમલાલ જસાણ (વર્ષીતપની ખુશાલી) ૭ મેદી સૌભાગ્યચદ મોતીચઢ ૮ અદાણી ભીમજી વેલજી તરફથી તેમના ધર્મપતની આ સી સમરતબેનના વર્ષીતપ નિમિત્તે ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૫ ૯દોશી મોતીચ દ ધારશીભાઈ (રીટાયર્ડ એકઝીકયુટીવ એજીનીયર) ૨૫૧ ૧૦ કામદાર ચ દુલાલ જીવરાજ (પ્રાગધાવાળા) ૨૫૦ ૧૧ હિમાણી ઘેલાભાઈ સચદ ૨૫૧ ૧૨ દફતરી પ્રભુલાલ ન્યાલચંદ ૨૫ ૧૩ 4 મહેતા દેવચંદ પુરૂષોત્તમના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની હેમકુવરબાઈ તરફથી ૭ જય તીલાલ દેવચંદ મહેતા ૨૫૧ ૧૪ પારેખ શીવલાલ ઝઝાબાઈ મોખમાવાળા હ. આ સૌ કચનબેન ર૫ર રાપર ૨૫૧ ૧ પૂલ્ય વાલજીભાઈ ન્યાલચંદભાઈ રામપુર ૧ શેઠ તેમલજી મનોહરલાલજી બેકર ૩૫૧ રાવટી ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૧ શેઠ મિયાચદજી જુહાગ્યલઇ કટારિયા લખતર ૧ શાહ રાયચદ ઠાકશીને ગુર્થે હ શાતિલાલ રાયચંદ શાહ ૨ ભાવમાર હરજીવનદાસના સ્મરણાર્થે હ ત્રીભોવનદાસ હરજીવનદાસ ૩ શાહ તલકશી ટીચદના સ્મરણાર્થે હ ભાઈ અમૃતલાલ તલકશી ૪ શાહ ચુનીલાલ માણેકચંદ ૫ શાહ જાદવજી ઓઘડભાઈના સમરણાર્થે હ શાતિલાલ જાદવજી ૬ દેશી ઠાકરશી ગુલાબચદના સ્મરણાર્થે તેમના ધર્મપત્ની સમરત બહેન તરફથી હ, જયતિલાલ ઠાકરશી લાલપુર ૧ નેમચદ સવ બેદી હ ભાઈ મગનલાલ ૨ શેઠ મુલચદ પિપટલાલ હ મણીલાલ તથા જેવીગભાઈ લાખેરી ૧ માસ્તર જેઠાલાલ મનજીભાઈ અમૃતલાલ જેઠાલાલ (સીવીલ એજીનીયર સાહેબ) લાકડીયા ૧ શ્રી લાકડીલા સ્થા જેન સ ઘ હ શાહ રતનશી કરમણ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧e ૨૫૧ ૩૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ લીબડી (સૌરાષ્ટ્ર) ૧ શાહ ચકુભાઈ વખતચદ લીમડી (પચમહાલ) ૧ શાહ કુવરજી ગુલાબચ દ ૨ છાજેડ ઘાસીરામ ગુલાભચદ ૩ શેઠ વીરચદ ૫નાલાલજી કરણાવટ ૪ શ્રી થા જૈન સંઘ હ શાહ શાતીલાલ ગુલાબચ દ લેનાવાલા ૧ શેઠ ધનરાજજી મુલચંદજી મુથા લુધિયાના ૧ બાબુ રાજેન્દ્રકુમાર જૈન દિલ્હીવાળા વઢવાણ શહેર ૧ શેઠ દીલીપકુમાર સવાઈલાલ કે. શાહ સવાઈલાલ બકલાલ ૨ કામદાર મગનલાલ ગોકલદાસ હ રતીલાલ મગનલાલ ૩ સઘવી મુળચદ બેચરભાઈ હ જીવણલાલ ગફલદાસ ૧ શેઠ કાતિલાલ નાગરદાસ પ વેરા ચત્રભુજ મગનલાલ ૬ સંઘવી શીવલાલ હીમજીભાઈ ૭ શાહ દેવશીભાઈ દેવકરણ ૮ વેરા ડેસાભાઈ લાલચદ સ્થા જૈન સંઘ હ વેરા નાનચદ શીવલાલ ૯ વેરા ધનજીભાઈ લાલચદ સ્થા જૈન સંઘ હ વેરા પાનાચંદ ગેબરદાસ ૧૦ દેશી વીરચદ સુરચદ હા, દેશી નાનચદ ઉજમશી ૧૧ સ્વ વેરા મલાલ મગનલાલ તથા રા ચત્રભુજ મણીલાલ ૧૨ શાહ વાડીલાલ દેવજીભાઈ ૧૩ કામદાર ગોરધનદાસ મગનલાલના ધર્મપત્ની અ સૌ કમળાબેન રઘુનવાલા ૧૫ શ્રી વૃજલાલ સુખલાલ વડોદરા ૧ કામદાર કેશવલાલ હિમતરામ છેફેસર ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭. ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧. ૨૫૧ ૨ વકીલ મણીલાલ કેવલાલ શાહ ૩ સ્વ પિતાશ્રી ફકીરચદ પુજાભાઈના આ હ શાહ રમણલાલ ફકીચ્ચદ વડીયા ૪ શેઠ ભવાનભાઈ કાળાભાઈ પચમીયા વલસાડ ૧ શાહ ખીમચદ મુલજીભાઈ વણી ૧ મહેતા નાનાલાલ છગનલાલના ધર્મપત્ની 4 ચચળબેન તથા પરીબેનના માથે હ મનહરલાલ નાનાલાલ મહેતા વટામણ ૧ શ્રી ખ્યા જૈન સંઘ હ પટેલ ડાયાભાઈ દલુભાઈ વડગાવ ૧ શેઠ માલોચદજી રાજમલજી બાફણ વાકાનેર ૧ ખારીયા કાતીલાલ ઝબકલાલ ૨ દફતરી ચુનીલાલ પોપટભાઈ મોરબીવાળા હા પ્રાણલાલ ચુનીલાલ દફતી વી છીયા ૧ શ્રી રથ જૈન સંઘ હા અમેરા રાયચદ વ્રજપાળ વીરમગામ ૧ માસ્તર વીઠલભાઈ ભેદી ૨ શાહ નાગરદાસ માણેકચદ ૩ શાહ મલાલ જીવણલાલ શાહપુરવાળા ૪ રાહ અમુલખ નાગરદાસના ધર્મપત્ની અ સો બેન લીલાવતીના વર્ષીતપ નિમિતે હા શાહ કાતિલાલ નાગરદાસ પ સ્વ શેઠ ઉજમશી નાનચદના સ્મરણાર્થે હા ચુનીલાલ નાનચદ દ સ્વ શેઠ મણિલાલ લહમીચ દ ખારાઘોડાવાળાના સ્મરણાર્થે તેમના પુત્ર તરફથી હ ખીમચદભાઈ ૭ સ્વ શેઠ હરિલાલ પ્રભુદાસના સ્મરણાર્થે હા અનુભાઈ ૨૫૧ ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ ૩૦૦ ૨૫૧ ૨૫૧ ૨૫૧ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩ સ્વ. કેશવલાલ મુળજીભાઈના ધર્મપત્ની અમરતબાઈના સમથણાર્થે હા ભાઈલાલ કેશવલાલ શાહ ૪ શાહ ન્યાલચંદ હરખચદ ૨૫૫ ૫ શાહ વાડીલાલ હરખચદ ૨૫ ૬ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ ૩૦૧ સુવઈ ૧ સાવળા શામજી હીરજી તરફથી સદાન દી જૈન મુનિશ્રી છોટાલાલજી મહારાજના ઉપદેશથી સુવઈ થા જૈન સંઘ જ્ઞાનભંડારને ભેટ ૨૫૧ સજેલી ૧ શાહ લુણાજી ગુલાબચંદભાઈ ૨૫૧ ૨ શ્રી સ્થા જૈન સંઘ હ શાહ પ્રેમચંદ દલીચદ સેજત ૧ એ સૌ ઘસીબેન લાલચ દજી મહેતા (ફતેહનગર સચિને ભેટ) ૩૫૧ હારીજ ૧ શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ હા પ્રકાશચદ્ર અમુલખભાઈ ૩૦૧ ૨ વ બેન ચન્દ્રકાતાના સ્મરણાર્થે હ શાહ અમુલખ મુળજીભાઈ ૩૦૧ હાટીના માળીયા ૧ શેઠ ગોપાલજી મીઠાભાઈ ૨ શ્રીમતી આનદગૌરી ભગવાનદાસના સ્મરણાર્થે હા તેમના નાનાબેન અ સી મજુલાબેન ભગવાસદાસ ગાધી ૨પ૧ ૨૫૧ ૨૫૦ તા. ૩૧-૧૨-૬૧ સુધીના મેમ્બરોની સંખ્યા ૧૭ આઇ મુરબ્બીશ્રી ૨૫ મુરબ્બીશ્રી ૧૨૩ સહાયક મેમ્બરે ૫૮૪ લાઇફ મેમ્બર ૫૪ બીજા કલાસના જુના મેમ્બરે ૮૦૩ દરેક દાતાઓને સમિતિ તરફથી આભાર માનું છું લી સેવક, રાજકોટ તા ૩૧-૧૨-૬૧ સાકરચદ ભાઈચંદ શેઠ મિત્રી, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीनीतरागाय नमः ॥ जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-धामीलाल-ति-विरचितया सुदर्शिन्याग्न्यया व्यार यया ममलवृत्त श्री-प्रश्नव्याकरणसूत्रम् (मङ्गलाचरणम्) (इन्द्रवज्राभेद-शुद्विवृत्तम् ) श्रीसिद्धराज स्थिरसिद्धिगज्यप्रद गत सिद्धिगति विशुद्धम् । निरसन नाश्वतमोधमध्ये, गिजमान मतत नमामि ॥१॥ (शार्दूलविक्रीडितकृत्तम् ) नानालधिधर मुरासरनुत सन्देहमोहच्छिददीप्त शासनभास्कर गणधर शुद्ध विपद्वारकम् । झावाशेषविशेष रस्तुनिचय तेजस्विन मुक्तिग, वन्दे त सतत विशुद्धचरितं श्री गौतम सर्वथा ॥२॥ "प्रश्नव्याकरणमका हिन्दी अनुवाद " मङ्गलाचरणमें उन सिद्ध भगवन्तको नित्य नमस्कार करता हूं कि जो निरचनअष्टकर्ममल रूप अजन से मर्वया विहीन-हो चुके हैं और इसी कारण जो मुक्तिरूप सोधके मध्य में विराजमान हो रहे हैं। जिनके सन्मार्गपर चलने से जीवों को स्थिर सिद्धस्पी राज्यकी प्राप्ति हो जाती है। जो स्वय अत्यत विशुद्ध वन चुके है। और सिद्धि नामक गति प्राप्तकर चुके हैं।॥१॥ પ્રશ્નવ્યાકરણસૂત્રને ગુજરાતી અનુવાદ भगणा-य२९/હુ તે સિદ્ધ ભગવાનને હમેશા નમસ્કાર કરું છું કે જે નિરજન અષ્ટ કર્મમળરૂપ અજનથી તદ્ન રહિત થઈ ગયા છે, અને એ જ કારણે જે મુક્તિરૂપ ભવનની મધ્યમાં વિરાજમાન થયેલ છે, જેમને બતાવેલ સન્માર્ગે ચાલવાથી જેને સ્થિર સિદ્ધિરૂપી રાજ્યની પ્રાપ્તિ થાય છે જેઓ પિતે અત્યંત વિશુદ્ધ બની ગયેલ છે, અને સિદ્ધિ નામની ગતિને પ્રાપ્ત કરી ચૂક્યા છે / ૧ / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नम्याकरणस्चे ( द्रुतविलम्बितवृत्तम् ) कमलकोमलमजुपदाम्पुजविमलयोधिदयोधरियोधकम् । मुखसुशोभिसदोरकास्त्रिक गुरुवर सदय प्रणमाम्यहम् ॥३॥ (अनुष्टुयवृत्तम्) जैनी सरस्वती नत्या, रत्तिरेपा सुदर्शिनी । प्रश्नव्याकरणे मने, घासिलालेन तन्यते ॥४॥ मै उन गौतम गणधर को मन, वचन और काय से नित्य नमस्कार करता है कि जिन्हो ने तपस्या के प्रभाव से अनेक लब्धियो को प्राप्त कर लिया है। जिन्हें सुर और असुर आकर नमस्कार करते है, जीवों केसदेह और मोह जिनके प्रभाव से नष्ट हो जाते हैं, जो शरीर की कान्ति से दीप्त बने रहते हैं, जो शासन के भास्कर है भगवान महावीर प्रभु के जो अन्तिम गणधर हुए है, रागादिक दोपों से सर्वथा विशुद्ध यन चुके हैं, जीवो की विपत्ति को जो नाश करने वाले है, केवलज्ञान के प्रभाव से जिन्हों ने समस्त जीवादिक वस्तुओं को अच्छी तरह से जान लिया है, जो तेजस्वी है तथा जो मुक्ति को प्राप्त कर चुके है ॥२॥ ___मैं उन दयालु गुरुवर को नमस्कार करता हूँ कि जिनके मनोहर घरणकमल कमल के जैसे कोमल है और जो विमल बोधिको देने वाले बोध के दाता है तथा जिनका मुख सदा मदोरकमुरववत्रिका से विराजित रहता है ॥३॥ હ તે ગૌતમ ગણધરને મન, વચન અને કાયાથી નમસ્કાર કરૂ છું કે જેમણે તપસ્યાના પ્રભાવથી અનેક લબ્ધિને પ્રાપ્ત કરી છે, સુર અને અમુક આવીને જેમને નમન કરે છે, જેમને પ્રભાવથી જેના સંદેહ તથા મહેને નાશ થઈ જાય છે, જે શરીરની કાતિથી જાજવલ્યમાન રહે છે, જે શાસનના દિવાકર સમાન છે, જે ભગવાન મહાવીરના અન્તિમ ગણધર છે, રાગાદિ દેથી જે તદન વિશુદ્ધ બની ચૂક્યા છે, જેની મુશ્કેલીઓને જે દર કરનારા છે, કેવળજ્ઞાનના પ્રભાવથી જેમણે સમસ્ત જીવાદિક વસ્તુઓને સારી રીતે જાણી सीधी छ, तन्वी छे तथा भये भुति प्राप्त ७२ सीधेत छे ॥ २॥ તુ તે દયાળ ગુરુવરને નમસ્કાર કરૂં ૩ કે જેમના મનહર ચરણ, કમના મેમાન કેમળ છે, અને જે વિમળજ્ઞાન દેનાર બાંધના દાતા છે, તથા જેમનુ મુખ સદા દેરા સહિતની મુહપત્તિથી શોભે છે . ૩ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका १० १ मालायरणम् इह खल्वतिविचित्राकारेऽपारेऽसारे समारे धनादिभिर्विवियौपायैः सुखार्थ प्रयतमाना अपि जना न केऽपि नाम्नरिक सुखमनुभवन्ति किमत्र परिहारनिदानमिति, सति विचारसनारे माल पर निरतिशयमुग्वसाधनभिति सिद्धयति । आम्मैकेन्द्रियः सम्लोऽपि लोकः मुखाभितापी दुःखत्रिमुखश्च दृष्टोऽतस्तस्य तीर्थकर प्रभुकी वाणीको नमन कर में घासीलाल इस प्रश्नव्याकरण सूत्र पर यह सुगिनी नाम की टीका नाता ह ॥४॥ इस अतिविचित्रताकार अनियत स्वभाववाले अपार असार ससार में धन आदि विविध उपायों से सुराप्राप्ति के निमित्त समस्त ससारी जीव प्रयत्न करते रहते है फिर भी रहाससार मे कोई भी जीव चास्तविक सुख का अनुभव नहीं कर पाता है तो इसका कारण क्या है जय यह विचार किया जाता है तो मालूम देता है कि यहां पर जितना भी सुख है वह वास्तविक सुख नहीं है-मुग्वाभास है कारण वह इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होता है । वास्तविक सुस तो मोक्षमे ही है, क्योंकि वह सुग्व निरतिशयरूप आत्यतिक है। कालिक दुःखके अत्यन्ताभावसे विशिष्ट जो परमानद सद्धावस्पता है वही निरतिशयता है । इस प्रकार का निरतिशयरूप जो सुस है वह ससार मे नही है। क्योंकि सासारिक सुख दुःसानुपक्त है। और मोक्ष का सुग्न ऐसा नहीं है । इसलिये सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर समस्त पचेन्द्रियता के प्राणी सुख के अमि તીર્થંકર પ્રભુની વાણીને નમન કરીને હુ, “ઘાસિલાલમુનિ આ પ્રશ્નવ્યાકરણ सून ५२ मा 'सुशिनी' नामनी ट ना छु ॥४॥ આ અતિ વિચિત્રાકાર, અનિયત સ્વભાવવાળા, અપાર, અસાર સંસારમાં ધન આદિ વિવિધ ઉપાયોથી સુખ પ્રાપ્ત કવ્વા માટે સમસ્ત સંસારી જી પ્રયત્ન કરતા રહે છે, છતાં પણ આ સમામાં કોઈપણ જીવ વાસ્તવિક સુખને અનુભવ કરી રાતા નથી તેનું શું કારણ છે, એવો વિચાર જ્યારે કરવામાં આવે છે ત્યારે એવું લાગે છે કે આ સંસારના જેટલા સુખ છે તે વાસ્તવિક સુખ નથી, પણ સુખનો આભાસ જ છે કારણકે તે ઇન્દ્રિય અને મનથી ઉન્ન થાય છે વાસ્તવિક સુખ તે મેલમાં જ છે કારણકે તે સુખ નિરતિશયરૂપ છે સૈકાલિક દુખના અત્યત અભાવવાળી જે પરમાનદ સદુભાવરૂપતા છે, તેને જ નિરતિરાયતા કહે છે એવા પ્રકારનુ નિરતિરાયરૂપ જે સુખ છે તે સંસારમાં મળતું નથી કારણકે નાસારિક સુખ દુખાનુષત છે મોક્ષનું સુખ તેવું નથી તેથી જ સુમિ એકેન્દ્રિયથી લઈને પચેન્દ્રિય સુધીના સમસ્ત પ્રાણી સુખની Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नम्याकरण निरतिशयसुखसाधन निर्णेतव्यम् । निरतिशय च मुग्य त्रैकालिकदु सात्यन्ताभावविशिष्टपरमानन्दसद्भावरूप पारमार्थिकमे न त्वैहिक, तस्येन्द्रियनोइन्द्रियसयोगजन्यतयोत्पत्तिविनाशयोरपिनाभावनियमाहुःखानुपक्तत्वात् , मरुमरीचिचयोचावचजलतरङ्गभङ्गविभ्रमवदसारत्वाच्चेति मोक्षस्यैव प्राधान्यमामनन्ति महामुनयः, तस्मादात्यन्तिकसुखमधिजिगमिपुणा मोक्षार्थ यतितव्यम् । मोक्षश्च ज्ञानक्रियासेवनेनैव भवतीति ज्ञानक्रिये एप तत्कारण सिपाधयिपितव्यम् , अन्यथा लापि और दुःख से विमुख होते हुए दिखलाई पड़ते है। अतः यह निर्णय करना आवश्यक हो जाता है कि उस निरतिशय सुख का साधन क्या है ? जर इस प्रकार का विचार गहराई के साथ किया जाता है तो यही निश्चित होता है कि उस सुख का साधन केवल एक मोक्ष ही है। ससार नहीं है क्यों कि ससार जन्य जो सुख रोता है वह इन्द्रिय और मन के सयोग से जन्य होने के कारण उत्पत्ति और विनाश का अविनाभावी होता है और इसलिये वह दुःख से बीच २ में मिश्रित रहा करता है । अतः मृगतृष्णा में ऊची नीची जल तरगों के विभ्रमकी तरह यह असार होता है। इसलिये निरतिशय सुख का साधन ससार नहीं हो सकता है केवल एक मोक्ष ही हो सकता है। ऐसी ही महामुनियोकी मान्यता है । इसलिये जो प्राणी इस निरतिशय सुखको प्राप्त करने के अभिलाषी है उन्हें मोक्ष प्राप्तिमें ही प्रयत्न करना चाहिये, मोक्ष की प्राप्ति जीवोंको ज्ञान और क्रिया के सेवन करनेसे ही होती है। अतः ज्ञान और क्रियाये दोनो ही उसके कारणरूपसे साधनके ઈચ્છાવાળા અને દુઃખથી વિમુખ થતા દેખાય છે તેથી તે નિર્ણય કરવું જરૂરી થઈ પડે છે કે તે નિરતિશય સુખનું સાધન કયુ છે? જયારે તે પ્રકારને ઊંડે વિચાર કરવામાં આવે છે ત્યારે એ જ નિશ્ચય પર અવાય છે કે તે સુખનું સાધન કેવળ ક્ષ જ છે, સંસાર નથી કારણકે જે સુખ સ સારજન્ય હોય છે તે ઈન્દ્રિય અને મનના સ યોગથી પિદા થયેલ હોવાથી ઉત્પત્તિ અને નાશને પ્રાપ્ત કરનારૂ હોય છે, અને તેથી તે વચ્ચે વચ્ચે દુખથી મિશ્રિત રહ્યા કરે છે તેથી તે મૃગજળના ઊચા નીયા જળતરના વિશ્વમના જેવુ અસાર લેય છે તે કારણે નિરતિરાય સુખનું સાધન -સાર થઈ શકતો નથી પણ એક માત્ર મધ જ તેનું સાધન બની શકે છે એવી જ મહામુનિયેની માન્યતા છે તેથી જે પ્રાણીને તે નિરતિશય સુખ પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષા હોય તેમણે મોક્ષ પ્રાપ્તિ માટે જ પ્રયત્ન કરવા જોઈએ અને મેક્ષની પ્રાપ્તિ જ્ઞાન અને ક્રિયાના સેવનથી જ થાય છે તેથી જ્ઞાન અને કિયા એ બને તેના કારણરૂપ હોવાથી Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका अ० १ अवतरणिका मोक्षस्याप्यभागात् मुमागारमयाण स्यात् । सत्येव हि ज्ञाने इटानिष्टोपादान हानोपायपिचारसञ्चारो भाति । तदभावे प्राणिनामास्रोप्पंव नित्य प्रवृत्तिः स्यात् तस्मात् ज्ञान परमादरणीयम् । तन्चात्र श्रुतग्प गृह्यते स्वपरोपारित्वात् । तदत्र प्रश्नव्याकरणमे। ननु गावस्यादो म येऽन्ते च कृत मद्गल निर्वि नपरिसमाप्त्यर्थं भवति, अध्येतारश्च शासधारणावन्तः प्रथन्ते, शास्त्रच शिप्योपशिष्यपरम्परागामि जायतेशिष्टाचाररिपयत्वान्च मगल कुतो न कृतमिति चेदुच्यते__अत्र भगवदुक्तमाशान्योभूतशास्त्रस्थव मङ्गलम्पत्वात् मङ्गलमाचरितमेन तथापि श्रृणु-अम्मिन् शाथ आदिमगल " जब इणमो" इति भगवदामन्त्रणेन, लिये इष्ट है। अन्यथा मोक्षकाअभाव हो जायेगा और इस तरहसे फिर मुख की प्राप्ति होना बहुत कठिन वान रोजावेगी। ज्ञान के होने पर ही इष्ट और अनिष्ट पदार्थो के उपादान (ग्रहण) और त्याग करनेमे जीयोकी बुद्धि लगती है । ज्ञान के अभावमे नहीं उस रामय तो केवल आस्रवों में ही रोकटोक प्रवृत्ति होती रहती है। इसीलिये ज्ञानको परम आदरणीय कहा गया है । ऐमा वह ज्ञान स्व और पर का उपकारक होने के कारण यहा श्रुतरूप ग्रहण किया गया है । वह श्रुतरूप ज्ञान यहा प्रश्न व्याकरण ही है। शका-शास्त्र की आदि में, मध्य मे, और अत में किया गया मगलाचरण निर्विघ्नरूप से उसकी परिसमाप्ति के लिये होता है-तथा जो उम शास्त्र के अध्येता होते हैं वे उस शास्त्र की धारणा से सुशोभित रहा करते ह और इस तरह से वह शास्त्र शिप्योपशिष्य परपरागामी बन जाता है। तथा शास्त्र की आदि मे, म-य मे एव अन्त मे मगलाસાધન તરીકે યોગ્ય છે નહીં તે મોક્ષની પ્રાપ્તિ થશે નહી અને એમ થવાથી સુખની પ્રાપ્તિ ઘણી મુશ્કેલ બની જશે જ્ઞાન હોય તે જ ઈષ્ટ અને અનિષ્ટ પદાર્થોના ઉપાદાન-(ગ્રહણ) અને ત્યાગ કરવા બાબતમાં જીવની બુદ્ધિ કામ કરી નકે છે, જ્ઞાન ન હોય તે નહી ત્યારે તે તે જ્ઞાનના અભાવે) ફક્ત આસ માં જ ટેડ વિના પ્રવૃત્તિ ચાલ્યા કરે છે તે કારણે જ્ઞાનને અત્યંત આદર્ણીય બતાવ્યું છે એવું તે જ્ઞાન સ્વ અને પરનુ ઉપકારક હોવાથી અહી શ્રુતરૂપે ગ્રહણ કવ્વામા આવેલ છે અહી પ્રશ્નવ્યાકરણ જ તે સુતજ્ઞાન છે ગડા-રાસ્ત્રની શરૂઆતમા, મધ્યમા, અને અન્ત કરવામાં આવેલ મગળાચરણ નિવિદને તેની પરિસમણિને માટે હોય છે તથા જે તે શાસ્ત્રનું અધ્યયન કરનાર હોય છે તેઓ તે ગાયની ધારણાથી સુશોભિત રહ્યા કરે છે, અને એ રીતે તે શાસ્ત્ર શિષ્યો પરિષ્યની પરંપરા સુધી પહોચે છે તથા શાસ્ત્રના આર ભમે, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण्याकणसूत्र मध्यमङ्गल प्रथमसवरद्वारे अहिंसा भगवतीवर्णनेन अन्त्यमाल च " नायपुत्तेण वीरेण भगवया पयासिय " इत्यालापकेन च विज्ञेयम् , इत्यल विस्तरेण । अथ प्रश्नव्याकरणमित्यस्य कः शब्दार्थः ? उच्यते प्रश्नाअगुष्ठादिविद्याः, ते व्याक्रियन्ते प्रतिपाद्यन्ते यस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् , अा-अष्टोत्तर प्रश्नशतम्। अष्टोत्तरमप्रश्नशतम् । अष्टोत्तर प्रश्नाऽमनशतम् । या विद्याः, मन्त्रा या पृष्टा एव चरण करना ऐसा शिष्ट पुरुपो का आचार भी है-तो फिर शास्त्रकार ने इस सूत्र मे मगलाचरण क्यों नहीं किया है ? उत्तर-इस प्रकार की आशका ठीक नहीं है, क्यों कि भगवान् द्वारा कहा गया यह शास्त्र साक्षात् मगल स्वरूप है अतः यह म्चय ही मगलरूप है अत स्वय मगलरूप बने हुए शास्त्र में मगलरूपता रोने से शास्त्रकार ने उसे निवद्ध करने की अपेक्षा मगलाचरण किया ही है। फिर भी सुनो-शास्त्रकार ने इस शास्त्र मे " जनू इणमो" इस भगवान् के आमत्रण से आदि मगल, प्रथम सवर द्वार मे भगवती अहिंसा का वर्णन रूप मध्यमगल, और " नायपुत्तेग वीरेण भगवया पयासिय" अन्त में इस प्रकार के कथन से अन्त्यमगल किया है, ऐसा जानना चाहिये। अब इस विषय मे और अधिक कहने से क्या लाभ। शका-"प्रश्नव्यकरण" इसका शब्दार्थ क्या है ? उत्तर-अगुष्ठ आदि विधाओं का नाम प्रश्न है। ये प्रश्न इसमें विस्तार पूर्वक प्रतिपादित किये गये है। इसलिये इससूत्रका नाम મધ્યમાં અને અત્તે મગળાચરણ કરવું તે શિષ્ટ પુરુષને આચાર પણ છે. છતા પણ સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં મગળાચરણ કેમ કર્યું નથી? ઉત્તર–આ પ્રકારની આરીકા યોગ્ય નથી, કારણકે ભગવાન દ્વારા કહેવામાં આવેલ આ શાસ્ત્ર જ સાક્ષાત્ મગળવરૂપ છે, તેથી તે પોતે જ મગળરૂપ છે તેથી સ્વય મગળરૂપ બનેલ રણાસ્ત્રમાં મગળરૂપતા હોવાથી શાસ્ત્રકારે તેને સવ બાધવાની અપેક્ષાએ મ ગળાચરણ કર્યું જ છેવળી સાભળે શાસ્ત્રકારે माशाखमा "जनू इणमो" म प्रभाए भगवानना मामाथी माहि भण, प्रथम ११२वारमा भगवती मडिसाना वन३५ मध्यभाग, भने “नायपुत्तेण वीरेण भगवया पयासिय" मन्तभी ये Ust२ना उथनथी सत्यभागण यु छ, એમ સમજી લેવુ હવે આ વિષયમાં વધુ કહેવાથી શું લાભ? श-"प्रयाऽ२Y "नी सार्थ छ ? ઉત્તર-અનુષ્ઠ આદિ વિદ્યાઓનું નામ પ્રશ્ન છે તે પ્રશ્નોનું આ સૂત્રમાં વિસ્તારથી પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તેથી તેનું નામ પ્રશ્ન-નાકરણ પડયું છે Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुवशिमी टीका म० १ मयतरणिका शुभाशुभ प्रतिपादयन्ति ते प्रश्नाः। एय ये अपृष्टा एर शुभाऽशुभ वदन्ति ते मप्रश्नाः। ये पृष्टा अपृष्टान कथयन्ति ते प्रश्नाऽप्रश्नाः। तमा अन्येऽपि अति शयाः, नागकुमारः सुपर्णकुमारः अन्यैश्च भानपतिमि मह साधूनां सवादाः, इत्यादयः सन्ति । नन्दीमूत्रवाचनाले प्रश्नव्याकरणे पत्रचत्वारिंशदध्ययननिरन्यः समुपलय आसीत् । तदुक्त नन्दीनने-"से कि त पहागगरगाड? पहागरणेसु ण पटेंड तर पसिणसय, अत्तर पसि गमय, अत्तरं पसिणाऽपसिणसय । त जहा-अगुठपमिणाइ, पाहुपमिगाउ, अदागपसिगाइ, भन्नेविनिचित्ता टिवा विलाहमया, नागसुवण्णेहिं सद्धि दिव्या साया नापपिज्जति५ । पण्ठावागरणाण परित्ता गायणा, सखिज्जा अणुओगदारा सपिज्जा वेढा, सविना मिलगेगा मखिज्जाओ निन्जुसीओ, ससिज्जाओ सगहणीभो, सपिज्जाओ पडिपत्तीओ, से ण जगत्र्याए दसपे अगे एगे सुयक्ग्वधे, पगयालीस अभयणा, पणयालीस उसण काग, पणयालीम समुद्देसणमाला, सखिज्जाइ पयसहस्साइ पयग्गेण, सखेज्जा अामरा, अणतागमा, अणंता पन्जना, परित्ता तसा, अणता वापरा, सासयकडनिबद्ध निकाइया जिणपन्नत्ता मावा आररिज्जति. पनविज्जति, पविज्जति, दसिजति निदसिजति, उवद. सिज्जति, से एवं आया, एव नाया, एम पिनाया, एव चरणकरणपख्वणा से त आघविज्जइ । पण्हा वागरणाइ" ॥ प्रश्नव्याकरण हुआ है। इनमें १०८प्रश्न, १०८ अप्रन्न, और १०८ही प्रश्नाप्रय है। जो विचार अथवा मत्र, पूरने पर शुभ और अशुभ काकथन करते हैं वे प्रश्न है। जो विना पूछे ही शुभ और अशुम कहते हैं ये अप्रश्न है । तथा जो मिश्ररूप में पूछने पर-शुभ और अशुभ दोनों को प्रगट करते हैं। वे प्रमाप्रश्न हैं। इसी तरह और भी अतिशय एव नाग. कुमार, सुवर्णकुमार तथा अन्य भवनपतियों के साथ, साधुओं के सपाद इसमें प्रदर्शित किये गये है।। नदीसूत्र के वाचनाकाल में प्रश्नव्याकरण में पैंतालीस अध्ययनरूप તેમાં ૧૦૮ પ્રશ્ન, ૧૦૮ અપ્રશ, અને ૧૦૮ પ્રશ્નપ્રશ્ન છે જે વિદ્યાઓ અથવા મત્ર, પૂછવામાં આવતા શુભ અને અશુભનું કવન કરે છે, તેમને પ્રશ્ન કહે છે પૂજ્યા વિના જ શુભ અને અશુભ બતાવનારને અપ્રશ્ન કહે છે તથા જે મિત્રરૂપે–પૂછવામાં આવતા શુભ અને અશુભ બનેને પ્રગટ કરે છે તે પ્રશ્નાપ્રશ્ન કહેવાય છે એ જ રીતે બીજા પણ નાગકુમાર, સુપર્ણકુમાર તથા અન્ય ભવનપતિઓની સામે, સાધુઓના ધણ સવાદ આ સૂત્રમાં બતાવવામાં આવ્યા છે નદીસૂત્રના વાચનકાળમાં પ્રશ્નવ્યાકરણમાં પિસ્તાળીશ અધ્યયન સમુપલબ્ધ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणस्त्रे तदनन्तर स्थानाइमूत्रवाचनावेलाया पश्चचत्वारिंशदध्ययनेपु दशा ययनान्येचोपलब्धान्यासन्-तदुक्त स्थानाङ्गे "पण्हा सागरणदसाण दसअझयणा पण्णत्ता । त जहा-उपमा , सखा', इसिभासियाइ', आयरियभासिया , महावीरभासियाइ', खोमगपसिणाइ , कोमलपसिणाई, अदागपसिणाई, अगुट्टपमिणाई', पाहुपसिणाई" | स्था० १०ठा । इदानी तु पूर्वोक्तानि अध्ययनानि विच्छेद गतानीति हेतो -पश्चानवपञ्चसत्र रात्मकदशाध्ययनानि समुपलभ्यन्ते। तपः सयमाराधकाः सौधर्मादिदेवलोकेपु समुत्पद्यन्ते, उत्कृष्टतपासयमारा धकास्तरिमन्नेव भवे मोसमाप्नुवन्ति किन्तु येपामायुप्य सप्तलापरिमित होन ते कर्मक्षयाऽभावात् विजयादि निमानेषु समुत्पद्यन्ते, इति नरमाङ्गे अनुत्तरोपपातिकसूत्रे वर्णितम् । निबंध समुपलब्ध था। यह बात “से कि त पहावागरणाइ ? से लेकर " से त पण्हायागरणाइ " तक के इस नदीसूत्र के पाठ से पुष्ट होती है। इसके बाद स्थानागसूत्र के वाचनाकाल में पैंतालीस अध्ययनों में से केवल १० ही अध्ययन उपलब्ध रह गये। जैसा कि स्थानानसूत्र के इस पाठ से प्रमाणित होता है कि " पहावागरणदसाण दस अज्झयणा पण्णत्ता तजहा" इत्यादि । पर अब तो इस समय वे उपमा, सख्या, ऋषिभामित आचार्यभासित, महावीरभासित आदि दश अध्ययन भी उपलब्ध नहीं है, क्यों कि इनका विच्छेद हो चुका है। इसलिये पांच आस्रव और पाच सवर सबधी ये दश अभ्ययन ही उपलब्ध हैं। नौमा अग जो अनुत्तरोपपातिक मत्र है उसमें ऐसा वर्णन किया कि तप सयमके आराधक जीव सौधर्म आदि देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। (प्राय) तातपात से कित पण्हावागरणाइ? थी धन “सेत पण्हावागरणाई" સુધીના આ નદીસૂત્રના પાઠથી સિદ્ધ થાય છે ત્યારબાદ સ્થાનાગસૂત્રના વાચનકાળમાં પિસ્તાળીશ અવ્યયનેમાથી ફક્ત દસ જ ૫બ્ધ હતા તે વાતનું स्थानासूत्रनामा ४था प्रतिपाइन थाय छ-"पण्हावागरणदसाण दस अज्झयणा पण्णत्ता तनहा" त्याहि पर सत्यारे त ५मा, सध्या, ऋषिलासित, माया ભાસિત, મહાવીરભાસિત આદિ દશ અધ્યયન પણ ઉપલબ્ધ નથી, કારણકે તેને વિચ્છેદ થઈ ગયું છે તેથી પાચ આસવ અને પાચ સાવર સબધી આ દશ અધ્યયને જ ઉપલબ્ધ અનુત્તરપપાતિકસૂત્ર નામનુ જે નવમુ અગ છે તેમાં એવું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે કે તપ મયમની આરાધના કરનાર જીવ સધર્મ આદિ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० १ यतरणिका उत्कृष्टतपासयमारापनेन सयमातामाप्ठदर्पणविद्यादिससिहय समुत्पद्यन्ते, ताभिस्ते मतिरादिप्रश्नानुत्तरन्ति । तदुपरब्धिः सम्पनि नाम्ति, विच्छेद गतत्वात् । इदानी तु पनामापासपरप्रतिपादनपर प्रश्नव्याकरणमुपलभ्यते। उत्कृष्टतपासयमाराग्न हि पञ्चामपञ्चसनरज्ञान विना न भरति-इतिआस्रासंवरस्वरूपनिस्पमिद अन्नव्याररण निरूप्यत इति नरमानेन सहास्य समध। ___ अस्मिन् मनव्याकरणे पश्चापनसपरात्मकानि दशा-ययनानि सन्ति, तस्यावासररभेदाभ्या ही मागी तयोरामास्य बन्यकारणत्वेन पूर्व निरूपण, तथा जो उत्कृष्ट तप सयम की आरा ना करते है वे उसी भव में मोक्ष को प्राप्त कर लेते है, किन्तु जिनकी आयु सातलव परिनित है हीन है वे फर्ममय नहीं कर सकते है इसलिये कर्मक्षय के अभाव से वे विजयादिक विमानों में उत्पन्न हो जाते हैं। उत्कृष्ट नप मयम के आराश्ना से मयमशाली जीवों को अगुष्ठविद्या दर्पणविद्या आदि विद्या सिद्ध हो जाती है। इनसे चे प्रतिवादियों के प्र-नों का उत्तर देते रहते हैं। इनकी उपलब्धि इस समय इनके विच्छेद रो जाने के कारण नहीं होती है। इस समय तो पांच आसव और पाच सवर के प्रतिपादन करने में तत्पर मात्र यह प्र.नव्याकरण उपलब्ध हो रहा है। उत्कृप्ट तप सयम की आरावना पाच आस्रव और पाच सबर इनके ज्ञान हरा विना नहीं हो सकती है। इसलिये आस्रव और मवर के स्वरूप को निरूपण करने वाला यह प्रश्नव्याकरण निरूपित किया जाता है। यही नौ अग के साथ इसका सप है। દેવલોકમા ઉત્પન થાય છે તથા જે ઉત્કૃષ્ટ તપ સયમની આરાધના કરે છે તેઓ એ જ ભવમા મેલને પ્રાપ્ત કરે છે, પણ જેનું આયુષ્ય સાતલવ પરિમિત છે, હીન છે, તેઓ મને ક્ષય કરી શકતા નથી તેથી કર્મક્ષયને અભાવે તેઓ વિજ્યાદિક વિમાનમાં ઉત્પન્ન થાય છે ત્કૃષ્ટ તપ સયમની આરાધનાથી સયમાળી જીરને ગુ% વિદ્યા, દર્પણ વિવા આદિ વિવાઓ પ્રાપ્ત થાય છે તેમની મદદથી તે પ્રતિવાદીઓના પ્રશ્નોના ઉત્તર આપે છે તેમની ઉપલબ્ધિ (પ્રાપ્તિ) આ સમયમાં તેમને વિરદ થઈ જવાથી થઈ શક્તી નથી હાલમાં તે પાચ આસવ અને પાચ સવરનું પ્રતિપાદન કરનાર ફક્ત આ પ્રશ્નવ્યાકરણ જ ઉપલબ્ધ થઈ શકે છે પાચ આસવ અને પાચ સવરનું જ્ઞાન થયા વિના ઉત્કૃષ્ટ તપ યમની આરાધના થઈ શકતી નથી તે કારણે અજવ અને સવરના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરનાર આ પ્રશ્નવ્યાકરણનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે એ જ નવમા અગ સાથે તેને સબધ છે Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - प्रश्नव्याकरणसूत्रे ततस्तत्परिहारोपायभूतसपरवर्णन भगवता कृतम् । नहि कोऽपि मेधापी दु खस्वरूपस्याऽपरिज्ञाने तत्परिहारोपायपरिमार्गण विधत्ते, नद्यससिद्ध ज्यरादिरोगे तच्चिकित्साऽऽवश्यकत्यमुपपद्यते, अतः पूर्वगासवपञ्च मुद्देशक्रमप्राप्त नामत प्रदशर्यति । आस्रवेष्वपि पूर्व हिंसानिरूपण कृतम् , असत्यादिभिरपि हिंसाया एवं जायमानत्वेन हिंसायाः प्रधानभूतत्वात् , अतः प्रथममात्रबद्वारमाह--"जबूइणमो" इत्यादि। - इस प्रश्नव्याकरण में पाच आस्रव और पाच सवर के सयध को लेकर दस अध्ययन हैं इसलिये इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। आस्रव का वर्णन वध का कारण होने से प्रथम भाग में किया गया है और सवर का वर्णन आस्रव के परिहार का उपायभूत होने के कारण उसके बाद में द्वितीय भाग में किया गया है । कैसा भी बुद्धिमान पुरुष क्यों न हो जबतक वह दुःख के स्वरूप से अपरिज्ञात रहता है तो वह उसके परिहार करने के उपायभूत मार्ग की गवेपणा नहीं करता है, तथा जैसे ज्वरादिरोग की ससिद्धि के अभाव मे अर्थात् उसके पूर्ण निदान के अभाव मे उसके शमन के उपाय की गवेपणा नही होती है, उसी तरह जबतक आस्त्रवतत्त्व का परिज्ञान जीव को नही हो जाता है, तबतक संचररूप उसके निरोधकभूत मार्ग को जानने की भी जिज्ञासा उसको उत्पन्न नहीं हो सकती है । इसलिये सर से पहिले उद्देशक प्राप्त पांच आस्रवों को उनके स्वरूप को आगे विशेष स्पष्ट करने के अभिप्राय से सूत्रकार नाम लेकर प्रदर्शित करते है। इन पाच आस्रवों में भी सूत्र આ પ્રશ્નવ્યાકરણમાં પાચ આસવ અને પાચ સાવ વિષેના દસ અધ્યયન છે, તેથી તેના બે ભાગ પાડવામાં આવ્યા છે આસો બધના કારણરૂપ હોવાથી આસવનુ વર્ણન પહેલા ભાગમાં કરવામાં આવ્યું છે, અને સવર આમ્રવના પરિત્યાગને માટે ઉપાયરૂપ હોવાથી તેમનું વર્ણન આચમન વર્ણન પછી બીજા ભાગમાં કરેલ છે. ગમે તેવા બુદ્ધિશાળી માણસ હોય પણ જે તે દુખના સ્વરૂપથી અજાણ રહે તે તેને પરિહાર કરવાના ઉપાયરૂપ માર્ગની પ્રાપ્તિ તે કરી શકતો નથી તથા જેમ જવર આદિ રોગોમાં તેનું પૂર્ણ નિદાન કર્યા વિના 2. શમન કરવાને ઉપાય જડતો નથી તેમ આસ્રવતનનું પરિજ્ઞાન જ્યાસુધી જીવને થાય નહી, ત્યાસુધી તેમને રોકનાર-તેમના નિરોધક-સવરરૂપ માને તણાવની જિજ્ઞાસા તેનામાં ઉત્પન્ન થઈ શકતી નથી તેથી સૌથી પહેલા ઉદ્દેરા ગામ પાચ આસ્ત્રોના નામ સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે તેમનું સ્વરૂપ આગળ જતા વિસ્તારથી સ્પષ્ટ કવ્વામાં આવશે તે પાચ આસ્રોમાં પણ સૂત્રોરે સૌથી Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका म० १ अयतरणिका ___अत्र "तेण कालेण" इत्याधुरक्षेपवाग्य पाच्यम् । चम्पानगर्या मुधर्मस्वामिनः समवसरण, तत्र कोणिो नाम राजा, धारिणी नाम देवी'त्यादि वर्णन मोपपातिकस्तादयसेयम् । सुधर्मस्वामिनो जम्मूस्वामिनश्च वर्णन ज्ञातामूनस्य प्रथमाध्ययनतो पिनेयम् । जम्मूस्वामिनः मुर्मचामिनश्च प्रश्नोत्तरवाक्य प्रदयतेकार ने पहिले रिसारूप आघव का जो निस्पण किया है उसका कारण यह है कि हिमा से अतिरिक्त जो मृपावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रर ये आम्नव द्वार है उनसे हिंसा ही उत्पन्न होती है । इमलिये उम हिंसा में प्रधानता आने से अब मृत्रकार मर्व प्रथम उसी हिंसा रूप आस्रय छार का निरूपण करते है-"ज इणमो" इत्यादि। इस सूत्र की मगति के लिये हम में " तेण कालेण " इत्यादि उत्क्षेपक वाक्य सधित करना चारिये-अर्थात उसकाल में और उस समय में चम्पा नाम की नगरी थी। उसके शासक कोगिक राजा थे। उनकी रानी का नाम धारिणी देवी था। तीर्थकर परम्परानुसार विहार करते हुए यहा सुधर्मास्वामी का आगमन हुआ-इत्यादि प्रकार का समस्त वर्णन जैसा औपपातिक सूत्र में किया गया है पैसा ही जान लेना चाहिये और उसे "ज इणो" इस सत्र की सगति निमित्त यहा लगा लेना चाहिये । सुधर्मास्वामी और जन स्वामी का वर्णन ज्ञाता सूत्र के प्रथम अ ययन में किया हुआ है । सो य' मी दहा से ही जान लेना चाहिये । अब जबूस्वामी और सुधर्मास्वामी की इस प्रतिव्याकरण પહેલા હિંબારૂપ આવ્યવનું નિરૂપણ કર્યું છે તેનું કારણ એ છે કે હિંસા સિવાય મૃષાવાદ, અદત્તાદાન, મિથુન અને પગ્રિડ, એ જે આસ્રવ કાર છે, તેમના વડે હિસા જ ઉત્પન્ન થાય છે તે કારણે તે હિંસામાં પ્રધાનતા આવવાથી, સૂત્રકાર सौदी पडसा मे डिसा३५ अवदानु नि३५ उरे छ-"जनू इणमो"त्याह मा सूचना सधने भाटतेमा "तेग कालेण" त्याहि ५४ पायन સબધ જોડી દેવો જોઈએ એટલે કે તે કાળે અને તે સમયે ચ પ નામની એક નગરી હતી કેણિક રાજ ત્યાના રાજા હતા તેમની ગણીનું નામ ધારિણી દેવી હતુ તીર્થ કર પર પગનુસાર વિહાર કરતા હતા ત્યા સુધર્માધ્વામીનું આગમન થયુ ઈત્યાદિ પ્રકારનું આખું વર્ણન જેમ પપાતિક મૂત્રમાં કરાયું છે તે प्रमाणे सभ७ से मने तेने "जतू इणमो” आ भूत्रना सपने माटे અહી જોડી દેવું જોઈએ સુધર્માસ્વામી અને જ બૂસ્વામીનું વર્ણન જ્ઞાતા ત્રના પહેલા આ વચનમાં કરે છે તે તે પણ ત્યાથી સમજી લેવું જોઈએ હવે જબૂસ્વામી અને સુધર્માસ્વામી વચ્ચે આ પ્રશ્નવ્યાકરણમૂત્રને વિષે જે પ્રશ્નોત્તરરૂપે Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रश्नध्याकरणसूत्रे मूलम्-"जइण भते ! समणेणं भगवया महावीरेण जान सपत्तेण नवमस्स अगस्स अणुत्तरोववाइयदसाण अयमढे पन्नत्ते । दसमस्म ण भते अगस्त पहा वागरणाण समोण ३ जाव सपत्तेण के अहे पणते ' जा! दसमस्त अगस्स समणेण जाव सपत्तेण दो दारा पण्णता । आसनदारा य सरदारा य । पदमस्स ण भते । दारस्स समणेण ३ जाव सपत्तेण कइ अज्झयणा पण्णता ? जनू! पदमस्स ण दारस्स समणेण जान सपत्तेण पच अज्झयणा पण्णत्ता। दोच्चस्स ण भते! एव चेव ! एएसि ण भते ! अज्झयणाण अण्हय सराण समर्णण ३ जान सपत्तेण के अटे पण्णते? । तरण अज्जमुहम्मे येरे जजू नामेण अणगारेण एव चुत्ते समाणे जवू अणगार एव वयासी"छाया-यदि खलु भदन्ताश्रमणेन भगवता महागीरेण यावत्समाप्तेन नवमस्याङ्गस्य अनुत्तरोपपातिकदशानामयमर्थ प्रज्ञप्तः । दशमस्य खलु भदन्त । अगस्य प्रश्नव्याकरणानां श्रमणेन भगवता महावीरेण यानत्सप्राप्तेन कोऽर्थ प्रज्ञप्तः ? जम्मू ! दश मस्य-अगस्य श्रमणेन भगनता महावीरेण यानत्सम्माप्तेन दे द्वारे मज्ञप्ते-आत्रसूत्र के सबध मे जो प्रश्नोत्तर रूप बातचीत हुई है उसको प्रकट करते हैं'जइण भते' इत्यादि। हे भदन्त ! श्रमण भगवान् महावीर ने कि जो यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं अनुत्तरोपपातिक दशाङ्ग नामके नवमे अग का जय इस प्रकार से अर्थ प्ररूपित किया है-तो उन्ही यावत सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने प्रश्नव्याकरण नामक दशवें अग का क्या अर्थ निरूपित किया है ' इम प्रश्न के उत्तर मे सुधर्मास्वामी ने उनसे इस प्रकार कहा-हे जबू! तुम्हारे प्रश्न का उत्तर इस प्रकार से है-यावत् सिद्विगति नामक स्थान को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर ने इस प्रश्नव्याकरणरूप दशवें अग के दो बार प्ररूपित किये है उसमे पहिला आस्रव द्वार है और पातयात के तने सूत्रा२ प्रगट ४२ छ-"जइण भते ।" त्याल હે ભદન્ત! શ્રમણ ભગવાન મહાવીર, કે જેમણે સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરી લીધુ છે, તેમણે અનુત્તરપપાતિક દશાગ નામના નવમા અગને જે આ પ્રમાણે અર્થ પ્રરૂપિત કર્યો છે, તો તે સિદ્ધિ ગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પ્રશ્નવ્યાકરણ નામના દસમા અને કયે અર્થ નિરૂપિત કર્યો છે? તે પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતા સુધર્મા ધ્વામીએ તેમને આ પ્રમાણે કહ્યું–હે જ ભૂ! તમારા પ્રશ્નનો જવાબ આ પ્રમાણે છે-સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પ્રાપ્ત કરેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીર આ પ્રશ્નવ્યાકરણરૂપ દમમાં અગના બે દ્વાર પ્રકૃપિત કર્યા છે, તેમાં પહેલ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टीका ० १ सू० १ मात्ररसयालक्षणनिरूपणम् वद्वार च सपरद्वार च । प्रथमस्य सलु भदन्त ! द्वारस्य अमणेन मगरता महासोरेण पानसमाप्तेन कति अध्ययनानि प्रज्ञप्तानि ? । जम्यू' ! प्रथमस्य खलु द्वारस्य अमणेन भगवता महानोरण यारत्सम्माप्तेन पञ्च-अध्ययनानि मज्ञप्तानि । द्वितीयस्य ग्वल भदन्त !० एवमेन । एतेपा बलु भदन्त ! अ ययनानाम् आत्रसपराणा अमणेन भगरता महावीरेण यापत्सम्माप्तेन कोऽर्थः प्रज्ञप्तः । ततः खलु आर्य मुधर्मा परिर' जम्चूनाम्ना अनगारेण एवमुक्तः सन् जम्चूमनगारमेरमनादी-- 'जत्रु इणमो' इत्यादि। मूलम्-"जबू इणमा अण्हय संवर,-विणिच्छिय पवयणस्सणिस्सद। वोच्छासि निच्छयत्य सुभासियस्थ महेसीहि ॥सू०१॥ ___ टीका-'हे जबू!' इत्यामन्त्रणेन जम्बू सामिन प्रति सुधर्मासामी पाह--- "हे जगू! इणमो' इदम्-अनुपद वक्ष्यमाण मन्नधाारणगाव 'चोच्छामि दूसरा सवर द्वार है । हे भदन्त ! प्रथम द्वार के अमण भगवान महावीर ने कि जो यावत सिद्रिगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके ह कितने अध्ययन प्ररूपित किये है ? इस प्रसार जम्मामी के पूछने पर श्रीसुध स्विामी ने उनसे कहा-हे जबू! यावत् सिद्धिगति नामक स्थानको प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीरने प्रथम हारके पाच अध्ययन प्ररूपित किये हैं। प्रश्न-ठितीय बार के हे भदत ! कितने अध्ययन प्ररूपित किये हैं। उत्तर-जबू! इतने ही अपन द्वितीय द्वार के प्ररूपित किये हैं। जबूस्वामी ने पुन: सुधर्मास्वामी से पूछा कि-हे भदन्त ! इन आस्रव एव सवर सधी अध्ययनों का अर्थ यावत् सिद्धिगति नामक स्थानों को प्राप्त हुए श्रमण भगवान महावीर ने कैमा प्ररूपित किया है ? इस प्रकार अनगार जत्रू स्वामी से पूछे गरे स्थविर आयें सुधर्माने उन जत्रू अनगार આસવ દ્વાર છે અને બીજી અવર દ્વાર છે “હે ભદન્ત સિદ્ધિગતિને પ્રાપ્ત કરેલ રમણ ભગવાન મહાવીરે કેટલા અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યા છે?” આ પ્રમાણે જબૂમી વડે પૂછવામાં આવતા સુધર્માસ્વામીએ તેમને કહ્યું- હે જબૂ! સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનને પામેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે પ્રથમ કારના પાચ અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યા છે ” પ્રશ્ન–“બીજા દ્વારા કેટલા અધ્યયન પ્રરૂપિત કર્યા છે? ઉત્તર–“એટલા જ અધ્યયન બીજા દ્વારા પણ પ્રરૂપિત કર્યા છે જબૂસ્વામીએ ફરીથી સુધર્માસ્વામીને પૂછ્યું કે-હે ભદન્ત! મિદ્ધિગતિ નામના રથાન પામેલ શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે તે આવે અને સવર સ બ ધી અભ્યયને અર્થ કે પ્રરૂપિત કર્યો છે? આ પ્રમાણે અણુગાર જ બુસ્વામી Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरणस्ने वक्ष्यामि त्वा पति मरूपयिष्यामि । तत् कीदृशमित्याह-'अण्डये 'त्यादि'अण्त्यसवरविणिच्छिय' आस्रसंगरविनिश्चित, आस्रान्ति आगच्छन्ति फर्मजलानि आत्मसरसि यैस्ते आस्रव धर्मपन्धहेतुभूताः प्रागातिपातादयः, यद्वा-आस्रवणम्-आसन-आगमनम् । स द्विविधः-द्रव्यतो भारतश, तर द्रव्यतो यज्जलान्तर्गतनावादी छिद्रेजलागमनम् । भारतस्तु-प्राणातिपातादिभिरात्मनि कर्मागमनम् । ससारसागरान्तर्गतात्मनौकाया प्राणातिरातादिछिद्रे. कर्मजलाग मनमिति भावः। स प्राणातिपातादिरूपः पञ्चविधः। सनियन्ते प्रतिम्ध्यन्ते से ऐसा कहा-'जबू इणमो०' इत्यादि । टीकार्थ-इस सूत्रमें "जबू" यह पद सयोधोन अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इससे यह लक्षित होता है कि सुधर्मास्वामी जवू स्वामी से कहते है कि (जबू इणमो) हे जळू ! मैं अनुपद वदयमाग प्रश्न व्याकरणरूप शास्त्र (वोच्छामि) तुमको कहूँगा। (अण्त्यसवरविगिछिय) इस शास्त्र में आस्रव एव सवर का निर्णय उनके लक्षणो ण्व भेदादिकों के कथन पूर्वक किया गया है। "विणिच्छिय" पद का अर्थ हे विशेपरूप से निर्धारित करना। तथा आस्रवका अर्थ है कर्मबंधके हेतुभूत प्राणातिपातादिक । इनके द्वारा ही आत्मरूपी तालावमे जलतुल्य कर्मो का आगमन होता रहताहै। जिस प्रकार तडाग मे जल के आने के लिये नाले हुआ करते है उसी प्रकार आत्मा में भी प्राणातिपात आदि रूप नाला द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मरूप जल का आना होता रहता है। अयवा-आना यह-आस्रव है यह आस्रव द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। पर पूछाता स्थविर मार्य सुधारतेमू मारने धु-"ज इणमो" त्यालि टी -मा सूत्रमा “जबू" ५४ समाधान सभा १५२सयु छ तेथी से दक्षित थाय छ है सुधास्वामी स्वामीन ४ छ, “जबू इणमो" ! हु मा नाये प्रमाणे प्रश्नव्या २६५३५ सास "वोच्छामि" तभने जोश " अण्हयस्वरविणिच्छिय " मा शरमा मानव અને સ વરદ્વારને નિર્ણય તેમના લક્ષણે અને ભેદાદિના કથનપૂર્વક કરવામાં माया छ “ विणिच्छिय" पहने। म विशेष३थे नि त ४२वी, तथा मात्र વને અથ કર્મબ ધના કારણરૂપ પ્રાણાતિપાતાદિક થાય છે તેમના દ્વારા જ આત્મારૂપી તળાવમાં જળ સમાન કર્મોનુ આગમન થયા કરે છે જેમ તળાવમા પાણી આવવા માટે નાળા હોય છે, તે જ પ્રમાણે આ મામા પણ પ્રાણાતિપાત આદિપ નાળા દ્વારા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મરૂપ જળનું આગમન થતું રહે છે અથવા આવવું તે આસ્રવ છે તે આસવ દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારનો Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - -- -- - - - - - - -- - मुशिनी टीका० १०१ मात्रयसयरलक्षणनिरूपणम् मविशवमनलानि आत्मसरसि यस्तै सवरा -कर्मनिरोपहेतुभूताः प्रागातिपात चिरमणादयः। यहा-सवरण सपर'-स्थगनम् । अरमपि द्विविधः द्रव्यतो भारतश्च । तर द्रव्यतस्तथाविधचिकणमृतिकादिभिः सलिलोपरि तरत्तरण्यादेरनारतप्रविशन्नीराणा विराणा पिधानम् । भारत माणातिपातविरमणादिभिरात्मनि परिगकर्मणां निरोधः । असारपि माणातिपातविरमणादिरूपः पञ्चविधः। ते पिनिश्चीयन्ते जल के भीतर पटीई नौका में छिद्रों द्वारा जो जल का आना होता है वह द्रव्यानय है। प्राणातिपात आदि अशुभ क्रियाओं द्वारा आत्मा में जो कर्मो को आना होता है वह भाषाम्रय है। तात्पर्य केवल इसका यह है कि ससार स्प सागर के अन्तर्गन इम आत्म रूप नाव में प्राणातिपात आदि रिहों द्वारा कर्मरूप जल का आगमन होता रहता है वह आस्रव है। कर्मागमन हेतुभृत यह प्राणातिपातरूप आम्रय पाच प्रकार का है। आत्मारूप सरोवर में प्रवेश शेने से कर्म जल जिन क्रियाओं से रुकता है उनका नाम सपर है। प्राणातिपात आदि रूप फ्रियाओं से विरमण रोना यही कर्मो के रोकने का उपाय भूत सवर है। अथवा रुकना इसका नाम सवर है, यह सवर भी द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो प्रकार का हे-चिकनी मृत्तिका आदि से जल के ऊपर तैरती हुई नौका आदि का छेदों के कि जिनसे निरन्तर उसमें जल आ रहा हो पद कर देना यह द्रव्य की अपेक्षा सवर है, तथा प्राणातिपातविरमण आदि उपायों से आत्मा में प्रविष्ट होते हुए कर्मों का रोक देना यह भाव की अपेक्षा सबर है। यह सवर भी प्राणातिपात आदिकों के विरमण બતાવ્યો છે પાણીમાં પડેવી નકામા છિદ્રો દ્વારા જે જળનું આગમન થાય છે તે દ્રવ્યાચવ છે પ્રાણાતિપાત આદિ અનુભ ક્રિયાઓ દ્વારા આત્મામાં જે કર્મોન આગમન થાય છે તે ભાવાવ છે તેનું તાત્પર્ય એટલું જ છે કે સંસારરૂપી સાગરની અંદર આ આત્મારૂપી નાવમાં પ્રાણાતિપાત આદિ છિદ્રો દ્વારા કર્મરૂપી જળનુ જે આગમન થયા કરે છે તેને આશ્રવ કહે છે કર્માગમનના કારણરૂપ તે પ્રાણાતિપાત આદિ પાચ પ્રકારના આસ્રવ છે કર્મરૂપ જળ જે ક્રિયાઓથી આત્મારૂપ અવરમાં પ્રવેશ પામતું અટકે છે તે ક્રિયાઓને એ વર કહે છે પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રિયાઓનુ વિરમણ થવું એ જ કર્મોને રોકવાના ઉપાયભૂત સવર છે, અથવા અવર એટલે રોકવું તે સવર પણ દ્રવ્ય અને ભાવની અપે ક્ષાએ બે પ્રકારનો છે પાણીમાં તરતી નૌકાના જે છિદ્રોમાથી પાણી પ્રવેશ કરતુ હોય તે છિદ્રોને ચીકણી માટિ આદિથી બંધ કરી દેવા તે દ્રવ્યની અપેક્ષાએ સવર છે, તથા પ્રાણાતિપાત વિરમણ આદિ ઉપાયોથી આત્મામાં પ્રવેશ કરતા કમેને રોકી લેવા તે ભાવની અપેક્ષાએ સવર છે તે સવર પણ પ્રાણાતિપાત Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्याकरणसूत्रे है कि यह प्रश्नव्याकरणशास्त्र प्रवचनरूप प्रफुल्लित पुष्प के रस जैसासार भूत है । इसमे आस्रव और सवर तत्त्वका सुन्दर निर्दोष विवेचन हुआ है। और यह विवेचन तीर्थकर परपरा के अनुमार जैमा होता आया है वैसा ही हुआ है। भावार्थ-टीकाकार ने "आसवति-आगच्छति, कर्मजलानि यैस्ते आस्रवार, यद्वा-आस्रवणम् आस्रवः। सब्रियन्ते-प्रतिरुद्धयन्ते प्रविशत्कर्मजलानि यैस्ते सवरा , यदा सवरण सवरः" इस प्रकार से आस्रव और सवर की व्युप्तत्ति की है, उससे प्रथम व्युत्पत्ति के अनुसार कर्मबध के कारणभूत प्राणातिपात आदि क्रियाओं को आमव कहा गया है कारण कि इन्ही के द्वाराजीव नवीन२ कर्मों का वध करता रहता है। दूसरी व्युप्तत्ति के अनुसार आने मात्र का नाम आरव कहा गया है सो यर, द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का कहा गया है । द्रव्यास्रव कर्मवध का कारण नहीं है । कर्मवध का कारण तो भावास्रव ही हैं, क्यों कि प्राणातिपात आदिरूप भावों से ही कर्मों का आगमन होता है । इसी तरह सवर के विषय में भी जानना चाहिये। सघर, आस्रव का निरोधक होता है। छिद्रों के द्वारा नौका मे जल का आना यह आसव के स्थानापन्न है और उन छिद्रों को बद कर देना यह सवरके स्थानापन्न है । અર્થ છે કે આ પ્રશ્નવ્યાકરણ શાસ્ત્ર પ્રવચનરૂપ વિકસિત પુષ્પના રસ જેવુ સારભૂત છે અને આ વિવેચન તીર્થંકર પર પરા પ્રમાણે જે પ્રમાણે થતુ આવ્યું છે તે પ્રમાણે જ થયુ છે ભાવાર્થ-ટીકાકારે આ રીતે આસ્રવ અને આ વરની વ્યુત્પત્તિ કરી છે– " आस्रवति-आगच्छति, कर्मजलानि यैस्ते आस्रवा " (रेना द्वारा मा आवे छे ते मात्र ४वाय छ ) अथवा " आस्रवणम् आस्रव " (माक्षु सरले मात्र) "सब्रियन्ते-प्रतिरुद्धयन्ते प्रविशत्कर्मजलानि येस्ते सवरा " (नाई म प्रवेश पामतु म छे ते स१२ छ) 424 "सवरण मवर" (स१२ टयु) तेमाथी पडेली व्युत्पत्ति प्रभारी उपना કારણરૂપ પ્રાણાતિપાત આદિ ક્રિયાઓને આસવ બતાવ્યા છે બીજી વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે આગમન માત્રનું નામ આસવ બતાવ્યું છે તે તે દ્રવ્ય અને ભાવના ભેદથી બે પ્રકારના કહેલ છે દ્રવ્યાસવ કર્મબ ધનુ કારણ નથી કર્મબ ધનુ કારણ તો ભાવાવ જ છે, કારણકે પ્રાણાતિપાત આદિપ ભાવોથી જ કર્મનું આગમન થાય છે એ જ પ્રમાણે સવરને વિશે પણ સમજવું સ વર આસ ૨ નિરાધક (રોકનાર) હોય છે, છિદ્રો દ્વારા નૌકામાં જળનું પ્રવેશવું તે આસવના સ્થાન માને છે અને તે છિદ્રોને ખધ કરી દેવા તે સ વરના સ્થાન Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .... . . सुदर्शिनी टीका म० १ सू० २ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् ___ 'यथोद्देश निर्देश , इति न्यायेन फलतो नामतश्वासवमकारानाह'पचविहो' इत्यादि। मूलम्-पंचविहो पण्णत्तो जिणेहि इह अण्हओ अणादीओ। हिसा१ मोस२ मदत्त ३ अवभ४ परिग्गह ५ चेव ॥सू०२॥ टीका-'जिणेरि' जिने.रागाद्यन्तरगरिपुविजेतमिरईद्भिः इह-निन शासने ससारे वा, 'अण्डओ' आस्रव 'अणादीओ' अनादिक-नास्यादिः प्रथमोत्पत्तिनिद्यते इत्यनादिका उपलपणत्वादस्य 'अपर्यवसितः' इत्यपि दृश्यम् , प्राणातिपातादिरूप माय, प्राणातिपात आदि विरमणस्प भावसवर से प्रतिन्द्व होते है । और ऐसा होने से ही कर्मों का आगमन सकता है। "निश्चयार्थ"में 'निः' शब्दका नर्य दूर होना है। तथा चयमा अर्थ जानावरणीयादि कर्मपुज है। वह कर्मपुज जिम स्थानसे दूर हो चुका है ऐसा वह स्थान मोक्ष है, और यह मोक्ष जिसका प्रयोजन है वह निश्चयार्थ शास्त्र है। अथवा निश्चय का अर्थ मोक्ष है । इस मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही इस शास्त्र का प्रणयन हुआ है ।।सू०१॥ उद्देशके अनुनार ही निर्देश हुआ करता है इस न्याय को लेकर सूत्रकार फल और नाम की अपेक्षा अन आस्रव के प्रकारों को प्रकट करते है-'पचविहो पण्णत्तो' इत्यादि। टीकार्य-(जिणेहिं) जिनेन्द्र देवने (इह) अहन्त प्रभुके शासनमे अथवा इस ससारमें (अण्हओ) आस्रव (अणादीओ) अनादि (पण्णत्तो) સમાન છે પ્રાણાતિપાતાદિપ ભાવ, પ્રાણાતિપાત આદિ વિરમણરૂપ ભાવસવરથી અટકે છે અને એમ થવાથી જ નવીન કર્મોનુ આગમન રેડાય છે " निश्चयार्थ' मा “नि " पटना म '२ थ' थाय तथा 'चय'ने। અર્થ જ્ઞાનાવરણીયાદિ કર્મપુજ છે તે કર્મyજ જે સ્થાનથી દૂર થઈ ગયે છે તેવું સ્થાન મેક્ષ છે અને તે મેડલ જેનુ પ્રજન છે તે નિશ્ચયાર્થ શાસ્ત્ર છે અથવા નિશ્ચયને અર્થ મલ પણ થાય છે એ મોક્ષની પ્રાપ્તિને માટે જ આ રાસ્ત્રની રચના કરવામાં આવી છે કે સૂ ૧ / ઉદેરા પ્રમાણે જ નિર્દેશ થયા કરે છે તે ન્યાયે સૂત્રકાર ફળ અને નામની - अपेक्षा हवे मारवाना प्रजाशने प्रट ३२ -“पचविहो पण्णत्तो" त्या टील-"जिणेहि" न वे "इह" - प्रभुना गासनमा, मेटले उस ससारमा “अण्हओ" सासवाने "अणादीओ" मनाहि " पण्णत्तो" अज्ञात Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे प्रवाहापेक्षया नानाजीवापेक्षया च ससारस्यानाय पर्यवसितत्वात् । आस्रवस्य सादित्वे सपतित्वे च स्वत एव विरमणे सिद्धानामि ससारिणामपि कर्मबन्धाभाव प्रसङ्गः स्यात् । के ते पचासवाः ? इत्याह- 'हिंसा' इत्यादि, हिंसा = जीवप्रज्ञप्त किया है । (हिंसामोसमदत्त अवभ परिग्गर पचवितो व ) यह हिसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, इस प्रकार से पांच तरह का ही है। रागादिक अन्तरग रिपुओं को जो विजित कर लेते हैं उनका नाम जिन है । जिन प्रभु ने जो आस्रव को अनादि कहा है उसका कारण यह है कि यह ससार अनादि और अपर्यवसित है । ययपि भव्यजीवों की अपेक्षा ससार मे अनादिता होने पर भी अपर्यवसिता नहीं बनती है फिर भी नाना जीवों की अपेक्षा यह बन जाती है । आसव ससारी जीवों के ही होता है, मुक्त जीवों के नही । समार मे रहने वाले जीव ही ससारी जीव है । यह ससार प्रवाह एव नानाजीवों की अपेक्षा जब अनादि अनंत है तो यह पात यन जाती है कि आसव भी अनादि अनत है । अथवा यदि यों भी कह दिया जावे कि आस्रव ही ससार है और ससार ही आसव है । तो इस पक्षमे भी आस्रवमे अनादि अनतता सुघटित हो जाती है। कारण इसकी प्रथमोत्पत्ति तो बनती नहीं है। यदि आसवको एकान्ततः सादि और सपर्यवसित ही माना जाये तो इस स्थिति में यह आस्रव जबतक ससारी जीवमे नही हुआ तबतक वह जीव सिद्धों ( मताच्या) र्या छे “हिंसामोसमदत्त अबभ" परिग्रह पचविहो चेव" ते डिसा, અસત્ય, ચારી, કુશીલ અને પરિગ્રહ એમ પાચ પ્રકારના છે. રાગાદિ આતરિક દુશ્મનાને જે જીતે છે તેને જિન કહે છે જિન પ્રભુએ આસવારે અનાદિ બતાવ્યા છે તેનુ કારણ એ છે કે આ સસાર અનાદિ અને અપર્યવસિત અને ત છે જો કે ભવ્યજીવાની અપેક્ષાએ સ સારમા અનાહિતા હોવા છતા પણ અપ વસિતા મનતી નથી, છતા પણ નાના જીવાની અપેક્ષાએ તે મને છે આસવ સ સારી જીવાને જ થાય છે, મુક્ત જીવાને થતા નથી. સ સારમા રહેનાર જીવે જ સસારી જીવ છે આ સસાર પ્રવાહ અને નાના જીવાની અપેક્ષાએ જો અનાદિ અનત છે તે એ વાત પણ નક્કી થઈ જાય છે કે આસ્રવ પણ અનાદિ અનન્ત છે અથવા જે એમ પણ કહેવામા આવે કે આસવ જ સસાર છે અને સ સાર જ આસ્રવ છે, તેા એ રીતે પણ આગ્ન વમા અનાદિ અનતતા સુઘટિત થઇ જાય છે કારણકે તેની પ્રથમ ઉત્પત્તિ તે સભવી શકતી નથી જો આસવને એકાન્તત સાદિ અને સપર્યવસિત (સાન્ત) જ માનવામા આવે તે તે પરિસ્થિતિમા તે આસ્રવ જ્યા સુધી સમારીજીવમાં २० Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० १ ० २ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् घातः १ । 'मोस' मृपा-असत्यभापणम् २ । 'अदत्त' नदत्तमदत्त परद्रव्यग्रहणम् ३। 'असभ' अवाम-नाम-कामसेपनत्याग न नाम अनम-अफुगलानुष्ठान स्त्री पुस सलो मैथुनमित्यर्थः ४ । 'परिग्गह' परिग्रहः-परिगृह्यते आदीयते इति परिग्रहः स च नवविध:--'धन१, धान्य२, क्षेत्र३, वास्तुक४, रूप्य५, सुवर्ण ६, कृप्य७, द्विपदः८, चनुप्पदश्चेति९ । 'चेव' चैन चेवि समुन्चयाः , ए शब्दोऽकी तरह कर्मवधनसे मुक्त ही रहेगा। तथा सपर्यवसित माननेमें भी यही आपत्ति रहेगी। इस तरह ससारी जीवो के भी फर्मनधन के अभाव का प्रसग आफर प्राप्त होगा। इसलिये यही मानना चाहिये कि यह आसवप्रवाह नाना जीवों की अपेक्षा अनादि अनत है । अपर्यवसित यह पद मृल गाथा में नहीं है। फिर भी अनादि पद से उसका उपलक्षण किया गया है। प्रमाद के योग से जीव का घात होग यह हिंसा है। प्रमाद के योग से असत्य भापण करना इमका नाम झूठ-मोस है। प्रमाद के योग से पर के व्य का ग्रहण करना अदत्तादान चोरी है। काम सेवन करने का परित्याग करना इसका नाम ब्रह्म है । इस ब्रह्मका नही होना अनल है । अर्थात् मैथुन सेवन करने रूप अकुशलानुष्ठानमें प्रवृत्त रहना सो अब्राहम है । जो ग्रहण किया जावे उसका नाम परिग्रह है, यह परिग्रह नौ प्रकारका है-धन१, धान्य२, क्षेत्र ३, वास्तु ४, रूप्य ५, सुवर्ण ६, कुप्य ७, द्विपद ८ ओर चतुष्पद ९। “च" यह शब्द यहाँ ન થાય ત્યા સુધી તે જીવ સિદ્ધોની જેમ કર્મ ધનથી મુક્ત જ રહેશે તથા સપર્યવસિત માનવામાં પણ તે જ મુશ્કેલી નડશે એ રીતે સ સારી મા પણ કર્મબંધનના અભાવની સ્થિતિ આવી જશે તેથી એમ જ માનવું જોઈએ કે તે આસ્રવ પ્રવાહ નાના જીવોની અપેક્ષાએ અનાદિ અનત છે “અપર્ય વમિત” પદ મૂળ ગાથામાં નથી છતા પણ અનાદિ પદથી તેનુ ઉપલક્ષણ કરવામાં આવ્યુ છે પ્રમાદના ચોગથી જીવની હત્યા થવી તે હિસા ગણાય છે प्रमाना योगयी 4 4 साल तेनु नाम पूठ-मोस छ प्रभाहना योगयी પારકાનું દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવુ તેને અદત્તાદાન–ચારી કહેવાય છે કામ સેવન કરવાને પરિત્યાગ કરે તેનું નામ બ્રહ્મ છે આ બ્રાને અભાવ છે તે અબ્રહ્ના છે એટલે કે મિથુન સેવન કરવા રૂપ અશુભ અનુષ્ઠાનમાં પ્રવૃત્ત રહેવું તે અબ્રહ્મ કહેવાય છે પરિગ્રહ એટલે ગ્રહણ કરવું તે પરિગ્રહ નવ પ્રકારને छे-(१) धन, (२) धान्य, (3) क्षेत्र, (४) वास्तु, (५) याही, (6) सुपथ, (७) प्य, (८) द्वि५६ मने (6) तु.५४ "च" ५ मा सभुस्यया छे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण्याकरणपत्रे वधारणार्थः । हिंसादिभेदतः पञ्चविधा एर आत्रमाः सन्तीत्यर्थः। अनेन दशाध्य यनस्य प्रश्नव्याकरणसूनस्याघानि पञ्चाध्ययनानि सूचितानि । स०२।। ___ अथ प्रथमाध्ययने कतिद्वाराणि ' इति द्वारनिरूपणार्य श्री सुधर्मास्वामी जम्यूस्वामिन प्रत्याह-'जारिसओ' इत्यादि। मूलम्-जारिसओ१, जनामा२, जहयकओ३, जारिसं फल देइट। जेवि य करेंति पाव ५, पाणवह त निसामेह ॥सू०३॥ टीका-स माणिवधरूप आसन 'जारिसओ' याटशका यत्स्वरूपः, यादृशं तस्य स्वस्पमस्ति, 'जनामा' यन्नामा यानि यत्सख्यकानि नामानि सन्ति यस्येति स यन्नामा भवति । 'जयकओ' यथा च कृतःम्माणिभिः यथा येन भन्दतीवादिपरिणामेन कृताम्समाचरित -आचरणविषयीकृतः। आचरितः सन् 'जारिस' याश नरकगमनादिक फल 'देइ' ददाति । 'जेवि य' येऽपि च 'पावा' समुच्चयार्थक है और “ एव" शब्द अवधारणार्थक है। इससे यह पुष्ट होता है कि आस्त्रच, हिंसा आदि के भेद से पाच ही प्रकार का है। कमती बढती नहीं है। इस कथन से सूत्रकार ने दस अध्ययनात्मक इस प्रश्नव्याकरण शास्त्र के आदि के पाच अ ययन सूचित किये हैं।।सु २॥ ___ अब सुधर्मास्वामी " प्रथम अध्ययन में कितने द्वार हैं " इस जबू स्वामी के प्रश्न का उत्तर देने के लिये द्वार निरूपण के निमित्त कहते हैं 'जारिसओज नामा' इत्यादि। टीकार्थ-यह प्राणियधरूप आरव (जारिसओ) जैसा है (ज नामा) जितने इसके नाम है (जयकओ)प्राणियोद्वारा यर जिन मन्द तीव्र आदि परिणामो से किया जाने पर (जारिस फल देइ ) जिस प्रकार का उन्हें मन " एव" ५६ अवधार्थ छ तनाथी ये पातने पुष्टि भने छ કે આસવ, હિસા આદિના ભેદથી પાચ જ પ્રકારના છે વધારે કે ઓછા નથી આ કથનથી સૂવરે દર અધ્યયનવાળા આ પ્રશ્નવ્યાણ સ્ત્રના શરૂઆતના પાચ અધ્યયન સૂચિત કર્યો છે કે સૂ ૨ ! હવે સુધર્માસ્વામી “ પ્રથમ અવ્યયનમાં કેટલા દ્વાર છે એ પ્રકારના જબૂસ્વામીના પ્રશ્નનો ઉત્તર દેવાને માટે દ્વાનિરૂપણને નિમિત્ત કહે છે"जारिसओ ज नामा" त्यादि। साथ-सा प्रावध३५ मात्र "जारिसओ"पोछे, "ज नामा" २८सा का नाम छ, “जहयकओ" प्रभा द्वारा ते भ६, तीन माह परिणाभाथी रात "जारिस पल देइ" २ नु तेभने न२५॥३५ १ मा छ, तथा Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ - - - - - सुवशिनी टीका अ१ स्३-४ प्रथम अधर्म-द्वारनिरूपणम् पापा:-पापकर्मशीलाः 'पाणवह प्राणवध-माणाः मन्ति येपामिति ते प्राणा:प्राणिनः 'अर्श आदित्वाद च, तेपा पो-दिसा माणथम्त जीपघात 'करेंति' कुर्वन्ति 'त' तत्पथमाचरद्वार वक्ष्यमाण 'निसामेह' निशामयत-शृणुत । हे जम्मूः ! मम कथयतः अणु इत्यर्थः, अनार्पनाद् बहुवचनम् ।।०३।। सम्प्रति 'जारिसओ' यादृशः, इति द्वार विटण्यन् माणपधस्वरूपमाह'पाणयहो' इत्यादि। ___ मूलम्-पाणतहो नाम एसो जिणेहिं भणिओ-पायो१, चंडो२, रुद्दो३, खुद्दोर, साहसिओ५, अणारिओह, णिग्घिणो७, णिस्संसोद, महाभओ९, पइभओ१० अइभआ११, बीहणओ १२, तासणओ१३, अणजओ१४, उन्वेयणओ य, णिरवयक्खो १६, णिद्धमो१७, णिप्पिवासो१८, णिकलुणो१९, निरयवास निधणगमणो२०, मोहमहसयपयट्टओ२१, मरणक्मणस्सो२२, पढम अहम्मं अव्वयस्स ॥ सू०४ ॥ नरकादिरूप फल देता है, तथा (जे वि य पाणवह करेति ) जो पापी इस प्राणवध को करते हैं यह सर विपय इस प्रथम आसवहार में कहा जावेगा। सो (त निसामेह ) हे जन् ! तुम उसको सुनो। भाव-सुधर्मा स्वामी उस गाया द्वारा यह समझा रहे हैं कि हे जअन इम हिंसारूप प्रयम आस्रवढार का स्वरूप, नाम और फल इन तीन द्वारांसे इस हिसारूप प्रथम आस्रवद्वारका निरूपण किया जायगा । तथा साथ २ में यह भी स्पष्ट कहा जायगा कि इस प्राणिवध को कौन जीव करते हैं। इस गाथा में "पाणवह" इस पद से प्राण जिनके होते हैं ऐसे प्राणी एकेन्द्रियादिक गृहीत हुए हैं। उनका जो वध है वह प्राणवध है ।। स ३ ॥ "जे विय पापा पाणनह फरेंति "२ पापी मा प्रावध ४२ छ, त समस्त विषय मा पा आसपदामा ४उवामा मात्र तो “सो त निसामेह" જ ખૂ' તુ તે સાભળ ભાવાર્થ–સુધર્માસ્વામી આ ગાથા દ્વારા એ સમજાવે છે કે હે જ બૂ! આ હિસારૂપ પ્રથમ આવદ્વારનું સ્વરૂપ, નામ અને ફળ એ ત્રણેન દ્વારે વડે નિરૂપણ કરવામાં આવશે તથા તેની સાથે એ પણ સ્પષ્ટ કરવામાં આવશે में से प्रावध यो (पापी) ७ ४२ छ म मायाम! “पाणवह" से पहथीने પ્રાણ હોય છે તેવા એકેન્દ્રિયાદિત પ્રાણી ગ્રહણ કરાયેલ છે તેમને જે વધે છે તેને પ્રાણવધ કહે છે ! સૂ ૩ | Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रश्नध्याकरणसूत्रे टीका-'पाणवहो' माणवधो नाम 'सो' एपक्ष्यमाणः 'जिणे जिनैः 'भणिओ' भणितः कथितः । स चायम्-'पायो' पाप -पापपतीना बन्धकारणत्वात् । 'चडो' चण्ड:-क्रोधजनकत्वात् 'कहो' रौद्रः-रोदरसमपतितत्वात् , 'खुद्दो' क्षुद्रः-शुद्रजनाचरितत्वात् , 'साहमिओ' साहसिक:-अममीक्ष्यकारि जनप्रवर्तितत्वात् । 'अणारिओ' अनार्य -अनार्यपुस्पैराचरितत्वात् । 'णिग्धिणो' निगः-न विद्यते घृणा-पापजुगुप्सा येपा ते निघृणाः-निर्दया:, तैराचरितत्वात् । णिस्ससो' शस:-क्रूरकर्माचरितत्वात् , 'महरूमओ' महाभयः-महाभयजनकत्वात् , 'पइभओ' प्रतिभयः-सफलप्राणिनां भयहेतुत्वात् , ____ अय सूत्रकार 'जारिसओ' इस द्वार का विवरण करते हुए प्रागध के स्वरूप को कहते है-'पाणवहो नाम एसो 'इत्यादि। टीकार्य-(एसो पाणवहो नाम) यह प्रागवध (जिणेहिं) जिनेद्र देवने (पावो) पाप प्रकृतियो के वध का कारण होने से पापरूप १, (चडो) क्रोध का जनक होने से, चडरूप २, (रदो) रौद्र रल से प्रवर्तित होने के कारण रौद्ररूप ६, (खुद्दो) क्षुद्र जनों द्वारा आचरित होने के कारण क्षुद्ररूप ४, (साइसिओ) अविचार शील मनुष्यो द्वारा किया हुआ होने के कारण साहसिक रूप ५, ( अणारिओ) अनार्य जनों द्वारा विहित होने के कारण अनार्यरूप ५, (णिग्धिणो) दया विहीन हृदयवाले मनुष्यों द्वारा सेवित होने के कारण निघृणरूप ७, (णिस्ससो) कर कर्मवाले जनों द्वारा किया हुआ होने के कारण नृशसरूप८, (मभओ) महान् भयका जनक होने के कारण महा भय रूप९, (पहभओ) समस्त प्रागियोको भयका हेतु वे सूत्रा२ “जारिसओ" मा द्वारनु पणुन उरता प्रावधनु २१३५ छ-" पाणवहो नाम एसो" त्या Astथ-"एसो पाणवहो नाम" २५ प्रावध “जिणेहि" मेन्द्र हेव (१) "पावो" पा५ प्रतियाना मधनु १२ डापाथा पा५३५, (२) " चडो" जोधन पहा ४२ना२ वायी २३३५, (3) "रुद्दो" रौद्र २सथी प्रवर्तित सोपान धरणे श२३५, (४) "खुद्दो" क्षुद्रगना द्वारा मायरित डावाथी क्षुद्र३५, (५) “साहसिओ" मवियारी मनुष्य द्वारा रातो पाने ४२२ सा सि४३५, (6) "अणारिओ" અનાર્ય લેકે દ્વારા કરાતો હોવાને કારણે અનાર્યરૂપ, (૭) "णिग्विणो" या२डित या at E रातो पाथी नि३५, (८) "जिससो" दू२ मा at द्वारा ४२सता डावाने नृश स३५, (6) "महमओ" महान लयन पाथी महालय३५, (१०) "पइमओ" समस्त प्राणीमान अयने तुभूत पाने २ प्रतिमय३५, (११) "अइमओ" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३-४ प्रथम अधर्मद्वारनिरूपणम् २५ 'अइभओ' अतिभयः-मरणान्तमयजनकन्वान् , 'बीहणओ' मानक भयोत्पादकत्वात् 'तामणओं' वामनक कस्मातोभननम्त्वात् , 'अणज्जओ' अन्या. ग्य -न्यायादनपेत' युक्त न्याग्य , न न्याय्यः-अन्याय्यः न्यायार्जितत्वात् । 'उन्वेयणो ' उदेजनस्व-उठेगर.-हृदयोद्वेगजनस्त्वात् । चकारः समुच्चयार्थ' । 'निरचययो' निरपेक्षः-निर्गता अपेक्षा परदिनविषया यस्य स तथा परमाणत्राणान्छानितत्वान् , 'णिद्वम्मो' निर्म -श्रुतचाग्विधर्मवर्जितत्वात् , 'णिप्पिवासो' निपिपासः-माणिस्नेहरहितत्वान् , 'णिकलुणो' निष्करुणःदयाभाषार्जितन्यान् , 'निग्यवासनिधणगमणो' निरयवासनिधनगमनः, निर यवासा-नरकासः, तन गमनमे निधन पर्यवमान अन्तिमफल यस्य ग निग्यवामनिधनगमनः नरकमापरत्वात् । भूत होने के कारण प्रतिभयरूप १०, (अहमओ) मरणान्तभयजनक होने से जतिभयरूप ११. (पीहणओ) भय के उत्पादक होने से भयफारकल्प १२, (तामणभो) अकस्मात् क्षोभ का कारण होने से प्रासनकरूप १३, (अणलओ) अवैध होने के कारण-अनीति रूप होने के कारण अन्य रूप १४, ( उम्रेरणओ) हृदयमें उद्वेग का जनक होने से उद्वेगकर्तृरूप १५, (निरवयम्यो ) परप्राणी के प्राणों की रक्षा करने की चान्छा से रहित होने के कारण निरपेक्षरूप १६ (णिद्धम्मो) श्रुतचारित्र रूप धर्म से वर्जित होने के कारण निर्वमरूप १७, (णिप्पिवासो)प्राणियों के प्राणों के प्रति मनतामान से रहित होने के कारण निप्पिपासारूप १८, (णिकलुणो) दयानान से रहित होने के कारण निष्फरुणारूप १९, (निरयवासनिधणगमणो) तथा नरकगमन ही जिसका अन्तिम फल है ऐसा होने के कारण निरयवाम निधनगमनरूप २०, (मोहमभयपयओ) यह बनना भ३५ सापायी गतिमय३५, (१२) "बहणओ" मयने उत्पन्न ७२नार हावाथी लय(२०३५, (१3) " तासणओ" भन्यान सामना २४३५ वाथी वासन३३५, (१४) " अणजओ" अवैध सापाथी-मनीति३५ वान १२ सन्याय३५, (१५) " उन्वेषणओ"यमा १ पहा ४२ना२ डापाथी Ga४१२७, (१६) “निरपयस्पो" ५२ प्राथना प्रानी २६॥ पानी ४२ाथी रहित सरावाने १२ निरपेक्ष३५, (१७) “णिद्धम्मो" श्रुत-यात्रि३५ धमथी २हित पाने दो निमि३५, (१८) "णिप्पिवासो" प्राणीमाना प्रा। त२५ ममता माथी हित डावाने जा निम्पियामा3५, (१९) "णिकलुणो" ध्यामाथी २हित पाथी नि४२१३५, (२०) “निरयवासनिधणगमणो" तथा न२४ ગમનજ જેનુ અતિમ ફળ છે, એ હવાને કારણે નિરયવાસ નિધનગમનરૂપ, Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नदयाकरणसूत्र 'मोमहन्भयपयओ' मोहमहामयमवर्तक', मोहअज्ञानम् स एव महाभयहेतुत्वात् महाभय तस्य मवर्तको य स मोहमहाभयमवर्तकः। 'मरणवेमणस्सो' मरणवैमनस्या-मरणेन-मृत्युरूपकारणेन प्राणिना मनस्यदैन्य यस्मात् स मरणवैमनस्य दीनमन• कारित्वात् । 'पढम अहम्म '= प्रथममधर्मम् अधर्मद्वारम् ' अव्वयस्स ' अतस्पतरहितस्य ॥ मू०४॥ प्राणवध मोह-अज्ञान रूप महाभय का प्रवर्तक है २१, और (मरणवेमणस्सो) इस से प्राणियों मे मृत्युरूप कारण को लेकर के दीनता आती अतः यह मरण वैमनस्यरूप है २२, ऐसा( मणिओ) भगवान ने कहा है। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा प्राणिहिंसारूप आस्रव कैसा है यह बात सूत्रकार ने स्पष्ट की है, वे कहते है कि यह प्राणिहिंसारूप आस्रव पापप्रकृतियों के धध का कारण है। कारण हिंसा करनेवाला जीव प्रमाद के योग से प्राणों का व्यपरोपण कर्ता होने से पापप्रकृतियों का ही बधक होता है, अत' यह प्राणिहिंसा पापरूप है। पर की हिंसा करते समय आत्मा में क्रोध परिणति तीव्ररूप से रहती है, क्यों कि हिंसक जीव हिंस्य जीव जैसी २ अपनी रक्षा आदि के कारणकलाप जुटाता है उन्हें क्रोध के आवेश में तन्मय होकर नष्ट करता है-इसलिये यह प्राणहिंसा चडरूप प्रकट किया गया है। इसी तरह रौद्र आदि रूपता भी इस में अपने २ उन २ भिन्न २ कारणों को लेकर घटित कर लेना चाहिये। इस प्रकार से ये प्रथम आस्रवरूप अधर्म द्वार है। इसमें प्राणिहिमा का क्या स्वरूप है यह स्पष्ट किया गया है ॥सू०४॥ (२१) "मोहमहन्मयपयहओ" ते प्रावध, भाई-मज्ञान३५ महालयन प्रवत छ, भने (२२) "मरणवेमणस्सो" तनाथी प्राणायामा मृत्यु३५ रघुने सीधे हानता भाव छ, तेथी ते भरणवैमनस्य३५ छे, अबु “ मणिओ" ने मारा छे ભાવાર્થ—આ સત્ર દ્વારા પ્રાણીવધરૂપ આસ્રવ કે છે તે વાતનું સૂત્રકારે સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છેતેઓ કહે છે કે તે પ્રાણવધરૂપ આસવ પાપ પ્રકૃતિના બ ધનુ કારણ છે કારણ કે હિ સા કરનાર જીવ પ્રમાદના વેગથી પ્રાણને નાશ કર્તા હોવાથી પાપપ્રકૃતિને બધા હેય છે, તેથી તે પ્રાણવધ પાપરૂપ છે પરની હિંસા કરતી વખતે આત્મામા ક્રોધપરિણતિ તીવરૂપે રહે છે, કારણ કે હિંસ્યજીવ જેમ જેમ પોતાના રક્ષણ માટે પ્રયત્ન કરે છે તેમ તેમ હિંસક જવ ક્રોધના આવેશમાં તલ્લીન થઈને તેને નાશ કરે છે, તે કારણે પ્રાણવધને ચડરૂપ કહેલ છે એ જ રીતે રૌદ્રરૂપતા આદિ તેના લક્ષણો પણ ભિન્ન ભિન્ન કારણોને લઈને ઘટાવી શકાય છે. આ રીતે તે પ્રથમ આમ્રવરૂપ અધર્મદ્વાર છે. તેમાં પ્રાણવધનું કેવું સ્વરૂપ છે તે સમજાવવામાં આવ્યું છે | સ ૪ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका १०१ सू० ५ मृपावादरूप होतिय अधर्मद्वारनिरूपणम् ७ पूर्व प्राणिवधस्य स्वरूपमुक्तम् , इदानी यन्नामेति प्रतिनातानि तस्य नामान्याह-'तस्से 'त्यादि। मूलम्-तस्स य इमाणि नामाणि गोणाणि हुति त जहापाणवहर, उम्मूलणा सरीरओ२, अवीसभो३, हिसविहिंसा, . तहा अकिच्चं च५, घायणाय६,मारणाय७, वहणा८, उद्दवणा९, निवायणा य१०,आरभसमारभो११, आउयकम्मस्सुबद्दवो भेयाणहवणगालणा य सवगसखेबो१२, मच्चू१३, असजमो१४, कड गमद्दण१५, वोरमण१६, परभव सकामकारओ१७, दुग्गतिप्पवाओ १८, पावकोवो य१९, पावलोभोय२०,छविछेओ२१, जीवियतकरणो २२, भयकरो२३, अणकरो२५, वजो२५, परितावण अपहओ२६, विणासो२७, निजवणो२८, लपणा२९, गुणाण विराहण३० त्ति वि य तस्स एवमादीणि णामधेजाणि हुति तीस पाणवहस्त कलुसस्स कडुयफलदेसगाइ ॥ सू० ५॥ टीका-'तस्म य' तस्य च माणवधस्य ' इमाणि' इमानि अनुपद वक्ष्यमाणानि नामाणि' नामानि 'गोणाणि' गोणानि-गुणनि पन्नानि 'हुति' मान्ति 'तीस' त्रिंशत् , 'त जहा' तद्यया-'पाणवह' प्राणध =जीवघात.१, 'उम्मलणा सरीराओ' उन्मूलना शरीरता वृक्षोत्पाटनमिर उन्मूलना जीवस्य प्राणिहिंसाफा इस प्रकार स्वरूप कहकर अब सूत्रकार इसके कितने नाम है यह प्रकट करते हे-'तस्स य इमाणि' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स गोणाणि इमाणि नामाणि तीस हती) उस प्राणिहिंसाके ये गुणनिष्पन्न तीस नाम हैं (त जहा) वे इस प्रकारसे हैं (पागव)जीवघात१, (उम्मृलणासरीराओ) शरीरसे वृक्षको उग्वाडनेकी तरह जीवकी उन्मूलनार, પ્રાણવધનું આ પ્રકારનું સ્વરૂપ સમજાવીને હવે સૂત્રકાર તેના કેટલા नाम छे ते प्रगट ३ छ-" तस्स य इमाणि" त्याह te-"तस्स गोणाणि इमाणि नामाणि तीस हुति" ते प्रावधाना शुशु प्रमाणे श्रीस नाम छ “ तजहा" ते २८ प्रमाणे छ-(1) " पाणयह " ०१७त्या, (२)"सम्मलणा सरीराआ"वृक्षने पापानी भ रमाथा अपनी भूसना,(3) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रश्नग्याकरणस्त्रे शरीरादितिर । 'अवीसभो' अविश्रम्भ:-अविश्वास-प्राणामकारकेपु जीवानां विश्वासो नैव भवति इति हिसाया अविश्रम्भकारणत्वादवियम्भव्यवहारः३, 'हिंसविहिंसा' हिंस्यविहिंसा हिंस्याना- जीयाना पिहिंसा प्राणवियोगः अजीवाना हिंसाया अभावात् 'हिंस्याना' मितिकथितम् ४ । ननु अरूपिणः हिसेव न सम्भ वति इति हिंसविहिंसेत्युक्तारपि फिमायातमितिचेन्न स्वस्पत एक प्राणतियोग रूपहिंसायागृह्यमाणत्वात् । उक्तञ्च " पञ्चेन्द्रियाणि निविध चल•च उन्झासनिन्छ्वासमधान्यदायुः। माणादशैते भगवद्भिरुक्तास्तेपा वियोजीकरण तु हिंसा ॥१॥" 'तहा अकिच्च च' तथा अकृत्य च-तया तेनप्रकारेण अकृत्यम्-अकरणीय भग वता निपिद्धत्वात् ५। 'घायणा य' घातना च-हनन ६ । 'मारणा य' मारणा च माणपीडनम् 91 'वणा' हननम् ८ । 'उद्दवणा' उपद्रवणम् ९, 'निवायणा' निपातना-यस्य यावन्त प्राणाः सन्ति तस्य तेभ्यः निपातनदूरीकरणम् , यद्वा'तिवायणा' इति पाठे विपातना-त्रयाणा मनोपकायाना पातना="वसना १०, 'आरभसमारभो' आरभ्यन्ते विनाश्यन्ते इति आरम्भाप्राणिनः तेपासमारम्भ परिताप -"परितावकरो भवे समारभो" इति वचनात् । जारम्भो वा कृप्यादि व्यापारः तेन समारम्भा आणिपीडनम् ११ । 'आउयकम्मस्सुवदवो मेयनिठवण गालणा य सवगसखेवोत्ति' आयुःकर्मण उपद्रनः भेद निष्ठापन गालना व सप्रवर्तक' सक्षेप , आयु. कर्मण उपद्रा समुच्छेदः, भेद-विनाश , निष्ठापन समापनम् , गालना=निस्सारणम् । सवतेफ -सर्वपलसामर्थ्यादीना सकोचनम् , सक्षेपः-अभावकरणम् १२। 'मच्चू' मृत्युः भरणम् १३, 'असजमो' असयम -न (अवीसभो) अविश्रभ३, (हिंसविहिंसा) हिस्थविहिंसाध, तथा (अकिच) अकृत्य५, (घायणा) घानना६, (मारणा) मारण७, (वाहणा) हनन८, (उद्दवणा) उपद्रवणा९, (निवायणा) निपातना१०, (आरभममारभो) आरभ समारभ ११, (आउयकम्मस्सुवद्दयो भेयणिवणगालणा य सवट्टग सखेवो) आयुकर्म का उपद्रव, भेद, निठापन, गालना, मप्रवर्तक, सक्षेप१२, (मच्चू) मृत्यु१३, (असजमो) असजम१४, ( कडगमद्दण) "अवीसभो" भविशम, (४) " हिंसविहिंसा" डिंभ्यविडिंसा, (५) “ अकिच" सत्य, (6) “घायणा" धातना, (७) “मारणा" भा२१, (८) “वाहणा"नन, (e) "उवणा" 6p, (१०)" निकायणा" निपातना, (११) "आरभसमा भो" मालसमारल, (१२) " आउयकम्मरसुबहवो भेयणिवणगालणा य सबट्रगसखेघो" मायुभनी पद्रव, सेह, नियन, शासना, मप्रवत्त, सक्षेप, (१३) “मच्चू" मृत्यु, (१४) "असजमो" मस-म, (१५) 'कडगमद्दण"४४४ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०५ मृषावादरूप द्वितीय अधर्महारनिरूपणम् २९ सयमोsसयम . सावधानुष्ठानम् १४ । ' रुडगमण ' टमर्दन - कटकेन सैन्येन किलिञ्जेन ना आक्रम्य मर्द्दनं, प्राणनधकारणत्यादोपचारिक माणाधे कटकमद्दन व्यवहारः १५ । 'त्रोरमण' व्युपरमण नीरस्य माणतो नियोजीकरणम् १६ | 'पर भनसकामकारओ' परभासक्रम कारक नरस निगोवादि चतुर्गतिससार पुनः पुन परिभ्रमण हेतुत्वात् १७ | 'दुग्गडप्पबाओ' दुर्गतिमपात - दुर्गत नरकादि दुष्टगती प्रपातयतीति दुर्गविप्रपात' = नरकनिगोदादि कुगति दानः १८ | 'पाय' पापकोपञ्च=पाप कोपयति यति इति पापकोष, मकल्पापोत्पादकत्वाद, यहा - पापस्य कोपकार्यत्यात्पापकोपः क्रोधस्वरूप इत्यर्थ. १९, 'पावलोभो य' पापलोभव-पाप लुभ्यति=धातुनामनेकार्थत्वात् सत्यिति यस्मात् स पापलोभः= पापागमनहारलक्षणः २० | 'उविच्छेजो' विच्छेदः - उवि =शरीर वस्य छेदः = कर्तनमिति छनिच्छेद =शरीरर्तनम् । यद्वा-शरीरायाच्छेदनम् २१ । 'जीनितकरणी' जीवितान्तकरण = प्राणोच्छेदकर २२ । 'भयकरो = भयदा यकः २३ | 'अणकरी' मुणकर ऋण अनेके पपि भवेषु नानानि दुखभोगेरपि दुरपनेयस्वरूप करोतीति ऋणकरः २४ । 'उज्जो' वर्ज्य = त्याज्यः । अथना वज्रमित्र गुरुत्वात्, तत्कारि प्राणिनामनःपातकत्वाद् वा पत्रम् २५ ।' परितावण अण्हओ' परितापनाश्रवः = परितापनारूप आखनः । भा भव सन्तापकत्वात् २६, 'विणासो ' विनाशः - माणनि वमनरूप' २७ । 'निज्जवणो' निर्यापना=निर्यापयति= निर्गमयति प्राणिन - प्राणानिति निर्यापना=पागनिस्तारणम् २८ । 'लुपणा ' लोपना - प्राणिप्राणविगमनम् २९ । 'गुणाण निराहणा' गुणाना निराधना=श्रुत 1 कमर्दन १५, (वोरमण) व्युपरमण१६, ( पर भवमकामकारओ) पराभवसक्रमकारक १७, (दुग्गटप्पवाओ) दुर्गतिप्रपात १८, (पावकोयो) पापकोप १९, (पावलो मो) पापलो २०, (उविच्छेओ) शरीरका नाश२१, (जीवियत करणो ) जीवितान्तकरण २२, (भयकरो) मयकर २३, (अणकरो) कुणकर २४, (बज्जो) वर्ज्य २५, (परितापण अण्टओ) परितापनाश्रय२६, (विणासो) विनाश२७, (निज्जवणो) निर्यापना२८, (लुपणा) लोपना२९, (गुणाण विराणा ) भर्हन, (१६) "वोरमण" व्युपरम५, (१७) “ परभवस कामकारओ " पराभव सभन२०, (१८) ' दुग्गइप्पनाओ" हुर्गति प्रभात, (१८) ' पानकोनो” पायअय, (२०) पापलोभो " पायझोल, (२१) "हनिच्छेओ" छवि, (२२) " जीवि यतक्रणो” लवितान्तऽ२, (२३) ' भयकरो " लय २, (२४) "अणकरो” गुडर, (२५) " वज्जो " वर्थ, (२६) " परितावण अण्हओ " परितापनाश्रव, (२७) “विणासो ' विनाग, (२८) "निज्जवणे।” निर्यापना, (२) “लुपणा " सोचना, " Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्रयाणसूत्रे चारित्रगुणानां भञ्जना ३० । 'ति त्रिय' इत्यपि च= ' इति 'शब्दः समाप्तिमूचकः अपि चेति समुच्चयार्थः । ' तस्स' तस्य - प्राणिवधस्य ' एवमाईणि ' एवमादीनि = उक्तरूपाणि 'तीस' त्रिंशत् 'नामघेज्जाणि' नामधेयानि 'पाणहस्स' प्राणवधस्य, ‘कलुसस्स' कलुपस्य=पापरूपस्य 'कड्डयफलदेसगाई' कटुकफलदेशका नि=अशोभन परिणामनोधकानि 'हुति' भवन्ति । एतावता 'ज नामा' यन्नामेति, द्वितीय प्राणवधनामद्वारमुक्तम् ॥ ०५ ॥ गुणोंकी विराधना ३०, । (एवमादीणि) इत्यादिक ये (तीस) तीस, (नामधे - ज्जाइ) नाम प्राणिहिंसा के (हुति) है । यह प्राणिहिंसा ( कलुसस्स) पापरूप है। उसके ये तीस नाम (कड्डयफलदेसगाइ) अशुभ परिणाम के ही योधक हैं। इस तरह यह 'जनामा' इस नामका द्वितीय प्राणिहिंसा द्वार कहा है। भावार्थ -- सूत्रकार ने इस सूत्रद्वारा प्राणिहिंसा के गुणानुसार कितने नाम है अथवा हो सकते है यह कहा है । इस प्राणिहिंसाका प्रथम नाम प्राणिहिंसा है, प्राणिहिंसा का अर्थ पाच इन्द्रिय, तीनवल, आयु और श्वासोवास इन सभावित दश प्राणो का वियोग करना। एकेन्द्रिय जीवके ४ चार प्राण, दो इन्द्रिय जीवके ६छ प्राण, तीन इन्द्रियवाले जीवके ७ सात प्राण, चौ इन्द्रिय जीवकेट आठ प्राण, असजीपचेन्द्रिय जीवके९नव प्राण और सज्ञीपचेन्द्रिय जीवके १०दस माण होते है । इस तरह भिन्न २ जीवों में सभक्ति इन प्राणोंका प्रमादके योगसे नियोग करना इसका नाम प्राणिहिंसा है, यह प्रथम भेद हुआ। प्राणिहिंसाका यह पर्यायवाची शब्द है। सने ( 30 ) " गुणाण विराहणा" गुणोनी विराधना, " एवमादीणि " ઈત્યાદિ "तीस" श्रीस "नामघेज्जाइ" नाभ प्राणुवधना "हुति” छे ते प्राशुवध "" कलु [" पायपछे तेना या त्रीस नाम “कडुयफलदेसगाइ" अशुल परिणा મના જ મેધડ છે. આ પ્રકારનુ આ जनामा ” એ નામનુ દ્વિતીય પ્રાણવધ દ્વાર ભાખેલ છે सरस ८८ ભાવાર્થ સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા પ્રાણવધના ગુણાનુસાર કેટલા નામ છે અથવા હાઈ શકે છે તે ખતાવ્યુ છે તે પ્રાણવધનુ પહેલુ નામ પ્રાણવધ છે પ્રાણવધને અર્થ આ પ્રમાણે છે—પાચ ઇન્દ્રિય, ત્રણ ખળ, આયુ અને શ્વામા વાસ એ સભવિત દશ પ્રાણાના વિયેાગ કરવા તેને પ્રાણવધ કહે છે એકે ન્દ્રિય જીવને ચાર પ્રાણ, દ્વિઇન્દ્રિય જીવને છ પ્રાણ, ત્રિઇન્દ્રિય જીવને સાત પ્રાણ, ચતુરિન્દ્રિય જીવને આઠ પ્રાણ, અસની પચેન્દ્રિય જીવને નવ પ્રાણુ અને સની પચેન્દ્રિય જીવને દસ પ્રાણ હાય છે આ રીતે જુદા જુદા જીવામા સભવિત એ પ્રાણાના પ્રમાદના યાગથી વિયાગ કરવા તેને પ્રાણવધ કહે છે આ પહેલા ભેદ થયે પ્રાણવધને તે પર્યાયવાચી રાખ્યું છે પ્રથમ પ્રાણવધ તે Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीका २० १ सू० ५ मृपावादरूप द्वितीय अधर्मद्वारनिरूपणम् ३१ प्रथम प्राणिहिमा, यह सामान्य अर्थका बोधक होनेसे सामान्य शब्द है और इसका पर्यायवाचीरूप प्राणिहिंसा विशेप अर्थका रोधकहोने से विशेष शब्द है । इस तरह से गुण निम्पन्नता इन मन नामों में जानना चाहिये। इसका खुलासा हम प्रकार से है-जमीन से जैसा वृक्ष उग्वाड़ देते है उसी तरसे शरीर से जीवका निकाल देना यह जीवकी शरीरसे उन्मूलना (उम्पाडना है। इस उन्मूलनामे जीरकी पर्यायका निनाश होता है. और जीव को कष्ट होता है अतः यह प्राणिहिमा है । यह दूसरा भेद२ । जोजीपरि सक, निर्दयी, हत्यारे होते हैं उनमें जीयो का विश्वास नहीं होता है इसलिये हिंसाको अपिधाम का कारण शेने से उसमें अनिश्रम का व्यवहार करदिया गया है। यह तीसरा भेद । हिंस्य विहिंसा-अजीवों की हिंसा नहीं होती है-हिमा तो जीनोंकी होती है इसलिये यहाँ पर हिंस्य पद से जिन जीयों की हिसा होती है वे ग्रहण किये गये हैं। इन हिंस्य जीवों के प्राणोंका वियोग इस प्राणिहिंसा में होता है इसलिये इसे रिस्यविहिंसा कहा गया है। यह चौथा भेद ४ । मन-जीव तो अरूपी है-जो अरूपी होता है उसको हिंसा होती नहीं है फिर रिस्यविहिसाका व्यपदेश प्राणि हिंसामें क्यों किया? સામાન્ય અને બેધડ હેવાથી સામાન્ય શબ્દ છે અને તેને પર્યાયવાચી પ્રાણવધ શબ્દ વિશેષ અર્થને બેધક હોવાથી વિશેષ કાષ્ટ છે આ રીતે એ બધા નામમાં ગુણયુકતતા સમજી લેવી તેનું સ્પષ્ટીકરણ આ પ્રમાણે છે– જમીનમાથી જેમ વૃક્ષને ઉખાડી નાખવામાં આવે છે એ જ પ્રમાણે શરીરમાંથી જીવને કાઢી નાખે તે જીવની શરીરથી ઉભૂલના કરી કહેવાય છે તે ઉન્મ લનામાં જીવની પર્યાયને વિનાશ થાય છે, અને જીવને કષ્ટ થાય છે, તેથી તે પ્રાણવધ ગણાય છે. આ બીજો ભેદ થયે જે જીવ હિંસક, નિર્દય, હત્યારા હોય છે, તેમનામાં અને વિશ્વાસ હોતે નથી, તે કારણે હિંસાને અવિશ્વાસનું કારણું ગણીને તેમઅવિશ્રભને વ્યવહાર કર્યો છે આ ત્રીજો ભેદ થયે હિંસ્યવિહિંસા–અજીની હિંસા થતી નથી હિંસા તે જીની જ થાય છે, તેથી અહીં હિંસ્ય એટલે જે જીવની હિંસા થાય છે તે જ એ પ્રમાણેને અર્થ ગ્રહણ કરવામા આવ્યું છે તે હિંસ્ય જીવોના પ્રાણેને વિગ તે પ્રાણવામાં થાય છે તેથી તેને હિંગ્યવિહિંસા કહેવામાં આવેલ છે આ ચે ભેદ થયે પ્રશ્નજીવ તે અરૂપી છે-જે અરૂપી હોય છે તેની હિંસા થતી નથી તે પછી હિંસ્થવિહિંસાનુ આપણુ પ્રાણવધમ કેમ કર્યું છે? Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ प्रमव्याकरणसत्र उत्तर-शंका ठीक है यह तो हम भी कहते है कि जीवरूप अरूपी पदार्थ की हिंसा नहीं होती है, परन्तु यहा हिंसा से तात्पर्य मभक्ति प्राणों का वियोग करना लिया गया है । पाच इन्द्रिय-कर्ण, चक्षु, घाण, रसना, स्पर्शन, ३ बल-मनवल, वचनवल, कायरल, आयु एक श्वामोच्छ्वास, इन प्राणो का जिस प्रवृत्ति से वियोग होता हो उसका नाम हिंसा है ४ ! तथा-अकृत्य-सिद्वान्तों मे जीवो की हिंसा करने का प्रभु ने निषेध किया है, क्यों कि यह कृत्य, अकृत्य-अकरणीय है, इसलिये उस रूप से यह अकृत्य होने के कारक प्राणिहिंसाको अकृत्य करा है यह पाचवा भेद है ५। घातना-अर्थात्-पात करना ना भेद है ६ । प्राणों का वियोग करना केवल यही हिंसा नहीं है किन्तु जिन कृत्यो से प्राणियों के प्राणोको पीडा पहुँचती हो ऐसे कृत्य भी हिंसा ही है, 'यह बात मारणा पद से सूत्रकार ने प्रदर्शित की है। सातमा भेद ७। हनन-वध करना, यह आठवा भेद ८ । उपद्रवण-विनाश करना, यह नौवा भेद ९। निपातना-जिस नीव के जितने प्राण होते है उन जीव के उतने प्राणों का विनाश इस प्राणवध द्वारा होता है इसलिये इसे निपातना शब्द से व्यवहृत किया गया है। अथवा इस पद की जगह ઉત્તર–શકા બરાબર છે એ તે અમે પણ કહીએ છીએ કે જીવરૂપ અરૂપ પદાર્થની હિંસા થતી નથી પણ અહી સંભવિત પ્રાણોને વિયેગ કરે, એવુ હિસાનુ તાત્પર્ય લેવામા આવ્યુ છે પાચ ઈન્દ્રિય-કાન, નેત્ર, નાસિકા, રસના અને સ્પર્શેન્દ્રિય, ત્રણ બળ-મનબળ, વચનબળ, કાયબળ આયુ અને શ્વા અવામ એ પ્રાણને જે પ્રવૃત્તિઓથી વિગ થાય તેનું નામ હિસા છે तया अकृत्य-मिद्धतामा प्रमुख वानी डिसा ४२पान निषेध या छ, કારણ કે તે કૃત્ય ન કરવા 4 છે, તેથી તે રીતે તે અકૃત્ય હોવાથી પ્રાણવધને અકૃત્ય કહ્યો છે આ પાચમે ભેદ થયો ઘાતના એટલે કે ઘાત કરે તે છઠો ભેદ છે પ્રાણને વિયેગ કર તે જ કેવળ હિસા નથી, પણ જે કૃત્યથી પ્રાણુઓના પ્રાણને પીડા પહોચે છે એવા કૃત્યે પણ હિસા જ છે તે વાત “મારણ પદથી સરકારે પ્રગટ કરી છે. આ સાતમે ભેદ થયે હનન–વધ કર તે આઠમો ભેદ છે ઉપ દ્રવણ વિનાશ કરે તે નવમે ભેદ છે નિપાતના–જે જીવોને જેટલા પ્રાણ થાય છે તેટલા પ્રાણનો વિનાગ આ પ્રાણવા દ્વારા થાય છે તેને નિપાતના शपथी गृहीत गयेस छ अथवा मा पनी या “ तिवायगा" पक्ष Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ५ मृषावादरूपद्वितीयाधर्मद्वारनिरूपणम् ३३ 'तिपापणा " ऐमा पद जब माना जावेगा तब इसकी गया त्रिपातना होगी और इसका अर्थ तन मन वचन और काय, इनका ध्स करना ऐसा होगा, दशमा भेद १० । आरभ समारभ-आरभ शब्द से जिनका विनाश किया जावे ऐसे, अर्थात् विनाश किया जाता है जिनका वे है आरभ अर्थात प्राणी उनका जो समारंभ - परिताप वह है आरभ समारभ प्राणिहिमामें जीनों को परिताप होता है यह बात स्पष्ट और अनुभवगम्य है । अथवा कृष्णादि कर्म का नाम आरभ है, इस आरभ से जीवोंके प्राणोंका पीड़न होता है । यह ग्यारहवा भेद ११। इसी तरह जीवकी आयुका उपद्रव ममुच्छेद, भेद विनाश, निष्ठापन- समाप्तकरना, गालनानिकालना, सर्तक- समस्तपल, सामर्थ्य आदि का सकोच करना, सक्षेप इनका अभाव करना, यह बारह भेद १२ | मृत्यु- मरण तेरहवा भेद है १३ । इन्द्रियमयम और प्राणसयम धारण करने से प्राणीयों की रक्षा होती रहती है । अमयमी जीप से यह रक्षा वनती नहीं है, अतः असयम को प्राणिहिंसाका अग कहा गया है। इसी अभिप्राय से यहां उसे उसका पर्यायवाची नाम कहा है। सावन्य अनुष्ठान का नाम ही तो असग्रम है । यह चौदहवां भेद १४ । कटक मर्दन का अर्थ है-कटक " માની લેવામા આવે તે તેની છાયા निपातना " थाने त्यारे तेना અ` મન, વચન અને ડાયના ધન કવા, એ પ્રમાણે થશે. આ દસમે ભેદ છે આ ભ્રમમાર ભ–આરભ રાખ્તો જેમના વિનાશ કરાય એવા અથવા વિનારા ઢગય છે જેમના તેવા પ્રાણી એવા અથ થાય છે તેમને જે મમારભ પશ્તિાપ તેને આર્ભ મમારભ કહે છે પ્રાણવધમા જીવાને પરિતાપ થાય છે, તે વાત સ્પષ્ટ તથા અનુભવગમ્ય છે અથવા ખેતી આદિ કર્માંનુ નામ પણ રભ છે. તે આર્ભથી જીવેાના પ્રાણાને પીડા પહોંચે છે આ અગિયારમા ભેદ દે એજ પ્રામણે જીવના આયુના ઉપદ્રવ-સમુચ્છેદ, बेह-विनाश, निष्ठापन-अत, शासना- निजसवु, सवर्त :- समस्त गण सामर्थ्य આદિને સકોચ કરવા, સક્ષેપ તેમને અભાવ કરવા, તે ખાત્મ્યમ્પ ભેદ છે મૃત્યુ-મરણ તેરમે ભેદ ઝે ઇન્દ્રિયમ યમ અને પ્રાણુઞયમ ધ્રાન્ગ્યુ કરવાથી પ્રાણીઓની રક્ષા થયા કરે છે અઞયમી જીવથી તે રક્ષા થઈ શક્તી નથી, તેથી અમયમને પ્રાણવધનુ અગ કહેલ છે તે કારણે જ તેને અહી પર્યાયવાચી નામ ગણેલ છે નાવદ્યઅનુષ્ઠાનનું નામ જ અમયમ છે. આ ચૌદમા ભેદ છે. કટકમન રાખ્તના અ આ પ્રમાણે છે—કટક-અન્ય દ્વારા હિંસાના प्र-५ Cl Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नव्याकरणसूत्रे ___ उत्तर-शका ठीक है यह तो हम भी कहते है कि जीवरूप अरूपी पदार्थ की हिंसा नहीं होती है, परन्तु यहा हिंसा से तात्पर्य समरित प्राणों का वियोग करना लिया गया है । पाच टन्द्रिय-कर्ण, चक्षु, घाण, रसना, स्पर्शन, ३ बल-मनरल, वचनरल, कायरल, आयु एक श्वामोच्छ्वाम, इन प्राणो का जिस प्रवृत्ति से वियोग होता हो उसका नाम हिंसा है ४! तथा-अकृत्य-सिद्धान्तो में जीवों की हिंसा करने का प्रभु ने निषेध किया है, क्यों कि यह कृत्य, अकृत्य-अकरणीय है, इसलिये उस रूप से यह अकृत्य होने के कारक प्राणिहिंसाको अकृत्य का है यह पाचवा भेद है ५१ घातना-अर्थात्-पात करना छा भेद है ६ । प्राणों का वियोग करना केवल यही हिंसा नहीं है किन्तु जिन कृत्यो से प्राणियों के प्राणोंको पीडा पहुँचती हो ऐसे कृत्य भी हिसा ही है, 'यह बात मारणा पद से सूत्रकार ने प्रदर्शित की है। सातमा भेद ७। हनन-बध करना, यह आठवा भेद ८ । उपद्रवण-विनाश करना, यह नौवा भेद ९। निपातना-जिस नीव के जितने प्राण होते है उन जीव के उतने प्राणों का विनाश इस प्राणवध द्वारा होता है इसलिये इसे निपातना शब्द से व्यवहत किया गया है। अथवा इस पद की जगह ઉત્તર–શકા બરાબર છે એ તે અમે પણ કહીએ છીએ કે જીવરૂપ અરૂપ પદાર્થની હિંસા થતી નથી પણ અહી સભવિત પ્રાણોને વિયેગ કરે, એવુ હિસાનુ તાત્પર્ય લેવામાં આવ્યું છે પાચ ઈન્દ્રિય-નાન, નેત્ર, નાસિકા, રસના અને સ્પર્શેન્દ્રિય, ત્રણ બળ-મનબળ, વચનબળ, કાયબળ આયુ અને શ્વાસોશ્વાસ એ પ્રાણેને જે પ્રવૃત્તિઓથી વિયેગ થાય તેનું નામ હિસા છે तय अकृत्य-सिद्धातामा प्रभुयेवानी डिसा ४२पान निषेध या छ, કારણ કે તે કૃત્ય ન કરો છે, તેથી તે રીતે તે અકૃત્ય હોવાથી પ્રાણવધને અકૃત્ય કહ્યો છે આ પાચમે ભેદ થયે ઘાતના એટલે કે ઘાત કરે તે છટકો ભેદ છે પ્રાણાના વિયોગ કરી તે જ કેવળ હિસા નથી, પણ જે કૃત્યથી પ્રાણીઓના પ્રાણેને પીડા પહોચે છે એવા કૃત્યે પણ હિસા જ છે તે વાત “મારણ પદથી સરકારે પ્રગટ કરી છેઆ સાતમો ભેદ થયો હનન–વધ કરો તે આઠમે ભેદ છે ઉપ હલગ વિના તે નવમે ભેદ છે નિપાતના-જે જીવોને જેટલા પ્રાણ હોય છે તેટલા પ્રણેને વિનાશ આ પ્રાણવાવ દ્વારા થાય છે તેને નિપાતના शपथी गृहीत राय छे मया मा पनी या "तिवायणा" ५६ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदाशी टीका म० १ ० ५ मृपावादरूपमित्तोयाधमहारनिरूपणम् ३५ विच्छेदम्प कहा है। यह फीसवा भेद २१ । प्राणवध जीवन काअतकर-विनाशक होने से जीवितान्तकरणरूप कहा गया है। यह यावीसवा भेद २२ । प्राणध के अवसर उपस्थित रोने पर जीवों को भय होता है अत इस भय का कारक होने से प्राणवय भयकर है,ऐसा कहा गया है । यह तेचीमयां भेद २३ । इस माणव को करने वाला प्राणी अनेक भवों में भी नाना प्रकार के दुगो को भोगता रहता है फिर भी इस से उद्भून पापस्प कण का चा शोधन नहीं कर पाता है, इसलिये इसे ऋणकरस्प कहा गया है। ग्रर चौवीमा भेट २४ । विवेकी जो न्यक्ति होते है ये हम माणध से मदा दूर रहते है इसलिये इसे वlछोड़ने योग्य-हा है। अपया 'वन" की नस्कृत लाया 'वज्र' भी हो सकती है। वन लिम प्रकार गुरु (भारी होता है उसी प्रकार यह प्राणवध भी अपन को-आचरित करने वाले प्राणी को अधःपात नरक निगोद आदि में पतन का कारण होने से बज के जैसा भारी होता है। यह पच्चीसवाँ भेद २५ । भन भव में प्राणी इसके करने से सन्तापरूप परितापना को पाना है इसलिये उसे परितापनारूप आत्रय कहा गया है। यह उब्धीमचा भेट २६ 1 विनाश प्राण का पिवसन करना । यह सत्ताइसवां भेद २७ । निर्यापना प्राणियों के प्राणो को निकालना । यह अहाइ. सवा भेद २८ । लोपना-प्राणियों के प्राणों का लोप करना-दूर करना। અતક-વિનાશક હોવાથી જીવિતાન્તકરણરૂપ બતાવ્યું છે આ બાવીસમે ભેદ છે પ્રાણવધને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થતા જને ભય થાય છે, તેથી તે ભયકારક હોવાથી તેને ભયકર કહેલ છે. આ તેવીસમે ભેદ છે એ પ્રાણવધ કરનાર પ્રાણ અનેક લોમા અનેક પ્રકારના દુખે ભગવ્યા કરે છે, તો પણ તેના કારણે ઉત્પાદિત પાપરૂપ બણને તે રેડી શકતું નથી તે કારણે તેને અણુકર નામ આપ્યું છેઆ વીસમે ભેદ છે વિવેક વ્યક્તિ એ પ્રાણવધથી સદા ६२ २ छ, तवी तेने पाय-छ।उवा साय: उस छ अथवा ' बनना सरत या " वस" ५५ थरा छ १००२ शत माटु य छ ते પ્રકારે પ્રાણવધ પણ, તે કરનાર પ્રાણુને અધ પાત-નરક નિગદ આદિમાં પતન થવાનું કારણ હોવાથી વજના જે ભારે હોય છે આ પચીરામે ભેદ થયો જે કરવાથી વ્યક્તિને દરેક ભવમા સતાપરૂપ પરિતાપના–પીડા સહન કરવી પડે છે, તેથી તેને પશ્તિાપનારૂપ આસવ કહેલ છે આ છવીસમે ભેદ છે વિનાશપ્રાણુને વિસ કરે, તે સત્યાવીસમે ભેદ છે નિર્યાપન-પ્રાણીઓના પ્રાણને નિકાલવા, તે અચાવીસ લે છે લેપન-પ્રાણીઓના પ્રાણેને લેવા-૬૬ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे सैन्य द्वारा दूसरों पर हिंसा के अभिप्राय से आक्रमण काना। यह सैन्यमर्दन प्राणिहिंसाका कारण होता है फिर भी इसे जो प्राणिहिंसा रूप कहा है वह उपचार से ही कहा गया जानना चाहिये, यह पन्द्रहवा भेद १५। जीव का प्राण से वियुक्त करना यह व्युपरमण है । यह सोलहवां भेद १६ । प्राणिहिंसाको जो परभर सकम कारक कहा है उसका भाव यह है कि यह प्राणिहिंसा नरकनिगोदादि चनुर्गनिरूप ससारमे परिभ्रमण का कारण बनता है। यह सत्रहवां भेद हआ १७। इस माणिहिंसा के प्रभाव से जीव नरकादि दुर्गतियों में ही जाकर जन्म लेना है इसलिये यह दुर्गति प्रपातरूप कहा है, यह अटारनां भेद १८। सकल पापोंका यह कोपक-उत्पादक है, इसलिये इसे पापकोप कहा गया है । अथवा पाप, कोप का कार्य होता है इस अभिप्राय से यह प्राणिहिमा क्रोध स्वरूप है ऐसा भी कहा जा सकता है। यह उनीमया भेद १९ । इस प्राणिहिंसा को करने वाला व्यक्ति केवल पाप का ही आलिंगन मरता है-पापकर्म को बांधता है, इसलिये प्राणवध पापलोभरूप है । यह वीसवां भेद २० । छविच्छेद-छवि का अर्थ शरीर है, इसका छेदना छविच्छेद है। प्राणवध में शरीर अथवा शरीर के अवयवो का छेदन होता ही है, इसलिये इसे ઉદ્દેશથી બીજા ઉપર આક્રમણ કરવુ આ સન્યમર્દન પ્રાણિવધના કારણરૂપ હોય છે છતાં પણ તેને જે પ્રાણવધરૂપ કહેલ છે તે ઔપચારિક રીતે જ કહેલ છે એમ સમજી લેવું આ ૫ રદ ભેદ થયે જીવને પ્રાણથી વિરુક્ત-રહિત કરે તેને વ્યુપરમણ કહે છે, આ ળિ ભેદ છે માણવધને જે પરભવ ક્રમકારક કહેલ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે તે પ્રાણવધ નરકનિગોદાદિ ચાર ગતિરૂપ સમારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર છે આ સર ભેદ છે આ પ્રાણવધના પ્રભાવથી જીવ નરકાદિ દુર્ગતિયોમાં જ જઈને જન્મ લે છે, તેથી તેને દુર્ગતિ પ્રપાતરૂપ કહેલ છે આ અઢારમો ભેદ કે સકળ પાપનો તે કેપક-ઉત્પાદક છે, તે કારણે તેને પાપકપરૂપે દર્શાવ્યું છે અથવા પાપ, કેપનુ કાર્ય હોય છે તે કારણે આ પ્રાણવધ કેપસ્વરૂપ છે, એમ પણ કહી શકાય છે આ ઓગણીસમે ભેદ છે એ પ્રાણવધ કરનાર ચકિત કેવળ પાપનુ જ આલિંગન કરે છે–પાપકર્મો બાધે છે, તે કારણે તે pવધ પાપભરૂપ છે આ વીસમે ભેદ છે છવિચ્છેદછવિ એટલે શરીર, તેન સછવિચ્છેદ કહેવાય છે પ્રાણવધમાં શરીર અથવા શારીરના અવયવોનું છેદન થાય છે તેથી તેને છવિ છેદરૂપ કહે છે આ એથ્વીસમે ભેદ છે પ્રાવધ જીવનને Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनीटीका २० १ ० ६ यथारुतनामकतनीयाधर्मद्वारनिरूपणम् ३७ दुःखोत्पादनमपत्ता परपीडाकरणपरायणा. 'इमेहिं ' एतेपु-भत्यक्ष लक्ष्यमाणेषु 'तसयाररर्हि' अमस्थावरेणु 'नीवेदि' जीवेपु 'पडिणिविट्ठा' प्रतिनिविष्टाः तेपा रक्षणाद् द्वेषयुक्ताः 'बहुविह' बहुविध 'बहुप्पगार' बहुप्रकारम् अनेकदमभेदसहित, 'भयकर' भयजनक 'पाणवह' प्राण-जीवहिंसा 'काति' कुर्वन्ति । 'नि ते ' ते बसस्थावरेपु द्वेपवन्तः किं कुर्वन्ति ? पाठीनादि जीवान् णिति' नन्ति, इति वत्यमाणेन सम्बन्ध । तानेव दयनि-'पाठीणेत्यादि । 'पाठीणतिमि-तिमिगिल-अणेग-यमपिविष्जाइमडक-दुविहरच्छभ-ग-मगर- दुविहगाह-दिलिपेढय-मय-सीमागारपुलय-गुमुमार वहप्पगारा' पाठीन-तिमि तिमिगिला-ऽनेरझप-निविधजातिमहक-द्विविध-उप-नक्र-मगर-द्विविधग्राह-दिलिबेष्टक-मन्दुस-सीमासार-पुलक-सुमुमार-प्रकारा., तन-पाठीना: तन्नामका मत्स्यविशेपा , तिमय मत्स्यदिशेपा', तिमिगिन्ति इति तिमिगिलाथ, महामत्स्याः । " स्तिमत्स्यस्तिमि म शतयोजनविस्तर । तिमिगिलगिलोऽप्यम्ति तगिलोऽप्यस्ति रापमः ॥१॥” इतिवचनात् । अनेकमपा-विविधाः क्षुद्रमत्स्याः , पिरिपजातयो मण्डकाः = नानाजाऐसे जीव (त च पुण) इस ( भयकर) भयप्रद, (बहुविह ) वविध और (पहप्पगार) अनेक भेद प्रभेद सहित (पाणवह ) प्राणवध को (करेति) करते है। (इमेहि तसथावरेहिं जीवहिं ) इन प्रत्यक्षीभूत बस और स्थावर जीवा की रक्षा करने के विषय में (पडिणिविठ्ठा) उपयुक्त होते हुए प्राणवय करते है, (कि ते ) वे क्या २ करते है इस यात को अस्त्रकार "पाठीण" इत्यादि पदो द्वारा प्रकट करते हैं( पाठीण-तिमि-तिमि-गिल-अणेगास-विविजाइमंटुक्का-दुविश्कच्छ म णक-मगर-दुविहगाह-दिलिवेढय मदुय-सीमागार पुलय सुसुमारमा "भयकर" सय, "वहुविह" म विध भने 'बहुप्पगार" सने से प्र मलित, “पाणवह " प्रावध उ२, "इमेहिं तसयारेहिं जीवे हिं" से प्रत्यक्षाभूत म भने स्था१२ वानी २क्षा ३२वानी मतमा “पडिणिनिद्वा" देषयुक्त ने प्रावध ४२ छ, “ किं" तमाशु शु उरे से वातने वे सूत्रा२ "पाठीण" त्यादि पो द्वारा प्रगट उरे - "पाठीण-तिमि-तिमिगिलअणेगझसविविहजाइ-मडुक-दुविहकन्छभ-णक-मगर-दुविहगाह-दिलिवेदय-मदुयसीमागार-पुलुय-सु सुमार-मुटुप्पगारा" वा । नीय प्रमाणे -पान, તિમિ, તિબિંગલ, અને ઝષ, અનેક જાતિના દેડકા, બન્ને પ્રકારના કાચબા, નક, - - - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदाव्या ম্যাগে अथेदानी 'जहयकओ' यथाकृतः इति तृतीय द्वारमाचपटे 'त च पुणे'त्यादि। मूलम्-त च पुण करेंति केइ पावा असजया अविरवा अणिहुयपरिणामदुप्पांगा पाणवहं भयकर बहुविहं वहुप्पगार परदुक्खुप्पायणपसत्ता इमेहि तसथावरेहि जीवेहि पडिणिविट्ठा कि ते? पाठीण-तिमि-तिमिगिल-अणेगझस-विविहजाइमडुक्क दुविह-कच्छभ-णक-मगरदुविह-गाह-दिलि वेढय-मदुय-सीमागारपुलुय-सुंसुमार बहुप्पगाराजलयरविहाणा कएय एवमाई।सू०६॥ टीकात चमाणिवध 'पुण' पुनः 'के' केऽपि केचिदेवेत्याशयः 'पावा' पापा:=पापप्रकृतयः 'असजया' असयता: असमाहितेन्द्रिया 'अपिरया' अविरता पापकर्मनिरनिरहिता', 'अणियपरिणामदुप्पओगा' अनिभृतपरिणामदुष्प्रयोगा अनिभृतः उपशमवर्जितः परिणाम अभ्यवसायो येपा ते अनिभृतपरिणामाः, दुष्टा प्रयोगा: इन्द्रियनोइन्द्रियव्यापाराः येपाते दुष्प्रयोगाः, अनिभृतपरिणामाच ते दुष्प्रयोगा इति अनिभृत् परिणामदुष्प्रयोगाः, 'परदुक्युप्पायणपसत्ता' परयह उन्तीसवा भेद है २९ और गुणविराधना-श्रतचारित्रगुणों का भङ्ग करना यह तीसवाँ भेद है ३० इस तरह ये प्राणवध के ३० पर्यायवाची शब्द गुणनिष्पन्न प्रकट किये गये है ।।सू०-५|| __ अब सूत्रकार "जह य कओ" इस तृतीय द्वार के विषय में करते हैं-'त च पुण' इत्यादि । टीकार्थ-(केइ पावा) कितनेक पापश्कृलिवाले (असजया) असमाहित इन्द्रियवाले, ( अविरया ) अविरतिसपन्न, ( अणिहुयपरिणामदुप्पओगा) उपशम रहित परिणामो वाले, और इन्द्रिय एव मन के दुष्पव्यापार वाले (परदुक्खुप्पायणपसत्ता) पर प्राणी के लिये दु.खोत्पादन मे परायण કરવા, તે ઓગણત્રીસમે ભેદ છે અને ગુણવિરાધના–મૃતચારિત્ર ગુણને ભગ કરે, તે ત્રીસમે ભેદ છે આ રીતે પ્રાણવધના ૩૦ પર્યાયવાચી શબ્દ તેમના ગુણ સહિત પ્રગટ કરવામાં આવ્યા છે , સૂ ૫ . वे सूत्र॥२ “जह य का" से तृतीय दानु पर्थन ४२ छ-"तच पुण" त्यादि --"के पावा" 32805 पापप्रतिवा"असजया" असमाहित न्द्रियपा, " अविरया " मविरति युत, "अणिहुयपरिणामदुप्पओगा" ५१म शक्षित परिणामावाणा, मन धन्द्रिय मने मनना हुए व्यापारवा "परदुक्खु प्पायणपसत्ता" ५२ प्राणान मारमात्मानमा परायण शवावे. "तच पण" Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनीटीका म०१ सू० ७ स्थलचरचतुष्पदजीवनिरूपणम् शाशकाः मसिद्धाः। 'पसर' मगरा द्विसुरा गन्यपशुनिदोपाः, 'गोणा' गावः 'रोदिय' रोहिता'चतुप्पदपशपिशेषा', 'हयगयग्वर' हया गनाः खराश प्रसिद्धा । करमा'-उप्टा. 'मग' गडगा-परशहा आटव्याश्चतुप्पदविशेषाः 'गंडा' इति लोके ग्याताः पा गमनकाले उभयोरपि पार्ययो पक्षतुल्यानि पर्माणि रम्बते, 'वानर' पानराः अनिद्धाः, गाया: बलकण्टा गो सदृशा 'रोझ' इति प्रसिद्धाः। 'विग' वृरा वापद जन्तुविरोपा'भेडिया' इति प्रसिद्धा', 'सिया' गायः मसिद्रा, 'कोला 'शुराः ' मन्नार ' मार्जाराविड़ाला 'कोळमुणह' कोलशुनमा माटव्यमद्वारा कराः 'सिरिषदल्गापत्त' श्रीकन्दलकाअनेक और श्रृगामी शापा फुटती है। इनके सीगों की जो भस्म बनती है उसे विशाण भस्म करते है। इनके दोसुर होते हैं। और ये जगल मेरी रहते हैं । (उरम्भ)उरभ्र नाम मेंढे का है। (समय) राशक नाम स्वरगोग का है। (पमर) मगर एक जाति का जानवर होता है, इसके दो खुर हुआ करते हैं। यह जगल में ही रहता है। (रोहिय) "रोहित" यह भी चार पैरोंवाला एक जानपर विशेप होता है। (हय ) हय-नाम घोड़े का है, (गय) गय-गज नाम हाथी का है। (ग्वर) सर नाम गधे का है। (करभ) करभ ऊँटका नाम है । (खग) ग्वगीको हिन्दी भाषा में गेंढा कहते है । इसके एक ही सींग होता है, यह जगल में ही रहता है, इस के पैर चार होते हैं, जर यह चलता है तो उस समय इसकी दोनों तरफ पखों जैसा चमड़ा लटकने लगता है। (वानर) वानर नाम यदर का है । (गवय) गवय रोझका नाम है, यह गायके जैसा होता है । और इसका कठ गोल होता है । (विग) वृक यह हिंसक जतु होता है और इसे हिन्दी भाषामें भेड़िया करते है। (सियाल) "श्रृगाल" यह जगली અનેક ઉપાખાઓ ફરે છે તેમના ગીગડાઓની જે ભસ્મ બને છે તેને વિષાણુ ભમ કહે છે તેમને બે ખરી હોય છે, અને તેઓ જગલમા જ રહે છે "उरम" २ नाम घटानु "ससय" श नाम सससानु छ “पसर" પ્રગર એક જાતનુ જાનવર છે, તેને બે ખરી હોય છે અને તે જગલમાં રહે છે "रोहिय" 'डित' ५ मे यो५४ प्राणी छे " हयउय मेटले घोर, "गय" य मेरो साथी, "सर" ५२ मेट गधेडा, "करभ" २स मेटले लट, "सग्ग" भी अटले गे31, तेने मे शीगड डाय छ, ते ४ सभा १ રહે છે, તેને ચાર પગ હોય છે જયારે તે ચાલે છે ત્યારે તેની બંને તરફ पागावी यामडीदारती २९ “वानर" वान२ पीन छ “गवय" ગવય એટલે રેઝ, તે ગાયના જેવું હોય છે અને તેની ડેક ગોળ હોય છે “विग" ४ से ही प्राणी छे तेने २७ ४ामा भाव छ “सियाळ" Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० प्रश्नव्याकरणसूत्रे अथ स्थलचरेप चतुप्पदप्रकारानाह--'कुरग०' इत्यादि। मूलम्-कुरंग रुरु सरभ चमर सवर उरभ समय-पसर-गोण रोहिय-हय-गय खर-करभ-खग्ग वानर.गवय-विग-सियाल कोलमज्जार-कोलसुणह-सिरिकदलगावत्त-कोकतिय--गोकपण-मियमहिस वियग्घ-छगल-दीविय-साण-तरच्छ अच्छभल्ल-साल-सीह-चिल्लल-चउप्पय-विहाणाकए य एवमाई सू०७ ॥ टीका-कुरगाम्हरिणाः, रुखो मृगविशेषाः, सरभा अन्यपशुविशेषा. पिशा लकायाः, अष्टापदाः 'परासरे "ति रयाताः ये महागजानपि पृष्ठे स्थापयन्ति, चमरा बन्यगावः येपा केशाना चामराणि भान्ति, समराः अनेकशावरगाः द्विखुरा आरण्यपशवः 'साभर' इति प्रसिद्धाः 'उभ' उरभ्रा' मेपाः, 'समय' किया करते हैं, तथा इनके सिवाय और भी जो जलचर जीव होते हैउन्हें भी मार कर ये आनद मग्न बनते है । सू ६॥ अब सत्रकार स्थलचर तिर्यञ्चो मे जो चतुप्पदो के प्रकार है उन्हें इस सूत्र द्वारा प्रकट करते हे-'कुरगरुरु ' इत्यादि । टीकार्य-(कुरग) कुरग हिरणको कहते है। (झरु) रुरु नाम भी मृगका है, परन्तु यह सामान्य मृग से विशेष प्रकार का होता है । (सरभ) सरभ नाम अष्टापद का है । यह शरीर में विशाल होता है । परासर भी इस का दूसरा नाम है । ये महागजों को भी अपनी पीठ पर बैठा लेता है। (चमर) चमरी गायों का नाम चमर है। इनके बालों के चामर बनते हैं। (सबर) सबर को हिन्दी भाषा में साभर कहते है। इनके सीगो में હિંસા કર્યા કરે છે, અને તે સિવાયના બીજા જે જળચર જીવે હોય છે, તેમની हत्या ४२वामा तेभन भन मा छे ॥ सू ॥ - હવે સૂત્રકાર સ્થળચર તિર્યચોમાં જે જાનવરેના પ્રકારે છે તેમને આ सूत्र द्वारा प्राट ४२ - "कुरगहरु" त्या साथ-"कुरग" २१ने २४ रुरु" २२ ५ भृगना मे मास २ છે “રમ” સરભ અષ્ટાપદ નામના પ્રાણીને કહે છે તે રીર વિશાળ હોય છે તેના બીજા નામ પરાસર પણ છેતે મેટા હાથીએાને પણ પિત ની પીઠ પર असा " चमर" भरी गायोने यम२ छ तेभाना पाणमाथी शामर ने "सबर" सपने मान तेना शीमाथी मी Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिनी टीका १० १ सू०८ उर परिसर्पप्रकारनिरूपणम् साम्मतमुरम्परिसर्पप्रकारानाह-'अयगर' इत्यादि। मूलम्-अयगर-गोणस-वराहि-माउलि-काकोदर-दभ पुप्फा-आसालिय-महोरगा उरग विहाणा फएय एवमाई।सू०८॥ टीका-अजगर-गोणश वराहि मुलि-काकोदर-दर्भपुप्प-आशालिक महोरंगोरगविधाना कृतात्र ण्यमादीन् । अजगरा-मसिद्धाः, गोणगा: फणरहित. द्विमुखसर्पविशेपाः 'वराय.' दृष्टिविपमः येपा दृष्ट्या निपावेशो भवति । मुकुलिनाईपत्फणकारकाः, काकोदरा मामान्यसर्पाः, दर्गपुष्पा सामान्यफणनाम है । (सहूल) शार्दल, (सीह ) सिंह एव (चिल्लल ) चित्रक ये सय मासभक्षी जगली जानवर है और स्थलचर है ॥ सू ७ ॥ __ अय सूत्रकार उर परिसर्पके भेदों को प्रकट करते हैं-'अयगर गोणस' इत्यादि। टीकार्थ-(अयगर) अजगर यह यत्रत अधिक मोटा सर्प होता है, धीरे २सरकता है, जिस प्रकार सामान्य सर्प आहट पाते ही बहुत शीघ्र भग जाता है वैसे यह नहीं भग सकता है । (गोणस) गोणश यह भी एक प्रकार का सर्प ही होता है, परन्तु इसके फणा नहीं होती है, व्यवहार में लोग ऐसा कहते हैं कि इसके दो मुग्व होते हैं, इसका दूसरा नाम दुमुही भी होता है। (वराही) वराहि-यह वह सर्प है कि जिसकी दृष्टि में विप रहता है, जिसे यह देख लेता है उसके विप का आवेश हो जाता है, इसका दूसरा नाम दृष्टिविप सर्प भी है। (माउलि) मुकुलीयह वह सर्प है जो अपने फण को थोड़ा ही विस्तारता है, ज्यादा नही, भल्ल" तरक्ष, ४२७ मतेशछाना नाम छ "सल" "सीह" सिंह भने “चिल्लल" चित्र सधा भामलक्षी न१२॥ छ, भने स्थणय छे ॥ ७॥ वे सूत्रा२ " उर परिमर्प" पटे यासाना साना ले मतावे छ" अयगर-गोणस" छत्यादि टी---" अयगर" m२-ते १ यारे भाटी सा५ छ, ते धीमे ધીમે સરકે છે જે રીતે સામાન્ય સાપે સહેજ પણ આવાજ થતા તરતજ ભાગી જાય છે તેમ તેઓ ભાગી શક્તા નથી “જોળ ગણા–તે પણ એક પ્રકારને સાપ જ હોય છે, પણ તેને રેણ હેતી નથી વ્યવહારમાં લે એવું छ , तेने से भुग डाय, तेनु मी नाम हुभुडी पy छ “वराहि" વરાહિતે એ સર્યું છે કે જેની દૃષ્ટિમા જ વિષ રહે છે, જેને તે જુવે છે तेन तेनु २ २ छ, तेनु माउ नाम विष स प छ "माउली" भुली તે એવી જાતને સર્પ છે કે તે પિતાની ફેણને ચેડા પ્રમાણમા જ ફેલાવે છે, Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ earntervie वत्त:श्रीकन्दलकाः आवर्त्ताश्च उभे सजातीया एकसुरजीवनिशेषाः, 'कोकतिय' कोकतिका लोमटका : 'लोमड़ी' इति भाषायाम्, 'गोरुष्ण' गोकर्णाः द्विखुर चतुष्पदजन्तु विशेषाः, 'मिय' मृगाः, 'महिस' महया, 'नियग्ध' व्याघ्राः, 'छगला' अजा 'दीविय' द्वीपिकाः 'दीपडा' इति भाषायाम्, 'साण ' श्वान = आटव्या. कुक्कुराः 'तरच्छ' तरक्षाः, अच्छभला:-भल्लूक जातिविशेषाः 'सहूल शार्दूलाः = 'सीह' सिंहाः, 'चिल्लला' चित्रकाः श्वापदजन्तु विशेषाः । एषां द्वन्द्र समासः । 'चउप्पयविहाणाकए य एनमाई ' चतुष्पदविधानाः कृताः तांश्च एवमादीन = चतुष्पदविशेषान् कुरङ्गादीन् घ्नन्तीति परेण योजना ॥ मु०७॥ जानवर है - जो रात को " हुआ हुआ" बोला करता है । (कोल) कोलशूकर एव (मजार) मार्जार ये हिंसक जानवर हैं । (कोलसुण ) " कोल शूकर" ये शूकर के ही भेद है और सामान्य शुकर की अपेक्षा शरीर में विशाल होता है । (मिरिकलगावत्त) श्रीकन्दलक और आवर्त ये भी जानवर हैं और इनके एक खुर होता है। इन दोनों की जाति समान होती है । (कोकतिय) कोकतिका नाम लोमड़ी का है, यही बड़ी चालाक होती है । (गोकण) गोकर्ण एक प्रकार का जानवर होता है, इसके दो खुर होते हैं, और पैर चार होते है । (मिश्र) मृग, (महिस) महिष, ( वियग्ध ) व्याघ्र यह हिंसक जीव है और सिंह जैसा ही होता है । (छगल) बकरा बकरी का नाम अज है । (दीचिय) द्वीपिका यह भी मांस भक्षी शिकारी जानवर है, इसे तेंदुआ कहते हैं । (साण ) जगली जो कुत्ते है जिन्हें शुनी - कुत्ता कहा जाता है वे यहा "1 साण शब्द से गृहीत हुए है । (तरच्छ) तरक्ष, (अच्छ मल्ल) अच्छभल्ल, यह रीछों का ही 46 શ્રૃંગાલ ’ એક જ ગલી પ્રાણી છે, જે રાત્રે “ હું હું! ” ખાલે છે. તેને शुभशतीभा शियाण उडे छे "कोलसुणह" अस - शूर भने “मज्जार" भार હિંસક જાનવર છે “ કાલ શૂકર ” તે શૂકરના જ ભેદ છે, અને તે સામાન્ય शूर उरता शरीरे भोटु डोय छे, “सिरिकदलगावत्त" श्री उन्हस मने भाव से પણ જાનવરો છે અને તેમને એક ખરી હાય છે તે અને સમાન જાતિના છે "कोकतिय" बोडीने अति उहे छे, ते घड़ी आसाई होय हे " गोकण्ण " गो प्रहार पशु छे "मिय" भृग "महिस" भडिष भने “वियन्ध," જ્યાઘ્ર હિંસક પ્રાણીઓ છે અને તે સિંહ જેવા જ હોય છે અન” ખકરા जरीने या मुडे छे " दोविय" द्वीपि मासाहारी शिमरी पशु छे तेने तेहुआ કરે છે. તે ચિત્તા જેવુ હાય છે જગલી કૂતરાઓને શુની-કુત્તા કહે છે, सोण " राष्ट्र्थी भड्डी ते गीत समन्न्वाना हे "तरच्छ अच्छ 66 ८ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका १० १ ० ९ भुजपरिसर्पमेदनिरूपणम् प्रमाणशरीरा मनु"यक्षेत्राहि पिनउर परिसर्पविशेषा', एपो द्वन्द्व' । उरगविधाना: उरगप्रकारा कृताः। तान् च एवमादीन् 'घ्नन्ति' इत्यनेन सम्बन्धः ।।मु०८॥ अथ भुजपरिसर्पभेदानाह–'डीरल.' इत्यादि । मूलम्-छोरल-सरंव-सेह-सेल्लग-गोधा-उंदुर--णउलसरड-जाहक-मंगुस-खाडहिला-चाउप्पइय-घरोलिया-सरीसिव गणे य एवमाई ॥ सू० ९ ॥ टीका-क्षीरलाः, शरम्याः, 'सेहा.' तीक्ष्ण कण्टकाकुलकाया , शैल्यकाः, एते सर्वे भुजपरिसर्पविशेपाः । गोधाः मसिद्धाः, उन्दुरा =मृपकाः, नकुलाः प्रसिद्धाः है । (महोरगा) महोरग ये वे सर्प हैं गिजिनका शरीर एक हजार योजन का होता है, तथा ये मनुष्य क्षेत्र से गाहिरी क्षेत्रों में उत्पन्न होते है। (उरगविहाणोकएय) ये सब भेद उर परिसो के है पापी जीव इन्हे मारते है । सू ८॥ ___अब भुजपरिसर्प के भेदों को सूत्रकार प्रकट करते है-'छोरल. सरय' इत्यादि। टीकार्य-(डीरल-सरम-सेह गोधा-उदुर-गउल सरंड-जादक मगुस खाडहिला-चाउपत्य-घरोलिया-सरीमिच गणे य एवमाई)क्षीरल, शरम्य सेह ये वे जीव है कि जिनका शरीर क,टों से युक्त रहता है। सेह को हिन्दी भाषा मे “सेही" कहते है, इसका आकार श्रृगाल जैसा होता है, इसके शरीर पर तीखे नुकीले काले और सफेद रग वाले काटे होते है । ये भेद भुजपरिसॉ के है । गोधा-गुहेरेकी माको कहते हैं यहाभित्ति पर इतनी मजबूती के साथ चिपक जाती है कि इसे पकड़ कर चोर મહોરગ, તે એવા સર્પ હોય છે કે જેમનું શરીર એક હજાર એજનનું હોય छे, तथा ते मनुष्य क्षेत्रका गायन क्षेत्रमा पन्त थाय छ "उरगविहाणाकएय" આ બધા ઉર પર્પોિના ભેદ છે પાપી છે તેમની હત્યા કરે છે સૂ ૮. व पश्मिना होने सूत्रा२ प्रसट ४२ छ-" छीरलसरय" ५त्यादि साथ-"जीरल, सर य, सेह, सेल्लग गोधा उदुर, उल, सरड, जाहक, मगुस, साडहिला, चाउप्पइय, घरोलिया, सरीसिव, गणे य एषमाई" क्षीरस, शम्म, સેહ, તે છે ડાટા થી યુક્ત શરીરવાળા હોય છે તેને ગુજરાતી ભાષામાં સાહુડી કહે છે તેને દેખાવ શિયાળ જેવો હોય છે, તેના શરીર પર તીણુ, અણીદાર, કાળા અને સફેદ ૨ગના કાટા હોય છે તે ભુજપરિસર્પોના ભેદ છે " गोधा" ५८सा याने उडे छे ते हिवास ५२ मेसी Hars व्याटी लय छे. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नराकरण धारिणः। आशालिकाः, उरम्परिसर्पविशेपा । एते च चक्रवत्तिवासुदेवलदेवा दीनां स्कन्धावारमध्ये ग्रामनगरादिपु या एतेपा विनाशकाले सामुदानिक कर्मोदयात-असज्ञिनो मिथ्यादृष्टय. समूर्छिमपञ्चेन्द्रिया अन्तर्मुद्दयुकाः जघन्येनाऽमुलस्यासर येयभागपरिमितयाऽवगाहनया, उत्कर्पण द्वादायोजनपरिमितया अवगाहनया विष्फम्भवाहल्येन तथानुरूपा भूमि पिदार्य समुत्पयन्ते । अन्तर्मुहूर्तानन्तर तन्मरणे-स्कन्धापारादीना सहसा विनाशो भवति । 'महोरगा' योजनसहस्रक्यो कि फण को अधिक विस्तार करने की इसमें शक्ति नहीं होती है। (काकोदर)काकोदर सामान्य सर्पका नामहै। इसी तरह (दब्भपुप्फ)दर्भपुष्प भी वह सर्प होता है जो सामान्य रूपसे फणा से युक्त होता है, परन्तु यह अपने फणा को तानता नही है, बीन बजाने पर भी यह प्रकृतिस्थ बना रहता है । (आसालिय) आशालिक भी सपों की एक विशेष जाती है। ये चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, आदिकों के सैन्य के निवासस्थानमें अथवा ग्राम नगर आदिकों में भूमि के नीचे उत्पन्न होते हैं, इनके विनाशकालमे सामुदानिक कर्मका उदय होता है, स्कन्धाचार-छावनो तथा गाम नगरादि जमीन मे उतर जाते हैं प्रायः मर जाते हैं ये असजी मिथ्या दृष्टि होते हैं, इनका जन्म समूच्छिम होता है, इनके पांचो इन्द्रिया होती है । इनकी आयुअन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है इनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अगुल के असख्यातवें भाग प्रमाण होती है तथा उत्कृष्ट से द्वादश योजनप्रमाण होती है, अन्तर्मुहूर्त के बाद इनका मरण हो जाता १२ पधारे प्रभाभा ३वापानी सहित तमाम खाती नथी "कामोदर" हर सामान्य सपनु नाम छे से प्रमाणे "भपुप्फ" ०५ ५८ मेवा પ્રકારને સર્પ છે કે જે સામાન્ય રીતે ફણથી યુક્ત હોય છે, પણ તે પિતાની ફણને ફેલાવતું નથી, મોરલી બજાવવામાં આવે તે પણ તે ફણાને વિસ્તાર્યા विना भृज स्थितिमा ४ २७ छ “आसालिय" माशालि, ५५सोनी मे ખાસ જાતિ છે તે ચક્રવતી, વાસુદેવ, બલદેવ બાદિના સિન્યના નિવાસસ્થાનમાં અથવા ગામ નગર આદિમા ભૂમિની નીચે ઉત્પન્ન થાય છે, તેમના વિનાશ કાળે સામુદાયિક કર્મનો ઉદય થાય છે કન્ધાવાર–છાવણી તથા ગામ નગર આદિ જમીનમાં ઉતરી જાય છે સામાન્ય રીતે મરી જાય છે તેઓ અસ ગ્રી મિથ્યાદૃષ્ટિ હોય છે તેમને જન્મ સમૃછિમ થાય છે, તેમને પાચે ઈન્દ્રિયો હેય છે. તેમનું આયુષ્ય અન્તર્મુહૂર્ત પ્રમાણ છે, તેમના શરીરની અવગાહના જઘન્યથી આ ગલના અસખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુ હોય છે, તથા ઉત્કૃષ્ટ બાર એજન प्रभाव डाय छे मन्तभुत पछी तेभनु भ२ थ य छ " महोरगा" Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका भ० १ ० १० पेरलीयनिरूपणम् कोस-कुच-दगतुड-डेणियालग-सूईमुह-कविल-पिगलक्खगकारंड-बकवाग-उकोस-गरुल-पिंगल-सुव-बरहिण-मयणसाल-नदीमुह-नंदमाणग-कोरंग-भिगारग-कोणालग-जीवं जीवक-तित्तिर-वग लावग-कपिजलग-कवोतग-पारेवग-चडग ढिक कुक्कुड-मेसर-मऊर-चओरग हयपोंडरीय करक चीरल्ल -सेण-वायस विहाण-सियचास वग्गुलि-चम्मठिल-विततपक्खि समुग्गपक्खि-खहयर विहाणाकए य एवमाई जल थल खचारिणो य पचिदिए पसुगणे वियति य चउरिदिए य विविहे जीवे पिय जीविए मरणदुक्खपडिकूले वराए हणंति वहुसकिलिह कम्मा ॥ सू० १०॥ ___टीका-कादम्बा कलहसाः, कहा-पक्षिविशेपा बलाका!='वगला' इति भाषा प्रसिद्धाः, सारसाः मसिद्धाः 'आडा' जलचर पक्षिविशेषाः 'आडा' इति भाषायाम् । 'सेडी' सेटी, कुल्लाः, वन्जुलाः, 'पारिप्पव' पारिप्ठयाः यक्षिविशेषाः फीरा शुकाः, 'सउण' शकुना 'शकुनपक्षिविशेपाः, 'दीविया' दीपिका अब खेचर जो तिर्यच हैं उनके भेदों को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं'कादव कक यलाका' इत्यादि। टीकार्थ-(फादर) कादम्प-कलहँस (कैक ) कक-पक्षिविशेष (पलाका) पलाका-घगुला (सारस) सारस-इसी नामका प्रसिद्ध पक्षी है (आटा) आडा-जल में तैरने वाला पक्षी जिसे भाषामें 'आड' कहते हैं (सेडी) सेटी (कुलल) कुलल (वजुल) वजुल (पारिप्पव) पारिप्लव पक्षिविशेष (कीर) कीर-तोता (सउण) शकुन-पक्षिविशेष, હવે જે બેચર-નભચર તિર્યંચે છે તેમના સેને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. " कादय, ककनलाफा" त्या --" काम" - "कक" ४-४ तनु पक्षी, "वलाफा" alig "सारस" सारस-भे नामनु प्रसिद्ध पक्षी "आमा" भाभा त२३ पक्षी २२ सस्कृतभा “ मा " ४७ “सेडी" सेटी "कुलल" सस "वजुल" स "पारिपव" पारिस से पक्षीमानी भास लत छ "कीर" ी२-२५८ "सण" शन-पक्षीनी and "दीविय" Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সময়াঞ্চলে शरटा कलाशा, जाइकाकण्टकव्याप्ताङ्गा, मगुसा भुजपरिसपेविशेषा, खाडहिला श्वेतकृष्णरेखाऽसितदेहाः भुजपरिसर्पविशेषाः। चातुप्पदिकाः चतुषरणा भुजपरिसर्पविशेपा । 'घरोलिया' गृहगोधिकाः 'छिपकली-धरोली' इति प्रसिद्धाः। एतेपा द्वन्द्वः । एवमादीन् सरीसृपगणान् ‘घ्नन्तीति सम्बन्धः ॥सू०९॥ __ अथ खेचरभेदानाह--'काय' इत्यादि। मूलम्-कादंव-कक-बलाका-सारस आडा-सेडी-कुललवजुल-पारिप्पव-कीर-सउण-दीविय-हंस-धत्तर-भास-कुलीरात्रि में चोरी करने को ऊपर दुमजले आदि मकान पर चढ़ जाते हैं यह कमन्द की तरह भित्ती पर लटक जाती है । उन्दुर नाम भूपक का है। नकुल नौलो को कहते है । शरट नाम कृमलाश का है, यह गले में लाल होता है और बैठा हुआ अपना मस्तक हिलाया करता है, छिपकली जैसा इसका आकार होता है, मारवाड़ आदि राजस्थान में "कर गेटया' कहते है। जाहक वे भुजपरिसर्पविशेष है कि जिनके शरीर पर काटे रहते हैं । मगुस भी इसी प्रकार के भुजपरिसर्प विशेष है । खाडहिल को हिन्दी में गिलहरी कहते हैं, इसके शरीर पर जो रोमराजी होती है वह सफेद और काली रेखा से युक्त होती है, यह वृक्षों पर रहती है। चातुष्पदिक चार पैरों वाला भुजपरिसर्प विशेष होता है। घरोलिया को हिन्दी में छिपकली कहते हैं, यह मकानों के भीतर भीत पर छत पर चिपकी रहती है । निर्दयी हिंसक जीव इन्हें तथा इनसे भिन्न जो और भी भुजपरिसर्प विशेष हैं उन्हें मारते हैं ॥ ९॥ કે તેને પકડીને રાત્રે ચાર ચોરી કરવાને માટે બે ત્રણ માળના મકાનપર ચડી तय छ, ते ४५-यनी भलीत५२ 42ी onय छे “दुर" मेट ४२ "णल" सोनाणाया, "सर" भेटले आर्थिी तेनु गणु दास डाय छ भने त मे। બેઠા પિતાનું શિર હલાવ્યા કરે છે, ગરોળી જે તેને આકાર હોય છે મારવાડ આદિ રાજસ્થાનમાં તેને “કર ગેયા ” કહે છે, જાહક, એ એક જાતના ભુજપરિસર્પને ભેદ છે તેમના શરીર પર કાટા હોય છે એ ગુસ પણ એજ પ્રકારે मनापारिस छ, "खाडहिल" सर जिसीसी तना शरी२५२ २ ३वारी डाय છે તે સફેદ અને કાળી રેખાથી યુક્ત હોય છે, તે વૃક્ષ પર રહે છે તે ચાતુશ્વેદિક, ચાર પગ વાળુ ભુજપરિસર્ષ વિશેષ છે “ઘરેલિયા” તેમને ગુજ. રાતીમા ગળી કહે છે તે મકાનની અંદર ભીંત તથા છત પર ચોટી રહે છે નિદય હિંસક લેકે તેમની તથા તેમના સિવાયના બીજા પણ જે ભુજપ રિસર્ષ વિશેષ છે તેમની હત્યા કરે છે . સૂ -. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका अ० १ सू० १० रोचरजीवनिरूपणम् ४९ 'भिंगोडी' इति प्रसिद्धाः, 'कोणालग' कोणालका जलचरपक्षिविशेपा , जीपक्षीवका चातकाः, तित्तिरा. 'तीतर' इति लोके प्रसिद्धा, 'वट्टग' वर्तकाः-पक्षिविशेपाः 'वटेर' इति भाषायाम् । 'लाग' लावका मसिद्वाः, 'कविजलग' कपिालका तन्नामकपक्षिणः 'कोतग' कपोतका = क्यूतर' इति मसिद्धाः, 'पारेग' पारावतकाः तज्जातीया एर 'चडग' चटका!='चिडी' इति प्रसिद्धाः, 'दिक टिकाहिकपक्षिणः, 'कुरकुड' कुक्कुटाः पसिद्धाः, मेसरा = पक्षिविशेपाः, 'मऊर' मयूरा असिद्धाः, 'चोरग' चकोरका प्रसिद्धा एव 'श्यपौडरीय' इदपुण्डरीका:-जलचरपतिविशेषा', 'करग' करकाः 'चीरल्ल' चीरल्लाथ पक्षिविशेपाः 'चील' इति प्रसिद्धाः 'सेण' श्येनाः 'याज' इति भाषाया 'वायसविहाण' पायसरियानाः कापक्षिभेदाः, 'सियचास' सितचापाः श्वेतचापपक्षिणः, 'वग्गुळ' वल्गुल्य -'पागठ' इति मसिद्धा', 'चम्मट्ठिल' चर्मास्थिलाः चर्मचटका इति भाषाया, 'विततपक्रिस' पिततपक्षिणः 'ममुग्गपक्ति' समुद्गपक्षिणः, एते पक्षी (भिंगारग) भृङ्गारक-भिगोडी (फोणालग) कोणालक-जलचर पक्षिविशेष (जीवजीवक ) जीवजीवक-चालक (तित्तिर) तित्तिर-तीतर (चटग) वर्तक-चटेर (लावग) लावक-लावा (कपिंजलग) फपिंजलक इस नाम का पक्षी (फयोतग) कपोतक-फबूतर (पारेवग) पारापतक कबूतर के जातिविशेप (चडग) चटक-चिड़िया (ढिंक) टिंकपक्षी (कुक्कुड) कुक्कुट-मुर्गा (मेसर) मेसर (मऊर) मयूर और (चओरग) चकोर ये सब पक्षिविशेष है (एयपोडोरीय) हुदपुडरीक-जलपक्षिविशेष (करक) करक-पक्षिविशेष (चीरल) चीरल-चील, (सेण) श्येन पाज (वायसविहीण) वायसविधान-कौवा पक्षी के भेद (सियाचास) श्वेतचाप पक्षी (वग्गुलि) वरगुली-वागल (चम्मट्ठिल) चाथिल-चमगादड (विततपक्खि) पिततपक्षी (समुग्गपक्खि) समुद्रपक्षी, खरयरलिगाडी "कोणालग" पास मे तनु य२ पक्षी "जीवजीवक" 4. १४-यात “तित्तिर" तित्तिर-तेतरपक्षी "वहग" पत-पटे२ 'लावग" सा-सावा "कपिंजलग" Eिres- नामनु पक्षी "करोतग" ४पात:-- मूत२ "पारेवग" पात-पारेषु भूतनी तनु पक्षी "चडग" ५८४यसी "ढिंक" हिँ पक्षी “कुक्कुड" ४८-४! "मेसर" भेस२ "मऊर" भयू२ भने “चओरग" य१२ आया ही Tी तन पक्षीमा छ "हय पोंडरीय" Yी :- नाभनु य२ पक्षी “फरक" ४२४-पक्षिविशेष "चीरल" याव-सभी "सेण" श्येन- “वायसचिहाण" पायम विधान अनी मे त "सियचास"श्वेतया५ पक्षी "वगुलि" १६शुशी-पागण "चम्मटिल" यास्थिस-या "विततपक्खि" विततपक्षी "समुगपक्खि" समुद्रपक्षी Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ve प्रनव्याकरणस्ये कृष्णचटका,इसा-नीरक्षीरविवेचका पक्षिण: 'तरह धार्तराष्ट्रवाश्या मचरणचञ्चु हंसाः, 'भास' गासाः 'कुली कोस' कुठीकोगा =पतिविशेपा 'कु' क्रौञ्चाः क्रौञ्चपक्षिणः ये शरदि कती माधन्ति मधुर पनि च कुन्ति, 'दगतुड' दस्तुण्डाः, 'टेणियालग टेणिकालकाः, 'सूईमुह' सूचीमुखा 'कपिल' कपिला = पक्षिविशेपाः, "पिंगलक्खग' पिङ्गलाक्षा:-पिङ्गले अक्षिणी येपा ते पिङ्गलाक्षा:= पीतलोचनपक्षिणः 'कारड' कारण्ड कातक इति लोके प्रसिद्धाः, 'चपराग' चक्रवाका मसिद्धाः, 'उकोस' उकोशा-कुरराः कुरज पक्षिविशेषाः, 'गरुल' गरुडा पसिद्धाः 'पिंगल' पिगला रक्तशुका 'सुय' शुकारतमुखशुकाः, 'वरहिण' बर्हिगः-पिच्छधारिमयूराः 'मयणसाल' मदनशलाका!' मेना' इति भाषायाम् , 'नंदीमुह' नन्दीमुखाः, 'नदमाणग' नन्दमानकाच पक्षिविशेषा , 'कोरग' कोरड्का तन्नामकाः पक्षिणः 'भिगारग' भृङ्गारिकाः (दीविय ) दीपिका-कालीचिड़िया (हस) हस-नीरक्षीर को जुदा करने वाला पक्षी (उत्तर) धार्तराष्ट्रक-जिनके चरण और चोंच दोनों काळे होते हैं ऐसे हस ( भास) भास और (कुली-कोस) चुलीक्रोश पक्षिविशेष है (कुच ) क्रौंचपनी-जो शरद ऋतु में मदोन्मत्त होते हैं एव मधुर ध्वनि किया करते हैं (दगतुड) दगतुड (टेणियालग) टेणिकालक (मईमृह ) सूचीमुग्व (कविल ) कपिल, ये भी पक्षि विशेष है । (पिंगल क्वग) पिङ्गलाक्ष-पीलेनेत्रवाला एक जान का पक्षी (कारड) कारण्डकवतक (चकवाग) चक्रवाक-चकवा ( उक्कोस )उक्तोश-कुरर, (गरुल) गरुड (पिंगलसूय) पिंगलतोते, (सूय ) शुक-लालचांच वाले तोते ( बर. हिण) यहि-पिछोवाले मयूर (मयणसाल) मदनशाल-मैना (नदीमुह) नदीमुग्व ( नदमाणग) नन्दामानक, और (कोरग) कोरक इन नाम के हावियली "हस" स-नीरक्षीरने हा ४२ना३ पक्षी “धत्तर" धात शटर-मना य२१४ सने याय डाय छे तवा उस "भास" मास भने "कुलीकोस" मुसीकोश-पक्षीनी मास तो "कुच" होयपक्षी-२ ०२६-तुम! भहोन्मत्त थाय छ भने मधुर पनि ४ा ४३ छे “दगतुड" तु3, "देणियालग" are "सूईमुह" सूयाभुम "कविल" पिस मे पक्षीनी मास तो छ "पिंगलक्खग" पिसाक्ष-पी नेत्रवाणु मे तनु पक्षी "कार" ४१२७४ त "चफवाग" य१४-341 "उकोस" ओश-२२ "गहल" २"पिगल" पिस-सा पा५८ 'सुय" शु:-दास यायवाणी यापट "वरहिण" महिSinाजा भार "मयणसाल" महनशास-भेना “नदीमुह" नहीभुत "नद माणग" नन्हमान मन "कोर ग" १२४ नाभना पक्षी "भिंगारग" सभा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका म०१ सू० ११ प्राणिपधप्रयोजनकारवर्णनम् टीका-'इमेहि' एभिः वक्ष्यमाणे 'पिविहेहिं विविधः नानाप्रकारैः 'कार णेहि कारणैः वक्ष्यमाणपयोजनः प्रमान् प्राणान् नन्ति असुधा जनाः इत्यग्रेण सम्बन्धः । 'कि ते' कानि तानि प्रयोजनानि ? इत्याद-'चम्मे 'त्यादि । 'चम्म' चर्म-शरीरत्वचा, तदर्थ यथा 'चर्मणि द्वीपिन इन्ति' इत्यादि। 'यसा' वसा-शरीरस्थधातुरिशेपः, 'चरी' इति भापा, 'मम' मास, मेदो-देहस्थ चतुर्थधातु इस प्रकार प्राणिवध के प्रकारों को करकर अय सूत्रकार उसके प्रयोजन के प्रकारों को करते है-हमेहि विविहेहिं ' इत्यादि। टीकार्थ-जोअवुध-अज्ञानी मनुष्य वे (डमेहिं) इन वक्ष्यमाण (विविहेहि) नानाप्रकार के (कारणेरि) प्रयोजनों के यशवर्ती होकर (हिंसति तसे पाणे) घस जीवों की घात करते है। इस प्रकार को सबध १३वे सूत्र में कथित " अनुहा उह रिसति तसे पाणे" उन पदों को लेकर यहा लगा लेना चाहिये । (किं ते ) जिन प्रयोजनों को लेकर अज्ञानी-प्राणी प्रस जीवों की हिंसा करते है वे प्रयोजन क्या २ है-इसी विपय को सूघ्रकार " चम्म-वसा-मस-सेय" इत्यादि पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं, वे कहते है कि (चम्म-वसा-मस-मेय-सोणिय-जग-फिप्फिस-मत्युलिंग-हियअंत-पित्त-फोफस-दतट्ठा ) अबुधजन जो इन प्राणियो की घात करते है उसमे कितनेक प्राणियो का उनकी (चम्म ) त्वचा प्राप्त करने का प्रयोजन रहता है इसलिये वे उनका घात करते हैं, कितनेक प्राणियों का उनकी (वसा) ची प्राप्त करने का उद्देश्य होता है, कितनेक આ પ્રમાણે પ્રાણુંવધના પ્રકારે વિષે વાત કરીને હવે સૂત્રકાર તેના ક્યા ध्या तुम उय ते तावे छ-" इमेहि विविहिं " त्यादि साथ-२ मसुध-मज्ञानी मनुष्यो छतमा "इमेडिं" मा प्रमाणे "विविहे हिं" विविध प्रा२ना "कारणेहिं" प्रयासन "हिंसति तसे पाणे" રસ જીવેને ઘાત કરે છે આ પ્રકારને સબધ ૧૩ મા સૂત્રમાં કહેલ " अबुहा इह हिंसति तसे पाणे " म! पहानी साथे त्या म ध्ये "स्तेि" જે હેતુને ખાતર અજ્ઞાની-જીવ ત્રય જીવોની હિંસા કરે છે તે હેતુઓ કયા કયા छ-भे विषय सूत्रा२ " चम्म-वसा-मस-मेय" त्या पो द्वारा ५८ रे छ तेसो ४ छ है "चम्म, वसा, मस, मेय, सोणिय, जग, फिप्फिस, मत्थुलिंग हिय, अत, पित्तफोफस, दतदा" समुध व ते प्रामानी डिसा ४२ छ તેને હેતુ કેટલાક પ્રાણીઓની બાબતમાં તેમનુ “મ” ચામડુ પ્રાપ્ત કરવાનો હોય છે, કેટલાક પ્રાણીઓની “વફા” ચરબી પ્રાપ્ત કરવા માટે તેમને વધ કરાય છે, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नण्याकणसूत्रे मनुष्यक्षेत्रवहि विपक्षिण = खयहरविहाणकए य एमाई' खचर विधाना कृताः, तानेवमादीनुक्तमकारान् । तथा 'जलयलखचारिणो य-पचिदिए पमुगले जलस्थलसचारिणश्च पञ्चेन्द्रियान् पशुगणान् 'पियतिय चरिंदिग' द्वित्रिचतुरिन्द्रियान् 'विविहे जीवे' विविधान् जीवान् 'पियजीविए' मियजीरितान् ' मरणदुकावपडिकले' मरणदुःखप्रतिकूलान् 'पराए' पराकान-दीनान् 'बहुसफिल्डिसम्मा' बहसक्लिष्टकर्माणः समधिकदुष्टाचरणाः जनाः 'हणंति' नन्ति-मारयन्ति०१०॥ एव प्राणिवधस्य प्रकाराण्यभिधाय सम्मति तत्मयोजनप्रकाराण्याह'इमेहि' इत्यादि। मूलम्-इमेहि विविहेहि कारणेहिं, कि ते? चम्म-वसा-मंस. मेय-सोणिय जग-फिप्फिस -मत्थुलिग हिय -अत-पित्त फोफसदंतट्ठा अहि-मिज-नह-नयण- कण्ण पहारुणि- नक-धमणि-सिगदाढि-पिच्छ विस-विसाण-वालहेड ॥ सू० ११ ॥ विहाणाकए य) ये मनुष्य से बाहिर रहने वाले पक्षी। ये सब खेचर जातिके प्रकार है। इन्हें तथा (एचमाई) और भी इनसे भिन्न जो ( जलथल खचारिणो य पचिदिए पसुगणे) जलचर, स्थलचर, एव खेचर पञ्चेन्द्रिय पश है उनको इसी प्रकार ( बियति य चरिदिए य ) द्वीन्द्रिय, तेन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय ऐसे (विविहे जीवे) नानाप्रकार के जीवो को कि जिन्हें (पियजीविए ) अपने प्राण प्रिय हैं और (मरण दुक्खपडिकले ) मरण जन्य दुःखों से जो सदा डरते रहे है, ये दु ख जिन्हें प्रतिकूल हैं, एवं जो (वराए) दीन हैं उन्हें (बहुसकि लिलुकम्मा) अत्यन्त दुष्ट ओचरण वाले मनुष्य (रणनि) मारते है।सू १०॥ सहयर, विहाणाकए य" मनुष्यथी ६२ रनार पक्षी छे से मचा मेयर जतिना जारी छ भने तथा “एवमाई" ते सिपायन ul प२ "जल थल खचारिणो य पचिदिए पसुगणे" यर, स्थाय२ मने मेयर ५येन्द्रिय पशुमा छ भने तथा मे प्रमाणे “ वियतिय चरिदिए य"न्द्रय, - न्द्रिय, सतुन्द्रिय सेवा “ विविहे जीवे" विविध प्रश्न छ भने "पियजीविए" पोतान प्राप्रिय छे भने 'मरण दुक्खपडिकूले" भन्य माथी२ सा २ता २ छ, ते मानभने प्रतिपूछे, मन “वराए" दान छ भने "बहुस किलिटुकम्मा" अत्यत हुट माय! tu भनुष्यो "इणति" अरे छ । सू-१०॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका ० १ ० ११ माणिवधप्रयोजनकारवर्णनम् " रसायट्मासभेदोऽस्थिमज्जाशुकाणि धातवः' इति नह ' नवाः, 'नयण' नयनानि-नेत्राणि 'कण' कर्णाः 'हार' स्नायुः अङ्गमत्यगमन्धननाडीविशेषः 'नर' नासिका धमणि' धमन्योनाड्या, 'सिंग' श्राणि प्रसिद्धानि, 'दादि' दंप्टा 'पिन्छ' पिच्छ-मयूरादिपिच्छ, 'पिस' विपं-कालकूटादि 'विसाण' विषापानिजदन्ता , पालो केशाः, पपा 'हेउ ' हेतु हेतुमाश्रित्य अस्थिमज्जादिहेचोरित्यर्थः, 'हिमति' इति पूर्येण सम्बन्धः ॥०११॥ मजा नामक उठची चातु विशेप को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (नर ) नखों का प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (नयण) नयननेत्रों को प्राप्त करने का, कितनेक का (फण्ण) कान प्राप्त करने का कितनेक का (पहारुणि ) स्नायुयों को अग प्रत्यगों को पाने वाली राडि विशेपों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनको (नक) नासिका प्राप्त करनेका, कितनेक का उनकी (धमणि ) धमनियां-नाडिया माप्त करने का, कितनेक का उनके (सिंग) शूगों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनकी (दादि) दाढों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनकी (पिच्छ) पिच्चों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (विस) कालकूट आदि विप प्राप्त करने का, कितनेक का उनके विपाण-गज दन्तों को प्राप्त करने का और कितनेक को उनके (जाल) वालों को प्राप्त क ने का उद्देश्य होता है। इन उद्देश्यों प्रयोजनों को लेकर अवधजन इनकी हिसा करते है।सू-११॥ વધિ તેમની “ મજ્જા નામની છઠ્ઠી ધાતુને પ્રાપ્ત કરવાને માટે, કેટલાકને १५ तेभन "नह" नमान मास ४२वाने भाटे, सा४२ १५ तेमना "नयण" નેત્ર પ્રાપ્ત કરવા માટે, કેટલાકને વધ તેમના “ ” કાન પ્રાપ્ત કરવાને भाट साउन १५ "हारुणि" स्नायुमाने 1 प्रत्यगाने साधनारी अर्थ નસ પ્રાપ્ત કરવા માટે, કેટલાકનો વધ તેમનું “a” નાક પ્રાપ્ત કરવાને માટે डेटसानी १५ तेमनी "धमणि" मनाया-नाडीमा प्रा ४२वाने भाटे, हैटલાકને વધ તેમના “ના” શિગડા પ્રાપ્ત કરવા માટે, કેટલાકને વધ તેમની "दाढि" at H ४२वाने भार, साइना १५ तमना "पिच्छ” पीछ। प्रास કરવાને માટે, કેટલાકને વધ તેમનુ “B” કાલકૂટ આદિ વિષ પ્રાપ્ત કરવાને માટે, કેટલાકને વધ તેમના વિષાણુ હાથી દાતને પ્રાપ્ત કરવા માટે, અને કેટ લાકને વધ તેમના “ના વાળ પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરાય છેતે ઉ –પ્રયે Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण विशेष , 'सोणिय' शोणित-द्वितीयधातुनिशेषः, 'जग' यकृत्-उदरदक्षिणभाग स्थ मासग्रन्थि , 'फिफिस' फिफिस-अन्नस्थितमासचिशेपः, 'फेफड़ा' इति भापाया, 'मत्युलिंग' मस्तुलि-मस्तक भेजा 'हिय' हृदय हृदयमासपिण्ड 'कलेजा' इति प्रसिद्ध, 'अत' अन्त्र 'भात' इति भापा, 'पिस' पित्त-पित्ताशयः, फोफसं-शरीरावयवविशेषः 'दतहा' दन्तार्थदन्तामसिद्धाः, एतेपामर्थाय । पुनः-'अट्ठि' अस्थि मसिद्ध , 'मिज' मज्जा वीर्यजनकपष्ठधातुविशेष । उक्तञ्चप्राणियों का उनके (मस) मोस प्राप्त करने का, कितनेक प्राणियो का उनकी ( मेय) मेद जो देह की चतुर्थ धातु है उसके प्राप्त करने का, कित नेक प्राणियों का उनके (सोणिय ) शोणित प्राप्त करने का, कितनेक माणियो का उनके (जग) यकृत् को-उदर के दक्षिणमाग में रही हुई मांसग्रथि को प्राप्त करने का, कितनेक प्राणियों का उन के "फिफ्फिस" फिल्फिस को आतो मे स्थिति मास विशेप को प्राप्त करने का, कितनेक प्राणिओं का उनके (मत्युलिंग) मस्तक के भेजे को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (हिय) हृदयमासपिंड को जिसे कलेजा कहते है प्राप्त करने का (अत) आंतों को प्राप्त करने का (पित्त) पित्ताशय प्राप्त करने का, कितनेक का फोफस शरीरावयव विशेप-प्राप्त करनेका, कितनेक काउनके दातो को प्राप्त करने का प्रयोजन होता है तथा (अहि-मिंजनह-नयणकण्ण-पहारुणि-नक-धमणि-सिंग-दाढि-पिच्छ-विसाण-घाल हेउ) कितने का उनकी (अहि) अस्थि हड्डी प्राप्त करनेका कितनेक का उनकी (मिज) કેટલાક પ્રાણિયોનું “” માસ પ્રાપ્ત કરવાના ઉદ્દેશથી તેમને વધ કરાય છે કેટલાક પ્રાણીઓનો વધ તેમની “ma” ભેદ જે દેહની ચતુર્થ ધાતુ છે તેને પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટલાક પ્રાણુઓને વધ તેમના “” યકૃતને-પેટના જમણું ભાગમાં આવેલી માસ ગ્રથિને પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટલાક પ્રાણીઓને વધ તેમના આતરડામાં રહેલ માસ વિશેષને પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટसा प्राणीमानो ध तभना "मत्थुलिंग" माथाभाना भने प्रास उ२वा भाट કરાય છે, કેટલાક પ્રાણિઓને વધ તેમના “હિર” હૃદય માસ પિંડ કે જેને કાળજા કહે છે તેને પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરાય છે, કેટલાક પ્રાણીઓને વધ તેમના “a” આતરડા પ્રાપ્ત કરવા માટે કરાય છે, કેટલાક પ્રાણીઓને વધા તેમનાં “વત્ત” પિત્તા રાય પ્રાપ્ત કરવાને માટે કેટલાક પ્રાણીઓનો વધ તેમના "मोन शरीर पास सवय आत ४२पाने भाटे, अनेरा प्राणीमाना वध तमना हात प्रास ४२वान भाटे थाय छे तथा "अद्रि, मिंजनह नयण, कण्ण, पहारुणि, नक, धमणि, सिंग, दाढि, पिच्छ, विसाण, बालहेउ" કેટલાકને વધ તેમના “”િ અસ્થિ-હાડકા પ્રાપ્ત કરવાને માટે કેટલાકનો Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - सुदशिनी टीका म० १ ० ११ प्राणिवघप्रयोजनप्रकारवर्णनम् ५३ " रमाएट्मासमेदोऽस्थिमज्जाशुकाणि धातः' इति नह ' नग्वाः, 'नयण' नयनानि-नेत्राणि 'कण्ग ' कर्णाः 'हार' स्नायुः अङ्गप्रत्यङ्गमन्धननाडीविशेषः 'नर' नासिका धमणि' धमन्यो नान्यः, 'सिंग' श्रृगाणि प्रसिद्धानि, 'दादि' दप्मा 'पिन्छ' पिच्छ-मयूरादिपिच्छ, 'रिस' पिपं-काल कटादि 'विसाण' विपाणानि गजदन्ता , पालो =केशाः, एपा 'हेउ' हेतु हेतुमाश्रित्य अस्थिमज्नादिहेवोरित्यर्थः, 'हिंमति' इति पूर्वेण सम्बन्धः ॥सू०११॥ मजा नामक छठयी धातु विशेष को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (नर) नखों का प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (नयण) नयननेत्रों को प्राप्त करने का, कितनेक का (फण्ण) फान प्राप्त करने का किननेक का (पहारुणि) स्नायुयों को अग प्रत्यगों को बाधने वाली नाडि विशेषों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनकी (नक) नासिका प्राप्त फरनेफा, कितनेक का उनकी (धमणि) धमनियां-नाडिया प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (सिंग) शुगों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनकी (दादि) दाढों को प्राप्त करनेका, कितनेक का उनकी (पिच्छ) पिच्छों को प्राप्त करने का, कितनेक का उनके (विस) कालकूट आदि विप प्राप्त करने का, कितनेक का उनके विपाण--गज दन्तों को प्राप्त करने का और कितनेक को उनके (पाल) बालों को प्राप्त क ने का, उदेश्य होता है। इन उदेश्यों प्रयोजनों को लेकर अवुधजन इनकी रिसा करते है। सू-११ ॥ વધ તેમની જ મજ્જા નામની છઠ્ઠી ધાતુને પ્રાપ્ત કરવા માટે, કેટલાકને १५ तेमना "नह" नमाने प्रा ४२वान भाटे, 28 १५ तेमना "नयण" नेत्र प्रात ४२वाने माटे, टमानी तमना "कण्ण" न पास ४२पाने भाटे मान 44 "हारणि" स्नायुमान म प्रत्यगान गाधनारी / નસ પ્રાપ્ત કરવાને માટે, કેટલાકનો વધ તેમનુ “” નાક પ્રાપ્ત કરવાને માટે साउन १५ तेमनी "धमणि" धमनीमानामा ४२वाने माटे, 2લાકને વધતેમના “હિં” વિગડા પ્રાપ્ત કરવા માટે, કેટલાકને વધ તેમની "दाढि" altी आस ४२वाने भाट, साउन १५ तमना "पिच्छ” पीछ। प्राप्त ४२काने भाटे, उसाने १५ तेभनु "विस" सर माह विष प्रात ४२वाने માટે, કેટલાકને વધ તેમના વિષાણુ હાથી દાતને પ્રાપ્ત કરવા માટે, અને કેટ લાકને વધ તેમના “ના” વાળ પ્રાપ્ત કરવાને માટે કરાય છે તે ઉદ્દેશે-પ્રા જનેને માટે અબુધ લોકો તેમની હિંસા કરે છે. ૧-૧૧ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नन्याकरणसचे अथ चतुरिन्द्रियादीना हिंसामयोजनमाह-'हिंसति य' इत्यादि। मूलम्-हिसंति य भमरमहकरिगणे रसेसु गिद्धा, तहेव तेइंदिए सरीरोवकरणट्टयाए किवणे, वेइंदिए वहवे क्योहर परिमंडणहा ॥ सू० १२ ॥ ___टीका-'ये' च-पुनः ‘रसेसु' रसेपु-मध्वादिषु 'गिदा' गृद्धा तद्रस लोलुपाः हिंसकाः जना मध्वादि ग्रहणार्थ 'भमरमहुरुरिगणे' भ्रमरमधुकरीगणान् • भ्रमराः कृष्णवर्णाः लोकभापया पुस्त्वविशिष्टाः, मधुऊर्य: लघुमधुमक्षिका रोक भापया स्त्रीत्वविशिष्टाः, तेपा गणान् समूहान् हिंसन्ति । 'तहेव' तर 'तेइदिए' त्रीन्द्रियान्भ्यूमामत्कुणादीन् 'सरीरोवकरणठ्याए' शरीरोपफरणार्थ शरीरस्योप कारार्थ शयनकाले मत्कुणादिकृतदु खनिवारणार्थ हिंसन्ति । तथा 'किवणे' कृप ___ अब सूत्रकार चतुरिन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा करने वालों का क्या प्रयोजन होता है-इस पात को प्रकट करते है-'हिंसति य भमरमहुकरिगणे' इत्यादि। टीकार्य-(रसेसु गिद्धा) जो अघुध-अज्ञानी जन मधु (शहद) आदि रसों मे लोलुप होते हैं वे उन मधु आदि रसों को प्राप्त करने के अभिप्राय से (भमरमहुकरिगणे हिंसति ) भ्रमर भ्रमरियों के समूह मारते हैं। भ्रमरियों से, मधुको एकत्रित करने वाली मधु मरिखयों का यहा ग्रहण करना चाहिये । (तहेव ) इसी तरह (किवणे) दीन ऐसे (तेइदिए ) जू खटमल आदि तेइन्द्रिय जीवों की (सरीरोवकरणट्ठयाए) अपने शरीर के उपकार के लिये अर्थात् शयनकाल में जोखटमल आदि द्वारा उनके शरीर में काटने जन्य दुःख होता है उस दुःख को निवारण करने હવે ચતુરિન્દ્રિય આદિ ની હિંસા કરનારનું શું પ્રયોજન હોય છે, ते सूत्रधार प्रकट ४२ छ-" हिंसति य भमरमेहुकरिगणे" त्यादि Aथ-' रसेसु गिद्ध" मध-मज्ञानी वा मधु-मधमाहिरसमा सादु५ याय छ त त भय आ सोने आस ४२वा माटे “भमरमहुकरगणे हिंसति" श्रम तथा प्रभशयाना समूडनी त्या ४२ छ प्रमशस। टस अडी भ५ सत्र ४२नारी मधमाभीसा सभापी "तहेव" से प्रभारी "किवणे" मिया "इदिए" , भाउ माहिन्द्रिय ७वानी त्या "सरी देखकरणल्याए" पोताना शरीना 945२२ भाट मे सूती मते मा આદિ જે જતુઓ કરડે છે અને ઉઘમાં ખલેલ ચાડે છે કે , Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुशिनी टीका प० १ ९० १२ चतुरिन्द्रियादिना हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५५ णान् दीनान् 'यहवे' रहून् 'बेइदिए' द्वीन्द्रियान 'वत्योहरपरिमडणवा' वस्त्रोपगृहपरिमण्डनार्थम् , 'वत्य' वस्वाणि 'ओहर' उपगृहा-लघुगृहा' तेपा 'परिमडणट्ठा' परिमण्डनार्य शोभार्थम् । तत्र वस्त्राणा परिमण्डन कृमिरागेण रजनम् , उपगृहाणा परिमण्डन शक्तिचूर्णेनावलेपनम् । यद्वा-अर्थशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धेवखार्थम् , उपगृहाथै, मण्डनार्थ चेति । तत्र पटसूत्रादि वस्त्रनिर्माणे कम्याधुपधातः, उपगृहनिर्माणे मृजलादिपु पुतरकाशुपमर्दनम् , हारादिपरिमण्डननिर्माणे शुक्याापहनन भरत्येव ।सू०१२।। के अभिप्राय से वे उनकी हिंसा करते है। इसी तरह (वेइदिए) शंग्व शुक्तिका आदि जो विचारे दो इन्द्रिय जीव है उन बहुत से दीन जीवों की भी (बत्योहर परिमडणहा ) वस्त्र, उपगृह-लघुघर की शोभानिमित्त हिंसा करते है । कृमिराग से वस्रों का रगनो यह चखों का परिमडना हैं। शख, शुक्तिका के चूने से छोटे २ घरो का पोतना यह उपग्रहों का परिमंडन है । अथवा अर्थ शब्द का प्रत्येक के साथ सबध करने पर ऐसा भी इस पद को अर्थ होता है कि वस्त्र के निमित्त, उपगृह के निमित्त और मण्डन-हार आदि भूपण के निमित्त पटसूत्र आदि वस्त्र के निर्माण में कृम्यादि जीवों का उपघात होता है, उपग्रहों के निर्माण में मिट्टी जल आदि में रहे ह लट आदि दो इन्द्रिय जीवों का उपमर्दन होता है, स्था हार आदि आभूपणों के निर्माण करने में शुक्ति आदि जीवों का हनन होता है। भावार्य-भ्रमर, मधुकरी आदि जो चार इन्द्रिय वाले जीव हैं, तथा २ भाटे तमा तमनी डिंमा ४२ छ 2 त "येइदिए" ५५ ४ि मारे लिया। दिन्द्रिय वानी ५५ "वयोहरपरिमडणा" ५७०५ લઘુઘરની શોભાને નિમિત્તે હિંસા કરે છે કૃમિરાગથી વસ્ત્રોને રગવા તે વસ્ત્રોનું પમિડન કહેવાય છે ખ, શુતિકાના ચૂનાથી નાના નાના ઘરને લીપવા તે ઉપગ્રહ પરિમડન કહેવાય છે અથવા “અર્થ’ શબ્દને દરેકની સાથે સબ ધ રેડવાથી આ પદને એ પણ અર્થ થઈ શકે છે કે વિશ્વને માટે, ઉપગ્રહને માટે અને મડનહાર આદિ ભૂષણને માટે પટ્ટસૂત્ર આદિ વસ્ત્ર બનાવવામાં કમ્યાદિ છોને ઉપઘાત થાય છે, ઉપગ્રહોની રચનામાં માટી, જળ આદિમાં રહેલ લટ આદિ હિઈન્દ્રિય જીને ઘાત થાય છે, તથા હાર આદિ આભૂષણે બનાવવામા શુતિ આદિ જીવોની હત્યા થાય છે ભાવાર્થ-ભ્રમર, મધમાખી આદિ જે ચાર ઇન્દ્રિય વાળા જીવો છે, તથા Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनव्याकरण पुनरप्याह-'अण्णेहिय' इत्यादि । मूलम्-अण्णेहि य एवमाइएहि बहुहिं कारणेहिं अबुहा इह हिसति तसे पाणे, इमे य-एगिदिए बहवे वराए, तसे य अण्णे तदस्सिए चेव तणुसरीरे समारभंति । अत्ताणे, असरणे, अणाहे, अवधवे, कम्मनिगडवढे, अकुसल-परिणाम मदबुद्धिजणदुठिवजाणए, पुढविमए, पुढविसंसिए, जलमए, जलगए, अणलाणिलतणवणस्सइगणनिस्सिए य, तम्भय तज्जीए चेव, तदाहारे तप्परिणयवण्णगंधरसफासबोंदिरुवे अचक्खुसे य चक्खुसे य तसकाइए असंखे थावरकाए य सुहुमवायरपत्ते य सरीरनामसाधारणे अर्णते हणंति अविजाणओ य परिजा__णओ य जाव इमेहि विविहेहि कारणेहि कि ते ॥सू०१३।। जू खटमल आदि जो तीन इन्द्रिय वाले जीव है, एघ शख शुक्ति आदि जो दो इन्द्रियवाले जीव हैं, इनकी हिंसा करने का उदेश्यजीवों का क्या होता है यह बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रकट की है । जो प्राणी रस मे गृद्ध बने हुए हैं वे भ्रमर मधुकरी आदि जो रस को एकत्रित करने वाले जीव है उनकी तथा जो प्राणी अपने शरीर आदि के उपकार करने के अभिलाषी हैं वे लोक जू खटमल आदि जीवों की एव जो वस्त्र उपगृह आदि के निर्माण करने के अभिलापी है वे शख शुक्ति आदि दो इन्द्रिय जीवो की हिंसा करते हुए बिलकुल विचार नही करते हैं ॥ १२॥ જ, માકડ આદિ જે ત્રણ ઈન્દ્રિયવાળા જીવે છે, અને શખ છીપ આદિ જે બે ઈન્દ્રિયવાળા જ છે, તેમની હિંસા કરવા પાછળ લેકેને શે હેતુ હોય છે તે સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કર્યું છે જે માણસ રસમાં ગૃદ્ધ-લેલુપ બનેલ છે તેઓ મર આદિ રસ એકત્ર કરનારા જે જીવે છે તેમની તથા જે લોક પિતાના શરીર આદિના સુખને જ વિચાર કરનારા છે તેઓ જૂ, માકડ આદિ જાની અને જે લેકે વસ્ત્ર, ઉપગ્રહ આદિના નિર્માણની અભિલાષાવાળા છે તેઓ શખ, છીપ આદિ કીન્દ્રિય જીવોની હિંસા કરતા બિલકુલ વિચાર, ४२ता नथी ॥ १२॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका भ १ ० १३ चतुरिन्द्रियादिना हिंसापयोजननिरूपणम् ५७ टीका-'अण्णेदि य ' अन्यत्र 'एमाइएहि' एरमादिको पूर्वोक्तसदृशैः 'बहुहि' बहुभिः नानाविधैः ‘ कारणसएदि ' कारणशतैः 'अनुहा' अबुधाः अज्ञा निनो जनाः इह-अस्मिन् जीवलोके 'तसे पाणे' असान् प्राणान् द्वीन्द्रियादीन् "हिंसति' हिंसन्ति नन्ति । तथा-'इमेय' इमाय-अंग्रे वक्ष्यमाणान् ‘एगिदिए' एकेन्द्रियान् पृथिव्यप्तेनोपायुवनस्पतिलक्षणान 'वहवे' यहून अनेकान् ‘वराए' वराकानदीनान , तथा-'तयस्सिए चेत्र' तदाश्रितान् चैव-पृथिव्या केन्द्रियाश्रयस्थितानपि 'अण्णे अन्यान् 'तणुसरीरे' तनुशरीरान्क्ष्ग शरीरान् 'तसे य' घसाथ 'समारभति' समारभन्ते उपमर्दयन्ति । कीदृशान तान् ? इत्याह-'अत्ताणे' अत्राणान्प्राणरहितान रक्षकाभावात् , 'असरणे' अशरणान-शरणदातुरभावात् , फिर भी करते है-'अण्णेहि य' इत्यादि । टीकार्थ-(अण्णेहि य ण्वमाहहिं यहि कारणमा अघुहाइह हिंसति पाणे) इत्यादि और भी नानाविध इसी प्रकार के सैकड़ों कारणों से अज्ञानी जीव इस लोक में दीन्द्रियादिक त्रस जीवों की हिंसा करते हैं। तथा (इमेय) वक्ष्यमाण इन (बहवे) अनेक प्रकार के (वराए) दीन (एगिदिप) पृथिवीकाय, अपूकाय तेजाकाय, वायुकाय, वनस्पति काय रूप एकेन्द्रिय जीवों को और (तदस्सिरा चेव ) इनके आश्रित रहे हुए (अण्णे) दूसरे पूर्वोक्त त्रस जीवों से अतिरिक्त ( तणुसरीरे ) छोटे शरीर वाले (तसे य) स जीयों की (समारभति) हिंसा करते है। इनकी हिंसा करते हुए जो इन अज्ञानी प्राणियों को सकोच नहीं होता है उसाक कारण यह है कि ये (अत्ताणे) इन एकेन्द्रियादिक जीवो का कोई रक्षक नहीं है इसलिये रक्षक के अभाव से ये सर त्राण रहित है। (असरणे) ४७ ५५] सूत्रधार ४ --"अण्णेहिय ' त्यात 'अण्णेहिंय एवमाइएहिं वहहि कारणसएहि अनुहा इह हिंसति तसे पाणे" ઈત્યાદિ બીજા પણ એવા જ પ્રકારના સેકડો વિવિધ કારણથી અજ્ઞાની જીવ भाभी हान्द्रियाति स योनी हिमा ४३ छ तथा “ इमेय " या प्रमाणे ते “वहये " मन प्रजा२न। “पराए" जिन्यास “ एगि दिए " पृथिवीय, माय, ते य, वायुय, वनस्पतिय३५ मेन्द्रिय वानी मने "तदस्सिएचे" तमना माश्रये २४सा "अण्णे" ulan पूति स तना " तणुसरीरे" नाना शरीरवाणा " तसेय" सयानी “समारभति" हिंसा કરે છે તેમની હત્યા કરતા તે અજ્ઞાની અને સકેચ થતું નથી કારણ કે " अत्ताणे" ते सन्द्रिया िलयोनु २६७ नथी तेथी २१४ने मलावे. ते मा त्राहीन- निराधार ) जे “ यसरणे" ते पृथिव्याहि ७ all v Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण 'अणाहे' अनाथान पाम्यभावात् , 'अवधये' असन्धिमान-सहायकामा , 'कम्मनिगडबद्धे' कर्मनिगडबद्धान-कर्माप्येष निगडानि रन्धरत्वात् तैयदान फर्मराहित्याभावात् , 'अकुसलपरिणाममदबुद्धिजणदुधिजाणा' अकुशलपरिणाममन्दबुद्धिजनदुर्विज्ञेयान-कुशला तत्वातचापिकसम्पन्नः, परिणाम अन्त फरण येपा ते कुशलपरिगामाः, न कुशलपरिणामा = जागठपरिणामा आत्मौपम्यदृष्टिविकला इत्यर्थः मन्दा-हिंसाजनितनरकनिगोदामनन्तभवभ्रमणफटाफलविवेचनशून्या-पुद्धिर्येषां ते मन्दबुद्धयस्ते च जना इति अकुशलपरिये पृथिव्यादि जीव भगकर जा नहीं सकते, इनके आश्रित भ्रम जीव यदि भगकर कही जावें भी तो कोई ऐसा नही है जो इन्हें शरण प्रदान करे अगरणदाता के अभाव से ये अशरण हैं।(अणाहे ) कोई इनका स्वामी नहीं है इमलिये अपने स्वामी के अभाव से ये विचारे अनाथ हैं। (अवधये ) इनकी कष्ट में कोई सहायता करने वाला नहीं है इसलिये सहायक के अभाव से ये अवान्धव है । (कम्मनिगडयो ) उस प्रकार के कर्मों का सद्भाव होने के कारण कर्मरूप निगड-वेडी से ये बघे हैं। (अकुसल-परिणाम-मधुद्धिजणमुन्धिजाणए) अकुशल परिणाम वाले मदबुद्धि जनों हारा ये दुर्विज्ञेय है। तत्त्व और अतत्व का विवेक जिनके अन्तःकरण मे जगता है वे कुशल परिणाम वाले जीव हैं। इस तरह का कुशल परिणाम जिनका नहीं है अर्थात् सब जीवों के ऊपर जिनकी दृष्टि आत्मौपम्यवाली नहीं है और जो इस बात को भी नही जानते है कि हिंसा करने से नरक निगोद आदि अनन भवो मे भ्रमण करने रूप कटुकफल को શકતા નથી, તેમને આશ્રિત ત્રસજીવ જે ભાગીને કોઈપણ જગ્યાએ જાય તે પણ કઈ એવું નથી કે જે તેને કારણ આપે, તેથી શરણદાતાને અભાવે તેઓ अश२५ छ " अणाहे" । तमना स्वामी नथी, तेथी स्वामीन मलावे तमा जिया मनाथ छे “ अवधये" ४४मा तेमन सहाय ४२नार ३१४ नथी, तथा सहायने मलावे. तया ॥ध छ “म्मनिगडब" ते ना भाना साप थपाने ४२णे उभा में 43 ते पाये छ “अकुसलपरिणाम-मदबुद्धिजणदुध्विजाणए" मशर परिणाम महमुद्धियुक्त साडी દ્વારા તે વિય-સમજવુ-મુશ્કેલ છે જેમને અત કરણમા તત્વ અને અતત્વને વિવેક જાગૃત થાય છે તે કુશલ પરિણામવાળા જીવ છે આ પ્રકારનું કુલ પરિણામ જેમનું હોતું નથી, એટલે કે સઘળા છે ઉપર જેમની દૃષ્ટિ આત્મ વત નથી, અને જે એ વાતને પણ જાણતા નથી કે હિંસા કરવાથી નરક, નિવેદ આદિ અન ત ભામાં ભ્રમણ કરવા રૂપ કડવા ફળે જોગવવા પડે છે, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका य० १ ० १३ चतुरिन्द्रियादिना हिंसाप्रयोजननिरूपणम् ५९ णाममन्दबुद्धिजनाः ते मिथ्यात्योदयेन 'दुञ्जिया' 'एते हीनदीनाः पाणिनो रक्षणीयाः, इति ज्ञातुमशक्याम्तान् , 'पुढरिमए' पृथिवीमयान्-पृथिवीकायिकान् , 'पुढवि ससिए' पृथिवीसश्रितान-अल्सप्रभृति द्वीन्द्रियान् 'अल्मए' जलमयान्अपमायिकान् 'जलगए' जलगतान् पूतरसादि सान् , जण आणिलतणवणस्मड गणनिस्सिए य' अनलाऽनिल्तृणवनम्पतिगणनिश्रिताश्चअनला=अग्निः, अनिलो = वायुः, तृणानि = दर्भादीनि उनस्पतया वनस्पतिकायभेदा अग्रपीनादयः,तृण वनस्पतिकायिकमेव पुनस्सतिग्रहण म्वगत ममादिसकलभेदरल्यापनार्यम् , तेपी गग =समृहस्तस्य निश्रितान् जनलाद्याश्रितान् च शब्दात्-तेजस्कायिकादींश्च, तथा-'तम्मयतज्जीए' तन्मय तज्जीवान-तत्र तन्मयान् पृथिनी कायिकादीन् मोगना पड़ता है, इस तरह के ज्ञान के अभाव वाले मन्बुद्धि है, उन जनों दारा मिथ्यात्व के उदय से "ये हीन दीन प्राणी रक्षा करने योग्य है हिंसा करने योग्य नहीं है" यह बात जानी नही जा सकती है इसलिये ऐसे प्राणियों द्वारा ये जीव नही जाने जा सकते अतः ये अज्ञानी जीव ( पुढविमए) पृमीकायिक जीवों को तथा (पुढाविससिए )पृथिवी के आश्रय रहे एए अलस आदि दीन्द्रिय जीवों को इसी तरह (जलमए) जल कायिक जीवों को तथा (जलगा ) जलकायिक जीवों के सहारे रहे हुए पूतरकादि वस जीवों को, तथा (अणलाणिलतण वणस्सहगणनिस्सिए) अग्निकायिक जीवों को और अग्निकाय के सहारे रहे हुए उस जीवों को और वायुकारिक जीवों के महारे रहे हुए बस जीवों को, वणरूपवनस्पतिकायिक जीवों को, ग्व वनस्पतिकाय के भेद प्रभेदो के सहारे रहे हुए त्रस जीयो को भी मारते है। यही यात "तम्भयतज्जीव" આ પ્રકારના જ્ઞાન વિનાના જીવે સદબુદ્ધિ છે તે લોકો દ્વારા મિથ્યાત્વના ઉદયથી “આ હીન દીને પ્રાણીઓ રક્ષા કરવાને યોગ્ય છે હિંસાને યોગ્ય નથી” એ વાત પણ સમજી શકાતી નથી તે કારણે એવા જ દારા તે જીવને crejी शत नथी, तथी ते सजानी 04 "पुढपिमए" पृथ्वीय यानी तथा “पुढविससिए" पृथ्वीन माक्ये २९ मणमिया माहितीन्द्रिय ७वानी, ये ८ प्रमाणे "जलमए" aresयि: वानी तथा “जलगए" यि४ याने माश्रये २७स पूता मानी, तथा “ अणलाणिल तणवणस्सइगण निस्सिए" ममिडीय योनी भने अभिडायने माश्रये २२स श्रम वानी, વાયુકાય જીવોની અને તેમને આશ્રયે રહેલ ત્રસ જીવેની, તૃણરૂપ વનસ્પતિકાય જીની અને વનસ્પતિકાયના ભેદ પ્રભેદોના આશયે રહેલ ત્રસજીની હિંસા ४२ छे थे । पात " तम्मय सज्जीवए" ध्या: पहे। दार उपामा माये Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र तज्जीवान् पृथिव्यादि निश्रिताथैर, 'तदाहारे' तदाधारान्=ते पृथिव्यादयः आधारो येपा ते तान् तदाधारान् पृथिव्याधाश्रयान् अथवा 'तदाहारे' तदाहारान् ते पृथिव्यप्तेजोपायमादय ण्य आहारो येपा ते तान् तदाहारान् 'तप्परिणयवण्णगधरसफासमोदित्वे' तत्परिणतवर्णगन्धरसस्पर्शनादि (शरीर) रूपान्तेषामेव पृथिव्यादीना परिणता वर्णगन्धरसस्पर्श यर्या बौदिः शरीर सैव रूप-स्वभावो येपा ते तथा तान् , ' अचासुसे य' अचाक्षुपान्चक्षुरगोचरान् 'चक्खुसे य' चाक्षुपाश्च चक्षुरिन्द्रियविपयान् 'तमकाइए' उसकायिकान् सन्ति उष्णाघभितप्ताः सन्तः विवक्षितस्थानादुद्विजन्ते गन्छन्ति छायाधासेवनायें स्थानान्तरमिति त्रसाः, यद्वा-म नामकर्मोदयात् त्रस्यन्ति इति असा:सनाम• कर्मोदयवर्तिनइत्यर्थः, तेषां कायोराशिस्तन भवाखसफायिका., तान् , फियतः ? इत्याह-'असखे' इत्यादि-'असखे' असख्यान् 'थावरकाए' स्थापरकायान् , विष्ठइत्यादि पदों द्वारा कही जाती है-(तम्मयतजीवए) पृथिवी कायिक आदि जीवों को तथा पृथिवी आदि के सहारे रहे दए जीवों को, (तदाहारे) जिन जीवों के वे पृथिवी आदिक आधारभूत है ऐसे जीवों को अथवा पृथिवी आदिक ही जिनका आहार है ऐसे जीवो को (तप्परिणय वण्णगधरसफासनोदिख्वे ) तथा पृथिव्यादिकों के वर्ण, गध, रस, स्पों से जिनका शरीररूप स्वभाव परणित हो रहा है, तथा (अचक्खुसे य) जो चक्षु इन्द्रिय विपयभूत नहीं है, और (चक्खुसे य) जो चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत भी हैं ऐसे त्रस जीवों को-उष्णादिक से सतप्त होकर जो छाया आदि के सेवन के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, अथवा त्रस नामकर्म के उदय से जो युक्त है वे त्रस है, ऐसे सजीवों को, तथा-(असखए यावरकाए य) असरयात स्थावर कायों को, स्थाछ-" तम्मयतज्जीवए" पृथिवी आयिड वान तथा पृथिवी माह माश्रये २स वान 'तदाहारे "२ वाने ते पृथिवी हामृत छ मेर वाने अथवा पृथिवी मालिश भने। माडा छ वा छवाने “तप्परिणय घण्णगधरसफासयोंदिरूवे" तथा पृथिवी माहिना qणु १५, २५, स्पोथी भना शरी२३५ २वमा परिणत 2 Rो छ, तथा “अचक्खुसे य" यक्षु धन्द्रियना विषय३५ नथी, म “चस्खुसे य” २ यक्षुधन्द्रियना विषय३५ पर છે એવા ત્રસ જીવેને ઉષ્ણતા આદિથી દુ ખ પામીને જે છાયા આદિના સેવન માટે એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ જાય છે, અથવા ત્રસ નામકર્મના ઉદયથી २युत छ, तेसो सभणाय छे सवा सात, तथा " अससए थावर काय" मसज्यात स्था१२४ायान-यावर नाम भने मध्य भने छे ते स्था१२ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० १ सू० १३ चतुरिन्द्रियादिना हिंसामयोजननिरूपणम् ६१ तीति स्थानरः, स एव काय =शरीर येषां ते स्थावरकोया: अमृतगीताऽतप सन्तापाद्युपेतत्वेऽपि अन्यत्र गन्तुमशक्ताः स्थावरनामकर्मोदयातिनः पृथिव्यप्तेनोवायुवनस्पतय , तान् ' मुहुम-नायर-पत्नेय-सरीरनामसाहारणे' सूक्ष्म-पादरप्रत्येकशरीरनामसाधारणान् , सक्ष्म च पादर च प्रत्येऊशरीर च-सक्ष्मवादरप्रत्येक्शरीराणि, तानि नामानि नामकर्माणि येपा ते सूक्ष्मनादरमत्येकशरीरनामानः, ते च ते साधारणाच मृक्ष्मवादरमत्येकशरीरनाममापारणाः, तान् । तत्र मूक्ष्मा चमंचसुग्ग्रायाः पृथिव्याकेन्द्रियाः, वादरा =तएव चर्मचााद्याः, प्रत्येकशरीरा-येपामेरुमेफ जीन प्रतिभिन्न भिन्न शरीरमुपजायते ते पृथिव्यादयः। साधारणा:-येपामनन्ताना जीवाना साधारणमेक शरीर भवति ते कन्दमूलादय , वर नाम कर्म का उदय जिनके है वे स्थावर हैं अथवा जो शीत आतप आदि पाधा को सहते हुए भी अन्यत्र गमन करने में अशक्त हैं अपनी इच्छा से चल फिर नहीं सकते है-ये स्थावर है ऐसे ये स्थावर पृथिवी, अपू, तेज वायु बनस्पति जीव है, इन जीवों कोतया (सुहुम-वायर-पत्तेय-सरीर नाम साहारणे) सूक्ष्म, नादर, प्रत्येक शरीररूप नाम कर्म के उदय वाले जीवो को, तथा साधारण शरीर नामकर्म के उदयवाले जीवो को, चर्मचक्षुओं से जो देखने में नही आते है वे सूक्ष्म जीव है, तथा जो धर्मचक्षुओं द्वारा देखे जाते है वे चादर है, ये सूक्ष्म और चादर भेद प्रथिवी आदि एकेन्द्रिय जीवों के होते हैं, प्रत्येक वे जीव हैं कि जिनका भिन्न २ शरीर होता है, ऐसे पृधिव्यादिक जीव होते हैं क्यों कि इनका अपना २ भिन्न २ शरीर होता हे इन जीवों को, तथा साधारण वे जीव है कि जिन अनत जीवों का एक ही शरीर होता है, ऐसे वे जीव कदमूल आदि वनકહેવાય છે અથવા જે શીત, તાપ આદિની મુશ્કેલીઓ પડવા છતા પણ અન્યત્ર ગમન કરવાને અશક્ત છે, પિતાની ઈચ્છાથી હલનચલન કરી શકતા નથી તે સ્થાવર છે એવા જે સ્થાવર પૃથિવી, અપૂ, તેજ, વાયુ અને વનસ્પતિ छवा छ त ७वाने, तथा "सुहुम, वायर, पत्तेय, सरीर नामसाहारणे" सूक्ष्म, બાદર, પ્રત્યેક શરીરરૂપ નામકર્મના ઉદયવાળા જીવોને, તથા સાધારણ શરીર નામકર્મના ઉદયવાળા જીને, ચર્મચક્ષુઓ વડે જે દેખી રોકાતા નથી તે સૂમ જીવે છે, તથા જે ચર્મચક્ષુઓ દ્વારા જોઈ શકાય છે તે બાદર જે છે તે સુમ અને બાદર પૃથિવી આદિ એકેન્દ્રિય જીના હોય છે “પ્રત્યેક જીવ’ એ જ છે કે જેમના અલગ અલગ શરીર હોય છે, પૃથિવ્યાદિક જીવ એવા હોય છે કારણકે તેમને પિત પિતાનુ ભિન્ન ભિન્ન શરીર હોય છે તે જીવોને, તથા સાધારણ છ એ છે કે જે અનત જીવોનું એક જ શરીર હોય છે, એવા જીવો કદમ આદિ વનસ્પતિકાયિક હોય છે તે જે તે પ્રકારના કર્મો Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण ते अनन्ता अपि जीवास्तथाविधकर्मोदयसामर्यात् समकमेपोत्पत्तिदेशमधिवसन्ति, समकमेव तच्छरीरमाश्रिताः पर्याप्ति समारभन्ते, समकमेव पर्याप्ताः भवन्ति । समकमेव च प्राणापानादि योग्यपुद्गलान् गृहन्ति । यच्च-एकस्य जीवस्याहारयोग्यपुद्गलोपादान तदेवान्येपामनन्तानामपि भवतीति । 'अणते' अनन्तान् 'अविजाणओ' पविजानतः एते घातका अस्मान् हनिष्यन्ति' इति ज्ञानविकलात् एकेन्द्रियान् 'परिजाणी य' परिजानतश्च स्ववधदुःखमनुभवतच द्वीन्द्रियादीन् 'जीवे' जीगन् 'इमेहिं' एभिः अनुपद वक्ष्यमाणैः 'विविहेहि विविधैः नानापकारः 'कारणेहि' फारणैः प्रयोजनैः 'हणति' घ्नन्ति येषां घात कुन्तिीत्यर्थः। कि ते? कानि तानि पृथिव्यादि-हिंसायाः कारणानि ? इत्याह-'करिसणे'त्यादिना ।।मू०१३।। स्पति कायिक होते है । ये जीव तथाविध कर्मोदयो के वश से एक साथ ही उत्पत्ति देश में रहते ह, एकसाथ ही इनकी शरीर पर्याप्ति पूर्ण होती है । इस तरह एक ही साथ पर्याप्त होकर अनत जीव एक ही साथ प्राणापानादि योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। इनमे जो एक जीव का आहार होता है वही अन्य अनत जीवों का भी होता है। इस तरह के (अणते ) अनत साधारण जीवों को कि-(अविजाणओ) "जो यह नहीं जानते हैं कि ये घातक जन हमे मारेगे" इस प्रकार के ज्ञान से विकल हो रहे हैं ऐसे एकेन्द्रिय जीवो को, तथा (परिजाणओ य जीवे ) जो अपने बधादि सबधी दुःखों को जानते हैं, ऐसे दीन्द्रियादिक जीवों को, (इमेहिं ) इन अनुपद वक्ष्यमाण (विविहेहिं) नाना प्रकार के (कारणेहिं) प्रयोजनो से (रणति ) मारते हैं। (किंते) वे पृथिव्यादि की हिंसा के कारण कोनर है ? वह 'करिसण' इत्यादि अगले सूत्र से कहते है। દયને કારણે એક સાથે જ ઉત્પત્તિ દેશમાં રહે છે, એક સાથે જ તેમની શરીર–પર્યાપ્તિ પૂર્ણ થાય છે એ રીતે એક સાથે જ પર્યાપ્ત થઈને તે અને તે જીવ એક સાથે જ પ્રાણપાનાદિ ગુગલોને ગ્રડણ કરે છે તેમાં એક જીવને જે આહાર હોય છે તે જ આહાર અન્ય અનત જીવન પણ હોય છે આ रना "अणते " मनात साधारण पाने -" अविजाणओ" "२ ते नथी જાણતા કે એ ઘાતક લેકે અમને મારી નાખશે” એ પ્રકારના જ્ઞાનથી જે डित छ । मेन्द्रिय योने, तथा " परिजाणओ य जीवे" पोताना पाहिसमधी माने गए छे सेवादीन्द्रिय माडि वाने, “इमेहिं " मारने छीना पहामा शक्ति "विविहेदि" विविध "कारेणहि" प्रयोनाया "हणति" मारेछ "किते" पृथ्वीय माहिनी साना या उय! छ, करिसण" त्यादि वे पछीना सूत्र द्वारा डेवामा माछ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ० १ सू० १३ पृथिनो कार्याहिंसा कारण निरूपणम् अथ पूर्व पृथिवीयहिंसा कारणान्याह – 'करिसण' इत्यादि० । मूलम् -करिसण पोक्खरणी वावि-वेविण कूव सर-तलाग-चिइ इय खाइय-आराम - विहार थूम पागार-दार- गोउर अहालंगघरिया सेउ संकम पासाय विकप्प-भवण-घर सरण लयण आवणइय- देवकुल-चित्त सभा पत्रा अययण आवसह भूमिघर-मंडवाणकए-भायणभडोवगरणस्स य विविहस्त य अट्टाए पुढवि हिंसति मंदबुद्धिया || सू० १४ ॥ टीका- 'करण' इत्यादि । 'करिसण' कर्पण = कृषि: 'पोक्सरिणी' पुष्करिणी =समचतुष्कोणा कमल कानन कान्तिकमनिया पय. पूरपूरितपातालकुक्षितला नानाविध चित्रविचित्रपतत्त्रिकुल कृजित पुचित पृलिनमण्डकमण्डनसुरम्या, ' यानि ' ६३ १ 'केयारो चष्पिण वप्पो' इति 'पाइअलच्छीनाममाला' । भावार्थ- जो आत्मवोध से चिकल प्राणी है वे स्थावर और त्रस जीवों की नाना प्रकार के प्रयोजनों के वशवर्ती होकर विराधना करते है । पृथिवीकाय आदि स्थावर जीव है, क्यों कि इनके स्थावर नामकर्म का उदय है । द्वीन्द्रियादिक बस जीव हैं, क्यों कि इनके त्रस नामकर्म का उदय है । इसी कारण से स्थापर जीव अपनी इच्छानुसार एक स्थान से दूसरे स्थान पर चल फिर नही सकते हैं । त्रस जीव अपनी इच्छानुसार चल फिर सकते है ॥ स्र०१३ ॥ अय सूत्रकार उन कारणों को कहते हुए प्रथम पृथिवीकाय की हिंसा के कारणों को कहते हैं - ' करिसणपोक्खरिणी ' इत्यादि । टीकार्य - (करिसण) कृषि खेती के निमित्त (पोक्खरिणी) पोक्ख ભાવાથ——જે પ્રાણીએ આત્મધથી રહિત છે તેએ સ્થાવર અને ત્રમ જીવાની અનેક પ્રકારના પ્રયાજનથી દોરાઇને હિંસા કરે છે - પૃથિવીકાય આદિ સ્થાવર જીવ છે, કારણકે તેમના સ્થાવર નામક ના ઉદ્ભય થયા હાય છે દ્વીન્દ્રિયાદિક ત્રસ જીવ છે, કારણકે તેમના ત્રસ નામકર્મના ઉદય થયેા હાય છે એ જ પ્રમાણે સ્થાવર જીવ પાતાની ઈચ્છા પ્રમાણે એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યાએ જઇ શકતા નથી ત્રસજીવ પેાતાની ઇચ્છા પ્રમાણે હરીફરી રાકે છે ।।સૂ ૧૩ હવે સૂત્રકાર તે કારણેાને બતાવતા પ્રથમ પૃથિવીકાયની હિંસાના કારણેા याचे छे—' करिसणपोक्सरिणी " इत्याहि टीजर्थ -- “करिसण" दृषि-तीने निमित्ते "पोक्खरिणि" पोउपरि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरणसूत्र पापी = दीर्घायामा ‘वप्पिण' वप्राणि = क्षेत्राणि, 'कृष' कृपा 'सर' सर:-- कनिमजलाशयः 'तलाग' तड़ागस्तदितरः प्रसिद्ध एक, 'चिई चिति , मृतकदहनार्थ काठचयनम् , 'चेइय' चैत्यम्-मृतकोपरिस्मारकचितम् , 'खाइय' खातिका%D परिखा, आरामः गृहसमीपोपवनम् , विहारः पिहियतेऽति विहारः क्रीडास्थानविशेष., 'धूम' स्तूपः स्मारकस्तम्भः 'पागार' माकारः 'गढ़' इति भाषाप्रसिद्धः, 'दार' द्वारं प्रसिद्धम् , गोउर' गोपुर-पुरद्वारम् , 'अहालग'अट्टालक!='छत"अटारी' इति प्रसिद्धः, 'चरिया' चरिका-दुर्गनगरयोमध्यस्थितः अष्टहस्तप्रमाणा इस्त्यादि सचारमार्गः, 'सेउ' सेतु ='पुल' इति मसिद्ध , 'सकम' सक्रमासक्रम्यते येन स सक्रम =जलगर्तपारकरणाय पापाग फाठरचित मार्ग , 'पासाय' प्रामाद नृपगृहम् विकप्प' विकल्पा:-तभेदाः 'भवण' भवनानि, भवनमायामापेक्षया किश्चिदल्पमुच्छायमान भवति, मासादस्तु आयामद्विगुणोच्छायः, इति प्रासादभवनयोविशेषः, रिणी-पुष्करिणी के निमित्त (चावि ) वापी-चाव के निमित्त (वप्पिण) वावडी के निमित्त ( कूच ) कूप कुवा-के निमित्त (सर) सर-कृत्रिम जलाशय के निमित्त (तलाग) तलाग-तड़ाग के निमित्त (चिइ) चिति के निमित्त (चेय) चैत्य के निमित्त (साइय) खातिका के निमित्त (आराम) आराम का निमित्त (विहार ) विहार के निमित्त (यभ) स्तृप के निमित्त (पागार ) प्राकार के निमित्त (दार) द्वार के निमित्त (गोउर) गोपुर के निमित्त (अट्ठालग) अालिका अटारी के निमित्त (चरिया) चिरिका के निमित्त (सेउ) सेतु-पुल के निमित्त (सकम) सक्रम के निमित्त (पासाय) प्रासाद-राजमहल के निमित्त (विकप्प) विकप्प-विकल्प के निमित्त (भवण ) राजमहल विशेष-उनके लिये पुरिक्षाने निभिः “वावि" वापी-पापन निमित्त "वप्पिण" पावडीने निमित्त "कूव" ५-पाने निभित्र "सर" स२-३त्रिम शयने निभित्ते "सलाग" तसास-तणाव निमित्त "चिह" यितिन निमित्त 'चेइय" येत्यने निमित्त "खाइय" माति-माने निमित्त "आराम" भाराभ-याना नभित्त "विहार" विडारने निमित्त "थूम" स्तूपन निमित्त "पागार" ४२ Beera निमित्त "दार" २२ निमित्त "गोउर" शपुरन निमित्त "अट्रालग" सानिमा निमित्त "परिया" याने निभित्ते "से" सेतु-सन निभित्ते "सकम" सभने निमित्त "पासाप" प्रासा-मसन निमित्त "विकप्प" बम-विपनसभित्ते "भवण" स मे ना भिडस भाटे, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका म० १४ पृथियोकाहिंसाकारणनिरूपणम् 'घर' गृहा प्रसिदा, 'सरण' शरणानि सामान्यगृहाणि, 'लयण' लयनानि पर्वतपत्ति पापाणगृहाणि, 'आपण' आपणाः-हहाः, 'वेइय' वेदिका परिष्कता भूमिः, 'देवकुलानि यक्षगृहाणि, 'चित्तसभा' चित्रसभा-चित्रयुक्तसमास्थानम् , 'पवा' मपा-पानीयशाला 'प्याऊ' इति भाषा मसिद्धा, 'आययण' आयतन यज्ञशाला, 'आरसह भारसयः-तापसाश्रमा, 'भूमिघर' भूमिगृह-गुहारूप पृथिवीगृहम् , 'मडवाण' मण्डपा:-पटनिर्मितगृहास्तेपा, 'कर' कृते-एतनिमित्तमित्यर्थः। तथा 'भायण भडोवगरणस्स' भाजनमाण्डोपकरणस्य भाजनानि-सौवर्णराजवादीनि, भाण्डानि-मृण्मयानि शराबादीनि, उपकरणानि-उद्यल मुसलादीनि एतेषां समाहारद्वन्द्वे-भाजनभाण्डोपकरणम् , तस्य च 'विविहस्स य विविधस्य चम्भनेक मकारस्य 'अट्ठाए' अर्थाययोजनाय 'मदबुद्धिया' मन्दाद्धिका स्वपरहिवा. हितविवेकनिकलाजनाः, 'पुढची' पृथिवीं 'हिसति' घ्नन्ति ॥मू०१४॥ (घर) घर के निमित्त (सरण ) शरण-सामान्यगृह के निमित्त (लयण) लयन-पर्वतवति पापाण घर के निमित्त (आवण)आपण-हाट के निमित्त ( वेड्य ) वेदिका-चोतरे के निमित्त (देवकुल) देवकुल-यक्षायतन के निमित्त (चित्तसभा) चित्रसभा-चित्रयुक्त सभा के निमित्त (पा) प्रपा-प्याऊ के निमित्त "आययण" आयतन-यज्ञशाला के निमित्त (आवसह ) अवसय-तापसों के आश्रम के निमित्त (भूमिघर) भूमिगृह के निमित्त (मडवाणकर) मडप के निमित्त तथा (भायण भडोवगरणस्स य-विविहस्स य अट्ठाए पुढवि हिंसति मदघुद्धिया) नाना प्रकारके भाजन भाडोपकरणके निमित्त मन्दबुद्विजन पृथिवीकाय जीवोकी हिंसा करतेहैं । ___ भावार्थ-पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव है । इस एकेन्द्रिय जीव की हिंसा करने का निमित्त-प्रयोजन क्या होता है-इस विषय को सूत्र "पर" २२ मिमित्त "सरण" २२५ सामान्य न नमित्त "लयण" बयन पतिवति पाप धरने निमित्त "आषण" मानन निभित्ते "वेड्य" शि-यातराने निमित्त "देवकुल" दुस-यक्षायतनने निमित्त "चित्तसभा" चित्रसभा-यित्रयुत समान मभित्त " पया" अपा-५२५ निमित्त "आययण" मायतन यामाने निमित्त "आवसह" सामथ-साना सश्रमान निमित्त "भूमिपर" भूभिडन निमित्त 'मडवाणकए" भ उप निमित्त, तथा "भायण भडोवगरणरस य विविहरस य अढाए पुढपि हिंसति मदबुद्धिया" भने १२ ભાજન, ભાડે પ્રકરણને નિમિત્તે મક બુદ્ધિવાળા લેકે પૃથ્વીકાય જીવોની હિંસા કરે છે ભાવાર્થ–પૃથ્વકાયિક છે એક ઈન્દ્રિયવાળા હોય છે, એ એકેન્દ્રિય જીવની હિંસા કરવાના નિમિત્તો પ્રજને કયા ક્યા હોય છે, તે વિષે સૂત્ર Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ our कार ने यहा निर्दिष्ट किया है। मदबुद्धिजनों से यहा तात्पर्य स्वपर हित के विवेक से विकल जनों से है । जिन्हें स्व और पर का विवेक नहीं है ऐसे प्राणी ही कृपी आदि इन उपर्युक्त कारणों के वशवर्ती होकर पृथिवी कायिक जीव की हिंसा किया करते हैं। कृपीकर्म प्रसिद्ध हैं। जिसके चारो कोण समान हों, कमल जिसमें विकसित हो रहे हो, अगाषजल जिसमे भरा हो, नाना प्रकार के कलरव से जिसके तट भण्डित हो ऐसे सुरम्य जलाशय का नाम पुष्करिणी है। जिसका विस्तार दीर्घ हो उसका नाम वापी है । हिन्दी में इसे वावडी कहते हैं । अनाज के बोने का जो स्थान होता है उसे क्षेत्र-खेन कहते हैं। कृत्रिम जलाशय का नाम सर है । स्वाभाविक जलाशय का नाम तडाग है, इसे हिन्दी में तालाब कहते हैं । चिता का नाम चित्ति है, जो मृतक के दाह संस्कार के निमित्त श्मशान में लकडियों के ढेर के रूप में चिनी जाती है। किसी मृतक की यादगार में जो उसका स्मृति चिह्न स्वरूप भवन आदि बना दिया जाता है उसका नाम चैत्य है । किले के परकोटे के चारों ओर जो गहरी खाई होती है कि जिसमें जल भी भरा रहता है उसका नाम खातिका - खाई । घर के पास के बगीचे का नाम आराम है, नगर से कुछ दूर पर जो जनों का क्रीडा स्थान होता है उसका नाम विहार है। जो स्मारक st કાર આ સૂત્રમા સ્પષ્ટીકરણ કરે છે. અહીં મંદબુદ્ધિજનાના અથ, પાતાનુ અને પારકાનુ હિત ન જાણનાર લેાકા થાય છે જેમને સ્વ અને પરના વિવેક હાતા નથી એવા જીવાજ કૃષિ આદિ ઉપર કહેલ કારાને વશ થઈ ને પૃથિવી કાયિક જીવની હિંસા કર્યો કરે છે કૃષિકમ પ્રસિદ્ધ છે એટલે તેને વિષે સ્પ ટીકરણની જરૂર નથી જેના ચારે ખૂણુા સમાન હોય, જેમા ક્રમળેા વિકસ્યા હાય, જેણા ઊંડુ પાણી ભરેલુ હાય વિવિધ પ્રકારના કલરવથી જેને તટ મ તિ હાય એવા સુદર જળાશયને પુષ્કરિણી કહે છે જેને વિસ્તાર લાખા હાય તેવી વાવને વાપી કહે છે હિંદીમા તેને વાવડી કહે છે, અનાજ વાવવાનુ જે મ્યાન હાય છે તેને ક્ષેત્ર ખેતર કહે છે કૃત્રિમ જળાશયને સર કહે છે ચિતાને ચિતિ કહે છે, જે મૃત શરીરને અગ્નિદાહ દેવાને માટે લાકડાના ઢગલા રૂપે ખડકવામા આવે છે કોઈ મૃત વ્યક્તિના સ્મરણાથે જે ભવન આર્દિ બનાવાય છે તેને ચૈત્ય કહે છે. કિલ્લાની દિવાલની ચારે તરફ જે ઊંડી ખાઇ છૅાય છે, અને જેમા પાણી પણ ભરેલુ રહે છે તે ખાઈને ખાતિકા ખાઈ કહે છે. ઘર પાસેના ખાગને આરામ કહે છે. નગરથી દૂર જે લેાકેાનુ ક્રીડા સ્થાન હ્રાય છે Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशिनी टीका १० १ ० १४ पृथियोकाहिंसाकारणनिरूपणम् स्सभ पनाया जाता है वह स्तूप है । प्राकार-जिसे हिन्दी भाषा मे गढ़ कहते हैं । नगर में प्रवेश करने का जो प्रधान द्वार होता है उसका नाम गोपुर है । दुमजिले आदि मकानों के छत को अटारी करते हैं। दुर्ग और नगर के यीच में जो आठ हाय प्रमाण का मार्ग होता है कि जिससे होकर हाथी आदि आते जाते रहते हैं उसका नाम चरिका है। जल की धारा प्रवाह को पार करने के लिये जो पापाण अथवा काष्ठ का उस पर मार्ग बना दिया जाता है उसका नाम सक्रम है। ऐसे स्थान नदी नालों आदि जलाशय प्रदेशों पर बने हुए रहते हैं। राजमरल प्रसिद्ध है, इसे सस्कृत भाषा में प्रासाद कहते है। भवन-लम्याई की अपेक्षा कुछ थोड़ी कम ऊँचाई वाला होता है । तथा जो प्रासाद होता है यह भवन की अपेक्षा दिगुणित ऊंचाई वाला होता है। सामान्यघर का नाम शरण है । पर्वत के पास जो पत्थरों के घर बने हुए होते है उनका नाम लयन है । दुकान का नाम हट्ट या हाट है। परिष्कृत भूमि का नाम वेदिका है । देवकुल-यक्षायतन-यक्ष के स्थान को कहते है। जिस सभा. स्थान में चित्र होते है उसका नाम चित्रसभा है । जरा लोगों को पानी पिलाया जाता है उसका नाम प्याऊ है। यज्ञशाला का नाम आयतन, तापसाश्रम का नाम आवसथ, पृथिवी के नीचे बने हुए घर का नाम વિહાર કહે છે સ્મારક તભને સ્તુપ કહે છે કિલાને પ્રાકાર કહે છે નગરમા પ્રવેશ કરવાનું જે મુખ્યદ્વાર હોય છે તેને ગેપુર કહે છે બે માળના આદિ મકાનની અગાશીને અટારી કહે છે દુર્ગ અને નગરની વચ્ચે જે આઠ હાથ પહેબે ભાગ હોય છે, કે જ્યા થઈ હાથી આદિ આવે જાય છે, તે માગને ચરિકા કહે છે પાણીના પ્રવાહને ઓળગાવાને માટે તેના પર પથ્થર અથવા લાકડાને જે માર્ગ બનાવવામાં આવે છે તેને સક્રમ (પુલ) કહે છે એવા સ્થાને નદી, નાળા, આદિ જળામાં પર બનાવેલા હોય છે રાજમહેલ શબ્દ જાણીતા છે તેને સંસ્કૃત ભાષામાં પ્રાસાદ કહે છે ભવનની ઊંચાઈ પ્રાસાદ કરતા ઓછી હોય છે ભવન કરતા પ્રાસાદની ઊંચાઈ બમણું હોય છેસામાન્ય ઘરને શરણું કહે છે. પર્વતની પાસે પથ્થરના જે ઘરે હોય છે તેમને લયન કહે છે દુકાનને હટ અથવા હટ કહે છે ચિતરાને વેદિકા કહે છે દેવકુલ યક્ષાતન યક્ષના સ્થાનને કહે છે જે સભાસ્થાનમાં ચિત્ર હોય છે, તે સભાસ્થાનને ચિત્રસભા કહે છે જ્યા લે ને પાણી પાવામાં આવે છે તે જગ્યાને ધ્યા-પરબ કહે છે થશાળાને આયતન, તાપસના આશ્રમને આવસથ, જમીનની અંદર બનાવેલ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ ग्याकरणेने अथाऽकायहिंसा कारणान्याह – 'जल च' इत्यादि । मूलम् - जलं च मज्जणय- पाण- भोयण-वस्थ भोवण सोयमाइएहिं ॥ सू०१५॥ टीका- 'मञ्जय' मञ्जनक-स्नान 'पाण' पान 'भोपण' भोजन 'वत्थभोत्र'वामक्षालनं 'सोय' शौचम् 'आइएहिं ' आदिभिः = मज्जनाद्यनेक कारणैः 'जल 'काय हिंसन्ति ||१५|| अथाग्निकार्याहिंसाकारणान्याह -- 'पण' इत्यादि । मूलम् - पयण-पयावण - जलण - जलावण- विदसणेर्हि अगणिं ॥ सू०९६ ॥ टीका--' पयण' पचन - स्त्रय, 'पयावण' पाचनमन्यैः 'जळण' ज्वलन स्तेन प्रदीपनम्, 'जकावण' ज्वालनम् अन्यैः, 'दिसण' चिदर्शन=प्रकाशकरणम्, रभिः कारणैः प्रयोजनैः 'अगणि' अग्नि हिंसन्ति ॥ सू० १६ ॥ भूमिघर या तलघर, तबू का नाम पट्टघर, अथवा मडप है । चादी सोने के बने हुए वर्तनो का नाम यहा भाजन एव मिट्टी के बने हुए वर्तनों का नाम भाउ है । उदखल (ओखली ) तथा मुसल आदि को यहा उपकरण से ग्रहण किया है | सू० १४ ॥ अब अष्काय की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार स्पष्ट करते हैं. { जल च मज्जण य' इत्यादि । टीकार्थ - ( मज्जणय ) स्नान, (पाण) पान, ( भोवण ) भोजन, (त्थघोवण) वस्त्रप्रक्षालन, ( सोय ) शौच, इत्यादि कारणों को लेकर ( जल च) अपूकाय - जलकाय की हिंसा करते हैं । सू०१५ ॥ अब अग्निकाय की हिसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार करते ઘરને ભૂમિધર અથવા તલઘર અને તને પટઘર અથવા માપ કહે છે શાદી સેાનામાથી અનાવેલ વાસણાને ભાજન અને માટીમાથી અનાવેલા વાસણાનેભાડ કહે છે. ખાણિયા તથા સાયેલા આદિને અહી ઉપકરણથી ગ્રહણુ કરેલ છે ॥ સૂ ૧૪ ॥ હવે કાય (જળકાય)ની હિંસા કરવાના પ્રયેાજનને સૂત્રકાર સ્પષ્ટ કરે " जल च मज्जण य " धत्याहि टीडार्थ " (i ८ मज्जणय " स्नान, पाण પાન "भोयण" सोन, " वत्थघोवण" वस्त्रधावा, सोया " शोथ धत्याहि अरबोने सीधे अपकाय જળકાયની હિંસા થાય છે સૂ॰ ૧૫/ હૅવે અગ્નિકાયની હિંસા કરવાના પ્રયેાજનોને સૂત્રકાર બતાવે છે webm ܕ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOOOK - - - अवशिनी रीका म १ सू० १० बायकापहिसाकारणनिरूपणम् . अथ वायुकायहिंसाकारणान्याह- सुप्प' इत्यादि । मूगम्-सुप्प-वियण-तालियंट-पेहुण-मुह-करयल सम्मपत्त. वस्थ एवमाइएहिं अणिलं । सू० १७ ॥ टीका-'मुप' यूपः अनशोधनोपकरणविशेप , 'छाज' 'सूपडा' इति भाषामसिद्धः 'वियण'व्यजन यशशलाकादिनिर्मितम् , 'तालियट' तालसन्त 'ता. लपखा' इति प्रसिद्धम् , 'पेहुणग' पेडणक-मयूरपिच्छकृतव्यजनं 'मुह' मुख है-'पयणपयावण' इत्यादि । __टीपार्थ-(पयण-पयावण-जरण-जलाचण-चिदसणेहि अगणि) स्वय भोजनपनाना, दूसरोंसे भोजन वनचाना, स्वय अग्नि जलाना, दूसरोंसे अग्नि जलवाना, तथा दीपक जलाकर प्रकाश करना, इत्यादि प्रयोजनों को लेकर अग्निकाय की हिंसा करते है ।। सू०१६ ॥ वायुकाय की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार कहते हैं'सुप्पवियण ' इत्यादि। टीकार्थ-(सुप्प वियण-तालीघट पेटुण मुह-करयल सग्गपत्तवत्थएचमाइएहिं अणिल) सूपसे जब पछाड़२ कर अन्न आदि शोधन करते हैं तय, वाशलाका आदि से निर्मित पखे से जर हवा की जाती है तप, तालवृक्ष के पत्ते से बने हुए पखे से जर हवा की जाती है तय, मयूर के पिच्छों से निर्मित पखे से जर हवा की जाती है तय, मुख "पयणपयावण "त्यादि साथ-"पयण, पयावण, जलण, जलावण, विदसणेदि अगणि" an art બનાવવાને, બીજા પાસે ભેજન બનાવરાવવાને, પિતે અગ્નિ સળગાવવાને, અન્ય પાસે અગ્નિ સળગાવરાવવાને, તથા દવે સળગાવીને પ્રકાશ કરવા, ઈત્યાદિ પ્રજનેને માટે અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે સૂ ૧૬ હવે વાયુકાયની હિંસા કરવાના પ્રજનને સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે– " मुष्प वियण " त्या 2012-"सुप्प, वियण, तालियट, पहुण, मुह, करयल सगापत्त वस्थ एवमाइएहिं अणिल" त्यारे सू५४॥ आश्रिीन मना सा. ४२राय छे त्यारे, पासनी સળીઓ આદિમાથી બનાવેલા પખ વડે જ્યારે હવા ખવાય છે ત્યારે, તાડના પાનામાંથી બનાવેલ પખા વડે જ્યારે પવન નખાય છે ત્યારે, મોરના પીછામાથી બનાવેલ પખા વડે ભારે પવન નખાય છે ત્યારે, જ્યારે કોઈ નિમિત્તે મુખથી Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनम्याकरणस्ने 'करयल' करतल= हस्ततल 'सग्गपत' सागपत्र = वृक्षविशेषपन 'वस्थ' पत्रम्, 'एवमाइएहिं ' एवमादिभिः = इत्यादिभिर्मायृदीरक विद्युद्वथननादिसाधनैः ' भणिल ' अनिल वायु हिंसन्ति || सू० १७॥ अथ वनस्पतिकायहिंसाकारणान्याह - ' अगारे' श्यादि । मूलम् - अगार परियार-भक्ख भोयण - सयणासण- फलगमुसल उखल-तत- विततातोज वहण वाहण भंडग- विविहभवणतोरण- विटंग - देवकुल- जालयन्द्रचद- निज्जूहग-चंद-सालिय- वेइयनिस्से - णिदोणि- चंगेरी-खील मंडव सभा-पवा ऽऽवसह-गधमलाणु लेवणं-वर-जुय-नगल-मेइय-कुलिय-सदणसीया रह-सगड-जाणजोग्ग- अहालग - चरिअदार गोपुर-फलिहा-जंत-सूलिया लउडमुसंढि सयग्घी - बहुपहरणा-वरणुवक्खराण कए अण्णेहि एवमाइहिं हि कारणसहि हिसति तरुगणे भणिए अभणिए य एवमाई ॥ सू० १८ ॥ से जब किसी निमित्त फूक मारी जाती है तब, और खुले मुह बोलते हैं तब, जब हाथों से ताली बजाई जाती है तब, जब पत्र शाक के पत्तों को साफ करने के लिये उन्हें हाथ पर झटकारा जाता है तब, और जब घस्त्र के अचल से हवा की जाती है तब, तथा बिजली आदि के पखौं से जब हवा की जाती है तब वायुकाय के जीवों की हिंसा होती है । तात्पर्य इसका यह है कि जितने भी वायूदीरक साधन है उन से वायु काय के जीवों की हिंसा होती है ।। सू-१७॥ अब वनस्पति की हिंसा करने के प्रयोजन को सूत्रकार कहते हैं કુક મારવામા આવે છે ત્યારે, જ્યારે ખુલ્લે માઢ ખોલવામા આવે છે ત્યારે જ્યારે હાથા વડે તાળી વગાડવામાં આવે છે ત્યારે, જ્યારે શાના પાનને સાક્ કરવાને માટે હાથથી છટકવામા આવે છે ત્યારે તથા વીજળી આદિના પખા ઘઉં જ્યારે હવા ખાવામા આવે છે ત્યારે વાયુકાય જીવાની હિંસા થાય છે તેનુ તાત્પર્ય એ છે કે હવા ખાવાના જેટલા સાધના છે તેમનાથી વાયુકાય જીવેાની हिंसा थाय छे ॥ १७॥ હવે વનસ્પતિકાયની હિંસા કરવાના પ્રયાજનાને સુત્રકાર પ્રગટ કરે છે. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशिनीटीका अ० १० १८ वनस्पतिकाहिसाकारणनिरूपणम् टीका-'अगार' अगार-गृह परियार' परिचारस जीविकाः, खड्गादि कोशो षा 'भक्ख' भक्ष्याणि मोदकादीनि 'भोयण भोजनानि ओदनादीनि, 'सयणासण' शयनासनानि-शयनानि-मञ्च पर्यादिशग्याः; आसनानि-भद्रासनादीनि 'फलग' 'फलकानि-काष्ठनिर्मितवस्तृविशेपाः 'तख्ता' इति भापा मसिद्धानि 'मुसलमुदूखल च प्रसिद्धम् , ततानि-बीणादीनि-पिततानि-मुरजभेर्यादीनि, 'आतोज्ज' आवोधानि-बाधविशेपाः, 'वहण वहनानि-पोतनौकादीनि यानपात्राणि 'वाइण' चाइनानि शिविकादीनि 'भडग' भाण्डानि-गृहोपकरणानि, 'विविहभषण' विविध भवनानि सर्वतोभद्रादिभवनानि, तोरणानिद्वारशोभाकारिवन्दनमालादीनि, "विटग' विटङ्का:-कपोतपालेयः 'छज्जा' इति भापा प्रसिद्धाः, देवकुलानि-यक्ष गृहा, 'जाल्य' जालकानिगवाक्षविशेपाः, 'अद्धचंद' अर्धचन्द्रा: अर्धचन्द्राकार'अगार-परियार-भव' इत्यादि। टीकार्य-(अगार) अगार-गृह, (परियार) परिचार-जीविका अथवा खनादिकोश-म्यान, (भरख) भक्ष्य-मोदक आदि खाने योग्य द्रव्य, (भोयण) भोजन-ओदनादि द्रव्य, (सायणासण) शयनासन-मञ्च पर्यङ्क आदि शय्या, भद्रासन आदि आसन, (फलग) फलक-काष्ठनिर्मित वस्तुविशेप-तख्ता, (मुसल)मुसल, उदूखल-ओखली (तत) तत-वीणा आदि वाद्य (वितत) वितत-मुरज भेरी आदि बाजे, (आतोज्ज) आतोय वाचविशेप, (वहण) वहन-पोत, नौका आदि यान पात्र, (वारण) वारण शिविका आदि, (भडग) भडफ-गृहके उपकरण, (विविहभवण) विविध भवन-सर्वतोभद्र आदि मकान, (तोरण) तोरण-द्वार की शोभा वर्धक वदन-माला आदि, (विटग) विटक-कपोतपाली-उज्जा, ( देवकुल) देवकुल यक्षगृह, (जालय)जालकगवाक्ष-खिडकी, (अद्धचंद) अर्धचद्राकार " अगार, परियार-भक्स" त्याह -"आगार"मा२- "परियार" परियार-वि मया तवार मानुि भ्यान "भक्ख" लक्ष्य-साड माल भाव साय द्रव्य "भोयण" लोनभात माहिद्रव्य "सयणासण" शयनासन-पास ५८ मा शय्याना साधी, भद्रासन माह मासन "फलग" ५१४ साली पाट, पाटियु "मुसल" सामे, SHA-माउजियो "तत" तत वी माह बाध "वितत" वितत-भु२०४ मेरी मा पात्रो "आतोज्ज" माताध-मे मारनु वाध विशेष "वहण" पहन चात नौ। आदि, पान-सभी मा "भडग" गुडना ५:२।, "विविहभवण" विविध सपन-सवताल महान "तोरण" द्वारनी शाला धारना२नमाला AIE "विटग" विट४-छन्दु "देवकुल" यक्षगड "जालय" oney-AIR IN "निजहग" मारी "अपद" अयन्द्र सयन्द्रास सोपान Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभायाकरण सोपानविशेपा , 'निज्जूहग' नियूंदकाणि-द्वारोर्षमागादिनिर्गताः घोटकापाकाराः काष्ठविशेषाः, 'चदसालिय' चन्द्रशालिका प्रासादोपरितनशाला 'वेइप वेदिका मागणे कृतोपवेशनस्थानम् , 'णिस्रोणि निश्रेणिः 'सीटी' इति मसिद्धा 'दोणि' द्रोणि लघुनौका, 'चगेरी' तृणादिनिर्मितपात्रविशेषः 'टोकरी' इति भाषा प्रसिद्धा देशीशब्दोऽयम् , 'खोल' कोला -मसिद्धा , 'मडर' मण्डपा:-पटगृहाः, द्राक्षादिमण्डपा बा, समाः जनोपवेशनस्थानानि, 'पा' प्रपाः पानीयशालाः, 'आवसह' आवसथा: तापसाश्रमाः 'गध' गन्यागिन्यद्रव्याणि, 'मल्ल' माल्यानि-कुसुमानिमाल्य-कुसुमसम्पा , 'अणुलेवण' अनुलेपन-चन्दन, 'अवर' अपराणिवस्त्राणि, 'जुय' युगानि 'झूसरा' इति भाषा मसिद्धानि, 'नगल' लागलानि हलानि, 'मेइय' मेतिकानि येः कृष्टक्षेत्र मृधते, 'कुलिय' कुलिकानि हलभेदा 'सदण' स्यन्दनो स्थविशेपाः, 'सीया' शिविका:-'पालखी' इति सोपानविशेप, (निन्जूग) नि!हरू-द्वारके उर्वभागमें बाहर की ओर लगे हुए घोड़ा आदि के आकार वाले काष्ठ विशेष, (चदसालिय) चन्द्रशालिका-मासाद के ऊपरकी शाला, (वेइय) वेदिका-आगनमें बैठने के लिये बना हुआ स्थान, (णिस्सेणि) निःश्रेणी-नसेनी-सीढी, (दोणि) द्रोणी-लघुनौका होडी, (चगेरी) चगेरी-शृणादिसे बना हुआ पात्र विशेष, जिसे चगेर भी करते है, ( खील) कीला, (मडव ) मडप-पटगृह अथवा द्राक्षादि मडप, (सभा) सभा-मनुष्यों के बैठने का स्थान, (पवा)प्रपाप्याऊ, ( आवसह) आवसथ-तापसाश्रम, (गध) गध-सुगधि द्रव्य, (मल्ल) माल्यकुसुम आदि माला-कुसुमों की गुथी हुई पुष्पमाला, (अनुलेवण) अनुलेपन-चदन, अम्बर-वस्त्र, (वरयुग) युग-झूसरा-जुवारी, (नगल) लागल-हल, (मेइय) मेतिक-वखर, जिससे जुता हुआ खेत વિશેષ, નિસ્પૃહક-બારણની ઉપર બહારની બાજુએ લગાડેલ ઘેડા આદિના मारना st°8 विशेष "चदसालिय" यशालिस-पासाना उरनी शाम "वेइय" बेसि-मायामा सवा भाटना यात, "णिणि " निश्रेणी निसरणी, "दोणि" द्रोणी नानी नो'चगेरी" यरी ताहिभाधी मनापेटा पार विशेष रेने य२ ५ ४ छ "खीं" भूट! "मड" म ३५-तव्यू मय! द्राक्षादिना म ३५ "सभा" समा-भासाने मेसपानु स्थान "पवा" ५५ ५२५ "आवसह" मावसथ-तापसानी माश्रम "ग" 10-सुगधि द्र०य "मल्लाणुलेवण, મલ-માલ્ય કુસુમ આદિની માળા, અનુપન ચદન, અાર વષ જુ મૂસરા ५सरी"नगल" साना "मेश्य "भात मरनाथी उसु तर Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टीका अ० १ ० १८ पनस्पतिकाहिंसाकारणनिरूपणम् ७३ मसिद्धाः, 'रह' रया:-प्रसिद्धाः, 'सगड' गम्टानि पसिद्धानि, 'जाण' यानानि सकटविशेपाः, 'जोग्ग' युग्यानि-जम्मानपिगेपाः, 'अट्टालग' अट्टालका प्राकारोपरिवर्ति स्थानविशेषाः 'चरिम' चरिका नगरप्राकारमभ्यस्थाप्टहस्तप्रमाणमार्गाः 'दार' द्वाराणि-मसिद्धानि, 'गोपुर' पुरद्वाराणि, 'फलिह' परिघा अर्गलाः 'यता' पन्त्राणि-प्रसिद्धानि 'मूलिया' गलिका-शूलारोपणकाष्ठानि, 'लउड' लकुटा:यष्टयः, 'मुसहि' शस्त्रविशेपाः, 'सयम्धी' शतघ्न्य -शस्त्र विशेपा , महाशिलासु या उपरिष्टात् पातिता सत्यः शतानि नन्ति, एव 'बहु' बहूनि अनेकानि 'पहरण' महरणानि-शस्त्राणि खगतोमरतीरादीनि 'आवरण' आवरणानि स्फुरकाणि 'छरपला' इति मसिद्धानि उवक्रवराण' उपस्कराणि-गृहोपकरणानि, कपाटादीनि, तेपा 'ए' कृते एतदर्य, तथा 'अण्णेहिय' अन्येश, 'एनमाइएहिं' एवमादिकैः एफसा किया जाता है, (कुलिय) कूलिक-हलविशेप, स्यदन-रविशेप, (सीया) शिपिका-पालग्बी, (रह) रय-सामन्य रथ (सगड) शकट-गाडा, (जाण) यान-वाहन विशेप, (जोग्ग) युग्य-जम्पान विशेप, ( अहालग) __ अट्टालक-प्राकार के ऊपर का स्थान विशेष (चरिका) चरिका-नगर और कोट के मध्य का आठ हाथ प्रमाण का मार्गविशेप, (दार) द्वार, (गोपुर) गोपुर-पुरद्वार (फलिहा ) परिघा-अर्गला पेंडा, (जत) यत्र, (सूलिया) शलिका-शलारोपण काष्ठ (लउड ) लकुट-यष्टि-उडी, (मुसढि) मुसढी शस्त्रविशेप, (सयग्वी) शतघ्नी-शस्त्रविशेष जिससे एक ही बारमे सौ मनुष्य मार दिस जाते है तथा (यदुपहरणा) अनेक प्रहरणशस्नखड्ग तोमर,तीर आदि, आवरण-छरपला,(वरणुफ्खराणकए) उपस्कर कपाट आदि गृह के उपकरण इन सबके लिये तथा (अण्णेहिं एवमाइएहिं) सरभु ४२पामा भाव छ “कुलिय" इति मे डा२नु ९१ "सदण" स्यहन मे बता २थ “सीया" Cast पासजी" रह" २५ " सगड, १४८ ॥ 'जाण" यान पान विरो५ " जोग्ग " युज्य में प्राणीया यात वाइन "अहालग" सट्टा सानी ५२नु मास प्रा२नु स्थान " चरिय" य२ि४ ना२ टनी पश्येने। मा डायना पडना भाग विशेष " दार" द्वार "गोपुर "पुर शउनु भुण्य दा२ " फलिहा " परिघा मागियो " जत" यत्र शूमि " सूलिया" शूजी या भाटेनु ४०४ “लउड " बट 4 9ी “ मुसढि" भुसढी. विशेष “सयग्धी" ती तनु श नाथी मे १ वा२मा सो भएमा भारी २४ाय छ, तथा "बहुपहरणा" भने प्रहर शख म ताभ२ ती२ माहि“ वरणुवक्खराणकए " આવરણ ઉપકર કપાટ આદિ ઘરમાના ઉપકરણે એ બધાને માટે તથા HERELIHERE THHHHHHHHHHHI Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रनण्याकरण एव प्रकारैः 'बहुहि' बहुभिः 'कारणसएहि कारणगतैः प्रयोजनशतैः 'भणिए' भणितान् उक्तान् 'अभणिए य' अभणिनाथ-अनुक्ताश्च, एमादीनुक्तप्रकारान् 'तरुगणे' तरुगणान् वनस्पतिसमूहान् मिति'=विनाशयन्ति ।मु०१८। कीदृशान् जीवान् कीदृशा हिंसकाः किमर्थ नन्ति ? इत्याह-'सत्ते' इत्यादि। ___ मूलम्-सत्ते सत्तपरिवजिए उवहणंति दढमूढा दारुण__ मई कोहा माणा माया लोभा हासा रती अरती सोय वेदस्थ जीय धम्मत्थ कामहेऊ सवसा अवसाअट्ठाए अणट्टाए य तस. पाणे थावरे य हिसति ॥ सू० १९ ॥ टीका-'दढमूढा' दृढमूढाः सातिशयरिवेकविकलाः, 'दारुणमई' दारु णमतयः-राशयाः जना, 'सत्तपरिवज्जिए' सत्वपरिवर्जितान् बलहीनान् और भी इनसे अतिरिक्त (बहुहिं कारणसएहिं) अनेक प्रयोजनों के लिये (भणिए अभणिए य) जो यहां पर कहे गये और जो नहीं कहे गये हैं, (एवमाई) उन सब तरुगण वनस्पति समूहकी हिंसा करते है। ससारी अधुधजन इन पूर्वोक्त वस्तुओ के निर्माण के लिये वृक्षों को काटते हैं। वृक्षों को काटना ही वनस्पति जीवों की हिंसा करना है। इन उपयुक्त वस्तुओं का निर्माण वृक्षों के काष्ठ से होता है। ।। सू० १८ ॥ प्रस स्थावर जीवों को कैसे २ भावों से युक्त होकर हिंसक जन मारते हैं सूत्रकार इस सूत्र द्वारा स्पष्ट करते है-'चत्ते सत्तपरिवजिए' इत्यादि। ___ टीकार्थ-(दृढमूला) जो सातिशय विवेक से विफल हैं जिनके विवेक "अण्णेहिं एवमाइएहिं" ते सिवायना " बहुहिं कारणसएहिं" जीन पy भने प्रयोनाने भाट “भणिए अभणिए य" रे सही वाया छ । नथी उवाया "एवमाई " ते मया तरुगर वनस्पति समूडनी सोही हिंसा કરે છે સસારી અબુધ લેકે પૂર્વોક્ત વસ્તુઓ બનાવવાને નિમિત્તે વૃને કાપે છે વૃક્ષોને કાપવા એ જ વનસ્પતિ છની હિંસા છે ઉપર કહેલી વસ્તુઓ વૃક્ષાના કાઇમાથી થાય છે . સૂ ૧૮ - બ્રસ સ્થાવર જીને કેવા કેવા ભાવથી યુક્ત થઈને હિંસકજન મારે છે नन ॥ सूत्रास सूत्रा२ २५८४२५४ ४२ छ-"सते सत्तपरिवज्जिए" त्यादि शा-ढमला"२ मतिशय विवथा विस छे मना विव४३५ यमया Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ - - - - सुशिशी टीका अ० १ सू० १९ फान् जीयान् किरग्यातकाजति दीनान् ‘सत्ते' सचान पृथिव्यादीन 'उपहणति' उपघ्नन्ति मारयन्ति, कस्मादिस्याह-'कोहा' क्रोधात् , 'माणा' मानात् 'माया' मायाया -कपटात् 'कोमा' लोभात् 'हासा' हास्यात् 'रई' रते रागात् 'अरइ' अरते द्वेपात् 'सोय' शोकाद 'उपघ्नन्ति' इति सम्बन्धः। किमर्थम् ? इत्याह-'वेयत्यजीयधम्मत्यकामहेऊ' वेदार्थजीवधर्मारामहेतोः, अत्र हेतशब्दम्य प्रत्येकमभिसम्बन्धः । 'वेयस्थ' वेदोक्तानुष्ठान, 'जीयः' जीव-जीवन, ' धम्म' धर्म:-कुलनात्यादिलक्षणः, 'अत्य' अर्थः-धन, 'काम' कामाःगदादयः इत्येतेपा हेतोः कारणात् 'सवसा' स्वरशा स्वाधीनाः सन्तः, 'असा' अशा पराधीना:-परनिर्देशवर्तिन , 'नहाए' पर्याय प्रयोजनाय 'अणद्वाए' अनर्थाय-अप्रयोजनाय-निरर्थकमित्यर्थः रूप चक्षुओं पर अज्ञान का पर्दा पड़ा हुआ है। और (दामणमई) जिनके परिणाम अत्यत कर बन चुके ह ऐसे प्राणी (सत्तपरिवज्जिए ) यल हीन दीन ( सत्ते) पृधिव्यादिक जीवों की (उवणति) विराधना करते ह-वह विराधना किम कारण से करते है सो कहते है (कोहा, माणा, माया, लोमा, हासा, रति, अरति, सोय ) क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक से करते है। अर्थात् इन परिणामो से युक्त होकर हिंसक पृथिवी आदिक जीवों की हिंसा करते हैं । किसलिये करते है ? (वेयस्य जीयवम्मत्यकामहेऊ) वेदार्थ, जीवन, धर्मार्थकाम के लिये करते है, यहां हेतु शब्द को सरध प्रत्येक के साथ में कर लेना चाहिये-वेदार्थ वेदोक्त अनुष्ठान के लिये, जीवन के लिये, धर्म के लिये, अर्थ-धन-के लिये, काम-शब्दादिक पाचों इन्द्रियों के विषयों के लिये, इन्ही सत्र कारण कलापों को लेकर (सयसो) स्वाधीन अथवा (अवसा) पराधीन होकर (अट्ठाण) प्रयोजन के लिये अथवा (अणद्वाए य) ५२ अज्ञाननी प ५ छ, भने " दारुणमई" भनी वृत्तिमा मत्यत २ मानी गई छे सवा ३ " सत्तपरिवजिए" सीन, दीन "सत्ते" पृथ्वीय मावानी "उवणति " त्या २ ते डिमा ४॥ ४॥ १२0 ४२ छ तेसूत्र २४ -"कोहा, माणा, माया, लोभा, हासा, रति, अरति, सोय" अध, मान, માયા, લોભ, હાસ્ય, રતિ, અરતિ, શોક આદિ વૃત્તિઓથી યુક્ત થઈને હિંસક ७। पृथिवीय मावानी डिंमा ४२ छ । भाट तम ४२ छ ? "यत्थ जीय धम्मस्थकामहेऊ" हाथ, वन, घथि भने माटे तम ४३ छ यहाथ-- વેદક્ત ધર્મ ક્રિયાઓને માટે, જીવનને માટે, ધર્મને માટે, અર્વ–ધનને માટે, भ-पाये छन्द्रियाना विषयने भाटे, मे १॥ ४॥२ समूडान सीधे “सवसा" स्वाधीन अथवा “ अवसा" पराधीन भाडापाथा “ अढाए" प्रयोगनने ra Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ resurered 'तसपाणे' सप्राणान् = द्वीन्द्रियादीन् जीवान् ' थापरे य' स्थानरांश्च पृथिवीकायादीन् हिंसन्ति =नन्ति ॥ ०१९॥ उक्तार्थमेव विशदयन्नाह - 'मदबुद्धिया' इत्यादि । मूलम् - मंदबुद्धिया सहसा हणंति, अवसा हणंति, सवसा अवसा दुहओ हणंति, अट्ठा हणति, अणट्टा हणति, अट्टा अणहादुहओ हणंति, हस्सा हणंति, वेरा हणति, रती हणंति हस्सा वेरारती हति । कुद्धा हणति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, कुद्धालुद्धा मुद्धा हणति, अत्था हणनि, धम्माहणंति, कामा हणंति, अत्था धम्माकामा हति ॥ सू० २० ॥ टीका--' मदबुद्धिया' मन्दबुद्धिका । मिथ्यात्वोदयात्तच्चातत्वविवेकरहितमतयः, 'सवसा' स्वनशा = स्वतन्त्राः सन्तः, स्वेच्छया 'हणति' घ्नन्ति, 'अवसा' अवशाः = पराधीना सन्तः घ्नन्ति, 'सवसा जनसा' स्ववशा अशा 'दुहओ' उभयतो अनर्थ - विना प्रयोजन के लिये (तसपाणे ) द्वीन्द्रियादिक त्रस प्राणियों की एव ( थावरे य) पृथिवीकायादिक एकेन्द्रिय स्थावर - प्राणियों की (हिंसति ) हिंसा करते हैं । सू० १९ ॥ इसी उक्त अर्थ को विस्तार से समजाने के लिये पुनः सूत्रकार कहते हैं---' मद बुद्धिया सवसा हणति ' इत्यादि । कर्थ - ( मदबुद्धिया) मिध्यात्व के उदय से तत्व और अतत्व के विवेक से जिनकी बुद्धि शून्य हो रही है ऐसे प्राणी (सवसा) स्वतन्त्र बनकर अपनी इच्छानुसार त्रस स्थावर जीवों की ( हणति ) हिंसा करते हैं । इसी तरह जो प्राणी (अवसा हह्णति ) नौकरी आदि के कारण पराधीन 'ध्यातर अथवा "अणट्टाए" विना प्रयोभने “तसपाणे" द्वीन्द्रिय साहि त्रस भवानी अने " थावरे य" पृथिवीआय आहि येडेन्द्रिय स्थावर भवानी " हिसति " हिंसा रे छे ॥ सू १८ ॥ એ જ ઉપરાસ્ત અને સવિસ્તર સમવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે-'मद्बुद्धिया सवसा हणति " त्याहि 66 टीअर्थ -“ मदबुद्धिया ” भिथ्यात्वनाउ हयथी नेभनी शुद्धि तत्त्व भने तत्त्वना विवेधी रहित थ ग छे सेवा वा "सबसा' स्वतंत्र होवा छता पशु पोतानी इच्छानुसार त्रस स्थावर लवोनी " इणति " हिंसा रे छे मे ४ પ્રમાણે જે માણુસ अवसा हणति " नारी वगेरेने "6 गाधीन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिमी टीका म०१ २० २० मंदयुनिया कान्२ जीयान् नन्ति मन्ति, अर्थाय, अनय, तदुभयतो प्रति । हास्यात् वैरान रतन न्ति, हास्यवेररतिभ्यो नन्ति । किंभूताः सन्तो धन्ती? त्याइ 'कुद्वा इत्यादि । 'कुरा' क्रुद्धाः क्रोधयुक्ताः, 'लद्धाः' लुम्मा-पिपयगृद्धाः । 'मुदा' मुग्धा मोहनशाः प्रन्ति । है-वे भी इन प्रस स्थावर जीवों की हिंसा करते हैं । ( सवसा असा दुहओ हणंति ) तथा स्वतत्र और परतत्र दोनों प्रकार से होकर भी इन जीवों की हिंसा करते है। तथा ( अट्ठा रणति ) ये जीव जीवों की हिंसाप्रयोजन से करते है और (अणट्टाहणंति) अनर्य-विना प्रयोजन के निरर्थक भी करते है (अट्टा अणट्टा दुहओ हणंति ) कोई २ से भी जीव हैं । जो कुछ जीवों की हिंसा अपने स्वार्थ से करते हैं। और कितनेक जीवों की हिंसा म्वार्थ न भी हो तो भी करते है। (हस्सा रणति ) ससार में ऐसे भी हिंसक जीव है जो जीवों की हिंसा हास्य के कारण ही कर डालते हैं, (वेरा हणंति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो जीवों की हिंसा वैर के निमित्त को लेकर करते है। (रई रणति ) कितनेक ऐसे भी है जो रति-आमोद प्रमोदके निमित्त को लेकर जीवों की हिंसा करते हैं। (हस्सा बेरा रति रणति ) कितनेक जीव ऐसे भी है जो एक ही साथ हास्य वैर और रति-आमोद प्रमोद के निमित्त को लेकर जीवों की हिंसा करते हैं । वे कैसे होकर हिंसा करते है-( कुद्धाहणति) कितनेक जीव ऐसे भी है जो क्रोधी होकर जीवों की हिंसा ५ मे रस स्था१२ यानी हिंमा ४२ छ "सवसा अवसा दुहओ हणति" તથા સ્વતત્ર અને પરતત્ર, બંને પ્રકારથી યુક્ત થઈને પણ જીવોની હિંસા કરે छे तथा “ अट्टाहणति" ते ७वानी डिसा तसा अर्थ सारण ४२ छ भने "अणद्वाहणति" अनर्थ-म -निरर्थ: ५५ ४२ “ अट्टा अणद्वा दुहओ हणति" असवा ५ वो डाय छेत्या टोनी डिसा पोताना સ્વાર્થને કારણે કરે છે અને કેટલાક જીવોની હિંસા સ્વાર્થ ન હોવા છતા પણ ४२ छ “हस्सा हणति" ससारमा सेवा टसा डिंस & पाए छ ? रेस वानी डिसा साम्य-मानहने मात२ ४ ४२ छ "वेरा हणति" - el मेवा w २ वानी डिंसा ३२ने निमित्त ४२ छ " रई हणति" 2615 सवा ५ ७ छ २ २तिमा प्रभाहने मात२ ७वाना हिंसा ४२ छ "हस्सा वेरा रती हणति" इंटसा । मेवा प छ । એક સાથે હાસ્ય, વેર અને રતિ-આમેદ પ્રમોદને નિમિતે જીની હિંસા કરે छ तसा वा वृत्तिया योनी डिसा ४२ छ? "कुद्धा हणति" रसायो Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હ્રદ recuretired 'तसपाणे' सप्राणान् = दीन्द्रियादीन् जीवान् 'थारे य' स्थावरांव पृथिवीवाया दीन् हिंसन्ति धनन्ति ॥ सू० १९ ॥ उक्तार्थमेव विशदयन्नाह - 'मदबुद्धिया' इत्यादि । मूलम् - मदबुद्धिया सहसा हणंति, अवसा हणंति, सवसा अवसा दुहओ हणंति, अट्ठा हणति, अणट्टा हणति, अट्टा अणट्टादुहओ हणंति, हस्सा हणंति, वेरा हणति, रती हणति हस्सा बेरारती हणति । कुद्धा हणति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति, कुद्धालुद्धा मुद्धा हणति, अत्था हणति, धम्माहणंति, कामा हणंति, अत्था धम्मा कामा हति ॥ सू० २० ॥ टीका- ' मदबुद्धिया' मन्दबुद्धिकाः मिथ्यात्वोदयात्तत्त्वातत्वविवेकरहि तमतयः, 'सवसा' स्वनशा:= स्वतन्त्राः सन्तः, स्वेच्छया 'हणति' घ्नन्ति, 'अवसा ' अवशाः=पराधीना सन्तः नन्ति, 'सबसा अनसा' स्वनशा अशा 'दुहओ' उभयतो अनर्थ - विना प्रयोजन के लिये ( तसपाणे ) द्वीन्द्रियादिक त्रस 'प्राणियों की एव ( धावरे य) पृथिवीकायादिक एकेन्द्रिय स्थावर - प्राणियों की (हिंसति ) हिसा करते हैं । सू० १९ ॥ इसी उक्त अर्थ को विस्तार से समजाने के लिये पुनः सूत्रकार कहते है--' मद बुद्धिया सवसा हणति' इत्यादि । टीकर्थ - ( मदबुद्धिया) मिध्यात्व के उदय से तत्त्व और अतत्व के 'विवेक से जिनकी बुद्धि शून्य हो रही है ऐसे प्राणी (सवसा) स्वतंत्र बनकर अपनी इच्छानुसार त्रस स्थावर जीवों की ( हणति ) हिंसा करते हैं । 'इसी तरह जो प्राणी (अवसा हणंति) नौकरी आदि के कारण पराधीन 'भातर अथवा "अणट्टाए" विना प्रयोग ने “तसपाणे" हीन्द्रिय साहि त्रस भवानी अने " थावरे य" पृथिवीय आहि मेहेन्द्रिय स्थावर कवोनी “ डिसा रे छे ॥ सू १८ ॥ सिि એ જ ઉપાક્ત અને સવિસ્તર સમજાવવાને માટે સૂત્રકાર કહે છેमदनुद्धिया सवसा हणति " त्यिाहि दी अर्थ - " मदबुद्धिया ” मिथ्यात्वनाएँ इयथी लेमनी बुद्धि तत्त्व भने तत्त्वना विवेश्थी रडित थ ग छे सेवा को "सक्सा' स्वतंत्र होवा छता या योतानी धच्छानुसार त्रस स्थावर भवानी" हणति" हिंसा रे छो પ્રમાણે જે માણસ अवसा इणति " नोटरी वगेरेने जर पराधीन छे तेथे 66 " 77 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ २० २० मदरिया कान्२ जीवान् नम्ति ____ भय यद्यपि-उद्देशक्रमानुसारेण 'जारिस फल देई' इति चतुर्थ फलद्वार पूर्व वक्तव्य, तथापि फलस्य कर्बधीनत्वेन कर्त प्राधान्यात् , अल्परक्तव्यत्वेन भूचीफटाहन्यायाच पूर्व 'जेविय करेंति पारा पाणयह' इति प्रयमप्राणधद्वारस्य करते है जो स्वाधीन होने पर हिंसा कर्म में रत हो जाते हैं । कितनेक जीव ऐसे भी होते है कि जो हिंसक जीवों की सगति आदि के पराधिन होकर हिंसा करने लग जाते है । पशुत से ऐसे भी प्राणी है जो अपने लिये हिंमा करते है और बहुत से जोच ऐसे भी होते है कि उठते पैठते चलते फिरते रिना किसी प्रयोजन के भी जीवों की हिंसा करते है। बहुत से जीव ऐसे भी हैं कि वे चाहे स्वतत्र रहे या परतत्र रहे किसी भी स्थिति में रहे पर फिर भी हिंमा करने से नहीं चूकते हैं। कोई जीव किसी दूसरे जीव को पैर के कारण मार डालते हैं, कोई अपनी हँसी करने के कारण मार डालते हैं । ओर कोई २ ऐसे भी प्राणी है जो रति के कारण-चित्त खुशी में रहने के कारण-जीवों की हिंसा-शिकार करते हैं । इत्यादि और भी इसी तरह के कारण सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रकट किये है जो ऊपर अर्थ में कदिये है। इनके सिवाय दूसरे कारणों से भी हिंसा करते है । सू०२०॥ , अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि उद्देशक्रम के अनुसार यद्यपि "जारिस फल देह" यह चतुर्थ फलद्वार पहिले कहना चाहिये था तो હેવા છતા પણ હિંસા કર્મમાં લીન રહે છે કેટલાક જી એવા પણ હોય છે કે જે હિંસક જીની સગતિ આદિ વડે પરાધીન હોવાને કારણે હિંસા કરવા લાગે છે કેટલાક એવા પણ છવો છે કે જે સ્વાર્થ ખાતર હિંસા કરે છે, અને ઘણું જીવો એવા પણ હોય છે કે જે ઉઠતા, બેસતા, હાલતા, ચાલતા, કેઈપણ પ્રયજન વિના એની હિંસા કરે છે ઘણું જ એવા પણ હોય છે કે તેઓ સ્વતંત્ર હોય કે પરત વ્ર હોય કેઈપણ સ્થિતિમાં હોવા છતા પણ હિસા કરતા અટકતા નથી કોઈ જીવ બીજા જીને વરને કારણે મારી નાખે છે, કેઈ હસી-મજાકને ખાતર મારી નાખે છે, અને કઈ કઈ છે એવા પણ હોય છે કે જે રતિને કારણે-મનના આનદને ખાતર ની હિસા (શિકાર) કરે છે ઈત્યાદિ બીજા પણ એ જ પ્રકારના કારણે સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કર્યા છે, જે ઉપર બતાવી દેવામાં આવ્યા છે તે સિવાય બીજા ४३२थी ५ तेमा डिसा ४३ छ । सू २० ॥ वे सूत्रा२ मे १८ ४२ छ देशोना भ प्रभार ले जारिस Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण एव 'कुद्धा लुद्वा मुद्धा' क्रुद्धाः लुब्धाः मुग्धाः-क्रोधलोभमोहयन्तः प्रन्ति । 'अत्था' अर्था:-धनार्थिनः, 'धम्मा' धर्माधर्मार्थिनः-जाति कुलधर्माभिमानवन्तः 'कामा' कामाम्कामार्थिनो प्रन्ति । एष 'अत्या धम्मा फामा' अर्थ धर्मकामा र्थिनो घ्नन्ति ॥सू०२०॥ करते है, (लद्धा हणति) कितनेक ऐसे है जो केवल लोभ के यशवर्ती होकर जीवों की हिंसा करते हैं, और ( मुन्द्रा ति) कितनेक ऐसे भी हैं जो केवल मोहाधीन वृत्ति होकर जीवों की हिंसा करते है। (कुद्धा लुद्धा मुद्धा रणति) कितनेक ऐसे भी हैं जो क्रोध, लोभ, मोह इन तीनों के वशवर्ती बनकर जीवों की हिंसा करते हैं। (अत्या रणति) कितनेक ऐसे भी जीव है जो केवल धन के अर्थी होकर ही जीवों की हिंसा करते है, (धम्मा रणति ) कितनेक ऐसे भी है जो धर्मार्थी-जाति धर्म और कुलधर्म के अभिमानी होकर जीवों की हिंसा करते हैं। ( कामा रणति कितनेक ऐसे भी है जो कामार्थी इन्द्रियों के विषयों को भोगने की लालसा के वशवर्ती होकर जीवो की हिंसा करते है और (अत्याधम्मा कामा हणति ) कितनेक ऐसे भी हैं जो अर्थ, धर्म और काम, इन तीनों के वशवर्ती होकर जीवो की हिंसा करते हैं। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने हिंसा करने की विचारधारा वाले जीवों को कहा है, वे कहते है कि कितनेक जीच ऐसे भी हुओ औषमा मावान वानी डिसा ४२ छ 'लुद्धा हणति"320 34 सालने १२ धनवानी हिंसा ४२ छ, “मुद्धा हणति" 281 मेवा ५ । डाय छेउ २५० भाडधान थन वानी डिसा ४२ छ “कुद्धा लुद्धा मुद्धा हणति" मा सो सवा ५ मा अध सोम, भाड़ में अपने वश ५४२ वानी डिसा ४२ छ "अत्था हणति" सा वा ५] छाछ २ धन भाटे वानी डिसा २ छ “धम्मा हणति" 32લાક એવા પણ છે છે કે જે ધર્માર્થે–જાતિધર્મ અને કુળધર્મના અભિમાનને २३ रानी हिंसा ४२ छ “कामा हणति" टस सेवा प वा डाय છે કે જે કામાર્થે ઇન્દ્રિયોની વિષય લાલસાને વશ થઈને જીવનો હિંસા કરે ॐ भने “अत्था धम्मा कामा हणति" सा सपा ५५ ७ सय छ । જે અર્થ, ધર્મ અને કામ, એ ત્રણને વશ થઈને જીની હિંસા કરે છે ભાવાર્થઆ સૂત્રમાં સૂત્રકારે હિંસા કરવાની વિચારધારાવાળા જીવે બતાવ્યા છે તેઓ કહે છે કે કેટલાક જી એવા પણ હોય છે કે જે બીન Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुशिनी टीका म० १ सू० २१ मन्दयुद्धिया कान् जीयान् प्नन्ति ? ८५ 'वाहा' व्याधा' मृगपातकाः, 'करकम्मा' कूरकर्माण' - दुष्टकर्मकारिणः, 'चाउरिया' गागुरिकाम्यागुरा-मृगनयन तया चन्ति ये ते नागरिका:भालेन मृगान्धकाः, ' दीविय-चमणप्पभोग-तप्पगलजाल-चीरलगायसदन्म ग्गुरा-फूड छलिया हत्या' दीपिक पन्धनप्रयोगतत्मगलजाल-चीरलगायसीदर्भया पुरा कूटछेलिशहस्ता-'दीरिय' दीपिका-व्याधम्य कृनिमा हरिणी या मृगाकर्पणा स्याप्यते 'पणप्पओग' बन्धनप्रयोगा-मृगादि बन्धनोपकरण, 'तप्प' तप्तः मत्स्यग्रहणी-घुनीका, 'गल' पडिश-मत्स्यवेधन कण्टक इत्यर्थः, 'जाल' प्रसिद्ध, वाले मनुष्य, (मन्व्यधा) मत्स्यपा-मलियो को मारने वाले धीवर (साउणिया) शानिक-पक्षियों की शिकार करने वाले चीड़ीमार, (वाहा) न्याध-मृग की शिकार करने वाले बहेलियाजन, (कृरकम्मा) क्रूर कर्मा-दुष्टकर्म करने वाले मनुष्य, (वाउरिया) बागुरिका-जाल से मृग को पाने वाले चाधरी लोग, (दीरिय-धणप्पओगतप्प-गल-जोल चीरहगा यस दाभ-वरगुरा-कृडलिया हत्था) दीपिका-व्याध द्वारा मृगों को लुभाने के लिये बनाई गई कृत्रिम हरिणी, वधन प्रयोगमृगादि जीवों को बांधने के उपकरण, सप्र मडली पकडकर जिसमें धीवर रग्वते जाते है ऐसी टोकरी, अथवा मगली जिस पर बैठकर पकड़ी जाती है ऐसी लघु नौका, गल-बडिश, यशी जिसके अग्रभाग में आटा या जीर का कलेवर आदि लगाकर मच्छीमार उसे पानी में डाल देते है मउली जैसे ही उसे खोती है तो उसका यह नुकीला अग्रभाग उसके कठ में विध जाता है, यम मच्छीमार फिर डोरे से बंधी फरकम्मावाउरिया” “सोयरिया"सी२ि४-सुवरना ना२ ४२॥२॥ मनुष्यो,“मच्च्चधा" भत्स्यपध-मालियान भाना२ माछीभात, “ साउणिया " शनि-पक्षीमान (२.२ ४२ना२ पा२धियो “वाहा" व्याघ-भृगना शिक्ष२ ४२२ शिमो , " फरकम्मा" १२ -दुष्ट भ ५२ना। मनुष्यो, “वाउरिया" पारि मा भृगने भावना पारी साडी, “ दीविय, बधणप्पओगे तप्प, डाल, जाल, चौरल्लगा-यस, दम' वगुरो, कृडछलिया हत्था" दीपिा-व्याध द्वारा મૃગેને લલચાવવાને માટે બનાવેલી કૃત્રિમ હરિગી, બ ધનપ્રાગ–મૃગાદિ અને બાધવાના સાધન, તપ્ર-મછલીને પકડીને માછીમાર જેમા મૂકે છે તે ટેપલી, અથવા જેમાં બેસીને માછલા પડવામાં આવે છે તે નાની નૌકા, ગલ-બડિશ, બરી–જેના અગ્રભાગ પર લેટની તક કે અળસિયા આદિ જીના કલેવર લગાડીને માછીમારે તેને પાણીમાં નાખે છે, માછલી જેવુ તે ખાવા જાય છે કે તખ્તજ તેને અણુદાર અગ્રભાગ તેના કઠમાં પરોવાઈ જાય છે प्र० ११ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनध्याकरणसूत्रे पञ्चममुपद्वारमाह- 'कयरेते' इत्यादि । मूलम् - कयरे ते ? जे ते सोयरिया मच्छवंधा साउणिय वाहा कूरकम्मा वाउरिया दीविय बघणप्पओग तप्पगल-जाल-वीरलगाय सदव्भ वग्गुरा-कूडछलियाहत्था हरिएसा उणिया यविदंस गपासहत्था वणचरगा लुद्धगा महुधाया पोयघाया एणीयारा पणीयारा सरदह दीहिय-तलाग-पल्लग - परिगालण-मलण सोतबंधण सलिलासय सोसगा विसगरस्स य दायगा उत्तणवलरवग्गिणिदयपलीवका कूरकम्मकारी ॥ सू० २९ ॥ टीका- 'कपरे ते' कतरे ते प्राणाधकर्तारः ? इति मने सत्युत्तरमाह - 'सोयरिया' इत्यादि - 'जे ते' ये ते 'सोयरिया' सौकरिका करघातकाः 'मच्छवधा' मत्स्यबन्धा = मत्स्यघातका बीवरा इत्यर्थ, 'साउनिया' शाकुनिकाः = पक्षिनधोपजीविनः, भी फलदार न कह कर जो प्रथमप्राणवध द्वार का पंचम उपहार कहा जा रहा है उसका कारण यह है कि फल, कर्त्ता के आधीन होने से पहिले कर्त्ता को प्रधानता रहती है, दूसरे कर्ता के विषय में वक्तव्य भी अल्प है तो सूची कटान्याय से पहिले " स विय करेंति पावा पाणावह इस प्रथमप्राणवध द्वार का यह पचम उपद्वार ही कहा जा रहा है " ( करे ते ' इत्यादि । ट कार्य - प्रश्न (करे ते) प्राणवध करनेवाले वे कौन २ से प्राणी हैं ? उत्तर- ( जे ते ) वे य २ है - ( सोयरिया, मच्छवधा, साउनिया वाहाकर कम्मा वाउरिया ) ( सोयरिया) सौकारिक - सुअर की शिकार करने " मा फल देह " मे थोथु इस द्वार पडेसाहेवु लेहतु हेतु, छता पशु इस द्वारनु વર્ણન ન કરતા પહેલા પ્રાણવધદ્વારનું પાચમુ ઉપદ્રાર વર્ણવવામા આવ્યુ છે, તેનુ કારણ એ છે કે ફળ, કર્તાને અધીન હોવાથી પહેલા કર્તાની પ્રધાનતા રહે છે અને ખીજુ કારણ એ છે કે કૉની ખાખતમા વક્તવ્ય કહેવાનુ પણ थोडु छे, तेथी सूथी उटान्याये पडेला " जे विय करेंति पावा पाणवह પ્રથમ પ્રાણવધ દ્વારનું આ પાચમુ ઉપદ્રાર જ વણુવવામા આવી રહ્યુ છે" कयरे ते " इत्याहि टी अर्थ - प्रश्न - " कयरे ते १ " પ્રાણવધ કરનારા તે કયા કયા પ્રાણીઓ છે ? उत्तर- "जे वे" तेसो नीचे प्रभाषे छे- “सोयरिया, मच्छत्रधा सारणिया " Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिती टीका अ० १ सू० २१ मन्दबुद्धिया कान्२ जीपान् जन्ति' ८३ मधुघाता: 'मधु' ग्रहणेन तन्मक्षिका घातकोः 'पोयघाया' पोतदाता-पक्षिशिशुहिंसकाः 'एणीयारा' एणीचारा-एणी-हरिणी चारयन्ति पालयन्ति अन्यान् मृगान् गृहीतु ये ते एणीचाराः, 'पएणीयारा' प्रेणीचाराश्च व्याधविशेपा एव । 'सरदहदीहियतलागपहलपरिंगालणमलणसोत्तपधणसलिन्नासयसोसगा ' सरोद्रह दीपिका तडाग पल्पल परिगालन मलन स्रोतोरन्धन सलिलाशयशोपका, तत्रसरसामान्यजलाशयः, Tदा अगाधनलाशयः, दीपिका-वापी, तडाग -प्रसिद्धः, पलवल-अल्पसरः, एतेपा परिगालनेन-मत्स्यादि ग्रहणार जलनिस्सारणेन, मल. नेनन्मन्यनेन, स्रोतोपन्धनेन जलपाइनिरोपेन च 'सलिलाशयान्जलाशयान् शोपयन्ति ये ते तथाभूता , पिसगरस्सय' विपगरस्य च-विप-प्रसिद, गरःसयागमनित विप, तयोः समाहारे तस्य 'टायगा' दायकाः जीवोपघातार्थ विपमधु-शहद को लेने के लिये जो मधुमक्खियों का घात कर देते है वे, (पोयघाया) पोतघातक-पक्षियों के पच्चों को मारने वाले, तथा (एणीयारा) जो मृगों को पकड़ने के अभिप्राय से मृगी-हरिणी को पालते हैं वे, तथा (पएणीयारा ) जो प्रेणीचार-व्याधविशेप होते हैं वे, तथा(सर-दह-दीहिय-तलाग-पल्लल-परिगालण-मलण-सोत्तबधण--सलिलासयसोसगा) जो सर सामान्य जलाशय, द्रह-अगाधजलाशय, दीधिका-यापी, तडाग, पल्वल-छोटाजलाशय, इनके जल को मत्स्यादि ग्रहण करने के अभिप्राय से जो निकाल देते है, तथा इनके जल का जो मन्थन-चिलोडन करते हैं, अथवा इनमे जिन स्रोतों से जल आता है उन्हें बद कर देते हैं, इस तरह से जो सलिलाशयों को सुखा देते है वे, तथा (विसगरस्स य दायगा) विप-हलाहल जहर, गर-सयोग जनित भवभाजीमोनी डिंसा ४२ छ त, “पोयघाया" पोत घात-पक्षीयोना स्याने भारना तथा- "एणीवारा"२ भृगाने ५४वाने भाटे भृगी-२०ीन पाणे छ । दी, तथा " पइणीयारा"२ पाया२- ना व्याध-डय छ ते, तथा “ सर, दह, दीहिय, तलाग, पल्लल, परिगालण, मलण, सोनबधण, सलिलासयसोसगारे सर-सामान्य नाशय हृद-मगाराशय, दीपिकापाव, तसाप, पल्लल-नानु राणाशय, पगेरेना पाशन मासा पोरे अY કરવાના હેતુથી બહાર કાઢી નાખે છે તથા તેના જળનુ ને મન્થન કરે છે અથવા તેમાં જે સ્ત્રોતો દ્વારા પાછું આવતુ હોય તે સેતેને બંધ કરી દે છે भाशते २ खोडी शयाने सूवी नाते तथा " विसगरस्स य दायगा" विष-जा २, १२-स योगनित विष मावाने भारी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m মশ্বাস 'चीरल्लग' चीरलका-श्येनाभिधो हिंसकपतिविशेषः-योऽन्यपक्षिवधार्थ पाल्यते, 'आयस' लोहनिर्मितवन्धनविशेषः, 'दम' दादर्भमयमन्धनविशेषः, 'वग्गुरा' वागुरा-पाशः, कूटछेलिका-कृटाजा, सिंहादि मलोमनाथ चित्रलेप्यादिमयी छगलिका एते हस्ते येषां ते तयाभूताः । 'हरिरमा हरिकेशा:-मातगाश्चाण्डला इत्यर्थः, 'उणिया य' कुणिका तत्सेवकाः 'पीदसगपासहत्या' पीतसरूपाशहस्ता: -वीतसका मृगपक्षिरन्धनसाधनानि, पाशान, ते हस्ते येषां ते गीतसकपाशहस्ताः, 'वणचरगा' वनचरकाफिराताः, 'लुद्धगा' लुब्धका-व्याधाः, 'महुघाया' हुई इस घशी को तान लेते है, विधी हुई मछली इसी के साथ बाहर निकल आती है और मच्छीमार इसे पकड़ लेते है। जाळ-मरलो आदि पकड़ने की एक प्रकार की जाल, चीरहक-हिंसकपक्षिविशेष यह पक्षी अन्य पक्षियों को मारने के लिये शिकारियो द्वारापाला जाता है,आयस लोह का बना हुआ वधन विशेष, दर्भ-दर्भमय यधन विशेप, वागुरापाश, कूट छलिका-बनावटी बकरी जो सिंहादि जानवरो को लुभाने के लिये बनाकर रखी जाती है, ये सब जिनके हाथो में है ऐसे प्राणी । इस सब प्राणीवध के कर्ता जानना चाहिये । तथा (हरिण्सा) हरिकेश-चाण्डाल, (उणिया) कुणिक-चाण्डाल के सेवकजन, (वीदगपासहत्था ) वीतसक-मृग एव पक्षियों के बांधने का साधन और पाश जिनके हाथ में हैं ऐसे (वणचरगा) किरात । ये भी प्राणवध के करने वाले माने गये है । (लुगा)) लुब्धक-याध, (मघाया) मधुघातकત્યાબાદ માછીમાર દેરીથી બાંધેલી તે જાળને ખેચી લે છે, તેમા ચેટી ગયેલી માછલીઓ તેની સાથે જ બહાર નીકળી આવે છે અને માછીમાર તેને પકડી से छे atm-भा७८ मा ५४पानी से प्रा२नी , चीरल्लक-मे હિંસક પક્ષીનું નામ, તે પક્ષી બીજા પક્ષીઓને મારવાને માટે શિકારીઓ વડે पाय छ आयस-बोटानु मनावे मे तनु धन, “दभ" नु तनु मधन, वागुरा-पाश, कूटछलिका-ixel N २ मिंड मा नवरीन લલચાવવા માટે બનાવીને રાખવામાં આવે છે, એ સઘળી ચીજો જેમના साथमा तपा सघा वो प्रावध ४२॥२॥ हाय छ तथा " हरिएसा" शि-या, “उणिया " गि-याना सेवी, "वींदसगपासहत्था " વીત સક-મૃગ અને પક્ષીઓને બાધવાનું એક સાધન અને પાશ જેના थिभामा “वणचरगा" शत परे प्राणु उरना। भनाय छ "लुद्धगा" सुध-व्याध, “मघाया " भY धात-भ पाने । . Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनीटीका परसु २२ जातिनिर्देशकम् मददुनिया कान्र जीवान मन्ति' ८५ 'सक' शकाफदेशोत्पन्नाः, 'जवण' याना मसिद्धाः, 'सपर' शराः शपरदेशोत्पन्ना मिल्लाः 'पन्चरपराधर्मरोऽनार्यदेशपिगेपस्तत्र भवानरा 'काय' कायाः कायदेशविशेषोद्भवाः मरुड ' मुझण्डा:-मुरुण्डदेशीयाः, 'उदाः ' अना यविशेपाः भडग' मटका भटकदेशवासिनः 'तित्तिय' वितिका:-तित्तिकदेशजाताः, 'पणिय' परणिकान्तद्देशनाताः, 'कुलपख' कुलक्षा-अनार्यदेशोड्याः, 'गोट' गौडा: गौडदेशोत्पन्नाः, 'सिंहल' सिंहला-सिंहलद्वीपोत्पन्नाः, 'पारम' पारसा: पारसदेगजाता , 'कोच'क्रौञ्चा-क्रौञ्चदेशोझ्वाः , 'अध' आन्या अन्नदेशोत्पन्नाः, 'दविक' द्राविडा-द्रविडदेशनाताः, 'विष्टल' विल्वलाः 'इमे य नवे मिलमखुजाईया' इत्यादि । टीकार्थ-(इमे य) अनुपद वक्ष्यमाण ये (पहवे) पहत से (मिलक्खु जाईया) म्लेच्छ-जातीय-अनार्य हैं । (किंते ?) वे कौन २ है उत्तर-(सफ) शक-ठाक देशवासी, (जवण) यवन-प्रसिद्ध है, (सर) शायर-शयर देशोत्पन्न भील, (कचर) पचर-पर्वर नाम के अनार्यदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (काय) काय-इस नाम के देश विशेष में जन्मे मनुष्य, (मुरुड) मुरुण्ट-मुरुण्डदेश में पैदा हुए मनुष्य, (उद) उद-इस जाति के अनार्य मनुष्य, (भडग) भटक-भटक देशनिवासी मनुष्य, (तित्तिय) तित्तिय-तित्तिक देश के मनुष्य, (पपणिय) पफणिकदेश के मनुष्य, (कुलक्ख) कुलस्ख-फुलक्षनाम के अनार्य देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (गोड) गौड इस जाति के मनुष्य, (सिंहल) सिंहल-सिंहल टीप में उत्पन्न हुए मनुष्य, (पारस) पारस-पारस देश में उत्पन्न हए पहवे मिलम्बुजाईया " त्या टी -"इमेय" नाय प्रमाणुनी "यहवे " urlust "मिलक्खु जाईया" २७ तात-मनाय छे “ किं ते ?" ते मनाय जति यी यी छ ? उत्तर-"सक" २४-शराना वासी "जपण" यवन, "सर" २५२ -मराना वतनी लास, "यचर" ०२ नामना सनाय देशना पतनीमी, "काय" मे नामना सभा मेला मनुष्य, "मुरुड" भुर-देशमा भेला atी, "उन" तिना मानाय सोडी, " भडग" M2s देशना २२वासी, "तित्तिय" तितिs देशना पतनी, "पकणिक" पनि शना खोजी, "युलक्स" सक्ष नामना सनाय देशना सोडी, "गोड" जीड नतिन all, “ सिंहल" सिंडस-सिंडसीना सो, " पारस" पारस-पारस (एन)मा भेला , Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ মহাকাল प्रयोगकर्तार इत्यर्थः । 'उत्तणवल्लरदाग्गिणिदयपलीगा' उत्तृणलरदाग्निनिर्दयप्रदीपकाः-उत्तृणाना=अधिवतणाना बनाना, बलराणा-गहनानानामरण्यक्षे त्राणा वा, दयाग्निनादानानलेन निर्दयं दयारहित यथास्यात्तथा प्रदीपका प्रज्वालकाः, 'कूरकम्मकारी' क्रूरकर्मकारिणा कठोरकर्मकर्तारः घातकाः घ्नन्ति= पाणवध कुर्वन्तीति पूर्वेण सम्पन्धः ॥१०२१॥ तानेर जातिनिर्देशपूर्वक वर्णयति-'इमेय वहवे' इत्यादि। मूलम्-इमेय वहवे मिलक्खुजाईया, के ते १, सक-जवणसवर-वब्बर-काय मरुडो-द-भडग-तित्तिय पक्कणिय-कुलक्ख-गोडसिहल-पारस कोचंध-दविल-विल्लल-पुलिद-अरोस-डोंव-पक्कण-गंध हारग-बहलिय-जल्ल-रोम-मास-वउस-मलया-चुंचुया-य चूलियगकोकणग-कणग-सेय-मेया-पण्हव मालव-महुर-आभासिय-अणक्ख चीण-लासिय-खस-खासिया नेहर-मरहट-मुट्टिअ-आरव-डोविलग कुहण-केकय-हूण-रोमग-रुरु-मरुया-चिलायविसयवासी य पावमइणो ॥ सू० २२ ॥ टीका-'इमेय' इमे च-अनुपद वक्ष्यमाणाः 'वहवे' वहवः 'मिलक्खुजाईया' म्लेच्छनातीयाः अनार्याः सन्ति । 'किं ते के ते? इत्याह-'सके ' त्यादि। विष, इन्हें जो जीवो को मारने के अभिप्राय देते है वे, तथा (उत्तणचल्लर-दवग्गि-णिय-पलीवगा) जो निर्दय होकर उत्तणो को-वर्धिततृणवाले वनों को चल्लरों को गहनवनों को अथवा अरण्य के खेतों को दावानल से जला देते हैं वे मव (करकम्मकारी) क्रूरकर्मकारी माने गये है और ऐसे प्राणी ही प्राणवध के करनेवाले होते हैं |सू०२१॥ सूत्रकार इन्ही प्राणियों को जाति निर्देश पूर्वक वर्णन करते हैंनामपान भाटेरेसा भने भरावे छ तेयो तथा ' उत्तण-बल्लर, दवगि, णिय पलीवगा" निय थईन उत्तृवाने पर्धित तृशवाय बनाने, १६રાને.-ગહન વનને, અથવા વનના ક્ષેત્રેને દાવાનળ લગાડીને સળગાવે છે તે प्रधान “कूरकम्मकारी" ₹२४ ४२ना। भानवामा मा छ भने ते ४ પ્રાણવધન કરનાર છે જે સુ ૨૧ . सा मे मोनु तिना नि:श सहित वन ४२ छ " इमेय Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुर्शिनी टीका अ० १ २० २३ के के जीया पाप पुर्यन्ति ! चिसयवासी य ' चियत विषयवासिनश्च, चिलातदेशवासिनोऽनार्याः, 'पारमइणो ' पापमतयः पापबुद्धयः सन्ति ।। सू०२२ ।।। पुनरपि केके जीपाः पाप कुन्तीति तान् दर्शयितुमाह-'जलयर' इत्यादि। मूलम्-जलयर-थलयर-सणप्फय-ओरग-खहयर-संडासतोंड-जीवोवघायजीवी सण्णी य असण्णिणो पज्जत्ते अपज्जत्ते य-असुभलेस्स परिणमे एए अण्णे य एवमाई करोति पाणाइवायकरणं । पावापावाभिगमाः पावमई पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमता तुट्टा पाव करेत्तु हुतिय बहुप्पगारं ॥ सू० २३ ॥ टीका-'जलयर-घलयर-सणफओरग-खहयर-सडासतोड जीवोपघायजाती' जल्चर स्थलचर सनखपदोरग-खचर सदशतुण्ड जीवोपघातजीविन = जलचराग्राहादय , स्थलचरा चतुप्पदाः, सनग्वपदा=नखयुक्तचरणाव्यासियवासी य ) चिलात देशवासी मनुष्य, ये सन अनार्य है ( पावमइणो) इनकी बुद्धि पापकर्म मे रत रहती है। ये जितने भी नाम के कहे हैं वे सब पापकर्म में रतमतिवाले है और ये प्राणवध के करने वाले हैं ।। मू० २२॥ अथ सूत्रकार फिर यह कहते हैं कि कौन से जीव पाप करतेहैं'जलचर थलचर' इत्यादि। टीकार्थ-(जलयर) ग्राह आदि जलचर जीव, (घलयर) चतुप्पद-गाय, भस, आदि चार पद वाले स्थलचर जीव, (सणप्फय) नखयुक्त पैरोंवाले देशवासी मनुष्य, 2 सपणी मनाय नमो छ भने “ पावमइणो" તેમની બુદ્ધિ પાપકર્મમાં લીન રહે છે આ જે જે જાતિઓ બતાવી છે તે જાતિઓના લેકે પાપકર્મમા રત-લીન મતિવાળા હોય છે અને તેઓ પ્રાણવધ કરનારા હોય છે કે સૂ ૨૨ છે હવે સૂત્રકાર ફરીથી એ બતાવે છે કે ક્યા ક્યા છે પાપ કરે છે "जलयर थलचर " या Astथ-"जलयर" भाई आसिय२ , “थलयर" यतुष्पह-आय,लेस मादि यो५॥ २थय२ वी, “ सणफय " नार युटत वाणा वाघ माह Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ प्रश्नध्याकरणसूत्रे पिल्वलदेशोद्भवाः, 'पुलिंद ' पुलिन्दा:-पुलिन्ददेशोत्पन्नाः, 'अरोस' अरोपा = अरोपदेशजा , 'डोर' डोपाडोम्मदेशोद्भवाः, 'पोकण ' पोकाणा पोकणदेश भवाः, 'गधहारग' गन्धहारका' गन्धारदेशनाताः, 'वहलिय' बहलिकाः पहलीदेशोद्भवाः, जल्ला:-रोमा मासाः 'उस' कृशाः मलयाः 'चुचुया य' चुञ्चुकाश्च, 'चूलियग' चूलिकाः 'फोकणग' कोकणकाः कणग' कनका 'सेय' सयाः 'मेया' मेदाः, 'पण्डव' पद्धवाः, 'माला' मालवाः 'महुरा' मधुराः, 'आमासिय' आभापिकाः, 'अणक्स' अनक्षाः 'वीण' चीनाः 'लासिय ' लासिकाः खसाः 'खासिय ' खासिकाः 'नेहुर' निष्ठुरा 'मरहट्ट' महाराष्ट्राः 'मुहिअ ' मौष्टिकाः, 'भारसाः ' 'डोपिलग' 'डोलिका , कुहणा केकया, णाः, रोमग' रोमकाः ' रुरु' रुरवः 'माया' मरुकाः, 'जल्लाः' इत्यारभ्य मरुकपर्यन्ताः, एतेऽपि तत्तनामक म्लेच्छदेशविशेपोद्नाः, 'चिलाय मनुष्य, (कोच) फ्रौ च-कीच देशमें उत्पन्न हुए मनुष्य, (अध) आध्रआध्रदेश मे उत्पन्न हुए मनुष्य, (दविल) द्राविड-द्राविडदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (विल्लल) बिल्वल-इस नाम के देशमें उत्पन्न हुए मनुष्य, (पुलिंद) पुलिंद-पुलिंददेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (अरोस) अरोपअरोपदेशज (डॉय) डोंच-डोम्प देशोद्भव मनुष्य, (पोकण) पोकण-पोकग नाम के देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (गध) गन्धहारक-गन्धार देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (बहलिय) यहलिय-यहली नाम के देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, इसी तरह (जल्ल) रोम, मास बकुश, मलय, चुच्चुक, लिक, कोंकणक, कनक, सेय, मेद, पहच, मालव, मधुर, आभिपक, अनक्ष, चीन, लासिक,खस, खासिक, निष्टुर, महाराष्ट्र, मौष्ठिक, आरव, डोविलक, कुणह, केकय, हण, रोमक, रुरु, और मरुक, ये सब उस उस नाम के म्लेच्च देशविदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य हैं । तथा (चिलाय काँच" होय-क्षीय राम भन्दा साडी, “ अध" माघ-मा देशमा पसासाठी, 'दविल" द्राविड-द्राविड शमा बासोओ, "विल्लल" तेनामाना हेरामा समेत , "पुलिंद" लिह-पुति शिनाखा, "अरोस" माशेष--मारोष हशमा भेला, "ढोंग" 14-महेशमा सा, "पोकण" पा४]- शनी , “गध" -धार सभा भेद हो, "वहलिय" मालिx-seी देशमा पनि थयेस सोडी, मेरी शते "जल्ल" शोभ, भास, मधुश, मध्य, युयु, ७, ४४, सय, मेह, ५७१, भासव, भ५२, मालावि, मनक्ष, यान, सासिं, मस, मासिड, निष्४२, महाराष्ट्र भौष्टि, आ२५, विस, खय, उज्य, डूप, रोम, २२, भने भर से पधात शिमा कन्भेका सा छ तथा, "चलाव वि सयवाम्रो य" थिसात Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुशिनी टीका म० १ सू० २३ के के जीवा पाप फुर्वन्ति । विसयासी य' चिलात विषयवासिनच, चिलातदेशवासिनोऽनार्याः, 'पारमइणो' पापमवया पापबुद्धयः सन्ति ।। सू०२२ ।। पुनरपि केके जीवाः पाप कुन्तीति तान् दर्शयितुमाह-'जलयर' इत्यादि। मूलम्-जलयर-थलयर-सणप्फय-ओरग-खहयर-संडासतोंड-जीवोवघायजीवी सपणी य असपिणणो पनत्ते अपज्जत्ते य-असुभलेस्स परिणमे एए अपणे य एवमाई कति पाणाईवायकरणं। पावापावाभिगमा पावमई पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमंता तुट्ठा पात्र करेत्तु हुतिय बहुप्पगारं ॥ सू० २३ ॥ ___टीका-'जलयर-थलयर-सगफओरग-खहयर-सडासतोड जीयोरघायजीवी' जलचर स्थलचर सनस्यपदोरग-रखचर सदशतुण्ड जीवोपघातजीविन:जलचराग्राहादय , स्थलचरा-चतुप्पदाः, सनवपदानखयुक्तचरणाव्याविसयवासी य ) चिलात देशवासी मनुष्य, ये सब अनार्य है ( पावमइणी ) इनकी बुद्धि पापकर्म में रत रहती है। ये जितने भी नाम के कहे हैं वे सब पापकर्म में रतमतिचाले है और ये प्राणवध के करने वाले हैं । मु० २२॥ , अब सूत्रकार फिर यह कहते हैं कि कौन से जीव पाप करतेहैं'जलचर थलचर' इत्यादि। टीकार्थ-(जलयर) ग्राह आदि जलचर जीव, (धलयर) चतुप्पद-गाय, मस, आदि चार पद वाले स्थलचर जीव, (सणप्फय) नरसयुक्त पैरोंवाले शवामी मनुष्य, स सधणी अनार्य अनमो छ सन " पावमइणो" તેમની બુદ્ધિ પાપકર્મમાં લીન રહે છે આ જે જે જાતિઓ બતાવી છે તે જાતિઓના લેકે પાપકર્મમ રત–લીન મતિવાળા હોય છે અને તેઓ પ્રાણવધ કરનારા હોય છે સુ ૨૨ છે હવે સૂત્રકાર ફરીથી એ બતાવે છે કે કયા કયા જી પાપ કરે છે "जल्यर थलचर " त्यादि साथ-"जलयर" भाई साहय२१, "थलयर" यतु०५४-गाय,लेस माह या स्थणय२४ा, "सणप्फय" ना२ युटत पण वाघमा chunmun Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभम्याकरण पिल्वलदेशोद्भवाः, 'पुलिंद' पुलिन्दा:-पुलिन्ददेशोत्पन्नाः, 'अरोस' अरोपा = अरोपदेशना , 'डोर' डोग डोपदेशोगाः, 'पोषण' पोकणा पोकणदेश भवाः, 'गधहारग' गन्धदारका गन्धारदेशजाताः, 'पहलिय' वहलिकाः पहलीदेशोयाः, जल्ला:-रोमा मासाः 'उस' शाः मलयाः 'चुचुया य' चुञ्चुकाश्च, 'चूलियग' चूलिकाः ‘फोरणग' कोकणकाः 'कणग' कनका 'सेय' सयाः ' मेया' मेदाः, 'पण्डव' पद्धवाः, 'माला' मालवाः 'महुरा' मधुराः, 'आमासिय' आमापिका:, 'अणक्स' अनक्षाः वीण' चीनाः 'लासिय' लासिकाः खसाः 'खामिय' खासिकाः 'नेहर' निष्ठुरा 'मरहट्ट' महाराष्ट्राः 'मुहिअ ' मौष्टिकाः, 'भासाः ' 'डोपिलग' 'डोपिलका , कुहणा केकया, हणाः, 'रोमग रोमकाः 'रुरुरुरवः 'माया' मरुकाः, 'जल्लाः" इत्यारभ्य मरुकपर्यन्ताः, एतेऽपि तत्तन्नामा म्लेच्छदेशविशेपोगनाः, 'चिलाय मनुष्य, (कोच) फ्रौ च-क्रौच देशमें उत्पन्न हुए मनुष्य, (अध) आधआध्रदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (दविल) द्राविड-द्राविडदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (विल्लल) पिल्वल-इस नाम के देशमें उत्पन्न हा मनुष्य, (पुलिंद) पुलिंद-पुलिंददेश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (अरोस) अरोषअरोपदेशज (डोब) डोंग-डोम्प देशोद्भव मनुष्य, (पोकण) पोकण-पोकण नाम के देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (गध) गन्धहारक-गन्धार देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, (बहलिय) यहलिय-वहली नाम के देश में उत्पन्न हुए मनुष्य, इसी तरह (जल्ल) रोम, मास बकुश, मलय, चुच्चुक, लिक, कोंकणक, कनक, सेय, मेद, पह्नव, मालव, मधुर, आभिषक, अनक्ष, चीन, लासिक खस, खासिक, निष्टुर, महाराष्ट्र, मौष्ठिक, आरव, डोविलक, कुणह, केकय, हूण, रोमक, रुरु, और मरुक, ये सब उस उस नाम के म्लेच्च देशविदेश में उत्पन्न हुए मनुष्य हैं । तथा (चिलाय काँच"डीय-धीय देशमा समेत al, “अध" -माघ देशमा मसाला, 'दविल" द्राविड-द्राविड हेशमा सन्साली, "विल्लल" मिस तनामना देशमा भन्दा की, "पुलिंद" पुलि-पुति शिना खाली, "अरोस" भाराष-भाष देशमा सन्ता , "डोंब" 3-3म शमा मेला, "पोकण" - शना ali, "गध" -आधार देशमा कन्भेसा al, "बहलिय" पति-पडसी शमा पन थयेट खोजी, मेक शत "जल्ल" शम, भास, श, मलय, युयु, ७४, 35, सय, मेह, ५७१, भासव, मधुर, मामापि, मनक्ष, थान, सास, सस, मासिड, निहुर, महाराष्ट्र મણિક, આરબ, ડેવિલક, કુહણ, કેય, હુણ, રોમક, રુરુ, અને મરક તે બધા તે देशमा सभेवा सो छ तया, “चिलाव विं सयवासी य" थिसात Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका १० १ ० २३ के के जीया पाप कुर्वन्ति । विसयवामी य' विटात विषयवासिनथ, चिलातदेशवासिनोऽनार्याः, 'पारमइणो' पापमवया पापबुद्धयः सन्ति ।। सू०२२ ।। पुनरपि केके जीवाः पाप कुर्वन्तीति तान् दर्शयितुमाह-'जलयर' इत्यादि। मूलम्-जलयर-थलयर-सणप्फय-ओरग-खहयर-संडासतोंड-जीवोवघायजीवी सण्णी य असणिणो पजत्ते अपज्जत्ते य-असुभलेस्स परिणमे एए अण्णे य एवमाई करोति पाणाईवायकरणं। पावापावाभिगमा पावमई पावरुई पाणवहकयरई पाणवहरूवाणुट्टाणा पाणवहकहासु अभिरमता तुट्टा पाव फरेत हुतिय वहुप्पगार ॥ सू० २३ ॥ टीका-'जलयर-थल्यर-सगफओरग-खहयर-सडासतोड जोनोरघाय. जीवी ' जल्चर स्थलचर सनग्वपदोरग-खचर सदशतुण्ड जीगोपघातजीविनः= जलचराग्राहादय, स्थलचरा-चतुप्पदाः, सनग्वपदा-नखयुक्तचरणाव्याविसयवासी य) चिलात देशवासी मनुष्य, ये सर अनार्य है ( पावमइणी) इनकी बुद्धि पापकर्म में रत रहती है। ये जितने भी नाम के कहे हैं वे सब पापकर्म में रतमतिघाले है और ये प्राणवध के करने वाले हैं । सू० २२॥ , अब सूत्रकार फिर यह कहते हैं कि कौन२ से जीव पाप करतेहैं'जलचर थलचर' इत्यादि । , टीकार्थ-(जलयर) ग्राह आदि जलचर जीव, (धलयर) चतुप्पद-गाय, मस, आदि चार पद वाले स्थलचर जीव, (सणप्फय) नसयुक्त पैरोंवाले शवासी मनुष्य, से सनी मनाय नमो छ भने "पावमइणो" 1મની બુદ્ધિ પાપકર્મમાં લીન રહે છે આ જે જે જાતિઓ બતાવી છે 1 જાતિઓના લેક પાપકર્મમા રત-લીન મતિવાળા હોય છે અને તેઓ પ્રાણવધ કરનારા હોય છે . સ ૨૨ હવે સૂત્રકાર ફરીથી એ બતાવે છે કે ક્યા ક્યા જી પાપ કરે છે "जलयर थलचर " त्यादि सार्थ-"जलयर" भाई मानिसय२0१, "थलयर" यतुपह-गाय,लस माह यो५॥ थिय२ ला, “सणफय" ना२ युटत ५२वा वाघ माह Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नण्याकरणसूत्रे घ्रादयः, उरगा: सर्पा, खचराः-पक्षिणः श्येनादय , सदशतुण्डा सदशमिव तुण्डो येपा ते सर्दशतुण्डा दूकदादि पक्षिण , एपा द्वन्द्वस्ततः ते च ते 'जीवो पघातेन-जीवहिंसया जीवन्ति - इति, जीवोपचातजीनियति तथोक्ताः । 'सपणीय ' सज्ञिनश्च 'असणिणो' असशिन 'पज्जत्त अपज्जत्ते य' पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च सर्वे जीवा-पर्याप्ता अपर्याप्तावेति द्विविधा भवन्ति तत्र पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः पर्याप्तनामकर्मोदयात् पर्याप्तियुक्ता जीवाः, ते द्विविधा लब्धिपर्याप्ताः, करणपर्याप्ताथ । ये सर्मा अपि पर्याप्तीः पूरयित्वा नियन्ते न ततः माक् ते लब्धिपर्याप्ताः, ये पुनः शरीरेन्द्रियादोनि करणानि व्याघ आदि जीव (ओरग ) उरग-छाती के सहारे चलने वाले सांप, (खयर) श्यन आदि पक्षी खेचर जीव (सदसतोंड) सदश-सडासी के जसे मुखपाले ढक कक आदि पक्षी (जीयोवधायजीवी) ये सब जीवों की हिंसा करके अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं। तथा (सण्णीय) जिनके मन है ऐसे सज्ञी पचेन्द्रिय जीच और (असणिणो) जिनके मन नहीं है ऐसे असनी पचेन्द्रिय जीव, ये सब पाप करके प्रसन होते है । जलचर से लेकर असज्ञी पर्यन्त के जितने भी जीव है सब (पज्जत्ते अपज्जत्ते य) पर्याप्त और अपर्याप्त होते हे । पर्याप्त नामकर्म के उदय से जिनकी अपनी योग्य पर्याप्तियां पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्त जीव है, और जिनकी पर्यासिया पूर्ण नहीं होती है वे अपर्याप्त जीव हैं । ये पर्याप्त जीव लन्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त के भेद से दो प्राकार के होते है । जो समस्त पर्याप्तियों को पूरण करके ही मरते है यो, “ ओरग" ७२1-बेटे न साप, “खहयर " म मानिस २२ पक्षी, "सदसतोड " सश-सा सीना का भुभवाय ८३, ४४ PALE पक्षीमा "जीवोवधाय जीवी से पधा यानी हिंसा :शन घाताना वन निड ४२॥२ वा छे तथा " सण्णीय" भने मन छ अवा मज्ञी ५ये द्रय ७१, मन " असणिण्णो" भन भन नथी से २५सज्ञी ५न्द्रय જીવ, એ બધા પાપ કરીને પ્રસન્ન થાય છે જળચરથી લઈને અસક્સી સુધીના सारेटसा 4 छे ते आधा पज्जते अपजत्ते य” पर्याप्त भने अति હોય છે પર્યાપ્ત નામકર્મના ઉદયથી જેમની પિત પિતાની યેગ્ય પર્યાપ્ત પૂર્ણ થઈ જાય છે તેમને પર્યાપ્ત જી કહે છે અને જેમની પર્યામિ પૂર્ણ થતી નથી તે જીને અપર્યાપ્ત છો કહે છે પર્યાપ્ત છના બે ભેદ છે (૧) લબ્ધિ પ્રયણ (૨) કરણપર્યાપ્ત જે જે સમસ્ત પર્યાયેિ પૂરી કરીને Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुदर्शिनी टीफा अ० १ २० २३ के के जीया पाप पुर्षन्ति ? नितितान्तस्ते करणपर्याप्ताः । तदितरे-अपर्याप्ताः । ' अमुभलेस्सपरिणामे' अशुमलेश्य परिणामा: अशुभलेश्या: सक्लिष्टलेश्यायुक्ताः परिणामा: अध्यवसाया चेपां ते, एते पूर्वोक्ताः । अण्णे य ' अन्ये च अन्येऽपि 'एबमाई । एवमादयः पताशा माणिनः, 'पाणा पायरण' माणातिपातरण-माणातिपातानुष्ठान 'फरेंति 'कन्ति, पुनरपि तदेवाह-'पापा' इत्यादि-'पात्रा' पापा:=पापकर्मतत्पराः, 'पाराभिगमा' पापाभिगमा: पापमेअभिगमः स्वीगरो येपा ते तथा 'पापमई 'पापमतया पापबुद्धयः, 'पावई' पापरुचया पापे एव रुचि-नुरागो येपाते तथा, 'पाणवहायरई' प्राणवपकतरतया माणवघे कृता-रतिः मोतियस्ते तथा, 'पाणबदस्याण्डागा' माणवधस्पानुष्ठाना-माणवधरूपमनुष्ठान इसके परिले नरीवे लब्धिपर्याप्त जीव है ! तथा जो जीव शरीर इन्द्रिय आदि करणों की रचना को पूर्ण कर चुकते हैं ये करणपर्याप्त है। इनसे भिन्न जो जीव है वे अपर्याप्त हैं तथा (असुभलेस्सपरिणामे) जिन जीवों के अध्यवसाय-परिणाम-सक्लिष्ट लेश्यायुक्त हैं (एए' ये तथा ( अण्णे य एवमाई ) इनसे भिन्न और भी ऐसे ही प्राणी (करेंतिपाणाइवाय करण) प्राणातिपातरूप पाप के करने वाले होते हैं। इसी बात को सत्रकार "पाया" इत्यादि पदों द्वारा प्रकट करते है (पावा) जो पापकर्म करने में तत्पर है, (पावाभिगमा) पाप प्रवृत्ति ही जिन्हें स्वीकृत है, ( पावमई) जिनकी बुद्धि पापमय हो रही है, (पावरुई) पापकर्म में जिनकी रुचि अधिक से अधिक रूप में सजग रहती है, (पाणावह कयई) प्राणवध में जिन्हें आनद आता है (पाणावहरूवाणुમરે છે–તે પહેલા મરતા નથી, તેમને લબ્ધિ પર્યાપ્ત જી કહે છે તથા જે જીર શરીર ઈન્દ્રિય આદિ કરની રચના પૂર્ણ કરી નાખે છે, તે જેને કરણ પર્યાપ્ત કહે છે તેમનાથી જે ભિન્ન પ્રકારના જીપ છે તેઓ અપર્યાપ્ત છે, तथा “ असुभलेस्सपरिणामे" रे वाना मध्यवसाय-परिणाम-ससिट अश्या युध्त डाय छ " ए ए" तमो तथा “ अण्णेय एवमाई" ते सिवायन। भी ५ वा भो “फरे ति पाणाइ वायकरण " प्रायतिपात ३५ पा५ ४२ना२। य छ मेरी वातन सूत्रा२ " पाया " त्याहि पह! द्वारा प्रगट ४२ छ “पावा" २ पा५४ ४२वान तत्५२ डाय छ, “पावाभिगमा " पा५ प्रवृत्ति भो स्वीजरेसी छ" पावमई " भनी मुद्धि पापमय थई छे, " पावरई " पापभमा भनी वृत्ति पधारेभा पधारे लगृत २ छ, " पाणवह कयरुई" प्राधमा भने मत मावे छ, “पाणवहरूवाणु Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्ट प्रशयाकरणसूत्रे प्रादयः, उरगा: सर्पा, खचरा:-पक्षिणः श्येनादय , सदशनुण्डारादमिवतुण्डो येपा ते सदशतुण्डा नरकड़ादि पक्षिण , एपा द्वन्द्वस्वतः ते च ते 'जीवो पघातेन-जीवहिसया जीवन्ति - इति, जीवोपधातनीग्निश्चेति तयोक्ताः । 'सणीय ' सविनश्च 'असणिणो ' असशिन 'पज्जत अपज्जत्ते य' पर्याप्ता अपर्याप्ताथ-सर्ने जीवा-पर्याप्ता अपर्याप्नाथेति द्विविधा भान्ति तत्र पर्याप्तयो विधन्ते येपो ते पर्याप्ताः पर्याप्तनामकोदयाद पर्याप्तियुक्ता जीवाः, ते द्विविधा लब्धिपर्याप्ताः, करणपर्याप्ताश्च । ये सर्वा अपि पर्याप्तीः पूरयित्वा नियन्ते न तत. मात्र ते लब्धिपर्यासाः, ये पुन• शरीरेन्द्रियादोनि करणानि व्याघ्र आदि जीव (ओरग ) उरग-जाती के सहारे चलने वाले सांप, (खयर ) श्यन आदि पक्षी खेचर जीव (सदसतोंड) सदश-सडासी के जसे मुखाले ढक कक आदि पक्षी (जीयोवधायजीवी) ये सब जीवों की हिंसा करके अपना जीवन निर्वाह करने वाले हैं ! तथा (सण्णीय) जिनके मन है ऐसे सज्ञो पचेन्द्रिय जीव ओर (असणिणो) जिनके मन नहीं है ऐसे असज्ञी पचेन्द्रिय जीव, ये सब पाप करके प्रसन्न होते हैं । जलचर से लेकर असजी पर्यन्त के जिनने भी जीव है सर (पज्जत्ते अपज्जत्ते य) पर्याप्त और अपर्याप्त होते है । पर्याप्त नामकर्म के उदय से जिनकी अपनी योग्य पर्यासियां पूर्ण हो जाती हैं घे पर्याप्त जीव है, और जिनकी पर्याप्सिया पूर्ण नही होती हैं वे अपर्याप्त जीव है । ये पर्याप्त जीव लब्धिपर्याप्त और करणपर्याप्त के भेद से दो प्राकार के होते है । जो समस्त पर्याप्तियों को पूरण करके ही मरते हैं " ओरग" ७२-पटे यानास साप, "खहयर " मा मानिस २२ पक्षी, “ सदसतोंड" सश-सा सीना ! सुपारी 3, ४ on पक्षी "जीवोवधाय जीवी" से मधा वानी डिसा उशने पाताना वन Crals ४२नार ७ छ तथा “ सण्णीय" भने मन छ वा सज्ञी ५ न्द्रिय , अने " असणिण्णो " भने भन नथी ११ असशी ५न्द्रिय જીવ, એ બધા પાપ કરીને પ્રસન્ન થાય છે જળચરથી લઈને અસ ગ્રી સુધીના 021 4 छे ते या " पञ्जते अपजत्ते य" यति भने पति કાય છે પર્યાપ્ત નામકર્મને ઉદયથી જેમની પોત પોતાની પેગ્ય પર્યાસિયા પૂર્ણ થઈ જાય છે તેમને પર્યાપ્ત જીવો કહે છે અને જેમની પર્યામિ પૂર્ણ થતી નથી તે જીપને અપર્યાપ્ત જી કહે છે પર્યાપ્ત જીવોના બે ભેદ છે (૧) લબ્ધિ પર્યાપ્ત (૨) કરણપર્યાપ્ત જે જે સમસ્ત પતિ પૂરી કરીને Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २४ याहतकर्म तथाविधफलनिरूपणम् महोसिण सयापतत्त- दुग्गधविस्स - उब्वेयजणगेसु वीभच्छदार - सणिज्जेसु य निच्च हिमपडलसीयलेसु कालोभासेसु य भीम गंभीर लोस हरिसणेसु णिरभिरामेसु निप्पडियार वाहिरोगजरापालिएसु अईव निच्चधयारतमिस्सेसु पइभएसु ववगयगहचंद - सूर - णक्खत्त - जोइसेसु मेयवसामसपडल- पोच्चड -पूयरुहिरुक्कण्ण विलीण चिक्कणरसिया चावण्णकुहिय चिक्खल्लकदमेसु कुकूलानल - पलित्तजालमुम्मुर असिक्खुरकरवत्तधारसु निसिय विच्छ्रयडक नियातोत्रम-फरिस अतिदुस्सहेसु य अत्ताणा असरणा कडुयदुक्खपरितावणेसु अणुवद्ध निरतरवेयणेसु जमपुरिससकुठेसु || सू० २४ ॥ " टीका- ' तस्स य पापस्स तस्य च पापस्य = प्राणवधस्वरूपस्य पाप वृक्षस्य फळ विभाग ' फलनिपाक = " माणातिपातस्य नरक निगोदादि दुःखरूप कटुफल भविष्यती "ति पापपरिणाम, 'अयणमाणा' अजानन्त पापकर्माणः 'नरकतिर्यग्योनिं वर्धयन्ति' इत्यग्रेण सम्बन्ध', वेदनामेव वर्णयति' महन्भय ' "" इस प्रकार " जे विय करेंति पावा पाणवह " यह प्रतिज्ञात पांचवां प्राणवचकर्त्तृवार कह दिया अब सूत्रकार जह य कओ जारिस फल देह " यर चतुर्थ फल द्वार कहते है - ' तस्स य पावस्स ' इत्यादि । टीकार्थ - ( य पावस) इस प्राणवधरूप पाप वृक्षका ( फलविचाग) नरक निगोद आदि दुखरूप कटुक फल भोगना होगा इस बात को ( अयाण माणा ) नही जानते हुए पापीष्ठ जीव ( नरयतिरिक्खजोणि ते प्रतिज्ञात पायभा 66 या रीते " जेविय करेंति पाना पाणवह ” પ્રાણવધ ર્ત્તદ્વારનું વિવેચન સ પૂર્ણ થયુ હવે સૂત્રકાર जह य कओ जारिस फल देइ " मा अतुर्थ इसहारनु विवेशन दरे छे " तस्स य पावस्स "त्याहि अर्थ" -- तरस य पानस्स" मा प्राशुवधश्य पापवृक्षनु “ फलविवाग" न२४ નિગેાદ આદિત્તુ ખરૂપ કડવુ ફળ ભોગવવું પડશે, તે વાતને “ अयाणमाणा " Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्य येषा ते तथा, 'पाणनहकहासु , प्राणधया=माणिहिसावार्तासु अभिरमता । अभिरमतः प्रसीदन्त सन्तस्ते नहुष्पगार ' बहुमकार नानाविधं 'पाव' पाप' करेंतु ' कृत्या 'तुट्टा' तुष्टाः = प्रगन्ना 'हुति' मयन्ति ||० २३|| पूर्व ' जेविय करेंति पात्रापाणवह इति प्रतिज्ञात पञ्चम प्राणवधकर्तुद्वारं निरूपित, सम्मति ' जदयकओ जारिस- फल देह यथा च कृतः प्राणवधो यादृश फल ददाति इति चतुर्थ फलद्वार प्रतिपादयन्नाह - ' वस्से ' इत्यादि । " प्रश्नव्याकरणसूत्रे " मूलम् - तस्स य पावस्स फलविवाग अयाणमाणावति महम्भयं अविस्सामवेयण दीहकालबहुदुक्खसंकड नरयतिरिक्खजोणिं । इओ आउक्खए चुया असुभकम्मबहुला उववजंति नरपसु हुलिय महालएसु वयरामय कुड्ड - रुदनिस्सधि-दार विरहिय - निम्मद्दव भूमितल-खरामरिस-विसमणि रयघर चारएसुं हाणा ) प्राणवरूप कार्य करना ही जिनका एक अनुष्ठान है और ( पाणावह कहासु अभिरमता ) प्राणियों की हिंसात्मक वार्ताओं में जिन्हें रस मिलता है, ऐसे जीव (पगार) नानाविध (पाव करेनु ) पाप करके ( तुट्ठा) सतुष्ट (हुति ) होते हैं । भावार्थ - जलचर, थलचर आदि जितने भी तिर्यच हैं, एव पक्षी आदि जितने भी खेचर जीव है चाहे वे सज्ञी हो चाहे असजी हो पर्याप्त हो चाहे अपर्याप्त हो यदि ये जीव घात करके अपना निर्वाह करते हैं तो पापी है - पापकर्म मे रत है । जिन जीवो के परिणामों में अशुभलेश्या वर्तती रहती है, जो पापमय कृत्यों में आनन्द मानते हैं इत्यादि प्रकार के जीव भी पापी और पापकर्म रत है ॥ सु. २३ ॥ " ठाणा પ્રાણવધનુ કાર્ય જ જેમનુ એક અનુષ્ઠાન છે, અને “ पाणवहकहासु अभिरम ता " आलीयोनी डिसात्मक वार्तायोमा भने रम पडे छे, मेवा જીવા बहुप्पगार " विविध " पावकरेत्तु " पाये अने ፡ 62 'हुति " पामे छे "" तुट्ठा સતેષ ભાવા—જળચર, સ્થળચર આદિ જે જે તિ ચ છે, અને પક્ષી આદિ જેટલા ખેચર (નભચર) જીવે છે. તેઓ સજ્ઞી હાય કે અસન્ની હોય, પર્યાપ્ત હાય કે અપર્યાસ હાય પણ જો તેઓ જીવાની હત્યા કરીને પોતાના નિર્વાહ ચલાવતા હાય તેા તેઓ પાપી છે-પાપક્રમ મા રત છે જે જીવાના પરિણા— મામા અશુભલેસ્યા પ્રવતિ હેાય છે જેઓ પાપમય કૃત્યામા આનદ માનતા હાય તે, ઈત્યાદિ પ્રકારના જીવા પણ પાપી અને પાપકમ મા રત હોય છે।સૂ ૨૩ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदर्शिनी टीका अ० १२३ सू० यातकर्म तथाविधफलनिरूपणम् १६ रत्नप्रभादिपु 'हुलिय' शीघ्रम् ' उवाज्जति ' उत्पधन्ते । कयम्भूतेषु नरकेपु ?इत्याह---' महालएसु' महालयेपु-क्षेत्रस्थितिभ्या महत्सु 'वयरामयकुहरुद निस्संधिदारविरहियनिम्मरभूमितलखरामरिसरिसमणिरयघरचारएमु पञमयकु. डय-रुन्द्र-निस्सन्धिद्वारविरहितनिर्दिभूमितलग्वराऽमर्शविपमनरकघरचारकेषु चत्रमयकुडयानिधनभित्तयः, रुन्दाः-विस्तीर्णाः, देशी-शब्दोऽयम् , पिस्तोर्णपाचकः निस्सन्धयः सन्धिरहिताः, द्वारविरहिताः गमनागमनद्वारवनिता , निर्मादभूमितला:-कठोरतरभूमिभागाः, तथा ग्वराम कठिनस्पर्शा', पिमाः उच्चा चा , नरकगृहा-नरकवासा एव चारका मन्दिगृहाः येषु नरकेपु ते तथा तेपु, "महोसिण-सयापतत्त-दुग्गन्ध-विस्म-उपेयजणगेसु' महोप्णसदाप्रतप्त-दुर्गध (असुभ कम्मरहुला) प्राणीवधजन्य पकर्म के भार से अत्यत दवे हुए होकर (नरएस्सु ) रत्नप्रभा आदि पृथियों में (हुलिय) शीघ्र ही (उचवजति ) उत्पन्न हो जाते है । ये नरक (महालयेसु) क्षेत्र तथा स्थिति की अपेक्षा महान् हैं तथा ( वयरायमकुड्गुरु दनिस्सधिदारविरहिय निम्मदव भूमितल खरामरिसविसमणिरयघरचारएसु) (निरयघरचारएसु) नरकावासरूपचन्दिगृह (वयरामयकुड) वनभित्तिवाले है। (रुद ) अत्यत विस्तृत है (निस्सधि ) सन्धि रहित है। (दारविरहिय) गमनागमन के साधनभूत द्वार से हीन और (निम्मध्व) मृदुता रहित (खरामरिस ) कठोरतर (विसम) ऊंचे नीचे भूमिभागवाले है । (महोसिण सयापतत्त-दुग्गधविस्स-उब्वेयजणगेसु) (महोसिण) इनमें सदा उप्णजन्य वेदना रहा करती है । (सयापतत्त) ये निरन्तर तापसे व्याप्त ७१ मनुष्य समाथी भरी " असुभ कम्मबहुला " प्रायने १२णे अत्पन्न ययेा पापभाना सारथी मत्यात मायेस सवा ते । “ नरपसु" २४ प्रभा मा पृथ्वीमोभा 'हुलिय" तरत " उववज्जति" अपन तय छे ते न२४ " महालयेसु" क्षेत्र मने स्थितिनी अपेक्षा महान छ तथा "वयरामय कुडु रुद निस्सधिदार विरहिय निम्मदव भूमितल सरामरिसविसम णिरयधर चारएसु" "निरयधरचारएमु” न२वास३५ मन्थि " वयरामय फुड" पनी हिवासोवा छ, 'रुद" सत्यत विस्तृत छ, “निस्सधि" सन्धिरखित छ ' दारविरहिय" म१२ ४५२ भाटेना द्वाराथी •डित छ, भने "निम्मदव " भृताथी २हित “सरामरिस" अठोरमा २ " विसम" GI नीय भूमि son छे "महोसिण सयापतत्त-दुग्गधविस्स-उव्वेयजणगेसु" " महोसिण" तभी साता अन्य वना २६ ४२ छ, 'सयापतत्त" Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणस्ने इत्यादि- महब्भय' महाभया 'अविस्सामवेयण' अविनामवेदना प्रतिसमयमनुभूयमानाऽशातवेदना, 'दीहकालबहुदुरखसकड' दीर्घालबहुदु'खसकटा%3D दीर्घकालमभिव्याप्यवर्तमानः बहुभिर्नानाविधै शारीरमानसर्दुखैः सम्टा-सकुला, तादृशीं 'नरयतिरक्खजोणि ' नरकतिर्यग्योनि-नरकेपु तिर्यक्षु च या योनि = उत्पत्तिस्थान ता 'बड्डति' वर्धयन्ति तासु तासु नानाविधास योनित्पूत्पद्य च महावेदनामनुभयन्तीत्यर्थ । ते प्राणवधकारकाः नरकतिर्यगादि कुयोनिषु परिभ्रमण कुर्वन्तो जन्म मरणाधविच्छिन्नपरम्परया यथा घोरातिघोरदुःखमनु भवन्ति तथोच्यते-'इओ' इत्यादि-ते माणधकारकाः 'आउक्खए' आयुः क्षये 'इओ' इता-मनुष्य भवात् 'चुया' च्युताः-गृताः सन्तः ' असुभकम्मर हुला' अशुभकर्म बहुला:-माणिवधपापकर्मपचुरा सन्तः 'नरएसु' नरकेपुवति ) भरक तिथंच योनि को बढाते है जो योनि (मत्भय) अत्यतभयप्रमद, एव (अविस्सामवेयण) प्रतिसमय अनुभूयमान अशातवेदना सम्पन्न है-तथा (दीहकाल बदुक्खसकड ) जिसमें दीर्घकालतक जीव नाना प्रकार के शारीरिक एव मानसिक दुःखो को भोगा करता है। ऐसी उस विविध शारीरिक मानसिक दुखों से सकुल नरक तिर्यच योनि को वढाते हैं। तात्पर्य इसका यह है कि जो प्राणवध करनेवाले जीव है वे उन २ नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर महान वेदना ओंका अनुभव करते रहते हैं । इस प्रकार नरक तिर्यच आदि कुयोनियों में परिभ्रमण करते हुए वे प्राणवधकारी जीव जन्म मरण आदि की अविच्छिन्न परम्परा से जिस प्रकार घोरातिघोर दुःखों को भोगते है, अब सूत्रकार इसी विषय को या स्पष्ट करते हैं (इओआउक्खए चुया) आयु के क्षय होने पर मनुष्यभव से मरकर भागवध कारक जीव योनिन वारेछ,र योनि महत्भय " अत्यत लयप्रह, मन " अविस्साम वेयण" प्रतिपणे मानुलवाती मशाना बेहनाथी युत छ, तथा “दीहकाल बहुदुक्खसकड" माही सुधी ७१ विविध प्राश्ना शारीR४ अने. માનસિક દુખેને ભગવ્યા કરે છે એવી વિવિધ શારીરિક અને માનસિક દુખેથી યુક્ત, તે નરક તિર્થં ચ એનિને તેઓ વધારે છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે પ્રાણવધ કરનાર છે ઉપરોક્ત વિવિધ ચેનિયમ ઉત્પન્ન થઈને મહાન વેદના અનુભવે છે. આ રીતે નરક તિર્થં ચ આદિ કનિમાં પરિભ્રમણ કરતા તે પ્રાણવધ કરનારા જન્મ મરણ આદિની અતૂટ પર પરા પૂર્વક જે જે પ્રકારના ભય કરમા ભય કર ૬ એ ભેગવે છે, તે વિષયનું હવે સુત્રકાર स्पष्टी२५ ४२ छ "इओ आउक्खए चुया" मायुष्यमा क्षय यता प्रापधारी Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ १ सू० २४ यातकर्म तथाविधफलनिरूपणम् ९५ मस्तरशूलादय , जरावार्धक्य च, तैः पीडितेपु-व्याप्तेपु, 'अईनिन्चधयारतमिस्सेस' पतीवनित्यान्यकारतमिस्रपु-अतीव अत्यन्त नित्यान्धकारेण तमिसेपु-धोरान्धकारस्वरूप प्राप्तेपु, अतएव 'पइभएम' प्रतिभयेषु-प्रतिवस्तुभययुक्तेपु, 'क्वगयगहचदमूरणक्खत्तजोइसेस' व्यपगतग्रहचन्द्रमूरनक्षत्रज्योतिप्केपु =ग्रहचन्द्रमूर्यनक्षत्रज्योतिप्कार्जितेपु, ' मेयासामसपडल पोच्चडपृयरुहिरुक्किण्णविलीचिक्कणरसियाावण्यकुहियचिस्मल्लकद्दमेसु । मेदोवसामासपटलपोच्चडपूयरुधिरोत्कीर्णविलीनचिक्कणरसिकव्यापनकुथित चिक्सलादमेपु-मेट: शरीरस्नेहविशेष , उसाची इति भापा, मास-प्रसिद्ध तेषां यत्पटल-रागिः 'पोच्चड गिलगिलायमान पूय= पीप' 'परू' इति प्रसिद्ध, रुधिर-शोणित तेन उत्कीर्ण च्याप्त विलीन-सभृत, चिकण-गुन्द्रवत् , 'रसिका' विकृतरुधिर व्यापन्न-विनष्टस्वरूपम् अतए-कुपित दुर्गन्धित 'चिखल ' शिथिलकर्दमः, पर्दमा धनकर्दमश्च येषु ते तथा तेषु । ' कुलानलपलित्तजालमुम्मुरअसिक्सुर अवस्था है इनकी पीडा या प्रतिकार-उपाय रहित होती है। (अईव णिचधयारतमिस्सेसु) यहां पर सर्वदा घोरातियोर अधकार रहता है । (पहभण्सु ) यहां की प्रत्येक वस्तु भय से भरपूर रहती है। (ववगय गहचदररणवखत्तजोइण्सु) न यहां पर कोई ग्रह है न कोई चन्द्र है, न सूर्य है, न नक्षत्र हैं। ( मेयवसामसपडल-पोचड-पूय-रुहिरुकिण्ण विलीण-चिकण-रसिया वावण्णकुहियचिखल्लकद्दमेसु) मेद, वसाचर्वी और मास का ढेर इन स्थानों में सदा लगा रहता है। तथा पोचड गिलगिलायमान पूय-पीर, एव रुधिर से व्याप्त, गोंद के समान चिकने भरे हुए व्यापन्न दुर्ग धित ऐसे विकृत खून, से तथा चिकने धनकर्दम से ये स्थान सदा व्याप्त रहते हैं । (कुकलानल-पलित्तनाल-मम्मुरમાથાનો દુખાવો આદિ જે રેગે છે વૃદ્ધાવસ્થા આદિ જે અવસ્થા છે, તેમની પીડાને ત્યાં કોઈ પણ ઇલાજ હોતા નથી તે પ્રતિકાર રહિત હોય छे, “अईव णिचधयारतमिरसेसु" मी डायम घारमा ३।२ २१ ५४४२ २९ छे “पइभएसु" महीनी १२ पतु लयन डाय छ " ववगयगहचदसूरणखि जोइसेसु" मी 15 ग्रह नथी, स्यन्द्र नथी, सूर्य नथी 3 नक्षत्र ५ नथा " मेयवसा मसपडल-पोचह-पूय-रुहि रुण्णि -विलीण-चिकण, रसियावावण्णकुहिय चिखल्लकद्दमेसु" मेह, पसा यी अने भासना सा ते स्थानामा सो પડેલા હોય છે તથા પિચ્ચડ–કિચ્ચડ અને પૂર પીબ તથા રક્તથી વ્યાપ્ત, ગુ દરના જેવા ચીકણ, ભરેલા દુર્ગ ધમય વિકૃત લેહીથી, તથા ચીકણા કાદવથી ते स्थान। सहा ७वाये २७ “कुकूलानल-पलित्तजाल-मम्मुर-असिक्खुर Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरसूने -विश्रोद्वेगजनकेषु तत्र महोप्णाः अत्यन्तोष्णाः, सदा मतप्ताम् निरन्तरतापयुक्ताः, दुर्गन्धा =अनिष्टगन्धयुक्ताः, विश्रा अपयरमासात्पूर्विगन्धाः, अतए-उद्वेगजनका-उद्वेगोत्पादकाः, तेषु 'बीभच्छदरिसणिज्जेसु' बीभत्सदर्शनीयेपु-धृणितदर्शनेपु 'निच्च' नित्य 'हिमपडल्सीयलेसु' हिमपटलशीतलेपु-हिमपटल मिव शीतला ये ते तथा तेषु 'कालोभासेमु' कालायभासेपु, काला-श्यामलोऽत्रभासः कान्तिपेपा ते तथा तेपु कृष्णवर्णेषु 'भीमगमोरलोमहरिसणेमु' भीमग म्भीरलोमहर्पणेपु-तत्र,भीमा:=भयजनका गभीराः-अतलस्पर्शा अतएव कोमहर्षणा रोमाञ्चकारिणस्तेपु-तत्स्वरूपश्रयणमात्रेण-रोमाञ्चोत्पादकेपु ‘णिरभिरामेसु ' निरभिरामेपु = अशोभनेपु 'निप्पडियारवाहिरोगजरापीलिएस' निप्पतिकार व्याधिरोगजरापीडितेपु-निष्पतिकारा प्रतिकाररहिता व्याधया कुष्ठादयः रोगा रहते हैं । (दुग्गध विस्सउन्वेयजणगेसु) अनिष्टतर दुर्गध से भरपूर रहते है। विस्र-कच्चेमास के जैसी यहा सदा दुर्गंध आती रहती है, इसलिये नारकियो को ये सदा उद्वेग के उत्पादक होते रहते है। (बीभ च्छदरिसणिजेसु य) देखने में ये बड़े असुहावने घृणित प्रतीत होते है । (निच्च हिमपडलसीयलेसु) सदा ये हीमपटल के जैसे शीतल होते हैं (कालोभासेसु) इनकी काति काली होती है। (भीमगभीरलोमहरिसणेसु) इन नरकावासों मे जीव को सदा भय ही भय रहता है। ये आवास कितने गहरे है इनका पता नही पड़ता है । इनके स्वरूप श्रवण मात्र से ही जीवों के शरीर में रोमाच खडे हो आते है। (णिरभिरामेसु) ये सब अशोभन हैं। (निप्पडियार पाहिरोगजरापीलिएसु) यहा की जो कुष्ठ आदि व्याधिया है, मस्तकशूल आदि जो रोग हैं,वार्धक्य जो तेसा नि२२ तथा व्यास ४२ , “दुग्गधविस्सउव्वेयजणगेसु" सौथी ખરાબ દુર્ગધથી ભરપૂર રહે છે વિસ-કાચા માસના જેવી દુર્ગધ ત્યા સદા આવ્યા કરે છે, તેથી નારકીઓને તેઓ સદા સતષ પિદા કરનારા હોય છે बीभच्छ दरिसणिज्जेसु य" नेपामा ते घn १ मेडा-! थाय तवा डाय “निच्च हिमपडलमीयलेसु" ते सहा मिना थ। नेपाशीत डाय कालो भासेसु" तेया मावे खाय छे “ भीमगभीरलोमहरिसणेस" તે નરકવાસોમાં જીવેને સદા ભય જ રહે છે તે આવા કેટલા ઊંડા છે તેની ખબર પડતી નથી તેના સ્વરૂપનું વર્ણન સાભળતાજ જીવેના શરીરના शोभाय GHt Ram छ “णिरभिरामेसु" ते १ मा बिना "निप्पडियारबाहिरोगजरापालिएसु" मानी 30s मा २ व्याधिय। .. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सु-शिंनी टीका अ १ सू० ५४ याटफरतकर्म तथाविधफलनिरूपणम् ९५ मस्तकशूलादय , जरा-वार्धक्य च, तेः पीडितेपु-व्याप्तेपु, 'अईपनिन्चधयारतमिस्सेस ' अतीवनित्यान्धकारतमिस्रपु=अतीय-अत्यन्त नित्यान्धकारेण तमि पु-घोरान्धकारस्वरूप प्राप्तेपु, अतएव 'पइभएम' प्रतिभयेपु-प्रतिवस्तुभययुक्तेपु, ‘ववगयगहचदमूरणक्खत्तजोइसेसु' व्यपगतग्रहचन्द्रसूरनक्षत्रज्योतिप्केषु =ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिप्कार्जितेपु, ' मेयरसामसपडल पोच्चडपूयरुहिरुक्किण्णरिलीणचिक्कणरसियारायण्णकुहियचिक्सल्लकदमेसु ' मेदोवसामासपटलपोन्चडपूयरुधिरोत्कीर्णविलीनचिक्कणरसिस्न्यापनकुथिवचिक्सलार्दमेपु-मेटः शरीरस्नेहविशेप , वसाची इति भाषा, मास-प्रसिद्ध तेपां यत्पटल-राशि: 'पोच्चड' गिलगिलायमान पूय= पीप' 'परू' इति प्रसिद्ध, रघिर-शोणित तेन उत्कीण व्याप्त विलीन-सभृत, चिकण-गुन्द्रवत् , 'रसिका' विकृतरुधिर व्यापन्न-निनष्टस्वरूपम् अतएप-शुयित-दुर्गन्धित 'चिक्खल ' शिथिलकर्दमः, पदमा धनकर्दमश्च येपु ते तथा तेषु । ' कुलानलपलित्तजालमुम्मुरअसिक्सुर अवस्था है इनकी पीडा यहा प्रतिकार-उपाय रहित होती है। (अईव णिचधयारतमिस्सेसु) यहा पर सर्वदा घोरातिघोर अधकार रहता है । (पहभएसु) यहाँ की प्रत्येक वस्तु भय से भरपूर रहती है। (ववगय गहचदम्ररणवसत्तजोइण्सु) न यहां पर कोई ग्रह हैं न कोई चन्द्र है, न सूर्य है, न नक्षत्र हैं। ( मेयवसामसपडल-पोच्चड-पूय-रुहिरुक्षिण्ण विलीण-चिक्कण-रसिया वावण्णकुहियचिखल्लकद्दमेसु) मेद, वसाचर्वी और मास का ढेर इन स्थानों में सदा लगा रहता है। तथा पोचड गिलगिलायमान पूय-पीय, एव रुधिर से व्याप्त, गोंद के समान चिकने भरे हुए व्यापन्न दुर्ग धित ऐसे विकृत खून, से तथा चिकने घनकर्दम से ये स्थान सदा व्याप्त रहते हैं । (कुकलानल-पलित्तजाल-मम्मुरમાથાનો દુખાવો આદિ જે રેગ છે વૃદ્ધાવસ્થા આદિ જે અવરથા છે, તેમની પીડાને ત્યાં કઈ પણ ઇલાજ હોતું નથી તે પ્રતિકાર રહિત હોય छे, “अईव णिचधयारतमिरसेसु" मही यम घारमा घार म ५४२ २ छ “पइभएसु" मडानी १२ पस्तुलयन डाय छ “ववगयगहचदसूरणक्स जोइसेसु" मी अड नथी, यन्द्र नथी, सूर्य नथी नक्षत्र ५५] नथा " मेयवसा मसपडल-पोचड-पूय-रुहि रुक्षिण्ण-विलीण-चिकण, रसियावावण्णकुहिय चिखल्लकद्दमेसु" भेट, वसा य२मा अने भासना सा ते स्थानमा सह! પડેલા હોય છે તથા પિચ્ચડ-કિચડ અને પૂર પીબ તથા રક્તથી વ્યાપ્ત, ગુદરના જેવા ચીકણું, ભરેલા દુર્ગધમય વિકૃત લેહીથી, તથા ચીકણુ કાદવથી ते स्थान सा छपाये २९ छ “कुकूलानल-पलित्तजाल-मम्मुर-असिक्खुर Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 - 2 प्रश्नव्याकरणसूत्र करवत्तधारसुनिसियविन्छुयडकनियातोरमफरिसअतिदुस्सहेसु । कुटानल प्रदीप्तज्वालमर्मुरासिक्षुरकरपत्रधारमुनिशितरश्चिदशनिपातोपमातिदुस्सहे', कुछ लानला करिपाग्निः, खदिराग्निी , प्रदीप्ता च ज्यालेति प्रदीप्तवाला-प्रवृद्धपहिशिखा च, मुर्मुर:-भस्ममियोऽग्निमणः, असिः , पुरस-नापितोपकरण, करपत्रकाष्ठभेद-शस्त्रविशेषः तेपा धारेति असिक्षुरकरपत्रधारा, मुनिशितवृश्चिफदशनिपात:सुनिशितास्तीक्ष्णा ये चिक्दशा नपुन्छरण्टकास्तेपा निपातश्चेति द्वद्व एभिरुपमा सादृश्य यस्य स तथाविधः स्पर्श येपा ते तथा अतएव ते च ते अति दुस्सहा अत्यन्त खेन सहनयोग्यास्तेषु, 'कडुयदुक्खपरितावणेसु ' पटुकदुःखपरितापनेपु = कटुकैः = दारुणैर्दु खैर्दशनिधक्षेत्रवेदनारूपैः परितापन येषु तेषु ' अणुपद्धनिरतरवेयणेसु । अनुपदनिरन्तरपेदनेपु-अनु वडा-अनुक्षण व्याप्ता निरन्तरा अविच्छिन्नदना पीडा येषु तथा तेषु 'जमपुरिससकुलेस' यमपुरुषसकुलेपु, यमस्य-दतिगदिक लोकपालस्य पुरुपाःअसिक्खुर-करवत्तधार सुनिसियविच्छुपडकनिपातोवम-फरिसअतिदुस्सहेसु ) इनका स्पर्शकुकूलानल-करीपाग्नि अथवा खदिराग्नि के जैसा, वृद्ध यहि की ज्वाला के जैसा, मुम्मुर-भस्ममिश्रित अग्निकण के जैसा असि-तलवार की धार के जैसा, खुर-क्षुरा की धार के जैसा, करवतकरोति को धार जैसा, एव अत्यत तीक्ष्णवृश्चिक के डक के द्वारा काटने जैसा है, इसी कारण ये स्थान अत्यत दुस्सह बन रहे हैं ( कडयदुक्ख परितावणेसु ) दशविधक्षेत्र वेदनारूप दारूण दुःखों द्वारा जहां जीवों को सदा सताप ही सताप भोगना पडता है तथा (अणुबद्ध निरतरवेय णेतु) यहा प्रतिक्षण अविछिन्न असह्य पीडा होती है। एव(जमपुरिस सकुलेसु ) यम-दक्षिण दिशासषधी लोकपाल के अम्ब अम्बरीषादिक करवत-धारसुनिसियविन्छुयडकनिवातोरम-फरिस अतिदुस्सहेसु" भने। स्पर्श કકૂલાનલ-કરિષાગ્નિ અથવા ખદિરાનિ જે, પ્રવૃદ્ધ-અગ્નિની જવાળા જે, મુમુર-ભસ્મ-મિશ્રિત અગ્નિકણે જે, અસિ-તલવારની ધારના જે ખુરખરીની ધાર જે, કરવતની ધાર જે, અને અત્યંત તીણ થી છીના ડખ वो छ २ ते स्थान मत्यतमय हाय छ " कडुयदुग्ख पारतावणेसु" ४४॥२॥ क्षेत्र ना३५ ॥२१ मो द्वारा या छान सहा सता लगवा ५ छ, तथा अणुबद्धनिर तरवेयणेसु" त्या १२४ भो अविछिन्न असह्य पी गयी ५ छे भने “ जमपुरिमसकुलेसु" યમ દેવાથી તે સદા ઘેરાયેલા હોય છે યમ–દક્ષિણ દિશાના લોકપાલના અમ્બ, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुदशिनी टीका अ० १ सू० २५ नरकोत्पत्यनु दु पानुभवनिरूपणम् ९७ अम्माम्मरीपादयः परमाधार्मिका असुरकुमारदेवास्तै सकुलेपु-व्याप्तेपु-एता. हशेषु नरकेपु ते प्राणनधकार 'अत्ताणा' जाणा-प्राणरहिताः दुःखनिमारका भावात् । अतएव 'असरणा' अगरणा -गरणरहिताः रक्षकाभागात् , 'उववज्जति उत्पद्यन्ते इति सम्बन्धः ॥५०२४॥ मूलम्-तत्थ य अंतोमुहुत्तलद्धिभवपच्चएणं निव्वत्तेति उ ते सरीर हुडं वीभच्छदरिसणिज्ज बीहणगं अट्रिपहारुणह रोमवज्जिय असुभगं दुक्खविसय, तओ य पज्जत्तिमुवगया इदिएहि पचहि वेदति वेदणं असुहाए वेयणाए उज्जलवल विउल-कम्खडखरफरुसपगाढपयंडघोरवीहणगदारुणाए,किंते२५॥ ___टीका-'तत्य य ' तत्र च नरकेपु उत्पत्त्यनन्तर ते पापकर्माणः 'अतो मुहुनलदिभवणपच्चएण' अन्तर्मुर्तरब्धिभवमत्ययेन=अन्तर्मुहूर्तस्य वैक्रियध्या परमापार्मिक असुरकुमार जाति के देवों से ये सदा सकुल रहते हैं । ऐसे इन नरकोमा प्राणवध के करने वाले जीव (अत्ताणा) दुःखनिवारक के अभाव से प्राण रहित एच (अप्सरणा) रक्षक कोई न होने से अशरण यन (उपवनति ) उत्पन्न होते है। . भावार्थ-प्राणवध करनेवाले जीव जो पापपुज का सचय करते हैं। उसके प्रभाव से वे यहां से मरकर शीघ्र ही नरक मे जम लेते हैं। नरकों में जीव की कैसी हालत होती है एव वहां की क्या स्थिति है यही योत सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाई है ॥ २४॥ . टीकार्थ-(तत्य य) उन नरकों में उत्पत्ति के अनन्तर (ते)वे पापकर्म वाले जीव,(अतोमुत्तलद्धि भवपञ्चण्ण ) अन्तर्मुहर्त मे प्राप्त वैक्रियलઅાવી આદિ પર અધામિક અસુર કુમાર જાતિના દે છે પ્રાણવધ ४२नारा तपो मेथी त नरमा “ अत्ताणा" निवा२४२ मात्रा रात भने " असरणा" 0 २६७ नहीं डापाथी मश२ मा " उववजति " पन्न थाय छ ભાવાર્થ–પ્રાણવધ કરનારા જીવ જે પાપપુજને સચય કરે છે તેના પ્રભાવે અહીંથી મરીને તરત જ નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે નરકમાં જીવોની કેવી હાલત થાય છે અને ત્યાની કેવી પરિસ્થિતિ છે, એ વાત સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા સમજાવી છે સૂ ૨૪ आर्थ-"तत्थ य" त्याहि, “तत्थ य"ते नरीमा उत्पत्ति थया पछी "a" ते ५ २ना। ७१ "अतोमुहुत्तलद्धिभव पञ्चएण" मन्तभुतभा पास वैक्ष्यि प्र० १३ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण भवात्ययेन च, = भवमत्ययः = भान्ति कर्मचशा जीवाः अस्मिन्निति भवः = नरकादिजन्म, भर एर प्रत्ययाकारण यस्य तत् भनमत्ययन्तेन-नरफजन्मकारणेन 'सरीरम् शरीर नरकभरसम्बन्धिदेह, ' निति ' नियन्ति-रचयन्ति । कीदृश शरीरम् ? इत्याह-'हुड' अस्फुटावयर, बीभच्छदरिसणिज्ज' वीभत्स दर्शनीय-विकृतस्वरूप 'चीहणग' भापक भयजनकम् , 'अहिण्हारुगहरोमवज्जिय' अस्थिस्नायुनखरोमनित स्पष्ट, असुभगम् असुन्दरम् , दुपरिसय' दुखवि. पय-क्लेशबहुल शरीर नियन्तीति सम्बन्धः । 'तओ य' ततश्च-शरीरनिवे नानन्तर ‘पज्जत्ति' पर्याप्ति = आहारशरीरेन्द्रिय--प्राणापानभाषामनःपर्याप्ति न्धि से और भवप्रत्यय से-नरक जन्म के कारण से वे (सरीर )शरीर को नरकभव सवधी शरीर को (निवत्तति) बना लेते हैं। तात्पर्य करने का यह है कि नरको मे जो जीव नारकी जीव की पर्याय से उत्पन्न होता है उसका अन्तर्मुहर्त मे ही नारकी का शरीर बन जाता है, क्यों कि इस शरीर के बनने का कारण वहा पर जन्म लेना है । इस शरीर के अवयव अस्फुट रहते हैं इसलिये इसे (हुड) हुड कहा है और (बीभ च्छदरिसणिज) यह शरीर-विकृत स्वरूपवाला होता है इसलिये बीभत्स दर्शनीय कहा है। (वीहणग) यह शरीर भयजनक होता है और (अटिण्डारुणहरोमवजिय) अस्थि-हड्डियों से, स्नायु-नसों से तथा नख और रोम से रहित (असुभग ) असुन्दर और ( दुक्खविसय) क्लेश बहुल होता है । (तओ य ) इस प्रकार शरीर की रचना धियो भने अप्रत्यययी--२४मा भ पाने २0 तेम। " सरीर " शरीरने-२६१५ समधी शरीरने " निवत्तति " नापी छ ।उवानु तात्पर्य એ છે કે નરકમાં જે જીવ નારકી જીવની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તેમનું અન્તમુહૂર્તમાં જ નારકીનું શરીર બની જાય છે, કારણ કે ત્યા જન્મ લે એજ તે શરીર બનવાનું કારણ છે તે શરીરના અવયે અસ્કુટ હોય છે તેથી तर "हुड" हु४ह्या छ भने “बोभच्छदरिसणिज्ज" ते शरी: वित २०३५ पाणु डाय छे तेथी तेने मोलस शनीय उद छ “बीहणग"a शरीर मय उसय छ, भने “ अट्टिहारणहरोमवजिय" मस्थि-डामाथी नाय-नसाथी तथा न५ अने २ वाटीथी २हित, “ असुभग" असु१२ भने " दुचविसय" युदत साय छ, " तओ य" मा प्रा२नी शरीरना Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 सुशिनीटीका म १ सू २५ नरकोत्पत्यनु दु सानुभवनिरूपणम् ९९ " 3 'उवगया' उपगताः = प्राप्ताः सन्तः ' पचहिं ' पञ्चभिः 'इदिएहिं ' इन्द्रियै = श्रोत्रादिभि 'अमुहाए ' अशुभया - अशातरूपया, ' वेयणाए ' वेदनया - अशातवेदनीयकर्मोदयजनितया 'वेयणं ' वेदन- कुम्भीपचनानि दुःख ' वेदेति' वेदयन्ति = अनुभवन्ति । कीदृशया वेदनया ? इत्याह-- ' उज्जलनलविउलकक्खडखर फरुसपगाढपयडघोरवीणगदारणाए उज्ज्ळाळनिपुल कर्कशखरपरुपप्रचण्डघोर मीपणदारुणया = उज्ज्ला=तीनानुभावात्मकत्वात् बला पळवती अनिवार्यत्वात्, विपुला = विशाला परिमाणरहितत्यात् कर्कशा = कठोरा प्रत्यङ्गदुःखजनकत्वात्, खरा = वीक्ष्णा - अन्त करणभेदकत्वात्, परुपा = निष्ठुरा मुखलेशरहितत्वात् प्रगाढा - प्रतिक्षणमसमाधिजनकत्वात्, प्रचण्डा=भयानका - आत्मनः - प्रतिप्रदेशव्यापित्वात् हो जाने के अनन्तर (पजत्तिमुवगया) आहार, शरीर, इन्द्रिय, प्राणापान, भाषा और मन, इन पर्याप्तियों को प्राप्त हुए वे नारकी जीव (इदिएहि पचति ) श्रोत्रादिक पाच इन्द्रियों द्वारा (अनुहार वेयणाए ) असातावेदनीय कर्म के उदय से जनित अशुभ अशातरूपवेदना से (वेयण ) कभी पचनादि दुखों का ( वेदेति ) अनुभव करते हैं। यह अशातरूपवेदना उन नारकी जीवों को (उज्जलपल विउल-कक्खड खरफरूसपगाढपयडघोरवीणगदारुणाए ) उज्ज्वल - तीव्रानुभावशाली होती है, बल अनिवार्य होने से बलिष्ठ होती है, विपुल परिमाण रहित होने से विशाल होती है, (कक्खड ) प्रत्येक अंग दुःख जनक होने से कर्कश - कठोर होती है । सर अतरग की भेदक होने से तीक्ष्ण होती है । (फरुस ) सुख के लेश से रहित होने के कारण निष्ठुर होती है। (पगाढ ) प्रतिक्षण असमाधि की उत्पादक होने से प्रगाढ है ( पयड) आत्मा के = રચના થઈ ગયા પછી " पज्जत्तिमुवगया " आहार, शरीर, इन्द्रिय, आशायान, लापा मने मन से पर्याप्तिसोने प्राप्त उरीने नाही व "इदिएहिं पचहि " શ્રોત્રાદિક પાચ ઇન્દ્રિયા દ્વાર 66 असुहाए वेयणाए " असाता बेहनीय उना अध्यथी नित अशुल अशाता३य वेदनाथी " वेयण " सुलभा २ धावा माहि मोनो " वेदे ति " अनुभव रे ते नारडी लवोनी ते खायाताइय વેદના उज्जल नल विउत्र - क्क्सड - सर- फरूस पगाढ पयडघोरवी हणगदारुणाए " Garvवण-सीम अनुभववाणी होय छे बल अनिवार्य छे, निपुल - परिमाणु रहित होवाथी विसाज होय छे भगभा हुआ न होवाथी और होय है, सर- हृदय लेट होवाथी तीक्ष्णु होय छे, फरुस - सडेन्ट पा सुमथी रहित होवाने जर निष्ठुर होय छे, पगाढ - ६२ पणे असमाधिनी उत्पादन होवाथी प्रशाद होय छे, पयड " होवाथी भ्रमण होय 66. 'कक्सड " प्रत्ये " Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ধ্বন্যাসেও भवात्ययेन च, - भामत्ययः = भान्ति कर्मवशाः जीयाः अस्मिन्निति भवः नरकादिजन्म, भन एर प्रत्ययः कारण यस्य तत् भवमत्यय-तेन-नरकजन्मकार णेन 'सरीर-शरीर नरकभरसम्मधिदेह, 'निपति' नियन्ति-रचयन्ति । कीदृश शरीरम् ? इत्याह-'हुड ' अस्फुटावय, वीभच्छदरिसणिज्ज' वीभत्स दर्शनीय-विकृतस्वरूप 'पीइणग' भापक भयजनकम् , 'अहिण्हारुगहरोमज्जिप' अस्थिस्नायुनखरोमवर्जित-स्पष्ट, असुभगम्-अमुन्दरम् , दुवापरिसय 'दुखविपय-क्लेशबहुल शरीर निवर्तयन्तीति सम्बन्धः । ' तो य' ततश्व-शरीरनिर्व तनानन्तर 'पजति' पर्याप्ति = आहारशरीरेद्रिय-प्राणापानभाषामनःपर्याप्ति ब्धि से और भवप्रत्यय से-नरक जन्म के कारण से वे (सरीर )शरीर को-नरकभव सवधी शरीर को (निवत्तति) बना लेते है । तात्पर्य करने का यह है कि नरको मे जो जीव नारकी जीव की पर्याय से उत्पन्न रोता है उसका अन्तर्मुहर्त मे ही नारकी का शरीर बन जाता है, क्यों कि इस शरीर के बनने का कारण वहा पर जन्म लेना है । इस शरीर के अवयव अस्फुट रहते हैं इसलिये इसे (हुड )एड कहा है और (थीम च्छदरिसणिज ) यह शरीर-विकृत स्वरूपवाला होता है इसलिये बीभत्स दर्शनीय कहा है । (वीहणग) यह शरीर भयजनक होता है और (अहिण्डारुणहरोमवजिय) अस्थि-हड्डियों से, स्नायु-नसों से तथा नख और रोम से रहित ( असुभग ) असुन्दर और ( दुक्खविसय) क्लेश पहल होता है । (तओ य ) इस प्रकार शरीर की रचना सन्धियी भने लषप्रत्ययथी-२४ा म थाने २६ तमो " सरीर " शरीरने-२३११ समधी शरीरने " निवत्तति " मनापी से छे ४वानु तात्पर्य એ છે કે નરકમાં જે જીવ નારકી જીવની પર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તેમનું અન્તર્મુહૂર્તમાં જ નારકીનું શરીર બની જાય છે, કારણ કે ત્યાં જન્મ લે એજ તે શરીર બનવાનું કારણ છે તે શરીરના અવયે અક્ટ હેય છે તેથી ते “ हड ॥ ४ह्या छ मन “बीभच्छदरिसणिज्ज" से शरी२ विकृत २१३५ पाणु सत्य छ तेथी तेरे vilमत्स शनीय उस छ “बीहणग" शशर भयन य छ, भने “ अद्विण्हारुणहरोमजिय" अस्थि- माथी साथ-साथी तथा नशमन रुवारथी २डित, "असुभग" असुर मन "दुक्वविसय" ५वेश युत आय छ, “ तओ य" मा प्रारनी शरीनी Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० १ सू० २६ फुभोदु ग्रनिरूपणम् विशेषः, महाकुम्भी-घटाकृतिपात्रविशेपस्तयोर्मध्ये, सूत्रे जातिवादेकवचनम् । 'पयण' पवचन-मोदनादेरिस 'पउलग' प्रकुलनम् सीसम्बद्गाल्नम् , 'तबग तलणतपकतलन-नपको लोहपात्रविशेष 'तबा' इति भाषाप्रसिद्धः, तस्मिन् तेलादिभिरपूपवत्तलनम् , 'भट्ठमज्जग' भ्राष्ट्रगर्जन च-भ्राष्ट्रमननपात्र-'माड' इति प्रसिद्ध', तत्र भर्जन चणकादेरिव, इत्येपा द्वन्दस्तानि च 'लोहकडाहुकडगाणि य' लोहफटाहोत्ययनानि च लोहकटाहा कढाई' इति भापामसिद्धः, तनं उत्क्वथ नानिओपधिपदुकालनानि 'कोहवलिकरणकोहणाणि' कोहलिकरणकोहनानि कुटेत क्रीडया पलिकरणाय, कुटनानि करचरणावयपत्रोटनानि-शरीर 'खण्डश:' हत्या कामादिभ्योऽर्पणानीत्यर्थः, 'सामलितिकावग्गलोक्टगअभिमारणापसार'कदुमहाकु भीए' इत्यादि। टीकार्थ-नारकीजीव नरकों मे (कदुमहाकुमीण) कदु-लोहमय विशाल पात्राविशेप में तथा घटाकृति जैसे महाकुभी मे ओदनादिक की तरह, (पयण-पउलण-तवग-तलण-भट्ठभजणाणि य) (पयण ) पकाये जाने के ( पउलण) सीमक-राग की तरह गलाये जाने के, (तवगतलण) गर्म लोह के तवा पर तैलादिक में तले गये पूआ आदि की तरह तले जाने के ( भाभज्जणाणि य) भांड में भुजे गये चना आदि की तरह भुजे जाने के दुःखों को प्राप्त करते है । तथा (लोहकडाटुकडणाणि य) जैसे लोहे की कढाई में औपधियों उवाली जाती है उसी तरह वहा पर वे भी बड़े २ कडाहो मे उवाले जाते है । ( कोयलिकरणकोटणाणि य) पलि देने के लिये अनायास ही उनके कर, चरण आदि अवयवों को वहा तोड दिया जाता है-शरीर को खड २ करके वहा काकादिकों के रिये महाकुभीए " या -२४ी ७१ नरीमा "कदुमहाकु भीए " "कदु" खोदाना विशाण पात्र- विमा, तथा घाना १२ना भलीमा सोहनामिनी म “पयणपउलण, तवग, तलण, भट्टभज्जणाणि य" “पयण" २ धावाना, “पउलण " सीसानीभ माणवाना, “तवगतल्ण" सोढाना गरम तेसना तापमा तेसाना भासपूमा मालिनी रेभ ताना, " भट्टभज्जणाणि य" तासभा शता या माहिना भयाना अनुभव छ तथा " लोहकडा हुकड्दणाणि य" वी ते खोटानी तवीगामा औषधिया (य छे थे। शते त्या तभने ५४ मोटा तापामामा वामा आवे छे, " कोयलि करणकोट्टणाणि य" पति पाने भाटे अयान तमना खाय ५ माहि सुक्यवानु ત્યા છેદન કરવામાં આવે છે શરીરના ટૂકડે ટૂકડા કરી ત્યાં કાગડા આદિને Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रश्नव्याकरण घोरा-विकटा-याणेऽपि दुःखजनकत्वात् , भीपणा-भयोत्पादिका-प्रतिप्राणिभयजनकत्वात् दारुणा-हृदयसंक्षोभकारिणी प्रतिकाररहितत्वात् , तथा-भूतया वेदनया पापिनो दुःखमनुभवन्तीति सम्बन्धः 'किते ' कानि तानि दुःखानि? तान्यग्रेऽनुपदे वर्णयिष्यते ।। सू०२५ ॥ ___अथ तान्येव दुःखानि वर्णयति-कदु महाकुम्भीए' इत्यादि । मूलम्-कदुमहाकुंभीए पयण-पउलण-तवग-तलण-भटू भजणाणि य लोहकडाहकडणाणि य कोवलिकरणकोट्टणाणिय सामलि तिक्खग्ग-लोहकटग-अभिसारणा पसारणाणि, फालण विदारणाणि यअवकोडकवधणाणि, लट्रिसयतालणाणि य,गलग वल्लुल्लंबणाणियसूलग्गभेयणाणि य, आएसपवचणाणि यखिंसणावमाणणाणि य विघुट्रपणिजणाणियवज्जसयमाइयाणिया॥२६॥ टीका-'कदुमहाकुभीए' कन्दुमहाशम्भ्योः कन्दुः लोहमयविशालपात्र प्रति प्रदेश में व्यापक होने से प्रचण्ड-भयानक होती है, घोर-मुनने में भी दुःखजक होने से विकट होती है, (घीणग) हरएक प्राणी में भय की सचारक होने से भीषण-भयोत्पादिका होती है, (दारुणाए) इसको वहा कोई इलाज नही होता है इसलिये यह हृदय को सक्षोभकारिणी होने से दारूण होती है। इस प्रकारकी वेदना से पापी जीव नरकों में दुःखों का अनुभव करते हैं । (किंते) वे दुःख कौन कौन से हैं वह इसी के अगले सत्र मे कहेंगे॥ २५॥ अय सूत्रकार " किंते " इन पदो द्वारा सूचित दुःखों को कहते हैंमात्माना ४२४ प्रदेशमा व्यापेक्षा पाथी प्रय3 लयान सय छ, घोरसालयता पए मन पाथी विट खाय छ, “बीहणग" ४२४ प्रामा लयनः सयार ४२ना२ लापाथी लीप-सय ४२ डाय छ, “ दारुणाए " तेना ત્યા કઈ ઈલાજ હોતો નથી, તેથી તે હદયમા ક્ષોભ ઉત્પન્ન કરનાર લેવાથી દારુણ હોય છે આ પ્રકારની વેદનાથી પાપી જીવ નરકમાં દુબેને અનુભવ ४२ छ “किते" ते ४या उया छ ते ९२ ५छीन सूत्रमा गतीવવામાં આવશે | સૂ ૨૫ II वे सूत्रधार " किंते " | सूचित हुनु पन रे, Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ सुरशिनी टोका अ० १ सू० २६ कुंभीदुयनिरूपणम् मवञ्चनानि प्रतारणानि मखरोष्णसन्तप्तवालुका निकरानेकक्षणपरिक्रमणोपताप मदीपितपानीय पानातितृष्णस्य समुदञ्चज्नलवीचिरुचिमरीचिनिचय जलाशय - दिश्य तत्र पानाय पण, 'गच्छ तत्र ते पिता 'समागतः ' इत्याद्यनेकविधः प्रवञ्चना इति भाग', 'खिसण विमाणणाणि' खिसनविमाननानि खिसनानि= जातिकुल दिनामनिर्देशपूर्वक निन्दनानि अत एव विमाननानि तिरस्करणानि 'विद्युद्वपणिज्जणाणि ' विद्युष्ट प्रणयनानि= विद्युष्टाना = " स्वकृतपापकर्मणा फलानि " इत्यादिभिर्निष्ठुरवचोर्निर्भत्सिताना प्रणयनानि = वध्यस्थाननयनानि । एतानि किं हेतुकानि ? इत्याह-- ' वज्जसयमाइयाणि ' जवद्यगतमातृकाणिअद्यशतमातराणि - अवद्यशतानि=मन्दतीयादिपरिणामेन कृतानि पापशतानि, सपवचणाणि य असत्य वस्तुविषयक आदेशरूप आज्ञा से उन्हें प्रतारित ( ठगना) किया जाता है वहा पर नारकीजन पहिले उस नवीन नारकी को मखर उष्ण से सन्तप्त बालुका पुज की ऊपर अनेकवार घूमाते हैं । इससे उसकी गर्मी से उसकी प्यास अधिक से अधिक मात्रा में जब प्रदीपित हो जाती है तर उसे बनावटी जलाशय दिखलाकर वहा वे भेज देते हैं इस तरह उसे वहां वार २ प्रतारित किया जाता है " जाओ वहां तुम्हारा पिता आया है" इत्यादि अनेकविध वचनों द्वारा वे उसकी चना किया करते है । (खिसणविमाणाणि घ) जाति, कुल आदि के नामनिर्देपपूर्वक उसकी हा निंदा की जाती है । तिरस्कार किया जाता है । (विपणिज्जणाणि य ) " अपने किये हुए पापकर्मों का तुम फल भोगो " इत्यादि निष्ठुर वचनों से उसे निर्भत्सितकर के उध्य स्थानों पर लाया जाता है । ( वज्जसयमाइयाणि य ) इस तरह नाना प्रकार के इन दुखों को नरकों में मन्द, तीव्र आदि परिणामों द्वारा किये गये शूजी पर तेभने सराववामा आवे छे " आएसपवचणाणि य" असत्य वस्तु વિશેના આદેશ વડે તેમને ત્યા ઠગવામા આવે છે ત્યા નારકીજન પહેલા તે નવીન નારકી જીવાને પ્રચંડ ઉષ્ણુતાથી સારી રીતે તપેલી રેતી પર અનેકવાર ચલાવે છે, તેથી તેની ગરમીથી તેમની તૃષા જ્યારે વધારેમા વધારે પ્રમાણુમા પ્રદીપ્ત થાય છે ત્યારે તેઓ તેમને બનાવટી જળાશય પતાવીને ત્યા મેકલી દે છે, આ રીતે ત્યા તેને વારવાર પ્રતારિત કરાય છે–ઠગવામા આવે છે જાએ, ત્યા તમારા પિતા આવ્યા છે. ઈત્યાદિ અનેક પ્રકારના વચનેા દ્વારા તે તેની હાસી કર્યાં કરે છે सिंणविमाणणाणि य " જાતિ, કુળ આદિના નામના નિર્દેષ કરીને તેની ત્યા નિંદા કરાય છે તિરસ્કાર કરાય છે जाणि य” “ ते पुरेसा उर्भानु तु लोग " सेवा निष्ठुर पथनार्थी तेभने धभકાવીને વધસ્થાના પર લઇ જવામા રીતે પાપી જીવ મ, તીવ્ર આદિ << ८८ ८८ આવે છે ' वज्जसयमाइयाणि य" मा પરિણામે દ્વારા કરાયેલ સેકડા પાપાને કારણે Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્ર नव्याकरणसूत्रे 3 पाणि' शाल्मलि तीक्ष्गाग्रलोह कण्टका निसारणापसारणानि = शाल्मळि : = ' सेमल ' इति ख्यातो वृक्षविशेषस्तस्य ये तीक्ष्गामा लोहकण्टका इन कण्टकाः, तेषु अभिसारणापसारणानि च = कर्पगापकर्षणानि ' फालगविदारणाणि ' फालनानिवत्स्काटनानि, विदारणानिक रुचादिना काष्ठपद द्वैधीकरणानि 'अबकोडगधणाणि' अनकोटकान्धनानि=प्रीवाया हस्तयोश्च पत्राद्भागानयनेन बन्धनानि, 'लसिवाणाणि यष्टिशतताड़नानि यष्टिशतैस्ताड़नानि, ' गल गल्लवणाणि ' गलकन लोल्लम्ननानिगल एन गलकःकण्ठः, तस्मिन् बलात् = बलपूर्वकम् उल्लम्बनानि= रक्षशाखादी उद्बन्धनानि, 'सूलग्ग भेयणाणि य' शूलाग्रभेदनानि च लाग्रेग = थूलाग्रभागेन भेदनानि, शूलारोपणानि वा ' आएस पवचणाणि ' आदेशमवञ्चनानि=आदेशेन-भज्ञया असत्यवस्तु विषयया उनका वह शरीर अर्पित किया जाता है, (सामलितिखग्गा-लोहकंटग , अभिसारणा-पसारणाणि ) सेमर वृक्ष के लोहकण्टक के समान नुकीले काटा के ऊपर उनका कर्पणापकर्षण किया जाता है उन्हें आगे पीछे खेचा जाता है, (फालण विदारणाणि य) फालन - वस्त्र के समान फाड़ना और करोंति आदि के द्वारा काष्ठ को तरह चीरना भी उनका वहा ' किया जाता है । ( अवकोडगबधणाणि) उनकी ग्रीवा और दोनों हाथ A पीछे के भाग की तरफ करके बाधे जाते हैं । ( लट्ठियताडणाणि य ) सैकडों लाठियों की उन पर वहा मार पड़ती है । (गलगललुबणाणि य) जबर्दस्ती उनके गलों को वृक्ष की शाखा पर वाधकर लटकाया जाता है। ( सुलग्ग भेयणाणि य ) शूल के अग्रभाग से उनके शरीर का भेदन किया जाता है । अथवा शूली के ऊपर उन्हें लटकाया जाता है । ( आए તેમના તે શરીર અર્પણ કરાય છે " सामलितिक्सग्गलोहकटग - अभिसारणा -पसारणाणि य" सेभर वृक्षना सोडडटना समान मलीहार अटो उपर તેમનુ કણાપણું કરાય છેતેમને આગળ પાછળ ખેચવામા આવે છે " फालणविदारणाणि थ " ત્યા તેમને વસ્ત્રની જેમ ફાડવામા આવે છે અને કરવત આદિ દ્વારા જેમ લાકડાને ચીરવામા આવે છે તેમ તેમને પણ ચીરषाभा भावे हे " अवकोडगनघणाणि " तेभनी डोड भने मने हाथ पाछजना ભાગમા રખાવીને માધવામા આવે છે लट्टिसयताडणाणि य" त्या तेभने સેકડા લાડીઓને માર પડે છે गलगवलु बणाणि य " मेर लुसमयी तेभना गजा गाधीने वृक्षोनी अजियो पर तेभने टाववामा आवे छे, " सूलाग भैयणाणि य" शूजनी सीधी तेभना शरीरनु लेहन श्वामा आवे " ८८ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ० १ सू० २६ फुभीदुःपनिरूपणम् मवश्चनानि-प्रतारणानि पसरोप्णसन्तप्तपालका निकरानेरक्षणपरिक्रमणोपताप प्रदीपितपानीय पानातितृष्णस्य समुदश्चनलवीचिरुचिमरीचिनिचय जलाशर.. दिश्य तन पानाय प्रेपण, 'गच्छ तत्र ते पिता 'समागतः' इत्याधने विधः प्रपञ्चना इति भाव., 'खिसण रिमाणणाणि' सिंसनपिमाननानिखिंसनानि जातिकुलोदिनामनिर्देशपूर्वक निन्दनानि, अत एव विमाननानि तिरस्करणानि 'विघुट्टपणिज्जणाणि ' विघुष्ट प्रणयनानि=विघुष्टाना="स्वकृतपापकर्मणा फलानि भुदस्व" इत्यादिभिनिष्ठुरवचोनिर्भत्सिताना प्रणयनानिबध्यस्थाननयनानि । एतानि कि हेतुकानि ? इत्याह-' बज्जसयमाइयाणि' अवद्यशतमातृकाणिअवद्यशतमातृाणि-अवधगतानि मन्दतीनादिपरिणामेन कृतानि पापशतानि, सपवंचणाणि य असत्य वस्तुविषयक आदेशरूप आजा से उन्हें प्रतारित (ठगना) किया जाता है-वहा पर नारफीजन पहिले उस नवीन नारकी को प्रखर उष्ण से सन्तप्त चालुका पुज की ऊपर अनेकवार घुमाते हैं। इससे उसकी गर्मी से उसकी प्यास अधिक से अधिक मात्रा में जय प्रदीपित हो जाती है तब उसे बनावटी जलाशय दिखलाकर वहा वे भेज देते हैं इस तरह उसे वहां पार २ प्रतारित किया जाना है "जाओ वहां तुम्हारा पिता आया है" इत्यादि अनेकविध वचनों द्वारा वे उसकी प्रवञ्चना किया करते हैं। (खिसणविमाणाणि य) जाति, कुल आदिके नामनिर्देपपूर्वक उसकी वहा निंदा की जाती है। तिरस्कार किया जाता हैं। (विघुटपणिज्जणाणि य) "अपने किये हुए पापकर्मों का तुम फल भोगो" इत्यादि निष्ठुर वचनों से उसे निर्भत्सितकरके वभ्य स्थानों पर लाया जाता है । ( वज्जसयमाइयाणि य) इस तरह नाना प्रकार के इन दुःखों को नरकों में मन्द, तीव्र आदि परिणामो द्वारा किये गये शूणी ५२ तेभने सापामा मा छे “ आएसपवचणाणि य" असत्य वस्तु વિશેના આદેશ વડે તેમને ત્યા ઠગવામાં આવે છે ત્યા નારકીજન પહેલા તે નવીન નારકી જાને પ્રચડ ઉણુતાથી સારી રીતે તપેલી રેતી પર અનેક વાર ચલાવે છે, તેથી તેની ગરમીથી તેમની તૃષા જ્યારે વધારેમાં વધારે પ્રમાણમાં પ્રદીપ્ત થાય છે ત્યારે તેઓ તેમને બનાવટી જળાશય બતાવીને ત્યાં મોકલી દે છે, આ રીતે ત્યાં તેને વારવાર પ્રસારિત કરાય છે-ઠગવામા આવે છે “ જાઓ, ત્યા તમારા પિતા આવ્યા છે ” ઈત્યાદિ અનેક પ્રકારના વચન દ્વારા તેઓ તેની बासी ४ा ४२ छ “ खिसणविमाणणाणि य" ति, पुष माहिना नामना नि५ ४शन नी त्या नि४२राय छ ति२२४१२ ४२सय छ “ विघट्टपणज्जणाणि य" " ते ४२सा भानु २तु साग" मेवा निहु२ क्यनाथी तेभने यम वीन स्थान। ५२ सापामा आवे छे “ वज्जसयमाइयाणि य" રીતે પાપી જીવ મદ, તીવ્ર આદિ પરિણામે દ્વારા કરાયેલ સેક પાપને કારણે Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रभयारण तान्येव मात्काणि-उत्पत्तिस्थानानि येपा तानि तथा-पापरातहेतुकानीत्यर्थः । दुःखानि वेदयन्तीति पूर्वेण सम्मन्यः 'कर' इत्पन मातत्यादकारकोपः ॥२६॥ एते पापकारिणः कीदृशीं । वेदना कियकालमनुभवन्ति ? इत्याह'एवं ते ' इत्यादि। मूलम्-एव ते पुवकम्मकयंसचओवतत्ता निरयाग्गिमहग्गि सपलित्ता गाढदुक्खमहभयं कसं असाय सारीर माणस च दुविह तिव्व वेदेति वेयणं पावकम्मकारी। वहूणि पलिओवमसागरोवमाणि कटुणं पालेति ॥ सू० २७ ॥ सैकडों पापों के कारण पापी जीव उत्पन्न होकर भोगा करते हैं "मातृक" पद यहा पर उत्पत्ति स्थान का वाचक है । अर्थात् इन दुवों के उत्पतिस्थान अवद्यशत मेंकटो घोर पाप करनेवाले पापी हो जाते है । भावार्थ-पापी जीव नरको मे जन्म लेकर नाना प्रकार की वेदना भोगा करते हैं यही बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रदर्शित की है। वहा पर उन्हें पकाया जाता है, उयाला जाता है, गलाया जाता है, तला जाता है, भुजा जाता है उनके शरीर के तिल २ के बराबर खड २ भो करदिया जाता है। सेमर जातिके वृक्षों के नुकीले काटोंपर उन्हें घसीटा भी जाता हैं इत्यादि भयकर से भी भयकर कष्ट वहा दिये जाते हैं, तातय यह है कि वेदना के जितने भी प्रकार हो सकते हैं वे सब प्रकार नरकों में होते है और उन सब प्रकारों से होने वाले दखों को मन्द तीव्र आदि परिणामोंसे किये गये पापोंके कारण पापी जीव भोगा करते हैं ।। નરકમાં ઉત્પન્ન થઈને વિવિધ ૬ ને ભેગવે છે “માતૃક પદ અહી ઉત્પત્તિસ્થાનનુ વાચક છે એટલે કે તે દુખેનુ ઉત્પત્તિસ્થાન સેકડો પાપે અવદ્યશત છે ભાવાર્થ–પાપી જી નરકમાં જન્મ લઈને અનેક પ્રકારની વેદના ભેગ વ્યા કરે છે એજ વાત સૂત્રકારે સૂત્ર દ્વારા પ્રગટ કરી છે ત્યાં તેને પકાવવામાં આવે છે, ઉકાળવામાં આવે છે, ઓગાળવામાં આવે છે, તળવામાં આવે છે, શેકવામાં આવે છે તેમના શરીરના રાઈ રાઈ જેવડા ટૂકડા કરવામાં આવે છે સેમર વૃક્ષના અણીદાર કાટા ઉપર તેમને ઘસડવામાં પણ આવે છે, વગેરે ભય કરમા ભય કર કો તેમને ત્યા આપવામાં આવે છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે વેદનાના જેટલા પ્રકારે હૈઈ શકે તે બધા પ્રકારે નરકમા હોય છે અને તે બધા પ્રકારથી થતા દુ ખેને મદ, તીવ્ર આદિ પરિણામેથી કરાયેલ પાપને કારણે પાપી જીવ ભગવ્યા કરે છે. સૂ ૨૬ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ०१ सू० २७ पापिनो वेदनाकालनिरूपणम् १०५ टीका-एवम् उक्तरीत्या ते-पापकारिणः, 'पुनरुम्मायसचओरतत्ता' पूर्वकर्मकृतसञ्चयोपततापूर्वकृतानां कर्मणा सञ्चयेन समुपार्जनेन उपतप्ता = सन्ताप प्राप्ताः । निरयग्गिमहग्गिसपलित्ता । नरकाग्निमहाग्निसप्रदीप्ताःनरकण्याग्निः सन्तापकारस्त्वाद् नरकाग्नि', स महाग्निरिव अत्युत्कटत्वात् तेन समदीप्ता सतप्ता ' पाकम्मकारी । पापम्मकारिणः, 'गाढदुक्खमहन्भय' गाहदुःग्वमहाभया गाढेन-निरिटेन दुःखेन महाभया विशालभययुक्ता' ककस' फर्कशां-कठोराम् ' असाय' असाताम्-नसातनामवेदनीयम्र्मोना, 'सारीर' शारीरी 'मानम' मानसीं च दुरिह द्विविधा 'तिव्य' तीनाम् अतिशया 'वेयण' वेदना-पीडा दयन्ति-अनुभवन्ति । कियकालम् ? इत्याह-पहणि' बहूनि 'पलिओषमसागरोवमाणि 'पल्योपमसागरोपमाणि=पल्योपमाणा काल, . अथ सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि पापी जीव नरकों में कैसी २ वेदना को कितने कालतक मोगते है-' एव ते ' इत्यादि। टीकार्थ-(ग्व) इस प्रकार (ते पायकम्मकारी) वे पापकारी जीव (पुत्व कम्मकयसचओवतत्ता) पूर्वकर्म के लिये हुए सचय से अत्यत सतप्त होकर तथा सतापकारी होने से महाग्नि जैसी नरकरूप अग्नि से मनदीप्त होकर (पावारी) पापकारी जीव (गाढ दुक्खमभय ) निविड़दुख से अतिश दुखवाली ऐसी (ककस) कठोरातिकठोर (सरीर) शारिरीक, एव (माणस) मानसिक, (दुविह) दोनो प्रकार की (असाय वेयण) अमाता वेदनीय कर्म के उदय से जनित (तिव्व वेयण) तीव्र वेदना को (वेदेति) भोगते है ऐसी वेदना को वे कितने काल तक भोगते हैं वह कहते हैं (यहणि पलिओवमसागरोवमाणि) इस तरह હવે સૂત્રકાર એ પ્રગટ કરે છે કે પાપી જીવ નરમા કેવી કેવી વેદનાને सा समय सुधा माग छ “एन ते" त्याह __टीर्थ-"एव" मा प्रभारी "ते पारकम्मकारी" पापा 4 "पुव्वकम्मकयसचओवतत्ता" पूर्व ४२सा ना सययथा अतिशय सतत थईने तथा सताश पाथी महा ममिथी सही थधने, “पावयारी" पापी छ "गाढदुक्समहब्भय " सय ४२ माथी भतिशय हुमपाजी, "कफस" मतिशय ४२, “सारीर" सRs मने “माणस" मानसि " दुविहे" मने प्रा२नी " असाय वेयण" मसात वहनीय उना यथा त्पन्न थयेस " तिव्वं वेयण" तीच वहनान" वेदेति" सागवे मेवी वहनाने तेमाल! समय सुधी लागवे छे ते सूत्रा२ मताले “यहूणि पलिओवमसागरोवमाणि' એ રોતે અનેક પ્રકારની વેદનાને તેઓ ઘણું જ પલ્યોપમ તથા સાગરોપમ प्र-१४ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ - प्रश्नण्याकरण 'फलण' करुण-यथास्यात्तथा दीनदशामाश्रित्येत्यर्थः, 'पाले ति ' पालयन्ति प्रतीक्षन्ते 'पदा ममाय दुःखकालः पूर्णो भविग्यती 'ति प्रतीक्षमाणा नरकजीवाः फाल यापयन्तीत्यर्थः ॥ सु० २७ ॥ ते पुनः कि कुर्वन्ती ? त्याह मूलम्-ते अहाउय जमकाइयतासिया यसद करेंति भीया, किते ' अवि-भाय । सामि | भाय । बप्प | ताव | जितव । मुय मे मरामि दुव्वलो वाहिपीलिओ ह किं इदाणि असि, एवं दारुणो णिहओ य मा देहि मे पहारे, अस्सासेउ मुहुत्त मे देहि, पसायं करेह, मा रुसह वीसमामि गेविज मुयह मे, मरामि, गाढं तण्हाइओ अह, देहि पाणिय ॥ सू० २८ ॥ टीका-ते पूर्वोक्ताः पापकर्माण 'अहाउय' यथायुष्षम्ययानद्धायुष्कर पूर्वभव यावत्कालपरिमितमायुद्धमासीत्तावत्परिमित न तु न्यूनाधिक देवनारकाकी वेदना वे बहुत से पस्योपम तथा सागरोपमप्रमाण कालनक (कळण) करुणदशा से, (पालेंति) भोगते है । उस समय उनकी बड़ी दीनदशा रहती है। और वे इस बात की प्रतीक्षा में उस असह्य पीडाको भोगत हुए कहा करते है कि " कर यह हमारा दुःखकाल समाप्त हो" । इस तरह विचारे वे पापी जीव वहा से निकलने के समय की प्रतिक्षा करते हुए काल को व्यतीत करते रहते हैं ॥ २७॥ और वे क्या करते है ? सो सूत्रकार कहते है-'तेअदाउय' इत्यादि। टीकार्थ-देव और नारकियों आदिकी आयु निरुपक्रम होती है-बीच में छिदती भिदती नहीं हैं, तीव्र शस्त्र, तीव्र विष, तीव्र अग्नि आदिजिन प्रभा ज संधी “कलुण" न शामा “पालति" लोग छ त સમયે તેમની ઘણું દીનદરા હોય છે અને ત્યારે અમારે આ દુ અને સમય પૂરો થાય” એ વાતની રાહ એ અસહ્ય પીડા ભોગવતા ભેગવતા તેઓ જોયા કરે છે. આ રીતે બિચારા પાપી જીવો ત્યાંથી નીકળવાના સમયની રાહ જોતા જોતા સમય પસાર કરે છે | સૂ ર૭ अने तमा शुरे छते सूत्र४९२ मता छ-'ते अहाउय" त्यादि દેવ અને નારકીઓ આદિનું આયુષ્ય નિરુપક્રમ હોય છે-તે વચ્ચે અકસ્માતોથી છેટાનું ભેદાતુ નથી, તીવ્ર શસ્ત્ર, તીન વિષ, તીવ્ર અગ્નિ આદિ જે કારણથી Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका अ० १ ० ८ नारका किं किं वदन्ति ! १०७ दीना निरुपक्रमायुपकत्वात् , उक्तन-- "देना नेरइया विय, असखवासाउया तिरियमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा निरुपकमती ।।१" निमित्तोंसे अकालमृत्यु रोती है उन निमित्तोंका प्राप्त होना उपक्रम है। यह उपक्रम देव और नारकियों के तथा चरमदेहधारी एव उत्तम देहवालों के प्राप्त नहीं होता है । चरमदेह और उत्तमपुरुपों के यह उपक्रम कदाच प्राप्त हो भी जावे तो वह उन की आयु अनपवर्तनीय ही होती है, इस नियम के अनुसार (ते) वे पापकारी जीव (अहाउय ) इतने प्रकार की प्राणान्तक वेदना को भोगने पर बीच मे मरते नहीं हैं-अर्थात्-उनकी अफाल में मृत्यु नहीं होती है क्यों कि पूर्वभव में जितनी आयु यहां की उन्हें ने धाधली थी उतनी आयुतक वे वहा रहते हैं कम या ज्यादा समय तक नहीं रहते । कहा भी है "देवा नेरच्या वि य, अससवामाउया तिरियमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा निरुवकमती" ॥१॥ इस गाथा के अर्थकी सूचना यद्यपि कुछ रूप मे ऊपर कर दी गई है फिर भी स्पष्टरूप में इस प्रकार है-देव, नारकी, असख्यातवर्ष की आयुवाले, तिर्यच और मनुष्य-तीस अकर्म भूमियों, छप्पन अन्तदीपों और भरतादिक्षेत्र में उत्पन्न युगलिक तथा ढाईद्वीप के बाहर के द्वीप અકાળ મૃત્યુ થાય છે તે કારણેનુ પ્રાસ થવુ તે ઉપકેમ કહેવાય છે તે ઉપકમ દેવ અને નારકીઓને તથા ચશ્મ દેહધારી અને ઉત્તમદેહધારીને પ્રાપ્ત થતો નથી ચરમ દેહધારી અને ઉત્તમપુને કદાચ તે ઉપક્રમ પ્રાપ્ત થાય તે પણ તેનું આયુ થ અનાવર્તનીય-નિશ્ચિત કાળનું જ હોય છે તે નિયમ પ્રમાણે “તે” તે ५१५४ारी ! " अहाउय" मासा, मा२नी प्रायात वहना सोसवा छता પણ વચ્ચે મૃત્યુ પામતા નથી, એટલે કે તેમનું અકાળ મૃત્યુ થતુ નથી કારણ કે પૂર્વભવમા તેમણે અહીંનું જેટલું આયુષ્ય બાધ્યું છે તેટલું આયુષ્ય પૂરું થાય ત્યાં સુધી તેઓ અહી જ નરકાદિમા રહે છે, વધારે કે ઓછો સમય રહે તે નથી કહ્યું પણ છે "देवा नेरइया वि य, असखवासाउया तिरियमणुया। उत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीरा निरुवकमती" ॥ १ ॥ આ ગાથાને અર્થનું સૂચન છેડા પ્રમાણમાં કહેવામાં આવ્યું છે તેને સ્પષ્ટ અર્થ આ પ્રમાણે છે દેવ, નારકી, અસ ખ્યાત વર્ષના આયુષ્યવાળા તિય ચ અને મનુષ્ય-ત્રીસ અકર્મ ભૂમિ, છપ્પન અન્તદ્વીપ અને ભરતાદિ ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થયેલ સગલિક તથા અઢી હીપની બહારના દીપ સમામાં રહેતા Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनं याकरणसूत्रे } 'जमकाइय तासिया' यमकायिक त्रासिताः - यमकाधिकैः पञ्चदशविषैः परमाधार्मिकैः अम्नाम्नरीपादिभिर्नासिता = त्रास मापिताः 'भीया' भीताः= भयव्याकुलाः सन्तः ' सद्द दक्ष्यमाणमकारमार्तनाद ' करे ति ' कुर्वन्ति । ' किं ते ' के ते अतिशब्दाः ? इत्याह- अनिभाये 'त्यादि ' अनि ' अपि - वाक्यालङ्कारे 'भाय' भाग हे महाभाग = सामर्व्यवच्चात्, 'सामि' हे स्वामिन् ! अधिपतित्वात्, 'भाय ' हे भ्रात ! - सहायकत्वात्, ' वप्प' हे पितः ! - पाळकत्नात्, 1 'ताय' हे तात ! त्रायकत्वात्, जितव' हे जितपन् ! = हे विजयिन् ! – विजयशालियात्, 'मुय मे ' मुञ्च मा ' मरामि ' म्रिये, अह ' दुव्लो' दुर्बला = लद्दीनः 'नादि पीलिओ ' व्याधि पीड़ितः, 'किं' किमर्थ त्वम् ' इदाणि ' इदानीम् अस्मिन् समये 'दारुणो ' कटोर, 'णिद्दओ ' $ १०८ समुद्रों मे भी पाये जाने वाले तिर्यच - उत्तमपुरुष - तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, आदि, एव चरमशरीरी - उसी भव से मोक्ष जाने वाले जीव, ये सब निरूपक्रम आयुवाले होते हैं ॥१॥ 1 पापी जीव वहा (जमकाइयतासिया ) यमकायिक-पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक अम्ब और अम्नरीप आदि देवो के द्वारा त्रास को प्राप्त कराये जाते हैं । (मीया) इसलिये भय से सदा व्याकुल बने हुए वे वहा पर (सद्द) आर्तनाद (करेति) किया करते हैं (किं ते १) वे कौन २ शब्द करते है ? वही कहते है- (अविभाय) हे महाभाग (सामि) हे स्वामिन् ' (भाय) हे भाई ! ( वप्प ) हे पिता ! (ताय) हे तात' (जितव) हे विजयन् !(मुय मे ) तू मुझे छोड़ दे, (मरामि) मैं मर रहा है, (दुब्बलो ) मे बलहीन हू, (वारिपीलिओह) व्याधि से पीडित हो रहा हू, (किं इवाणि) क्यों इस समय तुम मेरे उपर (एव) इस प्रकार से (दारुणो निद्दओ य असि) 1 ८८ तिर्यय, उत्तम पुष-तीर्थं १२, अवर्ती, जगदेव, वासुदेव माद्दि, भने शरभ શીકી-એજ ભવમા મેક્ષે જનારા જીવે, એ સઘળા નિરુપક્રમ આયુષ્યવાળા होय ॥ ॥ त्या पाया वो "जमकाइय तासिय" यमाथि १४२ अारना परभाधाभिः सभ्ण मने सभ्ाीष याहि वो द्वारा त्रास पाने छे, “भीया" તેથી ભયથી વ્યાકુળ અનેલા તે જીવા ત્યા सद्द " सार्त्तनाद " करे ति " ४२ छे " किते ? " तेथे देवा देवा शब्दो मोड़े छे ? ते हवे हेवामा आवे छे " अविभाय " डे भडालाग! " सामि " हे स्वामिन्!" भाय " डे लाई ! वप्प " हे पिता ! “हे ताय " हे तात ।" जितव " डे विभ्यी ! “मुय मे" भने छोड़ी हे, " मरामि " हु भरी रह्यो " वाहिपोलिओह ” व्याधिथी पीडा रह्यो छु, भारा प्रत्ये “एव” या रीते " दारुणो निद्दओ य 66 LC दुब्लो " हु निर्माण छु, किं इयाणि " अत्यारे तभे असि " और ४. "" Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० २९ यमा नारयान् प्रति किं फुपन्ति' १०९ निर्दयः-दयारहित , ' असि' भासि ?, मा देहि 'मे' मा 'पहार' प्रहारान् मा मा ताडयेत्यर्थः । 'अस्सासेउ' उझसितु-वासमात्र ग्रहीतु 'मे' मा 'मुडुत्त' मुहूर्त क्षणमात्र देहि, येन श्वासमानमपि मुसमनुभनामीति भावः, 'पसाय' मसादम्-अनुग्रह 'करेह ' उम्त 'मा रसद' मा रुप्यत-क्रोध मा कुरुत । वीसमामि विश्रमामि-किञ्चित्काल विश्राम करोमि अतः 'मे' मम 'गेविज्ज' अवेयक-ग्रीवास्न्धन 'मुयह ' मुश्चत-त्यजत यतो हि-जह 'मरामि' म्रिये, गाह अत्यधिक 'तण्डाइओ' तृष्णार्दितः पिपासाकुलितोऽस्मि मे मा 'पाणिय' पानीय नल देहि ।। मृ० २८॥ एव नारकैः कथिते सति यमपुरुषाः यत् कुन्ति तदाह-'ताहे त' इत्यादि । मूलम्-ताहे त पिय इम जलं विमल सीयलति घेत्तूण य नरयपाला तवियं तउयं से दिति कलसेण अंजलीसु दह्रण य त पवेवियगोवगाअंसुपगल तपप्पुयच्छा छिण्णा तण्हा इयम्ह कलणाणि जपमाणा विपेक्खता दिसोदिसि अत्ताणा असरणा अणाहा अबंधवा वधुविप्पहीणा विपलायति य मियविववेगेण भउब्विग्गा, घेत्तण वला पलायमाणाणं निरणकपामुह विहाडेउं लोहदंडेहि कलकलण्ह वयणसि छुभति केइ जमकाइया हसता॥२९ ___ कठोर और निर्दय हो रहे हो, (मा देहि मे पहारे) मुझ पर प्रहार मत करो (अस्सासेउ मुहत्त मे देहि ) मुझे कम से कम मुहूर्त-क्षण मात्र भ्वास तो लेने दो, (पसाय करेह) मेरे ऊपर दया करो, (मा रुसह) मुझ पर शोध मत करो, (वीसमामि) में कुछ कालतक विश्राम करना चाहता हु-अत (गेविन मुयह मे ) मेरी ग्रीवा के बंधन को तुम छोड दो, देखो (गाढ तण्डाइओ अह ) गहरी प्यास से व्याकुल होकर मै मर रहा है अतः मेरे लिये ( देहि पाणिय ) पीने को जल दो ॥ २८॥ भनी हा छ। १ ‘मा देहि मे पहारे" भा२१ ५२ प्रडा न ४। “अस्सासेउ मुहुत्त मे देहि " भने माछामा माछी से क्षण माटे तो पास हो "पसाय करेह " भा। ५२ या उौ, "मा रुसह" भारा ५२ अधन ४२, " वीसमामि" यो समय विश्राम ७२। भार छु तो “गेनिज्ज मुयह मे" भारी भानु धन तमे हो, नुवो “ गाढ तहाइओ अह" सारे तृपाथी व्याण यधन हु भी रह्यो छु तो भने "देहि पाणिय" पावाने માટે જળ આપો” | સૂ ૨૮ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण टीका-यदि व पिपासितः 'ताहे ' तदा 'त' व 'इम' इदं 'विमलं' निर्मल ' सीयल ' शीतल जल ‘पिय ' पित्र, इति कथयिता नरयपाला' नरकपालाम्=परमाधार्मिका 'तनिय' तापितम्-उत्कालित 'तउय' पुक कथीर' इति प्रसिद्ध सीसफ बा, 'कलसेण' कलशेनघटेन 'से' तस्मै नारकाय 'अ जलीस य' अञ्जलिपु च 'दिति ' ददति । 'त' तत्-तापित पु 'दद्रूण' दृष्ट्वा अवलोक्य 'पवेचियगोवगा' मवेपितागोपाला अर्पण वेपितानि कम्मि वानि अङ्गानि उपाङ्गानि च येपा ते तथाकम्पितसर्वशरीराः 'अम-पगल-तपप्पुयच्छा' प्रगल्दश्रुमप्लुताक्षा: भगलद्भिः अश्रुभिः प्रप्लुते व्याप्ते अक्षिणीनयने येपा ते तथा, प्रक्षरत्मालाश्रुधाराः सन्त 'अम्ह । अस्माक ' तण्डा' तृष्णा 'छिण्णा' छिन्ना-नष्टा ' इय' इति एवमुस्त्या 'कलुणाणि' करुणानि ___ इस प्रकार नारक जीवों के कहने पर परमाधार्मिक जो कुछ उनके साथ करते हैं वह सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'ताहे' इत्यादि । टीकाथ-(ताहे त) यदि तुम पिपासित हो तो (इम ) इस (विमल) निर्मल ( सीयल) शीतल (जल) जल को (पिय) पिओ ऐसा कह कर (नरयपाला) वे नरकपाल परमाधार्मिक देव (तविय ) उचाले हुए कथीर को अथवा सीसे को (कलसेण) कलश मे भरकर (से) उस नारकी के लिये ( अजलीसु) अजलि में (दिति ) देते हैं। (त) उस तपे-हुए-त्रपु-सीसे-को (दहळूण य) देखकर (पवेवियगोवगा.) उननारकियो का समस्त शरीर-अग-उपाग बहुत अधिक रूप में कपने लगते है। और ( असुपगलतपप्पुयच्छा ) उसी स्थिति मे वे निकलते हुए आसुओं से अपनी आखो को व्याप्त करके उनसे कहते है कि (छिपणा तण्हा अम्द ) अब हमारी प्यास शात हो गई है (इय)-इस નારકી જેના એ પ્રકારના શબ્દ સાંભળીને પરમાધમ તેમની સાથે वो वाव रे छे ते सूत्रा२ मताछ- 'ताहे" त्यादि साथ-"ताहेत"नतमन तरस दायतो "इम" " विमल" निभ, "सीयल" शीत "जल' पी "पिय" पाव। सभ डीन "नर-- थपाला" ते न२४पास ५२भाधामि । "तविय" माणेस १२म थोर अथवा सीसाने "कल्सेण' ४५शमा मरीन 'से" तानाश्रीन "अजलीसु" 40 लिमा दिति" मा छ "त" ते गरमा २५ धु-सीसाने दहाण य" न. "पवेवियगोवगा" ते नासीमाना मा सत्यत at खाणे छ "अपगलत पप्पुयच्छा" ते स्थितिमा मासुमरी मातेसा तभ२ 8 "छिण्णा तण्डा अम्ह" व भारी तृषा शत छ । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशिनी टीका १० । सू० ३० वेदनापीडितनारकामन्दनिरूपणम् १११ वचनानि 'जपमाणा' जल्पमानाप्रलपन्तः 'दिसोदिसिं 'दिशोदिश-एफस्या दिशोऽन्यां दिशमितस्तत इत्ययः 'विपेक्खत्ता' विप्रेक्षमाणाः समन्तात् पश्यन्तः 'अत्ताणा' अत्राणाः रक्षाहीना , अतएर 'असरणा' अशरणा-शरणरहिताः, अतएर ' अगाहा' अनाया दीनाः, ' अवधा' भान्धवा मान्धारहिताः, 'पधुविप्पहीणा' बन्धुविहीणा विद्यमानसम्बन्धिविपयुक्ताः, 'मियविव' मृगा इव 'भउन्विग्गा' भयोद्विग्नाः मयन्याकुलाः 'वेगेण' वेगेन 'विपलायति' विपलायन्ते प्रधावन्ति, ततः प्रधापमानान् तान् नारकान् ‘वला' चला 'घेत्तूण' गृहीला 'निरणुकपा' निरनुकम्पादयारहिताः 'केड' केऽपि 'जमझाइया' यमझायिकाः-परमाधार्मिकाः, हसता हसन्त 'पलायमाणाण' पलायमानाना च तेपा 'मुह 'मुस 'लोहदेण्डेहि ' लोहदण्डै', 'विहाडेउ' विघाटप उद्घाटय ' कलकल ' अतितप्तत्वात् कल-कल शब्दयुक्त पूर्वोक्त त्रपुक मकार कहकर वे (कलुणाणि जपमाणा) कम्णा वचनोंका उच्चारण करते हुए (दिसोदिसि विपेक्खता) वहा से दूसरी दिशा में इधर उधर देखते हुए (अत्ताणा) रक्षक रहित (असरणा) शरण रहित (अणाहा) विनानाथ के (अवधवा ) दीनदशा सपन्न (चधुविप्पहीणा) बांधवों से ररित-रक्षक जनों से रहित, अतः (भउन्विग्गा) भय से व्याकुल बन कर वे (मियविन) मृगों की तरह वहा से (वेगेण ) वेगपूर्वक (विप्पलायति) भागते हैं। इसके बाद भागते हुए उन नारकियों को (वलाघेत्तूण )जपर्दस्ती से पकड़कर (निरणुकपा) दयारहित बने हुए (केइ) कितनेक (जमकाइया) यमझायिक परमाधार्मिक देव (हसता ) हँस हँसकर (पलायमाणाण) पलायन करते हुए उनके (मुह ) मुख को (लोरदडेहिं) लोरदडों से (विताडेउ) फाडकर फिर उसमें (कलकप्रभारी डीन "कलुणाणि जपमाणा" ३१४ वयना मात, " दिसो दिसि विप्रेक्यता" त्याथी मी मा पाम तेभ नेता, "अत्ताणा" २२४ विमान "असरण', शरण विनाना, "अणाहा" मनाथ, "अयधवा" हीनभा भूयेसा, "बधुविप्पहीणा" माधो विनाना-२क्ष उ२॥२ विनाना, मेवात नारी पो "भउबिग्गा" अयथी व्याज मनीन "मियविव" भृगानी भ. त्याथी वेगेण" थी 'विप्पलाय ति ' खाणे छ त्यारा माता सेवा ते नाही वाने "बलात्तूण"नर नुसमयी ५502 "निरणुकपा" या २डित मनेसा “केई" टा४ "जमकाइया" यमयि, ५२मायामि वो "हसता" सी उसीन "पलायमाणाण" नासता सेवा तमना "मुह" भुमने 'लोहडे हिं" सोढाना Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभम्याकरण - - स कीदृशो निर्घोपः ? इत्याह- रसिये ' त्यादि। मूलम्-रसिय-भणिय-कुविय-उक्कूइय-निरयपालतज्जियंगेण्ह कम पहर छिद भिद उपाडे हुक्खणाहि कत्ताहि विकत्ताहि यभंजहण विहण विच्छभोच्छन्भ आकड विकड्ड किंणजपसि? सराहि पावकम्माइ कियाइ दुकयाइ एव वयणमहप्पगम्भो सपडि सुयसहसकुलो उत्तासओ सया निरयगोयराण महाणगरडज्झमाणसरिसो निग्घोसो सुव्बए अणिहो तहियं नेरइयाण जाइज्जताणं जायणाहि ॥ सू०३१ ॥ ___टीका-'रसिय-भणिय - कूइय - उक्फूइयनिरयपालतज्जिय ' रसितभणित-कुपितोत्कूजित-नरकपाल-तर्जित-तर- रसिय' रसितागूफरवद् घोरशब्दकारकाः, 'भणिय' 'भणिता =उच्चैः शब्दकारकाः, 'कूइय' कूजिता अव्यक्तबनिकारकाः, 'उक्कूइय' उस्कूजिताः भयजनकाव्यक्तशब्दकारकाः ये 'निरय (णीसिहो) प्रवल दुःखजनित महा शब्द वहा 'सुना जाता है ' (यह आगे से सम्बन्ध है ) ॥सू ३०॥ उस समय परमाधार्मिक परस्पर में किस प्रकार की बातचीत करते है ? यह सूत्रकार कहते हैं-'रसिय-भणिय' इत्यादि। टीकार्थ-नरको में नारकियों को हरएक प्रकारसे व्यथा पहुँचानेवाले वे परमाधार्मिक नारकियों को फिर अधिक कष्ट पहुँचाने के अभिप्रायसे (रसिय भणिय-कूइय उड्य-निरयपालतजिय) (रसिय) सूअरके जैसे भयकर घोर शब्दों को (भणिय ) उच्चस्वर से करते है ! उस मे वे (कूइय) अव्यक्त ध्वनि करते है ( उकूइय) इस से नारकियों को और पामा भाव छ भने तना शहाथी व्यास मेवाणीसिद्रो" प्र मજનિત ચિત્કાર ત્યા સભળાય છે” (આ પ્રમાણે આગળના શબ્દો સાથે समय छ ) ॥ ३०॥ તે સમયે પરમધામિકે પરસ્પર કેવી વાત કરે છે તે સૂત્રકાર બતાવે छ- 'रसिय-भजिय" त्यादि 1 ટકાઈનરકમાં નારકીઓને દરેક રીતે વ્યથા પહચાડનાર તે પરમધામિકે, नारामान ७५ पधारे ४८ मापवान भाट "रसिय-भणिय-कूइय, उक्कूइय -निरयपालतज्जिय" "रसिय" सूवरना २ सय ४२ धार पनि "भणिय" ये खरे ४२ छ तेशा " कूइय" भव्यत पनि रे छे “उक्कूइय" ते Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३१ वेदनापीडितनारकामन्दनि?पवर्णनम् ११५ पाल' निरयपालाः परमाधार्मिका:, तेपा 'तज्जिय' तर्जितम्नारकजीनान् लक्षीकृत्य परस्पर तर्जनाज्ञावाक्य वक्ष्यमाणप्रकारमस्ति, तथाहि-अम्बाभिध परमाधामिकोऽम्बरीप कथयति-हे अम्बरीप ! एन पलायमान पापिन नारक 'गेण्ड' गृहाण । एव परस्परमेक परमाधार्मिको द्वितीय कथयति-एन नारक 'कम' क्रम पादमहारैः पीडय 'पहर' प्रहर-एन नारक दण्डादिभिस्ताडय हिंद' छिन्धि =खद्गादिभिः खण्डशः कुरु 'भिंट' भिन्धि-मल्लकादिभिर्भेदय 'उप्पाढेह' उत्पाटय-शरीरावचादिक पृथक्कुरु ' उपखणाहि' उत्खन-निष्कासय अक्षिगोलादिकम् 'कत्ताहि ' कृन्तन्छेदय-छुरिकादिमिर्नासिकादिक, तथा-'फित्ताहि' विकृन्त वर्णनासिकादिक मूलतश्छेदय, 'भज' भन्न-हस्तपादादिक त्रोटय, 'हण' जहि-शतघ्न्यादिभिरिय, 'विहण' विजहि-महाशिगदि पातनादिभिरनेकमकारैः अधिक भय उत्पन्न हो जाता है । इस प्रकार रसित, भणित, कूजित एवं उत्कृजित शब्द करने वाले उन परमाधार्मिकों की तर्जित-नारकियों को लक्ष्य करके जो परस्पर मे कष्टादि पहुँचानेवाली बातचीत होती है वर इस प्रकार है-(गेण्ड ) अम्न नाम का परमाधार्मिक अम्बरीप से कहता है-हे अम्बरीपतृ इस भागते हुए पापी नारकी को पकड लो और (कम) इस को लातों से मारों। बाद में (पहर ) इसे दडों से खूय पाटो । (छिंद ) ज्यादा और क्या कह-तलवार आदि से इसके शरीर के खंड २ कर डालो । (भिंद ) भाला आदि से इसके शरीर को भेद दालों ( उप्पाडेद ) इसकी खाल उत्तारलो, (उक्खणादि) इसकी आंखें निकाल लो, (कत्ताहिय) इसका नाक काट डालो (विकत्ताहि) कर्ण नासिक आदि इन्द्रियों को मूल से बिलकुल साफ कर डालो। (भज) हाथ पैर आदि को मरोड डालो। (रण) शतघ्नी आदि से इसको धुरी तरह से मारो। (विण) महाशिला आदि के ऊपर इसे पछार डालो। (विच्छुभ ) कुए आदि में इसे पटक दो। ( उच्छुभ ) કારણે નારદીઓને વળી વધારે ભય લાગે છે એ રીતે રસીત, ભણિત, કૂજિત, અને ઉત્કૃજિન શબ્દ કરનારા તે પરમધામિકોથી તજિંત-નારકીઓને ચીપીને, તેમને કઈ દેનારી પરસ્પરમાં જે વાતચીત થાય છે તે આ પ્રકારની હોય છે"गेण्ह " म नामने। ५२भाधाभिः सपरीषने उडे छ-" सभ्यरीष ! તું આ નાસી જતા પાપી નારકીને પકડી લે અને “મ” તેને લાત માર पछी "पहर" तेन 43 भूम २८१२ “छिंद" वधारे शु ! सवार આદિથી તેના શરીરના ટૂકડે ટૂકડા કરી નાખ “મ” ભાલા આદિ વડે તેના शरीरने वीथी नाम "उप्पाडेह" तनी यामी 6तारी नाम, “विकत्ताहि" डान, न मान्द्रियान भृगमाथी पीनामा, "भज" य ५५ माहिने भ२७ नाम, "हण" शतनी माहितेने मरामा भारी, "विहण" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re स कीदृशी निर्घोषः ? इत्याह-- ' रसिये ' त्यादि । मूलम् - रसिय- भणिय - कुत्रिय - उक्कूइय - निरयपालतजियंगेह कम पहर छिंद भिद उपाडेहुक्खणाहि कत्ताहि विकत्ताहि यभंजहण विहण विच्छुभोच्छुभ आकड्ड विकड्ढ किंणजपसि ? सराहि पावकम्माई कियाइ दुक्कयाई एव वयणमहप्पगन्भो संपडि सुयसदसंकुलो उत्तासओ सया निरयगोयराणं महाणगरज्झमाणसरिसो निग्घोसो सुन्वए अणिट्टो तहिय नेरइयाण जाइज्जताणं जायणाहिं ॥ सू०३१ ॥ टीका- 'रसिय- भणिय - कूइय - उक्कूइयनिरयपालतज्जिय ' रसितभणित- कुपितोत्कृजित - नरकपाल - तर्जित - वन - 'रसिय ' रसिता करवद् घोर शब्दकारकाः, ‘भणिय' ' भणिता = उच्चैः शब्दकारका', 'कूइय' कूजिता = अव्यक्तध्वनिकारकाः, ‘उक्कूइय ' उत्कृजिताः भयजनकाव्यक्तशब्द कारकाः ये 'निरय ( णीसिट्ठी ) प्रबल दुःखजनित महा शब्द वहां ' सुना जाता है ' ( यह आगे से सम्बन्ध है ) ॥ सू ३० ॥ उस समय परमाधार्मिक परस्पर में किस प्रकार की बातचीत करते है ? यह सूत्रकार कहते हैं-' रसिय- भणिय ' इत्यादि । टीकार्थ-नरकों में नारकियों को हरएक प्रकारसे व्यथा पहुँचानेवाले वे परमाधार्मिक नारकियों को फिर अधिक कष्ट पहुॅचाने के अभिप्रायसे ( रसिय भणिय - कूय उक्कूय - निरयपालतज्जिय) (रसिय) सूअरके जैसे भयकर घोर शब्दों को ( भणिय) उच्चस्वर से करते है । उस में वे ( कृइय ) अव्यक्त ध्वनि करते हैं (उकूइय ) इस से नारकियों को और વામા આવે છે અને તેના શબ્દોથી વ્યાપ્ત એવા णी सिट्ठो પ્રમળ દુ જનિત ચિત્કાર ત્યા સ ભળાય છે (આ પ્રમાણે આગળના શબ્દો સાથે सबंध छे ) ॥ सू ३० ॥ , તે સમયે પરમાધાર્મિકા પરસ્પર કેવી વાતે કરે છે તે સૂત્રકાર ખતાવે छे- ' रम्रिय- भजिय " इत्याहि प्रश्नव्याकरणसूत्रे " ટીકા -નરકામા નારકીઓને દરેક રીતે વ્યથા પહેાચાડનાર તે પરમાધામિકા, नारडीओने हुनु पशु वधारे ष्ट आपवाने भाटे "रसिय- भणिय - कूइय, उक्कूइय - निरयपालवज्जिय " " रसिय" सूवरना नेवा लय५२ घोर ध्वनि “ भणिय " ७ मे २१रे १रे छे तेथे " कूइय અવ્યક્ત ધ્વનિ કરે છે " उक्कूइय "ते 27 65 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܪܕ सुदर्शिनी टीका ० १ सू० ३२ यातनाप्रकारनिरूपणम् 'जायणाहि ' यातनाभि =कदर्शनाभिः ' जाइज्जताण' यात्यमानाना = दण्डय - मानाना 'नेरहयाण ' नैरचिकाणा=नारकजीवानां च उभयेषामित्यर्थः, 'अणिट्टो ' अनिष्टः - अमीविकारकः 'णिग्घोसो' निर्घोषः - महानादः 'सुब्बा' श्रयते॥० ३१ ॥ कास्ता यातना ? इति यातना प्रकारमाह - ' किं ते ' इत्यादिमूळम् कि ते ? असिवण- दग्भवण-जतपत्थर - सूइतलक्खारवावि-कलकलतवेयरणि- कलववालुया - जलियगुहनिरंभणं उसिणोसिण --- कटइल - दुग्गमरहजोयण- तत्तलो हम ग्गगमण वाहणाणि ॥ सू० ३२॥ टीका- ' किं ते ' कास्ता यातनाः ? उन्यते - ' असिवण' असिवनं= खद्गाकारपत्रनन, 'दव्भवण' दर्भवन =दर्भाः - तीक्ष्णमुरवातृणविशेपास्तेपा वन, गोयराण) परमधार्मिकों का तथा (तहिय ) वहा ( जायणारि ) पातनाओं द्वारा (जाइज्जताण ) दण्डयमान ( नेरहयाण ) नारकियों का ( अणिट्टो ) अनिष्ट ( णिग्घोसो) निर्घोष - शब्द उन नरकों में (सुब्बए) सुना जाता है ॥ ३१॥ अब सूत्रकार पूर्वोक्त यातनाओं के प्रकारों को प्रकट करते है' किं ते ' इत्यादि । टीकार्य - प्रश्न -- (किं ते) वे यातनायें फोन २ हैं ? उत्तर—वे यातनाएँ इस प्रकार हैं ( असिवण- दग्भवण-जतपत्थर सुइतल - खारचावि - फलकलतवेयरणि-कलन वालुया - जलियगुहनिरुमण ) अम्न और अम्बरोप परमाधार्मिक उन नारकियों को (असिवण ) तलवार की धार के आकार वाले पत्रो के वन में ( दग्भवण ) मेवो, “निरयगोयराण" परभाषाभिओन तथा " तहिय" त्या "जायणाहि" यातनाओ। वडे "जाइज्जता " शिक्षा सहन रा नेरइयाण " नारडीओोनो "अणिट्टो" अनिष्ट निवेष-राण्ड, ते नरोभा " सुव्वए " सलजाय छे ॥ ३१ ॥ 66 वे सूत्रार पूर्वथित यातनाओना अमर बताये -“कि ते १४त्याहि टीर्थ- 66 - प्रश्न किं ते?" ते यातनाओ हुयी थी ? ઉત્તરતે યાતનાએ આ પ્રમાણે હાય છે " असिवण, दभवण, जतपत्थर, सूइतल, क्सारवावि, कलस्लतवेयर णि, फलन वालुया, जलियगुह, निरुमण " शुभ् भने सभ्णरीष નામના પરમા धाभि। ते नारी कवीने "असिनण" तसवारी धार वा मारना पत्रोना वनभा, "दव्भवण" तीक्ष्य मालीवाजा हल विशेधोना वनमा “जत पत्थर' यत्र Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण मारय, 'पिच्छुभ' विक्षिप=कृपादौ मसिप, 'उन्म' उन सिप उर्वक्षिप 'आकडू' आकर्ष-कचादिक गृहीत्वाकर्पय=ण्टकाकीर्ण भूमा धर्पयेत्यर्थ , 'किड' विकर्ष अधो मुख कृत्वा घर्षय । एतादृशी वेदना दचा नारकान् पति वदति, 'किंण जपसि' किं न जल्पसि-कथं न पदसि दे पापिन् 'सराहि' स्मर स्मरण कुरु कियाइ' कृतानि = पूर्वभवसमाचरितानि, 'दुवयाह' दुप्कृतानिप्राणातिपातादीनि 'पानकम्माइ' पापकर्माणि । एव अनेन प्रकारेण 'यणमहप्पगम्भो' वचनमहानगरमा वचनैः नरकपाकयाग्भिः महाप्रगल्भा अतिदुर्धर्षः भयावह-इत्यर्थ 'सपडिसुयसदसकुलो ' समतिश्रुतशब्दसकुला समविश्रुताप्रतिध्वनितः यः शब्दः, तेन सकुलाव्यातः । 'सया' सदा-सदा 'उत्तासओ' उत्त्रासका=परमत्रासजनका 'महाणगरडज्ज्ञमाणसरिमो' महानगरदहामानसदृशः =दह्यमानस्य-मज्वल्यमानस्य महानगरस्य य शब्दस्तेन तुल्यः, एतादृशः 'तहिय' तत्र नरके-'निरयगोयराण' निरयगोचराणा-निरयगौः नरफभूमिः, तर चरन्ति =नारकनासाथ विचरन्ति ये ते निरयगोचरा परमाधामिकास्तेपाम् , तथाऊपर इसको उछाल दो। (आकड ) पाल आदि पकड़ कर इसे कण्टकाकीर्ण भूमि में खूब खेंचों। (विकड़ढ ) इसे ओंधा मुख करके जमीन पर खूब रगड़ो। इस प्रकार की वेदना देने की बात कहकर फिर वह उन नारकियों से कहता है-(किं ण जपसि) हे पापी। तू घोलता क्यों नहीं है (सराहि पावकम्माइ कियाइ दुकयाइ ) पूर्वभव मे समाचरित प्राणातिपात आदि अपने पापकर्मो को अब तू याद कर ले। (एव) इस प्रकार का ( वयणमहप्पगम्भो नरकपाल की वाणियों द्वारा अतिदुर्धर्षे भयकर बना हुआ, (सपडिसुयसईसकुलो) प्रतिध्वनि से व्याप्त हुआ, (सया उत्तासओ) सर्वदा दूसरो को त्रास जनक एव (महाणगरडझ माणसरिसो) दह्यमान महानगर के शब्द के जैसाउद्भूत हुओं (निरभडाशिक्षा मा ५२ ते२ ५। "विच्छम" या कोरमा ते ज , "उच्छुम" तेने ये छामो, “आकड्ढ" ते२ वा माहितीन टाकी भीनमा घसी, "विकड्ढ" तेन धा मोमीन ५२ ॥ २गहोगी । प्रभारी बना पायापानी पात ४शन ते ना२४ी छान उड छ “किण जपसि", पापी तु मालतेभनथी ? "सराहि पावकम्माइ कियाइ दुकयाइ" પૂર્વભવમા આચરેલ પ્રાણાતિપાત આદિ પાપકમેને તુ યાદ કરી લે “ga” આ प्रहार "वयणमहप्पगम्भो" न२७पासनी वाणी 43 अति -मय४२ साता, "सपडिसयसहसकुलो" पाथी व्यास था, "सया उत्तासओ" सही मानने नासन, सने "महाणगरडज्झमाणसरिसो" णत महानगरमाथी . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० १ सू० ३३ यातनाविपये आयुधप्रकारनिरूपणम् ११९ यातनाविपये आयुधमकाराह-' इमेहिं ' इत्यादि मूलम्-इमेहि विविहेहि आउहेहि कि ते ' मुग्गरमुसुंढिकरकय-सत्ति-हल-गय मुसल-चक-कात तोमर सूल-लउल भिडिपाल सम्वल पटिस चम्मे-दुहण मुट्रिय-असि खेटग खग्ग-चावनाराय कणक-कप्पिणि वासिपरसु-टक-तिक्ख-निम्मलहि अण्णेहि य एवमाइएहि असहेहिं वेउविएहि पहरणसएहि अणुवद्धति बवेरा परोप्परं वेयण उईरति अभिहणंता ॥ सू० ३३ ॥ ___टीका-'इमेहिं ' एभिः चक्ष्यमाणः 'विविहेहिं ' विविधैः अनेकप्रकारैः 'भाउहेहिं' आयुधैः शस्त्रैः परस्पर यातनाम् उदीरयन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'कि ते' कानि तानि आयुधानि ? इत्याह-~-'मुग्गर ' मुद्गरः प्रसिद्धः 'मुसुदि' शस्त्र लोहमय मार्ग के ऊपर उन्हें चलाते हैं और फिर ( वारणाणि ) उनसे शक्ति से भी अधिक भार को वहन कराते हैं ॥सू. ३२ ॥ अय सूत्रकार यातना के विषय में आयुधों के प्रकारों को कहते हैं-'इमेहिं विविहेहिं ' इत्यादि । ___टीकार्थ-(इमेहिं)इन वक्ष्यमाण (विविहेहिं) अनेक प्रकारके (आउहेहिं) आयुधों-शस्त्रो से वे नारकी परस्पर में यातना ( वेदना) को उत्पन्न करते हैं । इस प्रकर से यहां सबध घटित कर लेना चाहिये-( किं ते) , व आयुध कौन २ से है ? सो उन्हें प्रकट करते हैं-(मुग्गर ) मुद्र (मुसुदि ) मुसुढि-शस्त्र विशेप ( करकय ) कच-करोंत (सत्ति) तपास सोढाना भाग 6५२ तमः सा छे मन वजी "वाहणाणि" तेमनी શક્તિ કરતા પણ વધારે છે જે તેમની પાસે ઉપડાવે છે કે સૂ ૩૨ છે હવે સૂત્રકાર યાતનાઓ આપવા માટે ઉપયોગમાં લેવાતા આયુધેનુ पधुन ४२ छ-"इमेहिं विविहेहि" छत्यादि "इमेहिं विविहेहि" नाय विधामा सावता मने प्रारना "आउहेहि" આયુધ-શાસ્ત્રો વડે તે નારકીઓ પરસ્પરમાં યાતના “વેદના” ઉત્પન્ન કરે છે, એ પ્રકારનો સબધ અહીં સમજી લેવાને છે "किं ते?" मायुध। ध्याच्या छ १ तासूत्रस२ ते आयुधो मताव छ"मगर" भात, “मुसुढि" भुसढी नामनु शत्र, "करकय" ४३५-४२वत, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणरचे 'जत पत्थर' यन्त्र प्रस्तरा घरहादयः 'सहतल' मुचीतल अमुग्यसूचीमय भूमिभागः, 'यखारवादि' क्षारयाप्य क्षारजळसभृतवापिका, 'कफलतवेयरणि । फलकलायमानवैतरणी = कलालशन्दायमानमतप्तनपुसीसादिपर्णा वैतरणी नामधेया नदी, 'कलपरालया' कदम्बवालका असिसन्तप्तत्वात्वदम्ब पुप्पपद् रक्तवालुकामयी नदी, 'जलियगुह ' ज्वलितगुहा-प्रज्वलिताग्निमयीकन्दरा, इत्येतेपा द्वन्द्वः, तेपु असिवनादिपु 'निरुभण' निरोधनम् , तथाउसिणोसिणकटइल्लदुग्गमरहोयणतत्तलोहमग्गगमणराहणाणि' उष्णोष्णकण्टकाकीर्णदुर्गमरथयोजन तप्तलोहमार्गगमनवाहनानि-उष्णादप्युषण इत्युष्णोष्णः अत्युष्ण कण्टकैः सुतीक्ष्णकीलकैराकीर्णो-व्याप्तो दुर्गमः दुःखेण गमागमन यस्य स तथा, दुर्गमश्च यो रथः तस्मिन् योजन-सयोजन बलीव नामेवेति तत्तथा, तच, तप्तलोहमयमार्गे गमन-नयन वाहन-भारोद्वाहन चेति तथा तानि ।।०३२।। तीक्ष्ण अग्रभागवाले दर्भ विशेषों के वन में (जतपत्थर) यत्र प्रस्तरों में (सूहतल ) उर्ध्व मुखवाली सूइयों से युक्त भूमिभाग में, (खारवावि) खारे जल से परिपूर्ण हुई वावडियों में, (कलफलतवेयरणि) कलकल शब्द से युक्त ऐसे द्रवीभूत हुए रांग और सीसे आदि से भरी हुई वैत. रणी नाम की नदी मे, (कलयवालुया) अत्यततप्त होने के कारण कद. म्बपुष्प के समान रक्त वर्णवाली वालुका से युक्त नदी में, (जलियगुह) प्रज्वलित अग्निमयी कन्दराओं में, (निरुभण ) रोक देते हैं। (उसिणोसिणकटइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोहमग्गगमणवाणाणि) (उसिणोसिण ) अत्यत उष्ण, ( कटइल्ल ) सुतीक्ष्णकटकों से आकीर्ण, तथा (दुग्गम) दुर्गम-मुश्किल खीचा जा सके ऐसे ( रजोयण) रथ में उन नारकियों को बैलों की तरह जोत देते है। (तत्तलोहमग्गगमण) तप्त प्रस्तरीमा, “सूइतल" Qiatणो लाn seq" स्थितिमा हाय मेवी सोयोथी युक्त मूभि ५२, "सारवावि" मास थी लरेसी पावामा, "कलकलतवेयरणि" ખળ ખળ અવાજથી યુક્ત ઓગાળેલા કથીર, સીસુ આદિના રસથી ભરેલ वैतर नामनी नहीमा, “कलप्रवालुया" मतिशय तपसी डावाथी उ पना समान २४तव तीथी युत नहीमा, "जलियगुह" पलित मनिपानीशसभा "निरुभण" २४ी है छ “ उसिणोसिणकटइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोह मगामणवाहणाणि" " उसिणोसिण" अतिशय BY "कटइल्ल " अतितleet पोटाथी वायर, तथा "दुग्गम" दुर्गम-भुश्तीथी थी Astय तवा "रहजो यण" २थ साथे ते नारीमान मनी रेभ ने छ " तत्तलोहमग्गामण" Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३३ यातनायिपये आयुधप्रकारनिरूपणम् ११९ यातनाविपये आयुधमकाराह-'इमेहिं ' इत्यादि मूलम्-इमेहिं विविहहिं आउहेहि कि ते ' मुग्गरमुसुंढिकरकय-सत्ति-हल गय मुसल-चक-कात तोमर सूल-लउल-भिडिपाल सबल पहिस-चम्मट्ट-दुहण मुट्रिय-असि खेटग खग्ग -चावनाराय कणक-कप्पिणि वासिपरसु-टंक तिक्ख-निम्मलेहि अण्णेहि य एवमाइएहि असुहेहि वेउविएहिं पहरणसएहि अणुवद्धति बवेरा परोप्परं वेयण उईरांति अभिहणंता ॥ सू० ३३ ॥ . टीका-'इमेहिं ' एमिः वक्ष्यमाणः 'विविहेहिं ' विविधैः अनेकमकारैः 'उहेहि भायुपैः शस्त्रैः परस्पर यातनाम् उदीरयन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'किं ते' कानि तानि आयुधानि ? इत्याह-'मुग्गर' मुद्गरः प्रसिद्धः 'मुसुढि' शस्त्र लोरमय मार्ग के ऊपर उन्हें चलाते हैं और फिर ( वाहणाणि ) उनसे शक्ति से भी अधिक भार को वहन कराते हैं ॥सू. ३२॥ .. अब सूत्रकार यातना के विषय में आयुधों के प्रकारों को कहते हैं-'इमेहिं विविहेहिं ' इत्यादि । टीकार्थ-(इमेहिं) इन वक्ष्यमाण (विविहेहिं) अनेक प्रकारके (आउहेहिं) आयुधों-शस्त्रो से चे नारकी परस्पर में यातना (वेदना) को उत्पन्न करते हैं । इस प्रकर से यहां संबध घटित कर लेना चाहिये-(किं ते) , वे आयुध कौन २ से हैं ? सो उन्हें प्रकट करते हैं- (मुग्गर ) मुद्गर (मुसुदि ) मुसुढि-शस्त्र विशेप (करकय ) कच-करोंत (सत्ति) तपास सोढाना भाग 6५२ तेमन यसावे छ भने वजी "वाहणाणि" तेमनी શક્તિ કરતા પણ વધારે છે જે તેમની પાસે ઉપડાવે છે કે સૂ ૩૨ હવે સૂત્રકાર યાતનાઓ આપવા માટે ઉપયોગમાં લેવાતા આયુધોનુ qणुन ४२ छ-"इमेहिं विविहेहिं" त्याह "इमेहिं विविहेहिं" नीय विवामा आवेता भने प्रान “आउहहिं" આયુ–ાસ્ત્રો વડે તે નારકીઓ પરસ્પરમાં યાતના “વેદના” ઉત્પન્ન કરે છે, એ પ્રકારને સ બ ધ અહી સમજી લેવાને છે ____"किं ते?" ते सायुधे। ज्या ज्या छ ? तासून ते मायुधो मताव छ"मगर" भाण, "मुसुढि" भुसढी नामनु शर, "करकय" ५७--२५त, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण 'जत पत्थर' यन्त्र प्रस्तरा घरहादयः 'सइतल' मुचीतल मुससूचीमय भूमिभागः, 'वखारवानि' क्षारवाप्य =क्षारजलसमृतवापिकाः, 'कलफलतवेयरणि । फलकलायमानवैतरणी = कलपलशदायमानमवतनपुसीसकादिपूर्णा वैतरणी नामधेया नदी, 'कलपनालया' कदम्बवालुका-असिसन्तप्तत्वात्कदम्ब पुप्पपद् रक्तवालुकामयी नदी, 'जलियगुह ' ज्वलितगुहा प्रचलिताग्निमयी कन्दरा, इत्येतेपा द्वन्द्वः, तेपु असिवनादिषु 'निरंभण' निरोधनम् , तथाउसिणोसिणकटइलदुग्गमरहजोयणतचलोहमग्गगमणपाहणाणि' उष्णोष्णकण्टकाकीर्णदुर्गमरथयोजन तप्तलोहमार्गगमनबाहनानि-उष्णादप्युषण इत्युप्णोष्णः अत्युष्ण कण्टकैः सुतीक्ष्णकीलकैराकीर्णो व्याप्तो दुर्गमा दुःखेण गमागमन यस्य स तथा, दुर्गमश्च यो रथः तस्मिन् योजनम्सयोजन बलीपर्दानामेवेति तत्तथा, तच, तप्तलोहमयमार्गे गमनम्नयन वाहन-भारोद्वाहन चेति तथा तानि ।।०३२॥ तीक्ष्ण अग्रभागवाले दर्भ विशेषों के वन में (जतपत्थर ) यत्र प्रस्तरों में (सूइतल ) उर्ध्व मुखवाली सूइयों से युक्त भूमिभाग में, (खारवावि) खारे जल से परिपूर्ण हुई वावडियों मे, (कलकलतवेयरणि) कलकल शब्द से युक्त ऐसे द्रवीभूत हुए राग और सीसे आदि से भरी हुई वैतरणी नाम की नदी मे, (कलपवालुया) अत्यततप्त होने के कारण कदम्बपुष्प के समान रक्त वर्णवाली वालुका से युक्त नदी में, (जलियगुह) प्रज्वलित अग्निमयी कन्दराओं मे, (निरुभण ) रोक देते हैं। (उसिणोसिणकटइल्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोहमग्गगमणवाहणाणि) (उसिणोसिण ) अत्यत उष्ण, ( कटइल्ल) सुतीक्ष्णकटकों से आकीर्ण, तथा (दुग्गम ) दुर्गम-मुश्किल खीचा जा सके ऐसे (रहजोयण) रथ मे उन नारकियो को थैलो की तरह जोत देते है। (तत्तलोहमग्गगमण) तप्त प्रस्तरीभा, "सूइतल" वाणो माग Bq स्थितिमा डायसवी सोयोथी युश्त भूमि ५२, “सारवावि" मास थी लरेसी पावमा, "कलकलतवेयरणिं" ખળ ખળ અવાજથી યુક્ત ઓગાળેલા કથીર, સીસુ આદિના રસથી ભરેલ वैतरणी नामनी नहीमा, “कलयवालुया" मतिशय तपेसी डावाथी ४४०पना समान २४तप रेतीथी युद्धत नहीमा, “जलियगुह" प्रति अनिवाजी ४शशामा "निरुभण" शी है छे “ उसिणोसिणकटइस्लदुग्गमरहजोयणतत्तलोह मामणवाहणाणि" " उसिणोसिण" अतिशय Gy, “कटइल्ल "मति ती! साथी छपायेस, तथा "दुग्गम" दुर्गम-भुश्तीथी या शय तवा "रहजो यण" २५ साथे नारीमान होनी भन्ने छ " तत्तलोहमग्गामण" Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- सुदशिनो टीका । सू०३४ परस्परवेदनादीरणायां नारफदशावर्णनम् १२१ सकतीक्ष्णा अप्रतीक्ष्णाः क्षाणोनितत्वान् , 'निम्मल' निर्मलाश्र-जाज्वल्यमानः, इत्येभिः । 'अण्णहि य' जन्यश्च 'एपमाइएहि एवमादिभिः 'अमु. हेहिं ' नसुखैः परमदुग्योत्पादकैः ‘वेउचिएहिं ' क्रियकैः क्रियशक्तिसम्पादितैः 'पहरणसहि ' महरणगतः अनेकगः 'परोप्पर' परस्परम् अन्योन्यम् , 'अभिहणता' अभिनन्तः 'अणुपद्धतिबोरा अनुबद्धतीचौरा -पूर्वभवे हिंसादिभिरनुनद्ध तीन पैर यस्ते तथा पदौरानुनन्धिर्माण नारकाः, 'वेयण' वेदना पीडाम् ' उईरति ' उदीरयन्ति-समुत्पादयन्ति ।। स० ३३ ॥ परस्परं वेदनामुदीरयन्तो नारकाः कीटशा भान्ति ? इत्याह-' तत्थय मोग्गर ' इत्यादि। मूलम्-तत्य य मोग्गर पहार चुणिय-मुसढि संभग्गमहितदेहा जंतोवपीलणफुरतकप्पिया केइत्थ सचम्मगा विगत्ता णिम्मूलुल्लूणियकण्णोह णासिया छिपणहत्थपाया ॥सू०३४॥ _____टीका-'तत्य य' तत्र च नरके 'मोग्गरपहारचुण्णिय मुसढि-सभग्गमहियदेहा' गद्रप्रहारचूर्णित-मुमण्डि सभग्नमथित-देहाः - मुद्राणा प्रहारैः= कुठार-कुल्हाडी (टकतिक्ख ) ये मर शाण पर उत्तेजित किये हुए होने से बहुत अधिक अग्रभाग में तीक्ष्ण होते है, और (निम्मला) चरचमाते हैं सो इन शस्त्रों से, तथा (अण्णेहिं ण्वमाढहिं) इनसे भिन्न और भी (असुहेहिं ) पर दुखोत्पादक तया ( वेउविहिं) वैक्रिय शक्ति से सम्पादित (पहरणसह ) सैकडों शस्त्रों से (परोप्पर) परस्पर में एक दूसरे को ( अभिहणता) मारते हुए वे (अणुपद्धतिन्ववेरा) पूर्वभव में हिंसादि पापो द्वारा अणुबद्ध तीत्र वैर वाले नारकी (वेयण) वेदना-पीडा को (उईरति ) उत्पन्न करते है।। सू ३३ ॥ परस्पर मे तीव्र वेदना को उत्पन्न करते हुए वे नारकी कैसे हो जाते "परसु" (डी, "ट कतिक्स" मेधा शको सरा ५२ सन्नवेसा सापाने १२ तेमनी धार तथा ! पणी तीक्ष्य छ, भने त " निम्मला" न्यता डाय से प्रार! शखोथी तथा “अण्णेहिं एप माइएहि "त परात bflan ] " असुहेहिं " सन्यने हाय तथा “वेउव्विाह" वैठिय शतिथी युटत “पहरणसएहि "AS Rोथी “परोप्पर " ४ मानने "अभिहणता" भारता, "अणुनद्धतिव्ववेरा" पूनमा हिंसाही पापा द्वारा तीन थी युत, ना२३ ७ "वेयण,, ५२२५२मा वन। " उईर ति" स्पन्न ४३ छ પરસ્પર વેદના તીવ્ર વેદના ઉત્પન્ન કુરતા કરતા તે નારકી જી કેવા થઈ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (૨૦ प्रश्न याकरणसूत्रे विशेष: ' करकय ' क्रकचं परपत्र ' करनत' इति भाषा मसिद्ध 'सत्ति ' शक्तिः = त्रिशूलं 'द्दल ' प्रसिद्ध, 'गय ' गदा=प्रसिद्धा, ' मुसल' प्रसिद्धमेन 'चक्क ' चक्र = शस्त्रविशेषो रथाङ्गकार: ' को ' कुन्तः ' भाला ' इति भाषामसिद्धः, 'तोमर ' तोमरः 'गुरजर ' इति मसिद्धः 'सल' शुरु स्तीक्ष्णलोहकण्टकमय शस्त्रविशेष प्रसिद्धः, 'लउल' लकुटः - यष्टिः, 'भिडिपाल ' भिण्डिपाल: 'गोफण ' इति प्रसिद्ध:, ' सव्यल ' शर्वल:-' वरठी ' इति प्रसिद्धः, 'पट्टिस' पट्टिश शस्त्रविशेषः, 'चम्मेदृ ' चर्मेष्टः = चर्मवेष्टितपापाणमयशस्त्रविशेष, 'दुहण' दुधण: = मुद्गरविशेष: 'मुट्ठिय ' मुष्टिक:-' घण ' इति प्रसिद्ध:, ' असि ' लघुखड्गः, ' सेडग ' सेटकः = शस्त्रमहाररोध शस्त्रनिशेषः, ' ढाल ' इति भाषा प्रसिद्ध', 'खड्ग' खङ्गः सुतीक्ष्णदीर्घाकारोऽसिरेच ' चार ' चापः = धनुः 'नाराय ' नाराचः=लोहमयमाणः, 'वणक' कणकः = पाणविशेषः 'कप्पिणि' कल्पनी= कर्त्तरिका 'कैची ' इति भाषा प्रसिद्धा, 'वासि ' वासी=तक्षणशस्त्रविशेष: ' वसुला' इति भाषा मसिद्धा, ' परसु ' परशुः = कुठारः, एषा द्वन्द्वः, ते च ते 'टक तिक्ख ' शक्ति- त्रिशूल, (हल ) हल ( गय) गदा ( मुसल) मुसल, (क) चक्र-रथाङ्ग के आकार शस्त्र विशेष, ( कोत ) भाला, (तोमर) तोमरगुरजर, (सूल) अत्यततीक्ष्ण धारवाले लोहे के कांटो वाला शस्त्र विशेष, ( लउल ) लकडी - लाठी ( भिडिपाल ) गोफण, ( सन्चल) वरछी, ( पहिस) पट्टिश, इस नाम का शस्त्रविशेष, (चम्मेड) चर्मवेष्टितपाषाणमयशस्त्रविशेष, (दुहण) दुघण एक जाति का मुद्गर विशेष, (मुट्ठिय) मुष्टिक - घण - जिस पर रखकर लोहार लोहे को कूटते हैं, (असि ) तलवार ( खेटक ) ढाल, (खड्ग ) सुतीक्ष्ण एव दीर्घ आकार युक्त तलवार बड़ी तलवार, (चाव ) धनुष, ( नाराय ) लोहमय बाण, (कणक) एक प्रकार का बाण, ( कप्पिणि) कर्त्तरिका - कैची, ( वासि ) बसूला (परसु) "सत्ति" शक्ति - त्रिशूल, "हल" डेज, “गय" शहा, "मुसल" भुसण - सामेलु, "चक" थङ,-रथना चैडाना भाडारनु मे शस्त्र, "कोत" लासेो, ' तोमर" तोभर - २०४२, “सूल" अत्यंत तीक्ष्णु धारवाजा सोढाना अटी वालु भेड शत्र “लउल” साउडी-साठी “भिंडिपाल " गोइए, “सव्वल " जरछी, "पट्टिस" पट्टिश નામનુ એક શસ્ત્ર, चम्मेदृ " याभाथी भढेषु पथ्थरनु शेड अजरनु शस्त्र, "दुहण" द्रुधाणु- मे लतनु भगहण, "मुट्ठिय” भुष्टि-घ, भेना पर भूडीने सूडार बोदाने टीचे छे, “असि" तलवार, "खेटक" दास, "खड्डू' અત્યત ८ तीक्ष्णु भते साणी तसवार भोटी तसवार, “घाव” धनुष, नाराय" सोढानु आशु, “कणक" शेड विशिष्ट अारनु भाथ "कविणि” अतर "वामि" वास ८८ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका १ सू ३५ परस्परवेदनोदीरणायां नारकदशावर्णनम् १२३ डज्झतगत्तकुं तग्गभिण्ण - जज्जरियसन्देहा विलोलंति महीतले विसूणियंग मंगा ॥ सू० ३५ ॥ 6 टीका-' तत्थ य ' तत्र च अमिरकयतिक्व कोतपरसुप्पहार फालियचासीतच्छिपगमगा ' असिक्ररुचतीक्ष्णकुन्त परशुमहारपाटित-वासीसन्वक्षिताङ्गोपाङ्गा = तत्र - असिः = खद्गः, करुचः = करपन ' करवत ' इति प्रसिद्धः, तीक्ष्णकुन्तः= तीक्ष्णमल्ल, परशुथ - कुठारः, एतेषा महारे पाटितानि = विदारितानि, तथा वासीभि सन्तक्षितानि = तन्कृतान्यङ्गोपाङ्गानि येषां ते तथा, ' कलकलमाणखारपरिसित्तगाढडज्झतगत - कुतग्गभिण्णजज्जरियसव्वदेहा ' परिपक्तगाउदद्यमानगात्रकुन्ताग्रभिन्नजर्जरितसर्वदेहाः = अत्युत्कालितयात्कलकलायमानेन=क्षारेण=मर्जिक्षारादिजलेन परिषिक्तम्, अतएव - गाढम् - अत्यन्त दह्यमान गात्र येषां ते तथा कुन्तानामयैः - निशितधाराभिर्भिन्नोऽत एव जर्जरितो कलकलायमानक्षार और भी - ' तत्थ्य असि इत्यादि । टीकार्य - (तत्थ ) उन नरकों में (असि - करकय- तिक्खकत- परसुपहारफालिय वासीतच्छियगमगा) असि - तलवार, क्रकच करोंत, तीक्ष्ण कुन्त- तीक्ष्णधार वाले भाले और परशु-कुठार उनके प्रहारों से विदारित किये गये तथा बाद में वासी-वमूलों से छोल २ कर पतले किये गये हैं अग उपाग जिन्हों के ऐसे ( कलकलमाणखार परिसित्तगाढ उज्झत गत्त - कुतग्गभिण्णजज्जरियसव्वदेहा) तथा अत्यत उकला हुआ होने से कलकलायमान सर्जिक्षार आदि के जल से सिञ्चित किये गये होने से जिनका शरीर अत्यत दह्यमान हो रहा है ऐसे, भालों के प्रभाग से भिन्न होने के कारण जिनका सकल शरीर बिलकुल जर्ज - वणी सूत्रअरछे -" तत्थ य असि " हत्याहि टीजर्थ–“तत्थ य” ते नरोभा " असि, करकय, तिक्सकत, परसु, प्पहार फालिय वासी तच्छियगमगा " अभि-तलवार, उश्य-श्वत, तीक्ष्णुमुन्त- तीक्ष् અણીવાળા ભાલા અને પરશુ-રશીના પ્રહારોથી ચીરવામા આવેલ અને ત્યારમાદ વાસલા વડે ઢેલી લીને જેમના આગ ઉપાગો પાતળા કરવામા આવ્યા છે તેવા, તથા कलकलमाणसार परिसित्तगाढ डज्झत गत्त-कुतिग्गभिण्णजर्जरिय सव्वदेहा " अत्यत उजेस होवाने अरोगता साभार महिना पाशीनु સિંચન કરવાના કારણે જેમના શરીર અત્યંત જળી રહ્યા છે તેવા, અને ભાલાની અણીથી વીધવાને કારણે જેમના શરીર ખિલકુલ જરિત થઇ ગયા છે शेवा “विसणियगमगा" तथा विविध प्रहारना प्रहारोटरी लेना शरीर सूत्री गया (L Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ terriकरणसूत्रे प्रघातैः चूर्णितः = कुट्टितः, मुसण्टिभिः = शस्त्रविशेपैः सभग्नः = नर्जरीकृतः, मयि= कुम्भ्यादौ - दधिवद् विलोडितः देहो येषा ते तथा, ' जवोनपीलणफुरंत - कप्पिया' यन्त्रोपपीडन स्फुरत्कल्पिताः = यन्त्रेषु उपपीडनेन = सम्मर्द्दनेन स्फुरन्तः वेपमाना कल्पिताः = कर्त्तिता ये ते तथा 'केइत्थ ' केचिदन - केचित् नारकाः अत्र= नरकेषु ' सचम्मगा ' सचर्मका = चर्मसहिताः ' विगत्ता ' विकृत्ताः उदिताः मृत पशुवद् उत्पाटितचर्मशरीराः, निम्मृलुल्लूणियकष्णोहणासिया निर्मूलोल्लूनकर्णोष्ठनासिकाः = निर्मूल= मूलतः उल्लूनाः = कर्तिताः कर्णो ओष्ठौ नासिका च येषा ते तथा, 'छिणहत्थपाया छिन्नहस्तपादाः = छिना हस्ताः पादा येषां ते तथा भूता नारका भवन्ति ॥ सू० ३४ ॥ 3 अपि च-- ' तत्थ य असि ' इत्यादि - मूलम् - तत्थ य असि करकय तिक्खकत- परस्सुप्पहार फालिय- वासीसतच्छियगमगा कलकलमाणखारपरिसित्तगाढहैं ? इस बात को सूत्रकार कहते है - ' तत्थ ये मोग्गर इत्यादि । टीकार्थ- (मोग्गरपहारचुण्णिय-मुसढि सभग्ग-महिय देहा) उन नरकों में मुद्गरों के प्रहारों से चूर्णित, मुसदि जाति के शस्त्रविशेषों से जर्जरीकृत एव कुभी आदि में दही की तरह मधित है देह जिन्हों की ऐसे ( केइत्थ) कितनेक नारकी नरको मे (जतोवपीलण फुरतकप्पिया ) यत्रों में समदन से कपित होते हुए काट दिये जाते हैं । ( सचम्मणाविगत्ता ) इनके शरीर के उपर की चमडी मृतपशु की चमडी की तरह उसाड ली जाती है। (णिम्मृलुल्लूणियकण्णोदृणासिया ) मूलतः इनके ओष्ठ और नाक काट ली जाती हैं । (छिन्न हत्थपाया ) हाथ पैर छिन्न भिन्न कर दिये जाते हैं | सू ३४ ॥ लय छे, ते वात सूत्रभर हवे मतावे छे " तत्थ मोग्गर " ઇત્યાદિ " मोगर पहार चुण्णिय, मुसढि सभा-महिय देहा ” તે નરકામા મગાળાના પ્રહારાથી ચૂર્ણિત, ક્રુસઢિ નામના શસ્ત્રથી જર્જરિત કરેલ અને કુ ભી આદિમા हड्डींनी प्रेम प्रेमना शरीर वसोवाय छे तेवा " केइत्थ " डेटला नारडीओने નરકામા " "जतोवपीलण फुर तकप्पिया " यत्रोभा थीसवानी भी पता होय तेवी हासतभा अभी नाभवामा आवे छे " सचम्मणा विगत्ता " तेभना शरीर परनी याभडी भृतपशुनी ग्राभडीनी प्रेम उतारी सेवाभा भावे छे " णिम्मूल स्लूणिय कण्णोदृणासिया " तेमना होड, नाइ भने अन भूणभाथी अभी सेवाभा भावे छे " छिन्नहत्य पाया " हाथ अने या छिन्नभिन्न कुवामा आवे छे ॥ ३४ ॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका १०१ सू० ३६ परस्परवेदनोदीरणाया नारफदशावर्णनम् १२५ 'सुणग' वानः 'मियाल 'शगालाः, कामगा प्रसिद्धा ‘मनार' मानारा = पिडालाः, शरभाः अष्टापदा 'दीरिय' द्वीपिका-चिनकाः 'नियम' व्याजाः मसिद्धाः, 'सकूल' शाईलाः च्याविशेषाः, 'सीह ' मिहा: केसरिणः, ते च कादयः कीदृशाः ? ' दप्पिय ' दर्पिता गर्विताः, तथा 'सुहाभिभूया' क्षुधा. भिभूता क्षुधापिपासाव्यालास्तैः णिच्चकाल ' नित्यकालसर्पदा 'अणमिएहिं ' अनगितैः अभुक्तः 'घोरारसमाण भीमरूवेहि घोराऽऽरममानभीमरूपैः= घोरा भयकरकर्माण जारसमाना: अतीवाकोगन्तोभीमरूपा भयानकाकृतयश्च ये ते तथा तैः 'अकमित्ता' आक्रम्य आक्रमण कृत्वा 'दृढदाढागाढडप कड़ियअतिक्खनहफालिय उद्धदेहा' दृढदप्ट्रा गाढदप्कर्पित-मुतीक्ष्णनखपाटितीर्ष सरभ-दीविय-वियग्व-मडूल-मीह-दप्पिय-खुताभिभूपहिं ) (दप्पिय ) दर्पित-गर्वित तथा (खुहाभिभूहिं) भूख प्यास से अत्यत व्याकुल तथा (णिचकालमणसिएहिं ) उस समय जिन्ही ने निरकुल कुछ भी नहीं खाया होता है ऐसे, और इसी कारण जो (घोरारसमाणभीमस्वेहिं) घोर-ऋर कर्म करने के लिये तत्पर बन चुके है, अतः चीत्कार करने से भीमरूप जिनका रूप भयकर बन रहा है ऐसे (विग) वृक-भेडिया, (सुणग ) श्वान-कुने, (सियाल) श्रृगाल-गीदड़ (काक) कौवे, (मज्जार) मार्जार-विलान, (सरभ) अप्टापद, (दीविय) दीपिक-चिता, (वियग्य ) व्याघ्र, (सहल ) शार्दल-व्याघ्र विशेप, और, सिंह इनके द्वारा (अवमित्ता) आक्रमण करके (दृढदाढा-गाढडक-कड्डिय-सुतिक्ख नहफालिय उद्धदेहा ) पहिले दृढदंष्ट्राओं से उसे जाते है, पश्चात् पृथ्वीवियग्ध-सदल-सीह-दप्पिय-सुहाभिभूएहि" “दप्पिय " हर्षित-गवि तथा " बुहाभिभूएहि " भूम यासथी-अत्यत याgn तथा "णिच्चकालमणसिपहि" ते जाणे भन मास मरा४ भन्या हाती नथी मेवा मने मेर ०२ "घोरारसमाणभीमरूपेहि " धार-१२ म ४२वाने भाटे मातुर थयेस છે, તે કારણે ચિત્કાર કરવાથી જેમનો દેખાવ અતિ ભયકર બની ગયેલ છે सेवा " विग" १४-१२, 'सुणग" श्वान-तस, 'सियाल" शियाण, "काक" जागा, “ मज्नार" मानक मिसास, सस माप, “दीविय" दीपि यत्ता, “ वियग्ध" वाध, “ सद्दल " ई-वजिट जाना पाप अने सिंह पोरे प्राणिमा “ अफमित्ता" याभा की “ ढदाढा-गाढडक-कड्ढिय-सुति क्स-नहफालिय उद्धदेहा" पता भाभूत ! 43 तेभने म मरे छ, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभ याकणचे सर्वदेहः सकलशरीर चेपा ते वथा, 'रिमणियगमगा' विनिताहोपाना = विशूनितानि-नानाविधमहारैः सजातशोथानि, कलककायमानमल सेचनेन समुत्पन्नस्फोटकानि वा अगोपागानि येपा ते तया, एव परमाधार्मिके पदार्थताः सन्तो नरकजीवा महीतले कठोरनरकभूमौ गिलोलति' रिललन्ति-पिठन्ति ॥१०३५।। ततः किं भवती ? त्याह--'तत्य य विग' इत्यादि । ___ मूलम्-तत्थ य विग सुणग-सियाल-काक-मज्जार-सरभदीविय-वियग्घ साल-सीह-दप्पिय-खुहाभिभूएहि णिच्चकालमणसिएहि घोरारसमाणभीमरुवेहि अक्कमित्ता दढदाढा गाढडक कड्डिय सुतिक्खनहफालियउद्धदेहा विच्छिप्प ते समंतओ विमुक्कसधिवधणा वियंगमगा कककुररगिद्धघोरकटवायसगणेहि य पुणो खरथिरदढणक्ख-लोहतुडेहि ओवइत्ता पक्खाहयतिक्वणक्खविकिन्नजिभछियनयणनिदओलुग्गविगतवयणा उक्कोसता य उप्पयता नियता भमता ॥ सू०३६॥ टीका-तत्र च 'विग' का ईहामृगा 'भेडिया' इति प्रसिद्धाः रित हो चुका है ऐसे (विसूणियगमगा) तथा नाना प्रकार के प्रहारों से जिनमे सूजन आगई है, अथवा कलकलायमान क्षार जल के सिंचन से जिन पर फफोले पड गये है ऐसे अग उपाग वाले वे नारकी जीव परमाधार्मिकों द्वारा कथित होकर (महीतले ) नरक की कठोर भूमि पर (विलोलंति ) लोटते हैं ॥सू ३५ ॥ - इसके बाद क्या होता है ? इस बात को सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं-'तत्थ य विग-सुणग' इत्यादि । टीकार्थ-(तत्थ य) उन नरकोंमें (विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जारછે તેવા, અથવા કળકળતા ક્ષારયુક્ત જળના સિંચનથી જેમના અંગ ઉપાશે પર ફેલા પડી ગયા છે એવા નારકી જીવ પરમધામિર્ક દ્વારા યાતનાઓ पाभी “महीतले " नरनी हार सभि ५२" विलोलति" डीनय छ । उ4॥ त्या२४ शु याय छे ते पात सूत्रा२ मताव छ-" तत्थ य विगसुणग" छत्यादि साथ-"तत्य य" तेनरमा “विग-सुणग-सियाल-काक-मज्जार-सर Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका १०१ सू० ३६ परस्परवेदनोदीरणाया नारकदशावर्णनम् १२५ 'सुणग' वानः 'सियाल 'शगालाः, काका प्रसिद्धा 'मनार' मानारा = पिडालाः, गरमा अप्टापदा 'दीरिय' द्वीपिका: चिकाः 'नियग्ध' व्यात्राः प्रसिद्धाः, 'सहूल' शाईला व्याघविशेपाः, 'सीह ' सिंहा: केसरिणः, ते च कादयः कीदृशाः ? 'दप्पिय ' दर्पिता =गणिताः, तथा 'खुहाभिभूया' क्षुधा भिभूता -सुपापिपासाव्याकुलास्तैः ‘णिच्चकाल ' नित्यकाल-सदा 'अणमिएहिं ' अनशितैः अमुक्तः 'घोरारसमाण भीमस्वेहि घोराऽऽरसमानभीमरूपैःघोरा-भयकरकर्माण जारसमाना: अतीवाकोगन्तोभीमरूपाः भयानकाकृतयश्च ये ते तथा तैः 'अपमित्ता' आक्रम्य आक्रमण कृत्वा 'दृढदाहागाहडककड्रियसविस्खनदफाल्यि उददेहा' दृढदप्ट्रा गाढदंष्ट्रकर्पित-सुतीक्ष्णनखपाटितोर्च - - सरभ-दीविय-वियग्य-सदूल-सीह-दप्पिय-खुराभिभूपहिं ) (दप्पिय) दर्पित-गर्वित तथा (खुहाभिभूहिँ) भूग्व प्यास से अत्यत व्याकुल तथा (णिचकालमणसिएहिं ) उस समय जिन्हो ने मिलकुल कुछ भी नहीं खाया होता है ऐसे, और इसी कारण जो (घोरारसमाणभीमस्वेहि ) घोर-जूर कर्म करने के लिये तत्पर वन चुके हैं, अतः चीत्कार करने से भीमरूप जिनका रूप भयकर बन रहा है ऐसे (विग) घृक-भेडिया, (सुणग ) श्वान-कुने, (सियाल) श्रृंगाल-गीदड़ (काक) कौवे, (मज्जार) मार्जार-विलान, (सरभ) अण्टापद, (दीविय) दीपिक-चिता, (वियग्ध ) व्याघ्र, (सहल ) शार्दुल-व्याघ्र विशेप, और, सिंह इनके दारा ( अकमित्ता) आक्रमण करके (ढदाढा-गाढडफ-कड़िय-सुतिक्ख नहफालिय उददेहा ) पहिले दृढदष्ट्राओ से उसे जाते है, पश्चात् पृथ्वीवियग्ध-सद्दल-सीह-दप्पिय-खुहाभिभूएहि " " दप्पिय " पित-वि तथा " खुहाभिभूएहि " सूप प्यासथी-सत्यत व्याज तथा "णिच्चकालमणसिपहि" ते अणे मन मिस भो। भन्या जात नथी मेवा भने मेर २0 रे "घोरारसमाणभीमरूने हिं" घा२-१२ ४भ उपाने भाटे मातुर थयेस છે, તે કારણે ચિત્કાર કરવાથી જેમને દેખાવ અતિ ભયકર બની ગયો છે मेवा “विग" १४-१२, "सुणग" श्वान-दूता, 'सियाल" शियाण, “काक" 31, “ मज्जार " मन२ MिAR, स२ मा५४, " दीविय" दीपिsयित्ता, “ वियग्ध" पाध, “ सद्दल " ई- GिE ना पाप, मन सिंड वगैरे प्राणिमा “ अफमित्ता" मा भए जा “ दढदादा-गाढडक-कड्ढिय-सुति पख-नहफोलिय उद्धदेहा" पडसा भन्मूत अटी 4 तेमन 02t मरे छ, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DTAP प्रश्नध्याकरण देहा=दृढाभिर्दष्ट्राभिः गाढम् अत्यन्त ' डका' दृष्टाः, फर्पिता पृथ्वीतले इत स्ततः समाकृष्टाथ ये ते, तथा मुतीक्ष्णनखैः पाटिता-द्विधा कताः अवदेहाः उर्ध्वशरीराणि येपा ते तथा, अत एष-'विमुपमधिपधणा' विमुक्तसन्धिवन्धनाः = विमुक्तानि-शिथिलीकृतानि सन्धीना-अगसधानस्थानानां वचनानि येषा ते तथा, 'वियगमगा' व्यहागाः व्यङ्गानि-खण्डितानि अगानिकरचरणकणे. नासिकादीनि येपा ते तया, एवभूता नरकजीराः परमाधामिरैः 'समतओ' समन्ततः चतुर्दिक्षु गगने 'विच्छिप्पते ' विक्षिप्यन्ते = काकरलिपस्मक्षिप्यन्ते, 'पुणो य' पुनश्च-प्रक्षेपणानन्तर ते नारकाः ‘कर-कुरर-गिद्धघोरकट्टवायस गणेहिं ' कङ्ककुररपध्रघोरकष्टदायसगणः = कङ्का:-कुरराः पक्षिविशेषाः गृध्राःमसिद्धाः, घोरकप्टवायसा धोरवष्टा =असाक्लेशकारका ये वायसा-काकास्ते तया तेपा गणै समूहैः, कीदृशैस्तैः ? इत्याह-'खरथिरदढणक्खलोहतुंडेहि ' खरस्थिरदृढनखलोहतुण्डैः खरा तीक्ष्णाः स्थिरा:-निश्चलाः ढाकठोरवस्तुतलपर इधर से उधर खेचे जाते है-घसीटे जाते है, तथा सुतीक्ष्ण नखों के प्रहारोंसे उनके उर्ध्व शरीर को दो टुकडे कर दिये जाते हैं। इस कारण (विमुकसधिबधणा) उनके सधियों के बंधन बिलकुल ढीले हो जाते हैं। (वियगमगा ) वहा नारकियों के कर, चरण, कर्ण, नासिका आदि अगों को खडित कर दिया जाता है और (समतओ विच्छिप्पते ) जिस प्रकार काकबलि दिशाओं मे फेंक दी जाती है वे विचारे नारकी भी इसी तरह से आकाश मे इधर उधर दिशाओं मे फेक दिये जाते है। (पुणोय ) फिर पश्चात् (काकुररगिद्धघोरकट्टवायसगणेहिं ) कक, कुरर, गृद्ध और असह्य क्लेश कारक वायसों-कौओ का समूह कि (खरथिरढ णक्खलोहतुडेहि ) जिनके नखतीक्ष्ण, स्थिर कठोर वस्तु के विदारण પછી જમીન ઉપર તેમને આમ તેમ ખેચે છે-ઘસડે છે, તથા અતિશય તીર્ણ नम मरावीन तमना 6 शरीरनामेटू रीना छ ते २0" विमु सधिबधणा" मना साधासाना धन तदन ढीमा २४ लय छ “वियग मगा" त्या नारीमानी हाथ, 11, आन, न माह मनानु उन ४२वामा माव छ मन "समतओ विच्छिप्पते "भ लिने न्यारे हिशामा ३४વામાં આવે છે તેમ તે બિચારા નારકીઓને પણ આકાશમા આમ તેમ ફેક वामा मा छ " पुणो य" स्या२ मा ' कककुररगिद्धधोरकटुवायसगणेहिं " ११ १२२ गीध, भने मस यातनासानास सामान सभूड," खरथिर दणखलोहतुडेहि " है मना ily नम ४y परतुमान Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० १ सू० ३६ परस्परवेदनोदीरणायां नारकदशावर्णनम् १२७ छेदनेऽपि अभग्नाः नखा येपा ते तथा ते च ते लोहतुण्डा लोहवत्कठोरचन्चुकाश्व, वैः 'ओपइत्ता ' अपत्य अन्तराल एर आक्रम्य ' पक्खाहयतिक्षणक्ख विकिन जिन्मच्छित्तनयणनिद्दओलुग्गविगयवयणा' पक्षाहततीक्ष्णनखनिक्षिप्त जिहासिप्तनयननिर्दयानमग्णविरुवपदना:- पपाय ' पक्षाहताः-पौराहता ताडिताः तीन विक्षिप्ता=आकृप्या मुखाब्दहिनिफाशिता जिहाः येपा ते तथा, आक्षिप्ते पाहिप्कते नयने येपा ते तथा, अतएव निर्दय यथास्यात्तथा अवरग्ण-भग्न विकृत विरुपी कृत च बदन येपा ते तथा, ततः सर्वेषां कर्मधारयः, उक्कोसता' उत्लोशन्ता हा हा शब्दैराकन्द कुर्वन्त 'उप्पयता' उत्पतन्तः परमवेदनाभिरी: विकदष्टफपिपद् गगने उन्लन्तः 'निवडता' निपतन्तः पृथिव्या लुठन्तः, ‘भमता' भ्रमन्त =इतस्ततः पलायमानाः दुःखमनुभनन्ति ॥ ३६॥ करने पर भी-वैसे ही बने रहते हैं-नही टूटते हैं तथा चोंचे जिनकी लोह के जैसी कठोर होती है, वे उन्हें (ओवइत्ता)चीच ही में पकडकर ( पक्खाय-तिक्खणखविकिन्नजिभडियनयणनिदओलग्गविगतवयणा) अपनी पाखों से आहत करते है, तीक्ष्ण नखों से उनकी जीभ को उनके मुख से वाहिर निकाल लेते हैं और दोनों आखों को भी बाहिर काढ लेते हैं । इस तरह निर्दयतापूर्वक विरूपरूप वाले बनाये गये वे पापकारी नारकजीव (उकोसता य) हाय हाय शब्द करते हुए ( उप्पयतो) विच्छ से काटे गये बदर की तरह अत्यत वेदनाओं से आकाश मे ऊपर को उछलते है और फिर (निवडता) नीचे गिरते है। (भमता) गिर कर फिर इधर उधर भागते हुए दुःखों का अनुभव करते है ।सू ३६ ।। પણ એવા ને એવા જ રહે છે-તૂટતા નથી તથા જેમની ચાચ લેઢાના જેવી ५४ लाय छे, मे ते पक्षी। तभने “ ओवइत्ता" ५-ये ४ ५४ीन " परसाहय-तिक्राणक्खविकिन्नजिभछियनयणनिदओलुग्गविगतवयणा " पातानी પા વડે મારે છે, તીક્ષણ નાની મદદથી તેમની જીભને તેમના મુખમાથી બહાર ખેચી કાઢે છે અને બન્ને આખેને પણ બહાર કાઢી નાખે છે આ शत नियताथी मे मनापामा सावता ते पा५री ना२४ी व “उकोसता य" य । डाय! ४२ता " उप्पयतो" पीछी उ भाया जाय त्यारे કૂદાકૂદ કરતા વાનરની જેમ, અત્યત વેદનાથી વ્યાકુળ થઈને આકાશમાં ઉપ २नी मा जे छ, भने "निवडता" जी पाछ। नाये ५ छ “ भमेता" નીચે પડીને વળી આમ તેમ નાસ ભાગ કરતા તેઓ દુ ખ અનુભવે છે સૂ૩૬ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रश्नव्याकरण 'आउक्खएण' 'आयुः क्षयेण-नरकमायुप्यक्षयेण 'उहिया समाणा' उद्दता निस्मृताः सन्तः 'वह' रहवः कतिपया नरकनीः 'तिरियामहि । तिर्य वसतितिर्यग्योनि गच्छन्तिमाप्नुवन्ति, यतो नसानिःसृता अल्पा एव मनुप्येपूत्पधन्ते । कीदृशी तिर्यग्योनिम् ? इत्याह -दुक्युत्तर ' दुःखोत्तरांन्दुःखभकर्पाम् अनन्तोत्सपिण्यवसर्पिणी कायस्थितिमत्वात्तस्याः, अत एर 'मुदारुण ' सुदारुणा-भीपणा नानादुखनिधानत्वात् , 'जम्मणमरणरावाहिपरियहणारहह' जन्ममरणजराज्याधिपरिवर्तनारघट्टा-जन्म-मरण जरा व्याधीना परिवर्तनः पुनः प्रापणे अरघट जलयन्न विशेष इन या सा तथा ता 'जलयलग्यहयरपरोपरविहिंसणपवच ' जल स्थल खचर परस्पर विहिंसनमपञ्चा-जलचर-स्थलचर अशातावेदनीयरूप दुःखों को (अणुभविता ) भोगकर (तओ य) जय उस नरक से (आउक्खण्ण ) नरकभवसवधी आयु के क्षय होने पर (उव्वटियासमोणा) बाहर निकलते है तय (यहवे) उन में से बहुत से नारक जीव (तिरियवसहिं) तिर्यश्च योनि को (गच्छति)माप्त करते हैं, क्यों कि नरको से निकले हुए बहुत थोडे जीव ही मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं। वह तिर्यश्च योनि कैसी है इस बात को सूत्रकार कहते हैं कि वह योनि (दुक्खुत्तर) अनन्त उत्सर्पिणी प्रमाण काय: स्थितिवाली होने से दुःखों के प्रकर्ष से युक्त है। (सुदारुण ) नाना दुःखो की निधान होने से सुदारुण-भयकर है। (जम्मण-मरण-जरा-वाहि परियट्टणारहट्ट) जन्म, मरण, जरा एव व्याधियों की पुन:पुन' प्राप्ति होने से अरहट जैसी है। तथा (जलथल खहयरपरोप्परविहिसणपवच ) "दुक्खाइ" अशात वहनीय ३५ मा "अणुभवित्ता " लगवाने " तओ य". न्यारे ते न२३माथी " आउक्सएण" मायुध्यनो क्षय थाय छ त्यारे " उव्व ट्टियाप्रमाणा" मडा२ नाणे छ त्यामा “बहवे" तेभनाभाथी पर भस नाकी 4 " तिरियवसहि" तिर्थ य योनिमा “ गच्छति " तय छ, १२५ કે નરકમાથી નીકળેલા બહુ ઘેડા છ જ મનુષ્ય ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે તે तिय योनि वा छ । पात सूत्रधार शिविते यानि " दुक्खुत्तर । मनન ઉત્સર્પિણી અવસર્પિણી પ્રમાણ કાળ સ્થિતિવાળી હોવાને લીધે દુખના प्राणी “ सुदारुणं " विविध भानु घाम लापायी घणी ३४सय ४२ छे “जम्मण-मरण-जरा-वाहि परियट्टणारहट्ट " .भ, भरण, ४२ અને વ્યાધિઓની ફરી ફરીને પ્રાપ્તિ થવાને કારણે રકેટ જેવી છે તથા " जलथलखड्यरपरोप्परविाहसणपवच " मा ५२२५२ जयर, स्थ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुशिंनी टीका अ १ सू० ३. तिर्यग्गतिदु रानिरूपणम् खचराणां परस्परं निहिंसनस्य अनेकप्रकारवधस्य प्रपञ्चो विस्तारो यस्या सा ता तथा, सम्भूता तिर्यग्योनि गन्छन्तीति पूर्वेण सम्बन्ध ॥ मू० ३७ ॥ अब तिर्यग्गति दुःख वर्णयन्नाह-'इम च ' इत्यादि। मूलम्-इम च जगपागड वरागा दुक्ख पार्वति दीहकाल। किं ते ' सीउण्ह-तपहा खुह-यण - अप्पईयार-अडविजम्मण-णिच्चभउविग्गवास-जग्गण--वह-बधण--ताडणंकण निवायण-अट्ठिभजण-नासा-भेय-प्पहार दमण-छविच्छयण अभिओगपावण-फसकुसारानवाय-दमणाणि वाहणाणि य॥सू०३८॥ ____टीका-'इम च ' इद च = अनुपदवक्ष्यमाण 'जगपागड' जगत्मकट = सरललोकमत्यक्ष, दुःखम् = अशातवेदनीय - लक्षण 'दीहकाल' दीर्घकालम् । असख्यातकारपर्यन्त 'पाति' प्राप्नुवन्ति, 'कि ते 'कानि तानि दुःखानि ? तदाह-सीउण्ह' इत्यादि-' सीउण्डतहासुहवेयण' शीतोष्णतृष्णा क्षुधा वेदना = शीतोष्णतृष्णा क्षुधाजनित दुःख, तथा 'अप्पईयारअडविजम्मण' जिस में परस्पर जलचर, स्थलचर और खेंचरों के विविध प्रकार के वध का प्रपञ्च-विस्तार है, ऐमी तिर्यञ्चयोनि को प्राप्त करते हैं |स० ३७॥ अय सूत्रकार तियंचगतिके दुःखोंका वर्णन करते हैं-'इमचजगपागड'इत्या. टीकार्थ-(इम च जगपागड) (इम) अनुपद् वक्ष्यमाण यह (जगपागड) सकल लोकों के प्रत्यक्ष ऐसे (दुरव ) दुःख को (वरागा) वे तिर्यचगति के जीव (दीदकाल) अनतकालपर्यन्त (पावेंति ) भोगते हैं (किं ते ) वे दुःखों के प्रकार कौन २ से हैं ? सो कहते है-उस गति में दुःखों के ये २ प्रकार है-(सीउण्ह ) शीत-जनित दुःख, उष्णजनित दुःख, (तण्डा ) पिपासाजनितदुःख और (खुद) क्षुधाजनितदुःख, तथा ચર, અને નભચરેના વિવિધ પ્રકારના વધને પ્રપચ-વિસ્તાર છે એવી તિર્થ ચ यानिन तेस प्रास उरे छे ॥ २-३७ ॥ वे सूत्रातिय य गतिना मानुन छ "इम च जगपागड" त्याla टी "-इम च जगपागड " "इम" नीय प्रमाणुना "जगपागड " सघा खोजीनी नगरे ५ तेवा " दुस्स" मा “वरागा" ते मिया। तिय श्य गतिना ! “दीहकाल " मनताजसुधी " पावेंति' मागवे छ “कि वे ?', તે દુના પ્રકાર ક્યા કયા છે? સૂત્રકાર તેને જવ બ આપતા કહે છે તે शतिभा नाय प्रमाणे खाय , " सीउण्ह " शीत नितम, BY - -... " ----- " पिपासालनित हु भने “खुह" क्षुधाजनित Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण अपतीकारम् अतीकाररहित-पद्धायुप्फ्लात् यद् अटव्या महारण्ये जन्म तत् तथा, तत्र 'णिच्चभउन्विग्गवास' नित्यभयोद्विग्नपासः नित्य - प्रतिक्षण भयेनव्याधादिकर्तृकवधनिग्रहादिरूपेण उद्विग्ना उद्वेगसहित पासः = निरासः अतएव 'जग्गण' जागरण-निद्राक्षय 'वह' ध =मारण, 'बधण' बन्धनम्रज्यादिना नियमन, 'ताडण 'ताडन-दण्डादिना हननम् , 'अरुण' अझन-प्रतप्तशूलादिना शरीरे चिन्हविशेपकरणं, निरायण ' निपातनम् उत्याप्य गर्नादौ प्रक्षेपणम् 'अद्विभजण' अस्थिभजनम् मुद्रादिनाऽस्थ्ना प्रोटन 'नासाभेय ' नासामेदा - नासिकायो रज्जुयोजनार्य छिद्रकरण । पहारदमण महारदमन-प्रहारः-यष्टया दिताडनैः दमन = स्वायत्तीकरण, 'छरिन्छेयण' छविच्छेदन = अवयवकर्तन 'अमिओगपावण' अभियोगमापणम् = अनिन्छतोऽपि शस्टादौ नियोजन, (वेयण अप्पडियार ) प्रतिकार रहित दुख, ( अडविजम्मण ) अटवी मे जन्म होने का दुःख, ( णिच्छभान्विग्गवास) प्रतिक्षण व्याध आदि के वध-निग्रह आदि के भय से उद्विग्न चित्त होकर निवास करने का दुःख, (जग्गण) इच्छानुसार निंद्रा नहीं ले सकने का दुःख, (वह) वधजन्य दुःख, (बधण) रस्सी आदि द्वारा घाधे जाने का दुःस (ताडण) दण्ड आदि से मर्मस्थानों में ताडित किये जाने का दुःख, ( कण) प्रतप्त शूल आदि द्वारा शरीर में दाग दिये जाने का दुख, (णिवायण) उठा कर गर्ने आदि में पटक दिये जाने का दुःख, (अट्ठिभजण ) मुद्गर आदि से हड्डियों को तोड दिये जाने का दुःख, (नासाभेय) नासिका के छेदन करने का दुःख, (पहारदमण ) लकडी चाबुक आदि के प्रहारों से वशीभूत होने का दुःख ( छवि-च्छेयण ) शारीरिक अवयव काट दिये जानेका दुःख, (अभिओगपावग) नही इच्छा होनेपर भी जब गाडी आदि मने “ वेयण अप्पडियार " प्रति२२हित हुम " अडविजम्मण" वनमा म. थवानुन, “ णिच्चभउव्विगगवास" प्रत्ये क्षण व्या५ ALE द्वा२१ १ध, निड माहिना भयथी दिन यत्ते २२पानुहुम “जग्गण " (२७ प्रमाणे निद्रा न शवानुम " वह " १५ अन्य , “बधण" हो२७ मा माधवानु , " ताडण" alsh माथी भभस्थान। ५२ માર પડવાનું દુ ખ “ળ” તપાવેલ શૂળ આદિ દ્વારા શરીરે ડામ દેવાયાનું हुम “णिवायण" पाडी मामाहिमा ३४वानु " अदिभजण " भग on माध्धिी 813 तावानुम," नासाभेय "ना हावानुम" पहा - रदमण" alssी न्याभुड माहिना हाथी ताये थवानुभ, “छविच्छेयण" शीना अवयवे। पावानुम " अभिओगपावग" छान Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३९ तिर्यग्गतिदु ननिरूपणम् 'कसकुसारनिनाय' कशालशानिपातः = कशा = चर्मयष्टिः 'चायुक' इति प्रसिद्धा, अशा पसिद्धः, आरा-दण्डान्ततिनीतीक्ष्णलोहशलाका 'पराणी' इति प्रसिद्धा, तेपा निपातः-शरीरोपरिमहारः 'दमण' दमन-शिक्षाग्राहणम् , एतेपा द्वन्दः, तानि तथा, 'वाहणाणि य' वाहनानि च भारोवाहनानि, इत्येव रूपाणि दुःसानि प्राप्नुवन्तीति सम्बन्धः ॥ सू० ३८ ॥ पुनरपि तान्येवाह-मायापिइ' इत्यादि। मूलम्-माया-पिइ-विप्पओग-सोयपरिपीलणाणि य सत्थग्गि-विसाभिघाय गलगवलावलणमारणाणि य गलजालुच्छिप्पणाणि य-पउलण विकप्पणाणि य-जायज्जीवगवधणाणि य पंजरनिरोहणाणि य सजूह निद्घाउणाणि य धमणाणि य दोहणाणि य कुदडगलवधणाणि य वाडग परिवारणाणि य पंकजलनिमनणाणि य वारिप्पवेसणाणि य ओवाय निभंगविसमाणि य वडण दवग्गिजाल दहणाइयाइ य ॥ ३९ ॥ ____टोका-'मायापिइ विप्पयोग' मातापितृविपयोग = माता च पिता च में जोत दिये जानेका दुःख, (कसकुसारनिवा य) कशा-चावुक अकुश एव आरा-दडे के अग्रभागमे लगी हुई लोह की कील-से पीटे जाने का तथा चुभो देने का दु.ख, (दमणाणि) दमन-अच्छी चाल आदि को चलाने के लिये शिक्षा का दुःख, तथा ( वाहणाणि य) भारो को वहन करने का दुःख, ये सब दुःख है और उन्हें तियंचगति मे रहे हए जीव प्राप्त करते है ॥सू ३८ ॥ तिर्यचगति के और भी ये दुग्वि है-'माया-पिय-विप्पओग' इत्यादि । टीकार्थ-(माया-पिय-विप्पओग सोयपरिपीलणाणि य) माता पिताका भासि या त्यारे गाडी माहिंय नावानुन, “कसकुसारनिवाय"शा ચાબુક, અકુશ અને આન-લાકડીને છેડે ચડેલી અણીદાર ખીલી વડે માર भावानुन, तथा ते यानी jी शरीरमा पाथी ६५ तु "दमणाणि" દમન-સારી ચાલ ચાલાવવા કે ગતિ વધારાવવા માટે થતી શિક્ષાનુ દુખ તથા "वाहणाणि य" मा२ 6413ानुन, से सामना विविध १२ छ, भने તિર્થં ચ ગતિમાં જન્મેલા જીવો તે દુ ખ ભેગવે છે કે સૂ-૩૮ છે तिय २२ गतिना ulcagो । प्रमाणे -"माया-पिय-विप्पओग" त्यादि थ-" माया-पिय-विप्पओगसोयपरिपीलणाणि य" माता पिताना भता Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण तयोविभयोग = वियोगः, तयोर्जन्मतो मरणे यचे व्याधादिमिनिग्रहे वा स्वस्य निग्रहे वेति भाषः 'सोयपरिपीलणाणि य ' शोकपरिपीडनानिम्मातापिठवियोगजनितशोकदुःखानि, अथवा-स्रोतः परिपीडनानि स्रोतसाम्नामिकादिछिद्रागा रज्जुवन्धनादिभिः परिपीडनानि-खेदोत्पादनानि। 'सत्यग्गिनिसाभिघायगलग बलावलणमारणाणि य' शस्त्राग्निविपाभिघातगलगलावलनमारणानि च, तत्रशस्त्र च अग्निश्च विप च तैरभिघातानाश, तथा गलस्य = कण्ठस्य गवलस्यशुगस्य च आवलनेन-मोटनेन मारणानि 'गलजालन्उिप्पणाणि ' गलजालो क्षेपणानि-गलेन-घडिशेन जालेन च उत्क्षेपणानि = मत्स्यादीना जलाबहिनिस्सारणानि । पउलण-विकप्पणाणि' पचन किल्पनानि-' पउलण' पचन विकल्पन च-अङ्गकर्तन तानि । जावज्जीवगायणाणि' यावज्जीवकान्यनानि आजीवन रज्जुशहलादि बन्धनानि । 'पजरनिरोहणाणि' पअरनिरोधनानि पञ्जर-लोहरशाला कादिनिर्मित पक्षिनियन्त्रणगृह, तत्र निरोधनानि मतिरोधनानि 'सहनिद्घाडणाणि' स्वयूथ निस्सारणानि स्वयूथात् स्वसात्-िनिस्साणानि-पुन: पुनः परिवारतः जन्मते ही वियोग हो जाने से दुःख सहन करना, अथवा-नासिका आदि के छिद्रो का रज्जु आदि के द्वारा बंधन होने पर उसका कष्ट सहना, (सत्थग्गिविसाभिधायगलगवलावलण मारणाणि य ) शस्त्र से, अग्नि से तथा विष से मरण हो जाना, गला और सीग के मुड़ जाना और उससे मरण हो जाना, (गलजालुच्छिप्पणाणि य) बडिश-मछली मारने का काटा एव जाल से अपने स्थान से अलग किया जाना, (पउ. लणविकप्पणाणि य) अग्नि मे पकाया जाना अग अग का काटा जाना (जावजीवगयधणाणि य) जीवनपर्यन्त रज्जु अथवा साकल आदिसे घाधा जाना, (पजरनिरोहणाणि य) पीजरे मे बद किया जाना, (सजूहनिद्घाडणाणि य) बार २ अपने झुड में से बाहर निकाल दिया जाना જ વિગ થવાથી દુ ખ સહન કરવું પડે છે નાક આદિના છિદ્રોનું દોરડા मा २१ सधन थवाथी तेनुप सडन ४२७ ५ छ " सत्यगिक्सिामि घायगलगलावलणमारणाणि य" शखथी, गनिया तथा विषयी मृत्यु २४ पानु, म अने शी भ२15 पाने २ भ२५ थवानु, “गलजालु छिप्पणाणि य" र (भासी भारवाना टा) मने थी पोताना स्था नया सासर ४२वानु, "पउलणविकप्पणाणि य" मनिमा धावानु, १२४ ५ जना छावानु, "जावज्जीवगबधणाणि य" ७वे त्या सुधी हो२७॥ ॐ सा 4 धावानु, "पजरनिरोहणाणि य" सिमा पुरावानु, “ सहनिद्घाड जणि य" वारवार पाताना समूडमाथी पडा२नु, " " Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ३९ तिर्यग्गतिदु मनिरूपणम् १३५ 3 पृथवरणानीत्यर्थ, ' नि ' पूर्वकस्य 'स' धातो 'घाट' आदेशेकृतेऽपि पुनर्निरुपसर्गपूर्वक निर्देशः पोनः पुन्यार्थसूचका, 'धमणाणि अग्नी प्रक्षिप्य भस्त्रादिभि धनानि । दोहणाणि ' दोहनानि '' कुदडगलनघणाणि कुदण्डगलनन्धनानि= कुदण्डस्य=ककाष्टम्य गले= कण्ठे न्धनानि ' पाडगपरिवारणाणि य' वाटक परिवारणानि =वाटके निरोधनानि 'प+जलनिमज्जणाणि ' पङ्कजलनिमज्जनानि = पङ्कमयजले निमज्जनानि ब्रोडनानि 'वारिष्पवेसणाणि ' वारिप्रवेशनानि = जलप्रक्षेपणानि 'ओनिभगरिसमणिपडणदवग्गिजाल्दहणाढयाइ य ' अवपातनिभमिनिपतन्दाग्निज्वालादहनादिकनि च - अवपातेन=गर्तादिषु निपातेन यो निभङ्गः = अङ्गोपाङ्गः भञ्जनम् अपि च- विपमेभ्यः निमदेशेो गिरिवृक्षा दिभ्यो निपतन, तथा दवाग्निज्वालाभिर्दद्दन चेति द्वन्द्वः, तानि आदिर्येपा तानि =म्वस्वजातियरोगातवादीनि तान्येवम्प्रकाराणि दुःखानि प्राप्नुवन्ति ॥ म्र० ३९ ॥ , ( धमणाणि य ) अग्नि में प्रक्षिप्त करके भस्त्रा आदि से धोका जाना, ( दोहणाणि य ) स्तनों का दोहन होना, ( कुदड गलनघणाणि य ) कोढे वक्र - काष्ठ का गले मे बाधा जाना-लटकाया जाना, ( वाडगपरिवारपाणि य) फाटों आदि की बाड लगाकर किसी स्थानपर रोका जाना, ( पकजल निमज्जणाणि य ) पक युक्त जल मे फँस जाना, ( वारिप्पवेस णाणि य) वारिप्रवेशन - बरसते हुए पानी मे सड़े रहना अथवा तलाव वगैरह के पानी में हठात् प्रविष्ट कराया जाना, अथवा पानी में डूब कर मर जाना, ( ओवायणिभगविसमणिवरण- दवग्गिजाल दहणाइयाह य ) किसी गर्न खड्डा आदि मे गिर जाने से अग उपागों का टूट जाना, पर्वत आदि के ऊँचे स्थानों से गिर जाना, दावाग्नि मे जल जाना, इत्यादि नाना प्रकार के दुःखों को तिर्यञ्च गति के जीव भोगते है ॥ ३९ ॥ " ગળામાં આડા (6 अग्निमा नामीने मलीहार सजिया आदि वडे वीधावानु, " दोहणाणि य " આચળેશમાંથી દૂધ ઢાઈ લેવાનુ, " घुदडगलबधणाणि य લટકાવવાનું, वाडगपरिवारणाणि य " अहजवाजा न्जमा भूथी भवानु " वारिपवेसणाणि य" वारि प्रवेशन-वरमता वरसाहमा उला रहेवानु अथवा तजाव વગેરેના પાણીમા ખળ જખરીથી પ્રવેશ કરવાનુ "L ओवायणिभरासमणिवडण - दवग्गिजालदहणाइयाइ य ' કાઈ ખાડા આદિમા પડી જવાથી અગ ઉપાગી પર્યંત આદિ ઊંચા સ્થાનેા પરથી પડી જવાનુ, દાલાગ્નિમા મળી ઇત્યાદિ વિવિધ પ્રકારના ૬ ખેા તિય ચ ગતિના જીવા ભગવે છેાસ રૂા તૂટી જવાનું, भवानु, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ प्रश्नध्याकरसूत्र उपसहरन्नाह-एर ते' इत्यादि । मूलम्-एव ते दुक्सलयसंपलित्ता नरगाओ आगया इहं सावसेसकम्मा तिरिक्खपंचिंदिएसु पार्वति पावकारी कम्माई, पमायरागदोसबहुसंचियाइ अइव असायक कसाई ॥ सू०४०॥ टीका-एवम्-उक्तप्रभारः ते = जीना पाणातिपातकारकाः ' दुक्खसया सपलित्ता' दुःखशतसम्प्रदीप्ता दु खशतैः सम्मदीप्तासन्तप्ताः 'नरगाओ' नरकात् -इ-तिर्यग्लोके आगया जागता उत्पन्नाः 'सारसेसकम्मा' सावशेषकर्माण अवशिष्टपापकर्माणः 'पानकारी' पापारिण 'तिरिक्सपचिदिएमु' तिर्यक् पञ्चेन्द्रियेषु 'पमाय-रागदोसनहसचियाई' ममादरागद्वेपासञ्चितानिप्रमादाविपयाघभिप्वद्गलक्षणः, राग मायालोभलक्षणः, द्वैपाक्रोधमानलक्षणः, तैः बहूनि सञ्चितानि-उपार्जितानि 'अईव' अनी अत्यन्तम् 'असायकक्कसाइ' अशातकर्कशानि = अशातेपु-अशातवेदनीयकर्मोदयप्रभवेषु दुःखेषु कर्कशानिकठोराणि 'कम्माणि,' कर्माणि कर्मजन्यानि दुःखानि 'पाति' प्राप्नुवन्टि, __ अब उपसहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'एच ते' इत्यादि। टीकार्थ-(ण्य) इस प्रकार से (ते) वे प्राणातिपातकारक जीव (दुक्खस यसपलित्ता) सैकडों दुःखों से सन्तप्त होकर (नरगाओ) नरक से (इह ) इस तिर्यग्लोक में (आगया) उत्पन्न होते है और (सावसेसकम्मा ) पापकर्म उनका अवशेषरहने के कारण वे (तिरिक्ख पचिंदिएसु) तिर्यञ्च पचेन्द्रियों मे (पमाय - रागदोसबहुसचियाइ ) विषया धभिष्वङ्गरूप प्रमाद से मायालोभरूप राग से और क्रोधमानरूप द्वेष से उपार्जित किये गये (अईव असाय कक्कसाइ कम्माइ) अशात कर्कश कर्मो व पसा२ ४२॥ सूत्र२ उछे-"एव ते" त्यादि टी -"एव" मा प्रमाणे "ते" प्रावध ४२ना२ ~ "दुक्खसयसपलित्ता" से माथी भी थने “ नरगाओ" नमाथी " इह " मा तिमा “आगया" Gत्पन्न थाय छ भने “सावसेसकम्मा" तेमना पा५४ माडी २२ डापायी तो "तिरिक्खपचिदिएसु" ति य ५२न्द्रयोमा “पमाय रोगदोसपहसचियाइ " विषयाहिनी मलिदा ३५ प्रभाथी, भाया बाम ३५ शायी, मन अपमान ३५ द्वेषयी ललित ४रे " अईत्र असाय कक्कसाइ फरमाई" All ४४ भनि, मशात वहनीय हयने १२थे 6cd Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदशिनीटीका अ० १ सू० ४१ चतुरिन्द्रियदु पनिरूपणम् माणिवधकारकाः नरकात्मत्यागतास्तिर्यपञ्चेन्द्रिययोनिपु समुत्पन्नाः कठोरतराणि दु ग्यान्यनुमन्तीति सङ्कलितोऽर्थः ॥ सू० ४० ॥ तिर्यक् पञ्चेन्द्रियदुःखानि वर्णयित्वा साम्मत चतुरिन्द्रियदुःखानि वर्णयन्नाद-ममर' इत्यादि । मूलम्-भमर-मसग-मच्छियाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सहिं नवहि चउरिदियाण तहिं तहि चेव जम्मण मरणाणि अणुहवंता काल संखिजं भमति नेरइयसमाण तिव्वदुक्खाफरिसरसणघाणचक्खुसहिया ॥ सू० ४१ ॥ टीका-' भमर-मसग-मन्छियाइएम् 'भ्रमरमशकमक्षिकादिकेषु = प्रसिद्धेषु 'चउरिदियाण' चतुरिन्द्रियाणा 'नवहिं ' नमुनसख्यकेपु 'जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि 'जातिकुलकोटिशतसहस्रेषु = जाती = चतुरिन्द्रियजाती यानि कुलानि-भ्रमराधनेकाकाराणि, तेपी कोटया विभागा=अन्तर्भेदाः तेपा शतसहस्रपु-लक्षेपु-नवलक्षचतुरिन्द्रियजातिकुलकोटिपु इत्यर्थः, 'तहिं तहिं चेच' को अशातवेदनीयकर्मोदयसे उद्भूत हुए दुखों में भी कठोतर कर्मजन्यदुःखों को (पाति) भोगते है-अर्थात्-वे प्राणिवधकारक जीव नरकसे निकलकर तिर्यचपचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं और वहा कठोर .खों को प्राप्त करते है ॥ ४०॥ चे पापी जीव चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होकर किस प्रकार के दुःखों को भोगते हैं जिसका वर्णन करते है-' भमर-मसग ' इत्यादि। टीकार्थ-(भमर-मसग-मच्छियाइएसु चरिंदियाण नवहिं जाइकुलकोडिसयसहस्सेहिं) भ्रमर, मशक, मक्षिका आदि चतुरिन्द्रिय जीवों के नौ लाख जातिकुल कोटियों मे (तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि) वही वहीं मे ४२ता ५ qधारे ठौर भन्यहमान "पाति" लोग छ सटते. કે પ્રાણવધ કરનાર છો નરકમાથી નીકળીને તિર્થં ચ પચેન્દ્રિમાં ઉત્પન્ન થાય છે અને ત્યા વધારેમાં વધારે આકરા દુખ પ્રાપ્ત કરે છે સૂ કા તે પાપી જી ચતુરિન્દ્રિય મા ઉત્પન્ન થઈને કેવા પ્રકારના દુખે माग छ तेतु वन ४२ता सूत्रा२४ छ-"भमरमसग" त्याle __टीर्थ-“भमर, मसग, मच्छियाइएसु चरिदियाण नहिं जाइकुलकोडिसयसहस्सेहिं" प्रभ२, भश, भाभी मा यौन्द्रिय वानी नपामारनीतिमामा "तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि" ते ते येलियामा यतुरिन्द्रिय वामा Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - १३८ प्रश्नध्याकरणसूत्र तत्र तत्रैव चतुरिन्द्रियेष्वेव ' जम्मणमरणाणि' जन्ममरणानि 'अणुहवता ' अनु भवन्तः कुर्वन्तः 'नेरइयसमाणतिव्यदुक्खा । नैरयिकसमानतीयदुःखाः नारकै। समानानि-नरके नारकाः यादृशानि दु यानि अनुभनन्ति तत्तुल्यान्येव तीवाणि-कठोराणि असहानीत्यर्थः दुःखानि येषा ते तथा नारकदुःखतुल्या समवेदनावन्तः, 'फरिस-रसण-घाण-चक्सुसदिया ' म्पर्श-रसन-घ्राण-चक्षुः सहिता स्पर्शादीन्द्रियचतुष्टययुक्ताः 'सखिज्ज काल' मरयात कालसरयातवर्षे सहस्र काल यावत् 'भमति' भ्रमन्ति=पुनः पुनर्यो नितो योनि प्राप्नुवन्तीत्यर्थः।।४१॥ अथ त्रीन्द्रियदुःखानि वर्णयति 'तहेवे ' त्यादि । मूलम्त हेव तेइदिएस कुथु-पिवीलिया-उद्देहियाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि अट्टहि अणूणगेहिं तेइदिदियाण तहि तहि चेव जम्मण मरणाणि अणुहवता कालं संखेजगं भमति नेरइयसमाणतिबदक्खा फरिस-रसण -घाण-संपउत्ता ॥ सू० ४२ ॥ टीका-'तदेव ' तथैव चतुरिन्द्रियेषु यथा दुःखान्यनुभवन्ति तथैव 'ते इदिएसु' त्रीन्द्रियेषु 'कुथु-पिवीलिया उद्देहियाइएमु ' कुन्यु पिपीलिकोपदेहि पर-चतुरिन्द्रिय जीवों में ही-जन्म मरणों को (अणुहवता) करते हुए वे पापी जीव (नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा) नरकगति जैसे असाथ दुःखों को भोगते हुए (फरिस-रसण-घणचरखुसहिया) स्पर्शन, रसना, घाण और चक्षु इन इन्द्रियो से युक्त हुए ये चतुरिन्द्रिय जीव (सखिज्ज काल) सख्याता हजार वर्षतक (भमति) उसी योनि में जन्म मरण करते रहते हैं ॥ सू. ४१॥ ___अय त्रीन्द्रिय जीवों के दुःखों को वे भोगते हैं ऐसा वर्णन सूत्रकार or rम भर "अणुहवता" अनुसता ते पापी “ नेरइयसमाणतिव्व दुक्खा" २४ गति असह्य भाग छ भने “फरिस-रसण-घाण -चक्खुसहिया " २५शन, २सना, प्र], मने न्यक्षु से यार छन्द्रियोथी युत यतुरिन्द्रिय ! " ससिज्ज काल" सज्यात १२ वर्ष सुधी "भमति" . તે એનિમા જન્મ મરણ અનુભવ્યા કરે છે, uસૂ-૪૧n હવે તે ત્રીન્દ્રિય જી જે દુખે ભગવે છે તેનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ४२ तिन्द्रियदीन्द्रियदु सनिरूपणम् * का दिकेषु = कुन्युः सुमन्तुविशेषः, पिपीलिका=प्रसिद्धा, 'उद्देहिया' उपदेहिफा = ' उदेही' इति भाषा प्रसिद्धा, इत्यादिकेषु ' तेहदियाण' त्रीन्द्रियाणा, ' अणूणगेहिं ' अन्यूनकेपु = पूर्गेषु 'अहहिं ' अष्टम्भु 'जाइकुल कोडिस यसहस्से हिं' जातिकुल कोटिशतसहस्रेषु - जातो त्रीन्द्रियजातो यानि कुलानि = कुन्थुपिपीलि कायाकाराणि, तेपा कोटयः = विभागाः = अन्तर्भेदाः, तेपा शतसहस्रेषु लक्षेषु परिपूर्णाष्टलक्षनीन्द्रियजातिकुल कोटिपु - इत्यर्थः, ' तर्हि तहिं चेव' तत्र तत्रैन त्रीन्द्रियेषु ' जम्मणमरणाणि ' जन्ममरणानि 'अणुहवता' अनुभवन्तः, ' नेरइयसमा गतिव्यदुक्खा' नैरयिकममानती नदुःखा= नररुमदृदा दुःखयुक्ताः 'फरिस - रसणघाण - सपउत्ता' स्पर्श रसनघ्राणसम्प्रयुक्ता = स्पर्शादिभिस्त्रिभिरिन्द्रियैर्युक्ताः ‘सखेज्जग ' सख्यातक=मख्यातवर्षसहस्र काल यानत् 'भमति ' भ्रमन्ति ॥ ०४२॥ करते हैं - ' तहेच ' इत्यादि । टीकार्थ - (तहेब) जिस तरह पापी जीव चतुरिन्द्रिय जीवों में जन्म मरण करके दुःखों को भोगते है उसी तरह वे (कुयु पिवीलिया उद्देतियाइएस) कुथु, पिपीलिका, उदेही आदिक प्रीन्द्रिय जीवों मे कि जिन ( तेइदियाण ) तेन्द्रिय जीवों की (अणूणगेहि अद्वहिं जाइकुलकोटिसयसह स्सेहि ) उन पूर्ण आठ लाख जातिकुल कोटियों में ( तहिं तहि चेव जम्ममरणाणि अणुवता) बार घार वही पर जन्म मरणों को करते हुए (नेरइयसमागतिब्बा) नरकगति जैसे असत्य दुःखों को भोगते हुए इनके (फरिस - रसण - घाण सपत्ता ) स्पर्शन, रसना और घ्राण इन तीन इन्द्रिय युक्त हुए ये तेन्द्रिय जीव ( सखेज्ज काल ) सख्यात हजार वर्षो तक (भमति ) उसी पर्याय में परिभ्रमण करते हैं || सू०४२॥ छे -- " तद्देन" त्याहि टीअर्थ - ' तद्देव” प्रेम पायी लव अतुरिन्द्रि वाभान्भ भर पाभीने हु भो लोगवे छे तेम तेम "कुथुपिवीलिया उद्देहियाइएसु" कुथु, डीडी, धर्म माहिङ त्रिन्द्रिय लवेोभा ४न्भ से छे भने 'तेइदियाण " तेन्द्रिय वोनी “अणूणगेहिं अट्ठहिं जाइकुलको टिसयसहस्से हिं" साहसाथ प्रारनी भतियोनिभा " तर्हि तहिं चैव जम्ममरणाणि अणुहवता" वारवार न्भ भर अनुलवता "नेरइयसमाणेतिव्वदुक्सा " નરક ગતિ જેવા અસહ્ય દુ ખો ભોગવે છે જેમને "फरिस - रसण - घाण सपउत्ता " स्पर्शन, रसना भने प्राणु मे त्रायुर्धन्द्रियान होय छे वा ते तेन्द्रिय लुवे "सखेज्जकाल " भय्यात हुन्नर वर्षो सुधी "भमति " ते " योनिमा परिभ्रम र्ध्या उरे छे॥ सू-४२ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १२८ प्रश्नव्याकरणसूत्र तत्र तत्रैव-चतुरिन्द्रियेप्येव 'जम्मणमरणागि' जन्ममरणानि 'अणुहवता ' अनु भवन्तः कुर्वन्तः 'नेरइयसमागतिव्यदुक्खा । नैरयिकसमानतीयदुःखा=नारकैः समानानि-नरके नारकाः यादृशानि दु ग्यानि अनुभवन्ति तत्तुल्यान्येव तीवाणि-कठोराणि असाद्यानीत्यर्थः दुःखानि चेपा ते तथा नारकदुःखतुल्या सबवेदनावन्तः, 'फरिस-रसण-घाण-चक्सुसहिया ' स्पर्श-रसन-प्राण-चक्षुः सहिता स्पर्शादीन्द्रियचतुष्टययुक्ताः सखिज्ज काल' सरयात काल-सरयातवर्षे सहस्र काल यावत् 'भमति' भ्रमन्ति=पुनः पुनोनितो योनि प्राप्नुवन्तीत्ययः॥४१॥ अथ त्रीन्द्रियदुःखानि वर्णयति 'तहेवे ' त्यादि। मूलम्-तहेब तेइदिएस कुथु-पिवीलिया-उद्देहियाइएसु य जाइकुलकोडिसयसहस्सेहि अहि अणूणगेहि तेइदिदियाण तहि तहि चेव जम्मण मरणाणि अणुहवता कालं सखेजगं भमति नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा फरिस-रसण -घाण-संपउत्ता ॥ सू० ४२ ॥ टीका-'तहेव' तथैव चतुरिन्द्रियेषु यथा दुःखान्यनुभवन्ति तथैव 'ते इदिएसु' त्रीन्द्रियेषु 'कुथु-पिपीलिया उद्देहियाइएसु' कुन्यु पिपीलिकोपदेहि पर-चतुरिन्द्रिय जीवों में हो-जन्म मरणों को (अणुहवता) करते हुए वे पापी जीव (नेरइयसमाणतिव्वदुक्खा) नरकगति जैसे असत्य दुःखों को भोगते हुए (फरिस-रसण-घणचरखुसहिया) स्पशन, रसना, घ्राण और चक्षु इन इन्द्रियो से युक्त हुए ये चतुरिन्द्रिय जीव (सखिज काल) सख्याता हजार वर्षतक (भमति ) उसी योनि में जन्म मरण करते रहते हैं । सू ४१ ॥ अब त्रीन्द्रिय जीवों के दुखों को वे भोगते हैं ऐसा वर्णन सूत्रकार torrम भरण "अणुहवता" अनुलवता ते पायी । “नेरइयसमाणतिव्व दुक्खा" न२४ गति ! मसी लागव छे भने “फरिस-रसण-घाण -चक्खुसहिया" २५शन, रसना, प्राणु, मने यशु मे या छन्द्रियोथी युत तयतरिन्द्रिय वा “ ससिज्न काल" सज्यात १२ वर्ष सुधी "भमति" તે નિમાં જન્મ મરણ અનુભવ્યા કરે છે, માસૂ-૪૧ હવે તે ત્રીન્દ્રિય જીવે જે દુઓ ભેગવે છે તેનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशिनी टीका भ १ ० ४४ पकेन्द्रियदु सनिरूपणम् एवमेन एकेन्द्रियत्वमपि ते प्राप्ताः यास यामु योनिपु यया भ्रमन्ति तदाह -'पत्ता' इत्यादि। मूलम्-पत्ता एगिदियत्तणपि य पुढवि जल जलण मास्य वणप्फइसुहमवायर च पज्जत्तमपज्जत्त पत्तेय सरीरणाम साहारण च पत्तेयसरीरजीवेसु य तत्थ वि कालमसखेज्ज भमंति अर्जतकालं च अणतकाए, फासिंदियभावसंपउत्ता दुस्खसमुदय इम अणि? पावंति पुणो पुणो तहिं तर्हि चेव परभवतगणगणे ॥ सू० ४४ ॥ टीका-'एगिदियत्तणपि य ' एकेन्द्रियत्वमपि च= अपि चे' ति समु. च्चयार्थः । एव च न केवल पश्चेन्द्रियचतुरिन्द्रियादित्वमेव प्राप्ता, अपि तु एकेन्टियत्वमपि 'पत्ता' प्राप्ताः सन्तः दुःखममुदय माप्नुवन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । शन और रसना इन दो इद्रियों से युक्तवाले ये दीन्द्रिय जीव (सखेज्जकाल) सत्यात हजार वर्प प्रमाण फालतक (भमति ) इसी द्विन्द्रिय की पर्याय में भ्रमण करते हैं ।। सू-४३ ।। इसी तरह केन्द्रिय की पर्याय को भी प्राप्त हुए वे पापी जीव जिन २ योनियों में जिस २ तरह से परिभ्रमण करते हैं अन मूत्रकार इस यात को प्रकट करते है-' पत्ता एगिदियत्तणपि य' इत्यादि। टीकार्य-(एगिदियत्तणपि य पत्ता) वे पापी जीव केवल पचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय आदि पर्यायोंको ही प्राप्त नहीं करते है किन्तु एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त करते है और वहां चे (दुक्खसमुदय पावति) दुःख समूह को भोगते योथी युत तान्द्रय ७ " सखेज्जकाल " ज्यात १२ वर्ष सुधा " भमति " मेरी दीन्द्रिय योनिमा भ्रम ४२ छ॥ २-४३॥ એજ પ્રમાણે એકેન્દ્રિયની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈને તે પાપી જીવો જે જે નિમાં જે જે રીતે પરિભ્રમણ કરે છે, તે વાતનું સૂત્રકાર હવે વર્ણન કરે छ-" एगिनित्तणपि य" त्यादि "एगिदियत्तणपि य पत्ता" पापी त ५येन्द्रिय, यतुलन्द्रिय પર્યાને જ પ્રાપ્ત કરતા નથી પણ એકેન્દ્રિય પર્યાયને પણ પ્રાપ્ત કરે છે, અને स्या तसा " दुस्पसमुदय पावति " माना समूडने व्य४२ थे, ते Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० अथ द्वीन्द्रियदु खानि वर्णयन्नाह - ' गरुप ' इत्यादि । मूलम् - गडूलय - जलूय - किमिय- चदणग-माइए य जाइकुल कोडिसयसहस्सेहि सतहिं अणूणगेहिं वेइटियाण तहि तहि चेव जम्मण मरणाणि अणुहवता कालं संखिज्जगं भमंति नेरइय समाणतिव्व दुक्खा परिस-रसण-संपउत्ता॥सू०४३॥ टीका - त्रीन्द्रियात् समागताः द्वीन्द्रियेपपि 'गडूलय - जलूय किमियचदणगमाइएस' गण्डोलक - जलूक - कृमि-चन्दन-कादिकेपु - गण्डोला : गोम यादिषु समुत्पन्नाः कीटविशेषा', जलुका: जलजन्तुका : 'जोक' इति प्रसिद्धा' कृमयः = 'लट ' ' चूरणिया ' इति प्रसिद्धाः, चन्दनकाः शङ्खजातिविशेषाः, ते आदिर्येपा ते तथा तेषु 'इदियाण ' द्वीद्रियाणा 'सत्तद्दि ' ' सप्तसु जातिकुल कोटिशतसहस्रेषु अन्यूनेषु जन्ममरणानि अनुभवन्तो नारकसमानतीव्रदुःखाः स्पर्शरसनेतीन्द्रियद्वय सम्मयुक्ता सख्यातवर्षसहस्रलक्षण काल यावत् भ्रमन्ति ॥४३॥ , करणसूत्रे प्रश्न याक अब हीन्द्रिय जीवों में उत्पन होकर के वे किन किन दुःखों को भोगते है इसका सूत्रकार वर्णन करते है-' गडूल य ' इत्यादि । टीकार्य -तेन्द्रिय योनि से निकल कर वे पापी जीव द्वीन्द्रिय जीवों में (गडूलय-जलूप - किमिय-चदणग-माइएस) गण्डोलक, जलोक, कृमि, और शस्त्र आदिकों मे भी कि जिनकी ( सत्तर्हि जाइकुलकोडि सयस से हिं) सातलाख जातिकुल कोटि है ( तहिं २ ) वही वही बार २ ( जम्ममरणाणि अणुहवता ) जन्म मरण करते हुए ( नेरइय समाणतिव्वदुक्खा ) नारकियों जैसा तीव्र दुःख भोगते हुए (फरिस - रसण सपत्ता) स्प ८८ હવે દ્વીન્દ્રિય જીવેામા ઉત્પન્ન થઈને તેઓ કયા કયા દુખો ભાગવે છે, तेनु सूनर वन करे छे" गइलय " इत्यादि ટીકા તેન્દ્રિય ચેાતિમાની નીકળીને તે પાપી જીવે 'गडूलय-जलूयfafĦa-qq017-mggg” n'das, vâîk, ¿lu, a u mle állfáu odн18-H से छे ते हीन्द्रिय कवना पशु "सत्तहिं जाइकुल को डिसयसहस्सेहिं" नति प्रमाणे सात साथ प्रजशे छे “तहिं तहिं" ते हरेक भतिभा वारवार 'जम्ममरणाणि अणुहवता" જન્મ મરણ અનુભવતા “ नेरइयसमाणतिव्यदुक्सा " तेथे नाशीमा नेवा फरिसर सणसपत्ता ” ખો ભાગવે છે સ્પર્શન અને રસના ઇન્દ્રિ આકરા Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ४५ दुसप्रकारनिरूपणम् पृ १ स२ ते ३ वा ४ व ५ छाया-एकेन्द्रियेषु पञ्चम, द्वादश-सप्त-निक-सप्त-अष्टविंगविश्व । २५ ३५ ४३ विस्लेमु सप्त-अष्ट-नर, जळ-स-चतुप्पद-उरोग-भुजगेमु ॥१॥ अईनयोदश [१२॥] द्वादश, दशदशनक नरामरयोनरके । द्वादश पशितिः पञ्चविंशति,-र्भवन्ति कुल कोटिलक्षाणि ॥२॥५॥४४॥ अथ दुःखममुदयमाह- कोदाले ' त्यादि । मूलम्-कोदाल-कुलिय दालण-सलिल-मलण-भण-रुभणअणलाणिल-विहिमत्थघट्टण परोपराभिहणण-मारण-विराहणाणि य अकामगाइ परप्पओगोदीरणाहिय कज्जप्पओयणेहि य पेस्स पसु निमित्त ओसहाहारमाइएहि उक्खणण-उकत्थण-पयणकोहण पसिण-पिटण-भज्जण-गालण-आमोडण- सडण -फुडणभजण-छेयण-तच्छण विल्लुचण -पतज्झोडण-अग्गिदहणाइयाइं, हीन्द्रिय जीवों के सात लाख, तेन्द्रिय जीयों के आठ लाख, चोइन्द्रिय जीवों के नौ लाख, जलचरों के साना बारहलाख, खेचरों के बारह लाख, चतुप्पदों-थलचरों के दश लाख, उरगों के दशलाख, भुजगों के नौ लाख, मनुष्यों के बारह लाग्य, देवों के नच्चीस लाख और नरकों के पच्चीस लाख कुल कोटि है । कुलकोटि की व्युत्पत्ति "कुलाना कोटिः" इस प्रकार है । इसका तात्पर्य अपनी • जाति मे आकार आदि को लेकर विभाग से है, अर्थात्-पृथिवीकाय आदि जीवों के जो आकार है उन आकारों के जो और अन्तभेद है वे जुलकोटि शब्द के वाच्यार्थ है ।।सू-४४॥ સાત લાખ, તેન્દ્રિય જીવોના આઠ લાખ, ચતુરિન્દ્રિય જીના નવ લાખ, જળચના સાડા બાર લાખ, બેચરના બાર લાખ, ચતુષ્પદે સ્થળચરોના દશ લાખ, ઉરગોના દર લાખ ભુજગેના નવ લાખ, મનુષ્યના બાર લાખ, દેના છવીસ લાખ, અને નારીઓને પચીસ લાખ કુલટિ (પ્રકાર) છે કુલ– उटिनी व्युत्पत्ति " कुलाना कोटि" थाय छे तेनु तात्पर्य मा प्रभाव छे-पोत પિતાની જાતિમાં આકાર આદિ પ્રમાણે પાડેલા વિભાગોને “કુલકેટિ' કહે છે એટલે કે પૃથિવીકાય આદિ જીવોના જે આકારો છે તે આકારના બીજા જે અન્તભેદ છે તે કુલટિ શબ્દના વાચાર્થ છે સૂ–૪૪ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ मetterण , कीदृशाः सन्तो भ्रमन्ति ? इत्याह-- ' फासिंदियभानमपत्ता ' स शैन्द्रियभारसम्मयुक्ता=स्पर्शमात्रै केन्द्रियत्व प्राप्ताः, 'वहिं तहिं चेत्र ' तत्र तत्रैत्र तस्पतिकाय पर फीडशे ? इत्याह-' परभातरुगणगहणे परभरतरुगणगहने = पराः = प्रकृष्टाः सर्वोत्कृष्ट कार्यस्थितिस्त्वात् भवाः उत्पत्तिस्थानानि येषु ते तादृशा तरुगणा: वृक्षगुच्च्गुल्मादिसमृद्दास्तैगैहने गम्भीरे 'पुणो पुणो ' पुनः पुनः मुहुर्मुहुः 'इम' पक्ष्यमाणम् ' अणि ' अनिष्ट प्रतिकूल दुःश्वसमुदय = दु खसमूह = नानाविधमशात वेदनीयरूप 'पारति ' मातुरन्ति । सर्वासा जातीनां कुलकोटयो यथा - ! we " 'एगिदिए पचछ, बारस-सत्त-तिग-सत्त-अहीसा य । विगले सत्त अड नत्र, जल- खह - चउप्पय- उरंग - भुयगे ॥ १ ॥ अद्धत्तेरस वारस, दस दस नवग नरामरे नरए । वारस छवीस पणवीस हुति कुलको डिलम्खाइ ॥ २ ॥ " इति । ( फार्मिदिय भावसंपत्ता) ये सब जीन एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले ही होते हैं । और ( तर्हि तर्हि चेव ) उसी वनस्पतिकाय में कि जहाँ ( परभवनरुगणगहणे ) वृक्ष, गुच्छ, गुल्म आदि समृहरूप भव सर्वोत्कृष्ट हैं और उनसे जो गहन बना हुआ है ( पुणो पुणो ) वार २ ( इम) इन वक्ष्यमाण (अणिह ) अनिष्ट - प्रतिकूल (दुक्ख समुदय ) दुःखों को - नाना विध अशात वेदनीय रूप कष्टों को (पावति ) पाते हैं । समस्त जातियों के कुल कोटियों की संख्या इस प्रकार हैं--- पृथ्वीकाय के बारह लाख, अप्काय के सात लाख, तेउकाय के तीन लाख, वायुका के सात लाख, वनस्पतिकाय के अट्ठाईस लाख, " फार्सिदिय भावसपत्ता ” તે મધા જીવા એકલી સ્પન ઈન્દ્રિયથી युक्त होय छे, भने “ ' तहिं तहिं चैव " ते न वनस्पतिजयमा ल्या परभव तरुगण गणे" वृक्ष, गुछ, शुभ शाहि सभूय लव सर्वोत्लष्ट छे भने तेमनाथी ने गहुन जनेस छे “पुणो पुणो " ८. ८८ વાર વાર इम' मा " प्रमाणे “अणिदु ” अनिष्ट-प्रतिपूण " "" दुक्ख समुदय હું ખાને વિવિધ આશાતા वहनीय ३ ष्टीने " पावति" अनुलवे छे सघणी लतियोनी योनियोना પ્રકારાની સખ્યા નીચે પ્રમાણે છે પૃથ્વીકાયના ખાર લાખ, અપ્કાયના સાત લાખ, તેઉકાયના ત્રણ લાખ, વાયુકાયના સાત લાખ, વનસ્પતિકાયના અઠ્ઠાવીસ લાખ, દ્વિઈન્દ્રિય જ્વાના Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० १ सू० ४५ दुसप्रकारनिरूपणम् १४७ । , मनव अनिलथेत्यनला निलौ तयोः =अग्निनान्वोः विविधैः शस्त्रैः स्वकायपरकायोभयकायलक्षणेः घट्टनम् =उपहननम्, जनेन अग्निनारबोर्भेदना दर्शिता । तत्रअग्नेः स्वायशस्त्र परीपाग्नेः काष्ठाग्निः परकायशस्त्र धूलिजलादिकम् । उभयकायशस्त्रम्=प्रज्वलत्करीपादिनम् । वायोः सकायशस्त्र = पूर्वदिग्वायो पश्चिमदिवायुः इत्यादि रूपम् परायशखम् अग्न्यादिकम् उभयना यशस्त्रम् = अग्निसन्तप्तवायु' - इतिगत मिश्रवायुथ, इत्यादिरूपम् । अचित्तमुखवातभृतः सन् दवरकेण गाढद्धमुख नद्यादिजले प्लाव्यमानो दृतिर्यावत् क्षेत्रतः प्रथम हस्वशत गच्छति तदवधि ततो वायुरचित एन, तत ऊ द्वितीयदस्तशतपर्यन्त मिश्रो भनति, 3 जो क्रिया है इसका नाम चलाना है । पानी को एकत्रित करके कुए, तडाग आदि में रोक देना इसका नाम रोधन है। एसी क्रियाओं से अप्काय को वेदना होती है । ( अगलानिल विचिह सत्यघट्टण ) अग्निकाय और वायुकाय के वेदना के कारण स्वकाय, परकाय और उभयकाय विविधशस्त्र है | इनसे इनकी विराधना होती है । अग्नि का - करीप की अग्नि का कष्ट की अग्नि स्वकायरूप शस्त्र है धूलि एव जल आदि परकायरूप शस्त्र है, एव प्रज्वलित करीप आदिक उभयकायरूप शस्त्र हैं । वायुका - पूर्वदिशा सघवी वायु का पश्चिमदिशा सवधी वायु स्वकाय शस्त्र है, अग्नि आदिक परकायशस्त्र हैं तथा अग्नि सनप्त वायु और मशक के भीतर रही हुई वायु ये उभयकायल हैं । अचित्त मुख की वायु से भरा हुआ तथा डोरे से जिसका मुखनद कर दिया गया है ऐसी दृति ( मशक ) जिस स्थान से नदी के जल मे छोडी जाती है वहा से लेकर तैरती 66 છે પાણીને એકત્રીને ફૂવા, તળાવ આદિમા રડી લેવાની ક્રિયાનુ નામ 'रोधन' छे तेवी प्रियागोयी अयूजयने बेहना थाय छे अणलाणिल - विविह सत्थघट्टण ” અગ્નિકાય અને વાયુકાયને વેદનાના કારણેા નકાય, પરકાય અને ઉભયકાય વિવિધ શસ્રો છે તેમના વડે તેમની વિરાધના થાય છે અગ્નિનુ કરીષની અગ્નિનુ કાષ્ટની અગ્નિ સ્વાયરૂપ શસ્ત્ર છે, ધૂળ અને જળ આદિ પરાયરૂપ શસ્ત્ર છે, અને પ્રજવલિત કરીષ આદિ ઉભયાયરૂપ શસ્ત્ર છે વાયુનુ પૂર્વદિશાના વાયુનુ પશ્ચિમ દિશાને વાયુ સ્વાય શસ્ર છે, અગ્નિ આદિ પરકાય શસ્ત્ર છે, તથા અગ્નિથી મતા વ્યુ અને મરાની અદ રહેલ હવા તે ઉભયાય શા છે અચિત્ત વાયુથી ભરેલ તથા દોરીથી જેનુ મુખ અધ કરી દેવામા આવ્યુ છે એવી મશક જે જગ્યાએથી નદીના પાણીમા છૂટી મૂક વામા આવે છે ત્યાથી શરૂ કરીને તરતી તરતી જ્યારે સે। હાથ આગળ નીકળી Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ नव्याकरणसूत्रे एव ते भवपरंपरादुक्खसमणुवद्धा अडति ससारवीहणकरे जीवा पाणाइवाय निरया अनंतकालं ॥ सू० ४५ ॥ टीका- 'कोदाल- फुलिय - दालण-सलिल-मरण- सुभण-रुमण अणलाणिल चिविह सत्यघट्टण परोप्पराभिहणण मारण चिराहणाणि कुदाल्कुलिन्दारण सलिल मलन क्षोभण रोधनानलानिक विविध शत्रुघन परस्परामिडननमारणविराधनानि, रात्र - ' कोदाल ' कुद्दाल =भूविदारक शस्त्रविशेष: ' कुलिय ' कुलिक च हलविशेषस्ताभ्या' दालण ' दारण-खननम् एतद् द्वय पृथिवी वनस्पत्योर्वेदना कारणम् सलिलस्य = जलस्य मलन क्षोभणरोधनानि, तत्र-मलन - मर्दन, क्षोभण= सञ्चालन, 'रुमण ' रोधन = निरोधन तडागादी, अनेनात्कायवेदना व्यक्तीकृता, 3 पृथिवी आदि जीवों में चेदना के कारण क्या २ हैं ? सूत्रकार अब इस विषय को स्पष्ट करते है- ' कोद्दाल-कुलिय ' इत्यादि । टीकार्थ - ( कोदाल-कुलिय दारुण सलिलमलण-खुभण रुमण- अणलाणिल विवि-सत्यघट्टण परोप्पराभिहणणमारणाविराहणाणि य) (कोद्दाल) कुद्दाल-कुदाली और (कुलिय) कुलिक - हल विशेष, ( दालण ) इनसे भूमिका विदारण करना - खोदना, ये दो पृथिवी और वनस्पति जीवों के वेदना के कारण है ( सलिलमलण ) पानी का मर्दन करना, ( खुण ) चलाना, और (रुमण ) तडाग आदि मे रोकना ये बातें अकाय के जीवों के लिये वेदना के कारण हैं। चुल्ली आदि में पानी डालता आदि रूप जो क्रियाएँ की जाती हैं इसका नाम मर्दन है | क्षोभण शब्द का अर्थ चलाना है | कही पर भरे हुए पानी को बाहिर निकालने आदिरूप હવે સૂત્રકાર ને વિષયને સ્પષ્ટ કરે છે કે પૃથિવી આદિ જીવેામાં વેદनाना अरशी या या छे - " कोहाल-कुलिय " छत्याहि 66 भण टीअर्थ - " कोदाल - कुलिय- दारण-सलिल-मलण-खु भण-रुमण - अणलाणिलविवि - सत्य घट्टण - परोप्पराभिहणण मारण विरोहणाणि य" "कोद्दाल" जहाजी भने “कुलिय” हुलि-हुज विशेष वडे, "दारण” लूमिने मोहवी ते पृथिवी अने वनस्पति भवाने वेहनाना अरखे छे " सउलि मलण " पाथीनु भर्छन २५ ચલાવવુ અને જ્મન” તાવ દિમા શકવુ તે અપ્રકાયના જીા માટે વેદનાનુ કારણ છે ફૂલ દિમા પાણી નાખવા વગેરેની જે ક્રિયાઓ થાય ૐ તેને મન કહે છે કોમળ ને અર્થ ચલાવવુ થાય છે કેાઈ જગ્યાએ ભરાઇ રહેલા પાણીને ખહર કાઢવાની જે ક્રિયા થાય છે તેને ચલાવવુ કહે " Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० । सु० ४५ दु सरकारनिरूपणम् बीजलतेजोवायुकायदुःखानि 'आमगाइ' अकामकानि-अवाञ्छनीयानि भवन्ति। पुनस्तान्येव विशदयति-' परप्पभोगोटीरणादि य । परमयोगोदीरणाभिश्व-परेषा स्वभिमाना जनाना य प्रयोगः व्यापारम्तेन उदीरणा-दु.सोत्पादनप्रेरणा स्ताभिः-समयोजनपिरहेऽपि परकथनः नियोजनैरित्यर्थः, तथा-' फज्जप्पओयणेलिय' सार्ययोजनेश्व आवश्यकप्रयोजनैश्च । कथम्भूतैरित्याह-'पेस्सपसुनिमित्तमोसहाहारमाइएहिं । मेप्यपगुनिमित्तौपधाहारादिकै मेया - भृत्या पशवा-गपादयस्तनिमित्तानि रोगजुभुक्षादि नित्ति हेतुमानि यानि औपधाहारादीनि ते पृथिव्यादीना हिमामकारानाह-उपरखणण-उअत्यग-पयण-कोटण-पीसणपिट्टण-भज्जण-गालण-आमोडण-सडण-फुडण-भजण-डेयण-तच्छण विलुचण पतझोडण - अग्गिदहणाच्याह । उत्खननोत्कयनपचनकुटनपेपणपिट्टनभर्जन गालना मोटनशटनस्फुटनभननच्छेदनतक्षगविलुञ्चनपानझोटनाग्निदहनादीनि-तत्र जल, तेज, वायुकायों को जो इस प्रकार के दुःखां होते हैं वे (अकामगाइ ) उन्हें अवान्छनीय होते है। पाप जीव पाप क्यों करते हे-(परप्पओगोदीरणारिय) अपना प्रोजन हो तो भी दूसरो से कहने से, तथा (कज्जप्पओयणेहि य ) अपना आवश्यक कार्य से, चे कार्य कौन है ? सो करते हैं (पेस्मपसुनिमित्तोमहाहारमाइहिं ) प्रेप्य-भृत्य, पशुगाय भैंस आदि जानवरों के रोग, बुभुक्ष अ,दि की निवृत्ति के हेतुभूत औपध, आहार आदि के निमित्त से करते हैं। हिंसा के प्रकारों को करते हैं (उपसणण-उकत्यण-पयण-कोहण-पीसण-पिट्टण-भज्जण गालण-आमोडण-सटण-कुडण-भजण-यण-तच्छण-विलुचण-पत ज्झोटण-अग्गिदहणाइयाइ) उत्सनन आदि दुक्खो को एकेन्द्रिय की पर्याय में प्राप्त होकर पृथिव्यादि जीव वनकर भोगते है । कुदाल आदि ते भने वायुयान मा प्रकारे मा सागपा ५ त 'अामगाइ" तेभने अपनीय-मप्रिय साय छे पायी ७१ ५५ ॥ भाट ७२ छ ? “परप्प ओगोदीरणाहि य " पाताने माटे ४ ५ प्रयोरन न डाय तो ५ मीलना पाथी, तथा “जापओयणेहि य" पाताना मावश्य: आनि डारण तमे। पा५ २ छे ते आर्या उया या छ ? तो सूत्रा२ २३ -"पेस्सपसुनिमित्त ओसहाहारमाइएहि " प्रेष्य-नोऽ२, पशु-गाय, मेस आदि जनपशना शेण, ભૂખ આદિના નિવારણ માટે, ઔષધ, આહાર આદિને નિમિત્તે તે કાર્ય કરે छ ७२ डिभाना महा। उ छ--" उपसणण-उक्त्थ ण-पयण-कोट्टण-पोसणपिण-भज्जण-गालण-आमोडण-सहण-फुडण-भजण-छेयण-तन्छण--विलु चण-पवज्जोडण-अग्गिदहणाइयाइ" ते पापी ७२ मेन्द्रियनी पर्यायमा पृथिव्यादि Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४८ - प्रश्नव्याकरणस्ने असौ मिवायुरुभयकायशस्त्र सभाति । आ इस्तगतगमनकाल परिमाध्यकस्मि मपि स्थाने जलमध्यगतस्योक्त क्रमेणाचित्तत्वादिक सूक्ष्मेक्षिकया विभावनीयम् । तथा परस्पराभिहननम् तेजसा जलतापन जलेनाग्नियापनमित्येर रूपः सर्वपा पृथिव्यादीना परस्परमभिघात:, मारण-निहिंसन, निराधन-पीडन, तानि पृषि हुई जब वह सौ हाथ आगे निकल जाति है वहातक तद्गत गायु अचित्त ही रहती है, बाद में इसके जय यह दूसरे मौ राय क्षेत्र पर्यन्त वरा से आगे को बरती हुई जाती है तब वहां तक वही वायु मिश्रयायुरूप होती है। यही मिश्रवायु उभयकायरूप शस्त्र में परिगणित हुआ है। यहा दृतिगति ( मशक में रही हुई ) वायु को जो अचित्त, मित्र आदि रूप कहा गया है वह काल की अपेक्षा समझाना चाहिये, प्रथम सौ राध चलने में जितना समय लगता है उस समय को लेकर वह वायुजो इति (मशक) मे भरी हुई अचित्त रहती है, बाद में दूसरे सौ हाय चलने में जितना समय लगता है उसको लेकर वर वायु सचित्ताचित्तरूप मिश्र हो जाती है। इस तरह सूक्ष्मरीति से विचार करने पर वायुमै अचित्तता सचित्ताचित्तता सध जाती है " परोपराभिहणण"कातात्पर्य है अग्नि से जल का तपाना, जल से अग्नि का वुझाना, इत्यादि रूप से जो पृथिव्यादिकाय का परस्पर में अभिघात करना होता है वह 'परोप्पराभिहणण' है। (मारण) मारण शब्दका अर्थ है इनका विरिसन करना। (विरारणाणि) विराधना का अर्थ है इन्हें पीडा पहुँचानो। इन पृथिवी જાય ત્યાં સુધી તેની અંદર રહેલી હવા અચિત્ત રહે છે, ત્યાર પછી ત્યાંથી પણ તરતી કરતી સો હાથ આગળ નીકળી જાય ત્યા સુધીમાં તે હવા મિશ્ર વાયુરૂપ થઈ જાય છે એજ મિશ્રપાઠુ ઉમયકાયરૂપ શસ્ત્રમાં ગયેલ છેઅહીં મથકમાં રહેલ હવાને અચિત્ત મિશ્ર આદિરૂપ બતાવવામા આવેલ છે, તે કાળની અપેક્ષાએ સમજવાનું છે, પહેલા સે હાથ ચાલવામાં જેટલો સમય લાગે છે તે સમય સુધી તે અશકમાં ભરેલ હવા અચિત્ત રહે છે ત્યાર બાદ બીજા સે હાથનું અતર ચાલવામાં જેટલો સમય લાગે છે તેટલા સમય સુધીમાં તે વાયુ સચિત્તાચિત્ત રૂપ મિશ્ર થઈ જાય છે આ રીત સૂક્ષમ રીતે -વિચાર કરતા હવામા અચિત્તતા તથા સચિત્તાચિત્તતા ને સમજી શકાય છે "परोप्पराभिहणण" मेटले मन प णन गरभ ४२७, रथी मानिने બનાવવી, ઈત્યાદિ રીતે પૃથિવ્યાદિ કાયને પરસ્પરમા ઘાત થવાની જે ક્રિયા याय छत" परोपराभिहणण" छे भा२Y "मारण" सेटसे तेभनी त्या ४२वी "विराक्षणाणि" विराधना ४२वी मेटले भने पी. पायावी ते पृथिवी ण, Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ० १ ० ४५ दु सरकारनिरूपणम् वीजलतेजोवायु कायदुःखानि 'आमगाइ' अकामकानि-अवाञ्छनीयानि भवन्ति । पुनस्तान्येव विशदयति-' परप्पभोगोटीरणाहि य ' परप्रयोगोदीरणाभिश्च परेपा =स्वभिनाना जनाना य प्रयोगः व्यापारम्तेन उदीरणा =दुःसोत्पादनप्रेरणा स्ताभिः-स्वपयोजनपिरहेऽपि परकथन. नियोजनैरित्यर्थः, तथा-कज्जप्पभोयणेहि य' कार्ययोजनेश्व-आवश्यकमयोजनैश्च । कथम्भूतैरित्याह-'पेस्सपसुनिमित्तभोसहाहारमाइएहिं । मेवपशुनिमित्तौपधादारादिकैः प्रेग्या - भृत्या पशवा=गवादयस्तन्निमित्तानि रोगजुभुक्षादि नित्ति हेतु रानि यानि औषधाहारादीनि ते पृथिव्यादीना हिंमामकारानाह-उपसणण-उपत्यग-पयण-कोहण-पीमणपिट्टण-मज्जण-गालण-आमोडग-सडण-फुडण-भजण-डेयण-तच्छण विलुचण पतझोडण - अग्गिढहणादगाह' उत्खननोत्कथनपचनकुटनपेपणपिट्टनभर्जन गालना मोटनगटनस्फुटनभनन्दनतक्षगविलुञ्चनपानझोटनाग्निदहनाढीनि-तत्र जल, तेज, वायुगायों को जो इस प्रकार के दुःसां होते हैं रे ( अकामगाइ ) उन्हें अवान्छनीय होते है । पाप जीव पाप क्यों करते है-(परप्पओगोदीरणाहि य) अपना प्रयोजन हो तो भी दूसरो से कहने से, तथा (कज्जप्पओयणेहि य ) अपना आवश्यक कार्य से, ये कार्य कौन है ? सो करते है ( पेस्मपसुनिमित्तओसहाहारमाइएहिं ) प्रेप्य-भृत्य, पशुगाय भैंस आदि जानवरों के रोग, बुभुक्ष अदि की निवृत्ति के हेतुभूत औषध, आहार आदि के निमित्त से करते है। हिंसा के प्रकारों को कहते हैं (उरखणण-उकत्यण-पयण-कोहण-पीसण-पिट्टण-भज्जण गालण-आमोटण-सडण-कुडण-भजणन्डेयण-तच्छण-विलुचण-पत ज्झोटण-अग्गिदहणाइयाइ) उत्सनन आदि दुक्खो को एकेन्द्रिय की पर्याय मे प्राप्त होकर पृथिव्यादि जीव बनकर भोगते हैं। कुदाल आदि ते? मने पायुयाने मा पारेमा सोगवा ५ छ ते 'अामगाइ" તેમને અવાજનીય-અપ્રિય હોય છે પાપી જીવ પાપ શા માટે કરે છે? “ ओगोदीरणाहि य" पोताने भाटे ४ प प्रयोग न डाय ते ५५] मीना पाथी, तथा “नापजोयणेहि य" पोताना आवश्य: जानि ० तेमा पा५ ४२ ते आर्या ४या या छ ? तो सूत्रा२ -" पेस्सपसुनिमित्त ओसहाहारमाइएहि " प्य-ना.२, पशु-आय, लेस माह नपरोना रोग, ભૂખ આદિના નિવારણ માટે, ઔષધ, આહાર આદિને નિમિત્તે તે કાર્ય કરે छ डिमाना प्राछ-" उपसणण-उक्त्यण-पयण-कोट्टण-पोसणपिट्टण-भज्नण-गालण-आमोडण-सडण-फुडण-मनण-छेयण-तच्छण-बिलु चण-पवझोडण-अगिदहणाइयाइ" ते पापी यो मेन्द्रियनी पर्यायमा पृथिव्याति Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न याकरण 'उपखणण' उत्खनन-कुद्दालादिमि पृथिव्यादीना पिदारणम् , 'उक्यण' उक्त थन-वृक्षादीना त्वचापनयन, 'पयण' पचन ' कोट्टण' कुटन-मसिद्ध, 'पीसण' पेपण-घरट्टादौ चूर्णन, 'पिट्टण' पिट्टन-ताडन, ' मजण' भजनभ्राष्ट्रे पवन, 'गालण' गालन-लतागुल्मादि रस निगारणम् , ' आमोडण 'आमोटनम् शाखा दीना मोटन, 'सडण' शटन-स्वयमेव विकृतभान, 'फुडग' स्फुटन स्वय द्विधा भवन, 'भनण' भजन-जुटन-त्रोटन पा, "उयण' छेदन-कुठारादिना द्विघाकरण, 'तच्छण' तक्षणमास्यादिभिश्छोग्न, 'विलुपण ' विलुश्चन-लोमादेरित्र से पृथिवी आदि का विदारण करना-सोदना, इसका नाम (उपखणण) उत्खनन है । वृक्षादिकों की गल निकालना इसका नाम (उपत्यण) उत्कथन है । पकानेका नाम (पयण) पचन है । कूटने का नाम (कोहण) कुटन है । घरट्ट आदि में गेह आदि का पीसना इसका नाम (पीसण) पेपण है । ताडक परना इसका नाम (पिट्टण) पिटन है। भाड में भूजना इसका नाम (भज्जण) भर्जन है। लता गुरम आदि का रस निकालना इसका नाम ( गालण ) गालन है । शाखादिक का मरोडना इसका नाम (आमोडण) आमोटन है। अपने आप विकृत हो जाना इसका नाम (सडण ) शटन है। स्वतः दो टुकडे हो जाना (फुडण) स्फुटन है । तूटना या किसी से तोड लिया जाना इसका नाम (भजण) भजन है। कुठार आदि से काट दिया जाना, इसका नाम (छेधण) छेदन है । चरसला आदि से छोलना इसको नाम (तच्छण) तक्षण है। रोम आदि की तरह पत्रादिक का दूर करना इसका नाम (बिलुचण) જો તરીકે ઉત્પન્ન થઈને ઉખનન આદિ દુખે ભગવે છે કેદાળી આદિ 43 प्रथिवी. माहिर माहवानी जियाने " उसणण" COनन के वृक्षा हिनास ताकी तेयाने "उकत्थण "थन ४ छ राघवानी यिनि " पयण " ५यन 38 छ टपानी-पानी ठियाने " कोण " अट्टन ४९ छ घटी माहिमा घ8 माहिने जवानी जियाने "पीसण" पेषा छ भार मारवानी ठियाने "पिट्टण" पिट्टन के महीमा शवानी याने "भज्जण" a ४ जे सता, शुभ माहिभाथी २स डाढवानी ठियाने "गालण" शासन ४ छ शामा माहित भ२४ानी याने “आमोडण" सामाटन उछ मायामा५ विकृत थ पानी याने “सडण" शटन छ १४ थरवानी याने "फुडण" टन छ त तापानी जान्न ४ तेउवानी हियान "भजण " छ पुरी माध्धिी पवानी याने "छेयण" छैन । छ वासा मादिया -.- • -: Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका म०१ सू० ४५ दुगप्रकारनिरूपणम् पत्रादीनामपनयन, 'पतझोडण' प्रान्तझोटन-पापुष्पफलादिपातनम् , ' अग्गि दहण' अग्निदहन अग्नि मज्वालन चेतान्यादिर्येपा तानि एवम्प्रकाराणि दु खानि एकेन्द्रियसम्बन्धीनि एकेन्द्रियत्व प्राप्ताः पृथिव्यादिजीवाः प्राप्नुवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । तदेव निगमयति-एरम्-उक्तरीत्या ते नरकात् प्रत्यागताः जीवाः 'भत्र परपरादुरखसमणुपद्धा' भापरम्परादुःससमनुनद्धा' पञ्चेन्द्रियादि योनिषु जन्मपरम्परेव दु ख तेन समनुनद्धा-सयुक्ता पाणाइयाय-निरया' माणातिपातनिरतामाणिवधपरोयणाः जीराः ससारे चतुर्गतिरूपे कीदृशे ? 'वीहणकरे' भयकरे-भयकारणे अगतकाल' अनन्तकालम् ' अडति । अटन्ति-सतत भ्रमन्ति ।। सू०४५॥ पूर्व नरकात्मत्यावृत्तानां तिर्यग्योनिपु जन्मभवतीति वर्णितम् । अथ यदि ते कथविलुञ्चन है । पत्र, पुप्प, फल आदि का गिराना इसका नाम ( पतझो. डण ) प्रान्तझाटन है । अग्नि का जलाना-इसका नाम अग्निदहन है। इत्यादि दुःखों को एकेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त हुए पृथिव्यादि जीव भोगते है। अब इसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार करते ह-( एव ते ) इस प्रकार नरक से निकले ए वे जीव (भवपरपरादुरग्व समणुनद्वा ) उक्त रीति से पचेन्द्रिय आदि योनियों में जन्मपरम्पराम्प दु ग्वों से युक्त जीव (पाणाइवायनिरया) प्राणिवध करने मे तत्पर होकर (वीरणकरे) भयकर भय के कारणभूत इस ( ससारे ) चतुर्गतिरूप ससार में (अणतकाल ) अनत कालतक (अडति ) भ्रमण करते हैं ।।१०४५॥ इस प्रकार यहानक यह समझाया गया है कि नरक से निकले हए वे जीव तिर्यंच योनि में जन्म लेते हैं। यदि वे कथचित् मनुष्य पर्याय "तच्छण" तक्ष हे छ पाटी माहिश २ ४२शय छ ते गत पत्रा ने ६२ ४२वानी डियाने “ विलु चण" विद्युयन ४ छ पान, २, झूद मादिन पानी याने पतज्ज्ञोडण" प्रान्तमाटन ४ मनिने सावधानी ક્રિયાને અગ્નિદહન કહે છે ઈત્યાદિ પ્રકારના દુખ એન્દ્રિય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયેલ પૃથિવ્યાદિ છે ભગવે છે. હવે તેને ઉપસહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે ___ 'एव ते' मा रीते न२७माथी नीता ७ "भवपर परादुक्ससमणुनद्धा" ઉપરોક્ત પચેન્દ્રિય આદિ નિમા જન્મપર પરારૂપ દુ ખોથી યુક્ત થાય છે, मन "पाणोइवायनिरया" एqध ४२वाने तत्५२ थधने “बीहणकरे " भय ४२-भयना रणभूत मा “ ससारे" यतुति३५ ससारमा “अणतकाल" भनाताण सुधी “ अहति" प्रमाण २ छ ॥ सू० ४५॥ - આ રીતે અહીં સુધીમાં સમજાવવામાં આવ્યુ છે કે નરકમાંથી નીકળેલા તે જ તિર્યંચ ચોનિમાં જન્મ લે છે જે કદાચ તેઓ મનુષ્ય નિમાં ઉત્પન્ન Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० प्रश्नष्णकरणसूत्र 'उकखणण' उत्खनन-कुदालादिमि पृथिव्यादीनां पिदारणम् , 'उपयण ' उक्त थन वृक्षादीना त्वचापनयन, ‘पयण' पचन 'कोट्टण' कुटन-प्रसिद्ध, 'पीसण' पेपण-घरट्टादौ चूर्णन, 'पिट्टण ' पिट्टन-ताडन, 'मज्जण' भजन-भ्राष्ट्रे पचन, 'गालण' गालन-लतागुलमादि रस निगारणम् , 'मामोडण 'आमोटनम् शाखा दीना मोटन, 'सडण' शटन-स्वयमेव विकृतमवन, 'फुडग' स्फुटन-स्वय द्विधा भवन, 'भनण' भजन-टन-रोटन पा, 'छयण' छेदन-कुठारादिना द्विधा करण, 'तन्छण' तक्षणस्यादिभिश्छोल्न, 'विलुपण ' विलुचनम्लोमादेखि से पृथिवी आदि का विदारण करना-सोदना, इसका नाम (उपखणण) उत्खनन है । वृक्षादिकों की छाल निकालना इसका नाम (उपत्यण) उत्तयन है । पकानेका नाम (पयण) पचन है । कूटने का नाम (कोहण) कुटन है । घरह आदि में गेह आदि का पीसना इसका नाम (पीसण) पेपण है। ताडक परना इसका नाम (पिण) पिटन है। भाड में भू जना इसका नाम (भज्जण) भर्जन है। लता गुल्म आदि का रस निकालना इसका नाम ( गालण) गालन है । शाखादिक का मरोडना इसका नाम (आमोडण ) आमोटन है। अपने आप विकृत हो जाना इसका नाम ( सडण ) शटन है । स्वतः दो टुकडे हो जाना (फुडण) स्फुटन है । तूटना या किसी से तोड लिया जाना इसका नाम (भजण) भजन है। कुठार आदि से काट दिया जाना, इसका नाम (छेयण) छेदन है । वसूला आदि से छोलना इसको नाम (तच्छण) तक्षण है। रोम आदि की तरह पत्रादिक का दूर करना इसका नाम ( विलुचण) જી તરીકે ઉત્પન્ન થઈને ઉખનન આદિ ૮ ભગવે છે કદાળી આદિ 43 पृथिवी साहिन माहवानी याने " उत्सणण" मनन छ वृक्षा हिनी छ तापी ते याने " उकस्थण " Gथन छ राघवानी यिनि "पयण " पयन ४९ टवाना-पानी ठियाने " कोण" घट्टन ४९ छ घटी माहिमा ५७ महिने पानी याने "पीसण" पेष । छे भा२ भारवानी याने " पिट्टण " पिट्टन ४ छ महीमा २४वानी जियाने "भज्जण" wri-४ सता, शुभ माहिभाथी २१. पानी याने "गालण" सन ४९ छ । माहिर भवानी याने " आमोडण" भारत के मापामा५ विकृत पानी याने "सडण" शन छ नत मे ४७ ७ पानी याने "फुडण" टन 3 तत पानी भी पानी याने " भजण " 18 माहिया जापानी याने "छयण" छेड्न ४ छे पासा माहिया छापानी यान Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपशिनी टीका अ०१ स० ४५ दुबप्रकारनिरूपणम् पत्रादीनामपनयन, 'पतज्झोडण' प्रान्तझोटन-पत्रपुष्पफादिपातनम् , ' अग्गि दहण' अग्निदहन अग्नि प्रज्वालन चेतान्यादिपा तानि एवम्मकाराणि दु ग्यानि एकेन्दियसम्बन्धीनि एकेन्द्रियत्व प्राप्ताः पृथिव्यादिजीवा' प्राप्नुवन्तीति पूर्वेण सम्बन्धः । तदेव निगमयति-एवम् उक्तरीत्या तेन्नरका प्रत्यागताः जीवाः 'भव परपरादुक्खसमणुपद्धा' भरपरम्परादुग्यसमनुनद्धा =पञ्चेन्द्रियादि योनिपु जन्मपरम्परैव दु ख तेन समनुपद्धा सयुक्ता 'पाणाडवाय-निरया' प्राणातिपातनिरताः माणिवधपरोयणाः जीगः समारे चतुर्गतिरूपे कीडशे ? 'वीणकरे' भयको भयकारणे अगतकाल' अनन्तकालम् ' अडति । अटन्ति-सतत भ्रमन्ति ॥ सू० ४५॥ ____पूर्व नरकात्मत्यावृताना तिर्यग्योनिपु जन्मभवतीति वर्णितम् । अब यदि ते कथविलुञ्चन है । पत्र, पुष्प, फल आदि का गिराना इसका नाम ( पतझोडण ) प्रान्तझाटन है। अग्नि का जलाना-इसका नाम अग्निदहन है । इत्यादि दुखों को एकेन्द्रिय पर्याय को प्राप्त हुए पृथिव्यादि जीव भोगते है। अब इसका उपसंहार करते हुए सूत्रकार करते है-(एव ते ) इस प्रकार नरक से निकले नए वे जीव (भवपरपरादुक्ख समणुनद्धा ) उक्त रीति से पचेन्द्रिय आदि योनियों में जन्मपरम्पराम्प ग्वों से युक्त जीव (पाणाडवायनिरया ) प्राणिवध करने में तत्पर होकर (पीहणकरे) भयकर भय के कारणभूत इस ( ससारे) चतुर्गतिरूप ससार में (अणतकाल ) अनत कालतक ( अडति) भ्रमण करते हैं ।स्तू०४५॥ . इस प्रकार यहानक यह समझाया गया है कि नरक से निकले हुए व जीव तिर्यंच योनि में जन्म लेते है। यदि वे कथचित् मनुष्य पर्याय "वच्छण" तक्षहेछ सपाटी माहित २ राय छतगत पत्रा. हिने ६२ ४२वाना जियाने " विलु चण" विदुयन ४ छे पान, ५१, ३८ माहिने पापानी याने पतज्ज्ञोडण" प्रान्ताटन ४ छ भनिने सापानी ક્રિયાને અનિદહન કહે છે ઈત્યાદિ પ્રકારના દુખો એકેન્દ્રિય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થયેલ પૃથિવ્યાદિ છવો ભેગવે છે હવે તેને ઉપસહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે 'एव ते' मारीत न२७माथी नीरजेसा वो "भवपर परादुक्ससमणुपद्धा" ઉપરોક્ત પચેન્દ્રિય આદિ નિમા જન્મપર પરારૂપ દુ ખોથી યુક્ત થાય છે, भने “पाणोइवायनिरया" qध ४२पाने तत्५२ थधन “बीहणकरे" सय ४२--नयना मृत मा “ससारे" यतुर्गति३५ ससारमा “अणतकाल" मनात सुधी “ अहति" भएर २ छे ॥ ९० ४५ ॥ આ રીતે અહીં સુધીમાં સમાવવામાં આવ્યું છે કે નરકમાંથી નીકળેલા તે જ તિર્થં ચ એનિમાં જન્મ લે છે જે કદાચ તેઓ મનુષ્ય એનિમા ઉત્પન્ન Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रमागरणसूत्र चिन्मनुष्यत्वमपि चेत्माप्नुयुस्तथाप्यधन्या एस जायन्ते इत्येतदाह-'जे पियें'त्यादि। मूलम्-जे विय इह माणुसत्तणं आगया कह वि नरगा उज्वटिया अधन्ना ते विय दीसति पायसो विकयविगलरूवा खुजा बडभा य वामणा य पहिरा काणा कुटा पगुला विगल य मूया य मम्मणा य अधयगा य चखुधिणिया संचिल्लया वाहिरोगपीलिय अप्पाउय-सस्थवज्झबाला कुलक्खणुकिन्नदेहा दुबल कुसघयण-कुप्पमाण कुसंठिया कुरुवा किविणा य हीणा हीणसत्ता निच्चं सोरखपरिवजिया असुहदुस्खभागी परगाओ इह सावसेसकम्मा उठ्वटिया समाणा ॥ सू०४६॥ टीमा-'जेविय' येऽपि च-ये केचित् माणिन 'नरगा' नरकाद 'उबटिया' उद्वर्तिताः प्रत्यारत्ताः निस्मृता इत्यर्थ. 'कहिं गि' कथमपि-महताफप्टेन अनन्तजन्ममरणानामनन्त खमनुभूयेत्यर्थ., मनुष्यलोके 'माणुसत्तणे" मनुष्यत्व ' आगया' आगता प्राप्ता. 'तेपि य' तेऽपि च 'अपना' अपन्याः -निन्दनीयाः 'पायसो' प्रायशो बाहुल्येन, प्रायशो ग्रहण तीर्थङ्करादि-व्योवृत्त्य को भी प्राप्त कर लें तो वहा भी वे खरान अवस्था में ही रहते हैं, इस बात को समझाते ह-(जे वि य ) इत्यादि । टीकार्थ-(जे वि य) जो कितनेक प्राणी (नरगा) नरक से (उन्वटिया) निकलकर (कहिं वि) कथमपि-कुछ, पुण्य के उदय से (इ) इस मनुष्यलोक मे (मानुसत्तण) मनुष्य पर्याय को ( आगया) प्राप्त कर लेते हैं (ते चि पायसो अधना ) प्रायः करके वे यहाँ (पायसो) शब्द तीर्थकर आदि की निवृत्ति के लिये आया है। (अधना) निंदनीय होते થાય તો ત્યાં તે પણ તેઓ ખરાબ હાલતમાં જ રહે છે, તે વાત હવે સૂર४६२ समावे-"जे पिय" ध्या - जे विय" २ मा प्राणाया" नरगा" न२४माथी " उव्य हिया" नीजान “ कहिं वि" था। पुन्यना ध्यथी " इह " 21 मनुष्य सभा “माणुसत्तण" भनु पर्याय " आगया " प्रात ७२ छ "ते नि पायतो" प्राय शन ते मडीया " अधना " निहनीय होय छ “पायसो" २४ तीर्थ ४२ महिनी नितिने भाटे भूयो छ "-विक्रय Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनीटीफा म १ सू ४६ मनुष्यभवदु ननिरूपणम् १५३ थम् , 'विरुयरिंगलस्ना' विकृत किररूपाः = विकृत-पीभत्स निकल-हीन च रूपा-आकारो येषा ते तथा भृता 'टीमति' दृश्यन्ते दृष्टिगोचरा भवन्ति । तदेव वर्ण्यते-'युज्जा' कुन्नाः 'कृण्डा' इति भापा प्रसिद्धाः, 'चडमा' एक पार्थहीनाः = कोपरिसायाः, यद्वा-विकृतरूपेण नहिनिस्सृतहृदयौदरमागाः, 'वामणा' वामना: सिकायाः 'हिरा' पपिराम् श्रवणशक्तिहीनाः 'काणा' पाणा एकाक्षाः ‘कुटा' कुण्टाः विकृतहस्ताः 'ढा' इति प्रमिद्धाः 'पगुला' 'पगना नवाहीना 'पागला' इति प्रसिद्धा', 'रिंगला' विक्ला. = हीनाङ्गोपाहाः 'मूना' मुकाः पचनशक्तिहीनाः, 'ममणा' मन्मनास्सलद्वचनाः, 'अध. यगा' अन्धकाः जन्मान्धा , 'चक्युरिणिहया' चक्षुपिनिहता =विनिहतचक्षुपः= हैं (विकय विगलस्वा दीसति ) उनका रूप विकृत और विकल-हीन होता है । इसी बात को विशेपरूप से सूत्रकार समझाते हैं (खुज्जा) उनके शरीर में पीठ पर कुबड निकली रहती है। (वडभा) वे एक पार्श्वसे हीन होते है, अथवा उनके हृदय और उदरका भाग विकृतरूप से बाहिर निकला हुआ रहता है । (वामणा ) शरीर उनका योना होता है। (पहिरा) उनकी श्रवणशक्ति नष्ट हो जाती है ( काणा) वे आखें से काने होते है। ( कुटा) हाथ उनका एक ठीक रहता है दूसरा टूट जाता है इससे वे टूटा कहलाते है, (पगुला) पागले-जधाहीन (विगसाप ) अग और उपांगों से वे विहीन होते है, (मया ) भूगे होते हैवचनशक्ति से वीहीन होते है, (मम्मणा) मम्मण होते हे-बोलते समय वे अटकते है ( अधयगा ) जन्माध होते है-उनकी जन्मतः दोनों आखे फटी रहती है, (चक्खुविणिया) वक्खुविनिहत होते है-उनकी विगलरूवा दीसति " तेभनु ३५ विकृत भने विस-डीन डाय ७ मे पातने सूत्र विस्तारथी सभात छ“ खुजा" तभना शरी२ पाठ ५२ भूध नीजी हाय छ, “वडभा" तसा पणे मोउवा डाय, मथवा तेभना हय भने पेटने मारा विकृतीत मा ५तो डाय छ “वामणा" तेस। पामन३५ हज हाय ), " वहिरा" भनी श्रवण सहित ना५ पामे छ-तेमे पडे। थाय ' काणा" तेगा मामे आए। 1य “कुटा" તેમને એક હાથ સારે હોય છે પણ બીજો હાથ તૂટી જવાને કારણે તેઓ इस उपाय " पगुला" ५७-५गे सूसा “ विगला य" 241 मने 64जानी वाणा हाय छ, “ मृया" भृजना डाय छ-मासवानी शति विनाना सय छ “ मम्मणा" तोता डोय छे-गसता CHA23 ते खाय Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ प्रमायाकरणसूत्र श्चिन्मनुष्यत्वमपि चेत्माप्नुयुस्तथाप्यधन्या एर जायन्ते इत्येतसाद-'जे रिय'त्यादि। मूलम्-जे विय इह माणुसत्तणं आगया कह वि नरगा उज्वटिया अधन्ना ते वि य दीसति पायसो विफयविगलरूवा खुज्जा वडभा य वामणा य वहिरा काणा कुटा पगुला विगल य मूया य मम्मणा य अधयगा य चक्खुधिणिहया संचिल्लया वाहिरोगपीलिय अप्पाउय-सत्थवज्झबाला कुलक्खणुकिन्नदेहा दुबल कुसघयण-कुप्पमाण कुसठिया कुरुवा किविणा य हीणा हीणसत्ता निच्चं सोरखपरिवजिया असहदुक्खभागी जरगाओ इह सावसेसकम्मा उठवटिया समाणा ॥ सू० ४६ ॥ ____टीका-'जेवि य' येऽपि च-ये केचित् माणिन 'नरगा' नरकात् 'उमटिया' उद्वर्तिताः प्रत्यारत्ताः निस्सृता इत्यर्थः 'कहिं पि' कथमपि-महवाफप्टेन अनन्तजन्ममरणानामनन्तनु खमनुभूयेत्यर्थः, मनुष्यलोके 'माणुसत्तण' मनुष्यत्व 'आगया' आगता=पाताः' तेरिय' तेऽपि च 'अपना ' अपन्याः -निन्दनीयाः 'पायसो ' प्रायशोन्याहुत्येन, प्रायशो ग्रहण तीर्थङ्करादि-व्योवृत्त्य को भी प्राप्त कर लें तो वहा भी वे खरार अवस्था में ही रहते हैं, इस वात को समझाते है-(जे वि य) इत्यादि । टीफार्थ-(जे वि य) जो कितनेक प्राणी (नरगा) नरक से (उव्वट्ठिया) निकलकर ( कहिं वि) कथमपि-कुछ, पुण्य के उदय से (इ) इस मनुष्यलोक में (मानुसत्तण) मनुष्य पर्याय को ( आगया) प्राप्त कर लेते हैं (ते वि पायसो अधना ) प्रायः करके वे यहां (पायसो) शब्द तीर्थंकर आदि की निवृत्ति के लिये आया है । (अधना) निंदनीय होते થાય છે ત્યા તે પણ તેઓ ખરાબ હાલતમાં જ રહે છે, તે વાત હવે સૂત્ર ४२ समन छ-"जे पिय" त्याहिं हा- 'जे विय" २ मा पापीया" नरगा" न२४माथी " उव्यहिया" नीजीन " कहिं वि" था। धुन्यना यथी " इह" म भनुष्य सभा “ माणुसत्तण" भनुष्य पर्याय “ आगया" प्रात २ छ "ते नि पायसो" प्राय शने ते डीया “ अधना " निहनीय डाय छ " पायसो" शती ४२ शाहिनी निवृत्तिने भाटे भूयो छ “ विकय Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरशिंनी टीका अ० १ सू० ४७ मनुष्यभवदुर नरूपणम् वर्जिता वा, ' हीणा' हीनाः नीचजातिकुला 'हीणसत्ता' हीनसत्त्वाः उत्साह वर्जिताः, भीरवो वा, 'निन्च सोस्वपरिवज्जिया' नित्यसौख्यपरिवर्जिताःसततदुःखाकुलाः, 'अमुहदुस्खभागी' अशुभदुःखभागिना अशुभानुपन्विदुःख सम्पन्न प्रान्ते दृश्यन्त इति योग', एवम्भूता के ? इत्याह-ये 'नरगाओ' नरकात् 'इह' इह-मर्त्यलोके 'उबट्टा समाणा' उदृत्ताः आगताः सन्तः 'सावसेसकम्मा ' सावशेपफर्माण अपशिष्टाशुभकर्माणस्ते ।। सू० ४६ ॥ ___ अधोपसहरम्नाह-एव' इत्यादि ।। मूलम्-एव णरग तिरक्खजोणि कुमाणुसत्त य हिडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाइ पावकारी। एसो सो पाणवहस्त फलविवागो इहलोइयो पारलोइयो अप्पसुहो बहुदुक्खो महभयो बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहि मुच्चई णय अवेदइत्ता अस्थिहु मोक्खोत्ति एवमाहस नायकुल नदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेजो कहेसीय पाणवहस्स अभाव रहता है । (हीणा) इनका कुल एव जाति ये दोनों ही हीन होते है । (हीणसत्ता) उत्साह शक्ति से ये वर्जित होते है अथवा भीरु -डरपोक-प्रकृति के होते हैं। (निच्च सोरखपरिवज्जिया) सुखों से नित्य वर्जित-निरन्तर दुःखी रहते है । ( असुदुक्खभागी) इस प्रकार इन अशुभानुषधी दुःग्वों से वे सम्पन्न (दीसति ) देखे जाते हैं। जो पापी जीच ( नरगाओ) नरक से (उध्वटिया समाणा) निकल कर (इह) इस मनुष्य लोक मे (सावसेसफम्मा) पाप कर्मों के भोगने पर भी अव शिष्ट अशुभ कर्म वाले हो कर आते है ॥ सू० ४६ ॥ होय छ, अथवा तेमनामा हान वानी शठित होती नथी "होणा" तमनु पुष मन जतिपन्न हीन डीय छ "हीणसत्ता" तेगा सा पिनाना डोय छ अथवा ली२ ४२१।पलायना डोय छ 'निच्च सोम्सपरिपज्जिया" भेशा सुमथी २डित भी डोय छे " असुहृदुम्सभागो" मागते तेस मशुमानुपथी माथी युक्त “दीस ति" हेपाय छे पापा ० "नरगाओ" न२४माथी "उबहिया समाणा" नाजीने " इह " मा भनुष्यमा “सावसेसकम्मा" पा५ उर्भाना मशुम सो छ। ५Yी २उस मशुस ४ साथे सई आवे छे ॥ सू० ४६ ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्यावरण रोगादिभिर्विकृतनेत्राः, 'सचिल्लया' सभिलका-विटनेवाः 'बाहिरोगपीलिय' व्याधिरोगपीडिता: व्याधिभिः अष्टादिमि , रोगैश-कासवासादिभिः पीडिताः 'अप्पाउ य ' अल्पायुप्फाः 'सस्थवज्झ 'शत्रवध्या:-शखप्रयोगेण मरणशीला:, पालाः युद्धिरहिताः, 'कुरवरवणुपिनदेहा' कुलक्षणोत्कीर्णदेहा: कुत्सितलक्षणे याप्तशरीरा.-शुभरेखादिवर्जिता इत्यर्थ , 'दुचल' दुलाम्पलहीना'. 'कुसघ यणकुप्पमाणकुसठिया ' कुसहननकुममाणकुसरिथताः - कुसहननाः = कुत्सित सहनन अस्थिरचनाविशेपो येपा ते तथा, कुपमाणा'-कुत्सित शरीरस्य प्रमाणमतिलम्मातिहस्वादिलक्षण येप ते तथा, कुसस्थिताश-कुत्सितसस्थानाः एतेषा द्वन्द्वः 'कुरुवा ' कुरूपा रूपवनिताः 'किविणा' कृपणाः दरिद्राः, दानशक्तिआखों में कोई न कोई खरानी रहती है, (सचिल्लिया) सचिल्लक होते है उनके नेत्र चपटे होते हैं, (वाहिरोगपीलिय ) व्याधि और रोग से पीडित रहते हैं-ये कुछ आदि व्याधियों से, कास श्वास आदि रोगों से सदा पीडित रहते हैं, (अप्पाउय) अल्पायुवाले होते है, (सत्यवज्झ ) शस्त्र प्रयोग से इनकी मृत्यु होती है, (वाला ) बुद्धि रहित होते हैं, (कुलक्खणुकिनदेहा ) खोटे २ लक्षणों वाले होते हैं, अर्थात्-शुभ रेखाओं से वर्जित होते हैं, (दुयल) दुर्यल-पल हीन होते हैं, ( कुस घयण ) इनका सहनन-अस्थियों की रचना ठीक ठीक नहीं होता है, (कुप्पमाण ) शरीर का प्रमाण भी योग्य नहीं होता है, या तो वह अत्यत लया होता है या अति हम्ब होता है। (कुसठिया) संस्थान -आकार भी कुत्सित होता है । (कुरूवा) सुन्दर रूप से रहित होते हैं। (किविण्णा ) दरिद्र होते हैं, अथवा-दान देने की शक्ति का इनके यहां "अधयगा" माघ डाय छ भन्मथी तभनी मामा ३री. 5य छ, "चक्सविणिहया" या विनिहत हय छ, तभनी मामामा भाभी २३ छ, “सचल्लिया" सविसराय छ तभना नेत्र २५ ाय छ, “वाहिगेगपीलिय" व्याधि भने शथी पाया ४३ छ-तमा ८ माह व्याधियोथी, मासी, म मा रोगार्थी पीया २ छे “ अप्पाउय" ४४ मायुष्यात डोय छे, “सथवज्ज्ञ " शखप्रयोगथी तभनु भृत्यु थाय छ "बाला" मुद्धि विनाना डोय छ, “ कुलक्खणुकिनदेहा" मम सक्षवाणा डीय छ, मेट सारी २ामाथी २डित डोय छ, “दुब्बल " दुर्गहीन होय छ, “कुसघयण " तेमनु सहनन-मस्थियानी २यना-१२२ डोती नथा, "कुण्पमाण" शरीर प्रभाएसरनु डोतु नथी। तो ते 4तिशय सामा होय , अति नीया डोय छ “कुम ठिया " सस्थान- २ पाप ५९! मे डीय छ “ कुरूवा" सुह२ ३५थी २डित होय छ । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरूपणम् १५७ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४७ मनुष्यभवदुर सफी ? इत्याह-' इहलोइओ' ऐहलौकिकः = मनुष्यलोकमाश्रित्य 'पारलोडओ' पारलौकिक:-नरकनिगोदादिकगत्याद्याश्रित्य 'अप्पसुहो' कुत्सिते न्द्रियभोगे सजनकलादू अल्पसुखः, ना 'हुदुक्सो' हुदुःख' = नरकादिदु सकारणत्वाद् दुःख नहुल', 'महभयो' महाभयः = महाभयस्वरूपः, तथा 'हुरयप्पगाठो ' बहुरजः मगाढः = अशुभ कर्म महुलः, दारुणो' दारुणः = भीपणः नरकादिभयजनकत्वात् 'कफ्सो' कर्कशः = कठोर = दुर्भेद्यत्वात् ' असाओ अमातः = असातावेदनीयरूप त्वात्, इत्येवविधः फलविपाक', 'नाससहस्से हिं' वर्षसहस्रैः = अनेक सहस्रवर्षभोगे = पल्योपमसागरोपमा दिलक्षणै: ' मुच्चई ' मुन्यते = क्षीयते । तदेनव्यतिरेक मुखेनाह-' नये' ति-' अवेदइत्ता ' अदयित्वान्त फलविपाकमनुपभुज्य 'नय ' विपाक - परिणाम ( इहलोइओ ) ऐहलौकिक - मनुष्यलोककी अपेक्षा से ( अप्पसुहो) कुत्सित इन्द्रियों के भोग जनित सुग्व का उत्पादक होने से अल्पसुख वाला, तथा ( पारलोइओ ) पारलौकिक - नरकादि गति की अपेक्षासे (चहुदुक्खो ) नरकादि गति कारण होनेसे बहुत दुःख वाला, (मओ) महाभयवाला, तथा (बहुरयप्पगाढो ) बहुत अशुभकम वाला है | यह (दारुणो ) नरकादिगति का भयजनक होने से भयकर (कक्सो) दुर्भय होने से कर्कश - कठोर है । ( असाओ ) अशाता वेदनीय रूप होने से स्वय अशातारूप है । ऐसा यह प्राणवधपरिणाम (वाससहस्सेहिं मुचई) पत्योपम तथा सागरोपमादिरूप वर्षसहस्रों मे भोगते २ यह छूटता है - नष्ट होता है। इसी बात को अन व्यतिरेक से कहते हैं कि - ( अत्ता न य ह मोक्खो अस्थि ) ( अवेयइत्ता ) इसका फल ફળવિપાક પણ્ણિામ " इहलोइओ " मा साउनी भनुष्यसोनी अपेक्षाओ अप्पसुहो" स्मित इन्द्रियाना लोगभनित सुजनु उत्पादन होवाथी मध्य सुभवाणु, तथा ' 'पारलोइओ " परसोनी-नरजद्दि गतिनी अपेक्षाओ " बहुदुख्सो ” नरजद्दि गतिना जगाय होवाथी महुहु महायी, " महन्भओ " भड्डा लयवाणु तथा “नहुरयप गाटो" अत्यत अगुल उभवाणु छे ते " दारुणो” નરસિંદ ગતિને ભય પેદા કરનાર હોવાથી ભયકર છે " कक्सो ” हुलेध હોવાને કારણે કરાકાર છે असाओ " अशाता - वेदनीय ३५ होवाथी पोते भाता३य छे भेवु ते प्राशुवध परिणाम " वाससहस्सेहिं मुच्चई પલ્યાપમ તથા માગરોપમ આદિપ હજારો વર્ષ સુધી ભાગવતા ભાગવતા છૂટે छे-नष्ट थाय छे से वातने हवे जी ले अगर रे - " अवेयइत्ता न 77 “ને ક્લિવેપા, ભેગબ્યા વિના જીવને 12 C Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण फलविवागं । एसो सो पाणवहो चंडो रुद्दो खुदो साहसिओ अणारिओ, निग्घिणो, निस्ससो महभओ, पइभओ अइभओ, वीहणओ, तासणओ, अणजओ, उव्वेयणओ य-णिरवयक्खो, णिद्धम्मो, णिप्पिवासो, निकलुणो निरयवासगमणनिधणो। मोहमहन्भयपवड्डओ मरणवेमणस्सो तिमि ॥ सू० ४७ ॥ ___॥ पढम अहम्मदारं समत्त ॥ १॥ टीका-'ए' उक्तमकारेण 'गरग'नरक, मनुष्यलोके 'तिरिक्ख जोणिं' तिर्यग्योनि-पञ्चेन्द्रियादिभर 'कुमाणुसत्त' कुमानुपत्त-कुजगामनादि विकृताङ्गोपाङ्गरूपा मनुष्ययोनि च 'हिंडमाणा' हिण्डमाना =भ्रमन्तः 'पावकारी' पापकारिणः-माणातिपातकारकाः जीवाः 'अणताइ ' अनन्तानि 'दुक्खाइ' दुःखानि 'पावति ' प्राप्नुवन्ति । ' एसो सो' एप सः प्रत्यक्ष दृश्यमानः 'पाण वहस्स' माणवधस्य-आणातिपातस्य 'फलविवागो' फलविपाका परिणामः भवति । अब उपसहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं-' एव णरग तिरिक्ख जोणि ' इत्यादि। टीकार्थ-(एव) इस उक्त प्रकार से जो (णरग) नरक मे, वहा से मनुष्यलोक में आने पर (तिरिक्खजोणिं) तिर्यश्च योनि मे एवं (कुमागुसत्त) कुन्ज, वामन आदि रूप से विकृत अगोपांगवाली मनुष्ययोनिमें (हिंडमाणा) भ्रमण करते हुए (पावकारी) प्राणातिपातरूप पाप को करने वाले जीव (अणताइ दुक्खाइ) अनत दुःखों को (पावे ति) पाते हैं । ( एसो सो) प्रत्यक्ष में दृष्टिभूत बना हुओ यह (पाणवहस्स) प्राण वधरूप हिसा का ( फलविवागो) परिणाम है। प्राणवध का यह (फलहवे 6५स ९२ ४२ता सूत्रा२ ४ छ-" एव णरग तिरिक्सजोणि" ध्यान साथ---"एव " राहत प्रारे “णरग" न२७भा, त्याथी भनुष्यसमा भापता “तिरिक्सजोणि " तिर्थयानिमा भने “कुमाणुसत्त" ५०४, वामन माहि ३ विकृत भगोपागाणी मनुष्य योनिमा " हिंडमाणा" अभए उरता " पावकारी" प्रातिपात३५ ५५ ४२ना२ ७॥ “ अणताइ दुक्साइ" सनत रोपावे ति" लागवे छ "एसो सो" प्रत्यक्ष दृष्टिगाय२ यतु "पाणव वहस्स" प्रा५३५ डिसानु " फलविवागो" ते परिणाम के प्रावधन मा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ २०१७ मनुष्यभघद् पनिरूपणम् निरूपणेनैव तदन्तर्गतफल विपास्म्यापि तदुक्त ससिद्वो पुनः पृथक तस्य महा वीरोक्तत्वाभिधान माणिवधस्यैकान्तिका शुभफलदायकत्वात्तस्यात्यन्तहेयत्वद्योतनार्थम् । ' एसो सो' एप स. पूर्वोपदर्शित सरूपः 'पाणवहो ' पाणपध. 'चडो' चण्डः क्रोधजनस्वात् , ' रहो' रोद्र मौद्ररसप्रार्तितत्वात् , 'खुद्द' क्षुद्रः अपमजनाचरितत्वात् ' साहसिओ' साहसिका=अममीक्ष्यकारिजनप्रवर्तितत्वात् , अइभओ पीरणओ तासणओ अणज्जओ णिरवयक्खो, निद्धम्मो, निप्पियासो, निफलुणो, निरयवासगमणनिधणो, मोहमभयपयओ मरणवेमणस्सो, ति वेमि ) । . शका-जय सूत्रकार ने ईस अध्ययन में महाविरोतता निरूपित फी है तब यह बात तो स्वतः सिद्ध हो ही जाती है कि तदन्तर्गन फल विपाक भी उन्हीं द्वारा कहा गया है, फिर क्या बात है जो इममें पृथक रूप से महावीरोक्तता प्रतिपादित की जा रही है ? उत्तर-शंका ठीक है, परतु इसका अभिप्राय केवल इतना ही है कि पुनः इसमें जो तदुक्तता प्रतिपादित की है उससे उसमें-माणिवर मेंऐकान्तिक अशुभफलदायकता होने से अत्यन्त हेयता प्रकट की गई है। यही यात सूत्रकार इन आगे के पदों द्वारा स्पष्ट करते हैं-( एसो सो) पूर्वोपदर्शित स्वरूप वाला यह (पाणवहो) प्राणवध-(चडो)क्रोधजनक होने से चण्ड है, (रुद्दो) रौद्र रस द्वारा प्रवनित होने से रौद्र है, (खुद्दो ) अधमजनों द्वारा आचरित होने से क्षुद्र है. (साहसिओ) पीहणओ तासणओ अणज्जओ गिरस्यक्सो, निद्धम्मो, निपिवासो, निफ्लुणो निर यवासगमणनिधणो, मोहमहत्भयपयो मरणवेमणरसो तिबेमि" શકા–જ્યારે સૂવકારે આ અધ્યયનમાં મહાવીરેક્તતાનું નિરૂપણ કર્યું છે ત્યારે તે વાત તે આપોઆપ સિદ્ધ થઈ જ જાય છે કે તેમા આવતે ફલવિપાક પણ તેમના દ્વારા કહેવાયેલ છે, તે શા કારણે તેને અલગ રીતે મહાવીરક્તતાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવેલ છે ? ઉત્તર–શકા બરાબર છે પણ તેને ઉરે કેવળ એટલે જ છે કે ફરીથી તેમાં જે તેમના દ્વારા કથિત હોવાનું પ્રતિપાદન કર્યું છે તેથી તેમા પ્રાણ વધમાં એકાન્તિક અશુભ ફલદાયકતા હોવાથી અત્યત હેયતા પ્રગટ કરાઈ છે को वात सूत्रा२ मा सावता मा यही द्वारा स्पष्ट ४२ छ-"एसो सो" मा शापामा मावस २१३५वाण ते "पाणवहो" प्रावध " चण्डो" धरान पाथी २ छ, “महो" शैद्र२स द्वा! प्रपति डोवाथी सेद्र छ, "खुद्दो ' म सदा । मायरित पाने २0 क्षुद्र छ, “साहसिओ" Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येन ' मोक्यो मोना जीवस्य मोक्षो नामात प्रामाण्यसन्दे মধ্যক্ষ न च-नैव '' निश्चयेन 'मोक्खो' मोक्ष 'अत्यि' अस्ति, 'ति' इति समाप्ति सूचकः । तस्य फलपिाकस्योपभोग गिना जीवस्य मोक्षो न भरतीत्यर्थः । अथ न हि येन केनापि प्रतिपादितोऽर्थ श्रद्धेयरचना भाति प्रामाण्यसन्देहादित्याशङ्कानिरतियितुमस्य साक्षात्ममाणभूतपरमात्मप्रतिपादितत्वेन प्रामाण्य निरूपणाय प्रमाणयन्नाद-एवमाहस' इत्यादि, एरम्-उत्तरीत्या 'आहसु' ऊचुः-अतीतारतीर्थङ्करगणधरादयः । तथा 'नायकुलनदणो' शातकुलनन्दना शातकुल-सिद्धार्यकुल, तस्य नन्दना=आनन्दकारक 'महप्पा' महात्मा-परमा स्मरूप , 'जिणो' जिना रागाधन्तरङ्गशत्रुजेता, वीरवरणामधेज्जो' वीरवरनाम धेया-प्रशस्तनामा भगवान् महावीरः, 'पाणहस्स'माणधस्य ' फळविवाग' फलविपाक 'कहेसीय' कथितमान् ययाऽतीता जिनाः कथितवन्तस्तथैवाय भगवान् महावीरोऽपि प्रतिपादयतिस्मेत्यर्थः । अस्याध्ययनस्य महारोक्तत्व विपाक भोगे विना जीवका (न य हु मोक्खोअत्थि) कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता है । इस कथन को प्रमाणभूत सिद्ध करने के लिय सूत्रकार इसमें साक्षात् प्रमाणभूत परमात्मा द्वारा प्रतिपादितता सिद्ध करने के लिये कहते हैं कि ऐसा जो मैंने कहा है वह अपनी ओर से नहीं कहा है, किन्तु ( एवमासु) अतीत तीर्थकर एन गणधर आदि देवों ने ऐसा कहा है तथा ( नायकुलनदगो महमा जिणो उ वीरवर णामधेजो पाणवहस्स फलविवाग कहेसीय) जातकुलनदन-सिद्वार्थ के कुल को आनद देने वाले-परमात्मरूप, जिन-रागादिक अतरग शत्रु के विजेता प्रशस्तनाम वाले श्री भगवान महावीर ने भी प्राणवध का फल ऐसा ही अतोल तीर्थकरों के कथनानुसार कहा है । ( एसो सो पाणवहो चडोरुद्दो खुद्दो साहसिओ अणारिओ निग्घिगो निस्ससो महाभओ पहभओ " न य हु मोक्सो अस्थि" ४ ५ छुअरी २४ शत नथी, मा ४थनने પ્રમાણભૂત સિદ્ધ કરવાને માટે સૂત્રકાર તેના સાક્ષાત પ્રમાણરૂપ પરમાત્મા દ્વારા તેની પ્રતિપાદિતતા સિદ્ધ કરવાને માટે કહે છે કે–એવુ મે જે કહ્યું છે તે भारी तरथी ४घु नथा पय " एवमोह सु " मतीत तीर्थ ४२ मने गधर माहि हेवेसे उस छ, तथा "नायकुलनन्दणो महप्पा जिणो उ वीरवर णामधेज्जो पाणहरस फरविधार्ग कहेसीय" सातजन इन-सिद्धार्थना गने આનદ દેનાર પરમાત્મારૂપ, જિન-રાગ આદિ આતરિક શત્રુઓ પર વિજય મેળવનાર પ્રશસ્ત નામવાળા શ્રી ભગવાન મહાવીરે પણ પ્રાણવધનુ ફળ એવુ अतीत तय शेना ४थनानुसार ४ छ-" एसो सो पाणवहो पण्डो हो खुद्दो साहसिओ अणारिओ निग्धिगो निस्ससो महमओ पइमओ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ४७ मनुप्यभवदु स्वनिरूपणम् निप्पिपास:-परजीवनस्नेहवर्जितत्वात् , 'निषलुणो' निष्करुणा दयाभानपर्जितत्वात् 'निरयवासगमणनिधणो' निरयवासगमननिधना-निरयागासः नरकावासः, तत्र गमनमेव निधन पर्यवसानम्-अन्तिमफल यस्य स तया, नरकमापकत्वात् , 'मोहमहन्भयपयट्टओ' मोहमहाभयमवर्तक -मोहा अज्ञान स एव महाभय-महाभयहेतुत्वात् , तस्य प्रवर्तकः, ' मरणवेमणस्सो ' मरणवैमनस्यः = मरणेन-मृत्युरूप कारणेन प्राणिनां वैमनस्य = दैन्य यस्मात्स तथा दीनमन: कारित्वात् , इत्येव लक्षणः माणधा परिक्षया तत्स्वरूप विज्ञाय प्रत्याख्यानपरिक्षया सर्वथा परित्याज्य इति भावः। श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिन कथयति–त्तिवेमि' से रहित होने के कारण यह निरपेक्षरुप है। (निद्वम्मो ) श्रुताचारित्र रूप धर्म से रहित होने के कारण यह निर्धर्मरूप है। (निप्पिवासो) इस में दूसरों के जीवन के प्रति स्नेहभाव नहीं रहता है इसलिये यह निप्पिपासरूप है । (निफलुणो) दयाभाव का मर्वथा इसमें अभाव रहता है इसलिये यह निष्करुणरूप है। (निरयवासगमणनिधणो) नरक गमन ही इसका अन्तिमफल है, इसलिये यह निरयवासगमननिधनरूप है। (मोह महन्भयपयओ) मोहरूप-महाभय का यह प्रवर्तक है इसलिये यह मोह महाभय प्रवर्तकरूप है। (मरणवेमणस्सो) मृत्युरूप कारण से माणियो को इससे दैन्यभाव होता है इस लिये यह मरणवैमनस्यरूप है। इसलिये इस प्राणवध का ज परिज्ञा से स्वरूप जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये । इस प्रकार कह कर अव सुधर्माडोपान २ ते निरपेक्ष३५ छ "निद्धम्मो" श्रुतयारित्र३५ भथी २डित डोपान ३२) निभ३५“निप्पिवासो" तेभा मन्यना न प्रत्ये स्नेहला रखते। नथी तथी त नपास३५ छ " निक्लुणो" तेभा यालापन तन मला २ छ तेथी ते नि४२११३५ छ “निरयवासगमणनिधणो" न२४ गमन જ તેનુ અતિમ ફળ હોય છે, તે કારણે તે નિરયવાસગમનનિધનરૂપ છે "मोहमहन्भयपयहओ" भोड३५ महालयन त प्रवत छ, ते २ ते भाड महालय अपत ३५ छ " मरणवेमणस्सो" भ२५३५ ारथी प्राणिमामा તેનાથી દૈન્યભાવ ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી તે મરવૈમનસ્ય રૂપ છે તે કારણે તે પ્રાણવધનું ૪ પરિણાથી સ્વરૂપ જાણીને પ્રત્યાખ્યાન પરિણાથી તેને સર્વથા. પરિત્યાગ કર જોઈએ આ પ્રમાણે કહીને હવે સુધર્માસ્વામી જ બૂસ્વામીને प्र० २१ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3A १६० प्रश्नध्याकरण 'अण्णारिओ' अनार्यःले जनममाचारितत्वात् , 'निग्वियो' निगा अविद्यमाना घृणा=पा जुगुप्सा यस्मिन् स तथा धिोजनम्नदाचरितत्वात्प्राणव धोऽपि तथा, 'निस्ससो' नूगम नूरजनाचरितत्वात् 'महामओ' महाभया= महाभयोत्पादकत्याद , पइभभो' मतिमया सरमाणिना भयहेतुत्वात् , 'अइमओ' अतिभया-मरणान्तभयजनकत्वात् । 'पीणभो' भापनक:-भयोत्पादकत्वाद् , 'तासणओ' नासन -अकस्मात-ट्दयोद्वेगजनकत्वान् , 'अगज्जओ' अन्याय न्यायादनपेता युक्तान्याय्य., नन्याय्यः अन्याग्या,न्यायार्जितत्वात् , 'उध्येयणओ' उद्वेगजनक. मर्मपीडाकारकत्वात् 'णिरत्यरखो' निरपेक्ष निर्गता अपेक्षा परप्राणरक्ष विषया यत्र स तथा, 'निद्धम्मो' निर्धर्म =श्रुतचारित्र धर्मरहितत्वात् , 'निप्पिासो' असमीक्ष्यकारी जनों द्वारा किया गया होने से साहसिक है, (अणारिओ)म्लेच्छ जनों द्वारासमाचरित होने के कारण अनार्य है। (निग्धिणो) इसे करने वाले मनुष्य को पाप के प्रति घृणा नहीं रहती है अतः यह प्राणवध भी निर्धणरूप है (निस्ससो) भारजन इसे करते रहते हैं इस लिये यह नृशग्रूप है । (महन्भओ) इसे करते समय करनेवालेको महान् भयका कारण होता है इसलिये यह महाभयरूप है । (पइभओ) समस्त प्राणियों को भय का हेतु होने से यह प्रतिभयरूप है । ( अहमओ) मर णान्तभय का जनक होने से यह अतिभयरूप है। (वीहणओ) भयका उत्पादक होने से यह भयानक है । ( तासणओ) अकस्मात् हृदय में उद्वेग का जनक होने से वामनकरूप है ( अणज्जओ) न्यायवर्जित होने से यह अन्यायल्प है। ( उव्वेयणओ) जीवों को उद्वेग जनक होने से यह उद्वेजकरूप है (णिरवयकायो) पर प्राणियों की रक्षा करने की अपेक्षा असमीक्ष्याश सोनी द्वारा रात लवाथी साडमिछ, "अणोरिओ" छ सोमारा मायरित पाथी मनार्य छ "निधिणो" प्रा१५ ४२नार मनुष्यने पा५ प्रत्ये धुएयती नथी, तेथी त प्रापध ५५ निघ३५ छ, “निस्ससो" १२ साली तेनु सेवन ४२ छ तेथी ते नृश स३५ छ, "महत्भओ" ते ४२ती વખતે કરનારને મહાન ભયનું કારણ તે બને છે તેથી તે મહા ભયરૂપ છે "पदभओ" सपा प्रायाने ते नयना १२४३५ डीवाथी प्रतिमय३५ छ 'अभओ" भृत्युना भयो डोवाथी त मति मय३५ छे "बीहणओ" अयना डोवाथी तभयान छ “तासण ओ" हयमा मस्भात वेगना डोवाथी ते त्रासन ३५ छ, “ अणज्जओ" न्यायडित डोवाथी ते सन्याय " उज्वेयणओ" वोमा वे पन्न ७२नार खोपाथी ते ०३५ ३५छ “णिरत्यक्खो" पर प्राणीमातु क्षषु वानी अपेक्षाथी...हित Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टोका भ० १ ० ४७ अपयनसमाति १६३ "सुअणाणस्स अविणओ, परिहरणिज्जो सुहाहिलासीहिं। छउमत्थाण दिट्ठी, पुण्णाणस्थि-त्ति सूइय इइणा ॥१॥" इति। जो सुखाभिलापी प्राणी हैं उनका कर्तव्य है कि वे श्रुतज्ञान का अविनय छोड़ें। छद्मस्थों की दृष्टि अपूर्ण रहती है यही बात यहा 'इति' इस पद से सूचित की है ॥१॥ ॥सू०४७॥ ॥प्रथम आस्त्रय-अधर्म' दार समाप्त ॥ "मुअणाणस्स अविणओ, परिहरणिज्जो सुहाहिलासीहि । उउमत्याणं दिही, पुण्णाणत्थि-त्ति सृश्य इइणा ।।१।। इति ।। સુખાભિલાષી વેનુ કર્તવ્ય છે કે તેમણે શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય કરવાનું छडी हे न स्यानी ष्टि मधु २७ छ, मेरी पात 'इति" પદ દ્વારા અહીં સુચિત કરવામાં આવી છે. સ ૪૭ | આ રીતે હિમાદિ પચાસવ દ્વારા પ્રાણવધ નામનું પ્રથમ દ્વાર સમાપ્ત થયું, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ થર इति ब्रवीमि-हे जम्बूः । इति पूर्वोक्त माणिवधस्वरूपनिरूपण, तस्फलचतुर्गवि. भ्रमणलक्षणमर्थ चेति तीर्थङ्करस्य भगरतो महावीरस्य सकाशान्मया साक्षात् श्रुत ब्रवीमिकथयामि न तु स्युद्धिपरिकल्पितम् । यतः स्वयुद्धथा कयने श्रुतज्ञान स्याविनयो भवति, फिश्च-छद्मस्थाना दृष्टयोऽप्यपूर्णा भान्ति तस्माद् यया मगर स्मतिपादितमेव त्वां ब्रवीमि-उपदिशामीत्यर्थः ॥ उक्तञ्च" मुअणाणस्स अविणो, परिहरणिज्जो मुहादिलासीहि । छउमत्याण दिही, पुष्णाणत्यि-त्ति सइय इइणा ॥१॥” इति । सू ४९॥ इतिश्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री घासीलालप्रतिविरचिताया प्रश्नव्याकरणसुत्रस्य सुदर्शन्याख्याया च्यारयाया हिंसादि पञ्चास्रवद्वारेषु माणवधाख्य मथमम् अधर्मद्वार समाप्तम् ॥ १ ॥ स्वामी श्री जबूस्वामी से कहते हैं- (त्तियेमि) हे जवू ! प्राणवध का यह पूर्वोक्त स्वरूप निरूपण तथा चतुर्गति भ्रमणरूप उसका फर मैंने साक्षात् तीर्थकर भगवान महावीर के पास सुना है सो उसी के अनुसार यह तुमसे कहा है। इसमें मैने अपनी ओर से कल्पित कर कुछ भी नही कहा है, क्यों कि अपनी बुद्धिसे कल्पित कर कथन करने में श्रुतज्ञान का अविनय होता है। तया जबतक छद्मस्थावस्था रहती है तबतक ज्ञानको मात्रा भी अपूर्ण रहती है अतः अपनी ओर से प्रतिपादित वस्तु का स्वरूप यथवत् प्रतिपादित नहीं हो सकता है, इसलिये मैंने जो यह प्रवचन स्वरूप कहा है वह भगवान द्वारा प्ररूपित ही कहा है । कहा भी है४ -" तिबेमि" भ्यू । प्राशुवधनु पूर्वथित २१३५ नि३५) તથા ચાર ગતિમાં ભ્રમણરૂપ તેનું ફળ મે સાક્ષાત તીર્થકર ભગવાન મહાવીર પાસે સાભળેલ છે, અને તેમણે કહ્યા પ્રમાણે જ તે તમને કહ્યું છે તેની અંદર મે મારી પિતાની કલ્પનાનુ કાઈ પણ ઉમેર્યું નથી, કારણ કે પિતાની બુદ્ધિથી કલ્પના કરીને કહેવાથી શ્રુતજ્ઞાનને અવિનય થાય છે તથા જ્યા સુધી છદ્મસ્થ રહે છે ત્યા સુધી જ્ઞાનનું પ્રમાણું પણ અપૂર્ણ હોય છે, તેથી પોતાનાથી પ્રતિ પાદિત વસ્તુનું સ્વરૂપ યથાવત્ (જેવું હોય તેવું જ) પ્રતિપાદિત થઈ શકતું નથી, તેથી મે આ જે પ્રવચનસ્વરૂપ કહ્યું છે તે ભગવાન દ્વારા જે પ્રમાણે પ્રરૂપિત છે તે પ્રમાણે જ કહ્યું છે કહ્યું પણ છે – Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० २ सू० १ अलीकवचननिरूपणम् परपीलाकारगं परमकिण्हलेस्ससहिय दुग्गइ विणिवायविवडणं भवपुण भवकरं चिरपरिचियमणुगतं दुरत कित्तियं वित्तियं अधम्मदारं || सू० १ ॥ टीका - हे जम्बू ! इह = अस्मिन् जिनशासने 'खल्पिति' निश्चयेन 'विय च' द्वितीयच द्वारम् 'अलियत्रयण ' अलीकवचनम् = असत्यभाषण नाम | अस्यापि " यादृशो १, यन्नाम २, यथाकृतो ३, यादृश फल ददाति ४, येsपि च कुर्वन्ति पापा: ५, " इति पञ्चभिरन्तर्द्वारैः पूर्वत् निरूपण क्रियते । तत्र च यथाक्रम ' यादृश ' इति द्वारमाश्रित्यालीकाचनस्वरूपमाह 'लहू' इत्यादि'लहुसग लहूचवल भणिय' लघुस्वकलघुचपलभणित, लघुः तुच्छो गौरववर्जित स्वभावो येषा ते लघुस्वकाः, तेभ्योऽपि लघTश्चपलाच चञ्चलाया ये तै १६५ टीकार्थ - (ज) हे जम्बू। (इ) इन जिन शासनमे (खल) निश्चयसे (विश्य च अलियवयण) द्वितीय आस्रव अलीक (असत्य) वचन असत्यभाषण नामका है । इसका भी यह "अलीकवचनरूप आसबहार जैसा हे १, जितने इसके नाम है २, प्राणियों द्वारा यह जिन मद, तीव्र आदि परिणामों से किया जाता है ३, जिस प्रकार का उन्हे नरकादिरूपफल देता है ४, तथा जो पापी जीव इस असत्यभाषण को करते हैं ५ " इन पाच अन्तदारों द्वारा पूर्व की तरह निरूपण किया जावेगा । अव सूत्रकार क्रमानुसार " यादृशः " इस द्वार को आश्रित करके अलीक (असत्य) वचन के स्वरूप को कहते है - ( लहुसगलह चचलभाणिय) जिनका स्वभाव गौरव वर्जित है ऐसे जीवों से भी जो हीन हैं लघु हैं, वे लघुस्वक लघु हैं तथा टीजर्थ - " जयू " हे भ्यू" "" इह આ જૈનશાસનમા सलु " भरेर, "बिइय च अलियत्रयण " जीले भासवासी वथन-असत्य लाषाशु નામના છે તેનુ પણ નીચે પ્રમાણેના પાચ અતારા દ્વારા, આગળના આસવ દ્વારની જેમ જ, નિરૂપણુ કરવામા આવશે (૧) આ અસત્ય વચનરૂપ આસવદ્વાર કેવુ છે? (૨) તેના કેટલા નામ છે ? (૩) પ્રાણીઓ દ્વારા તે કયા કયા મદ, તીવ્ર આદિ પ્રરિણામેાથી સેવાય છે? (૪) કેવા પ્રકારના નરકાદિરૂપ ફળ તેને આપે છે ? (૫) તથા યા યા પાપી જીવ અસત્ય ખેલે છે ? હવે સૂત્રકાર અનુક્રમે “ "" यादृश આ દ્વારના આધાર લઈને અસહ્ય વચનનુ स्व३५ हरावेि छे–“ लहुसगलडुचवलभणिय " गौरवडीन स्वलाવના જીવાથી પણ જે હીન અેલ છે, તેઓ ‘ લઘુસ્તક લઘુ ' હીનમા હીન ગણાય છે એવા લઘુસ્વતક લઘુ દ્વારા તથા ચ ચળ મનવાળા દ્વારા ખેલવાસા આવત 66 અ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ द्वितीयमध्ययनम् । व्याख्यात प्रथममास्रवद्वार, साम्मत द्वितीयमारभ्यते, अस्य च पूर्वेण सहा यमभिसम्बन्धः पूर्व यादृश नाम-कई-फलादिनिरूपणपूर्वक प्रयमालवद्वाररूप माणवधस्वरूपमुक्तम् । तस्य हेतुत्वात् 'यथोश निर्देशः' इति न्यायमाप्तत्वान्चेत्यस्मिन् द्वितीयाध्ययनेऽलीकनचन स्वरूपादिनिरूपणपूर्वक पदयते, तस्येदमादि सूत्रम्-इह खलु ' इत्यादि। मूलम्-इह खल्लु जवू विइय च अलियवयणं लहुसग-लहु चवल भणियं, भयकरं, दुहकर, अजसकर, वेरकारगं, रति-अरति रागदोसमणसंकिलेसवियरणं अलिय नियडिसाति जोगवहुलं नीयजणनिसेवियं निस्संस अप्पच्चयकारग परमसाहुगरहणिज्ज द्वितीय द्वार प्रारभ प्रथम आस्रव द्वार का अर्थ कह दिया गया है, अब द्वितीय आस्रव दार प्रारभ होता है। अब आस्रवद्वार का पूर्व आस्रवदार के साथ इस प्रकार से सवध है-पूर्व आस्रवद्वार मे स्वरूप, नाम कर्ता और फल आदि के निरूपण पूर्वक प्रथम आस्रवद्वाररूप प्राणवध का स्वरूप कहा है अब उसका हेतु होने से तथा " यथोद्देश निर्देश:"उद्देश के अनु सार ही निर्देश होता है इस नियम के अनुसार न्यायप्राप्त होने से इस द्वितीय आस्रवद्वार में अलीक वचन का उसके स्वरूप आदि का निरूपण पूर्वक कथन किया जाता है । इस आस्रवद्वार का आदिम सूत्र यह है"इह खलु जबू' इत्यादि । બીજા દ્વારનો પ્રારંભ પહેલા આwવદ્વારને અર્થ કહેવાઈ ગયે, હવે બીજા આસ્રવ દ્વારનું વિવેચન શરૂ થાય છે આ આઅવદ્વારને આગળના આસવદ્વાર સાથે આ પ્રકારને સબધ છે-આગળના આસવારમા સ્વરૂપ, નામ, કર્તા, ફળ આદિનું નિરૂપણ કરીને આસદ્ધારરૂપ પ્રાણવધનું સ્વરૂપ બતાવ્યું છેહવે તેના હેતુરૂપ सापाथी, तथा “ यथोद्देश निर्देश " उद्देशानुसार निश थाय छ त निय માનસાર ન્યાયયુકત હોવાથી આ બીજા આસવારમા અસત્ય વચનનુ-તેના સ્વ રૂપાદન નિરૂપણ સહિત વિવેચન કરવામાં આવે છે આ આસ્રવદ્વારનું પહેલું सूत्र मा छ-" इह खलु जवू" त्यादि । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ २ सू० २ भलोकवचननामानि १६९ टीका-'तस्स य' तस्य च मृपावादस्य द्वितीयास्त्रवद्वारस्य 'गोणाणि' गौणानि गुणनिप्पन्नानि 'तोस' किंगत् 'णामाणि' नामानि 'हुति' भवन्ति त जहा' तद्यथा-(१) 'अलिय' अरोक-निष्फल शुभफठवर्जितत्वात् , (२) 'सह' शठ-कपटिजनसमाचरितत्वात् , (३) 'अणज्न' अनार्यम्-अनार्यजनोक्त___“जारिसओ" इसे प्रथम द्वार में मृपावाद का स्वरूप कहा गया है, अय सूत्रकार 'ज नामा' इस दुमरे द्वार में इसके कौन २ से नाम हैं वह कहते है-'तस्म य णामाणि' इत्यादि । टीकार्य-(तस्म) इस द्वितीय आसबहार रूप मृपावाद के (गोणाणि) गुण निप्पन्न (तीम) तीस (णामाणि) नाम (हुति) है (तजहा) वे हम प्रकार है-(अलिय १, सह २, अणज्ज ३,मायामोसो ४, असतक५, कृडकवडमवत्युग ६, च निरस्थयमवत्थय ७ च, विद्देसगरहणिज्ज ८, अणज्जुक ९, काणा १०य, वचणा ११ य, मिन्छापच्छाफड १२ च, साइ १३, उस्सुत्त १४, उस्कूल १५ च, अह १६, अभक्खण १७ च, किञ्चिस १८, वलय १९, गहण २० च, मम्मण २१ च, नूम २२, नियई, २३, अप्पच्चओ २८, असयमओ २५, असच्चसघत्तण २६, विविक्खो २७, उहिय २८, उहि असुद्ध २९, अवलबो ३० त्ति) यत् असत्यभापण शुभफलों से रहित होने के कारण अलीकफल रहित होता है इसलिये इसका नाम अलीक हे ११ कपटीजनों के द्वारा यह अपना काम "जारिसओ" मा प्रथम द्वारमा भृयापा-मसत्य क्यन-नु स्व३५ ४३ पामा माव्यु छ हुवे सूत्रधार " जनामा" मे पहाथी श३ यता भात द्वारमा तना या ज्या नाम छे ते मताव छ-" तस्स य णामाणि' त्यात टी "-तरस" मी जात मासपा२३५ भृपावाहना" "गोणाणि" गुणानुभार " तीस " श्रीस ‘णामाणि" नाम " हुति"छे “ त जहा"तेसा प्रभारी छ __“अलिय १ सढ २, अणज्ज ३, मायामोमो४, अस तक५, कृउकवडमवत्थुग६, च, निरस्थयमवत्थय ७, घ विदेसगरहणिज्ज ८, अणज्जुक ९, कफणा १० य, वचणा ११ य, मिन्छापच्छाकड १२ च, साइ १३, उस्सुत्त१४, उस्कूल १५ च, अर १६, अब्भासण १७ च। किचिस १८, वलय १९, ग हण २० च, मम्मर्ण २१ च, नृम २२, निरई २.३, अप्पच्चओ २४, असयमओ २५, असञ्चसघयण ०६, विविस्ती २७, उपहिय २८, उमहिअसुद्ध २९, अवलो वो ३० ति" (१) ते असत्य भाषण शुभ माथी २हित पाने १२५ “अलीक" ३२लित डाय छ तेथी तेनु नाम "अलीक" ५७यु छ (२) प्र-२२ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ प्रश्नध्याकरणसूत्र म्पराऽनुगत सम्परज्ञानाभावात् , दुरन्त-रिपाकदारणत्वात् 'विश्य ' द्वितीयम् 'अधम्मदार' अधर्मद्वार 'फित्तिय कीर्तित कथितम् ।। म. १॥ एतेन यादृश मृपापादस्वरूपमस्ति तत्मथमान्तद्वारे प्रोक्तम् । साम्प यन्नामे 'ति द्वितीयान्तरे तन्नामान्याह-'तस्स' इत्यादिना __ मूलम्--तस्स य णामाणि गोणाणि हंति तीसं त जहाअलियं १, सढं २, अणज्जं ३, मायामोसो ४, असंतकं ५, कूडकवडमवत्थुग च ६, निरत्थयमवत्थयंच७, विदेसगरहणिज्ज ८, अणुज्जुक ९, ककणा य १०, वचणा य११, मिच्छापच्छाकड च १२, साइ १३, उस्सुत्त १४, उक्कूल च १५, अदृ १६, अन्भ क्खाणं च १७, किब्बिस १८, वलयं १९, गहण च २० मम्मणं च २१, नूम २२, नियई २३, अप्पच्चओ २४, असमओ २५, असच्चसघत्तण २५, विवक्खो २७, उवहियं २८, उवहि असुद्ध २९, अवलोवोत्ति ३०, विइयस्स इमाणि एवमाइयाणि नामधेज्जाणि होति तीस सावज्जस्स अलियस्स क्यजोगस्त अणेगाइ ॥ सू २॥ हुए मिथ्यात्व, अविरति के प्रवाह का विच्छेद नहीं होता है। (अणुगय) सम्यग्ज्ञानका अभाव होने से यह जीव के साथ भवपरम्परानुगत होता है। (दुरत ) विपाक इसका बहुत ही अधिक दारुण होता है इसलिये यह जीव के लिये दुरन्त कहा गया है। इस तरह से (बिइय) इस दितीय अधर्म द्वार का (कित्तिय ) सूत्रकार ने तीर्थकर परपरा के वर्णन अनुसार वर्णन किया है ॥ १॥ હિોવાને કારણે અનાદિ કાળથી લાગેલ મિથ્યાત્વ અવિરતિ આદિને પ્રવાહ तटत नथी “ अणुगय" सभ्य ज्ञाननी समाव पाथी त नी साथ स१५२ ५२रानुगत हाय छे “दुरत" तेना विा “परिणाम" धो! १२ हाय छ, तथा त ने भाट दुरन्त वायु छ मा शत “ बिइय " मा भी अभानु 'कित्तिय " सूत्रारे ती ४२ ५२ ५। रेस वन प्रभा શેનું વર્ણન કર્યું છે સુ-૧ | Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० २ ० २ अलीकवचननामानि विद्वेपगईणीय-विद्वेपाल-विवेपसभृतत्वाद् इदमलीकवचन गर्हणीय=निन्द्य महापुरुषैः, (९) 'अणुजुक' अनृजुकम् = अमरल-सरलभारवर्जितमित्यर्थः, (१०) 'फणा य' क्ल्कना चम्पाप माणातिपातादिरूपम् , (११) 'वचणा य ' वञ्चना मतारणा, (१२) 'मिन्छापच्छाडि च' मिथ्यापश्चात् कृत-मिथ्येतिया साधुभिः पश्चात् कृत = पृष्ठे कृत तिरस्कृतमित्यर्थ , (१३) 'साइ' साति = अविश्वास , (१४) 'उस्मुत्त ' उत्सूत्रम्-पिरहार्य-निरूपणम् , (१५) 'उक्कल' उत्कूल-सन्मार्गतटात् परिभ्रष्टकारकम् , (१६) ' अट्ट ' आर्त्तम् , आर्तध्यानहेतुलिये इसका नाम अपार्थ है ७ यह विटेप से भरा रहने के कारण गहणीय होता है-महापुरुषों द्वारा निंद्य होता है इसलिए इसका नाम विटेप गर्हणीय है ८। इसमें भावों की सरलता नहीं होती है, अर्थात्यह सरल स्वभाव से चर्जित रहता है इसलिये इसका नाम अनुजुक है ९ । कल्कना शब्द का अर्थ पाप है, यह मृपावचन प्राणातिपातादिरूप होता है इसलिये इसका नाम कल्कना है १०। इसमें दूसरों की प्रता रणा होती है इसलिये इसका नाम बचना है ११ । मिथ्या समझकर साधु पुरुप इसका तिरस्कार करते है इसलिये इसका नाम मिथ्यापश्चाकृन है १२ । साति शब्द का अर्थ अविश्वास है, मिथ्याभापण विश्वास रोहित होता है । इसलिए इसका नाम साति है १३ । विरुद्ध अर्थ का इसमे निरूपण होता है इसलिये इसका नाम उत्सूत्र है १४ । जीव को यह सन्मार्ग रूप तट से भ्रष्टकर देता है इसलिये इसका नाम उत्कृल है १५। यह आतभ्यान का हेतु होता है इसलिये इसका नाम आर्त है नाम ' अपार्थ " छ (८) त विद्वेषयी पूर्ण वाथी गाय-भडाघुरुवा दाग निध-उय छ, तथा तेनु नाम "विद्वेय गर्हणीय"छे () तेमा मावानी સરલતા હોતી નથી, એટલે કે તે સરળ સ્વભાવથી રહિત હોય છે, તેથી તેનું नाम “ अनृजुक" "कल्कना" शहना म पा५ थाय छ (१०) ते भूषाक्यन प्रातिपाता३५ डाय छ, तथा तेनु नाम "कल्कना" छ (११) त मसत्य पयन 43 सन्नी प्रतारण थाय छ, तथा तेनु नाम “ वचना" છે (૧૨) મિથ્યા સમજીને સાધુ પુરુષ તેને તિરસ્કાર કરે છે, તેથી તેનું नाम " मिथ्यापचा कृत " छे (१३) "साति" शहने। अर्थ 'विश्वास' याय छ, तथा तेनु नाम “ साति" छ (१४) विरुद्ध अर्थनु तमा नि३५ थाय छ, तथा तेनु नाम "उत्सून" छ (१५) अपने ते सन्माण३५ जनारथी भ्रट रे छे भाटे तेनु नाम " उत्कूल" छे (१६) ते मात्तध्यानना तु३५ हाय छे, तेथी तेनु नाम “आत" (१७) तेना द्वारा समत्-मविद्यमान Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० sourcere स्वात्, (४) ' मायामोसो' मायामृषा = मायापूर्वस्यासत्यभाषणस्य मायामृति नाम, (५) 'असंतक' असत्क= अविद्यमान सत् यस्मिंस्तदसत्कम् =अमत्यम्, (६) 'कडकड मत्थु 'टपटा रस्तुत करञ्चनाथै न्यूनाधिकभापण कपटं भाषाविपर्ययकरणम् भवस्तु = अविद्यमानस्तु कथनम् = यथा-' जगतः कर्ता इश्वरः ' इत्यादि कथनम् कटादीना त्रयाणा समाना स्यादेकनमत्ये नेत्र गणनादिदमेक नाम, (७) निरत्ययमवत्य च निरर्थकमपार्थक निर्गतोऽयि स्मिस्तत् = ' च सत्यार्थ हीनम्, अपार्थम्=अपगतार्थमसम्पद्धार्थमित्यर्थः, (८) ' निसग रहणिज्जं ' घनाने के लिये प्रयोग से लाया जाता है इसलिये इसका दूसरा नाम शठ है २ । अनार्यजनों द्वारा यर बोला जाता है इसलिये इसका नाम अनार्य है ३ | यह असत्य भाषण माया पूर्वक होता है इसलिये इसका नाम मायामृपा है ४ । असत्यभाषण में जो विषय कहा जाता है वह उस रूप मे नहीं होता है इसलिये इसका नाम असत्य है ५ । परवश्वन के लिये इसमें न्यूनाधिक बोलना पड़ता है, तथा इसमे बोलने की भाषा की शैली भी भिन्न प्रकार की होती है, और जो वस्तु इसमें कही जाती है वह अविद्यमान होती है, जैसे यों कहना कि जगत का कर्त्ता ईश्वर है सो यह कूटकपटावस्तुक नाम का असत्य है । यहां कूट कपट अवस्तुक, इन तीनों की समानार्थकता होने के कारण एक पद रूप से गिनती करली गई है ६ । यह भाषण सत्यार्थ से हीन होता है इसलिये इसका नाम निरर्थक है । इसमे वाच्य अर्थ, सवध विहीन रहता है इस કપટી લેાકેા દ્વારા પાતનુ કાય સાધવા માટે તેને પ્રયાગ કરાય છે, તેથી તેનુ जीलु नाम " " शठ છે, (૩) અનાજન દ્વારા તે માલાય જે તેથી તેનુ श्रीभु नाम " अनार्य " छे (४) ते असत्य भाषण भाया पूर्वर्ड थाय छे तेथी તેનુ ચેાથુ નામ << मायामृपा ” છે (પ) અસત્ય ભાષણમા જે વિષયનુ કથન ४राय छे ते यथार्थ - साथा वश्ये- रातु नथी तेथी तेनु पाथभु नाम 'असत्य" છે (૬) અન્યની વચનાને માટે તેમા ન્યૂનાધિક ખેલવુ પડે છે, અનેતે ખેલ નાની શૈલી પણ જુદા જ પ્રકારની હોય છે, અને જે વસ્તુ તેમા કહેવાય છે તે અવિદ્યમાન હાય છે, જેમ કે “ જગતના ર્તો ઇશ્વર છે ” તે પ્રમાણે કહેવુ ते या अझरना या अक्षरना असत्यने ' कूटकपटावस्तु असत्य " उडे छे અહીં ફૂટ, કપટ અને અવસ્તુક એ ત્રણે પદેથી સમાનાર્થકતા હોવાથી એક જ પદ્ય રૂપે ગણવામા આવેલ છે (૭) તે ભાષણ સત્યાર્થ રહિત હાય છે તેથી તેનુ નામ નિરર્થક છે તેમા વાચ્ય અર્થ, મખધ રહેત હાય છે તેથી તેનુ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० • अलोचनामानि १७३ 1 मओ' असम्मतः न्यायज्ञैरनाचरितः, (२६) ' असन्चसपत्तण' असत्यसन्धत्वम्असत्य-सन्दधाति सम्मिश्रयति सतत य' सोऽसत्यसन्यस्तस्य भावोऽमत्यसन्धत्व =यृपाभापि धर्मः, (२७), 'विजय' विपक्ष =पत्य प्रतिकृल्यात् (२८) उनहि य' औषधिक= मायामयम् = कपटगृहमित्यर्थः, (२९) उनहि समृद्ध उप यशुद्धम् = उपधिः सा धकर्म तेनाशुद्वम्, (३०) 'अलोकोचि' जपलोप इति कुर्राणोऽपि 'नाह करोमि किञ्चिदित्यादिभिर्वस्त मच्छादनम् 'नियस्स द्वितीयस्याधर्म द्वारस्य ' उमाणि ' इमानि = पूर्वोक्तानि 'माइयाणि ' एवमादिकानि - अलीकादीनि 'सावज्जस्स ' सानग्रस्य पापसहितस्य ' अल्यिस्स' अलीकस्य = मृपात्रा " 3 (C न्यायज्ञ पुरुषों द्वारा यह असमत है - वे पुरुष इसका कभी भी सेवन नहीं करते है इसलिये यह असमत हे २५ । यह मृपाभाषियों का धर्म है इसलिये इसका नाम अमत्यसघात है २६ । सत्यभाषण का यह विपक्षी है इस इसका नाम विपक्ष है। कपड़ों का यह घर है इसलिये इसका नाम औषधिक है २८ | सावद्यकर्मो से यह सतत अपवित्र बना रहता है इसलिये इसका नाम उपध्यशुद्ध है २९ । उपधि शब्द का अर्थ सावद्यकर्म है। कार्य करता हुआ भी व्यक्ति इसके प्रभाव से प्रभावित होकर करदिया करता है कि में कुछ भी नहीं कर रहा हैं । इस तरह इसके द्वारा वस्तु का प्रच्छादन होता है अतः इसका नाम अलोप है ३० | ( चियम्स ) इस तरह द्वितीय अधर्मद्वार के (इमाणि) ये पूर्वोक्त अलीक आदि (तीस नामवेज्ञाणि) गुणनिष्पन्न तीस नाम है । तथा ( एवमाइयाणि ) इनसे अतिरिक्त और भी इमी "" તેને માન્ય કરતા નથી તેએ તેનુ કદી પણ સેવન શ્તા નથી, તેનુ નામ " असमत ” (૨૬) તે અસત્ય વચન મૃષાવાદીઓને ધમ છે, તેથી તેનુ નામ असत्यसघात” ) (२७) सत्य लाधगुनु ते विपक्षी - विद्धनु छे, तेथी तेनु નામ " विपक्ष " छे (२८) उपटोनु ते घाम छे, तेथी तेनु नाभ" औषधिक छे (२८) भाषा थी ते सतत अपवित्र रहे छे, तेथी तेनु नाभ, 'उप ध्यशुद्ध " छे 'उपधि' गहन अर्थ सावध उर्भ छे, (30) जर्य पुरती व्यક્તિ પણ તેના પ્રભાવની અમર નીચે આવી જઈને કહી દે છે કે “ ३६ કરતા નથી ” આ રીતે તેના દ્વારા વસ્તુનુ પ્રછાદન થાય છે, તેથી તેનુ नाम "अपलोप" हे " निइयास " या रीते मील सधर्भहारना " इमाणि " पूर्वोत असी माहि " तीस नाम घेज्नाणि गुणानुसार श्रीम नाम छे तथा एवमाइयाणि " ते उपरान्त भीम यशु ते अजरना “ सीवज्जरस" पाथ " (L Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नण्याकरण त्वात् (१७) 'अभक्खाण ' अभ्यारयानम् असदोषारोपणम् , (१८) 'किदिवस' किल्विप-पाप-प्राणातिपातादिहेतुत्वात् , (१९) 'लय' लयमित्र वक्रत्वाद् कुटिलमित्यर्थः, (२०) 'गहण' गहन-गहनमिन गहन-चनमिर दुरगाहमित्यर्थः, (२१) 'मम्मण' मन्मनम् = मन्मनमिव मन्मनम् अम्फुटत्वात् । (२२) 'बूम' छादन-परगुणाच्छादने पिधानमिन, (२३) 'नियई' निकृतिः-मायाच्छादनायें वचन विप्रलम्भन या, (२४) 'अप्पच्चो ' अपत्यया अविश्वासः (२०) ' अस १६। इसके द्वारा असत्-अविद्यमान दोपों का आरोपण किया जाता है इसलिये इसका नाम अभ्याख्यान है १७ । यह प्राणातिपात आदि पापों का हेतु होता है इसलिये इसका नाम फिरिवप है १८ । वलय के जैसा यह कुटिल रहा करता है इसलिये इसका नाम वलय है १९। वन के समान यह दुरा चगार होता है इसलिए उसका नाम गहन है २० । जिस प्रकार तोतली बोली में शब्दस्फुट नहीं हो पाते है उसी प्रकार इसमें भी वस्तु का वास्तविक भान अस्फुट रहा करता है इसलिये इसका नाम मम्मण है २१। जिस तरह ढक्कन वस्तु को ढाक देता है उसी प्रकार यह भी पर के गुणों को आच्छादन कर देता है इसलिए इसका नाम नूम है। नूमनाम छादनका है२२, इसमे घोलनेवाला अपनी मायाको ढकने का प्रयास करता है, अथवा दूसरों को ढकने का उपाय रचता है इसलिये इसका नाम निकृति है २३ । कोई भी सजन पुरुप झूठ वचन का विश्वास नहीं करते है इसलिये इसका नाम अप्रत्यय-अविश्वास है २४। होषोनु मारोप राय छ तेथी तेनु नाम " अभ्याख्यान "छे (१८)त प्रातिपात माहि पापानु १२६४ाय छ, तथा तेनु नाम "किल्विष" छ (१८) सयन रेषु ते दुटिमा जय छे, तेथी तेनु नाम " वलय"छे (२०) बनना ते सडन डाय छ, तेथी तनु नाम “गहन" छे (२१) रम તેતડા વચને બરાબર સમજી શકાતા નથી એજ પ્રમાણે અસત્ય ભાષણમાં ५४ पास्तविमा भर१०-२मस्पट हा ४२ छ, तेथी तेनु नाम “मम्मण" છે (૨૨) જેમ ઢાકણુ વડે વસ્તુને ઢાકી દેવાય છે, એ જ રીતે અસત્ય વચન ५९ गुणाने दादी ना२ सापाथी तेनु नाम 'नूम' छ 'नूम 'मट माछ। દનઆવરણ (૨૩) અસત્ય ભાષણમા બેલનાર પિતાની માયાને ઢાકવાને પ્રયાસ કરે છે, અથવા બીજાને ઢાકી દેવાના ઉપાય રચે છે, તેથી તેનું નામ "निकृति"छे (२४) ७ ५५ सन पुरुष असत्य क्यान ५२ विश्वास भात नथी, तेथी तेनु नाम मप्रत्यय " अविश्वास"छे, (२५)न्याय पुरुषा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुदर्शिनी टीका म० २ ० ३ येन भावनालीक वदन्ति तन्निरूपणम् १७७ 'खडक्खा ' खण्डरक्षा: गुरस्पाला:-राजग्राह्यद्रव्यसग्राहका इत्यर्थ , 'जियजयकरा' जितप्तकरा तर जिता=मतिस्पर्दिन्तकरे पराजय प्राप्ताः, धूतकरा: धूतकीडकाः 'गद्दियगहणा' गृहीतग्रहणाः = गृहीतानि स्थापितानि ग्रहणानि - बन्धक द्रव्याणि यैस्ते 'कफगुरुगकारगा' कल्कगुरुककारका = कल्कगुरुक माया सभारसभृत नाग्य तत्कारकाः कपटिन इत्यर्थः, कुलिंगी' कुलिगिनः कृत्सिता लिगिनः कुलिगिना-कुतीधिकाः 'उवहिया' औपधिका-मायाचारिणः कपटिन इत्यर्थः 'पाणियगा' वाणिजका व्यापारकारिणः, 'कडतुलडमाणी' कृटतुलाकटमानिनः कटा-कपटयुक्ता-न्यूनाधिका तुला येपा ते कटतुलाः कूटमानिनः कृट पम्ययुक्त यन्मान-तोलन तदस्ति येषा ते तथा 'कृडकाहावणीव जीवया ' कृटकापणोपजीरिताः फटकापणेन उपनीवन्ति ये ते तथा कूट मुद्रोपजीविन इत्यर्थ , पडकारगा' पटकारका तन्तुवायाः-वखनिर्मापका इत्यर्थः, इसी तरह ( चारभडा) जो चार गुप्तचर-सी. आई. डी होते हैं, भटयोधा होते है, (खडरक्सा) खडरक्ष-राजग्राह्यद्रव्य के सग्राहक होते हे, (जियजयकरा ) जितधूतकर-प्रतिस्पर्दा जुआरियों द्वारा पराजित हुए जुआरी होते है, (गहियगणा) गृहीतग्रहण-गहना रखकर जो दूसरों को व्याज पर रूपया देने वाले होते हैं (ककगुरुगकारगा) कल्क गुरुक कारक-मायाचारी से भरे हुए वचनों को बोलने वाले होते हैं, अर्थात् कपटी होते हैं, (कलिंगी) कुतीर्थिक होते हैं, (उहिया) औपधिक-मायाचारी होते हैं, (वाणियगा) चाणिजनक-व्यापारी होते हैं, असत्यभापण करते है। (कूडतलतलमाणी) जो न्यूनाधिक तराजू रखते हैं, नापने तौलने के थाट कमती बढती रहते हैं (कूडकाहावणो. वजीविया) बनावटी रुप्या पैसा बनाकर जो अपना निर्वाह करते हैं, मे प्रभारी "धारभडा" सुनय-सी राय छ, सर-यादा डाय छ, 7 “सडरम्सा" ५७२४-२Narय लाना द्रव्यनी सड ४२नार हाय छ, रे "जियजयकरा" Gud:२-प्रतिरपछि गारी द्वारा शक्ति थयेस गारी ५ छ, “गहियगहणा" गृहीत अड-धरे रामान ? सोने व्यारे ना। धीरनार डाय छ, “ कक्गुरुगकारगा" ४८४ शु२४ ४१२४२ भायायारी वयना बासना। य -४५टी साय छ, “वाणियगा"२ व्यापारी साय छ, “कुलिगी " ता िडाय छ, “पहिया " मोपाधि भायायारी डाय छ, ते असत्य माले छ “ कूडतूलतूलमाणी" मोटर ત્રાજવા રાખે છે, માપવા તથા જોખવાના માપ વધારે કે ઓછા રાખે છે, "फूडकाहावणोवजीविया " नी ३पासा, पैसा मा नापीन २aat ०२३ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रभव्याकरण समाधाः । 'भयाय-अन्येपा भयोत्पादनाय ' व्याघ्र समागतः' इतिरीत्या मृपाबादः अथवा भयान्च 'इस्सहिया य' हाम्यार्थिकाः, अथा हास्यार्याय च% हास्य कर्तुमपि तथा वदन्ति 'सक्ती' साक्षिणासाक्षिभूतान्यायालयादा 'चोरा' चौरा-निग्रहादौ 'चारभडा' चारभटा=तन चाराः गूढपुरुषाः, भटा: योगाः, पण करते है । इसी तरह मुग्मादिक जो जीव होते है कि जिन्हें प्राणवध के प्रकरण में २० वे सूत्र में करा गया है वे भी असत्यभाषण करते हैं । कोई धन के लिये, कोई धर्म के लिये, कोई इन्द्रियों के भोगों के निमित्त काम के लिये, और कोई २ अर्थ, धर्म और काम इन तीनों के लिये असत्यभापण करते है । ( भयाय) कितनेक कितनेक जीव ऐसे भी होते है जो दूसरों को भय उत्पन्न करने के अभिप्राय से असत्यभापण कर दिया करते हैं । " भयाय " की सस्कृत छाया"भयाच" ऐसी भी होती है-इसका तात्पर्य तब ऐसा होगा कि कितनेक जीव भय से भी असत्यभापण कर दिया करते हैं । (हस्सट्टियाय) कितनेक जीव ऐसे भी होते हैं जो हँसी मजाक मे असत्यभापण कर देते है, अथवा दूसरो की हँसी उडाने के अभिप्राय से असत्यभापण करने लगते हैं। (सक्खी) जो न्यायालय-कचहरी आदि में दसरों की साक्षी देते हैं वे भी असत्यभाषण करते हैं । (चोरा) चोरी करने वाले जो पुरुष होते हैं वे निग्रह आदि अवस्था के उपस्थित होने पर असत्यभापण करते हैं। જે જીવે હોય છે, જેમનું પ્રાણવધના ૨૦મા પ્રકરણમાં વર્ણન કરવામા આવ્યું છે, તે છે પણ અસત્ય બેલે છે એટલે કે કેટલાક મુગ્ધ–મહાધીન વૃત્તિ વાળા અસત્ય બેલે છે કેટલાક ફોધ, લોભ અને મેહ એ ત્રણેને વશ થઈને અસત્ય બોલે છે કેટલાક લેકે ધનને માટે, કેટલાક ધર્મને માટે, કેઈ ઇન્દ્રિચેના ભેગેને નિમિત્ત, અને કઈ કઈ લેકે અર્થ, ધર્મ અને કામ, એ ત્રણેને निमित्त मसत्य मा छे "भयाय" उटमा मेवा ७ प डाय छ २ भीतने मय पभावाने भाटे. असत्य मास छ “ भयाय " नी सस्त छाया "भयाच्च" ५५ थाय छे त्यारे तेन। अर्थ मेवा थायटसा । लयने ४२ ५४ असत्य माले छ “ हस्सद्विया य" talalai मेवा પણ હોય છે કે જેઓ મજાક-મશ્કરીમાં પ, અસત્ય બોલી નાખે છે, અથવા भीजतनी भगत ४२वाने निमित्त अन्नत्य मोसा भजे "सक्सी" न्याय! हाय माहिमा पानी साक्षी मापना। ५५ असत्य माले छ “ चोरा" ચારી કરનારા લેકે, જેલમાં જવાને પ્રસ ગ ઉપસ્થિત થતા અસત્ય લે છે Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २० २ सू० ३ येन भावनालोक वदन्ति तिनिरूपणम् १७२ लघुस्वकाः पुच्छात्मानः, ' असचा' असत्यासत्यविमुग्वा — गारपिया ' गौरविका मद्धयादि गोरपयुक्ताः, असञ्चद्वारणाहिचित्ता' असत्यस्थापनाधिचित्ता:असत्यानाम् असदर्याना स्थापनायां प्ररूपणायामपिचित्त येपा ते तथा असत्यार्थमण्डनपरा इत्यर्थः, ' उच्चन्छदा' उन्चो-महान् सात्माप्रशसापरः उन्दा=अमिप्रायो येपा ते तथा स्वात्मप्रशसापरायग इत्यर्थः, 'अणिग्गहा' अनिग्रहाः अवशेन्द्रियाः 'अणिरता' अनियताः अनियमान्तः उन्देन-स्वाभिमायेण 'मुक्क वाया' मुक्तवाचा यथा तथा भापिणः अयमा 'वयमेव सिद्धवादिन ' इति वदन्ति, के वदन्ति ? 'जे' ये 'अलियाहिं ' अलीकम्योऽसत्येभ्यः 'अविरया' अविरता अनिटत्ताः भवन्ति ॥ सू-३ ॥ तथा-'अपरे नत्यिगाइणो' इत्यादि मूलम्-अवरे नस्थिगवाइणो वामलोगवादी भणति, नस्थि जीवो, न जाइ इह परे वा लोए, नय किंचि वि फुसइ पुन्नपाव, नस्थिफलं सुकयदुकयाण । पंचमहाभूइयं सरीर भासंति आपको तुच्छ मानने वाले मनुप्य, (असच्चा) सत्य से विमुख रहने वाले मनुष्य, (गारविया) अद्वयादि के गौरव से युक्त बने हुए मनुष्य, (असचट्ठावणाहिचित्ता) असत्यपदार्थ की प्ररूपणा करने वाले मनुष्य, (उच्चच्छदा) अपने आपकी प्रशसा करने वाले मनुष्य, (अणिग्गहा) जिनकी इन्द्रियाँ वश में नही है ऐसे मनुष्य, (अणिययाउदेण) नियम से रहित मनुष्य, ( मुकवाया ) यथातथा बोलने वाले मनुष्य, और (जे य) जो मनुष्य (अलियाहिं) असत्यभापण से ( अविरया) विरति रहित ‘(भवति ) होते हैं वे जो मन मे आता है सो बोल दिया करते हैं। इस प्रकार के चोलने में अलीक भाषण का दोप लगा करता है ।सू३॥ भनुष्या, " असच्चा" सत्यथा विभुम २नार मनुध्यो, " गारविया" ऋद्धि माहिना मलिभानथी युद्धत गनेस मनुष्यो, "असन्चट्ठावणा हि चित्ता" आसत्य पानी १ प्र३५४ा ४२नार मनुष्यो, " उन्चच्छदा" माय 43 ना२ alt, “ अणिग्गहा"मनी धन्द्रिय अाभूमा नथी तवा सोनी, " अणिययाछदेण" नियम बनाना मनुष्यो-मनियमित खा"मुकवाया" म तेम मासना। सी, भने “जे य" २ भनुष्य " अलियाहिं " सत्य मापYथा " अविरया" विरति रहित “भवति" डाय छ, तेसो भनमा आये तभ બેલી નાખે છે તે રીતે બેલવાથી અસત્યભાષણને દોષ લાગ્યા કરે છે સૂર Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण 'कलाया' कलादामुवर्णकाराः 'कानडज्मा' फारुकीया:-शिल्पिनः 'वचणपरा' पञ्चनपराम्प्रतारणापरा 'ठग' इतिमसिद्धाः 'चारियचाटुयारनगरगोत्तिय परि यारगा, पारिकचाटुकारनगर गुप्तिकपरिचारका तन-चारिका गुप्तचराः, चार्ट फाराम्म्मुखमालिका, नगरगुप्तिका-कोपालाः, 'कोतवाल' इति प्रसिद्धा, परिचारका सेवकाः, विषयभोगतत्पराय, 'दुहवाइम्यकप्रणव मणिया' दुष्ट वादि सूचकमणवलमणिता , तत्र दुष्टनादिना असत्पक्षग्राहिणः सूचका-पिशुना, प्रणालमणिवा ऋणे-माणग्रहणे पलाअन्तस्तै मणिता उक्ताः " देहि मे ऋण' मित्युत्तमणेनोक्ता अघमर्णा इति भावः 'पुकालियवयणदच्छा' पूर्व कालिकवचनदक्षा बस्तुकामस्याभिपायमालक्ष्य पूर्वमेव ध्रुवन्ति ये ते पूर्वकालिकच चनदक्षाः, 'साहसिका' सहसा-अविचार्यभापन्ते ये ते साहसिकाः, 'लहुस्सगा' (पडकारगा ) जो तन्तु वाय-जुलाहे होते हैं (कलाया) कलाद-सुवर्ण फार -सुनार होते है, (कारहजा) कारुफीय-शिरपी-कारीगर होते हैं। (वचणपरा ) जो ठग होते है, (चारिय) गुप्तचर रोते हैं, (चाटुयार) चाटुकार-खुशामदी होते हैं, (नगरगोत्तिय) नगरगुप्तिक-कोतवाल होते हैं, (परियारग) परिचारक-सेवक तथा विषयभागों में तत्पर होत हैं, (दुहवाई ) जो असत्पक्ष को ग्रहण करने वाले होते है, (सूयग) सूचक-चुगल खोरहोते हे, (अणवलमणिया) मेरा ऋण अदा करी इस प्रकार जिस देनदार से साकार कहता है बेग बल मणित कर्ज दार व्यक्ति कहने वाले के अभिप्राय को लक्षित करके पहिले से ही बोलने वाले (पुवकालियवयणदच्छा) पूर्वकालिक वचनदक्ष मनुष्य (सारसिया) विना विचारे बोलने वाले मनुष्य, (लहस्सगा) अपन घातानु गुलशन यदाव छ, "पहकारगा" ५२ डाय छ, “ कलाया" सानी खाय छ, “कारुइज्जा" १२ हाय छ, “धचणपरा" गाय छ, "चारिय" गुप्तय२ सय छ “ चाटुयार" या१२-मुशामतीय डाय छ " नगरगोत्तिय " नारशुति-2वाज य छ, “ परियारग" परिया२४-से તથા વિષય ભાગોના ગુલામ હોય છે, જે અસત્ય પક્ષને ગ્રહણ કરનાર હોય छ," दुवाई" २ मसत्यपक्षने अड ४२नार हाय छ, "सूयग" सूय४अशलीमार हाय छ, “अणवलभणिया" 'भा३ य ल२४ ४२।' त પ્રમાણે જે દેણદારને શાહકાર કહે છે તે અણુબલ ભણિત દેણદાર વ્યક્તિ, કહે नारना मालिप्रायने दक्षिस उरीने पोथी गोली परनार हाय छ, “पुग्ध फालिय वयणदच्छा" पूर्व सास क्याथी माया भनुष्य, “साहसिया" वियार्या विना मोसना मनुष्य, “ लहुस्सगा" चातानी नतने तु२७ भाननार Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० २ ० ४ नास्तिकयादिमतनिरूपणम् प्रत्यक्षाभावे व्याप्तिग्रहस्याप्यभावात् महानसादी सत्येव पर्वतादी वहिरनुमीयते । वधूिमयो प्रत्यक्षेण साहचर्यग्रहे प्रत्यक्षप्रमाणादिभिरनुमानम्यानगीकृतत्वान्च । नाप्यागमयावस्तस्य परम्परविरुद्धत्येनाऽमामाण्यात् । नाप्युपमानमत्रप्रमज्यते, अस. पदार्थे केनोपमीयते । इति । एव च जीवम्याऽसिद्धत्वात् कोऽपि इह मनुष्यलोके परे वा 'लोए ' लोके देवादिलोके वा 'न जाइ' न याति नगन्छति, 'नय' न च 'किंचिति' किश्चिदपि ' पुनपाव , पुण्यपाप-पुण्यपापरूप कर्म 'फुसइ' धर्मता आदि का ग्रहण होना आवश्यकीय होता है इसके विना अनुमान नही होता है । जय उस चिपय मे प्रत्यक्षप्रमाण ही प्रवृत्त नहीं होता है तर साध्य साधन की व्याप्ति का ग्राहक वहा वह कैसे हो सकता है । महानस आदि मे साय सापन की व्याप्ति पहिले प्रत्यक्ष से ग्रहण कर लेने पर ही तो अनुमाता पर्वत आदि मे पह्नि का अनुमान करता है । आगम प्रमाण से भी “जीव है" यह बात नहीं कही जाति है, कारण आगमों में एकमतता नहीं है। परस्पर विरुद्वार्थ का-एक दूसरे आगम से विरोधी तत्व का-ये प्रणयन करते है, इसलिये इनमें प्रमाणतो ही नहीं है। उपमान प्रमाण की यहा प्रवृत्ति इसलिये नहीं हो सकती है कि जर 'जीव' पदार्थ ही असत् है तर वह उपमेय कैसे हो सकता है । इस तरह जीव नामक पदार्थ की असिद्धि होने पर (न जाइ इह परे वा लोग) कोई भी इम मनुष्यलोक में अथवा दूसरे देवादिलोक में नहीं जाता है, और (न य किंचि वि फुसह पुण्णपाव ) न वह पुण्य एव पापरूप कर्म को छूता है, अर्थात्-जय जीप नाम का कोई पदार्थ ही સાધનની વ્યાપિન અને પક્ષધર્માતા આદિનું ગ્રહણ થવું આવશ્યક હેય છે, તેના વગર અનુમાન થતું નથી જે તે વિષયમા પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ જ પ્રવૃત્ત હોતું નથી તે સાધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિને ચાહક ત્યા તે કેવી રીતે થઈ શકે ! મહાનમ આદિમા ચાધ્ય સાધનની વ્યાતિ પહેલા પ્રત્યક્ષ રીતે ગ્રહણ કરી લીધા પછી તે અનુમાન કરનાર પર્વત આદિમાં અગ્નિનું અનુમાન કરે છે આગમેનુ પ્રમાણ આપીને પણ “જીવ છે તે વાત કહી શકાય તેમ નથી, કારણ કે આગમાં એક મતતા નથી પરમ્પરથી વિરુદ્ધ અર્થનુ-એક બીજાથી વિરોધી તત્ત્વનુતેઓ વર્ણન-પ્રતિપાદન કરે છે, તે કારણે તેમનામાં પ્રમાણભૂતતા નથી अपमान प्रमाणुनी मडी प्रवृत्ति तो छ राती नयी उन "जीन" પદાર્થ જ અસત હોય તો તે ઉપમેપ કેવી રીતે થઈ શકે ! આ રીતે જીવ नामना पानी मसिद्धि " न जाइ इह परे वा लोए" ५ मा मनुष्य सभा म241 पाहमा तु नथी, अने "नय किंचि वि फुसइ पुग्णपाय" त पुश्य भने पा५ ३५ भनि पता नथी, ३० Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण हे वायजोगजुत्तं, पच य खंधे भणंति केड, मणं मण जीविका वदंति, वाऊजीवो त्ति एवमाहंसु सरीर साइयं सनिधणं इह भवे एगभवे, तस्स विप्पणासंमि सव्वनासो त्ति एव जपंति मुसाबाई ॥ सू० ४ ॥ टीका-'अपरे' अपरे-उक्तेभ्योऽन्ये ' नत्यिगयाइणो' नास्तिकवादिना 'नास्ति परलोकः' इति मतिर्येपा ते नास्तिका स्ते च ते गादिनः प्रत्यक्षप्रमाण नादिनचार्वाकाः, तथा वामलोगवाई ' तया पामलोकवादिनः, वाम=विरुद्ध लोक-बदन्ति ये ते तथा सतामपि लोकवस्तूनामसच प्रतिपादका गून्य वादिनः इत्यर्थः, ते हि 'भणन्तिम्बदन्ति यत् 'नस्थि जीरो' नास्ति जीवः मुखदुःखादि भोक्ता तत्साधक प्रमाणाभागात, यतो हि न तन प्रत्यक्ष प्रमाणमुपक्रमते चमुरादी न्द्रियविषयत्वात्, नाप्यनुमान तर प्रमाणम् , तस्य व्यामिपक्षधर्मताज्ञानायधीनतया तथा-'अवरे नत्थिगवाहणो' इत्यादि टीकार्थ-(अवरे ) इन पूर्वोक्त व्यक्तियों से भिन्न (नस्थिगवाइणो) जो नास्तिकवादी हैं-' परलोक नही है । इस प्रकार की जिनकी बुद्धि है ऐसे केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानने वाले चार्वाक, तथा (वामलोगवाई) घामलोकवादी-शन्यवादी, ये लोक में रही हुई वस्तुओ को असत्रूप से प्रदिपादित करते हैं वे (भणति ) कहते है कि (नस्थिजीव) सुख, दुःख आदि अवस्थाओं का भोक्ता जीव नाम का कोई पदार्थ नहीं है, कारण कि इसके साधक प्रमाणों का अभाव है प्रत्यक्षप्रमाण इसका साधक इसलिये नही होता है कि चक्षुरादिक जो इन्द्रिया है वे उसे अपना विषयभूत नही बनाती है। अनुमान से भी उसका ग्रहण नहीं होता है, क्यों कि अनुमान से साध्य और साधन की व्याप्ति का एव पक्ष तथा-“अवरे नथिगवाइणो" त्या टी -"अवरे' ते पूति व्यक्तियोया हा प्रा२ना 'नथिगवाइणो" જે નાસ્તિકવાદી છે-પરલેક નથી” એ પ્રકારની જેમની માન્યતા છે એવા, श्त से प्रत्यक्ष प्रभागने ४ भाननार यावाडी, तथा " वामलोगवाई " વામલોકવાદી–વામમાગી, તેઓ સહિમા રહેલ વસ્તુઓને અસત રૂપે પ્રતિપા हित ४२ छ तेसो भणति" ४ " नत्थि जीवो" सुम म माहि અવસ્થાઓને જોક્તા જીવ નામને કઈ પદાર્થ નથી, કારણ કે તે સિદ્ધ કરવા માટેના પ્રમાણેને અભાવ છે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ તેનું સાધક તે કારણે હતુ નથી કે ચક્ષ આદિ જે ઈન્દ્રિયો છે તે તેને પોતાના વિષય રૂપ બનાવી શકતી નથી અનુમાનથી તેને ગ્રહણ કરી શકાતું નથી કારણ કે અનુમાનમાં સાધ્ય Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० २ सू० ४ नास्तिकयादिमतनिरूपणम् प्रत्यक्षाभावे व्याप्तिग्रहस्याप्यभावात् महानसादौ सत्येव पर्वतादी वहिरनुमीयते । वहिधूमयो मत्यक्षेण साहचर्यग्रहे प्रत्यक्षप्रमाणपादिभिरनुमानस्यानगीकृतत्वान्च । नाप्यागमगाद्यस्तस्य परस्परविरुद्वत्तेनाऽभामाण्यात् । नाप्युपमानमत्रममज्यते, असत्पदार्थ केनोपमीयते । इति । एव च जीम्याऽसिद्धत्वात् कोऽपि इह-मनुष्यलोके परे वा 'लोए ' लोके देवादिलोके या 'न जाइ' न याति नगन्छति, 'नय' न च ' किंचिति' किश्चिदपि ' पुम्नपाव , पुण्यपाप-पुण्यपापरूप कर्म 'फुसइ' धर्मता आदि का ग्रहण होना आवश्यकीय होता है इसके विना अनुमान नहीं होता है । जय उस विपय में प्रत्यक्षप्रमाण ही प्रवृत्त नहीं होता है तर साध्य साधन की व्याप्ति का ग्राहक वहा वह कैसे हो सकता है । महानस आदि मे साय साधन की व्याप्ति पहिले प्रत्यक्ष से ग्रहण कर लेने पर ही तो अनुमाता पर्वत आदि मे हि का अनुमान करता है । आगम प्रमाण से भी “जीव है " यह बात नहीं कही जाति है, कारण आगमों में एकमतता नहीं है । परस्पर विरुद्धार्थ का-एक दूसरे आगम से विरोधी तत्व का-ये प्रणयन करते है, इसलिये इनमें प्रमाणतो ही नहीं है। उपमान प्रमाण की यहा प्रवृत्ति इसलिये नहीं हो सकती है कि जय 'जीव' पदार्थ ही असत् है तब वह उपमेय कैसे हो सकता है। इस तरह जीव नामक पदार्थ की असिद्धि होने पर (न जाइ इह परे वा लोण्) कोई भी इस मनुप्यलोक में अथवा दूसरे देवादिलोक में नहीं जाता है, और (न य किंचि वि फुसह पुण्णपाव ) न वह पुण्य एव पापरूप कर्म को छूता है, अर्थात्-जव जीव नाम का कोई पदार्थ ही સાધનની વ્યાપ્તિનું અને પક્ષધર્મતા આદિનું ગ્રહણ થવુ આવશ્યક હોય છે, તેના વગર અનુમાન થતું નથી જે તે વિષયમાં પ્રત્યક્ષ પ્રમાણુ જ પ્રવૃત્ત હોતુ નથી તે સાધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિને ગ્રાહક ત્યા તે કેવી રીતે થઈ શકે ! મહાન આદિમા માધ્ય સાધનની વ્યાપ્તિ પહેલા પ્રત્યક્ષ રીતે ગ્રહણ કરી લીધા પછી તે અનુમાન કરનાર પર્વત આદિમા અગ્નિનું અનુમાન કરે છે આગમેનુ પ્રમાણ આપીને પણ “જીવ છે તે વાત કહી શકાય તેમ નથી, કારણ કે આગમાં એક મતતા નથી પરસ્પરથી વિરુદ્ધ અર્થનુ-એક બીજાથી વિરોધી તત્ત્વનુ-તેઓ વર્ણન-પ્રતિપાદન કરે છે, તે કારણે તેમનામા પ્રમાણભૂતતા નથી उपभान प्रभावन माडी प्रवृत्ति हो थ ती नथी उa "जीव" પદાર્થ જ અસતુ હોય તો તે ઉપમેય કેવી રીતે થઈ શકે ! આ રીતે જીવ नामना पहानी मसिद्धि यता " न जाइ इह परे वा लोए" अर्थ ५९५ मा मनुष्य सभा अथवा ol dave तु नथी, भने “नय किंचि वि फुमइ पुण्णराव" ते पुण्य भने पा५ ३५ टन शत नथी, सटसे 3. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૦ प्रश्नव्याकरणसूत्रे हे वायजोगजुत्तं, पंच य खंधे भांति केइ, मणं मण जीविका वदंति, वाऊजीवो त्ति एवमाहसु सरीर साइयं सनिधणं इह भवे एगभवे, तस्स विप्पणासंमि सव्वनासो त्ति एव जपंति मुसावाई ॥ सू० ४ ॥ 1 , टीका--'अरे' अपरे = उक्तेभ्योऽन्ये ' नत्यिगवाणी' नास्तिकवादिनः= ' नास्ति परलोकः' इति मतिर्येषा ते नास्तिका स्ते च ते वादिनः प्रत्यक्षप्रमाण बादिनश्चाका तथा 'यामलोगलाई ' तथा नामलकादिनः, वाम विरुद्ध लोक - बदन्ति ये ते तथा सतामपि लोकवस्तूनामसच्च प्रतिपादका शून्य वादिनः इत्यर्थः, ते हि ' भणन्ति = प्रदन्ति यत् ' नस्थि जीनो' नास्ति जीवः सुखदुःखादि भोक्ता तत्साधक प्रमाणाभावात् यतो हि न तत्र प्रत्यक्ष प्रमाणमुपक्रमते चक्षुरादी न्द्रियविपयत्यात्, नाप्यनुमानं तत्र प्रमाणम्, तस्य व्याप्तिपक्षधर्मताज्ञानाद्यधीनतया तथा - ' अचरे नत्यिगवाहणो ' इत्यादि टीकार्थ - ( अवरे ) इन पूर्वोक्त व्यक्तियों से भिन्न (नत्यिगवाइणो ) जो नास्तिकवादी हैं-' परलोक नही है ' इस प्रकार की जिनकी बुद्धि है ऐसे केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण मानने वाले चार्वाक, तथा ( वामलोगवाई ) arrot वादी - शून्यवादी, ये लोक मे रही हुई वस्तुओं को असत्रूप से प्रदिपादित करते हैं वे ( भणति ) कहते है कि (नत्यिजीव) सुख, दुःख आदि अवस्थाओं का भोक्ता जीव नाम का कोई पदार्थ नही है, कारण कि इसके साधक प्रमाणों का अभाव है प्रत्यक्षप्रमाण इसका साधक इसलिये नही होता है कि चक्षुरादिक जो इन्द्रिया है वे उसे अपना विषयभूत नही बनाती है । अनुमान से भी उसका ग्रहण नहीं होता है, क्यो कि अनुमान से साध्य और साधन की व्याप्ति का एव पक्ष तथा - " अवरे नत्थिगवाइणो " त्याहि टीडार्थ -“अवरे' ते पूर्वोक्त व्यक्तियोथी नुहान प्राश्ना 'नथिगवाइणो” જે નાસ્તિકવાદી છે-“ પરલોક નથી ” એ પ્રકારની જેમની માન્યતા છે એવા, ફક્ત એક પ્રત્યક્ષ પ્રમાણને જ માનનાર ચાČકવાદી, તથા " वामलेोगवाई વામલાકવાદી વામમાર્ગી, તે સૃષ્ટિમા રહેલ વસ્તુઓને અસત્ રૂપે પ્રતિપા " हित उरे छे तेथे ' भणति " हे छे " नत्थि जीवो " અવસ્થાના ભાકતા જીવ નામના કોઈ પદાર્થ નથી, કારણ કે તે સિદ્ધ સુખ દુખ માદિ કરવા માટેના પ્રમાણેાના અભાવ છે પ્રત્યક્ષ પ્રમાણ તેનુ બાધક તે કારણે હતું નથી કે ચક્ષુ આદિ જે ઈન્દ્રિયા છે તે તેને પોતાના વિષય રૂપ મનાવી શકતી નથી અનુમાનથી તેને ગ્રહણ કરી શકાતુ નથી કારણ કે અનુમાનમા સાય Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ० मू० ४ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् सुखा १ दुग्या २ अदु खमुग्या ३ चेति निविधवेदनास्वभाव २, विज्ञानस्कन्यास्पादिविज्ञानलक्षणः . सज्ञास्कन्धः-सानिमित्तोऽचाहणात्मकमत्ययः ४, संस्कारस्कन्धः-पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदायथेति पञ्च सन्याः, एते पञ्चर सन्याः सन्ति, नान्यः कश्चित्तद्वयतिरिक्त आत्माऽऽख्य पदार्थोऽस्ति, इति तेपा मतम् । नान्य आत्माभिधानइति गोदाः, ' मणच ' मनश्च मन ए जीवो थेपा ते तया मनोजीविका मन आत्मवादिनो वदन्ति-इति मन आत्मवादिनी मतम् । तथा 'वाउजीवोत्ति' वायु व इति 'आहमु' आहुः केचित्, उन्यासादिरूप एव जीव इति वदन्ति । माणगायुना सक्रियासु प्रवर्तन जायते, अतएर प्राणवायुरेव जीव इत्यर्थः । अथ तनी रतन्छरीरसादिमत राह, तथादि-'सरीर साइय सनिधण' और सस्कार ५, ये पाच स्कध है । पृथिव्यादिक एव स्पादिक ये रूप स्कंध हैं १ । सुग्व १, दुःख, २ और सुख दुःख ३ इन त्रिविधरूप वेदना स्कंध, है । रूपादिकों का विज्ञान स्वरूप, विज्ञानस्कध है ३ । यह अमुफ है-यह देवदत्त है, इत्यादि-रूप से जो सजाओं का ग्रहण होता है वह मजास्कध है । पुण्य अपुण्य आदि रूप जोसमुदाय है वह सस्कार रूप है। ये पाच स्कध ही है, इनसे भिन्न आत्मा नाम का कोई स्वतत्र पदार्थ नहीं है इस प्रकार का मतव्य बौद्धों का है। (मण च मणजीविया वयति) जो मन को ही आत्मा मानते हैं वे मनोजीविक है तथा (वाऊ जीवोत्ति एवमासु) कोई २ उच्छ्वास आदि रूप चायु ही जीव है ऐसा मानते है, इनका कहना है कि प्राण नामकवायु से ही समस्त क्रियाओ मे प्रवर्तन होताहै इसके विना नहीं, अतः प्राणवायु ही जीव है (सरीर साइय सनिधण) અને (૫) સ કાર એ પાચ સ્કંધ છે (૧) પૃથિવ્યાદિક અને રૂપાદિક તે ૩પર૦ ધ છે, (૨) સુખ, દુ ખ અને સુખદુખ એ ત્રણ પ્રકારને વેદના કધ છે (૩) ઉપાદિકના વિજ્ઞાન સ્વરૂપ વિનાનક ધ (૪), આ અમુક છે–આ દેવદત્ત છે, ઈત્યાદિ રીતે જે સજ્ઞાઓનું ગ્રહણ થાય છે તે મ જ્ઞાસ્ક ધ છે (પ) પુન્ય અપુન્ય આદિ રૂપ જે ધર્મ સમુદાય છે તે સંસ્કાર છે એ પાચ ઋધ જ છે, તે ભિન્ન આત્મા નામનો કોઈ સ્વત – પદાર્થ જ નથી, से प्रहारनु मौद्धोनु मतव्य छ “मण च मणजीविया वयति" भनने । मात्मा भाने छे ते मनालावि उपाय छे तथा " वाऊ जीवोत्ति एपमासु" કઈ કોઈ ઉફવાસ આદિ રૂપ વાયુ જ જીવ છે તેમ માને છે, તેમનું કહેવું એવું છે કે પ્રાણવાયુથી જ સમસ્ત ક્રિયાઓ ચાલ્યા કરે છે, તેના વિના ચલતી नथी, तेथी प्राधुवायुवे छे "सरीर साइय सनिधण" शारने रे Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४२ प्रश्नध्याकरण स्पृशति । जीवस्याऽमद्भागदेव न शुभाशुभकर्मवन्यनमिति भारः। अत एवं "मुकयदुधयाण' मुकत दुकवाना-पुण्यपापानां फलमपि ' नस्थि' नास्ति जीवासत्त्वेन तत्फलस्याऽप्यसत्चात् । तथा 'सरीर ‘पमहाभूइय' पत्रमहा भौतिक पृथिव्यप्तेजोगाग्वाकाशमय, 'भामति' भापन्ते । तत् कीदश भाषन्ते इत्याह-' हेवागजोगजुत्त' हेवाकयोगयुक्तम् , हेवाका-समावस्तेन योगः-परसर सयोगस्तेन युक्तम् , पञ्चभूताना परस्पर सयोगो रियोगध सभागद् भवति, न वन किंचिदन्यत् कर्मादि आत्मा वा कारणमस्तीति भावः। केई' केऽपि बुद्ध मवानुसारिणः 'पचखधे' पञ्चस्कन्धान्-रूपवेदनाविज्ञानसनामस्काररूपान् भणन्ति कथयन्ति, तर-रूपस्कन्ध, -पृथिव्यादयो रूपादयश्च १, वेदनास्करानही है तो मर कर वही पुनः अपने पुण्य पापकर्मों के अनुसार मनुष्य लोक मे अथवा देवादिलोक में जन्मता है, यह कान असल है। तात्पर्य इसका यही है जीव का अस्तित्व न होने से उसके (नस्थिफल सुकयदुक्याण ) शुभ और अशुभ कर्मो का वध नहीं होता है । जब शुभ अशुभ कर्मों का बध ही नहीं होता है तब उनके फल का भी अभाव ही है । तथा ( पचमहाभूडय सरीर मासति) यह जो शरीर है वह वृथिवी, अपू , तेज वायु और आकाश, इन पाचभूत स्वरूप है। (हेवाग जोगजुत्त) पाच भूतों का यह पारस्परिक सयोग अथवा वियोग स्वभाव से ही होता रहता है । इसमे न तो कोई कर्म ही कारण है और न आत्मा ही। (केई पच य खधे भणति) कितनेक वादी बौद्ध-सिद्धान्तमतानुयायी-ऐसा कहते है कि रूप १, वेदना २, विज्ञान ३, सज्ञा ४, જે જીવ નામને કોઈ પદાર્થ જ ન હોય તે તે મરીને પિતાના પુન્ય પાપ કર્મો પ્રમાણે મનુષ્ય લેકમાં અથવા દેવાદિ લેકમા જન્મે છે તે કથન અસત્ય કરે છેકહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે જે જીવનું અસ્તિત્વ ન હોય તે તેના " नत्थि फल सुकयदुचायाण" शुम अने मशुस भनि ५ धातो नयी જે શુભાશુભ કર્મોને બધા જ બ ધાતો ન હોય તો તેના ફળનો પણ અભાવ र डाय तथा " पचमहाभूइय सरीर भासति " २ सरी२ छ त પૃથિવી, અપૂ (જળ), તેજ, વાયુ અને આકાશ, એ પાચ ભૂત સ્વરૂપ છે "हेवागजोगजुत्त" पाय भूतानो मा पा२२५२४ सेप अथवा वियाग સ્વભાવથી જ થયા કરે છે તેમાં આત્મા કે કર્મ કારણરૂપ નથી ___ ई पचेय सधे भणति " टा४ पाहमा मानना। -मौद्ध सिद्धान्त भतानुयायी थे 3 छ : (१) ३५, (२) वहना, (3) विज्ञान, ( 1 .सहा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ सुदर्शिनीटीका अ २ सू ५ नास्तिकचादिमतदिनिरूपणम् नत्थि कि वन नेग्इयतिरिक्खमणुयजोणी, न देवलोगो वा अस्थि सिद्धिगमणं, अम्मापियरो नत्थि, नवि अस्थि पुरिसकारो, पच्चक्खाणमवि नत्थि, नवि अस्थि कालमच्चू य, अरिहंता वही वलदेवा वासुदेवा नत्थि, नेवत्थि केइ रिसओ, धम्माधम्मफलं विन अस्थि कि चि बहुच वा थोवं वा तम्हा एवं जाणिऊणं जहा सुवहु इंदियाणुकूलेषु सव्वविसएसु वहेह नत्थिकाइ किरिया वा एवं भणति नत्थिकवाइणो वाम लोगवाई | सू० ॥५॥ टीका -- यस्मात् आत्माऽपि नास्ति, शुभाशुभकर्माणि तत्फलान्यपि च न सन्ति ' तम्हा ' तस्मात् ' दाणनयपोसहण ' दाननतपोपवानां = तत्र दानम् = अभयदानपानदानादिकम् 'जय' नवानि = स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि पोपधः = पोष = वर्मस्य पुष्टिं धत्ते - करोतीति पोपधः = अष्टमी चतुर्दशीपूर्णिमामात्रास्यापदिनाऽनुष्ठेय जाहारादिपरित्याग पूर्वकोनत विशेषः, उक्त च आहार तनुसत्काराऽनह्मसावध कर्मणाम् । त्याग पर्वचतुष्टया तद्विदुः पौपधनतम् ॥ फिर भी - ' तम्हा दाणवयपोसहाण ' इत्यादि । टीकार्य - - आत्मा शुभाशुभकर्म और इनके फल ये सब कुछ भी नहीं है (तम्हा ) इसलिये ( दाणवयपोसहाण ) दान - अभयदान. सुपात्रदान आदि, व्रत-स्थूलप्राणातिपात विरमण आदि, ( पोसह ) पोवध - अष्टमी चतुर्दशी, पूर्णिमा एव अमावस्या इन पर्व दिनों में आहार आदि को परित्याग पूर्वक अनुष्ठेयव्रत विशेष, कहा भी है वणी ---" तम्हा दाणनयपोसहाण 'त्याहि रीडार्थ - मात्मा शुलाल उर्भ भने तेभनाइ ते मधुय नथी " तम्हा तेथी " दाणत्रयपोसाण " हान- अलयहान, सुपात्राहान आदि, व्रत - आशाति यात विरभय आदि " पोसह " औषध-माहभ, यौहश, पूनम, अभास माहि આહાર આદિના પરિત્યાગ પૂર્વનુ એક અનુષ્ઠાન કહ્યુ છે કે "" आहार, तनुसत्कारा-ऽब्रह्म - सावद्यकर्मणाम् । त्यागः पचतुष्टयां तद्विदु पौषधनतम् ॥ १" *प्र० २४ ܕ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नण्याकरण शरीर सादिक सनिधनम् , शरीरम् आदिसहितम् उत्पत्तिमचात् , सनिधन-सकिनाशम् अन्तवनात् , ' इह भवे' अस्मिन् भये प्रत्यक्ष जन्म, तस्मात् 'एगे भवे' एक एव भवजन्म नान्यो लोकः, 'तस्स पिप्पणासमि' तस्य विपणागे सति तस्य शरीरस्य विनाशे सति ' सब्यनासोत्ति' सर्वनाशइति नाऽन्माऽनशिप्पते नाऽ पि च शुभाशुभरूपंफर्म । एउक्तरीत्या ' जपति ' जल्पन्ति कथयन्ति तज्जीवतच्छरीरवादिनः । नास्तिकादारभ्य तन्नीपतच्छरीरवादिपर्यन्ताः सर्वे 'मुसा वाई' मृपारादिनः सन्ति ॥ १०४ ॥ पुनरप्याह-वम्हा' इत्यादि। मूलम्-तम्हा दाणवयपोसहाणं तवसंजमवंभचेरकल्लाणमाईयाण नस्थिफल, नवि च पाणवहे अलियवयणं न चेव चोरककरणं परदारसेवण वा सपरिग्गहपावकम्मकरणं पि शरीर को ही जो जीव मानने वाले हैं उनका ऐसा कहना है कि यह उत्पत्तिमान होने से सादि है और अन्तवाला होने से विनाशसहित है। (इहभवे एगे भवे ) इस भव मे जो इसका जन्म है वही इसका भव है, इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा इसका भव-जन्म नहीं है, क्यों कि (तस्स विप्पणासम्मि सन्चणासोत्ति) जय इस शरीर का विनाश हो जाता है तब इस जीच का सर्वनाश हो जाता है फिर इसका अस्तित्व ही नहीं रहता है, शुभ और अशुभ कर्म कुछ भी नहीं रहते हैं। (एव) इस तरह नास्तिक वादी से लेकर शरीर को ही जीव मानने वाले ये सब ही (मुसावाई ) मृषावादी (जपति ) कहते है । अर्थात् ये सब मृपावादी हैं । सू-४॥ જીવ માનનારા છે તેમનુ એવુ કહેવુ છે કે તે ઉત્પત્તિવાળુ હેવાથી સાદિ (सिडितनु) छ भने अन्तवाणु डापाथी विना युत्त (सान्त)छे " इह भवे एगे भवे " मा भन्भमा २ तेना भछ, ते ४ तनो ભવ છે, તે ઉપરાંત બીજે કઈ પણ તેનો ભવ—જન્મ નથી, કારણ કે " तस्स विप्पणासम्मि सव्वणासोत्ति" न्यारे . ! नाश थाय छत्यारे આ જીવનો પણ સર્વનાશ થઈ જાય છે–પછી તેનું અસ્તિત્વ જ રહેતું નથી, ભ અને અશુભ કર્મ જેવુ કઈ પણ રહેતુ નથી “ga” આ રીતે નાસ્તિક पाथीभाई शरीरने माननार ते अधाने “मुसावाई" भृषावाही "जपति" छे मेटले त मधा असत्य वहनार छे ॥ २-४॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ५ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् युक्ता । यतो हि स्वभारत एव कुतोऽपि किञ्चिदुत्पयते, न तर कारण विशेष नियम माहात्म्यमन्यथा कथ चेतनान्मनुष्यादेचेतन कामत्कुणादिक चेतनादचेतन मूत्रपुरीपादिकम्, अवेतनात् काठाचेनन घुणकीटादिकम् , अवेतनात्काष्ठादचेतन चूर्णादिक च जायते । नहि अचेतनस्य चेतनकारणता चेतनस्य चाचेतन कारणता युक्ता । तस्माज्जन्यजनक मारमानमेोत्पद्यमाना नामर्यानामम्ति नान्यो मातापितृपुत्रादि विशेष इति । मृपावादिता तु जन्यजनकभारस्य सर्वेषु तुल्यत्वेऽपि मातापित्रोरत्यस्थान में गमन करना नहीं है, (अम्मा पियरो नत्यि) माता पिता भी नहीं है-उत्पत्ति मात्र कारणता को लेकर मातृत्व पितृत्व की कल्पना युक्त नहीं है क्यों कि स्वभाव से ही चाहे जिससे चाहे जो उत्पन्न हो जाता इसमें कारणविशेष के नियम की कोई महत्ता नहीं है। यदि ऐसी यात मानी जावे नो फिर जो चेतन मनुष्यादि से चेतन का मत्कुण आदि उत्पन्न होते देखे जाते है चेतन से अचेतन मन पुत्र पुरिप आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं, अचेतन घुण कोट आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं, अचेतन काष्ठ से अचेतन चूर्ण आदि होते देखे जाते हैं सो ये सब कैसे उत्पन्न हो सकेंगे, क्यों कि अचेतन चेतन को चेतन के प्रतिकार णता नहीं होती है और चेतन को अचेतन के प्रतिकाणता नहीं होती है. इसलिये उत्पन्यमान पदार्थों में केवल जन्य जनक सवध मात्र ही सापेक्ष होता है-मातृत्व पितृत्व आदि सबध रिशेप नहीं । इस प्रकार के कथन में भी मृपावादिता इस प्रकार से आती है यद्यपि जन्य जनक सिद्धिस्थानमा अमन ४२वानु नथी, "अम्मापियरो नत्थि" माता पिता ५y નથી,-ઉત્પત્તિમાત્ર કારણતાને લઈને માતૃત્વ પિતૃત્વની કલપના એગ્ય નથી કારણ કે સ્વભાવથી જ જે ઈચ્છે છે તે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે–તેમા કેઈ કારણ વિશેષના નિયમનુ મહત્વ નથી જે એવી વાત માની લેવામાં આવે તે પછી ચેતન મનુષ્ય આદિથી ચેતન જ માકડ આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, ચેતનથી અચેતન મૃત્ર, મળ આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, અચેતન કાઠમાથી ચેતન કીડા આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, અચેતન કાષ્ઠમાથી અચેતન લાકડાનો વહેર આદિ થતા જોવામાં આવે છે તે બધુ કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય ? કારણ કે અચેતનને ચેતનના પ્રત્યે કારણતા હોતી નથી અને ચેતનને અચેતનના પ્રત્યે કારણતા હોતી નથી, તેથી ઉત્પન્ન થતા પદાર્થોમાં કેવળ જન્ય જન સ બ ધ જ સાપેક્ષ થાય છે-માતૃત્વ પિતૃત્વ આદિ વિશિષ્ટ સબ ધ નહીં તે પ્રકારના કથનમાં પણ મૃષાવાદિતા એ રીતે આવે છે જે કે જન્ય Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - रूपत्वे जीररूपत्वमपि स्पष्टमेव स्यात्, समापन संपामेक-वान् तया च एकस्मिन् कार्यकारणभारस्य निरूपणाऽसम्भवानरकाढिपिचिरता निफारणा स्यात् न च किमपि निष्कारण भवति, तथा सति घटपटादेरपि निकारणता स्यादित्येतेषा मृपारादित्व सुव्यक्तमेव । 'न देखलोगो मा अत्यि' न देवलोको वाऽस्ति । 'नय अत्यि सिद्धिगमण' न चास्ति सिदिगमनम् । 'अम्मापियरो नत्यि' अम्मापितरौ न स्तः, उत्पत्तिमानकारणलेन मातापितृत्व कल्पना न एक रूप ही हैं, तथा प्राणातिपात आदि से जनित कर्म ये भी मब स्व भावरूप हैं। इस प्रकार सर में एक स्वभावरूपता मानने पर इन प्राणा तिपात आदिकों में जीररूपता की प्रशक्ति आ जाती है, क्यों कि सब में भी एक स्वभावरूपता का सद्भाव पाया जाता है। इस तरह होने पर किसी एक में भी कार्यकारण भाव का निरूपण असभव बन जाता है, अतः नरकादिरूप विचित्रता निप्फारणक ठहरती है, परन्तु विचार करने पर यह विचित्रता निष्कारणफ तो है नहीं। यदि इसे निष्कारणक माना जावे तो घट पट आदि रूप जो यह पदार्थो मे विवि व्रता है उसे भी अथवा घट पट आदि जो पदार्थ है उन्हें भी निष्कार णक ही मानना पड़ेगा परन्तु ये सब निष्कारणक नहीं हैं,-सकारणक है। इस तरह सकारणक होने पर भी इन्हें निष्कारणक करना, असत्यभा पण ही है, और यह इनका इस रूप से स्पष्ट ही है। इसी तरह (न देवलोगो वाअत्थि) देवलोक नहीं है, (न य अस्थि सिद्धिगमण) सिद्धि રૂપ જ છે, તથા પ્રાણાતિપાત આદિ અને પ્રાણાતિપાત આદિ વડે ઉપાર્જિત કર્મ એ બધુ સ્વભાવરૂપ છે. આ રીતે બધામાં સ્વભાવરૂપતા માની લેવામાં આવે તે તે પ્રાણાતિપાત આદિમાં જીવરૂપતાની પ્રસિદ્ધિ આવી જાય છે, કારણું કે સીમા એક સ્વભાવરૂપતાને સદૂભાવ જણાય છે. આમ હોય તો કઈ એકમાં પણુ કાર્યકારણે ભાવનું નિરૂપણ અસભવિત બની જાય છે, એ રીતે તે નરકા દિપ વિચિત્રતા નકામી કરે છે, પણ વિચાર કરવામાં આવે છે તે વિચિત્રતા નકામી તે નથી જે તેને નકામી માનવામા આવે તે પદાર્થોમાં ઘટ-ઘડે, પટ આદિરૂપ જે વિચિત્રતા છે તેને પણ અથવા ઘટ પટ આદિ જે પદાર્થો છે તેમને પણ નકામા માનવા પડશે, પણ તે બધા નિષ્કારણ-નવામાનથી, સકા રણક છે આ રીતે સકારણઃ હવા છતા પણ તેને નિષ્કારણક કહેવી તે અસ ત્યભાષણ જ છે અને તે વાત ઉપર સમજાવ્યા પ્રમાણે સ્પષ્ટ જ છે એ જ प्रभारी न देवलोगो वा अस्थि " पता नथी, "न 7 for मिलिगम" Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुदशिनी टीका अ० २ सू० ५ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् युक्ता । यतो हि स्वभावत एव कुतोऽपि फिश्चिदुत्पद्यते, न तर कारण विशेष नियम माहात्म्यमन्यथा कथ चेतनान्मनुप्यादेवेतन युकामत्कुणादिक चेतनादचेतन मूत्रपुरीपादिकम्, अचेतनात् काठाचेतन घुणकीटादिकम् , अचेतनाकाष्ठादचेतन चूर्णादिक च जायते । नहि अचेतनस्य चेतनकारणता चेतनस्य चाचेतन कारणतायुक्ता। तस्माज्जन्यजनक मारमानमेोत्पधमाना नामनामस्ति नान्यो मातापितृपुत्रादि विशेष इति । मृपावादिता तु जन्यजनकभाषस्य सर्वेपु तुल्यत्वेऽपि मातापित्रोरत्यस्थान में गमन करना नहीं है, (अम्मा पियरो नत्यि ) माता पिता भी नहीं है-उत्पत्ति मात्र कारणता को लेकर मातृत्व पितृत्व की कल्पना युक्त नहीं है क्यों कि स्वभाव से ही चाहे जिमसे चाहे जो उत्पन्न हो जाता इसमें कारणविशेष के नियम की कोई महत्ता नहीं है। यदि ऐसी चात मानी जावे नो फिर जो चेतन मनुष्यादि से चेतन यूका मत्कुण आदि उत्पन्न होते देखे जाते है चेतन से अचेतन मत्र पुत्र पुरिप आदि उत्पन्न होते देखे जाते हैं, अचेतन घुण कीट आदि उत्पन्न होते देखे जाते है, अचेतन काष्ठ से अचेतन चूर्ण आदि होते देखे जाते है सो ये सब फैसे उत्पन्न हो सकेंगे, क्यों कि अचेतन चेतन को चेतन के प्रतिकार णता नहीं होती है और चेतन को अचेतन के प्रतिकाणता नहीं होती है. इसलिये उत्पद्यमान पदार्थों में केवल जन्य जनक सवध मात्र ही सापेक्ष होता है-मातृत्व पितृत्व आदि सध विशेप नहीं । इस प्रकार के कथन में भी मृपावादिता इस प्रकार से आती है यद्यपि जन्य जनक सिद्धिस्थानमा समान ४२वानु नथी, “ अम्मापियरो नत्थि" भाता पिता पy નથી,-ઉત્પત્તિમાત્ર કારણતાને લઈને માતૃત પિતૃત્વની કલ્પના નથી કારણ કે સ્વભાવથી જ જે જે છે તે ઉત્પન્ન થઈ જાય છે–તેમા કેઈ કારણ વિશેષના નિયમનું મહત્વ નથી જે એવી વાત માની લેવામા આવે તે પછી ચેતન મનુષ્ય આદિથી ચેતન જ માન્ડ આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, ચેતનથી અચેતન મૃત્ર, મળ આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, અચેતન કાષ્ઠમાથી ચેતન કીડા આદિ ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે, અચેતન કાષ્ઠમાથી અચેતન લાકડાને વહેર આદિ થતા જોવામાં આવે છે તે બધુ કેવી રીતે ઉત્પન્ન થાય ? કારણ કે અચેતનને ચેતનના પ્રત્યે કારણતા હોતી નથી અને ચેતનને અચેતનના પ્રત્યે કારણતા હોતી નથી, તેથી ઉત્પન્ન થતા પદાર્થોમાં કેવળ જન્ય જનક સ બ ધ જ સાપેક્ષ થાય છે-માતૃત્વ પિતૃત્વ આદિ વિશિષ્ટ સબધ નહીં તે પ્રકારના કથનમાં પગ મૃષાવાદિતા એ રીતે આવે છે જે કે જન્ય Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणले न्तहितसाधनत्वेन विशेषत्वात् । समानाद निरूप्य नियतिवादमाह-नापि 'पुरिसकारो' पुरुषकार उद्योगो नास्ति, भाग्याधीनसालार्थसिद्धे, उद्योगस्य सुखादिसाधनत्वे सति कोऽपि जगतीतले दुःखी स्यान्, दृश्यन्ते हि उद्योगिनो दुःखिनो वहा इति न पुरुपकारोऽर्थ साधनमिति मारः। ____ अस्य मृपाल तु मिद्धमेव लोके अग्रे समुपस्थितस्यापि भोज्यस्य नहि हस्तो. घोगमन्तरा भोजन सम्पद्यते अतएव कीटेप्वपि भोज्यानयनादौ प्रत्तिदृश्यते इत्याकीटप्रसिद्धस्य पुरुपकारस्यापलापेन प्रमाणातीत नियतिमतस्वीकारात् । 'पञ्चभाव समस्त पदार्थो में तुत्यरूप में है फिर भी मातृत्व पितृत्व सयध माता पिता मे अत्यन्त हित के साधकका रोने से एक विशेष समय है। अब सूत्रकार स्त्रमावादका निरूपण कर नियतिवाद का निरूपण करते हैं-(न वि अत्वि पुरिसकारो) सफल कार्यो की सिद्धिएक भाग्य के ही आधीन होती है इसलिये उद्योग नामकी कोई वस्तु नहीं है। यदि उद्योग को सुखादि कार्य साधक माना जावे तो दुनिया मे कोई व्यक्ति दुःखी नहीं होना चाहिये परन्तु ऐसा नहीं है-अनेक उद्योगी दुःखी देखे जाते है, इसलिये पुरुषार्थ-अर्थ साधक नहीं होता है। भाग्य ही अर्थ साधक है ऐसा नियतिवाद भी मृपावादरूप इमलिये है कि हम लोक में यह प्रत्यक्ष में देखते है कि आगे रखा हुआ भी भोजन जबतक हस्तोद्योगरूप पुरुषार्थ से सबंधित नही किया जाता है तबतक वह मुंह में नहीं आता है। इसलिये कीट आदि में भी अपने भोज्य पदार्थ के पदार्थ को लाने रूप पुरुषार्थ की प्रवृत्ति देखी जाती है । इस જનક ભાવ જો કે સમસ્ત પદાર્થોમાં તૂટ્યરૂપે છે છતાં પણ માતૃત્વ પિતૃત્વ સ બ ધ માતા પિતામાં અત્યંત હિતને સાધક-કર્તા હોવાથી એક વિશિષ્ટ સ બ ધ છે स्वलावयानु नि३५९] ४शन वे सूत्रधार नियतिपातु नि३५ २ छ-"न वि अस्थि पुरिसकारो' सपणा भनी साता से मात्र सायने । साधान હોય છે, તેથી ઉદ્યોગ નામની કોઈ વસ્તુ નથી જે ઉદ્યોગને સુખાદિની પ્રાપ્તિનું સાધન માનવામા આવે તે દુનિયામાં કોઈ જીવ દુખી હૈ જોઈએ નહીં, પણ એવી પરિસ્થિતિ હતી નથી–અનેક ઉદ્યોગ જીવો પણ દુખી દેખાય છે, તેથી પુરૂષાર્થ, અર્થસાધક નથી ભાગ્યે જ અર્થસાધક છે એ મત ધરાવતી નિયતિવાદ પણ એ કારણે મૃષાવાદ છે કે આપણી નજર સમક્ષ મૂકેલું ભજન પણ જ્યા સુધી હાથ વડે ઉદ્યોગ – પુરૂષાર્થ ન કરવામા આવે ત્યાં સુધી મા જતુ નથી તે કારણે જ એમાં પણ પિતાના ભજન માટેના પદાર્થો લાવવાના પુરૂષાથની પ્રવૃત્તિ જોવા મળે છે. આ પ્રમાણે મા Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०२ सू० ५ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् क्खाणरवि नत्यि' प्रत्याख्यान सारधर्मनिवृत्तिलक्षणमपि नास्ति धर्मस्याभावे तत्माधनस्य प्रत्यारयानस्याप्यभावः । अस्य मृपात्व, सर्वज्ञ वचनविरोधात् । 'न वि अस्थि' नापि च स्तः 'कालमच्च' कालमृत्यू-काल =भूतभविष्यद् वर्तमान लक्षणः कालः मृत्यु -मरण च । अथवा नापि चास्ति कालमृत्युःकाले आयुप्यकर्मदलिकक्षयाऽजसरे मृत्युमरणम्। 'अरिहता' तथा अर्हन्तस्तीर्थकराः 'चकवट्टी' चक्रवर्तिनः बलदेवा पामुदेवा पा न सन्ति प्रमाणाभावात् । नापि सन्ति 'के' केपि-गौतमादय , 'रिसओ' ऋषयः शमदमसयमाद्यनुष्ठानपरायणाः ऋपयो तरह कीटतक मे प्रसिद्ध पुरुपार्थ का अपलाप कर केवल प्रमाणातीत नियतिवाद स्वीकाराई कैसे हो सकता है। पुरुषार्थ का त्यागकर इसकी स्वीकृति से तो मृपावादिता ही इसमे आती है। (पच्चक्खाणमवि नधि ) सावद्यकर्मों से निवृत्ति होनी इसका नाम प्रत्याख्यान है। यह कहना कि धर्म के अभाव मे धर्म के साधनभूत प्रत्यारयान का भी अभाव है ! सो यह कथन भी मृपावादरूप इसलिये है कि इसमें सर्वज्ञ के वचन से विरोध आता है ! तथा ( न वि अस्थि कालमच्चू य ) इस प्रकारकी मान्यता कि-भूत, भविष्यत् और वर्तमानकाल नहीं है,मरण भी नहीं है, अथवा आयुकर्म के दलिकों के क्षय होने के अवसर में भी मरण नहीं होता है, ( अरिहता चकवट्टी, पलदेवा वासुदेवा नस्थि) अर्हन्त-तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव ये सब प्रमाण के अभाव से कोई भी नही हुए है और ( नेवत्थि के इरिसओ) न गौतम आदि ऋपि ही हुए है, क्यों कि-शम, दम, सयम आदि अनुष्ठानों में परायપણ પ્રસિદ્ધ પુરૂષાર્થનું આરોપણ કર્યા પછી પ્રમાણાતીત નિયતિવાદ કેવી રીતે સ્વીકાર્ય બની કે પુરૂષાર્થને ત્યાગ કરીને તેની સ્વીકૃતિ કરવામા તે મૃષા पाहिती १ २ छे “ पचरखाणमवि नत्थि " सावध उर्भा- पाथी निवृत्त થવુ તેનુ નામ પ્રત્યાખ્યાન છે એમ કહેવું કે ધર્મના અભાવે ધમ ના સાધ નરૂપ પ્રત્યાખ્યાનને પણ અભાવ છેએવુ કથન પણ તે કારણે મૃષાવાદરૂપ छ उ तेभा सजना वयनाने विशेष थाय छे तथा " न वि अस्थि काल मच्चू य" 20 t२नी मान्यता है भूत, भविष्य मने वर्तमान नथी, भरण પણ નથી, અથવા આયુ કર્મના સમૂહને ક્ષય થવાને અવસર આવે તો પણ म२५ थतु नथी, “अरिहता चक्वट्टी, बल्देवा वासुदेवा नथि" प्रमाणुना અભાવે, અહંન્ત-તીર્થકર, ચકવતી બળદેવ, વાસુદેવ વગેરે કોઈ પણ થયા नथी अने" नेवत्थि के इरिसओ" गीतम. माहि ऋषि थया नथी, ४२६Y 3શમ, દમ સચમ આદિ અનુષ્ઠાનમાં પરાયણ હોય તે જ વ્યક્તિને ત્રાષિ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ELEELPEEEEEEEE १९२ प्रभज्याकणसरे विवक्षिताः स्न्नुि शमदमादेस्तुत्वामान तस्यानुष्ठानता ऋपिस्वमिदिः । नेद सत्य, शास्त्राध्ययनशिष्यशिक्षापरम्पराऽनादिममाहस्याईदायभारे उन्छेद प्रसगात् । 'धम्माधम्मफल वि' धर्माधर्मफरमपि = देवठोकनरकादिमाप्तिलक्षणं किश्चित् 'यहुय' पारम् अधिक 'थोरया' स्तोरमल्प नास्ति, धर्माधर्मयो प्रत्यक्षत्वेन वस्तुत्वामागत् 'तम्हा' तस्मात् न किमपि मुझतादिकमिति एवं 'जाणिऊण' ज्ञात्वा 'जहा' यथा येन केनापि मकारेण मुबह-अत्यन्तम् 'इदियाणुकूलेसु' इन्द्रियानुकूलेपु-श्रीगादीन्द्रियमियेपु ' सबपिमएम' सर्पविषयेषुणभूत व्यक्ति ही ऋपि कहलाते हैं, किन्तु शम, दम आदि ही जय वस्तु भूत-वास्तविक-नहीं है तो फिर इनके अनुष्ठान करने वलो में ऋपित्व की सिद्धि कैसे हो सकती है-मृपावादरूप ही है-सत्य नहीं है, कारणशानाध्ययन, शिष्यशिक्षा आदि का जो यह अनादिकाल से परम्परारूप से प्रवाह चला आ रहा है पर यदि तीयकर आदि न हुए रोते तो उच्छेद को प्राप्त हो जाता। इसी तरह से (धम्माधम्म फल विन अस्थि रिचिवय वा थोव वा) जो और यह कि-"धर्मका फल स्वर्गादि की प्राप्ति और अधर्म का फल नरक आदि की प्राप्ति होना यह न थोड़े रूप में है और न बहुत रूप में है, क्यों कि धर्म और अधर्म ये अप्रत्यक्षभूत है अतः इनमें वस्तुतः-अर्थ क्रिया कारित्व का अभाव है । (तम्हा) इसलिये जय पुण्यपाप आदि कोई वस्तुभूत पदार्थ है ही तर ( एव जाणिऊण) ऐसा समझकर (जहा ) जिस किसी भी तरह से (सुबह इंदियाणुकलेसु) इन्द्रियो को अत्यन्त प्रिय लगने वामे (सविसएस) કહેવાય છે, પણ શમ, દમ આદિ જ જે વાસ્તવિક ન હોય તે તેનું અનું ઠાન કરનારમાં વિત્વની સિદ્ધિ કેવી રીતે સંભવી શકે છે–એ તો મૃષાવાદ રૂપ જ છે–સત્ય નથી, કારણ કે શાસ્ત્રાધ્યયન, શિષ્યશિક્ષા આદિને જે પ્રવાહ અનાદિકાળથી પરપરા રૂપે ચાલ્યો આવે છે તે જે તીર્થકર આદિ થયા ન डात तो अच्छे-नाश पाभ्यो डात मे प्रमाणे “धम्माधम्मफल विन अस्थि किचि-बहुय वा थोव वा" जी ॥ ५॥२नी मान्यता है " धनु ફળ સ્વર્ગાદિની પ્રાપ્તિ અને અધર્મનું ફળ નરકાદિથી પ્રાપ્તિ તે ચેડા કે વધારે પ્રમાણમાં અસ્તિત્વ ધરાવતું નથી, કારણ કે ધર્મ અને અધર્મ અપ્રત્યક્ષભૂત छ तथा तमनामा पस्तुत्व-र्थ लिया रिस्पना मना छ " तम्हा" तेथी a पुन्य५५ मा6ि 18 वस्तुभूत यहा छ १ नहीं " एव जाणिऊण" से समलने ' जहा " आई पY प्रारे " सुबहु इदियाणुकूलेसु" धन्द्रियोन मत्यन्त प्रिय लागे तेवा " सव्वविसएसु" शाह सपा विषयमा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शितटीका अ० २ ० ५-६ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् शब्दादिपु 'बट्टेह' वर्तध्व शमादीन् सर्वविषयान् यथेच्छमुपभुध्वम् , 'नत्थि' नास्ति 'काइ ' काचिदपि 'किरिया अफिरिया पा' क्रिया = तत्र - सक्रिया शास्त्रोक्तानुष्ठानरूपा । अक्रिया अमलिया सावधकर्मानुष्ठानस्पा, आस्तिक कल्पितेनाप्रमाणत्वात् , एव 'नत्यिकवादिणो' नास्तिकमादिनः 'वामलोगवादी! वामलोकवादिनश्च भणन्ति कथयन्ति ॥ स० ५॥ पुनरपि तानेवाद-उमपि ' इत्यादि मूलम्-इमंपि विइय कुदसणं असम्भाववाइणो पण्णति मूढा संभृओ अडकाओ लोगो सयभुणा सय च निम्मिओएवं एय अलिय पय पति ॥ सू० ६॥ टोका-इदमनुपदरल्यमाणमपि 'विदय' द्वितीय 'कुदसण' कुदर्शन = कुत्सित दर्शन असत्यसिद्धान्तम् ' असम्भावधाइणो' असदारवादिनः = अमन्तो भावाः येषा ते तथा ते च ते पादिनस्तथा मृढा ‘पणति' प्रज्ञापयन्ति यत् शब्दादि सय विपयों में ( वह ) इच्छानुसार प्रवृत्ति करते रहना चाहिये। (नत्थि काड किरिया अकिरिया वा) शास्त्रोक्तअनुष्ठान रूप न कोई क्रिया-सत्किया है और न सावद्यकर्मानुष्ठान रूप कोई अक्रियाअसक्रिया है तो केवल आस्तिकवादियों की कोरी कल्पनाएँ हैं। इनमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है । (नधियवाइणो वामलोगवाई ) नास्तिकवादी और वामलोकवादी (एव भणति ) इस प्रकार करते है वह सय कथन मृपावादरूप है ॥ ५॥ फिर कहते है-'इम पि पिडय' इत्यादि। टीसरार्थ-अनुपद वक्ष्यमाण (इमपि विडय) यह दूसरा कुदर्शन भी कि जिसे ( असम्भाववाहणो ) असद्भाववाढी तथा (मूढा ) मूढजन "वट्टेह " आनुमा२ प्रवृत्ति या वीमे “ नथि काइकिरिया अफिरिया वा" श्रोत मनुष्ठान३५ 35 ठिया मत उिया नथी, साधर्मानुष्ठान રૂપ કોઈ અક્રિયા અસલ્કિયા નથી, તે તો કેવળ આસ્તિકવાદીઓની ખાલી ક૬૫नाम छ तमा ५६ वास्तविsता नथी" " नत्यियवाइणो वाम लोगवाई" नातिवादी आने वामनावाही " एर भणति" ते २ मा उ छ, તે તેમનું કથન મૃષાવાદ છે કે સૂ–પ છે जी छ-इम पि विइय " त्या थ-नीय प्रमाणुनु "इम पि बिइय" मी पुन २ " असम्भावयाइणो" असहमावाही तथा "मूढा" मूढ as "पण्णवे ति" ५३पित ४२ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ प्रश्नव्याकरणस्ने 'लोगो' लोका=पृथिव्यप्तेजोवाननस्पतितिर्यइनरामरनारकरूपः, ' अडकाओ' अण्डकात् ' सभृओ ' सभूतः = उत्पन्नः तत्र अण्डकोभूतलोम्यादिना मतमित्थ यत् पूर्वं पृथिव्यादिपञ्चभूतरहित जगत् केवल जन्मयमासीत् तत्र महदण्ड चिरकाल विक्ले दिन सत् स्फुटितद्विधानात पृथिवीरूपम् आकाशस्प च, छत्र सुरासुरनारकतिर्यग् रूप जगत् सर्वे समुत्पनमित्येवमण्डका सृष्टिः । ' सर्य भुणा' स्वयम्भुवा चन्नह्मणा 'सय' स्वय ' निम्मिओ' निर्मितः निष्पादितः इति केचित् ब्रुनन्ति । तथाहि दृश्यमान - जगदुत्पत्तेः पूर्वं पृथिव्यादि पञ्चभूतरहित विनष्ट स्थावरजद्गमामरनरगन्धर्वयक्षराक्षस किन्न र गरुडमहोरगादि सकलनिविध (पण्णवेंति) प्ररूपित करते हैं, मृषावारूप यह दर्शन यह है- (लोगो अडकाओ सभूओ ) यह पृथिवी अपू, तेज, वायु वनस्पति, तिथेच, मनुष्य, देव, नारकरूप लोक अडे से उत्पन्न हुआ है । अडे से लोक को उत्पन्न हुआ मानने वालो का मत इस प्रकार है यह लोक पहले पृथिवी आदि पाँचभूतों से रहित था, और केवल जलमय ही था । इसमें एक चिरकाल से गीला अडा पड़ा हुआ था, जब वह फटा तो इसके दो टुकडे हुएएक टुकडा पृथिवीरूप हुआ और दूसरा टुकडा आकाशरूप हुआ- पृथिवी रूप टुकडे में मनुष्य, तिथेच, नारक आदिरूप तथा आकशरूप टुकडे में सुर असुर आदिरूप समस्त जगत् उत्पन्न हो गया । इस तरह अडे से यह सृष्टि हुई वे कहते है | ( सयभ्रूणा सय च निम्मिओ) कोई २ ऐसा भी कहते हैं कि यह जो दृश्यमान जगत् है वह उत्पत्ति से पहिले पहिले पृथिवी आदि पचभूतों से रहित था। इसमें स्थावर, जगम, अमर, छे ते भृषावाहय दर्शन मा अभाषेनु छे - " लोगो अडकाओ सभूओ " मा पृथ्वी, अधू, तेन वायु, वनस्पति, तिर्यय, मनुष्य, देव ने नार९३५ सोअ ઈંડામાથી ઉત્પન્ન થયા છે. ઇંડામાથી સૃષ્ટિ ઉત્પન્ન થયેલ માનનારની આ પ્રકા રની માન્યતા છે આ લેકે પહેલા, પૃથિવી આદિ પાચ ભૂતાથી રહિત હતા અને ફક્ત જળમય જ હતેા તેમા એક ચિરકાળથી ભીનુ ઈંડુ પડેલું હતુ જ્યારે તે ફાયુ ત્યારે તેના બે ટુકડા થયા-એક ટુકડા તે પૃથિવીરૂપ થયા અને ખીન્ને ટૂકડા આકાશરૂપ થયેઃ પૃથિવીરૂપ ટુકડામા મનુષ્ય, તિર્યંચ, નારક આદિ રૂપ તથા આકાશ રૂપ ટુકડામા સુર અસુર આદિ રૂપ સમસ્ત સૃષ્ટિ ઉત્પન્ન થઈ ગઈ આ રીતે ઇડામાંથી સૃષ્ટિ ઉપન્ન થયાનુ તેએ દર્શાવે છે " सयभुणा सय च निम्मिओ" अा अा शेवु पायु उहे छे हैं या ने भगत नमरे पडे છે તે ઉત્પત્તિ પહેલા પૃથિવી આદિ પાચ ભૂતાથી રહિત હતુ તેમ IN , Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्दाशनी टीका अ० २ सू० ६-७ नास्तिकवादिमतानरूपणम् भेद केवलमर्णवस्वरूप तमोभूतमासीत् , तत्र-तपस्तप्यमानस्य शयानस्य विभोभगवतो नाभेः कमलमुदपद्यत, तत्र ब्रह्मा समुत्पन्नस्तस्मात् मुरासरमनुजतियक् स्थावरजङ्गमभूतमभूतभेदविशेपरिशिष्ट जगदुत्पन्नम् । इति एवमुक्तरीत्या 'अलिय' अलीकम्-असत्य ‘पयपति ' प्रजल्पन्ति । एतेपामलीकत्व भ्रान्तज्ञा निभिनिरूपितत्वात् ॥ सू० ६॥ पुनरप्याह-' पयावरणा' इत्यादि । मूलम्-पयावडणा इस्सरेण य कयत्तिकेई । एव विण्हुमयं कसिणमेव य जगति केइ । एवमेके वदति मोस-एगो आया अकारगो वेदगो य सुकयस्स य दुकयस्स च करणाणि कारणाणि य सव्वहा सयहि च णिच्चो य णिकिओ निग्गुणो य अणुवलेवओ त्ति ॥ सू० ७॥ टीका-'पयावरणा' प्रजापतिना-कृतमिद जगदिति केचित् । एतदलीकता प्रमाणपादितत्वात् । तथा 'इस्सरेण' इश्वरेण च 'कयति' कृतमिति ‘केह' नर, गधर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर, गरुड, महोरंग आदि समस्त विविध भेद नष्ट थे-यह तो केवल अधकाराच्छादित अर्णव स्वरूप था। इसमें तपस्या करते हुए चिभु भगवान् की नाभि से एक कमल उत्पन्न हुआ। उस कमल में नमाजीने जन्म लिया। उनसे फिर सुर, असुर, मनुज, तिर्यंच, स्थावर आदि अनेक जीवों के भेद प्रभेद वाला यह जगत् उत्पन्न हुआ। इस प्रकार असद्भाववादियों की ये दोनों प्रकारकी मान्यताएँ भ्रान्त ज्ञानियों द्वारा निरूपित होने के कारण मृषावादरूप ही हैं।०५॥ फिरभी इन्ही को कहते हैं-'पयावडणा' इत्यादि। टीकार्य-(पयावडणा इस्सरेण य कयत्ति केइ ) कितनेक व्यक्ति १ म अमर, न२, आप, यक्ष, राक्षस, जिन२ १२, भडोरस, माहिसमસ્ત વિવિધ ક્ષેત્રનું અસ્તિત્વ ન હતુ તે તો કેવળ અધિકારથી છવાયેલ સાગર સ્વરૂપ હતું તેમાં તપસ્યા કરતા વિષ્ણુ ભગવાનની નાભિમાથી એક કમળ પેદા થયુ તે કમળમાં બ્રહ્માજીએ જન્મ લીધા, તેમણે સુર, અસુર, મનુષ્ય, તિર્યો ચ, સ્થાવર આદિ અનેક જીના ભેદ પ્રભેદથી યુક્ત આ જગત રચ્યું આ પ્રકારની અસદ્ધાવવાદીઓની તે બંને પ્રકારની માન્યતાઓ બ્રાન્તજ્ઞાનીઓ દ્વારા નિરૂપિત થયેલ હેવાથી મૃષાવાદ ૩૫ જ છે | સૂપ . Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नन्याकणसणे केचित् नैयायिका इत्यर्थः, तद् यया सित्यदुरादिफ कर्तजन्य कार्यत्वाद घटवदिति । जलवुदादी हेतौरनैकान्तिस्त्वेनास्यालीकता । एर 'फसिणमेव ' कृत्स्नमेष-सकलमेव 'जग' जगत् 'विण्हुमय' विष्णुमय = निणुस्त्ररूपमिति 'के' केचित् पदन्ति तन्मतानुयायिनः, यथा "जले विष्णु स्थळे विष्णु,-पिप्णुः पर्वतमस्तके। ज्वालामालाकुले विष्णु', सर्व विष्णुमय जगत् ॥१॥” इति । ऐसा मानते हैं कि यह जगत् प्रजापति-ब्रमाने घनाया है। कितनेक करते है कि यह जगत् ईश्वरने बनाया है सो इस प्रकार की मान्यता में अलीकता प्रमाणाधित होने के कारण आती है। तया जो नैयायिक जन ऐसा कहते हैं कि यह जगत् ईश्वर ने बनाया है, क्यों कि यह घटादिकी तरह कार्य है "क्षित्यारादिक कजन्य कार्यत्वात् घटवत्" सो कार्यत्वरूप हेतु मेंजल धुवुद आदि द्वारा अनैकान्तिक दोप आता है। इसलिये यह उनकाकथन असत्यरूप प्रमाणित हो जाता है । (एव विण्डमय कसिणमेव य जगति केइ ) इसी तरह यह सकल जगत् विष्णुमय है ऐसा भी कोई २ कहते हैं, क्यों कि उनकी ऐसी मान्यता है कि "जले विष्णुः स्थले विष्णु-विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामाला कुले विष्णुः सर्व विष्णुमय जगत ॥१॥" जल में विष्णु हैं, थल मे विष्णु है, पर्वत की चोटी ऊपर विष्णु हैं, ७७ ५ मे वियरे छ- 'पयावइणा" त्यात At--" पयावइणा इस्सरेण य कयत्ति केइ" 21 सीमे भाने છે કે આ જગત પ્રજાપતિ-બ્રહ્માએ બનાવ્યું છે કેટલાક કહે છે કે આ જગત ઈશ્વરે બનાવ્યું છે, તે તે પ્રકારની માન્યતામાં મૃષાવાદ-અસત્ય દેષ પ્રમાણબાધિત હોવાને કારણે આવે છે તથા જે નિયાયિકે એવું કહે છે કે આ જગત ઈશ્વરે मनाव्यु छ २४ ते घाना आय छ, "क्षित्यइकुरादिक कर्तजन्य कार्यत्वात् घटवत् " १३५ उतुमा मुमुक्षु द्वारा अनेतान्ति होष सावे, तेथी तभनु त ४थन मसय ३५ सिद्ध थाय छे “ एव विण्हुमय कसिणमेव य जगति केइ " . प्रमाणे मा समस्त गत विभय छ એવું પણ કેટલાક લોકો કહે છે, કારણ કે તેમની એવી માન્યતા છે કે "जले विष्णु स्थले विष्णु, विष्णु. पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णु., सर्व विष्णुमय जगत ॥१॥ જળમા વિષ્ણુ છે, સ્થળમા વિષ્ણુ છે, પર્વતના શિખર પર વિષ્ણુ છે, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनीटीका १२ सू ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् एतदलीकता प्रमाणाभावात् मातापिनादि सकलव्यवहारविच्छेदकत्वाच्च । अय वेदान्तिमतमाह-ए-अमुना प्रकारेण ऐके अद्वैतव्रह्मवादिन वदन्ति यत् 'एगो आया' एक एव आत्मा 'मोस' मृपा-जगत् मिथ्या तदुक्त "ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या" इति, उक्तश्च " एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थित । एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। " इति । तदलीकता च- सकललोकमत्यक्षभेदमूलकमुखदुःग्वधर्माधर्मादिजगद् व्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् । अधात्मार्तुत्वमतमाह-'अकारगो' अकारका अग्नि में विष्णु है, तात्पर्य यह कि यह सब जगत् विष्णुमय है ॥१॥ यह मान्यता भी अलीकस्वरूप ही है, क्यों कि इस मान्यता को सत्यरूप मे प्रमाणित करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं हैं। यदि सत्र जगत् को केवल विष्णुमय ही माना जावे तो फिर यह जो उसमे माता पिता आदि रूप समस्त व्यवहार है उसका उच्छेद प्राप्त होता है। ( एवमेगे वदति मोस एगो आया ) इसी तरह वेदान्तियों का जो यह कथन है कि एक ही आत्मा है-जगत् मिथ्या है-" ब्रह्म सत्य जगन्मिध्या । " कहा भी है " एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥,, इति। प्रत्येक प्राणी में एक ही भूतात्मा व्यवस्थित है । वही जलचन्द्र की तरह एकरूप व अनेकरूप दिखलाई देता है ॥१॥ અગ્નિમા વિષ્ણુ છે મતલબ એ કે આ સમસ્ત જગત વિગુમય ૧ આ માન્યતા પણ અસત્ય છે કારણ કે આ માન્યતાને સત્યરૂપે સિદ્ધ કરવાને માટે કોઈ પણ પ્રમાણ નથી જે સમસ્ત જગતને કેવળ વિષ્ણુમય જ માની લેવામાં આવે તે તેમાં માતા પિતા આદિ રૂપ જે વ્યવહાર છે તેનું भाउन थाय छे “ एवमेगे वदति मोस एगो आया" से प्रभारी देहान्तीઓનું આ પ્રકારનું જે કથન છે કે “આત્મા એક જ જે-જગત મિથ્યા છે" ब्रह्मसत्य जगन्मिथ्या" :धु छे "एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत्"॥१॥इति । પ્રત્યેક પ્રાણુમાં એક જ ભૂતાત્મા રહેલ છે તે જ જલચન્દ્રની જેમ એક રૂપે કે અનેકરૂપે દેખાય છે ? Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्रश्नम्याकरणसूत्रे अयमात्मा अकर्ता - पुण्यपापादोनाम् । वेदक: =भोक्ता पुण्यपापकर्मफलस्य मति विनोदयन्यायादिति भाव, तथा 'सुकयरस' सुकृतम्य - पुण्यस्य 'दुक्कयस्म ' दुष्कृतस्य पापस्य च ' सव्यहा ' सर्वथा ' ' सन्नहिं ' सर्वत्र सर्वस्मिन् काले 'कारणाणि' कारणानि=निमित्तभूतानि 'करणाणि' करणानि=नक्षुरादीनीन्द्रियाणि, नायमात्मा । अलीकताचास्य ससार्यात्मनो मूर्तत्वेन परिणामित्वेन कर्तृस्त्रोपपत्तेः तथा ' णिच्चो ' नित्य इति केचित् तदपि न युक्तम्, एकातनित्यत्वे सुख यह कथन भी मिथ्यारूप ही है, क्यों कि इसे मत्य मानने पर जो सकललोक के प्रत्यक्षभूत भेदमूलक धर्म अधर्म आदिका व्यवहार होता है उसके उच्छेद का प्रसग प्राप्त होता है । इसी तरह जो आत्मा को एकान्तरूप से अकर्त्ता मानते है ऐसे सांख्यो की यह मान्यता है कि ( अकारगो वेदगोय) यह आत्मा पुण्यपाप आदिका अकर्त्ता है, और उनके फलभूत सुख दुःख आदिका (१) प्रतिविम्पोदयन्याय से भोक्ता है । तथा कोई कहते हैं कि ( सुकयस्स दुकयस्सय सव्यहा सव्वाह कारणाणि य करणाणि) पुण्य और पाप के सर्व प्रकार से सर्वकाल में कर्त्ता निमित्तभूत क्षुरादि इन्द्रिया है । आत्मा नहीं है, यह उनकी मान्यता असत्य है, क्यों कि ससारी आत्मा कथचित् मृर्तिक है और परिणामी है इसलिये कर्तृत्व और भोक्तृत्व वन जाता है । सर्वधा अमू તે કથન પણ મિથ્યારૂપ જ છે, કારણ કે તેને સત્ય માનવામા આવે તે સમસ્ત જગતમા નજરે પડતા મૂળભૂત ભેદવાળા ધર્મ અધમ આદિને જે વ્ય વહાર થાય છે તેનુ ખડન થવાના પ્રસગ ઉપસ્થિત થાય છે એ જ રીતે આત્માને એકાન્તરૂપે અકોં માનનાર સાખ્ય મતવાદીએની એવી માન્યતા છે " अकारगो वेदगोय " मा मात्मा पुन्य पाय माहिना त नथी, अने तेभना इज३५ सुख हुम साहिनी ""प्रतिबिम्बोदय न्यायथी " लोडता है तथा अध अर्ध सोने हे छे " सुकयरस दुक्कयरस य सनहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि " પુન્ય અને પાપના સર્વ પ્રકારને કર્તા સર્વકાળે આત્મા નહીં પણ ચક્ષુ આદિ ઈન્દ્રિયા છે. તેમની તે માન્યતા અસત્ય છે, કારણ કે સ સારી આત્મા કેટલાક પ્રમાણમા મૂર્તિક છે અને પરિણામી છે, તેથી તેમા કતૃત્વ અને १ प्रतिविम्बोदय याय का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि के साथ जिस वर्णका सयोग होगा स्फटिक मणि वैमा हो वर्णका दीखने लग जाता है । ૧પ્રતિબિમ્બેન્નુય ન્યાયનુ તાત્પર્ય એ છે કે જેમ સ્ફટિક મણીની સાથે જે રગના સચેાગ થશે, એવા જ રગને સ્ફટિક મણી દેખાશે Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० २ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् दुःखबन्धमोक्षाद्यभावमसङ्गात् । निक्किओ' निष्क्रिय' गमनागमनादिक्रियावजितः सर्वव्यापित्वेनावकाशाभावात् , एतदप्यसत् , देहमानोपलभ्यमानत्वात् । 'निग्गुणो' निर्गुणः सत्वरजस्तमोगुणरहितः, 'अणुपलेवो' अनुपलेपकः = निर्लेपः सङ्गवर्जितः आत्मेति कापिलाः, उक्त च-" अमर्त्ता निर्गुणोभोक्ता, आत्मा कपिलदर्शने " इति । सत्वरजस्तमोगुणानां साम्यावस्था प्रकृतिः, सैव कर्जी, पुरुपस्तु पुष्करपलागान्चिर्लेपश्वेतनोऽकर्ता, इति साख्याना मतम् । कुदर्शनत्व तिक आत्मा में ये नही धनते हैं। (णिच्चो) कोई २ आत्मा को सर्वधा नित्य मानते है, सो आत्मा की यह नित्य मान्यता सत्य नहीं है, क्यों कि आत्मा को सर्वथा नित्य मानने पर सुख दुःख एव वध, मोक्ष आदि के अभाव का प्रसग प्राप्त होता है । (निकिओ) आत्मा को निष्क्रिय मानना इस अभिप्राय से, कि आत्मा व्यापक है और जो व्यापक होता है उसमें अवकाश के अभाव से गमनागमन रूप क्रियाएँ धन नहीं सकती है सो ऐसी मान्यता भी मृपाचादरूप ही है, कारण कि-आत्मा शरीर में ही उपलब्ध होती है अन्यत्र नही। (निग्गुणो) तथा ऐसा कहना कि “ यह आत्मा सत्त्व, रज और तमोगुण से रहित है और (अणुवलेवओ) पुष्करपलागवत् निर्लेप-सगवर्जित है । साख्यों का यही कहना है कि सत्त्व, रज और तमोगुण की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। यह प्रकृति ही करनेवाली होनेसे की है, चेतयिता-प्रकृति द्वारा किये गये कार्यों का जानने वाला पुरुपआत्मा तो कमलपत्र के तर मावी लय छे सर्वथा अभूति: मामामात अन नथी, "णिच्चो" કેઈ મતવાળા આત્માને સર્વથા નિત્ય માને છે આત્માને એ રીતે નિત્ય માનવું તે સત્ય નથી, કારણ કે આત્માને સર્વથા નિત્ય માનવામા આવે તે સુખ દુખ અને ५५ भाक्ष माहिना समाव हापानी प्रस1 उपस्थित थशे- “निकिओ"s કઈ લે આત્માને એ કારણે નિષ્ક્રિય માને છે કે આત્મા વ્યાપક છે અને જે વ્યાપક હોય તેમા અવકાશને અભાવ હોવાથી ગમનાગમનરૂપ ક્રિયાઓ થઈ શકતી નથી તે માન્યતા પણ મૃષાવાદરૂપ જ છે કારણ કે આત્મા શરી२भा क डाय , अन्यत्र जात नथी “निग्गुणो" तथा " मा मात्मा सत्त्व, २०४ भने तमाशुश्थी २हित छ" की मान्यता " अणुवलेत्रओ" तथा भण પત્ર પર રહેલા પાણીના બિંદુથી કમળ પત્ર જેમ અલિપ્ત કહે છે, તેમ આત્મા પણ તે તોથી નિર્લેપ રહે છે તે માન્યતા પણ મૃષાવાદ છે નાની એવી માન્યતા છે કે સરવ, રજ અને તમોગુણની સામ્યવસ્થાનું નામ પ્રકૃતિ છે એ પ્રકૃતિ જ કરનાર લેવાથી કત્ર છે-પ્રકૃતિ દ્વારા કરાયેલ કાર્યોને જાણનાર પુરુષ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्रभव्याकरणसूत्रे " अयमात्मा अकर्ता - पुण्यपापादोनाम् । वेदकः =भोक्ता पुण्यपापकर्मफलस्य प्रति निम्नोदयन्यायादिति भान, तथा - 'सुफयस्स' सुकृतम्य - पुण्यस्य ' दुकयस्म' दुष्कृतस्य पापस्य च सव्वहा 'सर्वथा ' ' सन्नहिं सर्वत्र सर्वस्मिन् काले 'कारणाणि' कारणानि=निमित्तभूतानि 'करणाणि' करणानि चक्षुरादीनीन्द्रियाणि, नायमात्मा । अलीकताचास्य ससार्ग्यात्मनो मूर्तत्येन परिणामित्वेन कर्तृत्वोपपत्तेः तथा ' णिच्चो ' नित्य इति केचित्, तदपि न युक्तम्, एकान्तनित्यत्वे मुख यह कथन भी मिथ्यारूप ही है, क्यों कि इसे सत्य मानने पर जो सकललोक के प्रत्यक्षभूत भेदमूलक धर्म अधर्म आदिका व्यवहार होता है उसके उच्छेद का प्रसग प्राप्त होता है । इसी तरह जो आत्मा को एकान्तरूप से अकर्त्ता मानते है ऐसे सख्यिो की यह मान्यता है कि ( अकारगो वेदगोय) यह आत्मा पुण्यपाप आदिका अकर्त्ता है, और उनके फलभूत सुख दुःख आदिका (१) प्रतिनिम्पोदयन्याय से भोक्ता है । तथा कोई कहते हैं कि ( सुकयस्स दुकयस्स य सव्वा सव्वहि कारणाणि य करणाणि) पुण्य और पाप के सर्व प्रकार से सर्वकाल में कर्त्ता निमित्तभूतचक्षुरादि इन्द्रिया हैं । आत्मा नहीं है, यह उनकी मान्यता असत्य है, क्यों कि ससारी आत्मा कथचित् मृर्तिक है और परिणामी है इसलिये कर्तृत्व और भोक्तृत्व बन जाता है । सर्वधा अमू તે કથન પણ મિથ્યારૂપ જ છે, કારણ કે તેને સત્ય માનવામા આવે તે * સમસ્ત જગતમા નજરે પડતે મૂળભૂત ભેદવાળે ધમ અધમ આદિને જે વ્ય વહાર થાય છે તેનુ ખડન થવાને પ્રમગ ઉપસ્થિત થાય એ જ રીતે આત્માને એકાન્તરૂપે અકોં માનનાર સાખ્ય મતવાદીઓની એવી માન્યતા છે " अकारगो वेदगोय " मी आत्मा पुन्य पाय आहिना उर्ता नथी, पने तेभना इज३ सुण हुअ माहिनो "प्रतिबिम्बोदय न्यायथी " लोडता छे तथा કઈ કઈ લાકા કહે છે કે “ सुकयरस दुक्कयरस य सहा सव्वहिं कारणाणि य करणाणि પુન્ય અને પાપના સર્વ પ્રકારના કર્તા સકાળે આત્મા નહી પણ આદિ ઈન્દ્રિયા છે. તેમની તે માન્યતા અસત્ય છે, કારણ કે સસારી ચક્ષુ આત્મા કેટલાક પ્રમાણુમા સ્મૃતિક છે અને પરિણામી છે, તેથી તેમા કતૃત્વ અને ލލ १ प्रतिविम्बोदय न्याय का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार स्फटिकमणि के साथ जिस वर्णका सयोग होगा स्फटिक मणि वैमा हो वर्णका दीखने लग जाता है । ૧પ્રતિબિમ્બાદય ન્યાયનુ તાત્પ એ છે કે જેમ ૨૫ના સચેાગ થશે, એવા જ રગના સ્ફટિક મણી દેખાશે સ્ફટિક મણીની સાથે જે Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका सं० २ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् २०१ इह जीनलोके 'सुरुय वा ' मुफ्त वा-सुक्रतफल-सुसमास्तिकमतेन 'दुक्य वा' दुष्कृत-दुप्फर्मफल दस वा 'दीस ' दृश्यते 'जइच्छाए' यदृच्छया-अकस्माद काकतालीयन्यायेन अवितम्तिमेव सर्व समुत्पद्यते । यथा काकागमनसमये अचुदिपूर्वक काकोपरिताल्पतन नहि काकस्यैव शुद्धिरम्तियन्मदुपरिताल निपतिप्यति, तथा तालस्यापि नायमभिमायो यदह काकोपरि पतिष्यामि, एवमेव सर्व सुखदुःसादिजातमतर्कितोपस्थितमेव न विशेपबुद्धिपर्वकम् । तदसत् इदमस्य कारणमिदमस्य कार्यमिति सकललोकप्रसिद्ध व्यवस्था पिच्छेदापत्तेः अन्यथा कय झाव कहा गया है कि (जपि किंचि पहिं जीव लोगे सुकय वा दुक्य वा दीसई ) जो कुछ भी हम जीवलोक में सुकून अथवा सुकृत का फलरूप सुख दुप्कृत अधना दुष्कृत का फलरूप दुःस दिग्वलाई देता है वह सब (जइच्छाए वा ) अकस्मात् काकतालीय न्याय से अवितर्कित ही उत्पन्न हो जाता है. जिस प्रकार उड़ता हुआ कौवा तालवृक्ष के नीचे आया और आते ही उस पर ताड का फल गिर पड़ा तो उसके इस पतन में न तो काकने ही ऐसा विचार किया कि मेरे ऊपर ताड का फल गिर पड़े, और न ताडफल ने ही ऐसा सोचा कि में काक के आते ही उस पर गिर पहूँ किन्तु यह उसका पतन अवितर्किन ही हुआ इसी तरह सुख दुख आदि जो कुछ भी होता है वह सब अतर्फित ही उपस्थित होता रहता है इसमें कर्ता कि विशेष बुद्धि पूर्वकता नहीं है। सो ऐसी मान्यता भी असत्य ही है कारण कि लोक में जो यह व्यवस्था चन रही है कि " यह इसका कारण है यह इसका कार्य है" वह सर इस प्रकार की मान्यता में विच्छेद को प्राप्त हो जावेगा। देखो जो छ । 'जपि फिचि एहिं जीपलोगे सुक्य वा दुक्य वा दोसई " 20 ONउभा જે કોઈ પણ સુકૃત અથવા સુકૃતના ફળરૂપ મુખ, દુષ્કૃત અથવા દુષ્કૃતના २॥३५ हु ना२ ५ ते या "जइच्छाए पा" २ममात् sisateीय ન્યાયે અવિતતિ જ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે જેમ ઉડતે કાગડા તાડના ઝાડની નીચે આવે અને આવતા જ તેના ઉપર તાડનું ફળ પડયું, તે તેના તે પત નમાં કાગડાએ એ વિચાર કર્યો ન હતો કે મારા ઉપર તાડનું ફળ પડે અને તાડના ફળે પણ એવો વિચાર કર્યો ન હતો કે કાગડે આવતા જ હું તેના ઉપર પડુ પણ તેનું તે પતન અવિતતિ જ થયુ હોય છે, એ જ પ્રકારે સુખ દુ ખ આદિ જે કઈ થાય છે તે બધુ અવિતતિ જ થયા કરે છે તેમા કર્તાની વિશેષબુદ્ધિ કારણરૂપ નથી તો એવી માન્યતા પણ અસત્ય જ છે કારણ કે સૃષ્ટિમાં એવી જે વ્યવસ્થા ચાલી રહી છે કે “તે આનું કારણ છે, તે આનું કાર્ય છે” એ બધાનુ તે માન્યતાથી ખડન થઈ જશે જુવો જેને તેલ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्राध्यापरकरे चास्य तथाहि-न तापनिर्गुणत्व चेतनास्वरूपसाभ्युपगमात् । अनुपलेपस्त्वमपि न पद्धमुक्तावस्था व्यवस्थापिच्छेदमसगात् ।। १०७ ॥ पुनरप्याह-'अपि य' इत्यादि मूलम्-अवि य एवमास असम्भाव जपि एहि किंचि जीवलोगे दोसई सुकय वा दुकयं वा, एव जइच्छाए वा सहावेण वावि दयिवयप्पभावओ वावि भवइ, नस्थि तत्थ किचिकयक तत्त लक्खणं विहाण नियइ कारिया एव केइ जंपति इडिरससायगारवपरावहवे करणालसा पस्वेति धम्मवीमसएणं मोस ॥ सू० ८॥ टीका-'अवि य ' अपि च एरवक्ष्यमाणरीत्या 'असम्भार ' असद्भाव 'आह मु' आहुः कथयन्ति कथमित्याह-'जपि' यदपि किंचि' किश्चित् 'पहि' समान निलिस है । अतः कहा है "अकर्ता निर्गुणो भोक्ता" आत्मा कपिल दर्शने" यह भी युक्ति युक्त नहीं है कारण आत्माको सर्वथा निर्गुण मानने पर उसमें चेतनत्व गुण का भी अभाव होने से अचेत नत्व का प्रसग प्राप्त होगा, परन्तु ऐसी बात तो वहा मानी नही गई है। क्यों कि आत्मा को चेतना गुण स्वरूप स्वीकार किया गया है । तथा पुष्कर पलाशयत् सर्वथा निर्लिप्त मानने पर उसकी जो बद्ध-ससारी और मुक्त ये जो दो अवस्थाएँ होती हैं उनकी व्यवस्था का विच्छेद प्राप्त होता है। सू-६॥ तथा-'अवि य' इत्यादि। टीकार्थ-(अवि य एव अमभाव आहत) इस प्रकार से जो अस मात्मात भणपत्र समान निर्मित छ तेथी छु छ " अकर्ता निगुणो भोक्ता आत्मा कपिलदर्शने" ते ५ युतियुत नथी, आरमात्माने सर्वथा નિર્ગુણ માનવામાં આવે તે તેમા ચેતનત્વ ગુણને પણ અભાવ હેવાથી અચે તત્વને પ્રસંગે ઉપસ્થિત થશે, પણ એમ તે ત્યા માનેલ નથી, કારણ કે આત્માને ચેતનગુણ સ્વરૂપ સ્વીકાર્યો છે તથા કમલપત્ર પર રહેલ જળબિન્દુથી અલિપ્ત કમળ જે તેને માનવામાં આવે તે તેની બદ્ધ-ન્સ સારી અને મુક્ત એ બે અવસ્થાએ જે હોય છે તેની વ્યાવસ્થાનું ખડન થશે | સૂ-દા. तथा-" अवि य" त्यादि साथ-"अवि य एव असन्भाव आइसु" म प्रमाणे Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ मुर्शिनी टीका अ०२ सू० ७ नास्तिकवादिमतनिरूपणम् तथा दैनादिनः" प्राप्तव्यमयं लभते मनुष्यः, किं कारण दैवमलदुनीयम् । __ तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीय नहितत्परेपाम् ॥" तथा नत्यि' नास्ति 'तत्य' तत्र मर्त्यलोके 'किंचि ' किञ्चित् 'कयक' कृतक-कर्मनिप्पन्न 'वत्त' तत्त्व-बस्तु । तथा 'लक्खगविहाण ' लक्षणनिधाना =पदार्थस्वरूपमझाराणा नियति भाग्यमेव 'कारिया' कारिका-कर्ती, तथा यन्न कार्यकारणभाव का विच्छेद प्राप्त होता है। अय दैववादियों का स्वरूप कहते हैं-'दवियापभावओवावि भवह' इत्यादि । दैववादियों कि ऐसी मान्यता है “प्राप्तव्यमयं लभते मनुष्यः, किं कारण दैवमलद्धनीयम् । तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे, यदस्मदीय नहि तत् परेपाम् ॥१॥" जो कुछ प्राप्त होने योग्य वस्तु है वह हमे भाग्य की कृपा से ही प्राप्त होती है। यह भाग्य अलघनीय है । अत. ऐसा समझकर कि जो हमारी है वह दूसरों की कमी नहीं हो सकती है कभी भी किसी प्राणी को शोक फिकर और आश्चर्य आदि नहीं करना चाहिये ॥१॥ ____ अतः हे भाइयो ! तुम एक मात्र दैव-भाग्य पर ही भरोसा रखो। (नत्यि तस्स किंचि कयक तत्त) रोकमें कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो कृतक हो परुषार्य रूप कर्म से प्राप्त की जा सके-ऐसी हो । इमी प्रकार (लक्खणविहाण ) पदार्यों का जितना भी कुछ अपना रूप है तथा उनके जितने भी प्रकार-भेद हैं इन सबकी (कारिया ) कारिका करने ये हैवपाहीसानु श्व३५ उ छ-" दरियप्पभावओपनि भनइ" त्याल દૈવવાદીઓની માન્યતા છે કે " प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः, किं कारण देवमलद्धनीयम् । तस्मान शोचामि न विस्मयो मे, यहम्मदीय नहि तत् परेपाम्" ॥१॥ પ્રાપ્ત થવા લાયક છે કે વસ્તુ હોય છે તે આપણને ભાગ્યની કૃપાથી જ મળે છે તે ભાગ્ય અલ ઘનીય-અફર છે જે અમારી ચીજ છે તે બીજાની કદી પણ થઈ શકતી નથી, એવુ સમજીને કદી પણ કોઈ પ્રાણીએ શેડ, ચિન્તા આશ્ચર્ય આદિ કરવા જોઈએ નહીં ? તે હે ભાઈઓ ! તમે એક માત્ર ભાગ્ય ઉપર જ વિશ્વાસ રાખે "नत्थि तरस किंचि कयक तत्त" सभा मेवा तु नयी रे इत: हाय-पायथी प्रास असहाय पी डाय गते " लसणविहाण " पहानु२४ पोतानु ३५ तथा तभना २सा - , ते पधानी "कारिया" ना-नाग " नियई " मा नियति-भाग्य-र Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ૨૦૨ १ प्रश्नध्याकरणसूत्रे तैलार्थी तिलमेवोपादद्यात् दन्यर्थी च दुग्ध, दुग्यार्थी च गाम् । अथ स्वभाववादीभाइ"कः कण्टकाना प्रकरोति तशय, पिचित्रभार मृगपक्षिणा । स्वभावतः सनमिद प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥१॥" तदप्यसत्-अत्रापि कार्यकारणव्यवस्था पिछेदात् । तैलार्थी होता है यह तिलों को ही तो ग्रहण करता है, दध्यर्थी दुग्ध को और दुग्धार्थी गाय को। यह ऐसा क्यों होता है इसलिये कि ये तिला दिक अपने २ कार्य के कारण है। अय स्वभाववादी का स्वरूप करते हैं-'सहावेण चाधि' इत्यादि । स्वभाववादी का ऐसा कहना है कि जगत् में जो कुछ होता है वह स्वभाव से ही होता है, कहा भी है "क' कण्टकाना प्रकरोति तैक्ष्ण्य, विचित्रभाव मृगपक्षिणा च । स्वभावतः सर्वमिद प्रवृत्त, न कामचारोऽस्ति कुताप्रयत्नः॥१॥" काटों में तीक्ष्णता कौन करता है ? भृगों में पक्षियों में विचित्रताकौन उत्पन्न करता है तो इसका केवल उत्तर यही है कि स्वभाव से ही यह सब कुछ होता है, इसमें कामचार-यहच्छा-कारण नहीं है और न कोई प्रयत्न ही कारण है ॥१॥ यह स्वभाववादी का कथन भी ठीक नहीं है । कारण इसमें भी જોઇતુ હોય તે તલને જ ગ્રહણ કરશે, દહીની ઈચ્છાવાળે દુધને અને દૂધની ઈચ્છાવાળે ગાયને ગ્રહણ કરશે તે પ્રમાણે થવાનું કારણ શું છે? કારણ એ જ છે કે તલ આદિ પિત પિતાના કાર્યને માટે કારણરૂપ-ઉપયોગી છે व स्वतावादीनु स्व३५ ४ छ-" सहावेण वावि "त्याह સ્વભાવવાદીનુ એવુ કહેવુ છે કે જગતમાં જે કઈ થાય છે તે સ્વભાવથી 1 थाय छ, उधु पर छ "क• कण्टकाना प्रकरोति तैष्ण्य, विचित्रभाव मृगपक्षिणा च । स्वभावतसर्वमिदं प्रवृत्त, नकामचारोऽस्ति कुत प्रयत्न."॥१॥ કાટામાં તીણતાણ કરે છે? મૃગેમા તથા પક્ષીઓમાં વિચિત્રતા કોણ ઉત્પન્ન કરે છે? તેને કેવળ એક જ ઉત્તર છે કે સ્વભાવથી જ તે બધુ થાય છે, તેમા કામચાર–તેની ઈચ્છા-તારણરૂપ નથી કે કોઈ પ્રયત્ન કારણરૂપનથી લn સ્વભાવવાદીનું તે કથન પણ બરાબર નથી કારણ કે તેમાં પણ કાર્ય કારણ કે તેમાં પણ કાર્ય-કારણભાવનું ખંડન થાય છે Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० २ सू० ७-८ अन्येपामपि मृपाभाषणनिरूपणम् तदसत्-कालन्यैव कर्तृत्वे कालमाप्तो स्त्रीश्मश्रुवन्ध्या पुत्रस्ततल्केगादीनामपि मदार स्यात् , इत्यपि मतवादिनो मिथ्या जल्पन्ति । तथा 'उडिरससायगारपरा' माद्विरससातगौरवपरा , 'हवे' वहषः जने के करणालसाःकर्तव्याचरणालसाः अनुद्योगिन' 'वम्मपीसमएण' मरिमर्शनेन-धर्मविचारेण 'मोस' पृपा-असत्य रस्तु अधर्ममपि धर्ममेव 'पति' प्रम्पयन्ति-मतिपादयन्ति ॥७ अन्येऽपि जना पथा मृपा भापगपरा भान्ति तत्मरूपपति भवरे' इत्यादि__ मूलम्-अवरे अहम्माओ राय? अभक्खाण भणति अलियचोरोत्ति अचोरिय करेंत । डामरिओ त्ति वि य एमेव उदासीण । दुस्सीलोत्ति य परदार गच्छइत्ति मइलिति सीलकलिय । अयपि गुरुतप्पओ त्ति । अण्णे एमेव भणति ___ कालवादियों की यह मान्यता असत्यरूप इसलिये है कि काल को ही कर्त्ता मानने पर स्त्री जर तम्ण अवस्था सपन्न हो जाती है तो पुरुप की तरह उसके भी दाढी मृग का आना, तथा वध्या के पुत्र होना, हथेली में बाल उगना आदि भी होना चाहिये परन्तु यह सर कुछ नहीं होता है । इसलिये ये पूर्वोक्त सर ही याद मिथ्या प्ररूपणा करते है ऐसा जानना चाहिये । (एव) इस प्रकार (केड ) कितनेक (कर‘णालसा) अपने कर्तव्य करने पर योग्य आचरण ने आलसी बने हुए, और (इडिरससायगारचपरा) ऋद्वि, रम, सातगौरव में तत्पर रहे हुए, (यह वे ) अनेक अनुद्योगी व्यक्ति (धम्म वीमसएण) धर्म के विचार से (मोस) मृपा-असत्य-अधर्म को भी धर्मरूप से (परूवेति) प्ररूपित करते हैं। सू-७॥ - શાવિત છે ટાળવાદીઓની તે માન્યતા અગત્યરૂપ તે ટાણે છે કે વાળને જ જે કર્તા માનવામા આવે તે સ્ત્રી જ્યારે તરુણ અવસ્થાએ પહોંચે ત્યારે તેને પણ પુરુષની જેમ દાઢી મૂછ આવવી જોઈએ, તથા વ વ્યાને પુત્ર થ જોઈએ, હવેલીમાં બાલ ડગવા જોઈએ, પણ તેમાનુ કઈ પણ બનતુ થી તેથી પૂર્વોક્ત से था पाई मिथ्या ३५ उरे छे गेम भान नस, "ए" से प्रभारे “के” उटसार " करणालसा" पोताना तव्य पासनमा मासु थाने भने “ इढिरससायगारपपरा" द्धि, २८ भने सात मनिभानमा रत या " हवे" भने अनुयो all "चम्मवीमसण्ण" मना स्यालथी "मोस' भूषा-असत्य-मयभन धर्म३३ “प्ररूवे ति' ५३पित ४२ छ ।सू-७॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦મ प्रश्न याकरणसूत्रे भाव्य तत् कोटियत्नैरपि न भवति यद् भाव्य तद् विनापि यत्नेन भवति, तदसत् -सकलप्रत्यक्षोद्यमादीना व्यर्थत्वापत्तेः । वा शब्देन - कालवावादयोऽपिविज्ञेयाः । तथाहि - " कालः सृजति भूतानि कालः सहरते मजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १ ॥ " बाली (नियई) यह नियति-भाग्य ही है तथा जो होने योग्य नहीं है वह करोड यत्नों से भी नहीं हो सकता है, और जो होने योग्य है वह विना यत्न के भी हो जाता है । सो इस प्रकार की दैव (भाग्य) वादियों की यह मान्यता केवल कल्पनामान है कारण इसका इस प्रकार की एकान्तत. कल्पना मानने पर सकल प्राणीयों के प्रत्यक्ष भूत उद्यमादिकों में व्यर्थता की आपत्ति आती है। 6 वा वा' शब्द से कालवादियों का स्वरूप कहते हैं - यहां शब्द से कालवाद आदि भी मृषारूप है ऐसा जानना चाहिये । कालवादियों की ऐसी मान्यता है कि " " , 11 काल : सृजति भूतानि कालः सहरते प्रजा : काल : सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥१॥ काल ही भूतों को- जीवों को बनाता है और नष्ट करता है । काल ही सोये हुओं मे जगाता है इसलिये काल दुरतिक्रम- अलधनीय है । अर्थात् - यह अविनश्वर है । 11 છે તથા જે થવા લાયક નથી તે કરોડ પ્રયત્ના કરવા છતા પણ થઈ શકતુ નથી, તથા જે થવા લાયક છે તે વિના પ્રયત્ન પણ થાય છે તે આ પ્રકારની દેવ હ भाग्य ” વાદીઓની માન્યતા કેવળ પના જ છે, કારણ કે તેમની તે પ્રકારની એકાન્તત ક પનાને માની લેવામા આવે તા સમસ્ત પ્રાણીઓના પ્રત્ય ક્ષભૂત ઉપમાદિમા વ્યČતા હાવાની આપત્તિ ઉપસ્થિત થાય છે 44 काल सृजति भूतानि, काल सहरते पजा । काल सुप्तेषु जागर्त्ति, कालो हि दुरतिक्रम " ॥ १ ॥ 66 वा " शब्दथी अगुवाहीगोनु स्व३प हे छे-अडी " वा " शब्हथी કાળવાદ આદિ પણ મૃષા-અસત્ય ૩૫ છે, એમ સમજી લેવાનુ છે કાળવાદી એની એવી માન્યતા છે કે કાળ જ ભૂતાને-જીવેાને મનાવે છે અને તેમને નાશ કરે છે કાળ જ સૂતેલાએમા જાગૃત હાય છે તેથી કાળ દુરતિક્રમ—અલ ધનીય ૐ ... એટલે કે Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिशी टीका अ० २ सू० ७-८ अ येषामपि भूपाभाषणनिरूपणम् ०५ तदसत्-कालस्यैव कर्तृत्वे कालप्राप्तौ स्त्रीश्मथुवन्ध्या पुत्रहस्ततल्केशादीनामपि सद्भाव स्यात् , इत्यपि मतवादिनो मिथ्या जल्पन्ति । तया 'इरिससायगारसपरा ऋद्धिरससातगौरवपरा, 'यहवे' यह अनेके करणालसा: कर्वव्याचरणालसा. जनुद्योगिनः 'धम्मपीसमएण' धर्मविमर्शनेन धर्मविचारेण 'मोस' मृपा-असत्य तस्तु अधर्ममपि धर्ममेव 'पति' मरूपयन्ति प्रतिपादयन्ति ॥७ अन्येऽपि जना यथा मृपा भापगपरा भनन्ति तत्मरूपयति 'अवरे' इत्यादि__ मूलम्-अवरे अहम्माओ रायद अव्भक्खाण भणति अलियंचोरोत्ति अचोरिय करेंत। डामरिओ त्ति वि य एमेव उदासीण । दुस्सीलोत्ति य परदार गच्छइत्ति मइलिति सीलकलिय । अयपि गुरुतप्पओ त्ति । अण्णे एमेव भणति कालवादियों की यह मान्यता असत्यरूप इसलिये है कि काल को ही का मानने पर स्त्री जर तरुण अवस्था सपन्न हो जाती है तो पुरुष की तरह उसके भी दाढी मृत का आना, तथा वध्या के पुत्र होना, हथेली में याल उगना आदि भी होना चाहिये-परन्तु यह सब कुछ नहीं होता है । इसलिये ये पूर्वोक्त सर ही याद मिथ्या प्रल्पणा करते हैं ऐसा जानना चाहिये । (एव) इस प्रकार (केड) कितनेक (कर‘णालसा) अपने कर्तव्य करने पर योग्य आचरण में आलसी बने हुए, और ( इडिरससायगारवपरा) ऋद्धि, रस, सातगौरव मे तत्पर रहे हुए, (बहवे ) अनेक अनुयोगी व्यक्ति ( यम्म वीमसएण) धर्म के विचार से (मोस ) मृषा-असत्य-अधर्म को भी धर्मरूप से (परूवेति) प्ररूपित करते हैं। स-७॥ - શાશ્વત છે વાળવાદીઓની તે માન્યતા અસત્યરૂપ તે કારણે છે કે વાળને જ જે કર્તા માનવામાં આવે તે સ્ત્રી જ્યારે તરુણ અવસ્થાએ પહોંચે ત્યારે તેને પણ પુરુષની જેમ દાઢી મૂછ આવવી જોઈએ, તથા વ ધ્યાને પુત્ર થવા જોઈએ, હથેલીમાં બાલ ઉગવા જોઈએ, પણ તેમાનું કઈ પણ બનતુ નથી તેથી પૂર્વોક્ત से गधा वा मिथ्या ३५॥ उरेछ ओम मानले , " एव" से । प्रमाणे “ केइ" 3215 " करणालसा" पोताना तव्य पालनमा मासु ने भने “ इड्ढिरससायगारवपरा" मद्धि, २४ भने सात मलिभानमा रत थान “वहवे" मने अनुमोका सोडी "धम्मवीमसएण" धमन भ्यासथी "मोस' भृपा-मसत्य-माने ५४ धर्म३ "प्रभवे ति" ५३पित ४२ छ ।सू-७॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्रध्याकरण उवहणंता-मित्तफलत्ताइ सेवइ । अयपि लुत्तधम्मो । इमो वि वीसंभघायओ, पापकम्मकारी अगम्मगामी । अयं दुरप्पा वहुएसु य पातगेस जुत्तो ति । एव जपंति मच्छरी भदगे वा गुणकित्तिनेहपरलोगनिप्पिवासा। एव एए अलि. यवयणदक्खा परदोसुप्पायण संसत्ता वेटतिअखडय वीएणं अप्पाणं कम्मवधगेण मुहरी असमिक्खियप्पलावी ॥सूजा। टीका-अवरे अपरे अन्ये केचित् 'अहम्माओ' अधर्मत असत्यवचनरूपमधर्म मेव स्वीकृत्य 'रायदुह' राजदुष्ट नीतिविरुद्धम्, 'अभक्खाण' अभ्याख्या नम् असत्यदोपारोपण ' अलिय ' अलीक 'मणति 'अकृतमपि कार्यकल्पयित्वा जनसमक्षे कथयन्ति । कयमित्याह-'चोरोत्ति' इत्यादिना-'अचोरियं करत' औचार्य कुर्वन्तम्-अचोरयन्त जन प्रति 'चोरोत्ति' चोर इति कथयन्ति । 'एमेव' और भी मनुष्य जिस प्रकार असत्य भापण करते हे उसीको दिख लाते हैं-' अवरे अम्माओ' इत्यादि । टीकार्थ-(अवरे ) कितनेक मनुष्य (अहम्माओ ) असत्य वचनरूप अधर्म को ही स्वीकार करके (रायदुट्ठ) नीति विरुद्ध (अभक्खाण) असत्य दोपारोपणरूप (अलिय) अलीक वचन को (भणति) करते हैं, नहीं किये गये भी कार्य को उसमे कल्पित करें जन समक्ष में कर दिया करते है कि ( अचोरिय करेत चोरोत्ति) चोरी नहीं करने वाले को भी ' यह चोर है। ऐसा कर देते है, अर्थात जिसने कभी भी चोरी नहीं की है-ऐसे पुरुष को भी चोर देते है, कह तथा ( एमेव ) इसी બીજા મનુષ્ય પણ જે પ્રકારે અસત્ય બોલે છે તે સૂત્રકાર બતાવે છે"अवरे अहम्माओ" त्यादि थ-"अवरे" उals माणुसी' 'अहम्माओ" असत्य वचन३५ भने। ११ वीर गन "रायदुव" नीतिवि३६ " अब्भक्साण " असत्य होगा। ३५ " अलिय " मी ययन। “भणति" ४ छ, न उसयस नी पy पन। उसने सोअनी समक्ष ४ह्या ४रे छ भ-"अचोरिय करेत चोरोत्ति" ચોરી ન કરનારને પણ “આ ચોર છે” એવું કહે છે એટલે કે જેણે કદિ पायाश डाय तथा पुरुषने ५ यार तरी शोभा छ, तथा " " Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिंनी टीका अ० २ सू० ८ अन्येपामपि मृपाभापणनिरूपणम् २०७ एवमेव 'उदासीण' उदासीन अविग्रहकारक तटस्थ प्रति ‘डामरिउत्ति दिय' डामरिका-विग्रहकारी-इत्यपि च भणन्ति । तथा-' दुस्सीलोति' दुश्शील इति दृष्टाचरणोऽय जन इति, 'परदार गच्छति' परदारान् गच्छति = परस्त्रीगमन करोति, इति च असत्यदूपणवचनेन 'सीयफलिय' शीलकलित-सदाचारयुक्त जन 'मलित ' मलिनयन्ति-लोके कलड्डयन्ति, 'अयपि' अयमपि अपिना पूर्वोक्तोऽपि 'गुरुतप्पो' गुरतल्पगः कलाचार्यत्रीगामि इति भणन्ति । 'अण्णे' अन्ये मृपावादिनः 'उनहणता' उपनन्तः परस्य वृत्ति कीर्ति च नाशयन्तः 'एमेव' एवमेव मणन्ति-जय 'मित्तफत्ताइ मिनकलनाणि-मुहद्दारान् ‘सेवइ' सेवते । 'अयपि ' अयमपि 'लुत्तधम्मा' लुप्तधर्मा-लुप्तो धर्मों यस्य स तथा धर्मविहीन. अस्ति । तथा ' इमो वि ' अयमपि 'विस्समवायओ' विनम्भपातका विश्वासतरह ( उदासीण ) उदासीन-तटस्थ होता है उसको (डामरिओत्तिवि य) अर्थात्-झगड़ा नहीं करने वाला 'यह डामरिक-विग्रहकारीझगडा करने वाला है' ऐसा कह दिया करते हैं । (दुस्मीलोत्ति) यह दुःशील-दुष्ट आचरण वाला है' और (परदार गच्छइ ) यह परस्त्री गामी है ' इस तरह के असत्यदोपारोपफ वचनो से (सीलकलिय) सदाचारी पुम्प को (मइलिंति) कलङ्कित कर देते है। और (अयपि गुरुतप्पओ) यह और वह भी गुरुपत्नी के साथ सहवास करने वाला है। (अन्ने ) कितनेक मृपावादीजन ( उवाहणता) परकी आजीविका एव कीति का नाश करते हुए (एमेव) इसी तरह बोलते है कि यह (मित्तकलत्ताइ सेवेह ) अपने मित्र की स्त्री को सेवन करने वाला है तथा ( अयपि ) यह (लुत्तधम्मा ) धर्म विहीन है । तथा (इमो वि) से ते “उदासीण " हासीन-२ तटस्थ ाय तेन “ डामरिओत्तिवि य" એટલે કે ઝગડે ન ડગ્નારને “આ ઝગડે કરનાર છે” એવું કહે છે તથા " दुस्सिलोत्ति" " मा हुट मायराणा छ " भने “परदार गच्छ" આ પરસ્ત્રીગામી છે” આ પ્રકારના અસત્ય દેષારોપણ યુક્ત વચનથી " सीलकलिय " सहायारी पुरुषने “ मइलिंति" ते सहित ४२ छ भने अय पि गुरुतपओ" "ते ५ शु३५त्नी साथे सहवास ४२नारे छ" थेषु मोटु होपा२१५५ ७२ छ “ अन्ने " 32s भृपावादी सोनी “उवाहणता ' अन्यनी मालवित अनातिना नाश उपाने भाटे " एमेव " ! प्रभारी माले - “मित्तकलत्ताइ सेवइ" "ते पोतानी भित्रपत्नीनु सेवन ४२ना२ " तथा " अय पि" ते “लुत्तधम्मा" धरहित छ तथा ' इमो Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभायाकरण उवहणंता-मित्तकलत्ताइ सेवइ । अयंपि लुत्तधम्मो । इमो वि वीसभघायओ, पापकम्मकारी अगम्मगामी । अय दुरप्पा बहुएसु य पातगेसु जुत्तो ति । एव जंपति मच्छरी भद्दगे वा गुणकित्तिनेहपरलोगनिप्पिवासा। एव एए अलि. यवयणदक्खा परदोसुप्पायण संसत्ता वेढेति अक्खडय वीएणं अप्पाण कम्मवधणेण मुहरी असमिक्खियप्पलावी ॥सू॥ टीका-अवरे अपरे अन्ये केचित् 'अहम्माओ' अधर्मत =असत्यवचनरूपमधर्म मेव स्वीकृत्य 'रायदुष्ट' राजदुप्टनीतिविरुद्धम्, 'अभखाण' अभ्याख्या नम् असत्यदोपारोपण 'अलिय' अलीक 'मणति 'अकृतमपि कार्यक्ल्पयित्वा जनसमक्षे कथयन्ति । कथमित्याह-' चोरोत्ति' इत्यादिना-'अचोरिय करेंत' औचार्य कुन्त अचोरयन्त जन प्रति 'चोरोत्ति' चोर इति कथयन्ति । 'एमेव' और भी मनुष्य जिस प्रकार असत्य भापण करते है उसीको दिख लाते हैं-'अवरे अहम्माओ' इत्यादि । ___टीकार्थ-(अवरे ) कितनेक मनुष्य (अम्माओ ) असत्य वचनरूप अधर्म को ही स्वीकार करके (रायदुट्ट) नीति विरुद्ध (अन्भक्खाण) असत्य दोपारोपणरूप (अलिय) अलोक वचन को (भणति) करते हैं, नहीं किये गये भी कार्य को उसमें कल्पित करें जन समक्ष में कह दिया करते है कि ( अचोरिय करेत चोरोत्ति ) चोरी नहीं करने वाले को भी यह चोर है' ऐसा कर देते है, अर्थात जिसने कभी भी चोरी नही की है-ऐसे पुरुष को भी चोर देते हैं, कह तथा (एमेव ) इसी બીજા મનુષ્ય પણ જે પ્રકારે અસત્ય બોલે છે તે સૂત્રકાર બતાવે છે" अवरे अहम्माओ" त्या साथ-"अवरे" सा भासो' 'अहम्माओ" असत्य क्यन३५ मधर्मना १ स्वी॥२ ४शन "रायदुव" नीतिवि३६ “अन्मस्साण " मसत्य हो। ३५ " अलिय " मी वयना "भणति" ४ छ, न उसय जय ना ५९ नाशन सोनी समक्ष उl उरे छ भ3-"अचोरिय करेत चोरोत्ति" ચારી ન કરનારને પણ “આ ચાર છે” એવું કહે છે એટલે કે જેણે કદિ पक्ष न्यारी उरी डाय तवा पुरुषने ५ यार त समाव, तथा “ एमेव" Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - शंनी टीका २० २ ० ८-९ यन्येषामपि मृपाभाषणनिरूपणम् २०९ वइ य पीएण' अक्षतिकीजेन-क्षय दुःसकारणेन 'इम्मवणेण' कर्मनि 'लप्पाण 'जात्मान ' वेति ' चेष्टयन्ति, नरकविगोदापनन्तदुग्यदायक गे समुपार्जयन्तीत्यर्थः । के ते? इत्याह-'मुहरो' मुखारया-मुखमेव अरि -शत्रुत्वजनकवचनभापित्वाद पा ते तथा । 'यममिवियप्पलावी' क्षितमापिनः अपिचारितानयवक्तार इति ।। मू० ८ ॥ पुनस्ते किं कुर्वन्ति ? तदाह-निक्खे' इत्यादि । मूलग-निक्खेवे अवहरति परस्स अस्थम्नि गढिय गिद्धा भिजुजंति य पर असतएहि लुद्धा य करेति कूड सरिखण, असच्चा अत्यालिय च कन्नालिय च, भोमालियं च हा गवालिय च, गरुय भणति. अहरगइ गमणं अपणं । य जाइकुलरूबसीलपच्चयमाया निगुण चवला पिसुणं रमट्ठभेदगमसंतक विदेसमणत्थकारग पावकम्ममूल दि दुस्सुय अमुणिय निल्हन लोगगरहणिज्ज वहवध रिकिलेसबहुल जरामरणदुक्खसोगनेम असुद्ध परिणाम फिलिटुं भणति ।। सू० ९ ॥ मे ही लगे हुए मृपावादी पुरुप ( अवयवीएण) अक्षतिक बीज यि दु.स के कारणभूत (कम्मरणेण ) कर्मयधन से (अप्पाण ) ने आपको (वेढेति) परिवेष्टित करते हैं, अर्थात-नरकनिगोद दे के अनत) दुखो को देनेवाले कमों को उपार्जित करते हैं। वैसे । होते है ?--(मुहरी) जिनका मुसही त्रु होता है, (असमिक्यप्पलाची ) जो विना विचार किये ही अनर्थक प्रलाप करनेवाले है। वे ही पूर्वोक्त प्रकार का अलत्यमापण करते है ।। स्तू-८॥ - “ अक्सइयवीर्ण" क्षति ७4-मय हुमने भाट १२९१ ३५ ग" भनथी “ अप्पाण"पोतानी नतने" वेदेति" विहित નરક નિદ આદિના અનન્ત દુખે દેનાર કનુ ઉપ જેને 1402-" मुहरी" भनु भुमर भनी शत्रु डाय छ, જાવી” જે વિના વિચાર્યું અનર્થક પ્રલાપ કરનાર હોય નુ અસત્ય ભાષણ કરે છે મૂ-૮ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २०. प्रश्नण्याकरणसूत्रे घाती 'पानकम्मकारी ' पापकर्मकारी-दुष्कर्माचरणगीत 'मरम्मकारी' अकर्म कारी अनुचितर्मकारी ' अगम्मगामी' अगम्मगामी भगियादिगमनकारी, चास्ति । अय 'दुरप्पा' पुरात्मा-दुष्टात्मा 'बहुप्सु य' बहुकैः च = अनेक 'पातगेसु' पातकेपु-यापरमम् 'जुत्तो' युक्तासलग्न इति । एप 'भदगे' भद्रके निर्दोपे 'मन्ठरी' मत्सरिणः = परगुण पिग. 'जपति' जल्पन्तित्रुगन्ति । कीदृशास्ते मृपारादिनः ? इत्याह- गुणफित्तिनहपरलोगनिप्पि वासा' गुणकीर्तिस्नेहपरलोकनिप्पिपासा:गुणाः = नियावादयः, कीतिःयशः स्नेह. भूतेषु प्रीतिः, परलोक जन्मान्तर तेपु निप्पिपामा=निराकादक्षाः एवमुक्तप्रकारेण पते 'आलिययणदरखा' अलीकरचनदक्षाः मृपाभापनिपुणाः, ' परदोसुप्पायणससचा । परदोपोत्पादनससक्ताः = परदोपाविष्फरणतत्पराः यह (विस्सभधायओ) विश्वासघाती है ( पावकम्मकारी ) पापकर्मकारी है, (अम्मकारी ) अनुचित कामों को करता रहता है, तया (अगम्मगामी) अगम्यगामी है-भगिनी आदिका सेवन करने वाला है । (अय दुरप्पा ) यह दुरात्मा (बहुण्सु य पातगेसु जुत्तो) अनेक पापकर्मो मे लगा रहता है । ( भद्दगे) निर्दोप पुस्प मे ( मच्छरी ) दूसरों के गुणों से देप करने वाले, तथा (गुणफित्तिनेहपरलोगनिप्पिवासा) विनय आर्जव आदि गुणों मे, कीर्ति में नया स्नेह-जीनों के ऊपर प्रीति रखने मे और परलोक में आकांक्षा विहीन पुरुप (एव पजति) इस प्रकार बोलते है। इन्हें अपने परलोकके सुधार की भी कोई चिंता नहीं होती है। (एघ एए) इस प्रकार ये ( अलियवधणदक्खा ) असत्य बोलने में बडे चतुर, तथा (परदोसुप्पायणससत्ता) दूसरों के दोषो को प्रकट वि विस्सभघायओ" ते विश्वासपाती छे, " पाकम्मकारी" पापकृत्या ४२ छ, “ अम्मकारी" मनुथित त्यो ७२ना। 2," अगम्मगामी " अगभ्यगामी छ-ममिनी मानि सेवन ३२ना२ छ, “ अब दुरप्पा" मा दुरात्मा “ बहुएसु य पातगेसु जुत्तो" भने पाप मा दीन २ छ" " भद्दगे" निषपुरु पानी ‘मच्छरी" तथा अन्य सुशानी द्वेष ४२॥२, तथा “ गुणकित्ति नेह परलोग निस्पिासा" विनय मा0 माह गुणेथी २डित, जाति तथा स्नेहथी डित, भने ५२४ मा २डित “ एव जपति" 6५२ प्रमाणे माले छ पोताना ५२४ सुधारवानी पY यिन्त हाती नयी “ एव एए" 240 शत त “अलियययणदस्सा" असत्य मालवामा ध। विधु, तथा " पर दोसप्पायणससत्ता" मन्यना होषाने नडर उवामा १ सीन भवाते भूषा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका २० २ सू० ८-९. मन्येषामपि मृपाभाषणनिरूपणम् २०९ 'अखइ य पीएण' अक्षतिकपीजेन-क्षय दुग्यकारणेन 'इम्मवरणेण ' कर्मवन्धनेन 'अप्पाण' आत्मान 'वेति' वेष्टयन्ति, नरकनिगोदायनन्तदुग्यदायक कर्माणि समुपार्जयन्तीत्ययंके ते' इत्याद-मुहरो' मुखारय-मुखमेव अरि शत्रु-गउत्वजनकवचनभापित्याद पा ते तथा। 'असमिविश्वयप्पलावी' असमीक्षितमलपिन:-अपिचारितानयरक्तार इति ।। मू. ८॥ पुनस्ते किं कुर्वन्ति । तदाह-निक्खेरे ' इत्यादि । मूगम्-निक्खे। अवहरंति परस्स अथिम्नि गढिय गिद्धा अभिजुजति य पर असतएहि लुद्धा य करेति कूड सकिखत्तण, असच्चा अत्यालिय च कन्नालियं च, भोमालियं च तहा गवालिय च, गरुय भणति, अहरगइ गमण अपणं पि य जाइकुलरूबसीलपच्चयमाचा निगुण चवला पिसुणं परमट्ठभेदगमसतक विदेसमणत्थकारग पावकम्ममूलं दुदिट्ट दुस्सुय अमुणियं निल्लन लोगगरहणिज्ज वहवध परिकिलेसबहुल जरामरणदुक्खसोगनेम असुद्ध परिणाम सकिलिट्र भणति ॥ सू० ९ ॥ करने में ही लगे तुप मृपावादी पुरुप ( अवयवीएण) अक्षतिक वीज अक्षय दस के कारणभूत (कम्मर रणेण ) कर्मधन से (अप्पाण) अपने आपको (वेडेति) परिवेष्टित करते है, अर्थात-नरकनिगोद आदि के अनत) दुखों को देनेवाले कमों को उपार्जित करते हैं। वैसे कौन होते हैं ?-(मुहरी) जिनका मुसही त्रु होता है, (असमिरिखयप्पलावी ) जो विना विचार किये ही अनर्थक प्रलाप करनेवाले होते है । वे ही पूर्वोक्त प्रकार का अमत्यमापण करते है ।। सू-८ ॥ पाही पु५ “ अक्सइयवीण " अक्षति प-मदाय भने माटे ४२९१ ३५ "म्मवधणेण" उ नयी “ अप्पाण"पोतानी तने “ वेदेति " पवित કરે છે, એટલે કે નરવ નિગદ આદિના અનન્ત દુખે દેનાર કર્મોનું ઉપ ર્જન ४रे मेवा र हाय" मुही" भनु भुगतेभनी शत्रु डाय छ, भने “अममिक्सियप्पलावी" २ विना विधाये मन प्रसा५ ४२नार हाय છે તેઓ જ પૂર્વેત પ્રકારનું અસત્ય ભાષણ કરે છે. - 2016 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JOM २१० प्रश्नव्याकरण टीका-'परस्स' परस्य अन्य सम्बन्धिनि 'अत्यम्मि' अर्थ-धने 'गदियगिद्धा' अथितगृद्धा अत्यन्तलोलुपाः 'निरसे' निक्षेपानन्यासान् 'धरोहर' तथा 'थापन' इति भापामसिद्धम्, 'अपहरति' अपहरन्ति 'नहि बया मत्पाः स्थापित मित्युक्त्वा सर्वथा अपपन्ति । 'अमिजुजति य' अमियोनयन्ति चम्परम् 'असं तपहिं' असद्भिः अविद्यमानेषिः । तथा 'लुद्वा य' लुभाव परधनलोलुपा धनलोभेन 'कूडसविखत्तण' कूटसावित्व करेंति 'कुर्वन्ति । चाराद् ग्रन्थिमो. चकत्वपश्यतो इरत्वादिकमपि विज्ञेयम् । 'असन्चा' असत्याः = अमत्यवादिनः 'अत्यालिय ' अर्थाळीक अर्थाय-धनादि प्रयोजनाय अलीक, तथा 'कमालिय' कन्यालीक-कुमारी विषयकमलीक, यथा-सुशीला कन्या दु'शीला, दुशीला च सुशीला मित्यादि कथयन्ति । इद लोकेऽतिगर्हितत्वापात्त तेन उपलक्षणमेतत्मनुष्यजातिपिपयक्रममस्तालोकस्य । 'भोमालीय ' भूभ्यलीक-पृथिवीनिमित्तमसत्य-तहातथा 'गवालिय' गवालीरगोसम्बन्धिकमसत्य 'गरुय' गुरुक फिर वे क्या करते हैं सो करते है-'निस्खेवे' इत्यादि। टीकार्थ-(परस्स अथिम्मिगढियगिद्धा ) दूसरों के धन में अत्यत लोलुप बने हुए ये (निक्खेवे अवहरति) धरोहर को-"तुमने मेरे पास नहीं रखी है " ऐसा कहकर दवा लेते हैं। तया (अभिजुजति य पर असतएहिं ) दूसरों को अविद्यमान दोपों से दूषित कर देते हैं । (लुद्धा य कूडसक्खित्तण करेंति ) परधन के लोभ से लुब्ध बने हुए ये झूठी गवाही देते हैं तथा (च) शब्द से दूसरों की गाठ कतर लेते है तथा देखते देखते धन भी चुरा लेते हैं। (असच्चा ) ये असत्यवादी (अथालिय ) अर्थालीक, ( कन्नालीय ) कन्यालीक, (भोमालिय) भूम्य वणी तमाशु छत सूत्रार छ-"निखेवे" त्याल टीथ-"परस्स अथम्मि गढियगिद्धा" भीतना धनने भाटे साधु५ मनसा “निक्खेवे अवहर ति" धरोहरने-मानामत थापाशुन पयावी पा341 भाटे मा प्रमाणे ४ छ-" तमे भारे त्या प्रभारी थापा भूडी नथी' तथा ' अभि जुजति य पर असतएहिं " wlon सोभा-तभनामा न डाय तवा होषानु આપણુ કરીને તેમને કલકિત કરે છે " लुद्धा य कूडसक्सित्तण, करे ति" पाना धनने सोने ता पाटी સાક્ષી આપે છે તથા “ શબ્દથી બીજાના ખીસ્સા કાપે છે અને જેતા नतामा धन पशु यारी ३ छ " असच्चा' ते असत्यवाही ! ' अत्था लिय " अर्थाती, "कन्नालिय " न्याls, " भोमालिय "भ्य" " Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुदशिनी टीका में २ सू० ९ अन्येषामपि मृपाभापणनिरूपणम् २१९ =महदसत्य भगन्ति येन निहाछेदनादिक भवतीत्यर्थः। 'अहरगइगमन अधरगतिगमन-अधरगती गमन येन तत् तथा जरकाघधोगतिगमनकारणम् । 'अण्णपि य' अन्यदपि च असत्य युवन्ति, तदेवाह-' जाइकुलरूवसीलपञ्चयमायानिगुण जातिकुलरूपशीलपत्ययमायानिगुण-तुन जातिः मातृपक्षः, कुल-पितृपक्ष , रूपम्= लीक, (तहा ) तथा (गवालिय ) गवालीक, (गरुय ) बहुत अधिकरूप में (भणति ) वोलते है । धनादि प्रयोजन के लिये जो झूठ वचन योले जाते हैं। वह अर्थालीक है, धनादि प्रयोजन के लिये जो झूठ कहना होता है वह कन्यालीक है-जैसे-सुशीला कहना, और दुःशीला को सुशीला कहना आदि । पृथिवी निमित्त जो झूठ बोला जाता- वह भूम्यलीक है जैसे-अनुरा भूमिको उर्वरा कहना आदि । गाय के विषय में जो असत्य बोला जाता है उसका नाम गवालीक है,जैसे-नहीं दूध देनेवाली गाय को दूध देनेवाली कहना, कम द्ध देनेवाली गाय को बहुत दुध देनेवाली कहना आदि । इस असत्य में जिह्वाछेद आदि दड होता है इसलिये उसको गुरुकवड़ा असत्य कहा है, तथा (अहरगईगमण) नरक आदि अधोगतियों में गमन कराने वाले ऐसे (अपणपि) और भी विविध प्रकार के (जाइकुलरूवसीलपच्चयमायानिगुण) अपनी जाति, कुल, रूप, स्वभाव ये हैं कारण जिनके ऐसे तथा मायानिगुण अप्रशनीय की प्रशसा-प्रशसनीयजन की निन्दारूपमाया वाला होने से निगुणतथा "गालिय " मी " गुरुय " गई पधारे प्रभाएमा “ भणति" બેલે છે ધન આદિને ખાતર જેજૂઠા વચને બોલાય છે તે અર્થાલીક કહેવાય છે કન્યાની બાબતમાં જે અસત્ય કહેવામાં આવે છે તે કાલીક કહેવાય છે, જેમ કે સુશીલ કન્યાને દુ શીલ કહેવી અને દુ શીલને સુશીલ કહેવી જમીન આદિને નિમિત્ત જે જૂઠા વચને બોલાય છે તે ભૂલીક છે જેમ કે અનુપજાઉ જમીનને ઉપજાઉ બતાવી આદિ ગાયને વિષે જે અસત્ય બોલાય છે તેને ગવાલીક કહે છે, જેમ કે દૂધ ન દેનારી ગાયને દૂધ દેનારી કહેવી, ઓછુ દુધ દેનારી ગાયને વધુ દૂધ દેનારી“કહેવી આદિ ગવાલિકના દાતા છે આ અસત્યમાં જીહાનુ છેદન આદિ રિક્ષા થાય છે તેથી તેને ગુરુક-ટુ અસત્ય કહેલ છે तथा “ अहरगईगमण" न२४ मा अधोगतियोमा गमन. रावना सेवा "अण्णपि" मा ५ विविध प्रश्ना "जाइकूलरूपसीलपच्चयमाया निगुण " पोतानी गति, पुष ३५, भ्वना माहिना २0 छे सेवा, તથા માયનિગુણ-અપ્રશસનીયની પ્રશ સા અને પ્રશસનીય જનની નિંદરૂપમાયાવાળા હોવાથી નિગુણ-સ્વપરહિત, એવા વચને બોલ્યા કરે છે માતુ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 व्याकरणसूत्रे आकृतिः, शील घ= स्वभाव, एतानि प्रत्यय कारण यस्य तत् मायानिगुण च= निन्दनीयस्य मशसा मशसनीयस्य निन्दा माया तत्सच्चादेव निगुण गुणरहिते स्वपरहितादिवर्जित 'चवला ' चपलाः=अस्थिरान्तःकरणा मृपानादिनो भणन्ति । पुनः कथ भूतमली कमित्याह - 'पिगुण' पिशुन=परदोषाविष्करणरूप 'परमहभेदग' परमार्थभेदक =परमार्थी=मोक्षः, तत्मविद्यातकम् ' अमतक' असत्कम् = परमार्थ वर्जित 'विदेस ' विद्वेष्यम् = अमियम् 'अणत्यकारण ' अनर्थ कारक धर्मादिपुरुषार्थ विघातेन नरकगमनजननमरणाद्यनर्थजनक 'पात्रकम्ममूल पापकर्ममूल पाप ज्ञाना चरणादिकर्म तत्कारण 'दुद्दि दुर्दष्ट-दुष्टष्ट यत्र तत् दुर्दृष्ट= कुत्सितदर्शन 'दुस्सुय' दु:श्रुत = दुष्ट श्रुत यत्र तत्तथा दुश्रुत = दुष्टपणम् ' अमुणिय' अज्ञान = अज्ञानरूप स्वपरहितवर्जित ऐसे वचनों को बोला करते है । मातृ पक्ष का नाम जाति, पितृपक्ष का नाम कुल, रूप का नाम आकृति और शील का नाम स्वभाव है । तथा ( चवला ) जो अस्थिर अन्तः करणवाले मृषावादी जन होते है वे पिशुनादि विशेषणों वाले असत्य वचन बोलते है । वे इस प्रकार जो वचन ( पिसुण ) पर के दोषों के प्रकट करने वाले होते हैं । (परमभेदग) परमार्थ-मोक्ष के भेदक होते है । ( असतग ) असत्क परमार्थ से रहित होते हैं । (विदेश) विद्वेष्य-अप्रिय होते हैं । (अणत्थकारग ) अनर्थकारक - वर्मादिक पुरुषार्थ के विघातक होने से नरक गमन जनन मरणादिरूप अनर्थ के उत्पादक होते है । ( पावकम्ममूल ) पापकर्म के मूल - ज्ञानावरणादिरूप कर्म के कारण होते हैं । (दुट्ठि) दुर्दृष्ट-दुष्ट दर्शनवाले हैं - अर्थात् इन वचनों द्वारा जो दर्शन प्रतिपादित किया जाता है वह कुत्सित- सदोप होता है। (दुस्सुय) दुःश्रुत होते हैं (6 "( " " असतग પક્ષને જાતિ, પિતૃ પક્ષને કુળ, રૂપને આકૃતિ અને શીલને સ્વભાવ કહે છે તથા चवला " ययन भनवाजा भृषावादही बोओ पिशुनाहि विशेषज्ञोवाजा અસત્ય વચને ખોલે છે તે આ પ્રમાણે છે જે વચન पिसुन અન્યના होषोने प्रगट उरनाश होय छे, “परमट्टभेदग" परमार्थ - भोक्षने लेहनार होयछे " असत्-परमार्थ रहित होय छे, " विहेस " विद्वेष्य-मप्रिय होय छे, " भणत्थकारण ” અનથકારક-ધર્માદિ પુરુષાર્થીના વિઘાતક હોવાથી નરક ગમન જન- મચ્છ્વાદિપ અનર્થાંના ઉત્પાદક હોય છે, 27 पावकम्ममुल પાપ उर्भनु भूज - ज्ञानावरणीय आहि उर्भनु-जग होय े, " दुद्दिट्ठ " दुईष्ट-दुष्टદનવાળા છે, એટલે કે ને વચના દ્વારા જે દનનુ પ્રતિપાદન કરવામા આવે छे ते स्मित-सहोष होय छे, 66 66 "" दुस्सुय હું થત–જેને સાભળવાનું પણ કાઈ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका में० २ सू० ९-१० मन्येपामपि मृपाभापणनिरूपणम् २१३ 'निलज्ज' निर्लज्ज-लज्मानित 'लोगगरहणिज्ज ' लोकगर्हणीय = सर्वजन निन्दनीय 'वनयपरिफिलेसमहुल' वधवन्यपरिक्लेशबहुलस्तर वधः-मारण चन्ध -रज्जादिना पन्धन परिक्लेगा=दुःखसन्तापस्ते बहुला नधिकाः यस्मिन्नलीके तत्तथा मृपाभापणेन हि एते भवन्त्येन मृपा भाषिणा 'जरामरणदुरखमोगनेम' जरामरणटु ग्वशोकाना नेमम् अवधिभूतम् ' असुद्धपरिणामसमिलिट्ठ ' अशुद्ध परिणाममक्लिष्ट = अशुद्धेन अशुभेन परिणामेन मक्लिए-व्याप्तमलीक भणन्ति चपला इति पूर्वेण सम्बन्धः ।। सू० ९॥ कीदृशास्ते ? इत्याह-' अलिया हि ' इत्यादि । मूलम्-अलियाहि सधिसंनिविट्ठा असतगुणुदीरगा य संतगुण नासका य हिसा भूओवघाइय अलियं सपउत्ता वयण इनका सुनना भी कोई भी सत्यवादी पसद नहीं करता है । (अमुणिय) ये अमनोज्ञ होते है । अपवा अजानरूप होते है-इनसे वास्तविक वस्तु का योध नहीं होता है । (निल्लज्ज) निर्लज्ज-लज्जावर्जित होते हैंअर्थात् ऐसे वचन बोलने वालों को किसी भी प्रकार की लज्जा नहीं आती है। (लोगगरहणिज्ज ) जिन वचनों की समस्नजन निन्दा किया करते हैं । ( वयवपरिफिलेसबहुल) जो इन वचनों को बोलते है वे व्यक्ति इन वचनों के कारण बहुत अधिक वध, बधन और परिक्लेश को पाते हैं। (जरामरणदुक्खसोगनेम ) ये वचन जरा, मरण, दुःख एव शोक के हेतुभूत होते है। (असुद्धपरिणामसफिलिह) इनके बोलने वालों के परिणाम अशुभहोते हैं । इस प्रकार के असत्य वचनों को चपल पुरुष पोलते हैं ॥५-९॥ सत्यवादी पसरत नथीत “अमणुय " ते ममनास य -मज्ञान३५ डाय छ-तमनाथी वातपिs वस्तुनो गोप थती नवी, " निहज्ज" निlar લજારહિત હોય છે, એટલે કે એવા વચને બોલનારને કોઈ પ્રકારની હારમ मावती नथी, " लोगगरहणिज्ज" २ वयनानी मा नि उरे छ, " वहयधपरिकिलेसबहुल" मेवा वयनो मोसना२ भास ते वयनाने पारणे ध। धारे वध, धन भने परिसर पामे छ “जरामरणदुक्स सोगनेम" ते क्यने ४२, भ२, हुम मने ना तुभूत डाय “ असुद्ध परिणामसकिल्टुि " तेवा पयो मोसनारा परिणाम भनोलाव-शुल छाय છે આ પ્રકારના અસત્ય વચને ચચળ વૃત્તિના માણસો બોલે છે કે સૂ-૯ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ recuretores सावज्जमकुसल साहुगरहणिजं अधम्मजण्णं भणति अणहिगयपुण्णपावा पुणो वि अहिकरण किरियपावत्तगा बहुविहं अनत्थ अवमद अपणो परस्स करेंति ॥ सू० १० ॥ २१४ टीका- 'अलिपाहि सधि सनिविद्या ' अटीकाभि सन्धिसन्निविष्टाः =अली कवादे योऽभिसन्धिभिमायस्तन सन्निविष्टाः=सस्थिताः ' असवगुणुदीरगा ' असद्गुणोदीरकाः = अविद्यमानगुणकथकाः 'सतगुणनासगा य' सद्गुणनाशकाच = विद्यमानगुणापलापकाः 'अलियसपउत्ता ' अलीकसम्प्रयुक्ता = असत्यभाषणत त्परा ' हिंसा भूचाय' हिंसाभूतोपपातिक = यस्य कथनेन जायमानया हिंसया भूताना=प्राणिनाम् = उपघातः - विनाशो येन भवति तचादृश 'सावज्ज' सावद्य= सपापम् ' अकुसल ' अकुशलम् = सर्पमाणिनामहितकर ' साहुगरहणिज्ज ' साधुगईणीयम् = महापुरुपैस्तीर्थं करगणधरैर्निन्दित 'अधम्मजणण' अधर्मजननम्= पापोत्पादकम् एतादृश' वयण ' वचन भणन्ति । पुनः कथ भूतास्ते ? इत्याह , C फिर वे कैसे होते हैं सो कहते हैं-' अलियाहि ' इत्यादि । टीकार्थ - (अलिपाहि सधिसनिविट्ठा ) अलीकवाद के अभिप्राय में सस्थित मृपावादी ( असतगुणुदीरगा ) अविद्यमानगुणों के कहने वाले और ( सतगुणनासगाव ) विद्यमान गुणों के लोप करने वाले होते हैं ( अलिय सपत्ता ) इसी तरह असत्यभाषण करने में तत्पर बने हुए वे ( हिंसा ओवधाइय) जिनवचनों के कहने से प्राणियों का हिंसा द्वारा विनाश हो जाता हैं ऐसे (सावज्ज, सावद्य, ( अकुसल ) सर्वप्राणियों के अहितकारक, ( साहुगरह णिज्ज) साधु पुरुषों द्वारा गर्हणीय, एव (अधम्मजणग ) अधर्मजनक ( वयण ) वचनों के कहने से (भणति ) वजी ते ठेवा होय छे ते सूत्रअर हे छे - " अलियाहि " ઇત્યાદિ · टीअर्थ - “अलियाहि सधिसनिविट्ठा” असीडवाना अभिप्रायभा रहेस भृषावाही असतगुणुदीरगा” विमान - अस्तित्व विनाना गुणानु उथन उरनार अने सतगुणनास गाय " विद्यमान गुणाने छुपावनार होय छे, “अलियस परत्ता” આ રીતે અસત્ય ખોલવાને તત્પર થયેલ તેએ हिंसा भूओवधाइय ” પ્રાણી 61 सोनी हिंसा थाय तेवा " सावज्ज" सावध, ८८ (2 अकुसल " समस्त आशीगोनु અહિત કરનારા साहुगरहनिज्ज " साधु पुरुषो द्वारा निंद्य भने “अधम्मज्ञणग” અધમ જનક " पथनो " ' ખોલે છે अहियपुण्णपावा " 66 वयण भणति " 66 61 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनो टोका म0 सू० १०-११ मृपायादीनां जीपघातफवचननिरूपणम् २१५ 'अणहिगयपुण्णपानाः अनधिगतपुण्यपापाः = पुण्यपापजनितफलज्ञाननिकलाः, 'पुणो वि' पुनरपि 'अहिकरणकिरियापपत्तगा' अधिकरणक्रियापवर्तकाः-अधिकरण पापारम्भः तस्य क्रिया व्यापारः तस्य प्रवर्तकाः, 'अप्पणो परस्स य' आत्मन परस्य च 'बहुहि' बहुविधम् 'अणत्य' अनर्थ 'अवमद्द ' अवमः = विनाश 'करे ति ' कुर्वन्ति ।। म. १०॥ पुनः किं कुर्वन्ती ? त्याह-एवमेवे' त्यादि। ___ मूलम्-एवमेव जपमाणा महिसे सूयकरे य साहेति घाय गाणे, ससपसयरोहिसे य साहति वागुराण, तित्तिरवकलावे य कविजल-कवोयगे, य साहति सउणीणं, झसमगरकच्छभे य साहेति मच्छियाणं, संखके खुल्लए य साहेति मगराण, अयगर-गोणस-मडलि दवीकर मउली य साहेति वालियाण, गोहा सेहा य सल्लग सरडए य सात लुद्धगाण, गयकुल वानरकुले य साहेति पासियाण, सुकवरहिणमयणसालकोइल हसकुले सारसे य साहेति पोसगाण, वधवधजायण च साहेति गोम्मियाणं, धणधन्नगवेलए य साहेति तकराण, गामनगर पट्टणे य साहेति चारगाण पारघायग पथघायगे साहेति गथि भेयाण, कय च चोरिय जगरगुत्तियाणं साहेति लछण निल्लछणयोलते हैं । (अणरिंगयपुण्णपावा ) तथा जो पुण्य और पाप के फल ज्ञान से रहित होते हैं। तथा (पुणो वि अहिंगरणकिरियापवत्तगा) थार २ पापारभ की क्रियाओं के प्रवर्तक होते हैं वे (अप्पणो परस्स य) अपना और पर का ( यहुविह) अनेकविध (अणस्थ ) अनर्थ और ( अवमद्द) विनाश (विराधना) ( करेंति ) करते हैं |सू १०॥ तयारी पुन्य भने पापना शानथी २हित य , तथा " पुणो वि अहिंगरण किरियापवत्तगा" पा२ १२ पापा२ सनी लियासोना प्रवत हाय छ, ते "अप्पणो परस्स य" पातानु भने पारानु " बहुविह' मने प्रारे "अणत्य" अडित भने "अवमह" विनाश "विराधना' "करे ति"रे छ ॥-१०॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नम्याकरण सावजमकुसल साहुगरहणिज्ज अधम्मजण्ण भणंति अणहिगयपुण्णपावा पुणो वि अहिकरण किरियपावत्तगा बहुविहं अनस्थ अवमदं अप्पणो परस्स करेंति ॥ सू० १०॥ टीका-अलियाहि सधि सनिशिहा' अलकाभि सन्धिसन्निविष्टा अली कवादे योऽभिसन्धिः अभिमायस्तत्र सनिविष्टासस्थिताः ' असतगुणुदीरगा' असद्गुणोदीरका अविद्यमानगुणकथकाः 'सतगुणनासगा य' सद्गुणनाशकाच विद्यमानगुणापलापकाः 'अलियमपउत्ता' अलीकसम्मयुक्ता = असत्यभापणत स्परा 'हिंसा भूभोघाइय' हिंसाभूतोपघातिक = यस्य कथनेन जायमानया हिंसया भूताना प्राणिनाम् उपधाता विनाशो येन भाति तत्तादृश 'सावज्ज' सावद्य-सपापम् ' अकुसल ' अकुशलम् सर्वमाणिनामहितकर ‘साहुगरहणिज्ज' साधुगर्हणीयम् महापुरुषैस्तीर्थकरगणधरैनिन्दित 'अधम्मजगण' अधर्मजननम्पापोत्पादकम् एतादृश 'वयण' वचन भणन्ति । पुनः कथ भूतास्ते ? इत्याह फिर वे कैसे होते है सो कहते हैं-'अलियाहि' इत्यादि। टीकार्य-(अलियाहि सधिसनिविट्ठा) अलीकवाद के अभिप्राय में सस्थित मृपावादी (असतगुणुदीरगा) अविद्यमानगुणों के कहने वाले और (सतगणनासगा य) विद्यमान गुणों के लोप करने वाले होते हैं (अलिय सपउत्ता) इसी तरह असत्यभापण करने में तत्पर बने हुए वे ( हिंसाभुओवघाइय) जिनवचनों के कहने से प्राणियों का हिंसा द्वारा विनाश हो जाता है ऐसे ( सावज्ज, सावद्य, (अकुसल) सर्वप्राणियों के अहितकारक, (साहगरहणिज्ज) साधु पुरुषोद्वारागर्हणीय, एव (अधम्मजणग) अधर्मजनक ( वयण ) वचनों के करने से (भणति) qvil a sn डाय छे ते सूत्र॥२ ४ छ-" अलियाहि " त्याle टी-“अलियाहि सधिसनिविट्ठा" अशीset मलिभायमा २० भृपावाही " असतगुणुदीरगा" विमान-मस्तित्व विनाना शुनु ज्थन ४२ना२ अने " सतगुणनासगा य" विद्यमान शुषाने पावना२ हाय , “अलियसपउत्ता" माश असत्य मोटवाने त५२ थयेस ते " हिंसाभूओवघाइय" प्राणी सोनी हिंसा याय ते! " सावज्ज" सावध, "अकुसल " समस्त प्रामानु मडित ४२ना। " साहुगरहणिज्ज" साधु पुरुषो द्वारा निध भने “अधम्मजणग" भवन " वयण " क्यने। “ भणति" मोसे छे “अणहिगयपुण्णपावा" Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ११ मृपायादोना जीवघातकययननिरूपणम् २१७ कोयए य साहे ति सउणीण ' तित्तिरवर्तकरावकाच कपिजलकपोतकाश्च साधय न्ति गाकुनिकाना, तित्तिरा:-ममिहाः, पर्तका = टेर' इति भाषा प्रसिद्धाः लोकाः लामा इति भाषा प्रसिद्धाः पिञ्जला'-तनामस्पतिविशेपाः 'कुरझ' इति प्रसिद्वा, कापोतका पारापतकाः 'क्यूतर' इति भाषा प्रसिद्धाः एतान् शाकुनिकाना पतिरातकान् प्रति दर्शयन्ति 'अाममगरकच्छभे य साहे ति मन्छि याण 'झपमफरफन्छपाच साधयन्ति मरिससाना-झपाः मत्स्याः मकरकच्छपाय प्रसिद्धास्तान् इन्नु मत्सिकाना=मत्स्याः पण्य येपा ते मासिका धीरास्तान् मति जल्गगयादिक दर्शयन्ति 'ससकेरालगे य साहेति मगराण'महान् मल्ल काश्च साधयन्ति मकराणा शहा प्रसिद्वा अङ्काःतज्जातीयाः क्षुल्लकाः 'कौडी' इति भाषा प्रनिद्धा एतान् मकरतुत्यजलबिहारि धीरान् कथयन्ति 'अयगर __गोणसमडलिदचीफरमडलीय साहे ति वालियाण' अजगर गोनसमण्डलि दी कर मुकुलिनच साधयन्ति व्यल पाना-तत्र अजगरा प्रतीताः सर्पविशेषाः, गोनसाः फणरहिताः हिमुससर्पाः, मण्डलिन' सर्पविशेपा , दी फरा-फणकारकाः सर्पाः, मुकुलिना ईपत् फणकारकास्तान् व्यालपानाच्या ग्राहकान् प्रति सर्पस्थलानि है (तित्तिर बग लागे य कविजलरुबोयर य साहेति सउणीण) तथा तीतरों को, वटेरों को लावापनियों को, कपिंजलों को और कबूतरों को शाकनिकों-इनके मारने वालों के लिये रतला देते हैं (झसमगरकच्छभे य साति मच्छियाण)तपाधीवरों-मच्छीमारों के लिये मच्छियों, मगरों एव कच्छपों के जलाशयों को दिग्वला देते हैं। (सखके खुल्लगे य साहेति मगराण) तथा (मगराण) जल में फिरने वाले धीवरों के लिये ये शखों के, अकोंके-विशेष प्रकार के शवों के, क्षुल्लकों के-कोडियों के स्थानों को रतला देते है। (अयगर-गोणस-मडलि-दव्वीकरमडली य साहनि नालियाण ) तथा जो व्यालिक मपेरे-साप पकडने वाले होते है उन्हें अजगर के, गोनस दुमुही दे, मडली के, दर्विकरफणा फैलाने वाले साप के, मुकुली-थोडे रूप में फणा तानने वाले रवदृगलावगे य करिजल्पयोया य साहेति सउणीण " तथा तत२, पटेरपक्षीमा લાવા પક્ષીઓ, કપિલે અને કબૂતર આદિ પક્ષીઓ રાહુનિક (પારધીઓ) ने मतावा है छे “ झसमगरकन्छभे य साहेति मन्च्यिाण ' तथा भाछीराने. માછલીઓ, મગરે અને કાચબા જે જળામાં હોય તે જળાને બતાવી દે છે "ससके खुल्लगे य साहेति मगराण' तथा" मगराण " मा समाधान રાખના, અતાના વિશેષ પ્રકારના રાખવા અને મુલ્લકેના–ડીઓના સ્થાને બતાવી "अयगर-गोणस-मउलि-दव्यीकर मडलीय साहेति बाल्यिाण" तथा व्यालिકને સાપ પકડનારને અજગરના, બે મુખવાળા ગામના, મ ડલીના, દર્પીકરના Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ प्रश्नध्याकरणसूत्र धमणदुहणपोसणवणणदुवणवाहणादियाइं साहेति वहूणि गोमियाण, धाउ--मणि-सिल-पवाल-रयणागरे य साति आगरीण, पुप्फविहि च फलविहिं च साहेति मालियाणं अस्थमहुकोसए य साहेति वणचराणं ॥ सू० ११ ॥ टीका-' एवमेव जपमाणा' एवमेव जल्पन्तः पूर्वोक्तरीत्या सावधमबुद्धि पूर्वक वक्ष्यमाणं भापमाणा, 'महिसे सूकरे य साति घायगाण' महिपान् सुकराव साधयन्ति घातकाना= तस्मिन् वने रद्दयो महिपासाराय सन्ति गच्छ तो' त्यादि तेपा घातकान् प्रति क्ययन्ति तथा ' ससपमयरोहिसे य सोहे ति वागुरीण' शशपसयरोहिपाथ साधयन्ति वागुरिणां तत्र शशामसिद्धाः पसयन देशी शन्दोऽय मृगपाचक, रोहिपा:-मृगरिगेपा एव, तान् जालेन मृगपातकान् प्रति 'तत्र मृगा -सन्ती'ति साधयति-स्थयन्ति, तितिरवगलामगे य कविजल फिर क्या करते हैं सो कहते हैं-' एवमेव' इत्यादि। टीकार्य-( एवमेव) पूर्वोक्त रीति से अद्विपूर्वक (जपमाणा) वक्ष्य माण आगे कहे जाने वाले सावध वचनों को करते हुए वे महिषादि प्राणियों को शिकारी के लिये पतला देते हवे इस प्रकार-(महिसे करे य घायगाण साहेति) महिपों और सूफरों को भरवाने के अभिप्राय से घातको के प्रति " उस वन मे जाओ वहा अनेक महिष और सूकर है" इस प्रकार करते हैं। तथा ( ससपमयरोहिसे यसाहेति वागुरीण) शश-ग्वरगोश, पसय-मृग एव रोहिप-मृग विशेष, इन्हें वागुरिकाजाल से पकडने वाले मृग घातकों से अर्थात् अहेरियों से-जाओ उस वन में बहुत से मृग आदि जानवर हैं उन्हें मारो इस प्रकार कहते गीत भृषावाही शु ४२९ छ-" एवमेव" त्यात साथ-"एवमेव" पूरित प्रारे अमुद्धिपूर्व "जपमाणा" मा उवामा આવનાર સાવદ્ય (પાપયુક્ત) વચને કહીને તેઓ મહિષાદિ પ્રાણીઓ શિકારીને બતાવી દે છે તે આ પ્રમાણે છે "महिसे सूकरे य घायगाण साहेति" ५। मने सूपरनी उत्या ४२वान માટે શિકારીઓને તે કહે છે કે “આ વનમાં જાઓ ત્યા અનેક પાડા અને २१२ छ" तथा " ससपसयरोहिसे य साहेति यागुरीण' तथा सससा, भूक અને હિષ-મૃગ વિશેષ-ને જાળથી પકડનાર વાઘરી આદિમૃગઘાતકોને તે ' सी, 1 वनमा ५५ भृाहिननपरे। छ, तभने भाग । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनीटीका अ० २ सू० ११ मृषावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २१५ = साधयन्ति गौल्मिकाना - धन्ययातन च-वधः = मारण बन्धः =बन्धन रज्ज्वादिना यातन=दमन कशादिभिरित्येतानि गाल्मिकानां = कोटपालान् कथयन्ति, अपराधादिक कथयित्वा कोटपालादिभिः पधादिक कारयन्तीत्यर्थः, धणधन्नगवेलए य साहेति तकराण ' धनधान्यगवेलकाच साधयन्ति तस्त्रराणा = धनधान्यगवेलकाश्च = धन च धान्य च गाच एल्का' = मेपाथ तान् चोरयितु तस्करान् प्रति कथयन्ति, 'गामनगरपट्टणे य साहति चारगाणं ' ग्रामनगर पत्तनानि सा नयन्ति चारकाणा = ग्रामादीनि गुप्तपुरपान् प्रति भेदाद्यर्थं कथयन्ति, 'पारघाइयपथघाइयाओ साहे ति गधिभेयाण' पारवातिक पथघातकान् साधयन्ति ग्रन्थिभेदकाना, पारघातिका पारे = ग्रामनगरादि सीमान्ते घातकाः - पारघातिकाः, पथि मार्गे घातिका मार्गघातकास्वान् लुण्ठितु ग्रन्थिभेदकान = चोरविशेषान् प्रति क्ययन्ति । 'कय चोरियं णगरगुत्तियाण साहे ति ' कृता च चौरिका चौर्य नगरगुप्तिकाना = कोटपालान् साधयन्ति । तथा 'लउण निहरण धमण दुहण पोसणणणदुवणाहणादिअपराधों को प्रकाशित करके जीवों का कोतवाल से धन, यातना करवाते हैं । (धन न गवेलए य सार्हेति तकराण ) जो चोर होते हैं उनसे मिलकर धन, धान्य, गाय और एलक-मेपों की चोरी करने को कहते है ( गामनगरपट्टणे य साहति चारगाणं ) जो गुप्तचर होते हैंउन्हें ग्राम आदि का भेद लाने के लिये प्रेरित करते है, अथवा उन्हें ग्राम आदि का भेद कहते हैं । ( पारघाइयपथघाइयाओ साहेति गरिभेयाणं ) जो ग्रन्थिभेदक चोर विशेष अर्थात् चोरी का माल खाने वाले होते हैं उनसे पारघातिकों - गाम की सीमापर घान करने वालो को मार्गघातको मार्ग में लूटने वालों को लूटने के लिये कहते हैं ( कय य चोरिय णगरगुत्तियाण माहेति ) कोटपालो के लिये नगर आदि में हुई चोरी का पता कहते हैं (लउण - निलछण-धमण - दुहण-पोसण-वणणકરીને કેટવાલ પાસે વેનેા વધ કરાવે છે, ૫ ધનમા નખાવે છે અને પીડા પહેાચાડે છે 66 धनधन्नगवेलए य साहेंति तक्राण ચારાને મળી તેમને धन, धान्य, गाय मने घेटागोनी थोरी ज्वानु न्हे छे "शामनगरपट्टणे य साहति चारगाण ગુપ્તચરીને ગ્રામ આદિને ભેદ શોધી લાવવા प्रेरे छे, અથવા તેમને ગ્રામ આદિનો ભેદ ખતાવે છે पारधाइयपथघाइयाओसार्हेति गथिभेयाण " જે ગ્રન્થિભેદ હાય--એટલે કે ચારીને માલ ખાનાર હાય છે તેમને, તથા પરઘાતિ-ગામની સીમા પર ઘાત ४२नाराने तथा भागभा टूटी सेनारने " कय य चोरिय जगरगुत्तियाण साहेति ' કાટવાળાને નગર આદિમા થયેલ ચેરી કરનારને ખતાવવામાં મદદ કરે છે " ܕܕ ܕܕ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण कथयन्ति, 'गोडासेहायसल्लगमरडगे य साहेति लुद्धकाण ' गोधाः सेहांच शल्यक शरटकाच साधयन्ति लुधकाना गोधा: भुजपरिसपैनिशेषाः 'गोहाः' इति भाषा प्रसिद्धाः, सेहाथ-भुजपरिसर्पविशेषा एव' सहसहेली' इति भापा प्रसिद्धास्तान् , शल्पक शरकटाच-शल्यकाः 'सीसोलिया' इति प्रसिद्धाः, शरटका कल्लासाश्च 'गिरगिट ' करगेटिया इति मापा ममिद्धास्तान , लुफानापापर्धिकान् 'शिवरी' इति प्रसिद्धान् प्रति कथयन्ति । 'गयफुलपानरकुले य साहे ति पासि याण' गजकुलमानरकुलानि च साधयन्ति पाशिकाना-गजलानि वानरकुलानि च पाशिकाना पाशेन गजबन्ध विशेपेण चरन्ति ये ते पाशिकाः गजादिपन्धनकारका स्तान् कथयन्ति । 'सुकवरहिणमयणसालकोइलहसफुले सारसे य साहे ति पोसगाण' शुफार्दिमदनशालमोकिल इसकुलानि सारसाच साधयन्ति पोपमाणातर शुकशः प्रसिद्धा, बर्हिणो मयूराः मदनशाला =सारिका', कोफिला', हसाच प्रतीता तेपा यानि कुलानिवृन्दानि तानि तथा सारसाथ, पोपराणा-पक्षिपालकान् प्रति कथयति। धजायण च साहे ति गोम्मियाण' वधरन्धयातन च सर्प के निवासस्थानों को पतला देते हैं। (गोरा सेहा य सलग सर• ढगेय साहति लुद्धगाण) गोधा-गोर-सेर-सहेली, शल्यक-सीसोलिया, शरटक-कृकलास गिरगिट-गिरदीला, इन जीवों को जो शिकारी होते हैं। उन्हें पतला देते गयकुल चानरकुले य माहेति पासियाण ) तथा पाशिक जो गज आदिकों को पकड़ने वाले होते है उन्हें राधियों को यदरो को दिग्वला देते हैं, अर्थात् इनके रहने के स्थानों को कह देते हैं। (सुक यरहिण मयणसालकोइलहसकुले सारसे य साहेति पोसगाण) तथा-जो पक्षिपोपक होते है उनसे तोता, मयूर, मैना, कोकिल, हँस इन के विषय में " इनको तुम पालो" ऐसा कहते हैं और " सारसपक्षियों को भी पालो" ऐसी सलाह देते हैं। (वयधज्ञायणं च साहेति गोम्मियाण) ફણા ફેલાવનાર સાપના, મુકુલીના-ડા પ્રમાણમાં ફણ ફેલાવનારા સાપના निवास स्थान की है छ “ गोहा सेहा य सल्ला सरडगे य साहेति लुद्ध गाण' शोधा-घा, से-सी, शव्य-सीसामीयत श२८४-३४सास गटआय कोरे वो सारीमाने मतापी छे “ गयकुलवानरकुलेय साहेति पासियोण' तथा शिओने- माहिन नाराने लाथामा तथा पानशेना निवासस्थान मतादी ? " सुपरहिणमयणसालकोइलहसकुले सारसे य साहेति पोसगाण" तथा पक्षीमाने पाणनारने ते पोपट, भार, भेना કિયલ, હસ વગેરે પાળવાનું કહે છે અને સારસ પક્ષીઓને પણ પાળવાની सवाई माये “वधधजायण च साहेति गोम्मियाण " अ५२५-- .. Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्वशिनीटीका अ० २ सू० ११-१२ मृपावादीना जीवातकवचननिरूपणम् २२१ खनिपतीन् कथयन्ति । तथा ' पुप्फनिर्हि फलविहिं च साहे ति मालियाण ' पुष्पविधि फलनिधिं च = पुष्पजाति फलजाति च साधयन्ति मालिकाना = वनपाल कानाम्, 'अग्यमहुरोसए य साहेति त्रणचराण' अर्धमधुकोशका साधयन्ति वनचराणा=अथ = मूल्पप्रमाण मधुकोशका = मनुत्पत्तिस्थानानीत्यर्थमधुकोशकास्वान् वनचराणां = मिलान् प्रति कथयन्ति ॥ ११ ॥ पुनरप्याह - 'जता ' इत्यादि । मूलम् - जंताई बिसाइ, मूलकम्म आहेवण- आविधण आभिओग - मंतोस हिप्पओगे चोरिय परदारगमणबहुपावकम्मकरणं अवक्खदेगामघायणं, वणदहणतडागभेयणए बुद्धिविसय बसीकरणमाइयाइ भयमरण किलेसुव्वेगजणयाइ भाववहुस किलिट्ठके उत्पत्तिस्थानों को करते हैं । तथा (पुष्पविहिं फलविरिं च सार्हेति मालियाण ) जो माली होते हैं उन्हें ये पुष्पजानि, फलजाति समजाते हैंअर्थात्- ' बागमें अमुक जातिका फुल लगाओ, अमुक जाति के फल उत्पन्न करो ' इस प्रकार से कहा करते हैं । ( अग्धमहुकोसए य साति वणचराण ) तथा जो वनचरभील हैं उनसे ये इस प्रकार कहते हैं कि तुम शहद या शहद का छाता ही ले आया करो अमुक मूल्य तुम्हें मिल जावेगा बैठे २ क्या करते रहते हो। मृषावाद पाप करने वाले जीव जीवों को बाघा आदि पहुँचे इसका थोड़ा सा भी ध्यान नहीं रखते हैं, तथा जो जीवों को कष्ट पहुंचाने वाले मनुष्य है उन्हे हर एक प्रकार से जीवों को कष्ट पहुँचाने मे उकमाया करते है || सू ११ ॥ माहिना उत्पत्ति स्थानो तावे तथा " पुप्फनिहि फलविहिं च साहति मालियाण " भाजीगोने पुष्यन्नति तथा इणन्नति जता घे, भेटले " આગમા અમુક જાતિમા ફૂલ ઉગાડા, અમુક જાતિના ફળ ઉત્પન્ન કરી ” એ પ્રકારની સલાહ આપે છે. ' अग्वमहुकोसए य सार्हेति वणचराण " तथा वनभा ईश्नाश ભીલાને તે આ પ્રમાણે કહે છે “ તમે મવ અથવા મવપુડા લાવ્યા કરે तभने भुज्भित भजशे-अभस्ता मेसी र शु वणशे ? " કરનાર વ્યક્તિ જીવાને કષ્ટ આદિ પહેાચરો તેનુ સહેજ પણ ધ્યાન રાખતી નથી, તથા જીવાને ફઇ પહેચાડનાર જે માણસો હોય છે તેમને દરેક પ્રકારે बवाने -" होयाउवा ने श्रेछे । सू-११ ॥ મૃષાવાદ પાપ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० प्रभव्याकरणसूत्र याइ साहति वहूणि गोमियाण' लान्छननिर्लाग्नध्मानढोहनपोपणाननदुवनवाहनादिकानि साधयति पनि गोमिना, लाञ्छनादीना देहे तप्त गोदादिभिश्चिन्ह विशेपकरण, निर्लाग्छन अर्धित्वरण मान गयादीना शरीरे वायुपूरण दोहन प्रसिद्धपोषण यवचणकादिदानेन पुष्टिररण बनन-अन्यमातरि रत्सादि सयोजन दावनम् उपतापन रज्ज्यादिनापादयन्धनम् । पाहन शाटादिपु योजनमित्यादि कानि 'बहूणि ' बद्दनि गोमता-गोपालादीन प्रति यथयन्ति, ' धाउमणिसिलप्प वाल स्यणागरे य साहे ति आगरीण ' धातुमणिगिलाममाळरत्नाररान साधयन्ति आकरिणाघातका लौहादयो मणया चन्द्रकातादयः, शिला:-पापाणा, मवाला प्रसिद्धाः, रत्नानि मरकतादीनि, तेपामारा उत्पत्तिस्थानानि, आफरिणादुवण-चोरणा-दियाइ साहेति णि गोमियाण ) जो गोपालकजनग्वाले होते हैं-उनसे ये (लठण ) गाय आदि जानवरों के शरीर में डाम देने के लिये, (निलउण) उन्हें निर्ला छण-वधिया करने के लिये, (धमण) उनके शरीर में वायु भरने के लिये, (दुरण) दोहन के लिये, (पोसण) पोपण करने के लिये, जब चना आदि देकर पुष्ट बनाने के लिये, (वणण) वनन-मृतवत्सा गाय को दोहन करनेके अभिप्राय से उसके साथ दूसरी गोयका बच्चा चुखाने के लिये, (दुवण ) दावनदुरते समय दोरी से पैर आदि को वाधने के लिये और (वारण ) गाड़ी आदि मे जोतने के लिये वार २कहा करते है (धाउमणिसिलप्पयालरयणागरे य साहेति आगरीण ) जो पनिपति होते हे उनके लिये लोहा दिक धातुओं, चन्द्रकान्त आदि मणियों पत्थरों, प्रवालों एव रत्नादिको " लछण-निलकण-धम्मण-दुहण-पोसण-वणण-दुरण-वाहणादियाइ साहेति बहूणि गोमियाण " गावागाने तेसो गाय माहिना शरी२ ५२ मवाने, “निल्लब्ण" तेभने नि छन-ध्या ४२पाने भाटे “धमण" तमना शा२मा उ41 HRपाने भाट “दुहण , हडपाने भाटे "पोसण" पौष ४२वान भाटे नव, यए। सामाधान पुष्ट नावाने माटे "वणण" पनन- गायनुवाछ રડુ મરી ગયુ હોય તે ગાયને દેહવાને નિમિત્તે તેને બીજી ગાયનુ બચ્ચ धरावा भाटे, “दुवण" पशु-होवाने मते हो२t 43 44 माह माय पान भाट भने ' पाहण" 20 मावाड लेवाने भाट वा२वा२ ह्या रेछ “धाउ मणिसिलप्पवोलरयणागरे य साहेति आगरीण " माशीना भासि કેને લેખડ આદિ ધાતુઓ, ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણીઓ, પથ્થરે, પ્રવાલે અને રત્ન Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनीटीका अ० २ सू० ११-१२ मृपावादीना जीवघातकवचननिरूपणम् २२१ खनिपतीन् कथयन्ति । तथा 'पुप्फनिहिं फलविहिं च साहे ति मालियाण' पुप्पविधि फलनिधि च-पुष्पजाति फलजाति च साधयन्ति मालिकाना बनपालकानाम् , 'अग्यमहु कौसए य साहेति वणचराण' अर्घमधुसोशकाच साधयन्ति वनचराणा-अश्व-मूल्पप्रमाण मधुकोशाश्वम्मपुत्पत्तिस्थानानीत्यर्थमयुकोशकास्वान् पनचराणा-मिशन प्रति कथयन्ति ॥ मू० ११ ॥ पुनरप्याह-'जताइ ' इत्यादि । मूलम्-जंताई विसाइ, मूलझम्म आहेवण-आविधण आभिओग-मंतोसहिप्पओगे चोरिय परदारगमणवहुपावकम्मकरणं अवक्खदेगामघायणं, वणदहणतडागभेयणए बुद्धिविसय वसीकरणमाइयाइ भयमरण किलेसुव्वेगजणयाइ भाववहुसकिलिट्ठके उत्पत्तिस्थानों को कहते हैं । तथा ( पुष्फविहि फलविहिं च साहेति मालियाण ) जो माली होते हैं उन्हें ये पुप्पजाति, फलजाति समजाते हैंअर्थात्-'बागमें अमुक जातिका फुल लगाओ, अमुक जाति के फल उत्पन्न करो' इस प्रकार से कहा करते हैं। (अग्घमकोसए व साति वणचराण) तथा जो वनचरभील है उनसे ये इस प्रकार कहते हैं कि तुम शहद या शहद का छाता ही ले आया करो अमुक मूल्य तुम्हें मिल जावेगा-बैठे २ क्या करते रहते हो। मृपावाद पाप करने वाले जीव जीवों को बाधा आदि पहुँचे इसका थोड़ा सा भी ध्यान नहीं रखते हैं, तथा जो जीवों को कष्ट पहुँचाने वाले मनुष्य हैं उन्हें हर एक प्रकार से जीवों को कष्ट पहुँचाने में उफमाया करते है ॥ सू ११॥ माहिना उत्पत्ति स्थान मताछ तथा " पुष्फविहि फलविहि च साहेति मालियाण " भाजीमान पुपति तथा जति पता, मेटले " मा અમુક જાતિમાં ફૂલ ઉગાડે, અમુક જાતિના ફળ ઉત્પન્ન કરો” એ પ્રકારની साड माघे छ “ अग्बमकोसए य माहेति वणचराण" तथा वनमा ५२नारा ભલેને તે આ પ્રમાણે કહે છે “ તમે મધ અથવા મધપુડે લાવ્યા કરે તમને અમુક કિંમત મળશે–અમસ્તા બેસી ગદ્ય થ વળશે?” મૃષાવાદ પાપ કરનાર વ્યકિત છેને કઇ આદિ પહોચશે તેનુ સહેજ પણ ધ્યાન રાખતી નથી, તથા જીને કણ પહાચાડનાર જે માણસ હોય છે તેમને દરેક પ્રકારે જીવોને કઈ પહોચાડવા ને ઉશ્કેર્યા કરે છે. સૂ-૧૧ I Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - १२० याइ साहति बहूणि गोमियाण' लाउननिर्लागनमानदोहनपोपणननदुगनवाहनादिकानि साधयन्ति पनि गोमिना, लाञ्छन गादीना देहे तप्त गेहादिमिचिन्ह विशेपकरण, निर्लान्छनधित्वरण मान-गपादीना शरीरे वायुपूरणं दोहन प्रसिद्धपोषण-पवचणकादिदानेन पुप्टिारण नन-अन्यमातरि उत्सादि सयोजन दावनम् उपतापन रज्ज्यादिनापादन-धनम् । पाहन-शाटादिपु योजनमित्यादि कानि 'पद्दणि ' बद्दनि गोमता गोपालादी प्रति यथयन्ति, ' धाउमणिसिलप्प वाल रयणागरे य साहे ति आगरीण ' धातुमणिगिलाममालरत्नाकरान साधयन्ति आकरिणा-घातलौहादयोमणयः चन्द्रका तादयः, शिलाः पापाणा, प्रबाला प्रसिद्धाः, रत्नानि मरकतादीनि, तेपामारा उत्पत्तिस्थानानि, आरिणादुवण-वाहणा-दियाइ साति मणि गोमियाण ) जो गोपालकजनग्वाले होते हैं-उनसे ये (लठण ) गाय आदि जानवरों के शरीर में डाभ देने के लिये, (निललण ) उन्हे निर्लाटण-वधिया करने के लिये, • (धमण) उनके शरीर मे चायु भरने के लिये, (दुरण) दोहन के लिये, (पोसण) पोपण करने के लिये, जर चना आदि देकर पुष्ट बनाने के लिये, ( वणण ) वनन-मृतवत्सा गाय को दोहन करनेके अभिप्राय से उसके साथ दूसरी गोयफा बच्चा चुसाने के लिये, (दुवण ) दावनदुरते समय दोरी से पैर आदि को वाधने के लिये और (चाहण) गाड़ी आदि मे जोतने के लिये वार २ कहा करते है (वाउमणिसिलप्पवालरयणागरे य साति आगरीण ) जो ग्वनिपत्ति होते है उनके लिये लोहा दिक धातुओं, चन्द्रकान्त आदि मणियों पत्थरों, प्रवालों एव रत्नादिको " लछण-निलष्ण-धम्मण-दुहण-पोसण-यणण-दुरण-पाहणादियाइ साहेति बहणि गोमियाण " गावाजान तेगा पाय माहिना शरी२ ५२ भवान, "निल्लष्ण" भने निर्वाचन-१ध्या ४२वाने भाटे “धमण" तभना शरीरमा उवा २पाने भाट “ दुहण ' होवार भाट "पोसण" पोषयु ४२वाने भाटे ४५, या माहि मापान पुष्ट नावाने भाट “वणण" बनन-२ गायनुवाछ રડ મરી ગયું હોય તે ગાયને દેહવાને નિમિત્તે તેને બીજી ગાયનું બચ્ચું परावा भाटे, “दुवण " qg-दोषाने मते हो२४1 43 41 मामा पाने भाट भने ' वाहण" on मा पाने नेवार भाट वा२ पा२ ह्या रेछ "धाउ मणिसिलप्पयोलरयणागरे य साहेति आगरीण "माणुन भास કેને લેખડ આદિ ધાતુઓ,ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણીઓ, પથ્થરે, પ્રવાલે અને રન Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ २ ० १२ मृपावादीनां जीवघातकवचननिरूपणम् २२३ पापकर्मसमाचरणम् , तमा 'अपवखदे' आस्कन्दान् सैन्यशिपिरादिभिराक्रमणेन. परनलमर्दनानि धाटीर्मकरणानि या गामघायण' ग्रामघातन यामादिनाशन 'वणदहणतडागभेयणए' बनदहन-तडाग-भेदनानि-वनज्वालनानि जलाशय घसनानि च 'धुद्धिविसयवसीकरणाइयाइ' बुद्धिविपयरशीकरणादिकानि परस्य बुद्धेर्विपयस्य च गन्दादेः वशीकरणानि मन्त्रादिप्रयोगेणु स्वायत्तीकरणानि 'भय मरणकिलेमुव्वेगजणयाट' भयमरणक्लेशोद्वेगजनमानि भय च मरण च क्लेशश्च शारीरिकउद्वेगश्च हार्दिक दुःखमित्येतेषा जनकानि तथा 'भार बहसमिलिटभावमरिणाणि ' भाषबहुसक्रुिटमलिनानि-भावेन अयवसायेन बहुसक्लिप्टेन अतिशयपरसन्तापजनकेन मलिनानिक्लुपितानि तथा 'भूयधाओवधाइयाड' भूतघातोपघातकानि-भृताना माणिनां घातः साक्षात् हनन उपघातश्च-परम्परयाइनन तो येषु तानि भूतातोपातकानि पूर्वोक्तानि 'सच्चाणिवि ' सत्याकरने को, तथा ( अवक्खदे ) सैन्य शिविर आदिके द्वारा आक्रमण करके पर के वलको मर्दन करने रूप कर्म को अपना धाडपाड़ने रूप डकैतीकर्म को, (गामायण ) ग्रामघातकरूपकुकृत्य को, (वणदहणतडागभेयणए) जगलो मे आग लगाने रूप, तथा जलाशयों को ध्वस करने रूप दुष्कृत्यों को, (घुद्धिविमयवसीकरणमाइयाइ) मत्रादिकों के प्रयोग से पर की घुद्धि को, एव शब्दादिक पांचो इन्द्रियों के विषयोकों स्ववश करने रूप अकृत्यों को कोई पूछे अथवा न पूछे तो भी घताया करते हैं, तथा (भयमरणकिलेसुव्वेगजणयाइ ) भय, मरण, क्लेश, उद्वेग, इनके उत्पादक असत्यवचनों को, तथा (भावरसकिलिमलिपाणि ) अत्यत सक्लिष्ट अतिशयरूपमे पर को सतापजनक, ऐसे अध्यवसाय से मलिन हुए तथा (भूयवाओवघाइयाइ)प्राणियों के साक्षात् આદિ દ્વારા આક્રમણ કરીને અન્યના બળનું મર્દન કરવારૂપ કર્મ તથા ધાડ पापानी ने, “गामगायण" ॥ला३५ हुत्यने, “वणदहणतडाग भेयणए " Part PNRN3ाना तय शयन लेडी नात्याने, " बुद्धिविसयवसीकरणमाइयाइ" भनि प्रयोगथा पा२४ानी पुद्धिने, भने, શબ્દાદિક પાચેઈન્દ્રિયના વિષયેને પિતાને વશ કરી લેવા રૂપ દુષ્કૃત્યને કઈ पूछ अथवा न पूछे ते! ५ ते भृपावादी मताव्या ४२ छ, तथा “ भय मरण किलेसुव्वेगजणयाइ" लय भए, देश, द्वेग मापन ४२ना२ असत्य पयनी, तथा " भावबहुसकिल्मिलिणाणि" सत्यत ससिट, मन्यने न्मतिशय सतान मेवा अध्यवसायथी भलिन थयेस तथा “ भूयघाओव Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ प्रभयाकरण मलिणाई भूयघाओवघाइयाइ सञ्चाणि वि ताई हिंसगाई वयणाइ उयाहरति पुटा वा अपुटा वा ॥ सू० १२ ॥ टीका-'जताइ' यन्त्राणि तिलनिप्पीडनादि यत्राणि उदाहरन्तीति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । 'विसाइ 'रिपाणि-क्षणमात्रमाणहारस्तारपृटमादीनि स्था वरजगमभेदानि । मूलकम्मआहेवणाधिणमामिओगमतीसहिप्पओगे' मूल कर्माक्षेपणापर्धनाभियोग्यमन्त्रीपधिप्रयोगान्मूलयमगर्भपातनादिकम्, अथवा मूलनक्षत्रादि जातस्य तदोपशान्त्यर्थ स्नानकर्मादिकम् , आक्षेपण-नगरादि क्षो भोत्पादनम् , आर्धन-धनादीना मन्त्रमयोगेण हरण आभियोग्य चम्चशीकरणादि तच द्रव्यतो द्रव्यसयोगमनित भारतो विद्यामन्नादिसनात बलात्कारजनित बा, तथा मन्त्रीपधिप्रयोगान् मन्त्रमयोगान् औषधिमयोगाथ, तथा 'चोरियपरदार गमणनहुपारकम्मकरण' चौर्यपरदारगमनापापकर्मफरण = चौर्यपरस्त्रीगमनादि फिर भी कहते है--'जताइ विसाइ' इत्यादि। टीकार्थ-(जताइ) यत्रो को-तिल आदि के निप्पीडक कोल्न आदि पदार्थों को (विसाइ) क्षणमात्र में प्राणों को नष्ट करने वाले तालपुट, सर्प आदि स्थावर जगेम विपोंको (मूलकम्म-आहेवण-आविधणआभिओग-मतोसहिप्पओगे) गर्भपातन आदि रूप मूलकर्म को, अथवा मूल नक्षत्र में उत्पन्न हुए चालक के दोषशाति के लिये स्नान कर्म आदि को, नगरादिक मे क्षोभोत्पादनरूप आक्षेपण को, मत्र के प्रयोग से धनादिकों के हरणरूप आवर्धन को, वशीकरणादिरूप आभियोग्य कर्म को, तथा मत्र प्रयोगों को, औषधि के प्रयोगो को तथा (चोरियपरदार गमणचटुपायकम्मरण) चोरी, परदारगमन आदि रूप पापकों के ९७ ५ सूत्रा२ ४९ छ-"जताइ विसाइ" त्या टा--" जताइ" तर माहियावानाधाय माहानि “विसाई" એક ક્ષણમાજ પ્રાણ હરી લેનાર તાલપુટ, સર્પ આદિ સ્થાવરજ ગમ વિષોને, " मूलफम्म-आहेवण आविंव-आभिओग-सतोसहि-पओगे" गर्मधातन utle રૂપે મૂલકર્મને, અથવા મૂળ નક્ષત્રમાં જન્મેલા બાળકની દેષશાન્તિ માટે સ્નાન કર્મ આદિને, નગરાદિમા ક્ષોભ ઉત્પન્ન કરવારૂપ આક્ષેપણને, માત્રપ્રયાગ વડે ધનાદિના હરણરૂપ આવર્ધનને, વશીકરણદિરૂપ આભિગ્યકર્મને, તથા માત્ર प्रयोगान, मीषधि प्रयोगाने तथा “ चोरियपरदारगमणरहुपायकम्मकरण" यारी, पारगमन, माहि ५४ी ४२पाने, तथा 'अबक्खदे " शिमिर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ - - सुदर्शिनी टीफा अ० २ सू० १३ मृपावादिना जीवघातकयचननिरूपणम् पुनरप्याह-'परतति' इत्यादि । मूल्य-परतत्तिवावडाय असमिस्खियभासिणो उवदिसंति सहसाउद्दा-गोणा-गवया दमतु, परिणयवया अस्सा हत्थीगवेलगकुम्डा य फिजतु क्षिणावह निकैहय पचह सयणस्स देह पीयह दासीदास-भयग-भाइल्लगा र सिस्सा य पेसकजणो कम्नकरा किकरा य एए यणपरिजणा य कीस अच्छति भारिया भे रेतु कम्म, गहणाइ वणाइ खित्तखिल भूमिवल्लराइ उत्तणघणलकडाइ उज्झतु सूडिज्जतु य रुस्खा भिज्जतु जताइ भंडाइयस्त उबहिस्स कारणाए, बहुविहस्स अट्ठाए उच्छ टुज्जतु पीलिज्जतु य तिला, पयावेह इट्टयाओ मम घरह याए स्वेत्ता य कसह कसावेह वा, लहु गामनगरखेडकव्वडे सनिवेसेह, अडबीदेसेसु विउलसीमे, पुप्फाणि फलानि य कदमूलाइ कालपत्ताइ गिण्ह, करेह सचय परिजणस्स अट्टाए ॥ १३ ॥ भी पूछे तो भी बताया करते हैं। जिन वचनो से भय भरण आदि उपद्रव पडे से जावें, दूसरोंको सुनकर जिन से चित्त मे मलिनता आ जावे, ऐसे वचन भी वे योल दिया करते हैं। सत्य रोने पर भी जो प्राणियों के प्राणो को राकट ने डाल देते हो-प्राणियों की साक्षात् अथवा परम्परा से हिंसा के जो सारनभृत ननने हों से सब ही वचन असत्य ही है, और उन्हे ये असत्यवादीजन योला करते है । सू०१२ ॥ વિષે મૃષાવાદી માગને કોઈ પૂછે કે ન પૂછે તો પણ તે બતાવ્યા કરે છે જે વચનેથી ભય, મણ આદિ ઉપદ્રવ પેદા થાય, જે વચને સાભળીને અન્યના મનમા મલિનતા ઉત્પન થાય, એવા વગને પણ તેઓ બોયા કરે છે સત્ય હોવા છતા પ! જે વચનેથી પ્રાણીઓના પ્રાણ ભયમાં મૂકાય-પ્રાણીઓની સાક્ષાત હિંસાના અથવા પર પરાથી હિંસાના જે કારણરૂપ બનતા હોય એવા બવા વચને અસત્ય જ છે, અને તે અસત્યવાદી માણસ તેવા વચને બોલ્યા કરે છે સૂ-૧ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्रमध्यापरण न्यपि सरूपतस्तथ्यान्यपि, फिन्तु-अपि-निधयेन हिंगगाह' हिमकानि-परि णामतः पाणिप्रागोपघातकानि तम्मादसत्यस्वरूपाणि, 'यणाइ' वचनानि, 'पुट्ठा चा अपुठा पा ' पृष्टा वा केनापि, अपृष्टा पाऽपि-अलीकलादिनः 'उयाहरति' उदाहरन्ति-कथयन्ति ।। सू० १२ ॥ अथवा परम्परा रूप से घात करने वाले ऐसे (सच्चाणि चि) स्वरूप से सत्य भी हो किन्तु निश्चय में (हिंसगाइ) परिणामत. प्राणियों के प्राणों के उपघातक होने के कारण असत्य स्वरूप ही होते हैं। ऐसे (वयणाइ ) वचनो को (पुट्ठा या अपट्ठा वा) असत्यवादीजन चाहे उनसे कोई पूछे अथवा न पूछे तो भी (उयाहरति ) कह दिया करते हैं। भावार्थ-मृपावादीजन अनेकविध प्राणिपीडक यत्रो को बनाने के लिये, विविध प्राकर के वियों का निर्माण करने के लिये दूसरों को उपाय बतलाया करते हैं । गर्भ का पतन कैसे किया जाना है, नगरा दिकों में क्षोभ उत्पन्न कैसे हो सकता है, दसरों को वश में कैसे किया जा सकता है, चोरी करने के क्या २ साधन हैं, परस्त्रीगमन करने का क्या उपाय है, दूसरों की सेना को कैसे परास्त किया जाता है, ग्राम आदि में उपद्रव कैसे उत्पन्न किया जाता है, जगल आदि में आग लगाना, तडाग आदि जलाशयो को शुष्क करना-सूग्वाना, इत्यादि सब प्रकार के इष्ट प्रयोगो को गृपावादी जन चाहे उनसे कोई पूछे अथवा न घाइयाइ" प्राणीमाना साक्षात पात ७२ना२ अथवा ५२५२१ ३२ घात ४२ना२ मेवा " सच्चाणि वि" स्१३५ सत्य जाय तो पण अवश्य "हिंसगाई" पार ણામ જતા પ્રાણીઓના પ્રાણોની હત્યા કરનાર હોવાથી અસત્ય સ્વરૂપ જ હોય छ वा " वयणाइ " क्यने "पुटा वा अपुदा वा" सत्यवाही भाणुस ते 3 पूछे 3 न पूछे छत पY " उयाहर ति" माया ४२ छ ભાવાર્થ-મૃષાવાદી માણસ અનેક પ્રકારના પ્રાણીપીડક યા બનાવવાને માટે તથા વિવિધ પ્રકારના વિષ બનાવવાને માટે બીજા લોકોને ઉપાય બતા વ્યા કરે છે ગર્ભપાત કેવી રીતે કરાવાય છે, નગર આદિમાં કેવી રીત ક્ષેત્ર ઉત્પન્ન કરી શકાય છે, બીજાને કેવી રીતે વશ કરી શકાય છે, ચોરી કરવાના કયા ક્યા સાધન છે, પરસ્ત્રીગમન કરવાના કયા કયા ઉપાય છે અન્યના સિન્યને કેવી રીતે પરાજ્ય આપી શકાય છે, ગામ આદિમાં કેવી રીતે ઉપદ્રવ પદા કરી શકાય છે, જગલ આદિમા કેવી રીતે આગ લગાડાય છે, તળાવ આદિ જળાશને કેવી રીતે સૂકવી નખાય છે, ઈત્યાદિ સર્વે પ્રકારના Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टोका अ० २सू० १०-१३ मृपावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् ३२७ 'पीयह' पिपत-मदिरादिक ' दासीदासभयगभाइटगा' दासीदासभृतकमा गिकाः दास्या सेविकाः दासा प्रसिद्धाः, भृतसम्भृत्या-भक्तदानादिना पोपिता , भागिसाधनादेयतुर्यादि भागग्राहका. 'सिस्मा य' शिष्याश्व प्रसिद्धाः 'पेसकनणो' भेप्यकजन कार्ययोजनेषु मेपणीयो जन 'कम्मकत' कर्मकरा= नियतमाल कर्मकुर्वन्ति ये ते कर्मकराः, किंकराच अन्नपूर्वककार्यकारिणः 'एए' एते 'सयणपरिजणे' जनपरिजनाथ सजना मातापितृभ्रादयः, परिजनाः सम्बन्धिनः 'कीस' कस्मात् कारणान् 'अन्छति' आसते कार्य परित्यज्योपविष्टाः सन्ति 'भे' भवता 'भारिया' भारिका. भारवाहिनतम्म' कर्म 'करे तु' कुर्वन्तु, नधा 'गहणाइ पणाइ ' गहनानि पनानि 'सित्तखिल भृमिवल्लराउ ' क्षेत्र देह ) मासादिको अपने स्वजन सपरियोंके लिये दिया करो, (पीयह ) मदिरादि का पान किया करो, (दासीदास भयगभाइहमा य सिस्सा य पेसकजणो कम्मररा किंकग ए सयणपरिजणा य कीस अच्छति) ये तुम्हारे दासी, दाम, भृत्य भागीदार, शिवजन, प्रेप्यकजन, कर्मकर और किंकर तथा रजिन परिजन किस कारण से अपने २ काम कोछोड़ कर बैठे हुए है। इनमें कठिन शब्दोका अर्थ इस प्रकार है-अपने घर पर ही जो भोजनादि से पुष्ट किये जाते है वे भृत्य हैं। कोई प्रयोजन वश जो कामके लिये भेजे जाते हैं वे प्रेष्यकजन है। नियत कालतक जो मजूरी करते हे वे कर्मकर है । प्रश्नपूर्वक पूछकर काम करनेवाले जन किकर है। माता पिता लाई आदि स्वजन सम्बन्धीजन आदि परिजन है। (भे भारीया कम्मं करेंतु) तुन भारिक-अपने भारढोनेवाले मनुष्यो सेगरी , तया "विकोहर" क्यो, भने "पचह" मोनाहि (मात विरे) राधे। “ सयणस्स देह" माम मा तमाम मधीन मनमा पारसे। " पीयह" महिए (1३) मा पान उ, "दासीदासभयगभाइल्लगा य सिस्सा य पेसाजणो कम्मकरा किंकरा य एसयणपरिजणा य कीस अच्छति ” से तमाश દાસી, દામ, બૃત્ય, ભાગીદાર, શિષ્યજન, પ્રેષ્યજન, કર્મકારકિર અને સ્વજન પરિજન કયા કારણે પિત પિતાના નામે છોડીને બેઠા છે ! ઉપરના સૂત્રમાં આવેલ કઠિન શબ્દના અર્થ આ પ્રમાણે છે–પોતાને ઘેર જ ભેજનાદિ આપીને જેમનુ પિષણ કરાય છે, તે લે તે ભૂત્ય કહે છે કેઈ પ્રયોજનથી જેમને કોઈ કામે મેકલાય છે તેમને શ્રેષ્યન કહે છે નક્કી કરેલા સમય સુધી જે મજૂરી કરે છે તેમને કર્મકર-કારીગર કહે છે પૂછી પૂછીને કામ કરનારા સેવકને કિંડર કહે છે માતા પિતા ભાઈ આદિ સ્વજન ગણાય છે, સબ ધીઓને પરિજન કહે છે " मे भारिया कम्म करे तु" तमे मारि-मापणे। भा२ १९न उना२। पासे Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रश्नग्याकरणसूत्र टीका-परततिमापडाय' परतृतिव्यापृताथ % परमसमतामरणतत्पराः अथवा परतप्तिव्यापृताः परचिन्तापरायणा 'असमिक्सियभामिणो ' अममी क्षितभापिणः अपर्यालोचितवक्तारः 'उपदिसति' उपरिणन्ति-गापयन्ति सहसा =अकस्मात् अकारणमेवेत्यर्थः तदेवाह-यत् 'उहा' उदा: प्रमिद्धाः 'गोणा गावः चलीवर्दा, गवयाः गोसना न्या' रोक्ष' इति भापा प्रसिद्धा' पशुविशेषा' 'दमतु' दम्यता:एते गिक्ष्यन्ताम् । तथा 'परिणयवया' परिणतवयम' तरुणाः 'अस्सा' अश्वाः 'हत्यी' हस्तिन. प्रसिद्धा गोरया मेपाः 'कुक्कुडा' कुक्कुटाश्व-भतीताः 'विज्जतु' कोयन्ता मूल्यन गृह्यन्ना 'रिणावहय' कापयतपूर्वोक्तानामेन क्रयण कारयत 'निरकेह' मिीणी-गिराय कुरुत 'पचह' पचत-पाक कुरुत तथा 'मयणस्स ' स्वजनाप ' देह' दत्त-मासादिक दीयता फिर भी करते हैं.--'परतत्ति' इत्यादि टीकार्य-(परतत्तिवावटा य ) जो दूसरों को प्रसन्न करने में तत्पर रहते हैं, अथवा पर को चिन्ता में परायण रहा करते हैं वे (असमि क्खियभासिणो) विना विचारे ही बोल दिया करते है, इस बात का वे विचार नहीं करते है कि हमारे इन वचनों से दूसरे प्राणियों को कष्ट होगा, (महसा उबदिसति ) विना कारण केही यो दूसरो से कह देते हैं कि तुम लोग ( उद्यागोणागवया दमतु ) ऊँटों को, बैलों को तपारोझाँ को दमनकरो-अच्छी चाल चलना सिखलाओ (परिणयवया अस्सा हत्थी गवेलका कुक्कुडा किज्जतु ) तरुण, घोडे, हाथी, मेप, कुकुट, इन जानवरों को स्वय खरीदो और (किणावह ) दुसरो को परीदवाओं तथा (विस्कर य) येवो ओर ( पचह )ओपनादि पकाजो ( सयणस्त ते विष ७ ५ सूत्रा२ ४ - " परतत्ति " ula टी -"परतति वावडाय "२ मीखोटीने मुस २वाने मातुर डाय छ, अथवा पानी यिन्ताम॥ ५२राय २ तो ' असमिबिम्ब यभासिणो" विया उर्या विना माया ४२ छ तेसो भयो विया२ ७२ता नथी समा। २. क्यनाथी भी प्राणायाने उपट पडायरी " सहसा उपदिसति" तसा विना १२६] भी सामने ४३ छ तमे “ उट्टागोणा गवया दमतु" Gटनु, मोनु तथा शओनु भन ४२-मारी यास यासता शिwa " परिणयरया अस्सा हत्थी गवेलका कुक्कुडा किज्जतु" युवान, घोडा, डाथी धेट ४, मा तमे ते म अने “किणावेह " मीत पासे Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टोका अ० २सू० १०-१३ मृपावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २२७ 'पीयह' पिवत-मदिरादिक ' दासीदासभयगभाउल्लगा' दासीदासभृतकमा गिमाः दास्य सेविकरा. दासाः प्रसिद्धा, भृतमाः भृत्या-गक्तदानादिना पो. पिता , भागिायनादेश्चतुर्थादि भागग्राहकाः 'सिस्मा य' शिष्याश्च प्रसिद्धाः 'पेसकनणो' प्यफजन कार्यप्रयोजनेषु पेपणीयोजन 'फम्मकरा' कर्मफरानियतराल कमकुर्वन्ति ये ते कर्मकराः, किंकराच-पत्नपूर्वककार्यकारिणः 'एए' एते 'सयणपरिजणे'चजनपरिजनाच म्पननाः मातापितृभ्रासादयः, परिजनाः सम्बन्धिनः 'कीस' सम्मात् कारणात् 'अन्छति' आसते कार्य परित्यज्योपविष्टाः सन्ति 'मे' भरता 'भारिया' रिकाभारवाहिन' 'जम्म' कर्म 'करेतु' कुर्वन्तु, नया 'गहणाइ वणाद' गहनानि चनानि 'सित्तखिल भूमिवल्लराइ' क्षेत्र देह ) मासादिको अपने स्वजन सनधियोंके लिये दिया करो, (पीयह ) मदिरादि का पान किया करो, (दासीदास भयगभाइलमा य सिस्सा य पेसकजणो कम्मररा किंकरा ॥ सयणपरिजणा यकीस अच्छति) ये तुम्हारे दासी, दाम, भृत्य मागीदार, शिष्यजन, प्रेप्यकजन, कर्मकर और किंकर तथा रवजन परिजन किस कारण से अपने २ काम कोछोड़ कर बैठे हुए है। इनमें कठिन शब्दोका अर्थ इस प्रकार है-अपने घर पर ही जो भोजनादि से पुष्ट किये जाते है वे भृत्य हैं। कोई प्रयो जन वश जो कामके लिये भेजे जाते ह वे प्रेष्यकजन है। नियत कालतक जो मजूरी करते हे वे कर्मकर है । प्रश्नपूर्वक पूछकर काम करनेवाले जन किकर है। माता पिता भाई आदि स्वजन सम्बन्धीजन आदि परिजन है। (भे भारीया कम्मं करेंतु) तुम मारिक-अपने भारढोनेवाले मनुष्यो सेमशह गवा, तथा "पिकोहय" क्यो, भने "पचह" साना (लात विशेष) गधे “ सयणस्स देह" मास मादि तमासमा धान रनमा पारसे! " पीयह" महिग (३) माहि पान २, "दासीदासभयगमाइलगा य सिस्सा य पेसाजणो कम्मकरा किंकरा ए मयणपरिजणा य कोस अच्छति " से तमा। દામી, દાસ, ભૂત્ય, ભાગીદાર, શિષ્યજન, શ્રેષ્ય જન, કર્મકારકિર અને સ્વજન પરિજન કયા કારણે પિત પિતાના નામે છોડીને બે છે! ઉપરના સૂત્રમાં આવેલ કઠિન શબ્દના અર્થ આ પ્રમાણે છે-પિતાને ઘેર જ ભેજનાદિ આપીને જેમનુ પિષણ કરાય છે, તે લતે ભૂત્ય કહે છે કોઈ પ્રયજનથી જેમને ઈ કામે મોકલાય છે તેમને શ્રેષ્યજન કહે છે ની કરેલા સમય સુધી જે મજૂરી કરે છે તેમને કર્મકર-કારીગર કહે છે પૂછી પૂછીને કામ કરનારા સેવકોને કિકર કહે છે માતા પિતા ભાઈ આદિ સ્વજન ગણાય છે, સ બ ધીઓને પરિજન કહે છે " भे भारिया कम्म करेतु" तमे भारी-मापणे मार पडन उ२ना। पासे Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनपाकरणसूत्रे भूमयःराणि= , खिलभूमिनाराणि=क्षेत्राणि= प्रसिद्धानि सिलभूमयः = क्षेत्रविशेपाथ तानि 'उत्तणत्रण सकडाड' उच्णघनसन्दानि वत्र उत्तणे = उन्नतः घामेः घनम् = अतिशयं सप्रटानियापनियानि तानि 'उज्झतु ' दन्ता=भस्मीभूतानि क्रियताम् । रुरखा' वृक्षा' 'मडिज्जतु ' म्रयन्ता = मृल्त उन्मूल्यन्ताम् । 'जताड' यन्त्राणि = विलेधुरापपादिपीडनाणि 'भिजतु' भिन्दन्तु । किम र्थमित्याह – ' भाडाइस् भाण्डापि भाण्डपात्रादे 'उनहिम्म' उपधेः = उपकरणस्य ' कारणाए ' कारणान प्रयोजनाय । तथा 'हुस् ' अनेकप्रकारस्य ' अाए ' अर्थाय = पक्ष्यमाणमयोजनस्य ' मिद्धय 'उच्छ 'इक्षत्र ' दुज्जतु ' दूयन्ता = रिधन्वा 'विलाय ' विराध 'पीलिज्जतु' पीडयन्ता निष्पी उयन्ता यन्त्रे | तथा मम 'घरटुए' ग्रहार्थाय = गृहनिर्माणमयोजनाय 'इट्टयाओ' इष्टकाः = ' ईट' इति प्रसिद्धा. 'पचानेह ' पाचयत । ' मेत्ताय कस कसावेह ' नौकर चाकरों से कस कराओ वे (गणार वाह) गहन वनों को, (वित्तखिलभूमिवराह) खेतों को, हलाकूड भूमिको यारों-खेतविशेषों को (उत्तणघणसरुडाइ ) घास आदिले व्याप्त है, ( उज्नतु ) उनमें आग लगाकर वहाकी भूमिको माफ करें ( कग्वा सूडिज्जतु ) वहा जितने भी वृक्ष खडे हो उन्हें जड़मूल से उखाड़ डालें (जताइ भिन्नतु) तिल इक्षु आदि के पीलनेके यत्रोंको ये चीर फाड़ डालें कि जिससे ( भांडार इस्स उचहिस्स कारणाए ) भाउ पात्र आदि उपकरण बनाये जा सकें । तथा (टुहिम अट्ठा उच्छ दुज्जत ) अनेकविध प्रयोजनों की सिद्धि निमित्त ये इक्षु-गन्ना को काटे, ( तिला य पीलिज्जतु घरट्ठ याए ) तिलो को घानी मे पिले तथा (इहयाओ पयावेह ) गृह निर्माण के लिये ये ईटों को पकावे, (खेत्ता य कसर कसावेह ) खेतों को जोते व जुतवावें = हाकना और Pकवाना चोकना और चोकवाना ना४२ याज्। पासे अभ ऽशवो, 'गहणाइ वणाइ" गहन वनोने, “सित्तसिलभूमि बहराइ " भेतरो, वहाशे ( भेज् अारनु तर ) } ? " उत्तणघणसकडाइ ” ઘાસ આદિથી છવાયેલ છે, ज्झतु " तेभा माग सगाडीने ते हसीनने साई ४रावा, स्क्वा सूडिज्नतु ” त्या भेटला वृक्षो छे तेभने भृणमाथी उजेडी नाचो, 26 जताइ भिज्नतु તલ, શેરડી આદિ પીલવાના યત્રાને તે તેાડી ફાડી નાખે કે જેથી भाडाइयरस उवहिस्स कारणाए "" ભાડ, પાત્ર माहि साधना मनाची राजय तथा " बहुविहम्स अट्ठाए उच्छ दुज्नतु " अने अभरना प्रयोजननी सजता भाटे तेथेो शेरडीने जये " तिलाय पीलिज्जतु " तसने घालीमा पीडे, तथा " इहयाओ पयावेह " घर पधाववाने घरा भाटे घंटा यावे, “सेत्ता य कसह कसविह " मेतरा मेडे भने भेडावे, तथा ८८ ३२८ " ܕܐ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका न. २ सू० १३ नृपाचादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २२९ क्षेत्राणि च 'स' कर्पत-कर्पयत मा । तथा ' अडचीदेसेसु' अटवी देशेषु-बन प्रदेशेषु 'गामनगरखेटकपडे' ग्रामनगरसेटमलटानि-जन ग्रामश्च नगर च प्रसिद्ध खेट च-नद्यादिवेप्टित धूलिपाकाररहित कट चगुत्सितजननिवासस्थानम् , तानि कीटशानीत्याह-चिउलसीमे' विपुलसीमानिविस्तीर्णसीमायुक्तानिरहु' रघु-मुदररोत्या शीघ्र पा सनिवेसेह' सन्निवेशयत=निवासयत तथा 'पुप्फाणि फलाणि य ' पुप्पाणि फलानि च 'कदमूलाइ' कन्दमूलानि तन कन्दा स्वर्णकन्दशर्कराकन्दलशुनादय मूलानिवृक्षमूलकानि 'कालपत्ताइ' कालमाप्तानि-उचितसमयलब्धानि 'गिण्ड' गृहीत-ग्रहण कुरुत, तथा ' पग्जिणस्म ' परिजनस्यकुटुम्बस्य, 'अद्वाय' अर्याय प्रयोजनाय सञ्चय 'करेह ' कुरुत ।। सु०१३ ॥ तथा (अडवीदेसेसु गामनगरखेटकपडे विउलसीमे लह सनिवेसेह) ग्राम, नगर, खेट, कर्यट आदि स्थानोको विस्तृत सीमायुक्त कर के अटवी देशोमें सुन्दर गति से शीघ्र बसावं, ( पुप्फाणि फलाणि य कदमूलाइ कालपत्ताद गिण्ह ) तुम लोग (कालपत्ताड ) कालप्राप्त फूले हुए (पुप्फाइ ) फलों को ( फलाणि ) पके हुए फलों को तथा (कदमृलाइ) पके हुए स्वर्णकन्द, राकद, लहसुन आदि कदों को और पिप्पलीमूल आदि मृलों को ( गिण्ड) ले आया करो, तथा (करेह सचय परिजणस्स अट्ठाए ) कुटुम्न के लिये धन आदि का सचय कर रख जाओ। भावार्थ-ये जसत्यवादीजन दूसरे व्यक्ति रमसे प्रसन्न रहें इसलिये सुहाती बाते उनसे करते रहते ह । इनका परिणाम क्या होगा? इसका वे जरा सा भी ध्यान नहीं रखते । जो ऊँट पालते है अथवा ऊँटसे जो " अडवोदेसेसु गामनगरखेडकबडे पिउल्सीमे लहु सनिवेसह " आम, नगर, ખેટ, ડર્બટ, આદિ સ્થાને વિસ્તૃત સીમાવાળા કરીને તજજડ પ્રદે મા સુદર रीत ४५थी वसावे, “पुष्पाणि फलाणि य कदमूलाइ कालपत्ताइ गिण्ह" तमे सो “काल्पत्ताइ" पिसवाने समय भारत विउसेवा " पुप्फाइ” सोने " फलाणि " पाउदा यानी तथा “ कदमूलाइ” पाउदा - १६-गया ससा मा होने तथा विपक्षी भृण मा भृगाने "गिण्ह " A माव्या उ२, तथा " करेह सचय परिजणस्स अदाए " टु५ माहिन भाटे धन આદિને સચય કર્યા કરે” એ પ્રકારની સલાહ આયા કરે છે ભાવાર્થ–તે અસત્યવાદી લેકો બીજા લેકોને ખુશ કરવાને માટે તેમને ગમે તેવી વાતે તેમની સાથે કર્યા કરે છે પણ તેનું શું પરિણામ આવશે? તે બાબતને તેઓ જરા પણ વિચાર કરતા નથી ઊંટ પાળનારને અથવા ઊ ટને Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रश्नव्याकरण खिलभूमिनल्छराणि क्षेत्राणि असिद्धानि पिलभूमया हाफप्टममयः वहगणिक्षेत्रविशेपाच तानि 'उत्तणवणमाडाई उत्तणघनमस्टानि-तत्रउत्तण उगतः धामः घनम् अतिशय सम्टानियापनियानि तानि 'इज्जतु'दान्ता भस्मीभूतानि क्रियताम् । भरखा' रक्षा' 'गडिज्जतु ' मुज्यन्ता = मूलत उन्मूल्यन्ताम् । 'जताइ' यन्त्राणि = तिलेशुरापपादिपीडनयन्त्राणि 'भिज्जत ' मिन्दन्तु । किमर्थमित्याह-'भाडाइस भाण्डास्पि -भाण्डपात्रादे 'उहिम्म' उपधःउपकरणस्य 'कारणाए ' कारणाप-प्रपोजनाय । तथा 'यहुरिहस्म' बहुवियस्य 'अनेकप्रकारस्य 'अद्वाए 'अर्थायरल्यमाणायोजनम्य 'मिद्धय 'उच्च दक्षव 'दुज्जतु' द्यन्ता-डियन्ता 'तिलाय ' निलाच 'पीलिज्जतु' पीचन्ता-निप्पी उयन्ता यन्त्र । तथा मम 'घरस्तुए' गृहार्थाय गृहनिर्माण योजनाय 'इट्टयाओ' इष्टकाः= ईट' इति प्रसिद्धा 'पचायेह' पाचयत । 'सेत्ताय कसह कसावेह' नौकर चाकरों से कास फराओ चे (गाणा पणा) गहन वनों को, (खित्तखिलभूमिबलराइ) खेतों को, लाकृष्टभूमिको-वल्लरों-सेतविशेषा को (उत्तणघणसाडाइ ) घास आदिले व्याप्त है, (उज्जतु) उनमें आग लगाकर वहाकी भूमिको साफ करें (कम्पा सूडिज्जतु) वहा जितने भी वृक्ष खडे हो उन्हें जडमल से उखाड़ डालें (जताइ भिन्नत तिल इक्षु आदि के पीलनेके यत्रोंको ये चीर फाड़ डालें कि जिससे ( भांडारहस्स उबहिस्स कारणाए) भाउ पात्र आदि उपकरण बनाये जा सकें । तथा (बहुविस्म अहाए उच्च दुज्जतु ) अनेक विध प्रयोजना की सिद्धि निमित्त ये इक्षु-गन्ना को काटे, (तिला य पीलिज्जतु घरट्ट याए) तिलों को पानी मे पिले तपा (इयाओ पयावेर) गृह निर्माण के लिये ये ईटों को पकाचे, (खेत्ता य कसह कसावेह) खेतों का जोतें व जुतवावे = हाकना और इकवाना चोकना और चोकवाना ४२ या ३१ पासे आम रावो, 'गहणाइ वणाइ” गहन वनान, "सित्तसिलभूमि वल्लराइ" भेत, पदरी (2 जानु जेत.) २उत्तणघणसकडाइ" घास माहिया छपाये छ, “ डज्झतु " तेमा मा न ते भानन सा५ ४२।।, " रुस्वा सूडिउनतु " या २८मा वृक्षो छ भने भूगमाया उमेडी नाणी, “जताइ भिज्नतु" तस, शेठी ALE पासवान। यत्राने तमा तहसी ना थी " भाटाइयस उबहिस्स कारणाए" als, पात्र म साधना मनापी डाय तथा “ वहुविहस्स अट्टाए उन्छ दुज्जतु" मन: ४२ प्रयासननी साता भाटे ते शे२डीने जपे “ तिलाय पीलिज्जतु घरट्याए" तसने घाम पाले, तथा " इयाओ पयावेह" ५२ पापवान भाट 2 पावे, “ खेत्ता य कसह कसावेह" मेत। मेरे मन मेवे, तथा Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २० २ सू०१३ मृपावादिना जीवघातक्यचननिरूपणम् २३१ है ? कम से कम चना ही भूजकर बेचा करो। तुम तो पैसे वाले हो, तुमने हम मनुप्य जन्म को पाकर क्या आनद पाया मदिरा आदिमें जो आनद है वह और कहा हो सकता है, इसलिये इन्हें खूब खाओ पीओ और पचने पर अपने मित्र दोनों को भी खिलाया पिलाया करो। देखो-तुम्हारे ये नौकर चाकर टासी दास आदि जन चैटे २ क्या करते है ? कम से कम तुम इनसे गहन जगलों को ही साफ कराकर उन्हें खेत आदि के योग्य पनवालो । वृक्ष आदि कट जाने पर वहा पडी अच्छी तरह से खेती के योग्य भूमि तैयार हो सकती है। तुम्हारे पास जो ये यत्र पड़े हुए हैं वे अब तो कुछ काम में तो नहीं आ रहे है ण्डे २ और खरार हो जायेंगे, अतः क्यों नहीं उनके भाजन पात्र आदि बनवा लेते हो, ताकि उनसे तुम्हारा बहुत सा काम सघ सकता है । गुड़ का बाजार इस समय यहत तेज जा रहा है, खार भी वहत महगी कि रही है, अतः क्यों नहीं तुम समझ से काम लेते रो? जहां तक होसके इन इक्षुओ(सेलडी)को जरदीसे जल्दी पिलवालो,ताकि गुड आदि तयार होकर तुम्हें बाजार से अच्छा लाभ हो सके। सरसों का तेल भी यहत तेज यिक रहा है सो घानी में पिलवाकर इसरा तेल निकलवालो और वेच વાથી શું લાભ? બીજું કઈ ન બની શકે તે ચણા શેકીને વેચ્યા કરે ત્રિા દારને અસત્યવાદી કહે છે - “તમે તે પિસાદાર છે, તમે આ મનુષ્ય અવ તાર પામીને બે આનદ લૂટયો છે! મદિરા આદિમા જે આનંદ મળે છે તે બીજેવા મળે તેમ છે ? તે ખૂબ ખાઓ, પીઓ, તથા ખાતા પિતા વધે તે તમારા મિત્રોને પણ ખવરાવ્યા કરે પીવરાવ્યા કરો જુઓ ! તમારા આ નોકર ચાકર, દામ, દાસી આદિલોને બેઠા બેઠા શુ કામ કરે છે? તો તેમની પાસે ગહન જગલોને સાફ કરાવીને તે સ્થાનને ખેતી કરવાને લાયક બનાવી વૃક્ષ આદિ પાવી નાખવામાં આવે તો ત્યા સારામાં સારી ખેતી થાય એવી જમીન તૈયાર થઈ શકે છે તમારી પાસે જે યત્ર છે તે હાલમાં કેઈ ઉપગમાં આવતા નથી, તે પડયા પડયા તે ખરાબ થઈ જશે, તે તેને તેડાવીને તેમાથી ભાજન પાત્ર આદિ કેમ બનાવરાવતા નથી ? તેમ કરવાથી તમારૂ ઘણુ કામ સરળ થશે હાલમા ગોળના બજાર ઘણું ચડી ગયા છે ખાડ પણ ઘણી મોડી વેચાય છે તે તમે બુદ્ધિ પૂર્વ કેમ તુમ લેતા નથી? બની શકે એટલી ઝડપથી આ શેરડીને પલાવી નાખે જેથી ગેળ આદિ તેયાર કરીને વેચવાથી તમને વેપારમાં ભારે લાભ મળે સરસીયું પણ ઘણુ મોઘુ વેચાય છે, તે સરસવને ઘાણીમાં પીલાવીને તેનું તેલ કઢા અને તે તેલ વેચીને સારી એવી Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 २३० प्रश्न याकरणसूत्रे अपना व्यापार आदि करते है उनसे ये यों का दियो करते है कि तुम्हारा यह ऊँट देखने में तो बड़ा सुहावना लगता है परतु इसकी चाल तो कोई ढग की ही नहीं है, इसे जैसे भी हो सुन्दर चाल चलना मिपलाओ! इसी तरह जो वेलों के मालिक सेते है उनसे भी ये समय पर ही उप देश भरी बातें घनाया करते है, उनसे कारते है-तुम्हारे बैलों की यह जोड़ी देखने में तो बड़ी सुन्दर मालम पड़ती है, परन्तु देयो इमकी चाल कुछ भी नहीं है, अतः यह गाड़ी आदिमें जोतने पर सून तेज चाल चले इस तरह की चाल सीचाओ, जगलमें एक गाय सा जानवर होता है जिसे रोश कहते है, यह चलनेमे बड़ातेज होता है । सो तुम जैसे भी रो सके इसको पकड़वा कर मगाओ और अपने घर पर रपकर ऊस रोझका जैसे भी हो सके पहिले चशमें लाओ, बादमे उसको जगल की चाल छुडाकर अच्छी चाल चलने में ढालो, इससे तुम्हें आने जानेमें समयकी बडी बचत होती रहेगी। इसी तरह तुम येटे२ क्या करते रहते हो ? घोडी के पछेडोंको, हाथियों के बच्चों को, मेपों (मेंढे)को, कुक्कुटों (मुगो)को, पैसे देकर खरीदो, और खिला पिलाकर जप चे सून मस्त हो जावे तब इन्हें बेच दिया करो इसमे तुम्हे बहुत अधिक लाभ होगा। तथा कुछ रुजगार कही चलता हो तो इस प्रकार बैठे रहने मे तुम्हें क्या लाभ વ્યાપારની ચીજ લાવવા લઈ જવામાં ઉપયોગ કરનારને તે કહે છે કે તમારો આ ઊંટ દેખાવમાં તે ઘણે સુદર લાગે છે પણ તેની ચાલ કઢગી છે તેને ગમે તે પ્રકારે સારી ચાલ ચાલતા શીખવાડે એ જ રીતે બળદના માલિકને પણ તે વાર વાર ઉપદેશ સલાહ આપ્યા કરે છે કે તમારા બળદની આ જોડી દેખાવમાં તે ઘણી સુ દર છે, પણ તેની ચાલ ઘણી ધીમી છે, તો તેને ગાડી આદિની સાથે જોડવામાં આવે તે ઝડપથી ચાલે એવી ચાલ શીખવાડે જગલમા ગાય જેવું એક પ્રાણી હોય છે, તેને રેઝ કહે છે, તે ચાલવામાં ઘણુ ઝડપી હોય છે તમે ગમે તે રીતે તે રેઝને પકડી મગાવો, અને તમારે ઘેર રાખીને તેને ગમે તે રીતે પહેલા વશ કરે પછી તેને જ ગલી ચાલ છોડાવીને સારી ચાલ ચાલતા શીખવો, તેમ કશ્વાથી તમને અવર જવ રમા સમયને સારે બચાવ થશે એજ રીતે તે અસત્યવાદી લેકે બીજાને કહે છે કે–તમે બેઠા બેઠા શુ કરે છે ? ઘેડાના વોરાને, હાથીઓના બચ્ચાને ઘેટાઓને, કૂકડાઓને પૈસા આપીને ખરીદ કરો, અને તેમને ખવરાવી પીવ રાવીને ત્યારે તેઓ સારી રીતે હૃષ્ટ પુષ્ટ થાય ત્યારે વેચી દે, તેથી તમને સારો લાભ થશે તથા કઈ ધ ધ ન ચાલતું હોય તે આ રીતે બેસી રહે Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टोका अ० २ सू० १४ मृपागादिना जीवघातफवचननिरूपणम् २३५ मित्याह-मुदित हर्पसहित बहुखज्जपेजकलिय' पदुखाद्यपेयकलित-बहुप्रचुर खाद्य = भोज्य मोदकमामादिक पेय-मदिरादिक तेन फलित-युक्तम् । तथा 'कोउगविण्हापणसतिफम्माणि कुगह ससिररिगहोवरागसिमेमु सजणस्स परिजणस्स य निययस्स य जीवियम्स य परिसखणढाए । तत्र कौतुकविरनापनगान्तिकर्माणि कौतुक-सौभाग्यवृद्धयर्थ दृष्टिदोपनियत्त्यर्थं च रक्षापोहलिकादोरकादिवन्धन, विस्नापन-विधिमन्त्रौपधादिभिः समिलितजल', स्नापन शान्तिकर्म च-होमजपादिकमित्येतानि 'सजणस्स' स्वजनम्य-जात्मीयजनस्य पुनादेः ' परिजणस्स' परिजनस्य चन्दासदास्यादेश पुन 'निययम्स य' निजकस्य च स्वस्य 'जीवियस्स' जीवितस्य 'परिरक्षणयाए ' परिरक्षणार्थाय कदा' इत्याह---'ससि रविगहोपरागविसमेसु ' शगिरनिग्रहोपरागविपमेयु-शशिरव्योः तन चन्द्रसूर्ययो ग्रहेण-राहुलक्षणेनोपरागः उपरजन ग्रहणमित्यर्थस्तेन विपमेपु-कप्टयुक्तेपु दिवसेषु अथमा गशिरवि एव नरग्रहेपु म ये ग्रहौ तयोरुपरागः-तनु मनादिकष्टकरस्थानेपुहो, अथवा प्रमतिका का स्नपन हो । (मुदिय बहुखजपेनकलिय) उसमे घडा हर्प मनाया जाये, अनेक प्रकारके खाद्य-मोदक मास आदि भोज्य, एच मदिरा आदि पेय (पीनेयोग्य) पदार्थ रहें । तथा (कोउगविण्हावणसतिकम्माणि) सौभाग्यवृद्धिके निमित्त एव दृष्टिदोय की निवृत्ति के अर्थ रक्षापोहलिका, दोरक आदिके यवनस्प कौतुकको, अनेक प्रकार के मत्रोंसे औपध आदिकोसे मिश्रित जलसे स्नान करानेरूप विस्नापनको रोमजपादिरूप.शाति कर्मको तुम (सजणस्स परिज गस्स य निययस्सय जीवियस्स परिरक्खणट्ठाए ) सय पुत्रादिरूप आत्मीयजन की, दासीदास आदिरूप परिजनों की, तथा अपने जीवनकी रक्षाके अर्थ तथा जय ( ससिरवि गहोचरागविसमेसु कुणह) चन्द्र और सूर्य जिन दिनों में राहु ग्रसित हो रहे हों उन दिनो मे करो' अथवा इन कौतुक विस्नापन, एव शातिकर्मों Aथवा प्रसूतिजाने भारी स्नान ४२११९ मे " मुदिय बहुसज्नपेज्जकलिय" તે પ્રસ ગે ખૂબ આનદ મનાવવો જોઈએ-અનેક પ્રકારના ખાદ્ય-લાડુ માત્ર આદિ Alerय, भने महिश माहि पेय पहानी व्यव-या वीर तथा " कोउग विण्हावणसतिकम्माणि ” सोसाय वृदिन निमित्त सने हष्टिोपना निवारणुने માટે રક્ષાપટ્ટલિકા, દેરી આદિના બ ઇનરૂપ કૌતુક, અને પ્રકારના મંત્રોથી ઔષધે આદિથી મિશ્રિત જળથી સ્નાન કવ્વારૂપ વિનાપન, હમ જપાદિ રૂપ Auति भी, तमे “ सजणस्स परिजणस्स य निययस्स य जीवियस्स परिरक्स णढाए." yादि ३५ मात्भीय नी, हास हामी मा ३५ परिवानानी तथा घाताना पननी २साने भाटे न्यारे “ससिरनिगहोवरागविसमेसु कुणह" Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ प्रश्नन्याकरणस्त्र उपद्रवस्थानम् । 'घोरा सगामा बहतु ' घोग सग्रामा वर्तन्ताभरन्तु 'जयतु' जयन्तु-विजय प्राप्नुवन्तु च । 'सगडवाहणाइ य पबहतु । गस्टवाइनानि च प्रहन्तु शकटानि गन्न नानानि चौकादीनि महन्तु अचात्यन्तु । उवणयण चोळग विवाहो जन्नो अमुगम्मिहोउ दिवसे मुकरणे मुमुहत्ते मुनस्यत्ते सुविहिम्मि य' तर 'उपणयण' उपनयनकलाग्रहण 'चोल्ग' चोलक पालकाना प्रथम शिरोमुण्डन, विवाह पाणिग्रहण प्रसिद्ध 'जनो' चनः एतत्सर्वम् अमुगमि'अमुकस्मिन् दिवसे मुकरणे करणानि एकादश तन-मा-बालप-फोला-तैत्तिल-गर-वणिन विष्टयश्चैतानि सप्त करणाणि, शकुनि चतुष्पद नागकिंतुनानि चत्वारि स्थिरागि, इत्येपामन्यतमकरणे शुभे 'समुहत्ते' सुमुहर्ते गोभने रौद्रादिरिंशदन्यतमे 'मुन क्खत्ते' सुनक्षनश्चिन्यादिपु शोभने पुप्पादिके 'मुतिदिम्मि' मुतियी नन्दादिषु अन्यतमे ' होउ' भवतु । तया 'अन' अय अस्मिनहनि 'होउम्हाण' भवन स्नपन-मौभाग्यसन्ततिम यर्थ प्रधादे' स्नान प्रतिकास्नान च। किंभूत ? ही पक्षि समुदाय को नष्ट कर दो । (सेणाणिज्जाउ) सेना यहासे निकले और निकल कर उपद्वग्रस्त स्थान पर जावे (घोरा सगामा वस्तु जयतु) वहा घोर सग्राम वह करें और विजयश्री को पावे ( सगडवारणाइ य पवस्तु ) शकट-गाडी और वाहन-नौका आदि वे चलाचं, ( उवणयण चोलग विवाहो जन्नो अमुगम्मि होउ दिवसे सुकरणे सुमुहुत्ते सुनरवत्त सुतिहिम्मिय) उपनयन(जनोइ)-कलाग्रहण, गेलक-प्रथम शिरोमुडन, विवाह, यज्ञ ये सब अमुक दिवसमें, अमुक प्रवादि शुभकरण में, रौद्रादि तीस ३० मुहतों मे, अमुक अछे मुहर्त में अश्विनी आदि सत्तावीस नक्षत्रों में से किसी अमुक शुभ नक्षत्र मे नदा आदि तिथियों में से किसी अच्छी तिथि में होना चाहिये । तया (अज्ज होउण्वण) आज सौभाग्य एव सन्तति समृद्धि के निमित्त वधू ( वटु) आदि का स्नान नाणे मन ताना विस्तारमा तय “ घोरा सगामा वस्तु जयतु" त्या ते सय ७२ युद्ध धरे भने विभय प्रास उरे "सगडवाहणाइ थ पवहतु" श52-11 मने पाहुन-नौ माहिते यावे, 'उवणयण चोलग विवाहो जन्नो अमुगम्मि होउ दिवसे सुकरणे सुमुहुत्त सुनम्पत्त सुतिहिम्मिय " उपनयन કલાગ્રહણ, ચલા-પ્રથમ મેવાળા ઉતરવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ એ સઘળુ અમુક દિવસે, અમુક અવાદિ શુભ કરણમા, રૌદ્રાદિ ત્રીસ (૩૦) મુહૂતમાના અશ્વિની આદિ સત્તાવીસ નક્ષત્રોમાના કેઈ શુભ નક્ષત્રમાં, ન દા આદિ તિથિ योमानी ४ शुभ तिथि थबुन तथा " अज्ज होउण्हवण" मारे सोमाय भने सतत समृद्धिने भाटे वधू (4) माहिन नान शव. २ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू. १४ मृपावादिना जीवघातकवचननिरूपणम् २३७ सम्पन्ना ये धूपाः गुग्गुलादयस्तेपामुपचार = भलारे प्रक्षेपण तया पुष्पाणि च फलानि च तैः समृद्वान् परिपूर्णान गीर्पोपहाराश्च पवादिगिरोग्लीन् दत्त देवादिभ्यः । तमा 'पारन्छिते करेह पणानायकरणेण नहुरिहेण पिवरीउप्पायदुस्मुरिण पारमण जमोम्मग्गहचरिय जमगरनिमित्तपडियायहेड 'प्रायश्चित्तानि कुरुत-विपरीतोत्पा तदु स्वप्नपापशकुनासौम्यग्रहचरिताऽमगरनिमित्तप्रतिधातहेतु-तन विपरीता ये उत्पाता: अशुभसूचका घूमकेसादयः दुम्म्बप्ना-व-अस्थिसञ्चयगर्दभारोहणादि स्वप्नदर्शनरूपा पापशकुना प्रसिद्धा जसाम्यग्रहचरित-भूरग्रहदशा, उमगलनिमितानि-अगस्फुरणादीनि तेपा प्रविधातहेतु-निवारणनिमित्त बहुविवेन नानाप्रमा रेण मागातिपातफरणेन-प्राणिहिंसया प्रायश्चित्तानि कुरुत । 'नित्तिच्छेय करेह' त्तिच्छेद कुरुत-जीविकाविनाश कुरुत, इति किमपि निमित्तादिकमुपाढाय त्रुवन्ति 'मादेह किंचिदाग' मादत्त फिञ्चिदान 'मुहहओ २' मुष्टुटतः सुष्टुहत'-सुष्टु-शोभ जलते हुए उज्ज्वल आरतीरूप दीपकों से, तथा गोभनगध से सपन्न गुग्गुल आदि धूपों के उपचार से, एव पुष्पों और फलों से परिपूर्ण वह भेट होनी चाहिये । तथा ( विवरीउप्पारदुप्सुविणपावसउणअसो म्मग्गहचरियअमगलनिमित्तपडिघायहेउ ) अशुभसूचक धूमकेतु आदि विविध विपरीत उत्पात, अस्थिसचय, गर्दभारोहण आदि दुस्स्थम, खोटे २ शकुन, क्रूरग्रहदशाम्प असौम्यग्रहचरित, अमगल के निमित्तभूत अगस्फुरण आदि इन स के निवारणके लिये (बहुविहेण पाणाहवायकरणेण पायच्छित्ते करेह ) अनेक प्रकार से प्राणिहिंसा करो, इसीसे इन सबका प्रायश्चित्त होगा। (वित्तिच्छेय करेह ) हरेक व्यक्ति की जीविका का विनाश करो । ( मा देह किंचिदाण ) किसी को भी અનુપનથી, જલતા તેજસ્વી આતીના દીપકથી તથા સુદ ધ વાળા ગુગળ આદિ ધૂપથી અને પુષ્પ અને ફળેથી પરિપૂર્ણ તે બલિદાન હોવું જોઈએ तथा “विपरीउपायगुस्सुविणपासणअसोम्मग्गहचरियअमगलनिमित्त पटिघायहेउ" અશુભ સૂચક ધૂમકેતુ આદિ વિવિધ વિપગત ઉત્પાત, અસ્થિ સચય, ગર્દભાગહણ આદિ દુ સ્વપ્ન, અશુભ શકુન દૂરગ્રહદગારૂપ અસૌમ્ય ગ્રહચરિત અમર થવાના નિમિત્તરૂપ અગળ ફરકવુ આદિ અમ ગળ બના वना नियाने भाटे " बहुविहेण पाणाइवायकरणेण पायच्छित्ते करेह " मने सारे प्राणीडिंया उरी, तेथी ते गधा समानु निवाए 40 “ वित्ति च्छेय करेह " ६२६ व्यतितनी माविजाना विनाश "मादेह किंचिदाण " Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण स्थितिः, तथा विपमाणि च दुःस्वप्नादीनि, तेपु शान्त्यर्थ करेह ' कुरुत । तथा 'पडिसीसगाइ च देह' प्रीतिशीर्पकागि च दरापिष्टनिर्मितस्त्रनिराप्रति रूपकाणि च महाकाल्यादिभ्यो दीयन्ता-यूप्माभिरिति सन्ति । तथा 'देह य सी सोवहारे विविहोसहिमज्जमसमरखतपाणमाणुलेरणपईवजलि उज्जलमगधधूवाव यारपुष्फफलसमिद्धे 'दत्त च शीर्पोपहारान् निश्चिीपधिमधमासमस्यानपानमाल्यानुलेपनप्रदीपज्वलितोज्ज्वलमुगन्धपोपचारपुष्पफलममृद्वान् , तर विविधाः औषधयश्च मद्यमासानि च भक्ष्याणि च जनानि पानानि च माल्यान्यनुलेपनान च तानि, मढीपाथ ज्वलितोललाश भारार्तिक्याद्या , तया-मुगन्धा शोभनगन्ध को स्वजनादि को रक्षा के लिये उस समय करो जब नवग्रहों में चद्र सूयें ये दो ग्रह तनु धन आदि कष्ट कर स्थानों में स्थिति हो, आर दुःस्वप्न आदि विपम चीजों का अवलोकन हुआ हो । तपा (पडिसी सगाइ च देह ) तुम लोग पिष्ट निर्मित अपने २ प्रतिनिधिरूप शिराका महाकाली आदि देवियो के लिये पलि रूप में दो, अर्थात् शाति आदि । के निमित्त अपने शिर के जैसा शिर आटे का बनाकर काली आदि देवियों के समक्ष चलिरूप में चढाओ, इस प्रकार मृपावादीजन कहत हैं। तथा (देह य सीसोवहारे ) पशु आदि के शिरों को चढाओ, जब तुम लोग पशु आदि के शिरो को काली देवी के लिये भेट में प्रदान करो उस समय (विविहोसहिमजमसमरखन्नपाणमलाणुलेवणपई वजलिउज्जलसुगधधूवोक्यारपुप्फफलसमिद्धे ) विविध प्रकार की औषधियों से, मधमासरूप भक्ष्यानपान से, माल्यो से, अनुलेपनों से, ચન્દ્ર અને સૂર્ય જે દિવસોએ રાહુથી ગ્રસિત થાય તે દિવસોએ કરે અથવા તે કૌતુક, વિસ્તાપન, અને શાન્તિને સ્વજનાદિની રક્ષાને માટે તે સમય કરે કે જ્યારે નવગ્રહમાના ચંદ્ર અને સૂર્ય એ બે ગ્રહે તન, ધન આદિ કષ્ટકારી સ્થાનમાં રહેલ હોય અને સ્વપ્ન આદિ વિષમ ચીજ લેવામાં मावती हाय तथा ' पडिसीसगाइ च देह" तमे या पिष्ट निर्मित पात પિતાના પ્રતિનિધિ રૂપ મસ્તકોનું મહાકાળી આદિ દેવીઓને બલિદાન દો, એટલે કે શાતિ આદિ નિમિતે પિત ના મસ્તક જેવું લોટનું બનાવેલ મસ્તક કાળીકા દેવીઓને બલિદાન રૂપે અર્પણ કરે એ પ્રમાણે મૃષાવાદી લેકે કર્યું • "देह य सीसोवहारे" पशु माहिना भरता यावा न्यारे ५Y " भस्त! suीst वा माटे गएरे! त्यारे " पिबिहोसहिमज्जमस भरसन्नपाणमल्लाणुलेवणपईवजलिउनलमुगधधूयोवयारपुप्फफल्समिद्धे " ( પ્રકારની ઔષધિયેથી, મધમાસ રૂપ ભક્ષ્યાન્ન અને પીણાથી,, માળાએથી Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० २ ० १४ मृपाचादिना जीवघातकयचननिरूपणम् २३७ सम्पन्ना ये धूपाः गुग्गुलादयस्तंपामुपचार - अङ्गारे प्रक्षेपण तथा पुष्पाणि च फलानि च तैः समृद्वान् परिपूर्णान शीर्पोपहाराच-पवादिशिरोलीन् दत्त देवादिभ्यः । तमा 'पायच्छिते करे पणाडयायकरणेण बहुविहेण विवरीउप्पायदुस्सुनिणपारमउण जमोम्मग्गहचरिय अमगरनिमितपडियायहेउ 'प्रायश्चित्तानि कुरुत-विपरीतोत्पातदु स्वप्नपापशकुनासौम्यग्रहचरिताऽमगठनिमित्तप्रतियातहेतु-तत्र विपरीता ये उत्पाता: अशुभचका धूमकेसादय' दुस्वप्नाव-अस्थिसञ्चयगर्दभारोहणादि स्वप्नदर्शनरूपा. पापराकुना प्रसिद्धा साम्यग्रहचरित-रग्रहदशा, अमगलनिमितानि-अगस्फुरणादीनि तेपा प्रतिघातहेतु-निवारणनिमित्त बहुविवेन नानाप्रका रेण मागातिपातकग्णेन प्रागिसिया प्रायश्चित्तानि कुरुत । 'पित्तिच्छेय करेह' रत्तिच्छेद कुरुत-जीविका विनाश कुरुत, इति किमपि निमित्तादिकमुपादाय त्रुवन्ति 'मादेह किंचिदाग' मादत्त किञ्चिदान 'मुहहओ २' मुष्टुटतः सुष्ठहत'-सुष्टु-गोभ जलते हुए उज्ज्वल आरतीरूप दीपकों से, तथा शोभनगध से सपन्न गुग्गुल आदि धूपों के उपचार से, एव पुषों और फलों से परिपूर्ण वह भेट होनी चाहिये । तया ( विवरीउप्पारदुप्ठविणपावसउणअसो म्मग्गहचरियअमगलनिमित्तपडिधायहेउ ) अशुभसूचक धूमकेतु आदि विविध विपरीत उत्पात, अस्थिसचय, गर्दभारोहण आदि दुस्स्वप्न, खोटे २ शकुन, रग्रहदशारूप असौम्यतरचरित, अमगल के निमित्तभून अगस्फुरण आदि इन सबके निवारणके लिये (बहुविहेण पाणाहवायकरणेण पायच्छित्ते करेह ) अनेक प्रकार से प्राणिहिंसा करो, इसीसे इन सबका प्रायश्चित्त होगा । (वित्तिच्छेय करे ) हरेक व्यक्ति की जीविका का विनाश करो। ( मा देह किंचिदाण) किसी को भी અનુલેપનેથી, જલતા તેજસ્વી આરતીના દીપકેથી તથા સુ દરગ વ વાળા ગુગળ આદિ ધૂપથી અને પુષ્પ અને ફળેથી પરિપૂર્ણ તે બલિદાન હોવું જોઈએ तथा "विपरीउपायदुस्सुविणपासउणअसोम्मग्गहचरियअमगलनिमित्त पडिघायहे" અશુભ સૂચક ધૂમકેતુ આદિ વિવિધ વિપગત ઉત્પાત, અસ્થિ સચય, ગર્દભારેહણ આદિ દુ સ્વપ્ન, અશુભ શકુન ઝૂરગ્રહદનારૂપ અસૌમ્ય ગ્રહચરિત અમગ થવાના નિમિત્તરૂપ અ ગળે ફરવુ આદિ અમ ગળ બનાयाना निवाने भाट “ बहुविहेण पाणाइवायकरणेण पायच्छित्ते करेह " भने। प्रारे प्राणीडिंमा , तेथी ते मधा मभ मानु निवारण थशे “वित्ति च्छेय करेह " ४२७ व्यतिनी माविना विना । “मादेह किंचिदाण" Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मम्म्म्म २३६ प्रभव्याकरण स्थितिः, तथा विपमाणि च दुःस्वप्नादीनि, तेषु शान्त्यर्थ करह ' कुरुत । तथा 'पडिसीसगाइ च देश' भीतिशीर्पकागि च दत्त-पिष्टनिर्मितम्बशिरपति रूपकाणि च महाकाल्यादिभ्यो दीयन्ता-युप्माभिरिति हन्ति । तथा 'देह य सी सोवहारे विविहोसहिमज्जमसमरख पाणमाणुलेरणपईनलिउज्जलमगधधूवोन यारपुष्फफलसमिद्धे दत्त च शीर्पोपहारान विविधौषधिमधमासभक्ष्यानपानमाल्यानुलेपनमदीपज्वलितोयलगुगन्ध पोपचारपुष्पफलममृद्वान् , तत्र विविधा औपधयश्च मद्यमासानि च भक्ष्याणि च अन्नानि पानानि च माल्यान्यनुलेपनानि च तानि, महीपाच ज्वलितोज्जलाश-आरातिस्याद्या., तथा-मुगन्याः शोभनगन्ध को स्वजनादि को रक्षा के लिये उस समय करो जय नवग्रहों में चल सूयें ये दो ग्रह तनु धन आदि कष्ट कर स्थानों में स्थिति हों, आर दुःस्वप्न आदि विपम चीजों का अग्लोकन हुआ हो । तपा (पडिसा सगाइ च देह ) तुम रोग पिष्ट निर्मित अपने २ प्रतिनिधिरूप शिराको महाकाली आदि देवियों के लिये लि रूप में दो, अर्थात् शाति आदि । के निमित्त अपने गिर के जैसा गिर आटे का बनाकर काली आदि देवियों के समक्ष पलिरूप में चढाओ, इस प्रकार मृपावादीजन कहत हैं । तथा ( देह य सीमोवहारे ) पशु आदि के शिरो को चढाओ, जब तुम लोग पशु आदि के शिरो को काली देवी के लिये भेट में प्रदान करो उस समय (विविहोसहिमजमसभखन्नपाणमलाणुलेवणपई वजलिउज्जलसुगधधूवोक्यारपुप्फफलसमिद्धे ) विविध प्रकार की औषधियो से, मद्यमासरूप भयानपान से, मारयों से, अनुलेपनों से, ચન્દ્ર અને સૂર્ય જે દિવનોએ રાહુથી ગ્રસિત થાય તે દિવસોએ કરે અથવા તે કૌતુક, વિજ્ઞાપન, અને ડાન્તિને સ્વજનાદિની રક્ષાને માટે તે સમય કરે કે જ્યારે નવગ્રહમાના ચન્દ્ર અને સૂર્ય એ બે ગ્રહે તનું, ધન આદિ કષ્ટદારી સ્થાનેમા રહેવું હોય અને સ્વપ્ન આદિ વિષમ ચીજે જોવામાં भापती जय तथा ' पडिसीसगाइ च देह" तमे सोती पिष्ट निर्मित यात પિતાના પ્રતિનિધિ ૩૫ મસ્તાન મહાકાળી આદિ દેવીઓને બલિદાન દે એટલે કે શાતિ આદિ નિમિત્તે પોતાના મસ્તક જેવું લોટનું બનાવેલું એક કાળીકા દેવીઓને બલિદાન રૂપે અર્પણ કરે એ પ્રમાણે મૃષાવાદી લોક કહે छ “देह य सीमोरहारे" पशु महिना भन्तन यावा न्यारे ५१ महिना भरत। जी हवान माटे स्मए । त्यारेपिविहोसहिमज्जमस भक्रसन्नपाणमल्लाणुलेवणपईवजलिउनलमुगधधूवोवयारपुप्फफ्लसमिद्धे " विविध પ્રકારની ઔષધિયેથી, મઘમાસ રૂપ ભઠ્યાન્ન અને પીણથી, માળાઓથી Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०० सू०१४ मृपायादिना जीरयातकपचननिरूपणम् २३१ 'अलियागा' अलीकामाः अलीका आज्ञा आगमो येपा ते तथा ' अलियधम्मनिरया' पठीमधर्मनिरताः सर्मपरायणा 'अलियाम कहामु अलीकामु आत्मगुणहानिकरासु कथामु अभिरमन्तः प्रसीदन्तः 'बहुप्पगार ' बहुप्रकारम् 'अलियं करेउ ' अलीक कृत्वाभापित्या 'तुट्ठा' तुप्टा'-प्रसन्ना भवन्ति ॥०१४॥ भापा समिति से रहित प्राणी होते हैं तथा (अलियाणा) जिनका आगम भी अमत्य होता है जो (अलियधम्मनिरया) असत्य वर्म में निरत रहते हैं, तथा ( अलिपासु कहासु अभिरमता) आत्मगुण हानि कराने वालो कथाओं में जिना मन मोद पाता है ऐसे अनार्यजन (यदुप्पगार अलिय ) इन विविध प्रकारके अरीक वचनों को ( करेउ तुहा) योलकर वे भविष्यमें पश्चात्ताप नहीं करते ह प्रत्युत (उलटे)प्रसन्न होते हैं। भावार्य-मुत्रकारने इस सूत्रद्वारा यह प्रकट किया है कि जो प्राणी असत्यभापण करनेम ही आनद मानता है वे किस प्रकारसे बैठे बैठे दूसरे जनोंको प्राणिहिंसा वर्धक कार्यों में उकसाया करते हैं, जर ये किसीकी शालिकी खेतीको पकी हुई देख लेते हैं तो उसके मालिकको चाहे वह माने या न माने सलाह देते है-तुम्हारी यह खेती पक चुकी है, तम वैठे २ क्या करते हो? क्यों नहीं जल्दी से जल्दी इसे काटकर और दाय (गादा ) करके साफमुफ कर अपने घरमे भरकर रख देते हो । इसे तो मटार मे भर कर रखने में ही लाभ है । ये वणिक जन बडे स्वार्थी होते हैं-बाहर परदेशमें नौकाओं से यात्रा कर खूब कमाई याणा"मना आगम पर अमत्य य रे “अलिय धम्मनिरिया" मसत्य धर्ममा दीन छ, या “ अलियासु कहासु अभिरमता" मात्मशुष्णु હાનિ કરાવનાર કથાઓમાં જેમનું મન આનદ પામે છે એવા અનાર્યજન "बहुप्पगार अलिय" से विविध मारना भीसा क्यनी " करेउ तुद्रा" બેલીને ભવિષ્યમાં પશ્ચાત્તાપ કરતા નથી પણ ગછ થાય છે ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રગટ કર્યું છે કે જે છે અગત્ય બોલવામાં જ આનદ માને છે જેઓ બેઠા બેઠા કઈ રીતે અન્ય જીને પ્રાણિહિંસા વર્ધક કાર્યો કરવાને ઉકેરે છે જ્યારે તે કોઈના ખેતરમા શાલિ ડાગરને પાક તૈયાર થયે જુવે છે ત્યારે તે તેના માલિકને તે માને કે ન માને છતા પણ તે સલાહ આપે છે કે આ ડાગર પાકી ગઈ છે તમે બેસી કેમ રહ્યા છે ? તેને જલ્દી તાપીને, ખળું કરીને, ઉપણીને શા માટે ઘરમાં ભરી લેતા નથી ? તેને ઘરમાં કોઠારમા જ ભરી રાખવી હિતાવહ છે આ વેપારીઓ ભારે સ્વાથી હોય છે વહાણમાં પદેશની સફર કરીને તેઓ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ प्रयाकरणसूत्रे " नतया तो दुष्टः अत्र भ्रमे द्वित्वम्' तथा 'गृह छिनो भिनो सुष्ठु डिमोभि न स दुर्जनेन इति पूर्वोक्तप्रकारै: 'उदिसता' उपदिशन्तः = कथयन्तः 'एस विह' एवविध = स्वरूपतः सत्यमपि पाणिना हिंसाकारणत्वात् परिणामतोडलीक 'मणेण वायाए कम्मुणा य' मनसा - वचमा कर्मणा च निधा 'अलीय ' अली+म्= असत्य ' करेति ' कुर्वन्ति मापन्ते इत्यर्थ, कीटशास्ते अभीकभाषिण ? इत्याह अकुसला' अकुशलाः=भापासमितिनिकलाः ' अणजा ' अनार्या=मलेच्छाः कुछ भी दान मत दो। (सुहृरओ सुहृदिण्णो भिण्णिोत्ति) 'तुमने उस दुष्ट को अच्छा मारा, बहुत अच्छा किया जो उसे छिन्न भिन्न कर डाटा | (त्ति ) इस पूर्वोक्त प्रकार से ( उवदिसता ) दूसरों के प्रति कहते हुए मृपावादी जन ( एव विए) यद्यपि स्वरूप की अपेक्षा अपने वाच्यार्थ से सधित होने के कारण - सत्य होने पर भी प्राणिहिंसा के कारण होने से असत्यवाणी को (मणेण वायाए कम्मुणा ) मन से, वचन से और कापसे, (अय करेंति) अलोक-सूठ बोला करते है। तात्पर्य इसका यह है कि अपने अभिधेय (वक्तव्य ) से असवधित वाणी ही मृषा स्वरूप नही है किन्तु जिस सत्यवाणी से पर प्राणियो को कष्ट हो आपत्ति पड़ जाना पड़े उनके प्राणों की हिंसा आदि हो जावे वह वाणी भी असत्य ही है । ऐसी वाणी केवल वचनयोग की अपेक्षा से ही असत्यरूप नही मानी जाती है किन्तु वह मन और काय इन अगोकी अपेक्षा भी असत्य मानी जाती हैं । इस तरह की असत्यवाणी का जो (अकुसला) अर्ध ने चालु अर्ध पशु छान न भायो " सहओ सुर्डेछिण्णो भिण्णोत्ति ” “ तभे તે દુષ્ટને માટે તે ઠીક કર્યું, તેને છિન્નભિન્ન કરી નાખ્યે તે ઘણુ સારૂ કર્યું ·" "fa" 211 yaim 4312" उपदिसता " जीलने आहेत ते असत्य ખેલનારા લેાકેા 66 एव विह ” જો કે સ્વરૂપની અપેક્ષાએ પેાતાના વાચ્યા સાથે સાથે સબધિત હોવાને કારણે-સત્ય હોવા છતા પણ પ્રાણી હિંસાના ४] ३ष होवाथी असत्यवादीने “मणेण वायाए कम्मुणा" भनथी, वथनथी अने डायथी " अलिय करे ति " मवी-असत्य माना रे छे तेनु तात्पर्य એ છે કે પોતાના અભિધેયથી અસ અધિત વાણી જ મૃષાવાદ રૂપ નથી પણ જે સત્ય વાણીથી ખીજા પ્રાણીઓને કષ્ટ થાય આપત્તિમા મૂકાવુ પડે, તેમના પ્રાણાની હિંસા આદી થાય, તે વાણી પણ અસત્ય જ છે એવી વાણી કેવળ વચનયાગની અપેક્ષાએ જ અસત્યરૂપ માનવામા આવતી નથી પશુ તે મન ચાગ અને કાયયેાગની અપેક્ષાએ પણ અસ- મનાય છે. આ પ્રકારની અસત્ય बाली " अकुसला " लाषा समितिथी रहित को होय छे तथा " अलि Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०० सू०१४ मृपावादिना जीवघातकावननिरूपणम् ०३२ 'अलियाणा' अलीकामा अलीका आना-आगमो येपा ते तथा 'अलियधम्मनिरया' अलीरधर्मनिरता असद्धर्मपरायणा 'अलियाम कहामु अलीकामु आत्मगुणहानिकरासु कथासु अभिरमन्तः प्रसीदन्तः 'पहुप्पगार' बहुप्रकारम् 'अलियं करेउ' अलीक कृत्वाभापित्वा तुहा' तुप्टा-प्रसन्ना भवन्ति ॥०१४॥ भाषा समिति से रहित प्राणी होते हैं तथा (अलियाणा) जिनका आगम भी असत्य होता है जो (अलियधम्मनिरया ) असत्य धर्म में निरत रहते हैं, तथा ( अलिपातु कहासु अभिरमता) आत्मगुण हानि कराने वालो कथाओं मे जिनमा मन मोद पाता है ऐसे अनार्यजन (पहप्पगार अलिय ) इन विविध प्रकारके अरीक वचनों को ( करेउ तुहा) पोलकर वे भविष्यमें पश्चात्ताप नहीं करते ह प्रत्युत (उलटे)प्रसन्न होते हैं। भावार्य-मत्रकारने इस सूत्रद्वारा यह प्रकट किया है कि जो प्राणी असत्यभापण करनेमे ही आनद मानता है वे किस प्रकारसे बैठे बैठे दूसरे जनाको प्राणिहिंसा वर्धक कार्यों में उकसाया करते है, जर ये किसीको शालिकी खेतीको पकी हुई देख लेते ह तो उसके मालिकको चाहे वह माने या न माने सलाह देते हैं-तुम्हारी यह खेती पक चुकी है, तुम बैठे २ क्या करते हो ? क्यों नहीं जल्दी से जल्दी इसे काटकर और दाय (गाहटी) करके साफमुफ कर अपने घरमे भरकर रख देते हो' । इसे तो भटार मे भर कर रखने में ही लाभ है। ये वणिक जन पडे स्वार्थी होते हैं-धाहर परदेशमें नौकाओं से यात्रा कर खूब कमाई याणा" भना मागम पशु मसत्य डायरे “अलिय धम्मनिरिया" मसत्य धर्मभा सीन छे, या “ अलियासु कहासु अभिरमता " मात्मगुए હાનિ કરાવનાર કથાઓમાં જેમનુ મન આનદ પામે છે એવા અનાર્યજન " बहुप्पगार अल्यि " ये विविध प्राश्ना मीसा क्यने! " करेउ तुद्वा" બેલીને ભવિષ્યમાં પશ્ચાત્તાપ કરતા નથી પણ રાજી થાય છે ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રગટ કર્યું છે કે જે છે અસત્ય બોલવામાં જ આનદ માને છે જેઓ બેઠા બેઠા કઈ રીતે અન્ય જીને પ્રાણિહિંસા વર્ધક કાર્યો કરવાને ઉછેરે છે જ્યારે તે કોઈના ખેતરમાં પાલિ ડાગરને પાક તૈયાર થયે જુવે છે ત્યારે તે તેના માલિકને તે માને કે ન માને છતા પણ તે સલાહ આપે છે કે આ ડાગર પાકી ગઈ છે તમે બેસી કેમ રહ્યા છે ? તેને કઢી કાપીને, ખળુ કરીને, ઉપણને શા માટે ઘરમાં ભરી લેતા નથી ? તેને ઘરમાં કોઠારમાં જ ભરી રાખવી હિતાવહ છે આ વેપારીઓ ભારે સ્વાર્થી હોય છે વહાણમા પરદેશની સફર કરીને તેઓ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ प्रमयाकरणसूत्रे नतया हतो दुष्ट', अत्र सभ्रमे द्वित्वम्' तथा 'गृह डिनो मिनो मुटु छिनोमि नश्च स दुर्जनेन इति पूर्वोक्तप्रकारः 'उनदिसता' उपदिगन्तः कथयन्तः 'एष विह' एवविध स्वरूपतः सत्यमपि माणिना हिंसाकारणत्वात् परिणामतोऽलीक 'मणेण वायाए कम्मुणा य' मनसा-यमा कर्मणा च विधा 'अलीय ' अलीरम् असत्य 'करे ति ' कुर्वन्ति मापन्ते इत्यय , यीटगास्ते अलीकमापिण ? इत्याह 'अफुसला' अकुशलाः भापाममितिरिकता 'जणना' अनार्या म्लेच्छाः कुछ भी दान मत दो। (सुहओ सुटिण्णो भिणिोति) 'तुमने उस दुष्ट को अच्छा मारा, बहुत अच्छा किया जो उसे छिन्न भिन्न कर डाला । (त्ति) इस पूर्वोक्त प्रकार से ( उपदिसता) दूसरों के प्रति कहते हुए मृपावादी जन (एव विह) यद्यपि स्वरूप की अपेक्षा अपने वाच्यार्थ से सपधित होने के कारण-सत्य होने पर भी प्राणि हिंसा के कारण होने से असत्यवाणी को (मणेण वायाए कम्मुणा ) मन से, वचन से और काय से, (अल्यि सरेंति) अलोक-झूट गोला करते हैं। तात्पर्य इसका यह है कि अपने अभिधेय(वक्तव्य)से असयधित वाणी ही मृपा स्वरूप नहीं है किन्तु जिस सत्यवाणीसे पर प्राणियोको कष्ट हो आपत्ति पड जाना पडे उनके प्राणों की हिंसा आदि हो जावे वह वाणी भी असत्य ही है। ऐसी वाणी केवल वचनयोग की अपेक्षा से ही असत्यरूप नही मानी जाती है किन्तु वह मन और काय इन अगोकी अपेक्षा भी असत्य मानी जाती हैं । इस तरह की असत्यवाणी का जो (अकुसला) आईने ५५ ५५ हान न आप " सहओ सुहडिण्णो भिण्णोत्ति" " तभे તે દુષ્ટને માર્યો તે ઠીક કર્યું, તેને છિન્ન ભિન્ન કરી નાખે તે ઘણુ સારૂ यु" “त्ति" मा पूर्वरित प्रारे “ अदिसता" ने उता ते मसत्य मासना। सो “ एव विह " स्प३५नी अपेक्षा पोताना पायाथ સાથે સાથે સબધિત હોવાને કારણેસ હોવા છતા પણ પ્રાણ હિંસાના ४१२६५ ३५ पाथी मसत्यवाहीन “मणेण वायाए कम्मुणा" भनथी, क्यनया भने यथा “ अलिय करे ति" मी-असत्य मादा उछ तेनु तपय એ છે કે પોતાના અભિધેયથી અસબધિત વાણી જ મૃષાવાદ રૂપ નથી પણ જે સત્ય વાણીથી બીજા પ્રાણીઓને કષ્ટ થાય, આપત્તિમાં મૂકાવું પડે, તેમના પ્રાણની હિંસા આદી થાય, તે વાણી પણ અસત્ય જ છે એવી વાણી કેવળ વચનગની અપેક્ષાએ જ અસત્યરૂપ માનવામાં આવતી નથી પડ્યું તે મને ચોગ અને કાયાગની અપેક્ષાએ પણ અબતન મનાય છે આ પ્રકારની અસત્ય प रे " अकुसला" मा समितिथी रहित वो डाय तथा “ अलि Page #317 -------------------------------------------------------------------------- Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૦ प्रश्नम्याकरणसूत्र करते हैं और फिर बैठे • खाते है, एक अपनलोग हैं जो रात दिन परिश्रम करके भी उदरपति के लायक साधन मामग्री नहीं जुटा पाते हैं, अतः अच्छा हो इन सबको जय ये नौकाओं द्वारा बाहर जाने लगे तय इनको नष्ट कर दिया जाये । पक्षि ममह भी सेती आदिका यहुत नुकसान करते है अतः इन्हें भी मार डालो। जमुक जगह पर बड़ा भारी उपदर इस समय हो रहा है, सेना वहा जाये और उपद्रवका रियोंको नष्ट कर वहासे विजयश्री प्राप्त कर लौट आये तो बहुत अच्छी बात है। इस तरह फिर अगड़ा करनेवाले लोग अपना माया भविष्यम ऊँचा नही उठा सकेंगे। यदि तुम्हारे पास व्यापार आदिसे इस समय कोई आय (आमदानी)का साधन नहीं है तो गाड़ी वाहन आदिको भाडेपर क्यों नही चलाते हो चलाओ, इमसे ही तुम्हें लाभ होगा देसो उपनयन(जनोइ), चोलक, विवाह यज्ञ आदि जितने भी ये शुभ कृत्य हैं वे ऐसे ही थोड़े किये जाते है, इन्हें तो अमुक शुभ दिवसमें, अमुक तिथिमें, पवादि ग्यारह करणों से अमुक शुभ करण मे एव अमुक शुभमुहूर्त आदिमें किया जाता है, इमलिये माई । तुम्हे ऐसा मौका आवे तर तुम इन कृत्यों को शुभ दिवस आदिमे करना । देखो घरमें यह नवीन वह ખૂબ નાણા કમાય છે, અને પછી બેઠા બેડા ખાય છેઆપણે જ એવા છીએ કે જે રાત દિનપરિશ્રમ કરવા જતા પણ ભરણપોષણને લાયક વસ્તુ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તે તે બધા જ્યારે નૌકાઓમાં સફર કરતા હોય ત્યારે તેમને નાશ કરવામા આવે તે ઘણુ સારૂ થાય પક્ષિગણ પણ ખેતીના પાકને ઘણું જ નુકરાન કરે છે, તે તેમને પણ મારી નાખે અત્યારે અમુક જગ્યાએ ભારે તેફાન ચાલે છે, ત્યા લશ્કર જાય અને તોફાનીઓની કતલ કરીને ત્યાથી વિજય પ્રાપ્ત કરીને પાછું આવે તે બહુ જ ઈચ્છનીય છેઆમ કરવાથી તોફાની માણસે ભવિષ્યમાં કદી પણ રાજ્ય સામે માથુ ઊંચકશે નહી જે તમારી પાસે વ્યાપાર આદિ આવકનુ કઈ પણ સાધન ન હોય તે ગાડી, વાહન આદિને ભાડે કેમ ચલાવતા નથી ? તે સાધન ભાડે ચલાવશે તે તમને લાભ થશે ઉપનયન, ચોલ -વાળા ઉતરાવવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ આદિ જે શુભ કૃત્ય છે તે એમને એમ થોડા થાય છે એ શુભકૃત્યો તે અમુક શુભ દિવસેએ અમુક શુભ તિથિએ, બવાદિ અગ્યાર કરણેમાથી અમુક શુભ કરણમાં અને અમુક શુભ મુહૂર્ત આદિમા કરવા જોઈએ તો ભાઈ! તમારે ત્યા પણ એ અવસર આવે ત્યારે તમે પણ તે કૃત્ય શુભ દિવસ આદિમા કરે, જ! Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १४ मृषावादिना जीयधातकवचननिरूपणम् ४१ आई है - प्रथम समय जब इसका स्नान करनेका हो तत्र वह शुभ घड़ी आदि में ही कराना, इससे इसका सौभाग्य सन्तति एवं समृद्धिकी वृद्धि होगी । इसी तरह प्रमृतिका का जन स्नान कराना हो तर भी इन सनघातो का यान रखना । शुभ कृत्यों को करते समय इस बात का भी पूरा २ ख्याल रखना चाहिये कि उस समय चित्तमें किमी प्रकारकी ग्लानिका भाव न जगने पावे, हर्षविभोर (हर्षमग्न ) चन कर ही सन काम किया करो। सूनठानासे मन्त्र, मासादिकों का उपयोग करो। कौतुक, विस्नापन्न, तथा शांति कर्म आदि सत्कृत्य अपने जीवन आदि की रक्षा के लिये शशि सूर्यनहों पर जन २ राहुहारा आक्रमण हो तव २ अवश्य करो | काली जादि देवियों की प्रसन्नता सपादन करने के लिये वडे आनन्दके साथ पिष्ट से अपने मस्तककी आकृति बना कर उनके समक्ष बलि चढाया करो | तथा पशुबलि भी चढाओ, बलि चढाते समय खूब उत्सव मनाओ । उनकी आरती उतारो, उस उत्सवमें इच्छानुसार विविध औषधियोंका, वाजीकरण आदि दवाईयों का मक्ष्यानपान माल्यानुलेपन आदि का सूप उपयोग करो । मानवजीवनका यह ઘરમા નવવધૂ આવી છે, તેને ત્યારે સૌથી પહેલી વખત સ્નાન કરવાનુ આવે ત્યારે તે ગુભ ઘડિ આદિમા ગવવુ જોઇએ તેમ કરવાથી તેનુ મૌભાગ્ય મતતિ અને સમૃદ્ધિ વધશે-એ જ પ્રમાણે પ્રસૂતિક ને પણ ત્યારે સ્નાન ફગવવાનુ હેય ત્યારે પણ આ બધી ખાખતેનુ ધ્યાન રાખવુ જોઈએ શુભકૃત્યા કરતી વખતે તે વાતની પણ પૂરે પૂરી કાળજી રાખવી કે ત્યારે ચિત્તમા કેઇ પણ પ્રકારની ગ્લાનિના ભાવ ન જાગે, વિભાર થઈને જ સઘળા કામેા કર્યા કરે ખૂબ ઠાઠ માઠથી માસ મદિરા આદિને ઉપયોગ કરી જ્યારે જ્યારે સૂર્ય ચન્દ્ર પર રાહુનુ આક્રમણ યાય—ચન્દ્ર કે સૂર્ય ગ્રહેણુ વાય ત્યારે પેાતાના જીવન આદિની રક્ષાને માટે કૌતુ, વિસ્તાપન, શાતિકમ આદિ સત્કૃત્ય અવશ્ય કરે કાલીકા આદિ દેવીને પ્રસન્ન કરવા માટે ઘણા આનદ પૂર્વક લેાટચી પેાતાના મસ્તક જેવા આકાર બનાવીને તેમને લિ આપ્યા કરા, તથા પશુ એનુ લિાન પણ આપે।, અને આ લિ અપતી વખતે ખૂબ ઉત્સવ મનાવે તેમની આરતી ઉતારા, તે ઉત્સવમાં ઇચ્છાનુસાર વિવિધ ઔષધિયાના, વાજીક રણુ આદિ દવાઓના, લક્ષ્યાનપાનના, ફૂલની માળાઓના અને અનુલેપનેને પૃખ ઉપયેાગ કરી માનવ જીવનને આવે! સમય વાર વાર થાગ જ મલે છે? જ્યારે અશુભસૂચક ધૂમકેતુ આદિ ગ્રા દેખાય ખરા સ્વપ્ના આવે, ખરાખ 22 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A २४० प्रमत्याकरणम् करते हैं और फिर बैठे • खाते है, एक अपनलोग जो रात दिन परिश्रम करके भी उदरपूर्ति के लायक माधन मामग्री नरी जुटा पाते हैं, अतः अच्छा हो इन सरको जन ये नौकाओं द्वारा पारर जाने लगे तय इनको नष्ट कर दिया जावे । पक्षि समूह मी सेती आदिका बहुत नुकसान करते है अतः इन्हें भी मार टालो । अमुक जगह पर यड़ा भारी उपद्रव इस समय हो रहा है, सेना वहा जाये और उपद्रवका रियोंको नष्ट कर वहासे विजयश्री प्राप्तकर लौट आवे तो रहत अच्छी बात है। इस तरह फिर अगड़ा करनेवाले लोग अपना माथा भविष्यमें ऊँचा नहीं उठा सकेंगे। यदि तुम्हारे पाम व्यापार आदिसे इस समय कोई आय (आमदानी)का सायन नही है तो गाड़ी वाहन आदिको भाडेपर क्यों नहीं चलाते हो चलाओ, इमसे ही तुम्हें लाभ होगा देग्यो उपनयन(जनोइ), चोलक, विवाह यज्ञ आदि जितने भी ये शुभ कृत्य हैं वे ऐसे ही थोड़े किये जाते है, इन्हें तो अमुक शुभ दिवसमें, अमुक तिथिमें, ववादि ग्यारह करणों से अमुक शुभ करण मे एव अमुक शुभमुहूर्त आदिमे किया जाता है, इसलिये भाई । तुम्हे ऐसा मौका आवे तब तुम इन कृत्यों को शुभ दिवस आदिमे करना । देयो घरमे यह नवीन वह ખૂબ નાણું કમાય છે, અને પછી બેઠા બેઠા ખાય છે આપણે જ એવા છીએ કે જે રાતનપરિશ્રમ કરવા જતા પણ ભરણપોષણને લાયક વસ્તુ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તે તે બધા જ્યારે નૌકાઓમાં સફર કરતા હોય ત્યારે તેમને નાશ કરવામા આવે તે ઘણુ સારૂ થાય પક્ષિગણ પણ ખેતીના પાકને ઘણું જ નુકશાન કરે છે, તે તેમને પણ મારી નાખે અત્યારે અમુક જગ્યાએ ભારે તોફાન ચાલે છે, ત્યા લશ્કર જાય અને તેફાનીઓની કતલ કરીને ત્યાથી વિજય પ્રાપ્ત કરીને પાછું આવે તે બહુ જ ઈચ્છનીય છેઆમ કરવાથી તોફાની માણને ભવિષ્યમાં કદી પણ રાજ્ય સામે માથુ ઊંચકશે નહીં જે તમારી પાસે વ્યાપાર આદિ આવકનુ કઈ પણ સાધન ન હોય તો ગાડી, વાહન આદિને ભાડે કેમ ચલાવતા નથી ? તે સાધને ભારે ચલાવશે તે તમને લાભ થશે ઉપનયન, ચલક-માવાળા ઉતરાવવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ આદિ જે શુભ કૃત્ય છે તે એમને એમ થેડા થાય છે ' એ શુભકૃત્યે તો અમુક શુભ દિવસે એ અમુક શુભ તિથિએ, બવાદિ અગ્યાર કરણેમાંથી અમુક શુભ કરણમાં અને અમુક શુભ મુહુર્ત આદિમા કરવા જોઈએ તે ભાઈ! તમારે ત્યાં પણ એ અવસર આવે ત્યારે તમે પણ તે કૃત્ય શુભ દિવસ આદિમા કરે, જો ! Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० २ सू० १४ मृपारादिना जीयघातक्यचननिरूपणम् .४१ आई है-प्रथम समय जर इसका स्नान करने हो तर वह शुभ घड़ी आदिमें ही कराना, हमसे इसका सौभाग्य सन्तति एव समृद्विकी वृद्धि रोगी। इसी तरह प्रमृतिका का जर स्नान करानो हो तब भी इन सर यातों का यान रखना । शुम कृत्यों को करते समय इस बात का भी पूरा २ ख्याल रखना चाहिये कि उस समर चित्तामें किसी प्रकारकी ग्लानिका भाव न जगने पावे, हर्पविभोर (हर्पमग्न ) घन कर ही सर काम किरा करो। सूर ठाटनाटसे मन्य, मासादिकों का उपयोग करो। कौतुक,विस्नापन्न, तथा शातिकर्म आदि सत्कृत्य अपने जीवन आदि की रक्षा के लिये शशि सूर्यत्रहों पर जन २ राहुद्वारा आकमण हो तय २ अवश्य करो । काली आदि देवियों की प्रसन्नता सपादन करने के लिये रडे आनन्दके सार पिष्ट से अपने मस्तककी आकृति बना कर उनके समक्ष पलि चढाया करो । तथा पशुबलि भी चढाओ, पलि चढाते समय खून उत्सव मनाओ । उनकी आरती उतारो, उस उत्सवमें इच्छानुसार विविध औपधियोंका, वाजीकरण आदि दवाईयोंको भक्ष्यानपान माल्यानुलेपन आदि का सूप उपयोग करो । मानवजीवनका यह ઘરમાં નવવધુ આવી છે, તેને ત્યારે સૌથી પહેલી વખત સ્નાન કરવાનું આવે ત્યારે તે શુભ ઘડિ આદિમા કરાવવું જોઇએ તેમ કરવાથી તેનું સૌભાગ્ય સતતિ અને સમૃદ્ધિ વધશે–એ જ પ્રમાણે પ્રસૂતિક ને પણ જ્યારે સ્નાન કરાવવાનું હોય ત્યારે પણ આ બધી બાબતેનુ ધ્યાન રાખવું જોઈએ શુભ કઢી વખતે તે વાતની પણ પૂરે પૂરી કાળજી રાખવી કે વારે ચિત્તમા કઈ પણ પ્રકારની લાનિને ભાવ ન જાગે, હર્ષવિભેર થઈને જ સઘળા કામો કર્યા કરો ખૂબ ઠાઠ માઠથી માસ મદિરા આદિને ઉપયોગ કરો ત્યારે જ્યારે સૂર્ય ચન્દ્ર પર રાહુનું આક્રમણ થાય-ચન્દ્ર કે સૂર્ય ગ્રહણ થાય ત્યારે પિતાના જીવન આદિની રક્ષા માટે કૌતુક, વિજ્ઞાપન, રાતિકર્મ આદિ સત્ક અવય કરે કાલીકા આદિ દેવીને પ્રસન્ન કરવા માટે ઘણા આનદ પૂર્વક લેટથી પિતાને મસ્તક જે આકાર બનાવીને તેમને બલિ આપ્યા કરે, તથા પશુ એનુ બલિદાન પણ આપે, અને આ બલિ અર્પતી વખતે ખૂબ ઉત્સવ મનાવે તેમની આરતી ઉતારે, તે ઉત્સવમા ઈનુસાર વિવિધ ઔષધિ , વાજીક રણ આદિ દવાઓને, ભઠ્યાન્નપાન, ફૂલની માળાઓને અને અનુપનેને ખૂબ ઉપગ રે માનવ જીવનને આવે સમય વારવાર ડે જ મળે છે ? જ્યારે અશુભસૂચક ધૂમકેતુ આદિ ગ્રહે દેખાય ખરાબ સ્વપ્ના આવે, ખરાબ 1 . " Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रश्नग्याहरण करते हैं और फिर बैटे खाते , एक अपनलोग हैं जो गत दिन परिश्रम करके भी उदरपृति के लायक साधन मामग्री नरी जुटा पाते हैं, अतः अच्छा हो इन सरको जय ये नौकाओं द्वारा पारर जाने लगे तप इनको नष्ट कर दिया जावे । पक्षि समर भी सेती आदिका बहुत नुकसान करते है अतः इन्हें भी मार डालो । अमुक जगह पर यड़ा भारी उपद्रर इस समय हो रहा है, सेना वहा जाये और उपद्रवका रियोंको नष्ट कर वहांसे विजयश्री प्राप्तकर लौट आवे तो पटत अच्छी बात है । इस तरह फिर अगड़ा करनेवाले लोग अपना माया भविष्यम ऊँचा नरी उठा सकेंगे। यदि तुम्हारे पास व्यापार आदिसे हम समय कोई आय (आमदानी)का साधन नहीं है तो गाड़ी वाहन आदिको भाड़ेपर क्यों नही चलाते हो चलामो, इमसे ही तुम्हें लाभ होगा देग्यो उपनयन(जनोइ), चोलक, विवाह यज्ञ आदि जितने भी ये शुभ कृत्य है वे ऐसे ही थोड़ किये जाते है, इन्हें तो अमुक शुभ दिवसमें, अमुक तिथिमें, पवादि ग्यारह करणों से अमुक शुभ करण मे एव अमुक शुभमुहूर्त आदिम किया जाता है, इसलिये भाई । तुम्हे ऐसा मौका आवे तर तुम इन कृत्यों को शुभ दिवस आदिमे करना । देसो घरमे यह नवीन वह ખૂબ નાણા કમાય છે અને પછી બેઠા બેઠા ખાય છેઆપણે જ એવા છીએ કે જે રાતદિનપરિશ્રમ કરવા જતા પણ ભરણપોષણને લાયક વસ્તુ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તે તે બધા જ્યારે નૌકાઓમા સફર કરતા હોય ત્યારે તેમને નાશ કરવામાં આવે તે ઘણુ સારૂ થાય પક્ષિગણુ પણ ખેતીના પાકને ઘણું જ નુકશાન કરે છે, તે તેમને પણ મારી નાખે અત્યારે અમુક જગ્યાએ ભારે તેફાન ચાલે છે, ત્યાં લશ્કર જાય અને તોફાનીઓની કતલ કરીને ત્યાથી વિજય પ્રત કરીને પાછું આવે તે બહુ જ ઈછનીય છે. આમ કરવાથી તેફાની માણને ભવિષ્યમાં કદી પણ રાજ્ય સામે માથુ ઊંચકશે નહી જે તમારી પાસે વ્યાપાર આદિ આવકનુ કઈ પણ સાધન ન હોય તે ગાડી, વાહન આદિને ભાડે કેમ ચલાવતા નથી? તે સાધન ભાડે ચલાવશે તે તમને લાભ થશે ઉપનયન, ચલક-મેવાળ ઉતરાવવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ આદિ જે શુભ કૃત્ય છે તે એમને એમ થોડા થાય છે ' એ શુભકૃત્યે તો અમુક શુભ દિવસે એ અગક શુભ તિથિએ, બવાદિ અગ્યાર વરણામાથી અમુક શુભ કરણમા અને અમુક શુભ મુહૂર્ત આદિમા કરવા જોઈએ તે ભાઈ ! તમારે ત્યા પણ એ અવસર આવે ત્યારે તમે પણ તે કૃત્ય શુભ દિવસ આદિમા કરે, જો ! Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी रीका अ० २ सू० १४ मृपारादिता जीयघातकववननिरूपणम् ०४१ आई है-प्रथम समय जर इसका स्नान करनेका हो तब वह शुभ घड़ी आदिमें ही कराना, इससे उनका सौभाग्य सन्तति एव समृद्धिकी वृद्धि होगी। इसी तरह प्रमृतिका का जर स्नान कराना हो तब भी इन सर पातों का यान रखना । शुभ कृत्यों को करते समय इस बात का भी पूरा २ रयाल रखना चाहिये कि उस समर चित्त में किसी प्रकारकी ग्लानि का मावन जगने पावे, हर्पविभोर (हपमग्न) बन कर ही सब काम किश करो । ग्न ठाटनाटसे मन्य, मासादिकों का उपयोग फरो। कौतुक,विस्नापन्न, तथा शाति कर्म आदि सत्कृत्य अपने जीवन आदि की रक्षा के लिये शि सूर्यनों पर जर २ राहुढारा आकमण हो तब २ अवश्य करो। काली आदि देवियों की प्रसन्नता सपादन करने के लिये बडे आनन्दके सार पिष्ट से अपने मस्तककी आकृति बना कर उनके समक्ष पलि चढाया करो । तथा पशुपलि भी चढाओ, पलि चढ़ाते समय खून उत्सव मनाओ। उनकी आरती उतारो, उस उत्सवमें इच्छानुसार विविध औपधियोंका, वाजीकरण आदि दवाईयोंका भक्ष्यानपान माल्यानुलेपन आदि का सूर उपयोग करो । मानवजीवनका यह ઘરમાં નવવધૂ આવી છે, તેને જ્યારે સૌથી પહેલી વખત સ્નાન કરવાનું આવે ત્યારે તે શુભ ઘડિ આદિમા કરાવવું જોઈએ તેમ કરવાથી તેનું સૌભાગ્ય સતતિ અને સમૃદ્ધિ વધશે-એ જ પ્રમાણે પ્રકૃતિ ને પણ જ્યારે સ્નાન કરાવવાનું હોય ત્યારે પણ આ બધી બાબતોનું ધ્યાન રાખવું જોઈએ શુભકૃત્ય કરતી વખતે તે વાતની પણ પૂરે પૂરી કાળજી રાખવી કે ત્યારે ચિત્તમા કઈ પણ પ્રકારની ગ્લાનિને ભાવ ન જાગે, હર્ષવિભોર થઈને જ સઘળા કામે કર્યા કરે ખૂબ ઠાઠ માનવી માસ મદિરા આદિને ઉપયોગ કરે ત્યારે જ્યારે સૂર્ય ચન્દ્ર પર રાહુનું આક્રમણ થાય-ચન્દ્ર કે સૂર્ય ગ્રહણ થાય ત્યારે પિતાના જીવન આદિની રવાને માટે કૌતુક, વિજ્ઞાપન, પાતિકર્મ આદિ અલ્ફ અવશ્ય કરે કાલીકા આદિ દેવીને પ્રસન્ન કવ્વા માટે ઘણું આનદ પૂર્વક લેટથી પિતાના મસ્તક જેવો આકાર બનાવીને તેમને બલિ આપ્યા કરો, તથા પશુ એનું બલિદાન પણ આપે, અને આ બલિ અર્પતી વખતે ખૂબ ઉત્સવ મનાવે તેમની આરતી ઉતારે, તે તત્સવમાં ઈરછાનુસાર વિવિધ ઔષધિને, વાજીક રણ આદિ દવાઓને, ભઠ્યાનપાનનો, ફૂલની માળાઓને અને અનુલેપનેને ખૂબ ઉપયોગ કરે માનવ જીવનને આ સમય વાર વાર ડે જ મળે છે? જ્યારે અશુભસૂચક ધૂમકેતુ આદિ ગ્રહ દેખાય ખરાબ સ્વપ્ન આવે, ખરાબ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रश्नध्याकरणसूत्र करते हैं और फिर बैठे २ खाते है, एक अपनलोग हैं जो रात दिन परिश्रम करके भी उदरपूर्ति के लायक माधन मामग्री नरी जुटा पाते हैं, अतः अच्छा हो इन सरको जय ये नौकाओं द्वारा चारर जाने लगे तथ इनको नष्ट कर दिया जाये । पक्षि समह भी सेती आदिका बहुत नुकसान करते है अतः इन्हें भी मार डालो। अमुक जगह पर पड़ा भारी उपद्रव इस समय हो रहा है, सेना वहां जारे और उपद्रवका रियों को नष्ट कर वहांसे विजयश्री प्राप्तकर लौट आवे तो बहुत अच्छी यात है । इस तरह फिर झगड़ा करनेवाले लोग अपना माया भविष्य में ऊँचा नहीं उठा सकेंगे। यदि तुम्हारे पास व्यापार आदिसे इस समय कोई आय (आमदानी)का माधन नहीं है तो गाड़ी चारन आदिको भाड़ेपर क्यों नही चलाते होचलामो, इमसे ही तुम्हें लाभ होगा देखो उपनयन(जनोइ), चोलक, विवाह यज्ञ आदि जितने भी ये शुभ कृत्य हैं वे ऐसे ही थोड़े किये जाते है, इन्हें तो अमुक शुभ दिवसमें, अमुक तिपि, यवादि ग्यारह करणों से अमुक शुभ करण में एब अमुक शुभमुहर्त आदिमें किया जाता है, इसलिये भाई । तुम्हे ऐसा मौका आवे तब तुम इन कृत्यों को शुभ दिवस आदिमे करना । देवो घरमे यह नवीन वह ખૂબ નાણા કમાય છે અને પછી બેઠા બેઠા ખાય છેઆપણે જ એવા છીએ કે જે રાત નિપરિશ્રમ કરવા જતા પણ ભરણપોષણને લાયક વસ્તુ પ્રાપ્ત કરી શકતા નથી, તે તે બધા જ્યારે નૌકાઓમાં સફર કરતા હોય ત્યારે તેમને નાશ કરવામાં આવે તે ઘણુ સારૂ થાય પક્ષિગણ પણ ખેતીના પાકને ઘણું જ નુકશાન કરે છે, તે તેમને પણ મારી નાખે અત્યારે અમુક જગ્યાએ ભારે તેફાન ચાલે છે, ત્યાં લશ્કર જાય અને તેફાનીઓની કતલ કરીને ત્યાથી વિજય પ્રપ્ત કરીને પાછું આવે તે બહુ જ ઈચ્છનીય છે. આમ કરવાથી તેફાની માણને ભવિષ્યમાં કદી પણ રાજ્ય સામે માથુ ઊંચકશે નહીં જે તમારી પાસે વ્યાપાર આદિ આવકનુ કઈ પણ સાધન ન હોય તે ગાડી, વાહન આદિને ભાડે કેમ ચલાવતા નથી? તે સાધને ભાડે ચલાવશે તે તમને લાભ થશે ઉપનયન, ચલક-મેવાળા ઉતરાવવાની ક્રિયા, વિવાહ, યજ્ઞ આદિ જે શુભ કૃત્ય છે તે એમને એમ થેડા થાય છે! એ શુભકૃત્યે તો અમુક શુભ દિવોએ અમક શુભ તિથિએ, બવાદિ અગ્યાર કરણાભાર્થી અમુક શુભ કરણમાં અને અમુક શુભ મુહૂર્ત આદિમા કવ્વા જોઈએ તે ભાઈ! તમારે ત્યા પણ એ અવસર આવે ત્યારે તમે પણ તે કૃત્ય શુભ દિવસ આદિમા કરો, જ! Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० २ सू० १४ मृपावादिना जीयघातकयवननिरूपणम् .४१ आई है-प्रथम समय जन इसका म्नान करने हो तब वह शुम घड़ी आदिमें ही कराना, इससे इनका सौभाग्य सन्तति एव समृद्विकी वृद्धि होगी। इसी तरह प्रमतिका का जव स्नान करानो हो तब भी इन सर पातों का ध्यान रखना । शुभ कृत्यों को करते समय इस बात का भी पूरा २ चाल रखना चाहिये कि उस समर चित्तमे किसी प्रकारकी ग्लानिका भाव न जगने पावे, हर्षविभोर (हर्पमग्न ) बन कर ही सर काम किया करो । पृन ठादनाटसे मन्य, मासादिकों का उपयोग करो। कौतुक,विस्नापन्न, तथा गातिकर्म आदि सत्कृत्य अपने जीवन आदि की रक्षा के लिये शशि मर्यत्रों पर जत्र' राहुद्वारा आक्रमण शे तब २ अवश्य करो। काली आदि देवियों की प्रसन्नता सपादन करनेके लिये बडे आनन्दके साम पिष्ट से अपने मस्तककी आकृति बना कर उनके समक्ष बलि चढाया करो । तया पशुबलि भी चढाओ, पलि चढाते समय खून उत्सव मनाओ। उनकी आरती उतारो, उस उत्सवमें इच्छानुसार विविध औपधियोंका, वाजीकरण आदि दवाईयोंको भक्ष्यानपान माल्यानुलेपन आदि का सून उपयोग करो । मानवजीवनका यह ઘરમાં નવવધૂ આવી છે, તેને જ્યારે સૌથી પહેલી વખત સ્નાન કરવાનું આવે ત્યારે તે શુભ ઘડિ આદિમા કરાવવું જોઈએ તેમ કરવાથી તેનું સૌભાગ્ય સતતિ અને સમૃદ્ધિ વધશે–એ જ પ્રમાણે પ્રકૃતિને પણ જ્યારે સ્નાન કરાવવાનું ય ત્યારે પણ આ બધી બાબતોનું ધ્યાન રાખવું જોઈએ શુભકૃત્ય કરતી વખતે તે વાતની પણ પૂરે પૂરી કાળજી રાખવી કે ત્યારે ચિત્તમા કોઈ પણ પ્રકારની ગ્લાનિને ભાવ ન જાગે, હવિભોર થઈને જ સઘળા કામે કર્યા કરે ખૂબ ઠાઠ માઠથી માર્ચ મદિરા આદિને ઉપયોગ કરો જ્યારે જ્યારે સૂર્ય ચન્દ્ર પર રાહુનું આક્રમણ થાય—ચન્દ્ર કે સૂર્ય ગ્રહણ થાય ત્યારે પિતાના જીવન આદિની રક્ષાને માટે કૌતુક, વિજ્ઞાપન, ગતિકર્મ આદિ સલ્ફ અવશ્ય કરે કાલકા આદિ દેવીને પ્રસન્ન કરવા માટે ઘણા આનદ પૂર્વક લેટથી પિતાના મસ્તક જે આકાર બનાવીને તેમને બલિ આપ્યા કરે, તથા પશુએનું બલિદાન પણ આપે, અને આ બલિ અર્પતી વખતે ખૂબ ઉત્સવ મના તેમની આરતી ઉતારે, તે ભવમાં ઈચ્છાનુસાર વિવિધ ઔષધિયોને, વાજીક રણ આદિ દવાઓને, ભઠ્યાનપાન, ફૂલની માળાઓને અને અનુલેપનેને ખૂબ ઉપયોગ કરો માનવ જીવનને આ સમય વારવાર શેડો જ મલે રે ? જ્યારે અશુભસૂચક ધૂમકેતુ આદિ ગ્રહ દેખાય ખરાબ ના આવે, ખરાબ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्रश्नध्याकणस्त नरकतिर्यग्योनिः गच्याऽसम्व्यकालममाणा, वनस्पत्यपेक्षयाऽनन्तकालप्रमाणा, तत्रोत्पत्तिरूपा 'पति' वर्धयन्ति, 'तेण य अलिएग' तेन चालीकेन-असत्य भापणकर्मणा 'समणुबद्धा' समनुादा धन्ध प्राप्ता 'आइट्टा' आविष्टा:आश्लिप्टाः 'पुणभवधयारे ' पूर्वमान्धकारे = पुन' पुनर्नन्मनायमारस्वस्मिन् भीमे-भयंकरे भमति ' भ्रमन्ति-मृपाभापिणो जीना जन्मजरामरणपोरनिविड़ दुःखान्धकारकान्तारे निपतिताः सन्तो विविधानि क्यान्यनुभपतीत्यर्थः । तथा कयचित् इह मनुष्यलोके समुत्पमा अपि 'दुग्गडपसहिगुनगया' दुर्गतिवसति मुपगतारलेशबहुलस्थिति माता 'दीमति' श्यन्ते । अय भाषा-मृपाभाषिणो नरकतिर्यग्योनिपु समुत्पयन्ते । अथ कवशिन्नरकादितो निस्सृत्य मनुष्यशरीर तथा तिर्यंच योनिको (वति) बढाते है । अर्थात् मृपावादी जन मृषा भापणसे उत्पन पापों के उदयसे पल्यप्रमाणघाली तिर्यच योनिको तथा उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम प्रमाणकालवाली नरकगतिको अपनी उत्पत्ति स्थान बनाते हैं । वहा वे सख्यान काल, असख्यात काल एवं वनस्पति अपेक्षा अनतकाल तक रहते है। (तेण य अलिएण) उस अलाक भापणकर्मसे (समणुबद्वा) बध को प्राप्त हुए (आइटा) क्षीर नीरका तरह परस्पर एक क्षेत्रावगाहरूप सबध से विशिष्ट हुए वे जीव (पुणन्भ बधयारे भीमे ) पुनः पुनः जन्मरूप भयकर अधकार में (भमति) भ्रमण करते हैं । अर्थात् जो मृरावादी जन होते हैं वे जन्म, जरा, मरण रूप घोर गाढ अधकारमें पतित हो कर विविध कप्टों को भोगा करते हैं । तथा (दुग्गइवसहिमुवगया तेय दीसति) यदि वे कहाच किसी भी तरहसे इस मनुष्यलोकमे उत्पन्न हो जाये तो भी क्लेश बहुल स्थिति ant “निरयतिरियजोणि" न२७ तथा तिर्य य योनिन “वडति " पधारे છે એટલે કે મૃષાવાદી લેકે અસત્ય વાણીથી જનિત પાના ઉદયથી પત્ય પ્રમાણુવાળી તિય ચ યોનિને તથા ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સાગરોપમ પ્રમાણ વાળી નરકગતિને પિતાની ઉત્પત્તિનું સ્થાન બનાવે છે ત્યાં તેઓ સખ્યાતકાળ; मस ज्यात अने वनस्पतिना अपेक्षा अनत सुधी २७ छ " तेण य अलिएण" ते सत्यमापशु भाथी " समणुबद्धा गधायेा “आइट्ठा " हूध અને પાણીની જેમ પરસ્પર એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ સ બ વી વિશિષ્ટ થયેલ તેલ "पुणन्भधयारे भीमे" श शने सन्म सेवा ३५ ४२ घरमा "भमति" प्रभ४२ छ, सटो, भृषावाही सोजन्म, २, मन भ२९१३५ गा८ मघारमा ५डीने विविध उधोने सास पाउछ तथा “दुग इवसहिमुवगया तेय दीसति" ने उहाय तेमा पाहणे मनुष्य सभा Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टीका अ०२सू०१४ मृपागादिना नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २५५ पानुनन्त्य पिचेत तदिहीनदीनतुच्छजातिकुलादिभिः अधन्या एर वक्ष्यमाणरूपेण दुःखबहुलशरीर प्राप्ता दृश्यन्ते । कथभूताः ? इत्याह-' दुग्गया' दुर्गताः दुरवस्थां माता सवा दरिद्रा-इत्यर्थः, दुरन्ता दुःखेन अतःनीवनस्यात्र सान येपा ते तथा 'पानसा' परनमा परापीना अत्यभोगपरिवज्जिया' अर्थ भोगपरिवर्जिताः अर्या धनानि भोगाव-शदादयो विषयास्तै परिवर्जिता = रहिताः । तथा 'भगुहिया ' अमुग्यिताः मुसरहिता - निरन्तरमाधिव्याध्यादि को प्राप्त गुण दृष्टिश्य होते ह । तात्पर्य इसका यही है कि मृपावादी जन नरक तिर्थच योनिमें जन्मते हे। यदि वे किसी तरह नरकादिसे निकल कर मनुष्य भव को प्राप्त कर भी लेरें तो भी वहा वे हीन, दीन, तुच्छ जाति कुल आदि में ही जन्म धारण करते हैं और अधन्य होकर दुःख यहुल शरीर को धारण करते हुए दिग्वलाई देते हैं । यही बात सूत्रकार (दुग्गया) इत्यादि पदों द्वारा प्रकट कर रहे हैं, वे कहते हैं कि यदि वे किसी प्रकार मनुष्य पर्याय वारण भी कर लेवें तो भी वहा उनकी परिस्थिति ठीक नहीं रहती है-वे सदा (दुग्गया) दारिद्रयदुःख से सन्तप्त रहते हैं (दुरता ) उनके जीवन का अन्त दुःखो से होता है (परवसा) जीवन भर वे पराधीन बने रहते है। (अत्यभोगपरिव ज्जिया) अर्थ सपत्ति एव शब्दादिक भोग पनसे, रहित होते हैं। (असुरिया) निरन्तर आधि, व्याधि, उपाधियों से पीडित रहने के कारण उन्हें सुख का अश भी प्राप्त नही होता है। अथवा "अमुहिया" ઉત્પન્ન થાય છે તે પણ અત્યંત દુ ખયુક્ત સ્થિતિમાં નજરે પડે છે કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મૃષાવાદી લેકે નરક તિર્થં ચ એનિમા જન્મ લે છે, પણ તેઓ કોઈ પણ પ્રકારે નરકાદિમાથી બહાર નીકળીને મનુષ્યભવને પ્રાપ્ત કરે તે પણ ત્યા તેઓ હીન, દીન, તુછ જાતિ કુળ આદિમા જ જન્મ પામે છે અને અધન્ય-તિરસ્કૃત થઈને અત્યત ૬ ખયુક્ત દશામાં મનુષ્ય જીવન વ્યતીત २छे से कर पात सूत्रधार " दुगाया" इत्यादि पह! द्वारा प्रगट ४२ छ તેઓ કહે છે કે તેઓ કોઈ પણ પ્રકારે મનુષ્ય યોનિમાં જન્મ લે છે તે ત્યાં तेमनी हसत सा खाती नथा-तेसा सहा " दुग्गयो " हारिद्रयना माथी पाय छे, “दुरता" तमना वनना मत माथी १ मावे छ, ' परवसा " मासु न तशा ५२राधान लोग छ, “ अत्यभोगपरिवज्जिया" मथ-सपत्ति तथा Awale सामथी तसा २डित डाय छे " असुहिया" नि२ તર આધિ, વ્યાધિ અને ઉપાધિથી પીડાયા કરે છે અને તે કારણે તેમને સુખને मश ५y प्रास थ नथी, मथा" असुहिया" नी सस्कृत छाय" असुहृद " Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રકટ মশ্বকােণ णिसेविणो' नीचजननिपेरिणः जातिगुणममिनींचा ये जनास्पा निपेविणाउत्थानोपवेशनशयनभोजनपानादिभिः सहनियासिन 'लोगगरहिणिज्जा' लोक गहेणीयासाठजननिन्दनीयाः 'भिन्या' भृत्या:-मरणीया यान्ये तथा 'असरिसजणस्स पेस्मा' असदृशननस्य असमानशी रम्प-म्लेन्टाचारलोगस्य पेस्सा' भैष्याः तदाज्ञाकारकाः 'दुम्मेहा' दुर्मेधा सदबुद्धियजिताः, 'लोगोदअन्न प्पसमयमुहमज्जिया' लोकदा यात्मसमय श्रुतिवर्जिताः श्रुतिमन्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् लोकश्रुतिः ठोकाभिमत शास्र भारतादि., वेदश्रुतिः अग्यजु सामाई वेदशास्त्रम् , अध्यात्मश्रुतिः प्रात्मस्वरूपनिर्णायक शास्त्र, समयश्रुतिः अईत्मवचन तामिजिवाः रहिता ये ते तया, 'धम्मबुद्धिरिया' धर्मयुद्विविक्ला:-श्रुत चारित्रधर्मरहिता नराः मनुष्याः 'दृश्यन्ते' इति पूर्वेण सम्बन्धः । तथा 'तेण य' तेन च-पूर्वोक्तप्रकारेण 'अलिएण' अलीकेन-पापादेन ‘असतएण' (णीयजणणिसे विणो) नीच जनों के साथ ही ये उठा बैठा करते हैं और इन्हीं के साथ ये खाते पीते है तथा उन्हीं के साथ रहते हैं । (लोग गरहणिज्जा) समस्त जन इनकी निंदा करते रहते हैं। (भिच्चा) दूसरी के दास होकर रहते है (असरिसजणस्स पेस्सा) असमानशाल वाले-म्लेच्छाचार वाले-लोगो के ये दास होते है (दुम्मेहा) सद्धि से ये वर्जित होते हैं (लोगवेयअज्मप्पसमयसुइवज्जिया) लोकश्रुति वेदश्रुति, अ यात्मश्रुति और समयश्रुति से ये रहित होते है । लोकाभि मत भारत आदि शास्त्री का नाम लोकश्रुति है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, साम वेद, अथर्ववेद, इनका नाम वेदश्रुति है। आत्मा के स्वरूप के निणों यक शास्त्र अध्यात्मशास्त्र हैं। अत्प्रवचन का नाम समयश्रुति है। (धम्मबुद्विवियला) श्रुतचारित्ररूप धर्म से विमुख रहते हैं । तथा (तेण मने गोत्र मधम डाय छ, “णीयजणणिसेविणो" नाय सोडी साथ त ઉડે બેસે છે, તેમની સાથે જ તેઓ ખાય પીવે છે તથા તેમની જ સાથે રહે छ, “ लोगगहरणिज्जा" सा हो तभनी निहारेछ " भिच्चा" अन्यना हास थन २९ छ, " असरिसजणस्म पेस्सा" असमान शीसवा-छ या२ वाणा सोना तेसो हास थाय छ “ दुम्मेहा " तसा सहधुद्धि राहत हाय.. " रोगवेयअज्झप्पसमयसुसज्जिया" सोश्रति, श्रुति भव्य ત્મકૃતિ અને સમયકૃતિથી તેઓ રહિત હોય છે લેકાભિમત ભારત આદિ શાસ્ત્રોને લેકકૃતિ કહે છે, સર્વેદ, યજુર્વેદ, સામવેદ અને અથર્વવેદને વેદશ્રુતિ કહે છે આત્માના સ્વરૂપનુ નિર્ણાયક શાસ્ત્ર અધ્યાત્મશાસ્ત્ર છે અહંત પ્રવચન समयश्रुति ४९ छे "धम्मसुद्धिवियला " तसा तयारित्र - -- था Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० २ सू०१५ मृपाचादिना नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २४२ असत्केन - असद्रूपेण अथवा अशान्तकेन = अनुपशान्तेन 'उज्यमाणा' दद्यमानाः= भज्वल्यमाना 'अमाणणा विट्टिममा हिन्सेन विभुणभेयण गुरु उधवसयण मित्ताववारणा दिया ' अपमाननपुष्टिमागाधिक्षपपिशुन भेदन गुरुनान्धा स्वजनमिनापक्षारणादिशनि= तत्र जपमाननम् = मानभङ्गः, पृष्ठिमास = परोक्षे ढोपभाषण, अधिक्षेप. = धिकारपूर्वकन्दिन, पिशुन भेदन = पिशुनै = खले. भेदन = प्रेमसम्बन्धविच्छेदन, गुरुवस्वजनमित्राणामपक्षारण= ख्क्षवचनैस्तर्जन, जयना - मित्रादिभिर्नहिष्करण च एतानि आदि येपा तानि तथाभूतानि, 'अभयागाइ ' अभ्यारयानानि= असत्यदोषारोपणरचनानि 'बहुविहार ' पहुविधानि नानाप्रकाराणि ' अगणोरमाइ ' अमनोरमाणि= मन' प्रतिकलानि हिययमणमगाइ हृदयमनोदावकानि “ , य अलिएण असतण्ण ) मृपावादीजन इस असद्रूप अथवा अनुपशान्त मृपावाद से (उज्झमाणा ) रातदिन जलते रहते है और ( अवमाणण पिट्टि साहिखेव पिलुणभे रणगुनघवस पणमित्ताऽव स्वारणादियाह ) ( अवमाणण ) अपमान सहन करते हैं । ( पिहिमस ) हर एक कोई इनकी पीठ पीछे निंदा करते ह । (अहिखेव ) प्रत्येक व्यक्ति इन्हें धिक्कारता रहना हे । (पिसुण भेवण ) दुष्ट लोग इनके प्रेमसनध को विच्छेद करा देते है | गुरु वचसयणमित्ता) गुरुजन, वधुजन, स्वजन एव मित्र ( अवखारणाइयाइ ) रूक्ष वचनां द्वारा इनका अनादर करते हैंडाटते डपते रहते है, अथवा ये सब इन्हें अपने मे से गहर निकाल देते हैं (अन्भवाणा ) वाहे जो मनुष्य इन पर असत्य दोषारोपण कर दिया करता है । इस प्रकार से लोग असत्यदोषारोपण वचनों को कि जो (बहुविहार ) नाना प्रकार के होते है, ( अमणोरमाइ ) मन को विभुण रहे छे तथा " तेण य अलिएण असतएण " भ्रषावाद्दीन मा अस અથવા અનુપાન્ત મૃષાવાદથી 'उज्झमाणा " शतहिन सता रहे छे भने अवमाणण पिट्ठिम साहिखेन पिसुणभेगणगुरुबधनसयर्णामित्तान खारणादियाइ अवमाणण अपमान महेन उरे, "पिठुमस દરેક વ્યક્તિ તેની पी. पाछण निंदा उरे छे, " अहिस्सेव " हरे व्यक्ति तेने धिरे छे पिसुण भेवण " दुष्ट बोजे तेभना प्रेम समयमा लगाए पडावे छे, “ गुरु वधवसयण मित्त " ગુરુજન, મધ્જન, સ્વજન અને મિત્ર अव+सारणाइ याइ ” કર વચના દ્વારા તેમને અનાદર કરે છે-ધાક ધમકી આપતા રહે છે અથવા તે અધા તેમને પેાતાની વચ્ચેથી બહાર કાઢી મૂકે છે “ अच्म+साणाइ " તેમના ઉપર લેાકા ગમે તે પ્રકારનુ દોષારોપણ કર્યાં કરે છે આ રીતે તે લેકે અસત્ય દોષારાપણ ડાક વચને, કે જે बहुविहाइ " विविधप्रारना होय छे, " अमणोरमाइ " भनने न गभे तेवा होय, तथा ८८ "" 99 << 66 16 ८८ हिययमणदूमगाइ " प्र० ३२ ८ " Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० प्रश्नयाकरणसूत्र हृदयस्य मनमश्च दापकानिन्नापजनकानि 'जानी' यापनीव-जीवन पर्यन्त 'दुरदराइ' दुरुद्वराणि दुम्तराणि 'पाति' प्राप्नुवन्ति । पुनः कि मित्याह-'अणिद्वापरफरसायणतज्जगणिन्मगठीणपयणविगगा' अमिष्टग्वरफरुपवचनतर्जननिर्भत्सनदीनपचनरिमननः तत्र अनिप्टेन अप्रियेण सरपरुषेणअतिकठोरेण पचनेन यानि तर्जनानिहरे नीच! कथमेव करोपि' इत्यादि लक्ष णानि निर्भर्त्सनानि='अरे दुपटकमकारिन्-गृहानिम्सर दृष्टिपथावा' इत्यादि रूपाणि, वैर्दीन पदन-मुख विकृत-पिपातयुक्त च मनो येपा ते तथा 'कुभोयणा' कुभोजनाः कुत्सितम्भरसपिरस भोजन येपा ते तथा तुन्छान्नाहारिणः 'कुनाससा' कुवाससः मुचैलिनः 'कुपमहीम' कुवसतिपु-कुत्सितस्थानेषु 'फिलिस्सता' नही रुचने वाले तथा (स्यियमणमगाट )दय और चित्त को सता पजनक होते हैं ऐसे वचन (जायज्जी) जोवन पर्यंत ( दुरुद्धराइ) जो इन्हें आपात पहुँचाने वाले होते है उनको ( पावति ) प्राप्त करते हैं अर्थात् सुना करते हैं । फिर क्या सो करते है-(अणिद्वग्वरफरुस वयण तज्जणणिन्भच्छण दीणवयणविगणा) ऐसे ये लोग अप्रिय, अतिक ठोर वचनो से तथा-" रे नीच ! ऐसा क्यो करता है" इत्यादिरूप तर्जना से, " ओ दुष्टकर्मकारिन् ! तु मेरे घर से बाहिर निकलजामेरे साम्हने मत आ-यहा से दूर हटजा" इत्यादि हृदय विदारक निर्भसना से अनाहत हुए ये दीन वदन और विकृत मन वाले तथा (कुभोयणा ) अपनी जिन्दगी भर कभी अच्छा भोजन नहीं पाने वाले तुच्छाहारी तथा (कुवाससा) मैले कुचले वस्त्र पहनने वाले तथा (कु वसहीसु) गन्दी जगहों में रह कर (किलिस्सता) अनेक कष्टो का हत्य मने बित्तमा सता५ पहा ४२नार डाय तथा " दुरुद्धराइ"२ तेभने माधात ना२ डाय छे सेवा क्यनी "जावजीव" वे त्या सुधी तमा " पावति" प्रास ४२ छ भेटले. सालण्या ४२ पक्षी blog शु ने छ त हे छ- अणिदूसरफहसायणतज्जणणि भच्छणदीणग्यणचिमणा " तवा એ લેકે અપ્રિય, અતિ કઠેર વચનેથી તથા “ અરે નીચ! આવું કેમ કરે છે?” ઈત્યાદિ પ્રકારની તર્જનાથી, “હે દુષ્ટકર્મકારિન ! તુ મારા ઘરમાથી બહાર નીકળી જા–મારી સામે આવીશ મા-અહીથી દૂર ચાલ્યો જા” ઈત્યાદિ હદય ભેદક નિર્ભર્સનાથી અનાદર પામેલ તે દીન વદનવાળા તથા વિકૃત મન वा तथा " कुभोयणा" तथा पन पर्यन्त सा३ मारनास नही ४२ना२। हुस। डानुसार प्राप्त ४२नारा तथा “कुवाससा" मेवा तथा साटेसा तूटेसा पत्र पाउनास तथा " कुवसहीसु" महासामा २ . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका १२ सू० १५ मृपावादिना नरकादिप्राप्तिरूपफलनिरूपणम् २५१ 'क्लिश्यन्त =सन्तप्यमाना अतएर 'पन्चपिडलदुरखसयसपलित्ता' अत्यन्त विपुलदुःखशतसमदीप्ता अत्यन्त विपुलानि विशालानि यानि दुःखशतानि तैः सम्मदीप्ताः-प्रतप्ता'=' उनलभति' उपलभन्ते प्राप्नुवन्ति ‘नेवसह' नैवसुख 'नेवनियुट' नैपनिति मन स्वास्थ्य, किन्तु दुःखमेवानुभवन्तीति भावः । एव मृपापादफलमुक्तम् ॥ १० १५॥ उठाते हुए ( अवतविउलनुक्समयसालित्ता ) वटत अधिक कठिन से फठिन सैकड़ो दु खो से मन्तप्त बने हुए ये लोग (नेवसुह) न तो कभी सुग्व पाते ह और ( नेवनिगुट) न कभी निवृति-मनः स्वास्थ्य-शाति को (उचलभति) पाते ह अर्थातू-रातदिन दुःख भोगा करते हैं । इस प्रकार यह मृपागद का फल कहा है। भावार्य-मृपाबाद का फल स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं किमृपवादीजन कभी भी अपने जीवन में मच्ची सुखशांति नही पा सकते हैं। ये मृपावाद से उपार्जित पापकर्म के उदय से मरकर तिर्यच एव नरफगतिके अत्यत कठिन दुःखाको भोगा करते हैं । तिर्यच योनिमे रहने वाले जीवो की आयु उत्कृष्ट तीन पल्य की वनस्पति की अपेक्षा अनतकाल की और नरक में रहने वाले जीवो की उत्कृष्ट तेतीस सागर प्रमाण है। इतने काल तक यहा रहकर फष्ट परम्पराओ का अनुभव वे फरते रहते है। फिर भी जो पाप कर्म भोगने से अवशिष्ट रहता है उसे वे यहा से निकालकर किसी तरह भी मिली हुई मनुष्य पर्याय में भोगते है । यहा जो इन्हें मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है वह बिलकुल जघस्सता " भने उल्टो सन २ता “ अच्चतविउलदुक्ससयसपलिता" ઘણુ જ વધારે આકરામા આકરા સેકડે ટુ ખોથી દુખી બનેલા તે લોકો ને सुह" उ ५ सुभ प्रास उरत नथी “नेव निव्नुइ" ही पनिवृत्ति भननी शन्ति “बलभति" मनुसयता नथी भेटले हिनशत लोगવ્યા કરે છે, આ પ્રકારનું મૃષાવાદનું ફળ કહેલ છે ભાવાર્થ–મૃષાવાદનુ ફળ બતાવતા સૂત્રકાર હે છે કે-મૃષાવાદી વ્યક્તિ પિતાના જીવનમાં કદી પણ સાચા સુખ રાતિ પામી રાતે નથી તેઓ મૃષા વાદથી ઉપાર્જિત પાપકર્મોના ઉદયથી મરીને તિર્યંચ અને નરકગતિના અત્યંત કઠિન દુખ ભોગવ્યા કરે છે તિર્થં ચ એનિમા જન્મ પામતા નુ આયુષ્ય ઉત્કૃષ્ટ ત્રણ પત્યનુ અને વનસ્પતિની અપેક્ષાએ અન તકાળનુ અને નરકની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ તેત્રીસ સાગર પ્રમાણનુ હોય છે એટલે સમય ત્યા રહીને તેઓ કષ્ટ પર પરાઓને સહન કરે છે, ત્યાર પછી પણ જે પાપકર્મો ભેગવવાના Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মপ্লযাগে न्यस्थिति की होती है। उस सर्वधा जघन्य स्थिति को मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होकर ये कभी भी धोड़ा आनद भी नहीं प्राप्त कर सकते है। सदा पराधीनता की जजीरी में जकड़ा जाकर इनका जीवन व्यवहार चलता है । इनकी शारीरिक आकृति दुर्दर्शनीय पर उठेगजनक रोती है। कोई भी इनसे मोह ममता नहीं रखता है। परक व्यक्ति इनका तिरस्कार करता रहता है। चेतनशक्ति इनकी अविकसित रहा करती है। लक्ष्मी नहीं रहने से ये सदा दुःसो भने रहते हैं । मागमृग करके ये जो भी लाते ह घर रस विराम होता है। भरपेट भोजन इन्हें मिलता नही है। वाणी भी इनकी इतनी अच्ती नही होती जो दूसरों के चित्त को अपनी ओर आकृष्ट कर नके। काक जैसा कठोर इनका स्वर होता है। गर्दभ जैसी इनकी घोलो होती है। कोई २ तो जन्माध होते हैं। कोई २ पहिरे और गूगे होते है । दुःस में भी इनका साथ देने वाला कोई नहीं होता है। इनकी मित्रता अपने जैसे नीचों से ही होती है। उन्हीं के पास ये उठा बैठा करते है। गन्दे स्थानो में इन्हें रहने का मिलता है । सर कोई इनकी निंदा करते है । दूसरो के हृदय विदारक शब्दो को सुनकर ये मनोमन दुखित होकर रह जाते है। तात्पर्य यह है બાકી રહ્યા હોય તેમને ત્યાંથી નીકળીને કોઈ પણ રીતે પ્રાપ્ત થયેલ મનુષ્ય એનિમા તેઓ ભગવે છે તેને જે માનવ પર્યાય પ્રાપ્ત થાય છે તે બિલકુલ જઘન્ય સ્થિતિની હોય છે તે તદ્દન જઘન્ય સ્થિતિની મનુષ્ય પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈને તેઓ કદી પણ છેડે સરએ આનદ પ્રાપ્ત કરી તાકતા નથી તેમને જીવન વ્યવહાર સદા પરાધીનતાની બેડીમાં જકડાઈને ચાલે છે તેમના હારીને દેખાવ બેડેળ અને ઉગજનક હોય છે તેમના પ્રત્યે કોઈ પણ મોહ અથવા મમતા રાખતુ નથી, દરેક વ્યક્તિ તેને તિરસ્કાર કર્યા કરે છે તેમની ચેતના શક્તિ અવિકસિત રહે છે લક્ષમી નહીં રહેવાથી તે સદા દુખી રહે છે માગી કરી તે જે કઈ લાવે છે તે વિરસ હોય છે તેને ધરાઈને ખાવા પણ મળતું નથી બીજાના ચિત્તને પિતાની તરફ આકર્ષી રાવે તેવી મીઠી વાણી પણ તેની હેતિ નથી તેને સ્વર કાગડા જેવો કર્કશ હોય છે ગર્દભ જેવી તેની બોલી હાય છે, કઈ કોઈ તે જન્માધ હોય છે કે બહેરા અને મૂગ હોય છે દુખમાં પણ તેને મદદ કરનાર કોઈ હેતુ નથી તેને પિતાના જેવા અધમ લેકે સાથ જ મિત્રતા થાય છે તેમની પાસે જ તે ઉઠે બેસે છે તેમને ગદા સ્થાનમાં જ રહેવું પડે છે સૌ તેમની નિંદા કરે છેબીજા લેકે હદયવિદારક શબ્દ સાભળીને તેઓ પિતાના મનમાં જ દુખ અનુભવીને રાત રહે છે તે પ્યું Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ ० १६ अलीकनचनम्य फरितार्थनिरूपणम् ०५३ अथ मतद्वार साल्येन सफलग्य निगमयति मूनकार 'एसो सो' इत्यादि । मूलम्एसो सो अलियश्यणस्त फलविवाओ इहलोडओ परलोइओ अप्पनुहो बहुदुक्खो महभओ वहुरयप्पगाढो दारुणो ककलो असाओ वाससहस्सेहि मुच्चइणय अवेदयित्ता अस्थि हु मोक्खोक्ति, एवमाहसु नायकुलनदणो महप्पा जिणोउ वीरवर नामधेजो कहंसीय अलि यवयणस्त फलविवाग, एय त विइय पि अलियवयण लहुस्सग लहुचवलभणिय भयकर दुहकर अयसकर बेरकर अरतिरतिरागदोसमणसकिलेसवियरण अलियनियडिलातियोगवहल नीयजणनिसेविय निसंस अप्पच्चयकारग परमसाहुगरहणिज परपीडाकारगं परमकिण्हलेससहिय दुग्गडविणिवायवडण भवपुणब्भवकर चिरपरिचियमणगय दुरत त्तिवेमि ॥ सू० १६ ॥ ॥विइय अपम्मदार समत्त ।। २ ॥ टीका-'एसो सौ' एप स पलियवयणस्स' अलीकवचनस्य 'फलनिवाभो' फलविपाकः इहलोइजो' ऐहलोकिक मनुष्यभरापेक्षया 'परलोटओ' कि दुःसो के जितने प्रकार ह वे सब भयकर से भयकर इन्हें भोगना पड़ता ह । उस स्थिति में इनका कोई साथी नहीं होता है ॥ स्मू-१५॥ अव सूत्रकार इस अलिकवचन हार का सपूर्णरूप से सकलन करके फलितार्थ करते है-' एसो सो' इत्यादि । टीकार्य-(एलो सो अलिपश्यणस्स फल विचाओ) अलीक वचनका यह जो मनुष्यगति की अपेक्षा इहलोक सबधी तथा नरकनिगोदगति की એ છે કે દુખના ભયમાં ભયકર જે પ્રકારે છે, તે તેમને ભોગવવા પડે છે એ સ્થિતિમાં તેમનું કોઈ સાથીદાર હોતુ નથી સૂ-૧૫ હવે સૂત્રકાર આ કારનુ સ પૂર્ણ રીતે સકલન કરીને ફલિતાર્થ બતાવે छ-"एसो सो" त्यादि, जय-"एसो सो अलियत्रणस्म फलविवाओ" Als क्यननी मनुष्यातिनी અપેક્ષાએ આલેસ બધી તથા નરકગતિની અપેક્ષાએ પરલોડ સબ ધી આ જે ફલ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ व्याकरणसूत्रे = पारलौकिकः = नरकायपेक्षया 'अप्पमुहो' अल्पमुस' वार्जितः 'हुदुक्खो' दुःखनहुल: मदमओ ' महाभयः = महामयजनकः ' हयपनाठो' हुजः ' प्रगाढ = प्रचुरकम रजोभि. सम्भृत दारण भीषणः 'सो' कर्तशः = कठोर 'असाओ' अशातः = अनुसाऽशावकर्मवेदनीयम्वरपः इत्येवनिधः फलविचारः वाससहस्सेहि ' सहसे = पल्योपमसागरोपमममाणकाल: 'मुन्चः ' मुचते= क्षीयते । तदेव व्यतिरेकमुखेना-'ण्य' न च त फरविपाकम् 'दत्ता' अबे दयित्वा = अनुपभुज्य उपभोग विनेत्यर्थः, 'ए' निश्येन' मोरखा 'मोक्षः 'अत्थि ' अस्ति ' त्ति ' इति शब्द • समाप्तिश्चक: । एतस्यार्थस्य साक्षात्प्रमाणभूतपरमा त्मप्रतिपादितत्वेन प्रमाण्यनिरूपणाय प्रमाणयनाह-' एवमाच्छु ' इत्यादि, एवम्= अपेक्षासे परलोक सनधी फलरूप विपाक कहा गया है, उससे यह अच्छी तरह ज्ञात हो जाता है कि यह (अप्पसुहो) सुसवर्जित एव (नदुखो दुःख हुल है । (महभओ) महा मयजनक, और (बहुरयप्पगाढो ) प्रचुर कर्मरूपी रज से भरा हुआ है । (दारुणो ) दारुण तथा (कक्कसो कठोर है । और (असाओ ) असाता वेदनीय कर्म स्वरूप है । ( वास सहस्सेहिं मुच्चइ ) यह फलविपाक जीव पत्योपम एव सागरोपमप्रमाण कालतक भोगा करता है तभी जाकर उससे यह छूटकारापाता है, अर्थात् वह फलरूप विपाक नष्ट हो पाता है । ( णय अवेदयित्ता हु मोख अस्थि त्ति ) भोगे विना जीव इससे मुक्त नहीं होता है । यहा (त्ति ) यह समाप्ति अर्थ का सूचक है । अब सूत्रकार इस अर्थ मे साक्षात् प्रमाणभूत परमात्मा द्वारा प्रतिपादित होने के कारण प्रमाणभूतता प्रकट करने के लिये कहते हैं - ( एव३५ विद्या मताववाभामाव्यो छे तेनाथा ते सारी रीते लगुवा भणे छे देते 'अप्प सुहो" सुवर्धित मने "दुहु+सो" अयत हु अभय हे " महत्भभो” भा लयन, अने बहुरयप्पगाढो " प्रथूर श्या २४थी भरपूर छे " दारुणो " हारुणु तथा “कक्सो ” होर छे भने " असाओ " असातावेदनीय भ * ३५ छे " वास सदस्सेहि मुच्चइ " ते इसविधान पढ्यो भने सागरोपम પ્રમાણ કાળ સુધી જીવ ભાગળ્યા કરે છે, ત્યારે જ તે તેમાથી છૂટી શકે છે, એટલે કે તે લરૂપ વિપાડ એટલા લાખા સમયે નષ્ટ ચાય છે. હું णय अवे दयिता हु मोक्खो अस्थि ति " ते इसविया लोगना विना व तेनाथी भुत यह शस्तो नथी सहीं "त्ति " ते समाप्ति अर्थना सू હવે સૂત્રમર આ અમા પ્રત્યક્ષ પ્રમાણભૂત પરમાત્મા દ્વારા પ્રતિપાદિત હાવાને કારણે, પ્રમાણભૂતતા દર્શાવવાને માટે કહે છે एव माइसु આ પૂર્વોક્ત शेते तीर्थ ॐ गणुधराहिङ हेवाये तथा " नायकुलन दणो महप्पा जिणो वीरवर " , ܙܐ 1 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० २ सू० १६ अळीकवचनस्य फलितार्थनिरूपणम् २५५ उक्तरीत्या ' आहमु ' ऊचुस्तीर्थङ्करगणधरादयः । तथा तदनुसारेणैव 'नाय कुलनदयो । ज्ञातअलनन्दन = सिद्धार्थकुलानन्दकरः, 'महप्पा' महात्मा परमात्मरूप. ' जिणो , जिनः वीरवरनामधेनो । वीरवरनामधेय परयातनामा भयवान् महावीर इमम् ' अलियवयणस्स' अलीकवचनस्य 'फलनिवाग' फलरिपाक ' कहेसी ' कथितवान् । एव 'त'तत् पूर्वोपदर्शितस्वरूपम् 'अलियरयण ' अटीकवचन लहुस्मग लहु चलभणिय' लघुम्बकलघुचपल भणित लघुस्का:- तुच्छात्मानथ ते लघव अतिनीचाश्चपलाश्च ते भणितजल्पित 'भयकर' भयङ्कर 'दुहकर ' दु.सकर ' अयसकर नैरकर ' अयसर वैरकरम् , ' अरतिरतिरागदोसमणसरिलेसपियरण ' अरतिरतिरागद्वेषमन' सरलेशवितरणम् , ' अलियनियडिसातिजोगबहुल ' अलीकनिकृतिमातियोग बहुल 'नीजणनिसेीिय' नीचजननिषेपित 'निसस' नृशसम् 'अपञ्चयकारग' मारतु) इन पूर्वोक्त रीतिसे तिर्थकर गणधरादिक देवोने तथा (नायकुल नदो महप्पा जिणो वीरवरनामधेजो) उन्ही के अनुमार ज्ञातकुलनदन सिद्धार्पकुलके आनदकारक-परमात्मस्वरूप, जिन महावीरने कि जिनका "वीर" यह उत्तम नाम प्रख्यात है उन्होंने (इम अलिय वयणस्स फलवियाग कहेंसी) यह मृपावादका फल पतलाया है। अब उपसहार करते है(ण्य त वितिय पि अलियवयणं) इस द्वितीच अलीक वचन को जो (लहुसगलहुचवलभणिय ) लघुस्वक-तुच्छात्मा होते है अतिनीच एव चपल होते है वे ही बोलते है । ( भयकर ) यह अलीक वचन भयकर, (दुहकर) दुःखकर, (अजसकर ) अयस्कारक, (वेरकर ) बैरकारक, (अरतिरतिरागदोसमणसकिलेसवियरणं ) अरति, रति, राग, द्वेष और मन सक्लेश प्रदाता है। ( अलियनियडिसाइजोगवनुल ) अलीकनामघेजो" भनी प्रमाणे १ शातान हन सिद्धार्थ ना जने मानहाय પરમાત્માસ્વરૂપ, જિન મહાવીરે કે જેમનુ “વીર” એ ઉત્તમ નામ પ્રખ્યાત है, तभए “इम अलियरयणस्स फलविवाग कहेसी" मा मृषावाहनु २१३५ मताव्यु वे मूडा उपस हा२ २ छे—" एय त बिइय पि अलिय वयण " 0 द्वितीय २ ३५ मधमः पयनने २ “लहुसगबहुचवलभणिय" લઘુખ્યત-તુચ્છાત્મા હોય છે, જે અતિ નીચ અને ચચળ હોય છે તેઓ જ बाले छ “ भयर" ते मसत्यपयन यst२४, “दुहकर " ४२, “ अजसकर " '५ २४, “ वेरकर " वै॥२४, “अरतिरतिरागदोसमणसकिले सपियरण " मति, ति, २१, द्वेष भने भनने उसे ४२ना२ छ “ अलिय नियडिसाइजोगबहुल" मला:-निष्ण छ, निति, साति॥ प्रयोगथी युक्त Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ प्रभव्याकरणम् अमत्ययकारक, 'परममाहुगररणिज्ज परममाधुगर्हणीय परपीडाफारक 'पर मकिण्डलेससहिय' परमक्रष्णलेल्यासहितं ' दुग्गडपिणिवायादृण ' दुर्गतिविनि पातर्द्धन 'भापुण भाकर ' निरपरिचिय' चिरपरिचितम् , ' अणुगय' अनुगतम्, 'दुरत' दुरन्तम् । एतानि सर्वाणि पदानि पूर्वमस्येव द्वारस्य प्रथममूत्रे व्याख्यातानि ततो विज्ञेयम् । 'तिमि ' पूर्ववत् ।।२०१६॥ इतिश्री-जैनाचार्य-जैनधर्मदिर-पूज्य श्री घासीलालप्रतिपिरचिताया प्रश्नव्याकरणस्नस्य मुदगिन्याग्याया व्याग्याया हिंसादि पञ्चायपहारेपु मृपावादान्य द्वितीयम् __ आधर (अधर्म) द्वार समाप्तम् ॥२॥ निष्फल है निकृति, साति के प्रयोग से यरल है अर्थात् कपट बाल है। (णीयजणनिसेरिय) जाति, कुल आदि से अधम बने हुए व्यक्तिमओ द्वारा निपेवित है। (निसम) क्रूर-अथवा प्रशसा से रहित है । अप्रत्यय-अविश्वास का कारक है । (परमसागरणिन ) परम साधु-तीर्थकरो द्वारा गर्हणीय है। (परपीडाकरण) दूसरों को पीडा पहचाने वाला है। (परमकिण्हलेससहिय ) अत्यन्तमलिन आत्म परिणति से युक्त है (दुग्गइपिणिवायवडण ) दुर्गति का वर्धक है । (भव पुणभवकर ) पुनः पुनः जन्म प्रदाता है। (चिरपरिचय) चिरपरिचित् यह जीवों के साथ अनेक भवों की परम्परा तक रहनेवाला है । (अणु गय) भर भव में साथ चलने वाला है। (दुरत ) इसका फल दुरन्तकटुफलका देने वाला है"त्ति बेमि" इसकी व्यारया की जा चुकी है।सू-१६।। ॥द्वितीय आस्रव-'अधर्म' द्वार समाप्त ॥ छे सेट ४५ट भय छ “णीयजणनिसेविय" ति, माहिथी मम सेवा व्यतिमी द्वारा सेवायेस " निसस" दूर-मेट प्रशसाथी राहत छ अप्रत्यय-मविश्वास (पन्न उ२नार छ " परमसाहुगरहणिज्ज" परभसाधुतीर्थ । वास निधछे “परपीडाकरण " मीतने पर पायाना२ छ " परमकिण्हलेससहिय । सत्यत मलिन माम परिणतिथी युत, “दुग्गइ विणिवायवड्ढण" तनु वधारना२ छ “ भवपुणभवकर " | श्शन भ सेवाना२ छ “चिरपरिचिय" शिरपरिचित मेयुत वानी साय अने लवानी ५२ ५२२ सुधा २नार छ " अणुगय" १२४ सपमा साथ यासाना३ छ “दुर त " तेनु ३॥ हुरन्त छ- सहना छ “ तिबेमि" આ વાક્યને અર્થે આવી ગયા છે ( સૂ-૧૬ ) આ રીતે હિસાદિ પચાસવ દ્વારા પ્રાણવધ નામનું બીજુ આસવ (અધર્મ)દ્વાર સમાપ્ત થયુ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अथ तृतीयमध्ययनम् । ___ व्याग्यात द्वितीयमधर्मद्वार साप्रत तृतीयमारभ्यते-अस्य च पूर्पण सहायमभिसम्बन्धः । द्वितीयाधर्मद्वारे यादृशनामादिनिर्देशपुरस्सरमली कवचनस्वरूपमुक्तम् । अटीकवचन च अदत्ताऽऽटायिनो न्वेति हेतो, मूत्रक्रमनिर्देशानुमाराच्च मृपापादानन्तरमुचितमाप्तमदत्तादान स्वरूपनामादिनिर्देपपूर्वक प्रदयते, तत्र पूर्वयोरपर्मद्वारयोरिवास्यापि 'बाहक १, यन्नाम २, यथा च कृत ३, यत्फल ददाति ४, ये च कुन्ति ५, इति पञ्चभिरन्तरनिरूपण चिकीपुरादौ क्रमप्राप्त 'यादृश' इति द्वारमाश्रित्य अदत्तादानस्वरूप निरूप्यते-'जयू तहय च' इत्यादि तृतीय आमव-(अधर्म) द्वार प्रारभदितीय आस्नव-(अधर्म) द्वार कहा गया, अर तृतीय आस्रय द्वार की व्याख्या प्रारभ होती है । इस अधर्मटार का पूर्व अधर्मद्वार के साय इस प्रकार से सबंध हे कि-दितीय आस्रव-(अधर्म) द्वार में (यादशनामादि निर्देश पूर्वक) अलीक ( झूठ)वचनका स्वरूप कहा है सो इस अलीक वचन को जो अदत्त को लेने वाले व्यक्ति होते है, वे ही योलते है तथा सूत्रक्रम निर्देश भी ऐसा ही है, इसलिये मृपावाद के अनन्तर उचितरूप से प्राप्त अदत्तादान का स्वरूप नामादि निर्देशपूर्वक इस अध्ययन में कहा जावेगा । जिस प्रकार पूर्व दो आस्रव (अधर्म ) द्वारा का सूत्रकार ने (यादृश यन्नाम) इत्यादि पाच अन्तर्वारों द्वारा निरूपण किया है उसी तरह से वे इस तृतीय आस्रव (अधर्म ) द्वार का भी निरूपण करना चाहते है इसलिये वे सर्व प्रथम इसमें क्रम प्राप्त अदत्तादान का ( यादृश ) इस द्वार को लेकर स्वरूप कहते हैं - ત્રીજા આસવ-અપ દ્વારનો પ્રારંભ બીજા આશ્વન-( અધર્મ) દ્વારનું કથન પૂરૂ થયુ, હવે ત્રીજા આસવ દ્વારનું વર્ણન શરૂ થાય છે આ અધર્મકારને આગળના અધર્મકાર સાથે मारीत म 2-y- साप-(अधम ) मा “ यादृशनोमादि निर्देशपूर्वक " Als क्यननु २१३५ अगट ७२पामा माव्यु छ ५५ ते २मसी વચને અદસ દીધેલુ લેનારી વ્યકિત જ બેસે છે, તથા સૂત્રકમ નિર્દેશ પણ એ જ છે, તે કારણે મૃષાવાદનું નિરૂપણ કર્યા પછી યોગ્ય રીતે અદદાનનું સ્વરૂપ નામાદિ નિર્દા પૂર્વક આ અધ્યયનમાં બતાવવામાં આવશે म माना मे आव१-(अधम) द्वारीनु सूत्रमारे "यादृश यन्नाम" त्यहि પાચ અન્ત દ્વારા નિરૂપણ કર્યું છે, એજ પ્રમાણે તેઓ આ ત્રીજા આત્સવ (અધમ) દ્વારનું પણ નિરૂપણ કરવા માગે છે તેથી તેઓ સૌથી પહેલા ક્રમ પ્રમાણે Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरणसूत्रे मृलम्-जंबू तइयं च अदिण्णादाण हरदहमरणभयकलस तासणपरसतगगिझिलोभमूल कालविसमसंसिय अहो अच्छिन्त तहपत्थाणपत्थोइमइय अकित्तिकर अणज्ज छिदमंतरविधुरवसणमग्गणउस्तवमत्तप्पमत्तपमुत्तवचणाऽsखिवणघायणपराऽणियपरिणामतकरजणबहुमयं अकलणं रायपुरिसरक्खिय सयासाहुगरहणिज्ज पियजणमित्तजणभेदविप्पीहकारग रागदोसवलं पुणो य उप्पूरसमरसगामडमरकलिकलहवहकरण दुग्गडविणिवायवद्धणं भवपुण भवकर चिरपरिचियं अणुगय दुरत तइय अधम्नदार॥सू०॥ टीका-हे जम्मू। 'तइय' ततीरमासबहार दिण्णादाण' अदत्तादा नम् अदत्तस्य देव-गुरु-राज-गायापति-साधर्मिभिरसमर्पितस्य सचित्ताचित मिश्रवस्तुविशेपस्य आदान-ग्रहणमदत्तादान नाम चौर्यमित्यर्थः । कीदृश तदित्याए 'जबू । तइय' इत्यादि। टीकार्थ-जस्वामी श्री सुधर्मा स्वामी से पूछते हैं कि-हे भदत । तृतीय आस्रव द्वार का सिद्धिगति को प्राप्त मा श्री महावीर प्रभुन क्या स्वरूप कहा है ? इसका उत्तर देते हुए श्री सुधर्मा स्वामी उनसे कहते हैं कि (ज) हे जवू । (तडय च अदिणाण) तृतीय अदत्ता दान का स्वरूप सिद्धिगति स्थान को प्राप्त हुए श्री महावीर ने इस प्रकार कहा है । अदत्त का-देव, गुरु, राजा, गाथापति और माधमी द्वारा नही ममर्पित की गई वस्तु का आदान-ग्रहण करना इसका नाम अद महत्तहाननु "यादृश" से हारने सन १३५७ छ । जनू । तइय" त्या ટીકાર્થ––જ બૂ સ્વામી શ્રી સુધર્માવાસીને પૂછે છે કે હે ભદન્ત ! સિદ્ધિ ગતિ પામેલ શ્રી મહાવીર પ્રભુએ ત્રીજા આસદ્ધારનું કેવું સ્વરૂપ કહેલ છે ? तना तर यता श्री सुधर्मा स्वामी भने 83 ! ' तइय च अदिण्णादाणं " सिद्धिगतिन पामेरा श्री महावीर प्रमुख महत्ताहाननु । પ્રકારનું સ્વરૂપ કહેલ છે અદત્તનુ–દેવ, ગુરુ, રાજા, ગાથા પતિ અને સાધર્મ દ્વારા અપણ ન કર ચેલ વસ્તુનુ-આ દાન-ગ્રહણ કરવું તેને અદત્તાદાન કહે છે તે કેવું હોય છે? Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ३ सू० १ अदनादास्वरूपनिरूपणम् २५९ - हरदहे 'त्यादि-- 'हरदहमरणभयकलुमतास गपरसतगगिज्यलोभम्ल' हरदहमरणभयकलपनासन परसत्कगृद्धिलोभमूल, ता हर-हरण कुरू, दह-गृहादिक प्रधालय, इति वचनद्वय हरणदाहरिपये चोराणा प्रतिकारकम् । तथा मरण मृत्युः भय भीतिः कलप चम्पाप तन्त्रमर-भयजननम्मरूप यस्य तत्तथा, तच्च परसत्कदिलोभ मूल च-परसत्के-परकीयधने गृद्धिा=गामक्तिः तया लोभश्च-रौद्र यानयुक्तामूळ मूल कारण यस्य तनया 'कालविसमससिय' कालविषममश्रित च-कालः अर्धरामादिलक्षणः, निपमाणि पर्वतादिदुर्गमस्थानानि तैः सश्रितम् = आश्रित यत्तत्तथा । एतादृशेषु निर्जनस्थानेषु चाराः प्रायो निवसन्ति । तथा 'अहोअच्छि त्तादान है । यह कैसा होता है ? इस पर कहते है-यह अदत्तादान (हरदहमरण भयकलुल तासणपरसगगिज्झलोभमूल) (हर) इसके द्रव्य का एरण करलो, (दर) इनके गृादिक को जलादो, (मरण ) इसे मार डालो, इत्यादि रूपसे ( मय) भय दिखाकर दूसरो के द्रव्यादि का हरण करना, (कलुस ) एक दूमरों मे कलुपभाव जगाकर उनके द्रन्यादिक को ले लेना, (तासण) इत्यादि अनेक प्रकारसे त्रास पहुँचाना, तथा (परसतग) दूसरो के वन म (गिजिम ) आराक्ति रखना तया (लोभ) रौद्रध्यानसे युक्त इसमे मृभाष रखना, ये सब (मूल) अदत्तादान के मूल कारण हे । ( कालविसमससिय ) अर्धरात्र आदि काल तथा विपम-पर्वतादि दुर्गमस्थान, इनके द्वारा यह अदत्तादान सश्रित आश्रित होता है-बनता है, तात्पर्य इसका यह है कि जो अदत्तादानचोरी-किया करते हैं, वे चोर प्राय. अर्धरात्रि के समय में निकलते है, एव पर्वतादि दुर्गम स्थानो पर छिपे रहते है, इस अपेक्षा काल और तो ना याममा छ-त महत्ताहान "एरदहमरणभयकलुसतासण परसतगगिझलोभमूल" "हर" " मा व्यक्तिनु द्रव्य ५वी a “ दह" तेना ५२ साहिन भावी हो, “मरण ' तेने भारी नो" त्याशित "भय" मय तावीने न्यनु द्रव्य वस्त्र माहिरी आयु, “कलुस" मे भीत वय्ये ४सेस गाडीन तमना द्रव्य माहिने सयु, “तासण" त्याहिशत त्रास पायावा, तथा " परसतग" ना धनमा “गिज्झि" मासहित शमी तथा “लोभ " शैद्रव्यानथी युटत भूमाप तभा राणा ते मधा " मूल " भत्ताहानना भूण २ ले “कारविसमससिय" रात्री गाहि કાળ તથા પર્વતાદિ દુર્ગમસ્થાન તે અદત્તાદનના આશ્રય સ્થાને છે, એટલે કે જે અદત્તાદાનરી કરે છે તે ચોર સામાન્ય રીતે વ્યરાત્રે ચોરી કરવા નીકળે છે, અને પર્વતાદિ દુર્ગમ સ્થાનમાં છૂપાઈ રહે છે, તે અપેક્ષાએ કાળ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० प्रश्नव्याकरणसूत्र नतण्हपत्थाणपत्थोइमइय ' अघोस्निनगमस्थान-प्रम्नीमतिक = अयोगतो अच्छिन्नताणाना-पिपयलोलुपाना यत् गस्थान-गमन तर प्रस्तोत्री-प्रातिका मतिः = बुद्धिरस्ति यस्मिन्नानादाने नरथा नरकाययोगतिकारणमित्यर्थः, 'अकित्तिकर' अकीर्तिकरम् अयमसरम् 'अणज्ज भनार्यम् = अनार्याचरितत्वाद अधया अन्याय न्यायनित न्यायरहितमित्यर्थः 'मितरपिपुरवसगमगणउस्सरमत्तप्पमत्त-पमुत्तववणाश्मिरण -घायणपराणिहुय-परिणामवपरजणाहुमय' छिद्रान्तरविधुरग्यमनमार्गणोत्सगत्तप्रमत्तामुप्तचनाऽऽक्षेपगघातनपरानिभृतपरिणामतस्करजन बहुमत-तत्र छिद्र = 'केन मार्गेण गन्तव्य' मित्पादिकम् । अन्तरम् भवसर जनाना निद्रादिलक्षगः, विधुर = अपाय: कष्टप्राप्त्यादिलक्षण, विपमस्थानों को अदत्तादान का कारण कहा गया है। (अहा अच्छिन्नतडपत्याणपत्योहमाय ) जिन व्यक्तियों की विषय तृष्णा छिन्न नहीं होती है ऐसे व्यक्ति ही अधोगति में पहुँचाने वाली अपनी बुद्धि के द्वारा इस अदत्तादान मे प्रवृत्ति करते है. अत. अधोगति म गमन की कारणभूत जो विषय लोलुपों की मति है वह भी इस अद त्तादान की एक कारणभ्रत है। यह अदत्तादान (अकित्तिकर ) अयश कारक है। (अणन ) अनार्यो द्वारा ही आचरित किया जाता है इस लिये अनार्यरूप है। अथवा नीतिमार्ग से विरुद्ध होने के कारण अन्याय्य है । (छिद्द) इस अदत्तादानको करने वाले व्यक्ति इस पातकी गवेषणाम रहते हैं कि हमे इस कामको करने के लिये किस मार्गसे होकर जाना चाहिय तथा (अतर) अन्तर की-कौनसा अवसर इस कामको सिद्ध करनेवाला होगा इस तरह के मनुष्योंके निद्रादिरूप समयकी (विधुर) विधुरकी-कष्ट भने भन्थानात महत्ताहाननी माश्रयस्थान तान्या छ ' अहो अच्छिन्न तण्हपत्याणपत्थोइमइय" नी विषय वासना न थती नथी मेवा લેકે જ અધોગતિમ લઈ જનાર પોતાની બુદ્ધિ દ્વારા, આ અદત્તાદ પ્રવૃત્ત રહે છે, તેથી અગતિમાં ગમન કરવાના કારણરૂપ વિષય લેલુપાના જ भतिछत पण या महत्तहान भाटा२३५ छ. न महत्ताहान " आकार कर" मीति अावना छ, “ अणज्ज " मनादास सेवातु का અનાર્યરૂપ છે, અથવા નીતિ માર્ગથી વિરુદ્ધ હોવાથી અન્યાયયુક્ત છે " छिह " मा २५त्ताहान सेवनार व्यहित मे पातनी शोधमा રહે છે કે આ કામ કરવા માટે આપણે કયા માર્ગે થઈને જવું જોઈએ ता" अतर" मतरनी-डयो पसत मा भने सिद्ध २५॥ भोट 43 થશે તેની શોધમાં રહે છે આ રીતે માણસના નિદ્રાદિ સમયની શોધમાં ાવાથી Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका भ० ३ सू० १ अदत्तादानस्वरूपनिरूपणम् २६१ व्यसनराजादि कृतोपद्रः, इत्येतेपा मार्गणम् गवेषणम् , तथा उत्सवेपु-विवाहादिलक्षणेपु मत्तानाम्जयपानाद्यासताना अत एस प्रमत्तानाम्-असावधानानां प्रसुप्ताना-निहिताना च वचनचनापहरग, तथा जाक्षेपण-मन्नौप यादिभिश्चित्त विक्षेपकरण, पातन मागवियोजीकरण यम्यादिभिस्ताडन वा तेषु परा = तथा अनिभृतः प्रशान्त परिणाम = अन्तःकरणत्तिविशेप. येपा ते तथा, ते च ते तस्करानना. चारगणातैर्महुमत-मातिशयमादृत स्वीकृत यत्तत्तयाभूतमदचादानम् 'अफलुग' अफरण-दयारहित निर्दयजनप्रवर्तितत्वात् रायपुरिस प्राप्ति आदिरूप आपत्ति की, ( वनण) व्यसन को-राजा आदि द्वारा कृन उपद्रव की-भी ( मग्गण ) गवेपणा-ताक में तत्पर रहते है । तथा (उस्सव ) विवाह आदि उत्सवों में (मत्तप्पमत्त ) मद्यपान आदि के कर लेने से अमावधानी मे पडे हुए मस्त व्यक्तियों के तथा ( पसुत्त) निद्रा में पडे हा व्यक्तियों के (वचण) वनापहरण करने मे (आखिवण ) आक्षेपणमत्र औपधि आदिद्वारा चित्त के विक्षेप करने में, तथा (घायणपर ) प्राणों के अपहरण करने में अथवा अपने मित्रादिकों द्वारा ताडन करवाने में तत्पर रहा करते हैं। (अइणियपरिणाम ) इस अदत्तादानरूप कुकृत्य को करने वाले जीवों के परिणाम-अन्तः करण की वृत्ति-अशान्त रहती है। (तकरजणबहुमय) यह अदत्तादान चोर व्यक्तियों द्वारा ही सातिशयरूप में आहत हुआ है। अतः यह दुष्कर्म (अकलुण) निर्दयजनो द्वारा प्रवर्तित होने के कारण स्वय दया ररितरूप है इमीलिये ( रायपुरिसरक्खिय ) राजपुरुपों द्वारा यह निपित २७ छ “विधुर" विधुरनी-४ प्रति माह ३५ भापत्तिनी," वसण " व्यमननी infe गयेव पदना-पY ' मग्गण " गवेष!-तपासने भाटे तैयार हे छ तथा “ उस्सव" विपाड सामा, “ मत्तप्पमत्त" भद्यपान मालिन समाधानी रस भरत व्यस्तियाना तथा " पसुत्त" निद्रामा ५उस व्यतिगाना ' पचण" बनने डरी पान “आसिवण" माझे पशु-भत्र सौषधि माहिद्वारा भित्तमा विपन. ४वार तथा "घायण पर" पाए। देवाने अथवा पोताना भित्राहि द्वारा मा२ भगवाने त५२ २९ छ "अणिहुयपरिणाम" ते महत्ताहान३५ हुत्य ४२ना२ वानी भनेत्ति २iard २९ छ “ तकरजण पहुभय " मा महत्ताहान या२ all द्वारा ११ पधारे प्रमाणभा संपदामा भावे तथा ते दुध “अकलुण" नियन द्वा! मायरित डावाने ४२) या२ति डोय छे तेथी " राय Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभयाकरणसूत्रे अथ यनामेतिद्वारमाश्रित्यादत्तादानम्य नामान्याह ' तस्स य ' इत्यादि - मूलम् - तस्स य नामाणि गोणाणि हुति तीस । तं जहाचोरिक्कं १, परहड २, अदत्त ३, कूरिकर्ड ?, परलाभो ५, अस जमो ६, परधणम्मि गेही ७, लोलिकं ८, तक्करत्तणं तिय ९, अवहारो १०, हत्थलहुत्तणं ९९, पावकम्मकरणं १२, तेणिक्कं १३, हरणविपणासो १४, आइयणा १५, लुपणा घणाणं १६, अपच्चओ १७, ओवीलो १८, ओम्सेवो १९, क्खेवो २०, विक्खेवो २१, कूडया २२, कुलमसी य २३, कखा २४, लालपणं पत्थाय २५, आससणा य वसणं २६, इच्छामुच्छाय २७, तहागेही य २८, नियडिकम्म २९, अवरोच्छत्तिविय ३० । तस्त एयाणि एवमाईणि नामधेजाणिहुति तीस अदिण्णादाण पावकलिकलुसकम्मबहुलस्त ॥ सू० २ ॥ टीका - ' तस्स य' तस्य च पूर्वपदर्शितस्त्ररूपस्यादचादानस्य ' गोणाणि ' गोणानि = गुणनिष्पन्नानि नामानि वक्ष्यमाणानि 'तीस ' त्रिंशत् ' हुति' भवन्ति करना सब चोरी है । इस चोरी में जितने भी निमित्त कारण पड़ते हैं वे भी कारण मे कार्य के उपचार से चोरी रूप ही माने जाते है । दूसरे की भूली हुई, बिसरी हुई, पडी हुई, धरोहररूप में रग्वी हुई, वस्तु का हरण करना और दना लेना, ये सब अदत्तादान के ही प्रकार हैं । यह अदत्तादान हिंसादि पापों की तरह चोरो के लिये नरकादि दुर्गतियों में गमन का कारण होता है | ०१ || अब सूत्रकार यन्नाम " इस द्वार को लेकर अदन्तादान के नामों २६४ " ચારી કહેવાય છે તે ચારીના જેટલા નિમિત્તો હાય છે તેમને પણ કારણમાં કાના ઉપચારથી ચારી રૂપ જ માનવામા આવે છે બીજાની ભૂલથી પડી રહેલી, ભૂલાઈ ગયેલી, પડી રહેલી, અને થાપણ રૂપે મૂકેલી વસ્તુનુ હરણ કરવુ કે તેમને પચાવી પાડવી તે બધા અદ્યાત્તાદાનના જ પ્રકાર છે તે અદત્તાદાન હિંસાદિપાપેાની જેમ ચારોને નરકાદિદુ તિયામા ગમન કરાવનાર હોય છે/સૂ૦૧ હવે સૂત્રકાર यन्नाम ” એ દ્વારને લઈને અદત્તાદાનના નામ પ્રગટ 42 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टीका अ० ३ सू० • अदत्तादान्नामनिरूपणम् २६५ 'त जहा' तानि यया-' चौरिक्य ' चौरिक्य-चोरण चोरिका सैवेति चौरिक्य१, 'परहड' परहत-परस्मात् अन्यस्मात् हतम् अनुमति स्नेिव गृहीतम् २, 'अदत्त' केनापि न दत्तमदत्त ३, 'इरिसड 'रिकृत-कूरिभिः-निर्दयैः कृत ४, 'परलाभो' परद्रव्यस्य लाभ. ५, 'जमनमो' अमयमा मात्र रानुष्ठान ६, 'परवगम्मि गेही' परधने द्विः पन्द्रव्याऽभिकाक्षा ७, 'ठोलिय' लाल्य-लोलपत्व ८, 'तवरत्तण' तस्करत्वमिति च अवारो अपहार =अपहरण परपनन्य १०, हत्थलहुत्तण' हस्तलघु-च हस्त टापत्र-हस्तचापल्यम् , अथवा हस्तयो लघुव = परद्रव्यापहरगकुत्सितत्वात् नोवत्व ११, 'पावकम्पकरण ' पापफर्मकरण पापानुष्ठान १२, 'तेणिक स्तैन्य-स्तेनस्य चोरस्य म चौर्यमित्यर्य १३, “हरणपिप्पणासो' हरणविप्रणाश =हरणेन परद्रव्यहरणेन विप्रणाश' नाशइत्यर्थ. १४, · आइयणा' आदानम् अननुमतपरद्र याव्ण १५, ' लुपणा पणाग' पनाना लोपना-परद्रव्य को प्रकट करते है-'तस्स नामाणि' इत्यादि । टीकार्य-(तस्स य) पूर्व मे उपदर्शित स्वरूपवाले उस अदत्तादान के ( गोणाणि ) गुणनिप्पन्न ( नामाणि) नाम (तीस हुति) ३० तीस होते हैं (तजरा) वे इस प्रकार हैं-(चोरिक ) चोरी १, (परहड ) परहत-चिना अनुमति से दूसरे से वस्तु लेना २, (अदत्त) अदत्त ३, (कृरिकड ) यूरिन ४, (परलाभो ) परलाभ ५, (असजमो) असयम ६, (परधम्मि गेहो ) पर पनगृद्धि ७ (लोलिक) लोलुपता ८, (तझरत्तण) तस्करता ९ (अवहारो) अपहार १०, (हत्थलहत्तण) हस्तलाधव ११, (पावलम्मकरण) पापकर्मकरण १२, (तेणिक) म्तैन्य१३, (हरणविप्पणासो) हरणविप्रणाश१४, (आइयणा) आदान१५, -" तस्स य नामाणि" त्यात टी --" तस य " मा मतावामा मावे -43५ पास मह ताहानना 'गोणाणि " शु। प्रभारी ‘नामाणि " नाम “ तीस हुति" त्रीम छ “त जहा" ते मा प्रमाणे -(१) “ चोरिक" योरी (२) “परहड" पाहत-मनुमति विना मी-ननी पन्तु देवी, (3) “ अन्त्त " महत, (४)" पूरि कट" ति , (५) “परलाभो" ५२साल, () “असजमो, समयम, (७) “ परधणम्मि गेही" ५-धनगृद्धि-धननी सासभा, (८) “रोलिक्क" सोलुपता, (6) “ तकरत्तण" तरता, (१०) ' अवहारो" 24482, (११) " हत्यलाचण" ताप, (१०) "पावकम्मरण " ५।५ , (१३) " तेणिक " स्तन्य, (१४) “ हरणविप्पणासो" विप्राश, (१५) “आइ प्र० ३४ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रश्नध्याकरणसूत्रे विच्छेदः १६, 'अप्पचभो' अप्र ययापिचास:-मीयामोत्पादकस्यात् १७, 'ओपीलो' अपीड =पीडाजनक १८, 'औक्खेतो' आक्षेपः पटव्यविच्छेदः १९, 'उसेवो' उत्क्षेपः परहस्तान् द्रव्यम्य निर्गमन २०, निममेरो' विक्षेपापरधनस्य प्रक्षेपण२१, 'कृडया' कटताव्यस्य हट तुलादिमिरन्ययाकरण २२, 'कुलमसी' कुलमपी-कुलफजनक च २३, 'कमा ' काझा परद्रव्यष्णा२४, 'लालप्पणं पत्यणाय 'लालपन प्रार्थना चलान-गर्हितजल्पन, प्रार्थना च चौर्यक्रते तदपलापफरचनविन्यास , प्रार्थनारूपाणि पचनानि जल्पन्ति चौराः २५, 'आससणा य वसण ' आगसनाच व्यमन-आशसनानपिना:-पिनाशहेतुत्वाद, व्यसन-सापत्तिकारणम् २६, 'उन्मुन्छा य ' इच्छामूली च-तनेच्छा पर धनाभिलापः, मूर्छा च-तत्रै गाहाभिप्पजस्पा २७, 'तण्हागेही य' तृष्णा गृद्धिश्च,तनहष्णा अप्राप्तव्यस्य प्राप्तिपरान्छा, गदिश्वमाप्तम्याऽविनाशेच्छा अद नादानस्य हेतुकत्वात् तृप्णाद्वित्युन्यते २८ 'निरडि कम्म' निकृतिकर्मनिकृति कपट तत्कर्म कपटकार्यमित्यर्थः२९, 'अरोच्छ तिरिय ' अपरोक्ष मिति चन्न विधन्ते परेपाम् अक्षीणि द्रष्टव्यतया यत्र चौरकर्मणि तदपरोक्षम्न अप्रत्यक्षसम्पाद्यमित्यर्थः३० । तस्य ' पालिकलुसकम्मरहलस्स' पापफलिक्लुप (घणाण लुपणा) धनकी लोपना१६, (अप्पचओ) अप्रत्यय(अविश्वास)१७, (ओवीलो) अवपीड-दुखरूप १८, (ओक्खेवो) अवक्षेप१९, (उरखेवा) उत्क्षेप २०, (विक्खेवो) विक्षेप २१' (कृडया) कटता २२, (कुलमसा य) कुलमपी २३, (कखा) काक्षा २४, (लालपण पत्थणा य) लाल पन प्रार्थना २५, (आससणा य वसण ) आशासना व्यसन २६, (इच्छा मुच्छा य) इच्छामूछ २७, (तण्डागेही य) तृष्णागृद्धी२८, (नियडिकम्म) निकृतिकर्म (कपटकरण)२९, (अवरोच्छत्तिविय ) तथा अपरोक्ष ३० । (तस्स ) इस तरह उस कि जिस मे (पावकलिकलुसकम्मबहुलस्सी यणा" माहान, (१६) "धणाण लु पणा" धननी ोपना, (१७)"अप्पच्चओ" अप्रत्यय, (१८) "ओवीलो" मपी3, (१) " ओक्खेवो” अपक्षे५ (२०) " उक्खेयो" GA५, (२१) "विक्खेयो" विक्षेप, (२२) "कूडया" पूटता (२3) "कुलमसी य" समषी, (२४) ' कसा " NAI (२५) " लालपण पत्थणा य" सासन प्रार्थना (२६) "आससणा य वसण" भाशमना व्यसन, (२७) "इच्छामुच्छाय" लाभू , (२८) " तण्हागेही य” तृ द्धि , (२८) "नियडिकम्म" नितिभ, मन (३०) " अरोच्छत्ति वि य" अपरोक्ष "तस्स " मी प्रमाणे भा“ पावकलिकलुसकम्मवहलस्स" प्राशातिपातs પાપ, યુદ્ધ મિત્રદ્રોહ દિપ મલિન તમે વધારે પ્રમાણમાં રહે છે. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० : सू० २ अदत्तादाननामनिरूपणम् ૨૦૭ कर्म हुलस्य =तन पाप = प्राणातिपातादिक कलि = युद्ध कलुपाणि= मलिनानि कर्मा णि= मित्रद्रोहादिव्यापारवाणि बहुलानि बहूनि यत्र तत्तथा तस्य ' आदिष्णादाणस्स' अदत्तादानस्य 'एयाणि 'एतानि पूर्वोक्तमकाराणि 'एवमाईणि' एवमादीनि = चौरिक्यादीनि 'तीस ' निशत् 'नामधेज्जाणि हुति' नामधेयानि भवन्ति ॥ ०२ प्राणातिपातादिक पाप, युद्ध, मित्रद्रोह आदिरूप मलिनकर्म अधिकता से रहते हैं (अदिष्णादाणस्स ) अदत्तादान के ( ण्याणि एवमाईणि ) ये चोरी आदि (तीस) तीस ( नामवेजाणि) नाम (हुति ) है | भावार्थ - चोरी चोरों का कर्म है इसलिये अदत्तादान का नाम चौरिक्य है १ । चोरी करने वाला बिना पूछे ही दसरों के द्रव्य का हरण करते है इसलिये इसका नाम परहृन है २ । चोरों को कोई बुलोकर अपना द्रव्य नहीं देता है इसलिये इसका नाम अदत्त है ३ । निर्दय वनकर ही यह कर्म किया जाता है मदय होकर नहीं, इसलिये इसका नाम कूरिकृत है ४ । इसमें दूसरे के द्रव्य का लाभ होता है अतः यह पर लाभ कहा जाता है ५ | इस कृत्य मे न इन्द्रिय सयम रहता है और न प्राणि सयम हो, अत यह असयम नाम से कहा गया है ६ । इसमें परधन मे गृद्धि होती है अतः इसका नाम परधनगृद्धि है ७ । इसमें परिणामों में लोलुपता अधिक रहती है इस लिये इसका नाम लौल्य है ८ | तस्करो का यह भाव है इसलिये इसका नाम तस्करता है ९ । इसमें दोणरस " सत्ताहानना एयाणि एनमाईणि " ते थोरी आहि " तीस " श्रीस नामघेज्जाणि " નામ हुति "छे, 66 (C 66 66 ભાવા—(૧) ચારી કરવી તે ચાર લોકેાનુ કાર્ય છે તેથી અદત્તાદાનનુ "चौरिक्य" नाम छे (૨) ચારી કગ્નારા પૂછ્યા વિના જ ખીજાના દ્રષ્યનુ २ रे छे, तेथी तेनु नाम " परहृत" ) (3) योशेने ખાલાવીને કાઈ घोतानु द्रव्य हेतु नथी, तेथी तेनु नाम “अदत्त" छे (४) निर्दय मनीने ४ ચારી કરાય છે, સય યઈને નહીં, માટે જ તેનુ कूरिकृत" (५) तेभा मीलना द्रव्यनो साल ( प्राप्ति) थाय हे, तेथी तेने “लाभ” उडेवामा आवे छे (૬) આ નૃત્ય કરતી વખતે ઇન્દ્રિયાને સયમ રહેતા નથી અને વાણી સયમ પણ રહેતા નયી તેથી તેનુ નામ परधनमा गृद्धि-सासमा थाय छे, तेथी तेनु તેનાથી પરિણામે મા-વૃત્તિમા લાલુપતા વધારે નામ C " असयम छे (७) ते नारने नाम " परधनगृद्धि " छे (८) પ્રમાણમા રહે છે, તેથી તેનુ नाभ" लौल्य " हे (स्) तन्जेशनी ते वृत्ति लावना होय छे, तेथी तेनु नाभ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नग्याकरणम् परफे धनका अपहरण होता है इसलिये मम नाम अपहरण है१० । पर द्रव्य चुरानेमे हाथकी कुगलना काम देती है, अथवा परद्रपके चुगमेसे हायमें लघुता-नीचता आती है इमलिये इसका नामरनल उत्य है ११॥ यह कृत्य पापानुष्ठान स्वरूप है, इसलिये हमका नाम पापकर्मकरण है १२ । यह चोरों का कम है इमलिये हमका नाम स्तन्य है। १३ । पर द्रव्यके हरण से हरने वाले का नाश ही हो जाता है । इसलिये इमका नाम हरण विप्रणाश है १४। दमरों की अनुमति बिना ही धनादिकका इसमे ग्रहण होता है इसलिये इसका नाम आदान है १५ । दूसरों के द्रव्य का हरण करना ही द्रव्य का पिनाग करना है, इसलिए इसका नाम परद्रव्यविच्छेद है १६ । कोई भी पुरुष चोरों का विश्वास नहीं करता है, अत. अविश्वास का उत्पादक होने से इसका नाम अप्रत्यय है १७ । द्रव्य का हरण हो जाने से दूसरों की पीड़ा होती है इसलिये पर को पीड़ा का कारण होने से इसका नाम अपपीड है १८ । परद्रव्य का इस क्रिया से विच्छेद होता है, अर्थात-चोरे गये द्रव्य को चोर यद्वा तदा खर्च कर डालते है, यही पर के द्रव्य का विच्छेद है इसलिये इसका नाम परद्रव्यविच्छेद है १९। स्वामी के हाथ से यह चुराया हुआ द्रव्य निकल जाता है-चोरों के हाथो में आ जाता है, इसलिये इसका " तस्करता” छ (१०) तभी धननु अ५४२५ थाय , तेथी तेनु नाम अपहरण छ (११) ५२धन थापामा डायना शत आवे छ, अथवा પરધનની ચેરીથી હાથમાં લઘુતા-નીચતા પ્રવેશે છે તેથી તેનું નામ કૃતવૃત્વ छ (१२) ते कृत्य पापत्य पाथी तनु नाम पापकर्मकरण छ (१३) ५२ ધનનું અપહરણ કરવાથી હરનારને નાશ થાય છે, તેથી તેનું નામ દુક્કવિ પ્રણારૂ છે (૧૫) બીજાની અનુમતિ વિના જ તેમાં ધન આદિ ગ્રહણ કરાય છે, તેથી તેનું નામ ભાન છે (૧૬) બીજાના દ્રવ્યનું હરણ કરવું એ જ द्रव्याना विना य छ, तेथी तेनु नाम परद्रव्यविच्छेद छ (१७) छपए માણસ ચારેને વિશ્વાસ કરતા નથી એ રીતે અવિશ્વાસ જનક હોવાથી તેનું म "अप्रत्यय" छे (१८) द्रव्यनु अप९२५ थवाथी अन्यने पी31 थाय छ, तथा पीडानु २५ वाथी तेनु नाम “अवपीड" (१८) ५२धनना मा કિયાથી નાશ થાય છે, એટલે કે ચોર લેકે ગમે તે પ્રકારે તેને તેડફી નાખે छ । प्रमाणे ते द्रव्य विछे४ ४२रावना२ डापाथा तेनु नाम “परद्रव्य "विच्छेद " छ।२०) ते याशयेयु द्रव्य तेना भासिडन डायमाथी यायधने Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २ अदत्तादाननामनिरूपणम् २६९ नाम उत्क्षेप है २०| चोर इस द्रव्य को ले जाकर असुरक्षित अवस्था मे इधर उधर रस देते हैं-डाल देते है, इसलिये इनका नाम विक्षेप है २९॥ चोर चुराकर जन इस द्रव्य को विभाग करते हैं, तन तुलादिक से कमती बढ़ती तौलते है एकमा हिस्सा नही करते हैं, इसलिये इसका नाम कृटता हे २२ | यह कर्म करनेवालों के कुलो को फलक लगता है इसलिये इसका नाम लमपी है २३| अदत्तादानमे परके द्रव्यको हरण करने में तृष्णा रहती हैं इसलिये इसका नाम काक्षा है २४ । चोर गर्हित जल्पना करते हैं, अर्थात् चोरी करलेने पर भी " मैंने चोरी की है" इस बात को स्वीकार नही करते प्रत्युत उसे छुपाने की ही चेष्टा करते हैं, तथा जिस समय वे चोरी करने के लिये चलते है तो किसी अपने दृष्ट की प्रार्थना करके ही चलते है, इसलिये इसका नाम लालपन और प्रार्थना हे २५ | यह कृत्य विनाश का हेतु होने से विनाशरूप एव समस्त आपत्तियों का कारण होने से व्यमनरूप है इसलिये इसका नाम आगसना एव व्यसन है २६ । परधन के हरण करने की अभिलापा इसमे बनी रहती है इसलिये इसका नाम इच्छा, तथा पर के वन को हरण करने के लिये इसमे अत्यत मूर्च्छा भाव होता है इसलिये इसका नाम मूर्च्छा है २७ | अप्राप्त द्रव्य की प्राप्ति की वाञ्छा तथा प्राप्त द्रव्य की अविनाशेच्छा, ये दोनों अदत्तादान का हेतु ह इसलिये इसका नाम थोरौना हाथमा लय हे, तेथी तेनु नाम उत्क्षेप घे (२१) थोर ते द्रव्यने ચારી જઈને અસુરક્ષિત હાલતમા ગમે ત્યા મૂકી દે છે તેથી તેનુ નામ વિક્ષેપ જે (૨૨) ચાર ચેરી કર્યા પછી ત્યારે તેના ભાગ પાડે છે ત્યારે ત્રાજવા આદિથી વવારે કે આદ્ઘ તાલે એક સખ્ખા ભાગ પાડતા નથી, તેથી તેનુ नाम कृटतो (२३) मा नृत्य उग्नारना ने उस लागे छे, तेथी तेनु नाम फुलमपी ) (२४) महत्ताहान अणु श्खामा भीमनु द्रव्य हरी सेवानी तृष्णा रहे छे, तेथी तेनु नाभ काक्षा घे (२५) और गति ना रे छे એટલે કે ચારી કર્યા પછી પણ પાતે ચારી કરી છે, તે વાતને સ્વીકાર કરતે નથી, પણ તેને છૂપાવવાના પ્રયત્ન કરે છે, તથા જ્યારે તેએ ચેરી કરવા ઉપડે છે ત્યારે પેાતાના ઈ ઈષ્ટ દેવની પ્રાથના કરીને જ જાય છે તેથી તેનુ नाम लालपन ने प्राथना के (२६) ते नृत्य विनारानु अरण होवाथी विना રાનુરૂપ અને સઘળા આપત્તિયેનુ કારણ હાવાથી વ્યસનરૂપ છે, તેથી તેનુ નામ आशसना ने व्यसन छे (२७) ते नृत्य डरनाग्ने परधननु डुगु डरवानी અભિલાષા રહે છે, તેથી તેનુ નામ ર્ી તથા પારકાનું ધન ગ્રહણ કરવાની Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्रभव्याकरण 'अहिमरा' अभिमरा:-धनादिगमेन मरणाभिमग्या , मरणमयरहिता उत्यर्थ , अथवा चौर्याभिमुग्याः सन्त. परान माररन्ति येते तथा दहान्तभांवितण्यये , 'अणभजगा' प्रणभप्रकाण ममन्ति-न ददति येते तथा 'भगमपिया' भग्गसन्धिका भग्नः सन्चि: मिनादिस्नेगे यस्ते तथा उष्टजनप्रेमवर्जिता 'राय दुहगारो' राजदुष्टकारिणः राजनीतिरिद्वावरणाः 'विसयनि छढलोगवझा' पियनिक्षिप्तलोकमामा-विषयाव-जनपदात् निसिता निकामिना' अत एवं लोकनायाः जनाहिता । उपगगामघायगपुरवायगपय वायगआदीवगतिस्य भेयगा' उद्रोहक ग्रामगनक-पुरातक-पथिधातर-ऽऽदीपातीय भेदका तत्र उद्रोहकाच हिंसका ग्रामघातका.ग्रामनागरा, ग्वातरा नगरविधसकाः पथि ये परगन्य में विशेष लोलुप होते हैं। (अहिमरा) पनादिक के लोभ में पड़कर ये मरण के भी अभिमुप रते है-उन्हें मरण का भय नहीं होता है। अथवा चौर्य कर्म में प्रवृत्ति करने पर दमरों को भी उम समय वाधा डालने पर मार डालते हैं। (अणभजगा) इनके ऊपर किसी का कर्जा हो तो भी ये उसे नहीं देते हैं। (भग्गसरिया) ये अपने इष्ठ मित्रादिकों से भी प्रेम नहीं करते हैं। उन पर स्नेह करने से अथवा उनके स्नेह से ये वर्जित रहते है। (रायट्ठगारी) राजनीति के विरुद्ध इनका सदा आचरण रहता है। (विसयनिच्छढलोगवज्मा) जनपद सेय निकाल दिये जाते है, इसलिये ये लोकवाय होते है । (उद्दहगगामायग पुरवा गपथचायगादीवगतित्यभेयया) (उत्ग) ये घट भारी द्रोही होते हैं जिनपर इनकी वक्रदृष्टि पड़ जाती है उसकी फिर कुशल नहीं (गामघायग) गावों के गाव नष्ट कर डालते है। (पुर घायग) नगरी तेगा ५२द्रव्यमा अतिशय सोधुप हाय छ “अहिमरा" धनानि सोलमा पीन તેઓ મરણની પણ સન્મુખ રહે છે-તેમને માતની બીક લાગતી નથી અથવા योरी ७२वा ता तेभा २माजीसी ३५ थनारने भारी नाचे छ " अणभजगा" तेभनी पासे 5 नुले य तातेस ते युवती नथ “भग्गसधिया" तसा પિતાના ઈષ્ટ મિત્રાદિ તરફ પણ પ્રેમ રાખતા નથી, તેમના પર સનેહ રાખવાથી अथवा तभने। स्नेह प्रात ४२पाथी ते २डित डायछ "रायदुगारी" नातिया विमानतेन साय२५ उमेश २छ “ विसयनिन्छढलोगवामा" शक्त्यमाथी तमन डाकी दवाभा मावे छे तेथी ते साय छ “उद्दहगगामघायग पुरघायगपथपायगआदीवगतित्यभेयया " " उद्दहग" तेमा मारे द्रोही डाय छ, भना ५२ तेमनी टि पडे छ तेमनी सलामती रहेती नथी " गामघा यगा"तेसा गामाना गाभा नष्ट ४२! ना छ “पुरचायग" नगरोना नाश Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका भ० ३ सू० ३ पञ्चमान्नारगततस्करस्वरूपनिरूपणम् २७३ घातका पथि-मार्गे जनाना घातका द्रव्यलुण्ठनार्य प्रहारकाः आदीपकाच गृहाटिदाहकाः तीर्यभेदका-यारिजनपनापहारकाच 'लहुरत्यसपउत्ता' लघुहस्तमम्प्रयुक्ता लघु'परद्रव्यहरणे निपुणो दस्त'-हस्तव्यापारपरायणाः, 'ज्यगरा' तकरा', 'खडसम्यस्थीचोरपुरिमचारसपिच्छेयया य ' खण्डरक्षत्रीचौर पुरुषचौरसन्धिच्छेदका' = तत्र ग्वण्डरक्षा शुल्कपालाः उत्कोचग्राहित्माचौराः, स्त्रीचौरा स्त्रियचोरका. स्त्रीसमामाचौरका' स्त्रियमेव चोरयतीति स्त्रीचोरकाः, तथा स्त्री वेशेन चोरका पा । तथा पुरुष चौराध मन्धिच्छेदका मन्धि-भित्यादी विवर 'संघ' 'सार' इति मापा प्रसिद्ध छिन्दन्ति सनन्ति ये ते सन्धिच्छेदका 'गठिभेयगा' ग्रन्थिभेदापसिद्वाः 'परपणहरणलोमारहारअक्खेगी' परको विध्वम कर देते है । ( पथपायग) द्रव्य हरण करने के अभिप्राय से मार्ग में चलने वाले मनुष्यों को ये टेम्बते • मार डालते है ।(आदी वग) गृहादिको में आग लगा देने है। (तित्यभेयगा ) यात्रिजनों के भी द्रव्य लूट लिया करते हैं । (लहत्यसपउत्ता ) हाथकी सफाई इनकी इतनी जबर्दस्त होती है कि ये देखते २ टी दूसरों के धन को चुरा लेते है। (खटर सत्थीचोरपुरिसचोरसधिच्द्रयया य ) इसी तरह जोखड रक्ष-शुल्कपाल होते है ये जो घूमखोरी करने वाले होते है वे चोर माने जाते हैं वे पता लिये गये हे स्त्रीचोर-स्त्रिो के पास से द्रव्यादि चुराने वाले, अथवा स्त्रियों को उठाकर ले जाने वाले, अथवा स्त्री के वेश में रहकर चोरी करने वाले होते है, उसी प्रकार पुरुपचोर भी होते हैंपुस्पों के पास से न्यादिक चुराने वाले होते हैं, अथवा पुरुपों को धोखा देकर इधर उधर ले जाने वाले रोते हैं अथवा पुरुप के वेश में ना " पथवायगा" द्रव्य शोवाने भाटे तेथे। अपामामाने नेत नेतामा भाग नाणे “आटीग" ५२ पोरेमा मास "तित्यभेयगा" यात्राणुना द्रव्यने ५४ सूटी से छे, "लढुहत्यसपउत्ता" योरी २ વામાં તેમને હાથ એટલે કુરાળ હોય છે કે તેઓ જોત જોતામાં અન્યનું धन योग से छे " सडरक्सत्थीचोरपुरिमचोरमधिच्छेयचा य ” मेर પ્રમાણે જે ખડરલ-ગુલકપલ હોય છે-જે ઘૂસી કરનારા (લાચ લેનાર) હોય છે તેમને ચોર ગણવામાં આવે છે સ્ત્રીર–સ્ત્રીઓની પાસેથી દ્રવ્ય ચોરનારા, અથવા સ્ટાઓને પાડી જનાર અથવા સ્ત્રીના વેરામાં જઈને ચોરી કરનારા હોય છે, એ જ પ્રમાણે પુરુષો પણ હોય છે- પુરુષોની પાસેથી દ્રવ્યાદિકને ચોરનારા, અથવા પુરુષોને દગો દઈને ગમે ત્યા લઈ જનાગ, અથવા પુરૂષના Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - - - २७४ সুস্বােস্কলে धनहरणटोमावदाराऽऽक्षेपिणः तत्र पग्धन हरनिये ते परधनारणाः, लोमान्यवहरन्ति ये ते लोमारहगापूरलुग्टनकारिण जाक्षेपिगशीकरणाग्निा चोर्यकारिण ' डसारगनिम्मदगगडयोग्गोचरअम्गनीरदासीचौरा 7 'हटका रकनिमर्दकगूढचोरगोगराधारदामीचौगश तन हट-लात्कार कुन्तीति इठकारकाः,निर्मदकाय=निरनिगयेन मर्दनकारिणः युद्धेन धनापहारिण ,गृहचौरा:गुप्तचौरा, गौ चौरा अधचोरा दासीचौराममग्यातात पर ' एगनोरा' एक चौराएकाकिन एर चोरयन्ति ये ते 'ओरगमपदायगा आपिगसत्यवायग, विलकोलीकारगा य ' अपकर्षक मम्मायाछिपक माश्चातकविलोलीकाररएकर चोरी करते हैं, सपिच्छेदक-भित्यादिक में मेंध करके चोरी करते है, (गठिभेयगा) ग्रन्धिभेदक - गांठ करते है ( परधण हरणलोमावहारअरसेवी ) परधनतरणटोमापहाराक्षेपी होते हैं परके धन को हरण करने वाले, बध करके वनको हरण करने वाले वशी करण मत्र से वश करके धन को हरण करने वाले होते हैं (हडकारगनिम्मदगगूढचोरगोचोरअस्सचोरदासीचोरा ) (हडकारग)यलात्कार से धन को हरण करने वाले, (निम्मदग) निर्मदक-युद्ध करके धन को हरण करने वाले, (गूढचोर ) गुप्तरूप में ररकर पर के धन को हरण करने वाले, (गोचोर ) गाय को हरण करने वाले, ( अस्सचोर ) अश्व को हरण करने वाले, (दामीचोर ) दासी को हरण करने वाले, (एगचोरा य ) अकेले रहकर पर के धन को ररण करने गले, (ओक अगसपदायगा ओछिपगसत्यघायगविलकोलीकारगा य ) (ओकड्डग) વેરામાં જઈને ચોરી કરનારા હોય છે, અધિદેવ-દિવાત આદિમાં કાણું પાડીને यो। ७२ना। डाय छ, “गठिभेयगा" यन्थिले-मिस्मा तिरे छे, " पर धणहरणलोभावहारअम्सेवी ” ५२धना २५ सोलापाराक्षेपी साय -५२५ નનું હરણ કરનારા, હત્યાકરીને ધનનું હરણ કરનારા વીકરણ મા થી વ शन धननु अ५९२ ४२॥२॥ छोय छे, " हडकारग निम्मङ्ग गृढचोरगाचार अस्सचोरदासीचोरा य " " हडकारग" माथी बनने देना, ' निम्म हग" निभ -युद्ध रीने धनने 3 सेना। “गढचोर " गुसरीत २डीन ५२नु धन ही बना२, “गोचर" गायनु अ५२६१ ४२ना२१, "अस्सवोर" घोडानी योरी ४२नार, “ दोसीचोर" भीनी योरी ४२ना२, " एगचोराय" सस ने पा२४ान धननु २५ ४२ना२३ " ओकडगमपदायगा पोछिंपग सस्थघायगविलकोलीकारगा य " " ओकडग " मा५३-मीना घरमाथा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी ठीका अ० ३ सू० ३ पञ्चमान्तरगततस्करस्वरूपनिरूपणम् २७५ काश्च तर अपकर्षका: अपर्पयन्ति परगृहेषु चोरयितु चोरानाद्वयन्ति ये तेऽपकपंका, यद्वा-चोरित वनमपनीयाऽन्यस्थाने नमन्ति ये ते तया, क्या शरीरादितो भूपणादि निफामका का, सम्प्रदायकाचोरान् स्वगृहे संस्थाप्य भोजनादि दायका , अन्उिपका-चोरग्शेिपा सार्यातका प्रसिद्वाः पिलकोलीफारसाश्चपरव्यामोहर्थ विचामर पनादिन, देशीगन्दोऽयम् । 'निग्गहनिप्पलुयगा' निग्रहचिपलुम्पका-तुर निप्रदेण-वशीकरपोन शस्त्रादिभयमदर्शनपूर्वक पर निरु येत्यर्थ - चिपलुम्पका:-लुण्टनकारिण., 'पवितेगिकहरणबुद्धी' बहुविधस्तैन्यहरणबुद्धयः= बहुवियेन स्न्ये न-चार्येण हरणे परद्रव्यापहरणे बुद्विर्यपा ते तथा परद्रव्यहरणबुद्धिशालिन. एते पूर्वोक्ताः 'अण्णे य ' अन्ये च ' एमादी जे' एवमादयो येएसम्मकाराः ये ' परम्स दयाहि अपिरया ' परस्य द्रव्येषु अविरताः, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे परस्य धनपान्यादि ग्रहणे अनिटत्ता परद्रव्यग्रहणासक्ता इत्यर्थः सन्ति ते चौर्य कुन्तीति पूर्वण सम्बन्ध ॥०॥ अपकर्पक-पर के घर से द्रव्यादिकों को चुराने के लिये साथ में दूसरे चोरों को बुलाकर चोरी करने वाले, अथवा चुराये हुए धन को दूसरे स्थान मे ले जाने वाले, अथवा गरीर आदि से भूपण निकालने वाले, (सपदायग) सप्रदायक-चोरों को अपने घर में रखकर उन्हें भोजन आदि देने वाले, भाठिपक-ये भी चोर होते हैं सार्थघातक जनसमूहका पात करने वाले, विलकोलीकारक-पर को व्यामोह करने के लिये विश्वास वचन बोलने वाले (निग्गर विप्पलुपगा) शस्त्रादिक का भय दिखला करके दूसरों को रोक कर लूट करने वाले (रहरिश्तेणिकरणबुद्धी) तथा अनेकविधचौर्यकर्म करने में निपुण बुद्धिवाले होते है ऐसे ( एते अण्णे य एवमादी परस्स दव्याहिं जे अविरया) ये सब व्यक्ति तथा इनसे દ્રવ્યાદિની ચોરી કરવાને માટે બીજ ચોરોનો સાથ લઈને ચોરી કરનારા, અથવા ચરેલા ધનને બીજી જગ્યાએ લઈ જનારા અથવા શારીર આદિ પરથી આ भूपा। सोनास, 'सपदायग" स प्रहाय-याशने पोताना ५२मा मारा। આપીને ભોજન આદિ દેનાર, અવપિડ–તે પણ ચાર જ હોય છે, સાર્થઘાતક-જનસમૂહની હત્યા કરનાગ, બિલકોલોકારક-બીજાને ફસાવવાને માટે વિશ્વાસ Gपन २ तेवा पयन मारना । निग्गहविप्पलु पगा” नाहन मय तापी भीतने 2425पीने सूट लेनास, ' बहुत्रिहतेणिकहरणशुद्धी" तथा भने हानी या ४२५।। 5. भुद्धिव य 24 " एते अण्णेय एवमादी परस्स दबाहिं जे अपिरया" से था सो तथा ते भिवायना मीत Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ - - प्रशयाकरणस्ने एच येऽपि च कन्त्यि तादान' मिति पत्रमान्तर निरुप्य यथा च कृतम् ' इत्यदत्तादानस्प तृतीयानारिमाह-'पिउपले'त्यादि मूलम्-विउलवलपरिग्गहा य वो रायाणो परधणम्मि गिद्धा सए दवे असतुहा परविसप अहिहणति लुबा परधण स्स कए, चउरग समत्तवलसमग्गा निच्छिय बरजोहजुद्धसद्धा य अहमहमितिदपिएहि सेन्नेहि संपरिखुडा पउमसगडसूइचक्कसागरगरुलबहादिएहि अणीएहिं उच्छरता अहिभूय हरति परधणाइ ॥ सू० ४ ॥ टीका-'विउलालपरिग्गा य' विपुअलपरिग्रहावना विपुलम्-विशाल बल-सामर्थ्य सैन्य मा परिग्रहा परिमारी येत ते तथा, बहन =अने के 'रायाणी' राजानः 'परधणम्मि गिद्धा' परधने गृद्धा' परदव्यासक्ता' 'सए दो' स्वके द्रव्ये -निजधने असतुहा' असन्तुष्टाः 'लुद्रा' लोभवन्त सन्तः 'परविसए' परविषयान् भिन्न इसी तरह से और भी व्यक्ति जो दूसरों के द्रव्यहरण करने रूप कार्य में चिरति भाव से रहित होते ह, इन सरको चोरो की श्रेणि मे ही परिगणित जानना चाहिये ॥स०३ ॥ ___इस तरह " जो अदत्तादान को करते है " इस रूप यह पचमअन्त र कहकर अव सत्रकार " यथा च कृतम् " इस तृतीय अन्तार का कहते है-'विउल जलपरिग्गहा ' इत्यादि । ___टीकार्थ-(विउलबलपरिग्गहा) विपुल सैन्य एवं परिवारवाले (बहवो रायाणो) अनेक राजा लोग (परधणम्मि गिद्धा) परधन म आसक्त तथा (सए दवे अमतुट्ठा) अपने पास के द्रव्य मे असतुष्ट और લે કે જે બીજાના દ્રવ્યનું અપહરણ કરવાના કાર્યમાં વિરતિભાવથી રહિત હોય છે–તે કાર્યમાં લીન હોય છે–તે બધાને ચોરની શ્રેણીમાજ મૂકવા જોઈએ. સૂછ3 આ રીતે “જે અદત્તાદાનનું સેવન કરે છે તે પ્રકારના આ પાચમાં सन्तरिनु उथन गने हुवे सूत्रधार " यथा च कृतम्" तेत्री मानु उथन ४२ छ-" विउलबलपरिग्गहा ” धत्यादि ___ -"विउलवलपरिगहा" विधुद मन्य गने परिवार प॥ “बह्वो रायाणो "मने शलमो “परधणम्मि गिद्धा" ५२धनमा सासरत तथा "सए दव्वे असतुहा " पातानी पायेना द्रव्यथा मसतुष्ट भने ' लुद्धा" सोमयुत Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका ० ३ सू० ४ परधनलुन्धनृपस्वरूपनिरूपणम् ०७७ =अन्यजनपदान देशानित्यर्थः परवणस्स कए' परधनस्य कृते परद्रव्यग्रहणार्थम् 'अठिहणति' अगिघ्नन्तिक्रान्ति आक्रमण कुर्वन्ति इत्यर्थ । तथा 'चाउरगमसत्तवल समग्गा' चतुरगसमसारलसमग्राः चतुभिरङ्ग = गजरथा-वपदातिस्पैः सेनाऽवयोः ममस्त सम्पूर्ण रल-सैन्य तेन समग्रा =युक्ताः चतुरगसेनायुक्ताः 'निच्छियवरजोहजुद्धमद्धा य निचितवरयोगयुद्धश्रद्धाध-तत्र निश्चितैः निर्धारित स्थायिरूपेण नियुक्तनिश्चयादि रै.प्रशस्तै यो =भटैर्यद् युद्ध तत्र श्रद्धा-प्रेमादरो येपा ते तथा ' जहमह मिति दप्पिएहि 'जहमहमितिदर्पितै'' नहमेवकवीरः' इ-येव टर्पित. = गरित 'सेन्नेति' सैन्येः 'सपरिवुडा' सम्परिश्ता' सनद्धाः साज्जीभूता 'पउमसगडप्रटचासागरगम्ल हादिएहि ' पद्मशकटमचीचक्रसोगरगरुडव्यहादिकै = पनाकारन्यूहराकटव्यूहबूचीब्यूटचक्रव्यूहसागरव्युहगरडव्यूहादिका सैन्यर वनाविकान्ते विद्यन्ते येषु तैस्तथाभृते., 'जगीएहिं ' अनी कैः(लुद्धा ) लय तोकर ( पर चणस्म कर) दूसरों का धन लेने के लिये (परविस ) दूसरे राजाओं के देशो के ऊपर ( अहिरणति ) आक्रमण करते हैं, ता (चाउरगसमत्तलसमग्गा) गज, रथ, अश्व एव पदाति रूप चार अगों वाली सेना से युक्त एब (निच्छियवरजोरजुद्वसद्धा य) स्थायी रूप से नियुक्त किये हुए अथवा अटल निश्चय से युक्त हुए ऐसे प्रगस्त योद्धाओंके साथ युद्ध करने मे आदरभाव वाले और (अहमहमिति दप्पिहिं ) “म ही एक वीर " -स प्रकार के गर्व वाले ( सेन्नेहिं ) मैन्य से (सपरिचुडा ) परिवृत-युक्त होकर (पउमसगड माचकसागरगमलतादिहि ) पद्माकार व्यूहवाले, कटव्यूहवाले, सूचीव्यहवाले, चक्रव्यूहवाले, नागरन्यूवाले, एवं गरुडव्यूह आदि वाले (अणीहि ) सैन्य से प्रतिपक्षी के सैन्य को (उच्चरता) --- - - - थन “ परधणास कए " मी-तनु धन प्राप्त उपाने भाटे “परविसए" ilea शतना प्रदेश ६५२ " अहिहणति" भY 3, तथा 'चाउरग समत्त -वल्समग्गा" था, २५, म अने पायो यतु जी सेना मड़ित मन " निच्छियवरजोहजुद्धमद्धा य' भ्याथी ते उरेस मवा १८ निश्चयवाणा અને યુદ્ધ કવ્વામા આદરભાવ રાખનારા પ્રાન્ત દ્ધાઓની સાથે અને " अहमहमिति दप्पिएहिं” “हु मे पी२ 3 " को san "सेन्नेहि" मेन्यथा “सपरिखुडा" परिवृत-युत थने “पउमसगडसूइचफसागरगरुल्लूहादिपहि" 45 व्यूडवाणी, १४८च्यूउवा, सूथी-यूपाणा, यव्यू पाणा, २२ व्यूडवाण भने १२७ आदि व्यूवात, “अणीएहिं " मेन्यथी Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ratorकरणसूत्रे सैन्यै, 'उच्चरता ' जास्त पन्त =मतिपक्ष सेनामा अत्यन्तः, 'रिभूय' अभि भूय= आक्रमणेन शत्रुश्य पराजित्य हटात् 'परधणार' पर वनानि हरन्ति | | ०४॥ तथा राजादयो यथा परपनादीन्यपहरन्ति नदाह - 'अपरे ' इत्यादिमूलम् - अबरे रणसीसललक्सा सगाम अडवयति, सण्णद्धबद्ध परियर उप्पाडियचिधपट्टगहियाउहपहरणा माढीवरवम्मगुडिया, आविद्धजालिया कवयकडगिया, उर सिरमुहबद्ध कठतोणा, पासियवरफलगरज्यपहकर सरभस खरचावकरकरचियसुनि सिय सरवरिसवडकर गम्यतघणचडवेगधारानिवाचमग्गे, अणेगवणुमडलग्गलधियउच्छलिय सत्ति - कणग - वामकर -- गाहिय - - खेडग --निम्मलनिकिट्ट - खग्ग-पहरंत कुत - तोमर चक्क - गया - परसु - मुसल - लगल - सूल-लउड - भिंडिपाल - सव्वल - पट्टिस- चम्मेट्टघण - मोहिय - मोग्गरवर - फलिह-जंत पत्थर - दुहण - तोण कुवेणी - पीढाकलिए || सू० ५ ॥ टीका- 'अवरे' जपरे= केचित् नृपा' 'रणसीसलगल+खा' रणशीर्षलव्यलक्ष्या = रणशोर्ते - सनामशिरसि लक्ष्या. = वैरीवेधने- सिद्धहस्ता सन्तः स्वयमेव 'सगाम' आच्छादित करते हुए ( अहिभूय ) अपने आक्रमणों से उसे पराजित करके (परधणाड ) परवन को ( हरति ) हरण करते है || सू०४ ॥ जो अन्य राजादिक पर के धन आदि हरण करते है उनको कहते हैं--' अवरे ' इत्यादि टीकार्थ - ( अबरे ) कितनेक राजा ( रणसीसलद्वलखा) जो रण शीर्षलन लक्ष्यवाले होते है-बैरी को मारने में सिद्ध रस्ते होते हैं प्रतिपक्षीना सैन्यने “ उत्उरता" घेरी सहने " अहिभूय " घोताना हुभसाथी તેને હરાવીને परधणाइ પરધનનુ हरति " २ रे छे ॥ ४ ॥ જે બીજા રાજતિકા પરધન આદિનુ હરણ કરે છે તેમનુ વર્ણન કરતા सूत्रअर डे छे - " अवरे " धत्याहि (c " ८८ elsa-"7" ull Seals Rimau “zoratacsszaı” » zgul ષ લબ્ધરણ્યવાળા હાય છે દુશ્મનની હત્યા કરવામા નિપુણ હોય છે “ सगाम Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टोका अ. ३ सू० । परधनलुन्धनृपस्वरूपनिरूपणम् २७२ सग्रामे 'अश्वयति' अतिपतन्ति-युद्ध कतुं प्रवर्तन्ते । कथ भूताः' इत्याह'सष्णपद्धपडियर-उप्पाडियचिंधपट्टगहियाउहपहरणा' सन्नद्धबद्धपरिसरोत्साटितचिन्हपटगृहीतायुधमहरणाः-तत्र मन्नद्धा युद्धसामग्रीभिः सज्जीभूतास्तथा, बद्ध परिकर कवचो यैस्ते पद्धपरिकराः पद्धकवचाः तथोत्पाटितः दृह बद्धो मस्तके चिन्ह पटः रक्तपट्टादि चिन्हविगेपो यैस्ते तथा गृहीतानि-परिधृतानि रिपुहनना यमायुधानि-वाणादीनि महरणानि-सङ्गानि यस्ते च तथा पदनयस्य फर्मधारयः। 'माढीपरवम्मगुडिया'माढीवरवर्मगुण्डिता:-तत्र-माढी-शरीरत्राणविशेषाः देशीशब्दोऽय वरनर्माणिगरानचानि तैर्गुण्डिताम्ान्छादितशरीरा , आविद्धनालिका निनदलोहफचुकाः करयकडगिया' कनचकण्टफिता:-सफण्टक कायेन कण्टफिता', 'उरसिरमुहबद्धकठनोणा' उर' शिरोमुसबद्धरण्ठतोणा:-तन ( सगाम अइवनि ) चे स्वयमेव सग्राम मे उतर आते है-युद्ध करने में । प्रवृत्ति वाले हो जाते हैं ऐसे ये राजा लोग ( मण्णवद्धपडियर उप्पा डिचिंधपट्टगहियाउत्पहरणा) (मण्णद्ध) पहिले तो युद्धसामग्री से मज्जीभूत होते है, (बरपडियर ) कवच से वाचकर अपने शरीर को सुरक्षित रखते हैं, (उप्पाडियचिंधपट ) मस्तक पर रक्तपदादिरूप चिह्नविशेष को दृढतररूप में चाँधते है, (गहियाउपहरणा) रिपु को नष्ट करने के लिये याण आदि आयुधो को और खड्ग आदि प्रहरणों को अपने पाममें रखते है (माढीवरवम्मगुडिया) माढी-शरीर त्राणविशेप ण्व उत्तम कवच से इनका शरीर आन्छादित रहता है, (आविद्धजालिका ) इनके भारीर पर लोहनिर्मित कवच बचा रहता (कवयकडगिया) काँण्टे वाले कवच से ये युक्त होते है, (उरसिरनुबद्ध अइवयति " तेमालते २९सयाममा तरी पछ-युद्ध श्वान तैयार ४ तय , मेवा ते सनसो “सण्णद्धबद्धपडियरउत्पडिय-चिंचपट्टगहिया रहपहरणा” “सण्णद्धा ' पडसा तो द्धनी सामग्री स.४ उरावे छ, " यद्धपडियर" तर पहशन पोताना शारने सुरक्षितनाव “ उप्पाडिय चिंधपट्ट" मस्त ५० सास यहि माहि पास यिनने भरत शते माघे " गहियाउहपहरणा" दुश्मनन ना ४२पाने माटे मायुधो भने तसपा२ मा शत्रो पोतानी पासे रामे छे “माढीवरवम्मगुडिया" भाटीગરીરના રક્ષણ માટેનું એક સાધન, અને ઉત્તમ બખતરથી પિતાના શરીરને माछाति रे , “ आविद्धनालिका" तभना शरी२ ५२ सालानु गमतर ॥धेयु य , “ कवयकडगिया " तेमा डाटा क्यथा युताय छ, Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० মহাকালের उरसा पक्षास्थलेन सह शिरोमुग्वाः-उर्धमुग्या पदाः यण्टे ग्रीवाया तोणाःणीराः 'तरकस ' इति 'तीरभाता' इति या गापामतीता येते तथा पताहगा नृपाः गच्छन्ति सग्रामे इत्याद -'पासियारफलगरहयपर कम्मरभराग्वरवापर करचियमुनिसियसरपरिसरहारकमुयाचगवगवारानियायमग्गे । पाशित वरफलफरचितमकरसरमसग्यरचापफरकगचितानिगितगरसर्परदकरकमुन्यमानयन चण्डवेगपारानिपातमार्ग-तत्र : पासिय' इति स्पृष्टानि = हस्त धृतानि वरफलमानि-परशसमहारमतिरोधाशस्त्राणि । ढाल ' इतिप्रसिद्धानि येस्ते, तथा रचिता कृतो रिपुत्रपतिघाताय 'पहार' इति प्रारः - रचनाविशेषण सैन्यसमूहो येस्ते, तथा सरभमा-महर्पा सजेगा या खरचापकरा-निष्टुरधनु कठतोणा ) इनके वक्ष्यस्थल पर तूणीर-तरफस-बाधा जाता है, इनमें उर्वमुख करके वाणग्रीवा के पास भरे रहते हैं । इस प्रकार से पहिले सज्जित होकर कितनेक राजा सग्रामभृमि में यद करने के लिये (अई वयति ) उतरते ह । इस प्रकार से या सव लगा लेनाचारिये। जिस युद्ध मे राजा उतरते हैं वर युद्ध किस प्रकारका होना है ? सो कहते हैजिस मग्रामभूमिमें (पासियवरफलग) निप्टर धनुर्धारीजन अपने ऊपरस परके शत्रप्रहारोंको रोकनेके लिये ढालोको हायोंमे लिये होतेहै, (रइयप कर ) शत्र के शस्त्रों का प्रतिवात करने के लिये वे अपनी २ सेना को एक विशेष प्रकार की रचना में स्थापित किये हुए रहते हैं तथा (सर भस) परस्पर मे युद्ध करने का चाव जहा आपसमे खून चढ़ा बढा होता है-दर्प अथवा वेग से जो युक्त होते हैं ऐसे (चावकर) वनुर्धारियों " उरसिरमुहबद्धफठतोणा" तमना पक्षन्य ५२ त७२-माया माधेवा डाय 3 તે ભાથામાં બાણે ઉર્ધ્વમુખ રહે તેમ, ડેકની પાસે ભરેલા રહે છે. આ રીતે પહેલા સજજ થઈને કેટલાક રાજાએ યુદ્ધ કરવાને માટે રણમેદાનમાં “ ક वयति " तरी ५ , ये प्रश्न समय मही सभल पाना યુદ્ધમાં રાજા ઉતરે છે તે યુદ્ધ કેવું હોય છે? તેના જવાબમાં કહે છે२ महानमा “पासियवरफलग' निय धनुषाशमा दुश्मनाना श२ प्रहार शवाने भाटे पाताना डायमा हात राणे ), तथा "रइयपहकर" शत्रुना शस्त्राना મકાબલે ડરવાને માટે તેઓ પિતપતાની સેનાને એક વિશિષ્ટ પ્રકારની વ્યુહ રચના नामागावे, तथा “सरभस" भन्योन्य सानाशान्य भू २७ छ उप अया वेगथी युति यछे सेवा "चावकर" धनुर्धाशमा A rया "वरचि Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनीटीफा अ० ३ सू० ५ परधनलुब्धनृपस्वरूपवर्णनम् २८१ र्धारिणः तैः कराश्चिताः कराकृष्टा ये सुनिशिता =अनितीक्ष्णा शरा माणास्तेपा यो वर्षः अर्पण स वृद्धकरफमुञ्चद् घनचण्डवेगधारानिपात इस यत्र, स तथा, यथा मेघस्य मचण्डवेगयुक्तः स्थूलोपलधारानिपातो भवति तद्वत् शरवर्पण यत्रेत्यर्थः तस्य मार्गद्वारभूतस्तस्मिन् सग्रामे पुनः कीदृशे ? इत्याह-'अणेगवणुमडलग्गसधियउच्छलियसत्तिकणगवामकरगहियसेडगनिम्मलनिविट्ठखग्गपहरतकुत तोमरचझगयापरसुमुसलल्गलमुललउडभिडिपालसबलपहिमचम्मेटघणमोहिमोगरवरफलिहजतपत्थरोहणतोणकुवेणीपीढाकलिए' तत्र 'अणेगवणुमडलग्ग' अनेकथनुमण्डलायाः = अनेकानि धनूपि मण्डलामानि = खड्गविशेषाश्च वथा 'सधियउन्डलियसत्तिरणग' सन्धितोच्चलितशक्तिकनकाः = सन्धिताःसन्धानीकृताः सज्जीकृता इत्यर्थः उन्उलिता:-उगताश्च शक्तया गबविशेषा कनका बाणाश्च तथा 'नामकरगहियखेडगनिम्मलनिकिट्ठग्वग्ग' वामकरगृहीत खेटानिमलनिकृष्टरमद्गा-तन वामकरे गृहीतानि मेटकानि = परमहारमतिरोधक शस्त्राणि 'ढाल ' इति प्रसिद्धानि निर्मला उज्ज्वलीकृता तीक्ष्णीकृता खद्गाः द्वारा जहां पर ( करचियसुनिसियसरवरिस ) अति तीक्ष्ण वाणों की वर्षा मेघों के द्वारा ( वडकरकमुयतघणचडवेगधारानिवायमग्गे ) प्रचण्डवेगवाली स्थूल ओलों की वर्षा जैसी की जाती है । तथा जो सग्राम ( अणेगधणुमडलग) अनेक धनुपो से एव मडलामो-तलवार विशेषो से (सधियउच्छलियसत्ति) सज्जीकृत उच्चलित शक्तियों से-इस नाम के शस्त्र विशेषों से, ( कणग) कनकों से-याणो से ( वामकर गयि खेडग ) वामकर में गृहीत ढालों से, ( निम्मलनिकिट्ठखग्ग ) तीदणीकृत खड्गों से, (पहरत ) प्रहार करनेमे व्याप्रियमाण ऐसे (कुत) यसुनिसियसरवरिस" अतिशय ती माणानी वृष्टि पायो वा " बढकरकम यतघणचडवेगधारानिवायमगे" प्रयवेवार भाटा ४२सनी वृष्टिनी म उराय छ तथा साम "अणेगवणुमडलग्ग मन धनुषाथी भने म साथी (तदापारथीविशेषो )थी " सघिय-उच्छलिय सत्ति " Here ४२ सित पतियोथी ( . नामना शव विशेषोथी) “कणग" नाथी थी, " वामकरगरिय सेडग" ७॥ डायमा गोल ढासाथी, " निम्मल निचिट्ठखग्ग " तीक्ष्ण नावेस २पामा १५रात" कुत" लालान्याथी " तोमर" Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D -- ૨૮૨ प्रभव्याकरण तथा 'पहरत' मरियमाणा प्रहारे व्याप्रियमाणा ये गुन्ता:मला तोमराव'मुरज' इति भाषा प्रसिद्धाः 'चा' चक्राणि 'गया'गढा मसिद्धाः 'परमु' परमवः =कुटारा तथा मुसला प्रसिद्धा' 'लगल' लागलानि-लानि शलानिलोहास्त्रविशेपा 'लउड' रगुढान्यष्टयः 'मिडिपार' भिन्दिपालमा गोफण' इति ख्याताः 'सयल ' इतिशतविशेषाः 'पहिम' पहिगा: महमभेदाः 'चम्मेद्व' चर्मेष्टाः चर्मपद्धपापागमयास्त्रविगेपाः 'घण' घना: अयोचनाः 'घण' इति भापा मसिद्धा ' मोहिया' मौप्टिमा मुप्टिममाणाखविगेपाः मोग्गर ' मुद्गराध प्रतीताः 'परफलिह ' परपरिधा' लोहरद्वलगुडाः 'जतपत्थर' यन्त्र प्रस्तरागोफणादि यन्त्रपाषाणाः 'दुहण ' द्रुघणा मुद्गरविशेषाः, तोणा! तूणीरा'कुन्तों से-भालों से, (तोमर) तोमरों से-मुरजों से (चक)चक्रोंसे (गया) गदाओं से, (परसु) परशुओं से-कुठारों से (मुमल) मुसलों से, (हल)हलो से, (सूल ) शलों से, (लउड ) लकुटों-(लाठियो) से (भिडिपाल) भिदिपालो से-गोफणों से, (सरल) सबलों से (सन्चल) यह शस्त्र विशेप है जो अग्रभाग में तीक्ष्ण ऐसा लोहे का डडा होता है, (हिन्दी में भी इसे सबल ही करते हैं ) (पहिस) पटिशोसे-भाले के आकार जैसे एक प्रकार के शस्त्रों से, चर्मेष्टों से-चर्मवद्धपापाणमय अस्त्रविशेपों से (घण) घण-लोरपिंड, इसे भाषा में भी घण कहत हैं घणों से, (मोटिय ) मौष्टिकों से-मुष्टिप्रमाण अस्त्रविशेषां स. (मोग्गर ) मुद्गरों से, (वरफलिह । वरपरिघों से लोहरद्ध लाठियास (जतपत्थर ) यत्र प्रस्तरों से, गोफण आदि यत्रों से, फेके गये पत्थरा से, (दुघण) द्रुघणो से एक प्रकार के मुद्गर विशेपो से, (ताण ) तोमरथी-शुलथी, “ चक्क" यहीथी, ‘गया" महासाथी, परसु" पशु साथी, " मुसल" भुसणाथी, हल" गोथी, "सूल" त्रिशूगोथी, “लउड" माहीमाथी, “ भिडिपाल " लिहा ( थी, “सब्बल" ममवाथा, (તે એક શસ્ત્ર છે તે લેઢાના દડા જેવું હોય છે અને તીક્ષણ અવિષ્ણુ डाय छ तेने गुसतीभा श )" पहिस" शाथी ( पहिश मासाना આકારનું શસ્ત્ર હોય છે) ચમેંટેથી (ચર્મ બદ્ધ પાષાણુ મહા અસ્ત્ર વિશે शाथी ) "घण" घशुथी, “ मोट्ठिय" भौटिलीथी ( भुष्टि प्रभाए PAR (२. "मोग्गर" भगायी, “वरफलिह" १२ परिघोथी-( सोडng सीमाथा "जतपत्थर" यत्र प्रस्तरोथी ( माह साधनाथी या पथ्थराधी) "दुघण" धाथी (मे २ना भगवाथी) " तोण" त. TITLEGETATE Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुदर्शिनी टीका १३ सू० ६ सग्रामवर्णनमू ૨૮૩ 'भाता' इति प्रसिद्धाः कुवेश्य =शस्त्र विशेषरा. पीठा' पोठानि-यन्त्ररूपास्त्रविशेपाश्च, इत्येतेशस्त्रपिशो 'कलिए' कलिते-चुक्ते सग्रामे अतिपत-ती.य-चयः।०५। पुनरपि सङ्ग्राम वर्णयति- इली' इत्यादि । मूलम्-इलीपहरणमिलिमिलितं खिप्पंतविज्जुजलविरचियसमप्पहनहतलफुडपहरणे, महारणसखभेरी वरतूरपउरपडपडहाहयनिनायगभीरणंदियपखुभिय विउलघोले, हयगयरहजोहतुरियपसरियरयुद्धयतमधयारवहुले, कायरनरनयणहिययवाउल करे, विलुलियउकडवरमउडकिरीडकुडलोडुदामाडोविए, पड़गपडाग उच्छियधयवेजयतीचामरचलंतछत्तंधयारगभीरे, हयहेसियहत्थि. गुलगुलाइयरहघणघणाइयपाइकहरहराइयअप्फोडियसीहनाय छिलियविधुट्टक्किट्ठकठकयसबभीमगजिए सयराहहसतरुततकलकलरवे, आसूणिय वयणरुदभीमदसणाधरोहगाढदढसप्पहारकरगुजयकरे, अमरिसवसतिव्वरत्तनिदारितच्छे, वेरदिहिकुछचेष्ठियतिवलीकुडिलभिउडीकयललाडे वह परिणयनरसहस्सविक्कमवियभियवले॥ सू०६ ॥ टीका-' इलीपहरणमिलिमिलिंतखिप्पतनिज्जुजलविरइयसमप्पह नहतले । इलीपहरणमिलिमिलिन्ततिप्यमागविगुदुज्ज्वलविरचितसमप्रमनभस्तले तृणीरों से-भाताओं से, (कुवेणी) कुवेणियों से-एक प्रकार के शस्त्रो से, (पीठ ) पीठों से-यत्ररूप अस्त्रविशेषों से (आकलिए ) युक्त रहते हैं। ऐसे उस भयकर सग्राम मे फिननेक राजा लोक परधन को हरण करने के लिये ही उतरते है । सू०५ ॥ सायी) “ कुवेणी " अशी माथी (मे २ना सखो) ' पीठ" पीstथी (-४३५ विशेषाशी ) “आफलिर" युक्त २९ मे ते लय ४२ ગ્રામમાં કેટલાક રાજાઓ પરધનનું હરણ કરવાને માટે જ ઉતરે છે સૂપ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -Remement २८४ प्रश्नध्याकरण जन इलीभी.-द्विधामार वागविशः महरणे-गवान करिव 'मिलिमिलित। इति चाकविक्ययुक्तःसिप्पमाणः भटेनिपात्यमानः मरियमाणैरित्ययः, पुन कीदृशैः खड्गादिशस्त्र. ? विद्युदुज्ज्वला विधुतद्विद्योतमान विरचित-कृत समप्रभ% स्वदशमकाशयुक्त नमस्तल यत्र स तथा तस्मिन् , तया' फुडपारणे' स्फुटमहरणे स्फुटानि-पप्टानि प्रहरणानि शस्त्राणि यस्मिन् स तथा तम्मिन । ' महारणसम्व भेरिवरतूरपउरपडपडहाहपनिनायगमीरणदियपरतुभियपिउल्योमे ' महार णशगभेरिनरतूर्यमचुरपदुपटहाहतनिनादगम्भीरनन्दितमक्षुभितपिपुरघोपे = तत्र महारणे महायुद्धे ये शशाम्-प्रतीता मेर्यःरणमेयः परतूांगियानादित्राणि तानि च मचुराणि-प्रभूतानि पनि स्पष्टध्वनीनि च पटहाथ-' ढोल ' इति प्रसि द्धास्तेपामाहतानाधादिताना निनादेन-शब्देन गम्भीरेण नन्दिता हर्पिताः वीराः फिर भी सग्राम का वर्णन करते है-इली पहरण ' इत्यादि । टीकार्थ-(इली ) दोनों तरफ जिनपर धार निकल रहि है ऐसे दुधारे (पहरण ) खगादि अनेक शस्त्र जो (मिलिमिलित) अत्यन्त चमकीले हैं और (खिप्पत ) शत्रुओं पर फेंके जाते समय (विज्जु ज्जल) विजली जैसे चमकते हैं, ऐसे शस्त्रों ने (चिरडयसमप्पदनह तले ) नभस्नल को अपने सामान प्रकाश वाला बना दिया है अर्थात् जो लपलपाते हुए अति तीक्ष्ण चमकीले शस्त्रों से आकाशमण्डल चम कीला बन रहा है ऐसे सग्राम में (फुडपररणे) तया जिसमें शल दिखलाई दे रहे हैं तथा जो ( महारणे ) महासग्राम में बजन वाले (मख ) शखों से, (भेरी ) रणभेरियों से (वरतरपउर। स्पष्ट वनिसपन्न प्रधान २ तूर्य-वादियोसे.(पडपडहायनिनायगभीर) घजते हुए ढोलो के गभीर शब्दों से ( णदिय) हर्षित बने हुए जोशाल ७ पा सूत्रा२ सयाम वर्णन २-इली पहरण " त्यात टीडा--"इलो"भन्ने त२३२२ धार छ तेवा मेधारा 'पहरण' 41 वगेरे मन शस्त्री "मिलिमिलित” भतिशय यता छ, भने "खिप्पत" सनुमा त२५ ३४ामा मावे त्यारे “ विज्जुज्जल " विजी २१॥ यम छ, मेवा शस्त्राम "विरइयसमप्पह्नहतले " मोशन पोताना २७ प्रशित मनापी वधु છે, એટલે કે જે ચકચકિત અતિ તીણ ચળકતા શસ્ત્રોથી આકાશ મડળ ચળ तु अनी २घु छ सेवा सयाममा “फुडपहरणे" तथा सभा शखा न०४२ ५७ छ तथा रे " महारण " भडास याममा पासता " सख" शमाथी, " भेरी" २गुलेशमाथी “ वरतूरपउर" - निवाजाभुज्य भुज्य तूर्य - नित्राथी, “पडुपडहायनिनायगभीरे " पाnau ढोताना मलार Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० ३ ० ६ सङ्ग्रामवर्णनम २८५ । प्रशुभिताः क्षोभमापन्ना ये कातरा जनास्तेपा विपुलः = निशाल घापो -वनिर्यस्मिन् स तथा तस्मिन् ' हयगयर ह जो हतुरियपस रियरयुद्धयतमनयारनहुले ' हयगजरथयोधत्वरितमसृतरजउद्धततमाऽन्य कार वहुले = तर हयाः = अश्वाः, गजाःप्रसिद्धा, रथाः - स्यन्दनाः, योधा - सुभटास्तेपा पादाभिघातेन लखि शीघ्र प्रसूत - विस्तारमुपगत रजः - धूलो, तद् उद्धततमम् - निशयेनोद् मृतमुड्डीयमान तेनाऽन्धकार हुले । तथा " कायरनरनयणहिययना उलकरे " कातरनयनहृदयव्याकुरकरे, तत्र = कातराः - अधीरा. युद्धे पलायनस्वभावा ये नरास्तेपा नयनहृदययोः व्याकुळकरे= क्षोभजनके तथा 'विलुलियउक्डनरमउडकि रिडकुडलोड़दामाडोचिए ' विलुलितोत्क्टर मुकुटकिरिटकुण्डलो डुदामाटोपिते= तत्र विलुलितानि = इतस्ततश्चलितानि उत्कटवराणि= उत्तमप्रकृष्टानि यानि मुकुटानि = मसिद्धानि किरीटानि = त्रिशिखरशिरोभूषणानि कुण्डलानि =र्णाभरणानि उड्दामानि=नक्षनमालाकार भूषणानि च तैराटोपित ' = विस्तारितो य स तथा तस्मिन् वीरों के एव (पभिय) क्षुभित हुए कायर जनो के (बिउलपोसे ) विपुल घोषो से व्याप्त हो रहा है, तथा (हयगयरह्जोतुरियपसरियर ययुद्धयतमधयार बहुले ) (एय) घोडी के, (गय ) गजो के, (रह) रथो के, (जो ) योद्धाओ के, ( उयतम ) पैरो के अत्यन्त आघात से उडकर (तुरियपसरिय ) शीघ्र फैली हुई ( रय ) धूली से जहा पर ( अधयारबहुले) अधकार ही अधकार हो रहा है (कायरनरनघणहियय वालकरे) कायरजनो के नयन और हृदयको जो व्याकुल बनारहा है । ( विलुल्यि ) इधर उधर लटकते हुए ( उक्डवर ) उत्तमोत्तम ऐसे ( मउड) मुकुटो से, (किड ) किरीटो से तीन शिखर वाले शिरो भूपणो से (कुडल ) कुण्डलों से, ( उडदाम ) नक्षत्र मालाकार भूषणो नादृथी, “ णढीय ” मानहित अनेसा लेगीसा चीराना भने “पक्खुभिय झोल पामेस अदर नाना " विउलघोसे " वियुस भावान्न्यी व्याप्त थल गयु हयगयरहजोहतुरियपसरियर युद्धयतमधयारबहुले તથા हय घोडाना, “ गय" हाथीगोना, "रह " स्थाना " जोह " योद्धाओोना " उद्धय तम ” युगना अत्यंत साधातथी बडीने " तुरियपसरिय " अडपथी सायली " रय" धूणथी त्या ' अधयोरबहुले" अतिराय अधार थर्ध गयो छे, " कायरनरनयण हिययवाउलकरे ” अयर सेजिना नयन मने हृहयने ने व्याज पुरी गोस छे, 'विलुलिय" सही नहीं सटडता " उकटवर " उत्तमोत्तम मउड भुगटोथा, "किरीड” जिरीटेोथी-नाशु शिमरवाजा शिरोभूषाशोथी, "कु डल" उपोथी "उडदाम" नक्षत्र भाषाहार लूपयेोथा, "आडोविए " ले आर युक्त जनेस हे 'पगड" “ " છે "" 72 ܕܪ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પદ भय्याकरणसूत्रे 6 'पगडपडाग उत्रियजयतीचामरचलत उत्त यारगभीरे' प्रकटपता कोच्छ्रित वजवैजयन्तीचामरचलन् उनान्धकारगम्भीरेतन माअपमाना याः पताकाः विशालपताकाः उन्द्रिताः=भत्यू स्थिता' ये जा:लघुपताः वैजयन्त्यश्व-विजयपताका तथा चामराणि चरन्ति उमाणि च ते कृतेनाधारेण गम्भीरे गहने तथा ' हे सियहत्विगुलगुला रह गया हरहराइय आफोडियसीनाजिलिय विभीमगनिए ' व ' हयहे सिप' हयहेपित = दयानाम् = अधाना हेपितशत 'हरि' इस्तिगुलगुलायित हस्तिना - गजाना गुलगुलायित = गुलगुलः 'रघगवगाइय' स्थगननाति = धारता रथाना घनयनेति शब्द तथा पाइपहरहराइय ' ' पदाति हरहराति= पदातीना सैनिकाना हरहरेति मन्दित ' आफोडिय ' आस्फोटित = बाहुपरिस्फोटन 'सोहनाय ' सिंहनादः सिंहस्येर शब्दकरण 'डिलिय सहित सीत्कारकरण से (आडोविए) जो आडपर युक्त बना हुआ है । (पगड) दूर रहने पर भी इमान ऐसी (पडाग ) विशाल पताकाओं से, ( उच्छित्र) ऊँची की हुई ऐसी (घ) लघुपताकाओ से, (वेजयती ) वैजयन्ती - विजय सूचक ऐसी बजाओ से, तथा ( चामर ) चामरों से एव ( चलतउत्त) चचलोंसे किये गये (अधधार) अधकारसे जो (गभीरे) गहन हो रहा है, तथा जहाँ (हसिय) घोड़ो की हिनहिनाटके शब्द हो रहे हैं, (हत्विगु लगुलाइय) हाथियों की गुरगुलाहट हो रही है, ( रघणघणाइय) इधर उधर दौडते हुए रथों का जहा घनघनाट शब्द हो रहा है, (पाइकहर हराइय) पदातियों की जहा हर हाट-' हरहर' इस प्रकार को तुमुल ध्वनि हो रही है, ( आफोडिय) वीर अपनी २ भुजाओं का जहाँ आस्फालन कर रहे है- फटकार रहे है, (सीहना ) सिंह के जैसी जहा पडाग " विशाल पताायोथी, લઘુપતાકાઓથી, દૂર દૂર હાવા છતા પણ નજરે પડતી એવી " उच्छिय " उसी रामेली भेषी " धय " " वेजयती" विश्य सूथ' ध्वन्नशोथी, तथा "चामर" ग्रामरोथी मने "चलतछत्त" ययण छत्रीथी इशयेस " " अथयार घारथी ? ' गभीरे" गहुन थह गयुधे, तथा न्या “ह ्यहेसिय” घोडाभोनी हुए डयुटीनो भावान् थ रह्याे, “हत्यिगुलगुलाइय” હાથીઓની ગુલગુલાહટ થઇ વ્હો છે, રસ્થાના ધણધણાટ જ્યા ચાલી રહ્યો છે જ્યા હર હેરાટ હર હર ” એ પ્રકારના ભય ધ્વનિ ચાલી રહ્યો છે, आकोडिय જ્યા વોરા પાત પોતાની ભુર્જાઓનુ આસ્ફાલન કરી રહ્યા છે K< "" रघणचणाइय આમ તેમ ઢોડતા पाइक हरहराइय " पहाती यायहणना (( " " ફટકારી રહ્યા છે 'सोहनाथ " सिडना पीना नाथ रही छे, Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ० ३ सू०६ सग्रामवर्णनम् ૨૮૭ 'विघुट्ट' विघुष्ट-विरूपयोपफरणम् 'उकिटकठायसद' उत्कृप्टकण्ठकृतशब्दः हत् उत्कृष्ट -अतिशयितः कण्टेन कृतः शब्द गल्गलाटरूपः स एव 'भीमगज्जिय' भीमगर्जित-मेध पनिश्च, इत्येनानि हयहेपितादीनि सन्ति यत्र स तथा तस्मिन् । पुनः कीदृशे' तदाह-'सयराहसतरुसतकलकलरवे' सयराइहसत् रुष्यत् कलकलरवे'मयराह' इति युगपत् हमता रुप्यताक्रुध्यता सैनिकाना कलकलरव कोलाहलो यत्र स तथा तत्र । तथा-'आमणियवयणरुदभीमदसणाधरोट्रगाढवट्टमप्पहारकरणुज्जयकरे' आग्नितवदनरौद्रभीमदशनावरोष्ठगाढदृष्टसत्महारकरणोद्यतकरे-तत्र आनितेन ईपत्स्थलीकृतेन वदनेन=मुखेन ये रौद्रा कोवचण्डास्ते तथा, तथा-भीम-क्रोधावेगाद भयङ्कर ययाम्यात्तथा दर्शन =दन्तैरधरोष्ठ गाढ दृष्ट यस्ते तथा परमभटास्तेपा सत्महारकरणे = शोभनतया शस्त्र गर्जना हो रही है ( निलिय ) 'सी सी' इम प्रकार का जहा सीत्कार शन्द हो रहा है, (विजुट्ट) योद्वामी डारा विरूपपोप जहा किया जा रहा है, (उफिटकठकयसद्द ) हर्प से फूले हुए जहा अपने २ कठो से उत्कृष्ट गलगलाट रूप शब्द कर रहे हैं (भीमगज्जिए ) इस कारण ऐसा वहा ज्ञात होता है कि मानो मेघ ही यहा गर्ज रहा है। (सय. राहसतस्सनकलकलरवे) (हसत) हंसते तया (रुसत ) क्रोध से रुष्ट हुए सैनिक जनो का (सयराह ) एक माय जहा पर ( कलकलरवे) कलकल शब्द हो रहा है, तथा जहा सैनिकजन (आसूणियवयण) अपना मुँह थोड़े से रूपमें फुलाकर (रुद्द ) क्रोध से चण्ड बन रहे है तया (भीम) क्रोध के आवेश से भयङ्कररूप में जहां वे (दसणाधरोट्रगाढदट्ठ) अपने २ अधरोष्ठो को दृढ़ना पूर्वक डस रहे हैं, तथा (सप्प “लिलिय" 'सीसी । सोया मिली थJ २ह्या छे तथा "विघुट" योद्वामी । वि३५ ३५ न्या. रयो , “ उक्टुिकठकयसद्द" मान थी કુલાઈ ગયેલા સૈનિકે જ્યાં પિત પિતાના ડઠમાયા ઉતકૃષ્ટ ગર્જના જેવા શબ્દો ढी २॥ , " भीमगज्जिए" ते त्या भेरी ना ४१ रहो डाय ते सगेले “सयराहहसतरुसतकल कलरवे" " हसत" मता तथा “ रुसत " अपायमान थयेस सैनिजानी ‘मयराह" मे साथे न्य! " कलकलरवे" sasa v४-८पनि यई रह्यो छे, तथा न्यानि “ आसूणि य वयण" पोत वातानु भुप था1 प्रभागमा साधीन ' रुद्द" अधथी जय मनी डेस तथा " भीम ” अधनी मामा सय४० ज्या तेमा " दसणाधरोटगाढदट" पोतताना सोने anal in Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ মায়াহ 'पगडपडागछिययोजयतीचामग्पलत उत्तयारगमीर' प्रस्टयताकोन्छूित वनवैजयन्तीचामरचलन्यान्धकारगम्भीरान प्राटा दूरस्था अपि दृश्यमाना याः पताका:-पिनालपताकाः उनिता प्रत्यूनंस्थिता' ये घमा लघुपताकाः चैजयन्त्यश्रणविजयपताका तथा नामराणि चटन्ति छाणि च तेः कृतेनाकारण गम्भीरे-गहने तथा ' यह सियहत्यिगुलगु लाइयरद गवगाइयपाइकहरहराइय आफोडियसीहनायलिलिय विघुगिटारयस भीमगनिए' तर यहेसिय' हयहेपित हयानाम् अश्वाना हेपित्त-शन्दित 'हत्यिगुगुलाइय' हस्तिगुलगुलायित हस्तिनागनाना गुलगुलायितम्-गुलगुलदा रहयगगाइय' स्थगनायितधावता स्थाना घनघनेति शब्द तथा 'पागहरहराइय' पदाति हरदरायित: पदातीना सैनिकाना हरहरेति शदित 'आफोडिय ' आम्फोटित-बाहुपरिस्फोटन 'सोहनाय' सिंहनादा-सिंहस्थर शब्दकरण 'छिलिय' सण्टित- सोलारकरण से (आडोविए) जो आडपर युक्त बना हुआ है । (पगड) दूर रहने पर भी दृश्यमान ऐसी (पटा) विशाल पनाकामओ से, (उच्छिर) ऊची की हुई ऐसी (धय) लघुपताकाओ से, (वेजयती ) वैजयन्तो-विजय सूचक ऐसी ध्वजाओ से, तथा (चामर ) चामरों से ण्य (चलतउत्त) चचलछत्रोसे किये गये (अधधार)अधकारसे जो (गभीरे) गहन हो रहाहै। तथा जहां (यहेसिय) घोड़ो की हिनहिनाटके शब्द हो रहे हैं, (हथिगु लगुलाइय ) हाथियों की गुरगुलाहट हो रही है, ( रघणवणाइय) इधर उधर दौडते हुए रयों का जहा धनवनाट श-द हो रहा है, (पाइकहर हराइय) पदातियों की जहा हर हराट-'हरहर' इस प्रकार को तुमुल ध्वनि हो रही है, (आफोडिय) वीर अपनी २ भुजाओं का जहा आस्फालन कर रहे है-फटकार रहे है, (सीदनाय ) सिंह के जैसी जहा ६२ ६२ डापा छत्ता ५५ नगरे पती सवा “ पड़ाग"विशा पताथी , "उच्छिय" यी राणेसी सेवी " धय" सधुपतासाथी, “ बेजयती" विन्यसूय वनसाथी, तथा "चामर" याभरीथी मन"चलतछत्त" ५२॥ छत्राथी ४२रायेस " अधयार" मधा२या २ ‘गभीरे" गडन थप गयुके, तथा या "हयहेसिय" घामानी ! जाटान भावाया रह्यो छ, "हत्थिगुलगुलाइय" हाथीमानी शुलखाट २डी छ, “ रघणयणाइय" मम तम होता थाना घाट या यादी २wो छ “पाइक हरहराइय"urlal-पायजना જ્યા હર હરાટ “હર હર ” એ પ્રકારને ભય હર શ્વનિ ચાલી રહ્યો છે, "आकोडिय" या वा। पात पातानी सुजयोनु सासन ४ २ह्य- आरी २६ “सोहनाय " सिंडनाया ग या । २ छ, Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्शिनी टीका अ० ३ ०७ संग्रामवर्णनम् पुनः कीदृशे सग्रामे ? इत्याह ' वगंत ' इत्यादि । मूलम् — वग्गततुरगरहपहावियसमरभडे आवडियछेयलाघवपहारसाहिए समूसियवाहुजुयले मुक्कट्टहास पुक्कत बोलबहुले, फुरफलगावरण गहियगयवरपत्थतदरियखलभडपरोप्परपलग्गजुद्धगव्वियविम्कोसियवरासिरोसतुरियअभिमुहपहरंतच्छिण्णकरि २८९ करविअगियकरे, अवइद्ध निसुट्टभिन्नफालियपगलियरुहिरकयभूमिकद्दमचिलिचिलप हे कुच्छिदालियगलियनिभेलियंत फुरफुरतविगलमम्महविगयगाढदिण्णप्पहारमुच्छियस्लंतविव्भलविलावकणे, हयजोहभमततुरगउद्दाममत्तकुजरपरिसकिय जणणिव्वुक्क छिपणज्झयभग्गरहबरनठ्ठसिरकरिकलेवराकिण्णपडियपहरणविकिन्नाभरणभूमिभागे नञ्चतकबधपउरे, भयकरवायसप रिलित्तगिद्धमंडलभमंतछायंधयारंगंभीरे ॥ सू० ७ ॥ टीका - "गततुरगरहपद्यानिय समरभडे ' वलाचुरगरथमधावितसमरभटे =तत्र वलान्तः=ट्टेपमाणा. ये तुरगाः अश्वाः स्था' तै प्रधारिता वेगेन नीता किया जा रहा है ऐसे सग्राम मे किननेक राजा उतरते हें ऐसा सबध यहा लगा लेना चाहिये ॥ सृ०६ ॥ फिर कैसे संग्राम में उतरते हैं सो कहते हैं-' वग्गन तुरग' इत्यादि । टीकार्थ - ( वग्गततुरगरहपहाविय समरभडे ) हणणाट करते हुए घोडो से एव रथो से जहा पर जल्दी २ भट पहुँचाये जा रहे हैं, तथा હીન કરવામા આવી રહ્યુ છે, એવા સગ્રામમા કેટલાક રાજાએ ઉતરે છે, એવા સમય સમજી લેવાના છે સૂ૬॥ ८८ તે તેવા સગ્રામમા ઉતરે છે તેનુ વધુ વર્ષોંન કરે છે— वग्गत तुरग " इत्यादि टीजर्थ—“ वग्गततुरगरहपहानियस भरभडे ” હુણહણાટી કશ્તા ઘેાડા એથી અને રથેાની મદદથી જ્યા જલ્દીથી સૈનિકોને મેલાઈ રહ્યા છે, તથા प्र ३० Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૮ मनापापरणसूत्र सञ्चाल्ने, उद्यता भताः करा हस्ताः सैनिकानां या स तथा तत्र, अति मोधशोणीकृतानना भयडरस्वस्पा योधाः सततमध्यग्रा अान्ता अविच्टेन शस्वपहरणसमाप्ता यस्मिन् सग्राम मन्तीत्यर्थः । 'अमरिसरसतिब्बरतनिहारि पन्छे' अमर्पयशतीवरक्तनिरिताक्षे अमर्पगेनप्रोपगेन तीनरफ्ते अत्यन्त लोहिते, निर्दारित स्फारित चाक्षिणी योघाना यस्मिन , तत्र । तथा 'वेरदिहि फुद्धचैहियतिवलीकुडिलभिउडियर गरे । दृष्टिलुद्धचेष्टितरिवलीकुटिलभृकुटी कृतललाटे-तत्र रदृष्टया वैरमारनया ये कुदाकुपिता भटाम्तेष्टिता त्रिवलीललाटसोचजनिवगिरेग्यास्पा तथा कुटिला भृकुटी कता ललाटे-भाले या स तथा तन विपरिणयनरसहस्ममिवियमियरले' धपरिणतनरसहस्रविक्रम विज़म्भितरलेयधेप्रतिपक्षिहनने परिणतानां तत्पराणा नरसहस्राणाम् अनेक सहस्रसुभटाना पराक्रमेण चिम्भित-विक्षोभित बलशानुसैन्य शनुमामय वा यत्र स तथा तस्मिन् , एतादृशे सग्रामे अतिपतन्तीत्यनेनाऽन्यय ॥ सु० ६॥ हारकरणुज्जयकरे ) द्विपक्षी सुभटों के ऊपर प्रहार करने के लिये जहां सुभटो के हाथो का सचालन हो रहा है तथा ( अमरिमवसतिव्वरत निधारितच्छे) जहाँ पर ( अच्छे) वीरो के दोनो नेत्र (अमरिसवस) क्रोधके वशसे (निद्दारिन) अपलक-निनिमेष होकर (तिव्वरत्ता) अत्यत रक्तवर्ण के बन रहे है,तया (वेरदिहि) वैरकी भावनासे (कुद्ध) कुपित हुए भटो द्वारा (चेट्टिय) चेष्टित-की गई ( तिवली ) अपनी २ त्रिवलीतीन रेखा, तथा (कुडिलभिउडिकय) कुटिल- टेढी भ्रकुटी ललाट ऊपर जहा की गई है, तथा ( वत्परिणयनसहस्सविकमवियभियबल) प्रतिपक्षीभूत मुभटो को मारने में तत्पर बने हुए अनेक सरम सुभटी के पराक्रम से जहा पर शत्रु का सैन्य-अथवा घल-सामथ्र्य विक्षोभित , तथा " सप्पहारकरणुज्जयकरे " दुश्मन सेनिजी 6५२ प्रडार ४२वाने भाटे या भुमटाना हाय यादी २हा छ, तथा “अमरिसवसतिव्यरत्तनिहारितन्छे" ल्या "अच्छे' पाशनी मन्ने मा "अमरिसवस" अावशथी निदारित" ५५ -पा२॥ २डित धन “तिव्वरत्ता" सत्यता मनी २ छ, तथा “वेरदिट्टि" वैरवृत्तिथा “कुद्ध" अपायमान थयेस सुमटावा" चोट्रिय" राती "तिवली" पातपाताना माया "त्रिवली" (पायमान थत। ४ामा ५७ता १२यसीमा) तथा “कुडिलभिउडिकय" या सभरी-प्रटी पाणे यी २ ७. तथा "वहपरिणयनसहस्सविकमवियभियरले" भनाना भावान આતુર બનેલા અનેક હજાર સુભટના પરાક્રમથી જ્યા દુશ્મનના Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० ३ सू० ७ सदग्रामवर्णनम् 'गयवरपत्यत' गमवरमार्थयमाना = गजरान्-शत्रुफुजरान् हन्तुमारोहु वा पार्ययमानाः अभिलपमाणा ये वे तथा 'दरियग्वलभड' दृप्तखलभटाप्ताः स्ववलगर्विताः, खलाः दुष्टा-भटाभ्योपास्ते, तथा 'परोप्परपलग्ग ' परस्पर मलना=परस्पर शत्रुमभिहन्तु प्रवृत्ताः 'जुगन्धिय' युद्धगर्विताश्च युद्धकौशलाऽहङ्कारपूर्णाः, 'निकोसियवरामि' विकोशिनवगमयः-विकोशिताः कोशानिष्का सिताः असया खगाः यैस्ते तया, 'रोस' रोपेग-कोवेन 'तुरिय' त्वरित शीघ्रम् , 'अभिमुह' अभिमुख 'पहरत' प्रहरन्नस्ते छिन्नकरिफराः-छिन्नाः करिकरा. हस्तिशुण्डा यैस्ते तथा, पियगियकरे' व्यगितारिकर्तिता करा' येपा ते तथा, एते विद्यन्ते यस्मिन् स तया तस्मिन्-रसराभिहननभेदनछेदनपहरण तत्परैर्योधै िउन्नभिन्नै:-' हयगजरथपदातीना परिभ्रष्टशुडमुण्डहस्तपादादिमि ाप्त स्थल यत्रैव भूते सग्रामे इत्यर्थः। अबइद्धनिसुट्टभिन्नफालियपगलियरुहिरकयएक योधा दूसरे योधा के हायीको मारनेके लिये अथवा उस पर सवार होनेके लिये उत्तुक रहता है, तथा जिप्तमें (दरियखल भड) दुष्ट योधा गण अपने बल से अधिक गर्वित बने रहते हैं, (परोप्परपलग्ग ) एक दूसरो को मारने के लिये जहा वीर प्रयत्नशील रहते है, अथवा प्रवृत्त होते है, (जुद्धगब्धिय ) युद्ध करने का कौशल योद्धाओं में विशेषरूप से जगकर उन्हें जहा गर्वित बना दिया है, तग (विकोसियवरासि ) जहा पर योद्धा अपनी २ श्रेष्ठ तलवारो को म्यान से पाहिर किये हुए ही रहते हैं, और जहा ( रोसतुरियअभिमुपदरतडिण्णकरिकर) क्रोध से भर1 कर एक योधा दूसरे योधाके ऊपर प्रहार कर उसके हाथी के शुण्डादण्ड को भग्न कर देता है, तथा (वियगियकरे ) परस्परमे जहा योद्धायोद्धारपत्थतमाम योद्धरे भी योद्वान याने मारी नासपाने माटे, मथ तेना ५२ सवार थवाने भाटे मातु. २९ छ, तथा मा “ दरियसलभड" हुट योद्धामा पोताना ने सीधे पधारे भविष्ट गनेसा २७ , " परोल्परपलग" या मे मीन भावाने माटे वार पुरुषो प्रयत्नशील २ छ, अथवा प्रवृत्त हाय छ, "जुद्धगत्रिय" all योद्धासानु सुद्ध शल्य વધારે પ્રમાણમાં જાગૃત થયું છે, અને તે કારણે તેઓ વધારે ગર્વિષ્ટ બન્યા छ, तथा “विशोसियवरासि" या योद्धामा पात पाताथा श्रेष्ठ तसवाराने भ्यानमाथी मार दान पाने तयार डाय छ, भने या "रोसतुरिय अभिमुहपहरतछिण्णकरिकर " जोधायमान थाने से यादो भात योद्धाना ९५२ प्रा२ रीने तेना खायीनी सूटने ५ ना , तथा "वियगियकरे" त्या Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० प्रश्नध्याकरणस्ने समरे भटा यन स तथा तन " आइरियोयलापहारमाथि " आपवितछेक लापरप्रहारसाधिते तर आपतिताः योगमयता ये का निपुणाः भटाः, तेषां तत्कतका इत्यर्थः, ये लापहारा चातुर्यपूर्णमहारास्ता साधितो निर्मितः य स तथा तस्मिन् । तथा ' ममूसियवाहुजुयले 'समुचितपाहुयुगले-समुन्द्रितानि =हर्षाधिक्यार्थीकतानि पाहुयुगलानि भटैर्यत्र स तया तत्र, तया 'मुहासपुर तबोलनहुले ' मुक्ताहासपूत्कुर्वनोग्बगुले - मुक्ताहासा-कृतमहाहास बनया, पूत्कुर्वन्ता नामनिर्देशपूर्वक परमायन्तो ये सुभटास्तेपा गोला कोलाहला, स पालो यस्मिन् स तथा तस्मिन् । 'फरफलम्गावरणगहियगय वरपत्थददरियमड खलपरोप्परपलग्गजुद्धगनियरिकोसियवरामिरोसत रियाभिमुहपहरतठिणकरिक रपिअगियकरे ' स्फुरफल कारणगृहीतगजरमार्थयमानहमभटपल-परस्परमलान युद्धगर्वितरिकोशितररासि-रोपलरितामिमुखमहर-रिउन्न-परिकर-व्यजित कर तत्र 'फुरफलगाधरणगहिय ' स्फुरफलकावरणा: स्फुरा' अस्त्रमतिघातनिवारकर मैमयपट्टविशेपा, फलकानि- ढाल ' इति भापा प्रसिद्धानि आवरणानि च करवानि, तानि गृहीतानि-धृतानि यैस्ते तथा स्फुरकादि शस्त्रधारिण', तथा ( आडवियडेयलाघवपहारसाहिए ) जो युद्ध करने के लिये उद्यत हुए ऐसे निपुण भटो के चातुर्य पूर्ण प्रहारो से निर्मित किया गया है, (समू सिययाटुजुयले ) तथा जिसमे हर्पित बने हुए भट हर्प की अधिकता से अपने २ घायुगलो को ऊपर उठा रहे हैं (मुक्ट्टहासपुक्कतबोलबहुला तथा जिसमें सुभटजनो की महाहास्यवनि द्वारा एव दूसरो को नाम निर्देशपूर्वक बुलाने के शब्दो द्वारा बहुत कोलाहल मचा रहता है तथा जिसमें योद्धागण (फुरफलगायरणहिय) अस्त्रप्रतिघातको निवारण करनेवाले चर्ममय पविशेषोंको, फलकोंको ढालोको लिये रहते हैं, तथा कवच आदि आवरणोंसे सज्जित रहाकरते है, तथा (गयवरपत्थत) जिसम " आडवियछेयलाधवपहारसाहिए ॥२ युद्ध पाने तयार थपेसा ॥ निपुर सुलटाना यातु पूर्ण महाशिथी युक्तछ "समृसियबाहुजुयले" तय જેમાં આન દિત બનેલા સુભટે આનદની અધિક્તાથી પિત પિતાની ભુજા या ४री २९स छे "मुक्कट्टहासपुक्कतबोलबहुले" तथा मा सुबटा સુક્ત હાસ્યને ધ્વનિ તથા બીજાને નામ દઈને બોલાવવાના શબ્દો દ્વારા ભા* मा भयो हो , तथा २मा योद्धामान सभूल " फुरफल्गावरण गहिय " शस्त्रोना धान रोपाने भाटे यम भय पट्ट विशेषोन, सोन-ढालान धारण ४२ छे तथा मत२ आदि मावणाथी म २२ छ तथा "गयव Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शिनी टीका अ० ३ सू० ७ सग्रामवर्णनम् २२३ विकृतः = क्रोधावेशेन विचित्ररूपः गाढः = मर्मभेदी दत्तः शत्रुभि• महारो येषा ते तथा, अत एव मूर्च्छिताः = मूर्द्धा प्राप्ताः, लुठन्तः = भूमौ लुठन्त, विला:= व्याकुलाथ तेपा विलापाः = ' हा हतात्रयमि' - त्याद्याकन्दशब्दाः, तैः करुणो= दयाजनको यः स तथा वन, पुनः कीदृशे ? इत्याह- ' हयजोह - भमत तुरगउद्दाममत्तकुजरपरिसकियजण- णिव्युव णिज्झय- भग्ग - रहवर - नट्टसिरकरिकले वराकिण-पडियपहरण - विकिन्नाभरणभूमिभागे' हतयोधभ्रमत्तुरङ्गोदाममत्तकुञ्जरपरिशङ्कितजननिर्मृलछिन्न- जभग्नरथवरनष्टशिरः करिकलेवराकीर्णपतितमहरण त्रिकीर्णा मरणभूमिभागे' तत्र - 'हयजोहभमततुरग' - हतयोधभ्राम्यत्तुरगः - हताः = मृता योधाः =अश्वारोहा सवार इति भाषा प्रसिद्धाः येषा, तथाभूता भ्राम्यन्तः = इतस्ततो धावन्तः तुरगाः श्रश्वा यस्मिन् स तथा 'उदाममत्त कुजर परिसकियजण'- उद्दाममत्तकुञ्जरपरिशङ्कितजन. - उदाममत्तकुञ्जरेभ्यो = निरङ्कुशमदोन्मत्तदस्तिभ्य. परिश ङ्किता = शङ्काकुला. जना यस्मिन् स तथा, 'णिन्नुवडिण्णज्झयभग्गरहवर '— निर्मूलडिन्न वजभग्नरथवराः - तत्र निर्मूला = मूलरहिता: = नजदण्डेभ्यो निस्सृताः - से विचित्ररूप गाढ मर्म भेदी प्रहार शत्रुओ द्वारा दिया गया है और इसी से जो (मुच्छिय ) मृर्च्छा को प्राप्त होकर ( रुलत ) भूमि पर इधर से उधर लोट रहे हैं एव ( विभल ) व्याकुल होकर (विलाव ) 44 हा मैं मारा गया " इत्यादिरूप से विलाप कर रहे है ऐसे योद्धाओं के विलापो से जो ( कलुणे ) दयाजनक बना हुआ है तथा जो (यजोहभमततुरग ) अपने सवारो के मर जाने से इच्छानुसार इवर उधर घूमते हुए घोड़ों से युक्त हो रहा है, तथा जहाँ ( उद्दाममत्तक्रुजर परिसकियजणे ) उत्कट मदवाले हाथियों से, वध की शका के भय से मनुtय व्याकुल हो रहे हैं ( णिन्नुकुछिण्णज्झयभग्गर हवरे ) जहा निर्मूल दडा रहित और छिन्न-फटी हुई ध्वजाऍ और भग्न हुए श्रेष्ठ रथ पडे है આવેલા શત્રુઓ દ્વારા વિચિત્ર રીતે ભયર મમ`ભેદી પ્રહાર કરાયા છે અને તે जरो लेगो " मुच्छिय" भूवि थाने " रुलत " भीन पर आभ तेभाणोटे छे भने ' त्रिमल " ध्यान्न जनेस है, 'विलाव " अरे ! મને મારી નાખ્યા ” ઈત્યાદિ પ્રકારે વિલાપ કરે છે, ચેદ્ધાઓના વિલાપથી જે "कलुणे" ध्यान मनेस छे, तथा ? "हयजो इभमततुरग " पोताना सवारी भी भवाथी रिछानुसार भाभ तेभ घूमता घोडाभोथी ने युक्त है, तथा न्या "उद्दामम तकु जर परिसकियजण " भहोन्मत्त हाथीगोद्वारा ज्यराध भवानी लयथी भागुनो व्याडुण गनेसा छे, "णिन्नुष द्विष्णज्ज्ञयभग्गरहबर " ज्या निर्माण हुडा रहित Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ___प्रश्नध्याकरणसूत्रे भूमिकामचिरिखल्लाहे अपपिनिगुटभिन्नफालितप्रगठितमपिरकनभूमिकडमचि खिल्लपये तर अपरिद्धा माणादिमि , निगृहा-निपातिताःगस्तादिमि', मिनाः निशूलादिभिः फलिताः स्फाटिता' पिदारियाय जुटारादिभिर्य, तेभ्यः मगलितेन =क्षरितेन रुधिरेण कृता-जातो यो भूमौ पृथिव्या मस्तेन विलिपिशा आदाः पन्यानः = मार्गाः यत्र स तथा तर, 'कुन्टिालियगलियनिम्मेलियतफुरफुर तविगलमम्महयरिगयगाढदिगप्पहारमुनियरलतपिमलपिलाकलुणे ' कुक्षि दारितगलितनिम्मेंटितान्त्रफरफरायमाणगिलमहतविकृतगादत्तमहारचितल ठविदलविलापकरुणे-दारितात्-विदारितात् कुतेः उदरात् गलित रुधिर निभेलितानि = उदरादहिनिगलितानि च अत्राणि = 'आंतडिया' इति भापा प्रसिद्वानि येपां ते तथा, अतएक-फरफरायमाणाः = कम्पमाना: विकला. निरुद्वेन्द्रियत्तित्वेन व्याकुलाः, मर्मस्ताः कण्ठादिमर्मस्थाने हतास्तथा ओंके हाथों को काट दिया करते हैं तथा ( अवइद्ध ) चाणा से वेधे गये, (निसुट्ट) गले में हाथ डालकर हठात् जमीन पर पटक दिये गये, (भिन्न) त्रिशुल आदि के द्वारा भेदे गये एव (फालिप) कुठार आदि द्वारा फाड दिये गये-विदारित किये गये ऐसे योद्धाओं के शरीर से (पगलिय.. झरते हुए (रुहिर ) रक्तसे ( कयभूमिकद्दमचिखिल्लपहे) जहा की भूमिम कीचड मच रही है और इसी से नहाके मार्ग चिकने हो रहे हैं तथा (कुच्छिदालिय)विदारित हुए उदरसे जिनके (गलिय) खून बहरहा है और (निम्मेलियत) आतें भी जिनकी पेटसे बाहिर निकलआई हैं, इसी कारण जो (फुरफुरत ) कप रहे है और (विगल ) विकल हो रहे है एस योधा कि जिन पर ( मम्मयविगयगाढदिपणप्पहार ) क्रोध के आवेश योद्धाम से मन थ ही ना , तथा "अबइद्ध" माथी वाघायेगा "निसुदृ" गामा १५ लावीन पू भान ५२ पटायेa, "भिन्न" त्रिशूज मालिश हायेसा, मने “फालिय" ५२मी माहिरा याशनामेस, योद्धामाना शरीरमा “पगलिय" पडता "रुहिर" सोडीथी कियभूभिकदमचिसिल्लपहे" orit જમીનમાં કીચડ થ5 ગયું છે, અને તે કારણે જ્યા માર્ગ લપસણે થી ગયા છે, તેમ "कुच्छिदालिय" मना विद्यारित येस माथी "गलिय" ही पडी २धु अने“निम्मेलियते " मना मात२७. पशु पेटमाथी मडा नीजी ५300 मे १ २ २ " फुरफुर त" पी २था छ, भने “विग" ०॥ थJ गया, मना ५२ “मम्मयविगयगाढदिग्णप्पहार" औधना मादेशमा Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशिंनी टाका स० ३ ० ७ सयामरणनम् विकृतः क्रोधावेगेन विचित्ररूपः गाह'=मर्मभेदी दत्तः शत्रुभिः महारो येपा ते तथा, अत एन मूच्छिता: मृर्जा प्राप्ता', लुठन्त' = भूमी विलुठन्त , विद्वला:व्याकुलाच तेपा विलापा'=' हा दवावयमि'-त्याधाकन्दशब्दाः, तै. फरुणोदयाजनको यः स तया वत्र, पुनः कीदृशे ? इत्याह-' हयजोह-ममत तुरगउद्दाममत्तकुनरपरिसक्रियजण-णिबुकणिज्झय-भग्ग-रहवर - नसिरसरिकले वरारिण-पडियपहरण-विकिन्नाभरणभूमिभागे' हतयोधभ्रमत्तुरङ्गोदाममत्तकुञ्जरपरिशशितजननिमूलछिन्न-नजभग्नस्थवरनप्टगिरः करिसलेवरामीणपतितपहरणविकीर्णामरणभूमिभागे' तन-'हयजोहभमततुरग'-हतयोधभ्राम्यत्तुरगः-हताः मृता योधा अश्वारोहा सवार इति भापा प्रसिद्धा येपा, तथाभृता भ्राम्यन्तः इतस्ततो धावन्तः तुरगाः अश्वा यस्मिन् स तथा, 'उटाममत्तकुजरपरिसक्रियजण'-उद्दाममत्तकुञ्जरपरिशकितनना-उदाममत्तकुञ्जरेभ्यो निरङ्कुमदोन्मत्तहस्तिभ्यः परिश द्वितावशङ्काकुला जना यस्मिन् स तथा, 'णि चुकडिण्णज्झयभग्गरवर 'निमूलडिन्न ध्वजभग्नरथारा.-तत्र निमूला -मूलरहिताः नजदण्डेभ्यो निस्सृता से विचित्ररूप गाढ मर्म भेदी प्रहार शत्रुओं द्वारा दिया गया है और इसीसे जो (मुच्छिय ) मृर्जा को प्राप्त होकर (मलत) भूमि पर इधर से उधर लोट रहे हैं एव (विन्भल ) व्याकुल होकर (विलाय) " हा मैं मारा गया " इत्यादिरूप से विलाप कर रहे है ऐसे योद्धाओं के विलापों से जो (कलुणे ) दयाजनक बना हुआ है तथा जो (यजोहभमनतुरग ) अपने सवारो के मर जाने से इच्छानुसार इधर उधर घूमते हुए घोड़ों से युक्त हो रहा है, तथा जहाँ ( उद्दाममत्तकुजरपरिसकियजणे) उत्कट मदचाले हाथियों से, वध की शका के भय से मनु प्य व्याकुल हो रहे हैं (णिचुकछिपणज्झयभग्गरहवरे) जहा निर्मूल दडा रहित और छिन्न-फटी हुई ध्वजाएँ और भग्न हुए श्रेष्ठ रथ पडे है આવેલા શત્રુઓ દ્વારા વિચિત્ર રીતે ભયકર મર્મભેદી પ્રહાર કર્યો છે અને તે जारणे शो "मुच्छिय" भूnि ने “रुलत" भान २ माम तेम मागोटे छे भने 'विमल" यान मन छ, 'विलाव " १२ । મને મારી નાખે ” ઈત્યાદિ પ્રકારે વિલાપ કરે છે, ચોદ્ધાઓના વિલાપથી જે "कलुणे" यानि मनेस , तवा २ "हयजोड्भमततुरग" पोताना पारी भी पाथी छानुसार माम तेभ धूमता घोसायीरेयुत छ, या त्या "उद्दामम तकुजरपरिसझियजण " महोन्मत्त हाथीमावा। उयरा पाना लयथी भाना व्या मनेा छ, “णिमुकठिण्णज्झयभग्गरहवर " या नि ६६ २डित Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ प्रश्नध्याकरण भूमिकदमचिविखल्लाहे ' अपपिद्धनिमुद्रभिन्नफालितप्रगठितरुपिरकतभूमिकर्दमवि खिल्लपये तर अपरिद्धा माणादिमि , निमूटा-निपातिताःगहस्तादिमिः, भिन्नाः त्रिशूलादिभिः फलिता: स्फाटिता' विदारिवाथ कुठारादिभिये, तेभ्य. मगलितन =क्षरितेन रुधिरेग कृता-जातो यो भूमो-पृथिव्या पर्दमस्तेन चिलिचि आः पन्थानः = मार्गाः यत्र स तथा तत्र, 'फुच्छिदालियगलियनिम्मेलियतफरफर तरिगलमम्महयरिगयगाढदिगप्पहारमुनियमलतम्मिलवियफलणे ' कुक्षि दारितगलितनिलितान्त्रफुरफुरायमाणगिलमर्महतविकृतगाहदत्तमहारमून्तिल ठद्विदलविलापकरुणे-दारितात विदारितात् कुः उदरात् गलित रुचिर निन् लितानि = उदरादहिनिगलितानि च अनागि = 'आंतडियाँ' इति मापा प्रसिद्वानि येषां ते तथा, अतएर-फुरफुरायमाणाः = कम्पमानाः विकला:-निरुद्वेन्द्रियत्तित्वेन व्याकलाः, मर्महता:-कण्ठादिमर्मस्थाने हतास्तथा ओंके हाथों को काट दिया करते है तथा ( अवहद्व) याणा से वेधे गये। (निसुट्ट) गले में हाथ डालकर हठात् जमीन पर पटक दिये गये, (भिन्न) त्रिशुल आदि के द्वारा भेदे गये एव ( फालिप) कुठार आदिद्वारा फाड दिये गये-विदारित किये गये ऐसे योद्धाओं के शरीर से (पगलिय) झरते हुए (रुहिर ) रक्तसे (कयभूमिकदमचिखिल्लपहे) जहा की भूमिम कीचड मच रही है और इसी से नहाके मार्ग चिकने हो रहे हैं तथा (कुच्छिदालिय)विदारित हुए उदरसे जिनके (गलिय) खून घरहा है और (निम्मेलियत) आतें मी जिनकी पेटसे वाहिर निकल आई है, इसी कारण जो (फुरफुरत ) कप रहे है और (विगल) विकल हो रहे है ऐसे योधा कि जिन पर ( मम्मयविगयगाढदिण्णप्पहार ) क्रोव के आवश દ્ધાઓ એક બીજાના હાથ છેદી નાખે છે. તથા ના બાણોથી વિઘાયેલા "निसुदृ" मा य सरावाने पूर्व भीन ५२ पटायेस, "भिन्न" (शुस मावासलेहायेसी, सने "फालिय" ५२मी माहिद्वारा यीश नामेत, याद्वामान शरीरमा “पगलिय" पता "रुहिर" सोहीया 'कयभूभिकदमचिखिल्लपहे" orit જમીનમાં કીચડ થઈ ગયે છે, અને તે કારણે જ્યા માર્ગ લપસણું થઈ ગયા છે, તેવા "कुच्छिदालिय" मना विद्यारित येस। २माथी "गलिय" साडी बडी २ छ भने "निम्मेलियते " मना मात२. पेटमाथी मडा नीजी ५३या । मे २0 2 " फुरफुर त" पी २॥ छ, भने “विग" य गया, मना ५२ “मम्महयनिगयगाढदिण्णप्पहार" अपना आवेशमा Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ - - सुदर्शिनी टीका १० ३ सू० ८ सयामवर्णनम् पूर्वोदितमेव सक्षेपेण प्रतिपादयन्नाह-'वसु ' इत्यादि । मूलम्-वसुवसुहविरुपियव्व-पच्चक्खपिउवणं परमरुद्दवीहणगं दुप्पवेसतरग-अभिवडिति-सगामसंकडं, परधणं महता । अवरे पाइक्कचौरसघा सेणावइचोरवंद-पागडियाय अडविदेसदुग्गवासी काल-हरिय-रत्त पयि सुकिल्ल-अगसयचिधपवधा परविसए अभिहणति लुडा धणस्त कजे ॥ सू०८॥ ___टीका-'वसवमुहविकपियन ' वसुवसुधाविकम्पिता इत्र-तत्र वसव =देवा वसुधा-पृथ्वी च विकम्पिता:-त्रासिता यैस्ते तथा तथैवापरे राजानः 'परवण' परधनं 'महता' कादक्षन्तः परदन्यलुब्या सन्तः 'पन्चरखपिउरण' प्रत्यक्षपिहनन-साक्षात् उमगानमिव 'परमन्दवीहणग' परमस्टभयानक अत्यन्तमचण्डभयजनक ' दुप्पवेसतरग' दुप्प्रवेशतरसम्नत्यन्तदुर्गम वीराणामपि, का कया कातराणामित्येवरियमपि 'सगामसरड' सत्रामसकट चाहनयुद्ध 'अभिनडति' अभिपतन्ति पनिगन्ति । तथा ' अपरे' अपरे ‘पाटकचोरसगा' पदातिकचौर फिर इसी बात को सक्षेप से कहते हैं-' वसुवसुह ' इत्यादि। टीकार्य-(वस्सुवहविकपियव्य) जिन्होंने देवोंको एव पृथ्वीमडलको भी कपित जैमा करदिया है ऐसे और भी अनेक राजा (परधणमहता)दूसरों के धनमें लुब्ध होकर (पच्चरखपिउवण) साक्षात पितृवन जैसे-प्रत्यक्ष में उमशान सरीखे प्रतीत होने वाले तथा (परमरुद्दयीहणग) जो अत्यन्त प्रचड एव भयजनक हो रहा हो, तथा (दुप्पवेसतरग) वीरों के लिये भी जो अत्यत दुर्गम बना हुआ हो ऐसे ( सगामसफड) गहनयुद्ध में (अभिवडति ) प्रवेश कर जाते हैं। तथा (अवरे) दूसरे भी (पाहक वेसे पातन मसितमा ९ - " सुवसुद" त्यादि सार्थ-" वसुवसुहविकपियव्य" भो हेवाने तथा पृथ्वीम ने ५ लाए पायभान वा सेवा मत ५५ अने: तो “ परवण महतो" ornना धनमा दु०५ 4ईने “ पञ्चम्सपिउरण " प्रत्यक्ष पितृपनाप्रत्यक्ष भान 24 सागता, तथा “परमरहवीहणग" रे सत्यत प्रय भने लय. लामतु साय, तथा “दुवेसतरग” वीराने भाट ५ २ पतिशय दुभ डाय सेवा “ मगाममफट " गडन युद्धमा “ अभिवड ति" प्रये ता “ अयरे" oila ५ " पाइक्कचोरसपा" पहाति३५ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभयारणसूत्रे छिन्ना धजाः, भग्नास्थवराय यस्मिन् स तथा, 'नटुमिरकरिफराकिग्ण' -नष्ट शिरः करिकलेवराकोण:-नष्टानि शिरासि येपामेतादृशा ये करिणः-दस्तिनः, तेपा यानि कलेबराणि शरीराणि तैः आकीर्णः व्याप्त', 'पडियपहाग '-पतितपहरण:पतितानि प्रहरणानि-शस्त्रास्त्रागि यम्मिन् स तथा, 'पिकियोमरग'-विकीर्णाभरण-रिकीर्णानि इतस्ततो विक्षिप्तानि आभरणानि मृतयोधानाम् जलकरणानि यस्मिन् स तथा, एतादृशो भूमिमागो यस्मिन् स तया तस्मिन् , 'नन्चतकवध पउरे' नृत्यकान्धपचुरे-तत्यन्तः कान्यास-मस्तकरहितकले परागि, प्रचुरा यत्र स तथा तन, 'भयकरसायमपरिलितगिद्वमडलभमत आयश्यारगभीरे ' भयङ्करवा यसपरिलीपमानगृध्रमण्डलभ्रमन्छायान्वकारगम्भीरे तन भ्रमताम् आकाशे पर्य टता भयङ्करमायसाना-भयकरकाकाना तथा परलीयमानाना-गतिविशे पैरुट्ठीयमा नाना नाना च यन्मण्डलममूहः, तस्य छायया योऽन्धकारस्तेन गम्भीरे घनीभूत घनान्धकारयुक्ते सग्रामे अतिपतन्ति राजान• परधनलुपा इति पूर्वेण सम्पन्धः॥७॥ (नहसिरकरिकले राकिणे ) तथा जो छिन्नमस्तकबाले हाथियों के कले वरों से व्याप्त है, (पडियपहरण ) जहा महरण-अस्त्रशस्त्रादिक इधर उधर पड़े हुए हैं, तथा (विकिण्णाभरण) मारेगये दूसरे कितनेक योधाओं के पडे हुए आभरणों से व्याप्त ऐसे (भूमिभागे) भूमिभाग वाले सग्राम में (नच्चतकवधपउरे) तथा जहाँ पर योद्धाओं के कबध (धड) प्रचुररूप में नृत्य कररहे हैं, (भयकरवायसपरिलित्तगिद्धमडल भमतछायधयारगभीरे ) तथा जो आकाश में उडते हुए भयकर कौवो की, एव परिलीयमान-गतिविशेषो से उड्डीयमान-गिद्वों की छायाजन्य अधकार से गभीर बन रहा है ऐसे सग्राम मे परधनलुन्ध बने हुए राजा लोक उतरते हैं ।। सू०७ ॥ भने अटेसी । तया मागेसा श्रेष्ठ २थे। ५७या छ “ नसिरकरिकलेवरा किण्ण" तथा २ छेहायेसा भन्तवाणा डाथासाना सेवरोथी छपाये छे, "पडियपहरण" या अस्त्र-शा सही तड ५॥ छ, तथा “विकिण्णा भरण" भरी गये। 32मा योद्धासाना साभूषणाथी रे पाये छ, “भूमि भागे " सेवा भूमिमा वा नाममा "नच्चतकरधपउरे" तथा न्या योद्धामान ५ मतिराय नृत्य ४१ २९स , “भयकरवायसपरिलिच गिद्ध मडलभमतछायधयारगभीरे" तथा २ माशमा त लय ३२ मामानी તથા પશ્લિીયમાન-વિશિષ્ટ ગતિથી ઉડતા ગીધની છાયાને કારણે ઉત્પન્ન થયેલ અધિકારથી ગભીર દેખાય છે, એવા સ ગ્રામમાં પરધન પ્રાપ્ત કરવાની લાલસા વાળા રાજાઓ ઉતરે છે ! સૂવા Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ३ सू० ९ यदत्तादानविषयमागरनिरूपणम् ओखुभियलुलियखोखुम्भमाणपक्खलियचलियीवउलजलचक्कवालमहानइवेगतुरियआपूरमाणगभीरविउलआवत्तचंचलभममाणगुप्पमाणुच्छलतपच्चोणियतपाणिय - पहावियखरफरुसपयंड वाउलियसलिलफुटतवीचिकल्लोल सकुल, महामगरमच्छकच्छभोहारगाहतिमिसुसुमारसावयसमाहय समुद्घायमाणयघोरपउ।।९॥ टीका-अपि च परद्रव्यहरानराः 'रयणागरसागर च ' रत्नाकरसोगर च% रत्नानामाकर:-निरिभूतो य' मागर समुद्रस्त भविश्य तन्मध्ये गत्वा पोतान् घ्नन्ति, इत्यग्रेण सम्बन्ध , कीरा सागरम् ? इत्याह-' उम्मीसहस्समालाकुलविगयपोयकलफलतफलित' ऊर्मिसरत्रमालाकुलरिगतपोतकालकळकल्तिम् - उर्मीणां वरगाणा सहस्रमालाभि =सहस्रसख्यकपक्तिपिराकुलत्वात् विगताः- भग्नाः ये पोताः नौकाः 'जहाज-'स्टीमर' इति प्रसिद्धा तेपा-तत्र स्थिताना व्यापारि 'अदत्तादान किस प्रकार किया जाता है ? ' अब सूत्रकार इस पात को समझाते है-' रयणागर ' इत्यादि । टीकार्थ-पर के द्रव्य को हरण करने में तत्पर बने हुए मनुष्य चोर (रयणागरसागर च) रत्नो के निधिभूत समुद्र में घुस कर केउसके मध्य में जाकर के जहाजो को नष्ट कर देते हैं, इस प्रकार का सयध यहा लगा लेना चाहिये । अब सूत्रकार समुद्र का वर्णन करते हैं(उम्मीसहस्समालाकुलविगयपोयकलकलतकलित ) हजारों लहरों के समूह से आकुल होने के कारण जहा पर व्यापारी आदि जनो के जहाज नष्ट हो जाते है, और इसी कारण उन जहाजों पर बैठे हुए व्यक्तियो “અદત્તાદાન–ચેરી કયી રીતે કરાય છે” એ વાતન સૂત્રકાર હવે સમ छ-" रयणागर" त्या ५२धन पाने मातु२ मनसा मनुष्य-यार " रयणांगरसागर च" રત્નોના નિધિ એવા સમુદ્રની વચ્ચે જઈને જહાજોને ડૂબાવી દે છે, એ સબ ધ અહી જોડવાનો છે--હવે સૂત્રકાર સમુદ્રનું વર્ણન કરે છે " उम्मीदहसमालाकुलविण्यपायकल कलतकलित " तरी भाभाना સમૂહના મણને કારણે જ્યા વ્યાપારી આદિ લેકના જહાજે નાશ પામે છે, અને તે કારણે તે જહાજમાં બેઠેલા લેકેના કકળાટથી જે યુક્ત બનેલ છે, Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ प्रध्याकरणस्ने सड़ाः पदातिरूपचौरसमूहाः, 'सेणापाचोरवदपागडिया य' सेनापतिचौरसन्द प्रकर्षका सेनापतिचौरसमृहयुक्ताय 'अनिदेसदुग्गवामी' अटवीदशदुर्गवा सिना अटवीदेशे-अरण्यदेशे यानि दुर्गाणि जलस्थलरूपाणि दुर्गमम्यानानि तेषु निवासिनः कारहरियरचपीयमुबिल्लभणेगसयचिंधपट्टाधा ' कालहरितरक्तपीत शुहानेकरातचिन्हपहनन्धाः = कृष्णहरितरक्तपीतशुक्लपर्णा अनेकगतसरयका ये चिहपट्टास्तेपा धम्मस्तकादौ पन्धन येपा ते तया' घगस्स' धनस्यपर द्रव्यस्य 'पज्जे' कार्य अर्थाय 'लुद्धा'लुन्धा लोलुपाः सन्तः 'परविसर' परविषयान् अन्यभूपदेशान् 'अभिहणति' अमिघ्नन्ति पिनाशयन्ति ॥ सू०८॥ पुनरदत्तादान कथ कुर्वन्ति ? तदाह- रयणागर' इत्यादि मूलम्-रयणागरसागर च उम्मीसहस्तमालाऽऽकुलविगयपो यकलकलतकलितं, पायालकलससहस्सवायवसवेगसलिलउद्धः म्ममाणदगरयरयधयार, वरफेणपउरधवलपुलपुलसमुट्टियाट्टहास, मारुयविक्खुन्भमाणपाणियजलमालुप्पलहुलिय अवियसमतचोरसघा) पदातिरूप चौरसमूह कि जिसमें (सेणावह चोरवदपाग ड्रिया य) सेनापति एव चौरों का जत्था एकत्रित रहता है, तथा (अड वीदेसदुग्गवामी) जो जगल के बीचमे जितने भी प्रायः दुर्गमस्थान होते हैं-चाहे वे जलरूप हो या थलरूप हो-उनमे रहते है तथा ( काल हरियरत्तपीयलुकिल्लअणेगसकचिंधपयधा) कृष्ण, हरित, रक्त, पति, शुक्ल, वर्णवाले सैकड़ों चिलपट्टों को जो अपने मस्तक ऊपर बाधा करते हैं ऐसे वे पदातिरूप चौर समुदाय (धणस्स कज्जे ) पर के द्रव्य में (लुद्धा) लोलुप होकर (परविसए ) अन्य राजाओ के देशो को (अभि रणति ) विनाश करते है । सू०८॥ या२ समृड उभा " सेणावइचोरसदपागढिया य" सेनापति माने याराना समूड सत्र २९ छ, तया " अडवीदेसदुग्गवासी ॥२ सनी पश्ये रखा દુર્ગમ સ્થાને હોય છે પછી તે જળરૂપ હોય કે સ્થળરૂપ-તેમા રહે છે, તથા " कालहरियरत्तपीयमुक्लिअणेगसयचिंधपवधा " , lal, सात પીળા, સફેદ આદિ રંગની સેકડો પટ્ટીઓને જે પિતાના મસ્તક ઉપર બાંધે वो पहाति-पगाणेा-यार समुदाय " धणस्स कज्जे" ५२धनमा 'लुद्धा" साबु५ थईने “परविसए" अन्य सामान शान " अभिहणति " વિનાશ કરે છે કે સૂ૮ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० ९. अदत्तादानविषयसागरनिरूपणम् २९ पक्खलिय - चलिय-विपुलजलचक्वाल-महानईवेग-तुरिय आपूरमाण-गभीरविपुल-आवत्त-चचल-भममाण-गुप्पमाणु-च्छलत-पन्चोणियत - पाणिय-पधाविय-खर-फरुस-पयड-बाउलिय-सलिल-फुट्टत-नीचि-कलोल-सकुल' समन्ततः क्षुभितलुलितचोलुम्यमाणमस्खलितचलितपिपुलजलचक्रयालमहानदीवेगत्वरितापूर्यमाणगभीरविपुलावर्तचञ्चलभ्रमगोप्यमानोच्छलत्पत्यवनिटत्तपानीयप्रधावितखरपरुपप्रचण्डव्याकुलितसलिलस्फुटद्वीचिकल्लोलसङ्कुलम् , तर 'समतोसुभिय' समन्ततः क्षुभित-पननाऽऽघातेन सर्वतो व्याकुलित 'लुलिय' लुलित च तटप्रदेशमाप्त तथा 'खोसुब्भमाण' चोक्षुभ्यमाणम्-अतिशयेन पुन' पुनर्वा महामत्स्यादिभिर्व्याकुलीक्रियमाण 'परखलिय' मस्खलित = पर्न तादीना महाशिलादिप्वाघातेन स्खलित पश्चात् ' चलिय' चलित-स्वस्थानाद् गमन प्रवृत्त 'पिउल ' विपुल-विस्तीर्ण 'जलचकवाल' जलचक्रवाल-जलसमूहः यत्र ताः - क्षुभितलुलित चोक्षुभ्यमाणप्रस्खलितचलितविपुलजलचक्रवालास्तथा विधाश्च या ' महानईवेग' महानद्याः गगायमुनाधास्वासा वेगैः 'तुरिय' त्वरित =शीत्रम् ' आपूरमाण' नापूर्यमाणो यः सागरः स तथा। गभीरा आगाधाः विपुला:-विशालाः ये 'आवत्त' आवर्ताः चक्राकारजलभ्रमाः तथा चञ्चल यथास्यात्तथा 'भममाणा' भ्रमन्ति 'गुप्पमाणा' गोप्यमानानि-व्याकुली भान्ति से चारों तरफ क्षुब्ध हुआ (लुलिय) तट प्रदेश को प्राप्त हुआ-तटतक पहचा हआ (खोखुन्भमाण) महामत्स्यादि जलचर जन्तुओ से व्या कुल किया गया (पक्खलिय) पर्वतादि की महाशिवाजों आदि के आघात से स्खलित हुआ फिर (चलिय) चलित-स्वस्थान से चलित हुआ (विउला ) विस्तीर्ण (जलचकवाल ) जलसमृह जहां है ऐसी (महानईवेगो) गगा यमुना आदि महानदी के वेगो से (तुरिय ) त्वरित-शीघ्र (आपरमाण) जो भरा जा रहा है। तया जो (गभीर) अगाध (विउल) विशाल (आवत्त) ओवों - (चक्राकार जलभ्रमणों) से तथा ( चचल ) चपल ( भममाण) घूमते हुए (गुप्पमाण ) व्याकुल हुए यामेर क्षुध थने “ लुलिय" प्रदेश सुधा पहायान “सोक्खुम्भमाण" भलामत्स्याय२ ७ २१ व्या रायेद "पपलिय" ताहिनी भहाशितासी माहिना माघातथी मलित थने ५७ " चलिय" यलितस्वस्थानथी यसित ने “ विउल" विस्तीf “जलचक्वाल" समूड rD वी 'महानईवेगो' ॥ यमुना माहि भानही माना गया 'तुरिय' उपथी 'आपूरमाण' मरा २९८ छे तथा 'गभीर' अ॥ध 'विरल" विश " आवत्त" माथी तथा "चचल" या "भममाण" घूमता Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ प्रभृतीनां फलकखेन= कोलाहछेन फलित = युक्तम्, 'पापालक उससहरु सवायवसवेगसलिलउद्गम्ममाणदगरय रयधयार ' पातालकलशसह नाव शोग सलिलोद्वम्पमा नोदकर जोरयाऽन्धकार = वन 'पायान्कन्ससहम्स' पावालकलशाना यानि सहस्राणि ते 'वायसंवेग' पादायुरशाद बेगयुक्त यत् 'सलिलउद्धमादगरयर यधयारे' तन सल्=िमुद्र वस्मादुद्रम्यमानम् उच्छलद् यदुदकर= जलविन्दुस्तस्य रयो वेगस्तेनाऽन्धकारो यत्र स तथा तम्, 'परफेणपरधवलपुल पुलसमुट्टियाहहास ' वरफेन मचुरधवलपुल वृत्थिताहास = वरफेनः = = अतिस्वच्छः फेनः ' समुद्र झाग ' इति प्रसिद्ध स प्रचुरो धनल' = श्वेतवर्णः 4 'पुलपुल' इति निरन्तर समुत्थित = उद्गत स एन अट्टहासो यत्र स तथा त फेन हासयोः शुक्लत्वेन साम्याद् रूपकालङ्कारेण निरूपितम् । 'मारुयविक्तुम्भमाण पाणिय' मारुतविक्षोभ्यमाणपानीय मारुतेन=नायुना विक्षोभ्यमाणम् = आलोच्यमान पानीय यत्र स तथा त 'जलमालुपहलिय ' जलमालोत्पलहुलिय= जलमालाना =नीरतरङ्गाणामुत्पलः=समूह ' हुलिय' शीघ्र = पुनः पुनस्तरङ्गान्तरमुत्पद्यमान यत्र स तथा त ' अविय' अपि च 4 समत ओक्सुभिय- लुलिय~ खोक्सुभमाणके कल कल शब्द से जो युक्त हो रहा है, तथा ( पायाल कलससहस्स) सैकडों पाताल कलशो के ( वायुवसवेग ) यु के सयोग से वेगयुक्त बने हुए (सलिल उद्धम्ममाणद गरयरयधयार ) जल की उछलती हुई बून्दो के समुदाय से जो अधकार युक्त जैसा बना हुआ है, (वरफेणपर-धवल-पुलपुल-समुट्ठियाहास) जो अपने स्वच्छ प्रचुर धवल वर्ण वाले फेन से मानों निरन्तर हँस ही रहा है, तथा (मारुयविक्खुन्भमा णपाणिघ) वायु से जिसका जल आलोड यमान हो रहा है, तथा (जल मालुप्पलहुलिय) जिसमें पानी का समूह जल्दी से दूसरी तरंग उत्पन्न कर रहा है, (अवि ) तथा जो (समतओ खुभिय) पवन के आघात 66 " वायुनी તથ્ય पायाल कलस सहस्स" सेडो पाता उजशोना " वायुवसवेग સચેાગથી વેગયુક્ત બનેલ "" " सलिलउद्धम्ममाणदगरयस्यधयार જળના ઉડતા मिन्दुभोना समुहायथी ने अधज़र युक्त मनेस छे, " वरफेण-पउर-धवल पुल पुल - समुट्ठियाट्टहास " ने पोताना स्वच्छ भने अत्यंत सह रंगना ीशु व જાણે નિસ્ તર હસી રહ્યો છે, તથા मारुयविक्खुच्भमाणपाणिय " वायुथी જેનુ પાણી કપી રહ્યું છે ગતિમાન અન્ય છે તથા 16 << જેમા પાણીના સમૂહ જલ્દીથી એક हरी रहेस छे, " अविय તથા જે जमालुप्पलहुलिय" તરગમાથી મીનુ તર ગ~( માજી ) ઉત્પન્ન समतओखुभिय" पवनना साधातथी " 66 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ सुदर्शिनी टीका अ० ३० ९ अदत्तादानविषयसागर निरूपणम् गर-मच्छ- कच्छ-भोहारगाह - तिमि सुसुमार - सावय- समाहय समुद्धायमाणयपूर - घोरपडर' महाम करमत्स्य कच्छ पोहारग्राहतिमिशिशुमारश्वापदसमाहतसमुद्घा - वत्पूरघोरमचुर महान्तो मकराः, तथा मत्स्या कच्च्पाथ ' उहार ' इति जलचरविशेषाः ग्राहास्तिमयः शिशुमारा धापटका सर्वे जलचरविशेषा ते च ते समाहताः=परस्पर सङ्घर्षं प्राप्ताः समुद्घावतः अन्यान् सस्मान्निर्नलान् जन्तून् हन्तु धावन्तो ये पूरा : समुदाया ते च ते घोराः = भयङ्कराः मचुराः यस्मिन् स तथा तमेवविध महासागर धनार्थं गत्वा घ्नन्ति पोतानिति च पक्ष्यमाणेन सम्बन्ध ॥९॥ पुन की सागरमित्याह – ' कायर ' इत्यादि । मूलम्-कायरजणहिययकंपण घोर मारसंत महम्भयं भयंकरं पडिभय उत्तासणगं अणोरपार आगास चेव निरवलव उप्पा घूमते रहते हैं जिससे वह व्याकुल जैसा होता रहता है, आकाश में उछलता रहता है, और पुनः ऊपर से नीचे आ जाता है । तथा जो शीघ्र उद्भूत वेगातिशय से अतिकर्कश, प्रचंड, व्याकुलित-मयित किया है पानी जिन्हों ने एव परस्पर संघर्ष को प्राप्त होकर विच्छेद को प्राप्त हुई ऐसी लहरों से सकुलित बना रहता है, (महामगरमच्छकच्छभोहारगाह तिमिसु सुमारसावयसमाझ्यसमुद्घायमाणपूरघोरपडर ) तथा बडे २ मकर, मत्स्य, कच्छप, उहार, ग्राह, तिमि, शिंशुमार, श्वापद, आदि जलचर जन्तुविशेष जिसमें परस्पर संघर्ष को प्राप्त होते रहते हैं और अपने से निर्वलों को मारने के लिये सदा जिसमें दौड़ते रहते हैं ऐसे महासागर में धन की लालसा से जाकर चोर लोग जहाजों को नष्ट कर डालते है || सू०९ ॥ થઈને વારવાર આમ તેમ ફર્યાં કરે છે જેથી તે જાણે વ્યાકુળ રહે છે, આકાશમા ઉછળતુ રહે છે અને ફરી પાછુ નીચે આવીને પડે છે તથા જે શીધ્ર ઉત્પન્ન થયેલ અતિશય વેગને લીધે અતિ કર્કશ, પ્રચ ડ, વ્યાકુલિત, પાણીનુ મ થન કરનાર, અને એક બીજા સાથે અથડાઇને વિચ્છેદ્ય પામેલ મેાાએથી વ્યાસ રહે छे " महामगरमच्छरुच्उभो हारगाह तिमिसु सुमार सावयसमाइयसमुद्घायमाणपूरघोरपउर " तथा भोटा भगरौ, भत्भ्य, अथमा, उड्डार, आड, तिभि, शिशुभार, श्वाढ, આદિ જળચર પ્રાણી જેમા પરસ્પર અથડામણુમા આવ્યા કરે છે, અને પેાતાના કરતા નિખળને મારવાને માટે સદા દોડતા હાય છે, એવા મહાસાગરમા જઇને ચારલેાકે ધનની લાલચથી જહાજોને નાશ કરે છે ! સૂ૯ ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० recorder 1 : 1 'उच्छलत उच्छलन्ति आकाशे उत्पवन्ति पुनः पचोणियत' मत्लवनिवृत्तानि अधोगच्छन्ति च यानि ' पाणिय' पानीपानि पाणिनी या यत्र स तथा 'पभाविय' प्रधाविताः - शीघ्र गताः 'सरफरूस 'सररूपाः = गातिशयाद अतिकर्कशाः ' पयड' प्रचण्डा:= दारुणा 'वाउलियसलिल' व्याकुलित सलिगः न्व्याकुलीकृतानि उन्मथितानि सलिलानि जानि येस्ते तथा 'फुट्टत ' स्फुटन्त परसर सङ्घ प्राप्य विच्छेद गच्छन्त ये पोसल बीचयः तखाः कल्लोला:-महातरङ्गास्तेः सहठोय स तथेति पूर्वेपा कर्मधारयस्त तथाविध 'महासा (उच्च्छलत) आकाश में उछलते हुए (पच्चोणियत ) फिर नीचे गिरते हुए (पाणिय) पानी अथवा प्राणी जिन में है ऐसी, तथा (पथाविय) शीघ्रता से उठी हुई ( खरफरुस ) अतिवेग से अत्यन्त कठोर (पयड) दारुण - भयकर अतएव (चाउदियसलिल ) जल को मथित जैसा कर दिया ऐसी, तथा (फुहत ) परस्पर के सघर्षसे विच्छिन्न -जुदी जुदी हुई ऐसी (वीचिल्लोल) छोटी पड़ी तरगों से ( संकुल ) व्याप्त ऐसे, समुद्र को, अर्थात् जो गंगा यमुना आदि नदियों के वेगो से कि जिनका विपुल जल चक्रवाल - समूह पवन के आघात से सर्वतः व्याकुलित होता रहता है, और तटमदेश तक आता रहता है, तथा महामत्स्य आदि जलचर जानवर जिसे अत्यत चचल घनाते रहते हैं, एन जो पर्यत आदिकों की महाशिलाओं पर आपायुक्त होकर अपने स्थान से आगे को बढ़ता रहता है, तथा जो गंभीर एव विपुल आवर्ती से सदा व्याप्त बना रहता है, तथा जिसमें चचल होकर पानी अथवा प्राणी चार २ इधर से उधर આકાશમા ઉછળતા " पच्चोणियत " मने श्री पाछा नीचे पडता " पाणिय " पाणी अथवा नेमा प्राणी छे, मेवा " पधाचिय " अडपथी उत्पन्न थता, 26 "" 66 गुप्पमाण "7 उच्छल त વ્યાકુળ તથા 66 ," खरफरुस " अतिवेगने अरणे अति રાય કઠોર અને વ पय ड દારુણુ હાવાને કારણે " वाउलियसलिल " पाशीनु મન્થન કરાતુ હાય એવા, તથા “સ” એક ખીન્ન સાથે અથડાવાથી વિચ્છિન્ન 66 થતા वीचिकलोल " નાના મોટા માજા એથી " सकुल વ્યાસ એવા સમ્રુ દ્રુને, એટલે કે જે ગગા ચમુના માઢિ નદીઓના વેગથી કે જેમનુ વિપુલ જળ ચક્રવાતના આઘાતથી સંત વ્યાકુલિત થતુ રહે છે, અને તટપ્રદેશ સુધી આવતું રહે છે તથા મહામત્સ્ય આદિ જળચર પશુએ જેને અતિશય નાન વતા રહે છે, અને જે પર્વત આદિના જે માટલાએ સાથે અથડાઇને પોતાના સ્થાનથી આગળ વધતુ રહે છે, જલ્દી ભરાતુ છે, તથા જે ગભીર અને વિશાળ વમળેાથી હંમેશા વ્યાપ્ત રહે છે, તથા જેમા પાણી અને પ્રાણી ચ ચળ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिंनी टीका अ० ३ सू० १० पुनरपिसागरस्वरूपनिरूपणम् ३०३ 'उत्तासणग' उन्नासनक-चित्तक्षोभकारकम् ' अणोरपार' अनर्वापारम्=अलब्यापारपर्यन्तं ' आगास चेव निरवलर' आकाशमिन निरवलम्बम् आधाररहित तत्र पतनि किञ्चिदालम्मनमुपलभ्यते इति भावः, उप्पाइय पवणधणियणोल्लिय उवरुवरितरगदरियअइवेग ' तथा औत्पातिरुपवनघनोदितो पर्युपरितरङ्गमाविवेगम् औत्पातिकेन = उत्पातजनितेन पवनेनचायुना= 'धणिय ' इति अत्यन्त नोदिताः प्रेरिताः उपर्युपरि-उर्बोचं ये तरङ्गास्ते च ते दृप्ता: गर्विता इव अतिवेगा=महावेगाः यत्र स तथा त उत्पातजनितपरनेन अतिवेगतरगयुक्तमतएव ' चक्सुपहमोच्छरत ' चक्षुष्पथमवणत चक्षुप्पथ= दृष्टिपथम् अवस्तृणन्तम्-आच्छादयन्त द्रष्टुमप्यशक्य किं पुनस्तर्तुमित्यर्थः, तथा 'कत्या 'कुत्रचित् क्वचित्प्रदेशे गम्भीर = अलन्ध मध्य पुनः ' निउलगज्जियगुनियनिग्यायगरुयनिवडियमुदीहनीहारिदूरसुच्चतगभोरधुगधुगतिसद्द । पिपुलर्जितगुजितनिर्घातगुरुकनिपतितसुदीर्घनि दिदूरशूयमाणगम्भीरदुगधुगितिशब्द = तत्र विपुल = विशाल गर्जित = मेवाद् बनि तथा गुजित= भय का प्रतिस्वरूप बना रहता है ( उत्तासणग) चित्त में जिसे अवलोकन कर क्षोभ हो जाता है, ( अणोरपार ) जिसका दूसरा तट अलब्ध होता है (आगास चेव निरविलन) आकाश की तरह जिसमे प्राणियो को पड़ जाने पर कोई भी आधार प्राप्त नही होता है, (उप्पाइयपवण) उत्पात जनित पवन से (धणिय णोल्लिय ) अतिशय वेगशाली होकर (उवरुवरि ) एक दूसरे के ऊपर पड़ती हुई (तरगदरिय ) गर्वित तरगों से ( अइवेगं ) अत्यतवेग हो रहा है । (चक्खुपमोच्छरत ) जिसका देखना भी अशक्य है तो फिर वहा तैरने को तो यात ही क्या है (कत्यइगभीर) कीसी २ प्रदेश में जो बहुत ही अधिक गभीर मन तथा १ " भयकर " अयनी प्रतिभूति दाग छ, “ उत्तासणग"नु अपसन शने बित्तमा सोम थाय छे, “ अणोरपार "नामी नारे। माय जाय छ-रेन पा२ पाभव। दुः४२ छ, “ आगासचेव निरवलन " माशनी मोम प्राणायाने ५ ५ ] मआधार भगत नथी "उप्पाइ य पवण" पात नित पवनथी "धणिय णोल्लिय" अतिशय देशमा मावा ने " उवरुवरि" मे मीना S५२ पता “ तर गदरिय" भवित भnसाथी “ अइवेग" मत्यात वेगयुत मानी २उस छ, “ चक्खुपहमोच्छर त" જેને જોઈ શકે પણ અશક્ય છે તે ત્યા તરવાની તે વાત જ ક્યા છે? " कत्थइगभीर " 5 5 प्रशभा २ घरी! वधारे गली२ डाय छ, Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - খালে इय पवणधणियगोल्लियउवरुवरितरगदरियअइवेगवखुपहमोच्छरंत कत्थइगभीरविउलगजियगुंजियनिग्घायगरुय. निवडियसुदीह नीहारिदूरसुच्चतगभीरधुगधुगति सदंपडिपह रुभंतजम्खरक्खसकुहडपिसायरुसियतज्जायउवसग्गसहस्ससं कुल बहुप्पाइयभूय 'विरइयवलिहोमध्वउवयादिण्णरुहिर ऽच्चणाकरणपजयजोगपययचरियं परियतजुगंतकालकप्पोवमं दुरंतमहानईवइमहाभीमदरिसणिज्जं दुरणुचरं विसमप्पवेस दुक्खुत्तारं दुरासयलवणसलिल पुण्णं असियसिय समुच्छियगेहि हत्थतरगेहि वाहणेहि अइवइत्तासमुदमज्झे हणति गतूण जणस्स पोरा परदव्वहरा नरा निरणकपाणिरवेक्खा ॥सू० १०॥ टीका-'कायरजगहिययकपण' कातरजनहृदयकम्पन-कातरजनाना - भीरुपुरु पाणा हृदयस्य कम्पन-कम्पकारक घोर भयङ्कर यथास्यात्तथा आरसन्त-शब्दाय मान-शब्द कुर्वन्त कोलाहलसङ्कलमित्यर्थः । 'महन्मय ' प्रतिभय महाभय-अत्य न्तभयजनकम् , अत एव भयङ्कर पडिभय' प्रतिभय प्रतिमाणिन भयोत्पादकम् फिर यह समुद्र कैसा है सो करते है-'कायरजण ' इत्यादि । टीकार्थ-जो समुद्र (कापरजणहिययकपण ) कायरजनों के हृदय को कॅपा देता है (घोर ) भयकर होकर जो (आरसत ) शब्दायमान होता है (महन्भय ) देखते ही जिसे लोगों को भय का संचार होन 'लग जाता है (पडिभय ) हर एक प्राणी का रोम २ जिसकी आकृति के समक्ष भय के मारे खडा हो जाता है, और इस लिये जो (भयकर) ते मभुद्र व डाय छे तेनु वधु वर्णन उरे)-"कायरजण " त्याle २ समुद्र " कायरजणहिययकपण " " घोर " अय२ ना हयने पावी छे, “घोर " लय ४२ शतरे “ आरसत"धुधवाट ४२ छ, “ मह भय " न त बना सभा सय सत्पन्न थाय छ, “पडिभय " જેને દેખાવ જોતા જ ભયથી દરેક પ્રાણીઓના રુવાટા ખડા થઈ જાય છે, Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १० पुनरपिसागरस्वरूपनिरूपणम् ३०३ 'उत्तासणग' उत्रासनक-चित्तक्षोभकारकम् ' अणोरपार' अनर्मापारम्-अलधापारपर्यन्तं ' आगाम चे निरवलर' आकाशमिर निरवलम्बम् आधाररहित तत्र पतद्भिर्न किञ्चिदालम्बनमुपलभ्यते इति भावः, उप्पाइय पवणणियणोलिय उरुवरितरगदरियअइवेग ' तथा औत्पातिकपवनघनोदितो पर्युपरितरगदृप्तातिवेगम् औत्पातिकेन = उत्पातजनितेन पवनेन वायुना= 'धणिय ' इति अत्यन्त नोदिताः प्रेरिताः उपर्युपरि-उर्बोध्वं ये तरङ्गास्ते च ते दृप्ताः गर्विता इस अतिवेगा=महावेगाः यत्र स तथा त उत्पातजनितपरनेन अतिवेगतरगयुक्तमतएव ' चक्खुपहमोच्छरत ' चक्षुष्पथमवणत चक्षुष्पय= दृष्टिपथम् अवस्तृणन्तम् आच्छादयन्त द्रष्टुमप्यशक्य किं पुनस्तर्तुमित्यर्थः, तथा 'कत्या 'कुत्रचित् क्वचित्प्रदेशे गम्भीर = अलब्ध मध्य पुनः ' रिउलगज्जियगुजियनिग्यायगरुयनिवडियमुदीहनीहारिदूरसुच्चतगमोरधुगधुगतिसद्द । विपुलगणितगुजितनिर्घातगुरुकनिपतितसुदीर्घनि दिदूरश्रयमाणगम्भीरदुगधुगितिशब्द = तर विपुल = विशाल गर्जित = मेरवद् धनि तथा गुन्जित= भय का प्रतिस्वरूप घना रहता है ( उत्तासणगं) चित्त में जिसे अवलोकन कर क्षोभ हो जाता है, (अणोरपार) जिसका दूसरा तट अलब्ध होता है (आगास चेव निरविलन) आकाश की तरह जिसमे प्राणियों को पड़ जाने पर कोई भी आधार प्राप्त नहीं होता है, ( उप्पाइयपवण) उत्पात जनित पवन से (धणिय णोल्लिय ) अतिशय वेगशाली होकर ( उवरुवरि ) एक दूसरे के ऊपर पड़ती हुई (तरगदरिय ) गर्वित तरगो से ( अइवेगं ) अत्यतवेग हो रहा है। (चक्खुपमोच्छरत ) जिसका देखना भी अशक्य है तो फिर वहा तैरने को तो यात ही क्या है (कथइगभीर) कीसी २ प्रदेश में जो बहुत ही अधिक गभीर मन तथा ४ " भयकर " अयनी प्रतिभूति सारी छ, “ उत्तासणग" रेनु अपसाउन ४शन वित्तमा क्षोल थाय छे, " अणोरपार "ना जीले डिना। भप्राय जाय छ-रेनो पा२ पाभवा दु०४२ छ, “आगासचेव निरवल्य " આકાશની જેમ જેમાં પ્રાણીઓને પડી જતા કોઈપણ આધાર મળતું નથી “વફ य पवण" त्यात नित पवनथी "धणिय णोल्लिय" भतिशय सभा मावा ने “ उवरुवरि" A bilcal S५२ ५४ता “ तर गदरिय" भक्ति मेलसाथी " अइवेग"२ मत्यात वेगयुत मनी २९ छे, “ चक्खुपहमोच्छर त" જેને જોઈ શકે પણ અશક્ય છે તે ત્યા તરવાની તે વાત જ ક્યા છે! ली२ सय छ, - - - Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ प्रभव्याकरण भ्रमरगुजितमिन गुञ्जित तथा निन्ति व्यन्तरळतो महा धनिः गुरुकनि पवित-विधुद्विशेषादि सपातेन च भायमानोचनिः मुदी: अत्यर्थ निहादीमतिध्वनियुक्तो निर्णोपः दूरश्रूयमाणा-अविदरदेशादपि रूपमाणः गम्भीरो धुग धुगिति शब्दश्च यत्र स तथा त 'पडिपहरुमत-जकापरससस कुहड-पिसायरुसिय - तज्जायउपसग्गसहस्ससकुल . मतिपयरुन्यानयक्षराजसप्माण्ड पिशाचरुष्टतज्जातोपसर्गसहस्रसंफल - तर मतिपथ-मतिमार्ग रुन्यानाः पथि कानां मार्गावरोध कुर्माणा ये यक्षाः राक्षसाः कृप्माण्डाः पिगाचाच सर्ने व्यन्तरविशेपास्ते च ते रुटारोपयुक्ता स्तै तानि यान्युपसर्गसहस्राणि-उपद्रवसह स्राणि तैः सकलान्याप्तो यः स तथा त 'चहणाइयभृय ' वत्पातिकभूतबहन्यौत्पातिकानि-उत्पातभवानि दुखानि भूतानि यन स तथा त 'विरइय होता है। तथा (पिउलगन्जिय गुजिय) जिसका मेघ की तरह विशाल गर्जित एव भ्रमरों के जैसा विशाल गुजित, (निग्घाय) निर्घात-भ्यन्तरों की ध्वनि, तथा (गरुयनिवडिय) विजली आदि का जो इसमें गिरना होता है उस समय निला हुआ जो अत्यन्त निहोदा प्रतिध्वनि युक्त विशेष निर्घोप ( दरसुच्चा) दर से सुनाई देने वाले (गंभीर ) गम्भीर (धुगधुगति ) 'धुग युग' ऐसा शब्द, ये (सह) शब्द हैं जिसमें, तथा (पडिपहरुभत-जक्ख-रक्खस-क्रुहड-पिसायरुसिय-तजायउवसग्गसहस्ससकुल) जो रुष्ट होकर पथिको के माग का अवरोध करने वाले यक्ष, राक्षस, कूष्माण्ड (व्यन्तरविशेषदेव) एव पिशाचों के हजारों उपसर्गों से सदा व्याप्त रहता है (बहूप्पाइय भूय) तथा जिसमें जीवो को अनेक उत्पातजन्य दुःखों का साम्हना तथा “विउलगज्जियगुजिय" र मेघना वा माटी ना रे छ भने प्रम। रेवा वि गुज२१ ४२ छ, “निग्घाय" निघldव्यन्तन। भापनि तथा “गरुयनिवडिय" पीजी मालतमा ५ त्यारे तमाथी नीता निर्हादी-प्रतिध्वनि युत निषि, " दरसुचत " रथी सल तो “गभीर " गली "धुगधुगति " " धुगधुश" व मावार, माई "सह " शहरमा समाय छे तथा “ पडिपहरुमत-जक्ख-रक्खस-कुहरु -पिसाय-रुसिय-तज्जाय उवसग्गसहस्ससकुल " २ २८ थान भुसाशना ભાગને અવરોધ કરનારા યક્ષ, રાક્ષસ, કુષ્માડ, (વ્યન્તર વિશેષ દેવ) અન્ય पिशयन SM साथी सहा व्यास २२ छ, “बहुप्पाइयभूय" तथा मा वान मने Sund न्यानो सामना ४२ ५४ छ, “ विरइय Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०३ सू० १० पुनरपिसागरस्वरूपनिरूपणम् ३०५ बलिहोमधूवउवयारदिण्णमहिरचणाकरणपययजोगपययचरिय । विरचितालि होमधूपोपचारदत्तरुधिराचनाारणप्रयतयोगप्रयतचरित = तत्र विरचित्तः = कृत वलिना-द्रव्योपहारेण होमेन अग्नी हवनेन पेन-धूपेनचोपचारो पैस्ते तथा दत्त रुधिर समर्पित शोणित यत्र तदेवभूत यदर्चनाकरण तर प्रयता:-तत्परा ये ते तधा, योगमयताश्व-पोतादिभिर्व्यापारे निरता ये ते तथा तैः तत्रस्थित चरितः सश्रितो यः स तथा तमेतादृश सागरम् । पुनः कीदृश' मित्याह-'परियतजुगतकाल कप्पोवम' पर्यन्तयुगान्त गलकल्पोपम-पर्यन्तयुगस्य-सकलेपु युगेषु मध्ये चरमयुगस्य योऽन्तकालः प्रलयकाल स एव कल्पस्तेनोपमा सादृश्य यस्य स तथा त 'दुर तमहानई-नईवा-महाभीमदरिसणिज्ज' दुर तमहानदी नदीपतिमहाभीमदर्शनीय-दुरन्ताः दुप्पारा या महानद्यः गङ्गापानद्यश्व-अन्याः सामान्याकरना पड़ता है (विरइययलिहोम-धूब-उवयार-दिण्ण-रुहिर-च्चणाकरण-पयय-जोगपययचरिय) तथा (विरइयरलिहोमधूवउवयार) नौकाओंके अटक जाने पर जहा जहाजों से व्यापार करने में लगे हुए मनुप्यों द्वारा-सार्थवाहो द्वारा-विविध प्रकार की भेटे दी जाती है, अग्निमें धूप जलाया जाता है- तथा (दिण्ण हिरच्चणाकरणपयय) रुधिर का समर्पण रूप पूजा में लगे हुए ऐसे ( जोगपयय ) व्यापारी लोगों से (चरिय ) से वित है । तथा (परियत जुगंतकालकप्पोवम ) समस्त युगों के मध्य में चरम युग का प्रलयकालरूप कल्प के जैसा तु (दुरतमहानई नईवइ-महाभीम दरिसणिज ) (दुरत ) जिनका पार करना कठिन है ऐसी ( महानई नईवड ) गगा आदि महानदियों का तथा अन्यसाधारण नदियों को जो पति हैं, इसी कारण यह ( महाभीमदरिसणिज्ज)देखने बलिहोम-धूप-उपयार-दिण्ण-रुहिर-च्चणाकरण-पयय-जोगपययचरिय " तथा " विरइयवलिहोमधूवउपयार" नौ । सटी rat arel पडा। द्वारा વેપાર કરનાર લોકો દ્વારા (સાર્થવાહો દ્વારા) વિવિધ પ્રકારની ભેટ દેવાય છે, ममिमा ५५ मा वाम! मावे छ, तथा “दिण्णरुहिरच्चणाकरणपयय " रुधिरना सभा ३५ पूनमा सादा मेवा 'जोगपयय " व्यापारी atथी “चरिय " २ पवित छ, तथा " परियतजुगतकालकप्पोपम" रे सा युगानी पध्ये Dru युराना प्रत्या३५ (पना वो छ, “ दुर तमहानईनईवइ-महा भीमदरिसणिज्ज” “दुर त" रेने की भुश्स छ मेवी “महान ईनईवइ" मा आदि मडा नीसाना तथा vil सामान्य नहीगाना रे, पति छ, भने ते २ रे “महाभीमदरिसणिज्ज" ने भापमा सय ४२ प्र० ३९ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ प्रश्नम्याकरण स्तासा ' पह' पतिः, स च महाभीमदर्शनीयः म तथा त 'दुरणुचर ' दुःखेना नुचर्यते इति दुरनुचर 'सिमप्परेम' रिपममपेश-पिमा दुस्साभ्य प्रवेशो यस्मिन् स तथा त 'टुपसुत्तार ' दुम्योत्तार =दु सेनोत्तरण यस्य स तथा व 'दुरासय ' दुरासदन्दुप्पाप दुराश्रय दुःखटम्यानम्प 'लपणसलिपुण्ण ' लवण सलिलपूर्ण = क्षारजलभृतम् , ' असियसियसमुन्छियगेहि ' असितसितसमुच्छि तक-तत्र असिता:-कृष्णाः सिता:-शुहाच पटाः समुन्द्रितका =उपरि नद्धा येषु प्रवहणेषु तानि तथा तैः 'इत्यतरगेहिं' दक्षतरकै अन्य यानपाद्यपेक्षयाऽतिशय वेगशीलैः 'चाहणेहिं ' पाइनः स्कन्याः पाहणेः ' अवता' अतिपत्यआक्रम्प ' परदबहरा' परद्रव्यहराः पापनापारगशीलाः 'निरणुकपा' निरनु कम्पा:-कृपारहिताः 'णिरमयरखा' निरपेक्षाः अपेक्षारहिता परलोकभयरहिताः नराः जना ' समुद्दमज्झे' समुद्रम ये 'गत गत्या जणस्स 'पोते' पोतान नौकान् ' हणति ' मन्ति-विनाशयन्ति ॥ सू-१०॥ में भयकर है (दुरणुचर ) तथा जिसमें अनुचरण करना-फिरना बहुत ही आयास साध्य कठिन है । इसीलिये (विसमप्पवेस ) जिसमें प्रवेश करना बहुत कठिन होता है । (दुक्खोत्तार ) जिसका पार करना पड़ा मुश्किल होता है (दुरासय ) जो सदा दुःखदस्थानरूप है। (लवणमलिलपुण्ण ) क्षार जल से सदा भरा रहता है ऐसे समुद्र को ( असिय सिय समुच्छियगेहिं ) कृष्ण एव शुभ्रवस्त्र जिनके ऊपर बाधा गया है ऐसी (हत्थतरगेहिं ) जो अन्य यान पात्रों की अपेक्षा पानी के ऊपर बहुत जल्दी तैरती है ऐसे (वारणेहिं) नौकाओं द्वारा (अहवइत्ता) आक्रमित करके (परदवा ) परद्रव्य को हरण करने वाले (निरण कपा) निर्दयी (णिरत्यक्खा) जो अपने परभव को सुधार ने का भावना से रहित होते है ऐसे (नरा) चोर मनुष्य (समुहमञ्झे गतूण) छ, “दुरणुचर" तथा मा ५२७ मतिशय हिन छ. "विसमप्पवेस" रेभा प्रवेश ४२ घण। भुश्द छ, “दुक्सोत्तार" ने सागवा मात शय मुसि छ, “दुरासय" रे सहा म स्थान ३५ छ, “ लवणसलिल पुण्ण" २ मा पानीथी सहा २५२ २ छ, सेवा समुद्रन “ असिमसिय समुच्छियगेहि " मना 6५२ आणा मन स३६ १७ मामा मेवी “हत्य सोहि अन्य पाहुना उरता पाणी 6५२ पधारे उपथा तरे छे भया " नाम द्वारा “अइव इत्ता' भए। उशने " परदव्वहरा परधनतु २५ ४२ना, “निरणुकपा" निय भने “णिरवयम्सा' पाताना ५२०१२ सुधारवानी भावनाथी २खित मेवा 'नरा" सर सी" समुरमञ्झे Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ मुर्शिनी टीका भ० ३ सू०११ तस्फर फायनिरूपणम् पुन किं कुर्वन्तीत्याह-'गामागर० ' इत्यादि मूलम्-गामागर-नगर-खेड-कव्वड-मडव-दोणमुह-पट्टणासमणिगस-जणवए ते य धणसमिद्धे हणति, थिर हिययच्छिन्नलज्जा वदिग्गह-गोग्गहा य गेण्हति, दारुणमई निकिवा णिय हणति छिदति गेहसधि निक्खित्ताणि य हरंति, धणधण्णव्वजायाणि जणवयकुलाण निग्घिणमई परदव्वाहि जे अविरया, तहेव केइ अदिण्णादाणं गवेसमाण कालाकालेसु सचरता चितगपज्जलिय-सरसदर-दडकड़ियकलेवरे रुहिरलित्तवयण - अक्खय-खादिय-पीतडाइणिभमतभयकरे जवुयखिक्खियते घूयकयघोरसद्दे वेयालुट्टिय विसुद्धकहकहेंत पहसियवीहणग निरभिरामे अइदुन्भिगंधे वीभच्छदारसणिजे सुसाणे वणे सुण्णघरलेणअतरावण गिरिकंदरेसु विसमसावय समाउलासु वसहिसु किलिस्संता सीयायवसोसियसरीरा दड्ढच्छवीनिरय तिरिय भवसंकडदुक्ख सभारवेयणिज्जाणि पावकम्माणि सचिणिता दुल्लभभक्खण पाणभोयणापिवासिया झुझिया किलंतामसकुणिमकदमूलज किंचिकयाहारा उठिवगा उप्पुया असरणा अडवीवास उवेति वालसयसकणीय ॥ सू० ११ ॥ समुद्र के बीच में जाकर (जणस्त) मनुष्यों की (पोते ) नौकाओं को (हणति) नष्ट कर डालते हैं ॥सू० १०॥ गतूण" समुद्रनी पश्ये ४४ने " जणस्स" माणसानी “पोते " नासाना " हर्णति" नाश ४ नामे छ ॥ ९-१० ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ be - - মাধ্যমে टीका-'ते य' ते चपूर्वोक्तमयारागनाः 'गामागरनगरखेडकव्वडमडवदोणमुहपट्टणासमणिगमजणयए । ग्रागाररनगरसेटकटमडम्बद्रोणमुखपत नाश्रमनिगमजनपदान्-तत्र ग्रामः, असति बुद्धयादिगणानितिमामः, आकर:सुवर्णरजतादि धातूना खनिस्थान, नगर-अष्टादशरवर्जित, खेट-धूलिप्राकारमय, कर्नट-अल्पजननिवासस्थान, मढम्म साक्रोशद्वयनामान्तरशून्या, द्रोणमुखन जलस्थलमार्गो यत्र भवेत् तद्रोणमुस, पत्तन-सालयस्तुमाप्तिस्थानम् , आश्रमा परद्रव्य हरण करने वाले तस्करजन फिर क्या करते हैं ? सोइस सूत्र द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते है-'गामागर०' इत्यादि । टीकार्थ-(धणसमिद्धे गामागरनगर खेडकबडमडवदोणमुहपह णासमणिगमजणवण) धनधान्यादि से समृद्ध हुए ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्यट, मडय, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, निगम एव जनपद, इन सय को (ते य ) परद्रव्य हरण करने वाले चोर आदिक (हणति ) नष्ट कर देते हैं । जहा बुद्धयादिगुणों का हास होता है वह ग्राम है । सुवर्ण रजत आदि धातुओं की उत्पत्ति का जो स्थान होता है उसका नाम आकर है। अठारह प्रकार का राजकर जिसमें नहीं लिया जाता है उसका नाम नगर है। धूलिका प्राकार जिसमें होता है उसका नाम खेट है ! जिसम थोड़ेसें मनुष्य निवास करते है उसका नाम कर्वट है। चारो दिशाओम अढाई२ कोसतक जिसके आसपासमें गाव नहीं होते है उसका नाममडब है। जलमार्ग के एव स्थलमार्ग दोनों प्रकारके मार्गसे होकर जिसमें जाया जाता हो उसका नाम द्रोणमुख है। सकल वस्तुओं की प्राप्ति का जा પદ્રવ્યનું હરણ કરનારા ચારે પછી શું કરે છે? સૂત્રકાર આ સૂત્રદ્વાર त प्रगट ४२ छ-" गामागर " त्याह At-"धणसमिद्धे गामागारनगरखेडकन्बडमडवदोणमुहपट्टणासमणिगम जणवए" धनधान्यथी समृद्ध बना भाभ, मा४२, नगर, पेट, उमट भ७, द्रोणभुण, पत्तन, माश्रम, निगम मन नप से पधाना "तेय" પરધન હરી લેનાર ચેર આદિ લેકે નાશ કરે છે જ્યાં બુદ્ધિ આદિ ગુણના કે હાસ થાય છે તે ગામ છે સોનુ, ચાદી આદિ ધાતુઓના ઉત્પત્તિ સ્થાનને આકાર-ખાણ કહે છે અઢાર પ્રકારને રાજકર જ્યા લેવાતું નથી તેને નગર કહે છે ધૂળને કિટલે જ્યાં હોય છે તે સ્થાનને ખેટ કહે છે જેમાં શેડા જ માણસે વસતા હોય તે સ્થાનને કર્બટ કહે છે જેની આસપાસમા અઢી ગાઉમાં ગામ હતા નથી તેને મડબ કહે છે જ્યા જળમાર્ગ તથા સ્થળમાર્ગે જઈ શકાય છે તે સ્થાનને દ્રોણમુખ કહે છે જ્યા બધી વસ્તુઓ મળી શકે છે તે Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ तस्करकार्यनिरूपणम् ३०९ तापसनिवासः, निगमः =णिग्जननिवासः जनपदोदेशस्तान ' धणसमिद्धे ' धनसमृद्धान्=धनधान्यसम्पन्नान् ' हणति' नन्ति = विनाशयन्ति तथा ' थिरहियया ' स्थिर हृदया=अदत्तादाने निश्चलचित्ताः छिन्नलन्नाः = जातिकु दादिलज्जावर्जिताः 'दिग्गहगोग्गहा य' पन्दिग्रहगोग्रहाथ = वन्दिनः स्तुतिपाठोपजीविनस्तेपां ग्रह = ग्रहण गवा च ग्रहण चोरणमित्यर्थ, ' गेण्दति ' गृह्णन्ति = कुर्वन्ति तथा ' दारुणमई ' दारुणमतयः = घोरकर्माचरणबुद्धय ' निधि वा ' निष्कृपाः = निर्दयाच 'णिय' निज = स्वजनमपि ' इणति ' घ्नन्ति = नाशयन्ति तथा गेहसन्=ि गृहभित्तिं ' छिदति ' छिन्दन्ति । ततथ ' जणवयकुलाण' जनपदकुलानां 'निक्खि " स्थान होता है उसका नाम पत्तन है। तापस लोगों का जो निवास स्थान होता है उसका नाम आश्रम है । वणिग्जन जिसमें रहते हों उसका नाम निगम, एव देश का नाम जनपद है । इन स्थानों को लूटने वाले तथा नष्ट भ्रष्ट करने वाले ये जन (विरहिया) अदत्तादान करने में निश्चलचित्त रहते हैं (छिन्नलजा ) इन्हें जाति, कुल आदि की लज्जा कुछ भी नहीं होती है। (बदिग्गहगोग्गहा य) ये स्तुति पाठकों को लूट लिया करते है और गायों को भी चुरा लिया करते है । (दारुणमई) इनकी मत बडी दारुण (भयकर) होती है-भयकरसे भयकर कर्म करने में भी उन्हे सकोच नहीं होता है । (निक्किवा) ये सदा दया से रहित होते हैं । (णिय हणति ) अपने निजजन को भी ये जान से मार डालते हैं (गेहसधि ) घरों की भित्तियों तक को भी ये ( छिंदति ) तोड़ डालते | ( जणवयकुला ) दूसरों की रक्खी हुई - धरोहररूप में स्थापित की " સ્થાનને પત્તન કહે છે તાપસ લેાકના નિવાસસ્થાનને આશ્રમ કહે છે વણિક લેાકેા જ્યા રહે છે તે નિગમ અને દેશને જનપદ કહે છે તે સ્થાનાને લૂટनारा तथा नष्टभ्रष्ट उरनारा ते सोधे “ थिरहियया અદત્તાદાન-ચારી કરવાને भाटे दृढ निश्चयी होय छे " चिन्नलज्जा " तेभने लति उण माहिनी सडेट पशु साथ होती नथी "बदिग्गहगोग्गहाय" तेयो स्तुति श्नाशने प टूटी से छे, भने गायेोने पशु योग लय हे " दारुणमई " तेभनी लति અતિ દારુણ હાય છે-ભય કરમા ભયકર કૃત્ય કરતા પણ તેમને સકોચ થત नथी " निक्रिया " तेथेो महा घ्याहीन होय छे, “णिय हणति " पोताना સ્વજનાને પણ તેઓ મારી નાખે છે, हस " धरती हिवासाने पशु तेथे! " दित्ति " धरनी हिवासाने पशु तेथे "छिंद ति 66 जणवयकुलाण ” ખીજાએ અનામત થાપણ તરીકે 33 તાડી પાડે છે મૂકેલ "" घणघण्णव्व 6 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इट resererret m ' टीका' ते य' ते च पूर्वोक्तमपाराननाः 'गामा गरनगरखेड कब्वडमडवदोणमुपट्टणासमणिगम जणवए । ग्रामाकरनगरसेटर्वटमडम्बद्रोण मुखपचनाथमनिगमजनपदान् = तत्र ग्रामः ग्रसति उद्धघादिगुणानिविद्यामः, आकरः = सुवर्णरजतादि धातूना खनिस्थान, नगर = अष्टादशरुरार्जित, खेट = धूटिप्राकारमय, कर्बट = अल्पजन निवासस्थान, मढम्म सार्वक्रोशद्वयग्रामान्तर शून्यः द्रोणमुख जलस्थलमार्गो यत्र भवेत् तद्द्रोणमुख, पत्तन =सकास्तुमाप्तिस्थानम् आश्रम = " परद्रव्य हरण करने वाले तस्करजन फिर क्या करते हैं ? सो इस सूत्र द्वारा सूत्रकार प्रदर्शित करते है - ' गामागर० ' इत्यादि । टीकार्थ - ( धणसमिद्धे गामागरनगर खेडकटमवदोणमुहपह णासमणिगमजणवए) धनधान्यादि से समृद्ध हुए ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मड, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, निगम एव जनपद, इन सब को (ते य) परद्रव्य हरण करने वाले चोर आदिक (हणति ) नष्ट कर देते हैं । जहा बुद्ध्यादिगुणों का ह्रास होता है वह ग्राम है। सुबर्ण रजत आदि धातुओं की उत्पत्ति का जो स्थान होता है उसका नाम आकर है । अठारह प्रकार का राजकर जिसमें नहीं लिया जाता है उसका नाम नगर है। धूलिका प्राकार जिसमें होता है उसका नाम खेट है । जिसमें थोड़ेसे मनुष्य निवास करते है उसका नाम कट है । चारो दिशाओं में अढाई २ कोसतक जिसके आसपास में गाव नही होते है उसका नाम मडब है । जलमार्ग के एव स्थलमार्ग दोनों प्रकार के मार्ग से होकर जिसमें जाया जाता हो उसका नाम द्रोणमुख है । सकल वस्तुओं की प्राप्ति का जो પરદ્રવ્યનું હરણ કરનારા ચાર પછી શુ કરે છે? સૂત્રકાર આ સૂત્રદ્વાર ते अगर उरे" गामागर " धत्याहि टीडार्थ–“ धणसमिद्धे गामागारनगरखेड कन्बडमडवदोणमुह पट्टणासमणिगम जणवए ધનધાન્યથી સમૃદ્ધ અનેલ ગામ, આકર, नगर, जेट, ज्र्जंट, J भडम, द्रोण, पत्तन, आश्रम, निगम ने यह से अधाना " तेय " પરધન હરી લેનાર ચાર આદિ લોકો નાશ કરે છે જ્યા બુદ્ધિ આદિ ગુણાના હ્રાસ થાય છે તે ગામ છે સેનુ, ચાદી આદિ ધાતુઓના ઉત્પત્તિ સ્થાનને આકાર ખાણ કહે છે. અઢાર પ્રકારના રાજકર જ્યા લેવાતા નથી તેને નગર કહે છે ધૂળના કિલ્લેા જ્યા હાય છે તે સ્થાનને ખેટ કહે છે જેમા ઘેાડા જ માણુસા વસતા હોય તે સ્થાનને કટ કહે છે જેની આસપાસમા અઢી ગાઉમા ગામ હાતા નથી તેને મડમ કહે છે જ્યા જળમાગે તથા સ્થળમાર્ગે જઈ શકાય છે તે સ્થાનને દ્રોણુમુખ કહે છે જ્યા અધી વસ્તુઓ મળી શકે છે તે "" Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ ३ सू० ११ तस्करकार्य निरूपणम् तेपु-प्रदीप्तेषु यानि सरमानि रुधिरमासादिसहितानि अतएव दग्धानि ईपट्टस्मीभूतानि तानि कृपानि श्वशृगालादिभिश्चितातो निकाशितानि कलेवराणिमृतकशरीराणि यत्र तत्तथा तन श्मशाते । पुनः कीदृशे-'महिरलित्तवयणअक्खय खादियपीयडाइणिभमतभयकरे ' रुधिरलिप्तवदनाऽातखादितपीतहाकिनी भ्रमद् भयङ्करे-ता रुधिरेण लिप्तानि नदनानि = मुखानि तथा असतानि समग्राणि खादितानि मृतकाना शरीराणि तथा पीतानि रुपिराणि याभिस्तास्तथा भ्रमन्त्यश्च या डाकिन्यस्ताभिर्भयङ्करे, 'जयखिक्खियते' जम्मुकाना 'सिग्वि' इति शब्दयुक्ते तथा 'घूयकयघोरसद्दे ' घूमकृत घोरशब्दे-धूक उल्झैः कृत घोर भयङ्करः शब्दस्तेन युक्ते तथा 'वेयालट्ठियविमुद्धकहरहतपहसियपीहणगनिरभिराभे' वे तालोत्थितविशुद्धाहकहायमान हसितभीपणनिरभिरामे = वेतालेभ्यः = विकृत पिशाचेभ्यः उत्थित-समुत्पन्न निशुद्धम् अन्यशब्दाऽमिश्रित यत् कहकहायमान (सरस) रस-रुधिर आदिसे लिप्त मुर्दे (दरदन) पूरे नही जल सकने के कारण (कड़ियफलेवरे) कुत्ते एव श्रृगाल आदि द्वारा चिताओंसे बाहिर निकाल लिये जाते हैं (रुटिरलित्तवयण ) जिनके मुख रुधिरसे लिप्त हो रहे हैं, तथा (अक्खयखादियपीय) जिन्होंने समग्ररूपसे मृतक कलेवरोंको खाया है और उनकाखून पी लिया है ऐसी (डाहणीभमत भयकरे) घूमती हुई ढाकिनियोंसे जो भयकर बने हुए हैं (जवुयखिक्खियते) तथा जो गीदडों के 'खि-खि ' शब्दोंसे युक्त हो रहे है (घूयकयघोरसद्दे) उल्लू जहा घोर शब्द कर रहे हैं, तथा जहा (वेयालुट्ठिय) वेताल विकृत बनकर जोर२ से कह कहाय मार कर हँसा करते है। (विसुद्धकह कहेंत पहसिय) उनका यह हसना जहाँ अन्य और शब्दों से मिश्रित नहीं हो रहा है केवल " कह कह " ऐसी ही ध्वनि जहा उनके मुख से निकल रही है, इस२स-रुधिर माहिया भ२७।येसा मुहा, " दरदड्ढ" ५२१ जी Asal - पाथी "कड्ढियकलेवरे" त। शियाण माहि ॥ थितासाभाथी प२ या वाय छ “रुहिरलित्तवयणअम्सयसादियपीयडाइणीभमतभयकरे " " रहिरलित्तवयण " જેમના મુખ લોહીથી ખરડાયેલા છે તથા જેમણે સંપૂર્ણ રીતે મૃતશરીરે નુ लक्ष यु छ भने तेमनु सही साधु छ मेवा " डाइणीभमतमय करे" त्या समती suथी २ सय ४२ सात, “ जवुयखिक्सियते " तया रे सियाना "मि-मि" शोथी युत छ, “घूयकयघोरसदे" धुप. eru लय ४२ शम्हो ४२ , तथा न्या " वेयालुद्विय " वेतात मनान २ शाश्था भ3 भट सी २ छ, “ विसुद्धकहकहेंत पहसिय" भनु त हास्य कस्य भी કેઈ શબ્દ સાથે મિશ્રિત થતુ નથી–ડેવળ “વહ કહ” એ વિનિજ તેમના Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० व्याकरणसूत्रे ताणि ' निक्षिप्तानि =स्थापितानि 'घणघण्णदन्यज्ञायानि ' धनधान्यद्रव्यजातानि= धनधान्यसुवर्णरजतादीनि हरन्ति ' के इत्याह-ये ' परदव्यादि ' परद्रव्ये 'अवि रया ' अनिरताः=अनिटत्ता!=' निम्त्रिणमई' निर्घृणमतयः = +रुणारहिता' 'तहेब' तथैव - पूर्वोक्तमकारेण 'ई' केsपि ' अदिष्णादाण ' अदत्तादानं = स्वाम्यादि भिरवितीर्णे धन गवेपमाणा -अन्वेषमाणाः कालाकालेषु = काळेपु-सकललोकम्पव हारोचितकालेषु दिनादिलक्षणेपु तथा अकालेषु = अनुचितकालेषु अर्धरात्रादिलक्षणेषु च सञ्चरन्तः=भ्रमन्वोऽदत्तग्राहिण, 'चितगपज्जळियमरसदर दडूकड्डियकलेनरे चितकभज्वलित सरसदरदग्धकृष्टकले नरे= चितकेषु = चितासु, कीदृशेषु प्रज्वलि हुई ( घणघण्णदव्यजायाणि ) धन, धान्य, सुवर्ण रजत आदि संपत्ति को ( हरति ) हर लिया करते हैं । (परदन्याहिं अविरया ) क्यों कि ये लोग परके द्रव्य को चुराने रूप कृत्य से विरक्त नहीं होते हैं-" दूसरों का द्रव्य विना पूरे नहीं लूगा " इस प्रकार का नियम इन्हें नहीं होता है | ( निग्धिमई ) ये सर्वथा दयाभाव से रहित मति वाले होते हैं। ( तहेव केइ ) इसी तरह कितनेक व्यक्ति (अदिण्णादाण ) स्वामी आदि द्वारा वितीर्ण नही किये हुए धन धन्यादि की ( गवेसमाणा ) गवेषणा करते हुए ( कालाका लेख ) समस्त लोक व्यवहार के उचित दिन आदि रूपकाल में तथा अर्धरात्रि आदि रूप अकाल - अनुचित काल में ( सच रता ) इधर उधर घूमते हुए श्मशान शून्यगृह आदि में भटकते रहते हैं, यह सम्बन्ध यहा जोड़ लेना चाहिये । वह श्मशान आदि कैसे हैं सो वर्णन करते है जहा (चितगपज्जलिय ) प्रज्वलित चिताओं में "" 66 < जायाणि " धन, धान्य, सोलु, ३५, माहि सपत्तिने " हर वि પણ તે हरी से छे " परदव्वाहिं अविरया " अणु में ते बोडी परघनने धोखाना કૃત્યથી વિરક્ત હાતા નથી, “ બીજાનુ દ્રવ્ય તેને પૂછ્યા વિના નહી લઉ એવે તેમને નિયમ હાતા નથી निग्धिणमई " तेथे सहा घ्यालावधी रहित भतिवाणा होय छे “ तहेव केइ " मे ४ प्रभाले डेटलाई सोझे " अदिण्णादाण भाषिक आदि द्वारा अर्पन श्वामा आवेस धन धान्याहिनी " गवेसमाणा શોધ કરતા कालाका અષા લાગે માથે વ્યવહાર માટેના દિવસ આદિ ચેોગ્ય સમય અથવા મધ્ય રાત્રિ આદિ અકાલે-અચેાગ્ય સમયે આમ તેમ સ્મશાન, શૂન્યગૃહ-ખાલીઘર–આઢિમા ભટકથા કરે છે તે શ્મશાન આદિ देवा होय छे, तेनु वशुन हरे छे -"चितगपज्ज लिय" सजगती थितासोभा "सरस" ८८ "L सचरता " " ܙ " Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० ११ तस्करकार्यनिरूपणम् दग्पच्छवय नष्टकान्तय 'निरयतिरियभवसस्टदक्खसभारवेदणिज्जाणि पावकम्माणि सचिणता' नरकतिर्यग् भवसङ्कटदुग्यसम्भारवेदनीयानि पापकर्माणि सचिन्वन्तः तत्र नरकपिर्यग्भवेपु सङ्कटानि-विपमाणि दुःखानि=परमाधार्मिककृत छेदनभेदनादिरूपाणि-तेपा यः सभारः बहुलता तेन वेदनीयानि अनुभवनीयानि 'पावकम्माणि ' पापकर्माणि परद्रव्यापहरणादीनि सञ्चिन्वन्तः समुपार्जयन्तः ' दुल्लभभरखणपाणभोयणा' दुर्लभभक्षणपानभोजनाः - दुर्लभ दुष्पाप्य भक्षण अन्नादिक पान दुग्धजलादिक च भोजन-कल्यावर्त मातरशनादिक 'नाशता' 'फले वा' इनि प्रसिद्ध येपा ते तथा जतएव 'पियासिया' पिपासिताः 3 पिताः 'थझिया' युभुक्षिता: 'फिल्ता'क्लान्ता ग्लानियुक्ताः 'मसकुणिमकदमूलन किंचिकयाहारा' मांसकणवकन्दमूलयत्किञ्चित् कृताहाराः-तत्र मास प्रसिद्ध कुणप'=मृतकदेहः कन्दमूलानि तेपा यत् किश्चित् यथावसर यत्किञ्चिच्ची ) शरीर की काति इनकी नष्ट हो जाती है । ( निरयतिरियभवसकडदुक्खस भारवेयणिज्जाणि ) नरक तिर्यश्च भवों में परमाधार्मिक कृत छेदन भेदन आदिरूप विपम दुःखो के सभार से वेदनीय ऐसे परद्रव्यापहरण आदिरूप (पावकम्माणि) पापकर्मों को ( सचिणता) उपाजित करते हुए (दुलभभक्खणपाणभोयणा) ये जीव दुर्लभ अन्नादि सामग्री वाले, दर्लभदुग्ध जलादि वाळे, तथा दुर्लभ भोजनादिरूप कलेवाघाले होते हैं। (पिवासिया) इन्हें पानी तक पीने को नहीं मिलता हैं ( झुझिया ) सदा ये वभुक्षित-भूखे रहा करते हैं । (किल्ता) क्लान्तहरएक कोई इनसे ग्लानि किया करता है। (मसकुणिम, कदमूल ज किंचि कयाहारा) असमय मे अथवा यथा अवसर जो कुछ इन्हें खाने को मिल जाता है-चाहे वह मास हो, चाहे कुणप-मृतकदेह-मुर्दा हो, डान्ति नाश पामे छ “ निरयतिरियभरसकडदुक्ससभारवेयणिज्जाणि " નરક તિર્થં ચ આદિ ભેમા પરમાધાર્મિક દેવો દ્વારા કરાતા છેદન ભેદન આદિ રૂપ વિષમ ૬ ખે ના સમૂહની વેદનીય (સહન કરવા પડતા) એવા પરધન २९५ मा३५ ५।५७नु “ सचिणता" पान मा ४२छ ‘दुस्लभम क्सणपाणभोयणा" ते ७वाने अन्नाहि सामग्री धी मुश्ती प्रास थाय છે, પાણી દૂધ આદિ પીણું પણ તેમને માટે દુર્લભ હોય છે, અને નાસ્તા | माना 4 तेमना भाटे दुल डाय छे "पिवासिया" तभन पीभाट पाए ! भात नथी “ झुझिया" तसा सहा सूज्या २९ छे, " किलता" said-६२४ ०यति भो दानी ५माया ४३ छे “मसकुणिमकदमूल जकिंचि क्य हारा" अणे अथवा सणे तेभने भावा भणे छ-पछी त માસ હોય, કુણપમૃતશરીર હોય, કદમૂળ હોય- તે તેઓ ખાય છે તે ચીજો Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रनाम्याकरण शब्दायमान हसित-हसन तेन भीपणक भयानकमतएर निरभिरामम् अमुन्दर यत्तत्तया तर, तथा अदुन्भिगधे' अतिदरमिगन्धे-शटितमतकफलेवदुर्गन्ध युक्ते, 'वीभच्छदरिसणिज्जे ' वीभत्सदर्शनीये धीमत्सं-अस्थिमृतकालेवरादि युक्तखाज्जुगुप्सोत्पादक दर्शनीय दर्शन यस्य तत् तम्मिन् 'ससाणे' श्मशाने 'वणे' बने अरण्ये च तथा 'मुण्गघरलेणअतरावणगिरिकदरेस' शून्यगृहलय नाऽन्तराऽऽपणगिरिकन्दरेपु-शून्यानि गृहाणि अन्तरापणाम् अन्तरा-ग्रामादीना मर्द्धपये विश्रामार्य निर्मिता आपणागृहाम्ग्रामागायः गिरिसन्दराणि चगिरिंगहराणि, तेपु, तथा-'सिमसामयसमाउलामु रिपम श्वापदैः हिस्रमाणि मि समाकुला-व्याप्ताः तास्वेव विधासु 'वसहिमु सतिपु-यासस्थाने "कालस्सता' क्लिश्यन्ता दुःखानि प्राप्नुवन्तः, 'सीयायासोसियसरीरा' शीतातप शोपितशरीरा' = शीतैरावपैश्च शोपितानि शरीराणि येपां ते तथा 'ददृच्छवी' लिये इस विशुद्ध कह कह ध्वनि सयुक्त पिशाचों के हास्यसे जो (बीह ग) भयप्रद और (निरभिरामे ) असुन्दर बने हुए हैं (अदुन्भिगधे) अतिदुरभिगध-सड़े हुए मृतकों के कलेवरों की दुर्गन्ध से जो युक्त हो रहा है (बीभच्छदरिसणिज्जे ) तथा जो हाड मृतक कलेवर आदि से युक्त होने के कारण घृगोत्पादक दिसलाई पड़ते हैं ऐसे (सुसाणे) उन श्मशानों मे (सुण्गधर ) शून्य गृतों में, (लेण ) लयनों में-पर्वतो क निकटवर्ती पाषाणगृहो में, (अतरावण ) ग्राम आदिकों के आधे माग में विश्राम निमित्त बने हुए घरों में, (गिरिकदरेसु) पर्वत की गुफाओं में, तथा (विसमसावयसमाउलासु) हिंसक प्राणियों से युक्त (वस हिस्सु ) वसतियों में-वासस्थानों मे, (किलिस्सता) नाना प्रकार के दुःखों को सहन किया करते है। तथा (सीया य वसोसियसरीरा। शीत और आतप से इनके शरीर शोषित-सूके हुए रहते हैं। (द. મુખમાથી નીકળતું હોય છે, તેથી પિશાચના તે વિશદ્ધ કહેકહ વનિ યુક્ત हास्यथी ने "बीहणग" लय ४२ भने “निरभिरामे" असुह२ मनस छ, “ अइदुन्भिगधे " भ31 मृत सेवरानी गतिशय दुग-धीरे युक्त छ, 'वीमच्दरिसणिज्जे" तथा 331, भु! माहिया युक्त हावाने १२ धान पाय छ, मेवा “ससाणे" श्यशानाभा, "वणे" पनामा, "सुण्णघर" शून्यधरोभा, "लेण" सयनोमा पनी सभीपना पाषाणुगुडामा "गिरिकदरेसु" पतनी गुशमामा, तथा "विसमसावयसमाउलासु" (SA/ प्राणीमाथी युटत "वसहिसु" निवास स्थानाभा, "किलिस्सता" विविध प्रारनामो सडन या ४२. छे तथा “ सीया य वसोसियसरीरा" शीत अने तापथी तमना श२२ २३ २९ छ “ड्ढच्छवी तमना शरीरनी Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका १०३ सू० १२ तस्करस्वरूपनिरूपणम् ____टीका-'अयसकरा' अयशस्कराः अकीर्तिमन्तः भयङ्कराः ' तकरा' तस्कराः अदत्तग्राहिणः चोरा इत्यर्थः, 'अज्ज' अब अस्मिन् दिवसे 'कस्स' कस्य धनिनः इति एव विध यन्मनसि चिन्तित तत् 'च' द्रव्य-धन हरामः= चोरयाम इति-एव प्रसार 'गुज्झ' गुह्मगुप्त 'समामतण' समामन्त्रण-विचारणा 'करेति' कुर्वन्ति । तथा ' रहुयस्सनणस्स' बहुकस्य जनस्य 'कझकरणेसु' कार्यकारणेसुकर्मानुष्ठानेपु 'विग्धकरा' विघ्नराः विघ्नोत्पादकाः 'मत्तप्पमत्तपसुत्तवीसत्यजिदघाई' मत्तममनप्रसुप्तविश्वस्तछिद्रघातिनास्तत्र मद्यपानादिना मचान प्रमत्तान् प्रकर्पण मत्तान् प्रसुप्तान विश्वस्ताश्च छिद्रेण-छिद्र-प्राप्य घ्नन्ति फिर वे कैसे होते हैं सो कहते है-'अयसकरा' इत्यादि। टीकार्य-(अयस करा) इनकी दुनिया में अकीत्ति फैल जाती है ये सब जगह गई से विख्यात हो जाते हैं, (भयकरा) इनके नाम श्रवण से भी लोगों के हृदयों में भय का सचार हो जाता है। इस तरह के ये (तकरा) अदत्तग्राही-चोर (अज्ज कस्स व्व हरामो त्ति) "आज किस धनी का मन धारा द्रव्य हरण करना चाहिये" इस प्रकार की (गुज्छ) गुप्त (समामतण) विचारणा ( करेंति ) किया करते हैं। तथा (यहुस्स जणस्त ) अनेक मनुष्यों के (कज्जकरणेसु) कार्यों में ये (विग्यारा) विघ्नोत्पादक हुआ करते हैं । (मत्त-प्पमत्त. पसुत्त वीसत्यछिद्दघाई ) (मत्तप्पमत्त) मद्यपानादिक से मत्त तथा प्रमत्त बने हुए व्यक्तियों को ( पसुत्त) सोये हुए मनुष्यों को, एव (वीसत्थ) अपने ऊपर विश्वास करने वाले प्राणियों को ये (छिद्दघाई) तमा वा य त नु वधु वर्णन ४रे छ-" अयसकरा" या सार्थ-"अयसकरा" सभी इनियामा तमनी मतदाय छ तेया त्याथी ४२४ स्थणे ५४य छ, 'भय करा" तभनु नाम सामना ! सोडानमा लय : थाय छे म त " तकरा" या " अज्जकस्स दव्य हरामो ति" "मारे या धनिनु धन श न " से प्रा २नी “गुज्झ" शुभ " समामतण" विया२९॥ " करे ति" र्या ४२ छ तथा "बहुयस्स जणस्स" अने भासान “कज्जकरणेसु" आर्याभा तसा विग्धकरा" विना थया ४२ छ “मत्त-प्पमत्त-पसुत्तवीसत्यछिद्दघाई " " मत्तपमत्त" ॥३ मालपान भत्त तथा प्रमत्त पनेता सोने “ पसुत्त" यता सोने, मन “वोसथ " पाताना ५२ विश्वास भूना बोजोन तो “ दिघाई" Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 sererrarres " समाप्त तदपि स्वल्पमान कृत आहारो येतं तथा 'उब्बिग्गा 'उद्विग्नाः = उद्वेगयुक्ता अशान्तचित्ता इत्यर्थः, 'उप्पुया ' उत्प्लुताः चापन्नः असरणा अगरणा = प्राणरहिताः गृहरजिता 'अडीशस ' अटीपास=अरण्यवास 'वालसय सरुणीय ' व्यालशतशङ्कनीय = व्यालाना=मर्यादिदुष्टश्वापदाना शक्तिः शङ्कनीय भुजङ्गादिभिर्भयङ्करम् ' उयति उपयन्तिमाप्नुवन्ति ॥ सू० ११ ॥ ' पुनस्ते कीदृशा मनन्ति इत्याह-' अयसकरा ' इत्यादि मूलम् - अयसकरातक्करा भयकरा कस्महरामोत्ति अजदव इति समामंतणं करेंति गुज्झ, बहुयस्स जणस्स कज्जकरणेसु विग्घकरामत्तप्पमत्तपसुत्तवी सत्य छिद्दघाती वसणन्भुदयसु हरणबुद्धी विगव्वरुहिरमहिया परेति नरवईमज्जायमतिकंता सज्जणजणदुगछिया सकम्मेहि पावकम्मकारी असुभपरिणया य दुक्खभागी निच्चाउलदुहमनिव्वुझ्मणा इहलोगे चेव किलिस्संता परदव्वहरा नरा वसणसयमावण्णा ॥ सू० १२|| चाहे कंदमूल आदि हो सो भी वह भरपेट नही मिलता स्वल्पमात्रा में ही मिलता है, उसे ये खालिया करते हैं, ( उन्धिग्गा ) इनका चित सदा अशान्त रहता हे । ( उप्पुया ) ये बडे भारी चपल होते है । (अस रणा ) इनका एक जगह स्थिर वास नही होता इसलिये ये त्राण रहित होकर इधर से उधर भागते रहते हैं और (अडवीवास ) जगल मे ही वसेरा करते हैं । ( वालसयसकणीय) सर्पादि सैकडों दुष्ट जानवरों के भय से शका शील ऐसे स्थानों को ये ( उवैति ) प्राप्त करते हैं । ० ११ ॥ उविग्गा " પણ તેમણે ધરાઈ ને ખાવા મળતી નથી, ઘેાડા પ્રમાણમા જ મળે છે તેમનુ ચિત્ત સદા અશાન્ત રહે છે. “ उप्या ” તેએ ઘણા જ ચપળ હાય छे" असरणा " तेभनु रहेठाजु अयम थोड જગ્યાએ હાતુ નથી, તેથી તેઓ અશરણની જેમ આમતેમ ભસ્યા કરે છે ፡ अडवीवास "" જગલમા જ “ वालसयसकणीय " सर्पाहि सेडो लयपुर लवाना लयथी व्याप्त स्थानोभे # उवेति " तेथे आस अरे हे ॥ सू० ११ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका म० ३ सू० १२ अदत्तादानफलनिरूपणम् ३१७ नरकनिगोदादिदु खभागिनः, 'निच्चाउलदुहमनिम्जुङमणा' नित्याकुलदुःखाऽनिघृतिकमनस' =नित्यमाकुल-व्याकुलित दुःखयुक्तम् , अनितिक स्वास्थ्यरहित मनो येपा ते तथा निरन्तरमतापसंकुलाः, इहलोके चैत्र, चात् परलोकेऽपि 'फिलिस्सता' क्लिश्यन्तः-क्लेशमनुभवन्तः 'परदबहरा' परद्रव्यहराः परधनापहरणगीला नरा: मनुष्याः 'वसणसय ' व्यसनशत-दुःखप्रचुरम् 'आवण्णा' आपन्नाःमाप्ताः परियन्तीत्यनेन सम्बन्धः ॥ सू० १२ ॥ एव ' यथाकृत' इत्यन्तरिमुक्तम् , अध ' यथाफलदेह' इति अदत्तादान फलपतिपादक चतुर्थद्वार प्राह-'तहेर केड इत्यादि मूलम्-तहेव केइ परस्सदव्वं गवेसमाणा गहिया य हया य वद्धा रुद्धा य तुरियं अइधाडिया पुरवर संमप्पिया चोरग्गाह चारभडचाडुकराण, तेहि य कप्पडप्पहारनिद्दयाऽऽरक्खिय खरफरुसवयणतज्जणगलस्थल्ल उत्थलणाहि विमणाचारगवसहि पवेसिया निरयवसहिसरिस तत्थ वि से युक्त होते हैं । (दुक्खभागी) शुभपरिणामों से रहित होने के कारण ये परभव मे नरक निगोद आदि के दुःखों को भोगा करते है। (णिच्चा उलदुर्मणिन्वुइमणा) इनका मन सदा व्याकुल बना रहता है, इसी से ये निरन्तर मानसिक स्वास्थ्य से रहित होकर सताप से सकुल होते रहते हैं। इस तरह (इहलोगे चेव) इस लोक में तथा 'च' शब्द से परलोक मे भी (किलिस्सता) क्लेशा का अनुभव करते हुए ये (पर दवहरा) पर द्रव्यापहारी चोर (वसणसय) अनेक दुःखों को (आवण्णा) प्राप्त होकर (परेंति) भ्रमण करते है अर्थात् अपने समय को दुर्गतियों के भ्रमण करने में ही व्यतीत करते रहते है ॥ १२॥ " दक्सभागी" शुभ परिणामा-भावाथी २डित जापान सरवो तमा ५२सपमा २४ निशा माहिना लागव्या ४२ छ “णिच्चाउलदुहमणि व्वुइमणा" भनु મન સદા વ્યાકુળ રહે છે, તેથી તેઓ નિરતર માનસિક સ્વાધ્યથી રહિત मनीन मताथा युत २९ , माशते " इहलोगेचेव " मा साउभा तथा 'च' शन्थी ५२मा ५ " किलिस्सता" माने अनुभवता ते "परदव्य हरा" ५२धननु २५ जना या२ सा“ वसणसय " अनेम “ आचण्णा" मनुलवता " परे ति" प्रभए४२ छ, मेटले हुतायोमा प्रम! કરવામાં જ પિતાને કાળ વ્યતીત કરે છે સુ-૧૨ા. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સંદ प्रश्नव्याकरणसूत्रे 1 एव शीळा : ' सणभुद एसु' व्यसनाभ्यृदयेषु हरणमुद्धय' =ज्यमनेपु = रोगाधन स्थाया राजादिकृतोपनेषु च अभ्युदयेषु = विनादादिमहोत्सवेषु 'हरणबुद्धी हरणबुद्धय 'निगन' का 'भेडिया' इति प्रसिद्धा नखधारिणः श्वापद जन्तु विशेषा ' हिरमहिया ' रुधिरमहिताः = रुधिरस्य= रुधिरपानस्य मद्द= उत्सवः रुधिरमद्द, जातो येषा ते तथा - रुधिरपणे तत्पराः, ' परे ति ' परियन्ति = पर्यटन्ति सर्वत्र भ्रमन्ति । कथ भूतास्ते इत्याह- ' नर इमज्जा-य मइक्कता ' नरपति मर्यादामतिक्रान्ता = राजाज्ञा न हिर्नर्तिनः ' संज्जणजणदुगुछिया ' सज्जनजन जुगुप्सिताः = मत्पुरुपैर्निन्दिताः 'सम्मेहिं ' स्वकर्मभिः = अदत्तादान रूपैः ' पावकम्मकारी ' पापकर्म गरिणः चीर्यादिपापकर्मकारका 'अनुभपरि याय' अशुभ परिणताच शुमपरिणाम नर्जिता 'दुक्खभागी ' दुःखभागिन' = छिद्र प्राप्तकर बात की बात में मार डालते है (वसणमुद एस) रोगा दिक अवस्थारूप तथा राजादिकृत उपद्रवकृत व्यसन के समय पर, अथवा विवाह आदि रूप महोत्सव के अवसर पर भी ये (हरणमुद्धी) अपना कार्य कर दिया करते हैं । (विगन्ध) भेडिया की रुधिर चूपने में तत्प रता रहती है ईसी प्रकार ये चोर जन भी (महिर महिया ) पर के खून चूसने में तलर रहते हुए ( परेंति ) सर्वत्र घूमते हैं । (नरवइम इकता ) राजा की आज्ञा का सदा ये उल्लघन किया करते हैं । (सज्ज णजणेदुगुछिया ) सज्जन पुरुषो की निंदा करने में इन्हें आनद मिलता है, अथवा इनके इस कर्म की सज्जन पुरुष निंदा करते हैं । ( सक मेहिं ) अदत्तादानरूप अपने कर्मो से ये (पावकम्मकारी ) पापकर्मकारी पापकर्म करने वाले वे चोर (असुभपरिणयाय) अशुभ आत्मा परिणति (6 धननु रहस्य नगीने नेतभेताभा भारी नाचे हे “वसणन्भुद ” અવસ્થામા, તથા રાજાધૃિતઉપદ્રવ રૂપ સકટને "સમયે, અથવા વિવાહ દિ મહાત્સવને પ્રસગે પણ તે द्दरणनुद्धी ” पोतानु परधन हरगुनु नृत्य य उरे छे " विगन्त्र " वरुनी प्रेम-गोटले हे प्रेम वरु सोही यूसवाने तत्पर હાય છે તેમ ચાર પણ रुहिरमहियो ” अन्यनु सोडी यूसवाने तत्पर यह ने " परे ति ” सर्वत्र भ्रमण उरे छे " नरवइमज्झाय मइकता " शब्जनी भाज्ञानु सहा उल्लघन उरे छे, " सज्जणअणे दुगुछिया " સજ્જનાની નિંદા કરવામા तेभने भन यावे छे, अथवा ते दुष्कृत्यांनी सन्मनो निहारेछे " सकभेहि " अदृत्ताहान-थोरी ३५ पोताना थी ते " पानकम्मकारी " पायट्टत्यो नाश ચારા असुभपरिणयाय " अशुल आत्मपरिवृति-लावधी युक्त भने छे 66 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मशिनी टीका ० ३ सू० १३ अदत्तादानफलनिरूपणम् उपस्थापिताः, केभ्यः ? इत्याह-' चौरग्गडचारभडचाइकराण' चौरग्राहचारमटचाटुकरेभ्य तत्र चोरग्राहिणः चारभटाःगुप्तचराः, चाटकरणा: मुखमियामृदुभाषणेन चौरग्राहका इत्यर्थः, तेभ्यः । तेहिय' तेत्र चोरग्राहादि पुरुपैः ‘कप्पडप्पहारनिदया रक्मियखरफरुसवयणतज्जणगलत्यउत्थलणाहि' कर्पटमहार निर्दयाऽऽरक्षिकखरपरुपचनतर्जनगलत्यल्लउत्थलणाभिः तन कपटे यष्टयाकारचलितवस्त्रैः 'कोडा' इति भापा प्रसिद्धः प्रहारा ताडनानि तथा निर्दया ये आरक्षिका कोहपालपालास्तेपां खरपुरुपैः प्रतिनिष्ठुरैर्वचनैस्तर्जनानि-गल्त्यल्लोत्थलनाच-गलत्यल्लाः = गलइस्तदानानि उत्थरना:परिवर्तनाचेत्येताभिः 'विमणा' विमनसः सिन्नचित्ता सन्तः 'निरयासहिमरिस' नरस्यसतिसदृशा नरकवासतुल्या 'चारगरसहि ' चारकरसर्तिकारागृह 'पवेसिया' प्रवेशिताः। (समप्पिया चोरगाहचारभडचाडकराण) याद में वे राजपुरुप उन चोरों को चोरग्राही-चोरों को पकड़ने वाले गुप्तचरो के (कि जो मधुर बोलकर चोरोको पकड़ने में सिद्धहस्त होते है उनके) आधीन कर देते हैं (तेहि य) बे चोरग्राही चारभट आदि उन चोरों को पहिले तो (कप्पडप्पहार) कोड़ो की मार मारते है, तथा (निद्दयारक्सिय ) निर्दय होकर कोटपाल उन्हें (खरपरपवयणतज्जिय) अतिनिष्ठुर अत्यन्त कटु वचनो से तजित करते हैं, तथा (गलत्थल उत्थलणादि य ) गला पकड़कर दबोच देते है। (विमणा) इस तरह की क्रियाओं से अपमान जनक व्यवहारों सेचोरों को ये यहुत अधिक विन्नचित्त कर डालते हैं । जब ये रहत बुरी तरर खिन्नचित्त हो जाते है तो बाद में वे उन्हें (निरयवसहि सरिस) नरकावास तुल्य (चारगवसहिं) कारागृह मे (पवेसिया) बद कर देते हैं। १२वाय छ " समप्पिया चोरगाहचारमडचाडुकराण' त्या२ ते पुरुया તે ચોરને ચારગ્રાહી–ચાને પકડનારા ગુપ્તચરને ગોપી દે છે તે ગુપ્તચરે भी क्य! मासीन योरोने ५४पामा निधुर हाय छे “ देहि य" ते यासाली-गुतय२ मा पडदा त त शारीने “प्पडप्पहार" या पर पटारे छ, तथा “ निद्दयारक्सिय" निहय धने पास भने "सरपरुसवयणतज्जिय" अतिशय नि तथा अतिशय ४७५ पयनी सलगावे छ, "गलत्यल्उत्थलणाहिय" RY ५४ीन मावे ," विमणा" मा २नी અપમાનજનક ક્રિયાઓ તથા વર્તનથી તેઓ તે ચેરના ચિત્તમાં અત્યતા ખિન્નતા ઉત્પન્ન કરે છે ત્યારે તેઓ અત્યંત ખિન્ન થાય છે ત્યારે તેમને તે aah 'निरयवसहि सरीर " न२२ मभान " चारगवसहिं" रामा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ प्रश्नध्याकरण गोम्मिक पहारदुम्मणा निभच्छणकडुयवयणभेसणागभया भिभूया अक्खित्तणिवसणा मलिणडंडिखंडवसणा उक्कोडालं. चनपासुम्मग्गणपरायणेहिं गोम्मियभडेहिं विविहेहिं वधणेहिं किंते-हडिनियडयालरज्जुयकुडडगवरत्तलोहसंफल हत्यद्ध य वज्झपट्टदामकणिकोडणेहि अण्णेहि य एवमाइएहि गो. म्मियभंडोवगरणेहि दुक्खसमुदीरणेहि सकोडणमोडणेहि वज्झति मदपुण्णा ॥ सू० १३ ॥ टीका-तहेर' तथैव-पूर्वोक्तमकारेण 'के' केचित् 'परस' परस्य 'दर' द्रव्य चोरयितु 'गवेसमाणा' गवेपयन्ता अन्वेषण कुर्वन्तः 'गहिया' गृहीताः-राजपुरुपैनिगृहीता हताच ताडिताः दण्डादिभिस्ततोगद्धाः रज्ज्वादि भिन्धन प्रापिताः तथा-रुद्वाः कारागारादी निरुद्वाय तुरिय' त्ररित-शीघ्रम् 'अधाडिया ' अतिधाटिताम्राजपुरुमिता. कुत्र ? इत्याह-पुरवर सकल नगरम् । नागरिकजनान् प्रतिदर्शिता इत्यर्थः पुनश्च 'समप्पिया' समपिताम् अथ सूत्रकार "जहा फल देह" इस चतुर्थ द्वार का प्रतिपादन करते है-'तहेवकेइ' इत्यादि । टीकार्थ-(तहेव) इसी पूर्वोक्त प्रकार से (केइ) कितनेक व्यक्ति (परस्स दव्व गवेसमाणा) पर के द्रव्य को चुराने की खोजमें रहते हुए (गाहिया य) राजपुरुपो द्वारा निगृहीत होकर (हयाय) दण्डादिका द्वारा ताडित किये जाते है (घद्धा) रज्ज्वादिको द्वारा बाध दिये जाते है (रुद्धाय) कारागार आदि में बंद कर दिये जाते है । (तुरिय अइधाडिया पुरवर) और नगर निवासियो के समक्ष नगरभर में घुमाये जाते हैं। वे सूत्रा२ “ जहा फल देइ" से याथा दा२० प्रतिपादन ४२ छ" तहेव केइ " त्यादि All-"तहेव" पूर्वरित प्रशारे “केई" मा सोही "परस्स दव्व गवेसमाणा" ॥२४ना द्रव्यने यारवानी शोधमा २९ छ “गोहियाय' ते। शा२१ ५४ाईन हयाय" को हरा भराय छ "बद्धा" ह।२७ मा 43 सपाय छ, “रुद्धाय” भने समाना माहिमा । ४२4 छ, “तुरिय अइघाडिया पुरवर "मने शशमानी समक्ष मामा शरभा Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०१३ अदत्तादानफलनिरूपणम् वसनन्यस्त्र येषा ते व रामलिनम्माटिवसीवितखण्ट वारिण इत्यर्थः, 'उक्कोडाल चनपासुम्मगणपरायणेहि ' उलोटालश्चनपाश्चान्मार्गणपरायणे. उत्कोटालश्चने उत्कोटविशेपे 'गॅच-न्धित' इति भापापसिद्धभेदविशिष्टे पार्योन्मार्गण च% चौरपाश्चस्थितचारितद्रव्या पेपण, तेपु परायणा तत्परा येते तथा ते 'गोम्मिगभडेहिं ' गोल्मिक भटै कोटपाल. 'पिरिहेहि पणेहिं ' विविधै पन्धनः हेतु भूतैम्ते चौरपुस्पाः व यन्ते इति वश्यमाणेन मम्बन्ध 'किं ते' आपत्वात्तृतीयार्थे प्रथमा तेन सिम्भूतम्तैरित्ययः, तथा च किम्भूत = सय भूतस्तैन्यनैरित्याह-"हडिनियडवाल रज्जयकुडडगवरत्तोहसफलइत्ययापदाममणिछोडणेहिं ' डिनिगटबालरज्जु कुदण्डकववालोहगृहलहस्तान्दुकवर्षपदामकनिफोटन-तत्र 'हडि' इति काष्ठनिर्मित निगडबन्धनानि 'खोडा' इति भाषाप्रसिद्धानि, निगडानि= लोहमयोडी' इति प्रसिद्धानि नालरज्जुमा गवादिबीच में सिले हुए पुराने जीर्ण बन्त्र का वाचक है। (उकोडालचणपासुम्मग्गणपगयणेहिं ) उत्कोट, लाच-रिश्वत-में तया चोरों के पास में रहे हुए चुराये द्रव्यकी तपास करने में परायण ऐसे (गोम्मियभडेहिं ) गौस्मिकभ-कोटपाल (विविहिं पधणेहि ) नाना प्रकार के यधनों से उन चोरो को याच देते हैं, (किंते) चे बंधन किस प्रकार के होते सो करते हैं-(डिनियडयालरज्जयकुडडगवरत्तलोह सकलहत्वदुययज्झपट्टदामणिछोडणेहिं ) ( हडि) काष्ठ निर्मित वाधने को बधन विशेष. जिसमें चोर के पैर डाल दिये जाते हैं-मो वह वहीं पर खडा रहता है इधर उधर चल फिर नहीं सकता। भापामें इसे खोडा करते हैं। (नियडि ) निगउ-लोहे की पनी हुई बेडी, वालरज्जुक गाय आदि के वालों से बनी हुई रस्सी, कुदण्डक-जिसके अन्तमाग में काष्ठ लगे हुए કોઈ કોઈ સ્થળે કટેલા હોય છે અહી “ગુરુ ' શબદ વચ્ચે વચ્ચે આવેલા पुगए। अनी भूयले “उकोडालवणपासुम्मग्गणपरायणेडिं" sीट, લાચ-રુશવત, તવ ચેરીની પાસે રહેલ ચગયેલ દ્રવ્યની તપાસ કરવામાં वी ओवा " गोम्मिय भडेहिं " गौटिभ सट-डोरवा “ विविहेहिं बधणेहिं । विध जान पधनाथी ते योगने ॥धे छ " किं ते" मधना ध्या या प्रधान डाय छे, ते ७ -"हटिनियडमालरज्जुयकुड गवरत्तलोहमालहत्थदुरवज्झपट्टदामकणिकोटणेहिं “ हटि " - दानु ? સાધન, જેમા ચોગ્ગા પગ રાખવામા આવે છે તેમાં પગનું હલનચલન થઈ शन 'नियडि " निसोडानी मनावी मेडी, “बाळरज्जुक" गाय आहिना पाभाथी मनास होड, “कुदण्डक "ने छ । डायसवा Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २२० प्रमण्याकरणसूत्रे 'तत्य वि' तत्रापि 'गोम्मिकपहारदमणनिमच्छणायययणभेसणगभयाभि-- भूया' गोल्मिकमहारदरननिर्भत्सनस्कनचन भीपणकमयाभिभूता-तत्र गोलिम काना-कोटपालाना ये महाराः कशाघापाताः दयनानिपूर्यतापादौ उपतापनानि निर्भत्सनानि = जातिकुलादिनामोच्चारणपूर्वफगालिदानानि कदुकवचनानि च 'रेनीच ! रे दुष्ट !' इत्यादि रूपाणि मीपणकानि=भयजनकानि 'जीवनपर्यन्त कारागृह ए म्रियस्य' इत्येवमादिरूपाणि तेपो भयेन अभिभूता ये ते तथा 'अक्खित्तणिवसणा' आक्षिप्तनिवसनाः = कर्पणधर्पणादिभिराष्टपरियानवस्त्रा नग्नीकृता इत्यर्थः, 'मलिगडडिखडक्मणा' मलिनदण्डिखण्डयसना =तर मलिन 'डण्डि' सीवित 'डण्डि' इति सीवितपत्राको देशीशदः, खण्ड-फाटित च (तत्थ वि) वहा पर भी वे (गोम्मियप्पहार) कोटपालोंके कशा(कोडा)दिद्वारा प्रदत्त आघातों को, (दुमण) दवनी को-पूर्यताप आदि मे खड़े करने रूप उपतापनो को, (निभच्छण) निर्भर्सनो फो-जातिकुल आदि के नामोच्चारणपूर्वक गालीगलौज आदिको तथा ( कट्टयवयण) कटुक वचनो को जो कि " अरे नीच ! ओ दुष्ट ! जीवनपर्यन्त तू इस कारा गार में ही सड २ कर मर" इत्यादिरूप से (भेसणा) भयप्रदशेक शेते हैं-सहते रहते हैं ( भयाभिभूया ) उनके भय से अभिभूत होते हैं, तथा ( अक्खित्तणिवसणा) कर्पण घर्पण आदि के करने से इनका परिधान वस्त्र खुल जाता है, अर्थात्-ये नग्न हो जाते हैं-नगे कर दिय जाते हैं। (मलिणडडिखडवसणा) ऐसी स्थिति में उन्हें जो वहा वस्त्र खड पहिरे को मिलता है वह बिलकुल मलिन होता है। बीच २ में सिला हुया रहता है । तथा कहीं २ फटा भी रहता है । यहा " डण्डि" शब्द " पवेसिया" पूरी छ "तत्थ वि" त्या पर तेसोटी “गोम्मियप्पहार" टपास दारा ४२पामा पावता यामुना प्रडा “ हमण" -सूर्यना तापमा उमा सभान ७२वामा मावतु इडन, निभच्छण" निसनाजति on मानि म सहित अपाती आजोन, तथा "कडुयवयण" ४४ વચનને, જેમ કે “હે નીચ! હે દુષ્ટ ! તું આખું જીવન આ કારાગૃહમાં જ सडीन सीन भ२!""भेसणग" सहन ४ा ४२ छ, “ भयाभिभूया" ते प्रारना लयथी लयलीत २ छ, तथा “ अक्सित्तणिवसणा" मेन्या थी ४२ વાથી તથા ઘસડવાથી તેમના વસ્ત્રો ખમી જાય છે તેઓ નગ્ન થઈ જાય છે तभन न राय छ “ मलिणडडिसडवसणा" सेवा समातमन त्यारे વસ્ત્રખંડ પહેરવાને મળ્યા હોય છે વચ્ચે વચ્ચે શિગડા વાળા હોય છે, તથા Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशिनी टीका २०३ २०१४ चौरा कि फल प्रानुरन्तीतिनिरूपणम् ३२३ फुरतउरकडग-मोडणेहि सबद्धाय नीससता सीमावेढ ऊरुचालबप्पडगसधिवधग तत्तसलागसूड आकोडणाणि तच्छण विमाणणागि य सारकडुय तितनावणजायणकारण-सयाणि वहुयाणि पावियंता, उरघोडीदिगगाढपेल्लण-अधिकसंभग्गसपंसुलिया-गलकालक-लोहदंड-उर-उदर वस्थि पिट्टि-परिपी लिया मत्थंतहियय-सचुणियंगुवंगा आणत्ति कि करोहि केडअविराहि य वेरिएहि जमपुरिससनिभेहिं पहया ते तत्थ मदपुण्णा चडवलावह पहपोराच्छिवा कसलत्तवरत्तवेत्तपहारसयतालियंगुवगा किवणालयतवम्मवणवेयणविमुहियमणाघणकोहणनियलजुपल-सकोडियमोडिया य कीरति निरुच्चारा असचरणा एया अपणाय एवमाईओ वेयणाओ पावा पावंति ॥ सू० १४॥ टीका-पूर्वोक्ता. मन्दपुण्याः 'सपुडस्वाड-लोहपजर-भूमिवरनिरोहकमचारग कीलगज्वचक्कविततवपणखभालणब्दचलगवरणविदम्मणाहिय विहेडिवा' तर 'सपडक्वाड '-सम्पुटरुपाट - पिहितकपाट लोहपतर तथा 'भूमिवर' भूमिगृह भूमेरन्त ह 'भोरा' इति भापा प्रसिद्धच तर यो 'निरोह । निगेधा= प्रवेशन, तथा 'कृव' कृप.अन्यप , 'चारग' चारक. अन्टिगृह 'फीलग' फिर वे क्या फल पाते हैं ? सी कहते हैं-'मपुडकबाट' इत्यादि। - टीकार्य-ये चोरजन (मपुडकवाड लोहपजर-भूमिपरनिरोह-कृव चारग कीलग-जूयचवितनवधण-खभालण-उद्धचलणधण-विहम्मणाहिय विडियता) (सपुडकवाडोहपजर) द ह कपाट-युगल जिन्हों के ऐसे लोह के पिंजरों में तथा (भूमिघरनिरोह ) तलपरों में बढ कर दिये जाने... हैं, (कूव ) अधकृप में पटक दिये जाते है, (चारगकीलग) । यी यु ३० भणे ते भूत्र - -"मपुटकवादलोहजर" साथ-ते याराने “मपुडकबाटलोहपार' Pavu atढाना सभा, तथा “ भूमिधरनिरोह " सायमा ही हेवामा सावे, “ मधारीया पाभा 42 पाभा भावे, “चारगकीला " शुद्धमा हो Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ प्रश्नव्याकरणसूत्रे " , } बालमरयोरज्जुका, कुदण्ड का नि= काष्ठमयमान्त भागा रज्जुपाशाः नम्राः चर्ममग्यो महारज्जवः लोहनलाथ = प्रसिद्धा' हस्तान्दुकाः हस्तनियन कम्यनविशेषाः 'हथकडी ' इति भापामसिद्धा पा=पहिका मानि=पाइन्नरज्जु विशेषाः निष्फोटनानिन्यविशेषा एन ते 'अयादि य ' अन्येवानुक्तेः ' एमाइएद्दि ' एवमादिकैः = उक्तप्रकारैः 'गोन्मियभोगणेहिं गौल्मिकभाण्डोपकरणैः = कोट्टपालाना चोरपन्यकोपकरणैः, दक्ख समुदीरणेहिं ' दुखसमुदीरणैः = दुःखदायकैः ' सोडणमोडणेहि सकोटन मोटनैः=स कोचनानि हस्तपादादीना मोटनानि गलादीनि तै' 'मपुष्णा' मन्दपुण्याः पापिनोऽदत्तग्राहिणः ' वज्झति ' ध्यन्ते चन्यन माप्नुवन्ति ॥ मृ० १३ ॥ पुनस्ते किं फल प्राप्नुति ? इत्याह-- सपुड ' इत्यादि } मूलम् —— सपुडकवाडलोहपजर-भूमिघर-निरोहकुवचारगकीलगजूवचक्क - विततचधणखभालण-उद्धचलण वधण विहमणाहि य विहेडियता अहकोडगगाढ उरसिद्ध उद्धपूरियहों ऐसी दोरीकी फासी, वरत्रा- चमड़े से बनाई गई रस्सी, (लोहसकल) लोकी सकिल, (हत्य) हस्तान्दुक - हथन कडी, (घझपट दामरुणिको डोरि ) वर्धपट्ट - चमडेकी पट्टिकाएँ और दामनक-पैरों को बांधने के बधन विशेष है, निष्कोटन - धनविशेष हैं, इन पनो से ( अण्णेहिं एवमाइर्हि) तथा इन बधनोसे अतिरिक्त जो और भी (गोम्मिय भडोवगरणेहिं) नकोतवाली के चोरों को बाधने के लिये उपकरण विशेष है कि जो (दुक्खसमुदीरणेहिं) बहुत ही अधिक दुःखप्रद होते हैं उनसे, एव (सकोडणमो - हिं) हस्त पैर आदि सकोचन से तथा गले वगैरह के मोटन से (मधुण्णा) वे अभागे चोर ( वज्झति ) बधनों को प्राप्त होते है । सू-१३ ॥ हारानी से वरत्रा - थामडानी छोरी, " लोहसकल " सोढानी साय, ८८ हत्थ दुय " हाथडी, " वज्झपट्टदाम कणिफोडणेहिं " वर्धपट्ट याभडानी पट्टीगो, अने દામન≤-પગ ખાધવાનું ખાસ અધન, નિષ્કુટન—એક પ્રકારનુ . ધન–આદિ अधनोथी " अण्णेहिं एवमाइएहिं " તથા તે સિવાયના બીજા ધના કે "L แ "" गोम्मियभ डोवगरणेहिं ” भनो शोरोने माधवाने भाटे जेटवाणो उपयोग अरे छे भने ? "दुक्स समुदीरणेहिं " अधना अत्यंत हुं महाया होय छे, અને જેનાથી कोडमोड હાથ પગ આદિતુ સ કેાચન તથા ગળા વગેરેનુ માટન ( મરેાડવાની ક્રિયા ) તે " वज्झति ” अनुलवे छे । सू-१३ ॥ 64 " मदपुण्णा કમનસીમ ચારી Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिनी टीका अ०३ सू० १४ चौरा कि फल प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२३. पुरतउरकडग-मोडणेहि सवद्वाय नीससता सीमावेढ अरुयालचप्पडगसधिवधण तत्तसलागसूइ आकोडणाणि तच्छण विमाणणाणि य खारकडुय तित्तनावणजायणकारण-सयाणि वहुयाणि पावियंता, उरघोडीदिण्णगाढपेल्लण-अट्टिकसभग्गसंपसुलिया गलकालक-लोहदड-उर-उदर बत्यि-पिट्टि-परिपी लिया मत्थंतहियय-सचुपिणयगुवंगा आणत्ति कि करेहि केइअविराहि य वेरिएहि जमपुरिससंनिभेहि पहया ते तत्थ मंदपुण्णा चडवेलावह पट्टपोराच्छिवा कसलत्तवरत्तवेत्तपहारसयतालियंगुवगा किवणालवतवम्मवणवेयणविमुहियमणाघणकोणनियलजुयल-संकोडियमोडिया य कीरति निरुच्चारा असचरणा एया अण्णाय एवमाईओ वेयणाओ पावा पावति ॥ सू० १४॥ टीका-पूर्वोक्ताः मन्दपुण्याः 'सपुडकनाड-लोहपजर-भूमिघरनिरोहकूनचारग कीलगवचक्कविततधणखभालणउद्धचलगवधणनिहम्मणाहिय विहेडियता' तर 'सपुडकराड-सम्पुटकपाट = पिहितकपाट लोहपञ्जर तथा 'भ्रमिवर' भूमिगृह-भूमेरन्त ह 'भोवरा' इति भापा प्रसिद्ध च तत्र यो 'निरोह' निरोधा प्रवेशन, तथा 'कूव' कूपः अन्धकूप., 'चारग' चारका इन्दिगृह 'कीलग' फिर वे क्या फल पाते है ? सो कहते हैं-'सपुडकवाड' इत्यादि। टीकार्य-येचोरजन (सपुडकवाड लोहपजर-भूमिघरनिरोह कृव चारग कीलग-जूयचक्कविततधण-खभालण-उद्धचलणबवण-विहम्मणायि विहेडियता) (सपुडकवाडलोहपजर) बद ह कपाट-युगल जिन्हों के ऐसे लोह के पिंजरों में तथा (भूमिघरनिरोह ) तलघरों में बद कर दिये जाते हैं, (कूव ) अधकृप मे पटक दिये जाते है, (चारगकीलग) यदिगृह में । भी ज्यु ३० भणे छेते सूत्रा२ ४ -"सपुडकवाउलोहपजर" त्या थ-ते न्यारीने “सपुडकवाडलोहपजर' ५५ मारावासोढाना पार रामा, तथा “ भूमिधरनिरोह " सायरामा पूरी हेवामा मा छ, “ कूत्र" Autsun tarin ५८पामा आवे छे, "चारगकीला" अराउमा यी Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नस्यारणसूत्र कोलकाः 'सूटा' इति प्रसिद्धा 'जूर' यूपा स्तम्भविगेपाः 'चक' चक्राणि स्थानानि 'पहिया' इति भाषा प्रसिद्वानि तेपु रितवन्धन बाहुनहादिपियाटनेन नियन्त्रण तथा 'खभारण' स्तम्भालगन=स्तम्भः-सह रज्ज्यादिमिरावेष्टनं गले रज्जु पद्ध्वा स्तम्भेपु समालम्बन पा तथा 'उद्धचलणघण' ऊ चरणमन्यन चम्पादयोरुपरिकत्य बन्धनमित्यादिर्या 'विहम्मणाहिं चिर्पणा-पीडास्तामिः 'विहेडियता' रिज्यमाना =पीडयमानाः सफोटिता मोटिताः क्रियन्त इत्यग्रेण सम्बन्धः । तथा--' अहोडगगाढउरसिरपद्धउद्रपूरियफुरतउरकडगमोडणेहि' अधः कोटकगाढोरः शिरोपद्धोपूरितस्फुरदुराकाण्डकमोटनेः, तत्र--अप कोटकेन अधो नमयनेन गाढम् प्रत्यर्थमुरसिम्यक्ष स्थले शिर'मस्तक बद्ध येपा ते तथा अतएर ऊर्वपूरिताः श्वासप्रश्वामः पूरितशरीरो भागास्तथा स्फुरदुरः कण्डकाच-कम्पमानवक्ष स्थलपृष्ठास्थिका ये चौरास्तेपो यानि मोटनानि-पुनः पुन हथकडी आदि में बाध दिये जाते हैं, सूटों पर लटका दिये जाते हैं, (जूब) स्तभविशेषों से जकड़ कर पाध दिये जाते हैं, (चक) पहियों से (वित तषधण) हाथ पैर यारर निकालकर रस्सियों से बहुत बुरी रतह से जकड़ दिये जाते हैं, (खभालण) बडे २ सभी के ऊपर गले में रज्जु आदि पाधकर लटका दिये जाते है। तथा ( उद्धचलणयधण) पैरों में रस्सी आदि से याधकर मुँह नीचा करके वृक्षादिको में स्टका दिये जाते हैं। (विहम्मणाहिंय ) इस प्रकार की-विविध प्रकार की पीडाओं से वे (विहेडियता) पीडित किये जाते हैं। तथा (अरकोडगाढउरसिरबद्ध उदपूरियफुरतउरकडगमोडणेहिं ) (अहकोडगगाढउरसिरबद्धपूरिय ) इनका मस्तक इतने अधिक रूप में नीचे झुकाया जाता है कि जिससे यह वक्षस्थल पर आकर चिपक जाता है, और इसी कारण श्वास उच्छूवासों से इनका शरीर का उबभाग पूरित होता रहता है, (फुरतउर साहिब माधवामा मावे छ, भूट! S५२ सापामा सावे, “जूव" स्थलो साथै माधवामा मापे छ, “ चक्क" यहाथी वामा भाव छ "विततबधण" हाथ ५ २७ व २४ २५ रीते माधवाना साचे छ “ सभालण" भाटा मोटा थालमा ५२ राणे द्वा२७१ माधीनसामा मा छ, तथा "उद्धचलणव धण" पो हो। माधान वृक्षा ५२ धे राधे दावामा माव छ, “विहम्मणाहिय" मा प्रा२नी विविध यातनाम्याथी भने “विहोडियता" पाउपाभा आवे छ तथा " अहकोडगगाढउरसिरबद्धपूरिय" तमना भरतने मेटयु ॥धु नये નમાવવામા આવે છે કે જેથી તે છાતી ઉપર ચોટી જાય છે, અને તે કારણે श्वासा-श्वासथी तमना शरीरने माग पूर्ण २ छ, “फुरत Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका ७ ३ सू० १३ चौरा किं फल प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२५ मर्दनपूर्वकमुर्धाध' करणादीनि तैविहेज्यमाना इति पूर्वेण सम्बन्ध । तथा 'सबद्धा' सनद्धाः रज्ज्यादिभिहरद्धाः सन्तः 'नीससता' निःश्वसन्तः निश्वास रिमुञ्चत 'सीसावेढउरुयालयप्पडगसधिनधणतत्तसलागमइआफोडणाणि' शीवेष्टनोरुदारपप्पटसधिमन्यनतप्तगलाकामूच्याकुटनानि-गीवेष्टन आईचर्मादिभिः शिरोवन्धनमूरुदास-जङ्घाविदारण चप्पडगसन्धिबन्धन' चप्पडग' इतिकाष्ठयन्त्रवि शेपस्तेषां काष्ठयन्नविशेपाणा सन्धिस्थानेषु जानुकृपरादिपु वन्धन, तथा तप्ताना शलामाना लोहकीलकानां मूचीनां च-प्रतीतानामाफुटनानि शरीरे प्रवेशनानि यानि तान्येतानि, तथा-'तच्छणनिमाणणाणि' नक्षणविमाननानिबासिभिस्त कडग ) उनके वक्षस्थल की तथा पृष्ठभाग हड्डियां कपित होने लग जाती हैं। (मोडणेहिं ) घार २ इन चोरो का वे कोतवाल लोग मर्दन करते हैं पार २ ऊँचे नीचे उठाते बैठाते हैं, इस तरह से बहुत दुःखित करते रहते हैं। (सनद्धा ) रज्ज्वादिक से ईन्हें यहुत ही दृढ़ता के साथ हाथ पैर आदि अवयवो में याध देते है (नीससता) इस कारण जोर २ से हांफने लग जाते है । (सीसावेढउरुयाल-चप्पडसधियधणतत्तसलाग सूह आकोडणाणि) (सोसावेढ) गीले चमडे आदि से इनका शिर याध दिया जाता है, (उभ्याल) ऊरुदार-जधाएँ इनकी इतनी अधिक चौडी करवाई जाती है कि जिससे उनका चिदारण (तृट जाना) हो जाता है। (चप्पडगसधियधणा) जानुकपर (कोणी) आदि सधि स्थानोम एक प्रकारके काष्ठयत्र पाध दिये जाते है तथा (लोहसलाग) शरीरमें तप्तलोहे की शलाईयों से दाग दिये जाते है और (सई आकोडणाणि) गरम लोहेकी सूईया उसमे प्रविष्ट की जाती हैं, तथा ( तच्छणविमाणणाणि ) वमूला आदिसे तेमनी छाती तथा पीना Sist ५५ सारी छ, “ माडणेहिं" ते योशनु તે કેટવાળે વાર વાર મર્દન કરે છે તેમને વારવાર ઊઠબેસ કરાવે છે, અને से शत तन मन छ “सनद्धा" तमना बाय ५॥ माहि अवयवाने हो२७1 माह 3 भाभूत शते ॥धी हेवाभा मावे छे, “नीससता" ते २0 ते मियास तय छ “सीसावेढ" लाना याम माहिथी तमना शि२ माधी छ, “ उरुयाल" भनी घसटमी मधी पाणी ७२वामा भावे छ उ ते २0 तेभनु विहार थाय , ' चप्पढगसधि बधणा" तनु १५२ (शुह ) माहि माधावामी याममा मे जान! अन्यत्र साधा हेपामा भाव छ, तथा "लोहसलाग" तपासा सोढाना सजियाय 43 शी२ ५२ सम हेवामा मावे छ, भने “ सूइआकोडणाणि" गरम ४२सी सोढाना सोयो शरीरमा सेवामा साव छ, तथा " तच्छण विमा Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रश्न यारणसूत्र फीलकाः 'खूटा' इति प्रसिद्धाः 'जूर' यूपाः स्तम्भविगेपाः 'चाक' चक्राणि स्थानानि 'पहिया' इति भापा प्रसिद्वानि तेपु रितवन्धन बाहुनहादिरियाटनेन नियन्त्रण तथा ' खमारण' स्तम्भालगन-स्तम्भा-सह रज्ज्यादिमिरावेप्टन गले रज्जु पद्मा स्तम्भेपु समालम्बन पा तथा 'उद्धचलणाधण' चरणमन्वन चम्पादयोरुपरिकत्य बन्धनमित्यादिर्या 'विहम्मणाहिं' सिर्पगारपीडास्ताभिः 'विहेडियता' रिव्यमाना-पीड्यमानाः सकोटिता मोटिताः क्रियन्त हत्यग्रेण सम्बन्धः । तथा- अहमोडगगाढउरसिरबद्ध उद्धपूरियफरत उरकडगमोडणेहि' अधः कोटकगाढोरः शिरोपद्धो पूरितस्फुरदुर काण्ड कमोटने, तत्र--अधः फोटकेन अधो नमयनेन गाढम् अत्यर्थमुरसिम्यक्ष स्थले शिर' मस्त गद्ध येपा ते तथा अतएव ऊर्थपूरिताः श्वासप्रश्वामैः पूरितगरीरोप्रभागास्तथा स्फुरदुरः फण्डकाच-कम्पमानवक्ष स्थलपृष्ठास्थिका ये चौरास्तेषां यानि मोटनानि-पुनः पुन हथकडी आदि में बाध दिये जाते हैं, सूटों पर लटका दिये जाते हैं, (जूव) स्तभविशेषों से जकड़ कर याध दिये जाते हैं, (चक) पहियों से (वित. तयधण) हाथ पैर याहर निकालकर रस्सियों से पहुत बुरी रतह से जकड़ दिये जाते हैं, (खभालण) बड़े २ खभों के ऊपर गले में रज्जु आदि बाधकर लटका दिये जाते है। तथा (उद्धचलणवधण) पैरों में रस्सी आदि से घाधकर मुँह नीचा करके वृक्षादिको में स्टका दिये जाते हैं। (विहम्मणाहिंय ) इस प्रकार की-विविध प्रकार की पीडाओं से वे (विहेडियता) पीडित किये जाते हैं। तथा (अहकोडगाढ उरसिरबद्ध उदपूरियफुरतउरकडगमोडणेहिं ) (अहकोडगगाढउरसिरबद्धपूरिय ) इनका मस्तक इतने अधिक रूप में नीचे झुकाया जाता है कि जिससे वह वक्षस्थल पर आकर चिपक जाता है, और इसी कारण श्वास उच्छूवासों से इनका शरीर का उर्चभाग पूरित होता रहता है, (फुरतउर मा6ि143 माधवामा आवे छे, भूटा ५२ पपामा भाव, “जूव" स्था साथे माधयामा माघे छे, " चक" योथी ४४वामा मावे छ “विततबधण " थ प २७ पडे घी १ प२रा शत माधवामा मा छ " सभालण" भाटा मोटा थालमाया 6५२ गणे हा२७॥ माधान दास भाव छ, तथा “उद्धचलणव धण" पणे हा२३१ माधान वृक्षा ५२ अधे माथे Gटामा भाव छ, “विहम्मणाहिय" या प्रारनी विविध यातनायाथी तभने “विहोडियता" पाउामा मावे छे तथा "अहकोडगगाढउरसिरयद्धपूरिय" तमना भत्ताने मेदु मधु नीय નમાવવામાં આવે છે કે જેથી તે છાતી ઉપર ચેટી જાય છે, અને તે કારણે श्वासारश्वासथी तभना शरीरने माग पूर्ण २३ छ, “पुर तउरकडग" Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ0 ३ सू० १४ चौरा किं फल प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२७ सपशुलिकानि-पास्थिसहितान्यस्थोनि येपा ते तथा उरसि महाकाष्ठस्यचालनेन भनपाङस्थिका इत्यर्थ , 'गलकालकलोहदडउरउदरवत्थिपिद्विपरिपीलिया' गलकालकलोहदण्डोरउदरसस्तिपृष्ठपरिपीडिता:-गत इव-मत्स्यभेदककण्टकात् कालफलोहदण्ड: श्यामलोहदण्डस्तेनोरसि-वक्षःस्थले, उदरे वस्तौ-नाभ्यधोगुह्यप्रदेशे पृष्ठेच परिपीडिता:-आहता येते तथा, 'मस्थतहिययसचुष्णिय गवगा' मध्यमानहृदयसन्चूर्णिताद्गोपाङ्गाः तत्र मध्यमान-महाकाष्ठादिभिर्विलोट्यमान हृदय वक्षःस्थल येपा ते मध्यमानहृदयाः, तथा कठोरभूम्यादौ घर्पणादिना सञ्चूणितान्यगानि-शिर उर उदर पृष्ट्वाहुद्वयचरणद्वयलक्षणाष्टाङ्गानि उगङ्गानि च%3 कर्णनासिका करचरणागल्यादीनि येपा ते सन्चूर्णिताड्रोपागाश्च येते तथा, एते पापा वेदनाः माप्नुवन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'केई' केचित् केचन ‘अविराहिय-वैरिएहि' ग्गपसुलिया) उनकी पासली सरित हड्डियां पीस जाती है तर, तथा ( गलकालफलोहदटउरउदरवत्थिपिट्ठपरीपीलिया ) (गल) मत्स्य भेदक केटक की तरह (कालकलोहदड) काले लोहे के दण्ड से ( उर वक्षस्थल, (उदर) पेट, (पत्थि) वस्ति-नाभि के नीचे का गुद्यप्रदेश, एव (पिट्ठ) पृष्ठ इन स्थानों पर जब वे (परिपीलिया) आहत होते है तय, तथा (मत्थतयियसचुणियगुवगा) (मत्थतहियय) जर उनका हृदय महाकाष्ठ आदि से मथित किया जाता है तय, तथा (सचुगियगुवगा) कठोर भूमि के ऊपर घर्पण आदि से जर उनके अग और उपांग अच्छी तरह चूर्णित हो जाते हे तर, बहुत ही अधिक दुःखी होते हैं। शिर, उर, उदर, पृष्ठ, बाहुद्वय और चरणद्वय, ये आठ अग हैं। तथा कर्ण, नासिका, करामुली एव चरणागुली आदि उपाग है। इस प्रकार ये (केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर ( अविराहियवेरिएहिं) तमनी छाती ५२ ! सारे वनवाजी साडी घोडी "दिण्णगाढपेल्लण" मेयान भाम तम ३२५पामा मा छे, त्यारे “ अद्विक सभग्गापसुलिया" તેમની પાસળીઓના હાડકા પીસાઈ જાય છે, તથા “” માછલીને વી ધનાર डाटानी म “कालकलोहदण्ड " सोढाना जा 43 "उर" छाती "उदर" पेट, “ बत्थि" मस्ति-गुह्य प्रदेश, म " पिट्ठ" ची वगैरे स्थानी ५२ न्यारे "परिपीलिया" तभने भार ५ छ त्यारे, तथा “मत्थत हिय य सचुणियगुवगा" " मत्थत हियय" न्यारे तमनायतु मा४ मा द्वारा मथन ४२वामा मावे के त्यारे, तय "सचुण्णियगुवगा" ४४४ भान ઉપર ઘસડવાને લીધે જ્યારે તેમના અંગ ઉપાગોને સારી રીતે ચૂરો થાય છે ત્યારે તેઓ ઘણુ જ દુખી થાય છે શિર, ઉર, ઉદર પૃષ્ઠ, બે હાથ અને બે પગ એ આઠ અંગો ગણાય છે તથા કાન, નાક, હાથ પગના આગળ वगेरे पाणी उपाय छ में प्रभारी त "केइ" टस महत्तयाही-योर, Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ प्रश्नध्याकरणसूत्र क्षणानिबासीमि काप्टस्येव गावक्षोल्नानि, विमानानिगारीमदानादिभिर्विविधरीत्याऽपमानकरणानि तथा 'सारकइयतित्तनापणजायणकारणसयाणि 'क्षार कटुकतिक्तनावणयातनाकारणशतानि = तत्र क्षाराणिमर्जीतारादीनि पटुकानि निम्बादीनि तिक्तानि च-मरीचादीनि तेषां नापण' इति मुसनासिकादी प्रक्षेपण, तदादीनि यानि यातनाकारणशतानि-विनियवेदनाकारणशतानि तानि 'बहुयाणि ' बहुकानि 'पापियता' प्राप्नुवन्तः, 'उरघोडीदिण्णागाढपेल्ग्णअहिकमभग्गसपसुलिया ' उरोयोटीदत्तगाहप्रेरणसमपास्थिक्रमपलिका' = तत्र उरसि-वक्षःस्थले दत्ताः स्थापिताः या घोटी 'घोडी ' इति मसिद्ध महाकाष्ठ तस्या गाढम् अत्यर्थ यत्प्रेरण-घर्षणपूर्वक सञ्चालन तेन सममानि-श्रुटिवानि उनके शरीर को छीलते है और विमानन गाली आदि से उनको अप. मानित करते हैं । (खारकडुयतित्तनावणजायणकारणसयाणि)(खार) मुख नासिका आदि में सर्जी क्षार आदि क्षार पदार्थो का (कड्य) आदि कटुक पदार्थो का एव (तित्त) मरीचि आदि तिक्त पदार्थो को चूरण (नावण) प्रक्षिप्त किया जाता है, (जायणकारणसयाणि) इत्यादि रूपसे (कारणसयाणि) वेदना प्रदानके जितने भी सैकड़ों प्रकार है उन सबका उन द्रव्य हरण करनेवाले चोरोपर प्रयोग किया जाता है । इस तरह (बहु याणि) बहुत प्रकारकी घोरातिघोर वेदनाको (पावियता) प्राप्त हुए वे जीव (उरघोडीदिण्ण गाढ पेल्लण अहिक सभग्गसपसुलिया)(उरघोडी) जब उनके वक्षःस्थल पर बहुत अधिक बोझवाली काष्ठ की घोडी (दिण्णगा ढपेल्लण ) इधर से उधर खेचकर फिराई जाती है इससे (अद्विकसभ णणाणि" पासan भयो तेमना शरी२२ छा छ, भने यो माथी तेभने अपमानित ४३ छ “सारकडुयतित्तनावणजायणकारणसयाणि" "खार" भुभ, न माहिमा सामा२ माह क्षार युक्त पहायानी “कड्य" सीमागी माहि ४ पहानी, भने "तित्त' भरया माहिती पहानी भूही " नावण" नावामा आव छ, “जायणकारणसयाणि " त्यादि પ્રકારની પીડા પહોચાડવાની જે સે કડે પદ્ધતિ છે, તે બધીને તે દ્રવ્ય १२९५ ४२ना२यो ५२ प्रयोग ४२वामा आवे छ, भारत “बहुयाणि" ने प्रा२नी लय ७२मा नय४२ वहनामा “ पावियता" ते सो मनुल छ “ उरघोडीदिण्णगाढपेलणअट्टिकसभग्गसपसुलिया " " उरघोडी " न्यारे Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = सुदर्शिनी टीका अ० ३ ०१४ चौरा किं फल प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२२ तथा 'तम्मणण विमुहियमगा' लम्यमान ननणवेदनाविमुखितमनसः= लम्पमानचर्माणि=गलन्चर्माणि यानि गानि तानि ' या ' इति प्रसिद्धानि तेपा या वेदना:- पीडाः ताभिः मुसित पार्यकरणाद् विरक्त मनो येपा ते तथा, ' वग कोण निपलज्य रसं फोडियमोटियाय ' कुट्टननिगडयुगलम कोटितमोटिताच = तत्र धनकुट्टनेन = लोडमय मुद्गरताडनेन निगउयुगलेन = गृबलाइयनन्धनेनेत्यर्थ, सोदिता = मक्कोचिता मोटिताःकीकृताय येते तथा 'कीरवि ' 'क्रियन्ते = राजपुरुपैरिति प्रर्वेण सम्बन्धः । तथा निकन्यारा:= निरुद्रमून पुरीषोत्सर्गाः, यद्वा-निरुन्चाग =म्पपीटामती कारार्थ मे कशडीच्चारणमात्रमविकर्तुमशक्ताः, अत एन अमञ्चरणा. = गमनागमननिता. एकानमनिद्वाएन 'पात्रा' पापा:=पापपन्न बने हुए तथा (लतचम्मचणवेणचितुरियमगा ) ( लगतचम्म ) कोड़ो आदि की मार से शरीर की खाल खिंच जाने के कारण लटकते हुए चमडे से युक्त (वण ) पात्रों की ( वेयण ) वेदना से ( विमुहियमणा ) जिनका मन चोरी करने से विरक्त हो चुका है ऐसे, तथा (aणकोणनिपलजुयलसकोटिनोडिया ) ( घणकोहण ) लोहमय मुहरों की चोट से, एव (नियलजुय ) दो सालों द्वारा किये गये घनों के (सकोटियमोडिया ) जिनका शरीर सकुचित होकर वक्रीभृत रो चुका है (निच्चारा ) अपनी पीडा को प्रकट करने के लिये जो एक शब्द के उच्चारण करने में भी अनम न चुके हैं, अवा- वेद मार के कारण मल मुत्रका उत्सर्ग जिनका यद हो चुका है और इसी कारण जो ( अमचरणा ) एक ही स्थान में प्रतिवद्ध रहने के कारण जो चलने फिरने में असमर्थ बन चुके है ऐसे ये अदत्तनाही ( पावा ) पापी એવીદીનદએમા મૃડાયેલા તથા चम्मवणनेयणविमुहियमाणा " ' नतचम्म " डोरा माहिना प्रहाग्यो रात्रीश्नी ग्राभडी तरी स्वावी सटन्ती याभडी वाजा "वण " बावोनी बेहनानी 'निमुद्दियमणा જેમના भन यो ग्वाथी विगत था गया है, तथा " घणकोहण नियलजुरल सकोडिय मोटिया " " घणकोण " सोहमन भग-जोनी थोथी भने “नियलजोयल " એ સાળા ઢાળ मवायेसा जघनायी ' मकोडियमोडिया " જેમના શરીર भजयाधने बजी गया है तथा " निरुत्वारा " पोतानी बेहनाने प्रगट खाने માટે એક સખ્ત પશુ ખેલવાને જે અસમય છે, અથવા બેહુદ મારને લીધે જેમની મળમુત્ર આદિના ભંગની ક્રિયા બવ થઈ ગઈ છે અને ८४ असच” એક જ સ્થાનમા પૂરાયેલ વ્હેવાને કારણે જેવા હલન ચલન ડગ્યાને रणा ७० ४२ 4 " Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ प्रश्नव्याकरणसूत्रे तत्र अविराधितवैरिकैः = निरपराद्वा एव वैरिणः शत्रवः = निष्कारणवैरिण इत्यर्थः तेः 'जमपुरिससनिभेहिं ' यमपुरुप सन्नि=परमाधामिदेदः भयोत्पादकत्वाने रेवभूतैः 'आणतिकिकरेहिं ' आशतिकिङ्करैः = राज निदेशकारिभि पुरुपै: ' पहया' महतास्ते== अदत्ताssदायिनः 'तत्य' तत्र कारागारे 'मदपुण्णा' मन्दपुण्या:= भाग्यहीनाः 'चडवेला पट्टपोराच्छिना कसलत्तनरत्त वेत्तपहारमतता लियगुवगा ' 'चडवेला पोराकशाला वरना वे महारशतताडिताङ्गोपाङ्गा, चडवेला = चपेटा 'उद्धपट्ट ' वर्धपट ' रद्धपट्ट = चर्मपट्टः ' पोरा ' लौहकीलकाः, देशीशब्दोऽयम् 'च्छिया ' चिकणचर्मकथा 'चाबुक' इति भाषा मसिद्धा, देशी शब्दोऽय, कशाः = अश्वादिताडनचर्मयष्टि', 'लया' लता = लम्बाहरित वृक्षशाखायष्टि 'छडी' ' कामडी ' इति भाषा मसिद्धा ' वरत' वरना = चर्ममयीरज्जुः 'वेत्त ' वेत्र = वे यष्टि', एतेषा 'पहारसय ' महारशते 'तालियगुपगा' ताडिताङ्गोपाङ्गा = ताडितान्यङ्गोपाङ्गानि येषा ते तथा, 'किविणा' कृपणा' = दीनाः, विना अपराध के ही बैरी बने हुए- निष्कारण शत्रु भाव को प्राप्त हुए ऐसे ( आपत्ति किंकरेहिं ) राजनिदेशकारी पुरुषों के द्वारा कि जो (जमपुरिससनिभेर) यमपुरुष - परमाधार्मिक जेसे होते हैं (तत्थ ) उस कारागार मे (पया) आहत - दुःग्वि किये जाते है। वहां पर वे (मदपुण्णा) अभागे ( चडवेला यद्धपट्ट पोराच्छिबाकसलत्तवरत्तवेत्त पहारस यतालियगुवा) (चडवेला थप्पड़ों के, (बद्धपह) चर्म पट्टोंके, (पोरा पोरलोहे के खीलों के, (छिवा ) चिकने चमडा के कोडो के ( कस) चाबुक के, (लत्त ) लता - हरे वृक्षकी शाखा की छडी के, ( वरन्त ) वरत्राचमड़े की रस्सी के, वेतों के ( पहारसय) सैकड़ो प्रहारों से (तालियगु वगा ) अग उपागों में ताडित किये जाते हैं । (किविणा ) दीनदशास 66 'अविराहिय वेरीएहि " विना वाडे हुश्मन मानेला विना अरशु शत्रु जनी Asal, “angkaufanfe” यम हेव वा " आणत्ति किंकरेहि " शुभ પુરુષા દ્વારા, તે કારાગારમા "" "7 पहुया મહારા વડે દુખી કરાય છે ત્યા તે " मदपुण्णा અભાગી લાકા वडवेला पट्ट पाराच्छिबाकसलत्तवरत्तवेत्तपहारसयतालियगुवगा " " चडवेला " थप्पडना,“ बद्धपह "शुभट्टासोना "पोरा " बोढाना जीसामोना, "छिवा " थी उषा याभडाना अरडाना, “कस" यामुना, त् " सीक्षा वृक्षनी डाजीगोनी सोटीसोना ""वरत" वरतना याभडाना होरडाना अने नेतरनी सोटीसोना, "पहारसय तालियगुक्गा" तेभना मग त्यागी पर भारवामा आवे छे 4 "" સેકડા પ્રહાર " किबिणा " 66 ८८ " Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २०३ सू०१५ यीदृशाश्चौरा फीदृश फल लमन्ते ? ३३१ टीका-'अदतिदिया' अदान्तेन्द्रियाः अगेन्द्रियाः 'वसट्टा' वार्ता शब्दादिपिया सक्तिपीडिताः 'नमोहमोहिया' बहुमोहमोहिता प्रचुरऽनानम् ठिताः 'परपगम्मि लुहा' परवने लुम्मा-परद्रव्यतणावन्त इत्यर्थः, 'फासिदियविसयतिब्बगिदा' म्पर्शेन्द्रियविपयतीनद्धा सर्गेन्द्रियपिये स्व्यादौ गाढामक्ताः 'उत्थिगयरूपमदग्सग पहरतिमहियभोगतण्डाइया य' स्त्रीगतरूपगन्नरसगन्वेष्टरतिमहितभोगतृष्णार्दिताश्च-तन बीगताः स्त्रीसम्बन्मिनो ये रूपगदरमगन्धास्तेपु इप्टा अभीप्सिता या रतिः रमण तथा बी गत एन महितः = पाच्छितो यो भोगः= गिलास. तयो र्या तृष्णा तया अर्दिताः-पीडिताः ‘वगतोसगा' धनवोहैं ? यह कहते है- अदतिदिना' इत्यादि । टीकार्थ-(अदतिदिया) ये अदत्तग्राही चोर (अदतिदिया) ऐसे होते हैं कि इनकी इन्द्रिया इनके कामे नही रहती है, (वसहा) शब्दादिक विपयों में ये अधिकरूप में आसक्तिवाले होते है, (बहुमोह. मोहिया) अज्ञानकी सत्ता इनमें अधिकसे अधिक रहती है (परवणम्मिलुद्दा) परके द्रव्यमें इन्हें वहत भारी तृष्णा रहती है। (फासिदियचिसयतिव्यगिद्वा ) स्पर्शन इन्द्रियके विपरभूत स्त्री आदि पदार्य में इनकी गाढ आसक्ति होती है। (इत्यिगयख्वसहरसगट्ठरहमदियभोगतण्हादया य) (इत्यिगय) स्त्री सनबी ( स्वसदरसगवडठ्ठरह ) रूप शब्द, रस, गधमें इच्छानुसार रमण करने की तथा (महिघ) स्त्रीके भोगनेकी चान्छा इनमें अधिक रहती है । परन्तु (भोगतण्हाडा) उन भोगोंकी पूर्ति नहीं हो सकने के कारण ये उनकी तृष्णासे रातदिन ते सूत्र२ मताचे छ– 'अतिंदिया " त्या: टी -" अदतिंदिया" ते महत्तायाही यो सेवा डायतभनी धन्द्रियो ७२ तेमनी आडात नथी, “वसट्टा " हा विषयोभा ते पधारे प्रभाएमा मामान खाय छ, "बहुमोहमोहिया " तमना ५२ माननी मत्ता वारेमा थारे या छ, “परवणम्मि लुद्धा" ५२धनना तृप्त तमनामा gr पधारे हाय , “फासिदियविसयति चगिद्धा" म्प ન્દ્રિયને વિષયભૂત સ્ત્રી આદિ પદાર્થોમાં તેમની તીન આસકિત હોય છે, " इत्थिगयरूपसदरसगवइगुरइमहियभोगतण्डाइया य " " इत्थिगय" स्त्री सधा " रूपमदरसगध इदुरइ" ३५, ६, अन गया २ानुभा२ २मय “ महिय'२पानी तथा स्त्रीय माथे २तिरभए २वानी वासना मनामा धारे सय छे ५५ " भोगतण्हाइया" ते माग पूरा नही थवाने , तभनी Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० प्रश्नव्याकरणसूत्रे कारका अदत्तहारिणो जनाः 'एया अण्णा य एमादीओ यणाओ' एता पूर्वोक्ताः, अन्याश्च अन्यप्रकारा एपमादिकाएर प्रकारानानाविधा वेदनाः - दु सानि 'पावति ' प्राप्नुवन्ति ।। सू० १४ ॥ पुनस्ते कीदृशाः कीदृश फल लभन्ते ? तदाह- जदतिंदिया' इत्यादि । __ मूलम्--अदतिदिया वसहा बहुमोहमोहिया परधणम्मि लुद्धा फासिदियविसयतिबगिद्धा इत्थिगयरूबसदरसगधइट्टरइमहियभोगतण्हाइया य धणतोसगा गहिया य जे नरगणा पुणरवितेकम्मदुवियड्डा उविणीया रायकिकराणं तेसिं वह सस्थग-पाढयाण विल उलीकारगाण लंचसयगेण्हयाणं कूडवडमायाणियडि-आयरण-पणिहिवचण-विसारयाण बहुविहअलियसयजपगाण परलोगपरम्मुहाण निरयगइ गामियाण तेहि य आणत्तजीवदडा तुरिय उग्घाडिया पुरवरेहि सिंघाडगतियचउक्कचच्चरमहापहपहेसु वेत्तदडलउडकट्ठलेट्रपत्थर-पणालिय पणोलिमुटिलत्तपादपण्हि जाणुकोप्परप्पहरसभग्गमहियगत्ता अट्टारलकम्मकारिणो पाइयगुवगा कलुणा सुमोहकठगलताल जिन्भा जायता पाणिय विगयजीवियाला तण्हाइया वरागा तपि य न लहति वज्झपुरिसेहि धाडियता ॥सू०१५॥ जीव ( एया) इन पूर्वोक्त वेदनाओं के तथा ( अण्णाय एवमाईओ) इनसे अतिरिक्त और भी नाना प्रकार की ( वेयणाओ) वेदनाओं के (पायति) प्राप्त होते है ।। सू-१४ ॥ अब ये अदत्ताग्राही चोर कैसे होकर किस प्रकारके फलको भोगते असमय थ गया छ, सवा ते महत्तयाजी " पाया" पापी ।“ एया" 2 yaहित ना तथा “ अण्णाय एवमाइओ' ते भिवायनी ५५ भने प्रा२नी " वेयणाओ" वहनामा " पावति" पाने छ । सू-१४ ॥ હવે અદત્તાગ્રાહી–ોર કેવા હોય છે અને કેવા પ્રકારના મત ભોગવે છે Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिंनी टीका १०३ सू० ५५ कोशाधोरा कीदृश फलं लभन्ते १ ३३३ ग्राहकाणांनानाविधलञ्चग्राहकाणा ' स्थित खोर' इति भोपा प्रसिद्धाना तथा ' कृडस्पडमायाणियहि-पायरगपणिहिवचणपिसाग्याण ' कूटकपटमायानिकत्याचरणप्रणिधिनञ्चनपिगारदाना-तत्र कृट-भ्रमोत्पादन, कपट-वेगमापानानारूपधारण मायापारादीन् निग्रहीतु भिक्षाटत्यादिभिश्लपरण, गोजनादिभिरादरसत्कारकरणपश्चन निकृतिः तथा प्रणिरिपचन प्रणिधिना-उलेन एकाग्रचित्तेन वा वचन, यद्वा-मगिपीनाराजगुप्तपुरपाणा यद्वश्चन तत्र विशारदा मागल्भा ये ते तथा तेपा 'बहुविहअरियसयजपगाण' पहुविधालीशतनल्पकाना चौरादीनां आदि की शिक्षा से ये राजपुरुप शिक्षित होते है ( दिल उलीकारगाणं) दीन-हीन आटि वचनों को गोल कर चोर आदिको का निर्णय कराने वाले होते हैं, अर्थात्-ये राजपुरुप ऐसे निपुण होते हैं कि वोरों का पता यहु जल्दी लगा लेते है, इस प्रकार की उनकी बात चीत का ढग होता है कि जिससे " यही चोर है" इस बात का उन्हें ज्ञान हो जाता है। (लचसयगेण्याण) ये रिश्वतखोर-घूस खाने वाले होते हैं । तथा (कूडकपडमायाणियडि आयरणपणिहि-चचणविमारयाण )( कृड ) कूट मेंभ्रमोत्पादन में, ( कवड) कपट में-वेश भापा के नानारूप धारण करने में, (माया) माया में चोरोको पकडने के लिये भिक्षावृत्ति आदिसे छल करने में, (नियडि आयरण ) निकृत्याचरण में-भोजनादि द्वारा आदर सत्कार से प्रतारणा करने में, तया (पणिरिबचणा) प्रणिधि-वचनमें कोई बहाने से ठगो में, अथवा राजा के गुप्तचर पुरुषो का ठगने में, (विसारयाण ) बडे विशारद-चतुर होते है । (बहुविहअलियसयजपa dyst२ य छ “ विलउलीकारगाण " दीन-हीन माह क्या माली ચેર આદિને નિર્ણય કરનાર હોય છે, એટલે કે તે રાજપુરુષે ચરોને જલ્દી શોધી કાઢવામાં નિપુણ હોય છે તેમની વાતચીતની ઢબ એવી હોય છે કે था “म! माणुस र यार ," से वात भने समय " लच सयगेण्याणं " तो दायाया डाय छ, तथा “ कूडकवडमायाणियडिआयरणपणिहिवचणविसारयाण " "कूड" ७ उपामा भ्रमात्मानमा, " कवड" ४५८मा-विविध वेश सेवामा, “ माया" माया याराने ५४वाने भाट लिक्षावृत्ति माहि छ सवाभा, " नियडिआयरण" नित्यायरमा खान द्वारा मा४२१७२थी प्रतार! ७२बामा तथा “ पणिहिव चणा " પ્રણિધિ વચનમાં, કોઈ પણ બહાને ઠગવામાં અથવા રાજાના ગુપ્તચરને आवामा, “ विसारयाण " सारे निधुरा साय छ “बहुविहअलियसयजपगाण " ' Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ । प्रश्नव्याकरणसूत्रे पका परधनचौर्येण तुप्यन्ति ये ते तथा राजपुस्पैः 'गहियाय' गृहीताय ये नरगणाः चौरजनसमूहाः पूर्व कोटपालादिमि प्राप्तदण्डाः 'पुणरवि ते ' पुनरपि ते ' कम्मदुन्धियडा कर्मदुर्विदमा अदत्तादानारिकर्मननितकटुकफलज्ञानरहिवा. चौर्यकर्माऽपराधेन तेसि रायकिंकराण' तेपा प्रसिद्वाना निर्दयाना राजकिराणा राजपुरपाणामग्रे 'उवणीया' उपनीता= समीप प्रापिताः कथ भूतानां राजकिराणामित्याह ' वधसत्यगपाहयाण । शास्त्र कपाठकानापन्धमार• पघातनमानशिक्षाशिक्षिताना विरुउलीकारगाण' लिउली हीनदीनादिवचनै चौरादीना निर्णयः देशी शादोऽय, तत् कारकागा 'लचसयगेल्याण' लश्वशतदुःखी होते रहते है । (धगतोसणा ) यदि इन्हें सतोप प्राप्त होता है तो वर एक परके धनके अपहरण करनेसे ही होता है। परन्तु यह सतोप इनका स्थायी नहीं रहता है कारण जन (जेनरगणा) ये अदत्त ग्राही चौर लोक (गरिया य) राजपुरुषों द्वार। गृहीत पकड़ लिये जाते है, तब (पुणरवि ते ) फिर भी वे विविध प्रकार के दडों से इन्हे विशेष दुःख भोगना पड़ता है । तथा (कम्मदुधियडा) अदत्तादानादि कर्मजनित कटुक फल के ज्ञानसे रहित बने हुए चौर्यकर्मरूप अपराधके कारण (तेसि) उन (रायकिराण) निर्दय राजपुरुपों के आगे जब " (उवणीया) ले जाये जाते है तर वे इन्हें प्राणदड की आज्ञा देते है, तथा और भी इनके साथ क्या २ व्यवहार करते है यह बात सूत्रकार स्पष्ट नीचे के अवतरणों द्वारा करते है-राजपुरुष कैसे होते है ? पहले यह बात सूत्रकार कहते है- वधसत्यगपाढयाण)वध, बघ, मारण, घातन, तृशान २ ते रातहिन भी थया २ छ । धण तोसणागत ५२५ નનું અપહરણ કરવા સિવાય બીજા કેઈ કાર્યથી સતોષ થતું નથી, પણ ते सतोष स्थायी खाता नथी २९ मारे "ते नरगणा" म त्ताग्राही यो। “गहियाय" २४पुरुषो द्वारा ५४नय छ त्यारे" पुणरवि ” ફરીથી પણ તેમને અનેક પ્રકારની શિક્ષાઓ દ્વારા વધારે દુ બે ભેગवा ५ छ, तथा “कम्म दुब्बियट्ठो” महत्ताहीन माह मना परिणाम ज्ञानथी सज्ञानथी मेवा त योरोन, योरीना सुनाने मरणे " तेसिं" "राय किंकराण" निय पुरुषो पासे न्यारे "पणीया" स्वाभा मा छ ત્યારે તેમને મૃત્યુદંડની સજા થાય છે, તથા તેમની સાથે બીજા પણ કે વર્તાવ રાખવામાં આવે છે, તે વાતને સૂત્રકાર નીચેના, વાક્યો દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે–પહેલા તે રાજપુરુષે કેવા હોય છે, તે વાત સૂત્રકાર બતાવે છે " वधसत्थगपाढयाण" वध, मध, भा२शु, घातन, माहि विद्यामाना Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका य०३ मू० १५ कीशाचोरा पीडश फल लभन्ते । ३३५ अनेरुमार्गसम्मेलनस्थान महापथा राजमार्गः पन्थाः सामान्यमार्गस्तेपु त्वरित= शीघ्रमुद्घाटिनाः जनममक्षे प्रदर्शिताः ' इमे महाचोरा : शीत्रमद्यैवाभ्याः' इति जनसमक्षे प्रदर्शिताः, क्य भूता. ' इत्याह-वेत्त-दड-लउड-कट्टलेट-पत्यरपणालिय-पगोलियमुहिठत्तपायपण्वि-जाणुकोप्परप्पहारसभग्गमहियगत्ता' वेत्रदण्ड- लगुट- काप्ठ-मम्तर- प्रणाली-प्रणोदी मुप्टिलत्ता-पादपाणि-जानुकर्पर-प्रहारसभग्नमयितगाना, तन' वेत्तदड' वेनदण्डः 'लउड' ल्कुट: यष्टिः 'कट' काष्ठ चम्बतीत 'लेट्ट' लेष्टु =मृत्तिका खण्ड 'पत्थर' प्रस्तरश्च-पापाणः 'पणालिय' प्रणालीअकृप्टा, नाली पुस्पप्रमाणदीयष्टिः 'पणोली' प्रणोदी =ताडनदण्डो, 'मुट्ठी' मुष्टिः। इति भाषा प्रसिद्ध 'लता' पाद. 'लात' इति भापा प्रसिद्ध , ' पादपण्डि' पादपाणिः परणपश्चाद्भागः 'एडी' इति मापा मसिह', जानुः= घुटना' इति प्रसिद्ध 'कोप्पर' कर्परश्व-भुजम यग्रन्धिः 'कृणि' इति भापा प्रसिद्धः, एतेपा प्रहारैः 'सभग्ग' सभग्नानि त्रुटितानि, 'महिय ' मथितानि चम्मम्मर्दितानि 'गत' गानाणि शरीराणि येपा ते तथा नाम चतष्क, जहा अनेक मार्ग आकर मिले हों उसका नाम चत्वर, राजमार्ग का नाम महापथ एर सामान्यमार्ग का नाम पथ है। (वेत्तदड लउड-कट्ठ-लट्ठ-पत्थर-पगालिय-पणोलिय मुद्धि-लत्त-पायू-पण्डि-जाणू कोप्परप्पहारसमग्गमवितगता) राजपुरुप इन चोरों को (वेत्तदड ) वेतों के डडों की मार से, (लउड ) लकड़ियों की मार से, ( कट्ठ) काष्ठों की मार से, (ले?) मृत्तिकाके खडोकी मार से, (पत्थर) पत्थरों की मार से, (पणरिय) पुरुपप्रमाणदीर्घ यष्टियों की मार से, (पणोलिय) प्रणोली-ताडन दो की मार से, (मुट्ठि) मुट्टियो-मुक्कों की मार से, ( लत्त ) लातो की मार से, ( पायपरिह) एडियो की मार से, (जाणु) घुटनो की मार से तया कोहनियो की मार से हड्डी पसली सर एक कर देते हैं-मतलब ये कि वे इन्हें जो इनके हाथ में आ जाता है उसी से छ भने महा५५ भने सामान्य भागने ५५ 3 2 "वेत्तदड-लउड -फट ले-पत्थर-पणालिय पणोलिय-मुट्टि-लत्त-पायू-पण्हि-जाणू-कोप्पर प्पहारसभग्गमथितगत्ता" रापुरुषो न योरेशने नेतनी सटीसाथी, दाडीमाथी साथी भाटीना आथी पथ्यशथी, “पणलिय" पुरु५ मापनी साथी, "पणोलिय" असाथी, भुशासाथी, साथी, मेडीथी, घुट थी तथा एथी સારી રીતે મારે છે, એટલે કે તેમના હાથમા જે સાધન આવે તેનાથી તે सो भने मई २५ गते भा२ भारे छ “ अट्ठारसकम्मकारिणो" ते Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ प्रश्नव्याकरणसूत्र भेदग्रहणाय नानाविध मिथ्याभाषिण, परलोकपरम्मुहाण' परलोक परामुसाना= परलोकभयरहितानामित्यर्थः, 'निरयगउगामियाण' नरगितिगामिकानामेवभूताना राजपुरुषाणां पुरत उपनीताः 'तेहि य' तेच राजपुष्पैः 'जाणत्तजीवद्रडा' आजप्त जीवदण्डा आज्ञप्ता=आज्ञापितः गोपटण्डाशूलारोपणादिका येभ्यस्ते तथा आज्ञप्तमृत्युदण्डा इत्यर्थः, तथा ' तुरिय उपाडिया पुरवरेहि सिंघाडगतियचउकच च्चरमहापहपहेसु 'शगाटकनिकचतुकवत्वरमहापथपयेपु-तम-शृगाटका-त्रिको णमार्गः विका-यत्र मार्गत्रयसम्मेलन भाति, चतुष्का=चतुर्मार्गम्यान चत्वरःगाण) चौरादिकों का भेद लेने के लिये अनेक प्रकार की सैकड़ों झूठी२ चाते बनाने में बड़े चतुर होते है, (परलोकपरम्मुहाण ) परलोकका भय इन्हें बिलकुल नहीं होता है । जो मनमें आता है वही अन्डा मानकर करते रहते हैं । (निरयगइगामियाण ) इसी कारण मरने पर ये नरकगति में जाते हैं। अप ये राजपुरुप उन्हें क्या २ दड देते है ? सो सूत्रकार प्रदर्शित करते हैं (तेहिं य) ये राजपुरुप ( आणत्तजीयदडा) इन चोरों को शूलारोपण आदि मृत्युदड देते है। (पुरवरहिं) नगर के (सिंघाडगतियचउकचचरमहापपहेतु) शृगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर, महापथ एव पथ इन सर मार्गों में (तरिय उपाडिया) शीघ्र उन्हें दिखा २ कर यह घोपित करते हैं कि "देखो भाईयों। ये महाचोर हैं और आज ही इनको मृत्युदड दिया जायगा । सिंघाडे जैसा तिकानों जो मार्ग होता है उसका नाम श्रगाटक, जहा तीन मार्गों का समेलन है उसका नाम त्रिक, जिस रास्ते में चार रास्ता आकर मिलते हैं उस का ચાર આદિને ભેદ જાણવા માટે અનેક પ્રકારની સેકડે જુઠી વાતો બનાવી दिपामा ते निपशु डाय छे, "परलोकपरम्मुहाण " भने ५२साउन ३२ मिसस तो नथी, तभन मनमा माये ते सारु मानीने ४२ छ 'निर यगइगामियाण " ते २ भरीन तेसो नगतिमा तय छ १२ ते २४ पुरुषो तेमन वी उपासनत रे छ, ते सूत्रा२ मताछ-" ते हिं य" ते पुरुषो “ आणत्तजीयद डा" ते यारोन शबाना मा मृत्यु हे छ “ पुरवरेहि " नाना " सिंघाडगतियचउक्चच्चरमहापहपहेसु " शमाटर, न्यतुष्ट, यत्पर, मडा५५ भने ५व से या मार्गा ५२ " तुरिय वाडिया भने उपथी तापीने से लड ४२ ला !gal, આ મહાન ચેર છે, અને આજે જ તેને મૃત્યુદંડ આપવાને છે” શિગડા જેવા ત્રિકોણાકાર માગીને શગાટક કહે છે, જ્યાં ત્રણ રસ્તા મળે તે ત્રિ, ન્યા ચાર રસ્તા મળે તે ચતુષ્ક, જરા અનેક માર્ગો મળે તેને ચત્વર કહે Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शनी टीका म0 सू० १५ कीशाचोरा कीदृशफल लभन्ते निरूपणम् ३३७ भलन १, मुगल २, ता ३, राजभागो ४, ऽवलोकनम् ५। अमार्गदर्शन ६, भग्या ७, पदभग ८, स्तथैव च ॥ १ ॥ विश्रामः २, पादपतन १० मामन ११, गोपन १२ तथा। सण्डस्य सादन चैत्र १३, तपान्यन्मोहराजिस्म् १४ ॥२॥ पद्या१५, ग्न्यु १६, दक १७ रन्जूना १८, प्रदान ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रस्तयो ज्ञेया अष्टादश मनीपिभिः ॥ ३ ॥ तर भलन'न भेतव्य भरता तर पक्षेऽहमपि सम्मिलिप्यामी 'त्यादि वचनैः चोरी अठारह प्रकार की इस तरह से है"भलन १ कुशल २ तर्जा ३। राजभागो ४ऽवलोकनम् ५ । अमार्गदर्शन ६ शय्या । पदभङ्ग ८ स्तथैव च ॥ १ ॥ वित्राम ८ पादपतन १० । मासन ११ गोपन १२ तथा । खण्टस्य सादन चैव १३ । तयान्यन्मोहराजिकम् १४ ॥२॥ पद्या १५ न्यु १६ दक १७ रज्जून १८ । प्रदान ज्ञानपूर्वकम् । एताः प्रसूतयो जेया । अष्टादश मनीपिभिः॥ ३ ॥ भलन १, पुशल २, तर्जा ३, राजभाग ४, अवलोकन ५, अमार्गदर्शन ६, शय्या७, पदभग८॥१॥ विश्राम ९, पादपतन १०, आसन११, गोपन १०, खउखादन १३, मोहराजिक १४ ॥२॥ पद्यदान १५, अग्निदान १६, उदकदान १७, रज्जुमदान १८ ॥ ३ ॥ " तुम डरो मत-में भी तुम्हारे पक्षमे मिल जाऊँगा" इत्यादि ચોરીને અઢાર પ્રકાર નીચે પ્રમાણે છે – "भलन १, कुगल २, तर्जा राजभागो ४ ऽनलोकनम् । अमार्गदर्शन ६ शग्या ७ पदभग८ स्तथैव च ॥ १ ॥ विश्राम ९ पादपतन १० मासन ११ गोपन १२ तथा । खण्डस्य खादन चैव १३ तथान्यन्मोहराजिझम् १४ ॥ २॥ पद्या १५ ग्न्यु १६ दक १७ रज्जूना १८ प्रदान ज्ञानपूर्वकम् । एता प्रसूतयो ज्ञेया अष्टादश मनीपिभिः ॥३॥ (१) ससान, (२) सुरास, (३) त (४) मा (५) अक्टोइन, (6) समान, (७) 24, (८) पहन ॥१॥ (6) विश्राभ, (१०) पायतन (११) मायन, (१२) गोपन, (13) मान, (१४) भारि ॥२॥ (१५) પદાન, (૧૬) અનિદાન, (૧૭) ઉદકદાન અને (૧૮) રજુપ્રદાન પામ્યા (૧) “ તમે ડરશે મા-હ પણ તમારા પક્ષમાં મળી જઈશ વગેરે Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PI racter सूत्रे 'अट्टारसम्मकारिणो ' अष्टादशकर्मकारिणः =अष्टादशचौरममृतिकारकाः अष्टा भवति तत्कारका इत्यर्थः । अय चौरस्य चौर्यकर्मणथ लक्षणमुक्त ३३६ दशमकारै ग्रन्थान्तरे -- "} - "चौरः १, चौरापको २, मन्त्री ३, भेदज्ञः ४, काणककयी ७ । अन्नदः ६, स्थानदचैन ७, चौरः सप्तभिः स्मृतः ॥ १ ॥ चौरचर्यकारकः १, चौरापक' = चौराय वस्तुसमर्पकः २ मन्त्री चौराय सम्मतिदायकः ३, भेद = कुन कस्य गृहे कया रीत्या कस्मिन् समये चौरी कर्तव्ये' -त्यादि भेदज्ञातार' ४, काणकक्रयी-चौरा नीत बहुमूल्य वस्तु काणक हीन कृत्वा य क्रीमति सः ५, अनौराय पोयमन्नदायक, ६ स्थानदः = चौराय विश्रामा स्वगृहादी स्थानदायकः ७, इति सप्तविधौर । अय चौर्यकर्म ययाघुरी तरह मारते हैं । (अट्ठारसम्मकारिणो ) ये चौर अठारह प्रकार से जो चौर्यकर्म किया जाना है उसमें निपुण होते है । ग्रन्थान्नर में चोर और चोरी के लक्षण इस प्रकार कहे हुए हैं" चौरः १ चौरापको २ मन्त्री ३, भेदज' ४, काणकरुपी ५ | अन्नदः ६ स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥ १॥" जो स्वय चोरी करता है १, चोरो को वस्तु देता है २, चोरो को समति देता है ३, किस समय किसके घर मे किस रीति से कहा चोरी करनी चाहिये इत्यादि रूप से जो चोरो को चोरी करने का भेद देता -- है ४, चोरो के द्वारा लाई गई वहु मूल्य वस्तु को जो अल्पमूल्य देकर खरीदता है ५, जो चोगे के लिये खाने पीने की व्यवस्था करता है ६, तथा चोरों के लिये विश्रामनिमित्त जो अपने घर आदि में स्थान देता है७ ये सब चोर हैं। इस प्रकार ये सात तरहके चोर कहे गये है ॥ १॥ १ t १„ ચાર જે અઢાર પ્રકારે ચારી કરવામા આવે છે તેમા નિપુણ હોય છે. બીજા ગ્રન્થમા ચાર અને ચારીના આ પ્રમાણે લક્ષણા મતાવ્યા છે " चौर : १ चौरापको २ मत्री ३ भेदज्ञः ४ काणकक्रयी ५ । f अन्न ६ स्थानदचैव, चौरः सप्तविव' स्मृत' ॥ १ ॥ " (१) ने पोते ४ योग उरे छे, (२) ने थोरोने वस्तुमा आाये छे, (3) ने थोरोने समति आये छे, (४) न्यारे, अना घरमा म रीते यारी કરવી જોઇએ ઇત્યાદિ પ્રકારે જે ચારાને ચેરી કરવાનુ રહસ્ય ખતાવે છે, (૫) ચારા દ્વારા ચોરી લાવવામા આવેલી કીતિ ચીજોને જે આછી કીમતે ખરીદે छे, (६) ने थोरोने भाटे भावा पीवानी व्यवस्था रे छे तथा (७) ने थोरोने પોતાના ઘરમા આશ્રય આપે છે, તે ખધા ચોર ગણાય છે, આ રીતે સાત अारना थोर मतान्या छे ॥ १॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिनो टोका अ० ३ सू० १९ कोशाधोरा कीदृश फल लभन्ते' ३३९ शयनीयवस्नुदानमित्युभयोर्भेद. पादपतन-प्रणामादिना चौराणा सत्कारसम्मानकरणम् १०, आसनम् नामनदान ११, गोपनन्नाऽनेन चौर्य कृत स्वगृहे स्थापयित्वा नास्त्यति वा कयनेन चोर समोपन १२, खण्डस्य खादन-चारेभ्योमिष्टान्नादिटान १३, तथाऽन्यन्मोहरानिक लोकप्रसिद्धया परगष्टे गत्वा वस्तु विक्रयः १४, तथा ज्ञानपूर्वक चोरोऽय' मिति शुद्धिपूर्वक पाद्याग्न्युद करज्जूना महान-मार्गगमनमापनोदार्थ पाच-पादाय हितमुप्णतेलजलादि, तस्य दान १५, पाकायर्यमग्निदानम् १६, उदकदान-पानार्य जलदान १७, तथा चोरीतगोम ठाना-विश्राम देना इसका नाम विश्राम है ९। शय्यादान और विश्राम में अन्तर केवल इतना ही है कि शय्योदान तो दूसरी जगह ठहरने पर भी दिया जा सकता है परन्तु विश्राम अपने घर में ही दिया जाता है । चौरों के चरणों पर गिरफर उनका आदर सत्कार करना इसका नाम पादपतन है १० । वैठने को आसन देना यह आसनदान है ११ । " इसने चोरी नहीं की है, घर में होने पर भी घर में चोर नहीं है" इस मकार कह कर चोर की रक्षा करना इसका नाम गोपन है १० । चोरों के लिये खाने को मिष्टान्न आदि देना इसका नाम खण्ड खादन है १३ । नाफा घदी होने पर दूसरे स्थान में, अथवा लोक प्रसिद्धि से परराष्ट्र में एकदेशसे ले जाकद दूसरे देशमें बेचना इसका नाम मोहराजिक है १४ । “ यह चोर है " ऐसा जानकर भी उसे पद्य, अग्नि, उदक, रज्जु देना, पैरों की थकावट मिटाने के लिए गर्म जल तैल आदि का देना पद्य है १५ । भोजन बनाने के लिये अग्नि देना १६ । ચેરેને પિતાના ઘરમાં આશ્રય આપવો તેને વિશ્રામ કહે છે શાદાન તથા વિશ્રામમાં તફાવત એટલે જ છે કે વ્યાદાન તે બીજી જગ્યાએ રહે તે પણ આપી શકાય છે પણ વિશ્રામ પિતાના ઘરમાં જ અપાય છે (૧૦) योराने यो नभाग तेन या सवा ७२यो, तेथे पादपतन हे छ, (११) असवान भासन मा५५, तेने आसनदान ७९ छ, (१.२) “ भामे ચોરી કરી નથી, ઘરમાં ચોર છુપાવ્યો હોય તો પણ ચોર ઘરમાં નથી ” એ પ્રમાણે ડહાને ચોરની રક્ષા કરવી, તેને કહે છે (૧૩) ચોરેને ખાવાને માટે મિષ્ટાન્ન દેવું, તેને auggવન કહે છે (૧૪) નાકાબ ધી હોવા છતા બીજી જગ્યાએ અથવા એક દેરામાથી લઈ જઈને બીજા દેશમાં માલ वयवो, तेरे मोहराजिक ८ (१५) “ योर छे" मेवी २ डापा છતા પણ તેને પદ્ય, અગ્નિ, ઉદન (પોણ), રજુ (દેડુ) દેવુ તે પણ ચોરીના જ પ્રકારે છે, પગને થાક દૂર કરવાને માટે ગરમ પાણી, તેલ આદિ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ प्रमयाकाण चौराणामुत्साहदान १, कुशल-मुखदु याटि पृच्छा, तर्जा-चौरम्य दस्तादिसङ्केत करण ३, राजभागः राजकरस्याऽपदानम् ४, मालोमा चाय कुर्वत-उपेक्षापूर्वक प्रेक्षण ५, चौर्यमालोक्याऽपि स्वामिन प्रत्यरधनमित्यर्थः, नमार्गदर्शन-चीराणा रक्षार्थमुन्मार्गप्रदर्शन, चौरमार्गप्रच्छानामन्यमार्गदर्शन या ६, शय्या चौराय श ग्यादान७, पदभद्ग-पशूना सञ्चालनेन चोराणा गमनाऽऽगमनमार्गाद्वितचरणचिक लप्तकरणः, तथैर विश्रामः स्वगृहे निभासदान९, गन्यादानमन्यत्राप्युपवेशनाद्यर्थ उत्साह वर्धक वचनोसे चोरोका उत्साह अधिकाढाना इसका नाम भलन है १ । चोरों के सुस-दुःग्य आदि के समाचार पटना इसका नाम कुशल है २, हाथ आदि के सकेत से चोरी को इशारा करना इसका नाम तर्जा है ३ । निर्धारित राजटेक्स का नहीं देना इसका नाम राजभाग है ४ । चोरी करते हुए चोर को उपेक्षापूर्वक देसना, इसका नाम अवलोकन है, अर्थात् चोर को चोरी करते हुए देखकर के भी अपने मालिक से नहीं कहना-यह भी चोरी का प्रकार है ५। चोरों की रक्षा के अभिप्राय से अन्वेषण करने वालों को उन्मार्ग प्रदर्शन करना इसका नाम अमागे दर्शन है६। चोरों के लिये सोनेको शय्या देना इसका नाम शय्या है ७ । चोरों ने जहा चोरी की हो वहा उनके मार्ग मे चरणचिह्न अकित हो गये हो तो उन चिह्नों को नष्ट करने के लिये उन पर से पशुओ को निकालना कि जिससे वे नष्ट हो जाएं और पहिचानने में न आने पावे, इसका नाम पदभङ्ग है ८ अपने घर में चोरों को ઉત્સાહ વર્ધક વચને દ્વારા ચેરેને ઉત્સાહ વધારવાની ક્રિયાને મટન કહે છે (૨) ચેરને સુખ દુખ વગેરેના સમાચાર લાવનારને શુાહ કહે છે (૩) હાથ આદિના સંકેતથી ચેરને ઈશારા કરવા તેનુ નામ તજ્ઞ છે (૪) નકકી थयेस २०४ला-PHerयन ४२ न वा तेनु नाम राजभाग छ, (५) यारी કરતા ચોરને ઉપેક્ષાપૂર્વક જોવો તેને અોન કહે છે, એટલે કે ચોરને ચોરી કરતે જેવા છતા પણ પિતાના માલિકને નહીં કહેવું તે પણ ચેરીને જ પ્રકાર છે (૬) ચેરની રક્ષા કરવાને માટે તેમની શોધ કરનારને બેટે માર્ગ બતાવવો તેને વામન કહે છે (૭) ચોરેને સૂવાને માટે પથારી દેવી તેને રાજા કહે છે (૮) ચોરેએ જ્યા ચોરી કરી હોય ત્યા તેના માર્ગમાં તેના પગલા પડ્યા હોય તે તે પગલાને નાશ કરવાને માટે તેમના પર પશુઆને દેડાવવા કે જેથી તે પગલા ભૂસાઈ જાય અને ઓળખી ન કાકાય આ પ્રકારે પગલાના નિશાનને નાશ કરવાની ક્રિયાને મ7 કહે છે (૯) Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० ३ सू. १६ कीदृशाधोरा कोदश फल लभन्ते । ३४१ ओटयमानाबयेर यस्याने शूगरोपणस्थाने पुरुषैः तत्र नियुक्तैः राजपुरूपैः ग्राहयमाणाः प्रमाणाः नीयमाना इत्यर्थः, 'त पि य न लहति । तदपि च न लभन्ते जलमानमपि पातु न माग्नुपन्ति, किमन्य ? दित्यर्थ ॥ मू० १५ ।। अपि च-तत्य य ' इत्यादि। मूलम्-तत्यय खरफरुस-पडह-घटिया-कूडग्गहगाढरुट्ठनिसिट्र परामट्ठा वज्झकरकुडिजुयनिवासिया सुरत्तकणवीरगढियविमुकुल कंठे गुणवझ-दूय आविद्धमल्दाममरण भयुप्पण्ण सेयआयतणेहुत्तप्पियकिलिण्णगत्ताचुण्णगुडियसरीररयरेणुभरियकेसा कुसंभगुमिपणमुद्धया छिपणजीवियासा घुण्णता वज्झपाणप्पियातिल -तिल चेव छिज्जमाणासरीरविकत्तलोहिओ-लित्तकागणिमंसाणिखावियता पावा खरकरसएहि तालिजमाणदेहा वातिगनरनारिसंपरिवुडा पिच्छिन्नता य नागरजणेण उज्झनेवस्थिया पणिज्जति णगरमज्जेण किवणकल्लुणा अत्ताणा असरणा अणाहा अवधवा वधुविप्पहीणा विपिक्खंता दिसोदिसिमरणभयुबिग्गा अघायणपडिदुवारसपाविया अवण्णा सूलग्गबिलग्गभिण्णदेहा,ते य तत्व कीरति परिकप्पियगुवंगा।सू०१६॥ टीका-'तत्य य तत्र च मयस्थाने 'खरफरुसपडघट्टिया' खरफरुपपटहघटिता:तन खरपरुप -शूलारोपणादि सङ्केतमूचकत्यादत्यन्तकठोरो य. पटहः= 'ढोल' पुरिसेहिं ) वध्यस्थान पर नियुक्त हुए पुरुप जर (घाडियता) वध्यस्थान पर लेकर चलते है तो इन्हें वरा (तपि य) एक चिंदु जल भी पीने को (न लति) नहीं मिलता है । ऐसी इनकी दशा बन जाती है ।।मू०१५॥ फिर भी कहते हैं-'तत्य य' इत्यादि। टीकार्य-(तत्थ य खरफरुम पडघट्टिया) वहा वध्यस्थान पर एक ढोल ५नियुक्त ययेस धुक्रया त्यारे "घाडियता" धन्यान त aSri , त्यारे तेभने त्या “ तपि य" पापाने पाएनु मेरी पy " न लहति" भातु નથી તેમની એવી દશા થાય છે. સૂ ૧૫ जी भूत्र भाग वन उरे छ-" तत्य य" त्याह साथ-"तत्थयसरफरसपडहयद्रिया" त्या वधस्थाने मे ढोद 3 छ, Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ৪২০ मनव्याकरणसूत्रे हिमादि बन्धनार्थ प्रासादादिपारोह पा रज्जुदानम् १८, इत्येतान्यष्टादशति धानि प्रसूतयः चौर्य करणानि । पुनः कीदृशास्ते परद्रव्यापहारिण ? इत्याह-'पाहयंगुणगा' पतिताङ्गोपाहा: पातितानि-नोटितान्यद्गानि हस्तपादादीनि, उपाहानि च-अलिकेशश्मश्वादीनि येपाते तथा कलुणा'कम्णा: दीना:-पापमलिना इत्यर्थः 'मुकोहकठगळतालुजिव्मा' शुप्फोष्ठमण्ठगलतालजिह्वा मोटो कण्ठा असरोच्चारणस्थान गल'-तदधो भागः ताल प्रसिद्ध एतेपा समाहारः, जल चिना शुप्फमोप्लकण्ठगलतालु जिहब येपा ते तथा, 'तण्हा इत्ता' तप्णार्दिता'-पिपासाऽऽकुलिताःसन्तः 'पाणिय जायता' पानीय याचमान.: ' गियजीरियासा ' गितजीविताशा जीवनाशारहिताः 'वराकाः मन्दपुण्याः 'झपृरिसेहिं घाडियता ' वध्यपुरुपेपीने के लिये जल देना १७, पुराई गई भैस आदिको बाधने के लिये तथा मकान आदि की छत पर चढाने के लिये रस्सी देना १८। ये १८ प्रकारकी की चोरिया हैं ॥ ३ ॥ (पाइयगुवगा) ये परद्रव्यापहारी चोर हाथ पैर आदि अगों में तथा अगुली, केश, श्मश्रु दाढीमूछ आदि उपागोंमें कभी भी अक्षत नहीं रहते हैं ! (कलणा) ये सदा पाप से मलिन बने रहते हैं । तथा (सुक्कोट्ट कठग लतालुजिन्भा) पानी के विना ओष्ठ कठ गला ताल तथा जिह्वा ये सब इसके शुष्क होते (सूकते ) रहते हैं । (तण्हाइया) पिपासा से आकु लित होकर ये (पाणिय जायता)"पानी लाओ पानी लाओ" इस प्रकार याचना करते हुए (विगयजीवियासा) कभी २ अपने जीवन की आशा से भी रहित हो जाते हैं। (वरागा) इन अभागों को (वज्झ દેવા તે ક્રિયાને વશ કહે છે, (૧૬) ભોજન બનાવવાને અગ્નિ આપવો, (૧૭) પીવાને માટે પાછું આપવું અને (૧૮) ચેરેલી ગાય, ભેસ આદિને બાધવા માટે અને મકાન આદિના છાપરા પર ચડવાને માટે દેરડુ દેવું, એ ૧૮ (અઢાર) પ્રકારની ચોરી હોય છે કે At--" पाइयगुवगा" ते ५२धननु म५९२६५ ४२ना। योर होना હાથ પગ આદિ અગે, તથા આગળીઓ, કેશ, નાક, કાન આદિ ઉપાગે કદી ५५ मक्षत (छेहाया विनाना) ता नथी “कलुणा" तसा पापथी सही भलिन २९ छ, तथा “सुकोट्ठकठगलबालुजिभा " तमना , ४४ ग, ताण तथा म पाली विना शु (सूायदा) २ छ " तोहाइया" तर सथी व्यारा थने ते सो "पाणिय जायता" " पाहावी, पाणी, पाणी दावो" मेवी यायना ४२ता ४२ता "विगय जीवियासा" या२४ तो वधानी माशा पय छोडी हे छ “वरागा" त मिन्यासमाने "वज्झपुरिसेहि" स्थान Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १६ फीरशाधौरा फिशफल लभन्ते । ३४३ गुणवध्यदूताविद्धमारपदामानः, तर सुरक्त कणवीरैः पुष्परिशेपैः प्रथित गुम्फित चिमुकुल-विकासित कण्ठे गुण इव-कण्ठम्नमित्र तथा चा मुचकत्याद वायदतः वधचिन्हम् ,-भाविद्ध-परिहित माल्यदाम-पुष्पमाल्य येपा ते तथा, 'मरणभयुप्पण्णसे यायतणेदुत्तप्पिय किलिण्णगत्ता' मरणभयोत्पन्नस्वेदायतस्नेहोत्तपितक्लिनगात्राः, तर मरणभयादुत्पन्नेन स्पेदेन-मस्नेदेन आयतः सर्वाङ्गे व्यातो यः स्नेह.= आर्द्रता तेनोत्तपितानि-सन्तप्तानि किन्नानि आर्टीकृतानि च गागाणि-शरीराणि येषा ते तया, मरणभयोत्पन्नमस्वेदाद्रीभूतशरीरा इत्यर्थः, 'चुण्णगुडियसरीरा' चूर्णगुण्डितशरीरा = 'चुना' इति भापाप्रसिद्धचूर्णद्रव्यावगुण्ठितसर्वानाः, ' रयरेणुभरियकेसा' रजो रेणुभरितकेशा रजोरेणुभिः धूलिभिर्भरिताः सभृताः केगा येपा ते तथा, 'कुमभगुकिण्णमुद्धया ' कुसम्भमल्लदामा ) (सुरत्तफणवीरगयि ) कनेर के लालफूलों से गृथी हुई (विमुकुल) विकसित कठे गुणकठसूत्र तथा ( वज्सदूर) वधसूचक होने से व यदूत-वधचिह्न स्वरूप ऐसी (आविद्वमलदामा ) फलमाल जिनको पहिनाई जाती है (मरणभयुप्पण्णसेयआयतणेहु त्तप्पिय फिलि. ण्णगत्ता) (मरणभयुप्पण्णसेय) भरण के भय से उत्पन्न हुए स्वेदपसीने से (आयतणे ) इनके अग गीले हो जाते है इससे इनका शरीर ( उत्तप्पिय ) जलने लगता है जिससे (फिलिण्णगत्ता) इनका सय शरीर पसीने से अरता रहता है( चुण्णगुडियसरीरा) उनके शरीर पर चूना लपेट दिया जाता है जिससे अधिक जलन होती है। तथा (रयरेणुभरियकेमा ) इनके केशों पर बाहर की धूलि उड़कर भर जाती है। कारण उनके पास उस समय ऐसे साधन नहीं होते हैं जिससे ज्झदूयभाविद्धमादामः " " सुरत्तकणवीरगहिय " उना साट योमाथी भूमी " विमुकुल" 38मा २सा 58२ वी, “ वज्झटूय" ५५ सूय: पाथी-वध्यरतवयित की “ आविद्ध मल्लदामा " इसमा भने ५७।वामा मावे छ " मरणभयुप्पण्णसेयआयतणेहुत्तप्पियकिलिण्णगत्ता " "मरणभयुप्पण्णसेय " भ२ ना भयथी 642ये पसीनाथी " आयतणेह" तमना म. लीना थाय , त यथी तमना २ " उत्तप्पिय" ! सागेछ, अनार“किलिण्णगत्ता" भनु मासु २२ तरमाण थाय छे “चुण्णगुडिय सरीरा" तमना शरी२ ५२ यूनो न्योपडयो डाय छ, रथी सरीरमा धारे पणत२१ थाय छ, तथा “रयरेणुभरियक्सा" तेभन वाम! બહારની ધૂળ ઉડીને ભરાય છે, કારણ કે તે સમયે વાળ ઓળવાના સાધન तभनी पामे हात नथी " कुसुमगुकिण्णमुद्धया " " कुसुमग" सुभी Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ মপ্লয়াস इति भाषा प्रसिद्धस्तेन पाद्यमानेन सह रानपुर र्नीयमानाः सन्तो घटिता वेत्र यष्टयादिभिस्ताडिताः मार्यमाणा इत्यर्थः,' डग्गहगाहरुद्वनिसिहपरामट्ठा' कूटग्रहगावरुष्ट निसृष्टपरामृष्टा = तर कूटग्रहत्वात्कृ टेन-उलप्रपशेन चौरस्य परधनप्राहित्वाद् गाहरुटे = अतिक्रः राजपुम्पैः निगप्टा:- अपहतपना', निर्धना इत्यर्थः, पुनः परामृष्टाच-गृहीताये ते तथा 'पज्य करकृडिजुय निवसिया' वध्यकरकुटीयुगनिरसिताः - ध्यानां यत् रकुटोयुग = निन्द्यास्त्रविशेषद्वय तनिरसित परिपापित येपा ते तथा यात्रधारिण इत्पर्यः, 'मुरत्तकगीरगहि यविमुकुल कठे गुणलज्झय आविद्धमल्लदामा' सुरक्तकगीरप्रयितविमुकुलकण्ठे रहता है और जन जिसका शलारोपण का होता है तब वह बजता है अतः शूलारोपण आदि सकेत का सूचक होने से वह परपरुप-अत्यत कठोर माना गया है, जैसे ही वह जाता है कि राजपुरूप उस वध्य व्यक्ति को साथ लेकर चल देते हैं। और रास्ते में वे उनचोरों को वेत्र-यष्टयादि से ताडित भी करते जाते है । (कूडग्गहगाढरुट्ठनिसिह परामट्ठा) ये राजपुरुप उन चोरो पर(कृडग्गह) छलप्रपच से परधन को अपहरण करने के कारण (गाढ?) अत्यंत रुष्ट हो जाते है, और इसीसे (निसिह) अपहृत द्रव्य को छीन भी लेते है, और बाद में उन्हें (परामहा) पकड लेते हैं (वज्झफर कुडि जुयनिवसिया) जर वे शूली पर उन्हें चढाने के लिये ले जाते हैं तो इसके परिले उन्हें वे वध्यपुरुषों को (वज्झकरकुडिजुय) पहिराने के योग्य निंद्य दो वस्त्र (निवसिया) पहिरा देते है (सुरत्तकणवीरगयि विमुकुल कठे गुणवज्म दूध आविद्ध જ્યારે કોઈને શૂળી પર ચડાવવાને સમય થાય છે ત્યારે તે વગાડવામાં આવે છે તેથી શૂલારે પણ આદિ સ કેત દર્શાવનાર હોવાથી તેને તરફ અત્યંત કઠેર કહેલ છે જેવો તે ઢોલ વાગે છે, કે તે રાજપુરુષે તે વધ્ય વ્યક્તિને લઈને ઉપડે છે, અને રસ્તામાં તે લેકે તે ચોરેને સેટી, લાકડી આદિથી जारे छ " कृडग्गहगाढरुटुनिसिद्धपरामदा" ते पुरुषो ते यो। ५२ "कूडग्गह " ७१४५८थी ५२धननु २३ ४२पाने सीधे “ गाढरुटु" सत्यत अधे सराय छ, मन तेमनी पासेथी ते सो। "निसिद्र" योरसा द्रव्यने छीनवी छ भने पछी तेभने “ परामदा" ५31 से “वज्झकरकु डिजयनिवसिया" न्यारे तसा तेभने शूजीमे या सतय छे त्यारे पध्य पुरुषाने परावा " वज्झकरकुडिजुय" साय, मे निध पनी "निवसिया" तभने परावे छे “सुरचकणवीरगहियविमुकुलकठे गुणव Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका य० ३ सू० १६ चौरा किं फर लभन्ते । पापिनः 'खरकरमरहिं तारिजमागदेहा 'परसरगतैस्ताट्यमानदेहा' अतिचिघणपापाणभृतचर्मकोशशतैः 'कारभरे चानुस' इति भापाप्रमिद्धैः ताडपमानदेहा ताडयमानशरीराः तरागातिगनरनारिसपरिसुडा'पातिक नरनारीसम्पस्थिताः तर-मोतिकै उन्ले नरैनारी मिश्च सपरिटता' युक्ताः मर्यादार्जितनरनारीवृन्दवेष्टिता इत्यर्थ , ' पिच्छिजता य नागरजणेण' नागरजनेन दृष्टु समागतेन प्रेक्ष्यमानाः 'ज्झनेत्थिया' ध्यनेपथ्यिका उपयोग्य नेपथ्य येपा ते वध नेपथ्यिकाः परिधनघातपत्रवेपाः, 'गरमज्झेण नगरमध्येन=पुरमध्यभागमार्गेण 'पणिज्जति ' प्रणीयन्तेनीयन्ते 'सिविणालणा' कृपणकरुणा कृपणेष्वपि करणा अतिटीना इत्यर्थः, 'अत्तागा' अाणा-बाणवर्जिता अनर्थनिवारकाभावात 'असरणा' अगरणा:शरणहीना'-योगक्षेमकारिरहितत्वात् अतएव 'अगाहा ' अनाथा: नायनिता ' अवमा' जपान्या मान्यवरहिता तथा ये बड़े अधिक पापी होते हैं। (वरकरमरहिं ) अतिचिमण पापाणसडों से भरे हुए ऐसे मैकड़ो कोड़ो की (तालिजमाणदेहा) उनके शरीर पर मारपड़ती है। तथा (वातिगनरनारिसपरिचुडा) मर्यादा वर्जित नरनारि गण से ये वेष्टित रहते है । (पिच्छिजता य नागरजणेण ) इन्हें देखने के लिये नागरिकजन आते है । ( वज्झ नेवत्थिया) इनकी वेशभूपा च ययोग्य होती है । (णगरमज्झेण पणिज्नति ) राजपुरुप इन्हें नगर के भीतर से होकर ही निकालते है। (फिविणकलणा ) उस समय ये दीनों से भी अतिदीन होते है (अत्ताणा) अनर्थ को निवारण करने वाला कोई नहीं होने से इनकी कोई रक्षा करने वाला नहीं होता है, इस लिये ये अत्राण होते ह, ( असरणा) योग, क्षेमफारी पुरुप से रहित होने के कारण ये अगरण-शरण हीन होते है। (अणाहा) अनाथ रक्षकके अभाव से ये अनाय होते है, तथा (अरधवा ) यधुओ के अभाव से गये “पावा" ते पार पापी जय "सरकरसएहिं" अतिशय Asel पत्थरना टु४ामीबी मसा से ४॥ १२यान! 'तालिजमाणदेहा" तेमना शरीर ५२ भार ५ तथा " वातिगनरनारिसपरिसुडा" भर्या हित सी पुरुषाना समृडवी तसा वीटजायेसा र "पिन्छिज्जता य नागरजणेण" तेभने जवान भाटे नागरि। माया रे छ "वज्झनेपत्थिया" तना चोपा वध्यने योग्य डायछे " णगरमज्झेण पणिज्जति” Ary-या तेभने ना ॥ ये स नय छ 'मिविणकलुणा" स्यारे ते खोजने मतिपय हानसा अनुभव छ “अत्ताणा" ते યાતનામાથી તેમને બચાવનાર કોઈ ન હોવાથી તે લેકે નાના લણવગરના હોય છે, “સ તેમને પર! આપનાર કોઈ પુરુષ ન હોવાથી તેઓ અશરણું डाय छ "अणादा" २६उने असावे तसा मनाथ हाय छ, “अवघवा " Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ प्रश्नग्यावरणसूत्रे फोत्कीर्णमूर्धना: कुसुम्भकेन-रागविगेपेग उत्कीर्णा: च्याप्ता मूर्धनाः केगा येषां ते तथा रक्तरागरजितकेशधारिण इत्यर्थः, 'टिण्णजीरियासा'निजीविताशाः जीवनाशारहिता 'घुण्णता' घूर्णमाना-मरणमयव्याकुक्लात् ' यज्मपाणप्पिया वन्यप्राणमिया: अध्या: हन्तव्या एव मागा' प्रियाः येपा ते तथा, 'तिल तिलं चेव छिन्नमाणा' तिल तिलमिछिद्यमानाः राजपुरः मत्यगोपाग नोटयमाना इत्यर्थः, 'सरीर निकत्तठोहिओलित कागणिमसाणि खारियता' शरीरविकृत्तलोहितावलिप्तकारुणी मामानि खाद्यमाना', तर-चौरस्येव शरीराद् विकृत्तानि% ग्वण्डितानि लोहितालिप्तानि यानि कारुणी मासानिमासखण्डानि तानि खाद्य मानाः राजपुरुपै. शस्त्रादिकतितस्तमासखण्डानि सायमाना इत्यर्थ , 'पापा' पपा केश सस्कारित किये जा सकें (कुसुभमुकिण्णमुद्रया) (कुसुभग) कुसुम्भ रग से ( उकिण्णमुद्धया ) इनके केश रजित कर दिये जाते हैं। (छिन्नजीवियासा ) ये विचारे अपने आपको मानने लगते हैं कि अब हम थोड़ी देर में ही मरने वाले हैं, अतः इनके जीवन की आगा टूट जाती है । (घुण्णता ) मरणभय से व्याकुल होने के कारण इनका दिमाग चिक्कर खाने घूमने लग जाता है। (वज्ञपाणप्पिया ) इन्हें वध्य-मारे जाने वाले अपने प्राण ही बड़े प्रिय होते हैं। अर्थात् उस समय इन्हे कोई भी वस्तु प्रिय नहीं होती है, केवल अपने प्राण ही-जो कुछ देर बाद नष्ट हो जानेवाले है-सबसे अधिक प्रिय लगते हैं । (तिल तिल चेव रिज माणा) राजपुस्प इनके अगोंपागों को तिल तिल की तरह काट २ कर अलग २ कर डालते है। (सरीरविकत्तलोहिओलित्तकागणिमसाणि खावियता ) वे राजपुरुष (सरीराविकत्त) काटे गये इनके शरीर से निकले हुए (लोहिओवलित्त) लोही से लिप्त ऐसे (कागणिमसाणि) मास के छोटे छोटे टुकड़ों को (खावियता) उन्र खिलाते हैं (पावा) २थी " उकिण्णमुद्धया" तभना वाण २०ी नामयामा मावे छ “छिन्नजी वियासा" ते मिया। सभ9 14 छे वे अभे थे। समयन भमान छी, गेट मनी पानी माशा तूटी तय छ घुण्णता "मातना लयी व्या थवाथी तभन्। भगद २२ २४२ धूमवा वागेछ 'वझपाणप्पिया" તેને વધ્ય–જેને વધ થવાને છે તેને પોતાના પ્રાણ જ સૌથી વહાલા લાગે છે, એટલે કે તે સમયે તેને બીજી કોઈ પણ ચીજ ગમતી નથી, પણ થોડા સમય પછી જેને નાશ થવાનું છે તે પ્રાણ જ સૌથી વધારે પ્રિય લાગે છે "तिलतिल चेव छिज्जमाणा" रा पुरुष त तमना २५ पागना तदा । ४२ छ "सरीरनिकत्तलोहिओलित्तकाराणिमसाजियादियता" તે રાજપુરુષે લેહીથી ખરડાયેલા માસના નાના ટુકડાઓ તેમને ખવ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका ० ३ सू० १६ चौरा किं फल लभन्ते' ३४५ पापिनः 'खरकम्मएहिं तानिजमागदेहा ' खरसरगतेस्ताव्यमानदेहा अतिचि पणपापाणभृतचर्मकोशगतैः 'कारभरे चातुक' इति भापाममिद्धैः ताडद्यमानदेहा ताडयमानशरीराः तया पातिगनरनारिसपरिसुडा'पातिक नरनारीसम्परिवृताः तर-पोतिकैः-उरलैः नरैनारी मित्र सपरिहताःयुक्ताः मर्यादार्जितनरनारीवृन्दवेष्टिता इत्यर्थ , ' पिन्जिता य नागरजणेण ' नागरजनेन दृष्टु समागतेन प्रेक्ष्यमानाः 'ज्झनेवत्थिया' मध्यनेपश्यिका धरयोग्य नेपथ्य येपा ते वध नेपध्यिका परिधतघातपस्रपाः, 'गरमज्ोग नगरमध्येन=पुरमध्यभागमार्गेण 'पणिज्जति ' मणीयन्तेनीयन्ते 'फिनिणालुणा' कृपणकरुणा =कृपणेष्वपि करुणा पतिदीना इत्य., 'अत्तागा' अनाणात्राणवर्जिता अनर्थनिवारकाभावात् जसरणा' अगरणा:=शरणहीना:-योगक्षेमकारिरहितत्वात् अतएव "अगाहा ' अनाथा: नाथर्जिता 'अवधया' जमान्या मान्यवरहिता तथा ये बड़े अधिक पापी होते हैं। (बरकरसहिं ) अतिचिकण पापाणखडों से भरे हुए ऐसे सैकड़ों कोड़ों की (तालिजमाणदेहा) इनके शरीर पर मारपड़ती है। तथा (वातिगनरनारिसपरिवुडा) मर्यादा वर्जित नरनारि गण से ये वेष्टित रहते हैं । (पिच्छिजता य नागरजणेण ) इन्हें देखने के लिये नागरिकजन आते है । ( वय नेवत्थिया) इनकी वेशभूपा वभ्ययोग्य होती है। (णगरमज्झेण पणिज्जति) राजपुरुप इन्हें नगर के भीतर से होकर ही निकालते है। (फिविणकलुणा ) उस समय ये दीनों से भी अतिदीन होते है (अत्ताणा) अनर्थ को निवारण करने वाला कोई नहीं होने से इनकी कोई रक्षा करने वाला नही होता है, इसलिये ये अत्राण होते है, (असरणा) योग, क्षेमकारी पुरुप से रहित होने के कारण ये अशरण-शरण हीन होते है। (अणासा) अनाय रक्षकके अभाव से ये अनाय होते है, तथा (अरवा ) वधुओ के अभाव से वे "पाया" ते घ र पापी डाय "सरकरसएडि" अतिशय nिsel पत्थना टुसमाथी सारेसा से सोना 'तालिजमाणदेहा" तेमना शरीर ५२ भा२ ५ छे तथा "वातिगनरनारिसपरिखुडा” भर्या २डित श्री पुरुषाना सभृडथी तेम्मा पाटण येसा २९छे "पिच्छिज्जता य नागरजणेण" भनेवाने भाटे नागरि। माव्य! ७३ छ “वज्झनेत्थिया" तेना पाषा वध्यने योग्य आयछे " णगरमज्झेण पणिज्जति" पुनधी तेभने नगरनी पथ्ये थर्डन व लय छ 'किविणकलुणा" त्यारे ते खोजने अतिशय ही नहा अनुभव छ “अचाणा" ते યાતનામાથી તેમને બચાવનાર કોઈ ન હોવાથી તે લોકો ત્રાળ રક્ષણવગરના હોય छ, 'असरणा" तेभने २ सापना२ मा पुरुष न पाथी तशी मर । तेम्मा मनाथ डाय छ, “अबघवा" Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ प्रश्नयाकरणसूत्रे 'पधुविप्पहीणा' बन्धुविहीणा बन्धुरियुक्ताः, 'दिसोदिसि पिपिरसता' दिगो दिश निमेक्षमाणा: एफरया दिगोऽन्या दिश पश्पन्तः 'गरणमयुधिग्गा' मरणभयोद्विग्नाः मृत्युभयव्याकुला आघायणपउिनारसपापिया' आपातनातिद्वार समापिता=आघातनपतिद्वार यभूमिहार तन सपापिता:नीता ये ते तथा, 'अवण्णा' अधन्याः भाग्यहीनाः अदत्तादायित्लाव, 'सूलग्गफिटम्गमिण्गदेह।' शूलाग्रविलग्नभिन्नदेहा , तत्र-शूलाग्रे रिलग्न आरोपणेन सलग्न: मिनश्च देही येपा ते तथा 'ते य' ते चअदत्तादायिन 'तत्य' तनातनद्वारे अथवन्ध मारणनिर्भर्सनशारोपणादि यातनास्याने 'परिकप्पियगुपगा' परिकल्पिता गोपाड़ा कीमभृतिशस्त्रे कतितकर्णनासिकायाः । कीरति ' क्रियन्ते, दण्डविधायिराजपुरुपैरिति ॥ मू० १६ ॥ ये बिना वधु के होते है । (वयुधिप्पहीणा) बाधवनन होने पर भी वे इन्हें छोड़ देते है। इसलिये ये वन्धु हीन होते है (दिसोदिस विपेक्वता) विचारे ये एक दिशा से दूसरी दिशा का ही अवलोकन करते रहते है और (मरणभयुधिग्गा ) मृत्यु के भय से व्याकुल बने रहते है। इस तरह की स्थिति संपन्न बने हुए इन अदत्तादायी जनों को वे राजपुरुष लाकर (आघायणपडिदुवार सपाविया) वभ्यभूमि के द्वार पर उपस्थित कर दिये जाते हैं। क्यो कि (अधण्णा) ये अदत्तग्राही जन अभागे होते हैं। (सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा) इन चौरों का शरीर सूल के अग्रभाग पर आरोपित कर देने के कारण छिन्न भिन्न हो जाता है । (ते य तत्य) वहा उस वध, वध, मालण, निर्भर्सन, सलारोपण आदि यातना के स्थानमें उनके ( परिकप्पियगुवगा) अग एव उपाग अर्थात् नाक कान आदिको कैची आदि शस्त्रों से काट दिये जाते हैं । सू-१६ ॥ मधुभान मलावतमा समन्यु डाय छ “ विप्पहीणा" मधुमना डाय तमना द्वारा मना त्याप राय छ, " दिसोदिस विपेक्सता" मेवा પરિસ્થિતિમાં તે બિચારા એક દિશા તરફથી બીજી દિશા તરફ જોયા કરે છે भने “ मरणभयुव्विग्गा" भरना भयथी व्याज मन छ । प्राता स्थितिमा भूये ते याने पुरुष सापान “आघायणपडिदुवारसपा पिया" वयानना ४२वारे ०४२ ४२ छे २ है “ अधण्णा " ते महत्तपाडी-यो२ साठे। भानसीम डाय छे “सूलग्गविलग्गभिण्णदेहा" त योरोना શરીર શૂળીના અણીદાર ભાગે પર ચડાવવાને કારણે છિન્ન ભિન્ન થઈ જાય छ भने "ते य तत्थ" त्यात १५, , मारण, निलसन, शुसारे। माहि यातना पान स्थान तमना ' परिवस्पियगुणगा" पानी, ससे કે નાક, કાન આદિને કાતર આદિ શસ્ત્રો વડે કાપી નાખવામાં આવે છે ? Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ग०३०१७ अदत्तादायिन यत्फल प्राप्नुवन्ति तमिरूपणम् ३४७ पुनरप्यदत्तादायिनो यथाफलमाप्नुवन्ति तदाह - ' के ' इत्यादि । मूलम् - केइ उल विज्जति रुम्खसालेहि कल्लुणाइ विलवमाणा । अवरे उरंगधणि य वद्धा पव्त्रयकडगा पमुच्चंते दूरपातवहुविसमपत्थरसहा । अण्णे य गयचलणमिलण निम्मदिया करिति । पावकारी अट्ठारस खंडिया य कीरंति मुंडपरसुहि । केइ उक्त्तिकण्णोहनासा उप्पाडियनयण दसण वसणाजिभिदिय चिया छिण्णकण्णसिरा पणिज्जति । छिजंतिय असिणा निव्विसया छिण्णहत्वपाया य पमुच्चति।जाव जीववंधणाय कीरंति । केइ परदव्वहरणलुद्धा कारग्गलनियल --जुयलरुद्धा चारगालये हयसारा सयणविप्पमुक्का मित्तजण निरक्किया निरासा बहुजण धिक्कारसद्दलज्जाइया अलजा अणुवद्ध खुहापरद्धा सीउण्ह तहवेयणदुघट्टघट्टिया विवण्णमुहविच्छवियाविहलमालिण दुव्चला किलता कासता वाहिया य आमाभिभूयगत्ता परूढ नहके समं सुरोमा मलमुत्तम्पि नियगम्मि खुत्ता तत्थेव मया अकामना वधिऊण पाएसु कहिया खाइयाए छूढा, तत्थ य विग - सुणय- सियाल - कोलमज्जार-बद सडासतुङपक्खिगणविविहमुहस्य - वित्तगत्ता कयविहगा । केई किमिजाय कुहिय देहा अणि वयहि सप्पमाणा सुटुकयं ज मओ ति पात्रो तुट्टेण जणेण हयमाणा लज्जावणगा य हुति सयणस्स विय दीहकाल || सू० १७ ॥ - टीका - केइ ' केचित् - अदत्तादायिनः महाकष्टानुभवनेन ' कलुणाइ विळवमाणा' करुणानि वचनानि विलपन्तः 'रुक्खसालेहिं' वृक्षशाखासु 'उल्ल विज्जति ' उल्लम्व्यन्ते=रज्ज्वादिभिगर्लान्यनेन वृक्षशाखासु आरोप्यन्ते इत्यर्थः । ' अरे, अपरे केचनाऽदत्तादायिनः ' चउरगधणियवद्धा ' चतुरङ्गधणियवद्धा. = चतुर Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ प्रत्रयाकरणसूत्रे जानि हस्तद्वयपादद्वयरूपाणि 'धणिय ' अत्ययं वदानि पा ते तथा दबदह स्तपादाः, 'पव्ययकडगापगुन्चते ' पर्वतकटका प्रमुच्यन्ते-गिरिशिवरान्निपात्य न्तेऽत एव 'दूरपातबहुरिसमपत्थरमहा दुरपातबहुविषमप्रसारमहा: बहुवि. पमेपु= अत्यन्तपिपमेपु निम्नोनतेपु मस्तरेपु-पापाणेपु गो दूरात् पात: निपतन त सान्ते ये ते तथा गान्ति । 'अण्णेय ' अन्ये च 'गयरणमलगनिम्मदिया पीरति ' गजचरणमलननिर्मर्दिताः, तन-गनचरणेन हस्तिपादन यन्मननमर्दन तेन निर्मर्दिताः सम्मर्दितशरीरा क्रियन्ते । तया 'पायकारी' पापकारिणः फिर ये अदत्तग्रोही चोर जिस फल को पाते है-'के' इत्यादि । टीकार्थ-कह) कितनेक अदत्तग्राही मनुष्य ( कलुगाह विलयमाणा) महाकष्टोंको भोगनेके कारण करुगवचनो से विलाप करते हुए (रुस्खसासेहिं ) वृक्षोंकी शाखाओं में (उल्ल चिजति) रस्सी आदि से पापकर लटका दिये जाते हैं। तथा (अवरे) कितनेक अदत्तग्राही मनुष्य (चउरग धणियाद्वा) दोनो हाथ पैर खूब जकड़ कर बाधकर (पन्धयकडगा) पर्वत की चोटी से ( पमुच्चते) गिरा दिये जाते हैं, अतः वे (दूरपातवि समपत्थरसहा) वहा से गिर कर नीचे ऊँचे पत्थरों पर बहुत दूरतक गुडकते आने के कारण शरीर मे बहुत बुरी तरह छुल जाते है । इस सरह वे महाभयकर वेदना को सहन करते है । ( अण्णे य) कितनेक अदत्तग्राही चोर ( गयचलणमलणनिमदिया) हाथी के पैरों के तले डाल कर मर्दित (कीरति) करवाये जाते हैं । इस तरह उनके शरीर તે અદત્તાગ્રાહી ચેર જે ફળ પામે છે તેનું વધુ વર્ણન કરે છે– "के" त्यादि Atथ- "के" या माजी भासान "कलुणाइविलवमाणा" भड़ा ४टी मागवान ४२ ४० क्यनाथी विसा५ ४२ता “ रुखसालेहि " थोक्षनी सजी५२ " उल्ल बिज्जति" हो२९. माहिया माधान पी पामा भावे छ तथा " अवरे" tals महत्तमाडी म सोने “चउरगधणियबद्धा" भन्नाथ पाने भरभूत माधी “पव्यकडगा" पतनी येथी “पमुच्चते" नाये उसेमी वाभा मावे , तथा “दूरपातविसमपत्यरसहा " त्याथी या નીચા પથ્થર ગબડાવાને કારણે તેમના શરીર ખરાબ રીતે છેલાઈ જાય છે मनतशत त । मति सय ४२ वेदना सहन ४२ तथा “ अण्णेय " टस महत्ताडी योशने “गयचलणमलणतिमाहिया" लाथाना ५॥ नाय नाभान "कीर ति" हावामा माछ मे रोते हाथीन पर नये न्य Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिती टीका अ०३सू०१७ भदत्तादायिन यफल प्राप्नुवन्नि तन्निरूपणम् ३४९ 'मुडपरसहि ' गुण्डपरशुभि भग्नधाग्कुठारेः 'अट्ठारसमडिया' अष्टादशस्थानेषु खण्डिता कियन्ते कर्ण नयन-नासिको--कर-चरणाना द्वय डमिति द्वादश, निता-ग्रीवा-कण्ठ-पृष्ठ-पक्ष स्थल-गुह्येन्द्रियमिति पदमिलित्वाऽष्टादशस्थानानि भवन्ति । तथा 'केई' केचित् 'उपत्ताणोहनासा' उत्तत्तकप्ठिनासा = उत्कत्ताः छिपा वर्णः ओष्ठः नासाम्नासिका च येपा ते तथा 'उप्पाडिनयणदसणसणा' उत्पाटितनयनदशगटपणाः, तर-उत्पाटितानि उन्मूल्तिानि नयनानि दशना:दन्ताः सपणा- अण्डकोशा येषा ते तथा ' जिभिदियचिया' जिदेन्द्रियान्चिताः जिरवेन्द्रिय अश्चितगमितम्-आकृप्ट येपां ते तथा आकृप्टजिवेन्द्रियाः 'लिण्णफण्णसिरा' छिन्नकर्णशिराः छिगकर्णनाड्यः, 'पणिज्जति' मणीय तेशूलाधारोपणाय मध्यभूमी नीयन्ते । केचित् 'असिणा छिन्नति' हाथी के पैरो से मर्दित होने के कारण इडिपसलिया चूर-चूर हो जाती है और वे बड़े दुःसी होते हैं। तथा कितनेक ( पावकारी) पापफारी अदत्तग्राही जन (मुडपरसुहिं ),भग्न धार वाले कुठारों से अट्ठा रह स्थानो मे-कर्ण २, नासिका २, नयन २, ओप्ठ २, कर२, चरण २, (१२) जिह्वा १३, ग्रीवा १४, कठ १५, पृष्ठ १६, वक्षस्थल १७, ए गुह्येन्द्रिय १८, में-बड़ी धुरी तरह से खडित कर दिये जाते हैं । तथा (केइ) फितनेक चोरों के ( उफत्तकण्णोद्वनासा) कान नाक एव ओंठ काट दिये जाते है तथा (उपाडियनयणदसणवसणा) नेत्र फोड़ दिये जाते है दात और अडकोश उसाड लिये जाते है । (जिभिदियचिया) जीमें खेंच ली जाती है। (छिण्णकण्णसिरा) कान की इसे तोड दी जाती हे । एव इस तरह की स्थिति मे करके चोरो को वे राजपुरुप (पणिज्जति) રાવાને કારણે તેમના શરીરના હાડકા અને પાસળીઓના ચૂરે શૂરા થઈ જવાથી ते बी पी पी मनमवे छे तथा टा४ “पारकारी" पापी महत्ताही सोनीने "मुडपरसुहि " धार जी (मुही)ीमाथी "अट्ठोरससडिया" मार જગ્યાએ ઘણુ જ ખરાબ રીતે મારવામાં આવે છે તે અઢાર અને આ પ્રમાણે છે કાન ૨, નાસિકા ૨, નયન ૨, હઠ ૨, હાથ ૨, પગ ૨, જીલ્મ, यौपा, 36, ४, ५२२५८स, सने शुद्यान्द्रय, तथा "के" ४८मार यारीना "उपात्तकण्णोद्वनासा" न, ना मने 88 पी नापयामा मात्र छ तथा " उप्पाडियनयणदसणवसणा" सामाडी नाणे छ, हात भने त - Gमेडी नाणे छ, 'जिभिदियचिया " मेथी दवामा मा छ, “छिण्णफण्णसिरा" साननी नसे तs mपामा मावे छ तभनी वी खासत ४शन Aryरु त योराने “ जति" शूजी ५२ २११पाने स Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० - - - प्रश्न याकरण असिना खङ्गेन छियन्ते-खडश क्रियन्ते । तया 'निनिसिया' निविषया:= विपयात् देशानियासिताः नियन्ते । केचित् 'लिफ्णहत्यपाया य' डिमहरत पादाथ 'पमुवति' प्रमुध्यन्ते, राजकिकरेईस्तपाद विधाज्यन्त इत्ययः । केचित् जविजीवनगा य को ति ' यावाजवायनाश्च किया नीनपर्यन्त फारागारे वधन्ते । 'के पदाहरणट द्वार परद-पग उन्धाःपग्निः 'चारगालये' चारकालये कारागारे । कागनियलजुयलरुद्वा' कारार्गलानिगडयुगलरद्धाःकारार्गलया-कागगृहागठया निगडयुगलेन-लाइ शड वलाद्वयेन रुद्धा-नियन्त्रिताः भवन्ति । कथभू. १ इत्याह-'यारा' हृतसाराः = अपहतद्रव्याः । पुनः कीदृशाः 'सयणविषमुका । स्वजनवि प्रमुक्ताः = स्वकीयज्ञातिविरहिताः "त्तिजणनिरफिया" मित्रजननिराकृत शूली पर चढाने के लिये ले जाते हैं। कितनेक चोर उन राजपुरुषोंद्वारा (असिणा छिज्जति) तलवारों से काटे जाते हैं (निविसया) किननेक देश से बाहर निकाल दिये जाते हैं। और (छिण्णहत्यपायाय) कितनेक हाथ पैरों को काट कर यों ही (पमुच्चति ) छोड़ दिये जाते हैं। तथा कितनेक (जावजीव बधणाय कीरति) जीवन पयंत कारावास में ही रख दिये जाते हैं । (केह परदन्वहरणलद्धा) तथा परद्रव्यहरण करने में लुब्धक बने हुए कितनेक चोर (करग्गलनियलजुयल रुद्धा) कारागार की अर्गला के साथ लोह की जजीरों से जकड़कर (चरमालये) कारागार में ही बद कर दिये जाते है । (यसारा) इनका दन्य तमस्त रूप से अपहृत कर लिया जाता है। (सयणविप्पमुका) इसके किसी भी स्वजन से इन्हें नहीं मिलने दिया जाता है । (मित्तजणनिरकिया ) इनके नय छ मा योर ते सबसेपछी द्वारा “ असिणा छिज्जति" सवारथी ४पाय छ, “निव्विसया "32 शमाथी ही आवामा व छ, भने "छिण्ण हत्थपाया य" ॐटाने डाथ पी नाजान मु पति" छोडी भूवामा मावे छ तथा "जावज्जीवनधणाय कीरति cals वे त्या सुधा राडमा पूरी राजे छ “के परदव्यदरणरद्धा" दा ५२धननु अपड ४२पानी दासमा वाणा डेटा न्योराने "करगलनियलजुयलरुद्धा" पारागृहना माजीया साथे बढानी साथी गाधीन चरगालये" 10-- रमा २२वामा भाव छ " हयसारा" भनु सघन द्रव्य १२वाभा मावे छे “ सयणविप्पमुक्का " तेमना १५ स्वराननी भुसात मनी साथै थप हेता नथी, “मित्तजणनिरकिया " तमना भित्र पर Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २०३सू०१७ भदत्तादायिन यत्फल प्राप्नुवन्ति तनिरूपणम् ३५१ मिस्त्यक्ताः । निरासा ' निराशाः = जीवनायाशारहिताः 'बहुनणधिकारसद्दलज्जाश्या ' जनधिकारशब्दलज्जायिता' बहूनां जनाना विकारवचनैः लनायिता:ज्जा प्रापिता तथापि अलज्जाः = निर्लज्जाः धृष्टलात् 'अणु. द्वापर. ' अनुनद्धक्षुधापराद्धाः अनुबद्धभुधया सततसुभुक्षया अपराधाः पीडिताः 'सीउण्हतण्हवेयणदुघघटिया' शीतोष्णतृष्णावेदनादुर्घट्ट घट्टिताः , तर तेन उग्णेन तथा तृष्णया-पिपासया क्षुधयाच या दुर्घटाः= असया वेदना =पीडाम्ताभिः - दुर्घट्ट अतिनिकटम्-अतिशयेन घहिताः =पीडिताः 'विषण्णमुहविन्छपिया ' विवर्णमुखविच्छविकाः = तन विषणं मुख-मिरूपयुक्त मुख थे। ते तया पिच्छविकाः = कान्तिरहिता निस्तेजसः । 'विइलमलिगदुबला' विफलमलिनदुर्वला: तन पिफला कारागारे नियन्त्रितत्वादनिष्टफला मनिमापदना दुर्गलाश्व-शक्तिरहिता ये ते तथा 'किलता' मित्रजन भी इन्हें छोड़ देते है । (निरासा ) ये चोर वहा जीवत पर्यन्त रहने के कारण अपने जीवन की आशा छोड़ देते है। (बहुजणधिकार सहळनाइया ) अनेक जनो द्वारा धिकार के शब्दों से ये लजित किये जाते हैं। फिर भी इन्हें जैसी लज्जा आनी चाहिये जैसी नहीं आती है । कारण ये बहुत अधिक पृट पन जाते है। (अणुपद्धखुहापरद्धा) रातदिन ये क्षुधा से पीडित बने रहते हैं। (सीउण्डतण्डवेयणदुगह पहिया) शीत, उष्ण, तृष्णा, क्षुधा जन्य असह्यवेदनाओंसे ये सदा (दुघघट्टिया) अत्यन्त दुःखित बने रहते है। ( विवण्णमुरविच्छविया ) इनका मुख सदा कुम्हलाया हुआ रहता है और काति भी इनकी मलिन रहती है । (विहलमलिणदुव्यला) कारागार मे बद रहने के कारण ये (विहल) अनिष्ट फलवाले रोते हैं-अर्थात् जो ये चाहते है वह इन्हें नहीं मिलता તેમને ત્યાગ ક છે “નિહાઇ ને ચોરે ત્યાં જીવન સુધી રહેવાને કારણે पाताननी मा छोड छ "बहुजरिकारसद्दलज्जाइया' मने दो। ધિકારના શૉંથી તેમને શરમિંદા કરે છે, છતા પણ તેમને એવી શરમ થતી નથી, २५ है तेसो घट 45 गया हय छ, “अणुषद्धखुहापरद्धा " रात हिवस ते भूमयी पी3141 छे “सी उद्दतण्डवेयणदुरपट्टिगा” ही, परभी, क्षुधा तृषा माहिना मसह यनाथा तसा सहा 'दुघदृघट्टिया" सत्यत भी २९ छ 'विवाविच्छविया" तभनु भुम सही सान-हास २२ छ भने तेभनी ति प भलिन २७ छ “विहलमालेणदुबला" रागृहमा २७पाने २0 तसा 'विहल " अनिष्ट पारा डाय छे, मेटले । Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ प्रशम्याकरणस्त्र क्लान्ताः लानाः 'कासता' काशमानाः कासरोगेण 'ग' इति भदाय मानाः माहिया य ' व्याधिताथ-पृष्ठादिरिधिरोगपीडोता, 'आमाभिभूय गत्ता' आमामिभूतगात्रा भामै = भुक्तानाऽपरिपाक ननितरलीसारादी नाना रोगैरभिभूतानी गानाणि-शरीराणि येपा ते तथा । 'परदनहकेममसुरोमा' शरूढनखकेशश्मश्रुरोमागः, तत्र प्रस्ताः । असकाराव प्रदाः नसा केगाः श्म श्रुणि मुखजातानि 'दाढी' इति भापा मसिहानि रोमाणि च येा ते तथा 'मल मुत्तम्मिणियगम्मि सुत्ता' निज के मलमूने मुत्ता स्वकीये पुरीपमूने 'सुत्ता निमग्ना 'खुत्ता' इति देशी श-द', कारागारे बद्धाः अ यत्र गन्तुमशस्यत्वात् मात मरमूत्रपुरीपपङ्कएर निमग्नास्तिप्ठन्यदत्तग्राहिण इत्यर्थः। तथा 'अकामना' अकामकाः = मरणेलारहिताः 'तत्येन मया तर कारागृहे मृताः सन्तः है । ( मलिण ) ये मलिन चदन एप (दुबला ) शक्तिविहीन बने रहते हैं। (फिलता ) ग्लान रहते है । तथा ( कासता) कासरोग से "खूखू" इस प्रकार का शब्द इनके मुख से निकलने लगता है। और ( वाहिया य ) कुण्ठादि विविध रोगो से ये पीडित होते है (आमा भिभूयगत्ता) इनका शरीर अतिमार आदि नाना प्रकार के रोगों का घर बन जाता है। (परुहनरकेसमप्रोमा)नख, केश, तथा श्मश्रु-दादी के बाल समारे नही जानेके कारण बहुत पढ़ जाते हैं। और (नियगम्मि मलमुत्तम्मि ) इनकी हालत अधिक गभीर बन जाती है कि जिसस कारागार में बद्ध ये विचारे अन्य जगह जाने में असमर्थ होने के कारण अपने ही मलमूत्र मे (खुत्ता) भरे हुए पडे रहते हैं। तथा (अकामगा) नही इच्छा होने पर भी (तत्थेव) उसी में पड़े पड़े वही पर ( मया) २ वस्तुनी ४२॥ ४२ ते वस्तु भने भगती नथी ॥ मलिण" ते सो भलिन बन पा तथा "दुबला" शति विनाना थाय छ, “किलता" नियुत २९ छ, तथा “ कासता" धरसने रणे "भू-भू" या ४२ता डाय छे भने “वाहियाय" ते खोजी अढ माह मने रोगोथी पीता राय छे “आमाभिभूयगत्ता" तमना शरीर अतिसार AIE विविध रोगान। घर मनी नय छ, “परूढनहकेसमसुरोमा" नम, श तथा हादीना पा नहीं पाता पाथी घr qधी नय छ भने "नियगम्मि मलमुतमि" भनी डालत मेवी गली२ लय छ, राडमा पूरायेक्षात લેકે બીજી જ યાએ જવાને અસમર્થ હેવાથી પિતાના જ મળમૂત્રમાં "खना" रा २ छ त “अकामगा" या न डापा छत पर " तत्थेव" त्या४ ५७या ५३या " मया " भरी जय छे त्यार माह "वधि Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका 10 सू०१७ अपत्तादायिन याफर प्रायन्ति तनिरूपणम् ३५३ 'यधिष्णपाएमु कडिया' पारेषु पद्मा मा रज्ज्यादिगिहरनपादान्धनेन कृष्टाः = बहिनिकारिता ' ग्याध्याए हटा' रातिाया ढाः सिताः = गर्ने चाण्डालादिमि मक्षिता क्रियन्ते । 'तत्यय' तन च निगमुणयमियालफोलमज्जास्वदमासतुटपरिखगरिचितगुरुमरिलुत्तगता' पृक - गुराक-शृगाल-- कोल-मार्जार सन्द-सडासतुण्डपसिंगगशिधाग्यमनपिलप्तगात्रा', तर 'विग' याः = 'वरगडा' इति भाषा मसिहाः, 'मुणय ' शुनकाः = ककाराः 'सि याल' शृगालः कोला मुका मारा , तेपाउन्ट समूहस्तेन तथा सदश तुण्डेः = सदनात्तोक्षणावतण्डे:-पक्षिगगाना काकादीना विविधमरवशतश्च पिल सानि=निःशेषेण ग्यादितत्पाद जलसितानि गात्राणि येपा ते तथा मुगारगगालादिभिः विविधपक्षिगणैश्च भलितशरीराः 'यविधगा' तरिमगा! प्रकादिभिरेव सण्डशः कता । तथा 'क' केपि गतेभ्योऽन्ये 'किमिमर जाते है। बाद मे ( धिजणपागु ) रज्जु आदि से पैर बाधकर (इहे चांटार आदि जन (कडिया) घारर निकाल कर (पाइयारा छढा) किसी बड़े में ले जाकर पटक देते है । (तत्य य) चहाफिर उनके कले वरों को (विगणयमियालकोलमज्जार बदनामतउपरिगणविवि मुहसचिलुत्तगत्ता ) (बिग) पृक-चगेरे, (सुणय ) शुनक-कुत्ते, (मियाल) श्रगाल, (कोल ) सुअर, (मज्जार पद) मार्जार-चन थिलार आदि हिंसक जानवरों के (पृन्द-मम्रर ) ( सटामतुहपफियगण ) मटामी के जेसे तीक्ष्ण तुण्उवाले गृह आदि पक्षियों के समूर (पिचिरमुहमय ) नाना प्रकार के सैकड़ों मुगों से (चित्तगत्ता) तरस नरम कर डालते हैं जिससे यह शरीर फिस का है। यह नहीं जाना जाता । (फयनिहगा) इस प्रकार कादिक जानवरों ण्य पिथि पपक्षिगणों से फिननेक हन अमागों के शरीर पाया जाकर पद २ फर ऊपाणण्मु" १२-1 FOR A ाधान sulfat anने " फटिळ्या" मसार ४ीन “साइया Parasuni asी "तस्य य" त्या ना मान विगगुणयमियाल कालगजास्यदमासतुएपरिवगणरिणिमुहमयविलुतगता" "विग" ५३, “मुणय" रान: त२२, " सियार " QUAvn, " फोल " -१२, " मजारसद " .. यी जिELI, IEC पशुशान पर गने “महासतुर पश्रियगण" साभी 24 तास या-oll पणे.२ ५६ीगानी माय " पिपिए गुधसय " विपना २८ Yणो द्वारा "निलगशा" सी 1 , तथा " 2 0 " aaji तु नयी 'फायविगा" गते વરૂ આદિ જાવ તથા વિવિધ પક્ષીગ દ્વારા તે કમાગીએાન શરીર Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रमव्याकरणसूत्रे जाय कुहियदेहा । कमिजातकुथितदताः मिनातेन = रोगादि कारनाद समूत्पन्न कृमिसमूहेन कुयितदहा-दुर्ग रयुक्तगरोरा 'अगिहाय' ननिष्टयवनः अप्रियाचने. 'सुटुक्रय ज मगाति पारे । मुलुकत = गोमन जात यत् यस्मात् मृतोऽय पाप = पापी इत्येव रूपः 'सप्पमागा' प्यमाना आक्रोश्यमानाः 'तुडेण जणेण हण्गगाणा ' तुप्टेन जनेन इन्यमानाः तेपा मारणेन मसन्नी यो जनस्तेन ताडचमाना सन्तः 'सयणस्स विय । बजनस्यापि च किं पुनरन्येपाम् 'दीहकाल' दीर्घकाल यात् 'लम्जापगगाय' लज्मापनका = लज्जालज्जारहिता इत्यर्थ ' हुति' भवन्ति ।। मू० १७ ॥ एपमिह लोके दुःवमाप्नुवन्तीत्युक्तप, अर पालोके किं भवती ? त्याह'मयासता' इत्यादि मूलम्-मयासता पुणो परलोगसमावण्णा नरए गच्छति निरभिरामे अंगारपलित्तगकप्पअच्चत्यातीयवेयणा असायणो दिये जाते है । तथा (केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर जो मरने से याकी बचे रहते हैं वे ( किमिजायकुहियदेहा ) रोगादिक कारण के वश से अपने शरीर मे उत्पन्न हुए कीड़ों से दुर्गधित शरीर वाले होकर (अणिद्ववयणेहिं) लोगो के इस प्रकार के अप्रियवचनों से कि-(सुटुकय ज मोत्ति पावो) भला हुआ जो यह पापी मर रहा है " अथवा मरे हुए सा हो रहा है " इस प्रकार ( सप्पमाणा) गालियो से अपमानित रोते हैं। तथा उनकी मृत्यु से प्रसन्न होने वाले मनुष्यों से ताडित होकर (सयणस्स वि य) स्वजनोंसे भी और दूसरोंसे भी (दीहकाल) बहुत समयनक (लज्जावगाय ) लज्जित (हुति ) होते है । सू-१७॥ भपाय छ भने तेना ४-1 ४२२५ छ तय ' केइ" teals सत्त-- पाडी यो। न्ने भातमाथी मये छे तो " किमिजायकुहियदेहा” शा કારથી તેમના શરીરમાં ઉત્પન્ન થયેલ કીડાઓથી દુર્ગ ધ યુક્ત શરીરવાળ थान “ अणिढवयणेहिं " सोना 241 प्रा२नाम पयायो ‘स पमाणा" अपमानित थाय छ-'सुईक य ज मोत्ति पायो" " सारु थयु मा पापी આ રીતે મરી રહ્યો છે” અથવા “મરેલાને જેવી સ્થિતિ અનુભવે છે ? तथा तमना भृत्युथी भुशी थना। भासेो द्वारा भा२ पान "सयणसविय" साना तथा मी साथी "दीह काल' साम! समा सुपी 'लज्जावगाय" Gored 'हुति" पामे छ । भू-१७॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ - -अणुभ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १८ अदत्तादायिन परलोकगतिनिरूपणम् दिण्णसयय दुक्खसयसमभिभूए । तओ विउव्वट्टिया समाणापुणो वि पव्वजनि तिरियजोणि । तहि पि निरओम उ वति यणं । ते अणतकालेन जइणाम कहि वि मणुयभावं लहिंति गेहि णिरयगडगमण तिरियभव सय सहस्स परिय पहि तत्थ विय भवन णारिया नीयकुलसमुप्पण्णालोयवज्झातिरिक्ख भृया य अकुसला कामभोगतिसिया जहि निवधति निरयवत्तणी भवप्पवचकरणपणोलि पुणो वि संसारावत्तणेोमिमूले धम्मसुइ विवजिया अणज्जा कूरा मिच्छत्तसुइ पवण्णा य हुति । एगतदंडरुडणो वेढेति कोसिगारकीडेव अप्पग अट्टकम्मतसुघणघणेण ॥ सू० १८ ॥ टोका - ' मयासता ' मृताः सन्तः ' पुणो ' पुनर्मरणानन्तर 'परलोगसमावण्णा' परलोकसमापन्नाः परलोक प्राप्ताः 'नरगे गच्छति' नरके गच्छन्ति । कीदृशे नरके ? इत्याह- निरभिरामे असुन्दरे, तथा ' अगारवलित्त गप्प, अन्चत्य सीयवेयणा आसायणो दिण्णसय यदुक्खसयसमभिभूए ' अब सूत्रकार यह कहते हैं कि ये अदत्तग्राही चोर इस लोक मे तो इस प्रकार के अनेक दुःखों को भोगते है परन्तु परलोक में भी इनकी कैसी दुर्दशा होती है सो कहते हैं-' मयासता ' इत्यादि । टीकार्थ-ये अदत्तग्राही चोर जय (मयासता ) मर जाते है तन (पुणो ) उसके अनन्तर (परलोगसमावण्णा) परलोकमे जाकर (नरगे गच्छति) नरक में उत्पन्न होते है । जो नरक ( निरभिरामे) सुन्दरता से रहित अर्थात् असुहावने हैं, तथा ( अगारपलित्तगकप्प ) अतिप्रज्वलित अगार હવે સૂનકાર એ બતાવે છે કે તે ચારલાને આ લોકમા તે ઉપરોક્ત પ્રકારના દુખા અનુભવે છે પણ પરલેાકમા પણ તેમનીકેવી દુર્દશા થાય છે— मयासता " इत्यादि "C ટીકાથ—તે અદત્તગાહી ચાર ८८ मयामता " भरीने " पुणो " पछी " परलोग समावण्णा " परोमा भने “ नरगे गच्छति " नरगतिभा अत्पन्न थाय છે જે CL નરકાગર निराभिरामे " સુન્દરતાથી હિત છે, તથા " अगारपलित Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रययाकरणसूत्रे अङ्गारपटीप्तकरयाऽत्यर्थशीतपेदनाऽऽया 'नोटोणसनादः शतममभिभूते, तत्र ' अहारपलित्तगप्प ' प्रदीप्ता = अनिममलियो योमाः = धूम रहिताहिस्तेन कल्प तत्सदृशम्-उग्ण, नया 'मायसीयोयगा गामायणो' अत्यर्थं शीत अत्यर्थ हिमकालोपशीत तयादिना तस्याः आपादन-पापण तेन ' उदिण्गसययपुस्म्पसप । उदीर्णानि समुद्भवानि यानि सतत दुःख शतानि भने शतसख्यकनिरन्तरदुःखानि, ते. ' समभिभूए 'समभिभूत = युक्तः यः स तथा तस्मिन् , यद्वा-उगीतवेदना, सा कोदशी ? इत्याह आशा तनेन-चिरकालानुगन्धिकटुक फलदायकाऽदत्ताऽऽदानननिताऽगातवेदनीयकमेणा उदीर्णा प्रकटिभृता तस्याः जनितानि यानि सातदुखशतानि तैः सममिभूतः =च्याप्तो यः स तथा तस्मिन्नेव भूते नरके अदत्ताऽऽदायिनो मृताः सन्तो गच्छ न्तीति पूर्वेण सम्बन्ध । तर नरके गत्वा सन्तप्त लोहवालुका निकराग्यरकठोरसूची के जैसी उष्णता, और (अच्चत्यसीय ) हिमफाल जैसा अत्यत शीत है। यहा नारकियों को इस उप्णता और शीत की (वेधणा आसायणो दिण्ण ) वेदना की प्राप्ति से उदीर्ण-उत्पन्न (सययदुक्खसय) निरन्तर सैकड़ों दुःख प्राप्त होकर (समभिभूए) दुखित करते हैं। " आसा दन " यह पद जो सूत्र में आया है उसका अर्थ एक तो प्राप्त होना हैजैसा कि अभी लिख दिया गया है। तथा दूसरा अर्थ इसका इस प्रकार से है-कि वे अदत्ताग्राही चोर जो वहा मर कर नारकी की पर्याय से उत्पन्न हो चुके है चिरकालानुवधी-भव भव में कटुक फल दायक अदत्तादान के प्रभाव से उत्पन्न हुए अशात वेदनीय कर्म के द्वारा प्रकटी भूत वेदना से व्याप्त उन नरको में निरन्तर सैकड़ो प्रकार के दुःखो को गकप्प" मति पतित मा ७ Y भने “अच्चत्वसीय" हिमा २७ सत्यत शीतल छे त्या नाही नि ते त भने शीतनी " वेयणा आसायणो दिण्ण " बेहनानी प्रातिथी अस्पन्न ये “ सययदक्ससय " से 31 हुमो निश्तर " समभिभूप" भी ४३ छे “ आसादन " मा पहने। सूत्रमा ઉપગ થયે છે તેને એક અર્થ તે “ પ્રાપ્ત થયું ” છે, જે સૂત્રમા હમણું જ અપાય છે તથા તેને બીજો અર્થ આ પ્રમાણે છે-–તે અદત્તગ્રાહી ચાર કે જે મરીને નારકીની પર્યાયમાં ઉત્પન્ન થઈ ચુકયો છે, ચિરકાલાનુબ ધીભવભવમા કડવા ફળ દેનાર અદત્તાદાનના પ્રભાવે ઉત્પન્ન થયેલ અશાતા વેદનીય કર્મ દ્વારા ઉત્પન્ન થયેલ વેદનાથી વ્યાપ્ત તે નરકમાં નિરતર સેકડે દુખે ભગવ્યા કરે છે Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ ३ सू० १८ अदत्तादायिन परोव गतिनिरूपणम् मुखदुस्तरमार्गसञ्चरणविविध सामासशोणित पूर्णनदीनिमज्जन परमाधार्मिकसतसगला का शरीरमनेशन विविधशत्रास भेदन डेवनताडनापक्षारणादिकानि विपुलानि घोराणि दुःखानि शुचना 'तओनि उच्चट्टिया समाणा, ततोऽपि नरकादृत्ताः सन्तः = निस्सृता. मन्तः 'पुणो वि' पुनरपि 'तिरियजोणि पज्जति' तिर्यग्योनिं प्रपद्यन्ते 'वहिंपि' वनापि 'निरयोनम अणु भवति वेयण' नरकोपमामनुभवन्ति वेदनां = रकमदृशमेव समाप्नुवन्ति । अब 'ज इनाम' यदिनाम 'अणतकालेन 'अनन्त कालेन = निगोहना पेक्षया 'गेहिं' अनेकेषु = बहुषु 'निरयगतिगमग तिरियभनसयसहस्सपरियट्टहिं' नरकगतिगमनतिर्यग्भ शतसहस्र परिवर्तेषु = नरकगती यानि पुनः पुनर्गमनानि तेषा तथा तिर्यग्भवाना=तिर्यग्योनीना च ये शतसहस्रपरिवर्ता:अनेकशतसहस्त्रभ्रमणानि तेषु अतिक्रान्तेषु सत्सु 'कहिं वि मणुभाव लर्हिति ' कथभोगा करते हैं । इस प्रकार इस नरको में शीतऔर उणा जन्य अनेक प्रकार की वेदनाएँ हैं जो नारकियो को व्यथित करती रहती हैं । (तओवि उच्चट्टिया समाणा ) नरको में जाकर वहा के विविध प्रकार के दुःखो को भोगते २ जन उन जीवो की एक सागर आदि अनेक सागर प्रमाणवाली भुज्यमान आयु वहा की जय समाप्त हो जाती है तब वे वहा से निकल कर पुनरपि ( तिरियजोणि पवज्जति ) तिर्यचयोनि में जन्म धारण करते हैं । (तर्हिपि ) वहाँ पर भी वे ( निरयावम ) नरकोपम (वेयण ) वेदना को दुःखी को (अणुभवति ) भोगते रहते है । (जड़नामणेहिं णिरयगतिगमनतिरिप्रभवसय सहस्स परियहए) यदि अनेक नरकगति तिर्यचगति के लाखों भवोको धारण करते २ व्यतीत हुए ( अणतकाले ) निगोद की अपेक्षा अनतकाल के बाद ( कहिं वि ) किमी तर ( मणुभाव) मनुष्ययोनि भी उन्हें ( लहिति) प्राप्त हो गई આ પ્રમાણે તે નરકામા શીત અને ઊષ્ણુતા જન્ય અનેક પ્રકારની વેદनाओ नारही लवाने थीडा महोथाडथा उरे छे " तओ वि उव्वट्टिया समाणा " નરકામા જઈને ત્યાના વિવિધ પ્રકારના દુખા ભાગવતા ભાગવતા તે જીવાનુ અનેક સાગર પ્રમાણુ આયુષ્ય ત્યા પૂરૂ થાય છે ત્યારે તે ત્યાથી નીકળીને “ तिरियजोणि पवज्जति " तिर्यथ योनिमा कन्भ धारण उरे छे तिहिं पि" त्या पशु तेभ्यो " निरयोनम " २४ समान" वेयण " वेदनाओ હું ખા अणुभति " ભાગવે છે " जइनामणेगेहिं णिरयगतिगमनतिरिय भवसयस हस्तपरियहए हिं ” જો અનેક નરક ગતિ, તિર્યંચગતિના લાખા ભવે धारषु ४रता जस्ता निगोहनी अपेक्षाओ पसार श्रयेस " अणतकालेण " अनत क्षण पछी " कह वि " अर्ध पशु रीते " मणुयभाव ” मनुष्यगतिभा तेभनी વળી પાછા ચ ८ 66 ३५० Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३५८ प्रश्नव्याकरण मपि मनुजभाष-मनुप्योनि लभन्त प्राप्नुपन्त्यपि चेनहि 'तत्थरिय' तत्रापि च भान्ति-जायन्ते, 'अगारिया' अनार्यालेन्टाः कयानादयः कीदृशा ? इत्याह-'नीयकुल समुप्पण्णा' नीचटमगुत्पन्नाः 'आरियगणे गिलोयवज्मा' आर्यजनेऽपि लोकरावा यदि कदाचिन्मगधाचार्यदेश ममुस्पना अपि लोकवर्ज. नीयाः श्वपाकादिकुलसभूता भान्ति जनैम्तिरम्कता इत्यर्थः, पुनम 'तिरिक्त भूया य ' तिर्यग्भूताश्च पशु तुल्या विवशून्यत्वात् 'अफुसला' अकुशलाःवस्तुतत्वाऽनभिज्ञा ' कामभोगतिमिया' कामभोगतृपिता-तत्र कामौशब्दरूप लक्षणौ मोगा गन्धरसस्पर्शलसणास्तेषु पिता आसक्ताः 'जहि यत्र मनुष्य भवेऽपि लोकनायकुले 'निरयनत्तणी भवप्पश्चारणपणोलि पुणो वि ससाराव तो (तत्वविय) वहा पर भी वे ( अणारिया) अनार्यमनुष्यो-म्लेगे शक यवन आदि पर्यायो में ही (भाति ) उत्पन्न होते है । (नीचकुलसमुप्पण्णा ) ये अनार्यजन नीचकूल के होते हैं । (आरियजणेचि ) यदि कदाचित् मगध आदि आर्यदेश में उत्पन्न हुए तो ये वहा (लोयबजमा) लोकवाह्यजनो में-चाण्डाल आदि निदित नीचकुलो में-उत्पन्नहोते हैं। वहां सदा ये तिरस्कृत होते रहते है । ( तिरियभूयाय ) विवेक शून्य होने के कारण ये तिर्यच जैसे ही वहा बने रहते हैं (अकुसला) वस्तु तत्व से अनभिज्ञ रहते है । (कामभोगतिसया) शब्द, रूप लक्षण काम एव गध रस, स्पर्श लक्षण भोगो मे आसक्त रहते है, (जहिं ) लोक बाह्य कुलो मे मनुष्य भव प्राप्त कर लेने पर भी (निरियवत्तणी) नरक गमन के मार्गभूत, (भवप्पवचकरणपणोल्लि) भव परपरारूप प्रवाह के "लहिंति" थाय तो ५५ " तत्थवि य" "अणारिया " मनाय २७, श४, यवन IE जतिभा " भवति " Gपन्न थाय छ "नी नकुल समुप्पण्णा" ते मनाया नीया जुना डाय छ “आरियजणेविन तेमा आय भगध माहि आर्यसूभिमा म पामे छतो ते त्या “ लोय वडझा" all नामा-या मनिहत नायजामा त्पन्न थाय छ त्या तशा सहा तिरस्कृत या ४२ छ “तिरिय भूयाय" Aasant हावाने કારણે તેઓ તે મનુષ્ય એનિમા હોવા છતા પણ તિય ચ જેવા જ હોય છે, ' असला" वस्तु तथा तेस। (सनलिज्ञ) AM! २९ छ, “कामभोगति सया" श७४, आभ, २स, , २५ मा भाग असत २ छ "जहि" माघ मुनामा भनुष्य लव पाभ्या छत। ५५ ' निरयवत्तणी" न२४ गमनना राभूत भवप्पवचकरणपणोल्लि" सर ५२५२१३५ प्रवाना ads,तथा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू० १. अदत्तादायिन परलोकगतिनिरूपणम् ३५९ तणेममूले' नरकवर्तनी-नरकमार्गभूतानि भवप्रपञ्चकरणगणोदीनि भत्रमपञ्चस्य जन्मपरम्परापमाहस्य करण भवन तस्य प्रणोदीनि = प्रपतकानि नरकगमनकारगानीत्यर्थः, तथा पुनरपि-पुनश्च ससारापर्त नेमिमूलानि तर समारपर्ते=ससारभ्रमणे नेमिमूलानि रथचकपरिधिरूपाणि कर्माणीति गम्यते 'निवति' निवानन्ति चतुर्गतिससारपरिभ्रमणकारणानि महारम्भमहापरिग्रहरूपाणि कुन्तीत्यर्थः । तथा 'धम्ममुइयज्जिया ' धर्मश्रुतिवर्जिताः = धर्मः = श्रुतचारित्रलक्षणस्तस्य श्रुतिः अपण तद् पनिताः 'अणज्जा' अन्याग्याः न्यायपर्जिता 'रा' राजीवोपपातकाः "मिम्उत्त सुइपवण्णा य' मिथ्यास अति प्रपन्नाश्व-मिथ्या. त्वश्रुति-मिथ्यात्वमयाना "न माणिवधे दोपा नाप्यदत्तादाने दोपाः" इत्यादिरूप विपरीततत्त्वोपदेशिका या अतिः सिद्धान्तस्ता प्रपन्नाः तदगीकारकाः 'हुति' भान्ति । तथा एगतदडरुइणो' एकान्तदण्ड रुचयः = एकान्तम् अत्यन्त दण्डे हिंसादिके मचिः = श्रद्धा येपा ते तथा केवल परसन्तापोत्पादनपराप्रवर्तक, तथा (पुणोवि ससारावत्तणेममृले) यार वार चतुर्गतिरूप ससार में परिभ्रमण के नेमिभूत-रथचक्र के परिधिरूप ऐसे कर्मों का ही (निय धति ) यध करते रहते है। अर्थात्-नरक, तिर्यच, मनुष्य गतिरूप ससार में परिभ्रमण के कारणभृत ऐसे महारम्भ, महापरिग्रह रूप कर्मों को करते रहते है । तथा (धम्मसुइवज्जिया) धर्मश्रुति से युतचारित्ररूप धर्म के श्रवण से वर्जिन रहते हैं। (अणज्जा ) न्यायमार्ग से हीन होते हैं। (कूरा) कर-स्वभाव के जीवो का उपघात करने वाले होते है । (य) और (मिच्छत्त मुइपवण्ण) "न प्राणिवध मे दोप है और न अदता दान में दोप है " इत्यादि प्रकार से विपरीत तत्त्वोपदेशक मिथ्यात्वप्रधान श्रुति को-सिद्वातकों अगीकार करने वाले (हुति ) होते हैं। तथा (एगतदड-रुहगो ) इनकी श्रद्धा हिंसादिक पापकार्यो मे ही अत्यत रूपमें " पुणोवि ससारावत्तणेममूले" वारवार याति३५ ससारमा परिश्रमाना नभिभूत-२थयन परिधि३५ वा भनिन “निनधति" ५५ माता રહે છે, એટલે કે નરઠ, તિર્યંચ, મનુષ્યગતિરૂપ સંસારમાં પરિભ્રમણના કાર ५५३५ मेवा मडा२, महापरिय३५ ४ा ४२ तथा "धम्म सुइव ज्जिया" तयारित्र३५ घमना श्रवथा २डित २९ , ' अणज्जा" न्याय भाथी २डित डाय छ, “पूरा" २ स्वमापना-यानी (AI 'डाय छ “य" तथा " मित्त सुइपवण्ण " “प्राविषयमा होप नथी मने मह ત્તાદાનમા દેવ નથી ” ઈત્યાદિ પ્રકારના વિપરીત તોપદેશક મિથ્યાત્વ પ્રધાન सिद्धांताने वीरनार हुति" डाय छ, तथा " एगतदडरुइणो" सिEि Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे यणा इत्यर्थः 'कोसिगारकी डे' कोशिकारयोट र 'अठकम्मततुपणयधणेण' अष्टमर्मतन्तुवनान्धनेन अष्टकर्ममि गानापरणादिलक्षणैः तन्तुमि : त्रै वि यद् घना बन्धन तेन ' अप्पग' आत्मान ' टेनि । वेष्टयन्ति । यथा कोशीकारकीटाः सूनाणि गृजन्तस्तरे च यचनभूते पेप्टिता भान्ति तथैव अदत्तादायिन स्वेने क्रियमाणे पानापरणादि लक्षणेरप्टकर्ममि स्थानीय चन्धनध्यन्ते इति भावः ॥ मू० १८ ॥ ___ अष्टविधर्मभिद्धाः सन्तः ससारसागर बसन्तीति नमेर वर्णयन्नाह'एव नरग' इत्यादि। मूलम्-एव नरातिरियनरअमरगमण - पेरंतचक्कवाल जम्मजरामरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुभियपउरसलिल सजोग विजोगवीचि-चितापसगपसारिय-वहवधमहल्लविउलकल्लोल-- कलुणविलविय-लोभकलकलतवोलबहलं अवमाणणफेणं तिव्वखिसण-पुलपुलप्पभूय-रोगवेयण-पराभवविणिवाय-फरुतधरिसण. रहती है । अर्थात् ये सदा परजीवोंको सताप पहचाने में ही परायण पने रहते हैं तथा (कोसिगारकीडेव) कोशिकार कीडे की तरह वे (अहकम्मततुघणयधणेण) आठकर्म रूप तन्तुओ के घनिष्ठ बन्धन से (अप्पाण) अपने आपको (वेटेंति ) वेष्टित करते है अर्थात् जिस प्रकार कोशिकार कीट सूत्रो का सर्जन करते हुए बधनभूत उन्हीं सत्रो से वेष्टित हो जाते है उसी तरह अदत्तग्राहीजन अपने द्वारा किये गये सूत्रस्थानीय ज्ञाना वरण आदि अष्ट कर्मों से जो कि आत्मा को दृढ़रूप वाधनेवाले हैं पधदशा को प्राप्त हो जाते है। -१८॥ પાપકૃત્યમાં જ તેમને વધારે શ્રદ્ધા હોય છે, એટલે કે અન્ય જીને કષ્ટ पडायावा ती सहत५२ २९ छ तथा “कोसिगारकीडेव" शटानी भ ते! “ अटुकम्मततुघणयधणेण" मा भथा ताना भरभूत मधनथी “अपाण" चातानी तने " वेटे ति" पे ट म રેશમન કીડો (કેશે) તતુઓનું સર્જન કરીને તે તતુઓને પિતના શરીર કરતા તેમાં લપેટીને તેમાં બધાઈ જાય છે, તેમ અદત્તાદાન લેનાર માણસ પોતે કરેલા જ્ઞાનાવરણીય આદિ કર્મો કે જે આત્માને મજબૂત રીતે બાંધનારા છે, તે કરૂપ તતુથી બ ધનની સ્થિતિ પ્રાપ્ત કરે છે સૂ ૧૮ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ० ३ सू० १९ ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् _ ३६१ समावडिय-कठिणकम्मपत्थरतरंग-रिगंतनिच्चमच्चुभयतोयपळू कसायपायालकलससकुल भवसयसहस्सजलसंचय अणंतं उठवेगजणयं अणोरपार महब्भय भयंकरं पइभय अपरिमियमहिच्छ कल्लुसमइ वा उव्वेग उद्धरममाणाऽऽसापिवासा पायालं कामरइरागदोसवधणबहुविहसकप्पविउलद गरयरयधयारं, मोहमहावत्तभोगगममाणगुप्पमाणुच्छलंतवहुगन्भवासपचोणियतपाणियं पधावियवसण-समावण्णरुण्णचडमारुय -समाहयामगुण्णवीचिवाकुलियभगफुट्टतनिकल्लोलसंकुलजल पमायबहुचडदुहसावयसमाहयउद्धायमाणगपूरघोरविद्धंसणत्थबहुलं अण्णाणभमतमच्छपरिहत्थ अनिहुतिदिय-महामगरतुरियचरियखोक्खुम्भमाणसतावनिच्चयचलतचवलचंचलअत्ताणा-स. रणपुव्वकम्मसचयोदिण्णवजवेदिज्जमाणदुहसयविवागणंतजलसमूह, इडिरससायगारवोहारगहिय - कम्मपडिवद्धसत्तकड्डिज्जमाण-निरयतलहुत्तसपणविसण्णवहुल, अरइरइभयविसाय सोगमिच्छत्तसल्लसकड अणाइसताणकम्मवधणकिलेस चिक्खिल्लदुहत्तार अमरनरतिरियनिरयगइगमणकुडिलपरिवविउलवेल-हिसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारभकरणकारावणा णुमोयण-अट्टविहअणिठकम्मपिडियगुरुभाराकतदुग्गजलोघदूरनिब्बोलिजमाणउम्मग्गनिमग्गदुल्लहतल सरीरमणोमयाणिदुक्खाणि उप्पियता सायासायपरितावणमय उव्वुजुनिव्वुड्डयकरेताचउरतमहतमणवयग्गंरुद्द ससारसायरअट्ठिय अणालवणपइट्ठाणमप्पमेय चुलसीइजोणिसयसहस्तगुविल अणालोगमधया अणंतकाल जावणिच्च उत्तत्थसुण्णमयसपणसपउत्ता वसति उव्विग्गवासवसहि ॥ सू० १९॥ TO Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसरे ___टीका-'एवम्' अमुना प्रकारेण मात्मनः कर्मभिन्यनेन 'नरगतिरियनरअमर गमण पेरतचकवाल' नरकतिर्यहनराऽमरगमनपर्यन्त पार=7'नरक', निर्य, नरः, अमर,' इति चतुर्गतिपु गमन = तदेव पर्यन्ताकपाल बायपरिधिमण्डल यस्य स तथा तमेवभूत समारसागर वसन्तीति दयमाणेन सम्बन्धः । पुनः कथं भूतमित्याह-'जम्मनरामरणकरणगमीरदुपरसपरसुभियपउरगलिल' जन्म जरामरणरणगम्भीरदुःखप्रसुमिनाचुरसरिल-तन जन्ममरामग्णादिभिः करणे:साधनभूतैर्यद्गम्भीरदु'सम् अतिमहाक्लेशस्तदेर प्रयुमित - अतिवेगव्याकुलित मचुर सलिल-जल यन स तथा तम् , यथा समुद्रो विरजलराशिपूर्णो भवति तथैव समुद्ररूप समारोऽपि जलस्वरूपविविधदाखव्याप्त इत्यर्थः, एवमेवाग्रेऽपि समुद्रधर्मान् रूपकालकारेण ससारेऽपि प्रदर्शयति पुनर्यथा- 'सनोगविजोग ये जीव ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्मों से चघदशा को प्राप्त होकर ससार सागर में रहते है सत्रकार अव वर्णन करते है 'एव नरग' इत्यादि। टीकार्थ-(एव) इस प्रकार अपनी आत्माको कमों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप यधदशा से घाधनेके कारण ये अदत्तग्राहीजन (नरगतिरियनर अमरगमणपेरतचकवाल ) नरक, तियंञ्च, मनुष्य एव देवतियों में परिभ्रमण कर वाद्य परिधिमडल वाले, तथा (जम्मजरामरणकरणगभार दुक्खपखुभियपउरसलिल ) जम, जरा, मरणजन्य अति महाक्छेशरूप प्रक्षभित एव प्रचुर जलवाले ससार नागर से ही चकर काटा करते है-परिभ्रमण किया करते है । सूत्रकार रूपकालकार से इसी ससार તે જે જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોથી બ ધનની દશા પ્રાપ્ત કરીને સ સાર સાગરમાં રહે છેહવે સૂત્રકાર તેનું વર્ણન કરે છે " एव नरग" त्याह Ast.-" एव " ते शत पाताना मात्माने भनी साथे स त्रापा३५ M uथी माधवाने १२ ते महत्तश्राडी माराम "नरगतिरियनरअमरगमणपेर तचक्वाल" न२४, तिर्थ य, मनुष्य भने हर गतियोमा ५२ प्रभ३५ मा परिधिम वाणा, तथा “जम्मजरामरणकरणगभीरदुक्स पक्खुभियपउरसलिल" सन्म, १२, भरण न्य भतिशय मोटा ४२०३५ પ્રક્ષાભિત અને પ્રચુર જળવાળા સ સાર સાગરમાં જ ચક્કર લગાવ્યા કરે છેપરિમણ ર્યા કરે છે, સૂત્રકાર રૂપ અલકારથી આ સ સારસાગરનું વર્ણન Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६३ सुशिनी टीफा ३ सू० १९ ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् वीचि-चिंतापसग पसारिय - बहनपमहल्लपिउलकलोल फलुणपिलवियलोभालकलतमोलपहल ' तत्र' सजोगनिजोगनीचि' सयोगवियोगा एवं वीचया तरङ्गा यत्र स तथा, समुद्रो यथा-जन्तरगयुक्त एव ससारोऽप्यनिष्टसयोगेष्टवियोग रूप-तरङ्गयुक्त , तथा 'चिंतापसगपसारिय' चिन्ताप्रसङ्गप्रसारिता गोकसम्ह विस्तृतः 'वाधमहलविउल्कहोल' वधमन्यमहाविपुलालोलाः, तर वधाः = यष्टयादि ताडनानि, कन्या रज्ज्यादि पन्चनानि तान्येव महान्तः सुदीर्घाः विपुला विशालाच क्लोला: महातरगा यत्र स त, तया ठुरिलवियलोहकररलतपोलपहुल' रुगविरपितलोभकलक्लायमानगोल्बहुला करुणपिलपित सागर का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि जिस प्रकार समुद्र का वाय परिधिमडल होता है उसी तरह इस ससार रूप समुद्र का चाधमडल चतुर्गतियों में परिभ्रमण करना रूप है। जिस तरह समुद्र अपार जलराशि से मदा परिपृणे रहता है, उसी तरह यह ससार भी जन्म जरा एव मरण जन्य गभीर दुखम्प जल से पूर्ण भरा हजा है। (सजोग विजोग वीचिं-चिंता पसग-पसारिय-बह-ध-महल-विउल-कलोल कलुण-विलविय-लोभकलकलतगोलमहल) इस ससार मे (सजोग विजोग दीचिं) अनिष्ट सोग एव इष्टवियोग जीवों को प्रतिक्षण प्राप्त होते रहते हं सो ये अनिष्टसयोग इप्टवियोग ही इसमे वीचि-लहरों जैसे हैं । तरा (चितापसगपसारिय ) विविध प्रकार के शोक समूह से यह विस्तृत हो रहा है। (घनघ) वच-यप्टयादि द्वारा वाधना ये ही जिसमे (महल) रडी २ (विउल) विशाल ( कलोल ) कल्लोलें है। કરતા કહે છે કે-જેમ સમુદ્રનુ બાહ્ય પરિધિમડળ હોય છે, એ જ પ્રમાણે આ સ સાર રૂપી સમુદ્રનુ ચતુર્ગતિમાં ભ્રમણ કરવા રૂપ બાહ્યપરિધિમડળ છે જેમ સમુદ્ર અપાર જળ રાશિથી સદા પરિપૂર્ણ રહે છે, તે જ પ્રમાણે આ સ સાર પણ જન્મ, જરા અને મરણ જન્ય ગભીર દુ ખરૂપી थी पूरेपूदे। लरेसा छ "सजोगविजोगवीचि-चिंता पसग पसारियवहब धमहल्ल पिउलकल्लोलग्लुणविलवियलोभकलकलतपोलपहुल " 0 ससारमा "सजोगविजोगवीचि' मनिष्टना वियोग सवार दो साणे प्रात यया કરે છે તે અનિષ્ટ સ ગ અને ઈષ્ટવિગ જ તેમાં વિચિ-લહેરે જેવો છે तथा "चिंतोपसगपसारिय" विविध प्रश्न उसडथी ते विस्तृत थर्ड २स छ "वह्वध" १५-यटरी माह ारा ५ धन सभा “महल्ल" मोटा भाटा “ विउल " विum "कल्लोल" भागत समान छ “कलुणविलविय" Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नप्यावरणसरे रोगदुःखादिजनितदीनविलापएर लोभमोहन फरकलायमानः कामदयुक्तो यो चोला धनि स बहुलो यत्र स तलति सयोगादोनों पदाना कर्मचारयस्त तथा 'अनमाणणफेण' अपमाननफेनम् अपमानफनयुक्त 'धिखिसणपुलं पुलप्पभूयरोगवेयणपराभनपिणियफस परिसणसमारडियाठिणकम्मपत्यरतरग रिंगतनिच्चमच्चुभयतोयप ' तन 'तिव्यखिंपग तीनखिसनम्तीपनिन्दा तथा 'पुलपुल' निरन्तर प्रभूताबहला जायमाना या 'रोगरेयण' रोगवेदना नानाविधाऽऽपिव्याधि-पीडास्ताः, तथा परामरविणिनाय' परामा अना• दरः, तस्य निनिपाता-पिशेपेण प्राण, तया 'फरसपरिसग' पार्षगानि कठोरवचनैः भर्त्सनानि च तानि 'समारडिय' समापतितानिसमापन्नानि येभ्य स्तान्येवम्भूतानि यानि 'कठिणकम्म' कठिनकर्माणि ज्ञानापरणादीनि क्लिष्ट (फलणविलविय ) रोग से ण्व दुःसादि से जन्य करुण विलाप तथा (लोभ ) लोभ एव मोह से जन्य जो (कलकलत) कलकल शब्द, इन से युक्त ( घोल ) ध्वनिया ही जहां (यहुल) यदुलरूप में वर्तमान है (अवमाणणफेण) अपमानरूप फेन से जो युक्त बना हुआ है, (तिव्य खिसण पुलपुल भूयरोग वेयणपराभव विणिवायफरुसरिसण समावडि यकठिणकम्म पत्थर तरग रिंगतनिच्चमुच्चुभयतोयपह) (तिव्वखिसण) तीव्र निंदाऍ तथा (पभूयरोगवेयण) निरतर जायमान अनेक रोग वेद नाएँ-नाना प्रकार की आधि व्याधि रूप पीडाएँ, (पराभवविणिवाय) अनादर की विशेष रूप से प्राप्ति, तथा (फरुसधरिसणसमावडिय) कठोर वचनों द्वारा निर्भर्सन-फटकारना, ये सब जिनके उदय से जीवा को प्राप्त होते रहते हैं, ऐसे ( कढिणकम्मपत्थर ) ज्ञानावरण आदि क्लिष्ट । तया माहिथी 4-1 थयेस ७ विक्षा५ तथा " लोभ ' सोम मन माथी न्य.२ "कलकल त 'saa' Avथी युत " बोल" सपा न्या " बहुल " धारे प्रभामा विद्यमान छ, “अवमाणणफेण" अ५ भान३५ थी २ युटत छ, “तिपसिंसणपुल पुलभूयरोगवेयणपराभव विणिवायफरसपरिसणसमावडियकठिणकम्मपत्थरतर गरिगतनिच्चमच्चुभयतोयपटु " " तिव्वसिंसण " तीन निहासो तथा पयरोगवेयण" નિરતર ઉત્પન્ન થતી અનેક રોગ વેદનાઓ–વિવિધ પ્રકારની આધિ વ્યાધિ રૂપ पाय “पराभवविणिवाय" मोटे लागे मनानी प्रालि, तथा “फरुस धरिसणसमावडिय" और क्या दारा निसनधिछार, 2 मधु रमना यथी वान प्रास थय। ४रे छे, मेवा “कढिणकम्मपत्यर" ज्ञानावर .. Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका भ० ३ सू० १९ ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् कर्माणि तान्येव ये प्रस्तरासागरपापाणरूपास्तैः कृत्वा 'तरगरिंगत ' तरङ्गरिङ्गत् -तर कल्लोलेः रिगत्-चलत् 'निचमच्चुमयतोयपट्ट' नित्यमृत्युभयतोयपृष्ठनित्य-अ मृत्युभय-मरणभयमेन तोयपृष्ठ-जलोपरितनभागो यन स तथा त महापापाणाद्याचातोत्थितमहातरगचञ्चलनलौवमृत्युभयसकुलः सागरो यथा भरति तथा समारोप भर्त्सनापमाननादि नानाट सफलपदज्ञानावरणादि क्लिाटकर्म पापाणसमुत्थित पुन' पुनर्जन्मजरामरण मयतरगव्याप्त इत्यर्थ । 'कमायपायाल. कल्ससफुल' कपायपावालकलशसकुल पाया शोधायश्चत्वारस्ते एव पातालकलशास्तैः सङ्कलो यः स तथा त, 'भवमयसहस्मनलसचय' भवशतसहस्रनलसञ्चय भवगतसहस्राप्येयजलसञ्चयः = जलराशियन स तया तम् , ' अणत' कर्मरूप पापाणों से उठी हुई, (तरगरिंगत ) तरगों से जो चचल चना हुआ है, तथा जो (निच्चमच्चुभय) अवश्यभावी मृत्यु के भयरूप (तोयपट्ट) जलके उपरितन भाग से युक्त हो रहा है, अर्थात-जिस प्रकार समुद्र महापापाणों आदि के आघात से उत्थित महातरगों से चचल तथा जल से भरा हुआ होने के कारण मृत्यु के भय से सकुल होता है उसी तरह ससार भी भत्र्सना अपमान आदि ननादुःखरूप फलको देने वाले क्लिष्टकर्मरूप पापाणों से समुत्थित चार बार जन्म, जरा, मरण, के भयरूप तरगों से व्याप्त हो रहा है । (कसायपायालकलससकुल) तथा यह ससार सागर क्रोधादिक चार कपायरूप पाताल कलशों से युक्त है (भवसयसहस्सजलसचय ) लाखों भवरूप जलसचय से यह युक्त है। (अणत) अनन्त ससारी जीवों की अपेक्षा यह अन्त ATERAL म३५ पापाथी पहा ये “तरग रिंगत " तशाथी २ ययण अनेस छ, तथाले “निश्चमच्चुभय" अवश्य लावी (०४३२ थनारा) भृत्युना लय३या " तोयपट्ट " तिन भागथी युत छ, मेवा ससार સાગરમાં તે પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે– એટલે કે જેમ સમુદ્ર મહાપાષાણે આદિના આઘાતથી ઉત્પન્ન થયેલ તર ગોળી ચ ચળ બનેલ હોય છે તથા પાણીથી ભરપૂર હોવાને કારણે તેમાં પડનારને માટે મોતને ભય રહે છે તેમ સસાર પણ ભત્સના અપમાન આદિ વિવિધ દુખરૂપ ફળ દેનારા કિલષ્ટ કર્મરૂપ પાષાણેથી ઉત્પન્ન થતા, વાર વાર અનુભવાતા જન્મ, જરા, મરણું આદિના मय३५ तर गायी व्यास छ “कसायपाचालकलससकुल तथा मा ससार सासर १५ माहि उपाय३५ पाता शाथी युत छ " भवसयसहस्सजल सवय" सा सप३५ सयथी ते युधत छ “ अणत" मनन्त ससारी Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- प्रश्नध्याकरणसूत्रे अनन्तम् समारि जीवापेक्षया अन्तरहितम् 'उगजणय ' उद्वेगजनक प्राधिव्याधि प्रभृतिदुःखशतयुक्तत्वात् ' अगोरसार ' अनार पारम् अपार मह भय ' महाभय-महाभपजनक दुम्मारवाद , भयकरमप्रकृतिमहामत्पमकरा दिभिः व्याप्तत्वात् , 'पEमय ' प्रतिमयपतिपाणिन भयनना मालपाणिभयो स्पादकसात् 'अपरिमिय महिच्छफलुममति पाउरोग उद्धमामाणासापियामापायाल' अपरिमितमहेच्छाफलुपमतियायुवेगोदम्यमानाशापिपासापातालम् , तर अपरिमि ता अपरिमाणा महती-पिशाला चेच्छा-पिपयामिलापा, 'फलस' कलपा मलिना या मति =शुद्धिः सा एव 'वायुवेग' गायुगस्तेन ' उम्मन्माण' उदम्यमाना प्रवर्द्धमाना या आशा अमातार्थस्य प्राप्ति सम्भावना, पिपासा प्राप्तायस्योप भोगवान्छाः , एता एव पाताल या स तथा तम्, अपरिमितमहेच्छामलिनाद रहित है । ( उन्वेगजणय) आधि व्याधि आदि सैकड़ों दुःखों से युक्त होने के कारण यह उद्वेगजनक है। तथा (अणोरपार) यह अदृष्ट पारवाला है-इसका पार अदृष्ट है । (महन्भय ) दुस्तर होने से यह जीवा को महाभय का जनक है । कर्मों की १४८ उत्तर प्रकृतिरूप महामत्स्य मकर आदि जलचर जीवो से यह व्याप्त है । समस्त प्राणियों के लिय भय का उत्पादक होने के कारण यह (पहभय ) हरएक जीव के लिय भय का जनक बना हुआ है। (अपरिमियमहिच्छालुसमतिवाउवंग उद्धम्ममाणासापिवासापायाल ) (अपरिमिय) अपरिमित तथा (महिच्छ) महता विषयाशारूप एव ( कलुसमति ) मलिनबुद्धिरूप (वाउवेग) वायु के वेग से (उद्धम्नमाण ) प्रवर्द्धमान ऐसी (आसा) आशा-अप्राप्त अर्थ के प्राप्त करने की सभावनारूप तथा (पिवासा) पिपासा-अर्थ का उप वानी अपेक्षा ते सन्तडित छे " उन्वेगजणय " माधिव्याधि माह से माथी युत पाथी त देशन तथा “ अणोरपार " त मसीभ-२५५२ छ “ महब्भय " स्तर डावाथी ते वान भाट मालय પેિદા કરનાર છે કર્મોની ૧૪૮ ઉત્તર પ્રકૃતિરૂપ મહામત્ય, મગર આદિ જી ચર જીવોથી તે વ્યાપ્ત છે સમસ્ત પ્રાણીઓને માટે તે ભય પેદા કરનાર लावाथी ते 'पइभय " हरे वने माटे नयन छ “ अपरिमिय महि च्छकलुसमतिबाउवेगउद्धम्ममाणासापिवासापायाल " " अपरिमिय" अपार मित तथा 'मिहिच्छ" भारी विषय वासना ३५ भने “कलुसमति" मलिन भति३५, “वाउवेग" वायुना गयी “ उद्धम्ममाण " qधती ती मेवा " आसा" माशा-मास पस्तुने पास ७२पानी समावन तथा “पिवासा" Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका २० ३ सू० १९ मसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३६७ वायुप्रबर्द्धमानाशातृष्णादिरूपाऽन्तापातालयुक्तमित्यर्थः । तथा-'कामरइरागदोस वधणबहनिरसकप्पपिउल्दगरयरयधयार' कामरति-रागद्वेष-धन-सहुविधसकल्पविपुलदारजोरयायमारम् , ता-कामरतिः = गन्दादिपभिरुचि , रागः = अनुकूलविपयेषु प्रीतिः, द्वेपः = तेप्वेचप्रतिकूलेप्पपीतिश्चेत्येतान्येव बन्धनानि वन्यकारगानि तथा बहुविधाश्च साल्पा:-मनः संकल्पा इत्येतेपा द्वन्द्वः ते काम. रत्यादय एन विपुलदक रजासि-विस्तीर्णजल कणिकाः तेपा यो रया गस्तद् रूपोऽन्धकारो यत्र स तथा तम् । कामरत्यादिस्पजल कणिका वेग समुत्पन्नान्धका रयुक्तमित्यर्थः । पुन कीदृश 'मित्याह-मोहमहापत्तभोगमममाणगुप्पमाणुन्छल्तबहुगभासपन्चोणियत्तपाणिय' मोहमहापर्तभोगभ्रमद्गुप्यदुन्दरहुगर्म बासमत्यानिवृत्तमाणिकम् , तर-मोहमहापत्त' मोहमहामोह एव महानाभोग करने की वाचारूप ( पायाल ) पाताल से ग्रह युक्त है, तथा (कामरहरागदोम बधग बहुविहसकप्पविउलदगरयरयधयार) (कामरह) शब्दादिक विषयों मे अभिरुचिरूप कामरति, (राग ) अनुकूल विषयों में प्रीति रूप राग, एच (दोस) प्रतिकूल शब्दादिविपयों मे अमीति द्वेष, जो (चवण) वध के कारण हैं, तथा ( बहुविद सकप्प ) बहुत प्रकार के जो मनः सकल्प हैं ये ही सब इस ससारसमुद्र में (विउल दगरय) वीस्तीर्णदकरज-जलकण है। इनका ( रयधयार) वेगरूप अधकार इसमें सदा व्याप्त हो रहा है अर्थात्-कामरत्यादिरूप जलकणों के वेगों से समुत्पन्न अधकार से यह युक्त बना हुआ है ( मोर महावत्त-भोगभममाणगुप्पमाणुच्छलत गम्भवास पच्चोणियपाणिय ) तथा ( मोहमहावत्त) मोहरूप महान् आवर्त इसमे उठ रहे है । और इन आवर्तो मे जहा विपासा-IA INow Gyan ४२वानी ४२७. ३५ " पायाल " पातायात युत छ, तथा “ कामरइरामदोसब धणबहुविहसकप्पविउलदगरयरयधयार " "कमरइ" हा विषयोमा मनिधि३५ उमति, "राग” मनु विषयोमा प्रीति३५ राग, भने “दोस" प्रति शमहाहि विषयोमा मप्रीति३५ द्वेष, “धण" धनना डारण। छ, तथा “पहविहसकप्प" भने। मारना २ मन स४८ छे ये सधा मा ससा२ सागरमा "पिउलगरय" विस्ती र मिन्स के "रयधयार" तमना ३१३५ १ ५७१२थी ते व्यास છે એટલે કે કામરતિ આદિ રૂપ જળકણોના વેગથી ઉત્પન્ન થયેલ અ ધકારથી ते युत छ “मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणुच्छन तपहुगन्भवासपन्चो णियत्तपाणिय " तथा " मोहमहावत् " मा ३५ महा भी तमा उत्पन्न च्या २ छ भने ते भाभा -4ममा न्या " भोग" विषय-वास "भम Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण्याकको वतः जलभ्रमस्तन भोगाःपिया ग्व 'मममाण' भ्रमन्तः 'गप्पमाण 'गुप्यन्तः व्याकुली भान्तः, उन्लन्त:-उत्पान्तः 'बहुगभास' पहपु - बहुविधा गर्भनासेपु-पशुपक्ष्यादिलक्षणेषु'पन्चोणियन प्रत्यानिटत्ता उत्पत्य निपतिताः 'पाणिय' प्राणिनो-जीनाः समुद्रपक्षे मकरादयः, समारपत्र ममारिणो यत्र तथा भूत, तथा-पधारियनसणसमावण्णरणचडमारय समाहयाऽमणुण्णवीविधाकृलिय भगफुट्टतनिट्ठरल्लोलसरजल । प्रभावितव्यमनममापनरुदितचण्डमारुतसमाइ तामनोज्ञमीचिव्याकुतितभद्स्फुटदनिप्टकल्लोलसकुलमलम्, तत्र - पधाविय' प्रधारितानि- प्रणेतस्ततोगतानि यानि 'सण' व्यसनानि क्रप्टानि तानि 'समावण्ण' समापन्नामाप्ता ये माणिन तेपा 'मण्ण' रुदितमेव 'चडमारुप' चण्डमारुतः पचण्डवायुस्तेन 'समाहय ' समाहता: परस्पर सपहिता याः 'अमगुण्ण ' अमनोज्ञा भयकरा' वीचयः दुःखपरम्परारूप तरगास्तै 'वाउलिय' व्या (भोग) विषय-भोग ही (भममाण) भ्रमण कर रहे है, (गुप्पमाणे ) व्याकुल हो रहे हैं तथा (उच्छलत ) उछल रहे है । एव इस ससार समुद्र में (पगम्भवास) मनुष्य, पशु पक्षी आदि योनि रूप नाना प्रकार के गर्भो में ससारी जीव तथा समुद्रपक्ष में मगरमच्छ आदि जलचर जीव आकर निपतित हो रहे है। (पपाविय-वसण-समावण रुण्णचडमारुयसमायाऽमुपणवीचि चाकुलियभगफुट्टतनिट्ठकल्लोलसकुलजल) तथा यह ससार समुद्र (पधाविय) इधर उधर से समाप्त (वसणसमावण्ण) अनेक व्यसनो-दुःखोंसे पीडित हुए प्राणियोंके (रुण्ण) रुदनरूप (चड मारुय) प्रचण्ड वायु से (समाय) परस्पर संघर्ष को प्राप्त हुई (अमणुण्णवीचि) अमनोज्ञ दुखों की परपरारूप तरङ्गों से (वाकुलिय) माण" अभए ४री रा छ, “गुप्पमाण" व्याण थ/ २७स , तथा " उच्छल त ' suी २ह्या छ भने ते ससा२ सासभा “बहुगम्भवास" મનુષ્ય, પશુ, પક્ષી આદિ નિરૂપ વિવિધ પ્રકારના ગર્ભોમાં પ્રાણીઓ-સસી રની અપેક્ષાએ છ તથા સમુદ્રની અપેક્ષાએ મગરમચ્છ આદિ જળચર છે આવી આવીને નિપતિત થઈ રહેલ છે એટલે કે તેમાં જન્મ લઈ રહેલ छ “पधाविय-वसण-रुण्ण-चड-मारुय-समाहयाऽमुण्णीचि-वाकुलिय-भाग-- फुट्टत-निद्र कल्लोल-सकुलजल " तथा मा ससा२ समुद्र "पर्धाविय " मी तलीथी पास “वसणसमारण्ण" मन (व्यसन) हुमाथी पीता प्राधी माना ' रुग्ण" २४न३५ " चडमारुय" प्रय वायुथी “समाय" ५२२५२ मत “ अमणुण्णवीचि" आमना सानी ५२५२२ साथी Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदशिनी टीका अ ३ सू० १९ ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३६९ कुलित-विक्षोभित तथा भझै =तरझैः सह सहनेन ‘फुट्टत' स्फुटन्त पृथग भवन्तो ये 'निट्ठकलोल ' अनिष्टकल्लोलाः - दारुण दुःखमहातरशास्तैः सकुल =व्याप्त जल = जन्मजरामरणरूप यत्र स तथा तम् । मोहमहापर्तनिपतितनिषयोपभोगभ्रमणनिमग्नमाणियुक्त पशुपक्षिनरकनराऽमरादिविपमोनतावनतयोनि विभ्रमणतरगभगयुक्त विविधदारुणदुखदुःखित प्राणिरोदनाऽऽक्रन्दनरूपवायु समाघातपद्धदुःग्यतरङ्गयुक्त पुन पुनर्जन्ममरणरूपजल यत्र ससारसागर वसन्तीति सम्पन्यः पुन मीटश' मित्याह -- 'पमादपहचडट्ठमारयसमाहयउद्धायमाजगपूरसोरसिद्धसणत्याहुल ' प्रमादरचण्डदुष्टयापसमाहतोद्धानपूरपोरविव सानबहुल' तर-प्रमादपहुचण्डदुप्टश्वापदाममदाः = मद्यविषयकपायनिद्रा विकथारूपास्ते एव बहुचण्डा=अतिशयरोदा 'दुट्टयावय' दुःश्वापदा-हिंसक क्षुभित हो रहा है । ण्व (भगफुटन ) तरङ्गों के साथ सबहन से पृथक हुई ऐसी (निकल्लोल ) अनिष्ट फल्लोलों-दारुण दुःखरूप महातर गों से ( संकुल) सकुल बना हुआ ऐसा (जल) जन्म, जरा, मरणरूप जल इसमें भरा हुआ है । अर्थात् मोहरूप महा आवर्त में जहां विपयोपभोग की वान्छा से इतस्ततः भ्रमण करते हुए जीव निमग्न हो रहे हैं । तथा पशु, पक्षी, नरक, नर, अमर, आदि ऊँची नीची योनियों में परिभ्ररण रूप तर गे इम में उठ रही हैं, और विविध दारुण आदि दुःखों से दुःखित हुए प्राणियो के रोदन-आमदन रूप वायु के आघातों से जहा दुसरूप महा तरंगें जन्म जरा मरण रूप जल को आलोडित कर रही हैं । (पमादबहुचडदुट्ट सावध समायउद्वायमाणगपूरघोरविडसणथवहुल) तथा इस ससाररूप समुद्र मे (पमाद ) मद्य, विषय, कपाय, निद्रा, विकया, इन पाच प्रमादरूप (चड) भयकर (दुसावय) रौद्र "वाकुलिय" जी यो मन “भगफुट्टत" तरगानी साथे 24231 पाथी ! ५सी “निद्रकल्लोल" अनिष्ट उदाहरण प३५ भडातरगाथी "सकुल " व्याप्त अवु "जल -भ, १२, भरए। ३५ ४ तमा ભરેલુ છે એટલે કે મેહરૂપી મહાવમળમાં વિષયભેગની ઈચ્છાથી આમ તેમ ભ્રમણ કરતા જીવે ત્યા ડૂબેલા છે તથા પશુ, પક્ષી નારડી, નર, દેવ આદિ ઊ ચી નીચી નિમાં પરિભ્રમણરૂપ તરગોમાં તેમાં ઉછળી રહ્યા છે, અને વિવિધ દારુણ ૬ થી પીડાતા ના આકદ રૂપ પવનના આઘાતથી જ્યા દુ અરૂપ મહાત ગે જન્મ, જરા મણ રૂપ જળને ખળભળાવી રહેલ छ “पमाद-बहु-चड-दुसारयसमाहयउदायमाणगपूरघोर विद्वसणत्यवहुल " मा ससा२ ३पी सागरमा "पमाद" भध, विषय ४पाय निद्रा मन विsal, मे पाय प्रभा३पी " चड" य२ "दुद्रसारय" शे; भावना (55 प्र ४७ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० प्रमायाकरण जन्तव , तैः 'समात्य' समाहता भागात पाA जीरास्ते 'उदायमाणग पूरचोर, उद्धापन प्रतिष्ट तो मिरियाग, गधा मत्स्यादयः मसारपझे पुरुषादयः ते पूरा समरः तम्प गे पोरा'गरुणा' 'विद्रमगत्य' विधमा नर्था =पिनाशर जनस्ते पहुआ यत्र स तमा तम् । ' अगाणभमतमन् उपरिइत्यअनिहुर्तिदियमहामगरतुरियचरिय खोपगुरुममाणतानिन्चयचलतपश्चचल अताणसरणपुष्पकम्मसचयोदिण्णाजोदिनमाणदुहमयविवागघुण जलममूह' अ ज्ञानभ्रमन्मत्स्यपरिग्रस्तानिभृतेन्द्रियूमहामारत्वरितचरितचोधुभ्यमाणसन्तापनित्य कचलच्चपलचञ्चलानाणाशरणपूर्वर मेमचयोदीर्णा वद्यधमानदुपातनिपारघूर्ण ज्ज्लसमृहम् , तत्र-अण्णाणभमतमच्छपग्हित्य' मानभ्रमन्मत्स्यपरिग्रस्नम् = अज्ञानान्येर भ्रमन्तो मत्स्या: अशानरूपमहामत्स्यास्तः परिग्रस्त व्याप्तम् । तथा 'अनिहुतिदियमहामगर ' अनिभृतेन्द्रियमहामकग अनिभूतानि-अनुपशान्तानि यानि इन्द्रियाणि तान्येव महामारास्तेपा यानि 'हरियचरिय' त्वरितचरितानि -शीघ्रसञ्चरणानि तैः 'खोक्सुन्भमाण' चोक्षुभ्यमाणः = अतिशयेन व्याकुली आकृतियाले हिंसक जतुओ द्वारा (समाय) आघात को प्राप्त करते (उद्धायमाणग) विविधचेष्टाओ में उछलते हुए समुद्रपक्ष में मत्स्या दिक, ससारपक्ष में पुम्पादि के (पूर) समूह से जहा (घोर ) भयकर ऐसे (विद्धसणत्थरहुल) विनाशरूप अनेक अनर्थ उत्पन्न होते रहते हैं (अण्णाणभमतमच्छपरिहत्य-अनिहुर्ति दियमहामगर-तुरिय-चरिय खोक्खुम्भमाण-सतावनिच्चय चलत-चचल-चचल-अत्ताणासरणपुश्वकम्म सचयो दिण्णवज्ज बेदिज्जमाण-दुल्सयविचाग-धुणत-जलसमृद) तथा यहा ससार समुद्र ( अण्णाणभमतमच्छपरिहत्य) अज्ञानरूप घूमते हुए महामत्स्यो से व्याप्त हो रहा है और ( अनितिदियमहामगर) अनुपशान्त इन्द्रियरूप महामकरी के (तुरियचरिय) शीघ्र सचरणों से तुमा द्वारा “समाहय' आघात पाभार “ उद्धायमाणग" विविध शa Gonu (समुद्र५३) मत्स्य (ससारप) १२षादिना पूर" सभूडया स्या “घोर" सय ४२ मेवा “पिद्धसणस्थबहुल" विना२३५ मने मनथा अपन ४२त। २ छे “अण्णाण भमत-मच्छ परिहत्य-अनिहतिंदिय-महामगर तुरिय-चरिय-खोक्खुब्भमाण- सताव-निच्चय-चलन-चालचचल-अत्ताणासरणपुरक म्म सचयो-दिण्णवज्ज-वेदिज्जमाण-दुहमय-विधाग-धुणतजलसमूह " तथा ॥ ससार सागर "अण्णाणभमत-मच्छ-परिहत्थ" मज्ञान३५ धूभत। महाभ त्योथा व्याप्त छ, भने “अनिहुति दिय महामगर" अनुपात (Guard न थयेटी )न्द्रियो ३५ महाभाराना " तुरियचरिय" की सनसनथी Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ३ सू० १९ ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७१ क्रियमाणो य सः ' तथा 'सतापगिच्चय' सन्तापनित्यका सन्तापः-विविधाधि व्याधिपन्धुरियोगादि जातः सागरस्थवडवाग्निसन्तापस्पो दुःखसन्तापो नित्य यत्र स सन्तापनित्यमः, अतएव-'चलतचवलचचल' चलच्चपलचञ्चल अत्यन्तमस्थिरः, सततपरिवर्तनशीलमित्यर्थः तम् , तथा 'अत्ताणासरण' अत्राणाऽगर णाना, अनाणानामशरणाना 'पुनकम्मसचय' पूर्वकर्मसञ्चयाना माणिना उदीर्णम् -उदयमान यत् 'ज्ज ' अवधपाप तस्य यः 'वेदिनमाण ' वेद्यमानः उप भुज्यमान• 'दुहसयवियाग' दुःखशतरूपो विपाकः स एर घुर्णन-भ्रमन् जल समूहो अत्र स तथा तम्, इड्डिरससायगारगोहारगहियफम्मपडिनद्धमत्तकड्डि जमाणनिरयतलदुत्तसगरिसण्णबहुल । ऋद्धिरससातगौरवोपहारगृहीतकर्मप्रतिबद्धसत्त्वकृष्यमाणनिरयतलदुत्तसन्नविपण्णबहुलम्, तत्र इडिरससायगारवोहार' ऋद्धि रससातगौरवोपहारा =ऋद्धिरससानलक्षणानि गौरवाण्येव उपहारा'जलचरविशेपाम्तैः 'गहिय ' गृहीताः 'कम्मपडिनद्ध' कर्मपतिपदा. ज्ञानावर (खोक्खुन्भमाण ) यर अत्यत क्षुभित बना हुआ है । (सतावणिच्चय) विविध व्याधि, वन्यु वियोग आदि जन्य दुखरूप वडवाग्नि का इसमें नित्य सताप छाया हुआ है । और यह (चलतचवलचचल ) निरन्तर परिवर्तन शील है। एव इस समुद्र मे (अत्ताणा सरण) त्राण एव शरण रहित ऐसे प्राणियों के जिनके पास (पुवकम्मसचय) पूर्वकृत कर्मों का सचय मौजूद है (उदिण्णवज्ज) उदय में आया हुआ जो पापकर्म का (वेदिज्जमाणदुसयविवाग) उपभुज्यमान जो दुखशत (सैकडोदु.ख) रूप फल है वह फल हो चहा (बुणतजलसमूह ) चलता हुआ जल भरा हुआ है (इरिससायगारवोहारगदियकम्मपडिपद्धसत्तकडिज्जमाणनि रयतलदुत्तसण्णविसण्णबहुल) ऋद्धि रससातरूप गौरव ही इस ससार समुद्र में ( उवहार ) उपहार जलचर जन्तु विशेप भरे हुए है "सोमखुभमाण ' सत्य त ममी 0 छ, “सतानणिचय" विविध मावि વ્યાધિ, બધુ વિયેગ આદિ જન્ય દુ ખરૂપ વડવાનલને સતાપ તેમાં નિત્ય व्यापेस डाय छ, भने ते “चलतचपलचचल" नि२ त२ परिवतन शीर छ, भने सा ससा२मा “ अत्ताणासरण, ना माने. २१ २डित मे । छ भनी पामे “पुचकम्मसचय" पूर्व ४२॥ उनि। समूह २। छ, " उदिण्णाज" भनेरे पाप भनि। मध्य थयेा छ ते ५५ भनि “वेदिज्जमाण दुहसयविवाग" सागवा ३५ से ५ “सैकडोदु स" ३५ २ २० छे, ते ३॥ त्या "घुणतजलसमूह " पडता ४॥ समान छ “ इडिढरससायगारवोहार-गहियकम्म-पडिबद्ध-सत्त कड्ढिजमाणनिर-यतलदुत्तसण्ण-विसण्ण सात ३५ गौरव ४ मा २५ सार सागमा “ उवहार" Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नग्याकरण णादिलक्षणैः कर्मभिर्नद्धाथ ये 'सत्त' साचा:माणिनस्तथा 'पाहिज्जमाण' कृष्यमाणाः कृप्यकर्मनन्धनेन रज्जुनद्धकाप्टमिन नरकं मत्यामप्यमानाः 'निरय तल' नरक एप तल पाताल 'दुत्त' तदभिमुस ' सण ' सना-नरकरूपमा तालगमनाभिमुखत्वात् खिन्नाः तथा ' विसष्ण' विषण्णाय 'गोकातिगय माता: ये माणिनस्तै बहुलो य स तया तम् । तथा 'अरइरइभयविसायमोगमिच्उत्त सेलसफड ' अरतिरतिभयपिपादशोकमि यात्वशैलसमट =तर-घरतिः = धर्मेन. रुचि रतिः विपयेषु रुचिः गयइहलोकादि मप्तभयानि विपादा अनिष्टसयोगजनितदुःख शोका-इप्टरियोगजनितन्य मि यात्र च कुदेवगुरुकुधर्मश्रदाल क्षणमित्येतान्येन शैलापतास्तैः सङ्कट. रिपमो यः स तथा तम् , अरस्यादि और इन उपहारों से इसमें (गरियकम्मपडियद्धसत्त) ज्ञानावरण आदि कर्मो से बद्ध प्राणी गृहीत बने हुए है। तथा (कज्जिमाण) पूर्वकृत कर्मनधन के द्वारा रज्जु बद्ध काष्ठ की तरह यहां वह प्राणिवर्ग नरक की और खेचा जा रहा है और (निरयतलवुत्त) नरकतक की ओर गमन करने में सन्मुग्व होनेकी वजह से यहा वह प्राणीवर्ग (सण्ण विसण्णवहुल) सन्न-खिन्न, एव विपण्ण शोकातिशय को प्राप्त हो रहा है । तथा (अरइरइभ्यविसायसोगमिच्छत्तसेलसकड) (अरइ) अरति धर्ममे अरुचि, (रइ) रति-विपयों में रुचि, (भय) इहलोकभय, परलोक भय आदि सात मय, (विसाय) विपाद-अनिष्ट सयोग जनित दुःख, (सोग) शोक-इष्ट वियोग जनित दैन्यभाव, (मिच्छत्त) मिथ्यात्वकुगुरु, कुदेव और कुधर्म की श्रद्धा, ये ही सब इस ससारसमुद्र में (सेल) पर्वत जैसे है सो इन पर्वतोंसे यह (सफड) विपम बना हुआ है। 6431२ जयन्तु विशेष मरस छ मन त पडाशयातमा “ गहियकम्भ पडिबद्धसत्त' ज्ञाना१२ मा थी मधायद आणी सपायेदा छ तथा "कढिज्जमाण" पूर्व ४२सा डर्मा द्वारा, हाथी राधेला 18नी रेभ ते प्राशीमा न२७नी त२६ मे या २छा छ, भने "निरयलदुत्त " न२४ त२३ गमन ४२वाने मलिभुभावाने २ ते प्राणीमा "सण्णविसण्णबहुल" मिन्न मन अतिशय शी युत थ६ २६॥ छ तथा “ अरइ-रइभय-विसाय-सोगमिच्छत्त सेलसकड " " अरइ" अति-धभभा सथि, "रइ" रति-विषयोभा ति, भय" मानो लय, ५२साइनो लय मा सात लय, "विसाय" विषा:शनिट से या नित u “ सोग" -ट दिया। नित न्यभाव, " मिच्छत्त" भिथ्यात्व शुरु, ५ मने सुधमनी श्रद्धा, 2 मधु मा ससारसागरमा “ सेल" त छ, से पताथी त “सकड" विषम Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० ३ सू० १९ संसारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७३ दुःखैर्व्याप्तमित्यर्थः। तथा 'रगाइसंतागम्ममधणकिलेमचिविखल्लदुटुत्तार' अनादि सन्तानमन्धनक्लेशचिक्खिल्लदुष्टतारम् , तत्र-अनादिः आदि रहितः सन्तानःविस्तारो यस्य तत्तथाभूत यत् नमनन्यन तद्प एप 'रिलेस' क्लेशा दुःख तपमेव चिक्तिल-चर्दमम्तेन दुष्ठ्त्तास-दुस्तर यः स तथा तम् । तथा-'अमर नरविरियनिरयगइगमणकुडिल्परिपट्टविउलवेल ' अमरनरतिर्यटनरस्गतिगमनकुटिलपरिवर्तविपुलवेल-तत्र - अमरनरतिर्यदनरकचतुर्गतिपु-यद् गमन तदेव कुटिला वक्रा परिवर्वा गोलाकारा एर विपुला-विस्तीर्णा वेला-समुद्रनलवृद्धिरूपा यत्र स तथा त, नरकादि चतुर्गतिचक्रभ्रमणपरम्पराभिः समुद्रजलवृद्धिरूपा-- भिर्युक्तमित्याशय । तथा ' हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारभकरणकरावणाणुमोयण-अनिहअणिटकम्मपिडियगुरुभरक्तदुग्गजलोधदरनिकोलिज्जमाणउम्मग्गनिम्मग्गदुल्लहतल' हिंसाऽलीकादत्तादानमैथुनपरिग्रहारम्भकरणकारणानुमोदना. प्रविधानिष्टरमपिण्डितगुरुमाराकान्तदुर्गजलोचदूरनियोल्यमानोन्मार्गनिमग्नदुर्लभतलम् , तर-हिंसालियअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहारम' हिंसाऽलीकाऽदत्तादानतथा (अणाइसताणकम्मय पण फिलेसचिक्खिल्ठु त्तार ) जिसका विस्तार आदि से रहित है ऐसे कर्म धन जन्य क्लेशरूप (चिक्विल्ल) कीचड से यह (दुटुत्तार) दुस्तर बना हुआ है तथा ( अमरनरतिरियनिरयगहगमगकुडिलपरिव विउल) देव, नर, तिर्थव और नरक, इन चार गतियों मे जो जीवोका गमन है वही इस समुद्र को कुटिल गोलाकार विस्तर्ण वेला है, अर्थात् नरकादि चतुर्गतिरूप यह ससार है। इसमें जीवचक्र की तरह परिभ्रमण करते रहते हैं। यह परिभ्रमण की जो परपरा है वही इस समुद्र की जल वृद्धि रूप वेला है। (हि सालिय अदत्तादान मेहुणपरिग्गहार भकरणकरावणाणुमोयग) हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैयुन, परिग्रहरूप आरम्भो का करना गनेस तथा “ अगाइ-सतण-कम्मरण-किलेसचिक्सिल-दुत्तार " मनाहि उभगवन न्य २३५ “चिम्सिल्ल" अयथी ते "दुाळुत्तार" हुस्तर भने छ, तथा “ अमरनरतिरियगइगमणकुडिल्परिवविउलवेल" દેવ, નર, તિર્યંચ અને નરક, એ ચાર ગતિમાં જીવનું જે ગમન થાય છે એ જ આ સંસાર સમુદ્રની કુટિલ ગોળાકાર વિસ્તીર્ણ વેલા છે, એટલે કે નકાદિ ચાર ગતિરૂપ આ સંસાર છે તેમાં ચકની જેમ પરિભ્રમણ કરે છે આ પરિભ્રમણની જે પરંપરા છે તેજ આ સમુદ્રની જળ વૃદ્ધિરૂપ વેલા छ “हिंसालिय-अदत्तादान-मेहुणपरिग्गहार भकरणकरावणाणुमोयण" डिसा, જણ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આર જે કરવા, અને તેની અનુમોદના Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মহালেই मैथुनपरिग्रहस्पा ये आरम्मा व्यापारास्तेपा यानि परणकारणानुमोदनानि करण स्वय, कारण अन्यैरनुष्ठापनम् , अनुमोदन चकतरिताटेः प्रशसन मित्येतेः प्रकारैः ' अढविह' अष्टविध यत् 'अनिद्वसम्मपिडिय' अनिष्टरमपिण्डित-दुःखदर्मसञ्चयः तदेवगुरुमारस्तेन 'माकत ' अमान्ता ये जीवास्तेषा दुर्गाण्येव दुःखान्येव यो 'जोध' जलीघा जलपूर तत्र दर अत्यय 'निवो लिज्जमाण' निगोल्यमानाः वृष्यमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमनाथ दुखरूपजले उर्धाऽधो गम्यमाना ये माणिनस्तः 'दुल्लहतल ' दुर्लभतलदुर्लभ दुष्प्राप्य तल यस्य स तथा त-हिंसाठीकादिपञ्चासरजनिताऽष्टविधकर्म भाराकान्तैः नानाविधदु सरूपागाधजले निमज्जनोन्मज्जन निर्जी टुप्पाराऽ कराना अनुमोदन करना, इन पूर्वोक्त प्रकारों से जो (अविर अणि कम्मर्पिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कमेंका सचय होता है, उस कम सचय रूप मार से (अक्त) आकान्त-भारी घने दृग तथा (दुग्गजलोध) दुःख रूप जलसमूह मे (दूरनिम्बोलिज्जमाण) अत्यात हृयते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) कन इन करते हुए अर्यात ऊँचे नीचे आते हुए ऐस प्राणियों के लिये यह ससार समुद्र (दुल्लहतल) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस ससार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नही कर सकते हैं । अर्थात् इस ससारसमुद्र का तल-बाह ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रहरूप आरभो के करना, कराना, एव उनकी अनुमोदना मे लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुखद अष्टविध कर्मों का सचय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका बहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दर जाते ४२वी, स. पूर्वरित प्रहारे २ 'अविहअणिमम्मपिडिय" 08 Pat मह भनि सत्यय थाय छ, ते भसय५३५ लारथी " अक्त" ALtdसारे मनेर तथा दुग्गजलोघ " ३५ समूडमा दूरनियोलिजमाण" अत्यत मता, तथा “ उम्मग्गनिमगा" पाशीमा उमा छम ४२ता- य नाय सावता मेवा प्राणीमान भाट मा ससार समुद्र"दुल्लहतल" मलल्य तक्ष વાળે છે એટલે કે આ સંસારસાગરને પૂર્વોક્ત પ્રકારના જીવો તરી શકતા નથી એટલે કે હિંસા, જૂઠ, અદત્તાદાન મથને, પરિગ્રહરૂપ આર કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનમેદના કરનાર જીને આ સ સારસાગરના કિનારો પ્રાપ્ત કરવો અશક્ય છે કારણ કે પૂર્વેત પ્રકારે તે જ આઠ પ્રકારના દુ ખદ કર્મોને સચય કરે છે તેથી તેમના પર તેમને ઘણે ભારે બે હોય છે તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારના Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १० ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७५ 6 न्तस्तलमित्यर्थः तमेत्रभूत संसारसागर 'सरीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियता' शरीरमनोमयानि दु'गानि उत्पनन्तः = कायिकानि मानसिकानि च विविधानि दुःखानि आस्वादयन्तः अनुभवन्त इत्यर्थः, 'सायासाय परितावणमय उच्युडुनिब्बु इयं वरेता ' माताऽसातपरितापनमयमुडननिवुडन कुर्नन्त' = सुखदुसतापात्म+मुन्मज्जन निमज्जनमनुभवन्त सात=मुस तदात्मकमुन्मज्जनममातपरितापन दुःखसन्तापस्तदात्मक निमज्जनमनुभवन्त ' चउरतमहत ' चतुरन्त महान्त = चतुरन्त = नरसादि चतुर्निभागयुक्त महान्तम् अनन्त जन्ममरणादिदुःखयुक्तत्वात् । तथा जणवयरग अनपदग्र=अनन्तम्-अन्तरहितमित्यर्थ', 'न्छ' रुद्र=सकल हैं और नाना प्रकार के दुःखों को भोगा करते है. अतः यह दुःख समूह ही इस ससार समुद्र मे अवाह जल भरा हुआ है । उसमें ही ये जीव बहुत अधिक रूप मे किया लेते रहते हैं, उन्मग्न, निमग्न होते रहते हैं । फिर वे इसके अन्तस्तल को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । इसलिये सूत्रकार ने ऐसे जीवों के लिये इसका पार पाना चाह प्राप्त करना - दुःशक्य- अमभव कहा है । ( सरीरमणोमयाणी ) हम ससार सागर में पडे हुऐ जीव शारीरिक एवं मानसिक ( दुक्खाणि ) दुःखों का ही (उपियता) अनुभव करते है । तथा (सायासाय परितावणमय) सातासात परितापन रूप (अडनिडय) उन्मज्जन निमज्जन अर्थात् सानात्मक उन्मज्जन तथा असातात्मक एव परितापात्मक निमज्जन (करेला ) करने में तल्लीन हुए ये जीव ( चाउरतमहंत ) नरकादि गति रूप चार विभागों से युक्त तथा जन्म मरणादि के अनन्त दुःखों से महान्, (अणवघग्ग) अन्तरहित (रु) समस्त प्राणियोको भयजनक, ܕ દુખા ભાગળ્યા કરે છે તેથી આ જળ ભરેલુ છે તેમા જ તે જીવા તેઓ તેના નારે તે પહેાચી કેવી સ સારમાગરમાં દુખ સમૂહપ અપાર વરવાર ડૂબકીએ! ખાવા કરે છે તેા પછી રીતે શકે ? તે કારણે સૂત્રકારે એવા वो भाटे तेना पार पाभवानु अर्य भगज्य मताव्यु हे " सरीरमणोमया " णि " मा भसार भागरमा पडेसा वो मोनो " उप्पियता " अनुभव उरे સાતાસાત રિતાપન રૂપ 'उच्डनिन्नुडय " ઉન્મત નિમજ્જન એટલે शारी िभानभिङ “दुक्साणि ' तथा " साया सायपरितावणमय " "6 કે સાતાત્મક ઉન્મજ્જન ( પાણીની ઉપર આવવુ તે) તથા અમાતાત્મક અને 1 મ્તિાપાત્મક નિમજ્જન ( ડૂબવુ તે) " करे ता " ગ્યામા લીન થયેલ તે वो" चाउरतमहत " नजहि गतिय यार विलागोवाजा तथा नन्भ મરાદિ ૢ ખેાથી મહાન, अणवयग्ग” अन्तडित, " रुद्द " मधा आशुमाने << Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___मन यावरणसूत्रे ३७४ मैथुनपरिग्रहस्पा ये आरम्मा ज्यापारास्तेपा पनि फरणकारणानुमोदनानिकरण स्वय, कारण अन्यैरनुप्ठापनम् , अनुमोदन चतकारितादेः प्रशसन मित्येतैः प्रकारैः 'अविह' अष्टविध यत् 'निहाम्मपिडिय' अनिष्टकर्मपिण्डित-दुःखदकर्मसञ्चयः तदेवगुरुमारस्तेन ' किन ' अनगन्ता ये जीवास्तेषा दुर्गाण्येव-दुःखान्येव यो 'जलोध' जलोपा जगपूर वन दर अत्यय 'निवो लिज्जमाण' निनोल्यमानाः वृदयमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमनाथ दुखरूपजले उर्धाधो गम्यमाना ये माणिनस्तः 'दुल्लहतर' दुल मतलदुर्लभ-दुष्पाप्य तल यस्य स तथा त-हिंसाठीकादिपश्चाजनिताऽष्टविधकर्म भाराकान्तैः नानाविधदु वरूपागाधजले निमजनोन्मज्जन कुद्भिर्जी दुपारा कराना अनुमोदन करना, इन प्रोक्त प्रकारों से जो (अट्ठविर अणिहू कम्मपिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कमेंका सचय होता है, उस कम सचय रूप भार से (अक्त) आकान्त-भारी घने हुए तथा (दुग्गजलोध) दुःख रूप जलसमूह में ( दरनिगोलिज्जमाण) अत्यन्त दृयते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) ऊन इय करते हुए अर्थात ऊँचे नीचे आते हुए ऐस प्राणियों के लिये यह ससार समुद्र (दुलहतल) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस ससार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नहीं कर सकते हैं । अर्थात् इस ससारसमुद्र का तल-याह ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रहरूप आरभो के करना, कराना, एव उनकी अनुमोदना में लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुःखद अष्टविध कर्मों का सवय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका यहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दर जाते १२वी, में पूर्वरित प्रारे २ 'अविहअणिकम्मपिडिय" मा जाना, मह भनी सभ्यय थाय छ, ते भसयय३५ माथी " अक्त" andसारे मनेर तथा दुगजलोघ " म३५ समूडमा दूरनिव्वोलिजमाण" अत्यत सता, तथा “उम्मम्गनिमगा" पाशीमा ३॥ ३५ ४२ता-2 नाय मावत सेवा प्राणीयाने भाट २॥ ससा२ समुद्र "दुलहतल" असल्य त વાળે છે એટલે કે આ સ સારસાગરને પૂર્વોકત પ્રકારના જીવી તરી શકતા નથી એટલે કે હિસા, જૂઠ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આર ભ કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનમેદના કરનાર જીવેને આ સ સારસાગરને કિનારે પ્રાપ્ત કરો અશક્ય છે કારણ કે પૂર્વેત પ્રકારે તે જીવે આઠ પ્રકારના દુખદ કર્મોને સચય કરે છે તેથી તેમના પર તેમને ઘણા ભારે બે હોય છે તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારના Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १० ससारसागरस्वरूपनिरूपणम् ३७५ " न्तस्तलमित्यर्थः तमे भूत ससारसागर 'सरीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियता' शरीरमनोमयानि दुःशानि उत्पनन्तः = कायिकानि मानसिकानि च विविधानि दुःखानि आस्वादयन्तः अनुभवन्त इत्यर्थः, 'सायासाय परितारणमय उजड्ड नियु इयं वरेता साताsसातपरितापनमयमुद्युडननिब्रटनक कुर्नन्त' = सुखदुखतापात्मकमुन्मज्जन निमज्जनमनुभनन्त सात=मुस तदात्मकमुन्मज्जनमसातपरितापन दुःखसन्तापस्तदात्मक निमज्जनमनुभवन्त ' चउरतमहत ' चतुरन्तमहान्व = चतुरन्त नरकादि चतुर्विभागयुक्त महान्तम् अनन्त जन्ममरणादिदुःखयुक्तलात् । तथा अणरयग्ग अनयदग्र=अनन्तम्-अन्वरहितमित्यर्थ', 'रुद्द ' रुद्र = सफल हैं और नाना प्रकार के दुःखों को भोगा करते है. अतः यह दुःख समूह ही इस ससार समुद्र में अवाह जल भरा हुआ है । उसमें ही ये जीव बहुत अधिक रूप में किया लेते रहते हैं, उन्मग्न, निमग्न होते रहते हून हैं । फिर वे इसके अन्तस्तल को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? नही कर सकते । इसलिये सूत्रकार ने ऐसे जीवों के लिये इसका पार पाना चाह प्राप्त करना - दुशक्य- अमभव कहा है । ( सरीरमणोमवाणी ) इस ससार सागर में पडे हुऐ जीव शारीरिक एवं मानसिक ( दुखाणि ) दुःखों का ही (उपियता) अनुभव करते है । तथा (सायासाय परितावणमय) सातासात परितापन रूप (उच्डनियुडय) उन्मज्जन निमज्जन अर्थात् सातात्मक उन्मज्जन तथा असातात्मक एव परितापात्मक निमजन (करेला) करने में तल्लीन हुए ये जीव ( चाउरतमहत ) नरकादि गति रूप चार विभागों से युक्त तथा जन्म मरणादि के अनन्त दुःखों महान्, (अणवयग्ग) अन्तरहित (रु) समस्त प्राणियोको भयजनक, से , દુખા ભાગવ્યા કરે છે તેથી આ સ સારસાગરમાં દુખ સમૂહુરૂપ અપાર જળ ભરેલુ છે તેમા જ તે જીવે વરવાર ડૂબકીએ ખાધા કરે છે તેા પછી તેએ તેના કિનારે તે પહેાચી કેવી રીતે શકે? તે કારણે સૂત્રકારે એવા भवाने भाटे तेने! चार पाभवानु अर्य भगस्य मताव्यु छे " सरीरमणोमया णि " मा ससार भागरमा पसा वा शारीरिड भानसिङ" ' दुम्साणि " हु मोनो " उप्पियता " અનુભવ કરે છે તથા " सायासायपरितावणमय " સાતાસાત પિરતાપન રૂપ ઉન્મજન નિમજ્જન એટલે સાતાત્મક ઉન્મજન ( પાણીની ઉપર આવવુ તે) તથા અસાતાત્મક અને तापात्म निभन्न ( डूणवु ते ) " करे ता " अश्वामा तीन थयेस ते વે! चाउरतमहत ”નરાદિ ગતિરૂપ ચાર વિભાગેાવાળા તથા જન્મ મરણાદિ દુ ખેાથી भडान, 'अणवयग्ग " अन्तरडित, " रुद्द " मघा आश्रमाने (C उन्मुखनिन्युडय " " 1 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३७४ प्रभयारणसूत्रे मैथुनपरिग्रहस्पा ये आरम्मा ज्यापाराम्तेषां यानि परणकारणानुमोदनानि करण स्स्य, कारण अन्यैरनुष्ठापनम् , अनुमोदन च-तारितादेः प्रासन मित्येतेः प्रकारः 'अविह' अष्टविध यव 'अनिद्वाम्मपिडिय' अनिष्टरमेषिण्डित-दुःखदकर्मसरायः तदेवगुरुमारस्तेन 'आफत । अमानता ये जीवास्तेषा दुर्गाण्येव-दुःखान्येव यो 'जलोष' जलौघानपूर तन दर अत्यय 'निवा लिज्जमाण' निनोल्यमाना' वृदयमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमग्नाच दुखरूपनले उर्धाऽधो गम्यमाना ये माणिनस्तैः 'दुल्लहतर ' दुर्लभनल दुर्लभ-दुष्पाप्य तल यस्य स तथा त-हिंसाठीकाटिपश्चासजनिताऽष्टविधकम भाराक्रान्तैः नानाविध खरूपागाधनले निमज्जनोन्मज्जन कुदिर्जी दुप्पारा कराना अनुमोदन करना, इन पूर्वोक्त प्रकारों से जो (अट्ठविर अणि कम्मपिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कर्नाका सचय होता है, उस कम सचय रूप भार से (अक्त) आकान्त-भारी बने हुए तथा (दुग्गजलोध) दुःख रूप जलसमूह में (दूरनियोलिज्जमाण) अत्यन्त हरते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) जर इत्र करते हुए अर्थात् ऊँचे नीचे आते हुए ऐसे प्राणियों के लिये यह ससार समुद्र (दुल्लरतल) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस ससार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नहीं कर सकते हैं । अर्थात् इस ससारसमुद्र का तल-या ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रहरूप आरभो के करना, कराना, एव उनकी अनुमोदना में लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुःखद अष्टविध कर्मों का सवय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका बहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दक्ष जाते १२वी, स. पूर्वरित प्रारे 2 'अविहअणिकम्मपिडिय" ALBURना, KHE भनि। सय थाय छ, ते मस यय३५ सारथी " अक्त" stdसारे मनेर तथा दुग्गजलोघ " ३५ समूडमा दूरनिव्वोलिजमाण" सत्यत मत ना " उम्मग्गलिममा" पाशीमा १८ प ४२ता- ये नीय माता मेवा प्राणीमान भाट २मा ससार समुद्र "दुलहतल" मसल्य तदा વાળે છે એટલે કે આ સંસાર સાગરને પૂવૅકત પ્રકારના જીવો તરી શકતા નથી એટલે કે હિસા, જડ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આર કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનુમોદના કરનાર જીવોને આ સ સારસાગરને કિનારે પ્રાપ્ત કરવું અશક્ય છે કારણ કે પૂર્વોક્ત પ્રકારે તે જીવો આઠ પ્રકારના દુખદ ક સ ચય કરે છે તેથી તેમના પર તેમને ઘણા ભારે બોજો હૈય છે તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારના Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० १९ सप्लारसागरस्वरूपनिरूपणम् न्तस्तलमित्यर्थः तमेवभृत संसारसागर 'सरीरमणोमयाणि दुक्खाणि उप्पियता' शरीरमनोमयानि दुःगानि उत्पिपन्तः कायिकानि मानसिकानि च विविधानि दुःखानि आस्वादयन्तः अनुभवन्त इत्यर्थः, 'सायासायपरितावणमय उगुड्डनि इयं परेता ' माताऽमातपरितापनमयमुद्गुडननिठुडनक कुर्नन्त'-सुग्वदुःखतापात्मरमुन्मज्जननिमज्जनमनुभनन्त सात-मुस तदात्मरमुन्मज्जनममातपरितापन दुःससन्तापम्तदात्मक निमज्जनमनुभयन्त 'चउरतमहत ' चतुरन्तमहान्त चतुरन्त नरकादि चतुर्विभागयुक्त महान्तम् अनन्त जन्ममरणादिदुःखयुक्ततात् । तथा 'अणवयग्ग ' अनादग्र-अनन्तम्-अन्तरहितमित्यर्थः, 'स्द' स्द्र-सकल हैं और नाना प्रकार के दायोंको भोगा करते है. अतः यह दुःख समूह ही इस ससार समुद्र में अथाह जल भरा हुआ है । उसमें हो ये जीव बहुत अधिक रूप में दूफिया लेते रहते हैं, उन्मग्न, निमग्न होते रहते हैं । फिर वे इसके अन्तस्तल को कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? नहीं कर सकते । इमलिये सूत्रकार ने ऐसे जीवों के लिये इमका पार पाना थाह प्राप्त करना-दुगस्य-असभव कहा है । ( सरीरमणोमवाणी) इस ससार सागर में पड़े हो जीव शारीरिक एव मानसिक (दुक्साणि) दुःखोंका ही (उप्पियता) अनुभव करते हैं । तया (सायासायपरितावणमय) सातासात परितापन रूप (उन्मुडनिडय) उन्मज्जन निमज्जन अर्थात् सातात्मक उन्मज्जन तथा असातात्मक ण्व परितापात्मक निमज्जन (करेता) करने में तल्लीन हुए ये जीव (चाउरतमहत) नरकादि गति रूप चार विभागों से युक्त तथा जन्म मरणादि के अनन्त दुःखों से महान्, (अगवयग्ग) अन्तरहित (रुट्ट) समस्त प्राणियोको भयजनक, દુખે ભેગવ્યા કરે છે તેથી આ સંસારસાગરમાં દુ ખ સમૂહરૂપ અપાર જળ ભરેલ છે તેમાં જ તે જીવો વરવાર ડૂબકીઓ ખાધા કરે છે તે પછી તેઓ તેના કિનારે તે પહેચી કેવી રીતે કે? તે કારણે સૂત્રકારે એવા ७शन माटे तेन पा२ पासवानु जय राय मताव्यु छे “सरीरमणोमया णि " मा समा२ मागरमा ५॥ ॥ NR भातभिड " दुस्साणि" हमानी “उप्पियता" अनुमक उरेले तथा “सायासायपरितावणमय" सातासात परितापन ३५ " उन्मुडनियुडय” भन निसटले કે સાતાત્મક ઉન્મજ્જન (પાણીની ઉપર આવવું તે) તથા અમાતાત્મક અને • तापम निमन (म त) “करे ता" उपमा दीन थये ते ७। " चाउरतमहत " Pule ति३५ या२ विभाग तथा म भरमाथी भडान, “अणयग्ग" सन्त२डित, “ रुई" मा प्राणीमान. Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ मयाकरणसूत्रे " प्राणिभयजनक, 'ससारसागर' मसारसागर, वमन्तीत्यग्रेण सम्यन्यः कीदृशं संसारसागरमित्याह - ' अयि जगाला ' अस्थिताऽनालम्बनम विष्ठानम् =अस्थितानाम् = सयमानुष्ठानरहिताना न विद्यते लम्वनम् अन्यः प्रतिष्ठान रक्षाकरण यत्र स तथा त असय मिनामाधारसर्जित प्राणवर्जित चेत्यर्थः तथा 'अप्पमेय ' अममेयम् =भमसेनाऽपरिडेय 'चुल्यो णिमयमद्दस्मत्रिल चतुरशीतियो निशतसहस्रगुपि= चतुरशीतिलक्ष्यो नित्र्याप्त योनिनाम संख्यात्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेवनिगादुक्तमरुयामागञ्जस्य नोप्य तत्र गाया यथाऐसे (ससारमायर) समार मागर में (सति) वमते है, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये | किस प्रकार के समारमागर में सते है मो करते हैं- ( अट्ठि य अणालणारा) असयमी जीवों के आलम्भन एव रक्षा करने के साधन से रहित (अप्पमेय) कोल्हका वेल चारों तरफ फिरनेसे पार नही पाता वैसे ही चतुर्गतिमें जन्ममरणसे पार नहीं पानेसे अप्रमेय, (चुलसीइजोणिनय सहस्सगुलि) चौरामीलक्ष जीव योनीयों से युक्त, ( अगालोग) प्रकाशवर्जिन, एन (अधवार) अधकार से युक्त इस ससार मे ( अगतकाल जान ) अननकाल तक ( णिच्च) सदा (उत्तत्थ सुवणभय सण्णसपत्ता) भयभीत बने हुए तथा किकर्तव्यता से विमूढ हुए भय से एव सज्ञा - आहार, परिग्रह एव मैथुन सज्ञाओं से सम्बद्ध बने हुए जीव (उच्चग्गवासवसर्हि) उद्विग्नों के वासस्वरूप इस संसार में (वसनि) वसते है । जो अदत्तग्राही जीव है ये चतुर्गतिरूप तथा अनत दुःखो से युक्त इस ससारसागर में अनंत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं । चौरासी लाख चोनिया इस प्रकार से है 66 માટે ભયજનક, એવા स सारसायर સસાર સાગરમા " वसति " वास अरे छे तेथे देवा प्रारना संसार सागरमा वसे छे ? " अट्ठिय अणालवणपट्ठाण ” અસયમી જીવને આધાર આપવાને તથા તેમનુ રક્ષણ કરવાના साधनाथी रहित, " अप्पमेय " अभर्वज्ञनी अपेक्षाओगे अप्रमेय, “चुलसीइजोणिस यस हरसगुविल " शोर्याशी साथ लव योनियोथा " अणालोग युक्त, << ," પ્રકાશ રહિત, અને “ अघयार अधारथी युक्त भा स सारभा " अणत कोल जाव " अनन्त जी सुधी " णिन्च " સદા उत्तथसुण्णभय सणस पउत्ती ભયભીત ખનેલ, તથા ર્કિકતવ્યતાથી વિમૂઢ બનેલ, ભય સ જ્ઞા, આહાર સત્તા, मैथुन सज्ञा, अने परिश्रड स ज्ञाभोथी युक्त मनेस वे उब्बिगावासवसहिं " बुद्विशोना - ( हु जीयाराना) वास ठेवा या ससारमा "वसति" बसेछे महत्ताहीन લેનાર જીવે ચાર ગતિરૂપ તથા અનત ૬ ખેાથી યુક્ત આ સ સાર સાગરમાં અનેત કાળ સુધી પરિભ્રમણુ કર્યાં કરે છે. ચાર્યાશી લાખ ચેાનિયા આ છે >> " ܕܕ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीफा अ० ३ सू० १९ ससारसागरस्यरूपनिरूपणम् " पुरनि७ दग जगणि७ मारुय७, एमके पत्तजोणि रक्खाओ। वणपत्तेर अणते, दसचोदस जोणिल साओ ॥१॥ विगलिदिएमु दो दो, चउरो चउरो य नारय मुरेमु । तिरिएमु हुति चउरो, चोदसल्पसा य मणुएसु" ॥२॥ तथा ' अणालोग ' अनालोप-पागनितम् अन्धकारम् अन्धकारयुक्तमेवससारसागरम् 'अणतकाल जार' अनन्तकाल यावत् ‘णिन्च' नित्य-सदा 'उत्तत्यसुण्णभयमण्णसपउत्ता' उत्तम्तयन्यभयसज्ञासप्रयुक्ताः-तन उत्रस्ता भयभीताः शून्या-किंकर्तव्यविमूढाः, तथा भयसज्ञासम्मयुक्तर. भयेन सज्ञाभिश्च आहारमैथुनपरिगहादिभिः सम्मयुक्ताः सम्बद्धाः 'उघिग्गनासवसहि । उद्विग्नवासवसति-उद्विग्नाना वासो यन स तथा त ससार नसन्ति, अदत्तादायिनः चतुर्गतिलक्षणमनन्तदुःस ससारसागरमनन्तकाल भ्रमन्तीत्यर्थः, इह वसेनिरुपसर्ग स्यापि सफर्मक्त्वमापत्वात् ॥ सू० १९ ॥ "पुढवि७ दग७ अगणि७ मारुय७ एकेक सत्तजोणिलक्खाओ। वणपत्ते य अणते, दस चोदस जोणि लक्खाओ ॥१॥ विगलिदिएसु दो दो, चउरो चउरो य नारयसुरेलु । तिरिएम हुति चउरो, चोदस लक्खाय मणुएसु ॥२॥" इति । (१) पृथिवीकाय, (२) अफाय, (३) तेजाकाय, (४) वायुकाय (५) इनकी सात सात लाख, प्रत्येक वनस्पति दश लाख, अनन्त (साधारण) वनस्पति चौदह लाख, दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय इनकी दो दो २-२ लास, नारकी तथा देव इनकी चार चार ४-४ लाख तथा तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय की चार ४ लाख और मनुष्य को चौदह १४ लाख। इस प्रकार ये सर मिल कर चोरासी ८४ लाख योनीया होती हैं ॥सू. १९॥ "पुढवि ७ दग ७ अगणि ७ मारुय ७ एक्केक सत्तजोणि लक्खाओ। . वणपत्ते य अणते, दस चोदस जोणि लक्खाओ ॥ १ ॥ विगलिदिएमु दो दो, चउरो चउरो य नारयसुरेसु । तिरिएम हुति चउरो, चोदस लरखाय मणुएसु ॥ २ ॥ इति । •(१) पृथिवीय (२) माय (3) ते डाय (४) वायुडाय, हरेनी सात सात લાખ, પ્રત્યેક વનસ્પતિની દસ લાખ અનન્ત (સાધારણ) વનસ્પતિની ચૌદ લાખ બે ઈન્દ્રિની બે લાખ, ત્રીન્દ્રિની બે લાખ, ચતુરિન્દ્રિની બે લાખ, નારકી તથા દેવની ચાર ચાર લાખ તથા તિર્થં ચ પ ચેન્દ્રિની ચાર લાખ અને મનુષ્યની ચૌદ લાખ એ પ્રમાણે બધી મળીને ચોર્યાશી લાખ ચનિો થાય છે સૂ૦ ૧૯લા म०४८ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न याकरण पुनरप्यदत्तादायिनः कीदृशाः सन्तः किं फल प्राप्नुवन्तीत्याह-'जाति' इत्यादि मूलम्-जहि जहिं आउयं निबंधति पावकम्मकारी बंध. वजणसयणमित्तपरिवजिया अणिहा भवंति अणादेजा दु. विणोया कुट्ठाणासण कुसेजा कुभोयणा असुइणो कुसघयणकुप्पमाणा कुसठियाकुरूवा वहुकोहमाणमायालोभा बहुमोहाधम्मसण्णसम्मत्तपन्भट्टा दारिदोवदवाभिभूया निच्चं पर कम्मकारिणो जीवणत्थरहिया किविणा परपिंडतकगादुक्खलद्धाहारा अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपूरापरस्सपेच्छंता रि• द्धिसकारभोयणविसेससमुदयविहि निदता अप्पयंकयं त च परिवयता । इह य पुरेकडाई कम्माइ पावगाइ विमणसो सोएणु डज्झमाणा परिभूया हुति सत्तपरिवजिया य छोभा सिप्पकलासमयसत्थपरिवज्जिया जहाजायपसुभूया अचियत्ता निच्च नीयकम्मोवजीविणो लोयकुच्छणिज्जा मोहमणोरहा निरासबहुला आसापासपडिवद्धपाणाअत्थोप्पायण । कामसोक्खे य लोयसारेहुति अफलवतगा य सुटुअवि उज्जमता तदिवसुज्जुत्तकम्मकयदुक्खसठवियसिथपिडसचयपराखीणव्वसारा णिच्चं धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा परसिरि भोगोव भोगनिस्साणमग्गणपरायणा वरागा अकामिकाए विणियति दुक्ख, वसुह वणिव्वुइं उवलभति अच्चतविउल दुक्खसयसपलित्ता परस्स व्वेहि जे अविरया ॥सू० २०॥ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका २०३ सू०२० अदत्तादायिन कीदृश फल लभन्ते' _____३७२ टका-पावकम्मकारी' पापकर्मकारिगस्तेऽदत्तादायिन 'जहि-जहि आउय निवधति' यत्र यत्र आयुर्निबध्नन्ति यत्र यत्र ग्रामकुगदौ आयुर्निबध्नन्ति तत्र तत्र समुत्पद्यन्ते इत्यर्थः । तत्र कीदृशा भवन्ती ? त्याह-वधवजणसयणमित्तपरिसज्जिया' वान्यास्वजनमित्रपरिवनिता = तत्र वान्धवजनः भ्रातादिभिः, स्वजन =पुत्रादिमिः, स्नेहिजनरूपमित्रैश्च परिवर्जिताः-रहितास्त्यक्ता वा भवन्ति पुनः 'अणिहा' अनिष्टाः सरललोकस्याऽपियाः, तथा 'अणादेज्जा ' अनादेयाः =अनादेयपचननामगोत्रादिमन्त । तया 'दुपिणीया' दुविनीताः = उद्धताः 'कुहाणासणकुसेजा ' कुस्थानासनकुशग्याः कुत्सित स्थान-कुग्रामवासादिरूप ये अदत्तग्राही और भी क्या फल प्राप्त करते है ? इसी विषय को सूत्रकार पुनः स्पष्ट करते हैं-'जहिं जहिं ' इत्यादि। टीकार्य-(पावकम्मकारी) अदत्तादानरूप पाप कर्मकारीमनुष्य (जहिं२. आउय निति ) जिस२ पर्याय की आयु बाधते हैं वे उस२ पर्याय में उत्पन्न होते है वहा पर उनकी स्थिति कैसी होती है ? सूत्रकार इसी पातको आगे के पदों द्वारा प्रकट करते है, वे कहते हैं कि ( वववजणसयणमित्तपरिवज्जिया) वे वहा भ्रातृ आदी चाधरजनों से, पुत्र आदि रूप स्वजनों से एव स्नेहीजन रूप मित्रों से सदा परिवर्जित होते हैं। (अणिट्ठा ) कोइ भी लोग इनसे प्रीति नही करते हैं, तथा (अणादेज्जा) ये ऐसे गोत्रादि वाले होते हैं, की जिनका वचन कोइ नहीं मानते हैं यहा तक कि जिनका नाम लेना भी भले मनुष्य अच्छा नहीं समझते हैं। (दुन्विणीया ) दुर्विनीत-उद्धत होते है। (कुट्ठाणासणकुसेज्जा) તે અદત્તગ્રાહી બીજુ કયુ ફળ પ્રાપ્ત કરે છે, તે વિષયનું સૂત્રકાર હજી પણ थारे २५०टी४२५ ४२ छ-" जहिं जहिं " त्यादि ___ -"पावकम्मकारी" महत्ताहान३५ पा५४म ४२ना२ मनुष्य जहिर आउयनिय ध ति" २२ पर्यायनी मायु माघे छ तेते पर्यायमा उत्पन्न थाय छे त्या તેમની કેવી હાલત થાય છે? સૂત્રકાર એ જ વાતને હવેના પદો દ્વારા પ્રગટ ४२ छे तसा - "बधवजणसयणमित्तपरिवज्जिया" साडी ત્યા ભાઈ આદિ બધુજનથી, પુત્ર આદિ સ્વજનથી, અને સ્નેહીજનરૂપ મિત્રોથી सहा त्यतया २७ छ, “ अणिद्वा" आई ५ वी तेमना प्रत्ये प्रीति घरात नथी, तथा " अणादेज्जा" तेसा मेवा मात्रा वाया जाय छ । તેમની વાત કે માનતું નથી, એટલુ જ નહી પણ તેમનું નામ લેવું તે પણ सा। भासाने योग्य सागत नयी " दुविणीया" दुदिनीत-6वंत डाय छ, "कुट्ठाणासणउसेज्जा" आभामा तमन २९४ डाय , मनमती की Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० terers रणसूत्रे ,, ," मासन नीचारस्थानादिलक्षण तथा कुत्सिता शग्या निमभूम्यादिरूपा येषां ते तथा, 'कुभोयणा' कुभोजना कोद्रवादिकदनागिनः ' अगुडणी अशुचयः= शुचिवर्जिताः, 'कुमघयणकृप्पमाणा ' युमहनन प्रमाणाः = कुमरननाः= सेनार्तावि सहननयुक्ताः कुममाणाः कुत्सित शरीरस्य प्रमाण येपा ते तथा अतिदीर्घा अति इस्वावेत्यर्थ तथा 'कुसठिया' बुसस्थिताः = कृत्सिता पुण्डादि सस्यानयुक्ता 'कुरुवा ' ' कुरूपाः ' बहुकोमाणमायालोमा' कोषमानमा पालोभाः अति क्रोधादियुक्ता बहुमोहा:= अतिकामाः 'धम्मसण्णा मम्मत्तपभट्टा' धर्मसास म्यक्त्व परिभ्रष्टाः = धर्म सनायाः श्रुतचरित्र रणधर्मयुद्धेः सम्यरत्वान्च = जिनवचनरुचेः परिभ्रष्टाः =सलिता ' दारिद्दोबदवाभिभूया' दारिद्रयोपद्रवाभिभृता:= अत्यन्तदरिद्राः, अतएव 'णिन्च' नित्य= सदा ' परकम्मकारिण = परगृहे कुमामों में इनका वास होता है, अवस्थान रहन सहन इनकी नीच होती है, विपमभूमि आदि रूप इनकी शय्या होती है। (कुभोयणा ) को द्रव आदि कन्न ( कुत्सितअन्न ) इनका भोजन होता है। (असुइणो ) शुचिता - शारिरिक एच आत्मिक पवित्रता इनमें होती नहीं हैं ये लोग पवित्रता से सदा रहित रहते हैं । (कुसघपण कुप्पमाणा) इनका सहनन खराम होता है और शरीर इनका अतिदीर्घ या अति स्व होता है । ( कुसठिया ) संस्थान इनका हुण्डादि होता है। (कुवा ) रूप भी इनका असुहावना होता है । (बहुकोह माणमायालो भा) बहुत ये क्रोधी होते है । मान, माया एव लोभ की इनमे बहुत अधिकता रहती है । (बहुमो हा) ये बहुत कामी होते है । (धम्मसण्णासम्मत्तपःभट्ठा) श्रुतचारित्र रूप धर्मबुद्धि से एव जिन वचनों में श्रद्धारूप सम्यत्क्व रुचि से ये सदा रहित होते हैं । ( दारिदो वदवाभिभूया ) दादिद्रय इनके घरों में सदा ८८ કરણી નીચ હાય છે, વિષમ ભૂમિ આદિ જગ્યા તેમની શય્યા મને છે " कुभोयणा " अहरा आहि उन्न ( अराण अन्न) तेभनु लोभन जने छे 'असुइणो ” તેમનામા શારીરિક અને માનસિક પવિત્રતા હાતી નથી, તે લેાકેા હમેશા તેનાથી રહિત હાય છે 'कुसवयण कुप्पमाणा " तेभनु सहनन ખરામ હાય છે, એટલે કે તેમના શરીર કાતે અતિશય ઊચા અને કાતા शोतिशय नीया होय हे " कुसठिया " तेभना म जो सप्रभाणुसरना होय छे, 66 कुरुवा ” तेभनु ३५ । सुदर होतु नथी " बहुको हर्माणामाया लोभा" तेथे ઘણા ક્રોધી હેય છે, અને માન, માયા અને લાભનુ પ્રમાણ તેમનામાં વધારે होय छे " बहुमोहा " ते घया जभी होयछे " धम्मसण्णासम्म तप-भट्ठा ” श्रुत ચારિત્રરૂપ ધ બુદ્ધિથી તથા જિન વચનામા શ્રદ્ધારૂપ સમ્યકત્વ રુચિથી તે લેકે સદા रति यछे 'दारिद्दोवामिभूया' तेभना घरीमा भद्दा हारिद्र्य रहेछे भने ते हरिद्रय " Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २०३ सू० २० अदत्तादायिन कीदृशफल लभेते ' ફે 4 नीच कर्म कारकाः 'जीवणत्वरहिया जीवनार्थरहिता जीवनस्य मनुष्यजन्मन अर्थः = प्रयोजन धर्मध्यानादि समाचरण वद्रहिताः, जीवनयापन हेतुद्रव्यहीना वा, कीनिणा ' कृपणा = दीनाः ' परपिंडतव गा' परपिण्डतर्फका परदत्तभोजनगवेषकाः ' दुखलद्धारा' दुःखमाहारा:= दुःसाउदरपूरकाः ' अरसनिरसतुच्छकयकुक्खिपूरा' अरसविरसतुच्छकृतकुक्षिपूरा = तत्र अरस= नीरस - हिड्यादि भिरसस्कृत विरस= पुराण वनापि पुन्= कुस्त्याद्यन्न येन कनापि प्रकारेण प्राप्त तेन कृतः कुक्षिपूर:=उदरपूरण यैस्तै तथा 'परस्स' परस्य = अन्यस्य ' रिद्धिसकारमोयणवि से ससमुदयनिर्हि ' ऋद्विसत्कारभोजनविशेषसमुदयनि=ितत्र ऋद्धि:= सम्पत्तिः सत्कार= सम्मान तथा भोजन चेत्येतेषा ये निशेषाः प्रकाराः तेपा यः समुदयः उदयवर्तित्व तस्य यो विधिः-विधान से तथा त 'पेच्छता' प्रेक्षमाणाः = " रहता है ओर यह दारिद्र्य इनका सदा तिरस्कार करवाया करता है, इसी लिये ये ( णिच) सर्वदा ( परकम्मकारिणो ) पर कर्मकारी होते हूँ - दूसरोंके घरों में नीच कामों को करने वाले होते हैं, (जीवणत्थरहिया) मनुष्य जन्म के प्रयोजनभूत धर्म यानादि सदाचारों से रहित होते हैं, ( किविणा ) दीन होते है, ( परपिंडतकगा ) परपिंड के ऊपर आश्रित रहा करते हैं परदत्त भोजन की इच्छा में रहते हैं, ( दुखलद्वाहारा ) बडी मुश्किल से अपने उदर की पूर्ति कर पाते है, ( अरसविरसतुच्छकयकुक्खिपूरा ) अरस - हिंग्वादि के ववार से रहित, विरस - पुरानाअति पुराना, उसमे भी तुच्छ कुलत्थादि अन्न जो इन्हे बडी कठिनाईसे प्राप्त होता है उससे ही ये अपने उदर की पूर्ति करते हैं । (परस्सरिद्धिसक्कार भोयणविसेस समुदयविहिं पेच्छता) दूसरोंकी ऋद्धि तेभना सहा तिरस्र शवे छे, तेथी तेयो “णिच्च" महा પારકાની ાકરી કગ્નાર હાય છે, બીજાના ઘરમા નીચે छे, " जीवणत्थरहिया " મનુષ્ય જન્મના પ્રયાજન રૂપ સદાચારીથી રહિત હાય છે, " किविणा " हीन होय छे, " परपिंडतकगा " પરિપ ડ ઉપર સદા આધાર રાખનાર હાય છે–પરદત્ત ભાજનની ઈચ્છા રાખનાર हाय छे,,, दुम्सलद्धाद्दारा ” મહા મુશ્કેલીથી પેાતાનુ પેટ ભરી શકે છે अरसविरसतुच्छ कुक्सिपुरा " भरस-डिग महिना वधार रहित, विरसપુરાણુ –અતિપુરાણુ અને વળી તુષ્ટ-કળથી આદિ અન્ન, મુરકેલીએ મળે છે, તેના વડે જ તેએ પાતાનુ પેટ ભરે છે “ भोयणविसेससमुदयनिहिं पेच्छता " બીજાની ઋદ્ધિ ८८ કે જે તેને ઘણી 'परस्स रिद्धिसकारસપત્તિ, સત્કાર " परकम्मकारिणो " કામ કરનારા હાય ધર્મધ્યાન આદિ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण ईर्ष्या युद्धयापश्यन्ता, ततश्च 'अप्पय ' आत्मान 'फयत' कतान्तवर्तव्य व "निदंता' निन्दन्ता-निन्दा फुर्वन्तः, ' इद्द य पुरे कडाइ कम्माइ पावगाई' इहलोके पुरा-जन्मान्तरे च कृतानि पापकानि-पापानि कर्मागि पग्मियता' परिव दन्ता-निन्दन्तः 'चिमणसो' विमनमा-दीनाः सन्त. 'सोएण उज्यमाणा' शोकेन दद्यमाना. अभीष्टवस्तूनाममाप्तिद्ध खेन सन्तप्यमानाः सन्तः 'परिभूया हुति ' परिभूताः जनरनातादुःखमाताथ भान्ति । तथा 'सत्तपरिवज्जिया य' सत्वपरितनिताच मनोबलहीनाः 'छोव्मा' सौम्याः निस्सहायत्वात्परिभवनीया, 'सिप्पालासमयसत्यपरिवज्जिया' शिल्पकलासमयशास्त्रपरिवजिता-तत्र शिल्प सपत्ति, सत्कार, सन्मान, तथा भोजन, इनके विशेष प्रकारों की समुदय विधिको ईभिाव से देखते है और अपने भाग्यकी आत्माकी तथा अपने पापकारी कर्तव्य की निंदा करते है । हमने (इह य) इस ससार में (पुरे) पूर्वभव में (पावगाइ कडाइ ) पापकर्म किये है उनका ही यह फल हमें भोगने को मिला है इस प्रकार (परिवयता) दूसरों से कहते हुए (विमणसो) स्वय दीन होकर (सोएण इज्झमाणा) शोक से जलते हुए (परिभूया) दुःखी (हुति) होते हैं अर्थात् अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति के दुःख से निरन्तर सन्तप्यमान होते हुए भीतर ही भीतर खेद खीन्न बने हुए ये दूसरों के द्वारा अनाहत होते रहते हैं एव दुःखों को भोगते रहते है । तथा ( सत्तपरिवज्जिया य) मनोबल से रहित बने हुए ये (छोन्भा) निस्सहाय होनेके कारण हरएक व्यक्ति के द्वारा अनादरणीय होते रहते है । तथा (सिप्प) चित्रादिकों को સન્માન, તથા ભોજન, તથા તેના સદ્દભાગ્ય પ્રત્યે તેઓ ઈર્ષ્યા ભાવથી જોવે છે, તથા પિતાના ભાગ્યની, આત્માની તથા પિતાના પાપકૃત્યની નિદા કરે छ ' भने “ इहय" मा ससारमा "पुरे" पूर्वममा “ पावगाइ कडाइ" પાપકર્મો કર્યા છે, એનું જ આ ફળ અમારે ભેગવવું પડે છે, એ પ્રમાણે "परिवयता " lanने उता " विमणसो" पाते हीन धन " सोएण डझमाणा" थी rndu “ परिभूया" भी “हुति " थाय छ सर छित વસ્તની પ્રાપ્તિ ન થવાના દુખથી નિરતર સ તાપયુક્ત થઈને મનમાં ને મનમાં ઉદ્વિગ્ન બનીને તેને બીજા લેકે દ્વારા તિરસ્કૃત થયા કરે છે, અને દુખે सासव्या ४२ छे तथा “ सत्तपरिवज्जिया य" भनामा रहित सेवा ते "छोभा" असहाय डावाने ४२णे ४२४ व्यति द्वारा मनाशीय (तिरस्कृत) थया रे तथा " नी श्यना ४२पाना विज्ञानथा, "कला" Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशिनी टीका अ० ३ सू. २० अदत्तादायिन कोदश फल लभन्ते। ३८३ चित्रादि विज्ञान कला-धनुर्वेदादिका समयशास्त्र-आर्हताटिक, तैः परिवर्जिताः= रहिता 'जहाजायपसुभूया' यथाजातपशुभूता=यथा जाता-जन्मकाले यादृश गुणविशिष्टास्तथैव स्थिता नतु शिक्षादिना विशेपता माताः एषभूता ये पशवः= बलोवर्दादयस्तद्वद्भूताः तत्सदृशाः (अवियत्ता' अयं देशीशब्दः अपीतिकाः अपीतिकारकाः निच्च नीयकम्मोवजीरिणो' नित्य नीचकपिजीविनः = सदा हिंसादित्युपजीविनः । कोयकुच्छणिज्जा । लोककुत्सनीयाः = सर्वजनैनिन्दनीयाः ' मोहमणोरहा । मोघमनोरथाः = निष्फलमनोरथाः, उत्कीर्ण करने रूप विज्ञान से, (कला) धनुर्वेद आदि रूप कलाओं से एच (समय सत्य) अर्हत प्रणीत शास्त्रो के अभ्यास से, (परिवज्जिया) रहित होकर (जहा जायपसुभूया) यथाजात पशु जैसे बने हुए ये (अवियत्ता) किसी के भी साथ प्रीति नहीं करते है क्यों कि ये (निच्च नीयकम्मोवजीविणो) नित्य ही नीच कर्मोपजीवी होते हैं। यथा जात पशुभूतका वाच्यार्य इस प्रकार है-उत्पन्न होते समय पशु जिन गुणों से युक्त रहता है आगे भी वह बडा होने पर भी शिक्षादिक की प्राप्ति से अपनी तरकी नही कर सकने के कारण वैसा ही बना रहता हैं, इसी तरह ये अदत्तग्राही व्यक्ति भी होते है हेय और उपादेय के ज्ञान से विकल जैसे ये जन्मते समय में थे वैसे ही ये बड़े होने पर भी रहते हैं, अताइन्हे यथा जात पशुभूत कहा गया है। (लोय कुच्छ. णिज्जा) समस्तजन इनकी निंदा किया करते है। ( मोहमणोरहा) इनके जितने भी मनोरथ होते हैं वे सब मोघ-असफल ही रहते है। धनु मा उसाच्याथी, भने" समयसत्य " मत प्रणीत शास्त्रीना मध्यासथी " परिवज्जिया" २डित पाने से “जहा जाय पसुभूया" यथालत पशुना २ गत तसा "अवियत्ता" नी पशु माथे प्रीति रायता नथी, २६५ तेथे "निच्च नीयकम्मोवजीविणो " हमेशा नीय ४५७वी राय छ 'यथा जात पशुभूत' नावाच्या या प्रमाणे छઉત્પન્ન થતી વખતે પશુ જે ગુણેથી યુક્ત હોય છે એ જ ગુણોથી યુક્ત મોટું થતા પણ રહે છે–તે મોટું થાય તે પણ શિક્ષાદિક ની પ્રાપ્તિ વડે પિતાની ઉન્નતિ કરી શકતું નથી એ જ રીતે અદત્તાદાન લેનાર વ્યક્તિ પણ જન્મ સમયે હેય અને ઉપાદેયના જ્ઞાનથી જેટલી રહિત હોય છે એટલી જ મેટી ઉમરે પણ તે જ્ઞાનથી રહિત રહે છે તેથી તેને “યથા જાત પશુભૂત” કહેલ छ " लोयकुच्छणिज्जा" सघास तेमनी नि। ४२ छ, “ मोहमणोहरा" तेभना सधमा भनोरथे। अपूर्ण २९ छ “निरासबहुला" UP परतुन Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रश्नम्याकरण ईर्ष्याबुद्धयापश्यन्तः, ततच 'अपयं' भात्मान 'फयत' मतान्त-कर्तव्य व 'निंदता' निन्दन्तः-निन्दा कुन्तः, 'इह य पुरे पडाह फम्माड पारगाउ' लोके पुरा-जन्मान्तरे च शतानि पापकानि-पापानि कर्माणि 'परिसयता' परिव दन्ता -निन्दन्तः 'चिमणसो' रिमनमा दीनाः सन्तः 'सोएण उज्यमाणा' शोकेन दामाना. अभीष्टरस्तूनाममातिदुखेन सन्तप्यमानाः सन्तः 'परिभूया हुति' परिभूताः जनैरनाहतादुःसमाप्ताथ भवन्ति । तथा 'सत्तपरिवज्जिया य' सत्वपरिवर्जिताथ मनोरलहीनाः 'छोन्मा' क्षोभ्या=निस्सहायतात्परिभवनीया, 'सिप्पकलासमयसत्यपरिवज्जिया' शिल्पकलासमयशास्त्रपरिप जिता-तत्र शिस सपत्ति, सत्कार, सन्मान,तथा भोजन, इनके विशेष प्रकारों की समुदय विधिको ईर्ष्याभाव से देखते है और अपने भाग्यकी आत्माकी तथा अपने पापकारी कर्तव्य की निंदा करते है । हमने (इर य) इस ससार में (पुरे)पूर्वभव में (पावगाड फटाह ) पापकर्म किये है उनका ही यह फल हमें भोगने को मिला है इस प्रकार (परिवयता) दूसरों से कहते हुए (विमणसो) स्वय दीन होकर (सोएण इज्झमाणा) शोक से जलते हुए (परिभूया) दुःखी (हुति) होते है अर्थात् अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति के दुःख से निरन्तर सन्तप्यमान होते हुए भीतर ही भीतर खेद रवीन्न बने हुए ये दूसरों के द्वारा अनाहत होते रहते हैं एव दुःखों को भोगते रहते है। तथा ( सत्तपरिवज्जिया य) मनोबल से रहित बने हुए ये (छोभा) निस्सहाय होनेके कारण हरएक व्यक्ति के द्वारा अनादरणीय होते रहते है । तथा (सिप्प ) चित्रादिकों को સન્માન, તથા ભેજન, તથા તેના સદ્દભાગ્ય પ્રત્યે તેઓ ઈર્ષ્યા ભાવથી જોવે છે, તથા પિતાના ભાગ્યની, આત્માની તથા પિતાના પાપકૃત્યની નિદા કરે छ 'म इय" मा ससारमा " पुरे" पूर्वममा " पावगाइ कडाइ" પાપકર્મો કર્યા છે, એનું જ આ ફળ અમારે ભેગવવું પડે છે, એ પ્રમાણે "परिवयता " ilanने ४ता " विमणसो" पाते हीन छन "सोएण डझमाणा" शाथी त " परिभूया" भी “हुति" थाय छ मेरो छरित વસ્તની પ્રાપ્તિ ન થવાના દુખથી નિરતર સ તાપયુક્ત થઈને મનમાં ને મનમાં હદિસ બનીને તેઓ બીજા લોકો દ્વારા તિરસ્કૃત થયા કરે છે, અને દુ ખો सासव्या ४२ छ तथा “ सत्तपरिवज्जिया य” भनथी रहित मेवात लोभा, असहाय खावाने ४.२ ४२४ ०यति द्वारा मनाहीय (तिरस्कृत) या रेतशा “मिप्य" शिवाहिनी २यता am... .....n ran" Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुशिनी टीका अ० ३ सू. २० अदत्तादायिन कोदश फल लभन्ते । ३८३ चित्रादि विज्ञान कला-धनुर्वेदादिका समयशास्त्रं-आर्हतादिक, तैः परिवर्जिता! रहिता 'जहाजायपसुभूया' यथाजातपशुभूता =यथा जाता-जन्मकाले यादृश गुणविशिष्टास्तव स्थिता नतु शिक्षादिना विशेपता प्राप्ताः एनभूता ये पशवा बलोवर्दादयस्तद्वद्भूताः तत्सदृशाः ‘अनियत्ता' अयं देशीगन्दः अप्रीतिका अपीतिकारकाः निच्च नीयकम्मोवजीनिणो' नित्य नीचकर्मोपनीविनः = सदा हिंसादिकृत्युपजीविनः । कोयकुच्छणिज्जा ' लोककुत्सनीयाः = सर्वजनैनिन्दनीयाः ' मोहमणोरहा । मोचमनोरथाः = निष्फलमनोरथाः, उत्कीर्ण करने रूप विज्ञान से, (कला) धनुर्वेद आदि रूप कलाओं से एच (समय सत्य) अर्हत प्रणीत शास्त्रो के अभ्यास से, (परि वज्जिया) रहित होकर (जहा जायपसुभूया) यथाजात पशु जैसे बने हुए ये (अवियत्ता) किमी के भी साथ प्रीति नहीं करते हैं क्यों कि ये (निच्च नीयकम्मोवजीविणो) नित्य ही नीच कर्मोपजीवी होते हैं। यथा जात पशुभूतका वाच्यार्थ इस प्रकार है-उत्पन्न होते समय पशु जिन गुणों से युक्त रहता है आगे भी वह बडा होने पर भी शिक्षादिक की माप्ति से अपनी तरकी नहीं कर सकने के कारण वैसा ही बना रहता हैं, इसी तरह ये अदत्तग्राही व्यक्ति भी होते है हेय और उपादेय के ज्ञान से विकल जैसे ये जन्मते समय में थे वैसे ही ये घडे होने पर भी रहते हैं, अताइन्हे यथा जात पशुभूत कहा गया है। (लोय कुच्छणिज्जा) समस्तजन इनकी निंदा किया करते है। ( मोहमणोरहा ) इनके जितने भी मनारय होते हैं वे सब मोघ-असफल ही रहते है । धनुहि माहि सामाथी, मन" समयसत्थ" मत प्रणीत शसोना भक्ष्यासथी “परिवज्जिया" २डित पान ४२ "जहा जाय पसुभूया" यथात पशुना व सातो तसा " अवियत्ता" ना ५४ साथे प्रीति रामता नथी, १२५ तेथे " निच्च नीयकम्मोवजीविणो ” हमेशा नीय ४५०ी खाय छ 'यथा जात पशुभूत' वाया मा प्रमाणे - ઉત્પન્ન થતી વખતે પશુ જે ગુણેથી યુક્ત હોય છે એ જ ગુણોથી યુક્ત મેટુ થતા પણ રહે છે–તે મોટું થાય તે પણ શિક્ષાદિક ની પ્રાપ્તિ વડે પિતાની ઉન્નતિ કરી શકતું નથી એ જ રીતે અદત્તાદાન લેનાર વ્યક્તિ પણ જન્મ સમયે હેય અને ઉપાદેયના જ્ઞાનથી જેટલી રહિત હોય છે એટલી જ મોટી ઉમરે પણ તે જ્ઞાનથી રહિત રહે છે તેથી તેને “યથા જાત પશુભૂત” કહેલ छ “ लोयकुच्छणिज्जा" सघ सोजी तमनी निउरे छ, “ मोहमणोहरा" तेभना सधा भना२थे। मपूर्ण २ छ “निरासबहुला" ति परतुन Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ সয়াগে ईर्ष्याबुद्धयापश्यन्त', ततच 'अप्पयं' आत्मान 'फयत' मतान्त-कर्तव्य । 'निंदता' निन्दन्तः निन्दा कुन्तः, ' इह य पुरे पडाइ कम्मा पारगाई लोके पुरा-जन्मान्तरे च कृतानि पापकानि-पापानि कर्माणि 'परिचयता' परिव दन्ता-निन्दन्तः 'चिमणसो' चिमनमा-दीनाः सन्तः 'सोएण उज्यमाणा' शोकेन दह्यमानाः अभीष्टवस्तूनाममाप्ति सेन सन्तप्यमानाः सन्तः 'परिभूया हुति ' परिभूताः जनैरनाहवादुःखमाताथ भान्ति । तथा ' सत्तपरिणज्जिया य' सत्त्वपरिवनिताच मनोबलहीनाः 'छोन्मा' क्षोभ्या-निस्महायत्वात्परिभवनीया, 'सिप्पकलासमयसत्यपरिवज्जिया' शिल्पालासमयशास्त्रपरिवजिताम् तत्र शिल्प सपत्ति, सत्कार, सन्मान, तथा भोजन, इनके विशेष प्रकारों की समुदय विधिको ईर्ष्याभाव से देखते है और अपने भाग्यकी आत्माकी तथा अपने पापकारी कर्तव्य की निंदा करते है । हमने (हर य) इस ससार में (पुरे )पूर्वभव में (पावगाई कडाइ) पापकर्म किये है उनका ही यह फल हमें भोगने को मिला है इस प्रकार ( परिवयता) दूसरों से कहते हुए (विमणसो) स्वय दीन होकर (सोएण इज्झमाणा) शोक से जलते हुए (परिभूया ) दुःखी (हुति) होते हैं अर्थात् अभीष्ट वस्तु की अप्राप्ति के दुःख से निरन्तर सन्तप्यमान होते हुए भीतर ही भीतर खेद खीन्न बने हुए ये दूसरों के द्वारा अनाहत होते रहते हैं एवं दुःखों को भोगते रहते है । तया ( सत्तपरिवज्जिया य) मनोबल से रहित बने हुए ये (छोभा) निस्सहाय होनेके कारण हरएक व्यक्ति के द्वारा अनादरणीय होते रहते है । तथा (सिप्प ) चित्रादिकों को સન્માન, તથા ભેજન, તથા તેના સદ્દભાગ્ય પ્રત્યે તેઓ ઈર્ષ્યા ભાવથી જોવે છે, તથા પિતાના ભાગ્યની, આત્માની તથા પિતાના પાપકૃત્યેની નિદા કરે है 'अमे " इहय " मा ससारमा “पुरे" पूलमा "पावगाइ कडाइ" પાપકર્મો કર્યા છે, એનુ જ આ ફળ અમારે ભોગવવું પડે છે,’ એ પ્રમાણે "परिवयता " oilanने उता " विमणसो" पाते हीन छन " सोएण डझमाणा" थी ता " परिभूया" भी “हुति" थाय छ सटोछित વસ્તની પ્રાપ્તિ ન થવાના દુખથી નિરતર સતાપયુક્ત થઈને મનમાં ને મનમાં હતિ બનીને તેઓ બીજા લેકે દ્વારા તિરસ્કૃત થયા કરે છે, અને દુખે सोसया २ छ तथा “ सत्तपरिवज्जिया य” भनाथ हित मेवात लोकभा" असहाय डावाने ४२ ६२४ व्यति वास मनाहरणीय ( तित) ध्या ४२ छ तथा " सिप्प" यिनी २यना ४२पाना विज्ञानथी, "कळा" Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीफा अ० ३ सू. २० यदत्तादायिन कोश फल लभन्ते । ३८५ कठिनपरिश्रमेणापि दिनमात्राहारयोग्यमेवरुयश्चित् जन्नादिक प्राप्नुवन्तीत्यर्थः, 'खीणदासारा 'क्षीणद्रव्यसारा: दरिदाः णिच्च वणवण्णकोसपरिभोगविवज्जिया' नित्य धनधान्यकोशपरिभोगविपर्जिता-तत्र नित्य-सदा यन-गणिमादिक धान्य शाल्यादिक कोशाः=भाण्डागारास्तेपा परिभोगेन-उपभोगेन पिनर्जिताः, रहिताः, तथा रहियकामभोगपरिभोगसनसोक्खा रहित कामभोगपरिभोगसर्वसौरयाः =रहित कामयोः शब्दरूपयोः भोगानां गन्धरूपस्पर्शाना परिभोगसौस्य-उपभोग जनित आनन्दः येषा ते तथा कामभोगसुग्वाजिता इत्यर्थः, 'परसिरिभौगोवभोगनिस्साणमन्गणपरायणा' परश्री भोगोपभोगनिश्वाणमार्गगपरायणाः, वत्रपरेपाम् भयेपा श्रिया सम्पत्तेः यौ भोगोपभोगो भोगा सकत भुज्यते यः सः आहार पुप्पादिरूपः, उपभोगच हवस्त्रादिलक्षणः तयोर्यनिश्राण तस्य मार्गणकणों के पिण्ट के सचय करने में ही लगे रहते है अर्थात् सम्पूर्ण दिन उद्योग में तत्पर रहने पर भी ये बडे कठिन परिश्रम से केवल उसी दिन के योग्य अन्नादि सामग्री को जिस किसी प्रकार से अर्जित कर पाते है । (सीणव्वसारा) द्रव्य रूप सार से रहित न होने के कारण ये दरिद्र होते है । (णिच्च धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया) सर्वदा ये गणिमादि रूप धन, शाली आदि धान्य एव भाण्डागार इनके परिभोग-उपभोगसे रहित होते ह । (रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा) शब्द एव रूप स्वरूप कामके, गन्ध रस और स्पर्श स्वरूप भोगों के परिभोग के सुखों से रहित होते है, (परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा) (परसिरि) दूसरे व्यक्तियोकी लक्ष्मी के (भोगोवभोग) भोग और उपभोग के (निस्साणमग्गणपरायणा) आशय की वाछा में ही सदा लगे रहते है । जो एक बार भोगने मे आते है ऐसे आहार, સમૂહને સંગ્રહ કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે એટલે કે આ દિવસ મહેનત કરવા છતા પણ તેઓ અતિ ભારે પરિશ્રમથી ફક્તએ એક દિવસ ચાલે એટલી मन्न सामग्री भाउ भाउ प्रास ४ श छ “सीण दव्यसारा" द्रव्य३५ सारथी २डित पाने सणे तसा हरिद्राय " णिच्च धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया સર્વદા તેઓ સોનામહોરે આદિ વન, શાલી આદિ ધાન્ય અને વાસણના ભડારની तभना पागथी २डित डे, “रहियफामभोगपरिभोगसव्वसोम्सा" शण्ड અને રૂપ સ્વરૂપ કામના ગધ, રસ, અને સ્પર્શ સ્વરૂપ રિગના સુખોથી તેઓ २डित डाय " परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमगणपरायणा"" परसिरि" तसा अन्य व्यक्तिसानी सक्ष्मीना" भोगवभोग" लागत पागना" निस्साणमाणपरायणा" मायनी वासनामा सहा दीन २ छ, र म० ४९ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૮૪ मनश्याकरणसूत्रे , निराश नहुलाः = इष्टवस्तुमात्यभावादत्तिनिरागाः, • जागनासपडिबद्धपाणा ' आशापाशमविद्धमागा:= आरोन पाशान्यन तेन प्रतिना = निरुद्वाः = माणा येपाते तथा आशामानजीविन, 'लोयगारे 'लोकसारे लोकमारभूते ' अत्थोध्यायणकामसोक्खे' अर्थोत्पादन कामसौरस्त्ये= जर्योत्पादन = द्रव्योपार्जन कामसौरव्य=इन्द्रियजनित सोरज्य तत्र ' मुअनि उज्जमता ' मुटु अपि उद्यमन्तः = उद्योग कुर्वन्तः 'अफळतगा' मिलतस्तुमाप्तिरहिता 'हुति' भरन्ति । पुनः कीदृशा भवन्ति ? स्याह ' तद्दिन गुज्जुसम्म दुक्तमठनिमि पिंडसचयपरा ' मधुकर्मकृतः खमस्थापित सिक्य पिण्ड सञ्चयपराः, तत्र तद्दिवसेषु = तत्तदिनेषु उद्युक्त उद्योगसिद्भि कर्मणा व्यापारेण कृते नापि दुःखेन = अतिक्लेशेन सस्थापित = माप्तो य सिस्यानान्यान्यणाना पिण्डस्तस्य सञ्चये पराः = तत्परा ये ते तथा सम्पूर्णदिनमुयोगपराः सन्तोऽपि - • ( निरास बहुला ) इष्टवस्तुकी प्राप्ति नहीं होने के कारण ये मदा निराश ही घने रहते है । (आसापासपद्विपाणा ) फिर भी ये जो जीते है उसका कारण इनकी आशा है। इसी आशाकी पाश मे ही इनके माग ही बधे हुए रहते है । (लोयसारे ) यद्यपि ये लोक में सारभूत माने गये ( अत्योपायणकामसो रखे) अर्थार्जन एवं इन्द्रिय जनित सुख में (सुडु अविउज्जमता ) अच्छी तरह से उद्यम शील रहते है, परन्तु फिर भी ( अफलवतगा ) इन्हे अभिलषित वस्तुकी प्रप्ति नही होती है । उससे ये रहित (हुति ) बने रहते है | ( तद्दिव सुज्जुत कम्म कयदुक्खसठविय सित्यपिंडसचयपरा ) ( तद्दिवसुज्जन्त ) प्रतिदिन उद्योग करते रहने पर भी (कम्मक ) किये गये काम से ( दुक्खसठविय) मुश्किल से प्राप्त हुए ( सित्यपिंड सचयपरा ) धान्य મળવાને કારણે તેઓ સદા નિરાશ જ રહે છે "आसपास परिषद्धपाणो છતા પણ તેઓ જીવી શકે છે તેનુ કારણ તેમની આશા છે તે આશાના પાશમા જ તેમના પ્રાણ अधायेला रहे छे " लोयसारे " ले } तेथे લેાકામા સારભૂત મનાતા अत्थोपायणकामसोक्खे " अर्थान (धन उभावाभा) તથા ઇન્દ્રિય જનિત સુખમા छे, पाशु अफलनतगा ” તેમને ઈચ્છિત વસ્તુ મળતી નથી તેનાથી તે ,, ८८ С. सुट ठुअविउज्जमता " सारी रीते प्रयत्नशील रहे (C 27 रहित “ हुति ” २ छे' तद्दिव सुज्जुत्तकम्मकयदुक्ससठविय सित्यपिंडसचयपर ” દરરોજ ઉદ્યોગ કરવા છતા પણ कम्मकय ’” કરેલા કામથી ८८ << तद्दिव सुज्जुन्त "" 'दुक्खसठविय भुश्ङेसीथी भजेस " सित्यपिंडसचयपरा " धान्याना 66 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ३ सू० २१ अध्ययनोपसहार एमदत्तादानस्य चतुर्थ फल्द्वारं निरूपितम् । साम्प्रतमध्य नार्थमुपसहरन्नाह -' एसो सो ' इत्यादि । मूलम् — एसो सो अदिष्णादाणस्स फलविवागो इहलोइयो परलोइओ अप्पसुहो वहुदुक्खो महभओ वहुरयप्पगाढो दारुणो को असाओ वाससहस्सेहिं मुच्चइ, न य अवेत्ता अस्थिहुं मोक्खात्ति, एवमाहसु णायकुलन दणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेज्जो कहेसी अदि० णादाणस्स फलविवागं एव ततइयपि अदिण्णादाण हर-दर-मरण-कलुस - तासण - परसति भेज्जलोभमूलं एव जाव चिरपरिचियमणुगत दुरत तिमि ॥ सू० २१ ॥ त्तिवेमि ૩૮૭ ॥ तइय अहम्मदार सम्मत्त ॥ " टीका--' एसो सो ' एपः स=दर्शितस्वरूपः ' अदिण्णादानस्य ' अदत्तादानस्य ' फलनिवागो, फलविपाकः ' इहलोइओ ' ऐहलौकिक: = मनुष्यभनापेक्षया परलोइओ ' पारलौकिकः = नरकाद्यपेक्षया ' अप्पमुहो' अल्पसुख = आपातमानइस प्रकार यह अदत्तादान के चौथे फल द्वार का निरूपण किया गया है, अन सूत्रकार इस अपन के अर्थका उपसंहार करते हुए कहते है ' एसो सो ' इत्यादि० । टीकार्य - ( एसोसो) जीसका इस प्रकार से स्वरूप प्रदर्शित कीया जा चुका है ऐसा (अण्णादाणस्स फलचिवागो) अदत्तादानका यह फलरूप विपाक (इलोइओ) मनुष्य भवकी अपेक्षा तथा (परलोइओ) नरकादि गतियों की अपेक्षा से प्रदर्शित किया गया है । इससे हम यह बात भली भाँती जान सकते है कि यह फलरूप विपाक ( अप्पसुहो ) આ પ્રમાણે અદત્તાદાનના ચાથા ફુલદ્વારનુ નિરૂપણ કરવામા આવ્યુ, હવે सूत्रद्वार भी मव्ययनना अर्थनो उस डार जश्ता आहे - " एसो सो "त्याहि टीअर्थ - " एसो सो ” नेनु उपरोक्त प्रजारे व प्रगट श्वामा भाव्यु ते અદત્તાદાનને તે ફલરૂપ વિપાક इहમનુષ્યભવની અપેક્ષાએ તથા " परलोइओ " नरजहि गतियोनी અપેક્ષાએ બતાવવામા આવ્યો છે તેની મદદથી આપણે તે વાત સારી રીતે સમજી શકીએ છીએ " अदिण्णादाणरस फलविवागो " लोइओ " 66 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण्याकरण गवेपण तन परायणा' परसम्पत्तिमोगामिलापया इत्यर्थ , 'रागा' वराका:दीनाः 'अकामिया' अकामिया भनिन्च्याऽपि 'रिणितिपय' विनयन्ति दुःख-दुख माप्नुवन्ति तथा 'समुह । णिचुर उपलभति' नेवमुम्ब नै नियुति मनः शान्तिमुपलभन्ते मानुगन्ति, ते के ? इत्याह-'अच्चतविउ लदुक्ससयसपलिता' अत्यन्तपिपुलदुमातमम्मदीप्ताः अत्यन्तपिपुलम्मति निस्तीर्ण यद् दुसरात तेन सम्प्रदीप्तासनता. 'परम्म दहि-जे परिया' परस्य द्रव्येषु ये भपिरता: नितिमावरहिताम्तेज परन च नेर मुग्न नेव शान्ति चोपलभन्ते इति सम्बन्धः ० २० ॥ पुष्प आदि पदार्थ भोग और जो चार २ भोगने में आते है ऐसे गृह वस्त्र आदि पदार्थ उपभोग है । ( परागा ) ये सदा दीनावस्था सपा होते है । (अकामियाए ) इनकी यह अमिलापा नहीं होती है की हम दुःख भोगे परन्तु इन्हे विना इच्छा के भी (विणिहुति दुःक्ख) दुःख सहना पडता है। इन्हे (णे सुरणेचणिपुर उवलभति) जीवनभर कभी भी सुख नहीं मिलता और न कभी निवृत्ति मनका शाति ही इन्हे प्रास होती है । कारण की ये ( अच्चत विउलदुक्खसयसपलित्ता) अत्यत विपुल सैकडो दुःखों से सतप्त होते रहते हैं। इन दुःखो से भी सतप्त होने का कारण यह है कि ये (परस्स दवेहि जे अविरया) परके द्रव्य को अपहरण करने रूप कुकृत्य से वितिभाव धारण करने से रहित होते है । इसी कारण इन विचारों को न सुख मिलता है और न शाति ही मिलती है । सू० २० ॥ એક વાર ભોગવવામાં આવે છે એવા આહાર પુષ્પ આદિ પદાર્થ ભાગ ગણાય છે, અને જે વર વાર ભગવાય છે એવા ઘર, વસ્ત્ર આદિ પદાર્થોને अपना 'वरागा" तेसो भैश हीन शामा २९ छ, “ अकामियाए" તેમને દુ ખ ગવવાની ઈચ્છા હતી નથી, પણ તેમને ઈચ્છયા વિના પણ "विणिहुति दुक्ख" म सहन ४२१५ तेभने “णेच सुह णेव णिव्वुइ उवल भति" मासु न ही ५ सुभ भातु नथी, अन तेमनी निवृत्ति-(मननी शाति) पशु प्राप्त थती नथी, ४२१ तो चतविउलदुक्ससय सपलित्ता" सत्यत विधुद, से 31 माथी हुयी थया रे , ये माथी पय भी थवानु २५ मे छे उ ते "परस्स दव्वेहिं जे अवरिया" પરધનનું અપહરણ કરવા ૩૫ કુકૃત્યથી વિરકત થઈ શક્તા નથી, તે કારણે તે બિચારાઓને સુખ મળતુ નથી અને શાતિ પણ મળતી નથી | સૂત્ર ૨૦ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ३ सू० २१ अध्ययनोपसहार ३८७ एवमदत्तादानस्य चतुथै फलद्वारं निरूपितम् । साम्प्रतमध्यपनार्थमुपसहरन्नाह --' एसो सो ' इत्यादि। ___ मूलम्-एसो सो अदिण्णादाणस्त फलविवागो इहलोइयो परलोडओ अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भओ बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वाससहस्सेहि मुच्चइ, न य अवेयइत्ता अस्थि मोक्खोत्ति, एवमाहसु णायकुलनदणो महप्पा जिणो उ वीरवरनामधेजो कहेसी अदिग्णादाणस्स फलविवाग एव त तडयपि अदिण्णादाण हर दर-मरण-कलुस -तासण-परसंति भेज्जलोभमूलं एव जाव चिरपरिचियमणुगत दुरत तिवमि ॥ सू० २१ ॥ ॥तइय अहम्मदार सम्मत्त ।। टीका--'एसो सो' एपः सन्दर्शितस्वरूपः 'अदिण्णादानस्य ' अदत्तादानस्य 'फलनिवागो, फलपिपाकः ' इहलोइयो' ऐहलौकिका मनुष्यभवापेक्षया 'परलोइओ' पारलौकिकाम्नरकाद्यपेक्षया ' अप्पमुहो' अल्पसुख-आपातमान इस प्रकार यह अदत्तादान के चौथे फल द्वार का निरूपण किया गया है, अब सूनकार इस अ पन के अर्थका उपसहार करते हुए कहते है - 'एसो सो' इत्यादि। टीकार्थ-(एसोसो) जीसका इस प्रकारसे स्वरूप प्रदर्शित कीया जा चुका है ऐसा (अदिण्णादाणस्स फलविवागो) अदत्तादानका यह फलरूप विपाक (इहलोहओ) मनुष्य भवकी अपेक्षा तथा (परलोइओ) नरकादि गतियोंकी अपेक्षासे प्रदर्शित किया गया है। इससे हम यह बात भली भाँती जान सकते है कि यह फलरूप विपाक (अप्पसुहो) આ પ્રમાણે અદત્તાદાનના ચેથા ફલદારનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું, હવે सूत्रा२ मा अध्ययनना मथन! 6पस डार ७२ता ४ छ-" एसो सो"इत्यादि टी----" एसो सो"रेनु उपराउत असारे १३५ प्रगट ७२वामा मा०यु ते "अदिण्णादाणरस फलविवागो" महत्तहाननी ते ५२३५ विघा " इहलोइओ" मनुष्यलवनी अपेक्षा तथा " परलोइओ" न२४ गतियानी અપેક્ષાએ બતાવવામાં આવ્યો છે તેની મદદથી આપણે તે વાત સારી રીતે સમજી શકીએ છીએ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ प्रश्नध्याकरणसूत्रे सुखजनका, 'पादुकावो' पादु'स: दुग्यपाल: 'मानो' महामय, महा भयजनकः 'बहुरयप्पगाहो' बहुरना मगानामनुरकर्मरजोगिः सम्भृतः 'दाम्णो' दारुणमीपणः 'फरसो' यश:ठोरः ' असाओ' अशाता अमुग्योऽशात फर्मवेदनीयस्वरूपः इत्येवविधफलत्रिपाक: 'याससहस्सेटिं। उपमहले पल्यो पमसागरममाणकालेः 'मुन्चइ ' मुन्यते-क्षीयते । तदा व्यतिरेकमुखेनाइ-'नय' न च त फल-रिपाकम् , 'अवेयउत्ता' अवेदयित्वा = अनुपमुन्य उपभोग विनेत्यर्थः 'हु' निश्चयेन 'मोक्खो' मोक्षः 'अत्यि' अस्ति 'ति' इति शब्द समाप्ति सूचर। __एतस्यार्थस्य साक्षात्ममाणभूतपरमात्मपतिपादितत्वेन प्रमाणयन्नाइ-- 'एवमाइसु ' इत्यादि। एवम्-उक्तरीत्या 'आह' ऊचुः पभादि तीर्थङ्करगणधरादय । तथा केवल आपातमात्र सुख जनक है । (घटु दुग्यो) जीवों के इससे वास्तविक सुख नहीं मिलता है कि तु भयकर से भयकर दुःखो का ही यह प्रदाता है । (यमओ) यह महा भयजनक है (यहुरयप्पगादो) प्रचुर कर्म रूपी रज से यह भरा हुआ है। (दारुणो) बड़ा भीपण है । (ककसो) कठोर है । (असाओ) अशात कर्म वेदनीय स्वरूप है । इस तरह का यह फलविपाक (वाससहस्सेहिं ) हजारा घों में अर्थात् पल्योपम तथा सागरोपर प्रमाणकाल में (मुच्चइ । छूटता है ।। ( न य अवेयइत्ता र माखो अस्थि त्ति) विना इसका फल भोगे जीव इससे मुक्त नहीं होता है । इस अर्थ मे प्रमाणता प्रति पादन करने के लिये सूत्रकारइसमे साक्षात्प्रमाणभृतपरमात्म के द्वारा प्रतिपादितता प्रकट करते है, वे कहते हैं- ( एवमाहसु) पभ आदि तस३५ वि " अप्पसुहो" Bण क्षार सुमरन छ “ बहुदुक्खो" જીને તેનાથી વાસ્તવિક સુખ મળતું નથી, પણ તે ભયકરમાં ભયંકર हमा ना२ छ " बहुमओ" ते महासयन "बहरयप्पगाढो" विधुत भ३५। २०४थी ते पूर्ण छ, “ दारुणो" धो लीपा छ, “ कक्सो " २ छ, “असाओ ,, अशातभवहनीय २१३५ छ मा मारना । विपा "वाससहस्सेहिं" । वर्षे सटसे पक्ष्यापन तथा सागरापम प्रमाणु आणे छूटे छे “नय अवेयइत्ता हु मोक्सो अत्यि ति" तनु ३ लाया વિના જીવ તેનાથી મુક્ત થતા નથી તે અર્થમાં પ્રમાણ ભૂતના પ્રતિપાદિત કરવાને માટે સૂવકાર તેમાં સાક્ષાત પ્રમાણભૂત પરમાત્મા દ્વારા પ્રતિપાદિતતા પ્રગટ કરે છેતેઓ કહે છે Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनीटीका २०३ सू० २१ अध्ययनोपसहार ३८९ 1 ५ तदनुसारेणैव ' गाकुलनदणो ' ज्ञातकुनन्दनः = सिद्वार्थकुलानन्दकरः ' महप्पा ' महात्मा-परमात्मरूपः ' जिणो' जिनो- रागद्वेपविजेता 'श्रीरपरनामधेज्जो' वीरपरनामधेयः=प्रख्यातनामा भगवान् महावीर. 'जदिण्णादाणस्म' जदत्तादानस्य फळविवाग ' फलविपाक ' कहेसी ' कथितवान् । एव त' तत् पूर्वोपदर्शित स्वरूपम्, ' तज्ञ्यपि अदिष्णादाण ' तृतीयमप्यदत्तादान - 'हर - दह - मरण - कलुम - वासण - परसविगिज्झ लोभमूल ' हर दह - मरण- कलपनासनपरसत्कग्राह्यलोभ मूलम्, तत्र 'हर ' इति हरण-परद्रव्यापहरण, 'दह' दहन = दाह - हृदयसन्तापः, 'मरण' मृत्यु', 'कलुस ' कलुप= मनोमालिन्य, 'तासण ' त्रासन = त्रासः - अकस्माद्भयम् 'परसतियगिज्झलोभ ' परसत्कग्राद्यलोभः = परवस्तुग्राहको लोभ, एतेपा मूल-मूलकारणमिदमदत्तादानम् । एव 'जान' यानत् यावच्छब्देन द्वितीयालीक तीर्थकरों ने इस अदत्तादान का ऐसा ही फल कहा है तथा उन्ही तीर्थकरों के अनुसार ( नकुलनगो ) ज्ञातकुलनदन - सिद्धार्थ के कुलको आनद कारक ( महप्पा ) परमात्मरूप ( जिणो ) रागदेष विजेता ( वीरवरना मधेज्जो ) श्री भगवान महावीर ने भी ( अदिण्णादाणस्स ) इस अदत्तादान का ( फलविवाग ) ऐसा ही फल ( कहेसी ) कहा है | ( एव ) इस प्रकार (त) पूर्वोपदर्शित स्वरूपवाला यह (तह यपि ) तीसरा अदत्तादान भी ( हर - दह - मरण - कलुस - परसतिगिज्जलोभमूल ) (हर) परद्रव्य का हरण करना, (दह ) हृदय मे सताप पहुँचाना, (मरण ) मृत्यु ( कलस ) मनोमालिन्य ( नासण) अकस्मात् भय होना, (परसति गिज्झ लोभमूल ) दूसरे की वस्तु का हरण कराने वाला लोभ, इन सबका मूल कारण यह अदत्तादान है । यहा पर "C एवमाहसु ” ઋષભદેવ આદિ તીર્થંકરાએ આ અદત્તાદાનનુ આવુ જ इस छे तथा ते तीर्थ रोना प्रभाणे " णायकुलनदणो " ज्ञातमुझे नेहनસિદ્ધાના કુળને આનંદ દાયક महापा " जिणो પરમાત્મ રૂપ, ગગદ્વેષ विक्रेता, "वीरवर नामज्जो श्री लगवान महावीरे पशु " अदिष्णा 66 "7 "7 दाणरस महत्ताहीन " फळविवाग" मेवुन हे एव छे" सत्ताहीन " श्री 66 " " हर" परद्रभ्यनु या प्रमाणे “ त ” धूपदर्शित उपवाणु ते " तइयपि " પણ हर - दह - मरण - कलम - तासण-परसति गिज्झ लोभमूल હરણ કરવુ हृदयमा भताय पडोयाउथे, "मरण दह मृत्यु, "कलुस મનની મલિનતા, सण " अस्मात ल थवेो, “परसतिगिज्झ लोभमूल 66 "} "" 66 ܕܕ در " "" " Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ३९० प्रश्नव्याकरण वचना ययनोक्तविशेषणानि यथायोग्यानि समागागि । चिरपरिचिय' चिरपरि चितम् अनादिकालादनुभूयमानम् , ' अणुगय' अनुगत मागिना पृष्ठतो लग्नम् , 'दुरत' दुरन्तम् दुःखावसानम् , 'निमि' इति सीमि = एतद् जम्बूस्वामिन मति सुधर्मस्वामिवारयम् ॥ २० २१ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य मृदर्शन्यारयाया व्यायाया हिंसादि पचासवद्वारेषु अदत्तादानारय तृतीयधर्मद्वार समाप्तम्।। ३ ।। 'यावत् ' शब्द से द्वितीय अलीक वचन सयधी अध्ययन में जो विशे पण कह गये हैं उनका यहा यथायोग्यरूप में संग्रह कर लेना चाहिये । यह अदत्तादान (चिरपरिचिय) अनादिकाल से जीनों के अनुभव में आ रहा है (अणुगय (मिथ्यात्व ) के कारण यह आत्मा के पीछे लगा हुआ है । (दुरत) दुःखप्रद ही इसका परिणाम-फल है। (तिमि) ऐसा मैं कहता हूं । इस प्रकार से यह जत्रू स्वामी के प्रति सुधर्मा स्वामी ने कहा है ॥सू० २१ ॥ ॥ तीसरा आस्रव-'अधर्म' डार समाप्त ॥ બીજાની વસ્તુનું હરણ કરાવનાર લોભ, વગેરે સઘળી બાબતેનું મૂળ કારણ मा महत्ताहान छे, मी " यावत्" शमयी मी वयन विना पीन અધ્યયનમાં જે વિશેષણેને ઉપયોગ કરી છે, તેમને સંગ્રહ અહી ગ્ય शते श सेवानी छ, मा महत्तहान " चिरपरिचिय " मनायी वानर मनुलवमामाकी २७यु छ, (अणुगय) भिथ्यात्पने पारणे ते मात्भानी पाछ सागयु छे, (दुरत) तेनु -परिणाम महायी छ, (त्तिवेमि) मे हुई छु, या प्रमाणे सुधास्वाभीमे ४ भूस्वामीन यु, ॥ ९, २१ ॥ ॥ त्रीने मानव-अभ'हारसमात ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थमध्ययनम् । व्यारयात तृतीयमध्ययन साम्भत चतुर्थमारभ्यते अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः । तृतीयाध्ययने यादृश नामादिनिर्देशपुरस्सरमदत्तादानस्वरूपमुक्तम् । अदत्तादान च प्रायोऽब्रह्मासक्तचित्ताः कुर्वन्त्येति हेतोः सूत्रक्रमनिर्देशानुसाराच्चाऽदत्तादाननिरूपणानन्तरमुचितप्राप्तमनस्मस्वरूप नामादिनिर्देशपूर्वक प्रदर्श्यते तस्येदमाघ मूनम् --'जयू अभ च चउत्थ' इत्यादि-तत्र पूर्वेपामिवास्यापि 'यादृश १ यन्नाम २ यथा चकृत ३ यत्फल ददाति ४ ये च कुर्नन्ति ५ इतिपञ्चभिरन्तारैनिरूपण चिकीर्षु रादो क्रममाप्त' यादृशद्वारमाश्रित्य अब्रह्मस्वरूप निरूप्यते-'जबू अपभ' इत्यादि । चतुर्थ अधर्मद्वार प्रारभतृतीय अधर्मडार समाप्त हो चुका । अर चतुर्थ अधर्मदार प्रारभ होता है । इस अदर्मद्वार के साथ इस प्रकार का सबध है -तृतीयअधर्मद्वारमें यादृशनामादि निर्देशपूर्वक जो अदत्तादानका स्वरूप कहा है सो इस अदत्तादान को जो अवममें आसक्त चित्तवाले प्राणी होते हैं प्रायः वे करते ही हैं इस कारण से, तथा सूत्रक्रम के निर्देश के अनुसार से अदत्तादान के निरूपण के बाद अब्रह्मका स्वरूप नामादिनिदेशक कहना यह अवसर प्राप्त हैं। अतः सत्रकार उसे अधर्मद्वार में प्रदर्शित करते है । जिस तरह पूर्व अ ययनों का निरूपण सूत्रकार ने " यादृश, १ यन्नाम २ यथा च कृत, ३ यत् फल ददाति, ४ ये च कुर्वन्ति ५" इन पाच अन्तारों से किया है उसी तरह वे इसका भी ચોથા અધમ દ્વારની શરૂઆત ત્રીજુ અધર્મ દ્વાર પૂરૂ થયુ, સેવે ચોથા અધર્મકારનું વર્ણન શરૂ થાય છે, આ અવર્મકારને આગળના અધર્મદ્વાર સાથે આ પ્રકારને સ બ ધ છે ત્રીજા અધર્મ દ્વારા પ્રકાર ના આદિના નિદે પૂર્વક અદત્તાદાનનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવ્યું છે તે અદત્તાદાન જે અબ્રહ્મમાં આસકત પ્રાણુઓ હોય તે સામાન્ય રીતે આચરે છે, એ કારણે તથા સૂત્રકમના નિર્દેશ પ્રમાણે અદત્તાદાનના નિરૂપણ પછી અબ્રાનું સ્વરૂપ નામાદિના નિદેશ પૂર્વ કહેવું તે યોગ્ય જ છે તેથી સૂત્રકાર તેને આ અધર્મ દ્વારમાં પ્રગટ કરે છે જે રીતે माना अध्ययनानु नि३५ सूत्रधारे “याश"१ (उप प्रा२नु) “यन्नाम"२ (उया उया नाभी) “यथा च कृत" 3 (ज्यारे ३२राय )" यत् फल ददाति " ४ (ज्यु ५ मापे) “ये च कुवन्ति" ५ (अ) ते मायरे छे) 41 पाय અતરે દ્વારા કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે આ અધર્મઢારનું પણ નિરૂપણ ડગ્યા Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९० प्रश्नव्याकरण बचना ययनोक्तविशेषणानि यथायोग्यानि सग्रालागि । चिरपरिचिय' विरपरि चितम्-अनादिकालादनुभूयमानम् , ' अणुगय' अनुगनप्राणिना पृष्ठतो लग्नम् , 'दुरत' दुरन्तम्-दुःखावसानम्, 'तिमि' इति ब्रीमि = एतद् जम्बूम्बामिन प्रति सुधर्मस्वामिवाक्यम् ।। मू० २१ ॥ । इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य सुदर्शन्यारयाया ज्याग्याया हिंसादि पञ्चाबहारेषु अदनादानाख्य तृतीयधर्मद्वार समाप्तम् ॥ ३ ॥ 'यावत् ' शब्द से द्वितीय अलीक वचन समधी अध्ययन में जो विशे पण कह गये हैं उनका यहाँ यथायोग्यरूप में सग्रह कर लेना चाहिये। यह अदत्तादान (चिरपरिचिय ) अनादिकाल से जीवों के अनुभव में आ रहा है (अणुगय (मिथ्यात्व) के कारण यह आत्मा के पीछे लगा हुआ है । (दुरत ) दुःखप्रद ही इसका परिणाम-फल है। (तिबेमि) ऐसा मैं कहता हूँ । इस प्रकार से यह जत्रू स्वामी के प्रति सुधर्मो स्वामी ने कहा है ॥सू० २१ ॥ ॥ तीसरा आस्रव- 'अधर्म' द्वार समाप्त ॥ બીજની વસ્તુનું હરણ કરાવનાર લોભ, વગેરે સઘળી બાબતોનું મૂળ કારણ मा महत्तादान छे, मी " यावत् " शvaयी सनी क्यन वियना ult અધ્યયનમા જે વિશેષણને ઉપયોગ કરાય છે, તેમને સંગ્રહ અહી ગ્ય शत शसेवान छे, मा महत्ताहान "चिरपरिचिय " मनाथी वाना मनुभपभामाची २७यु छे, (अणुगय) मिथ्यात्वन २ ते मामानी पाछ साग छ, (दुरत) तेनु ३-परिणाम महायो छ, (त्तिवेमि) मे हुई छु, या प्रमाणे सुधास्वाभीमे स्वामीन उपयु, ॥ सु, २१ ।। ॥ त्रीने मानव - अभ' द्वार सभात ॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ चतुर्थमध्ययनम् । व्याख्यात तृतीयमभ्ययन साम्मत चतुर्थमारभ्यते अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः । तृतीयाध्ययने यादृश नामादिनिर्देशपुरस्सरमदत्तादानस्वरूपमुक्तम् । अद्वत्तादान च प्रायोऽब्रमासक्तचित्ताः कुर्वन्त्येति हेतोः सूत्रक्रमनिर्देशानुसाराच्चाऽदत्तादाननिरूपणानन्तरमुचितमाप्तमनामस्वरूप नामादिनिर्देशपूर्वक प्रदर्श्यते तस्येदमाघ मृतम् -- जजू अनभ च चउत्थ' इत्यादि-तत्र पूर्वेपाभिवास्यापि 'यादृश १ यन्नाम २ यथा चकृत ३ यत्फल ददाति ४ ये च कुर्वन्ति ५ इतिपञ्चभिरन्ता निरूपण चिकीर्षु रादौ क्रमप्राप्त' यादृशद्वारमाश्रित्य अब्रह्मस्वरूप निरूप्यते-'जबू अपभ' इत्यादि। चतुर्थ अधर्मद्वार प्रारभतृतीय अधर्मद्वार समाप्त हो चुका । अब चतुर्थ अधर्मटार प्रारभ होता है । इस अदर्मद्वार के साथ इस प्रकार का सबध है -तृतीयअधर्मद्वारमें यादृशनामादि निर्देशपूर्वक जो अदत्तादानका स्वरूप कहा है सो इस अदत्तादान को जो अब्रह्ममें आसक्त चित्तवाले प्राणी होते हैं प्रायः वे करते ही है इस कारण से, तया सबकम के निर्देश के अनुसार से अदत्तादान के निरूपण के बाद अब्रह्मका स्वरूप नामादिनिदेशक कहना यह अवसर प्राप्त हैं। अतः सूत्रकार उसे अधर्मद्वार में प्रदर्शित करते है। जिस तरह पूर्व अ-पयनों का निरूपण सूत्रकार ने "यादृश, १ यन्नाम. २ यथा च कृत, ३ यत् फल ददाति, ४ येच कुर्वन्ति ५" इन पाच अन्तारों से किया है उसी तरह वे इसका भी ચોથા અધર્મદ્વારની શરૂઆત ત્રીજુ અધર્મદ્વાર પૂરૂ થયુ, સ ચેથા અધર્મદ્વારનું વર્ણન શરૂ થાય છે, આ અધર્મદ્વારને આગળના અધર્મદ્વાર સાથે આ પ્રકા સ બ ધ છે ત્રીજ અધર્મદ્વારમાં પ્રકાર ના આદિના નિર્દેશ પૂર્વક અદત્તાદાનનું સ્વરૂપ બતાવવામાં આવ્યું છે તે અદત્તાદાન જે અબ્રહ્મમાં આસકત પ્રાણીઓ હોય તે સામાન્ય રીતે આચરે છે, એ કારણે તથા સૂત્રકમના નિર્દેશ પ્રમાણે અદત્તાદાનના નિરૂપણ પછી અબ્રાનું સ્વરૂપ નામાદિના નિર્દા પૂર્વક કહેવુ તે ચોગ્ય જ છે તેથી સૂત્રકાર તેને આ અધર્મદ્વારમાં પ્રગટ કરે છે જે રીતે मागणना अध्ययनानु नि३५ सूत्र और “ यादृश"१ (342 प्रानु) “यन्नाम"२ (उय॥ ४या नाभी) “यथा च कृत' 3 (उयारे 3राय छ) “यत फल ददाति " ४ (ज्यु २ मा छ) “ये च कुन्ति " ५ (अ ते मायः छ) 241 पाय અતારે દ્વારા કર્યું છે, એ જ પ્રમાણે આ અધર્મઢારનું પણ નિરૂપણ કરવા Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्नध्याकरण मूलम् ---जनू । अवभं च चउत्थं सदेवमणुयामुरस्स लोयस्स पत्थणिज्ज पकपणगपासजालभूय इत्थीपुरिसनपुंसगवेदचिह्न तवसजमवभचेरनिग्य भेदाययणबहुपमादमूलं कायरकापुरिससेविय सुयणजणवजणिज्ज उद्य-नरयतिरिय तिलोकपइटाणं जरामरणरोगसोगबहुल वधवंधविघायदुविधाय दसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिचियं मणुगयं दुरंत चउत्थं अहम्मदार ॥ सू०१॥ ___टीकाः-हे जम्मू. ! 'चउत्य ' चतुर्थ =हिंसामृपादत्तादानापेक्षया चतुर्थ मास्रवद्वारम् ' अपभ च ' अब्राह्म-अकुशल कर्म तन्चेह मैथुनम्-अधर्महेतुत्वेन सकलानर्थजनकत्वात् । चकारः पुनरर्धः कीदृश तदित्याह-'सदेवमणुयामरस्स लोयस्सपत्यणिज्ज' सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य मार्थनीय देवमनुष्यामुरलोकस्य प्राय निरूपण करना चाहते हैं । अत. सर्व प्रथम वे कम प्राप्त "यादृश" इस द्वार को लेकर अव्रम के स्वरूप का निरूपण करते है- 'जबूअपम' इत्यादि। टीकार्य-श्रीसुधर्मा स्वामी जयूस्वामी से कहते हैं कि हे जबू! (चउत्थ) हिंसा, मृपा एव अदत्तादान इन तीन की अपेक्षा यह चतुर्थ आस्रव द्वार (अबभ च) अनम है। यह अत्रम अकुशल कर्म हैं और वह यहा स्वरूप से गृहित हुआ है। क्योंकि यह अधर्म का हेतु होने से सकल अनर्यों का जनक होता है। अब सूत्रकार इसी अवमका आगेके विशेषणो द्वारा विशेष स्पष्टी करण करते है, वे कहते हैं कि-यह अव्रत्म-मैथुनसेवनरूप अकुशल कर्म भागे छ तेथी सीथी पडे तशा मनु मापता “ याश" 24 नामना हारने सधन अझना २१३५नु नि३५ उरे छे “जबू अबभ" त्यादि Atथ-श्री सुधर्मा स्वामी स्वाभान छ । “चउत्थ" હિસા, મૃષા અને અદત્તાદાન એ ત્રણની અપેક્ષાએ ચોથુ અધર્મદ્વાર "अमभ च" अनी छे ते अग्र अयोग्य कृत्य छ भने त सही भथुन३३ જે ગૃહિત થયેલ છે, કારણ કે તે અધમનું કારણ હેવાથી સઘળા અનથનું ઉત્પાદક છે હવે સૂત્રકાર એ જ અબ્રાનુ આગળ આવતા વિશેષણ દ્વારા વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે, તેઓ કહે છે કે તે અબ્રા-મેથુન સેવનરૂપ પાપકર્મ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका० ४ सू० १ अत्रत्मस्वरूपनिरूपणम् ३९३ नीयम् अमिळपणीयम् । 'पकपणापासनालभूय पड़पनरूपाशनालभूत-तत्र पङ्कः नर्दम -निमज्जनहेतुत्वात्, पनका शैवाल-चरणन्यासमात्रेण स्खलनहेतुत्वाव, पागः बन्धनविशेषः, जाल च-मतीत तद्भूत-तत्सदृशम् । तथा 'इत्थीपुरिमनपुसग -वेदचिहण' खी पुरुपनपूमरवेदचिर-स्त्रीपुरुपनपुसस्पेटरक्षण, तत्र स्त्री-वेदा पुरुषाभिलापलक्षण' पुरपवेदः स्त्रियोऽभिलापलक्षणः, नपुसमवेदः= उभयामिलापलक्षगः। 'वसनमनभचेरविग्य ' तप सयमब्रह्मचर्यविघ्न:-तपः सयम ब्रह्मचर्यविधातरूपम्, 'भेदाययणनहुपमादमूल ' भेदायतनमहुप्रमादमूल भेदाचारित्रविनाशः तस्य आतनानि स्थानानि ये वहा अनेकविधा प्रमादा-मद्यविकथा दय , तेपा मूल कारण यत्तत्तथा। 'कायरकापुरिससेविय' कातरकापुरुप सेवित= कातरा: परीपहभीरव , अनएर कापुस्पाः = धैर्यवर्जितास्तैः सेवित यत्तत्तथा । 'सुयणजणनमणिज्ज ' सुजनजनपर्जनीय-गुजननना साधुजनास्तैः वर्जनिय (सदेव मणुपासुरस्म लोयस्स पत्यणिज्ज) देव, मनुष्य, पच असुर लोक द्वारा अभिलपणीय है-चाहे देव हो चाहे मनुष्य हो या असुर हो कोई भी क्यों न हो सव ही इसे चाहते हैं । यह कर्म (पकपणगपासजालभूय) पककर्दम, पनकशैवाल-फाई, पाश और जाल के जैसा है। तथा (इत्थीपुरिसनपुसगवेदचिंच) पुरूप अभिलाप रूप स्त्रीवेद स्त्रीचाहनारूपपुरुपवेदउभयकी वाचारूप नपुसमवेद, ये जिसके चिह्न हैं । यह (तवसजमयभचेरविग्ध ) तप, सयम, और ब्रह्मचर्य का विघातक है। (भेयाययणरहुपमादमूल ) चारित्र को पिनाश करने वाले जो मय विकथादिक अनेक प्रमाद हे उनका यह मूल कारण है। ( कायरकापुरिससेविय) जो व्यक्ति कातर परीपद सहने मे भीरू होते हैं, और इसीसे जिनका धेय नष्ट हो जाता है ऐसे व्यक्ति ही इसका सेवन करते है । तथा (सुय"सदेवमणुया मुरस्म पत्यणिज्ज" हेप, मनुष्य भने अ सोज ! मलितपशीय છે ભલે દેવ હોય, મનુષ્ય હોય કે અસર હોય-દરેક તેને ચાહે છે તે કર્મ "पकपणगपासलजालभूय " ५४-पन-गेम, पास मन छ तथा "इत्थीपुरिसनपु सगवेदचिंध" पुरुष भलिसापा३५ श्री व स्त्रीयाना३५ पुरुष २६, मने पन्नेनी याना३५ नधुना व नायिको छ, ते “ तवसजमनमचेर विग्ध" त५, म यम. मने प्राययतु विधात 'भेयाययण बहुपमादमूल" याविना नाश ४२ना२२ भय, विया आमने प्रभाह, “कायरकापुरिससेविय" જે વ્યક્તિ વાયર–પરીવહો સહન કરવામાં ભીરુ હોય છે, અને તેથી જ જેમનુ પૈ નષ્ટ થયું હોય છે એવી વ્યક્તિઓ જ તેનું સેવન કરે છે તથા Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ ममध्याकरणको =त्याज्यम् , 'उद्दनस्यतिरियतिलोपडाण' अर्थ नपनियनियोगमति प्ठानम् कलोको नरकलोकस्तिर्यग्लोक श्रेत्येताप यन् प्रैलोक्य तन प्रतिष्ठानम् =अवस्थिति येन मैथुनेन यत्तनधा लोकाये चतुर्गतिभामममित्यर्थ , तथा 'जरा मरणरोगसोगबहुल ' गन्मजरामरणरोगगोकाधनन्तयमम्भुनम् , 'वष पविघायदुधियाय ' यधपनाविधानदर्षियातम् तत्र पध हनन वन्य-ज्जा दिभिः सयमन, विधात मारण घेत्येतेः शिवः दृमायो चिरातो दाल यस्मिन् तत्तथा धन्यादिविविधदुःयजना मित्यर्थः, दमणचरित्नमोहस्सहेउभूय ' दर्शनचारित्रमोहस्य हेनुभूत-दर्शनमोहम्य चारित्रमोहस्य च कत्यकार: णम्-इदमनमजिनाचने शाकाहादिदोपोझावासाद् दर्शनमोहम्य कारण, चारितभेदजनमत्वाच्चारित्रमोहस्येति भार' । तथा 'चिरपचिय' चिरपरिचितणजणवज्जणिज्ज) जो साधुजन है वे तो इस कृत्य को सदा त्याज्य ही मानते हैं (उड नरयतिरियतिलोयपहाण) इस मैथुन सेवन से जीवका परिभ्रमण उर्वलोक मध्यलोक एब पाताललोक रूप त्रलोक्य में होता है। (जरामरण रोगसोगमूल ) यह कर्म जन्म, जरा, मरण, शोक आदि अनत दुःखोसे भरा हुआ है। (वधरधविघायदुन्धिघाय) इसमे वध, पधन एव मरण जन्य दुः सह दुःख भरे हुए हैं। (दसणचरित्तमा हस्स हेउभूय) दर्शन मोहनीय तथा चारित्रमोहनीय का यह हेतुभूत है। अर्थात-यह अव्रह्म जिन पचन मे शका कक्षिा आदि दोषों का जनक होने के कारण दर्शन मोहका और चारित्रका विनाशक होने से चारित्र मोहनीय कर्म के वध को कारण माना गया है । (चिरपरिचिय) जीवों के साथ इसका परिचय चिरकाल से जन्म जन्मान्तरो में आसेवित होते रहने के कारण चला आ रहा है । इसीलिये ( अणुगय ) यह " सुयणजणरज्जणिज्ज" पर सतपुरुषो तो मे इत्यने सहा त्या योग्य भान छ,' उनरयतिरियतिलोक्पइटाण" र भैथुनना सेवनथी ने ઉલેક અને પાતાળક, એ રીતે ત્રણલોકમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, "जरामरणरोगसोगमूल " त उर्भ सन्म १२, भ२४, शs मा मनत माथी मरेतु छ, “वधयधविघायदुविधाय" तेमा वध, मधन मन भ२] न्य सो ससा छ, “दसणचरित मोहस्स हेउभूय" हनि મેહનીય તથા ચારિત્ર મેહનીયના કારણરૂપ છે, એટલે કે તે અબ્રહ્મ જિનવચનામા શકા કાક્ષા આદિ દેનુ જનક હોવાથી દર્શન મેહનીય અને ચારિત્રનું विनाश पाथी यात्रि भाडनीय मन धनु ४२५ मनायु छ — चिरपरि चिय" भन्मान्तथी मेवातु पाने तना छवानी सथा Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ ४ सू० २ अब्राह्मनामानि तल्लक्षणनिरूपण च ३१५ जन्मजन्मान्तरासेवितम् , 'अणुगय' अनुगतम् = अनादिकालतः समनुगतम् , 'दुरत' दुरन्तम्-दुःखापसानम् , दुष्टफरमित्यर्थः । ' चउत्थ अहम्म दार' चतुर्यमधर्मद्वारम्नास्रबहारमब्रह्मेति नामस्म् ॥ १॥ मू०॥ एवमनमम्मरूपमुक्त साम्मत 'यभामे' ति द्वितीयान्तारमाश्रित्य तस्य नामान्याह ' तस्स य णामाणि' इत्यादि मूलम्-तस्स य णामाणि गोणाणि इमाणि हुंति तीसंअवंभ १ मेहुणं २ चरत ३ ससग्गि ४ सेवणाहिगारो ५ संकप्पो ६ वाहणापदाण ७ दप्पो ८ मोहो ९ मणसखोभो १० अणिग्गहो ११ विग्गहो १२ विघाओ १३ विभंगो १४ विभभो १५ अहम्मो १६ असीलया १७ गामधम्मतत्ती१८ रती १९ रागचिता २० कामभोगमारो २१ बेर २२ रहस्स २३ गुज्झ २४ वहुमाणो २५ वभचेर विग्यो २६ वावत्ती २७ विराहणा २८ पसगो २९ कामगुणोत्ति ३० विय । तस्स एयाणि एकमाइणि नामधेजाणि हुति तीस ॥ सू० २ ॥ टीका-' तस्स य' तस्य च-अब्रह्मणो मैथुनस्येत्यर्थः, 'गोणाणि' गौणानि गुणनिप्पन्नानि ‘णामाणि' नामानि 'इमाणि इमानि वक्ष्यमाणानि जीवों के पीछे अनादिकाल से पड़ा हुआ है । (दुरत) इसका अवसान (अत) बहुत ही अधीक कष्टप्रद होता है । (चउत्य अहम्मदार) इस प्रकार यह चतुर्थ अब्रह्म नामका अधर्मद्वार है ॥ सू० १ ।।। इस तरह मूत्रकार अब्रह्म के स्वरूप का प्रतिपादन कर अय " यन्नाम" नामक द्वितीय अन्तार से उसका प्रतिपादन करते हैं'तस्स य' इत्यादि । टीकार्थ- (तस्म य ) उस अब्रह्म रूप मैयुन कर्मके (गोणाणि) विजयी पश्यिय यात्या या छे तथा अणुगय" ते मनाया ७वानी पा५ ५ " दुरत " तेन नाश । मतिराय , "चठस्य अहम्मदार" मा जानुते याथु सम्रझनामनु मधमा छ । सू०१॥ ઉપરોકત રીતે અબ્રાના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરીને હવે સૂત્રકાર “नाम" नामना मोra अन्तरिया तेनु प्रतिपादन ७२ छे “ तस्स य" त्यादि साथ-"तस्स य" ते मन३५ भैथुन उभा "गोणाणि" गुणानुमा “णामाणि" Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ मन्नध्याकरण त्याज्यम् , 'उद्धनरयतिरियतिलोपडाण' अर्थ नम्पतिर्यकत्रिलोपतिप्ठानम्-अर्चलोको नरककस्तिर्यग्लोक त्यतत्प यन् मैलोक्य तत्र प्रविष्ठानम् अपस्थिति येन मेथुनेन यत्तनवा लोकाये चतुर्गतिभाम समित्यर्थ , तथा 'जरा मरणरोगसोगनहुल । जन्मजरामरणरोगशोकाधनन्तदायमम्भुतम् , 'वष पपिघायदुनियाय ' वधमन्यपिघातदर्षिघातम्-तत्र धनन पत्य ज्या दिभिः सयमन, विधाता मारण चेत्येवैः दागिता दुमायो विधातो दुःख यस्मिन् तत्तथा धन्यादिगिरिधदुमजना मित्पर्धः, 'टसणचरितमोहस्सहेउभूय' दर्शनचारित्रमोहस्य हेनुभूत-दर्शनमोहम्य चारित्रमोहस्य च वचकारणम्-इदमब्रह्मजिनपचने शहाकाहादिदोपोडावावाद् दर्शनमोहम्य कारण, चारित्रभेदजनस्ताचारिनमोहस्येति भार' । तथा 'चिरपचिय' चिरपरिचित णजणवज्जणिज्ज) जो साधुजन है वे तो इस कृत्य को सदा त्याज्य ही मानते हैं (उड नरयतिरियतिलोकपडाण) हम मैथुन सेवन से जीवका परिभ्रमण उर्चलोक मायलोक एव पाताललोक रूप त्रलोक्य में होता है। (जरामरण रोगसोगमल) यह कम जन्म, जरा, मरण, शोक आदि अनत दुःखोसे भरा हुआ है। (वधरधविधायदुन्धिघाय) इसमे वध, वधन एव मरण जन्य दुः सह दुख भरे हुए हैं। (दसणचरित्तमो हस्स हेउभूय) दर्शन मोहनीय तथा चारित्रमोहनीय का यह हेतुभूत है । अर्थात-पह अब्रह्म जिनपचन मे शका कक्षा आदि दोषों का जनक होने के कारण दर्शन मोहका और चारित्रका विनाशक होने से चारित्र मोहनीय कर्म के बध को कारण माना गया है । (चिरपरिचिय) जीवों के साथ इसका परिचय चिरकाल से जन्म जन्मान्तरों में आसे वित होते रहने के कारण चला आ रहा है । इसीलिये ( अणुगय ) यह " सुयणजणवजणिज्ज" ५ सतपुरुषो तो मे इत्यने सहा त्याचा योग्य भाने छ,' उड्डनरयतिरियतिलोकपइट्टाण" मे भैथुनना सवनयी वने ઉદલેક અને પાતાળક, એ રીતે ત્રણલેકમાં પરિભ્રમણ કરવું પડે છે, "जरामरणरोगसोगमूल " ते उभ सन्म ४२, भ२, ४ मादि मनत माथी मरेतु छ, "वधवधविधायदुविधाय" तेभा वध, धन भने भ२१ शन्य सडकमा छ, "दसणचरित मोहस्स हेउभूय " तहरीन મેહનીય તથા ચારિત્ર મેહનીયના કારણરૂપ છે, એટલે કે તે બ્રહ્મ જિનવચમાં શકા કાક્ષા આદિ દેનુ જનક હોવાથી દર્શનમોહનીય અને ચારિત્રનું विनाश डोवाथी यारित्र भानीय भन। धनु मनायुछ ‘चिरपरि चिय" भन्मान्तथी सेवातु डावाने १२ तेना यानी सथ। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९७ सुदर्शिनी टीका म०४ सू० २ अब्रह्मनामानि तल्लक्षणनिरूपणं च काम ? जानामि ते रूप, सङ्कल्पात् फिट जायसे । न त्या सकल्पयिप्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥१॥ 'वाहणा पदाण' वाधना पदाना-पदानासयमस्थानाना वाधना वाधोत्पादकत्वात् ७ । 'दप्पो' दर्पः इप्सजनैराचरितत्वात् ८, मोहा मोहजननात्वेदमोहनीयकर्मोदयसम्पाघवाहा मोहस्वरूप. १, 'मणसखोभो ' मनः सक्षोभः -चित्तव्याकुलतोत्पादकत्वात् १०, 'अणिग्गहो' अनिग्रह -विषयेषु प्रवर्त्तमानस्यनाम सेवनाधिकार है ५। सकल विकल्पों से यह उत्पन्न होता है इसलिये इसका नाम सकल्प है ६ । कहा भी है-- " काम ! जानामि ते रूप, सकल्पात् किल जायसे। न त्वा सकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १ ॥ हे काम ! मैं तेरे स्वरूपको जानता है, तृ निश्चयतःमानसिक सकल्प से उद्भूत होता है । अतः में जब तेरा सकल्प ही नहीं करूँगा तो फिर तू कैसे उत्पन्न होगा? ।। यह सयम के स्थानों मे बाधा का उत्पादक होता है इसलिये इसका नाम पद याधना है ७ । जो मनुष्य दृप्त-मदोन्मत्त होते है-उन्हों के द्वारा यह आचरित किया जाता है अतः इसका नाम दर्प है। यह वेदप मोहनीय कर्म के उदय से उद्भूत होता है इसलीये इममा नाम मोह है ९ । इसके निमित्त से चित्त में एक प्रकार की व्याकुलता उत्पन्न होती है इसलिये इसका नाम मनःसक्षोभ है १० । जिस समय इसका सो छ, तथा तेनु नाथ "सेवनाधिकार" छ, '६' से ५ विपाथी ते उत्पन्न थाय छ, तथा तेनु नाम " सकल्प "छे, पर छ "काम ! जानामि ते रूप, सकल्पात् किल जायसे । न त्वा सकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि ॥ १॥" હે કામ! હુ તારા સ્વરૂપને ઓળખું છું, તુ અવશ્ય માનસિક સંકલ્પથી જ ઉત્પન્ન થાય છે, તે હું તારે સ ૮૫ જ નહી કરૂ તે તુ ક્યાથી Grपन्न २१ ॥२॥ “” તે સયમના સ્થાનમાં મુશ્કેલીઓ પેદા કરનાર છે, તેથી તેનું નામ "पद्याधना" छ, '८' महोन्मत्त मनुष्य द्वारा १ ते सेवाय छ, तेथी तेनु " दर्प"छ, र त ३५ भाडनीय भना यथा उत्पन्न थाय छ, तथा તેનું નામ “” છે, ૧૦” તેને કારણે ચિત્તમાં એક પ્રકારની વ્યાકુળતા ઉત્પન્ન याय छ तेथी तेनु नाम “मन सक्षोभ" छ ११' न्यारे शरीरमा तेना Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ प्रश्न याकरणसूत्रे 'तीस हुति' त्रिंश भवन्ति 'तनहा' तानि यथा ' अरग ' अनम-अकुशला नुष्ठानम् १, 'मेहुण' मैथुन-मिथुनस्य-वीपुगयुगरम्य वर्ग मेयनम् २, 'चरत' चरत् ससारख्यापकम्३, 'ससगि' रासर्गि-तीमगमन्चसंजातम्४, 'सेरणाहि गारो' सेवनाधिकारस सेवनापाचौर्यादिप्रतिमेपनायामधिकारस, मधुनसेवी मायश्चोर्यादिपु प्रत्तो भवति । सकप्पो ' सङ्कल्प = मन्परिक पजातवाद सङ्कल्पः ६, उक्त चगुणनिष्पन्न (णामाणि) नाम (इमाणि) ये (तीम) तीस (धुति ) है । (त जहा) वे इस प्रकार है-(अपभ १, मेटणर, चरत३, ससग्गि ४, सेवणाहिगारो५, सकप्पो, वाणापदाण ७, दप्पोट, मोहोर, मणसम्बोभो१०, अणिग्गहो ११, विग्गहो १२ विघाओ १३, विभगो १४, विन्भमा १५, अहम्मो १६, असीलया १७, गामधम्मतत्ती १८, रत्ती १९, रागचिंता २०, कामभोगमारो २१, वेर २२, रहस्स २३, गुज्ज २४, यहुमाणो २५, यभचेरविग्धो २६. वायत्ती २७, विराहणा २८, पसगो २०, कामगुणो ३० त्ति वि य। तस्स ग्याणि एचमाइणि नामधेज्जाणि तीस हुति ) यह फर्म अकुशलानुष्ठानरूप है, इसलिये इसका नाम अब्रह्म है १ । स्त्री और पुरुष रूप मिथुन परस्पर मिलकर इसे करते हैं, इस लिये इसका नाम मैथुन है २। यह समस्त ससार में व्यापक है इसलिये इसका नाम चरत है ३ । स्त्री और पुरुपों के पारस्परिक ससर्ग से यह उत्पन्न होता है इसलिये इसका नाम ससर्गी है । जो मैथुन सेवी होता है वह प्रायाचौर्यादिकुकर्मों मे प्रवृत्त हो जाता है इसलिये इसका " इमाणि" मा “ तीस" श्रीस नाम “हुति" के "तजहा' ते ॥ प्रभारी छ “अबभ १, मेहुण २, परत ३, ससगि ४, सेवणाहिगारो ५, सकप्पो ६, पाहणापदाण ७ दप्पो ८, मोहो ९, मणसखोभो १०, अणिगहो ११, विग्गहो १२, विघाओ १३, विभगो १४, विन्भमो १५, अहम्मो १६, असीलया १७, गामधस्थतत्ती १८, रत्ती १९ रागचित्ता २०, कामभोगमारो २१, वेर २२, रहस्स २३ गुज्झ २४, बहुमाणो २५, बभचेरविग्यो २६, वावती २७, विराहणा २८, पसगो २९, कामगुणो ३० त्ति वि य । तस्स एयाणि एवमाइणि नामज्जाणि तीस हुति ' (१) मा उभं अनुशल मनुहान पाथी तेनु नाम "अब्रह्म" छ (२) सी मने पुरुषनु " भिथुन" (नई) ५२२५२ भजीन तेन सेवन ४२ छ, ते २णे तेनु नाम “ मैथुन" छ (3) ते समस्त ससारमा व्या५४ वाथी तनु नाम " चरत" (४) खी मन पुरुषना सरस १२सना मसाथी तत्पन्न थतु पाथी तेनु नाभ ., ससर्गा" छ, પ મિથન સેવનાર હોય છે તે સામાન્ય રીતે ચેરી આદિ કુક પણ સેવવા Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीका अ० ४ सू० २ अब्रह्मनामानि तल्लक्षणनिरूपण च ३९९ चिन्ता-चिन्तनम् २०, कामभोगमारः कामभोगमाररूपम्-कामरूप, भोगरूप, माररूप, चेत्यर्थः २१, 'वेर ' वैरत्वोत्पादकत्वात् २२, ' रहस्स' रहस्यम् =एकान्तसम्पादनीयत्वात् २३, 'गुज्झ' गुह्य-गोपनीयत्वात् २४, ‘पद्माणो' बहुमाना=बहु-अतिगयेन मानः आदरो यस्मिन् प्राणिना स २५,'वभचेरविग्धो' ब्रह्मचर्यविघ्न-ब्राह्मचर्यम्य-विधातमत्वाद् नि =विन्नभूतः २६, 'वावती' व्यापत्तिा विनाशः आत्मगुणविनाशकत्वात् २७, 'विराहणा' विराधना-चारित्र धर्मस्य पिराधमत्वात् २८, 'पसगो' प्रसग =स्त्रीपुमसयोगः २०, कामगुणः = शन्दादिविषयभोगजनकत्वात् ३० ‘ति पिय' इत्यपि च त्रिंशत्तम नाम । का उनके रूप लावण्य आदि का चिन्तवन होता है इसलिये इसका नाम रागचिन्ता है २० । यह कामरूप, भोगरूप और भाररूप होता है इसलिये इसका नाम कामभोगभार हैं २१ । इसके निमित्त से जीवो में परस्पर शत्रता उप्सन्न हो जाती है इसलिये इसका नाम वैर है २२ । यह कर्म एकान्त में किया जाता है इमलिने इसका नाम रहस्य है २३ । यह सदा गोपनीय होता है इसलिये इसका नाम गुह्य है २४ । इसमें प्राणीयां को अतिशय आदर भाव-सेवन करने में लालसा-रहता है, इसलिये इसका नाम बहुमान है २५ । यह ब्रह्मचर्य व्रतका विघातक होता है इसलिये इसका नाम ब्रह्मचर्य विघ्न है २६ । आत्मगुणों का इसमें विनाश रो जाता है इसलिये इसका नाम व्यापत्ति है २७ । चारित्र धर्मका यह विराधक होता है इसलिये इसका नाम विराधनाहै २८ । इसमें स्त्री और पुरुप दोनों के शरीर को संयोग होता है इसलिये इसका नाम प्रसग है २९ । शन्दादिक विषयो में यह भोगने की रूचिका जनक होता है इसलिये इसका नाम कामगुण है ३० । इस तेनु नाम " रागचिन्ता" छ, '२१ ते ३५, मान३५ भने भा२३५ खाय छ, तेथी तेनु नाम "कामभोगमार " छ '२२' ने जारो वामा ५२२५२ रमनावट पहा थाय छ, तेथीतेनु नाम "वैर" छ '२३' ते भातमा ४२तु डापाथी तेनु नाम “ रहस्य "छे, २४ ते सहनीय हाय छ, तथा तेनु नाम गुह्य" छ, २५ तेना प्रत्ये प्रामाने अत्यत मामादासमा २ छ, तथा तेनु नाम " बहुमान" छ, '२६ ते प्रायनतनु विधात तोवन' बाथी तेनु नाम" ब्रह्मचर्यविघ्न " छे “२७ तना सेवनयी बात्मवाना ना थाय छ, तथा तेनु नाम "व्यापत्ति' छ (२८) ते यात्रिधर्मनु विराध डापाथी तर्नु नाम "विरावना" छे (२८) मा स्त्री तथा पुरुषना शनी सयोग याय, तेथी तेनु नाम "प्रसग"230. Availes વિષયેના ઉપભાગની સચિત ન હોવાથી તેનું નામ “ fram છે ? Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ प्रश्नध्याकरणसूत्र मनसोऽनिषेधः ११ । 'ग्निहो' ग्रिडा-विग्रहकारियात् १२, 'विधाओ' पिघाता-चारित्रपिनाशरूपः १३, 'रिभगो' निमनः गयमादिगुणाना विशेषण भञ्जकत्वात् १४, 'विममो' रिभ्रमः = अनुपादेयेष्वप्युपादयत्वेन नानाविध भ्रान्तिजनकत्वात् १५, 'अहम्मो ' अधर्मः श्रुतचारित रक्षणधर्मप्रतिकल्ला १६, 'असीलया' अशीलता-चारिन पर्जितत्वात् १७, 'गामधम्मतत्ती' ग्रामधर्म प्तिः प्रामधर्मा' शब्दादयः कामगृणास्तेपातृप्तिः आसेचनम् १८, 'रत्ती' रवि -अशुभराग:१९, रागचिन्ता-रागारागारणलात् स्त्रीद्वाररूपलाण्यादिः तस्य आवेग शरीर में जागृत होता है उस समय इन्द्रिया अपना मन बेकाबू हो जाता है अतः इसका नाम अनियर है ११। इसके पीछे ही भयकरसे भयकर विग्रह उत्पात सड़े होते है इमलिये इसका नाम विग्रह है १० यह चारित्रका विघातक होता है। इसलिये इसका नाम विघात है १३ । सयम आदि गुणोका यह विशेपरूपसे भजक होता है इसलिये इमका नाम विभग है १४॥ जो अनुपादेय पदार्थ होते हैं उनमे भी यह उपादेयरूपस नानामकार की भ्रान्ति का जनक होता है इसलिये इसका नाम विभ्रम है १५ । श्रुतचारित्र रूप धर्म से यह प्रतिकूल है इसलिये इसका नाम अधर्म है १६ । इसमें चारित्र नही होता है इसलिये इसका नाम अशीलता है १७ । इसमें ग्रामधर्म जो शब्दादिक काम गुण हैं उनका सेवन होता है इसलिये इसका नाम ग्रामधर्म है १८। यह अशुभ रामरूप है इमलिये इसका नाम रति है १९ । इसमें स्त्रियों के श्रृंगार આવેગ જાગૃત થાય છે ત્યારે ઈન્દ્રિય તથા મન કાબૂમાં રહેતા નથી, તેથી तेनु नाम “अनिग्रह" '१२' तेने २६ १ सय ७२मा लय ४२ विश्र:Sun Sun थाय छ, तेथी तेनु नाम “विग्रह" छ, '१३' ते यानिनु विधात वाथी तेनु नाम "विघोत" छ, '१४ सयभ माहिशुशान Hr 'RA ४२ना२' डापाथी तेनु नाम “ विभग" , '१५' भनु॥ દેય પદાર્થો હોય છે તેમાં પણ ઉપાદેયરૂપે વિવિધ પ્રકારની બ્રાતિ “ભ્રમ” નું न पाथी ते "विभ्रम “ ४९ छ १६, तयारित्र३५ धमनी वि३८ डावाने पारणे ते “ अधर्म " ४९ छ १७' तेनु सेवन ४२नारमा याRA हातु नथी, तेथी तेनु नाम " अशीलता" छ, १८ तभी भाभधम ३२ Avaalks भगुर छ तेमनु सेवन थाय छ तेथी तनु नाम “ मामधर्माप्त" छ, “१८' छ पशुम राम ३५ पाथी तेनु नाम "रति" छ '२०' तमा સ્ત્રીઓના મૃગારનું તથા તેમના રૂપ લાવણ્ય આદિન ચિન્તવન થાય છે, તેથી Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोपा अ०४ सू० ३ मोहमयमनिभिस्तत्सेवनप्रकारनिरूपणम् ४०१ के ? इत्याह-'अमुर-भुयग गरुल-विजु-जल्ण-दीव-उदहि-दिसि-पचण थणिय अणपनिय - पणपन्निय-सिवाइय-भृयनाइय-करिय-महाफदिय-कहड- पयग देवा' र अमुराः अमुरकुमाराः, 'भुयग' भुजगाः नागकुमाराः 'गरुल' गरुडाः सुपर्णकुमारा. 'विनु' स्ठित् कुमाराः 'जगण' बटनाः अग्निकुमाराः 'दीर' द्वीपा:-कोपकुमाराः 'उदधिकुमारा 'दिसि' दिकुक्कुमारा 'पवण' वायुकुमारा' 'यणिय' म्तनितकुमारा , दशैते भानपतिदेवा । 'अण पन्निय पणपन्निय' अणपन्निका पगपन्निताः 'इसिवाइय' पिनादिकाः भूयवाइय' भूतबादिकाः 'कदिय ' कान्दिताः ' महासदिय ' महासन्दिताः 'कह' कुप्माण्टा' 'पयग' पताश्च ते च ते देवाः, एतेऽष्टौ व्यन्तरनिकायोपरिवर्तिनः। व्यन्तरदेवजातिविशेपा । तथा 'पिमाय-भूय-जरख-रक्खम-किणर-किंपुरिस महोरग-गया-तिरिय-जोहस-विमाणवामि-मणुयगणा' तर 'पिसाय' पिशाचा: ११'भूय' भूता २ । 'जाख' यक्षा. ३, 'रक्खस ' राक्षसा ४, 'किण्णर' किन्नरा ५, 'किं पुरिस' फिम्पुम्पा'६, 'महोरग' महोग्गा:७, 'गधव्य' गन्श्चि अप्माओ के माय (निसेविति ) सेवन करते हैं । तथा ( असुर भुयगगरूल-विज्जु -जलण-दीव-उदहि-दिसि-पवण-यणिय-अणपनियपणपनिय-इसिचाइय-भूयवाइय-कदिय-महाकदिय-क्रड पयग देवा) असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, दीप. कुमार,उदधिकुमार,दिकमार, वायुकुमार, स्तनितकुमार, ये१० दसभनवपति देव, तथा-अणपनिक, पगपन्निक, पिवादिक, भूतवादिक, ऋदित महाकन्द्रित कुष्माड, पतग, ये आठ व्यन्तरजातिके देव विशेप, (पिसाय भूय-जस्ख रक्खस-किन्नर-किंपुरिस- महोरग-गव्य-तिरिय- जोइसविमाणवासि-मणुचगणा ) तथा पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षम, किन्नर, रा" अ से माथे " निसेविति" सेवन २ छ तथा “ असुर, गरुल, विज्जु, जल्ण, दीवउदहि, दिसि, पवण, थणिय, अणपन्निय, पणपन्निय, इसिवाइय, भूयवाइम, कदिय, महाकदिय, कृहड पयग-देवा" असुरभार, नागभा२ सुप उभार, विद्युतमार, अभिभार, द्वीपमार, अधिभार, भार, વાયુકુમાર, અને સ્તુનિતકુમાર, એ દસ ભવનપતિ દેવ, તથા અણપશિ, પણ પશ્વિક વિવાદિત, ભૂતવાદિ, કદિત, મહાક દિત, અને પતગ, તે આઠ યન્તર तिना देव, “पिसाय, भूय, जम्स, रम्पस, रिन्नर, स्पुिरिस, महोरग, । गधच, तिरिय, जोइस, निमाणपासि, मणुयगणा” तथा पिशाय, भूत, यक्ष, રાક્ષસ, ડિનર, ત્રિપુરુષ, મહેગ ગધર્વ એ આ વ્યન્તર દેવ તથા તિર્યંન્ન Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० प्रश्नध्याकरण 'एयाणि' एतानि = पृक्तिानि माईणि ' परमादीनि अपत्यादीनि 'तस्स ' तस्य-अवलणः 'नाम जाणि ' नागधेयानि नामानि 'तीस' त्रिंशद् 'हुति' भान्ति ॥ म०२॥ एमवामगः ' यानामे' ति द्वितीयमन्तारमुक्तम् । अय तृतीय चतुर्थचान्त रिमनुस्त्या साम्मत ये च कुन्ती' इत्येतत्पश्चममतारमाह-'त च पुण' इत्यादि मूलम्---त च पुण निसेविति सुरगणा स अच्छरा मोहमोहियमई - असुर-भुयग-गरुल-विज्जु-जलण-दीव-उदहिदिसिपवण-थणिय अणपन्निय-पणपन्निय-इसिवाडय-भूयवादूय-कंदिय महाकंदिय-कूहड-पयंगदेवा, पिसायभूय-जक्ख रक्खस-किपणर-किपुरिस-महोरंग -- गधन्वा, तिरियजोइसविमाणवासि ~ मणुयगणा जल --- यर - थलयर खयरा य मोहपडिवद्धचित्ता अवितण्हा कामभोगतिसिया तहाए बलवइए महईए समभिभूया गठिया य अतिमुच्छियाय अवंभे ओसपणातामसेण भावेण अणुमुक्का दसण चरित्तमोहस्त पजर पिव करेंति अण्णमण्ण सेक्माणा ॥सू०३॥ टीका-'त च पुण' तच्चपुनरब्रह्म 'निसेनिति' निषेवन्ते । के ते! इत्याह-सुरगणाः देवसमूहाः ‘स अच्छरा' साप्सरसा-अप्सरोभिः सहिताः 'मोहमहिय' मोहमोहितमतय मोहेन-मोहिना मतिः बुद्धिर्येपा ते तथा । पुन प्रकार ये अनम आदि पूर्वोक्त तीस नाम इस चतुर्थद्वारके हैं । सू०२॥ अब सत्रकार तृतीय चतुर्थ द्वार को न कह कर पचम अन्तद्वारका कहते है- 'तच पुण' इत्यादि । टीकार्थ -(तच पुण) इस चतुर्थ द्वार अब्रह्म का(सुरगणा) सुरगण की जिनकी (मोह मोडियमई)मति मोह से मोहित हो रही है (स अच्छरा) પ્રમાણે ચોથા અધર્મ દ્વારના અન્નદ્દા આદિ ત્રીજા પૂર્વોક્તનામ છે . સૂ૨ / હવે સૂત્રકાર ત્રીજા તથા ચેથા દ્વારનું વર્ણન ન કરતા પહેલા પાચમાં भतारनु पर्जुन ४२ - "त च पुण" त्या साथ-'त च पुण" ते याथा दा२३५ मप्रझन "सुरगणा" सुराए । भनी “ मोहमोहियमई" मति माथी भाडित श्येस हाय छ “ समच्छ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ सुदशिनी टीका अ०४ सू. ३ चक्रात्यादि वर्णनम् य' ग्रयिताच रिपयगुम्फितमानसा', तथा ' अमुच्छ्यिाय' अतिमूर्छिताश्वअतिमोहातिशयमुपगताः 'जसमे भोसण्णा' अब्रमणि जामन्ना थुने समासक्ताः, 'तामसेण भावेण अणुमुका' तामसेन भावेन अनुमुक्ताः, तामसेन भावेनअज्ञानमवर्तितेन परिणामेन अनुमुक्ताः आरद्धाः सन्त , जन-'अन्नोन्न सेव माणा' इत्यग्रेण सम्बन्ध. अन्योन्य परस्पर पुरुपैः सह स्त्रियः, स्त्रीभिः सह पुरुषा इत्वयः सेनमाना: अब्रह्मसमाचरन्तः, 'दसणचरित्तमोहस्स' दर्शनचारित्रमोहस्य=' अत्र कर्मणः सम्बन्धमानविरक्षाया पष्ठो, दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयरूप द्विविध कर्म 'पजर पिर' पजरमिव 'करे ति ' कुर्वन्ति-अब्रह्मसेविनो देवोदयः खलु दर्शनमोहनीय-चारिनमोहनीयरूपपञ्जरे स्मात्मनि नयन्तीति भावः ॥१०॥ साम्प्रत चक्रवादीन् वर्णयति ' मुज्जो असुरसुर' इत्यादि मूलम्-भुजो असुर-सुर तिरिय-मणुय-भोगरति-विहार सपउत्ता य चकवट्टी-सुर-नरवाइ-समया, सुरवरव्व देवलोए सेवन करने की आज्ञा से गुफित मन होकर (अहमुच्छ्यिा य) उन विपयां मे अत्यत मोहको प्राप्त होते रहते है और (अवभे ओसण्णा) अब्रह्म के सेवन करने के लिये अत्यत आसक्त हो जाते हैं। (तामसेणभावेण अणुमुक्का ) तामसभाव से-अज्ञानप्रवर्तित परिणाम से-आवद्ध होकर परस्पर मे-एक दूसरे के साथ पुरुप के साथ स्त्री, और स्त्री के साथ पुरुप रमण करने लग जाते है। इस तरह ( अन्नोन्न सेवमाणा) इस अव्रामरूप पापकर्मको सेवन करने वाले ये देवादिक अपनी आत्मा को (दसणचरित्तमोहस्स पजर पि व करेति)पजर के जैसे दर्शन मोहनीय एव चारित्र मोहनीय कर्म मे निक्षिप्त कर देते है। अर्थात् इन कर्मों का वध करते ह ॥ सू० ३॥ । तेसा व्याज थाय छ तेथी “ गढियाय " विषयानु सेवन ४२पानी माशामा सीन थाने “अइमुच्छियाय,, तेभनु भन ते विषय। प्रत्ये सत्यत भाडामत थया ४२ छ, भने “ अबभेओसण्णा" तेसो भैथुननु सेवन ४२वाने सत्यत मासत थाय छे भावेण अणुमुका" तामस सारथी-मज्ञान प्रतित पा२॥मथा. જકડાઈને પરસ્પરમા-પુરુષની સાથે સ્ત્રી, અને આની સાથે પુરુષ-રમણ કરવા दी तय छे मा शत “ अन्नोन्न सेवमाण " मा मझयय ३५ ५।५४मनु सेवन ना२ पाहि पाताना मामाने "इसणचरित्तमोहस्स पजर पि व करे ति'પિંજરા જેવા દઈનમેહનીય અને ચારિત્ર મેહનીય કર્મમાં નાખી દે છે એટલે કે તે કર્મોને બધ બાધે છે સૂ૦ ૩ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न याकरण ८, एतेऽष्टो व्यन्तरभेदाः । तथा तिरिय-जोडस-निमाग-पामि तिर्यग्ज्योतिर्वि मानमासिनः तिरधि-तिर्यग्लोके यानिज्योतिर्विमानानि तेपु निगासिनोऽमरुयाता ज्योतिफाः 'मणुय ' मनुना'मनुप्याश तेपा गणा: समृगाः । तथा 'जलयर थलयर खह-चराय ' जलचर स्थलचर सेवराय, तर जरचरा = मत्स्यादयः, स्थलचरागोमरियादय मेचराय-पक्षिणरते तया, पते सर्ने मथुन निपवन्त इति पूर्वेण सम्पन्यः । कीदृशास्ते इत्यार-मोहपडियाद्वचिवा' मोहमतिबद्ध चित्ताः मोहेन=अज्ञानेन प्रतिबद्व ग्रसित चिच येपा ते तथा 'अस्तिहा' अवितृष्णाः विपयलोलुपा:-माप्तामोपमोगेनाप्यनुपशान्तचित्ता इत्यय', 'काम भोगति सिया' कामभोगपिताः-अप्राप्त रागभोगेषु तत्प्राप्तिचिन्तापरायणा, एताशास्ते 'चलाईए' पलपत्या-प्रगाढया 'महईए' महत्या विशालया 'तण्हाए' तृष्णया विषयवान्छया 'अभिभूया' अभिभूता =अान्ता 'गढ़िया किं पुस्प, मोरग,गधर्व, ये आठ व्यन्तर देव, तया तिर्यग्लोक में जितने ज्योतिपियों के विमान है उन विमानों में रहने घाले असरयात ज्यो तिपी देव, तथा मनुष्यों का समूह, (जलयरधलयरखहचरा य) मत्स्य आदि जलचर जीव, गोमहिपी आदि स्थलचर जीव, एव आकाश में उड़ने वाले पक्षी, सर मैयुन सेवन करते हैं। क्यों कि ये सब (मोहपडियद्धचित्ता) अज्ञान से ग्रसित हे चित्त जिन्हों का ऐसे होते हैं । एव (अवितण्डा) प्राप्तकामोपभोग मे भी इनका चित्त शात नहीं हो पाता है। कारण ( काम भोगतिसिया) जो कामभोग इन्हें प्राप्त नही होते हैं उनमें उनकी प्राप्तिकी आज्ञासे चिन्ता से इनका चित्त चलायमान होता रहता है । ऐसा इसलिये होता है कि ये (बलवईए) प्रगाढ एव (महईए) विशाल (तण्डाए) विषयाभिलाषा से ( अभि भूया) आफ्रान्त हो जाते है। इसीलिये ये (गढियाय ) विषयों के લોકમા જેટલા તિષીઓના વિમાન છે તે વિમાનમાં રહેતા અસ ખ્યાત ज्योतिष, तथा मनुष्यानो समूड, तथा “ जलयर, थलयर, खहचराय" મસ્ય આદિ જળચર છે, ગાય ભેસ આદિ સ્થળચર જીવ, અને આકાશમાં ઉડતા પક્ષીઓ, તે સૌ મૈિથુનનુ સેવન કરે છે, કારણ કે તે સૌના ચિત્ત "मोहपडियद्धचित्ता " अज्ञानथी १४आये। हाय छ, मन ,, अवितण्हा" કામગ ભેગવવા મળે તે પણ તેમના ચિત્તને શાંતિ મળતી નથી કારણ "कामभोग तिसिया " आमला तेभने प्रास या नथी तनी साससाथी तमता वित्त सायभान २९ छे अम यवानु २५ मे " बलवईए" प्रसाद भने “ महईए" विun “ तहाए " विषयानियापाथी “ अभिभया" Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ सुदशिनी टीका अ०४ सू०४ चक्रवत्यादिवर्णनम् मनुजा-मनुष्या-माडलिकादयश्च तेभ्यः-तत्सकाशाद् ये भोगा:-शब्दादयः, तेपु या रतिः अनुरागस्तेन ये पिहारा:-पिविषमकारचेठारूपाः क्रीडाः, तैः सम्पयुक्ताः सहिताः ये ते तथा के ते ? इत्याह-चपट्टी' चक्रवर्तिनः, कीदृशास्तेचक्रवर्तिन ? इत्याह-सुरनरबाट सक्या' सुरनरपतिसत्कृताःमुरै-दे वैः नरपतिभिः नृपैश्च, यद्वा 'पवि ' शब्दस्य प्रत्येक सम्म यात् सुरपविभिनेरपतिभिश्चेत्यर्थः, सत्कृता-सम्मानिताः, 'देवलोए' देवलोके 'सुरवरब' सुरवरा इप-महद्धिक देवा इव । देवलोके यया देवा. सुखमनुभवन्तः ‘भरहनगणगर - निगमजणवयपुरवरदोणमुहसेडकबडमडयसवाहपट्टणसहस्समडिय' तत्र ‘भरह ' भरतस्य-भारतर्पस्य सम्पन्धिनो ये नगाः पर्वताः 'णगर' नगराणि अप्टादगारवर्जितानि, 'णिगम' निगमायणिग्जननिनासाः 'जणवय' जनपदाः देशा', पुरपराणि-राजधानीरूपाणि, 'दोणमुह' द्रोणमुखानि-जलस्थलमार्गयुक्तोनि 'खेड' सेटानिधृलिमाकारमयानि 'कबड' कटानिप्राणियों मनुष्यों-माडलिक राजाआदि जनों के द्वारा संपादित शब्दादिक भोगो में अनुराग जन्य विविध प्रकारकी चेष्टारूप क्रीडाओं से युक्त ऐसे(चकवटी)चक्रवर्ती भी इन कामभोगो से तृप्त नहीं होते हैं (सुरनरवहसकया) जो चक्रवर्ती सुरों से-देवताओं से, अथवा सुरपतियोंइन्द्रों से एव नरपतियों-राजाओं से विशेषरूप में सदा सन्मानित किये जाते हैं तथा ( देवलोए सुरवरव्व ) जिस प्रकार देवलोक में महद्धिक देव सुखोंको भोगा करते हे उसी प्रकार जो सुखाको भोगते हैं। तथा जो ( भरहनग णगर-णिगम-जणवय-पुरवर-दोणमुह- खेडकबड--मडंव सवाहपण सहस्स मडिय) भारतवर्षसमधी हजारो १८अठारप्रकार के करों से रहित नगरों से, वणिगजननिवासभूत हजारो निगमों से, हजारों देशों से, राजवानियारूप श्रेष्ठ पुरो से, जलमार्ग स्थलमार्ग રાજા આદિ લેકો દ્વારા સંપાદિત રાખ્યાદિ ભેગમાં અનુરાગ જન્ય વિવિધ जानी येष्टा३५ माथी युत शवा “ चक्वट्टी" यता पy भलाणाथी तृस यता नथी “सुरनरवइसक्या "२ यती सानु वताया વડે, સુરપતિઓ ઈન્દ્રો વડે અને નૃપતિઓ વડે સદા વિશેષરૂપે સન્માન કરાય छ, तथा “देवलोए सुरवरव" Rasमा म भद्धि देव सुमो सासव्या કરે છે, એ જ પ્રમાણે જે સુખ ભોગવે છે, એવા ચકવર્તીએ પણ કામગોથી तृप्ति पामता नथा, तथा २ "भरह-नग-णगर-णिगम-जणवय-पुरवर-दोणमुहखेडक बड-मड़ा-सपाह-पण-सहरस-मडिय "मारतवपना । पर्वताथी, અઢાર પ્રકારના કરોથી રહિત નગરથી, વણિક લેકે રહેતા હોય એવા હજારો નિગમેથી, હજારો દેશથી, હજારે ગજધાનીરૂપ શ્રેષ્ઠ શહેરોથી, જળમાર્ગ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You प्रश्नव्याकरणसूत्रे भरह-नग णगर-निगमजणवय-पुरवणदोणमुह सेड कबडमडवसवाहपट्टणसहस्त-मडिय-थिमिय-मेयणियं एगच्छत्त ससागर भुजिऊणवसुह नरसीहा-नरवई-नरिंदा-नरवसहा मरुयवसभकप्पा अन्भहिय रायतेयलच्छीए दीपमाणा सोम्मा रायवंसतिलगा रवि-ससि-लख-बरचक तोत्थिय पडाग-जवमच्छकुम्मरहवर-भग-भवण-विमाण-तुरग-तोरण-गोपुर मणि रणय-नदियावत्त-मुसल-लगल-सुरइयवरकप्प स्क्स मिगवा -भद्दासण-सुरुइ-थूभ बरमउड-सरिय-कुडल कुजर-वरवसभ दीव-मदर-गरुलज्झय-इदकेउ-दप्पण--अट्टा-वय-चाव-वाणनक्खत्त मेह-मेहल-वीणा-जुग-छत्त-दाम-दामिणि कमडलकमल-घटा-वरपोत सूची-सागर कुमुदागर-मगर-हार गागरनेउर-णग-णगर-वइर-किण्णर-मयूर-वररायहस-सारस-चकोर चक्कवाग मिहण ग्रामर-खेडग-पवासग-विपचि-वरतालियटसिरिया-भिसेय-मेयणि-खग्ग-कुस-विमल कलस-भिगार-वद्धमाणगपसत्थउत्तमविभत्तवरपुरिसलक्खणधरा ॥ सू० ४ ॥ ___टीका-'भुज्जो' भूय =पुनरपि 'अमुर-सुर-तिरिय मणुय भोगरइ-विहा रसंपउत्ताय ' असुरसुरतिर्यमनुजभोगरतिविहारसमयुक्ताश्च तत्र असुराव्यन्तराः अन-असुरशब्देन व्यन्तरा गृह्यन्ते, सुरा =यक्षा', तिर्यश्च: अश्वरत्नगजरत्नादया, ___ अर सूत्रकार चक्रवर्ती आदि को का वर्णन करते हैं-'भुजा असुर०' इत्यादि। टीकार्थ -(असुर-तुर तिरिय मणुय भोगरइ विहारसपउत्ताय) असुरों - व्यन्तरदेवो, सुरो - यक्षों तिर्यचों-अश्वरत्न गजरत्न आदि सूत्रा२ यवती माहिन पान ४२ छ-" भुजो असुर "त्यादि "असुर, सुर, तिरिय मणुय, भोगरइविहारसपउत्ताय " मसुरी-व्यत२ वो, સુરે, યક્ષો, તિર્યંચો-અધરત્ન, ગજરત્ન, આદિ પ્રાહિએ, મનુએ માલિક Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ सुर्दाशनीटीका अ० ४ सू० ४ चक्रवादि वर्णनम् माण्डलिकास्थाऽपेक्षयोक्तम् । अये तु 'हिमवतसागर त धीरा भोत्तूणभरहवास' इत्युक्त तत् चक्रातिपदमाप्त्यनन्तर समस्तभरतक्षेनभोक्तृत्वापेक्षया प्रोक्तमिति योध्यत् चक्रवर्तिन एव विशिनप्टि, ' नरसीहा' नरसिंहाः नरेपु सिंहा इव शौर्या. दिमत्त्वात् ' नरवई ' नरपतय =नराणा स्वामिकत्वात् 'नरिंदा' नरेन्द्राः नरेषु इन्द्रभूतत्वात् 'नरसहा' नरटपमाराज्यधुराधरणसामर्थ्यात् 'मरुयवसभाप्पा' मरुजपभकल्पा: माना =मरुदेशोत्पन्नाः वृपमा बलिबर्दाः, तकल्पाः तत्त्समानाः ये ते तथा मरुदेगरपमाहि गरीरसम्पत्त्या बहुभारवहनसमर्या भान्तीति तैः सहोपमानम् । ' अभहि य' अभ्यधिरम्-अत्यधिक यथास्यात्तथा 'रायतेयलच्छीए दीपमाणा' राजतेजोलम्या दीप्यमानाः राजप्रतापश्रिया देदीप्य मानाः 'सोम्मा' सौम्याः शान्तस्वरूपाः 'रायरसतिलगा' राजवशतिलकाः राजकुमण्डनभूताः, तथा ' रविः मूर्यः १, 'ससि' शशी चन्द्रः २, 'सख' विशिष्ट शौर्यादि सपन्न होने के कारण नरो में सिंह की तरह होकर नरसिंह (नरवई) मनुष्यों के स्वामी होने के कारण नरो के पति (नरिंदा) नरो में इन्द्र जैसे होने के कारण नरेन्द्र (नरवसहा ) समस्त राज्य धुराके धारण करने में सामर्थ्यशाली होने के कारण मरुज वृपम जैसेमारवाड़ के पलीवर्द जैसे-मारवाड़ के बैल अपनी शरीररूपी सपत्ति से बहुत अधिक भार को वहन करने वाले होते है-इसलिये उन के साथ यह सादृश्य घटित किया है। तथा ( अभदिय रायतेयलन्छीए दीप्पमाणा ) बहुत अधिकरूप में राजलक्ष्मी से देदीप्यमान, (सोम्मा ) शांतस्वरूप और ( रायवसतिलगा) राजकुल के मडनभूत होते हैं एव जो (रविससितववरचक) रवि शशि शख चक्र इत्यादि-लक्षणो के धारण करनेवाले, अर्थात्-रवि-सूर्य शशि-चद्रमा तथा शख, श्रेष्ठचक्र શૌર્ય આદિથી યુક્ત હોવાને કારણે નરેમાં સિહ જેવા હોવાથી નરસિહ, “ नरबई " भनुष्याना स्वामी डावाने जाणे नृपति, “ नरिंदा " नरेभा छन्द्र समान डावायी नरेन्द्र, “ नरवसहा " समस्त शयधुशनु वान ४२वाने સમર્થ હોવાને કારણે નરવૃષભ અથવા મરુજવૃષભ જેવા, -મારવાડના બળદ જેવા-“મારવાડના બળદ મજબૂત હોવાને કારણે વધારે ભાર ઉપાડી શકે છે तथा तेमनी साया म२४ामणी ४२वामा मापी छे' तथा 'अब्भहियरायतेयलच्छीए दीपमाणा" सभी 43 गई पधारे हीप्यमान, " सोम्मा" शान्त ३५सीभ्य, मन" रोयवसतिलगा" २१४ानी २३मात ४२।२१, भने रे " रविससिसञ्जवरचक" " सूर्य, यन्द्र, शम य" ઈત્યાદિ લક્ષણેને ધારણ કરનારા, એટલે કે સૂર્ય ચન્દ્ર, શિખ, શ્રેષ્ઠ ચક, Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬ प्रशयाकरणसूत्रे ' " अल्पजन निवासस्थानानि 'मटव' मडना=सार्थकीयग्रामातरन्याः सत्राहाः =धान्यादिरक्षणदुर्ग विशेषा ' पट्टण पचनानि=मालवस्तुमाप्तिस्थानानि चेत्पे तेपा यानि सहस्राणि तै: 'मडिय ' मण्डिता या सा तथा ता 'ग्रिमियमेयणिय' स्तिमित मेदनीका निथलमजा निरस्तसमस्तानुजना द्विभयरहितजनयुक्ताम्, ' एगच्छत्त ' एकच्छत्राम्=उतर भूपतीना तातिवादेकस्यैव राज्ञः स्वातन्त्र्येण प्राधान्यादेकमेव छत्र यत्र सा तथा ता, तथा 'ससागर 'ससागग समुद्रसहित वसुह' वसुधा=पृथिनीं - भरताद्वदिरूपा 'सुमिरण' शुक्लाद चक्रवर्त्तिनो वाले हजारो द्रोणमुखोसे से, धूलिमाकारमय हजारो सेटों से, अल्पजननिवासभूत हजारों कनेटो से अढाईकोशनक ग्रामान्तरों से शून्य हजारो मडनों से, हजारों सवारों से वान्यादिकों की जिनकेद्वारा रक्षा की जाती है ऐसे दुर्गविशेषों से एव सकल वस्तुओं की प्राप्ति के स्थानभूत हजारों पत्तनों से मंडित (थिमिय मेयणिय ) तथा शत्रु आदि के भय से रहित होकर प्रजाजन जिसमें आनद के साथ निवास कर रहे है ( एगच्छत्त ) और जिस में किसी अन्य राजा कीस्वतंत्र आज्ञा नहीं चलती है - दूसरे राजाओं के होनेपर भी उसी एक के वशवर्ती होने के कारण स्वतंत्र रूप से अपनी आज्ञा नहीं चला सकते है किन्तु उसी एक की आज्ञा के अनुसार ही अपनी आज्ञा चलाते हैं, ऐसी स्थिति वाला साम्राज्य जहां होता है - उस साम्राज्य सपन्नभूमि को एकछत्र वाली भूमि कही जाती है । ऐसी ( ससागरा) आसमुद्रान्त - (वसुर ) पृथिवी को - भरतार्द्ध रूप भूमि को ( भुजिऊण ) भोगकर के ( नरसीहा) जो ― = " સ્થળમા વાણી હજારા દ્રોણુમુખાથી, ધૂળના કિંડલાવાળા હજારો ખેટાથી, ઘેાડી વસ્તીવાળા હજારો કટાથી, જ્યાથી અઢી ગાઉ સુધી ખીજા ગામે ન હોય તેવા હજારા મડમેથી, હજારો સવાહેાથી-( ધાન્યાદિની જેનાથી રક્ષા કરાય છે એવા દુ વિશેષા) અને સઘળી વસ્તુના પ્રાપ્તિ સ્થાનરૂપ હજારા પત્તનાથી " थिमियभेयाणियं યુક્ત, તથા શત્રુ આદિ ભયથી રહિંત મનીને પ્રજાજન नेमा ज्ञानपूर्व २हे, " एगच्छत्त " सने नेमा जील अर्ध शमनी સ્વતંત્ર આજ્ઞા ચાલતી નથી–બીજા રાજાએ હૈાવાછતા પણ તેઓ તે એકને જ “ ચક્રવતી રાજાને ” વશ હોવાને કારણે સ્વતંત્ર રીતે પેાતાની આજ્ઞા ચલાવી શકતા નથી પણ તે એની આજ્ઞા પ્રમાણે તેમને વવુ પડે છે, એવી સ્થિતિવાળુ સામ્રાજ્ય જયા હોય છે, એ પ્રકારના સામ્રાજયવાળી ભૂમિને એક છત્ર નીચેની ભૂમિ કહે છે એવી ससागर समुद्रना भन्त सुधीनी "वसुह पृथ्वीने- लरतार्द्ध३५ लूभिने “ भुजिऊण " लोगवीने " नरसीहा " ने विशिष्ट 27 ܕ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ४ सू० ४ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् ४०१ प्रसिद्ध ४५, 'उत्तर प्रसिद्ध ४५, दाम-माग ४७, 'दामिणि' दामनीरज्जु:४८, 'कमडलु' कमण्डलु जलपानविशेपः, प्रतीतः४९, फमल-मतीत५०, घण्टा-गतीता ५१, 'वरपोय ' वरपोतः नौरा ५२, 'सुई' सूची-वस्त्रसीवनसाधन ५३, 'सागर' सागर। समुद्र ५४, 'कुमुदागर' कुमुदाकरः= कुमुदवन ५५, ' मगर' मकरः५६, हार'-प्रतीत.५७, 'गागर' इति स्त्रिय आभग्णविशेषः, ५८, ' नेउर' नूपुर-पदभूपण ५९, ' णग' नगा=पर्वतः६०, 'णगर' नगर-प्रमिद्व ६१, 'वडर ' बन्न ६२, 'किण्णर' किन्नर' व्यन्तरदेव विशेष:६३, मयूरः प्रसिद्ध ६४, 'वररायहम' परराजहसः प्रशस्तराजहस:६५, सारसम्मसिद्ध -पक्षिविशेष ६६, 'चकोर ' चकोर:६७, 'चक्मागमिहुण' चक्राकमिथुन चक्रवाकयुगल ६८, चामर-प्रतीत ६९, ' खेडग' खेटक'ढाल' इति भापा प्रसिद्ध ७०, 'पन्बोसग' इति वायविशेषः देशी शब्दोय ७१, 'विपंचि । विपञ्ची-मप्ततन्त्रीमीणा ७२, 'वरतालियट' वरतालचन्त-प्रशस्ततालव्यजन ७३, 'सिरियाभिसेय' श्रीकाऽभिपेका लक्ष्म्या अभिपेकः७४, 'मेयणि ' मेदिनी पृथ्वी ७५, 'खग्ग' खङ्गः७६ ' अकुस ' अङ्कुशः असिद्धः ७७, 'पिपलकलम' विमलफलश-उज्ज्वलकलश:-७८, 'भिंगार' भृङ्गार:-पानविशेपः 'झारी' इति भापा प्रसिद्धः७९, 'वद्धमाणग' वर्धमानका शरावः८०, चेत्येकधो पर रखा जाता है, उत्त-छत्र, दाममाला, दामनी-रस्सी, कमडलु कमल, घटा, नौका,सुई, समुद्र, कुमुदवन, मकर, हार, गागर,-स्त्रियोका एक प्रकार का आभूपण,नपुर-पद्भपण, पर्वत,नगर,वज्र, किन्नर जातिके व्यन्तरदेव, मयूर, प्रशस्त राजहम, सारलपक्षी, चकोर, चक्रवाक का जोड़ा, चामर, खेटक-ढाल, पव्वीसग-इस नामका एक वाद्यविशेप, विपञ्ची-सात तार वाली वीणा, सुन्दरताडवृक्ष का पखा, लक्ष्मी का अभिषेक, पृथिवी, खज-तलवार, अकुश, उज्ज्वलकलशभृगार, वर्तमानक-शराव, इन सब के चिन्हों को कि जो प्रशस्त चक्रवर्तित्व के सूचक धूसरी, , हामभासा, हामनी-२२सी, उभ 31, उभ, घट, नौ। साय, समुद्र, કુમુદવન, મગર, હાર, ગાગસ્ત્રીઓનું એક પ્રકારનું આભૂષણ, નપુર-ઝાઝર, पत, नगर, 41, नि२ तीन व्यत२ , मयूर,, प्रशन्त रास, सा२मपक्षी, २२, यथाउनु न, याभ२, ढास, ५०पीसग-४ वाचविशेष, વિપ ચી-સાત તાર વાળો વીણું, સુદર તાડવૃક્ષને પખે, લક્ષમીને અભિષેક, પૃથિવી તલવાર, અ કુશ, ઉજજવળ કળશ, ભૂગાર, વદ્ધમાનક-શરાબ, એ બધા ચિહે કે જે પ્રશસ્ત ચક્રવર્તિત્વના સૂચક અને શ્રેષ્ઠ હોય છે તથા જે प्र०५२ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ प्रश्नध्याकरण शहामतीत ३, 'यरचा परचक श्रेष्ठचा ४, मोथिय' म्वस्तिक' चतुष्करिशेपः ५, 'पडाग' पताका-जा ६, 'जा' याम्यनामन्यातो धान्यविशेषः ७, 'मन्छ' मत्स्या प्रसिद्ध 'कुम्म जमा कन्छपः९, 'कर' रथवर' पिशिष्ट रथ:१०; 'भग' योनिः११ 'मपण' भान-भामाद.१२ 'रिमाणा'विमान प्रतीत १३, ' तुरग' तुरगः अश्वः १४, 'तोरण ' तोरण बहिर १०, गोपुर नगरद्वार १६, मणि चन्द्रकान्तादिकः १७, 'रयण' रत्नानादिक १८, 'नदियावत' नन्यापर्तः = नाकोणस्वस्तीकरिशेप १९, 'मुसर' मुसल प्रसिद्ध २०, 'लागल' लागल छल २१, 'मुरहयरकप्पारख' सुरचितपरकल्प वृक्ष मुरचित =मुष्टु कृतो यो वर=श्रेष्ठ कल्पना भया मुरतिद गुग्वादः कल्परक्षः २२, 'मिगाइ' मृगपति -सिंहः २३, 'भहासण' भवामन सिंहासन २४, 'गुरुइ ' मुमचिः आभूपणविशेपः२५, 'धूम' स्तूपः स्तम्माविशेषः २६, 'वरमउड' वरमुकुट श्रेष्ठमुकुट २७, 'सरिय' मुक्तापली देशी शब्दोऽय २८, 'कुडल ' कुण्डलकर्णामरण २९, 'कुजर ' कुञ्जर'-दस्ती ३०, 'वरवसभ' वरटपभ.३१, 'दोष ' द्वीप ३२, 'मदर' मन्दमन्दराचल.३३, 'गरुल' गरुड =प्रसिद्ध'३४, ‘झय 'पना प्रतीत ३५, ' इटके ऊ' इन्द्रकेतुः= इन्द्रश्चनः३६, 'दपण' दर्पण =प्रसिद्धः ३७ 'अट्टापय ' अप्टापदधुतफलक ३८, 'चाव ' चापा-धनु:३९, गाण'-प्रतीत.४०, 'नखत्त' नक्षत्र ४१, ' मेह' मेघा प्रसिद्धः ४२, 'मेहल' मेखलाकाञ्ची ४३, पीणा-प्रतीता ४४, 'जुग' युग-पभस्कन्ये स्थाप्यमानःशकटारिशेप', 'जुहाडा' इति भाषा स्वस्तिक, पताका, यव मत्स्य, कूर्म, विशिष्ट रथ, योनि, भवन, विमान तुरग, तोरण,गोपुर, चन्द्रकान्तादिकमणि,कर्केतनादिरल,नवकोणवाले स्वस्तिक, मुसल, लागल, सुरचित-सुन्दर श्रेष्ठकल्पवृक्ष , सिंह, भद्रासन सिंहासन, सुरुचि इसनामको एक आभूषण विशेप, स्तूप,-स्तभविशेष, श्रेष्ठमुकुट, मुक्तावली, कुउल, कुजर हाथी, सुन्दरबैल, द्वीप, मरदाचल, गरूड, ध्वजा, इन्द्र वजा, दर्पण, अष्टापद-तफलक, चाप-धनुष, बाण, नक्षत्र, मेघ, मेखला-काची, वीणा, युग-गाडी का जुआ-जो बैलो के स्वस्ति:, पता, यव, मत्स्य, भी, विशिष्ट २०, योनी, भवन, विमान, तुर॥ તોરણ, ગેપુર, ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણિ કર્યેતનાદિ રત્ન, નવલેણ વાળા સ્વસ્તિક મુસલ, લાગલ, સુરચિત સુદર શેક કલ્પવૃક્ષ,સિંહ, ભદ્રાસન-સિંહાસન, સુરૂચિ એક આભૂષણ, સ્તૂપ–સ્ત ભ વિશેષ, શ્રેષ્ઠ મુગટ, મુક્તાવલી, કુંડલ કુજરहाथी, सुह२ वृषभ, द्वीप, भरायस, ३७, qt, छन्द्रन, , मष्टापधूत ३१४, धनुष्य मा, नक्षत्र, मध, मेममा-२, पीला, युग-डीजी Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3D सुद शनी टीका म०४ सू०५ चम्चत लक्षणनिरूपणम् ४११ उरताचाउराहि सेणाहि समणुजाइज्जमाणमग्गा तुरंगवई गयवई रहबई नरवई विउलकुला वीसुयजसा सारयससिसकल सोम्मवयणा, सूरा, तिलोक निग्गयपभावा लद्धसदा समत्त भरहाहिवा नरिदा ससेलवणकाणणं च हिमवतसागर त धीरा भोत्तूण भरहवास जियसत्तपवररायसीहापुवकडतवप्पभावा निविट्ठसचियसुहा अणेगवाससयमाउन्वतो भजाहि य जयवयप्पहाणाहि लालियता अतुल सदफरिसरसरूवगधे य अणुभवित्ता तेवि उवणमंति मरणधम्म अवित्तित्ता कामाणं ॥ सू० ५॥ टीका:-'वत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा' द्वात्रिंशद् राजवरसहस्रा नुयातमार्गाः द्वात्रिंशद् यानि राजवराणा-राजपमुखाना सहस्राणि तैरनुयात अनुगतो मार्गों येपा ते तथा अनुगामि द्वात्रिंशत्सहस्रराजप्रमुखानामधिपतय इत्यर्थः, 'चउसद्विसहस्सपवरजुवतीणयणकता । चतुः--पष्टिसहस्रप्रवरयुवतिनयनकान्ताः चतुःपष्ठिसहस्रप्रौढतरुणीना नयनकान्ताः नघनमियाः स्वामीन इत्यर्थः ‘रत्तामा' रक्तामा रक्ता-पिमलशोणीतमाहुल्याद् रक्तवर्णा आमा फिर वे चक्रवर्ती कैसे होते हैं सो कहते है-'घत्तीसरायवर०' इत्यादि। टीकार्थ:- (बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा) जिनके पीछे २ यतीस हजार मुकुटबद्ध राजा चला करते है, अर्थात्-जो अपने अनुगामी ३२ हजार नरेशों के अधिपति होते हैं । (चउसद्विसहस्सपवर जुवतीनय णकता) तथा ६४ चोसठ हजार सर्वश्रेष्ठ युवती स्त्रियो के नयनों को जो आनदप्रद होते है अर्थात् उनके स्वामी होते है, तथा (रत्ताभा)जिनके पतिमा वा खयतनु सूत्र॥२ १ पान उरे छ-"बत्तीस रायवर"त्याही साथ-"बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमगा" रेमनी ५७१ मत्रीस १२ भुगटધારી રાજાઓ ચાલે છે–એટલે કે જે તેમના અનુગામી બત્રીસ હજાર નૂપ तियाना मधिपति डाय छे "चउसद्विसहस्सपवरजुवतीनयणकता" यास। હજાર સર્વશ્રેષ્ઠ યુવતીઓના નવેનેને જે આનંદદાયી હોય છે, એટલે કે તેમના स्पाभी डाय छ, तथा " रत्तामा " मना शरीरनी मामा विभण २४तना Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० - प्रनाम्याबरमहरू सानि, 'पसत्य ' प्रशस्तानियापतित्वाकानि उत्तमानि उमष्टानि 'विभव' विभक्तानि स्पष्टानि यानि 'परपुरिसरमण' परपुम्पलक्षणानि-परपुरुषाणांमहापुरुषाणा लक्षणानि हस्तरेखादिरूपाणि मावस पानि तानि धारयन्ति ये ते तथा सूर्यचन्द्रशचकादिरूपविशिष्टचावर्तिलक्षणपन्तः तेऽपि कामभोगेरवितृप्ता एव मरणधर्म प्राप्नुपन्तीति सम्पन्धः ॥ सू० ४ ॥ पुनस्ते चक्रवर्तिन कीदृशाः? इत्याह-पत्तीस ' इत्यादिमूलम्-बत्तीस-रायवर-सहस्साणुजायमग्गा उसट्टिसहस्स पवर जुवतीणयणकता रत्ताभा परमपम्हकोरटगदामचपगसु. तवियवरकणक-निघसवण्णा सुजाय सवंगसुदरगा महग्यवरपट्टणुग्गयविचित्त रागएणी-पएणी-निम्मिय दुगुल्ल वरची णपट्टकोसेज-सोणीसुत्तकविभूसियगा-वरसुरभिगध-वरचुण्णवासवरकुसुमभरिय-सिरियाकप्पियछेया-बरियसुकयरइयमालकडगंगयतुडियवर-भूसणपिणद्धदेहा एगावलिकंठसुरइयवच्छा पालव पलवमाणसुकयपडउत्तरिजामुदिया पिगलंगुलिया उज्जल नेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा तेएण दिवाकरोव्वदित्ता सारयनवत्थणिय-महुर-गंभीर-निद्धघोसा उप्पण्ण समत्तरयणचकरयणपहाणा नवनिहिवइणोसमिद्धकोसा चाएन उत्कृष्ट होते है तथा जो रेखारूप में स्पष्ट झलकते थे-और जो महापुरुषों के हस्त आदिकों मे रेखादि रूप में पाये जाते हैं इन सब को धारण करने वाले होते है। ऐसे महाभाग्य शाली चक्रवर्ती भी कामभोगो से अतृप्त रोकर ही मृत्यु को प्राप्त करते है। इस प्रकार का सबध इस सूत्र की व्याख्या करते समय लगा लेना चाहिये ॥ सू०४ ॥ મહાપુરુષોના હાથ આદિમા રેખાઓ રૂપે જોવા મળે છે. તે બધા ચિહ્નોને ધારણ કરનારા હોય છે એવા મહાભાગ્યશાળી ચક્રવર્તી રાજાએ પણ કામ ભેગોથી અતપ્ત રહીને જ મૃયુ પામે છે એ પ્રકારને સ બ ધ આ સૂત્રની વ્યાખ્યા કરતી વખતે સમજી લેવાને છે સુo ૪ ૫. Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद शनी टीका म०४ सू०५ चवीलक्षणनिरूपणम् ४११ उरताचाउराहि सेणाहि समणुजाइजमाणमग्गा तुरंगवई गयवई रहवई नरवई विउलकुला वीसुयजसा सारयससिसकल सोम्मवयणा, सूरा, तिलोक निग्गयपभावा लद्धसदा समत्त भरहाहिवा नरिदा ससेलवणकाणणं च हिमवतसागर त धीरा भोत्तूर्ण भरहवास जियसत्तपवररायसीहापुवकडतवप्पभावा निविट्रसचियसुहा अणेगवाससयमाउव्वतो भजाहि य जयवयप्पहाणाहि लालियता अतुल सदफरिसरसरूवगंधे य अणुभवित्ता तेवि उवणमति मरणधम्म अवित्तित्ता कामाणं ॥ सू० ५ ॥ टीका:-'बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा' द्वात्रिंशद् राजवरसहस्रानुयातमार्गाद्वात्रिंशद् यानि राजवराणा राजप्रमुखाना सहस्राणि तैरनुयातःअनुगतो मार्गों येपा ते तथा अनुगामि द्वात्रिंशत्सहस्त्रराजप्रमुखानामधिपतय इत्यर्थः, 'चउसहिसहस्सपवरजुवतीणयणकता । चतुः--पष्टिसहस्रप्रवरयुवतिनयनकान्ताः चतु.पष्ठिसहस्रमौढतरणीना नयनकान्तानघनमियाः स्वामीन इत्यर्थः 'रत्ताभा' रक्तामा रक्ता-विमलशोणीतनाहुल्याद् रक्तवर्णा आमा फिर वे चक्रवर्ती कैसे होते है सो कहते है-'घत्तीसरायवर०' इत्यादि। टीकार्थ:- (बत्तीसरायवरसहस्साणुजायमग्गा) जिनके पीछे २ घतीस हजार मुकुटबद्ध राजा चला करते है, अर्थात्-जो अपने अनुगामी ३२ हजार नरेशों के अधिपति होते हैं । (चउस हिसहस्लपवर जुवतीनय -णकता) तथा ६४ चोसठ हजार सर्वश्रेष्ठ युवती स्त्रियों के नयनों को जो आनदप्रद होते है अर्थात् उनके स्वामी होते है, तथा (रत्ताभा)जिनके ते यपतिमा 31 314 छ तनु सूत्र॥२ वधु वन रे छ-"वत्तीस रायवर"त्याही साथ-"वत्तीसरायवरसहस्साणुजायमगगा" भनी पा७ मत्रीम १२ भुरटધારી રાજાઓ ચાલે છે–એટલે કે જે તેમના અનુગામી બત્રીસ હજાર નૂપ तियाना मधिपति खाय छ " चउमद्विसहस्सपवरजुश्तीनयणकता" यासह હજાર સર્વશ્રેષ્ઠ યુવતીઓના નવનને જે આનંદદાયી હોય છે, એટલે કે તેમના स्वामी डाय , तथा " रत्तामा " रमना शरीरनी PRAL विण २४तनी Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकण शरीरममा येपा ते तथा शिशिष्टतापण्यमपना इत्यर्थः, 'पउमपम्ह कोरंटगदाम चपगमतवियपरकणगनिधसण्णा ' पद्मपल्मकोरण्टादामचम्पर मुनप्त-वरानक निकपवर्णा , तर पद्मपदम = कमलकेसर. फोरण्टक्दाम-मारण्टाघुप्पमाला चम्पकः = पुष्पविशेषः तया सुतसपरकनकस्प-पुताय पर्णस्य यो निकपा रेखा चेत्येतेपा वर्ण इस वर्णी येपा ते तया पभकमरमुनर्णादिनद् भास्वरका न्तय इत्यर्थ , ' मुजायसन्चगमुदरगा' मुजातमनिमुन्दरागा-मुजातानि= शोभन पुष्टानि सर्माणसप्रकारेण मुन्दराण्यङ्गानि अपयवा येपा ते तथा सुपुष्टशोभनागोपागसम्पन्नाः तथा ' महरयारपणुग्गरिचित्तरागएणीपण्णीनिम्मिय दुगुल्लवरचीणपट्टकोसेज्जसोणीमुत्तकविभूसियगा' महानगरपत्तनोद्गतविचित्ररागणीमैणीनिर्मितदुकल परचीनपहशीशेयश्रोणीसूतकनिभूपितागाः = तत्र महार्याणि = बहुमूल्यानि वरपत्तनोद्गानि प्रधाननगरसमुत्पन्नानि तथा विचित्ररागाणि अनेकविविधरहरञ्जितानि एणी भैणी निर्मितानिएपणी = मृगी प्रेणी शरीर की आभा विमल शोणित की घलता से रक्तवर्ण की सी होती हैं, अर्थात् जो विशिष्ट लावण्य से युक्त होता है । तथा (पउमपम्हकोरट गदामचपगसुतवियवरकणकनिघसवण्णा) पद्मपत्म-कमलकेशर, कोरपटकदाम-कोरटपुष्पों की माला, चम्पक-पुप्पविशेप, एव तापे हुए सुवर्ण की रेखा इनके वर्ण के समान जिनका वर्ण होता है, अर्थात्पद्मकेशर तप्तसुवर्ण आदि के समान भास्वर कान्ति से जो युक्त होते है, तथा (मुजायसव्वग सुदरगा) जिनके शारीरिक अवयव अच्छीतरह से पुष्ट एव सब प्रकार से सुन्दर होते हैं (मग्घघरपदृग्गयविचित्तराग एणी पएणी निम्मियदुगुल्ल वरचीणपट्टकोसेज्ज सोणीसुत्तगविभूसियगा) तथा जिनका शरीर बहुमूल्य वस्त्रों से कि जो वस्त्र प्रधान नगरों के जो बने हुए होते हैं, विविध र गो से रगे रहते है, एणी प्रेणी-मृगी और અધિકતાને લીધે રતાશ પડતી હોય છે, તથા જે વિાિણ લાવણ્યથી યુક્ત डाय छ, तथा " पउम-पम्हकोरट-गदाम-चपग-सुतवियवर-कणक-निघसवण्णा" પદ્મપક્ષમ-કમળ કેશર, કેરટદામ–કેરટ પુપની માલા, ચપાના ફૂલ, અને તપાવેલ સુવર્ણની રેખા જે જેમને વર્ણ હોય છે એટલે કે જે પદ્યુકેશર तत सुपर्ण माहिना २वी सुह२ अतिवाणा डाय , तथा सुजायसव्वगसुद रगा" मना शरी२॥ २५॥ सारी शत पुष्ट मन ४२४ ते ४२ डाय छ, “महग्यवर-पट्टणुगय-विचित्तराग-एणी-पएणी दुग्गुल्लवरचीण-पट्टकोसेज सोणीसुसाविभसियगा" तथा मा शरी२ मई सीमति सोयी सुशामित २ छ જે મુખ્ય શહેરેમા બનેલા હોય છે, વિવિધ રંગથી રંગેલા હોય છે, Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिंनी टीका १० ४ सू० ५ चकातीलक्षणनिरूपणम् ४३ च- मृगीविशेष एव तद्रोमनिर्मितानि यानि पखाणि तानि, तथा दुकलानि दुकूलो वृक्षनिशेप', तन्निमितानि वस्त्राणि, वल्कलमुलग्यले जलेन सह कुदृयित्वा चूर्णीकृत्य सूत्राणि निर्माय ऊतानि दुकलानीत्युच्यन्ते तानि । तथा वर चीनानि चीनदेशोत्पनानि 'पह' पट्ट सूत्रमयानि-मलयदेशविशेपरामुत्पन्नानि,काशेयानि कृमिकोपमूत्रनीमितानि । रेशमी ' इति प्रसिद्धानि पखाणि तथा श्रोणीसूत्रकफटिमनक ' कणदोरा' इति प्रसिद्ध चेत्यैतैः विभूपितानि अलकृतानि अगानि येपा ते तथा बहुमूल्यसुकोमलातिसूक्ष्मतमरगविरगविविधवस्रकटिसूत्रसुशोभितशरीरा इत्यर्थः, 'वरसुरभिगधवरचुण्णासवरकुसुमभरियसिरया' वरसुरभिगन्धपरचूर्णवासपरकुमुमभृतशिरसः परसुरभिगन्धा-उत्तम सुगन्धयुक्तगन्धद्रव्य, तथा परचूर्णवासा घराः श्रेष्ठाः-चूर्णगासा: चूर्णरूपाणि गन्धद्रव्याणि, वरफुमानि च-चम्पकमालती प्रभृतीनि ते भृतानि व्याप्तानि शिरासि-मस्तकानी मृगीविशेष के रोगों से निर्मित होते हैं उनसे सुशोभित रहते हैं। ये वस्त्र धोती के स्थानापन्न होते है। तथा जिम दुकूल-दुपट्टे-को ये ओढते है यह रेशमी होता है, एव चीन देशका बना हुआ होता है। दुकूलवृक्ष के वल्कल को ओखली में जल के साथ पहिले मूसल से खूप कूटा जाता है, बाद में जब वह चूर्णरूप में हो जाता है तब उसके सूत्र तेयार किये जाते हैं और फिर उन्हे अच्छी तरह बुनकर यह दुकूल घनाया जाता है। ऐसे दुकृलो से एव कटिसूत्र से जिनका शरीर सदा अलकृत रहा करता है, अर्थात् जो पहुमूल्य, सुकोमल, अतिसूक्ष्मतमएव र गविरगे अनेकविधवनो से, तथा कटिसूत्र से विभूपित शरीर रहते है ( चरसुरभिगधवरचुण्णवासवरकुसुमभरियसिरया ) तथा उत्तम सुगध युक्त गधद्रव्यों से, श्रेष्ठचूर्ण वासो से चपक, मालती आदि એણું પ્રિ-મૃગલી અને વિશિષ્ટ પ્રકારની મૃગલીની રૂવાટીમાથી બનાવેલા હોય છે તે વસ્ત્રો છેતીની જગ્યાએ પહેરાય છે તથા તેમના દુપટ્ટા રેશમી હોય છે, અને તે ચીનમાં બનેલા હોય છે દુકુલ-વૃક્ષની છાલને પાણી નાખીને પહેલા ખાડીયામાં સાબેલાથી ખૂબ પાડવામાં આવે છે, જ્યારે તેનો ભૂકો થઈ જાય ત્યારે તેમાથી તાર કાઢવામાં આવે છે, પછી તેને સારી રીતે વણીને તે દુકલ-દુપટ્ટા બનાવવામાં આવે છે એવા દુપટ્ટા અને કટિસૂત્રથી જેમના શરીર સદા આભૂષિત રહે છે, એટલે કે જેમના શરીર બહુ મુત્ય, સુકમળ, અતિશય બારક અને રગબેરગી અનેક પ્રકારના વસ્ત્રોથી, તથા કટિસૂત્રથી विभूषित २ छ, “वरसुरभि-गधवर-चुण्णरासपर-कुसुम-भरियसिरिया" तथा ઉત્તમ સુગધવાળા દ્રથી, શ્રેષ્ઠચૂર્ણની સુગ ધથી, ચ પક, માલતિ આદિ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মকায় येपा ते तथा परमसुगन्धिद्रव्यचन्दनचूर्णचम्पादिमुगमम्भारसम्भृतमस्तका इत्यर्थः, 'कप्पियछेयायरियकयरध्यमाडगगयतुडियारभृमणपिगटेहा' ---कल्पितकाचार्यमुकृतरविदमालास्टकाटितपरभूपणपिनद्ध देहाः = तत्र काल्पितानि = परिधृतानि छेकाचार्येण = शिरिपारेण मुख्वानि - मुटु रचितानि रतिदानि = प्रेमननकानि यानि माग फटकागदटितवरभूपणानिमाला-गुवर्णमाला:कटका कङ्कणानि ' कडा' इति प्रसिद्धानि, दानिकेयूराणि त्रुटिताः माहुरक्षिकाः, तथा परभूपणानि मुटकुण्डलादिनि च ते पिनद्धा व्याप्तो देहो येपा ते तथा मुकुटकेयूरकरणादिविविधभूषणभूपितदेहा इत्यर्थः, 'एकालिकठमुरइयालपालपपलपमाणमुस्यपडउत्तरिनमुद्दियापिंगलं गुलिया । तर-'एकालिकठमुरड्यान्डा' एकाठीण्ठमुरचितवक्षस्काःएकावली विविधमणिग्रथितहार कण्ठे-कण्ठपदेशे सुरचिता-परिधृता वक्षसिक्षा स्थले येपा ते तथा 'पालपपलपमाणमुरुयपडउत्तरिज्जा' प्रालम्बमलम्बमान के पुष्पो से जिनका मस्तक सदा शोभित रहता है, अर्थात् परममुग धित द्रव्यो से चदन के चूर्ण से चम्पकादि कुसुमों के सभार से जिनका मस्तक निरन्तर भरा रहता है । तथा (कप्पिय व्यायरिय-मुकय-रइय माल कडग गय तुडिय वर भूसणपिणद्ध देहा) जिनकी देह अच्छी तरह से पहिरे गये आभूपणों से, सुवर्ण की मालाओ से, कटकों कड़ो से, अगदो- (भुजबधो ) से, त्रुटितों से बाहुरक्षिको से, एव मुकुट कुडल आदि उत्तम अलकारो से, कि जो कारीगरों के द्वारा बात ही अच्छी तरह बनाये हुए होते है तथा प्रेमोत्पादक होते है इनसे इनकी देह व्याप्त रहती है (एगावलिकठ सुरइय वच्छपालयपलबमाणसुकयपड उत्तरिज्ज પુથી જેમના મસ્તક સદા સુશોભિત રહે છે, એટલે કે અતિરાય સુગ ધચુક્ત દ્રવ્યથી, ચદનના ચૂર્ણથી, ચપક આદિ પુષ્પોના સભારથી જેમના भस्त सहा युत २७ छ, तथा “कप्पिय छेयायरिय, सुकय,-रइय,-माल, फडग-गय, तुडिय, वर भूसणपिणनद्धदेहा" भनासरी२ सारी शेते परेस माभूषाथा, सुवानी भाणामाथी माथी, " अगदो" ' ५ धे' થી, તૃટિતેથી-બાહુરક્ષિકેથી, અને મુગટ કુડળ આદિ ઉત્તમ અલ કારોથી આભષિત રહે છે જે અલ કારે સારા કારીગરેએ સારી રીતે બનાવેલા હોય तथा भारपाडाय छे “एगावलि-कठ-सुरइवच्छ-पालब-पलबमाण-सुकय पडउत्तरिज्ज-मुहिया-पिंगलंगुलिया" तथा विविध भयो । २ भनी Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०४सू० ५ चक्रवतीलक्षणनिरूपणम् ___ _४१५ सुकृतपटोत्तरीया मालम्पयत्= आनाभिलम्बितकण्ठिकावत् प्रलम्बमान', तथा मुकृता गोभनरचनाविशेपयुक्त पटः शाटकः उत्तरीयम् उत्तरीयवस्त्र च येपा ते तथा रचनापिरोपेण परिधृतशाटकोत्तरीया इत्यर्थः, 'मुद्दियापिंगल्गुलिया' मुद्रिकापिगलामुलिका' मुद्रिकाभिः अङ्गुलीयकैः पिगलाः-स्वर्णादिमयत्तात् पीतकान्तयोऽगुलयो येपा ते तथा 'उज्जलनेवत्थरइयचिल्लुगचिरायमाणा' उज्ज्वलनेपध्यरतिदचिल्लगविराजमानाः = उज्ज्वल-निर्मल नेपथ्य वेपः 'पोशाक' इति प्रसिद्धःरतिद मानन्दजनक 'चिल्लग' इति वस्त्र चाकचिक्य, तेन विराजमानाः शोभमानाः, तथा 'तेएण दियोकरोचदित्ता' तेजसा दिवाकरइव दीप्ताः प्रतापेन मूर्यसदृशाः 'सारयनवत्यणियमहुरगभीरनिद्वघोसा' शारदनरस्तनितमधुरगम्भीरस्निग्धघोपा: शारद-शरत्कालिक यन्नवस्तनित-नूतनमेघध्वनिः तद्वन्मधुरो गम्भीर• स्निग्धश्च-हृदयालादकरो घोपा-शब्दो येपा ते तथा 'उप्पण्ण समत्तरयणचकरयणपहाणा ' उत्पनसमस्तरत्नचक्ररत्नप्रधाना'-उत्पन्नानि प्राप्तानि मुद्दियापिंगलगुलिया ) तथा कठ में विविधनणियो से ग्रथित पहिरा हुआ हार जिनके वक्षस्थल पर लटकता रहता है, तथा नाभिप्रदेश पर्यत कठी के समान लटकते हुए उत्तरीयवस्त्रको एव शोभन रचना विशेष से युक्त करके धोती को जो धारण करते है। स्वर्ण आदिकी बनी हुई अगूठियों से युक्त होने के कारण जिनकी हाथो की अगुलिया सदा पीली कातिवाली बनी रहती हैं ( उज्जलनेवत्थ रडयचिल्लगविरायमाणा) उज्वल, आनदजनक एव चिलकती हुई पोशाक से जो सदा विराजमान (रहते हैं ( तेएण-दिवाकरोग्य दित्ता सारय-नवत्यणिय-मदुर-गभीरनिद्धघोसा) तथा जो अपने तेज से सूर्य के जैसे प्रतापशाली होते हैं। तथा जिनका शब्द शरत्काल के मेघ की नवीन ब्वनि के जैसा गभीर और हृदयाह्लादक होता है (उप्पण्णसमत्तरयणचक्करयणपहाणा) तथा ડેકમાં પહેરેલી હોય છે અને વક્ષસ્થળ પર લટકતે હેાય છે તથા નાભિપ્રદેશ સુધી કઠીની જેમ લટતા ઉત્તરીય વસ્ત્રોને તથા સુદર વિશિષ્ટ રચનાથી યુક્ત છેતીને જેઓ ધારણ કરે છે, સુવર્ણ આદિમાથી બનાવેલી વી ટીઓથી યુક્ત હોવાને લીધે જેમના હાથની આંગળીઓ સદા પીળા તેજથી યુક્ત २९ छ, “उज्जलनेवत्थरइयचिल्लगविरायमाणा " Garrqण, मानाय भने यता पाषाथी रेस महा शाली २ डाय छ, “तेएण-दिवाकरोचदित्ता सारय-नत्यणिय-महुर-गभीर-निद्धघोसा" तथा २ पोताना तेथी सूर्य સમાન પ્રતાપશાળી હોય છે, તથા જેમના શબ્દો શરદઋતુના મેઘના નવીન चिनिनाव गली२ मध्यमा भान न ४२नार हाय छ, “उप्पण्ण Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ pte प्रश्नव्याकरणसूत्रे समस्तरत्नानि चक्ररत्नानि च यस्ते तथा जन पर मधानाः प्रधानभूताः चतुर्दश रत्नानि यथा “रोणानः १ गाधाः २ पुगेडिय= तुरग ४ बट्टई५ गय६ इत्थी ७ । चक ८ छत्त ९ चम्म १०, मणि ११ ग्रामणि १२ राग १३ दडोय १४ ॥ " छाया - सेनापति १ गृहपति पुरोहित तुरग ४ ७ गज ६ यि ७ । चक्र ८ छन ९ चर्म १० मणि ११ कारिणी १२ खगः १३ दड १४ ॥" इति चतुर्दशरत्नानि । तथा ' नवनिष्पिणी ' नवनिधिपतयः = नवनिधिनां स्वा मिनः । नवनिधयो यथा " नेसप्पे १ प २ पिंगले य ३ सव्वरयणे ४ तहामहा परमे ५ । 33 काले ६ महाकाले ७ माणत्रगमहानिहि ८ ससे ९ ॥ १ ॥ " इति, छाया - नैसर्पः १ पण्डुक २ पिङ्गलय ३ सर्वरत्न ४ तथा महापद्मम् ५ । कालय ६ महाकाल ७ मागनकमहानिधि ८ श९ ॥ १ ॥ ' समिद्धकोसा ' समृद्ध कोशाः परिपूर्णभाण्डागाराः, 'चाउरता' चतुरन्ता = त्रिप्पन्तेषु समुद्रः, चनुर्थेऽन्ते च हिमवान् पर्वत, एव चत्वारोऽन्ताः = भूविभागाः जो प्राप्त समस्त रत्नों से एच चक्ररत्न से पुरूषों में प्रधानभूत माने जाते है चक्रवर्ती जिन १४ चौदह रत्नों के अधिपति माने जाते है - वे रत्न ये हैं -- (१) सेनापति, (२) गाधापति, (३) पुरोहित (४) तुरग (५) वर्धकि, (६) गज, (७) स्त्री, (८) चक्र, (९) छत्र, (१०) चर्म, (११) मणि, (१२) काकिणी, (१३) खड्ग (१४) दड | ( नवनिहिपणो ) तथा नवनिधियो के जो भोक्ता होते हैं, नवनिधिया इस प्रकार है- (१) नैसर्य, (२) पडुक, (३) पिंगल, (४) सर्वरत्न, (५) महापद्म, (६) काल, (७) महाकाल (८) माणवक और (९) शख । ( समिद्ध कोसा ) भाण्डागार सदा हरएक वस्तु से मरपुर बना रहता है, तथा ( चाउरता ) जो हिमवत् पर्वत ,, 'शोध' रत्नाना समत्तरयणचकरयण पहाणा તથા જે પ્રાપ્ત થયેલા સમસ્ત રત્નાથી અને ચક્રરત્નથી પુરુષામા શ્રેષ્ઠ ગણાય છે ચક્રવત જે ૧૪ अधियति भनाय छे, ते थोः रत्नो नीचे प्रमाणे छे—(१) सेनायति, (२) गाथापति, (3) युरोडित, (४) तुरण, (4) वर्धङ, (६) गन, (७) स्त्री, (c) A४, (ङ) छत्र, (१०) अभ, (११) मणि, (१२) अट्ठिएगी, (१३) अड्ग अ (૧૪) દડ તથા તે ચક્રવર્તી રાજાએ નવનિધિયાને ભગવે છે તે નવિધિ नीचे प्रभाव छे – (१) नैसर्य, (२) 48 (3) पिंगल, (४) सर्वरत्न, महापद्म, (६) अस, (७) भडाअस, (८) भाव कोसा" तेमना लडार सहा रे! वस्तुथी भरपूर ૫ ८८ भने (ङ) श समिद्ध रहे छे, चाउर ता 1 66 27 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०५ चक्रवर्तीलक्षणनिरूपणम् ४१७ येपा ते तथा हिमात्मगुद्रपर्यन्तपृथिवीशामकाः 'चाउराहिं सेणाहिं ममणुनाइज्जमाणमग्गा' चतसभि सेनाभि समनुयायमानमार्गा:-हम्त्यवस्थपदात्तिरूपचतुरङ्गसे. नाभि समनुयायमानः अनुगम्यमानो मार्गो येपा ते तपा तदेव दर्शयति 'तुरगवई-गयबई-रहनई-नरवई तत्र 'तुरगाई ' तुरनपतयः 'गरबई ' गजपतयः 'रहबई' स्थपतयः 'नरपई' नरपतयः पदाति सेनापतयः ‘पिउलकुला' विपुलकुला = उच्चकुला, विश्रुतयगस =पिरयातकीर्तय 'सारयससिसकलसोम्मवयणा' शारदशगिसकलसौम्यवग्ना शारदा =शरत्कालिको शशी-चन्द्रः कीदृशः सफा सम्पूर्णकलायुक्तः शरत्पर्णिमाचन्द्र इत्यर्थः, तद्वत् सोम्य-मुन्दर, बदन-मुख येषा ते तथा । 'मूरा' सूराशत्रुमर्दका 'तिलोकनिग्गयपभावा' लोक्यनिर्गतप्रभावाः-त्रिलोकव्यापिप्रभावसम्पन्नाः, ' लद्धसद्दा' लब्धशब्दाः पर्यत तक की भूमि के शासक होते है, (चाउराहिं सेणाहिं समणुजाइजमाणमग्गा) रस्ती, अन्व, रथ एव पैदल सैन्य, इन चार अगों वाली सेना से जो सदो अनुगम्यमान मार्गवाले होते हैं, अर्थात् वे (तुरंगवई. गयचई रहबई नरवई) अश्वपति, गजपति रथपति, और नरपति होते हैं। (विलकुला) तथा उनका कृल बहुत ऊचा होता है, (वीसुयजसा) कीर्ति भी उनकी चारों दिशाओं में व्याप्त होती है. तथा (सारयससि सकलसोम्भवयणा ) उनकी मुग शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा सौम्य होता है तथा वे (सूरा ) अपने शत्रुओं के मर्दक होने से शूरवीर होते है, तथा (तिलोकनिग्गयप मावा ) उनका प्रभाव तीनलोक में व्याप्त रहता है, इसलिये वे (लद्धसद्दा) उनकी प्रसिद्धि तीनों लोको तेसानु डिभासय ५त सुधान। प्रदेश ५२ शासन याले छ “चाउराहि-सेणाहिं समणुजाइज्जमाणमग्गा" तथा ते पति तय ४४, मवहण, રથદળ, અને પાયદળ, એ ચતુરગી સેના સહિત માર્ગ પર ફચ કરનારા હોય छ, अटले ३ " तुर गई गयाई रहवई नरपई" तसा मयपति, पति, २०५ति मन नरपति डाय छे "निउलकुला" तथा तसा या पुजना सोय छे “ विसुयजसा ' भनी जाति या हिशासामा सायेसी लय छ तथा “ सारयससिसफल्मोम्मवयणा" मन भुम २६ तुनी पर्णिमाना यन्द्र समान सौम्य साय छ, तथा तमा "सूरा" पोताना शत्रुगानु भईन ७२नार हावाथी शूरवीर डाय , “तिलोकनिग्गयपभावा" तभनी प्रमाणे मा व्यापेसो हाय छे तेथी “रद्धसद्धा" तेमात्रा Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभायाकरण समस्तरत्नानि चक्ररत्नानि च यस्ते तथा, अन पर प्रधाना-प्रधानभूताः चतुर्दश रत्नानि यथा “सेणार १ गावाह २ पुगेडिय: तुरग ४ बर्ड५ गय: इत्थी ७। चक ८ छत्त ९ चम्म १०, मणि ११ सागणि १२ गग्ग १३ दढोय १४॥" छाया-सेनापति १ गृहपति • पुरोहित ३ तुरग ४ वर्धनि गन ६ सिय ७। चक्र ८ छन ९ चर्म १० मणि ११ काकिणी १० खाः१३ दडश्न १४ ॥" इति चतुर्दशरत्नानि । तथा 'नानिरिपइणो' नानिधिपतया-नवनिधिनां स्वा मिनः । नानिधयो यथा " नेसप्पे १ पइय २ पिंगले य ३ सन्चरयणे ४ तहामहापउमे ५। कालेय ६ महाकाले ७ माणवगमहानिदि ८ ससे ९॥ १ ॥” इति, छाया-नैसर्पः१ पण्डुक'२ पिद्गलश ३ सनरत्न ४ तथा महापमम् ५। कालच ६ महाकाल'७ माणवफमहानिधिः८ शर:९ ॥ १ ॥" 'समिद्धकोसा' समृद्धकोशा: परिपूर्णभाण्डागाराः, 'चाउरता' चतुरन्ताःत्रिपन्तेषु समुद्रः, चनुऽन्ते च हिमवान् पर्वत , एप चत्वारोऽन्ताः भूविभागाः जो प्राप्त समस्त रत्नो से एव चक्ररत्न से पुरुषों में प्रधानभूत माने जाते हैं चक्रवर्ती जिन १४ चौदह रत्नों के अधिपति माने जाते हैं-वे रत्न ये हैं-(१) सेनापति, (२) गाथापति, (३) पुरोहित (४) तुरग (५) वर्धकि, (६) गज, (७) स्त्री, (८) चक्र, (९) छत्र, (१०) चर्म, (११) मणि, (१२) काकिणी, (१३) खड्ग (१४) दड । ( नवनिहिपइणो ) तथा नवनिधियों के जो भोक्ता होते हैं, नवनिधिया इस प्रकार हैं-(१) नैसर्य, (२) पडुक, (३) पिंगठ, (४)सर्वरत्न, (५) महापद्म, (६) काल, (७) महाकाल (८) माणवक और (९) शख । (समिद्ध कोसा) भाण्डागार सदा हरएक वस्तु से भरपुर बना रहता है, तथा ( चाउरता) जो हिमवत् पर्वत समत्तरयणचकरयणपहाणा" तथा २ प्राप्त थयेसा सभरत रत्नाथी भने ચકરત્નથી પુરુમા શ્રેષ્ઠ ગણાય છે ચકવર્તિ જે ૧૪ ચોદ” રત્નના અધિપતિ મનાય છે, તે ચોદ રત્નો નીચે પ્રમાણે છે–(૧) સેનાપતિ, (૨) मायापति, (3) पुडित, (४) तु२१, (५) , (E) 17, (७) स्त्री, (८) य, (6) छत्र, (१०) यमः, (११) भल, (१२) uी , (१३) १३२ अने (૧૪) દડ તથા તે ચક્રવતિ રાજાઓ નવનિધિને ભેગવે છે તે નવનિધિ नाय प्रभार छ---(१) नमः, (२) ५ (3) सिस, (४) सवरत्न, ५ भडापन, (९) ४८, (७) भ७, (८) भाशु५४ मते (6) म " समिद्ध कोसा" मना AR२ स६६२४ परतुथी स२५२ २९ छ, " चाउर ता" Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ६ वलदेयवासुदेवस्वरूपनिरूपणम् १९ 'जणवयप्पहाणाहि जनप-प्रधानाभिः ननपदेपु-देशेषु प्रधानाभिः सर्वोत्कृ-- प्टाभि 'भज्नाहि ' भार्याभि =वीमि 'लालियता' लाल्यमाना' क्रीडयमानाः 'अतुलसहफरिसरसरूपग पेय जणुभपित्ता' अतुल शब्दम्पर्शरसरूपगन्धाश्चाsनुभनन्ता अनुपमशब्दादि पियमुसान्यास्वादयन्तः 'ते नि' तेऽपि-ताशा अपि चक्रवर्तिनः, 'कामाण अवितित्ता' कामानामवितृप्ता कामभोगेपु नप्तिरहिता एक, 'मरणधम्म' मरणधर्म-मृत्यु ' उवणमति' उपनमन्ति-प्रान्पुनन्ति म्रियन्ते इत्यर्थ ।मु०५॥ पुनः के इत्याह-- 'भुज्जो' इत्यादि मूलम्-भुज्जो वलदेवा वासुदेवा य पवरपुरिसा महावलपरकमा महाधणुवियट्टगा महासत्तसागरा दुद्धरा धणुधरानरवसहा रामकेसवा भायरो सपरिसा समुदविजयमाइयदसाराणं पज्जुण्ण-पयिवसंवअनिरुद्धा निसढउम्मुय-सारणगय सुमुहदुम्मुहादीणं जायवाण अधुटाणविकुमारकोडीण हिययदइया देवीए रोहिणीए देवीए देवईए य आणंदहियभासचित सुग्व की राशिको भोगते है, तथा उनकी (अणेगवाससयमाउव्वतो ) सैकड़ों वर्षों की आयु होती है (जणवयप्पहाणाहिं भज्जाहिं लालियता) तथा वे समस्त देशो मे सर्वोत्कृष्ट ऐसी ६४ चौमठ हजार स्त्रियों के साय क्रीडा किया करते हैं (अतृलसद्दफरिस रसरूपगव य अणुभवित्ता ) और उनके साथ जो अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गध आदि पाचो इन्द्रियों के विपयों से जन्य सुखो का आस्वादन करते रहते हैं ऐसे (ते वि ) वे चक्रवर्ती आदी भी ( कामाण अवितित्ता मरणधम्म उवणमति ) कामसुखों से अतृप्त ही बने रहते है और अन्त में मरण को प्राप्त हो जाते है ।। सू०५ ।। थी प्रात उस सुमनी शिन उपाय २ , तथा “ अणेगनाससयमाउव्यतो" भनु मायुष्य से ४ पनु डाय छ, तथा “ जणयप्पहाणाहिलालियता" समस्त गोमा अनुपम सेवी यास - स्त्री माये ३३ छ, भने “ अतुलसहफरिसरसवगधेयअणुभपित्ता" भनी साथै अनुपम શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગધ આદિ પાચે ઈન્દ્રિયના વિષયેથી જનિત સુખ मनुभव छ सात " ते वि" यति मा पy "कामाण" अवितित्ता मरण धम्म उवणमति" भागथी यतृत २ छ भने म ते भ२५ पाने ।सू ।। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - प्रशन्याकरण त्रिजगत्मसिद्धाः, ' ममत्तमराहिया' समम्तगरताधिपादशिगोत्तरभरताधिपतय नाग्दा ' नरेन्द्रा, धीरासनामादियानिहतगत्तिसम्पन्ना समेलवणफाणण' सशैलानकानन गेले' पर्वत पन नगरदरम्य , मानना नगरसमीपस्थः सह-सहित यत्तत्तथाविध 'हिमतमागरत' हिमवत्मागरान्त-हिमानन्मुष्टहिमवत्पर्पत सागर समुद्र तदन्त तापपर्यन्त 'भगवास' भाग्नपं 'मातूण' भुक्त्या-उपशुज्य 'नियम' जितशत्रय -परामितसमम्तशा, 'पाररायसीहा' मवरराजसिंहा पररेपु-महापराक्रमे पपि राजमु म ये सिंहाः सिंहसदृशाः, प्रत्र रायते राजसिंहा इति वा पिना = 'पुपडत गप्पभाना' ततप प्रभावापूर्वजन्मकृततपो माहात्म्यात् 'निधिहमचियमुहा ' निर्षिप्ट सभितसुग्वाः उपभुक्तमश्चितमुग्पराशयः · अणेगाससयमाउचतो' अनेकार्पशतायुप्मन्तः, में हो जाती है, और वे (समत्तभरहाहि या ) समस्त भरतखंड के अधिपति होते है, अर्थात्-५ म्लेच्य ड और १ आर्यखड इस मकार सपूर्णभरतक्षेत्र के स्वामी होते है, (नरिंदा) तथा वे मनुष्यों के इन्द्र माने जाते है (धीरा) तथा वे सग्राम आदि में अप्रतिहत शक्ति से सपन्न होते हैं (ससेलवणकाप्पण च हिमतसागरत भोत्तूण भरहवास जियसत्तू पवररायसीहा) तया वे पर्वतों, वनों-नगर से दूर रहे हुए जगलो, एव काननों-नगर समीपस्थ जगलों से युक्त तथा क्षुल्लकहिमवान् पर्वत और समुद्रपयेत प्रसृत ऐसे भारतवर्ष का उपभोग करके समस्त शत्रुओ को पराजित करने के कारण महापराक्रम शाली राजाओ के बीच में केशरी के समान चमकते हैं, और ( पुवकडतवप्प भावा निविट सचियसुहा) पूर्वजन्म में आचरित तप के प्रभाव से वे सभा प्रसिद्ध साय छ, म तसा " समत्तभरहा हिवा" समस्त सरतम ना અધિપતિ હોય છે, એટલે કે પાચ પ્લેચ્છ ખડ અને એક આર્યખડ, એ રીતે संपूर्ण मरतक्षेत्रन। मधिपति डाय छ “ नरिदा " तथा तभन मनुष्याना छन्द्र सापामा आवे छ, “धीरा " ती सश्राम माहिमा मत शस्त धवनार डाय छे, “ससेलवणकाणण च हिमवतसागर त भोत्तुणभरहवास जियसत्तू पवररायसीहा" तथा तेसो पता, वनी-नगाथा १२ भावना al, કાનન–નગરની પાસેના જ ગલોથી યુક્ત તથા હિમાલય પર્વતથી સમુદ્ર સુધી વિસ્તત એવા ભારત વર્ષને ઉપભોગ કરીને સઘળા શત્રુઓને મહિન કરવાને १२को भडापराभी सलमानी १२ये गरी "सिंह" समान यम छ, भने "पुब्बकडतवप्पभागा निविट्ट सचियसुहा' पूर्व-भमा रेसा तपना - AL Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ४ सू० ६ वलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ____४१९ 'जणवयप्पहाणाहिं' जनपदप्रधानाभिः जनपदेपु देशेषु प्रधानाभिः सोत्कृप्टाभि 'मज्जाहि' भार्याभि =स्वीमि 'लालियता' लाल्यमानाः क्रीडयमानाः 'अतुलस-फरिसरसरूपगय अणुभपित्ता' अतुलशब्दम्पर्शरसरूपगन्धाश्चाऽनुभनन्तः अनुपमशब्दादि विपयमुसान्यास्वादयन्त' ते नि' तेऽपि तादृशा अपि चक्रवर्तिनः, 'कामाण अवितित्ता' कामानामवितृप्ता कामभोगेषु तप्तिरहिता एव, ' मरणधम्म ' मरणधर्म-मृत्यु ' उवणमति' उपनमन्ति-प्रान्पुनन्ति म्रियन्ते इत्यथे ॥ ०५॥ पुनः के इत्याह-- 'भुज्जो' इत्यादि मूलम्-भुज्जो वलदेवा वासुदेवा य पवरपुरिसा महावलपरकमा महाधणुवियट्टगा महासत्तसागरा दुद्धरा धणुधरानरवसहा रामकेसवा भायरो सपरिसा समुदविजयमाइयदसाराणं पज्जुण्ण-पयिवसंवअनिरुद्धा निसढउम्मुय-सारणगय सुमुहदुम्मुहादीणं जायवाणं अध्धुट्टाणविकुमारकोडीणं हिययदइया देवीए रोहिणीए देवीए देवईए य आणंदहियभासचित सुख की राशिको भोगते हैं, तथा उनकी (अणेगवाससयमाउव्वतो ) सैकड़ों वर्षों की आयु होती है (जणवयप्पहाणाहिं भज्जाहिं लालियता) तथा वे समस्त देशो मे सर्वोत्कृष्ट ऐसी ६४ चौमठ हजार स्त्रियों के साथ क्रीडा किया करते है ( अतुलसद्दफरिस रसत्वगध य अणु-' भवित्ता) और उनके साथ जो अनुपम शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गध आदि पाचो इन्द्रियों के विपयों से जन्य सुखो का आस्वादन करते रहते हैं ऐसे (ते वि) वे चक्रवर्ती आदी भी ( कामाण अवितित्ता मरणधम्म उवणमति ) कामसुखों से अतृप्त ही बने रहते हैं और अन्त में मरण को प्राप्त हो जाते है । सू०५ ।। 4थी पास उस सुमनी राशिन! पास ७३ छ, तथा “ अणेगवाससयमाउव्वतो" भनु मायुष्य से ४ वर्षनु जाय छ, तथा "जणयप्पहाणाहलालियता" समस्त शामा अनुपम मेवी यास ७०२ श्री। साथे १ ४३ छ, भने “ अतुलसदफरिसरसरूवगधेयअणुभवित्ता" तेमनी साथे मनुपम શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ, ગધ આદિ પાચે ઈન્દ્રિયના વિષયેથી જનિત સુખે मनुभव छ मेवात “ ते वि" यति मा "कामाण" अवितित्तामरण धम्म उवणमति" भलागथी अतृH०४ २ छ भने मते भर पामे छ ।सू ।। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પટ Hartereres , , त्रिजगत्म सिद्धा:, ' ममत्तमराहिया समस्त भरतापिपा = क्षिणोत्तरमरताधिपतय ' नारदा' नरेन्द्राः, धीराः=ग्रामादितिशक्तिसम्पन्नाः ससेलवणकाणण ' सबैलवनकानन = चैनैः पर्वतैः पनैः=गरदरस्यै, काननेः-नगरसमीपस्थेः सह सहित यत्तत्तवाविध 'दिमस्तसागरत' मिलागरान्त = विमान=पुल्लहिमवत्पत सागर = समुद्रः तदन्तात्पर्यन्त 'भरयास' भारत 'भांतून भुक्त्वा = उपभुज्य ' जियगत्तू' जितशत्रन = पराजितसमम्तात्रय 'पररायसीहा' वरराजसिंठा =परेपु= महापराक्रमेयपि राजस मध्ये सिंहाः सिंहाः, प्रत्ररायते राजसिंहा इति निग्रह = ' पुव्यकडत उपभाषा पूर्वक्रतवप प्रभावाद पूर्वजन्मकृततपोमाहात्म्यात् 'निव्विमचियमुहा ' निर्दिष्ट सञ्चितसुखा उपभुक्तमश्चितमुपराशयः ' अणेगनासयमा उच्चतो' अनेकनर्पशतायुष्मन्तः, में हो जाती है, और वे ( समत्तभरहाहि वा ) समस्त भरतखंड के अधिपति होते ह, अर्थात ५ म्लेच्छपट और १ आर्यखंड इस प्रकार सपूर्ण भरतक्षेत्र के स्वामी होते है, (नरिंदा) तथा वे मनुष्यों के इन्द्र माने जाते हैं ( धीरा ) तथा वे सग्राम आदि में अप्रतिहत शक्ति से सपन्न होते है (ससेलवणकापण च हिमवतसागरत भोत्तूण भरहवास जियसत्तू पवररायसीहा) तथा वे पर्वतों, वनों-नगर से दूर रहे हुए जगलो, एव काननों नगर समीपस्थ जगलों से युक्त तथा क्षुल्लकहिमवान् पर्वत और समुद्रपर्यत प्रसून ऐसे भारतवर्ष का उपभोग करके समस्त शत्रुओ को पराजित करने के कारण महापराक्रम शाली राजाओ के बीच में केशरी के समान चमकते हैं, और ( पुव्वकडतवप्प भावा निविट्ठ सचियसुहा) पूर्वजन्म में आचरित तप के प्रभाव से वे - 1 सोमा प्रसिद्ध होय छे, भने तेथे “ समत्तभरहा हिवा " समस्त लस्तस्य उना અધિપતિ હાય છે, એટલે પાચ મ્લેચ્છ ખડ અને એક આયખડ,એ રીતે स पूर्णु लश्तक्षेत्रना अधिपति होय छे " नरिंदा " तथा तेभने मनुष्योना छन्द्र गवाभा भावे छे, " धीरा " तेथे सश्राम आहिमा अकुत शक्ति ધરાવનાર હોય છે, “ ससेलवणकाणण च हिमवतसागर त भोत्तुणभरहवास जियसत्तू पवररायसीहा तथा तेथे पर्वती, वनो-नगरथी हर आवेसा गयो, કાનને નગરની પાસેના જગલેથી યુક્ત તથા હિમાલય પર્વતથી સમુદ્ર સુધી વિસ્તૃત એવા ભારત વર્ષોંના ઉપલેાગ કરીને સઘળા શત્રુઓને માહત કરવાને કારણે મહાપરાક્રમી રાજાઓની વચ્ચે કેરારી ‘સિઁ” સમાન ચમકે છે, અને " " , 'पुब्बकडतवप्पभाना निविट्ठ सचियसुझ પૂર્વજન્મમાં કરેલા તપના પ્રભા 1 Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू०६ घलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् वालधणधण्गसचया ' नानामणिकनारत्नमाक्तिकप्रपालपनधान्यसञ्चयाः, तत्र नानाविधा मणया चन्द्रकान्तादय कनकानि-मुवर्णानि रत्नानिकतनादीनि मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि प्रमालानि- ' मृगा' इति प्रसिद्धानि धनानि-गणिमादीनि, तर गणिम-गणयित्वा यदीयते तद्वस्तु गणिममित्युन्यते नालिकेरपूगीफलादिकम् , एप धरिम-यत्तुलाया धृत्वा दीयते तत्, सुवर्णरजतादिकम्, मेयंकुंड वेन-माननिशेपेण 'पायली' इति प्रसिद्धेन परिमीय यदीयते तत्, शालीगोधूमादिकम् , परिन्छेच परीक्ष्य यदीयते तत् , रत्नवस्त्रादिकम् , धान्यानि शालियवादीनि तेपा सञ्चया =राशयो येपा ते तथा 'रिद्धसमिद्धकोमा' ऋद्धि समृद्धकोशा = विविधसम्पत्तिपूर्णभाण्डागारा 'हयगयरहसहस्ससामी' हयगजरयसहस्रना. मिन. स्पप्टम् । 'गामागरणगरखेड कन्वडमडवदोणमुहपट्टणाऽऽसमसवाह सहस्स थिमियनिन्यप्पमुइयजणविविह-सम्सनिष्फज्जमाणमेइणि सरसरियतलाणिकणग-रयण-मोत्तिय पवालधणधण्णसचया) चन्द्रकान्त आदि नाना प्रकारके मणियों की,सुवर्णकी, फर्केतनादि रत्नोकी, मुक्ताफलों की, मुगाओं की, तथा धन-गणिमादि, तथा गणिम-गिनकर दी जानेवाली नालिकेर पूगीफल आदि वस्तुओंफी, तथा धरिम-तुला से तौल कर दी जानेयोग्य सुवर्ण रजत आदि द्रव्योंकी, तथा मेय-कुडव 'पायली नापके नामविशेष से नापकर दिये जानेयोग्य शालि गोधूम आदि अनाजोंकी, तथापरिच्छेद्यपरीक्षा करके दी जानेयोग्य रत्न वस्त्र आदि चीजो की नथा धान्य गालि यय आदि वान्यों की इनके यहां राशि रहा करती है । तथा-(रिद्धसमिद्ध कोसा) विविध सपत्तिसे इनका भाण्डागार ( भडार ) पूर्ण भरा रहता है । तथा ( हयगयरहसहस्ससामी ) यो के घोडो के, हाथियोके एव रथों के ये स्वामी होते हैं। (गामागरणगरखेडकबडमडचदोणमुहपट्टणासम कणगरयणमोत्तिय पवालधणवण्णसचया " यन्द्रान्त मा विविध भएlभाना, भुवना, ना नानी, साया मातीना, भुजामाना, तथा, ધન-ગણિમાદિને, (ગણિમ-ગણીને અપાતી નાળિયેર પૂગીફળ આદિ વસ્તુઓનો धरिमना (“ धरिम-त्रावाथी नपान माया योग्य सुवर्ण याही माlt द्रव्य) भेय-उपना (“ पाया " (भा) माहिथी मीने मा५ योग्य ખા, ઘઉં આદિ અનાજ) પરિઠેર–પરીક્ષા કરીને આપવા યોગ્ય રત્નવસ્ત્ર આદિ ચીજોને, તથા ધાન્યને (ચોખા જવ આદિ અનાજને) તેમને २१२ लरेस डाय छ तथा “रिद्धिसमिद्धकोसा " विविध सपत्तिथी तेभने। म स२ मा लपूर २७ छ तथा " हयगयरहसहस्ससामी " घा, साथी मन रथाना तेमा मधिपति डाय छे “गामागरणगरखेडकपडमडव Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ | গল্প प्रद्युम्न - मतिरसाराऽनिन्दनिपधोल्युक-सारण-गज-मुग्यदुर्मुखादीना जायगाण' यादवाना = याशिना अद्गुहाग ' अर्द्धचतुर्यानामपिसार्धविस्णामपि 'कुमारकोडीण कुमारगोटीनां 'हिययदाया' दययिता:हृदयप्रियाः 'देवीए रोहिणीए देवी देवईए य आणदस्यियमापनंदणारा' देव्या रोहिण्या: बलदेवमातुः देव्यादेवक्या-कृष्णमाता आनन्दरपो यो हृदयमाव स्तस्य नन्दनकरागृद्धिकारकाः 'सोल सरायरसहरमाणुलायमग्गा' पोडश राजररसहसानुयातमार्गाः = पोडशसहस्रसरयका राजरा अनुमता भवन्ति मार्गे येपा ते तथा । तत्पदनितनीतिमार्गानुपतिन इत्यर्थः तदानारिण इति यावत् । सोलसदेवीसहस्सरणयणहिययदइया । पोडगदेशीमहस्रपरनयनहृदयदयिता -पोडशसहस्रदेवीना परनयनाना-चार लोचनाना सुन्दरीणा हृदयदयिताः हृदयवल्लभा, विशेषणमिद गासुदेशपेक्षया । ' णाणामणिकणगरयगमोत्तियप निपध, उल्मक, सारण, गज, सुमुम, दुर्मुस आदि साढातीन ३॥ करोड़ यादवकुमारों के लिये ये हृदय से अधिक प्यारे होते है । (देवीए रोहि णीए देयीए देवई य आणदरिय भावनदणकरा) देवी रोहणी के तथा देवी देवकी के आनदरूप दियभाव की ये वृद्धि करनेवाले होते हैं, देवी रोहिणी ये पलदेव की माता तथा देवी देवकी ये कृष्णकी माता है। (सोलसरायवरसहस्साणुजायमग्गा) १६ सोल हजार राजा जिनके पार मार्ग में चला करते हैं, अर्थात् जिस प्रकार वे इन्हें नीतिमार्ग का प्रद र्शन करते है उसी नीतिमार्गका ये अनुसरण करते ह, अथवा उनकी आज्ञानुसार चलते हैं। (सोलस देवीसहस्सवरणयणहिययदइया) १६ सोल हजार स्त्रियों के नयनो को और हृदयोंको ये अत्यतप्रिय होते है, यह विशेषण बासुदेवकी अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये । (णाणाम પ્રતિવસાબ, અનિરુદ્ધ, નિષધ, ઉમુક સાર, ગજ, સુમુખ, દુર્મુખ આદિ સાડા ત્રણ કરોડ યાદવ કુમારને તે પ્રાણથી પણ અધિક વહાલા હોય છે, "देवीए रोहिणीए देवीए देवईए य आणदहियभावनहणकरा" हेवी ! તથા દેવી દેવકીના હદયના આનદમાં તેઓ વૃદ્ધિ કરનારા હોય છે દેવી शcिell वनी माता तथा हेपा हेपी नी माता के सोलसरायर सहस्साणुजायमग्गा" १६ १२ सलमा भने मनुसरे छ, मेटले तेभना દ્વારા જે નીતિમાર્ગ તેઓ બતાવે છે, એ જ નીતિમાર્ગનું તેઓ અનુસરણ ४२ छ अथवा तेमनी माझा प्रमाणे ते या यानेछ "सोलस देवीसहस्सवरणयणहिययदेइया "१६ सा २ सीमाना नयनी तथा हत्यने तये। मत्यत प्रिय डाय छ मा विशेष पासुहेपने मनुसक्षी अपाये छ “णाणामणि Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ६ यलदेवगाजदेवस्वरूपनिरूपणम् ૪૨૧ पवनानि तानि च 'मगाभिराम' मनोऽभिरामाणिनोहगणि तैध परिमडियस्स' परिमण्डितस्य-शोभितम्य । दाहिणडवेयड्रगिरिविभत्स्स ' दक्षिणार्ध चैताढय गिरिविभक्तस्य दक्षिणार्धे यो चेताहय. = तन्नामको गिरिः = पर्वतविशेपस्तेन विभक्तस्य कृतविभागस्य 'लपणजलपरिगपस्म' रणजलपरिगतस्य लवणजलेन-लपणसमुद्रेन परिगतस्य वेष्टितस्य 'उन्धि कालगुणकमजुत्तस्स' पडविधकालगुणक्रमयुक्तस्य पइविधस्य कालस्यचर्पा गरर हेमन्तगिशिरवसन्तग्रीष्माभिधपड्नतुममयस्य चे गुगा' कार्याणि न पलपकुसुमविपिपफलममुढयादि रूपाणि, तेपा यः क्रमः यथोचितरूपेण भरन तेन युक्तस्य-समुपेतस्य एपनियस्य 'अद्धभरहस्स' अर्धभरतस्य-दक्षिणभरतस्य ' सामिया' स्वामिका: अधिपतयः 'धीरा , धीराः शत्रुभिरपरिभानीयाः 'कित्ति पुरिसा' कीर्तिपुरुपासीर्तिप्रधानाःपुरुपाः 'ओहनला ' ओमला: ओपेन प्रवाहणाच्छिन्न वल येपा ते तथा अनिच्छिन्न चला इत्यर्थः, 'अइसा' अतिपला. अन्यरलान्यतिक्रान्ताः। 'अनिहया' अनिहताः = शत्रुशस्त्राघातवर्जिता एवभूता बलदेवनासुदेवा अपि कामभोगप्ति रहिता एव मरणधर्ममुपनमन्तीति सम्मन्यः ॥ ६ ॥ सू० ॥ यद्दगिरिविभत्तस्स ) दक्षिणार्ध में वैताढा पर्वतसे विभक्त हुए (लवणजलपरिगयस्स ) लवण समुद्र से वेष्टित हुए तथा (छविकालगुणकम्मजुत्तस्स ) पर्पा, शरद् , हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, इन छह प्रस्तुओल्प समय के नवीन पत्तों, कुसुमों, एव फलो के आगमनरूप कार्यों के क्रम से युक्त बने हुए ऐसे (अद्ध मरहस्स) दक्षिण भरतके ये (सामिया) स्वामी होते है (धीरा ) धीर होते है अर्थात्-शत्रुओ द्वारा अपरिभवनीय होते है । तथा (मित्तिपुरिसा) कीर्ति ही है प्रधान जिन्होंकी ऐसे ये कीत्ति पुरुप होते है । ( ओबला) इनका बल कभी नष्ट नहीं होता है अनः ये (अहवला) अविच्छिन्न बलवाले होते हैं, " दाहिण्णड्डयड्डगिरिवियत्तस्स" दक्षिामा वैतादय पतिथी मत थयेस " लपणजलपरिंगयास" समुद्रथा घरायसा तथा “ छबिहकालगुणकमजुत्तस्स વર્ષ, બર, હેમન શિશિર, વસતિ અને ગ્રીષ્મ એ છએ ઋતુઓને અનુરૂપ નવીન પાન, ફ્લે, અને ફળના આગમનરૂપ કાર્યોથી યુક્ત બનેલ એવા " अद्वभरहस्स" क्षिण भारतना तो ' सामिया " स्वामी डाय "धीरा" તેઓ ધીર હોય છે એટલે કે શત્રુઓ દ્વારા અપરાજિત હોય છે તથા “દિ तिपुरिसा" जति र प्रधान रेमनी मेवा जति पुरुष हाय छ-डीति शाजी है।य छे " ओहरला" तेभनु ५५ उही नाश पामतु नथी तेथी तेथे! " अ इबला "विछिन्न वाणा हाय छ, तथा “ अनिहया " शत्रुभाना शश्रीना Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ৪২৪ प्रश्नध्याकरण गसेलका गणारामुज्जागमणाभिरामपरिमडिगस्म । तन ग्रामाऽऽगरनगर सेटकटम पद्रोणमुखपत्तनाऽऽअमममाः = रात्र ग्रामः = असते वुद्रयादि गुणानिति ग्राम पोदरादित्वात्स कारभ्य मकारः । अन्ये मापन्तिा पूर्वस्मिन् चकात्तिने व्याख्याताः , तेषां यानि गहसाणि तेः, 'थिमिय' स्तिमिताःखचक्रपरचक्रमपरहिवाः नियुग' निर्णता: गुगान्तपित्ताः नया 'पमुइय' प्रमदिताव अतिप्रमन्ना ये जनाम्तः, तथा 'पिरिहमस्सनिण-जमाणमेरणी' विविधसस्य निप्पद्यमानमेदिनी विविधानि मस्यानि-धान्यानि ते निप्पयमाना सम्पद्यमाना या 'मेइणी' मेदिनी-पृथिवी तगा तया 'सर' गरासि-जलागयरिशेपाः, 'सरिय' सरिता नयः 'तलाग' तडाका महाजलाशया 'सेल' गैलापर्वताः फागण काननानि सामान्यक्षोपेतानि नगरासनपत्तियनानि, आरामा = नामण्डपाथुपे तानि,राज्ञामन्तः पुरंधानानि, उद्यानानि-विधिपादपकुसुमममुलसितर्वजनविहारो सपाहसास्मयिमियनियुधप्पमुइयजण-विविहसस्मनिष्फन्नमाणमेइणि सर सरियतलागसेलकागण आरामुन्नागमणाभिरामपरिमडियस्स) ग्राम आकर, नगर, सेट, कर, मउय, द्रोणमुग्व, पत्तन, आश्रम, सवाह इन सयकी हजारोंकी मख्वासे स्वचक एव परचमके भयसे रहित ऐसे तथा जिनका चित्त सदा सुशान्त बना हुआ रहता है ऐसे अति प्रमुदित मनुष्यो से तथा विविध प्रकार की धान्य राशि जिसमें उत्पन्न होती है ऐसी मेदनीसे, तथा मनोहर जलाशय विशेपोंसे, नदियोसे, तलावों से, पर्वतोसे, सामान्यवृक्षोंसे युक्त, एव नगरके पास रहे एए ऐसे काननों(वनो) से तथा लतामण्डप आदि से युक्त ऐसे राजाओं के अन्तःपुरके उद्याना से, तथा अनेक प्रकार के वृक्षोंसे एव कुसुमों से समुल्लसित एव सवे जनों के विहार योग्य ऐसे उपवनों से परिमडित हुए, तथा ( दाणिड्डवे दोणमुहपट्टणासमस वाह-सहस्स-थिमिय-निव्वुयप्पमुइयजणविविहसस्स निफजमाण मेइणिसर-सरिय-तलाग- सेल-काणण-आरामुज्जाणमणाभिरामपरिमडियस्स" साम, मा७२ नगर, भेट, उट, भ७०, दोभुम, पत्तन, माश्रम, सवाई, વગેરે હજારોની સ ખ્યામાં તેઓની સત્તા નીચે હોય છે સ્વચક્ર અને પરચના ભયથી રહિત તથા સદા શાત અને અતિ આન દિત ચિત્તવાળા મનુષ્યથી, તથા વિવિધ પ્રકારના ધાન્ય રાશિ (ઢગલા) જેમાં ઉત્પન્ન થાય છે એવી ભૂમિથી, તથા મનોહર જળાશયોથી, નવીઓથી, તળાવથી, પર્વતાથી સામાન્ય વૃક્ષોથી નગરની પાસે આવેલા કાનનેથી, તથા લતામંડપ આદિથી યુક્ત એવા રાજાઓના અન્ત પરના ઉગાનેથી, તથા અનેક પ્રકારના વૃક્ષાથી. અને વિકસિત કુસુમથી શેભતા અને સર્વે લેકોને ફરવાને ચગ્ય એવા ઉપવનથી વીટળાયેલા, તથા Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ६ वलदेव गाजदेवस्वरूपनिरूपणम् ४२५ परनानि तानि च 'मगाभिराम' मनोऽभिरामाणि-मनोहगणि तैश्च परिमडियस्स' परिमण्डिवस्य-शोभितम्य ' दाहिणडवेयगिरिविभत्तस्स ' दक्षिणा वैताढय गिरिविभक्तस्य दक्षिणार्धे यो चेताहयः = तन्नामको गिरिः = पर्वतविशेपस्तेन विभक्तस्य-कृतविभागस्य 'लवणनलपरिगयस्म' रणजर परिगतस्य लवणजलेन-लपणसमुद्रेन परिगतस्प वेप्टितस्य विदकालगुणकमजुत्तस्स' पडविधकालगुणक्रमयुक्तस्य पइविधस्य कालस्य शरदहेमन्नमिशिरवसन्तग्रीष्माभिषपड्कनुममयस्य ने गुगा'-कार्याणि नापलाकुसुमविविधफलसमुढयादि रूपाणि, तेपा यः क्रमः यथोचितरूपेण भवन तेन युक्तस्य-समुपेतस्य एवविपस्य 'अद्धभरइम्स' अर्थभरतस्य-दक्षिणभरतस्य ' सामिया' स्वामिका अधिपतय' 'धीरा , धीरा शत्रुभिरपरिभानीयाः 'फित्ति पुरिसा' कीर्तिपुरुपा कीर्तिप्रधानाःपुरुपाः 'ओहमला' ओवला: ओपेन-प्रवाहणाच्छिन्न पल येपा ते तथा अनिच्छिन्न पला इत्यर्थः, 'अइपला' अतिपला अन्यत्रलान्यतिकान्ताः। 'अनिया' अनिहताः = शत्रुशस्त्रागातवर्जिता एवभूता पलदेवमासुदेवा अपि कामभोगप्ति रहिता एव मरणधर्ममुपनमन्तीति सम्पन्नः ॥ ६॥ मु०॥ यगिरिविभत्तस्स ) दक्षिणार्ध में वैताढय पर्वतसे विभक्त हुए (लवणजलपरिगयस्स ) लवण समुद्र से वेष्टित हुए तथा (छन्चिरकालगुणकम्मजुत्तस्स ) पर्पा, शरद् , हेमन्त, शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, इन छह ऋतुओरूप समय के नवीन पत्तों, कुसुमों, एव फलो के आगमनरूप कार्यों के क्रम से युक्त ने हुए ऐसे (अद्धभरहस्स) दक्षिण भरतके ये (सामिया ) स्वामी होते है (धीरा) धीर होते हैं अर्थात्-शत्रुओ द्वारा अपरिभवनीय होते है। तथा (पित्तिपुरिसा) कीर्ति ही है प्रधान जिन्होंकी ऐसे ये कीर्ति पुरुप होते है । ( ओहरला ) इनका बल कभी नष्ट नहीं होता है अनः ये (अडवला ) अविच्छिन्न बलवाले होते हैं, " दाहिण्णवेयगिरिविपत्तास" इसिगाभा वैतादय पतिथी विमस्त थयेस "लपण जलपरिगयास" Aqसमुद्रथा घरायेा तथा " छव्धिहकालगुणकमजुत्तस्सવર્ષા, , હેમન શિશિર, વસત અને ગ્રીષ્મ એ છએ ઋતુએને અનુરૂપ નવીન પાન, ફ, અને ફળોના આગમનરૂપ કાર્યોથી યુક્ત બનેલ એવા “जद्वभरहस्त" लिए मातना तेगा ' सामिया " स्वाभी डाय छे ' धीरा" ते। धार यि छ 22 शत्रुमे द्वारा अपलित राय छे तथा “कि त्तिपुरिसा" जाति प्रधान मनी वा जाति पुरुष हाय छ-ति जी हैय छ " ओहनला" तमनु ण ही ना पामतु नथी तथी तेय“ अ इचला "विन माया डाय छ, तथा “ अनिया " शत्रुभाना सोना म-५४ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ प्रमभ्याबरो गसेलका गणभारामुमागमणाभिरामपरिमडियम्स । तर प्रामाऽऽगरनगर सेटकटमडबद्रोणगुखपत्तनाऽऽश्रमस TICTE र प्रामः % ग्रसते बुयादि गुणानिति ग्रामःपृषोदरादित्वात्सकारम्य मारः। अन्ये गाठपर्यन्ता पूर्वस्मिन् चक्रपतिम् व्याख्यातपूर्राः, तेषां यानि सामाणि तः, 'थिगिय ' स्तिमिताःखचक्रपरचक्रमपरहिवाः नियुग' निता:-गुगान्तपिताः तथा 'पमुइय' प्रमादि ताच अतिप्रमन्ना ये जनाम्तः, नया 'रिसिहमस्मनिप्पज्जमाणमेडणी ' विविधमस्य निष्पधमानमेदिनी विविधानि यस्यानि-धान्यानि तेनिप्पधमाना सम्पधमाना या 'मेहणी मेदिनी-पृथिवी तया तथा 'सर' सरासि जलाशयपिंगपाः, 'सरिय' सरिता नया 'तलाग' तडामा-महानलागया सेल' मैला-पर्वताः कागण' फाननानि सामान्यज्ञोपेतानि नगरासनपतिनानि, नारामा:-नामण्डपायुपे तानि,राज्ञामन्तः पुरधानानि, उद्यानानिगिनिधपादपकुमममुसितसजिनविहारो सपारसस्सधिमियनियुधप्पमुइयाण-विचित्सस्मनिष्फळमाणमेइणि सर सरियालागसेलकागण आरामुज्जागवणाभिरामपरिमडियस्स) ग्राम आकर, नगर, सेट, करेंट, मउय, द्रोणमुस, पत्तन, आश्रम, सवाह इन सयकी हजारोंकी सख्वासे स्वचक्र एच परचमके भयसे ररित ऐसे तथा जिनका चित्त सहा सुशान्त बना हुआ रहता है ऐसे अति प्रमुदित मनुष्यो से तथा विविध प्रकार की चान्य राशि जिसमें उत्पन्न होती है ऐसी मेदनीसे, तथा मनोहर जलाशय विशेपोंसे, नदियोसे, तलावों से, पर्वतोसे, सामान्य क्षोसे युक्त, एव नगरके पास रहे हुए ऐसे काननो(वनो) से तथा लतामण्डप आदि से युक्त ऐसे राजाओं के अन्त पुरके उद्याना से, तथा अनेक प्रकार के वृक्षोंसे एव कुसुमों से समुल्लसित एव सवे जनों के विहार योग्य ऐसे उपवनों से परिमडित हुए, तथा ( दाणिड्डवे दोणमुहपट्टणासमस वाह-सहस्स-थिमिय-निव्वुयप्पमुइयजणविविहसस्स निफजमाण मेइणिसर--सरिय-तलाग~सेल-काणण-आरामुज्जाणमणाभिरामपरिमडियस्स" भाभ, 15२ न॥२, भेट, ४, भ७५, द्रोशुभुम, पत्तन, माश्रम, सवा, વગેરે હજારોની સ ખ્યામા તેઓની સત્તા નીચે હોય છે સ્વચક્ર અને પરચક્રના ભયથી રહિત તથા સદા શાત અને અતિ આન દિત ચિત્તવાળા મનુથી, તથા વિવિધ પ્રકારના ધાન્ય રાશિ (ઢગલા) જેમાં ઉત્પન્ન થાય છે એવી ભૂમિથી, તથા મનહર જળારાથી , નદીઓથી, તળાવોથી, પર્વતેથી સામાન્ય વૃક્ષોથી નગરની પાસે આવેલા કાનનેથી, તથા લતામંડપ આદિથી યુક્ત એવા રાજાઓના અન્ત પુરના ઉવાનવી, તથા અનેક પ્રકારના વૃક્ષોથી, અને વિકસિત કુસુમથી શેભતા અને સર્વે કાને ફરવાને યોગ્ય એવા ઉપવાથી વીટળાયેલા, તથા Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मुदर्शिनीटीका अ ४ सू ७ यलदेवासुदेवस्वरूपनिरूपणम् કર૭ 'रिउसहस्समाणमहणा, रिपुसहस्रमानमयना: रिपुमहस्राणा मानन्ग मम्नन्ति ये ते तथा शत्रुदर्पपिसका 'साणुगोसा' सानुमोशा =आश्रितरक्षकाः 'अमच्छरी' अमत्सरिणः-परशुभस्याऽद्वेपिणः-परसुखेन मुखिन इत्यर्थः, ' अचवला' अचपला:-मनोवायापलतारहिता, अचण्डा-अकारणकोपार्जिताः 'मियमजुलप्पलावा' मितमजुलमलापा:-मितः परिमितः सार्थकः मजुन्न मनोहरः प्रलाप = आलापो येपा ते तथा परिमितमत्समधुरभाषिणः 'हसियगभीरमहरभणिया' हसितगम्भीरमधुरभणिता: इसितम्-हास्ययुक्त गम्भीर-सारगर्भ मधुर च भणितमापण येपा ते तथा 'अभुवगयवच्छला' अभ्युपगतवत्सला अभ्युपगतेपुसमीपमागतेपु वत्सला स्नेहयुक्ता. 'सरण्णा' शरण्याः शरणे साधा शरणागतरक्षकाः 'लक्सणानणगुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपेताः = तर लक्षणानिअपराजित शत्रुओ के मान को गलित कर देते हैं, अर्थात् प्रबल से भी प्रयल विरोधियों के वे विनाशक होते है, तथा (रिउसहस्समाणमद्दणा) हजारों शनुओ के मान को जो देखते २ क्षणभर मे नष्ट कर डालते हैं। एव (साणुकोसा) अपने आश्रित व्यक्तियो की सदा रक्षण करते रहते हैं (अमच्छरी ) दूसरों के शुभ से जिनके चित्त में थोड़ा सा भी द्वेष नहीं जगता है, अर्थात् परके सुखसे सुखी होते है (अचवला) मन, वचन एव कायसी चचलतासे जो रहित होते हे (अचडा) विना कारणके जिन्हें क्रोध नहीं आता है (मियमजुलप्पलावा) मित-सार्थक तथा मनोहर जिनका आलाप होता है, अर्थात्-जो परिमित सत्य मधुरभापी होते हैं। (हसियगभीरमहुर भणिया) जो हास्ययुक्त, सारगर्भित और मधुर भाषण करते है (अन्भुवगयवच्छला) जो अपने निकट आये हुए प्राणियोंके साथ શત્રુઓનુ માનમર્દન કરી નાખે છે, એટલે કે પ્રબળમા પ્રબળ શત્રુને પણ તેઓ નાશ ४२नार हाय , तथा "रिउसहस्ममाणमहणा" | शत्रुभाने ततामाक्षवारमा भडात उरे छ, भने ते तेभनु भानभईन ४२ छ, “साणुकोसा" घोn माश्रितानु सही २१ २ छ, “अमच्चरो" मन्यने साल यता જઈને જેમના ચિત્તમાં સહેજ પણ છેષ થતું નથી, એટલે કે તેઓ પરના सुसुभी थाना२ डाय छ, "अचवला" भन, क्यन यानी ययताथी २हित डायो, “अचडा" विना भने । थत थी, “मियमजुलप्प लावा" भित-साथ तथा भनाभना क्यन डाय छ, अथवा २ पारमित सत्य मधुर वाणी पाय छ, “ हसियगभीरमहुरभणिया" हास्ययुक्त सालित भने मधुर साप २ छ " अभुनगयवच्छला" २ पोतानी पासे मापता प्राणीशा त२५ स्नेहा डाय छ, “ सरण्णा " २२0 मावदानी Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नध्याकरण पुनस्ते कीदृशाः ? इत्याह- 'अपरानिग ' इत्यादि मूलग-अपराजिय सत्तमपणा रिउसहस्समाणमहणा साणुकोसा अमच्छरी अचवला अचंडामियमंजुलापलावा हसिय गंभीरमहरभणिया अन्भुनगयवच्छला करण्णा लरखण वजणगुणोक्वेया माणुम्माणपमाणपडिपुण्ण मुजायसव्वंग सुंदरगा ससिसोमगारा कंता पियदसणा अमरिसणा पयंड दडप्पयारगभीरदरिसीणना तालझया उविज्झगरुल केऊबलवगगज्जत दरिय-दप्पियमुद्रियचाणूरचूग्गारिट्रवसभ घाइणो केसरिमुहविप्फाडगा दरिय नागदप्पमहणाजमलज्जुणभंजगा महासउणिपूयणरिपू कसमउडमोडगा जरासध. माणमहणा तेहिय अविरलसमसंहियचदमडलसमप्पभेहिसूरमरीइकवयं विणिमुयंतेहि सप्पडिदडेहि आयवत्तेहि धरिज्जतेहि विरायंता ॥ सू० ७ ॥ टीका:- अपराजियसत्तमदणा अपराजितशत्रुमर्दना = अपराजितानअन्येरनिर्जितान् शत्रून् मईयन्ति ये ते तथा प्रबलशत्रुविनाशका इत्यर्थः, अतएव दूसरों का पल इनके समक्ष टिक नहीं सकता है, इसलिये ये अतिबल वाले रोते हैं, तथा (अनिया) शत्रुओं के शस्त्रके आघात से ये वर्जित रहते हैं, ऐसे ये बलदेव और वासुदेव भी कामभोगों को तृप्सिसे विहीन बनकर ही मरणधर्म को प्राप्त करते है ॥ सू० ६॥ फिर वे कैसे होते है सो कहते हैं-'अपराजिय' इत्यादि । टीकार्थ-(अपराजिय सत्तुमदणा) जो बलभद्र और नारायण આઘાતથી તેઓ રહિત હોય છે એવા એ બળદેવ અને વાસુદેવ પણ કામો सोना तृतिथी २डित नाa ar-ABH २हीन र भृत्यु पामे छ । सू०६॥ तमा लय छे तेनु वधु वर्णन ४२॥ ४ - “ अपराजिय" त्यादि टी10-" अपराजिय सत्तुमद्दणा" ते मन्द्र भने नाया अपराजित Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० ४ सू० ७ पलदेववासुदेवस्यरूपनिरूपणम् ४२९ प्रचण्ड = दारुणोदण्डमचारः = दुष्टद्मनाऽऽनानिशेपस्तन गम्भीरदर्शनीया = गम्भीर = दुष्टजनचित्तक्षोभोत्पादक दर्शनीय = स्वरूप येपा ते तथा सत्पुरुपाणा कृते चन्द्ररत् प्रियदर्शना , दुर्जनानां कृतेपु कालसदृशा इति भाव "तालज्मया' तालध्वजा-ताल-तालगृतातितो ध्यजो येपा ते तथा तालध्वजा बलदेवाः, वाठाडो गुसलीहली ' इत्यमर , तथा 'उविज्झगरु र केज' उद्विद्धगरडकेतवः-उद्विद्धः अत्युच्छितो गरुडकेतु' गरुडाङ्कितो धजो येपा ते तया वासुदेवाः 'वनगगज्जतदरियदप्पियमुहियचाणूरचरगा' वलपद् गर्जद् सदर्पितमाप्टिकचाणूरचूरकाः = तर लवत - महाशक्तिसम्पन्न गर्जन्त= 'कोऽन्योऽस्माहगो मल्लः, इति महायोप कुर्वन्तः, तथा हप्तदर्पित हप्तेष्वपि दर्पित-अतिगर्नयुक्त मौष्टिक चाणूर च-तत्तनामक मल्ल चुरयन्ति ये ते तथा कर सकते हैं- ( पयडदडप्पयारगभीरदरिसणिज्जा ) दारुण दड के प्रचार में जिनकी आकृति बहुतभारी गंभीर बन जाती है, अर्थात् दुष्टो को दमन करने रूप आज्ञा में जिनकी आकृति दुष्टजनों के लिये चित्तमें कालकी तरह क्षोभोत्पादक घनती है और सज्जनोके लिये चन्द्र की तरर प्रियदर्शन चाली होती है । (तालज्मया उबिझगरुलकेऊयगलगज्जतदरियदप्पिअमुट्टिचारचूरगा) तथा इनमे बलदेव की ध्वजा तालवृक्ष के चिह्न से अकित होती है और वासुदेव की चजा गरुड के चिह से अकित रहती है और बहुत ऊँची होती है । बलदेव ने कृष्ण को मारने के लिये कस द्वारा प्रवर्तित किये हुए मल्लयुद्ध में 'कौन हमारे जैसा पहलवान है' इस अभीमान से जो मदोन्मत्त बनकर घोपणा कर रहे-एव अत्यत मद से उन्मत्त बने हुए थे-ऐसे मौष्टिक नामके मल्ल को नयी “पयड-दडप्पयार-गभीर-दरिसणिन्जा" ३५ ४७ प्रहान उरती मते જેમને દેખાવ ઘણે ગભીર થઈ જાય છે એટલે કે દુષ્ટને રિક્ષા કરવાની આજ્ઞા આપતી વખતે જેમને દેખાવ દુખ લોકેને માટે યમદેવના જે ક્ષોભ ઉત્પાદક બની જાય છે અને સજજને માટે તેમની મુખાકૃતિ ચન્દ્રની જેમ प्रियशनवाजी डाय छ “ तालज्झया उविज्झ गरुल केबलगगज्जतदरियदपिय मट्ठियचाणुरचूरगा' तमामाना मजवनी undegक्षनी निसानी पानी डाय છે અને વાસુદેવની દવા ગરુડના નિરાનવાળી હોય છે અને ઘણું ઉંચી, હેય છે કૃષ્ણને મારવા માટે કસ દ્વારા કરવાયેલ મલ્લયુદ્ધમા બળદેવે “મારા જે પહેલવાન કોણ છે ” એવા અભિમાનથી જે મદેન્મત્ત બનીને ઘણુ કરી રહ્યો હતો એવા મૌષ્ટિક નામના મલ્લને મારી નાખ્યો અને વાસુદેવ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रश्नप्याकरणको हस्तरेखादीनि सामुद्रिकशागोक्तानि, तथा व्यसनातिन-मपनिलादीनि गुणाः= शौर्यादयस्तैरुपेताः युक्ताः, 'माणुम्माणपमाणपडिपृष्णा गुनायगांगमुदरगा' मानोन्मानप्रमाणमतिपूर्णमुनातम गमुन्दराहाः = मागोमानः प्रमाणः = तत्र मान-शरीरभार, उन्मानारोगेन्छप , प्रमाण-समुचितागययात्त्व, तः प्रतिपूर्णानि-मुजातानि-मुटाया रामुत्पन्नानि साण्याानि मधमा सम्मिन् तदव विध मुन्दरमा-शरीर पाते तया सकलगुलक्षणरक्षितपुरमपमाणदरशरीरा इत्यर्थः 'ससिमोमागारा' शशिसोम्याकारा-गन्द्र-पत्नीम्याकृतिसम्पन्नाः, 'कता' 'कान्ता कमनीयाः 'पियदमणा' प्रियदर्शना मानोजस्पा 'जमरिसणा' अमर्पण = अत्याचाराऽसहिष्णवः । पयड उपयारगमीरदरिसणिज्जा' स्नेहशील होते हैं (सरण्णा) शरणागतकी रक्षा करते है (लरखणवजग गुणोववेया) जो सामुद्रिक शास्त्रोक्त रेसा आदि शुभचिन्नोसे, तथा मपा तिलक आदिशुभ व्यजनोसे व शौर्यादिक सद्गुणासे युक्त होते है माणुम्माणपमाणपडिपुण्णा सुजायमन्चगमुदरगा) शरीर भाररूप मानसे, शरीरकी ऊंचाई रूप उन्मानसे तथा समुचित शरीरावयवरुप प्रमाणसे प्रतिपूर्ण, एव सुन्दर रूपवाले समस्त अवयव जिसमे है ऐसे सुहावन शरीर से जो युक्त रोते हैं अर्थात् उनका शरीर समस्त सुलक्षणों से युक्त, सुपुष्ट और प्रमाणोपेत होने से पूर्ण सुन्दर होता है, (ससिः सोमागारा) जिनकी आकृती चद्रमा के जैसी सौम्य होती है, (कना) जो सबके लिये घडे प्रिय लगते हैं (पियदसणा) उनका दर्शन मन का बहुत अधिक आहाद जनक होता है (अमरिसणा) जो अत्याचार को सहना बहुत ही बुरा मानते है-अर्थात्-जो अत्याचार को सहन नहीं २ २क्षा ४२ना२ डाय छ, “ लम्सण जणगुणोववेया " वो सामुद्रि शास्त्रोत રેખા આદિ શુભ ચિન્હોથો તથા મષા તિલક આદિ શુભ વ્ય જનોથી અને शीर्याटि साथी युत खाय छ, “ माणुम्माणपमाण पडिपुन्नासुजायसव्व गसुदर गा" शरीरा२ ३५ भानथी, शरीरनी Gया ३५ भानथी, तथा सभाष्य શરીરવયવરૂપ પ્રમાણથી, પ્રતિપૂર્ણ અને સુદર શરીરથી જે યુક્ત છે, એટલે કે તેમનું શરીર સમસ્ત સુલક્ષણે વાળું, સુસ્પષ્ટ અને સપ્રમાણ હોવાથી સંપૂર્ણ शत सु४२ डोय छ, “ससिसोमागारा" भनी माइति यन्द्रमान वा सोभ्य डोय छ, “कता" २ सौने घर! ४ प्रिय लागे छ “पियदसणा"मना शन भनन मयत मानहाय डोय छे “ अमरिसणा" २ अत्याचाराने સહન કરે તે બહુજ ખરાબ ગણે છે એટલે કે અત્યાચારને સહન ની રસ્તા Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सुदशिनी टीका अ० ४ सू० ७ यलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ____४९ प्रचण्ड = दारुगोदण्डमचारः = दुप्ठदमनाऽऽताविशेषस्तन गम्भीरदर्शनीया = गम्भीर = दुप्टजनचित्तक्षोभोत्पादक दर्शनीय = स्वरूप येपा ते तथा सत्पुरुषाणा कृते चन्द्ररत् मियदर्शना, दुर्जनाना कृतेपु कालसदृगा इति भाव 'तालज्मया' तासघना नातागृलाङ्कितो ध्यजो येपा ते तथा तालध्वजा बलदेवाः, तागड़ो गुसलीहली' इत्यमर , तथा 'उविज्झगरु केज' उद्विद्धगरडकेतवः-उद्विद्धः अत्युचिटतो गरुडकेतुः गन्डाङ्कितो बजो येपा ते तया वासुदेवाः 'वनगगज्जतदरियदप्पियमुटियचाणूरचूरगा' पलपद् गर्जन दृप्तदर्पितमाप्टिकचावरचूरकाः = तत्र नलवत - महागक्तिसम्पन्न गर्जन्त'कोऽन्योऽस्माशो मल्ला, इति महायोप कुर्वन्तः, तथा दृप्तदर्पित हप्तेप्यपि दर्पित अतिगर्नयुक्त मौप्टिक चाणूर च-तत्तन्नामक मल्ल चुरयन्ति ये ते तथा कर सकते हैं- (पयडडप्पयारगमीरदरिसणिज्जा ) दारुण दड के प्रचार में जिन की आकृति बहुत भारी गंभीर बन जाती है, अर्थात् दुष्टों को दमन करने रूप आज्ञा में जिनकी आकृनि दुष्टजनों के लिये चित्तमें कालकी तरह क्षोभोत्पादक बनती है और सज्जनोके लिये चन्द्र की तरह प्रियदर्शन वाली होती है । (तालज्ञया उविज्झगरुलकेऊर गलगज्जतदरियदप्पिअमुष्टिचाणूरचूरगा) तथा इनमे बलदेव की ध्वजा तालक्ष के चिह्न से अकिन होती है और वासुदेव की ध्वजा गरुड के चिह से अकित रहती है और बहुत ऊंची होती है । बलदेव ने कृष्ण को मारने के लिये कस द्वारा प्रवर्तित किये हुए मल्लयुद्ध में 'कौन हमारे जैसा पहलवान है' इस अभीमान से जो मदोन्मत्त बनकर घोपणा कर रहे-एव अत्यत मद से उन्मत्त बने हुए थे-ऐसे मौष्टिक नामके मल को नथी “पयड-टडप्पयार-गभीर-दरिसणिन्ना" हा३५ ६३ अहान उरती मते જેમને દેખાવ ઘણે ગભોર થઈ જાય છે એટલે કે દુને શિક્ષા કરવાની આજ્ઞા આપતી વખતે જેમને દેખાવ દુષ્ટ લોકોને માટે યમદેવના જેવો ક્ષોભ ઉત્પાદક બની જાય છે અને જેને માટે તેમની મુખાકૃતિ ચન્દ્રની જેમ प्रियह-निपाणी जाय छ “ तालझया उबिज्झ गरल केऊबलगाउनतदरियास्पिय मुट्ठियचाणुरचूरगा' तसामाना जवनी ८ तासवृक्षनी निशानी पाजी काय છે અને વાસુદેવની ધ્વજા ગગડના નિશાનવાળી હોય છે અને ઘણી ઉંચી, હેય છે કૃષ્ણને મારવા માટે કમ દ્વારા કરવાયેલ મલ્લયુદ્ધમાં બળદેરે “મારા જે પહેલવાન કેણુ છે ” એવા અભિમાનથી જે મદન્મત્ત બનીને ઘણું કરી રહ્યું હતું એવા મૌષ્ટિક નામના મલ્લને મારી નાખ્યો અને વાસુદેવ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.० नयारको महारलमाप्टिकमाणूरादिमजाविश्वगाः परमार्थ करीन प्रतिते मन्त युदे बलराभेण गोप्टिकाभिधाना मागे पागुदेवन च गाणूगमिधानो मल्लो निमः इति । 'रिममवाइगो' रिएपमातिनः = रिटाभिधानकगालीघातका, 'केसरिमुहारिफाडगा' केसरिमुसवितामा विशेषण निपृष्टाभिवप्रथम वामदेवापेक्षया गोध्यम् । म हि नगरोपकारि घनकानननिकामि महासिंह मुख विदारितवान् । ' दरियनागदपमहणा' उप्तनागदमयनाः यमुना निवासि महाविपकालनागपिनाशकाः, ' जमलजुगमनगा ' यमगर्नुनमन्त्रमा यमलार्जुनक्षविनाशकाः ती हि पिठौरिणी विधायरी यमलार्जुननामको वृक्षरूप विकुळ पयि स्थिती चुगितमन्तः। ' महासउणिपूरणऊि' महाशकुनि तनारिपवा महाशकुनिः पूतना च विद्याधरपन्यो, तयो रिपनः । बाल्यावस्थाया मारा, तथा वासुदव कृष्ण ने चाणूर नामके मल्ल को मारा यही बात " पलवग गज्जत०" इस पद द्वारा प्रदर्शित की गई है। तथा (रिट्ठवसभघाणो) जो कस के रिष्ट नाम के मायावी चलीवर्द के घातक प तथा (केसरिमुहविष्फाडगा) केशरी सिंह के मुस को भी फाड़ देते थे, यह विशेषण त्रिपृष्ठ नारायण की अपेक्षा कहा गया जानना चाहिये। क्यों कि उन्ही ने नगर में उपद्रव मचाने वाले जगली सिंह के मुम्ब का विदारित किया है। (दरियनागदप्पमहणा) तथा जिस नारायणन यमुना निवासी महाविपैले काली नामकसर्प का विनाश किया है-तथा ( जमलज्जुणभजणा) नारायण ने पिता के चरी दो विद्याधरों को का जिनका नाम यमल और अर्जुन था और जो मार्ग में वृक्ष का रूप ‘अपनी चिक्रिया से घनाकर खडे हो गये थे उनको मारा है (महासर णि पूयणरिज) तथा जो विद्याधर की महाशकुनि एव पूतना नामक दो हो यार नामना मसने भार्या मे पात “घलवगगज्जत" ५४ द्वारा मतावामा मावी छे तथा — रिदवसभघाइणो "२ ४सना शिष्ट नामना भायावी. दीवना धात त तथा “केसरीमहविप्फाडगा" सिना સુખને પણ ફાડી નાખતા હતા તે વિશેષણ ત્રિપૃષ્ઠ નારાયણને અનુલક્ષીને વપરાયું છે, કારણ કે તેમણે નગરમા ઉપદ્રવ મચાવનાર જ ગલી સિહના સુખને थोरी नायु तु “दरियनागदप्पमहणा" तथा नारायहरे यमुनामा २७ता अतिशय उरी ४जीनागने वश ध्यो , तथा “ जमलज्जुणभजणा" ना। થણે તેમના પિતા વમળ અને અર્જુન નામના બે દમન વિદ્યાધરે, કે જે માર્ગમાં પિતાની વૈક્રિય શક્તિથી વૃક્ષના રૂપ લઈ ઉભા થઈ ગયા હતા तमन भार्या उता. " महासउणिपूयणरिऊ "तथा २ विद्याधरनी भडाश नि भने Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०४ सू०७ बलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४३१ कृष्णस्ते इतवानित्यर्थः 'कममउउमोडगा' कममुकुटमोटकाः कसमुकुटसञ्चूरकाः, कृष्णो हि चाणसवानन्तर कुपित कम युयुत्स मुकुटदेश गृहीत्वा सिंहासनादाकृष्य भुविनिपात्य जगान । तथा 'जरासधमाणमहणा' जरासन्धमानगथनाः जरासन्यग रिनाशका , जरासन्धानका इत्यर्थः, कसबकुपित रानगृहनगरपति जरासन्याभिमान युद्धायोद्यत हतवान् । पुनः कीदृशाः' इत्याह-'तेहि य अनिरलसमसदिय चामडलममप्पभेहि मुरमरीइ काय विगिम्मुयतेहि सप्पडि दडेहि आयात्तेहिं धरिज्जतेहि गियंता ' तर 'तेहिं ' तैश्वातिशयपदिश्छविराजमानाः, इति सम्पन्धः कीदृशैछौ ? इत्याह -अविरलमममहितचन्द्रमण्डलसमप्रभः अपिरलानि धनानि-घनशनकासात् , समानि = तुल्यानि स्थूलत्वेन दीर्यत्वेन च शलाकास्त्रियों के रिपु धे-क्यो कि बाल्यावस्था में कृष्ण ने इन दोनो को मारा था, तथा (कसमउडमोडगा ) कृष्ण ने कस के मुकुट को चूर २ कर दिया या अर्थात्-चाणूर मल्ल के वध करने के अनन्तर जर कस युद्ध करने की इच्छावाला हो गया तो उसे मुकुट को पकड़ कर कृष्णने सिंहासन से नीचे खेच लिया और जमीन पर पटक कर मार डाला, इसी तरह (जरासघमाणमणा) कृष्णने-राजगृह नगर के अधिपति जरासध नाम के राजाओं को मारा हैं, कस के वध हो जाने के बाद जय जरासध कुपित होकर युद्ध करने के लिये उद्यत हो गया या तो कृष्ण ने उसे बात की बात में सग्राम भूमि मे नष्ट कर दिया था, तथा (तेहिय अविरल समसहियचद मडलसमप्पभेहिं सरमरीइकवय विणिमुयतेहिं सप्पडिडेहिं आयवत्तहि धरिज्जतेहिं विरायता)जो अतिशय शाली छत्रों से विराजमान होते हैं अर्थात्-जिन छत्रों से वलदेव और वासुदेव सुशोभित होते हैं उन छात्रों की शलाईयां बहुत अधिक घनीभूत होती પૂતના નામની બે સ્ત્રીઓના દુશમન હતા અને તે કારણે બાળપણમાં તેમણે थे भन्ने भारी ती, तथा “फसमउडमोडगा" रे मना भुपटना यूरे ચૂરા કરી નાખ્યા હતા ચાણુર મલને કૃષ્ણ વધ કર્યો પછી જ્યારે એ કૃષ્ણ સાથે લડવાની ઈચ્છા બતાવી ત્યારે કૃષ્ણ તેને મુગટ પકડીને તેને સિહા સન ઉપરથી નીચે ખેચીને જમીન ઉપર પછાડીને મારી નાખે, આ રીતે " जरासघमा महणा" ] स नगरना in IPLधने १५ उये હત કસને વય થયા પછી જ્યારે જરાસ ધ ક્રોધે ભરાઈને લડવાને તૈયાર थयो त्यारे ४ो मे घीमा तनी २शुभहानमा १५ श्यों डतेतथा “ तेहि य अचिरसमसदियच दमडलसमपभेहिं सूरमरीइ काय विणिमुयतेहिं द डेहिं आयवत्तहिं धरिज्जतेहिं चिरायता" मा घl सजिया पा॥ छत्राथी शमिता Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ प्रश्नग्याकरण ना समत्वात् द्वयोर्डयो गायोरन्तगलम्यापि समत्याग, महिपनि-भलारानां निम्नोन्नतरहितत्वात् , तानि तथा-चन्द्रमण्डलसमप्रमाणि नयेन नन्द्रमण्डल समा प्रभा येपा तानि तया त-तथा 'गरमरीकरय दिगिमायनेदि' सुरमरी चि करच रिनिर्मुशति--पूरमरीश्या पुर्यकिरणास्त मरीचयः देदीप्यमानप्रभूव मणिरत्नैः सर्वतः खचितत्वात् , तेषां कामिन का परिकर मण्डलाकारपरिण तत्वात् , त पिनिश्चिति साम्यन्दिः, तथा 'गप्पउिदडेटिं' समतिदण्ड =अतिविशालपादेकेन दण्डेन धारणा शक्यत्या मति गडमाहितः 'आपवत्तेहिं ' जातपत्रे:हैं, स्थूलता पर दीर्घना में समान होती तथा दो दो शलाकाओं का अन्तराल भी सम रोता है तथा ये मय शलाका ऊँची नीची नहीं होने के कारण, अर्थात-एक सी होने के कारण परस्पर में सहितमिली हुई होती है, इसलिये ये छत्र अविरल, मम और सहित रोते हैं । तथा इन सय छत्रों की प्रभावृत्त-गोल-होने के कारण पूर्णचंद्र मंडल जैसी होती है। तथा-ये समस्त पत्र देदीप्यमान अनेक मणियों एवं रत्नों से जड़े हुए होने के कारण जिस किरण जाल को छोड़ते है वह ऐसा मालूम पड़ता है कि यह सूर्य की किरणों का ही जाल है, क्यों कि घर आसपास में मडलाकार से परिणत घना रहता है। तथा इन छत्रों में विशाल आकारवाले होने के कारण भिन्न २ दडे लगे रहते है एक ही दडे के सहारे ये नही रहते हैं, क्यो कि एक ही दडे से इनका अति विशाल होने के कारण सभालना अशक्य होता है। ऐसे ध्रिय હિોય છે એટલે કે જે છ બળદેવ અને વાસુદેવ ઉપર ધગ્યામાં આવે છે તે છત્રોના સળિયાઓ ઘણી જ પામે પાસે હોય છે. જાડાઈ અને લબાઈમાં સરખા હોય છે, તથા બે સળિયાઓ વચ્ચેનું અતર પણ સરખુ હેય છે તથા તે સળિયા લાબા કા નહી હોવાને કારણે, એક સરખા હોવાને કારણે પરસ્પર જોડાયેલ હોય છે, તેથી તે છત્ર અવિરલ, સમ અને સ હિત હોય છે અને તે સઘળા છને પરીઘ ગોળ હોવાને કારણે તે પૂર્ણચન્દ્ર જેવા લાગે છે તથા તે છત્રા પર અને તેજસ્વી મણીઓ અને રત્નો જડેલા હોય છે તેથી તેમાથી જે કિરણ જાળ નિકળે છે તે સૂર્યની કરજાળ જેવી લાગે છે, કારણ કે તે આસપાસમાં મકલાકારે પથરાયા કરે છે તે છત્રે ઘણું વિશાળ હોવાથી તેને આધાર આપવાને અનેક દડા રાખ્યા હોય છે એક દડાને આધારે તે રહી શકતા નથી, કારણ કે તે છો એટલા વિશાળ હોય છે કે એક જ દડા વડે તેને સંભાળવા અશક્ય છે. > એ કરતા 3ના ત્રાથી Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा म० ४ सू० ८ वलदेववासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४३३ महाछत्रैः ' धरिजतेहिं ' पार्यमाणै ' विरायता' विगजमानाः। ये एतादृशास्तेऽपि काम भोगानृप्ता एव मरणधर्ममुपनमन्तीति योगः ॥ मू० ७ ।। पुनः कीदृशास्ते ? इत्याह- 'ताहिय' इत्यादि मूलम्-ताहिय पवरगिरिकुहर-विहरण-समुद्धियाहि निरुवहयचमरिपच्छिमसरीरसजायाहि अमइल-मियकमलविमुकुलुज्जलियरययगिरि-विहरविमलसमिकिरण-सरिसकहोयनिम्मलाहि पवणाहयचवलचलिय-सललियनच्चियवीइपसरिय-खीरोदगपवर-सागरुप्पूर-चवलाहि माणससरपसर-परिचियावास-विसय-वसाहि कणगगिरि-सिहर संसियाहि ओवाउप्पाय-चवल-जविय-सिग्घवेगाहि हसवधूयाहि चेव नानामणिकणग-महरिह-तवणिज्जुज्जल-विचित्तदडाहि सललियाहि नरवइसिरिसमुदयप्पगासणकराहि वरपट्टणुग्गयाहि समिद्धरायकुलसेवियाहि कालागुरुपवरकुदुरुकतुरुक्क धूववासविसिहगंधुयाभिरामाहि चिल्लियाहि उभओ पासपि चामराहि उक्खिप्पमाणाहि सुहसीयलवायवीयियंगाअजिया अजियरहा हलमुसलकणगपाणी सखचक्कगयसत्तिणं दगधरा पवरुज्जलसुफय-विमलकोथुभ-किरीडघारी कुडल उज्जोइयाणणा पुडरीयणयणाएगावलिकठ राइयवच्छा सिरिवच्छ सुलछणा बरजसा सव्वोउय सुरभि कुसुमरइयपलव-सोहत माण छन्त्रों से ये विराजमान रहते है। ऐसे ये बलदेव और वासुदेव भी काम भोगों से मतृप्त बने रहते है और इसी स्थिति में मरणधर्म को प्राप्त करते है ॥ सू०७॥ શોભતા બળદેવ અને વાસુદેવ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહે છે એ સ્થિતિમાં भर पामे छे ॥ ९-७ ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ प्रभव्याकरण वियसत विचितवणमाल रइयवच्छा अहसयविभत्तलखण. पसत्थसुंदर - विराइयंगुवंगा मत्तगयवरिंद-ललिय - विक्रम विलसिय-गईकडिसुत्तकनील पीय-कोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयणवथणिय महरगंभीर--निद्धघोसा नरसीहा सीहविकमगई अत्यमिय पवररायसीहा सोम्मा वारवई पुण्ण चंदा पुवकयतवप्पभावा निविसचियसुहा अणेगवास सयमाउन्वतो भजाहियजणवयप्पहाणाहिं लालियता अउल-सदफरिस- रसरूवगधे य अणुभवित्ता ते वि उवण मंति मरणधम्म अवितित्ता कामाणं ॥ सू० ८॥ टीका!- 'ताहिय' ताभित्र पक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टाभिचामरामिति प्यमानाभिः सुख शीतलपातपीमिताहारलदेवासुदेवा, इति सम्बन्धः। कयम्भूताभिवामराभिः । इत्याह-'पनरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं' परगिरिकुहरविहरणसमुद्धृताभि.प्रवरगिरिणां यानि कुहराणिन्गहराणि तेषु यद् फिर वे कैसे होते है सो कहते हैं-'ताहिय' इत्यादि । टीकार्थ:- (ताहि य उस्सिप्पमाणाहिं चामराहिं सुरसीयलवाय वीइयगा) इन वक्ष्यमाण विशेपणों से विशिष्ट ढोले गये चामरों की सुखप्रद शीतल वायु से जिनका अग वीजित होता रहता है ऐसे पलदेव और वास्तुदेव भी काम से अतृप्त ही मरण को प्राप्त करते हैंऐसा सबंध यहा भी लगा लेना चाहिये। अब सूत्रकार चामरों के विशेषणो को स्पष्ट करते हैं - (पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं ) जब चमरी गाय उत्तम पर्वतों की गुफाओं मे विचरण करती हैं तब वह ७ तेसो वा खाय छ तेनु वधु वएन रे छ—“ ताहिय" त्या सार्थ-"ताहि य उक्सिप्प माणाहिं चामराहिं सुहसीयलवायवीइ यगा" मा પ્રમાણેના વિશેષણવાળા, ચામરેવડે ઢાળવામાં આવતા આનંદદાયક શીતળવાયું વડે જેમના અને વાયુનું સેવન કરી રહેલા છે એવા તે બળદેવ અને વાયુ દેવ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુને પળે પળે છે એ સ બ ધ અહી પણ સમજી લે હવે સૂત્રકાર ચામરોના વિશેષણોની સ્પષ્ટતા કરે છે "पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं” न्यारे यभरी गाय उत्तम पानी Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुशिंनी टीका अ ४ सू०८ बलदेवनासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४३५ विहरण चमर्याख्यगवीना विचरण तस्मिन् काले समुद्धृताः कण्टकक्ष सलग्नभयाइ जीकृता यास्तास्तथा, ताभिः, 'निरुवयचमरिपच्छिमसरीरसजायाहिं 'निरुपहतचमरीपश्चिमशरीरसजाताभिः = निरुपहताना = नीरोगाणा चमरीणांगो विशेषाणा पश्चिमशरीरे-पुच्छपदेशे साताभिः = समुत्पन्नाभिः 'अमइलसियफमळविमुकुलुज्जलियरययगिरिसिहरविमलसमिकिरणसरिस कलधो यनिम्मलाहिं । अमलिनसितकमलविमुकुलोज्ज्वलितरजतगिरिशिखर-विमल शशिकिरणसदृशकलपोतनिर्मलाभिः तत्र ' अमइलसियकमल ' अमलिनसित. कमलम् अमलिन अम्बान शीतातपादिमिः यत् सितकमल-श्वेतकमल मुण्डरीक तच विमुकुल विकसित तथा 'उज्जलियरययगिरिसिहर' उज्ज्वलितरजतगिरि शिखरम्-उज्ज्वलित भास्वर यद् रजतगिरिशिग्मर तथा पिमलशशिकिरणाः = विमला:-निर्मला ये शशिन चन्द्रस्य फिरणाश्च तत्सदृशाः कलपीतवत्-शुद्धरजतरनिर्मला:-धनलायास्तास्तथा ताभि-अम्लानविकसितश्चेतकमलोज्ज्वलरजतपर्वतशिखरविमलचन्द्रकिरणशुदरजतपदुज्ज्वलाभिरित्यर्थः । तथा 'पवणाहयचत्र उस समय कण्टकमय वृक्षो मे लग जाने के भय से अपनी पूछ को ऊँचा उठा लेती है इसलिये यहा प्रकट किया रहा है कि जो चामर चमरी गायकी पूछ में उत्पन्न होने के कारण प्रवरगिरि के कुहरों में भ्रमण काल के समय में ऊचे उठाये गये थे तथा (निरुवयवमरीपच्छिमसरीरसजायाहिं ) जो निरुपहत-निरोग अवस्थावाली चमरी गायों की पूछ मै उत्पन्न हुए हैं, तथा (अमइलसियकमलविमुकुलुज्जलिय रययगिरि सिहरविमलससिकिरणसरिसकलधोयनिम्मलाहिं ) जो शीत आतप आदिसे म्लान नहीं हुए विकसित श्वेत कमल के समान, भास्वर, रजत गिरि के शिखर के समान, निर्मलचद्र की किरणों के समान, एव शुद्ध चादी के समान निर्मल होते हैं।तथा (पवणा हयचवल चलियसललिગુફાઓમાં ફરતી હોય છે ત્યારે વાટાળા વૃક્ષમા ભરાઈ જવાની બીકે તે પિતાની પૂછડીને ઊચી રાખે છે તે કારણે અહી એમ બતાવવામાં આવ્યુ છે કે જે ચામર ચમરી ગાયની પૂછડીમાં ઉત્પન્ન થવાને કારણે ઉત્તમ પર્વતની ગુફાमामा भ्रम ४२ती मते या side ता, तथा " निस्वयचमरीपच्छिमसरीरसजायाहि " ? नी। शरी२ पाणी यमरी गायनी पूछडीमा उत्पन्न येस छ, तथा “ अमइल-सियकमल-विमुकुलुज्जालिय-रययगिरिसिहरविमलससि-किरणसरिसफलधोयनिम्मलाहि" २ शीत, त५ महिना आमा न પડેલ વિકસિત વેત કમળ સમાન, ભાસ્વર, રજતગિરિના શિખર સમાન, નિર્મળ ચન્દ્રના કિરણે સમાન, અને શુદ્ધ ચાદીના જેવા નિર્મળ હોય છે, Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ प्रश्नध्याकरण वियसत विचितवणमाल रइयवच्छा अहसयविभत्तलखणपसत्थसुंदर - विराइयंगुवगा मत्तगयवरिंद-ललिय - विक्रम विलसिय-गईकडिसुत्तकनील पीय-कोसेज्जवाससा पवरदित्ततेया सारयणवथाणिय महरगंभीर-गिद्धघोसा नरसीहा सीहविकमगई अत्थमिय पवररायसीहा सोम्मा वारवई पुण्ण चंदा पुवकयतवप्पभावा निविसंचियसुहा अणेगवास सयमाउन्वतो भज्जाहियजणवयप्पहाणाहिं लालियता अउल-सदफरिस-रसरूवगधे य अणुभवित्ता ते वि उवण मंति मरणधम्म अवितित्ता कामाण ॥ सू० ८॥ टीका:- 'ताहिय' ताभित्र वक्ष्यमाणविशेषणविशिष्टाभिश्वामराभिरुरिक्ष प्यमानाभिः सुख शीतलपावरीनिवागावलदेवासुदेवा, इति सम्पन्धः। कयम्भूताभिश्वामराभि. ? इत्याह-'पारगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं' प्रवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धृताभिः अमरगिरिणां यानि कुहराणि-गहराणि तेषु यद् फिर वे कैसे होते हैं सो फरते हैं-'ताहि य' इत्यादि। टीकार्थ:- (ताहि य उक्सिप्पमाणाहिं चामरादिं सुरसीयल. वाय वीइयगा) इन वक्ष्यमाण विशेषणों से विशिष्ट ढोले गये चामरा की सुखप्रद शीतल वायु से जिनका अग वीजित होता रहता है ऐसे पलदेव और वासुदेव भी काम से अतृप्त ही मरण को प्राप्त करते हैंऐसा सयध यहा भी लगा लेना चाहिये। अय सूत्रकार चामरों के विशेषणो को स्पष्ट करते हैं - (पवरगिरिकहरविहरणसमुद्धियाहि ) जव चमरी गाय उत्तम पर्वतों की गुफाओं में विचरण करती है तब वह ७ ते उप राय छे तेनु qधु १ २ छ-" ताहिय" त्याल साथ-"ताहि य उक्सिप्प माणाहिं चामराहि सुहसीयल्वायवीइ यगा" मा પ્રમાણેના વિશેષણવાળા, ચામરેવડે ઢાળવામાં આવતા આનંદદાયક શીતળવાય વડે જેમના અને વાયુનું સેવન કરી રહેલા છે એવા તે બળદેવે અને વાસુ દેવ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુને પળે પળે છે એ સંબધ અહી પણ સમજી લે હવે સૂત્રકાર ચામરેના વિશેષાની સ્પષ્ટકા કરે છે "पवरगिरिकुहरविहरणसमुद्धियाहिं" न्यारे यभरी गाय उत्तम पक्तानी Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ सुदशिनी टीका २० ४ सू० ८ बलदेवासुदेवस्वरूपनिरूपणम् पातोत्पात चपल जमित शीघ्रनेगाभिः अवपात:-उ भूयारःपतनम्, उत्पात:= अधोभूलार्वगमन, तयो. चपल चञ्चल: जविता-गयुक्त अतएव शीघ्र वेगोगतिर्यासां तास्तथा ताभिः ' इसमयाहिं चेर' हमवभिरिवहसीभिरिवहसीनत्मतीयमानाभिरित्यर्थः । पुनः कथम्भूताभिचामराभिः ? इत्याह-'णाणामणिरणगमहरिहतरणिजुजरिचित्तदडाहि' नानामणि क्नक महाईतपनीयोज्ज्वलविचित्रदण्डाभिः-तत्र नानाविधामणय = चन्द्रकान्तादयः कनक-पीतवर्ण मुपण तथा महाह-बहुमूल्य यत् तपनीय च-रक्तवर्ण सुवर्ण तैरेतैरुजवला.भास्वराः विचित्रा = मणिमुवर्णादीना सम्मिश्रितकान्तिभिश्चिनः विचित्रा दण्डा यासा तास्तथा ताभि. विविधमणिखचितरक्तपीतसुवर्णदण्डयुक्ताभिः, यथा सुवर्णगिरिशिखरे स्थिता इस्यः शोभमाना समुल्लसति तथा मुवर्गगिरिस्थानीय सुवर्ण दण्डोपरिस्थिवामि. धालत्वात् हसीभिरितिभावः । तथा ' सललियाहि ' सललि अवपात-ऊँचे जाने में जिन की गति बहुत अधिक वेग को लिये हो रही है ऐसी (हसवधूचाहिं चेव) इस वधूओ के समान जो चामर अपनी शुभ्रता के कारण ज्ञात हो रहे है । तया (नाणामणिकणगमहरिह तवणिज्जुज्जलविचित्तदडाहिं) जिन चामरों के दड चंद्रकान्त आदि नाना प्रकार की मणियो की काति से, पीतसुवर्ण की प्रभा से, एव बहुमूल्य तपे हुए रक्तवर्ण वाले सुवर्णकी आभासे-इन सबकी परस्पर मिश्रित कान्ति च्छटा से-अधिक उज्जल और रंग विरंगे मालूम दे रहें है, अर्थात् जिस प्रकार सुमेरुपर्वत के तट पर स्थित इस कामनियाँ सुहावनी लगती है उसी प्रकार ये चामर भी सुवर्णगिरि के शिखर-तट जैसे दडों पर स्थित होने के कारण अपनी धवलता के कारण इसनियों के समान प्रतीत होते हैं (सललियाहिं ) ये चामर वेगाहि" यथा नाच गावामा भने नीन्यथा ये सवामारनी गति अभी डाय छे को हसवधूयाहिं चे" सवधूसा (उमदीया) रेवारे याभरे। पातानी ततान डारणे दागे तथा “नाणामणिकणगमहरिहतवणिज्जुनलविचित्तदडाहिरे याभरीना 31 यान्त ALE विविध પ્રકારના મણુંઓના કાતિથી, પીતસુવર્ણની પ્રભાથી, અને તપાવેલા બહુમૂલ્ય વાન રનવર્ણના અવની આભાથીએ બધાની પરસ્પર મિશ્રિત કાન્તિથી-અધિક ઉજજવળ અને રગ બે રંગી લાગે છે, એટલે કે જેમ સુમેરુ પર્વતના શિખર પર રહેલી હસલીએ સુદર લાગે છે એ જ પ્રમાણે તે ચામરે પણ સુવર્ણ ગિનિ શિખર જેવા દડે ઉપર આવેલ હોવાથી પોતાની તતાને કારણે सलीमा वा दागे छे “सललियाहिं " ते याम। सालित्य पाणा ता. Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरणसूत्र लचलियस ललियनचियपीयपमरियापीरोदगपरमागरमार्टि ' पानाइतचपलचलितस ललितनतिन मीनिमारकीरोपामारसागरीत्पूग्नपगमि. = तत्र पानेन = वायुना जाहत = घटितः, तपन चपल यथास्यास्तथा चलितः सललित सपिलगिन र ननिता गतिविगग मात , तथा गरिभि'तरने मस्तः क्षीरोदकावरमागरस्य = क्षीर मागास्य य उत्पूर' जलममास्तद्वन् चपलाभि चलामिः पाघालतरजयुक्ततीरमागरनीरमराहसमतीयमानाभिः, अथ हसपभिरुपमयन्नाह 'माणमसरपसरपरिचियानासमियरमादि । मानस सरः प्रसरपरिचितावास गिदवे पामि.-मानमसरसः अमरे-विस्वतमदेगे परिचितः अभ्यस्त आरास: निरन्तरनिगामा, अतर विगदापाला वेपो-वर्णो यासों तास्तथाविधामिः, 'यणगगिरिसिहरमसियाहि कनकगिरिशियरसश्रितामिःसुमेरुतटविहारिणीभिः, अतएन ‘ओगाउप्पायचल जरियसिग्मयेगाहिं ' अब यनच्चियइयपसरीयखीरोदगपरसागपूरचवलारि ) वायु से आहत होने के कारण अत्यत चपल बने हुए और इसी से जो मानो विलास सहित होकर नृत्य कर रहा है, तथा तरगोने जिसे विशेप विस्तृत कर दिया है ऐसे क्षीरसागर के प्रवाह के समान जो चचल है अर्थात् अत्यत धवल तरगों से युक्त क्षीरसागर के प्रवार के जैसे जो दिखाई दे रहे हैं। तथा (माणससरपसरपरिचियावासविसयवसादि) जो हसवधू के समान प्रतीत हो रहे है, हसो मानमरोवर में रहती है इसी विषय को लेकर सूत्रकार कहते हैं कि मानसरोवर के विस्तृत प्रदेश में अभ्यस्त निरन्तर निवास के वश से जिन हमयधुओ का वर्ण धवल हो गया है, और (कणागिरिसिहरससियाहिं ) जो सुमेरुपर्वत के तटो पर विहार करती हैं, तथा (ओवाउप्पायचवल जवियसिग्घवेगाहि) तथा “पवणायचवल-चलिय-सललिय-नच्चियबीइ-पसरिय-खीरोदगपवर-साग रुप्पूरचवलाहि " ५५न भाववान ४२ यस भनेर भने ते २ ng વિલાસી બનીને નૃત્ય કરતા હોય તેવા તથા તરગોએ જેને વધારે વિસ્તૃત કરી નાખેલ છે એવા ક્ષિર સાગરના પૂર સમાન જે ચચળ છે–એટલે કે સફેદ તરગેથી યુક્ત ક્ષીરસાગરના પ્રવાહ જેવા જે કોઈ દેખાઈ રહ્યા છે, તથા "माणससर-पसर-परिचियावोसविसय-साहि "२ सखीमान वा हा છે, હસેલી માનસરોવરમાં રહે છે તે વિષયને અનુલક્ષીને સૂત્રકાર કહે છે કે માનસરોવરના વિસ્તૃત પ્રદેશમાં હમેશા રહેવાને કારણે ને હસલીઓના ૨ગ श्वेत थई गया हाय छ, भने-" कणगगिरिसिहरससियाहिं" 2 सुभर पवंतन शिम। ५२ पिडा२ उरे छे, तथा “ओवाउप्पायचवलजवियसिग्ध Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिनी टीका ० ४ सू० ८ बलदेवासुदेवस्वरूपनिरूपणम् 'उमओ पामपि ' उमयोरपि पार्श्वयोः, 'उक्खिप्पमाणाहिं' उत्तिप्यमाणाभिः वीज्यमानाभिः-सञ्चाल्यमानाभिरित्यर्थः, 'चामराहि' चामराभि घालव्यजनैः, चामरशब्द स्त्रीलिङ्गोऽपि 'चामर चमराऽपि च' इति मेदनी कोपात्, 'सुहसीयलगा. य' सुख शीतलपाताभिः सूत्रे लुप्तविभक्तिक पदम् , सुखदः शीतलश्व वाताबायुर्यासा तास्तथा ताभिः 'वीडयगा' वीजीतागाः-धीजीतान्यगानि येपा ते तथा 'अजिया' अजिताः अन्यैरपराजिता 'अजियरहा' अजितरथा अपराजितरथाः 'हलमु. सलकणगपाणी' हलमुसल कनकपाणयः= हल च मुसल च कनर नकाभरण वलय इत्यर्थः हस्ते येषा ते तया हलमुसल कनक पाणयो वलदेवाः । वासुदेवाश्च 'सख चकगयसत्तिणदगधरा ' शड्ढ चक्रगदागक्ति नन्दनधरा:-शङ्ख पाञ्चजन्या भिध'चक्र-मुदर्शनारय, गदा कौमोदकी शक्तिः-शस्त्रविशेप , नन्दकश्च खड्ग , एतान् परन्ति ये ते तया, नासुदेव विशेषणमिद, 'पररुज्जलसुफयविमलकोथुम किरीडधारी' प्रवरोज्ज्वलसुकृतविमलकौस्तुभकिरीटधारिण = प्रमरोज्ज्वलः = ये अपनी कान्ति से बहुत अधिक देदीप्यमान हो रहे थे। ऐसे ये (चामराहिं ) चामर कृष्ण और बलदेव की (उभओ पासपि) आज बाजू में-दोनों पार्श्वभागो में-ढोले जा रहे थे। (सुरसीयल वायवीइयगा) इनसे निर्गत सुखद और शीतल वायु से इनका शरीर वीजा जाता था (अजिया) ये यलदेव और वासुदेव अन्य व्यक्तियों द्वारा अपराजित थे। ( अजियरहा ) इनके रथ को रोकने की किसी भी व्यक्ति में शक्ति नहीं थी, इसलिये ये अजित रथ थे। (हलमुसलकणगपाणी) पलदेव के हाथ में एल मुसल तथा सोने के आभरण अर्थात् कडे रहते थे। पाचजन्य नामका शख, सुदर्शन नामका चक्र, कौमोदकी नामकी गदा, शक्ति नामका शस्त्र और नदक नामकी तलवार, ये सब कृष्ण वासुदेव के पास रहते थे । अत्यत भास्वर, (पवरुज्जलसुकविमलको" चिल्लियाहिं " तो तभनी अन्तिथी ! ar arl aniता उता मेवा ते “चामराहि" याभरे ४८ अने भगवनी " उभयो पासपि" मान्नुमापुणे भन्ने ५७ सपामा सावता ता "सुहसीयल्वायवीईयगा" તેનાથી ઉત્પન્ન થતા શીતળ અને સુખદ વાયુ તેમના શરીરપર વીઝા હો " अजियो" ते म सने वासुदेव भीली द्वा२१ सपरित ता " अजियरहा" तमना २याने पानी did as ५५ व्यतिमा न ती तेथी तो मरित२५ त " हलमुसलकणगपाणी" बना डायमा , મુસળ અને સેનાના કડા રહેતા હતા પાચજન્ય નામને શખ, સુદર્શનચકે, કૌમાદકી નામની ગદા, શક્તિ નામનું શસ્ત્ર અને નદડ નામની તલવાર એ બધુ ४८५ पासवा 30 "पवरुज्जलसुकय-त्रिमल-कोथुम-किरीहधारी" Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ प्रश्नम्यारो साभिः = लालित्ययुक्ताभिः, 'नरपड सिरिगमुदगणगामणकराहि' नरपति श्री समुदयमकाशकरामिराजलक्ष्मी प्रार्प चिकामिः, 'घरपट्टणुग्गयाहिं' वरपर नौद्गवाभिः = शिल्पिप्रधाननगरनिमित्नागि, ' समिद्वरायकुलसेवियारि' समृद्धराजकुलसेषितामिः = पितृपितामहादि परम्परया समागतामि, ते परिधृताभिरित्यर्थः, 'कालागुरुपारादुरगनुकाधनामनिमिष्टगधुद्ध्यामिरामा' फालागुरुपपरकुन्दुरुप्फतुरुपचूपरिगिष्टगयोद्धृताभिरामाभिः = तत्र काला गुमा-कृष्णागुरुः प्रार-प्रधान-सर्वोत्तम, अन्दुरुप चीडारयगन्याव्य, तुरुक तुरुफदेशोद्भव-सिस्काभिधगन्धद्रव्य 'लोगान' इति भाषा प्रसिद्धम् , इत्येतल क्षणा यो धूपाः धूपरिशेपास्तेपा यो पास बासना तेन विशिष्ट विस्पष्टो गन्धः स उद्धृतः परितो विमारी तेन अभिरामा मनोशा यास्तास्तथा तामिः, नाना विधधूपगधयुक्ताभिरित्यर्थः 'चिल्लियाहि' देदीप्यमानामि देशीशब्दोऽयम्, लालित्य से युक्त थे। तथा (नरवइसिरिसमुदयप्पगासणकराहि) जिनके ऊपर ये ढोरे जाते है उनकी ये राजलक्ष्मी के प्रकर्ष के सूचक होते हैं । तथा ( वरपट्टणुग्गयाहिं ) साधारण स्थानों में ये नहीं बनाये जाते हैं किन्तुजो शिल्पिप्रधान नगर होते हैं उन्हीं में ये निर्मित होते हैं। तथा (समिद्धरायकुलसेवियाहिं ) घलदेव और वासुदेव पर जो चामर ढोरे जा रहे थे-वे उनकी वशपरपरा से चले हुए आ रहे थे। ( कालागुरुपवरकुदुरुक तुरकघूववासविसिद्धगधुळ्याभिरामाहि) ये चामर कालागुरु उत्तम चौडा नामकगधद्रव्य तथा लोबान को जलाकर उनकी गध से वासित किये हुए थे, अत. इनकी चारों ओर सुगध निकल कर फैल रही थी उससे ये बड़े मनोहर लगते थे। तथा (चिल्लियाहि ) तथा " नग्वइसिरिसमुदयप्पगासणकराहि" भनी ५२ ते ढाय छ, तेमनी सरसभीनी विYसताना ते सूय हाय छ तथा " वरपणुगायाहि. "साधा રણ સ્થાનેમાં તે બનતા નથી પણ જે શિપ પ્રધાન નગરે હોય છે, તેમા ४ याभरे। मनापामा मा छे तथा " समिद्धरायकुलसेवियाहिं " महेष અને વાસુદેવ પર જે ચામર ઢોળવામા આવતા તે તેમની વશપર પરાથી यात्या मावतात "कालागुरु-पवरकुदुरुक-तुरुक-धूववास-विसिट्ठ-गधुद्ध्याभि रामाहि" ते यामशेने s मरु, उत्तम यी नामनु सुगधाहा२ द्रव्य, તથા લોબાનનો ધૂપ દઈને તેમના ગધથી સુગધ યુક્ત બનાવ્યા હતા, તેથી તેમની સુગધ મેર ફેલાઈ રહી હતી તેથી તે મનોહર લાગતા હતા તથા Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका ० ४ सू० ८ बलदेवयासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४३९ 'उमओ पासपि ' उमयोरपि पार्श्वयोः, 'उक्विपमाणाहि' उत्तिप्यमाणाभिः= वीज्यमानाभिः सञ्चाल्यमानाभिरित्यर्थः, ' चामराहिं' चामरामि घालव्यजनैः, चामरशब्द स्त्रीलिङ्गोऽपि 'चामर चमराऽपि च' इति मेदनी कोपाव, 'सुहसीयलमाय' सुख शीतलपाताभिः सूत्रे लुप्तविभक्तिक पदम् , सुखदः शीतलश्च वात: वायुर्यासा तास्तथा ताभिः 'वीडयगा' वीजीतागाभीजीतान्यद्गानि येपाते तथा अजिया' अजिताः अन्यैरपराजिता 'अजियरहा' अजितरया: अपराजितरथाः 'हलमुसलकणगपाणी' हलमुसलकनकपाणया- हल च मुसल च कुना कनकाभरण वलय इत्यर्थ: हस्ते येपा ते तथा हलमुसल कनक पाणयो चलदेवाः। वासुदेवाश्च 'सख चकगयसत्तिणदगधरा ' शड्ड चक्रगदागक्ति नन्दनधराः शङ्ख पाञ्चजन्या भिधाचक्र-सुदर्शनाख्य, गदा-कौमोदकी शक्तिः शस्त्रविशेष , नन्दकश्च खड्ग, एतान् घरन्ति ये ते तया, वासुदेव विशेषणमिद, 'पररुज्जलसुफयविमलकोथुम किरीडधारी ' प्रवरोज्ज्वलसुकृतविमल कौस्तुभकिरीटधारिण = प्ररोज्ज्वला = ये अपनी कान्ति से यहुत अधिक देदीप्यमान हो रहे थे। ऐसे ये (चामराहि) चामर कृष्ण और बलदेव की (उभओ पासपि) आज पाजू में-दोनों पार्श्वभागो में-ढोले जा रहे थे। (सुलीयल वायवीइयगा) इनसे निर्गत सुखद और शीतल वायु से इनका शरीर वीजा जाता था (अजिया ) ये यलदेव और वासुदेव अन्य व्यक्तियों द्वारा अपराजित थे। ( अजियरहा ) इनके रथ को रोकने की किसी भी व्यक्ति में शक्ति नहीं थी, इसलिये ये अजित रथ थे। (एलमुसलकणगपाणी) पलदेव के हाथ में हल मुसल तथा सोने के आभरण अर्थात् कडे रहते थे। पाचजन्य नामका शख, सुदर्शन नामका चक्र, कौमोदकी नामकी गदा, शक्ति नामका शस्त्र और नदक नामकी तलवार, ये सब कृष्ण वासुदेव के पास रहते थे। अत्यत भास्वर, (पवरुज्जलसुकविमलको"चिल्लियाहिं " तसा तभनी तिथी ए॥ तेरवी माता तो मेवा ते " चामराहि" याभो ! मन जोनी " उभयो पासपि " मागजुम्मे मन्न ५ ढाणपामा सावता उता "सुहसीयलवायवीईयगा" તેનાથી ઉત્પન્ન થતા શીતળ અને સુખદ વાયુ તેમના શરીરપર વીઝાતે હતે " अजिया" त म भने वासुदेव in all द्वा२। २०५२नित ता " अजियरहा" तमना २थान वानी तlslat ५ व्यतिमा न ती तेथी तशी मति२५ ता" हलमुसलकणगपाणी" विना थमा ९१, મુસળ અને સેનાના કડા રહેતા હતા પાચજન્ય નામનો શખ, સુદર્શનચક, કોદકી નામની ગદા, શક્તિ નામનુ શસ્ત્ર અને નદક નામની તલવાર એ બધુ ५०५ पासव पाये २तु तु “पवरुज्जलसुकय-विमल-कोथुभ-किरीधारी" Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० प्रश्नण्याकरणस्ने अतिभास्वरःगुरुतः गुष्ठ रचितो पिमलापलो याकौस्तुमा मणिविशेषस्त तथा किरीट-मुकुट च धारयन्ति ये ते तथा इदमपि गमुदेव विशेषगम् । 'उडर उज्जो वियाणणा' कुण्डठोयोतितानना =Tण्डलार्णभूषणे -उद्योतित माश्रित मानन-मुख येपा ते तथा, 'पुढरीयणयणा' पुण्डरीरनयना' = मिठाया 'एगा चलिकठरहयय छा' एकापलीकण्ठरचितास एकापलीमण्टे रचितारण्ठावलम्पिनी सतीकता समिक्ष स्थळे येपा ते तया सिरिस हालत्रणा ' श्रीवत्ससुलान्छनाः श्रीवत्म श्रीवत्सास्वस्तिकरिशेपः स एर गोभन लाग्न येषा ते तया 'घरजसा' परयशस रिश्रुतीर्तय. 'सयोउयमुरभिमुमरइय-पलब सोहत-रियसत-विचित्तरणमा रहय-पन्ग' सर्तकमुरभिकम्मरचित-मलम्ब शोभमानविकसदानचित्रवनमाला रचित यसम' स मतुम मुरभिमुमेमुगन्धिपुप्पैः रचिताः निर्मिता प्रारम्भशोभमाना-परम्पमानत्वेन मुशोभना धुभकिरिडधारी ) अत्यन्त भास्कर अच्छी तरह से रचित, तथा स्वच् ऐसा कौस्तुभ रत्न तथा किरीट-मुकुट इन्हें कृष्ण वासुदेव धारण करते थे। नधा ( कुडल उज्जोयाणणा) इन दोनों भाईयों का मुग्व कोभूपणों से सदा प्रकाशित रहता था। (पुटरीयणयणा) इनके नयन पुडरिक- (श्वेतरुमल ) जैसे शोभायमान थे। (एगावलिकठरइयवच्छा) फठ में जो ये एमावली हार पहिने हुए ये वह छाती तक लटकता था। (सिरियच्छ सुलछणा ) श्रीवत्स नामक स्वस्तिक विशेष चिह्न इनके वक्षस्थल में या (वरजसा) चारों तरफ इनकी कीर्ति फैली हुई थी, (सव्वोउयसुरभिकुसुमरदयपलयसोहतवियसतविचित्तवणमालरइयवच्छा) इनके वक्षस्थल पर जो वनमाला लटक रही थी वह समस्त ऋतु सबधा सुरभितपुष्पों से गुथी हुई थी, एव बहुत लयी थी, इसलीये बड़ी અત્યત ભાસ્વર-સુદર રીતે તૈયાર કરેલ, સ્વચ્છ સ્તુભ રન તથા કિરીટમુ गट वासुदेव पाए उता ता तथा “कुडलउज्जोइयाणणा" ते मन्न सामाना भुम भूषणेथी सहा प्रशित २ता उता, "पुडरीयणयणा" तमना नयन पुरी (म३६ ४५) २१ सुह२ ता 'एगावलीकठरइयवव ” કમા જે એક સરવાળે હાર પહેર્યો હતો તે છાતી સુધી લટકતા હતા " सिरिवच्छसुल्छणा" तमना पक्षस्थ ५२ श्री .स नामनु स्वस्ति विशेष यिह तु, “ वरजसा " तेभनी ति याभ२ व्यापी ती, “ सव्योउय-सुर भिकुसमरइय-पल न-सोहत-वियसत विचित्तवणमाल-रइयवच्छा" तभना पक्ष न्य પર જે પુપમાળા લટકતી હતી તે બધી ઋતુઓના સુગધિદાર ફૂલે વર્ડ ગુયેલી હતી, અને બહુ લાબી હતી, તેથી તે ઘણી સુંદર લાગતી હતી, તથા Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका भ० ४सू० ८ घरदेवयासुदेवस्वरूपनिरूपणम् ४४१ विकसन्ती-विकसायमाना विचित्रा नानारूपकुमुमग्रथितत्वाच्चित्ररूपा या वनमाला सा रचिता वक्षसि वक्षःस्थले येपा ते तया, 'अष्टमयविभत्तलक्खणपसत्य मुदरविराइयगुवगा ' अष्टशतविभक्तलक्षगप्रशस्तमुन्दरपिराजिताङ्गोपाङ्गा = अष्टशतविभक्तरक्षण'-अष्टोत्तरशतप्रकारलक्षणैः प्रशस्तैः = लायनीयैः सुन्दरैः नयनाहादजनकैः विराजितान्यगोपागानि येपां ते तपा अप्टशतशुभलक्षणलक्षित शरीरा इत्यर्य, 'मतगयवरिंदललियविक नक्लिमियगई । मत्तगनवरेन्द्रललित विक्रमनिलसितगतयः मत्तगजवरेन्द्रस्य-ऐरावतस्लेव ललित' सुविलासः यो विक्रम चक्रमण-गमन तद्वत् , विलसिता=विलासयुक्ताः गतिर्येपा ते तथा ' कडिसत्तगनीलपीयकोसेज्जासमा' कटिसनकनीलपीतमोशेयनासस - कटिसूत्रकानि = कटिसूत्रप्रधानानि नीलपीतानि कौशेय वासासियोशेयवसाणि 'रेशमीवस्त्र' इति भापा प्रसिद्धानि येपा ते तथा नीलाम्बरा बलदेवाः, पीताम्बरा वासुदेनाः इति यो य 'पवरदित्ततेया' प्रवरदीप्ततेजसः = महातजस्विन', 'सारयण सुहावनी लगती थी, तथा विकसायमान यो, तथा विविध प्रकार के पुष्पों से ग्रथित होने के कारण यह रँग विरंगी थी, 1 ( अट्टलयविभत्त. लक्खणपसत्थसुदरविराइयगुब्बगा) प्रशस्त-लाधनीय-एव सुन्दर-नेत्रों को आह्लादजनक ऐसे एक सौ आठ (१०८) भिन्न प्रकार के लक्षणों से जिनके अग और उपाग सुशोभित होते थे, तथा (भत्तगयवरिंद ललियविकममविलसियगई ) ऐरावत के विलासयुक्त गमन के समान जिनकी गति विलास सहित होती थी, तथा ( कडिप्लुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा) जिनके पहिरे हुए नीले पीले रेशमी वस्त्रों (पीत अम्बर धारी वासुदेव एव नील अम्बर धारी बलदेव होते हैं ) पर कटिसूत्र बहुत ही अधिक सुहावना प्रतीत होता है-अर्थात् जिन के नीले पोले रेशमी वस्त्र और कटिमूत्र प्रधान होते है। तथा (पवरदित्तत्तया ) जो વિકસિત હતી, તથા વિવિધ જાતના ફલેમાથી ગુ વેલી હોવાથી ગબેરગી હતી " अट्ठसयविभत्त-लक्सणपसत्थ-मुदर-चिराइयगुव्यगा” रास्त-माशुपासाय અને સુદર નેત્રને આનદદાયક એવા એક ને આઠ (૧૦૮) જુદા જુદા न साथी मना 2016 शामत ता, तथा “ भत्तगयवरि दललियविकमविलसियगई" मेशपतना वितामयुत मन समान भनी गति विलासयुत ती, तथा “कडिसुत्तगनीलपीयकोसेज्जवाससा " भरे પહેરેલા વાદળી અને પીળા વસ્ત્રો “પીતાંબર ધારી વાસુદેવ અને નીલાબર ધારી मज" ५२ टिसूत्र सत्यत मुह२ सातु तु तथा “पवरदित्ततेया" २ महातवी तथा “सारयणव-यणिय-महुर-गभीर-णिद्ध घोसा" Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... प्रभायाकरणमा पणियमहुरगमीरणियोसा । शारदनास्तनितमधुरगम्भीरस्निग्धयोपाः = शारद-शरत्कालिक यनपस्तनित = नूतनो मेघ पनिः तन्मधुरः-पर्णमुग्वकरः गम्भीरः स्निग्धः स्नेहजनकः घोपा शन्दो येपा ते तथा, 'नरसीहा' नरसिंहाःनरेषु सिहाईर, एतत्साधर्म्यमाह-'सीहविप मगई ' सिंहविक्रमगतयः सिंहम्येव विक्रमः पराक्रमः गतिश्च येपो ते तया 'अत्यमियपपररायमीहा' अन्तमित प्रवरराजसिंहा अस्तमिताभस्त प्रापिताः पराजिताः प्रवरा:-रिशिष्टाः राजसिंहाः शूराजानो यैस्ते तया। सोम्मा' सौम्या सौम्यस्पाः ' वारवई पुण्णचदा' द्वारावती पूर्णचन्द्राद्वारकापुरः आढादपत्ता पूर्णचन्द्र स्वरूपा, 'पुन्चकयतयप्पभावा' पूर्वकततप प्रभागात् = पूर्वमनकवतपो माहात्म्यात् 'नि विद्वसचियमुहा' निषिष्ट सचिवमुखाः निविष्टानि-लयानि सनितानि-पूर्वभोपार्जितानि मुखानि यस्ते तया ' अणेगाससयमाऊचतो' अनेक वर्षशता युष्मन्तावसहस्राघायुष्काः, 'मज्जाहिय जाणश्यपहाणाहिं ' मार्याभिश्व जनपदमहातेजस्वी रोते हैं तथा (सारयणवधणियमदुरगमीरणियोमा) जिनका योलना शरदकालीन नवीनमेघध्वनि के जैसा कर्णसुखार एव स्निग्ध-स्नेहजनक होता है, तथा (नरसीहा) जो मनुष्यों के बीच में सिंह के जैसे रोते हैं तथा (सीरविकमगई) जिनका पराक्रम और गमन सिंह के समान होता है,तथा (अत्यमियपवररायमीरा) जो अपने पराक्रम से-प्रवर राजसिंरो को अस्तमित-पराजित-कर देते है। तथा जो (सोम्मा) सौम्यरूप रोते हैं, एव (वारवईपुण्णचदा) द्वारकापुरी के आह्लादक होने के कारण जो पूर्णचन्द्रस्वरूप रोते हैं (पुवायतवप्पभावा निविट्ठसचियसुहा) तथा-जो पूर्वकृत तप के प्रभाव से पहिले भवों में उपार्जित सुग्वों को प्राप्त करते हैं, तथा (अणेगवाससयमाउन्चता) जो सैकड़ो वर्षों की आयुवाले होते हैं, तया ( भज्जाहिय जणवयप्पहाणाજેમના શબ્દ શરદઋતુના મેઘધ્વનિ જેવા મધુર અને નિષ્પ-નેહ જનક ता, तेथी " नरसीहा" २ मामानी ये सिड समान ता तथा “ सीह विकमेगई " भनी गति भने भनु' ५२ सि ममान ता, तथा " अयमियपर्वररायसीहा "२ पोताना पराभ प श्रेड रामिडोन मडात उरतो तो 'तारे “सोम्मा" सौम्य हुता, मन " वारवई पुण्णवदा" बारिशमशन मान मापना२ डावाने ४२णे २ पूर्ण यन्द्र तो, “पुवकय तवापभावा निविट्ठसचियसुहा" तथा पूर्व ४२सा तपना प्रमाथी मार्ग मना सवाभा Sulf 'सुभे पास ४२ छ तथा “ अणेगाससयमाउन्वतो" २५ वर्षना मायुष्य वाणा डाय छ, तथा " भज्जाहियजणवयप्पहाणाहि Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनीटीका अ० ४ सू० ९ अग्रह्मसेयिम्वरूपनिरूपणम् प्रधानाभि -देश रत्न रूपाभिः = 'लालियता' लाल्यमानाः = गिलास्यमानाः 'अतुलभदफरिसरमस्वगधेयअणुभवित्ता । अतुलशब्दरमरूपगन्धाश्च अनुभूय 'ते नि तेऽपिताशा अपि 'अवितित्ता कामाण' अविवप्ताः कामानाकामभोगेपु तृप्तिरहिता एव 'उषणमंति मरणधम्म' मरणधर्ममुपनमन्ति ।। ५० ८॥ पुनः केऽब्रह्मसेविन १ इत्याह 'भुज्जो मडलिय' इत्यादि-- ___ मूलम्-भुनो मडलियणरवरिदा सवला सअंतेउरा सपरिसा सपुरोहियाऽमञ्चडंडणायगसेणावई - मतिणीइ - कुसला णाणामणि रयणं-विउलधणधण्णसचय-निहिसमिद्धकोसा, रजसिरिविउलमणुभवित्ता विकोसंता वलेणमत्ता ते वि उवणमंति मरणधम्म अवितत्ता कामा ॥ सू० ९ ॥ टीका-'भुज्जो' भूय =पुनरपि 'मडलिय परवरिंदा' माण्ड लिकनर वरेन्द्रा.मण्डलाधिपतय (सवला) सवला: सेना सहिताः ' स अतेउरा' हिं लालियता) जो जनपदप्रधानभूत देशो में रत्नरूप से मानी गई अर्थात्-सर्वोत्कृष्ट स्त्रियों के साथ आनद करते हैं-वैषयिक सुखों को भोगते है ( तेवि) ऐसे वे पलदेव और वासुदेव भी ( अतुलसफरिसरसरूवगधे य अणुभवित्ता) अतुल शब्द, स्पर्श, रस रूप, एव गध रूप विपयोंका अनुभव करके भी (अवितत्तकामाण) कामभोगों की मिसे विहीन ही (उवणमतिमरणधम्म ) मरणधर्मको प्राप्त करते हैं ।।सू०८॥ अब सूत्रकार " और कौन अब्रह्मसेवी होते है " इस बात को कहते हैं-'मुज्जो मडलियणरवरिदा' इत्यादि। टीकार्थः-( भुज्जो मडलिय परवरिंदा ) फिर जो मंडलाधिपति लाल्यिता" २ भुज्य भुज्य शोमा २नमभान गाती से अनुपम श्रीमो माथे मानछे वेषयि सुभाने लागवे छ "ते वि" मेवात मा भने वासुदेव ५५ " अतुलसदफरिसरसस्वगधे य अणुभविता" અનુપમ શબ્દ, સ્પર્શ રસ, રૂપ અને ગધ રૂપ વિષને ઉપગ કરવા छत ५ " अवितत्तकामाण " भिलाशाथी मतृप्त मेवी डासतम "उव. णमति मरणधम्म " भृत्यु पामे छ । ८॥ . ७२ सूत्र४२ मतावे के 3 wlon मप्रसव aty डाय छ ? " भुज्जो मडलियणरपरिंदा" त्याहि .. 10-"भुज्जो म डलियणरवरिदा" भनेरे भासिय, तेमा ३i Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... प्रभायारवाने - - - पणियमहुरगभीरणियोसा । धारदनास्तनितमधुरगम्भीर स्निग्म्योपाः = शारद-शरत्कालिकं यन्नमस्तनित = नतनो मेघ पनिः तन्मपुर'-गणमुग्वकरः गम्भीर स्निग्या स्नेहजनकः योप-शब्दो येपा ते तथा, 'नरगीहा' नरसिंहाःनरेषु सिहाइस, एतत्साधर्म्यमाह-'सीहरिण मगई । सिंहविक्रमगतया= सिंहम्येव विक्रमः पराक्रमः गतिय येषां ते तथा अत्यमियपररायमीहा' अस्तमित प्रवररामसिंडा अस्तमिताभस्त प्रापिताः पराजिताः प्रराः-पिशिष्टाः राजसिंहाः शूरानानो येस्ते तथा । ' सौम्मा' सौम्या सौम्यस्पाः' वारवई पुण्णचंदा' द्वारावती पूर्णचन्द्राद्वारकापुः आहादस्त्यान् पूर्णचन्द्र स्वरूपाः 'पुन्चकयतवप्पमा पूर्वतितप प्रभागा = पूर्वमकततपो माहात्म्यात् 'नि विहसचियाहा' निविष्ट सञ्चितमुखाः निविष्टानिलयानि सनितानि-पूर्वभोपार्जितानि मुखानि यस्ते तथा 'अणेगाससयमाउयतो' अनेक वर्षशता युष्मन्तःवर्पसहस्राघायुष्काः, 'मन्नाहिय जाणश्यपहाणाहिं ' मार्याभिश्व जनपदमहातेजस्वी रोते हैं तथा (सारयणवधणियमदुरग भीरणियोमा) जिनका योलना शरदकालीन नवीनमेघध्वनि के जैसा कर्णसुसार एव स्निग्ध-स्नेहजनक होता है, तथा (नरसीहा) जो मनुष्यों के बीच में सिंह के जैसे रोते हैं तथा (सीरविकमगई) जिनका पराक्रम और गमन सिर के समान होता है,तथा (अत्यमियपवररायमीहा) जो अपने पराक्रम से-प्रवर राजसिंहों को अस्तमित-पराजित-कर देते है। तथा जो (सोम्मा) सौम्यरूप होते हैं, एव (वारवईपुण्णचदा) द्वारकापुरी के आहादक होने के कारण जो पूर्णचन्द्रस्वरूप होते हैं (पुवकयतवप्पभावा निविट्ठसचियसुरा) तथा-जो पूर्वकृत तप के प्रभाव से पहिले भवों में उपार्जित सुग्वों को प्राप्त करते हैं, तथा (अणेगवाससयमाउन्चता) जो सैकड़ो वर्षो की आयुवाले होते हैं, तथा ( भज्जाहिय जणवयप्पाणाજેમના શબ્દ શરદબાતુના મેઘધ્વનિ જેવા મધુર અને સ્નિગ્ધ-નેહ જનક ता, तेथी " नरसीहा" रे मामानी ये सिड समान ता तथा “ सीह विकमेगई" भनी गति भने भनु पराभ सिड समान उता, तथा " अत्यमियपवररायसीहा "२ पाताना पराभ प श्रेष्ठ भिडीने महात २ता ता तथा रे "सोम्मा " सौभ्य त, भने “वारवई पुण्णचदा" सारिकानगरी मान मापनार खावाने ४१२२ २ पूयन्द्र तो, “पुत्रकय तैवपमावा निविद्रुसचियसुहा" तथा २ पूर्व ४२सा तपना प्रभावी भाग जना सवाभा पात 'सुमो प्रात ४२ छ तथा “अणेगवाससयमाउवतो" २५ वर्ष ना मायु वाणा हाय छ, तथा “भज्जाहियजणवयप्पहाणाहि Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवाशना ढाका स० सू० १ १ युगालकस्वरूपानरूपणम् अथ युगलिकानामपि तदेव दर्शयति- 'भुज्जो उत्तरकुरु ' इत्यादि ०४५ - मूलम् - भुजो उत्तरकुरु - देवकुरु-त्रणविवर - पायचारिणो नरगणा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरीया पसत्थ सोमपडिपुण्णरुवदरिसणिज्जा सुजायसव्वगसुंदरंगा रतुप्पलपत्तकंतकरचरणकोमलतला सुपइट्टिय कुम्मचारुचलणा आणुपुब्वसुसहयगुलचा उण्णय-तणु - तव - निद्ध-नखा सठियसुसिलिइगूढगोफा एर्णाकुरुविंदवत्तावट्टाणुपुव्वजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसंनिभोरू वरवारणमत्ततुलविक्कम विलासियाई वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आइण्णहयोव्वनिरुवलेवा पमुइयत्ररतुरयसीहअइरेगवाहिय कडीगंगावत्तगदाहिणावत्ततरगभगुररविकिरणवेोहियविको सायंत पम्ह - गभीरवियडनाभी साहयसोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगछरु सरिसवरवइवलियमज्झा उज्जगसमसंहियजच्चतणुकसिणनिद्ध आदिज्जलडहसुकुमाल मउयरोमराई, झसविहग सुजायपीणकुच्छी झसोदरा पह वियडणाभी संनयपासा संगयपासा सुंदरपासासुजायपासामितमाइय पणिरइयपासा अकरडुय कणगरुयग निम्मल सुजायनिरुवहय देहधारी तलउवइयवित्थिण्णपिहुलवच्छा जुयसपिणभ कणगसिलातलपसत्थसम - पीणरइय ( अविनत्ता कामार्ण ) कामभोगों में अतृप्त बने रहकर ही ( मरणधम्म उवणमति ) मरणधर्म को प्राप्त करते हैं । सू०९ ॥ " ते त्रि' ते भाउसिङ आदि शलभेो यशु " अवितत्ताकामाण " अभलोगोथी ८ અતૃપ્ત રહીને જ मरण धम्म ववणमंति " मृत्यु पाने छे । सू ॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ प्रमभ्याकरण सान्तः पुरा =सस्त्रीका ' सपरिसा' सपरिपदापरिसाराः 'सपुरोहिया मच्च उडणायगसेगावइमतिणीमला ' सपुरोहितामात्य-टण्डनायसेनापति मन्त्रिनीतिफुशलाः = तन पुरोहिताः = शान्तिकारिणः अमात्या-मन्त्रिणः दण नायका कोटपालादयः सेनापतयः मन्त्रिणश्र कीशास्ते १ इत्याह-नीतिकमला: नीती-सामदामादि रूपापा कुमला निपुणा, तेः सहिताः 'णाणामणिरयण विउलघणघण्गसचयनिहिसगिद्धकोमा' नानामणिरत्लरिपुलपनपा यसमय-निषि समृद्धकोशाः = चक्रवतिने व्याख्यानमिदम् । विउल ' विपुला - महती 'रज्जसिरि 'रायश्रिय-राज्यलक्ष्मीम् ' अणुमरिता ' अनुभूप-उपन्य 'वियोसता' विक्रोशन्ता अन्यान् पीडयन्त 'चलेग मत्ता' मलेन मता:-बलग विवाः, 'ते वि' तेऽपि-माडलिकादयः, 'अस्तित्ता कामाण' कामानामविता कामोपभोगेषु वप्तिरहिता एप, 'उवणमति मरणधम्म'मरणधर्ममुपनमन्ति।०९॥ होते हैं, वे कैसे होते हैं ? सो करते है- (सयला ) सेना सहित होते हैं, (सअतेउरा) अतःपुरसे जो युक्त होते हैं, (सपरिसा) परिवार सहित होते है, (सपुरोरियामच्चडडणायगसेणावहमतिणीइकुसला) जिनके शातिकर्म कराने वाले पुरोहित अमात्य, दडनायक और सेनापति साम दान आदि रूप राजनीति में कुशल हुआ करते हैं। तथा( णाणामणिरयणपिउलधणधण्णसचयनिहिसमिद्धकोसा ) नानामणि यों से, रत्नों से, विपुल धन धान्य के सचय से और निधियों से जिन का कोश समृद्ध रहता है, तथा जो (विउल) विपुल ( रज्जसिरि) राज्यश्री को (अणुभचित्ता) भोग करके (विकोसता) दूसरे व्यक्तियों को रातदिन पीडित किया करनेवाले तथा (वलेण मत्ता) अपने बल से गर्वित बने हुए (ते वि ) इस प्रकार के वे भी मांडलिक आदि राजा डाय छ, ते ७ छ-" सवला " तेमा सनायुत राय छ, “स अतेउरा" सात पुरथी युत सय छ, “सपरिवारा" परिवार युक्त डाय छ, "सपुरोहिया मच्चडणागसेणावहमतिणीइकुसला"भना ति ४ ४शना२पुराडित અમાત્ય ઇડનાયક અને સેનાપતિ સામ, દામ, આદિ રૂપ રાજનીતિ જાણકાર हाय छे तथा " णाणामणिरयणविउलवणधण्णसचयनिहिमिद्धकोसा " alay મણિ, રત્ન, વિપુલ ધન-ધાન્ય આદિના સચયથી તથા નિધિથી भनी Hona सहा समृद्ध २ छ तथा विउल विधुर " रज्जसिरिं" सय सभाना “ अणुभवित्ता " Guो छ, “विकोसत्ता" भीan RAहिस पाउनास तथा “चलेण मता" पाताना मी विट मनसा ! Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टोका अ०४ सू० ९१ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४५ अब युगलिकानामपि तदेव दर्शयति-'भुज्जो उत्तरकुरु ' इत्यादि मूलम्-भुजो उत्तरकुरु-देवकुरु-वणविवर-पायचारिणो नरगणा भोगुत्तमा भोगलक्खणधरा भोगसस्सिरीया पसत्थ सोमपडिपुण्णरूवरिसणिज्जा सुजायसव्वगसुदरंगा रत्तुप्पलपत्त. कतकरचरणकोमलतला सुपइट्रियकुम्मचारुचलणा आणुपुब्बसुसहयगुलया उण्णय-तणु-तंव-निद्ध-नखा संठियसुसिलिदृगूढगोंफा एणीकुरुविंदवत्तावाणुपुव्वजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसंनिभोरू वरवारणमत्ततुल्लविक्कम विलासियगई वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आइपणहयोव्वनिरुवलेवा पमुइयवरतुरयसीहअइरेगवट्टिय कडीगगावत्तगदाहिणावत्ततरगभगुररविकिरणोहियावकोसायंत - पम्ह – गभीरवियडनाभी साहयसोणदमुसलदप्पणनिगरियवरकणगछरु सरिसवरवइरवलियमज्झा उज्जगसमसहियजच्चतणुकसिणनिद्ध आदिजलडहसुकुमाल मउयरोमराई, झसविहगसुजायपीणकुच्छी झसोदरा पम्ह वियडणाभी संनयपासा संगयपासा सुदरपासासुजायपासामितमाइय पीणरइयपासाअकरडुय कणगरुयग निम्मलसुजायनिरुवयदेहधारी कणगसिलातलपसत्थसमतलउबइयवित्थिपणपिहुलवच्छा जुयसपिणभ - पीणरइय ( अयितत्ता कामाणे ) कामभोगों में अतृप्त बने रहकर ही (मरणधम्म उवणमति ) मरणधर्म को प्राप्त करते हैं ॥ सू०९॥ "ते वि ते भाऽसि माहित " अवितत्ताकामाण " मलागाथा __मतपत सीने "मरण धम्म स्वणमति " मृत्यु पामे छ । सू ॥ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___४४६ प्राम्याकरण पीवर पउहसठिय सुसिलिह विसिट्ठलहसुणिचिय धणथिरसु विद्धसधीपुरवरफलिहवंटिय भुजा ॥ सू० १०॥ ____टोका:- भुज्जो' भृया पुनरपि ' उत्तरहरुदेवकुषणविवरपायचारियो' उत्तरकुरु-देवकुरु - पनविपरपादचारिणः = उत्तरशुरूणां देवकुरुणा च क्षेत्र विशेषाणां यानि बनविपराणि-नस्थली पन्दरादिस्थानानि तत्र वाहनाभावाद पादैः चरणेश्वरन्ति ये ते तया, नरगणो युगंलिका', 'भोगुत्तमा' भोगोतमा : भोगप्रधानाः ' भोगलसणधरा' मोगलक्षणधरास्वस्तिकादि भोगसूचकलक्षण वन्त , ' भोगसस्सिरिया' मोगसश्रीका-भोगशोमालिनः 'पसत्यसोम्मपडि पुण्णरूवदरिसगिला' प्रशस्तसौम्पप्रतिपूर्णरूपदर्शनीया प्रशस्त सौम्यम् अतिमनोज्ञ प्रतिपूर्ण-सुपूर्ण रूपम् = आकृतियुपा ते तया 'सुजायसवगसुदरगा' अय सूत्रकार " भोगभूमियों के जीवों की भी यही हालत होती है" यह कहते हैं-'भुज्जो उत्तरकुरुदेवकुरु ० इत्यादि । टीकार्थः- ( उत्तरकुरुदेवकृरुवणविवरपायचारिणो) उत्तरकुरु तथा देवकुम ये भोगभूमिया है। इन भोगभूमियों में वाहन-सवारी के अभाव से पैरों से ही वहा की वनस्थलियों में-कन्दरा आदि स्थानों में भ्रमण किया करते हैं । ( नरगणा) ये युगलिक मनुष्यगण ( भोगुत्तमा) उत्तम भोगवाले होते है। (भोगलक्खणधरा) स्वस्तिक आदि जो भोगसूचक चिन्ह हैं उनसे ये विशिष्टं रोते हैं । अतः वे ( भोगसस्सि रीया ) भोगों को भोगना इसी में ये अपनी शोभा मानते हैं । (पस स्थसोम्मपडिपुण्णरूवदरिसणिज्जा ) अतिमनोज्ञ पूर्णरूप से ये दर्शनीय હવે સૂત્રકાર “ભગ ભૂમિના છની પણ એ જ હાલત હોય છે” ते ताव छ “भुज्जो उत्तरकुरू देवकुरु" त्यादि - "उत्तरकुरूदेवकुरुवणविवरपायचारिणो" उत्तर पुरु तथा पर मे ભોગ ભૂમિ છે તે ભોગ ભૂમિમા વાહનને અભાવે પગપાળા જ મુસાફરી यश छे ते प्रदेशमा,रता " नरगणा" युगति “भोगुत्तमा" उत्तम सोग विसास सेवना। डाय छ " भोगलक्खणधरा" स्वस्ति माहिर सूय विही डाय छ तेमनाथी तेरा युत iय छ तेथी तमा.." भागस सिरीया" लगाना पा ४२वामा १ पोताना शाला भान छ “ पसत्य सोम्मपडिपुण्णरूवरिसणिज्जा" तेसो अतिशय मनोडल भने म सुंदर काय छ. "सुजायसव्वगसुदरगा" तेमना ४३३ शाम ६२ भने Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४७ सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ ९ १, युगलिपस्वरूपनिरूपणम् सुजातसद्गिसुन्दरागाः सुपुष्टमुन्दराऽवयवाः रत्तप्पलपत्तकतकरचरणकोमलतळा' रक्तोत्पलपत्रकान्तकरचरणकोमलतलाः- रक्तोत्पलस्य पत्रमिव कान्तानि= मुन्दराणि करचरणाना कोमलानि तलानि येपा ते तथा रक्तरुमलदलतुल्य मुकोमलसुरक्त हस्तपादतलाः ' सुपरहियकुम्मचारुचल्णा ' सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणाः = सुप्रतिष्ठितौ = शोभनाकृतिको फर्मवत्-उन्मतत्वेन कच्छपपीठवंद चारू-सुन्दरौं चरणौ येषा ते तया, तया अणुपुञ्चसुसहयगुलिया ' अनुपूर्वमुसंहतालिका अनुपूर्व अनुक्रमेण-गुरुलघुक्रमेण सुसंहताः मुमगठिता अनुल्या= इस्तपादालयो येपां ते तथा गुरुलघुन्यूनाधिकदोपरहिवाइलिकाः 'उण्णयतणुतगनिद्धनखा । उन्नततनुताम्रस्निग्धनखाः = तत्र उन्नता = मध्योन्नता तना प्रतला स्ताम्राः ताम्रवर्णा स्निग्धाः सुकोमला कान्ति युक्ताश्व नग्या येपा ते तथा, 'संठियसुसिलिट्टग्दगोफा' सस्थित मुश्लिष्टगूढगुल्फा. = सस्थिती सम्यक् सस्थानवन्तौ मुश्लिप्टौ-पुष्टत्वात् सुसहती अतएव गूढो अलक्षितो गुल्फोघुटिके येषा ते तथा 'एणीकुरुविंदवत्तावाणुपुत्वजघा ' एणी कुरुविन्दपत्ता पडे सुन्दर होते हैं । ( सुजायसव्वगसुदरगा) इनके प्रत्येक शारीरिक अवयव सुन्दर एव पुष्ट होते हैं । (रत्तुप्पलपत्तकतकर चरणकोमलतला) इनके हाथ और पैरों के तलिये रक्तक्मल के पत्ते के समान लाल और कोमल होते हैं। (सुपइट्ठियकुम्मचारुचरणा) इनके दोनो चरण शोभन आकृतिवाले एव कृर्म की पीठ की तरह उन्नत होने से बड़े सुहावने होते हैं (अणुपुन्वमुसह्यगुलिया) हाथ और पैरों की अगुलिया इनकी गुरू लघु के क्रम से सुसगठित रहती हैं, अर्थात् इनके हाथ पैरों की अगुलियां गुरु, लघु-तथा न्यूनाधिक दोप से रहित होती है। ( उष्णयतणुतबनिनसा ) नख इन्हों के म य में उन्नत, पतले और ताम्रवर्ण के होते है । तथा कोमल और कान्ति सहित होते है । (सठियसुसिलिट्ठगूढगोंफा ) इनके दोनो घुटने मुस स्थान वाले, पुष्ट पुष्ट डाय छ " रतुप्पलपत्तकतकरचरणकोमलतला" तेमनी येणी तथा પગના તળિયા લાલ કમલ પત્ર સમાન લાલ રંગના અને કેમળ હોય છે "सुपइद्वियकुम्मचारुचरणा" तभना भने ५५ सुर घाटपाणी, तथा आयमानी भी 24न्नत जापाथी धपा शामित डाय छ "अणुपुव्वमुसहयगुलिया" तेमना હાથપગની આંગળીઓ સુસ ગઠિત હોય છે એટલે કે ગુરુતા લઘુતા આદિ દેથી २डित डाय छ, सप्रभाए डाय छ “ उण्णयतणुतपनिद्धनखा" तेमना नम मध्यमा उन्नत, पाता, ताम्रव, अभय मने अन्तियुत राय छे ' सठिय सुसिलिंडगूढगोफा" भनी मने यूटय। सभा, पुष्ट मने सडत तथा Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसारण हत्तानुपूर्वनद्धान्तत्र-एणी-हरिणी, तस्यावह नहा ग्रापा, ते इम, तथा कुरु विन्दातृणरिशेपः, 'बत्ता'-अय-देशीशन्दा स्त्रीलिर: मूत्राग्नक सूत्रबष्टनयन्नमित्यर्थः 'तारला'' तकली,' इति मापा ममिद्धा, ते सत्तेसुले अनुपू-मानुपूर्येण-अनुक्रमेण जोंधस्पूछे जप येपो ते तया। 'समुग्गनिसगरहना ' समुद्गनिमग्नगढजानकासमुहासपिधानापिटरस्तद्वत् निमग्नेपुष्टत्वादन्तः सलीने अत पर गूदे. अलसिते जानुनी पा ते तपा सुपृष्टत्वादनु पलक्ष्य जानुका इत्ययः, 'गयसमण मुजायसनिमोरू' गजधमनसुनातसनिमी रवा-गजधमन = इस्तिशुण्डादण्डः स सुनात-सुसस्थानयुक्तः तम्यसनिमसदृशे ऊरुणी-जानूपरिभागी यंपा ते तथा। 'परशारणमत्ततरविधमपिगसि यगई ' परसारणमत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः = गजेन्द्र स चासौ मत्त = होने से सहत तथा अलक्षित होते है । अर्थात् दिग्पलाई नहीं पड़ते है (एणीकुरुविंदवत्तावट्टाणु पुरजघा) इनको दोनों जघा हिरणी की जघाओं के समान तथा कुरुविंद विशेप के ममान एच बत्ता-तकली के समान वृत्त-गोलररोती है । और क्रमशः वे ऊपररस्थूल रहती है। (समुग्गनिसंग्गगूढजाणू) इनके दोनों जानु पिधान-बान-महित पिटारे के समान पुष्ट होने के कारण भीतर ही भीतर छुपे हुए होते है अर्थात् गहरे होते हैं इसीलिये ग्ढ रहते हैं। (गय-ससण-मुजायसनिभोरू ) सुसस्थानयुक्त रस्तिशुण्डादड के समान जिनकी दोनो उरूसाथलें होती हैं, अर्थात्-जानु के उपर का भाग जिनका मुसस्थान युक्त हाथी के शुण्डादड के समान होता है (वर-वारण-मत्त-तुल्ल-विकमविलासिय-गई) मदमत्त गजेन्द्र के सदृश जिनका विक्रम-पराक्रम और मसक्षित य छ, मेटले नारे ५ती नथी " एणीकुरुविंदवत्ताव णुपु व्वजघा" भनी मने धाम। २०ीनी मन थामे।समान तथा पुरावा (તૃણવિશેષ) સમાન અને તકલી સમાન ગેળા ગેળ હોય છે, અને તે ઉપર रता धीमे धीमे धारे ही थती जय छ "समुग्गनिसग्गगूढ जाणू' तेमना બનને જાનુ ઠાકણાથી યુક્ત પટારાના જેવા પુષ્ટ હોવાને કારણે અ દરને भ६२ छुपाये। २७ छ-ससे 01 पान १२ गूढ २३ छ "गयससण-सुजायस निभोरू" मना पने साथी सुघटित स्तिशुाह समान હોય છે, એટલે કે જાનુની ઉપરને ભાગ સુવ્યવસ્થિત હસ્તિસૂઢ જે હોય છે " वर-वारण-मत्त-तुल्ल-विक्कम-विलासिय-गई" महोन्मत्त गोन्द्रना જેમનુ પરાક્રમ હોય છે, અને તેને અનુરૂપ જ જેમની નિ - ગતિ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४९ - सुदर्शिनी टीका अ ४ सू० १० युगलिकस्वरूपनिरूपणम् मदान्वितस्तेन तुल्यः-महशो विक्रमः-पराक्रमः, तद्वदेव रिलासिता-पिलासयुक्ता गति र्येपा ते तथा अन गजस्य पराक्रमेण गत्या च सादृश्य प्रदर्शितम् , तथा ' वरतुरगसुजायगुज्झदेसा ' परतुरगमुजातगुह्यदेशाः = वरतुरगस्येव = प्रशस्ताऽश्वस्येव सुनाता=मुसस्थितः लघुत्वेन गुप्त इत्यर्थः, गुह्यदेशो येषा ते तथा 'पाण्गहयोन निरुवलेवा' आकीर्णहयइव = जातिमानव इन निरूपलेपाः मललेपविवर्जिता 'पमुइयवरतुरयसी अडरेगट्टियस्टी' प्रमुदिततुरगसिंहातिरेकवर्तितस्टयाप्रमुदिता = प्रदृप्टा वरतुरगा' = जात्यचाः सिंहाः = केस रिणस्तेभ्योऽतिरेकेग = आधिक्येन वर्तिता = वर्तुला काटि = कटिमदेशो । येषां ते तग 'गगावत्तगदाहिणाव नतरगभगुररविकिरणवोहियविकोसायतपम्ह गभीररियडनाभी' गङ्गाऽऽर्तकदक्षिणावर्ततरङ्गमाररविकिरणपोधितविकोशायमानपद्मगम्भीरविकटनाभः, तत्र - गडावर्तका' = गङ्गा नया उलभ्रम', स च दक्षिणावर्तः तरङ्गभगुर तर मर = वनश्च तद्वत् , तथा रविकिरणैःसूर्यकिरणै गोंधित विकासित विकामावस्था प्राप्नुवद इत्यर्थ , अत एव-विकोशाउसी अनुरूप ही जिनकी विलासयुक्त गति होती है, तथा (वर-तुरगमुजाय गुज्झदेसा)प्रशस्त घोड़ेके गुह्यभागके समान जिनका गुह्यभाग लघु रोनेके कारण गुप्त रहता है। (आइपणयोग्यनिरूवलेवा) तथा जातिमान अश्वकी तरह वह गुवभाग जिनका मलके लेपसे विवर्जित रहता है। (पमुइयवरतुरयसीय अहरेगवदियकडी) अत्यनहर्प सपन्न जात्यश्वकी तथा सिंहकी कटिसे भी अधिक गोल जिनकी कटि होती है, तथा (गगावतग दाहिणावत्त तरगभगुर रविकिरण योहियविकोसायतपम्हगभीरवियउनाभी) दक्षिणावर्त एव तरङ्गोसे भगुर गगा नदी के जलभ्रम-जलावर्त के समान, तथा--सूर्यकिरणों से मुकुलित अवस्था को छोडकर विकासावस्था को प्राप्त हए पद्म के ममान गभीर और विकट सुन्दर जिनका खाय छ, “वरतुरग--समायगुज्झदसा " तमना शुह्य मा प्रशस्त पाना गुह्यला मभान सधुडपाने र गुप्त २३ , “ आइण्णहयोव्व निरूव लेवा" तवान घाना गुह्यमानी म तेभनी शुर मा ५ भजना सपथी हित डाय छे “ पमुइयवरतुरयसीयअइरेगरट्टियक्डी " अतिशय હર્ષસ પન્ન જાતવાન ઘોડા તથા સિહની કટિ કરતા પણ જેમની કટિ વધારે in डाय छ, तथा “ गगावत्तग-दाहिणावत्त तर ग-भगुर-रविकिरण-चोहिय विकोसाय तपम्हगभीरवियडनाभी ' हक्षित पनाथी तथा तर गायी गुर ગગા નદીના જલભ્રમ-જળ વમળ સમાન, તથા બીડાયેલી અવસ્થાને ત્યાગ કરીને સૂર્યના કિરણને કારણે વિકાસાવસ્થાને પામેલ કમળા સમાન ગભીર प्र०५७ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनावरणको - થઇટ वृत्तानुजवातत्र-एणी हरिणी, तस्याह जहा प्राधा, ते उच, तयार विन्दा तृणविशेषः, 'यत्ता'-अप-देशीयन्तः सीलियः मूत्राल्नक सत्रवेष्टनयन्त्रगित्यर्थः । तारला'' तकली, इवि भाषा प्रसिद्धा, १३ वृत्ते वर्तुले अनुञ्जे-आनुपूर्पण-अनुक्रमेण अघोंघस्थूछे जाधे येपा ते तया । 'ममुग्गनिसग्गग्रहजाण । समुद्रनिमग्नगढजानयाममुहासपिचान पिटरस्तद्वत् निमग्ने पुष्टत्वादन्तः सलीने अत एर गूदे अलक्षिते जानुनी चंपा ते तया मुपृष्टत्वादनु पलक्ष्य जानुका इत्पः, 'गपससण मुनापसनिमारू' गजधमनमुजातमनिमो रस:-गनधमन = इस्तिशुण्डादण्डः स सुजात-सुसम्यानयुक्त. तस्यसनिमसदृशे जरुणी-जानूपरिभागी पाते तथा। 'परशारणमत्तत्यविध मविगसि पगई ' परवारणमचतुल्पविक्रमविलासितगतयः = गजेन्द्रः स चासा मत्त = होने से सहत तथा अलक्षित रोते है । अर्थात् दिग्गलाई नहीं पड़ते है (एणीकृमचिंदयत्तावट्टाणु पुयजघा) इनको दोनों जघा हिरणी की जघाओं के समान तथा कुरुविंद तणविशेप के समान एव वत्ता-तकली के समान वृत्त-गोलररोती है । और क्रमश:वे ऊपर२स्यूल रहती है । (समुग्गनिसंग्गगूढजाणू) इनके दोनों जानु पिधान-ढकन-महित पिटारे के समान पुष्ट होने के कारण भीतर ही भीतर छुपे हुए होते है अर्थात् गहरे होते हैं इसीलिये गूढ रहते हैं। (गय-ससण-सुजायसनिभोरू ) सुसस्थानयुक्त स्तिशुण्डादड के समान जिनकी दोनो उरूसाथलें होती है, अर्थात्-जानु के उपर का भाग जिनका सुसम्थान युक्त हाथी के शुण्डादड के समान होता है (वर-वारण-मत्त-तुल्ल-विकमविलासिय-गई) मदमत्त गजेन्द्र के सदृश जिनका विक्रम-पराक्रम और मलक्षित डाय छ, मेटले नारे ५७ती नथी " एणीकुरुविंदवत्ताव णुपु व्वजपा" तेमनी मने पाया २६नी मन थामा सभान तथा वि। (તૃણવિશેષ) સમાન અને તકલી સમાન ગોળ ગોળ હોય છે, અને તે ઉપર ora धीमे धीमे पधारे ही तो तय छ “समुग्गनिसग्गगूढ जाणू' भनी બને જાનુ ઠાકણાથી યુક્ત પટારાના જેવા પુષ્ટ હેવાને કારણે અદારને १२ छुपायेमा २७ छ-गोटसे 1 पान २ ८ २९ छ “गयससण-सुजायस निभोरू" मना सन साधणी सुघटित स्तिशु समान હોય છે, એટલે કે જાનુની ઉપરનો ભાગ સુવ્યવસ્થિત હસ્તિસૂઢ જેવો હોય છે "वर-वारण-मत्त-तुल्ल-विकम-विलासिय-गई" महोन्मत्त गोन्द्रना रे જેમનુ પરાક્રમ હોય છે, અને તેને અનુરૂપ જ જેમની વિલાસયુક્ત ગતિ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १० युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४५१ सुजाता सुन्दरः पीनः-पुष्टश्न कुक्षिः उदरैकदेशो येपाते तथा । तथा 'झपोयरा' सपोदराः-झपस्योटरसदुदर-येपा ते तथा कृशोदरा इत्यर्थः, पम्हवियडणाभी' पद्मविस्टनाभया पावत्-कमल कोपरत् विकटा-मुन्दरा नाभि पेंपा ते तथा, 'सनयपासा' सनतपा =पुष्टत्वादधो नमत्पार्धमागाः 'सगयपासा' सङ्गतपार्था:-मृमिलितपाश्चमागाः, अतएव 'सुदरपासा' सुन्दरपार्धाः 'सुनायपासा' मुगातपार्धा = समस्थितपार्थाः ‘मियमा'यपीणन्डयपामा' मितमात्रिकपीतरविदपार्धाः-मिती-मानोपेती, मात्रिको = मानायुक्तौ-परिमाणसपनों पीनौ= मुपुप्टी रतिदी = रमणीयौ पार्श्वभागों येपा ते तया 'अकरटुयणगरुयगनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहपारी ' अफरण्दुकनकरुचकनिर्मलमुजातनिरुप -- हवदेहधारिणः = तन अफरण्डुक = पुष्टत्वादनुपलक्ष्यपृष्टपार्थाद्यस्थिक तथा कनकरचरनिर्मल, कनारुचक-मुवर्णाभरण तद्वत् निर्मल सुजात शोभन निरुपहत चम्नीरोग देह शरीर धारयन्ति ये ते तथा । तथा 'कणगसिलातल्पसत्यसम की कुक्षि के समान सुन्दर और पुष्ट होती है। तथा (असोयरा) जिनका उदर मत्स्य के उदर के समान कृश होता है। तथा (पम्हवियडणाभी) जिनकी नाभि कमल के गोप की तरह गभीर होती है। ती ( सनयपासा) पुष्ट होने के कारण जिनके दोनो पार्वभोग नीचे की ओर झुके रहते हैं इसीलिये (सगयपासा) जो परस्परमें मिले हुए जैसे प्रतीत होते हैं और यडे मुहावने लगते हैं तथा (सुजायपासा) जिनके दोनों पोदय भागोंका आकार भी बडा सुहावना लगता है, तयारमिनाइय पीणरइय पासा) वे दोनों पावभाग मान और प्रमाणसे युक्त और पीन पुष्ट होते हैं तथा रमणी होते है । तथा(अकरड-कण-गरुयग निम्मल सुजाय -निरुवय-देहधारी) पुष्ट होने के कारण जिनकी रीढको और पार्श्वभाग की अस्थिया दिखलाई नहीं देती है, तया जो सुवर्णाभरण के ભાગ) મચ્છુ તથા પક્ષીની કુલિ સમાન સુંદર અને પુષ્ટ હોય છે તથા “झसोयरा" भनु GE२ भत्स्यन C४२ समान २० अाय छे तथा " पम्ह रियडणाभी" भनी नालि भगनावी असार साय छ, नया “स नयपासा" पुष्ट हावाने मना मन्ने पावलागी नीयनी मान्नु झुंडेसर २९ छ, भने तेथी " स गयपासा" मापसभा भजी गया य मेवा लागे छे तथा घर मुहर लागे छे तय " मुजायपासा"मना मने पाच मागी माना मा४२ ५ घो। मुह दाणे छ, तथा 'मियमाइयपीनरइयपासा" ते मन પÜભાગે પ્રમાણુ અને માનથી યુક્ત-પ્રમાણસરના, અને પીન-પુટ અને भीय खाय छ “ अफर डु-कण गरुयग निम्मल सुजाय निरुवहय देहधारी" શરીર પુષ્ટ હેવાને કારણે જેમના કરડ તથા પાસળીના હાડકા દેખાતા નથી Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० प्रमापारमा यमान मुकुलारस्थां निमुश्चत् यत् पन तद्वद् गम्भीरा स्टिा % मुन्दरा च नामि येपां ते तया, 'साध्य सोणंद मुगदप्पणनिगरिय पररणगउममरिसरकार पलियमज्गा' सइतसानन्दमुसलदर्पणनिगरितसम्फनात्ममगाररान वलित मध्याः = तत्र सहत = सफोचित सोनन्द = निकाष्टिका 'तिपाई । इतिपसिब मुसल-प्रसिद्ध. दर्पण = दर्पणगण्ड:-दर्पणदण्डः निगरितरकनकरसह निगरितसर्वथा शोधितम् , अतएव-परसना-जात्यापर्ण तस्य तमः = पदमुष्टिचत्यते सहशो परवजयच्चवलितः = यमः कृशय मध्य तनुमध्यभागो पाते तथा प्रतल स्टय इत्ययः, 'उज्जगसममहियमच्चतणुरमिणगिद्धआदिन्मला सुकुमालमउयरोमराई ' मजुरसमसहितजात्यतनुमणस्निग्याऽदेयलाड सुकुमालमृदारोमराजय = तन मजुका:-अटिला समाममुचित-प्रमागाः सहिता सुचना जात्यतनमः = स्वभावतोऽतिमूहमा कृष्णाः = कृष्णवों स्निग्धाः-चिकागापादेया'प्रशस्तालडदा सुन्दरा मुकुमाला' पमयकोमला: मृदुका:- अति कोमला. रोमराजय रोम्गा श्रेणयो येपा ते तया, झसविहंगम जायपीणकुच्छी' झापविहगमुनातपीनकुक्षय = अपविहगान-मत्स्यरत् पक्षिवच्च नाभिप्रदेश होता है । तथा-(सात्य सोणंदमुसलदप्पणनिगरियवरकणग छरु सरिस चरवहर पलियमज्झा) जिनका मध्यभाग सकोचित तिपाई के समान, दर्पणदण्ड के समान, एव शोधित जात्यस्वर्ण की ग्वङ्गमुष्टि के समान, तथा उत्तम वज्र के समान वक और कृश होता है। तथा ( उजग-सम-सदिय-जच-तणु-कसिण-गिद्-आदिज्ज-लडह-सुकु माल-मउय-रोमराई ) जिननी रोमराजि अकुटिल, समुचितप्रमाणोपेत, घनीभूत, स्वभावत'अतिसूक्ष्म, काली, चिकनी, आदेय, सुन्दर, कमल के समान कोमल और अत्यत कोमल होती है। (झसविगसुजायपी णकुच्छी) तथा-जिनकी कुक्षि-उदर का एक देश मत्स्य की और पक्षी मन विट-सुह२ भनी नालिश डायछ, तथा "साहयसोणदमुसल दप्पणनिगरियवरकणगछरुसरिसवरवहरबलियमझा " मना मध्य लास સકચિત તિપાઈ સમાન, દર્પણ દડ સમાન, તાવેલા સુવર્ણની તલવારની મૂઠ समान, तथा उत्तम 400 समान १४ भने पाती हाय छ "उज्जग-समसहिय-अच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आदिज्ज-लडह-सुकुमाल-मउय रोमराई " तथा જેમની મરાજિ અકુટિલ, સમપ્રમાણ, ઘનીભૂત કુદરતી રીતે જ અતિ સૂક્ષ્મ, કાળી, સુવાળી, આદેય, સુંદર, કમળ સમાન કોમળ અને અત્યત કમળ डाय छ “झसविहगसुजायपीणकुच्छी" तथा भनी अक्षि (GERने में Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीका म० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् पुनस्ते कीशा ? इत्याह-'भुयगीसर' इत्यादि । मूलम्-भुयगीसर-विउल-भोग-आयाण-फलिह-उच्छृढदीहवाहू-रत्ततलोवइय-मउय-मसल-सुजाय लक्खणपसत्थ-अच्छिद्दजालपाणी पीवर सुजाय-कोमल-वरगुली तवतलिणसुइरुइल निखणखा निद्धपाणिलेहा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा सखपाणिलेहा चकपाणिलेहा दिसा सोवत्थियपाणिलेहा रवि ससि-सख-वरचक्कदिसा सोवस्थिय-विभत्त-सुरइय--पाणिलेहा वरमहिसवराहसीह-सलरिसह नागवर-पडिपुण्ण-विउल-खधा चउरगुलप्पमाणकवुवरसरिसगीवा अवठिय-सुविभत्त-चित्त समंसुउबचियमंसल -पसस्थ -सदल-विउल -हणुया ओयचिय सिलप्पवालविवफलसनिभाऽधरोटा पंड्डर-ससि-सकल-विमल संखगोखीर-फेणकुंददगरयमुणालिया घवल-दतसेढी अखड दंता अफुडियदता अविरलदंता सुणिद्धदंता सुजायदंता एगदंतसे दिव्व अणेगदंता हुयवहनिद्धत-धोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजाहा गरुलायय उज्जुतुगनासा अवदालियपुडरीय णयणा विकोसियधवलपत्तलच्छा आणामिय - चावरुइल किण्हन्भराइ- सठिय-सगयाययं-सुजाय-भूमगा--अल्लीणपमाणजुत्तसवणा सुस्सवणा पीयमसलकवोलदेसभागा अविरुग्गय वालचदसठियमहानिलाडा उडुवइ-पडिपुण्ण-सोम्मवयणा छत्तागारुत्तमगदेसा घणनिचिय सुवद्धलक्खणुण्णय-कूडागार निभपिडियग्ग-सिराहुयवहनिद्धत - धोयतत्ततवीणज्जरत्तकेसत. परिघा (मोगल) के समान गोलरहोते हैं । ऐसे ये भोगभूमिके मनुष्य भी कामभोगोंसे अतृप्त होकर ही मरण धर्मको प्राप्त करते हैं ॥सू०१०॥ તે ભેગભૂમિના લેકે પણ કામ ભેગેથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે પાસના Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ तरउपयइवित्यिग्ण पिल्यच्या 'फनफशिलातर-प्रशस्त ममतलोपचित विस्तीर्ण पृथुलपक्षसः कनकशिलावल = सुवर्णशिलापट्टकमिर प्रशस्त समतलम् अविषम उपचित-पुष्ट-पिस्तीर्ण-विशाल तथा पृथुल-स्मूल पसपर स्थल येषा ते तथा 'जुयसणिमपीणरइय-पीपर-पउह सहिय-मुसिद्धि रिमिलढ-मुणिचिय-पूण पिर मुमध, सधी' तत्र 'जुयसणिम' युगसनिमी युगकाटतन्यो 'पीण' पीनी स्थूलो 'रइय' रतिदोरमणीयो पीरी-पुप्टो 'पट' प्रकोष्टी हस्तमणिवत्वमदेवीतथा 'सठिय' सस्थिताम्यस्थानविशेषयुक्ता 'मुसिलिट्ठ मुशिया मुमिलिताः 'पिसिट्ठलद्ध' रिशिष्ट-टा-मुमनोहराः 'मुणिचिय' मुनिचिताः = सुमगठिताः घना 'घिर' स्थिरा.गुढा मुखत्याः शोभनाययनसन्निवेशयुक्ताः मन्धयःअस्थि सन्धानानि येपा ते तया, 'पुरचरफलिह-बहियभुया' पुरवरपरिवातित भुना=पुरचरपरिया=नगरद्वारकपाटरोधनकाप्ठयद् पर्वितीचर्तुली भुनौ-बार येपा ते तथा । एतादृशास्तेऽपि काममोगैरवसा एर मरणधर्ममुपनमन्तीतिसम्पन्धः ॥ मू० १०॥ समान निर्मल, सुन्दर रोगरहित शरीर के धारी रोते है ( कगगसिगातलपसत्यममतल उवइयवित्थिणपिटलपच्छा ) तथा जिनका वक्ष स्थल सुवर्णेशिला के पट्टक समान प्रशस्त एव समतल वाला होता ह उपचित-पुष्ट होता है, विस्तीर्ण होता है तथा पृयुल-स्थूल-मोटाहोता है (जुयसणीभपीण-रइयपीवरपउद्यसठियमुसिलिट्ठविसिहलहसुगिचियघणथिरसुधसधी) इनका मणिध प्रदेश जुआ के समान स्थूल, रमणीय और पुष्ट होता है । तथा इनके हाड़ों की सधिया सस्थान विशेष से युक्त, परस्पर अच्छी तरह मिली हुई, मनोहर, सुसगठित घनीभूत, सुदृढ़ एव अच्छी अवयवों की रचना से युक्त होती है। (पुरवरफलिहवाहियभुया) इनके दोनो याहु नगर के द्वार के उतम “જેઓ સૂવર્ણના આભૂષણે જેવું નિર્મળ, સુંદર અને નીરોગી શરીર ધરાવે छ, "कणगसिलातलपसत्यसमतल उपइयवित्थिण्णपिलबच्छा" तथा मना છાતીના ભાગ સુવર્ણ શિલા જે પ્રશસ્ત સમતલ. ઉપચિત-પુષ્ટ, વિસ્તીર્ણ विश तथा पृथुल-भोट हाय , "जुयस णिभ-पीण-रइय-पीवर-पउट-स ठिय सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-सुणिचिय-घणथिर-सुब धसधी" तमना मला धूसरावा ધૂળ, રમણીય અને પુષ્ટ હોય છે તથા તેમના અસ્થિોના સાધ સુવ્યવસ્થિત અરસ્પર સારી રીતે જોડાયેલ, મનોહર, સુસ ગતિ, ઘનીભૂત, સુદઢ, અને अपयवानी सु६२ स्यना वा डाय “पुरवरफलिहवद्रियभुया" भना અને ભુજા નગરના દરવાજાના ઉત્તમ ભેગળા જેવી ગોળાકાર હોય છે એવા Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका ४० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् __४५५ भुजाइत्यर्थः, 'रततलोवडयमउयमसल्सुजायलावणपसस्थन्छिद्दजालपाणी । तत्र- 'रत्ततल' रक्ततलो-लोहितम्रतली 'उपइय' उपचितौ-पुष्टौं ' मउय' मृदको कोमलौ ' मसल 'मासलो अदृष्ट नाडी जालौ 'सुजाय ' मुजातीसुनिष्पन्नौ 'लक्रवणपसत्य लक्षण प्रशस्ती-अनेक शुभलक्षणैः प्रक्रप्टो 'अच्छिद्दजाला. अछिद्रजालौ = परस्पर मिलितत्वात् उिदरहितादगुलिप्समुदायपन्तौ पाणी = हस्तौ येपा ते तथा 'पीपरसुजायकोमलवरगुलि' पीचरसुजातकोमलवराष्ट्रालयः = भुपुष्टमुन्दरकोमलाइगुलिवन्त । ततलिणमुइकहलनिद्वणवा' ताम्रतलिनशुचिरुचिरस्निग्ध नसा-ताम्राः = रक्ताः तलिना मतलाः शुचयःनिर्मला: रुचिरा गान्तिमन्तः स्निग्याश-चिकणा नखा येपा ते तथा, 'निद्वपाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः = चिकणहस्तरेसायन्तः 'चटपाणिलेहा' चन्द्रपाणिरेखा'= चन्द्र चन्द्राकारा पाणी रेखा येपा ते तथा 'सरपाणिलेहा' भरपाणिरेखाः= होती हैं तथा-(रत्ततलोव इयमउयमसलमुजायलक्खणपसत्य अन्छि राजालपाणी) जिनके दोनों पर लोहित तलियो वाले, पुष्ट भरे हुएकोमलनासे युक्त, मामल-पुष्टअदृष्टनाडीजालवाले, अन्छे रूपमे निम्पन्न हुए, अनेक शुभलक्षगों से प्रशस्त एप छिद्ररहित अगुलियों वाले होते हैं तथा- (पीवरसुजायकोमलवरगुली ) इनकी जो अगुलिया होती हैं वे सुपुष्ट, सुन्दर र कोमल होती हैं ! (ततलिणसुटहरनिद्वनग्वा) इन अगुलियों के जो नख होते है ये तान वर्णवाले होते हे तलिनपतले होते हैं, निर्मल होते हैं, कान्तिमान होते हैं तथा स्निग्ध-चिकने होते हैं । (णिपाणिलेहा) हाथों में जो रेग्वार होती है वे भी चिकनी रोती है । ( चदपाणिलेहा ) तथा इनके हाथो की ये रेखारा कितनीक नो चन्द्राकार होती हैं ( सम्पाणिलेहा) कितनीक मूर्य के आकार की होती परिधा (लागनी ) मभान 4-सा य , तथा " रत्ततलोवइयमउयमसल सुजाय-रस्सण-पसत्य-अन्छिद-जालपाणी" मना नहाय खासगीपणा પુષ્ટ કમળ મામલ-સે તથા કેળવાહિનીઓની જાળ ન દેખી નડાય તેવા સુઘટિત, અનેક શુભ લક્ષણોથી પ્રાપ્ત, અને છિદ્ર રહિત આગળી વાળા खत्य छ, त५ " पीचर-मुजाय-कोमल-कर गुली" तमना लायनी मानियो अपुष्ट, सु४२ गते भ डाय “ततलिणसुइरुइलनिद्धनसो" मारजियोना न तावाशु य तलिन-पाता डाय छ नि हाय छ सुवा भने डन्ति युतीय "णिपाणिलेहो" तेमना थमारे २माया राय ते पण स्नि, सुवाणी डाय छे “चदपाणिले हा" तेमना अपनी सी भासा यन्द्रा२, "सूरपाणिलेहा" 32मी सूर्या२, eals Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केसभूमी सामलि-पोंडघण निचियच्छोडिय-मिडरिसय पस स्थसुहमलखणसुगंधिसुदरभुयमोयगभिंग-नीलकजलपहिट्ठ भमरगण-निद्धनिउरव-निचियकुचिय - पयाहिणावत्तमुसि रया सुजाय-सुविभत्त-सगयगा-लसणवजणगुणोववेया पसस्थवत्तीसलक्सणधरा हसस्सरा कोचस्सरा दंदुहिस्सरासीहस्सरा मेहस्सरा ओघस्सरा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा बजरिसह नारायसघयणा समचउरमसठाणसठिया घायउज्जो वियगमगा पसत्थछवी निरायका कफगहणी कबोयपरिणामा सउणिपोसापिट्टतरोरुपरिणया पउमुप्पल-सारसगध-साससुरभिवयणा अणुलोमवाउवेगा अवदायनिढकोसा विग्गहियउण्णाय कुच्छीअमयरसफलाहारी तिगाउय समुच्छियातिप लिओवमहितिया तिपिणय पलिओवमाइ परमाउ पालइत्ता तेवि उवणमति मरणधम्म अवित्तिता कामाण ॥ सू० ११ ॥ टीका:-'भुयगी-सर-निउल-भोग-आयाण-फलिह-उच्छढ़दीवाहू' तत्र'भुयगीसर' भुजगेश्वर सर्पराजस्तस्य यो विपुलो भोगः-महान् काय. तद्वत् तथा ' आयाण' आन-आदीयत इत्यादानम् आदेया-सुन्दरो य. 'फालह' परिघा-कपाटरोधनकाठ, स च 'उच्छ्ह उसिप्त-स्वस्थानाद पहिनिष्कासितः, तद्वत् 'दीह' दो? वाह येपा ते तथा भुजगनुल्यपरिघाल्यलम्बमान फिर ये भोगभूमि के जीव कैसे होते हैं ? इसी विषय को सूत्रकार पुन स्पष्ट करते है-'भुयगीसर ० ' इत्यादि । टीकार्थ.- (भुयगीसर-विउलभोग-आयाण-फलिह-उच्छूढदोह पाह) सर्पराज के विपुल शरीर के समान तथा अपने स्थान से बहार किये हुए सुन्दर परिघा के समान, जिनकी दोनो भुजाये दोघे-ल बा તે ગભૂમિના જીવે કેવા હોય છે, તેનું સૂત્રકાર હજી વધુ સ્પષ્ટીકરણ, ४२ छ " भुयगीसर " त्यादि -भयगीसर-विउल-भोग-आयाणफलिह-उच्छददीह-वाह" भनी भन्ने - ભુજાઓ સર્પરાજના વિશાળ શરીર જેવી, તથા તેના સ્થાનેથી બહાર કાઢવામાં Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिक स्वरूपनिरूपणम् ४५५ " " भुजाइत्यर्थः, ' रत्ततलोवडयम उयमसल् सुजायलक खणपसत्यअन्उिद्दजालपाणी ' तत्र- ‘ रत्ततल ' रक्ततलो- लोहित म्रतलो ' उप ' उपचितौ पुष्टौ ' मउय' मृद्द = कोमली ' मसल ' मासलो अदृष्ट नाडी जालौ 'सुजाय' सुजातौ= निष्पन्न 'लक्खणपसत्य' लक्षण मशस्तौ अनेक शुभलक्षणैः मष्टो 'अच्छिदजालाअछिद्रजालौ = परस्पर मिलितत्वात् विरहिताङ्गुलिमुदायान्ती पाणी = हस्तो येषा ते तथा ' पीवरसुजायकोमलबरगुलि ' पीवरसुजातकोमलवरागुलय: = सुपुष्टमुन्दरकोमलाइगुयन्त ' ततलिणमुल निणखा ताम्रतनिशुचिरुचिरस्निग्ध नखाः-ताम्राः = रक्ताः तलिना: = मतला शुचय' = निर्मलाः रुचिरा =ान्तिमन्तः स्निग्धाय = चिकणा नखा येषा ते तथा, ' निद्धपाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः = चिणहस्तरेखावन्तः ' चदपाणिलेहा चन्द्रपाणिरेखा'= चन्द्र चन्द्राकारा पाणी रेखा येषा ते तथा 'सरपाणिलेहा ' सुरपाणिरेखाः= होती हैं तथा - ( रक्ततलोव इनमउयमसलसुजायलक्खणपसत्य अच्छि हजालपाणी ) जिनके दोनों हाथ लोहित तलियो वाले, पुष्ट भरे हुएकोमलतामे युक्त, मासल - पुष्ट अदृष्टनाडीजालवाले, अच्छे रूप मे निष्पन्न हुए, अनेक शुभलक्षणों से प्रशस्त एप छिद्ररहित अगुलियों वाले होते है तथा - (पीवरसुजायको मलवरगुली ) इनकी जो अगुलिग होती हैं वे सुपुष्ट, सुन्दर एव कोमल होती हैं ! (तक्तलि सुरह निद्रनग्वा ) इन अगुलियों के जो नख होते है वे ताम्र वर्णवाले होते हॅ तलिनपतले होते हैं, निर्मल होते हैं, कान्तिमान् होते हैं तथा स्निग्ध- चिकने होते हैं । (द्धिपाणिहा) हाथों में जो रेग्वाएँ होती है वे भी चिकनी होती है । (चदपाणिलेहा ) तथा इनके हाथों की ये रेखाएँ कितनीक तो चन्द्राकार होती हैं (सृरपाणिलेहा ) कितनीक सूर्य के आकार की होती " परिधा (लोगो) समान दीर्घ-सामी होय छे, तथा " रत्ततलोवइयमउयमसल सुजाय - लक्सण-पसत्य-अन्छिन्- जालपाणी" प्रेमना मने हाथ साथ हये जीवाजा, પુષ્ટ કામળ મામલ–નસે તથા કેળવાહિનીઓની જાળ ન દેખી શકાય તેવા સુતિ, અને શુભ લક્ષણાથી પ્રશસ્ત, અને છિદ્ર રહિત આગળીયા વાળા होय छे, तथा (c पीवर - सुजाय - कोमल- - कर गुली તેમના હાથની આગળિયે સુપુષ્ટ, સુદૃર અને કામળ હોય છે तनतणि सुइरुइलनिद्धनसो " ते भागजियोना नम ताम्रवर्णा होय ' तलिन यातना होय हे निर्माण होय छे भुवामा भने अन्ति युक्त होय हे "डिपाणिलेहो ” तेमना हाथमा ले होय ते पशु स्निग्ध, सुवाणी होय छे " चदपाणिल्हा " तेमना अपनी डेंटलीड रेखाओ यन्द्राार, “सूरपाणिलेहा " जेटली सूर्याजर, टसीड 6 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ " , सूर्याफार हस्तरेखानन्तः 'ससपाणिखेहा' शहपाणिरेयाः=शङ्काराररस्तरेखावन्त ' चपपाणिलेहा ' चक्रपाणिरेखा = वक्राकारहस्त रेखायन्त' 'दिसासोबत्यि यपाणिखेहादिस्तिक्पाणिरेखाः=दिकस्यन्तिकः=दक्षिणावर्तस्व स्तिकः= दक्षि णास्वस्तिकः तदाकारा पाणिरेखा येषां ते तथा 'रविससिमसारचकदिसा सोत्थिय विभत्सुरपाणिलेहा रविशशिशश्र्वरचकदिरस्वस्तिकभक्त सुरचित पाणिरेखा = सूर्यचद्रशचनदक्षिणावर्त स्वस्तिलक्षणाः विभक्ता =स्वष्टाः सुरतिदा। सुखदाः पाणिरेखाः = हस्तरेखा येषां ते तथा ' नरमसि राहसी इस रिसहना गवरपडिपुण्ग - विउल - खधा ' बरमहिपबराट सिंहशार्दूल पनागर प्रति पूर्ण पुल स्कन्धाः = तन परमहिषाः = पुष्टशरीरमहिपाः वराहाः शुकराः सिंहा = प्रसिद्धाः शार्दूला. = व्याघ्रविशेषाः ऋषभाः = बलीवर्दाः नागराः = प्रधानहस्तिनः तेपामिन प्रतिपूर्ण = परिणद्धो निपुल शालः सन्धो येषा ते तथा 'चरगुप्पमाण कवरसरिसगीना' चतुरङ्गुलिममाणकम्युपरम दशग्रीना चतुरगुलिममाणा कम्युनरेण= प्रधानगडूखेन सदृशी तुल्याच ग्रीवा = येषा ते तथा, 'अपट्टि मुभि है, तथा (समपाणिलेहा ) किननिक शाव के आकार जैसी होती हैं। (चक्रपाणिलेा ) किननीक ऐसी होती हैं कि जिनका आकार चक्र के जैसा होता है । तथा (दिसासोत्थियपाणिलेहा ) कितनीक ऐमी होती है जो दक्षिणावत पति के आकार में रहती हैं । इस तरह इनके हाथों की सूर्य, चंद्र, शग्व, चफ तथा दक्षिणावर्तस्वतिक के आकार की ये रेवाएँ स्पष्ट होती हैं और सुख देनेवाली होती हैं। तथा-(वरमरिस वराह - सीएस दूररिसह नागवरप डिपुण्गवि उलखधा ) इनके जो स्कध होते है वे पुष्टशरीरवाले महिप, वराह, सिंह, बैल, प्रधान हाथी इनके स्को के समान परिणद्ध-पुष्ट और विशाल होते है। तथा ( चउरगुल माणकबुवर मरिसगीवा ) चार अगुल प्रमाणवाले उत्तम शख के समान इनकी ग्रीवा होती है । ( अवद्विमुविभत्तचित्तसमसू ) तथा "" " ससपाणिलेहा " राजाार, " चक्कपाणिलेहा " डेटसी थार भने “ दिसा सोत्थियपाणिहा કેટલીક દક્ષિણાવર્તી સ્વસ્તિકના આકારની હોય છે તેમના હાથની તે ચન્દ્રાકાર આદિ રેખાએ સ્પષ્ટ અને સુખદ હોય છે તથા 26 वर महिस- वराह - सीह - सधैं उरिसह - नागवर - पडिपुण्ण - बिउलसधा " तेभना अला પુષ્ટ શરીર વાળા પાડા, વરાહ, સિહ, ખળદ અને ગજેન્દ્રના સ્ક ધેા જેવા પુષ્ટ અને વાાળ હોય છે ગ્રીવા ચાર अशुद्ध प्रभा ८८ તથા वाजा चवर गुलप्नमाणकबुवरसरिसगीवा" तेभनी उत्तम शमवी होय छे " अवट्ठिय Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिनी टीका ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् चित्तसमम्' जामिनमुविनाचिन्नमा - आथितानि=सम्बक्तया यथास्थान जातानि उपिभक्तानि गोमवया विमानेन स्थितानि चिनाजिशोभया विस्मयजनकानि श्मभूणि येपा ते तथा । 'उपचियममलपसत्य मररिउलहणुया' उपचितमासलप्रगम्तागाईपिपुरनुका-उपचित पुष्टः अतएर गासल =मांसयुक्तः प्रशस्तः तया गाईलस्येव पुिलश्च हनु' ओष्ठाऽधोभागो येपा ते तथा 'ओयवियमिरपवार निरफ्ल्सनिभाधगेहा ' ओयरियगिलाप्रवाल निम्मफलस भारोष्ठा जोगविय' इति पिपिटपरिममित समस्कत यन्छिलामवालविद्रम', तथा वियफल च ताभ्या मनिभा सदृशो रक्तोऽपरीष्ठो येपा ते तथा 'पहरमसिसस्त-निमलसखगोखीर - फेणकुददगरयमुणालिया - धवल्दतसेढी' पाण्टुरशशिरलनिगलर गोक्षीफेनकुन्ददारजोमृणारियापरदन्ताश्रेणयः-तत्रपाण्डुर श्वेत यत् शगिशमलचन्द्रग्यण्ड तथा विमलशन' प्रतीत. गोक्षीर-गोदुग्ध फेन'नदीमारिफेन कुन्द श्वनपुप्पविशेष दकरज' जलविन्दु मृणालिका इनकी दाढी के जो चाल होते ह वे अच्छी तरह से जा जिन्हें उत्पन्न होना चाहिये वहा उत्पन्न होते है, अच्छी तरह विभागरूप से स्थित रहते है, और अपनी शोभा से विस्मयजनक रोते है । तथा ( उपचियमस उपसत्यसदूलविउलहणुया ) इनके होठों के नीचे का जो भाग होता है पर पुष्ट होता है, मामल होता है, प्रशस्त-सुहावना होता है और सिंह की दाढी के समान विपुल-विस्तृत होता है। (ओयवियसिलप्पवालविफलसनिभाधोठा ) तथा इनके जो अधरोष्ट होते है वे अच्छी तरह परिकर्मित किये हुए मू गे के लमान और विम्बफल-कुदन के समान रक्त होते है (पटुररासिसफलविमल सरगोग्नीरफेणकुददगर मुणालियापवलदतसेढी) तथा इनका जो दातो की पक्ति होती है वह शुभ्रचद्रमा के ग्वउ जैसी, निर्मल शव जैसी, गाय के दूध जैसी, मुविभत्तचितसमसू” तथा तमना हाटीन वाण न्या भने आने ત્યાં જ ઉગેલા હોય છે, સારી રીતે વિભાજિત હોય છે, અને તેમની શોભા भुत , तथा “ उचियमसल पसल सहलविउल हणुया" तभना હોઠની નીચેનો ભાગ પુષ્ટ, માસ, શોભિતે, અને સિંહની દાઢીના જેવો विधुतविस्तृत सय छ “ओयपिरसिलप्पवालबियफ सनिभावगेट्ठा" तमना અધ–ડ સારી રીતે તૈયાર કરેલ પરવાળા જેવા તથા બિસ્મફળ-કુદગ જેવા ale य ' पदुरसत्रि-मकल-विमल-साब-गोसार-फे। कुगरयमुणालिया धरलदतसेढी' भनीत पनिया शुभ्र यद्र भवी, निर्मवी ગાયનું દૂધ જેવી, નદી જળ આદિના ફીણ જેવી, વેત પુષ્પ જેવી, જળના Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४५८ प्रमण्याकरणमा फमलनालतन्तु तद्वद्धपग टन्नश्रेणी दगदतियेगां ने तथा अग्बडद्वन्तार परिपूर्णदन्ता ' अफुडियदता' आफुटितदन्तापातदन्ताः अपिरलदन्ताःअच्छिद्रदन्ताः मुधनदन्ता इत्यर्थः 'मुगिदता' गुम्निम्यन्ता 'अरु तदन्तवन्तः सुनायदन्ता' मुजातदन्ताः = मुसस्थितदाना' 'गतमेदिकारणेगदता' एकदन्तश्रेणिरित अनेना येषा हागिरम्न अपि मुशियादेकदन्तवद् दृश्यन्ते प्रत्यर्थः । यानि धोयतततरणिज्जरगतलतालुनीहा ' हुनबह निर्मातधाततप्ततपनीयरक्ततगालजिहा = तपन = पसिना नि ति : तापित धौत-पिशोपित तान यापनीय गुवर्ण नेन तुत्य रक्तनल-रक्तरण तालुनदी जल आदि के फेन जैमी, नपुपरिशेप जानी, जल की बिन्दु जैती, तथा मृणालिका-कमल नाल के तन्तु जैसी धवल रोती है (असदता) तथा उनके दात परिपूर्ण रोते है-(अडियदना) तथा ये _ अस्फुटित दातोपाले होते है-उपड़ पारड इनके दांत नहीं होते है। और न टूटे फटे ही रोते है (अविरलदता) तथा इनके दान अच्छिा होते है -दूर २ नहीं होते है । अर्थात्-परस्पर में एक दूसरे दांत के साथ मिले नए रहते है । तया ( मुणिद्वदना ) ये दात इनके रक्षा से विहीन होते है अर्थात् चिकने होते है (सुजाय दता) शुत अच्छी तरहस ये सस्थित-ममूडों में गढे हए रहते हैं (एगदतसेदिव्यअणेगदता) याप ये दांत इनके बत्तीस ही होते है फिर मी परस्पर में सुश्लिष्ट होने के कारण एक दात की तरह ही दिग्वते है तपा- (इयवहनिद्धतधोयतत्ततवणिज रत्तनलनाजीहा) जिनको तालु एव जिहा रहि से तपाये गये मिन्दु २वी, तथा भजनासना ततूवी, सहाय छ " असदता " तमना हात परिपू डाय छे माछा पधारे हात नथी 'अफुडियद ता" તેમના દાત અસ્ફટિત હોય છે–પિલાણ વાળા હોતા નથી અને તૂટેલા પણ डाता नथी "अविरलद ता" तथा तहात पासे पासे डाय छ २ ६२ जाता નથી એટલે કે પરસ્પર એક બીજા સાથે અડકીને રહેવા દેય છે, તથા "सुणिद्धद तो " तभना मे हात ३सताथी २डित म सुवास डाय छ "सुजायदता" ते धी सारी शत पेढामा २डेसा डाय छ “ एगदतसेढिव्व अणेगदता " ने भने मत्रीस होत अय, छत ५५ ५२२५२ मेवाशत અડોઅડ આવેલા હોય છે કે તે એક દાત હોય તેવા દેખાય છે તથા " हयवहनिद्धत पोयतत्ततपणिजरत्ततलतालुजोहा" भनु त भने से આગમાં તપાવેલ શુદ્ધ સુવર્ણના જેવા લાલ સપાટી વાળા હે છે તથા Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टीका अ०५ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् जिह्म येपा ते तथा 'गरुलाययउज्जुनुगनासा' गरुडायतऋजुतुङ्गनासा: गरुडस्येव आयता-दीर्घा जी-सरला तुङ्गाममुन्नता नासा येपा ते तथा जबदालियपुडरीय णयणा' अपदालितपुण्डरीकनयनाः विकसितसितम्मलतुल्यनेत्राः 'विकोसिय धवलपत्तलच्छा' विमोशित पल्पनलाक्षा:-विकोसितेविकसिते प्रसन्ने सदा प्रमुदितत्वात्तेपा, धरलेवेते पनले पक्ष्मवती च अक्षीणि नेत्रे येपा ते तथा । ' आणामिय चावरुइटकिण्हन्भराइसठियसगयाययसुजायभूमगा' जानामित चापरुचिरकृष्णाश्रमरानिसस्थितसद्गतायतसुजातभ्रुव = आनामितौ = वक्रीकृती चापौ = धनुपी तद्वत्रुचिरे कृष्णाभ्रराजिसस्थिते-कृष्णमेघरेखासदृशे सगते समुचिते आयते दीर्घ सुजाते-स्वभावतःमुन्दराकारे च भुगौ येपां ते तथा । 'अल्लीणपमाणजुत्तसवणा' आलीनप्रमाणयुक्तप्रवणा: = आलीनो-स्तब्धी प्रमाणयुक्तौ समुचितप्रमाणी श्रवणो कणों येपा ते तथा एतापदेव न फिन्तु 'मुस्सवणा' मुश्रपणाः = शब्दग्रहणशक्तिसम्पन्नर्णयुक्ता', 'पीणमसलकयोलदेसभागा ' पीन शुद्ध तप्त नुवर्ण के समानरक्त तलवाली होती है। तथा (गरुलाया उज्जतुगनासा) जिनकी नासिका गरुड़ की नासिका के समान दीर्घ, सरलऔर समुन्नत होती है । तथा ( अवदालियपुडरीयणयणा ) जिनके नेत्र विकसित शुभ्र कमल के समान होते है । तथा-(विकोसियधवलपत्तलच्च) जिनकी दोनो आखे विकसित धरलवर्णोपेत, एव पक्ष्मवाली होती है । (माणामियचावरुइलकिण्हभराह सठियसगयायसुजायभूमगा) तथा जिनकी भोहें वक्रीकृत धनुष्य के समान रुचिर, कृष्णमेवपक्ति के जैसी अत्यतकाली, सगत-लयी २ ण्व स्वभावत आकार में सुन्दर होती है (अल्लीणयमाणजुत्तसवणा) तथा-जिनके दोनो कान स्तब्ध और समुचित प्रमागपाले होते हे (सुस्सवणा) तथा-शब्दग्रहण करने की शक्तिसे सपन्न होने के कारण जिनके दोनो कान सच्चे अर्थ में सुश्रवण "गरुलायगउज्जतुगनासा" भनी नामिड! १२७नी याय वा सामी, सरस भने उन्नत उय छ तथा " अवदालियपुडरीयणयणा" मना नयन विसित श्वेत भ७ २१ लाय छ, तथा “विकोसियधरलपत्तलच्छा" भनी ५२ मा विसित, श्वेतपानी भने ५६भाजी राय छे “आणामिय चावरूइल किण्हब्भराइसठियसगया यय सुजायभूमगा” तथा तेभनी प्रभ। १४ धनुष्याना જેવી મનોહર, કાળા વાદળની પક્તિ સમાન અત્યંત કાળી, સગત-લાબી मने स्वभावि गते भावामा सु४२ डाय छे “अल्लीणपमाणजुत्तसपणा" तथा समना मन जान २०५ मने प्रभासना डाय छे “सुम्सवणा" શબ્દ સાભળવાની શક્તિવાળા હેવાને કારણે જે ખરા અર્થમાં સુશ્રવણ છે, Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नयाकरण मासलकपोलदेशभागा:-पीनी = पीरी-मांगरी शुष्टी च कपोलटेनमागी - फपोली येषां ते तथा 'अनिरुग्णय-बालचद-सठियाहानिगडा' अचिरोद्भव पालचन्द्रसस्थितमहालगटा = निरोज अस्विरमादितः अष्टमीतिथिस मन्धीत्यया, अतएव पाळ पन्द्रः पूर्ण चन्द्र' अर्दचन्द्र इत्यर्थः, नत्सस्थित = वत्सस्थानयुक्त तदाकारक महन् = विशारा टारगलप्रमाग ललाट येषां ते तथा अर्द्धचन्द्राकारलगाटा स्यर्थ । 'उद्यापडिपुरगमोगायगा' उडुप तिमतिपूर्णसौम्यवदना पूर्ण न्द्रादाबामुन्याः नागारुत्तमगदेमा' छत्रा कारोत्तमानदेशाः = छावनोगतमस्तकाः 'घगनिचियमुनलाग्पगुग्गडा गारनिपिडियग्गसिरा' घननिचितमपद क्षणोननाटाकानिमपिडि कामशिरस' =धन यत्-लोहमुद्गरमानिचित-सम्भृत गुपद्ध-स्नायुगि लागोनत - पिशिष्टनम णयुक्त तथाकूटाफारनिभ-प्रासादशिखामग तुलयात् पिण्डि के र अप्रशिः = मस्त काग्रभागो येपा ते तथा मुन्दरलागयुक्त विशालय लगन्तकाग्रभागा है ऐसे कानो से जो युक्त होते है । नया-पोणमामलायोलदेसभागा) जिनके दोनों कपोल पीचर, और मासल होते है (अचिरग्गरवालचद सठियमहानिला ) तथा-जिनका महाललाट अष्टमी के अर्धचन्द्र के समान आकार का रोना है अर्थात् आठ अगुल प्रमाण आकार वाला होता है । ( उडवहपडिपुण्णसोम्मवयणा) तथा जिनका मुख, पूर्णचन्द्र के समान आल्हादकारक होता है। (उत्तागाझामगदेना) तथा मस्तक छत्र की तरह वृत्त-गोल और उन्नत होता है (घणनिचियसुब दलक्खणुग्णयकृडागारनिभपिडियग्गसिरा) तथा मस्तक का अग्रभाग लोहयुद्गर की तरह निचित-गाढ़-भरा हुआ-तया स्नायुओं से अच्छी तरह जकड़ा हुआ, तथा अनेक विध विशिष्ट लक्षणों से युक्त तथा प्रोसाद के शिखर के समान उन्नत तथा पिण्डिका-पिंडी के जैसा-गाल मेवा न 3 रे युत साय छ "पीणमसलकवोल्देसभागा" भना मन र पावर, मन भासद डाय छ “अचिरुग्गयनालच दसठियमहानि રાજા” તથા જેમના વિશાળ લલાટ આઠમના ચદ્રના જેવા આકારના હોય છે गेट म18 मागण पडाका डाय छ । उडुवाइपरिपुण्णसोम्मवयणा" तथा भनु भुम पूर्णचन्द्रना २७ मा २७ डाय छ " छत्तागारुत्त मगदेसा" तभनु भाथु छत्रन गण मन उन्नत हाय छ “ घणनिचय सुबद्धलक्खणुण्णय कूडागार पिडि नासिरा' तथा तभना भरताना मला भाई ળના જેવો નિશ્ચિત-ગાઢ-ભરેલો તથા સ્નાયુઓ વડે સારી રીતે બધાયેલ, તથા અનેક પ્રકારના ખાસ લક્ષણેથી યુક્ત તથા પ્રાસાદની ટેચ જેવો ઉન્નત તથા પિડીના Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०४० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् हुतवहनिर्मात " इत्यर्थ', 'हुतवहनियत तव निरच केस फेसभूनी धौत तप्तन पनी यरक्त केशान्त कशभूमयः तत्र हुतवदेन पहिना निर्मात=तापि तम् अतएव - घात = विशोभित तप्त च यत्तपनीय सुत्रर्ग तद्वद् रक्ताः = रक्तवर्णाः केशान्ताः = केशसमीपस्था केशभूमी: मस्तकत्वचा येषा ते तथा तप्तसुवर्णसदृगरक्तवर्ण शिरस्त्वक सम्पन्नाः । 'सामलिपौडन गनिचियच्छा डियमउविसयपसत्यहुमरमुयमोयगभिंगनी कज्जलपट्टि भमरगण निद्वनिउरव निचिय कुचियपयाहिणात्तमुद्रमुद्धसिरया ' शाल्मली पोडघननिचितघोटितमृदुविशद प्रशस्त सूक्ष्मलक्षणसुगन्धसुन्दर नोच नीलकज्जलमहाभ्रमरगण स्निग्पनिकुरुम्बनि चितकुञ्चितप्रदक्षिणावर्त्तमूर्धशिरोजा, तत्र - 'सामलि' शाल्मलि वृक्षविशेस्तस्य यत् पौड' फल तच्च ' घणनिचिय' वगनिचितम् = आभ्यन्तरभाग सभृततयाऽति कठिन तत् ' छोडिय' छोटित विदारित तद्वत् ' मिउ ' मृदवः = कोमलः 'विसय' निशदा:- सुस्पष्टता पसत्य मशस्ताः = श्रेष्ठा सुहुम सूक्ष्माः मतला लक्ग्वण ' लक्षणा = शुभ लक्षणयुक्ताः सगन्धय = सुरभिगन्यविशिष्टाः = मनोहराः २ होता है । (हुयवनित घोयतत्ततवणिज्जरत्तके सत के सभूमी ) तथा जिनकी केशान्तभूमि- मस्तक की त्वचा - अग्नि से तपाये हुए शुद्ध तस सुवर्ण जैसी रक्तवर्णवाली होती है ( सामलिपोंड़णनिचयच्छोडिय मिडविसयहुल व सुगंध सुदर भुयमो पणभिगनौलकज्जलपट्टि - भमरगणन इनिउन निचियकुचियवयाहिणात्तमुद्रसिरया) तथा जिनके केश, शाल्मलिवृक्ष के -रुआ से भीतर से भरे हुए तथा कठिन बने हुए विदारित फल के समान मृदु होते हैं, शाल्मली वृक्ष का फल जब पक जाता है तो वह कठिन हो जाता है, और उसकी भीतर की भरी हुई रुई बहुत अधिक चिकनी हो जाती है । यह बड़ी नरम और चिकनी रहती है | इसलिये सूत्रकार ने उसके साथ बालों को उपमित किया है। " " ( * " तथा नेवा गोज गोण होय छे " हुयहनिद्धतधोयनत्ततवणिज्जरत्तवे सतकेसभूमि જેમની કેશાન્તભૂતિ–માથાની ત્વચા–અગ્નિથી તપાવેલા શુદ્ધ સુવર્ણ જેવા લાલ वर्षानी होय हे “सामलिपो डघणनिचयच्छोडियमिउविसयपसत्य सुहुमलक्सण सुगंधसु दरभुभोयगभिंगनी कज्जलपट्टिभमरगणनिद्धनि निचियकु चियपया हिणावत्तमुद्ध सिरया " તથા જેમના કેશરગામલિ વૃક્ષના, ( શીમળા ) અદરથી રૂવાટીથી ભરેલા તથા કઠણુ અનેલ કાપેલા ફળ સમાન મૃદ્ હાય છે શીમળાના ફળ જ્યારે પાકે છે ત્યારે કઠણ થઈ જાય છે, અને તેની અદર રહેલ વાટી ઘણી મુલાયમ થઇ જાય છે તે ઘણી નરમ અને સુવાળી રહે છે તેથી સૂત્રકાર તે રૂવાટી સાથે કૈરાની સરખામણી કરે છે તેમના કેશ વિશદ-સુસ્પષ્ટ, પ્રશસ્ત Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vto प्रश्नयाकरणम् मांसलरूपोलदेशभागा.-पीनी = पीरी-मागली= पुष्टी न पोरटेनमागी - फपोली येपो से तथा मचिरगय-पापचद-गठियमहानिगटा' अविरोइन पालचन्द्रसस्थितमहालगटा = भरिमादिनमगातोदिवा अष्टमीतिथिस मन्धीत्ययः, अतएव पालगन्द्रः पूर्ण चन्द्रः अर्द चन्द्र इत्यर्थः, उत्सस्थितं - वत्सस्थानयुक्त तदाकारा मदन = शिाम् अटारगुलपमाण ग्लाट या ते तथा अर्द्धचन्द्रासारलगटा इत्यये । 'उपडिप्रगमोगरयगा' उप तिमतिपूर्णसोम्यवदना: पूर्णन्द्रियदाणाहकमुग्याः नागारतमगदेमा' छत्रा कारोत्तमानदेशाः = छत्राचीनतमस्तका 'घनिचियमुपदलरसगुग्णकडा गारनिमपिडियम्गसिरा' घननिचितमुपद रामगोन्नताटामारनिर्पिडिरामशिरस. घनपन्लोहमुद्गरसनिलिव-सम्भृत गुनद स्नायुभि लक्षणोनत - रिशिष्टलास णयुक्त तथाफूटाकारनिभ-मासादशिखामा चतुरपात् पिण्डि के अग्रशि:मस्तकाग्रभागो येपा ते तथा सुन्दरला गयुक्तपिशायर्नुलगन्तकाग्रभागा है ऐसे कानो से जो युक्त होते है । नया-पोणमसल्कयोलदेसभागा) जिनके दोनों कपोल पीचर, और मासल होते है (अचिग्ग रयालचद सठियमहानिला ) तथा-जिनका महाललाट अष्टमी के अर्धचन्द्र के समान आकार का रोता है अगीन आठ अगुल प्रमाग आकार वाला होता है । ( उडवहपडिपुण्णसोम्मवयणा) तथा जिनका मुख, पूर्णचन्द्र के समान आल्हादकारक होता है। (उत्तागाम्तमगदेना) तथा मस्तक छत्र की तरह वृत्त-गोल और उन्नत होता है (घणनिचियसुब दलक्खणुण्णयकूडागारनिभपिडियरगसिरा) तथा मस्तक का अग्रभाग लोहनदर की तरह निचित-गाढ़-भरा हआ-तयो स्नायुओं से अच्छा तरह जकड़ा हुआ, तथा अनेक विध विशिष्ट लक्षणों से युक्त तथा मोसाद के शिग्वर के समान उन्नत तथा पिण्डिका-पिंडी के जैसा-गाल मेवा आन 432 युत उय छ “पीणममलकबोल्देसभागा" मना भने पार पाव२, अने भासद डाय छ “अचिरुग्गयालच दसठियमहानि लाहा" तथा मनावि ससाट सामना -यद्रना २१ रन डाय. मेट २मा माग पडे हाय छ । उडुबइपडिपुण्णसोम्मवयणा" तथा रेभनु भुम पूर्ण यन्द्रना २९ साइसाई २४ डाय छ “छत्तागारत भगदेसा" तभनु माथु छत्रन गण मन उन्नत खाय छ “घणनिचय सुबद्धलक्खणुण्णय कूडागार पिंडि यासिरा" तथा तभना मस्ताना मला माह બને જે નિશ્ચિત-ગાઢ-ભરેલે તથા સ્નાયુઓ વડે સારી રીતે બધાયેલે, તથા અનેક પ્રકારના ખાસ લક્ષણેથી યુક્ત તથા પ્રાસાદની ટેચ જે ઉન્નત તથા પિડીના Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० ४ सू० ११ युलिपस्वरूपनिरूपणम् ४६३ " छन १ तामरस २ धनू ३ रथारो४ दम्भोलि ५ कर्मा ६ ऽ कुशाः ७ । वापी ८ स्वस्तिक ९ तोरणानि १० य मरः ११ पश्चाननः १२ पादपः १३ ॥ चक्र१४ शङ्क१५ गजा१६ समुद्र १७ कलशौ१८ प्रामाद१९ मत्स्यौ२० ययौ२१ यूप२२ सप२३ कमण्डलू२४ न्यबनिभृत् २५ मच्चामरो२६ दर्पणम् २७ ॥१॥ उक्षा२८ पताका२९ कमलाभिषे३० सुदाम ३१ केकी ३२ घनपुष्पभाजाम् ॥ . 'हसस्सरा' हमस्वरा:-हमवत्स्वग'-स्निग्यत्वान 'कोचस्मरा' फ्रौञ्चम्बराः= कौञ्चपक्षिवत्स्वराः-मुक्ष्ममृदुत्वान् , 'दुहिम्मग' दुन्दुमिरत्वरा:-गम्भीरत्वात् धारण करने वाले होते है। प्रशस्त बत्तीस लक्षणो के नाम इस प्रकार हैं(१) छत्र, (२) कमल, (३) धनुप, (४) उत्तमरथ, (५) दम्मोलि-वन, (६) क्रर्म-कच्छप, (७) कुश, (८) वापी, (९) स्वस्तिक, (१०) तोरण. (११) तालार, (१२) पचानन-सिंह, (१३) पादप, (१४) चक्र, (१५) शख, (१६) गज, (१७) समुद्र, (१८) प्रासाद, (१९) मत्स्य, (२०) यव, (२१) यूप-स्तम (२०) म्तृप, (२३) कमडल, (२४) अवनिभृत्-पहाड़-पर्वत, (२५) सुन्दर चामर, (२६) दर्पण, (२७) उक्षा-पैल, (२८) पताका, (२९) अभिपेरुयक्त लक्ष्मी (३०) सुदाम-सुन्दरमाला (३१) केकी-मयर और (३२) पुप्प (हसस्सरा) इनका स्वर स्निग्ध होने से हस के स्वर के समान होता है। (ोंचस्सरा) सुक्ष्म और मृद होने के कारण क्रौ चपक्षी के શ્રેષ્ઠ બત્રીસ લક્ષણો ધારણ કરનાર હોય છે શ્રેષ્ઠ બત્રીસ લક્ષણેના નામ આ પ્રમાણે છે (१) छत्र (२) उमस (3) धनु५ (४) उत्तभ२५ (५) हमाल-400 (6) भायमा (७) २५ श (८) पापी (6) स्वस्ति (10) ते२ (१३) ताव (१२) ५याननमिड (१3) पा४५ (वृक्ष) (१४) 28 (१५) २५ (१६) १ (१७) समुद्र (१८) प्रासा (१६) भस्य (२०) यव (२१) यू५-स्त (२२) સ્તુપ (૨) કમ ડલ (૨૪) અવનિભૂતપડાડ (૨૫) સુદર ચામર (૨૬) દર્પણ (२७) GAL-RE (२८) ५ilst (२८) यलिये। युत सभी (30) सुदामसु१२ भाणा (31) 381 भय(७२) ५ ' हसस्सरा" भने। २१२ भूई पाथी सना ॥ य छ, “ को चस्सरा" सूक्ष्म अने भूखापाथी हीय पक्षीन। २१२ वा हाय छ, “दु दुहिस्सरा" लार वाथी मिना अवार १, तामरसम्म लम् । २ दम्झोलि अन्नम्। । ३ पञ्चानन मिह१२ । ४ यूप स्तम्भ२२ । ५ स्तूप ='चो तरा' इति भाषा प्रसिद्धा २३ । ६ अवनिभूतपर्वत २५ । ७ उमाबलीपर्द २८ । ८ कमलाभिषेक -अविवेकयुक्ता लक्ष्मी ३० । ९ सुदाम-माला३१। १० केकी=मयूर ३२ । Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ प्रभव्याकरणसूत्रे " , " , तथा 'शुपमोयग भुनमोचरुः = कृष्ण वर्णो रत्नविशेषः मिंग' भृङ्गा:- पूर्णिताङ्गार ' कोलसा ' इति भाषा प्रसिद्धः नील नीमणिः, 'नीम' इति प्रसिद्धः, फज्जलम् = अञ्जन ' पदिहममरगण ' पटटभ्रमरगण-ममुदित भ्रमरगमृह, इत्येतैः सदृशाः स्निग्धाः कृष्णकान्तयः निउरस निरस्त्राणि समूहस्पा. निचिता. = सनद्धाः 'कुचिय 'कुचिताः कुटिया 'पर्याादिणारच' प्रदक्षिणानर्त्ता दक्षि णावयुक्ता ' मुद्धसिरया ' मूर्धगिरोना. = मस्त ककेता येषा ते वा । 'सुजा यसुविभत्तसगयगा' युभावविभक्तम गवाहा = गुनि पन्नगृस्पष्टममुचितशरी रावयवाः, 'खगनजणगुणी या लक्षणव्यञ्जनगुणोपपता = लक्षणानि = स्वस्तिकादीनि न्यञ्जनानि-मपतलादीनि गुणानि - सौभाग्यादीनि तेम्पेताः 'सत्यत्तीसखणधरा' प्रशस्तद्वात्रिशल्लक्षणपरा ? =मशस्तानि यानि द्वात्रिं शल्लक्षणनि उन कमलादिरूपाणि येषा ते तथा, द्वात्रिंशत्लयणानि यथा - तथा उनके केश विशद-सुस्पष्ट, प्रशस्त श्रेष्ठ, सूक्ष्म पतले, शुभलक्षणों से युक्त, अच्छी गधवाले और मनोहर होते हैं । तथा इनका वर्ण कृष्ण वर्ण नामक रत्न विशेष के जैसा, भृग-चूर्णित फोल्सा के जैसे, नीलनीलमणि जैसे, कज्जल - अजन के जैसे और प्रमुदित भ्रमरो के समूह जैसे, काले होते हैं। ये केश मस्तक में विरछे नहीं होते है किन्तु समुदाय रूप में सघन रहते हैं। एक दूसरे से सद्ध होते है, कुटिलघुघराले होते हैं और दक्षिणावर्त्त वाले होते है । (सुजायतुविभत्तसग थगा ) इनके शारीरिक अवयव सुनिष्पन्न, सुस्पष्ट एव समुचित सनिवे शवाले होते हैं (लवणवजणगुणोववेया) स्वस्तिक जादि लक्षणों से मपा, तिलक आदि व्यजनों से एव सौभाग्य आदि सद्गुणों से ये युक्त होते हैं । (पत्यबत्ती ललक्खणधरा ) प्रशस्त वत्तीम लक्षणों को ये " 1 શ્રેષ્ઠ, સૂક્ષ્મ-પાતળા, શુભલક્ષણા વાળા, સુદર ગધવાળા અને મનેાહર હોય છે. તથા તેમના ૨૭ કૃષ્ણવણુ નામના રત્ન જેવા કાલસાની રજ જેવા, નીલ મણી જેવે, કાજળ જેવા, અને પ્રમુદિત ભ્રમરવૃન્દ જેવા કાળે હાય તે કેશ મસ્તક ઉપર વિખરાયેલા હોતા નથી પણ સમુદાય રૂપે સઘન હોય છે, એક ખીજા સાથે મળેલા હોય છે, શુ ચળા વાળા હોય છે, અને દક્ષિણાવર્ત વાળા ( જમણી તરફ વળેલા) હોય છે सुजायसुविभत्तसगयगा " तेमना शरीરના અગા સુડાળ, સુસ્પષ્ટ અને પ્રમાણસરના હોય છે गुणोपवेया " स्वन्ति हि लक्षणोथी, भस, तिस माहि व्यन्नोथी भने સૌભાગ્ય આદિ સદ્ગુણેાથી તેએ યુક્ત હોય છે, " 66 लक्सणव जण - "L पसत्थबत्तीस लक्खणधरा " Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका थ० ४ सू० ११ युगलिक स्वरूपनिरूपणम् ४६३ १ (( छत्र १ तामरस २ धन् ३ स्थारो४ दम्भोलि ५ कृर्मा ६ ऽङ्कुशाः ७ । 3 वापी ८ स्वस्तिक ९ तोरणानि १० य मरः ११ पञ्चाननः १२ पादपः १३ ॥ चक्र१४ शह्न१५ गजा१६ समुद्र १७ कल्शौ १८ प्रासाद १९ मत्स्यौ २० यवौ२१ यूप२२ नेप२३ कमण्डलु२४ वनिभृत् २५ सच्चामरो२६ दर्पणम् २७ ||१|| उक्षा२८ पताका२९ कमलाभिपे ३० सुदाम ३१ कैफी ३२ घनपुष्पभाजाम् ॥ १० 'इसस्सरा ' हमस्वराः-हमवत्स्वरा - स्निग्यत्वात् 'कोचस्मरा' क्रौञ्चम्वरा:= कौञ्चपक्षिपत्स्वराः- मृक्ष्ममृदुत्वात्, 'दुदुहिस्सग' दुन्दुभिरत्वरा - गम्भीरत्वात् धारण करने वाले होते हैं । प्रशस्त बत्तीस लक्षणो के नाम इस प्रकार हैं(१) छत्र, (२) कमल, (३) धनुप, (४) उत्तमरव, (५) दम्मोलि - वज्र, (६) कूर्म - कच्छप, (७) कुश, (८) वापी, (९) स्वस्तिक, (१०) तोरण, (११) तालान, (१२) पचानन सिंह, (१३) पादप, (१४) चक्र, (१५) शख, (१६) गज, (१७) समुद्र, (१८) प्रासाद, (१९) मत्स्य, (२०) गव, (२१) यूप - स्तभ (२२) स्तृप, (२३) कमंडलु, (२४) अवनिभृत्-पहाड-पर्वत, (२५) सुन्दर चामर, (२६) दर्पण, (२७) उक्षा-बैल, (२८) पताका, (२९) अभियुक्त लक्ष्मी (३०) सुगम सुन्दरमाला (३१) केकी - मयूर और (३२) पुप्प (हसस्सरा) इनका स्वर स्निग्ध होने से इस के स्वर के ममान होता है । (चरा) सूक्ष्म ओर मृदु होने के कारण को चपक्षी के શ્રેષ્ઠ પત્રોમ લક્ષણે ધારણ કરનાર હાય છે શ્રેષ્ઠ ખત્રીસ લક્ષણેાના નામ આ પ્રમાણે ઇં (१) छत्र (२) उभव ( 3 ) धनुष ( ४ ) उत्तमरथ ( 4 ) हम्भोसि - वन्न (६) ईभ प्रयमो (७) अंकुश (८) वायी (८) स्वस्ति: ( 10 ) तोरण (११) तनाव (१२) पथाननभि (13) पाहय (वृक्ष) (१४) २४ (१५) शम (१६) (१७) समुद्र (१८) आसाह ( १७ ) भत्म्य (२०) यव ( 21 ) यूप - स्तल (२२) स्तूप (23) अभ उसु (२४) अवनितपडाड (२५) सुदर याभर (२९) हर्षायु (२७) उक्षा - जगह (२८) पताज (२७) अलिपे युद्ध लक्ष्मी (३०) सुहाभसुहर भाषा (३१) जेडी मयूर (३२) पुण्य हसरसरा ” તેમના સ્વર મૃદુ होवाथी मना वो होय छे, " को चहसरा " सूक्ष्म भने भृद्ध होवाथी य પક્ષીના સ્વર જેવા હાય છે, दु दुहिस्सरा " गलीर होवाथी हुहुलिना वार १, तामरस= कमलम्२ । २ दम्फोटि = त्रयम् । ३ पञ्चानन = सिंह १२ | ४ यूप = स्तम्भ२२ । ५ स्तूप = ' चोतरा ' इति भाषा प्रसिद्धा २३ । ६ अवनिभूत = पर्वत २५ । ७ उक्षा = नलीन २८ । ८ कमलाभिषेक -अविषेकयुक्ता लक्ष्मी ३० । ९ सुदाम = माला ३१ । १० केकी = मयूर ३२ । "" Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ _ प्रमाण सीहस्सरा , सिस्वरा:-मिदरस्परा:-अयादतमरर्धमानत्वात् , न तु सयद् , हीनस्तराः, मेघस्सा' गंवरपराभवाघरा-दृढगयापित्यात् 'ओध स्सरा' ओरसरा.-, भाटिवसराः, 'सुम्परा' गुस्वरा-कर्णगुपजनकत्वाद 'मुस्मरनिग्योसा' सुपरनियोपा -सुधरः प्रियः निर्योपागदी येषा ते तथा मधुरभाषिण इत्यर्थ , जरिसानारायसवयणा' पच-पम-नारा चसहनना., तर नाराम-उभयतो मर्मटरन्य , पपमान्तदुपरि पेटना , वनकीलिका-उमयस्यापि भेदकमस्थि ।। उक्तव " रिसहो उ होइ पट्टो, रज पुण फीलिया रियाणाहि । उमभो माययो नाराय न पियागाहि ॥ १॥" इति, स्वर के जैसा होता है। (दुदृहिस्मरा) गभिर रोने से दुदुभि के स्वर जैसा होता है, (सीरस्सरा) अध्यात्तरूप से प्रवर्धमान होने के कारण सिंह के स्वर जमा, (मेहम्मग) दर२ देशनक में मी व्याप्त होने के कारण मेघकी पनि जैसा शेता है। (ओवस्मरा) यह स्वर बीच में टूटता नहीं है, (सुस्मरा) तथा कानों को सुग्वकारी होता है । तपा(सुम्नरनिरोसा) वे जो भी शब्द पोलते है वे भी बड़े प्रिय होते हैं, अर्थात यं मधुरभापी होते हैं (पज्जरिसहनारायसवयणा) इनका वज ऋषभ नाराच सत्नन होता है और (समचउरमसठाणसठिया) समचतुरस्र सस्थान होता है । जो सहनन उभयतः मर्कटधसे, ऋपम- उसके उपर वेष्टनपट्ट ले एव बन-कीलीका से युक्त होता है उसका नाम उज अपभनाराच सहनन है। यही बात गाया द्वारा प्रदर्शित की गई है। व साय छ, “ मीहस्सरा" अविरत अवध भान पाने ४२णे सिडना २१२ २वी, मन “मेहस्सरा" २ २ सुधा सातो उपाधी मेघना पान व सागे छ “ओरस्सरा" ते २१२ पथ्ये तरता नथी मन “ सुस्सरा" धन सुभह सा छे तथा ' मुस्सरनिग्योसा" तयार Avat माले छ a ५ घg मधुर होय छे सटसे भी मासा होय छ " वज्जरिसह बारायसघयणा " तेभनु प० पम नाराय सहनन होय छे भने “ समचउ र ससाण सठिया " सभयो स स स्थान र छ रे मनन ने त२६ મર્કટ બધથી, કષભતેના ઉપર લપટાયેલા પટ્ટથી અને વજ-કાલિકાથી યુક્ત हाय ते नाभ वनपभनाराचसहनन छे ये ४ वात आथा द्वारा દર્શાવવામાં આવી છે Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीका अ० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् ४६५ ____एव रूप सहननम्-अस्थिरचनाविशेषो चेपा ते तथा । 'समचउरससठाण सठिया' समचतुरस रास्थानमस्थिताः = नत्र समा = अन्यूनाधिकाः चतस्रः अस्रयः चतुर्दिग्यिभागोपलक्षिताः शरीरावया यत्र तत् , समचतुरस्ररव च पर्य डासनोपविष्टस्य दक्षिणस्कन्धाद् घामजानुपर्यन्त, तथा वामस्कन्धाद् दक्षिण जानुपर्यन्त समत्व, तदेव सस्थान = शरीररचनारिगेप , तेन सस्थिता: युक्ता स्ते तथा 'छायउज्जोवियगम्गा' छायोद्योतिताङ्गोपाङ्गाः - छायया = शरीर कान्त्या उयोतिनानि देदीप्यमानानि जङ्गोपाङ्गानि येपा ते तथा देदीप्यमानशरीरा., 'पमपन्छी ' प्रशस्तउवय'सुन्दराकृतयः 'निरायका' निरातङ्काः रोगरहिताः ‘कागहणी ' कङ्कग्रहणा. मकस्य-पक्षिविदोत्येव ग्रहण-गुदाशयो येपा ते तथा-नीरोगपर्चस्का 'कबोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः कपोततुल्या जैसे--" रिमरो उ होड होप, वन पुण कीलिया वियाणाहि । उमओ माटयधो, नाराय त वियाणाहि" ॥१॥ जिस सस्थान में चतुर्दियविभागोपलक्षित शारीरिक अवयव न्यू नाधिकतारूप दोप से वर्जित होते है-अर्यात-पर्यशासन से उपविष्ट पुरुप के दक्षिणकध से लेकर वामजानुपर्यत और वामस्कध से लेकर दक्षिण जानु पर्यंत जोसमोनना रूप से शारीरिक अवयवों की रचना है उसका नास समचतुरस्रसम्यान है । (छायउज्जोवियगमगा) इनके शारीरिक अवयव अपने शरीर की कांतिरूप छाया से सदा देदीप्यमान बने रहते हैं (पसत्यच्छवी) इनकी आकृति रडी मनोज्ञ सुन्दर होती है। (निरायका) इन्हें कोई भी रोग नही होता है। (ककगहणी) इनका गुदाशय-गुत्यप्रदेश पक्षी के गुधभाग की तरह लेपरहित मलवाला होता है। (कवायपरिणामा ) उनका आहार कवृतर के आहार के परिपाक जैसा " रिसहो उ होइ पट्टो वज्ज पुण कीलिया रियाणादि । उभओ मक्डवपो, नाराय त वियाणाहि" ॥१॥ જે વ્યવસ્થામાં ચારે દિશાને અનુલક્ષીને શારીરિક અવયવો ન્યૂનતા અથવા અધિકતાના દેષથી રહિત હોય છે, એટલે કે પર્યકાસને બેઠેલા પુરૂષના જમણા ખભાથી લઈને ડાબા ઢીચણ સુધી અને ડાબા ખભાથી લઈને જમણા ઢીચણ સુધી સમાન રૂપે શારીરિક અવયવે ની જે રચના હોય છે તેને સમयतुरसस स्थान छ “छायउज्जोवियगमगा" लेमना शरीरना मा तेमना गरनी ति३५ छापाथी सहीप्यमान मनी २७ छ “पसरयच्छवी" तेमनी माति घी मनोज्ञ-सु१२ ही “निरायका " तमने शेष थता नथी "ककगहणी" तमना गुराय-गुहा पक्षीना मुहमानी गडित भगवा होय छे “ कनोयररिणामा" भने। माहा२ ४मूतराना प्र० ५९ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयाग ऽऽहारपरिपाकाः मउगिपोसा 'शानिपोगा:-माशिम्पक्षिण पोसा अपानस्थान निम्पलेपतया येषाने तया, निपलेपणा, 'पिट उरोग्परि या ' पृतरोगररिगताः = पृष्ठ = पृष्ठ":, अनारे = एमोदरयोरन्दराले पार्धारित्यर्थः उरू = जो च, इत्येते परिणताः = गुटढा येपा ते तथा 'पउमुप्पलसरिगगरसायमुरगिरयणा । पोत्पलगनगन्याससुरमि बदना:-त्र - पायमलम् उत्पन - नीलाम व तनपटगो गन्यो यस्य म तथाभतो यः पास तेन सुरभिमुगन्धयुक्त गुग्य येपा ते नया 'अणु लोभवाउपेगा । जानुलोगायुगा' - अनुरशरीरोगमायुगान्तः 'मादाय निद्धकेसा'मादात स्निग्धकेगाः जाता रान्तियुक्ता निधा-चिकणाः केश: रोमाणि येपा ते तया, 'विगगरियउण्णयान्धी पहिरोनतकुक्षया ग्रहिको शरीरानुरूपी उन्ननौ-पुष्टी शोहरदेगी येपा ते त्या शरीरानुरू पपुष्टोदरा: 'अमयरसफलाहारी ' अमृतरसफाहारिण' , अमृगवल्यरस होता है। (साणिपोसा) पक्षी की तरह इनका अपानस्थान मल के उपलेप से रहित होता है। (पितरोम्परिणया) इनके पृष्ठ ओर उदर के अतराल-पाश्वभाग एव जधागे सुदृढ़ होती है, (पम्मुप्पलसरिसर्ग धसाससुरभिरगा) पार्ण कमल, उत्पल-नील कमल, इनके जस गंधवाला इनका यास रोता है। उस श्वास से सुगध युक्त इनका मुख रोता है। (अणुरोभचाउवेगा) इनकी शारीरिक वायु का बैग इनके अनुरुल ही रहता है-प्रतिकूल नहीं। (अवदायनिद्धकोसा) इनके केश-रोम अधदात कान्तियुक्त एर चिकने होते है (चिहियउपणयकुच्छी ) इनके पेट के दोनों आजु चानु के भाग शरीर के अनुरूप ही पुष्ट रहते हैं। (अमयरसफलाहारी ) ये अमृत के जैसे रसमाहार वा निषि डाय छ । सउणिपोसा" पक्षानी मतभना सुन्तला भगथी १२.या विनानो होय छ “पितरोग्परिणयो" भनी पीउ भने ઉદરની અંદર તથા પાસેને ભાગ અને જ ઘાઓ મજબૂત હોય છે “જs म्भुप्पलसरिस गधसास सुरमिवयणा" ५५-उभा, मने पल-last sધવાળે તેમને શ્વાસ ષોય છે તે શ્વામથી તેમનું મુખ સુગધયુક્ત થાય છે छ "अणुलोमवाउवेगा" भनी शरना पायुन। तभने मनु० २९ छ-प्रति हेता नथी “ अवदायनिद्धकोसा" तभना शम महात-न्ति युत सने मुलायम होय छ “निगाहियउण्णय कुच्छी" तमना चटनी मा भानुन मन ला शरी२ने मनु३५ ०१ पुष्ट २२ "अमयरसफलाहारी" Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- सुर्शिनी टीका म० ४ सू० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् युक्तानि यानि फलानि तेपामाहारिणः, 'तिगउय समुन्छिया' त्रि गव्यूत समुच्छ्रिता:-त्रि गन्यूतिपरिमाणोन्नतशरीराः, तिपलिओवमहिइया' त्रिपल्योपम स्थितिकाः त्रिपल्योपमसलस्थितिमन्तः ' तिनि य पलि भोरमाइ परमाउ पालइत्ता' त्रीणि च पल्योपमानि परमायपि परमायुष्यकाल पालयित्वा-उपभुज्य 'ते दि' तेऽपि-उत्तरकुरुदेवकुरुनिमामिनो युगलिका मनुष्या अपि, ' कामाण अवितित्ता' कामानामपितृमाः - अवितृप्तकामभोगा एव, 'उवणमति मरणधम्म' मरणधर्ममुपनमन्ति-इति पूर्ववत् ।। मृ० ११ ॥ ___ साम्प्रतं तेपा स्त्री पियेप्याह-'पमया पि' इत्यादि मूलम्प मयाविय तेसि हुति सोम्मा सुजायसव्वगसुदरीओ पहाणमहिलागुणेहि जुत्ता अइकंत-विसप्पमाण मउयसुकुमाल- कुम्मसठिय सिलिट्ठचलणा उज्जुमउयपीवर सुसहतगुलीओ अब्भुण्णाय । रइयतलिण-तंवसुइ-निद्धनखा रोमरहियवसाठिय-अजहण्ण-पसत्थलक्खण-अकोप्प वाले फलों का आहार करते है। (तिगाउयसमुच्छिया ) तीन कोशका इनका शरीर होता है। (तिपलिओवमाइ परमाउ पालहत्ता) तीन पल्य की इनकी उत्कृष्ट आयु होती है । इस प्रकार की स्थिति से युक्त यने हुए ये उत्तरकुरु और देवकुरु के निवासी मनुष्य भी तीन पल्य की उत्कृष्ट अपनी आयु का भोग करके भी (कामाण अवितत्ता) कामसुखो में अतृप्त यने रहते है । अर्थात्-तीन पल्य कालतक कामसुखों को भोगते रहते है फिर भी इनकी काममुखों को भोगने की लालसा शात नहीं हो पाती हैं । अन्त में ( ते वि) वे भी काम से अतृप्त ही मरण धर्मको प्राप्त करते है । सू०११॥ तेसा ममता २सवाणा मानो माहार ४२ छ “तिगाउयसमुच्छिया" त्रय आपनु तमनु शरी२ डाय छे "तिपलि ओरमाइ परमाउ पालइत्ता" પલ્યનું તેમનું ઉત્કૃષ્ટ આયુષ્ય હોય છેઆ પ્રકારની સ્થિતિ વાળા તે ઉત્તર કુરુ અને દેવકુરુ નિવાસી લોડે પણ ત્રણ પત્યનું પોતાનું આયુષ્ય ભોગવવા छत पy " कामाणा अवितत्ता" म माया मतृप्त २९ सेट ત્રણ પત્ય કાળ સુધી કામ ભેગો ભગવ્યા છતા પણ ડામભેગો ભોગવવાની तेभनी ससा त थ शती नथी छेक्टे “ ते वि" तेसो पY जमिनो ગોથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે. સૂ-૧૧ છે Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशव्यापरण ऽऽहारपरिपाराः 'सउगिपोसा' मानिपोगा:-गरिए पक्षिण 7 पास:अपानम्यान निस्पलेपतया येषा ते नया, निरूपपगायाः, 'पिट्ट तरोपरि पाया । पृष्ठान्तरोकारिणताः = पृष्ठ = प्रष्टरेशा, जन्तरे - टोटरयोरन्तराले पार्धारित्यर्थः उरू = जो च, इत्येते परिणताः = मुन्ना येषां ते तथा 'पउमुप्प ठमरिमगधमायमुरभिरयणा । पोप लगशगत वाससुरमि वदना:-तत्र - पा = उगलम् उत्प - नीलाम न तत्सदृशो गन्तो यस्य स तथाभूतो यः पास तेन सुरमिगन्धयुक्त पदनप येपा ते तथा 'अणु लोभमाउवेगा । अनुलोगायुगा' = अनुकलारीरोङ्गमायुगान्तः 'आदाय निद्धकेसा' आदातस्निग्यकेगा - अपदाता रान्तियुक्ता नियाचिकणाः केशा रोमाणि येपा ते तया, 'गिहियउण्णयान्छी' ग्रहियोनतकुक्षया चैग्रहिको-गरीरानुरूपी उन्ननो-पुष्टी कुक्षी-उदरदेशा येपा ते त्या शरीरानुरू पपुष्टोदराः 'अमयरसफलाहारी ' अमृतस्मफलाहारिणः - अमृततुल्यरस होता है । (सउणिपोसा) पक्षी की तरह इनका अपानस्थान मल के उपलेप से रहित होता है। (पितृतरोगपरिणया) इनके पृछ और उदर के अतराल-पाश्वभाग एव जया सुदृढ़ होती है, (पउन्मुप्पलसरिसर्ग धसाससुरभि गा) पार्म-कमल, उत्पल-नील कमल, इनके जैसे गधवाला इनका श्वास होता है । उस श्वास से सुगध युक्त इनका मुख रोता है। (अणुलोभवाउवेगा) इनकी शारीरिक वायु का वेग इनके अनुकूल ही रहता है-प्रतिकुल नहीं। (अवदायनिद्धकोसा) इनके केश-रोम अचदात कान्तियुक्त एव चिकने होते हैं (चिग्गरियउपणयकुच्छी ) इनके पेट के दोनो आजु बाजु के भाग शरीर के अनुरूप ही पुष्ट रहते है । ( अमयरसफलाहारी ) ये अमृत के जैसे रसमाला व निहाप डोय छ " सउणिपोसा" पक्षीनीभ तमना -तला भगयी १२य विनानी होय छे “ पितरोरुपरिणयो" भनी पीठ मने SERनी २२ तथा पासेना मा भने धान्य भराभूत डोय छे “पउ म्मुप्पळसरिस गधसास सुरभिवयणा" ५-भा, गने sha-last ગધવાળે તેમને શ્વાસ હોય છે. તે શ્વાસથી તેમનું મુખ સુગ ધયુક્ત થાય છે अणलोमवाउवेगा" तमना शरीर वायुना ॥ तमन मनु: २७ छ-प्रति रडतो नथी “ अबदायनिद्धकोसा" तभना शम अपहात-न्ति सात मन भुलायम डीय छ “ विगहियउण्णय कुन्छी " मना पेटनी मा भानुना मन मा शरीरने अनु३५ । पुष्ट २७ “अमयरसफलाहारी" Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६७ सुदर्शिनी टीका १० ४ ० ११ युगलिकस्वरूपनिरूपणम् युक्तानि यानि फलानि तेपामाहारिणः, 'तिगउय समुन्छिया' त्रि गन्यूत समुच्छ्रिता:-नि गव्यतिपरिमाणोनतशरीराः, तिपलिभोवमट्टिइया' निपल्योपम स्थितिका विपल्योपमालस्थितिमन्तः ‘तिनि य पलि ओषमाइ परमाउ पालइत्ता' त्रीणि च पल्योपमानि परमायूपि परमायुप्यकाल पालयित्वा-उपभुज्य 'ते वि' तेऽपि-उत्तरकुरुदेवकुरुनिवामिनो युगलिका मनुप्या अपि, 'कामाण अवितित्ता' कामानामनिवृताः - अपितृप्तकाममोगा एव, 'उवणमति मरणधम्म' मरणधर्ममुपनमन्ति-इति पूर्ववत् ॥ मृ० ११ ॥ साम्प्रत तेपा स्त्री विपयेप्याह-'पमया पि' इत्यादिमूलम्-मयाविय तेसि हुति सोम्मा सुजायसव्वगसुदरीओ पहाणमहिलागुणेहि जुत्ता अडकंत-विसप्पमाण मउयसुकुमाल- कुम्मसठिय-सिलिट्ठचलणा उज्जुमउयपीवर सुसहतगुलीओ अभुण्णाय । रइयतलिण-तंवसुइ-निद्धनखा रोमरहियवसाठिय-अजहण-पसत्थलक्खण-अकोप्प वाले फलों का आहार करते है। (तिगाउयसमुच्छिया) तीन कोशका इनका शरीर होता है। (तिपलिओचमाइ परमाउ पालहत्ता) तीन पल्य की इनकी उत्कृष्ट आयु होती है । इस प्रकार की स्थिति से युक्त यने हुए ये उत्तरकुरु और देवकुरु के निवासी मनुष्य भी तीन पल्य की उत्कृष्ट अपनी आयु का भोग करके भी (कामाण अवितत्ता) कामसुखो में अतृप्त यने रहते है । अर्थात्-तीन पल्य कालतफ कामसुखों को भोगते रहते है फिर भी इनकी काममुखों को भोगने की लालसा शात नहीं हो पाती है । अन्त में ( ते वि) वे भी काम से अतृप्त ही मरण धर्मको प्राप्त करते है ।। सू०११॥ तेसा अमृत ॥ २ जाना माडा२ ४२ छ “तिगाउयसमुच्छिया " त्रय सावतु तेभनु गरी२ उय छ “तिपलि ओउमाइ परमाउ पालइत्ता" ay પલ્યનુ તેમનુ ઉદધૃષ્ટ આયુષ્ય હોય છે આ પ્રકારની સ્થિતિ વાળા તે ઉત્તર કુરુ અને દેવકુરુ નિવાસી લે પણ ત્રણ પત્યનુ પિતાનું આયુષ્ય ભોગવવા छता पा " कामाणा अवितत्ता" म सोगाथा मतृप्त हे अटले ત્રણ પત્ય કાળ સુધી કામ ભોગો ભેગવ્યા છતા પણ ટામભોગે ભેગવવાની तेमनी दस सात 25 ती नथी पट “ ते वि" तेथे। ५ भलीગેથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે | સૂ-૧૧ Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vso मनोशाः तलिना : = मतला. तामा तामपर्णाः शुचय =स्वच्छाः स्निग्धाः = चिकणा' नखा यासा तास्तथा । ' रोमर हियरमटियभजण पत्थरपण कोपजप यला ' रोमरहितत्तसम्थितभजघन्यमनन्त क्षणाको प्यजङ्घा युगलाः = रोमर रहितं = निर्लोक छतसस्थित = अन्य उत्तम मानलक्षणमीमा ग्यचिद्दयुक्तम्, अकोप्य= समय न जङ्घायुगल यास तास्तथा, 'सुणिम्मियसुणिगूढजाणुमगल पसत्ययुद्धमधी' सुनिर्मितगुनिगूढ जानुमा मलपचस्तर द्धसन्धयः = तत्र सुनिर्मिती=प्रोमनसम्यान विशिष्टी सुनिगृदी = दुर्लक्ष्य जानुनो जानुद्वयस्य मम= पुष्टी प्रशस्ती =न्दराकारी = सन्नी = सन्धान स्थाने यासा तास्तथा 'कपली - खभार्डरंग- सठिय-निषण- मुकुमाल-मउय कोमल अविरल - समसठियापीवर निरतरोरू' कदलीस्तम्भातिरेक्स स्थित निर्वणसुकुमार मृदुकको मलाऽनिरलसमसहित तपी पर निरन्तरोराः तत्र कवली स्वम्माद तिरेकेण = अतिशयेन शोभनाऽऽरोहा रोहमुपेशल कोमलला दिगुणप्रकर्षरूपेण सस्थिती - सुन्दरसस्थानत्रन्तौ निर्मणो = निरुपहतौ सुकुमारमृदुन कोमलौ - अयन्त मनोज्ञ, तलिन - पतले, ताम्र- लाल, शुचि-स्वच्छ एवं स्निग्ध-चिकने होते हैं । ( रोमरविहसठिय-अजष्णपमत्थलक्सण- अकोप्पजघजुयला) इनका जधा युगल रोगरहित, वर्तुलाकार वाला अजवन्य-उत्तम सौभाग्यचिह्नों से युक्त एच अकोप्पसर्वप्रिय होता है (सुणिम्मियसु णिगूढजाणु मसलपसत्थसुद्वसधी ) इनकी दोनों जानु की सधियां शोभन सस्थान विशिष्ट, तथा सुनिगूढ़ होती है । पुष्ट और मुदाकार से युक्त होती है। मजबूत होती है । ( कयलीग्वभाइरेग सठिय निव्वण सुकुमाल मउय कोमल अविरल समसस्विट्टपीवरनिरतरोरु) इनकी दोनों जानु का उपरितन भाग कदली के स्तम से भी अधिक सुन्दर सस्थानवाला होता है । निर्माण-घाय आदि की निशानी से विहीन "" સુવાળા હોય છે रोमरद्दियव सठिय-अजण-पसत्य-लक्सण- अकोप्प - जघ जुयला " तेभनी भन्ने धामी रोम रहित, गोणार, अजघन्य-उत्तम, सौभाग्य यिह्नोथी युक्त मने अकोप्प सर्वप्रिय होय छे, " सुणिम्मिय- सुनिगूढ जाणुमसल सत्थ सुबद्धसघी " तेभनी जन्ने धायना साधना लाग सुडोण, વ્યવસ્થિત તથા સુનિગૂઢ હાય છે તે જ ઘાએ પુષ્ટ અને સુદર આકારની होय छेभने मन्जूत होय छे " कयली सभाइ रेगसठिय- निव्वण-सुकुमालम - कोमल - अविरल - समसहियवपीवर निर तरोरु" तेभनी जन्ने ४ घायोनी ઉપરના ભાગ કદલીના સ્તંભથી પણ વધારે સુંદર આકારના હાય છે, “નિર્મળ” घाव माहिनी निशानी विनाना हाय छे, अत्यंत अमण होय छे, अविलर Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ0 ४ सू० ४ १५ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ___४७१ कौमला अविरलो-परस्परमिलितो समसहितौ उचितप्रमाणयुक्तो वृत्तौ चर्तुली पीव रौ-पीनी निरन्तरा परस्परसम्बद्धौ अरू जानूपरितनभागौ यासा तास्तथा 'अट्ठावनी:-पष्ट-सठियपसत्य निधिण्णपिटुलसोणी' अष्टापदपीचिपृष्ठ सस्थितमगस्तविस्तीर्णपृथुलोण्यः अप्टापदस्य-गृतविशेपस्य पीचय इन वीचया तर झाकृतिरेग्या तयुक्त यत् पट्ट-फलकः, तहत् सस्थिता= तत्सस्थानयुक्ता तदाकतिका प्रशम्ता पिम्तीर्णा पृथुला विशाला श्रोणिः कटिभागा यासा तास्तथा 'वयणायामप्पमाणदुगुणियविसालमसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ' वदनायामममाणाद्विगुणितविगालमामलसुनद्वजघनवरसारिण्यः = वदनस्य = मुखस्य यः आयामः विस्तारम्तम्य यत् प्रमाण तस्माद्विगुणित चतुर्नि गत्यङ्गुलमित्यर्थः, विशाल तथा मामल-पुष्ट सुपर-शैथिल्पार्जित जयन्नवर वरजघन-कटयाः पुरीभाग धारयति यास्तास्तथा ' बजरिराडयपसत्यलन्छणनिरोदरीओ' बन्न होता है । अत्यन कोमल होता है । अविरल-परस्पर मिला हुआ होता है । समसहित-उचितप्रमाण से युक्त होता है । वृत-वर्तुल-गोल होता है। पीचर-पीन-पुष्ट होता है । निरन्तर परस्पर सराद्ध होता है। (अट्ठावयवीदपट्टसठियपसत्यवित्यिण्णपिलसोणी) इनका कटिभाग गृतविशेप की वीचियों के समान तरजाकृति रेखाओं से युक्त फलक के जैसे आकार वाला होता है, प्रशस्त रोता है, विस्तीर्ण होता है नथा पृथुल विशाल होता है। (वयणायामप्पमाणदुगुणियविमालमसलसुबछ जहणवरधारिणीओ) इनकी कटिका पुरोभाग-जघन प्रदेश-मुख के विस्तार के प्रमाण ले विगुणित होता है-अर्थात्-चौयीस अगुलका होता है, विशाठ-पृथुल, एच मांसल-पुष्ट होता है। सुबद्ध-शैथिल्य विहीन- होता है । ( वज्जविराइयपसत्यलच्छणनिरोदरिओ) इनका ५२२५२ लेयेस डाय छ, समसहित-योज्य प्रभाशुपाणी-प्रभासरन डाय छ, ७ डाय छ, पीवर-पुष्ट खाय छ, म निरन्त२-५२०५२ सपा साय छ "अट्ठावयवीइप-सठिय-पसाथ-वित्थिण्ण-पिहुलसोणी" तमन। ५टा gd વિશેષની વિચિના સમાન તર ગાગૃતિ રેખાઓથી યુક્ત ફલકના જેવા આકા२पानी डाय , रात य छ, विस्तीर्ण डाय छे तथा पृथुल-वि डाय छ “वयणायामप्पमाणदुगुणिय विसालमसलसुबद्धजहणवरधारिणीओ" તેમની કેટિને આગળનો ભાગ જઘન પ્રદેશમુખના વિસ્તાર કરતા બે ગણું માપ હોય છે, એટલે કે ચાવી આગળનો હોય છે, વિશાળ અને भासद पुष्ट छाय छे, सुपर थिय विहीन डाय छ, “ वज्जपिराइय पसायरणनिरोदरीयो" तेमना ! सास रवा सु४२, मेटले हैं Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० | এখানে मनोशाः तलिना=गतलातामा तागः शुनयापनकाग्निग्या विषयाः नखा यासा ताम्तथा। 'रोगरहियटमटियममाणपगत्यरायणप्रकोपमजु यला ' रोमरहिततसम्यितमनन्यमनस्तलक्षणाऽयोप्यमहायुगलाः = रोमर रदित-निर्लोमक तसस्थित कारम् अजयन्यम्-उत्तम मानलक्षण-मामा ग्यविदयुक्तम् , ओप्यसमिय न जलायुगल यारा ताम्तया, 'मुणिम्मियमुणिग्हमाणुममतपसत्यमुपद्धसधी । सुनिमितरनिगृहनानुमासलपमस्तमुन सन्धयः-तत्र सुनिर्मिती-गोमनसम्यानीिशिष्टीमुनिगृहौ- दुलेगौ जानुनो:जानुद्वयस्य मांसली-पुष्टी प्रशस्ती-शुन्दराकारी सुगौ-मुटो सन्धी-सन्धान स्थाने यासा तास्तथा 'कपली-खभाइरेग-सठिय-निम्षण-प्रकृमाल-मउय कोमल अविरल -समसहियाटपीपरनिरतरोरू' पदलीम्तम्मातिरेक्सस्थितनिणसुकुमार मृदुककोमलाऽपिरलसमसहितत्तपीपरनिरन्तरोरयः = नर कटली म्त माद तिरेकेण = अतिशयेन गोमनाऽऽरोहारोहमुपेगलसुमोमलत्वादिगुणप्रकपरूपण सस्थितो-मुन्दरसस्थानवन्तो निर्नगी = निरुपद्दती गुफुमारमृदुस्कोमलो-अत्यन्त मनोज्ञ, तलिन-पतले, ताम्र-लाल, शुचि-सन्त व स्निग्ध-चिकने होते हैं। (रोमरहिवसठिय-अजहण्णपसत्यलक्षण-अकोप्पनघजुयला) इनका जघा युगल रोगरहित, वर्तुलाफार वाला अजवन्य-उत्तम साभाग्यचिह्नों से युक्त एव अकोपसर्वप्रिय होता है (सुणिम्मियत णिगूढजाणु मसलपसत्यमुपद्धसंधी ) इनकी दोनों जानु की संधिया शोभन सस्थान विशिष्ट, तथा मुनिग्रह होती है । पुष्ट और सुदराकार से युक्त होती है । मजबूत होती हैं । (कयलीसभाइरेगसठियनिव्वण सुकुमाल भउय कोमल अविरल समसरियचट्टपीवरनिरतरोरु) इनकी दोनों जानु का उपरितन भाग कदली के स्तभ से भी अधिक सुन्दर सस्थानवाला होता है। निव्रण-घाव आदि की निशानी से विहीन सवा डाय छ “रोमरहियवद्रसठिय-अजहण्ण-पसत्थ-लक्षण-अकोप्प-जा जुयला" भनी भन्ने ४ धामी रोभ २डित, गाणार, अजघन्य-SH सोलाग्य थिोथी युवत मने अकोप्प सब प्रिय हाय छ, "सुणिम्मिय-सुणिगढ़ जाणमसलपसत्थ सुबद्धसधी " भनी सन्न घामाना साधाना मासु વ્યવસ્થિત તથા સુનિગૂઢ હોય છે તે જ ઘાઓ પુષ્ટ અને સુંદર આકાર हाय छेसने भाभूत हाय छे "कयली समाइ रेगसठिय-निव्वण-सुकुमालम उय-कोमल-अविरल-समसहियवद्दपीवरनिर तरोरु तेभनी भन्न ४ घामाना परन सा सीन स्तमथा पशु वधार स२ मारना डायछ, "नित्रण धाव माहिनी निशानी विनानी डाय छ, मत्यत आभा डाय छ, बिल Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०४ सू० १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४७३ अकोसायतपउमगभीरनिगडनाभीओ' गहावर्तगटक्षिणावर्ततरङ्गभङ्गुर - रवि - करणतरुणगोपितविकोशायमानपन गम्भीरनिकटनामिकाः, तत्र गङ्गावर्तकः भागानधानलभ्रमः, स च दक्षिणावर्त तरगमगुर - तरङ्गैः भड्गुरः चक्रश्च, तद्वत् , तया रविकिरणः-मुर्यकिरणे पोधित विलासित-विशसानस्थामाप्नुवदित्यर्थः, अतएर रिकोभायमान मुकुगमस्या विमुञ्चत् यत् पद्म तहद् गम्भीरा पिपटा-सुका च नाभिर्यासा तालया। 'अणुभडपसत्यसुजायपीणकुच्छी' अनुइटपासप्तु नातपीनकुश्या अनुट उद्भटरहिती समो, प्रशस्ता सुजातो सुसस्थितो पीनी सुपुष्टा कुक्षी-उदरोभयभागौ यासा तास्तथा 'सनयपासा' सनतपार्वा = पुष्टत्वादयोनमत्पाभागाः, ' सगयपासा ' सातपार्था:-सुमिलिपार्वभागा., अभएर 'मुदरपासा' सुन्दरपार्थाः = मनोहरपार्श्वभागाः, 'सुनायपासा सुजातपायान्मुसस्थितपार्वा, 'मियमाइयपीणरइयपासा' मितकिरण तरु गोहिय अकोलायतपउमगंभीरविगटनाभीओ)इनकी नाभि तरगी से एक ने हए ऐसे दक्षिणावर्तवाले गगानदी के जलभ्रमभँवर के समान होती है। तथा सूर्य की किरणों के सपर्क से अपनी मुकुलित अवम्या का परित्याग कर पिकनित अवस्था को प्राप्त हुए पन के समान गभीर होती है और विकट बडी सुन्दर होती है। (अणुभउपसत्यसुजायपीणकुच्छी ) इनके उदर के दोनों पार्श्वभाग अनुद्भटअनुल्वण-घराघर-एक से होते हैं। प्रशम्त-सुहावने होते हैं। सुजातअच्छे सम्थानवाले होते हैं। पीन-पुष्ट होते है । (सनयपासा) तथा पुष्ट होने के कारण इनके दोनों तरफ से वे पार्श्वभाग नीचे की ओर झुके हुए रहते है । (सगपासा ) वे दोनों उनके पार्श्वभाग परस्पर में सगत-मिले रहते है। अतएव बे ( सुदरपामा) नडे सुन्दर होते हैं। तथा ( सुजायपासा ) अच्छे संस्थान से युक्त कहे जाते हैं। (मियमा भीरनिगडनाभीओ" भनी नालि त गाथी 4 पनेस क्षिपित वाणा ગગા નદીના જલભ્રમ-વમળ જેવી હોય છે, અને સૂર્યના કિરવાસ પર્કથી પિતાની બીડાયેલી અવસ્થા છેડીને વિકસિત થયેલા કમળના જેવી ગભીર भने विकटा सत्यत सुध डाय "अणुभडप सत्यसुजाचपाणकुच्छी" તેમના ઉદરની બાજુના બને ભાગો (કુલીઓ) એક સરખા હોય છે, प्रसन्त, पुष्ट भने भुण हाय छे “सनयपासा' ते भन्ने सुक्षी पुष्ट डावाने नीयनी जसा २९ छ ' स गयपासा ' भनी ते भन्ने सीमा ५२२५२मा गत- भणेसी डोय छे, तेथी ते "सुदरपासा" धणी सु१२ जाय तथा "सुजायपासा" सुघटित डाय छे "मियमाइयपीण1.० ६० Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभयारणस विराजितप्रशस्तलक्षण निरोदयः अनपद निरानितं = मध्यमतल प्रगतलक्षणे शुभलक्षणविशिष्टम् अति प्रतल यानिर्गतमिगोदर यामा तास्तथा गोदर्य इत्ययः तिलिलियतणुनमियममियाओ' पिलिलिगतनुनमितमध्यिकाः = त्रिय लिभीः उदरस्थरेग्वानयरूपामिः परित१% रनयुत्तर तनुनमित४: 3 मिचिदानता ४, मध्य = मायभागाकटिनदेगो यामा ताम्तया 'उन्जुयमम सहिय जन्चतणुकमिणनिद्रादेजलडमकुमालमउगमुनिमारोमगईओ' तत्र 'उज्जुय' मजुफानि 'सपहिय' समानि-तुल्यानि सहितानि = पनानि 'जच्च' जात्यानि-स्थामानिमानि 'तणु' तननिम्माणि 'कसिण' कृष्णानि 'निद्ध 'स्निग्धानि-अस्क्षाणि 'आटेज ' आदेयानि लाग्नीयानि 'लडा' इति सुन्दाराणि 'मुकुमाठमउप' समारमृदुकानि अत्यन्त कोमलानि 'मुदि भत्त' सुविभक्तानि यथास्थानशोभितानि च यानि रोमाणि तेपा राजयः = पतयो यासा तासाया ' गगावत्तगदाहिणापत्ततरगभगुरपिकिरणतरुगबोहित उदरभाग वज़ के जैमा सुन्दर, अर्थात-मय में पतला होता है । शुभ लक्षणों से विशिष्ट रोना है। तथा अतिपतला कृश-होने के कारण अनुदर-निर्गत उदर जैसा होता है --- अर्थात् ये कृशोदरी होती हैं । ( तिवलिवलियतणुनमियमज्झियाओ ) इन का मध्यभाग उदरप्रदेश विवलियों से पलित-युक्त होता है। और तनुनमित - कुछ झुका हआ सा रहता है। (उज्जुयसममहिय जच्चतणु कसिपनिद्धआदेजलहसुकुमालमउयमुविमत्तरोमराईओ ) इन की रोमराजि गजु-सरल, सम एकसी सहित घनीभूत, जात्य स्वाभाविक तनु-पतली, कृष्ण-काली, निद्ध-स्निग्ध, चिकनी-स्क्षतारहित, आदेयलाधनीय, लडर-सुन्दर सुकुमारमृदुक-अत्यत कोमल तथा सुविभक्त यथास्थान शोभित होती है। (गंगावत्तग-दाहिणावत्त-तरग-भार-रवि મધ્યમા પાતળા હોય છે અને શુભ લક્ષણવાળ હોય છે, તથા અતિશય પાતળા હોવાથી અનુદર--પેટ જ ન હોય તેવો હોય છે એટલે કે તે સ્ત્રીઓ शरी साय छे “तिलिपलियतणुनमियमज्ज्ञियाओ" भने। मध्यमा २ प्रदेश विलियो पाणे हाय छ, भने सडक जुस २९ छ " उज्जुय समसहिय-जच्च-तणु-कसिण निद्ध-आदेज्ज-लडह-सुकुमाल-म-सुविभत्तरोमराओ" भनी शेभशनि -सस, सभ- समी, सहित-धनीभूत, जात्य-स्वालावि, तनु-पाdil, stml, सुपाणी, आदेय-माशुपा याश्य, लडह सुह२ सुमार, मृदुक-मति भण तथा सुविक्षत-यथास्थान मित डाय छ, ("गगावत्तगदाहिणावत्त तगमगुरकर Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका ल०४ मू० १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४७३ 6 3 f अफोसायत पउमगमीरनिगडनाभी भी ' तापस्य विणावर्ततरजभर - रवि - करणवरुगनोपिवनिशानमाननगरस्टिनासिकाः तत्र गद्गावर्त्तकः गद्गानयानलभ्रमः, स च दक्षिणावर्त्त, तरहमपुर - तद्वैः भङ्गुरः वक्रथ, तद्वत्, तथा रविकिरणैः=ति विगमितः निरासावस्था माप्नुवदिसामानाविमुञ्चत् यत् पद्म तद्वद् गम्भीरा पाच नामसा तास्तथा । 'अणुमडपमत्थसुजायपीणकुच्छी ' अनुनापीनकुक्ष्य = ननुद्भट = उदरहितौ समौ मशस्तो सुजातौ सुसस्थिता पीनी सुपुष्टा उनी रोमभाग यासा तारत ग सनयपासा सनतपा:= पुत्वादनमत्पार्श्वभागा', 'सगयपासा ' सङ्गतपार्श्वा:- सुमि लिपाभागाः, आएर गुदरखामा सुन्दरपार्था = मनोहरपार्श्वभागाः, ' "सुनायपाता जातपाश्चः सस्तिपात्र, 'मियमायवीणरयपासा' मितकिरण तरुगनोरिन अकोलायत पत्र मर्ग भीरविगडनाभीओ) इनकी नाभि तरंगो सेवक ने ऐसे दक्षिणावर्तवाले गंगानदी के जल भ्रम - मँयर के समान होती है। तथा सूर्य की किरणों के संपर्क से अपनी मुकुलित अवस्था का परित्याग कर विकसित अवस्था को प्राप्त हुए पद्म के समान गभीर होती है और free बड़ी सुन्दर होती है । (अणुहडपसर सुजाग्रपणकुच्छी) उनके उदर के दोनों पार्श्वभाग अनुद्भटअनुल्वण-बराबर - एक से होते हैं । प्रशस्त - सुहावने होते हैं। सुजातअच्छे सम्थानवाले होते हैं । पीन-पुष्ट होते है । ( सनयपासा) तथा पुष्ट होने के कारण उनके दोनो तरफ के वे पार्श्वभाग नीचे की ओर लुके हुए रहते है । (सगयपासा) वे दोनो उनके पार्श्वभाग परस्पर में सगत-मिले रहते हैं। अतएव वे (सुदरपासा) नडे सुन्दर होते हैं । तथा ( सुजायपासा) अच्छे सस्थान से युक्त कहे जाते हैं। (मियमा भीरनिगडनाभीओ " तेभनी नालि त गोधी प અનેલ દક્ષિણાવર્ત વાળા ગંગા નદીના જલભ્રમ-વમળ જેવી હોય છે, અને સૂર્યના કિરણોનાસ પથી પેાતાની ખીડાયેલી અવસ્થા ઈંડીને વિકમિત થયેલા કમળના જેવી ગભીર भने निकट अत्यंत સુદર હાય છે अणुभव सत्यसुजायपाणकुच्छी "> ભાગે તેમના ઉની માજુના અને (કુલીએ ) એક સરખા હોય છે, પ્રાન્ત, પુષ્ટ અને સુડાળ હાય છે सनयपासा હાવાને કારણે નીચેની માત્રુ ઝુકેલા રહે છે બન્ને ફુલીએ પરસ્પરમા ભગત મળેલી હોય છે, ઘણી સુદર હોય છે તથા " सुजायपासा" ” તે અન્ને કુક્ષી પુષ્ટ स गयपासा ' तेभनी ते તેથી તે “ >> 'सुदरपासा " सुघटित होय छे “मियमाइयपीण + "L Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ resumeruसूत्रे " मानिक पीनरतिदपा:-मती-मात्र परिमाणसम्पन्ना पीनौ-गुपुष्टौ रतिदौ- रमणीयौ पार्श्वभागा यासा वास्तथा 'अरुयगनि म्मल सुजाग्रनिरुयगायी अकण्टुकानचर निर्मलसनातनिरुपहत गात्रयष्टयः तत्र जकरडका = पुष्टानुपपस्थितः तथा कनकरुचकनिर्मला = सुपर्ण समानकान्तिमतीसुजाता निरुपता = रोगरहिता चाट fii areaथा चणमप्यमाणसमसचुयजामेलग गानयष्टि र्यासां तास्तथा जमल जय पिओदराओ' काञ्चनमाण समसति चाऽऽमेलक यमलयुगल पर्तितपयोधराः काञ्चनमाणी = उनवत्येन वर्तुरसेन च सुवर्ण घटाकरौ समतुल्यौ सहितौ = अनिपतित्वेनाऽशिथिली टचूनामेलको मनोहकृष्णस्तनमुग्वशिखरे यमलो= सहोत्पन्न युगामीति पयोधरौ= स्वनौ यासा तास्तथा 'शुयगअणुपुराणुयगी पुट्टमसयिनामिय आदेइयपी र पासा ) इसीलिये उनके वे दोनों पार्श्वभाग मित-मान से युक्त, मात्रिक प्रमाणसपन्न, पीन-सुपुष्ट एव रति- रमणीय लगते हैं । (अकरडयकणगरुयगनिम्मल सुजाय निरुपायलट्ठी ) पुष्ट होने के कारण उनकी न तो पीठकी एडिया दिग्वती है और न दोनों पार्श्वभागों की। इनका शरीर सुवर्ण के समान कान्तिनाला एव रोगरहित होता है । (कचणकल सप्पमाण समसहितलडचूचुग आमलग जमलजुगलवट्टिय पोहराओ ) इनके दोनों स्तन उनत और गोल रोने के कारण सुपर्णनिर्मित घट के आकार जैसे होते है-कमती बढती नही । सहित अशि थिल होते है । नीचे की ओर झुके हुए नही रहते सामने उठे हुए रहते हैं । इनके दानों चूचुक मनोहर एव अत्यत काले मुसवाले होतें हैं । ये साथ २ उत्पन्न होते हे । गोल रहते हैं, ( भुयग अणुपुव्वतणुय - रइयपासा " ते अरखे तेभनी गन्ने उक्षी भितभात्रि सप्रमाणु, पीन-सुपुष्ट मने रतिद-रभाशीय लागे छे "अक डुयकणगरुयगनिम्मल सुजाय निरुन हयगायलट्ठी” તે પુષ્ટ હાવાને કારણે તેમની પીઠના હાડકા દેખાતા નથી અને છાતોના હાડકા પણ દેખાતા નથી, તેમના શરીર સુવણુની જેવી કાતિવાળા અને નીરોગી હાય છે कचण कलसप्पमाणसमसहितलट्ठचूचुयआमे लगजमलजुयल पट्टिय पयोहराओ' तेभना मन्ने स्तन गोण भने उन्नत होवाने राणे, सोनाना ઘડા જેવા લાગે છે, બન્ને સ્તન ખરાખર સરખા હોય છે-નાના મોટા હાતા नथी,, सहित-अशिथिल होय छे नचिनी मान्नु नभेसा रहेता नथी पशु ઉન્નત હાય છે તેમની અને ડીટીએ મનેહર અને અત્યત શ્યામ મુખવાળી હાય છે તે ખન્ને સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે અને ગેળાકારના દે છે *C " 2 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० ४ सू० १२ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४७ जलउडाहा' भुजगानुपतिनुक गोपुच्छवृत्तसमसहितनमितादेयल्डहाइवः : भुजङ्गमद् = सर्पपन् भानुपूर्पण तनुमा - क्रमशः कृशो तथा गोपुच्छवद् मृत्ती : चतुली समसहिता-समत्वयुक्ता मुगुठिना च नमिती=मुदीर्घलम्बमानी आदेयौ= लाघनीयौ 'राह' इति सुन्दरा पाहू-मुनी यासा तास्तथा 'तबनहा ' ताम्रनसाः-रक्तवर्णनखसम्पानाः 'मसलग्गहत्या' मासलाग्रहस्ता.-मासलौ-पुष्टी अग्रहस्ती-हस्ताग्रभागी ' पोचा' इति प्रमिद्धो यासा तास्तथा, तथा ' कोमल पीचरवरगुलीया' कोमल पोवरवराङ्गुलिकाः, तेऽपि मरणधर्ममुपनमन्तीतिवक्ष्यमाणेन सम्बन्धः ।। सु-१२॥ पुनस्ताः कीदृश्यः ? इत्याह-'निद्धपाणि लेहा' इत्यादि मूलम्-निद्धपाणिलेहा मसि-सूरसखचकवर सोत्थिय विभत्त - मुरइय-पाणिलेहा पीणुण्णय करखवस्थिप्पएस गोपुच्छ्वसमसरियनामिय आदेज्जलउटवाहा ) इनकी दोनो भुजाएँ सर्प की तर क्रमशः कृशहुई होती है। तथा गाय की पूछ की तरह वर्तुल होती है । सम-एफसी तथा सहित-सगठित होती है । नमितघुटनों तक लगी रहती है। आदेय-देखने मे प्रशसनीय एव यही सुहावनी लगती हैं। (तपनहा ) इनकी अगुलियों के नख लाल वर्ण वाले होते हैं। तया (मसलग्गास्था ) इनका पाँचा मासल-पुष्ट होता है। तथा ( कोमलपीवरवरगुलीया) इनकी हाथों की अगुलिया कोमल पीवर-पुप्ट एच वर-उत्तम होती है। ऐसी ये स्त्रिया भी कामभोग से अतृप्त री मरणधर्म को प्राप्त करती हैं । ऐसा सवध आगे के वाक्य से जोड लेना चाहिये । स०१२ ॥ " भुयग-अणुपुव्य-तलुय गोपुच्छवट्ट-समसहिय-नामिय-आदेज्जल-उडवाहा " તેમની બને ભુજાઓ સર્ષની જેમ ક્રમશ કૃશ થતી જાય છે, તે ભુજાઓ गायनी छ वी वर्तु सभ-मेड स२जी, तथा सहित-सुगठित, घुटणा सुधी सामी, भने माय-प्रशन्त, अने शमिती दाणे " तपनहा" भनी माजीयाना न सास २ जना डाय छ, तथा “मसलगाहत्या" तमना पाया भामस-पुष्ट डाय छ, तथा " कोमल्पीचरवरगुलिया" तेमना डायनी આગળિયે પીવર-પુષ્ય અને ઉત્તમ હોય છે એવી તે યુગલિક સ્ત્રીઓ પણ કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ મૃત્યુ પામે છે એ સ બ ધ આગળના વાડો साथे सभा सेवा ॥ सू० १२ ॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ perinte " 1 " मानिक पीनरतिदपार्थाः - मिती - मानोपतो मानिकी परिमाणसम्पन्ना पीनौ =ग्रुपुष्टौ रतिदौ - रमणीयौ पार्श्वभाग यासां वास्तथा 'भारव्यकणगरुयगनि म्मल सुजायनिरुपयगायत्री ' अरण्डकाचक निर्मलसुजात निरुपहत गात्रयष्टयः तत्र अकरका = पुष्टत्वादनुपस्पष्टष्ठपास्थिका तथा कनकरुचकनिर्मला = सुपर्ण समानकान्तिमतीसुजाता निरुपहता = रोगरहिता च गानयष्टि र्यासा तास्तथा ' कचणकश्यप्यमाणसम्मति आमेलग जमल जुयल पिओडराओ ' काञ्चनकरणममाणतमसाऽऽमेलक यमलयुगल नर्तितपयोधराः =ता काञ्चनकलगममा गो= उतिसेन वर्तुलेन च सुपर्ण घटाकरौ समतुल्या सहितौ=अनिपतितत्वेनाऽशिथिला टचचका मेलको मनोहरकृष्णस्तनमुग्वशिखरे यम = सहोत्पनी युग-युग्मौ पतितौ= पयोधरी = स्वनौ यासा तास्तथा भुयगअणु पुराणुयगो पुट्ट समसयिनामय आदेइयपी रयपासा) इसीलिये उनके वे दोनों पार्श्वभाग मित-मान से युक्त, मात्रिक प्रमाणसपन्न, पीन-सुपुष्ट एवं रतिद- रमणीय लगते हैं। (अकरड्डयकणगरुयगनिम्मल सुजायनिरुह्य गायलट्ठी ) पुष्ट होने के कारण उनकी न तो पीठकी हडिया दिग्वती है और न दोनों पार्श्वभागों की। इनका शरीर सुवर्ण के समान कान्तिपाला एव रोगरहित होता है । ( कचणकल सप्पमाण समसहितलडचुवु आमलग जमलजुगलवद्दिय पयोहराओ ) इनके दोनों स्तन उन्नत और गोल होने के कारण सुपर्णनिर्मित घट के आकार जैसे होते है-कमती बढती नही । सहित अशि थिल होते हैं । नीचे की ओर झुके हुए नही रहते साम्हने उठे हुए रहते है । इनके दोनों चूचुक मनोहर एव अत्यत काले मुखवाले होते हैं । ये साथ २ उत्पन्न होते हैं । गोल रहते हैं, ( भुयग अणुपुव्वतणुयरइयपासा " ते अरो तेभनी भन्ने कुक्षीयो भितभात्रि सप्रमाणु, पीन-सुपुष्ट अने रतिद्-रमाशीय लागे छे "अक डुयकणगरुयगनिम्मल मुजाय निरुपयगायल्डी” તે પુષ્ટ હૈવાને કારણે તેમની પીઠના હાડકા દેખાતા નથી અને છાતીના હાડકા પણુ દેખાતા નથી, તેમના શરીર સુવણું ની જેવી કાતિવાળા અને નીરાગી હાય છે कचण कलसप्प माणसमसहितलट्ठचूचुयआमे लगजमलजुयलवट्टिय पयोहराओ' तेमना मन्ने स्तन गोण ने उन्नत होवाने अरणे, भोनाना ઘડા જેવા લાગે છે, તે સ્તન ખરાખર સરખા હોય છે-નાના મોટા હાતા नथी,, सहित - अशिथिल होय के नीयेनी मान्नु नभेसा रहेता नथी प ઉન્નત હાય છે તેમની ખન્ને ડીટીએ મનેાહર અને અત્યત શ્યામ મુખવાળી હાય છે તે બન્ને સાથે જ ઉત્પન્ન થાય છે અને ગાળાકારના હોય છે "C Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका म०४० १३ युगतिशील्पनिरूपणम् वेया, गंदणवणविवरचारिणीओ ओव्वअच्छराओ उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ आच्छेर गयेच्छणिजाओ तिपिणपलि ओवमाइ परमाउं पालइत्ता ताओ वि उवणमंतिमरणधम्म अतित्ता कामाणं ॥ सू०१३॥ योफा-'निद्धपाणिलेहा' स्निग्यपाणिरेखाः = मुस्पष्टहस्तरेखाः ' ससि. मुरसखचर वरमोत्थियस्मित्तमृपिरइयपाणि ठेहा, शशि-सूर्य-शर-चक्रवर स्वस्तिरविभक्तमुरतिपाणिरेगाः = चन्द्रमूर्यशाचान्दक्षिणावर्तस्वस्तिकलक्षणाः निमक्ता:गुम्पप्टा, रतिदा.-मुपदाः पाणिरेसा: हस्तरेखा यासा वास्तथा । ' पीणुप्णयकरखरस्थिप्पदेसपडिपुण्णगरकोला' पीनोन्नतकक्षपस्तिप्रदेशमतिपूर्णगलस्पोलाः = पीनाथुन्नता च कक्षी = पाहुमूली वस्तिः = नाभ्य. धाभाग स्तथा प्रतिपूणो गलकपोलौ यासा तास्तथा 'चउरगुलमुप्पमाणकयुवर सरिसगीवा' चतुरगुल सुप्रमाणकम्युनरसदृशग्रीया. = चतुरगुलप्रमाणा कम्युवर फिर वे कैसी होती है सो कहते है-निद्धपाणिलेहा' इत्यादि। टीकार्थः-(निद्धपाणिलेहा ) इनके दोनो हाथों की रेखाएं स्निग्धसुस्पष्ट होती है। (समिसरसखचवावरसोत्थियविभत्तसुचिरइयपाणिलेहा) उनके हाथों में शशि-चद्र रवि, शस, चक्र और दक्षिणावर्त स्वस्तिक, इन आकार की रेग्वाएँ होती हैं । और ये सब रेखाएँ सुस्पष्ट रहती हैं, सुग्वद होती हैं। (पीणुण्णयकक्खवत्यिप्पदेसपडिपुण्णगलकवोला) इनकी दोनों कक्षा-याहुमूल-पीन-पुष्ट और उन्नत होता है। वस्ती नाभि का अधोभाग भी ऐआ ही होती है । तथा गला और कपोल ये दोनों इनके प्रतिपूर्ण-भरे हुए रहते है । (चउरगुलसप्पम्प्रणकबूवर ते युगति४ स्त्रीयानु पधु पनि ४२ छ-" निद्धपाणिलेहा" त्यादि सर्थ -"निद्वपाणिलेहा" तमना मन्त रायनी मामी निच-सुस्पष्ट डाय छे “ससिसूरससचकवरसोस्थियविभत्तचिरइयपाणिलेहा " तेमना डायामा ચદ્ર,સૂર્ય, ખ, ચક્ર,દક્ષિણાવર્ત સ્વસ્તિક આદિના આકારની રેખાઓ હોય છે ते ॥धी २४ामो सुस्पष्ट भने सुमह जाय छे “पीणुण्णयकक्सवस्थिप्प देसपडिपुण्णगलकवोला” भनी मन मा पुष्ट आने जन्नत डाय छे वस्तिનાભિની નીચેનો ભાગ પણ એવો જ હોય છે, તથા તેમનું ગળું અને ગાલ પ્રતિपूर्ण मार डाय छे “ चउरगुलसुष्पमाणकचूनरसरिसगी " तेमनी भीमा Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ মাণে पडिपुण्णगल्लकवोल-चउरंगुल सुप्पमाण-घुवरसरिस गीया मंसल - संठिय - पसत्यहणया दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंव कोंचियवराधरा सुंदरोतस्हा दहिदगरय कुढचदवासंति मउल-अछिद्द - विमलदसणा रतुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमाल तालुजीहा कणवीर मउलकुडिल अन्भुण्णय उज्जुतुंगनासा सारयनवकमल -कुमुय--कुवलयदल निगर--सरिस- लरखण पसत्थ-निम्मल-कतनयणा- आनामिय चावरुदत कण्हभराइसठिय--सगयायय---सुजाय- तणु-कसिण-- निद्धभूमगा अल्लीण- पमाण- जुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमट्ट-गडलेहा चउरगुल - विसाल - समनिडाला कोमुईरयणियर - विमल पडिपुण्णा सोम्मवयणा छत्तुण्णयउत्तमगा अविकल सुसि णिद्ध दीह-सिरया छत्त २ उझय २ जुव३ थूभ४ दामाणि ५ कमडलु ६ कलस ७ वावि ८ सोस्थिय ९ पडाग १० जव ११ मच्छ १२ कुम्म १३ रहवर १४ मयर १५ अक १६ थाल १७ अकुस १८ अट्ठावय १९ सुपइट २० अमर २१ सिरियाभिसय २२ तोरण २३ मेइणि २४ उदधिवर २५ पवरभवण २६ गिरिवर २७ वरायस २८ सुललियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर ३२ पसत्थ बत्तीसलक्खणधराओ हससरिच्छगईओ कोइलमहुरागिराओ कता सव्वस्स अणुमयाओ, ववगयवली-पलिय-वगदुवण - वाहि देभिग्ग सोयमुक्काओउच्चत्तेणय नरथोवूणमूसियाओ सिगारागारचारवेसा सुदरथणजहणवयणकरचलणणयणा .. . . . Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका १० ४ २०१३ युगरिलीयपनिरूपणम् ४७ वेया, गंदणवणविवरचारिणीओ ओव्वअच्छराओ उत्तरकुरुमाणुसच्छराओ आच्छेर गयेच्छणिजाओ तिणिपलि ओवमाई परमाउं पालइत्ता ताओ वि उवणति मरणधर्म अतित्ता कामाण ॥ सू०१३॥ यीका-'निद्धपाणिलेहा' स्निग्यपाणिरेखाः = मुस्पष्टहस्तरेखाः ' ससिसरसग्वचावरमोत्थियतिमत्तमरिइयपाणिलेहा । शनि-मर्य-शह-चक्रवर स्वस्तिरविभक्तमुरतिम्पाणिरेग्वाः = चन्द्रमूर्याचदक्षिणावर्तस्वस्तिकलक्षणाः निमक्का मुस्पष्टा रविदा-सुखदाः पाणिरेखाः हस्तरेसा यासा तास्तथा । ' पीणुप्णयावरस्थिप्पदेमपडिपुष्णगलकपोला' पीनोन्नतकक्षरस्तिप्रदेशमतिपूर्णगलम्पोला: = पीनाउन्नतो च कक्षी = पाहुमूली पस्तिः = नाभ्य. घाभाग स्तथा प्रतिपूणा गलकपोलौ यासा तास्तथा 'चउरगुलमुप्पमाणकवर सरिसगी' चतुरगुलमुप्रमाण कम्युारसदृशग्री: = चतुरगुलप्रमाणा कम्युवर फिर वे कैसी होती है सो कहते है--निद्वपाणिलेहा' इत्यादि। टीकार्थ:-(निद्धपाणिलेहा ) इनके दोनों हाथों की रेखाएं स्निग्धसुस्पष्ट होती है। (समिसरसखचकवरसोत्थियविभत्तविरहयपाणिलेटा) उनके हाथों में शशि-चढ़ रवि, शख, चक और दक्षिणावर्त स्वस्तिक, इन आकार की रेसाएँ होती हैं । और ये सन रेखाएँ सुस्पष्ट रहती हैं, सुग्वद होती हैं। (पीणुण्णयकासवत्यिप्पदेसपडिपुण्णगलकवोला) इनकी दोनो कक्षा-पाहुमूल-पीन-पुष्ट और उन्नत होता है। वस्ती नाभि का अधोभाग भी ऐआ ही होती है । तथा गला और कपोल ये दोनों इनके प्रतिपूर्ण-भरे हए रहते है । (चउरगुलसप्पमाणकबूवर ते युगतिर श्रीमान पधु पनि छ-" निद्धपाणिलेहा" त्याहि Auth -"निद्वपाणिले हा" तमना ५-२ डायनी ३भामा निग्ध-सुस्पष्ट खाय छ " ससिसूरससचकारसात्थियावेभत्तविरइयपाणिलेहा " तमना अायामा ચદ્ર,સૂર્ય, રાખ, ચક્ર,દક્ષિણાવર્ત સ્વસ્તિક આદિના આકારની રેખાઓ હોય છે ते धा २०१२॥ सुस्५०८ मन सुप हाय छ " पीणुण्णयकक्सवस्थिप्प देसपडिपुण्णगलकवोला" भनी मन्नो पुष्ट मने उन्नत जाय छ यस्तिનાભિની નીચેનો ભાગ પણ એ જ હોય છે, તથા તેમનું ગળું અને ગાલ પ્રતિपूण सरावहार साय छे " चउरगुलसुप्पमाणकपूनरसरिसगीना" तेमनी श्रीवा Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ মপাতাক্ষণে पडिपुण्णगल्लकवोल-चउरंगुल-सुप्पमाण-घुवरसरिस-गीया मसल --संठिय - पसत्थहणुया दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलंव कोंचियवराधरा सुंदरोतरहा दहिदगरय कुदचदवासति मउल-अछिद - विमलदसणा रतुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमाल ताटुजीहा कणवीर मउलकुटिल अन्भुण्णय उज्जुतुगनासा सारयनवकमल कुमुय--कुवलयदल निगर--सरिस- लक्षण पसत्थ-निम्मल-कतनयणा--आनामिय चावरुदत कण्हन्भराइसठिय--सगयायय---सुजाय- तणु-कसिण-- निद्धभूमगा अल्लीण--पमाण - जुत्तसवणा सुस्सवणा पीणमट्ट-गंडलेहा चउरगुल - विसाल - समनिडाला कोमुईरणियर · विमल पडिपुण्णा सोम्मवयणा छत्तुण्णयउत्तमगा अविकल सुसि णिद्ध-दीह-सिरया छत्त २ ज्झय २ जुव३ थूभ४ दामाणि ५ कमडल ६ कलस ७ वावि ८ सोत्थिय ९ पडाग १० जव ११ मच्छ १२ कुम्म १३ रहवर १४ मयर १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अष्ट्रावय १९ सुपइ २० अमर २१ सिरियाभिसेय २२ तोरण २३ मेइणि २४ उदधिवर २५ पवरभवण २६ गिरिवर २७ वरायस २८ सुललियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर ३२ पसत्थ बत्तीसलक्खणधराओ हससरिच्छगईओ कोइलमहुरागिराओ कता सव्वस्स अणुमयाओ, ववगयवली-पलिय-वगदुवण - वाहि दोभग्ग सोयमुक्काओउच्चत्तेणय नरथोवूणमूसियाओ सिगारागारचारुवेसा सुदरथणजहणवयणकरचलणणयणा लावण्णरूवजोव्वणगुणाव Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७९ सुवशिनी टीका ० ४ सू० ११ युगलिनोस्वरूपनिरूपणम् =तर रक्तोत्पल = रक्त कमल तहत् रक्तपापत्रपच सुकुमार तालुजिह्व यासा तास्तथा, ' कणवीरमउलकुडिल अन्भुगर उज्जुतुगनासा ' करवीरमुकुला कुटिलाऽभ्युन्नत नाजुतुजनासाः = करगीरमुफुल = कर्णिकारकलिका तहत् अकु टिला-अरका अभ्युम्नता अभितः उन्नता ज्वी-सरलातुङ्गा-मध्योनता च नासा नासिका यासा तास्तथा 'सारयनवकमलकुमुयकुरलयदलनिगरमरिरालवखणप सत्य निम्मलातनयणा' शारदनपकमल कुमुदकुवलयदलनिकरसदृशलक्षणमशस्तनिमलरान्तनयना = शारद = शरतकालिक यत् कमल = सयेविकासिपा, कुमुदचन्द्रविकासिपम कुमलयदल-नीलामलपत्र च तेपा निकम् समूहः तेन सदृशे लक्षणप्रशस्ते-प्रशस्तलक्षणोपेते निर्मले उज्ज्वले कान्ते मनोहरे च नयने यासा तास्तथा ' आनामिय चावरुडल किण्हन्मराइ सठिय सगया यय सुजायतणुकसिणनिद्धभूमगा ' आनामितचापरुचिरकृप्णाभ्रराजिसस्थितसगतसुजाततनु कृष्णस्निग्धभूयः-आनामिती चक्रीकृतौ चापौ = धनुपी तद्वत् रुचिरे कृष्णा भ्रराजिसस्थिते कृष्णोघरेखासदृशे सगते समुचिते आयते दीर्घ सुनाते सपातालु और जिह्वा जिनका रक्त कमल के समान, तथा रक्तपद्मपत्र के समान सुकुमार होती है । ( कगवीरमउलकुडिल अम्भुण्णयउज्जुतुगनासा नासिका कर्णिकार कनेर-की कलिका-ली-के समान अकुटिल तथा अभ्यन्नत, ज्ची-सरल, और तुग-मय मे उन्नत होती है। (सारयनपकमल मुयकुवलयदलनिगरसरिसलक्खणपसत्यनिम्मलकतनयणा । जिनके दोनो नयन शरदकालसबधि सूर्यचिकासी कमल के तथा चन्द्र विकानी पद्म के, कुवलय दल के, नील कमल के पत्रके समूह जैसे होते है । प्रशस्त लक्षणों से युक्त, निर्मल-उज्ज्वल, एवं कान्त-मनोहर होते हैं। (आनामियचावरुइल फिरभराइसठियसगयाययसुजायतणुकसिणनिद्वभूमगा) जिनकी दोनो भोहे वक्रीकृत धनुप भ वी तथा ela मा पत्रची सुधभार डाय छ, “कणवीरमसलकुडिलअभु ण्णय उजुतु गनासा" भनी नासि उनी ४जीपी म. tea तथा उन्नत, ऋग्वी-स२१ मते तुझ-मध्यमा यी साय, “सारय नवकमलकुमुयकुवलय - दलनिगर-सरिम - लम्सणपसत्थ-निम्मल- कतनयणा " જેમના બને નયન નારદત્રતુના સૂર્ય વિકસિત કમળ તથા ચન્દ્ર વિકસિત પાની પાખડીઓ જેવા તથા નીલકમલના પનસમૂહ જેવા, પ્રશસ્ત લક્ષણેवाणा, निर्भ-Sriram, सने मनोड हाय “ आनामियचावरुइलकिण्व्भ राइस ठियस गयाययसुजायतणुकसिण निद्धभूभगा" भनी - भ्रमश alsaxiimal वा भने antiins 2018 शित Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ सदशी-प्रधानशातुल्या च ग्रीवा यासा तास्तथा 'मसलसठियपसत्यहणुया' मांसलसस्थितमशस्तहनुकाः = मामल:-पुष्टः सस्थितः - सुसम्यानयुक्तः आम्र फलाकार प्रशस्त गुन्दरो हनुः ओष्ठाधोभागो यासा तास्तथा । 'दालिमपु. प्फप्पगासपीपरपलयकोचिय बराधरा = दाडिमपुपमापीनरमालम्बवरा धरा-तत्र-दाडिगपुष्पमझाशः = दाडिमपुपसमममो रक्त इत्पर्यः, पीवर: %D पुष्ट मालम्पः = ईपल्लम्मानः कृश्चितः = पलित. परः = प्रशस्तोऽधरो यास तास्तथा' मुदरोत्तम्हा' सुन्दरोलरोष्ठा-सन्दरउत्तरोष्ठउपरितन ओष्ठो यासा तास्तथा 'दधिदगरयकुदचदवासतिमउलच्छिदपिमल्दसणा ' दधिदकरजः कुन्दचन्द्र पासन्तीमुकुलाद्रि विमलदशना न्ता-दधिदारजः = जलपिन्दुः कुन्दःपुष्पविशेषः चन्द्र प्रतीत पासन्तीमुकुमवासन्तीनामक पुप्प कुड्मलथ इत्यतः सदृशाः शुक्लाः अछिद्राः अविरला मिलिता दशना-दन्ताः यासा तास्तथा 'रत्तुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमालवालुनीहा' रक्तोत्सलरक्तपमपत्रसुकुमारतालनिहाः सरिसगीया ) इनकी गर्दन चार अगुल की तथा प्रधान-उत्तम शख के जैसी होती है । (मसलसठियपसत्वरणुया) इनके ओप्ठ का अधोभाग । रूप दाढी मासल-मजबूत पुष्ट, सस्थित-आम्र फल के जैसी सुन्दर आकार घाली और प्रशस्त-सुहावनी होती है। (दालिमपुप्फप्पगासपीवरपलयकोचियवराधरा) इनका अधरोष्ठ दाडिम-अनार के पुष्प के समान लाल वर्ण वाला होता है। पीवर-मासादि से भरा हुआ होने के कारण पुष्ट होता है। तथा प्रालम्ब-कुछ २ लम्बासा रहता है । कुश्चितपलित एव प्रशस्त होता है । (सुदरोत्तरुट्टा ) जिनके ऊपर का ओष्ठ सुन्दर होता है। (दधिदगरयकुदचदयोसतिमउलअच्छि दविमलदसणा) इनके निर्मल दात-दही, जलबिन्दु, कुदपुष्प, चन्द्र, वासन्ती पुष्पकी कली, इनके जैसे शुभ्र होते है। चिरले नहीं होते है किन्तु अविरलपरस्पर में मिले हुए रहते है। (रतुप्पलरत्तपउमपत्तसुकुमालतालुजीहा) यार मानी तथा उत्तम २५ रवा डाय छ “मसल सठियपसत्यहणुया" તેમના હોઠના નીચેના ભાગરૂ૫ દાઢી માસલ મજબૂત, સસ્થિત–આમ્રફળના २वा सु२ २॥४॥२जी मने प्रशस्त सु४२ डायले "दालिमपुरफापगास पीवरपलबको चियपराधरा" भने। अध।४ हाउभना वा दास २ जना, પુષ્ટ, તથા સહેજ લખાયેલું રહે છે તે અધરેષ્ઠ કુચિત-વળેઓં અને उत्तम डाय छ “सुदरोत्तरुद्रा" तभन। परन। सुहर लाय छ " दधि दगरयकुदचदवास तिमउलअच्छिद्धविमलदसणा " तभना निम त - જળબિંદુ, કુદપુષ્પ, ચન્દ્ર અને વાસન્તી પુષની કળી, જેવા સફેદ હોય છે તે દાત છૂટા છૂટા હોતા નથી પણ પરમ્પરમાં મળીને આવેલા હોય છે " रतुप्पलरत्तपउमपत्त सुरुमालतालुजीहा" तेमनु त मन सदास Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D सुदर्शनी टीपा ४ सू० १३ युगलिनीस्यरूपनिरूपणम् . शनाः कपणा इत्ययः सुस्निग्धाः=मुकोमलाः दीवि शिरोजा' केशा यामा सास्तथा ' उत्त १ प्झय २ व ३ धूम ४ दामणि ५ कमडलु ६ कलस ७ गावि ८ सोत्थिय ९ पडाग १० जर ११ मन्छ १२ पुम्म १३ रहबर १४ मगर १५ अफ १६ चाल १७ अमम १८ अदापय १९ सुपट २० अमर २१ मिरियामि सेय २२ सोरण २३ मेडणि २४ जनहिवर २५ पारभण २६ गिरिसर २७ वरायस २८ मुरलियगय २९ पसभ ३० सीह ३१ चागर ३२ पमस्थ बत्तीसएकावणधराग १ ज २ प ३ स्तूप ४ दामनी मण्डल ६ कलग७ पापी ८ खरिनया ९ पनाका १० यय ११ मत्स्य १२ कूर्म १३ स्थवर १४ मकरा १५ र १६ स्थाला १७ दिशा १८ ऽण्टापद १९ मुमतिष्ठा २० sमर २१ श्रीकाभिषेक २२ तोरण २३ मेदिन्यु २४ दमिर २५ प्रवरभवन २६ गिसिर २७ रादौ २८ सुललितगम २९ सम ३० सिंह ३१ चामर ३२ प्रशस्त द्वात्रिंशलणधरा, तन-उत्त'छत्र १ 'ज्यान: २ जूर' यूपास्तम्भविशेषः ३ 'धूम' स्तूपा= 'चौतरा' इति भाषा प्रसिद्धः४, 'दागिगि' दामनी = र जु:-तदाकाररेखेत्यर्थः ५ कमण्डलुः = प्रसिद्धः ६, दीमिरया) इन के मानक के केश विलकल काले होते हैं । सुस्निग्धसुकोमल एच दीर्घ-लवे होते हैं । (छत्त १ सय २ जूच ३ थूभ ४ दामणि ५ कमडल कलम ७ वाचि ८ सोस्थिय ९पडाग १०जय ११ मच्छ १२ कुभ १३ रस्घर १४ मगर १५ अक १६ थाल १७ अकुस १८ अहा. चय १९ मुपद २० अमर २१ सिरिगाभिसे य २२ तोरण २३ मेडणि २४ उदहिवर २५ पवरभरण २६ गिरि वर २७ वरायम २८ मुकलियगय २९ वसभ ३० सीह ३१ चामर पसत्य बत्तीसलवणधराओ) ये इन प्रशस्त वत्तीम ३२ लक्षणों को धारण करती हैं-छत्र १यजा २, यूप-स्तम २, स्तृप-चोतरा ४, दामनी-रस्सी ५, कमण्डलु पाण तहन , सुडमा भने सामाखाय छे “छत्त १ सय २ जूच ३ थूम ४ दामणि ५ कम सलु ६ फलस ७ वावि ८ सोस्थिय ९ पठाग १० जय ११ मच्छ १२ फुभ १३ रहबर १४ मगर १५ अक १६ थाल १७ अकुस १८ अद्वावय १९सुपइ २० अमर २१ सिरियाभिसेय२२ तोरण २३ मेइणि २४ उदहिवर २५पपरभवण २६ गिरिधर २७ वरायस २८ सुललियगय २९ पसभ ३० सीह ३१ चामर ३२ पसत्ययत्तीसलपसणधराओ" ते युगतिर बसानामा मा प्रभा ३२ (मत्रीम) उत्तम क्षण। धारण धरे -- (१) छत्र (२) Lq1 (3) यू५-२तम. (४) तूप-यमृत। (५) हामनी ११२७. T unnel in India () ति: (१०) all Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० प्रश्नध्याकरण यतः सुन्दरे तन्-प्रतले कृष्णकृष्णपणे स्निग्ये-चित्रणे भ्रषौ यासा ताम्तथा । 'अल्लीणपमाणजुत्तमरणा' आतीनप्रमाणयुक्तपणाः = नातीनी स्तन्यौ प्रमाणयुक्तौ-समुचितप्रमाणो अपणो मणौँ यामा ताम्तया एतावदेवन ? किन्तु "मुस्सपणा' मुश्रवणा - शब्दग्रहणशक्तिसम्पन्नयुक्ताः, पीणमद्वगंडलेहा' पीनमृष्ट गण्डरेग्वा-पीना-पुष्टामृष्टा-ममृणा सुकुमारा गण्डरेसा कपोल पाली यासा तास्तथा 'चउरगुलविसालसमनिडाला' चतुरगुलविशालसमललाटा 3 चतुरगुल-चतुरगुलप्रमाण विशाल-पिस्तीर्ण सम-समतल लाट यासा तास्तथा 'कोमुई रयनियरनिमलपडिपुण्णसोम्मायणा' कौमुदी रजनीकर रिमठमतिपूर्ण सौम्यवदनााकौमुदी-कार्तिकी पूर्णिमा तस्या यो रजनीकर = चन्द्र तद्वत् विमल-निर्मल मतिपूर्ण माम्य तुभग बदन यासा तास्तमा कार्तिीपूर्णचन्द्रवदनाः, 'उत्तुण्णयउत्तमगा' छनोन्नतोत्तमाता छत्रात्ममुछितमस्तकाः 'अकवि लसुमिणिद्धदीहसिरिया । अपिलमुस्निग्रदीर्घशिरोजाः = अफपिला = अपि केसमान रुचिर, कृष्णमेघराजि के समान, सस्थित, संगत-उचित आकारयुक्त, आयत-दीच, सुजात-स्वभावतः सुन्दर, तनु-पतली, कृष्ण-कृष्णवर्णोपेत, और स्निग्य-चिकनी होती है। (अल्लीणपमाणजुत्तमवण्णा ) आलीण-स्तब्ध एव समुचित प्रमाण से युक्त इनके दोनों कान होते है । (सुस्मवणा) तथा ये दोनो ही कान शब्दग्रहण करने की शक्ति से युक्त होते हैं । (पीगमगडलेहा ) इनकी कपोलपाली पीन-पुष्ट और मृष्ठ-सकुमार होती है । (चउरगुलविसाल समनिडाला) इनका विस्तीर्ण ललाट चार अगुल प्रमाणवाला होता है तथा सम-समतल होता है। (कोमुईरयनियर विमल पडिपुण्ण सोम्मवयणा) इनका मुग्व कार्तिकी पूर्णिमा के चद्रमडल के समान निर्मल तथा पूर्ण होता है। सुभग होता है । (छतुण्णयउत्तमगा) समुच्छित विस्तारित छत्र के समान इनका मस्तक उन्नन होता है ! (अकविल सुसिणिद्धसमत-सुण, आयत-सी, सुनत-रती शते सुर, तनु-पातnt, ston २नी मने निध-भुसायम हाय छ “अल्लीणपमाणजुत्तसवण्णा" तमना मन्ने छान स्तvध अने संप्रभा डाय छे “ सुस्सवणा" ते मन्न जानना श्रवणशति ही सरस हाय छ “पीणमट्रगडलेहा" तमना गात धुष्ट मन सुभा२ सय छ "चउर गुलविसालसमनिडाला" मनु विशाल साट यार माग पडाणु मने समतसय छ “कोमुई-रय-नियरविमल पडिपुण्णमोम्मवयणा" तेभनु भुम आती पूनमना न्यन्द्रमजवु नि तया डाय छ “छत्तुण्णयउत्तमगा" विस्ती छत्र समान जन्नत तमनु मस्त डाय छे “अकपिलमुसिणिद्धदीहसिरया " तमना भाथा ५२ना Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका १०४ सू० १३ युगलिनीस्वरूपनिरूपणम् ४८३ वगदुरगवाहिदोभग्गमोयनुकाओ' व्यपगतवलीपलित व्यगदुर्वर्णव्याधिदोर्भाग्यशोयुक्ताः व्यागा-नष्टा वली = चर्मशिथिलता तथा पलित-केशशुक्लत्व व्यग-अहस्लिता दुर्वर्ण:-रूप्य व्याधिः शरीरव्यथा, दोर्भाग्य धन्य शोक 3 खेदव एनर्मुक्ताः = रतिदा यास्तास्तथा 'उच्चत्तण य नरथोवृणमूमियाओ' उच्चत्वेन च नरस्तोफेनोन्जिता उच्चत्वेन शरीरोच्चत्वेन च नरेभ्यः पुरुपेभ्यो स्तोफोन किञ्चिन्यून यथास्यात्तथा उचिताः उन्चायास्ताः तथा-पुरुपप्रमाणात् किञ्चिदल्पप्रमाणोन्नता', 'सिंगाराऽऽगारचारुवेसा' शृङ्गाराऽऽगारचारवेपा , शृङ्गारस्य-शृङ्गाररसस्य आगारमिव गृहमिव चारु -सुन्दरः वेपः वस्त्रादिविभूपा यासा तास्तथा 'मुदर थणजहणायणफरचलणणयणा ' सुन्दरस्तनजधनवदनकरचरणनयनाः = मुन्दराणि स्तन-जयन-बदन-कर-चरण - नयना नियामां वास्तया 'लावण्णरूपजोगगगुगोश्वेया' लापण्यरूपयौवनगुणोपेता:लागण्य = शरीरमौन्दर्यरैशिष्टर निखिलानयवाविरेकिस्वरूपशोभाविशेपः रूप (ववगययलीरलियबगदुषणवारिदोभग सोयमुकाओ) इनकी चमडीमें शिथिलता कहीं नहींआती है । वालों में सफेदी नहीं आती है। इनका कोई भी अग विकल नहीं होता है। विरूपता इनमें बिलकुल नहीं होती है। व्याधि का इनमें अभाव होता है । वैधव्य रूप दौर्भाग्य से ररित होती हैं । शोक और खेद से वर्जित होती हैं । (उच्चत्तेण य नर मोवूणमूसियाओ ) ऊंचाई में ये मनुष्यों से कुछ ही कम होती हैं । (सिंगारा गारचारूसा ) शृगाररस के घर जैसा इनका सुन्दर वेष-वस्त्रादि वेषभूपा होता है। (सुन्दर थगजहण पथणकरचलणणयणा) इनके स्तन, जघन, वदन, कर, चरण, और नयन मुन्दर होते हैं । ( लावण्णरूवजोव्वणगुणोववेया) इनमें लावण्य, रूप, यौवन एव गुण असारण होते हैं। दुन्त्रणवाहिदोभगसोयमुक्काओ " तमनी यामीमा शिथिलता भारती નથી, વાળ સફેદ થતા નથી, તેમને કોઈ પણ અગે બેડ હોતી નથી, તેમનામાં વિરૂપતા બિલકુલ હોતી નથી, વ્યાધિ તેમને પડતી નથી કારણ કે તેઓ નીગી હોય છે, તેઓ વૈધવ્ય રૂપ દુર્ભાગ્યથી રહિત હોય છે અને ४ सने मेथी २डित डाय छ । उच्चत्तण य नरयोवृण मूसियाओ" भनुष्यो ४२ तमनी या याही डाय छे “सिंगारागारचारुवेसा" तभनी वेषभूषा श्रृगार २सन २२२वी डाय छ " सुदरथणजहणायणकरचलणणयणा" तेमना स्तन, धा, पहन, ४२, २२६, भने नयन मुहर राय छे. "लावण्णरूनजोमणगुणोपवेया" तेमनामा दा१९य, ३५, यौवन भने राष्ट्र Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ૮૨ प्रभव्याकरण 'परस' कलशा घटः ७' पारि' पापी ८' सोस्थिय 'सस्तीकः९ 'पडाग' पताका १० 'जन' ययः ११ 'मन्ट' मत्स्यः १२ 'कुम्म' कुर्मः-कच्छपः १२, स्थपरः प्रधानरय. १४ 'मगर' मकरः १५, अदरत्नाफरचितविशेष १६, 'थाल' स्थालापानविशेष. १७ अउ युशः १८ 'अहावय' अष्टापदघृतफलफ १९ ' सुपट्ट' मुमतिप्टक-स्थापनक पाविशेषः २० अमरः-देवविशेषः २१ 'सिरियाभिसेय' श्रीकाभिषेकः २२ तोरण २३ 'मेडणि' मेदिनी-पृषी २४ उदधिवरः २५ 'पारभरण ' परभवन २६ गिरिवरः २७ 'घरायस' बरादर्श प्रशस्तदर्पण. २८ मुललियगय ' मुललितगन' २९ 'वसम' वृषभ ३०, 'सीह ' सिह ३१ चामर ३२ च इत्येतानि प्रशस्तानि द्वात्रिंगल्ल क्षणानि तेपा धरा यास्ताम्तयाः, 'इससरिच्छगईओ' इसमदृशगतयः, 'कोइल. महुरगिराओ' कोकिलमधुरगिर: मोफिलमपुरस्वराः, 'कता' कान्ताः मनोज्ञाः, * सव्यस्स अणुमयाओ' सर्वस्याऽनुमता - सर्वजनमियाः 'वनगयवलीपलिय६, कलश ७, वापी ८, स्वस्तिक ९, पताका, १०, यव, ११, मत्स्य १२, 'कूर्म-कच्छप १३, रथवर-प्रधानरथ १४,मकर १५, अक-रत्न के आकार जैसा चिह्न १६, स्थाल-थाल १७, अक्रश १८, अष्टापद-धतफलक १९, सुप्रतिष्ठक-ठोंणा २०, अमरदेवविशेप २१, अभिषेक करती हुई लक्ष्मी २२, तोरण २३, मेदिनी-पृथ्वी २४, उदधिवर-ममुद्र २५, उत्तमभवन २६, उत्तमपर्वत २७, सुन्दर दर्पण २८, मुललितगज २९, वृषभ-बल ३०, सिंह ३१, और चामर ३१ । (रससरिच्छगई ) इनकी गतिचाल-हँस की गति जैसी होती है। (कोइलमहुरगिराओ) उनकी वाणी-कोयल की वाणी जैसी मधुर रोती है । (कता) ये अत्यत मनोज्ञ होती हैं । ( सव्वस्स अणुमयाओ ) समस्त जनों को प्रिय लगती है। (११) ५५ (१२) मत्स्य, (१३) म-यमा, (१४) उत्तम २५ (१५) भा२ (१६) १४-२९नना मा२नु चिह्न (१७) थारू (१८) मधुश (१८) मष्टा५४धुतस, (२०) सुप्रतिष्ठ-ठा (२१) अमर-हेपविशेष (२२) मलि ४२ती सक्ष्मी (२३) २५ (२४) महिनी-पृथ्वी, (२५) धिं२-समुद्र (२६) ઉત્તમ ભવન (૨૭) ઉત્તમ પર્વત (૨૮) સુદર દર્પણ (૨૯) સુદર ગરજે (30) पृषम (31) सिंड भने (३२) याभ२ "ससरिच्छगई " भनी याद सनी यास वा साय छ, "कोइलमहरगिराओ" तेमनी पाणी आयतना q २वी भी Bाय छ, “कता" ते सत्यत भनी २ सय छ, भने " सव्वरस अणुमयाओ" सधमा जान प्रिय वागे छ "ववगयवलो पलियवग Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ०४ सू० १४ चतुर्थमन्तद्वनिरूपणम् ४५ अपि, 'अपितित्ता कामाण' अतृप्ता कामानाम् कामोपभोगेपतृप्ता एव 'उफ्णमतिमरगरम्म' उपनमन्ति मरण पम-म्रियन्त इत्यर्थः ।। सू०१३ ॥ ___ एतावताऽब्रह्मारयचतुर्थाधर्मद्वारस्य 'ये च कुर्वन्ति' इति पञ्चममन्तारनिरूपितम् । साम्प्रत पूर्वमनुक्त ' यथाकृतम् ' इति तृतीयमन्तार ' यत्फल ददाति ' इति चतुर्थमन्तर च वर्णयन्नाह-'मेहुण' इत्यादि मृलम्-मेहणसन्नास पगिद्धाय मोहभरिया सत्थेहि हणंति एकमेक विसय-विस-उदीरएहि अवरे परदारेहि हम्मति विसुणिया धमनासं सयणविप्पणासं च पाउणति परस्स दाराओ जे अविरया । मेहुणसपणा सपगिद्धाय मोहभरिया अस्साहत्थी गवाय महिसा मिगाय मारिति एकमेक । मणुयगणा वानरा य पक्खी य विस्ज्झति मि. ताणि खिप्प भवति सत्तु । समयधम्म गणे य भिदति पारदारी धम्मगुणरयाय वभयारी खणेग उल्लोदृति चरित्ताओ। जसमता सुव्वया य पावति अजसकित्ति । रोगत्ता वाहिया ववति रोयवाही, दुवंय लोए दुराराहगा भवति इहलोए चेव परलोए परस्त दाराओ जे अविरया। तहेव केइ पररस दार गवेसमाणा गहिया य हयायवद्धारुद्धा य एव जावगच्छति विउल मोहाभिभूयसण्णा । मेहुण मूला य सव्वति तत्थ तत्थ वत्तपुवा सगामा जणक्खयकरा निवासिनी स्त्रिया कामसुखों को भोगती रहती है। परन्तु फिर भी उनसे ये तृप्त नहीं होती है। इस तरह कामभोगो में अतृप्त बनकरही ये अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है ।। सू०१३ ।। નિવાસિની લલનાઓ કામો ભોગવ્યા કરે છે, છતા પણ તેમનાથી તેઓ તૃપ્તિ અનુભવતિ નથી આ પ્રમાણે કામગથી અતૃપ્ત રહીને જ તેઓ મૃત્યુ पाछे ॥ १३ ॥ Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभम्याकरणसूत्रे - नासिका नयनायाकारः यौवन = तम्गारस्या, गुणाः पौदार्यमा यसौकुमा र्यादयस्तैरुपेनाः = युक्ता या स्वात्तया, 'णदगववियरचारिणीभोयमच्छराओ' नन्दनवनविपरचारिण्यइप्सरसः = नन्दनयनमदेशल चरणशीला अप्सरस इव, उत्तरकुरुमाणत छामो 'उत्तरकुरुमानुपाप्मरसः = उत्तरकुरुषु मानुष स्वरूपा अप्सरसः 'अच्छरगपेच्उणिज्जामो' आश्चर्य प्रेक्षणीया अद्भुतरूपत्वादाश्रयण प्रेक्षणीयाः, तिणि पलिओउमाइ परमाउ पालहत्ता' त्रीणि पल्योपमानि परमायु' पालयित्वा ' ता अपि - उत्तरकुरुदेवकुरुननपिरनिवासी नरगणप्रमदा शारीरिक विशिष्ट सौन्दर्य का नाम लावण्य है। यह लावण्य समस्त अवयवों के सौन्दर्य से भी परे स्वरूप की शोभा विशेष रूप रोता है। नासिका, नयन, आदि की समुचित जो आकार रचना है वह रूप है। तरुण अवस्था का नाम यौवन है। औदार्य, माधुर्य सौकुमार्य आदि का नाम गुण है । (णदणवणविवरचारिणीभोव्ध अच्छराजो उत्तरकुरुमाण सच्छराओ) नदनवन में विचरनेवाली अप्सराओं के समान ये उत्तरकुरू की भूमि में मनुष्य रूपिणी अप्सराएँ हैं। (अन्डरगपेच्छणिवाओ) अद्भुतस्प शालिनी रोने के कारण ये आश्चर्य से देखने योग्य होती हैं। अर्थात्-इनको देखने से मनुष्य को बहुत अधिक आश्चर्य होता है। कारण इनकी रूप सपत्ति ऐसी अद्भुत होती है जो मनुष्यों में और जगह नहीं पाई जाती है। (तिण्णिपलिओवमाइ परमाउ पालइन्ता ताओ वि अवितित्ता कामाण उवणमति मरणधम्म ) इनकी उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की होती है । इतने कालनक ये देवकुछ उत्तरकुरु અસાધારણ હોય છે શારિરિક વિશિષ્ટ સૌદર્યને લાવણ્ય કહે છે તે લાવણ્ય સમસ્ત અવયના સૌદર્ય ઉપરાત સ્વરૂપની વિશિષ્ટ શેભારૂપ હોય છે નાસિકા, નયન આદિની સુડોળ આકાર વાળી રચનાને રૂપ કહે છે તરુણ અવસ્થાને યૌવન કહે છે ઉદારતા, માધુર્ય, કોમળતા આદિ ગુણ ગણાય છે " णदणवणविवरचारिणीओव्वअच्छराओ उत्तरकुरुमाणसच्छराओ" नहन વનમા વિચરતી અપ્સરાઓ જેવી કે ઉત્તરકુરની ભૂમિમાં મનુષ્યરૂપિણ मसरामा छ “अच्छरगपेच्छणिजाओ" भभुत सौश्यवाणी डावाने १२२ તે સ્ત્રીઓ આશ્ચર્યથી જોવા જેવી હોય છે, એટલે કે તેમને જોઈને મનુષ્યોને અત્યત આશ્ચર્ય થાય છે કારણ કે તેમનું ૩૫ એટલું બધુ અપૂર્વ હોય છે ते ३५ मनुष्यामा अध प्यायेनेवा भगत नयी “तिण्णिपलिआवमाइ परमाउ पालइत्ता ताओ वि अरितिता कामाण उपणमति मरणधम्म " તેમની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ પત્યની હોય છે એટલા સમય સુધી તે દેવક Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका भ० ४ ० १४ चतुर्थमन्तद्वारनिरूपणम् ४८७ शब्दादि freefayets प्रवर्तकैः 'सत्येहि ' शस्त्रः 'एवमेवक' एकैक = प्रत्येकं 'हणति' घ्नन्ति । 'अरे' अपरे= केचित 'परदारेहिं' परदारे' =परस्त्रीभिः 'हम्मति' हन्यन्ते=मार्यन्ते, 'परदारै' - रिश्यत्र कर्त्तरि तृतीया । यद्वा हेतौ तृतीया - परदारान्निमित्तीकृत्य अन्यैर्वलद्भि पारदारिकैर्हन्यन्ते । ' त्रिसुणिया ' विश्रुताः =पारदारिकत्वेन प्रमिद्धाः सन्तः केचित् ' धगणास ' धननाश = 'सपणनिष्पणास ' स्वजनपिमणाश= स्वजन नियोगं ' पाउणति ' प्राप्नुवन्ति, अय भाव - राजपुरुषा स्वनागत्य परदारिकाणां धन गृहन्ति, परदारिक वा दण्डनार्थ दण्डस्थान नयन्ति च । यद्वा-परदारप्रसादनार्थ स्वकीयं पिनाद्युपार्जित धन परदारेभ्य मय(मोहभरिया ) उस मैथुकरूप कर्म के मोरसे भरे हुए होने के कारण, अश्वा - विवेक से विफल बने रहने के कारण (निमयचिस उदीर एरिंसत्येहिं एकमेक हणति ) शब्दादि विषयरूप विषय के प्रवर्तक शस्त्रों से आपस में एक दूसरे को मार डालते है । ( अबरे ) किननेक प्राणी (परदारेहि हम्मति ) पर स्त्रियो द्वारा मार दिये जाते ह । अथवा परखी को निमित्त करके अन्य बलशाली पारदारिक पुरुषों द्वारा मथुनराज्ञा मे आसक्त मतिवाले व्यक्ति मार दिये जाते है । (विसुनिया ) पारदारिक परस्त्री - लम्पट रूप से प्रसिद्ध हुए कितनेक मनुष्य ( घणणास ) अपने धनके विनाश को और ( सयणविपणास ) आत्मीयजनो के विनाशको ( पाउणति ) प्राप्त करते हैं । तात्पर्य इसका यह है की परस्त्रीलपट व्यक्ति के पास राजपुरूष आकर उसके धन को छीन लेते है । और बाधकर उसे दड देने के निमित्त कारागार मे ले जाते है । अथवा परस्त्री को प्रसन्न करने के लिये पारदारिक मनुष्य अपने पिता आदि द्वारा उपार्जित 66 હાવાને કારણે અથવા વિવેક રહિત ખની જવાને કારણે विमयविसउदीरएहिं सत्येहिं एकमेक हणति " शब्दाहि विषयश्य विषना प्रभार शस्त्रो वडे अहरो शहर सीने भेड जीनने भारी नाथे के " अपरे ' डेटला सोने परदारेहिं हम्म ति " परस्त्रीओ द्वारा शाय छे બીજા બળવાન પરસ્ત્રીગમન કરનારા પુરૂષા દ્વારા પુરુષોને મારી નાખવામા આવે છે विसुणिया ’ પરસ્ત્રી લપટ ગણાતા કેટલાક પુરુષા 46 धणणा स " घोताना धननो नाश भने “ सयण विप्पणास " आत्मीय नोनो नाश " पाउणति " नोतरे तेने लावार्थ मे छे डे પરસ્ત્રીંગામી પુરુષની પાસેથી રાજપુરુષા તેમનુ ધન જપ્ત કરે છે, અને તેને ગાધીને શિક્ષા કરવાને માટે કેદખાનામા લઇ જાય છે અથવા પ્રાને રીઝ વવા માટે પરગામી પુરુષ પોતાના પિતા આદિ દ્વારા 66 ઉપાર્જિત ધન તે અથવા પરસ્ત્રીને કારણે મૈથુન સેવનમા આસક્ત Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vas प्रभास - सीयाए दोबई एयकए, रूप्पिणीए पउमावईए ताराए कंचणाए रत्तसुभदाए अहिन्नियाए सुवगगुलियाए किन्नरीए य सुरूव विज्जुमईए रोहिणीए य, अण्णे य एवमाइया वहबो महिलाकए सुब्बति अइकंतासंगामा गाम धम्ममूला। अबंभसेविणो इहलोए तावनट्ठा परलोए य नहा महया मोहतिमिरधयारे घोरे तसथावरसुहुम वायरेसु पनत्तमपज्जत्तसाहारणसरीरपत्तय सरीरेसु य अडय पोयय जराउय रसय ससेइम समुच्छिम उभिन उववाइएसु. य नरग तिरियदेवमाणुससु जरामरणरोगसोगवहुलेसु पलिओवमसागरोवमाइ अणादीय अणवदगंदीहमद चाउरंतससारकंतारं अणुपरियति जीवा महामोहवससनिविठ्ठा॥१४ टीका-' मेहुणसगासपगिद्वाय ' मैथुनसक्षासम्पदाथ मैथुनाऽऽसक्ताः 'मोहमरिया' मोहभृता. अज्ञानपूर्गा , 'सियरिसउदीरएहि वपयरिपोदीरकै % ___ इस तरह यहा तक सूत्रकार ने अब्रह्म नामके चतुर्थ द्वार का यह पाचवा अन्तरि कहा, अब वे पूर्व में अनुक्त" यथा कृतम् " इस तृतीय अन्तार को और " यत्फल ददाति" इस चतुर्थ अन्तार को प्ररूपित करते हैं-' मेहुणे सण्णा सपगिद्धाय ' इत्यादि। टीकार्थः--( मेहुणसण्णा सपगिद्धा य ) जो प्राणी मैथुन सज्ञा में आसक्ति से युक्त होते हैं अर्थात् मैथुन में अत्यत आसक्त रहते हैं वे - આ રીતે અહી સુધી સૂત્રકારે બ્રહ્મ નામના ચોથા અધર્મકારનું પાચમુ અન્તર્ધાર વર્ણવ્યું હવે જેનું વર્ણન કરવાનું બાકી રાખ્યુ હતુ તે " यथा कृतम् " नाभना त्रीan मन्तरिनु तथा “ यत्फल ददाति " ते यात्रा मन्तरिनु प्र३५ अरे छ--" मेहुणसन्ना सपगिद्धा य " या य!" मेहुणसण्णा सपगिद्धाय" wal भैथुनमा मत्यत HEAST २७ छ तम्या "मोहमरिया " ते भैथुन३५ मना माथी सरपुर Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदर्शिनी टीका ० ४ सू० १४ धतुर्थमन्तोगनिरूपणम् भिन्दन्ति-समयान = मिद्धान्तान धर्मान् युनचारिपलभणान-गगान-सममामाचारिजनसमूहान रिनाशयन्ति 'परदारी' परदारिणः परस्त्रीसक्ताः। तथा 'धम्मगुणरयाय' 'धर्मगुगरताश्च = सदाचारपरायणाः 'वभयारी ' ब्रह्मचारिण 'खणेण ' क्षणे नैर = अल्पगलेनैव - बहु कालरक्षितादपि 'चरित्ताओ' चारित्रात् ' उल्लोदृति' उरोटयन्ति-निपतति । 'जसमन्तो' यशश्विनः 'मुन्चया य मृनाथ = प्रतपरिपालकाः अपि ' अजमवित्ति' अयशकीति'पाति' प्राप्नुवन्ति । 'रोगता' रोगार्ना ययादिगेगग्रस्ताः 'वाहिया' व्यारिता कुरादिरीडिताः रोयही रोगव्याधीन 'बड़ति' वर्धयन्ति तेन 'दुयलोए दुराराहगा भवन्ति' द्वयोश्च लोकगोद्गराधम = आत्मविराधका अपने सिद्धान्तों को, (धम्मे ) श्रुचारित्र रूप धर्मको, एव (गणे य) समान मामाचारी थाले गण को (भिंदति ) नष्ट कर डालते हैं। तथा(धम्मगुणरया य) जो धर्मगुण रत-सदाचारपरायण (घभयारी) ब्रह्मचारी होते है वे भी (खणे ण) क्षण भर में (चरित्ताओ) पहनकाल के सुरक्षित अपने चरित्र से इसी एक दगुण के वश से (उल्लोटति) निपतित हो जाते है । तग (जसमतो) जो यशस्वी एव (सुन्धया य) व्रतों के आराधक होते है वे भी इसी कारण ( अजसकित्ति) अपकीर्ति को (पावेति ) प्राप्त करते है (परम्म दाराओ जे अविरया) इस परदार सेवन से जो प्राणी अविरत होते है वे (रोगत्ता) क्षयादि रोगों से ग्रस्त हो जाते है और (वारिया) कुष्ठ आतिव्याधियों से पीड़ित होते रहते है, इतना ही नहीं फिर आगे के लिये वे रोगों को और व्याधियो को घढा भी लेते है । इस तरह (दुवे य लोए इहलोए परलोए चेव) " धम्मे" श्रुत याश्त्रि ३५ धमना भने "गणे य" समान सामायावाणा सभूडान "मिंद ति" नाश न ना छ तथा " धम्मगुणरया य"२ साली पशु तसहाया२ ५२।य], "बभयारी" प्रझयारी हाय छे तया पर "सण" क्षयवारमा " चरित्तोओ" सामा समययी सुरक्षित राणेसा पाताना शारिरथी से शुने अधीन 252 “ उल्लोट ति" प्रष्ट 45 सय छ, तथा “ जसमतो" यशस्वी भने “ सुव्यया य" प्रताना PARTY डेय छ, ते ५ मे २0 “ अजसपित्ति " २५५४ीत " पावे ति" पास छ “परस्सदागओ जे अविरया " . ५२मनमा २ वा सतत माया २९ तेस। “रोगता " स्यादिशगाना ५नमा अपाय छ भने "वाहिया " ४ आदि व्याधिसाथी पीया २ छ भेट नही પણ ભવિષ્યમાં તેમના તે રોગો અને વ્યાધિઓ વધતા જાય છેઆ રીતે तेय" दुवेय लोए-परलोए चेव" भन्न सभा मामा भने ५२४भा ro Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ્રee serererred 1 , छन्ति, तत्र प्रतियन्धकान स्वजनानपि पारदारिका निम्नन्तीति । के इत्याह1 'परसदाराओ जे अरिया' परम्य दारेभ्यो येनिरता: परखी मरमान निरताः परस्त्रीसङ्गपरायणाइत्यर्थः । ता मेणसणासपविद्धाय ' मैथुनसमासम्म गृद्धाथ ' मोहभरिया ' मोहभृताः = मोहग्रस्ताः ' अस्माहत्योगाय ' अश्वाः efiant area' after महिया' ' मिगाय' मृगाथ ' एवमेक्क' एक = प्रत्येकं परस्परमित्यर्थ' 'मारे ति' मारयन्ति । ' मणुयगणा ' मनुजगणा 'वा नराय ' वानराय ' पवखोय' पथि 'रिइति ' दि=cret विशेष प्राप्नुवन्ति । तथा मैथुन सेचनात् 'मित्ताणि मित्राणि ' सिप्प मिशीघ्र 'सत्तू ' शानो भवन्ति, पुनच 'समयधम्मगणेयभिदतिं ' समयधर्मगणांच किये हुए द्रव्य को उसके लिये दे देते हैं, और जो इस विषय में उनके लिये कोई आत्मीय प्रतिक होता है उसे ये मार डालते हैं । ( परस्पराओ जे अविग्या ) यह मन कुकृत्य के ही व्यक्ति करते हैं। जो पर की स्त्रीयो के सेवन करने रूप अकृत्य से विरत नहीं होते हैं। तथा - इसी तरह (मेगस गामंपगिदा य) मैथुनमज्ञा में आसक्त ( मोरभरिया ) मेथुनमजा से विमोहित मतिवाले अज्ञानी प्राणी ( अस्मात्थी गवा य महिमा मिगा य ) अश्व, हस्ती, गाय, महिष. मृग हैं वे भी ( एकमेक मारेंनि ) आपस मे एक दूसरे को मार डालते हैं । इसी तरह ( मणुग्रगणा) मनुष्यगण ( वानराय) बदर एव (पक्वीय) पक्षी भी ( विरुज्झति ) एक दूसरे का विरोध करते है तथा ( मित्ताणि खिष्प भवति सत्तू ) इसी कर्म के सेवन से मित्रजन भी शीघ्र शत्रु बन जाते हैं । फिर जो पारदारिक परस्त्री में आसक्त होते है वे (समय) સ્ત્રીને આપી ઢ છે, અને તેના એ પરસ્ત્રીગમનના કૃત્યમા જે કઈ સ ખ ધી ↓ 66 भाउजीसी ३५ थाय छे तेभने भारी नाचे छे " परस्सदाराओ जे अविश्या' જે લેક પરસીગમન રૂપ કૃષ્કૃત્યથી વિરકત થઈ શકતા નથી તે લેાકા જ આ अधा मुहैत्या उरे छे तथा मे ४ प्रमाणे " मेहुण्सण्णा सपगिद्धाय " भैमैथुन સત્તામા આસક્ત, माहभरिया " મૈથુન સજ્ઞામા વિમાહિત મનવાળા અજ્ઞાની "अस्साद्दत्थी गवा य महिसा मिगा य " अश्व, हाथी, गाय, लेस भृगू, આદિ પ્રાણીઓ પણ 11 एकभेक मारेति " આપસમા લડીને એક ખીજાને મારી નાખે છે. એ જ રીતે “ मणुयगणा " मनुष्यो,Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १४ चतुर्थम तारनिरूपणम् येपाते तपा। तथा 'मेहुगमूला य' मैयूनमूगश्च स्त्री हेतन एवेत्यर्थः 'तत्य तत्य' तत्र तत्र लोके शालेच 'इत्तपुया' वृत्तपूर्वाः भूतपूर्ण 'जमक्खयकरा' जन क्षपका जनसहारकारका.-रामरावगादीना 'सगामा' मग्रामाः 'मुन्धति' भूयन्ते । कस्या. कस्या तिस-निमित्त सग्रामा जाताः ? इत्याह___ 'सीयाए दोवईए कए' सीतायाः द्रौपद्यावत-सीताद्रौपदीनिमित्तमित्यर्थः एव 'रुप्पिणीए पउमाई-ताराए करणाए रत्तमुभदाए भहिनियाए चुपण्गगुलियाए फिनरीए य मुरुनविजुमईए रोहिणीए य' रक्मिण्या', पभारत्या', ताराया., काञ्चनायाः, रक्त सुभद्राया., अनि माया. सुवर्णगुटिकाया', किन्नर्मात्र जाता है। ता (मरणमूला य तत्य तत्य वत्तया जगत्वयकरा सगामा सुवति) लोक और शास्त्र में जितने भी पहिले राम रावण आदि के जनक्षय कारक मग्राम हुए सुने जाते है ये मग मैथुनमूलक ही हुए है। इन सर लोक और शास्त्र प्रसिद्ध यत्र तत्र हुए सत्रामों फा मूळ कारण एक स्त्री हुई है ।। अब सूत्रकार इसी बात को विशेष स्फुट करते है किस २ स्त्री के निमित्त सग्राम टा है इस चिपक को कहते है-'सीयाए' इत्यादि। टीकार्यः-(सीयाण, दोरई" य कए ) सीता और द्रौपदी के निमित्त (रूपिण्गीए, पउमाईग, ताराए, कचगार, रत्तमदाये अहिनिया सुवण्गगुलियाए, किन्नरोग, सुरूव विजुमई, रोहिणी य) रुक्मिणी के निमित्त, पद्मावती के निमित्त,तारा के निमित्त, कांचना के निमित्त, रक्त सनद्रा के निमित्त, सुवर्ग गुटिका के निमित्त, किन्नरी के निमित्त, नाश पाभ्यो सराय छ त “ मेहुण मूला तस्य तत्य वत्त व्या जणरूपयारा सगामा सुपति " मा सुष्टिमा राम श१९] माह येना मामानी सय કરનારા જે આગ્રા થયા છે તથા શાસ્ત્રોમાં જે સ ગ્રામ વર્ણવવામાં આવે છે તે બધાનુ મૂળ વાણુ મિથુન જ છે તે બધા કપ્રસિદ્ધ તો અપ્રસિદ્ધ સ્થળે સ્થળે થયેલા સંગ્રામનું મૂળ કારણ કેઈ ને કોઈ સ્ત્રી જ હતી - હવે સૂત્રકાર એ બાબતનુ વધુ સ્પષ્ટિકરણ કરે છે-ક્યી કથા -મીઓને २) भाभी या ते ताव छ-" सीयाए " माहि ट -" सीयाए, दोवईए य कए" भीती मने द्रौपदीने हो " रुपिण्णीए, पउमावई ताराए, कचणाए, रत्तसुभदाए, जहिन्निगए मुअण्ण पुलियाए, किन्नरीए, सुरिज्जुमईए, रोपिणीए य" भएन निमित, शनाने નિમિત્ત, તારામતીને નિમિત્તે વાચનાને નિમિત્ત, રક્તસમુદ્રાને નિમિત્ત, અહનિકાને નિમિતે, સુવર્ણ ગુટીકાને નિમતે, કિજીને નિમિત્ત, સૌદર્યવતી Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० भवन्ति । कयोर्द्वयोर्लोकयोः इत्याह हो चेन परलोके चैन-जन्मनि परलोके च परजन्मनि । के ते ? इत्याह- परस्स दाराओ जे अरिया' परस्य दारेविताःचवीपरायणाः । ' तद्देन ' तरेन 'के' केचित् 'परसदार गवेलमागा' परस्य दारान गरेरमाणा' परस्त्रियमन्येपयन्त, = 'गहिया य ' गृहीताथ जने: ' हयाय ' हताथ = ताडिताः ' वहरुद्वा य' बद्ध रुदा=ज्ज्याविभिद्राः सतः पञ्जरादौ निद्रा पर 'जार गउन्ति ' यात अधोगति प्राप्नुवन्ति ' अत्र यास्पदग्रहणेन तृतीयाध्ययनस्थित' ' गहि या द्वा य' इत्यारभ्य 'नाए गच्छति गिरभिरामे' इत्येतदन्त' पाठोत्र बोध्य इति मुक्तिम् । के ते इत्याह-ये 'मोदाभिभूय सण्णा' मोडाभिभूतसज्ञा मोहेनानेन कामान्यतया या अभिभूता- परीभूता ना मना समद्विवेकमशा दोनों लोको में-इम रोक और परलोक (दुराराहगा ) आत्म विरोधक (भवति) बनते है । तथा ( तहेव ) इसी प्रकार ( के परस्सदार गवे - समाणा ) जो परती की गवेषणा करने में रत रहते हैं वे यदि उस कार्य को करते समय (गहिया य ) पकड़ लिये जाते हैं तो ( हयाय ) बहुत बुरी तरह ताडिन किये जाते हैं । और ) ( वढ स्द्वा य ) रस्सी आदि से बाधे जाकर पजर आदि में वध कर दिये जाते हैं । ( एव ) इस तरह (जान) यावत् यहां यावत् गम से तृतीय अध्ययन में कथित " गहिया य बद्धरुद्वाय " इस पाठ से लगाकर "नरण गच्छति रिभिरामे) तक का पाठ लिया गया है । जिससे यह समझोया गया है कि अन्त में ऐसे जीवोकी बडी दुर्दशा होती है और वे मर कर नरक में जाते है । क्योकि ( चिडलमोहरा भूरसण्णा) ऐसे मनुष्यो का विपुल अज्ञान से अथवा कामान्धता से मद मद्विवेक निलकूल नष्ट होता I " दुराराहगा आत्मविशेष " मवति " जने छे " तत्र " से ४ प्रभा " वेइ परस्सादार गवेसमाणा " ने परस्त्रीनी शोधभा तीन रहे छे, तेथे ले ते जय ती वध्यते " गहिया य " पडाई लय तो " हयाय " घाशी ८. वद्धरुद्धाय "" દેરડા જ ખરામ રીતે તેમને મારવામા આવે છે, અને આદિથી જકડીને પાજરા આદિમા પૂરી દેવામા આવે છે ८८ 27 एवं આ રીતે 6" 'जाब " यावत्-मही यावत् शब्द पडे त्रीन अध्ययनमा अडेस " गहियोय नद्धरुद्धाय” थी सधने "नरए गच्छति णिरभिरामे " सुधीने! या सेवाभा આવેલ છે તેમા એ સમજાવવામા આવ્યુ છે કે છેવટે તે જીવાની દશા ભૂરી थाय छे भने तेसो भरीने नरसुभा लय छे, अश्शु के "विउलमोहा भूयसण्णा" એવા મનુષ્યને મદસ વિવેક, અજ્ઞાનથી અથવા કામાધતા ને લીધે બિલકૂલ ܙܕ router Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९३ सुशिनी टीका म० ४ ० ४ १४ चतुर्थमन्तरिनिरूपणम् साहारणसरीरपत्तेयमरीरेस' पर्याप्ताऽपर्याप्तफसाधारणशरीरमत्येकशरीरेषु च जन्ममरण कुर्वन्ति । ततोऽपि नि.मृत्य · अड य पोयय जराउय रस यस सेइम समुन्छिम उभिज्ज उपराइएमु य ' तत्र अण्डजा-पक्षि मत्स्यादयः 'पोयन' पोतना इस्त्यादय 'जराउय ' जरायुजाः मनुष्यादयः, 'रस य' रमजा निकृतरसेपु समुत्पन्नाः 'ससेइम' सम्वेदिमा' सस्वेदात् जाता यूका मत्कुणादयः 'समुच्छिम' समूच्छिमा:समूनि जाताः दर्दुरादयः 'उभिज्ज' उद्भिज्जाः पृथियो मुद्भिध जाता: शलभादयः 'उपवाइय' औपपातिमादेव नारकादयश्च, इत्येतेषु च नरगतिरियदेवमाणुसेग्म' नरकतिर्यग्देनमानुशेषु कीदृशेषु ? इत्याइ-' जरामरणरोगसोगपहलेस' जरामरणरोगशोकमहुलेपु(तसवायरमुहमाघायरेसु )वस, स्यावर, सूक्ष्म, चादर इन कायों में, तथा (पजत्तगपनत्तसाहारणपत्ते य मरीरेसु य) पर्यातक अपर्याप्तक, माधारणशरीर, प्रत्येक शरीर इन पर्यायों में जन्म मरण करते है । वहा से भी निकल कर वे ( अड य पोयय जरास्य रस य ससेहम समुच्छियाभिज्जउवयाइएसु य) अडज जीवों में-पक्षी मत्स्य आदिकों मे, पोतजजीयो में एस्ती आदिकों में, जरायुज में-जरा से पैदा होने वाले मनुष्य आदिकों में, रसज जीनों में-विकृत रसोंमे उत्पन्न होने वाले कृमि आदि जीवोंमें, सस्वेदिमोमे पमीनेसे रोनेवाले युका, मत्कुण आदि जीवोंमें, सम्रमि जन्मपाले दर्दुर ( मेढक ) आदि जीवो में, उद्भिज्ज जोचो मे-पृथिवि को भेद्का उत्पन्न होने वाले शलभ आदि जीवो मे औपपातिक जन्म धारी देव और नारकियो मे उत्पन्न होते है । तथाचे (जरामरणरोगसोग पहले नु नरगतिरियदेवमाणु मेसु ) जरा, मरण, रोग, शोक वहुल, नरक, " तसथावरमुदुमवायरेसु" साय, स्था१२७।य, सूक्ष्माय भने १२॥यामा तया " पजत्तमपज्जत्तसाहारणसरीरपत्तेयसरीरेसु य ” पर्यात, मर्या४४, સાધારણ શરીર, પ્રત્યેક શરીર આદિ પર્યામાં જન્મ મરણ અનુભવે છે स्याथा पर नीजान तेगा " अडय-पोयय-जराउय-रसय ससे इम-समुच्छिय उभिनउवाइण्सु य” २५१ यामा-पक्षी मत्स्य हिमा, पोतर મા હાથી આદિમાં જરાયુજમાં મનુષ્ય આદિ મા રસ જ છવામાં वित २सभा Gपन्न यना२ मि मा वामा, सस्वेदिमा मा ५२सेवायी ઉત્પન્ન થનાર જ, માકડ આદિ જવોમા, સ મૂછિમ જન્મવાળા દેડકા આદિ મા, ઉદ્ધિજજીવોમા-પૃથ્વીને ભેદીને ઉત્પન્ન થનાર તીડ આદિ જીરામા, भी५पातिक व भने नासामा सत्पन्न याय छे तया तो “जरामरणरोगसोगबहुलेसु नरगतिरियदेवमाणुसेसु" २१, भ२९, २॥ मने विve Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨ प्रेमम्याकरणसूत्रे , 1 सुस्परिन्मत्याः रोहिण्यान, ततत्स्थानममिद्वायाः कृते मग्रामा अभूवन् । आसा चरित तु तत्तद्भ्याऽनलेयम् । 'अण्णे य पाया वो महि कए' अन्ये चैनमादिकाः =ए प्रकाराः = हरः अनेके महिलाकृते = खीनिमित्त 'अतिषता ' अतिक्रान्ताः भूतपूर्वाः 'गामधम्ममूला ग्रामधर्ममूला:= मेथुन मूलका: ' सगामा सग्रामा जाता छवि, 'सुव्यवि यन्ते=लोके शास्त्रे च । ते चाब्रह्मसेविनः ' इहलोए तारनहा ' इहलोके तारनष्टाः = परस्त्रीगमनेनाऽऽत्मविका जाताः, 'परकोए य नहा ' परलोके च नष्टाः अमहति प्राप्ताः केन केन प्रकारेण परलोको नटामन्तीत्याह-- इतो मृत्या 'महयामोहतिमिरधयारे ' महामोदतिमिरान्धकारे - महामोह एवं तिमिरान्धकार = गाढान्धकारो यत्र स तया तस्मिन् घोरे भयङ्करे एतादृशे नरके गच्छन्ति । ततो निःसृत्य तस्यावरसुमनारे ' सस्थानसूक्ष्मवादरेषु' तथा ' पत्तपत्त ( , 3 रूप विद्युन्मती के निमित्त और रोहिणी के निमित्त सग्राम हुए हैं ( अण्णे य एवमाइया पहवो ) तथा इसी तरह के और भी अनेक ( अहकता ) भूतपूर्व सग्राम ( महिलाकए ) इसी मैथुन सेवन निमित्तक हुए (सुव्वति) लाक और शास्त्र मे सुने गये हैं । ( अयमसेविणो इरलोए तावनट्ठा परलोए य नट्ठा ) ये अब्रह्मसेवीजन इसलोक मे तो नष्ट होते ही है, साथ २ में परलोक में भी नष्ट होते हैं, अर्थात् परस्त्री सेवन से जीव इसलोक में आत्मविराधक होकर परलोक मे भी अस गति को प्राप्त करते हैं । जब वे यहा से मरते है त ( महया मोह तिमिरवयारे ) महामोहरूप गाढ अधकार से आच्छादित हुए (घोरे ) भयकर नरक में जाकर उत्पन्न होते है । वहा से जब वे निकलते है तब " अण्णेय " लू 66 વિષ્ણુન્મત્તીને નિમિત્ત, અને રાહિણીને નિમિત્તે સગ્રામા થયા હતા, माझ्या बहवो " तथा ते अजरना भीम पशु भने अइक्कता 'महिलाकए કાળના સગ્રામા એ જ મૈથુન સેવનને નિમિત્તે થયાનુ " सुन्नति ” सोअभा तथा शास्त्रोमा सालणवामा आवे छे 66 1 " अत्रभसेविणो इहलोए तावनट्ठा परलोए य नट्ठा " ते मैथुन સેવી લેાકેા આ લામા તેા નાશ દુર્દશા પામે જ છે. પણ પરલેાકમા પણ નષ્ટ થાય છે, એટલે કે પરસ્ત્રીસેવનથી લેકે આ લેાકમા આત્મવિરાધક થઈને પરલેાકમા પણ દુર્ગતિ પ્રાપ્ત કરે છે, જ્યારે તેઓ અહીથી મરણ પામે છે ત્યારે महया मोहतिमिर धयारे " भडाभोडश्य गाढ मधजरथी छवायेसा " घोरे " लय ३२ नरम्भा ने उत्यन्न थाय छे त्याथी नीउणीने तेथे 66 • Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका १० ४ सू० १५ भायपनोपसंहार एय त अवभपि चउत्थ सदेव मणुयासुरस्स लोगस्स पत्थणिज एव चिरपरिचियमणुगय दुरतं तिमि ॥सू०१५॥ ॥ चउत्थ अहम्मदार समत्तं॥ टीका-'सो सो' एप स. पूर्वोक्तः 'अबभस्स फलविगगो' अवामगः फरिपाक 'इन लोडओ' ऐहलौफिक -मनुष्यभवापेक्षया, परलोइमो य' पारोमिश्र नरमाद्यपेक्षया ' अप्पमुहो' अल्पसुखा - क्षणमानसुखजनस्त्यात्'यहुदुक्यो' दुस्स:-प्रचुरदुःखहेतुत्वात् ' महभयो' महाभय -धवन्धन जन्ममरणादिभयोत्पादकखाद 'बहुरयप्गगाढो' बहुरजः प्रगाढ-कर्मदलिकाहुखान् ‘दाम्गो' दारण:-चतुर्गतिससारभ्रामकत्वात् 'कमो' कर्कशः दशविध अब इस प्रक्ति अत्रत्म विपर का उपसहार करते हुए सरकार करते है-'एमो सो' इत्यादि। . टीकार्थ-(एमो सो) यह पूर्वोक्त (अयंभस्स) अब्रह्म-कुगील सेवन का (फलविवागो) फलरूपविपाक (इहलोइयपरलोडओ य) मनुप्य भव की अपेक्षा तथा नरकादि गति की अपेक्षा (अप्पसुहो) क्षणमात्र मुग्न का जनक होने से अल्पगुग्वरूप है तथा ( वस्खो ) प्रचुर दुस का हेतु होने से महादुःखप्रद है, (महमओ) यव, बंधन, जन्म, मरणादि के भय का उत्पादक होने से महाभय स्वरूप है। (बहुरवप्पगाढो) ऐसे कर्म करने वालो को कर्मों की स्थिति और अनुभाग यात अधिक मात्रामें वधाता है इसलिये वह हरजःप्रगाढरूप है। (दारूणो) चतुर्गति रूप सप्तारमे ऐसे जीवोका ही भ्रमण होता है-अतः | હવે આ પૂર્વોક્ત અબ્રહ્મ વિષયને ઉપસાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે– " एसो सो" त्यादि sil -“ एसो सो" मा पूर्वहित “ अपभस्स" समझ-यारित्र सपना “फरवितागो" विपाई " इहलोइयपरलोइओ य" मनुष्य अपनी अपेक्षा " अप्पसुहो" मात्र सुमन न डावाने ४२ो मसु ३५ छ, तथा " बहुदुक्सो" सत्यत मना तु डापायी मला म छ " महन्भओ " १५, ५न, भ, भ२ गालियन Grotes पाथी महासय ५३५ छ, “ हरयप्पगादों" गोवा उर्भा -२ना२२ भनी स्थिति અને અનુભાગ બહુ જ વધારે પ્રમાણમા બધાય છે તેથી તે બહુ જ પ્રગાઢ३५ ले " दारणो' सवा छाने । २ गति ३५ 4 साभा प्रभ५ ४२५ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण चोत्पयन्त, तन' पलिओउमसगरोउमाउ । पल्पोपप्तागरोपमानि = पल्योपम सागरोपमकाल यानत् केचित्परिभ्रमन्ति । ये तु 'अणादिय' अनादिव आदिवनित ' अणपदग्ग' अनवदनम् अनन्त 'दीदमद' दीर्घाऽधानन्दीर्घ मार्ग' चाउरतससारकतार । चरन्तसमारकान्तार = देशमनुप्यनारतिय ग्लक्षगचतुर्गतिकमसारमहारण्य, ' महामोहरससनिविट्ठा जणा ' महामोहवशसनिरिधानना:-महामोहवशगता अनाम सेरिना जनाः 'अणुररियत्ति ' अनुपर्यटन्ति अनन्तकालपर्यन्त्रपरिभ्रमन्ति ।। सू० १४ ॥ पूर्वोक्त निगमयन्नाह-'एसो सो' इत्यादि मूलम्-एसो सो अवभस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ य अप्पसुहो बहुदुक्खो महन्भो बहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो असाओ वासप्तहस्सेहि मुच्चइ, नय अवेदइत्ता अस्थिहुमोक्खो त्ति। एवमासु नायकुलनदणो नहप्पा जिणो उ वीरवर नाम धेजा कमि य अवभस्त-फलविवागं। तियं च देव ऐय मनुष्यों में जन्मते हैं। इनमें (पलिभोवममागरोवमाइ) कितनेक जीव पल्योपमप्रमाग कालतक और किसनेक सागरोपम प्रमाण काल तक घूमते रहते है । और कितनेक ऐसे भी होते है जो ( महामोहवससनिविट्ठा) महामोह के वशवी होकर (अणादिव अणवदर्ग) अनादि अनन (दीरमद्ध) उत्सपिणी अवसर्पिणीरूप दीर्घमार्ग युक्त (चाउरतससारकनार ) देव-मनुष्य नरक एव तिर्यश्चगतिरूप चारगति. वाले समार कातार में अनतकालतक ( अणुपरियति ),परिभ्रमण करते रहते है ॥ सू०१४ ॥ શમય નરક, તિર્યંચ, દેવ અને મનુષ્ય એનિમા જન્મ પામે છે, તેમના " पलिओवमसागरोवमाइ "टमा । ५.यापम प्रमाणात सुधी भने કેટલાક સાગરોપમ પ્રમાણુ કાળ સુધી તે એનિમાં ભ્રમણ કર્યા કરે છે અને उals wो मेवा पाय डाय छ रे " महामोहवससनिविद्वा" भाभी ने अधीन थाने "अणादिय अणवदग्ग" मनासिनत "दीहमद्ध" उत्सपिथी सपिए ३५ हा भाग युवत " चाउर तससारकतार " देव मनुष्य, न२४ भने ति य मे या२ गतिमा ससार तारमा सनdstn सुधी " अणुपरि थति" परिश्रम या रे छे ॥ १४॥ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा १०४ सू० १५ अध्ययनोउपसहार जिनः वीरवरनामधेयः-प्ररयातनामा भगवान् श्रीमहावीरोऽपि 'अपभस्स' अनह्मणः 'फलविवाग' फलनिपाक ' सहेसिय' कथितनाश्च 'एय त' एत तत्-उपदर्शित स्वरूपम् ' अषभ ' अब्रह्म-अब्रह्मनामक ' चउत्य' चतुर्वमधर्मद्वार ' सदेवमणुयामुरस्स लोगस्स' सटेवमनुनासुरस्य लोकस्य 'पत्यणिज्ज' प्रार्थनीयम्। एव 'चिरपरिचिय' चिरपरिचितम् , जनादि कालादनुभूयमानम् 'अणुगय ' अनुगत-माणिना पृष्टतोलग्न, दुरन्त-दुःखारसान च । 'त्ति वेमि' इति सीमि, एतद् जम्मृस्वामिन प्रति मुधर्मस्वामि पाक्यम् ॥ सू० १५ ॥ इति श्रीप्रश्नव्याकरणस्य मुदर्शन्यारयाया व्यारवाया हिंसादि पञ्चास्रवद्वारेपु अदत्तादानाग्य चतुर्थमधर्मद्वार ममाप्तम् ॥३॥ (एव) हम प्रकार का कथन (आहसु) भूनपूर्व तीर्थकर गणधरादिक देवों का है। और इसी प्रकार से अवस्म के फलविपाक उन्ही तीर्थकरो के कहे अनुमार (नायकुलनदणो) सिद्धार्थकुलको आनद देनेवाले (महप्पा जिणो उ ) महात्मा जिनेन्द्र (वीरवरनामधेज्जा) वीरवरनेश्री वर्धमानस्वामी ने भी (अपभस्स) अब्रह्म के (फलविवाग) फलविपाक को (कहेसिय) कहा है (एयतं) यह वह (अवभ) अब्रह्म नाम का (चतुत्य) चतुर्थ अधर्मद्वार ( देवमणुयासुरस्स लोगस्स) देव मनुप्य और असुर लोक इन सब के यह (पत्थणिज्ज) प्रार्थनीय है, अर्थात् इस अत्रम का ये देवादि सेवन करते हैं। (एव) इस प्रकार यह (चिरपरिचिय) जीवों के पीछे अनादिकाल से लगाटुआ चला आने के कारण (अणुगय) अनुभूयमान है और (दुरत) इसका अवसान (अन्त)से दुरन्त मा प्रानु उयन “ आहसु" भूतपूर्व तीर्थ ४२ गधाs वोनु छ भने ते शतक मप्रझना सविपाउनु भयन तेती ४२ना उवा प्रभारी "नायकुल नदणो" सिद्धार्थ ना जगन मान हेना२ “महापाजिणो उ" महात्मा लिनेन्द्र " वीरवरनामधेजा" वा२१२ श्री भान वाभीमे ५५ " अपभरस" अप्रहाने। " फलविवाग" पिपा " कहेसिय" स छ “ एयत" माते “ अवम" भम्रा नामनु " चटत्य " याथु मधवार “ देवमणुयासुररस लोगरस" १५ भनुष्य, मने मसु. ते मधाने ते “ पत्थणिज" प्रायनीय छ, मेरो है वाहत अमानुपन २ छ “एव " मा शते ते "चिरपरिचय " ७वानी पाछ मन stuथी यायु आवे छे तेथी " अणुगय " मनुसूय प्र०६३ - Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ deraterणसूत्रे क्षेत्रदानात् 'माओ' अमातः = सात वेदनीयः - मत्यादयात् 'वान सहस्सेहि ' से नेकपल्योपमसागरोपमादिरा गोगेन 'मुन्च' मुच्यते । तदेव व्यतिरेक्युसेनाह--नय अदत्ता' नपादयिता= उपभोग विना न 'योक्खति ' मोक्षोऽस्ति । ' एवं ' उक्तरीत्या 'आहगु' ऊचुः कथितनन्त भूतपूर्वास्तीर्थङ्करगणधरादयः । तथा तदनुमान 'नायकुनो' ज्ञातकुलनन्दनः - सिद्धार्थकुलानन्दकर' ' महप्पा' महात्मा-परमात्मम्पः 'जिणो' ४९६ 131 13 चतुर्गनिरूप समारमें भ्रमण करवानेका कारण होनेसे यह दारुण है । (कामी) दश प्रकार को क्षेत्रवेदना का जनक होने से यह फलविपाक कर्कश है। (असाओ) असातावेदनीयरूप होने से यह असात है-अर्थात् असातावेदनीय कर्म के उदय से यह उत्पन्न होना है इसलिये अमातावेदनीयकर्म के द्वारा उत्पाय होने के कारण यह स्वयं असातस्वरूप है । अथवा इस प्रकार के नर्म करने वाले जीव जो फलविपाक भोगते है । उस समय वे असातावेदनीय कर्म का वध करते है, - कारण फलनिवाक भोगते समय उनकी आत्मा मे दुःख शोक-ताप आदि भाव होते है इन भावों से जीव असातावेदनीय कर्म का आस्रव करता है । इस अपेक्षा से असातावेदनीय कर्म का उत्पादक होने से यह फलविपाक असातरूप माना गया है । (वाससहस्सेह) यह फरविपाक जीव पल्यो पमकालतक भोगने से (मुच्चह ) छूटता है । (नयअवेदइत्ता अस्थि हु मोखो ति) इस फलविपाक का उपभोग किये बिना यह नहीं छूटता है। પડે છે, તેથી ચાર ગતિવાળા સસારમા ભ્રમણ કરાવનાર હેાવાથી તે દારુણુ " क्कसो દસ પ્રકારની ક્ષેત્ર વેદનાના જનક હાવાથી તે વિપાક કશउठोर छे " असाओ " सात वेहनीय ३५ होवाथी ते सात छे-भेट અસાતાવેદનીય કર્મીના ઉદ્ભયથી તે ઉત્પન્ન થાય છે, તેથી અસાતા વેદનીય ૮ દ્વારા ઉત્પાદ્ય હાવાને કારણે તે પાતે અસાતસ્વરૂપ છે અથવા આ પ્રકારના કર્મો કરનારા જીવેા જે ક્લિનેપાક ભાગવે છે, તે ભાગવતી વખતે અસાતાવેદનીય કર્મોના મધ ખાધે છે, કારણ ફલવિપાક ભાગવતી વખતે તેમના આત્મામા દુખ શેક તાપ આદિ ભાવ હોય છે, તે ભાવેાથી જીવ અસાતા વેંદનીય કર્મના આસ્રવ કરે છે. આ અપેક્ષાએ અસાતાવેદનીય કમ ના ઉત્પાદક होवाथी या इविया सभात३प भान्यो छे " वासमहासेहि " मा इसविधा પર્વ્યાપમ કાળ સુધી અથવા સાગરાપમ કાળ સુધી ભોગવ્યા પછી જ જીવ 21 मुचड " तेनाथी भुक्त थाय नय अवेदइता अस्थि हु मोक्खो त्ति " આ મૂળવિપાકને ઉપભાગ કર્યા વિના તે મુક્ત થઈ શકતા નથી “ ” ܝܕ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पञ्चमाध्ययनम् । भयश्चतुर्थासनद्वारसमाप्त्यनन्तर पञ्चममात्रवद्वार प्रारभ्यते, अस्य पूर्वेण सहायमभिसरन्थः । अनन्तराध्ययनेऽब्रह्मस्वरूपं प्रोक्त, तच परिग्रहे सत्येन भववीति परिग्रहस्वरूप निरूप्यते -' जम्बू' इत्यादि । मूलम् - जवू । एत्तो परिग्गहो पंचमो उ नियमा णाणामणिकणगरयण महरिह परिमल - सुपुत्तदार - परिजण दासीदासभयग- पेस्स -- हय-गय-गो-महिस- उह. खर अय-- गवेलग-सीयासगड रह जाण - जुग्ग-सदण सयणासण वाहण- कुविय-धण-धन्नपाणभोयणाच्छायण-गधमल भायण-भवणविहि चेव बहुविहियं भरह णगणगर- नियम जणवय- पुरवर - दोणमुह- खेड - कञ्चडमंडव-संवाह-पट्टण - सहस्सपरिमंडिय थिमियमेणीय एगच्छत्तं ससागर भुंजिऊण वसुह अपरिमियमेतताहमणुगय महिच्छसारनिरयमूलो, लोभकलिकसायम हक्खंधो, चितासय निचिय विउलसालो, गारवपविरल्लियग्गविडवो, नियडितया पतपल्लवधरो, पुप्फफल जस्स कामभोगा आयासविसूरणाकलहपकंपियग्गसिहरो नरवइसपूजिओ, बहुजणस्स हिययदइओ, इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ चरिम अहम्मदार || सू०१ || पाचचा आस्रवद्वार प्रारंभ चतुर्थ आस्रवद्वार की समाप्ति के बाद अब पाचवा आस्रव द्वार प्रारभ होता है । इसका पूर्व आस्रव द्वार के साथ इस प्रकार से सबध है - चतुर्थ द्वार में जो अब्रह्म का स्वरूप कहा है वह अब्रह्म, परिग्रह के होने पर ही होता है इसलिये सूत्रकार इस द्वार मे परिग्रह का स्वरूप પાંચમા આસવ-દ્વારના પ્રાર ભ ચેાથુ આવસ દ્વાર પૂરૂ કર્યાં પછી હવે પાચમા આસવ દ્વારનુ વર્ણન શરૂ થાય છે તેને આગળના આસવદ્વાર સાથે આ પ્રકારને મખ ધ છે ચોથા દ્વારમા અબ્રહ્મનુ જે સ્વરૂપ કહ્યુ છે તે અબ્રહ્ના, પશ્મિહ હાય તા જ થાય છે તેથી સૂત્રકાર આ દ્વારમા પરિગ્રહના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરે છેબ Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ प्रभम्पारपणे है नाना प्रकार के दुम्यो का दाता है। (त्ति बेमि ) ऐसा हे जवू ! में कहता है। इस प्रकार सुधर्मास्वामीने जपूस्वामी को इसके विषय में समझाया है । सू०१५॥ ॥ चतुर्थ अधर्मगार समाप्त । भान छ, भने "दुरत " तेनु मसान त -नाना माना देना छे “तिमि" मे १५ मामाभान सुधभाभी અબ્રહાન વિષે સમજાવ્યું છે. તે સ ૧૫ in ચોથુ આસવ (અધર્મ દ્વારા સમાપ્ત થયુ. Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ५०१ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् अय-वेलग-सीयासगड-रह-जाण-जुग्ग-सदण-सयणा-सण-वाहण-कुवियधण-धन्न-पाण-मोयण छायण-गध-मल्ल-भायण-भवणविहि' नानामणिकनक-रत्न-महाई-परिमल-सपुत्रदार-परिजन-दासी-दास-भृतक-प्य-हयगज-गो-महिपो-ट्र-खरा-ऽज-गवेलक - शिविका -शकट-रय-यान-युग्यस्पन्दन-शयनाऽऽसन-वाहन-फुप्य-धन-धान्य-पान-भोजना-ऽऽच्छादन-गन्धमाल्य-भाजन-मानविधिम् । तर- 'णाणामणि' नानामणयः-नाना अनेक मकारा ये मणय =चन्द्रकान्तादयः, 'कणग' कनक-सुवर्ण 'रयण' रत्नानि फर्केतनादीनि, 'महरिह परिमल' महाई परिमला: - बहुमूल्यमुगन्धिपदार्थाः, तथा 'सपुत्तदार ' सपुत्रदारा:-पुत्रसहिताः स्रियः, तथा 'परिण' परिजन - परिवार-पौत्रादिरूप, 'दासीदास' दासीदास दास्यो दास्यश्च ‘भयग' भृतका कर्मकराः, 'पेस'प्रेष्या -प्रयोजनेयुप्रेपणीयाः, ' हय' हया -अश्वाः "गय' गमाः 'गी' गाव: 'महिस' महिपाः 'उ' उटाः, 'खर ' खराः गर्दभाः 'अय' अजाः 'गवेलग' गवेवका मेपा', 'सीया' शिविकाः, 'सगड' शकटानिगन्या, 'रह' रथाः 'जाण' यानानि यानपानाणि 'जुग्ग' युग्यानि गोलदेश प्रसिद्ध जम्पानविशेषाः 'सदण ' स्यन्दनाः-स्थविशेषा', 'सयणासण' शयनासनानिशम्या आसनानि च वाहण ' वाहनानि-'तामजाम' इति देशी महिस-उट्ट-खर-अय-गवेलग-सीया-सगड रह-जाण-जुग्ग-सदणसयणा-ऽऽसण-वारण-कुविय-वण-धष्ण-पाण-भोयणच्छायण-गधसल्ल-भायण-भवण-विहिं ) चन्द्र कान्त आदि विविध प्रकार के मणि, कनक-सुवर्ण, कर्कतनादि रत्न, बहुमूल्य परिमल-सुगधित पदार्थ, पुत्रसहित स्त्रीजन, पौत्रादिरूप परिजन, दामी दास, भृतक-कर्मकर, प्रयोजन के अवसर पर भेजने योग्य प्रेष्य, हय-अश्व, गज-हाथी, गाय, महिप, ऊँट, खर-गधा, अज-बकरारकरी, गवेलक-मेप-मेढा, शिधिकापालखी, शकट-गाड़ी, रथ, यानपात्र, युग्य-गोलदेश प्रसिद्ध जम्पाविशेष स्यदन-रथ, शय्या, आसन, वाहन-तामजान, कुप्य-गृह के उपकरण महिस-उट्ट-सरअय-गवेलग-सीया-सगड-रह-जाण-जुग्ग-सदण-सयणा-ऽऽसणवाहण-कुविय-वण-धण्ण-पाण-भोयण-च्छायण-गध-मल्ल-भायण-भवण-विहि" ચન્દ્રકાન્ત આદિ વિવિધ પ્રકારના મણિ, કનક-સુવર્ણ કર્વેતન આદિ રન, બહુમૂલ પરિમલ-સુગધિત પદાર્થો, સપુત્ર બ્રીજન, પૌત્રાદિરૂપ પરિજન, દાસદાસી, ભૂત-કારીગર, પ્રજનને માટે મોકલવામાં આવનાર પ્રવ્ય (દૂત) ड्य-244, 10-थी, आय, लेसर, म धेस, २५१-५४०५ म ગવેલક ઘેટા. શિબિકા-પાલખી. રાકટ-ગાડ રથ, યાનપાત્ર, અંગ્ય, સ્વત-૨થ Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० प्रश्नव्याकरण टोका--'जबू' इत्यादि सुधर्मा स्वामी पश्चमामाहारस्वस्प जिज्ञासमान जम्न्यामिन प्रति माह'जबू' हे जम्यूः । 'एनो' इतथतुर्थासमहारादनन्तरं परिग्गहो' परिग्रह - परिग्रहण परिगृह्यते भू रूपेण मून्छापरिग्गहोपत्तो इति वचनात् धर्मोपकरण विनेत्यर्थ इति या परिग्रहः = परिग्रहतराम रक्ष्यमागविशेषणानुरोधाद परिग्रहशब्दोऽत्र परिग्रहतरुपरको द्रष्टव्यः । 'पचमो' पनमआस्रो 'णियमा' नियमात् निश्चयेन भाति, नान्याकथनातः परः आसर 1 अय परिग्रह कयम्भूतः? इत्याह-'णाणामणि ' इत्यादि । 'णाणामणि-कणग-रयण-महरिह-परिमलसपुत्तदार-परिजण-दासो-दास-भयग-पेस्स-हय-गय-गो-महिस-उद-खरनिरूपित करते हैं-'ज पत्तो' इत्यादि। टीकार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी पांचवें आस्रव द्वार के स्वरूप को जानने की इच्छचाले श्री जयूस्वामी से कहते है-(जनू) हे जम्बू ! (एत्तो) चतुर्थ आस्रव द्वार के पाद (परिग्गहो पचमो आसको णियमा) परिग्रह पाचवा आनव द्वार नियम से है। इसके बाद और कोई__ आस्रव द्वार नहीं है यह यात " नियम" शब्द से सत्रकार ने प्रदर्शित की है 'ग्ररण करना' अथवा ' जो मृच् वुद्धि से ग्रहण किया जावे' वह परिग्रह है क्यों कि शास्त्र में मृच्छाको परिग्रह कहा है ऐसी इस परिग्रह शब्द की व्युत्पत्ति है । इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह परिग्रह शब्द यहां परिग्रह रूप वृक्ष के अर्थ वाला जानना चाहिये क्यों कि इसे स्पष्ट करने के लिये जो सूत्रकार विशेषण इसी सत्र में कह रहे है वे इसी बात की पुष्टि करते है। (णाणामणि-कणग-रयणमहरिय-परिमल-सपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस्स-हय गो "जबू एत्तो" त्याह પાચમા આસવનું સ્વરૂપ જાણવાની ઈચ્છાવાળા જ બૂસ્વામીને શ્રી સુધર્મા स्वाभी -"ज" | " एतो" याथा मानव द्वार पछी “ परिगहो पचमो आसवो णियमा" नियम प्रमाणे व पायभु मानव द्वार पर ગ્રહ આવે છે ત્યાર પછી બીજી કોઈ પણ આસ્રવદ્વાર નથી તે બાબત "नियम" था. सूत्रारे मतावत " अ २९ मथवा रे ગ્રહણ કરાય તે પરિગ્રહ છે, એવી આ પરિગ્રહ રાબ્દની વ્યુત્પત્તિ છે તે ખ્યાતિ પ્રમાણે આ પરિગ્રહ શબ્દ અહી પરિગ્રહરૂપ વૃક્ષના અર્થવાળો સમજવાને છે કારણ કે તે વાતને સ્પષ્ટ કરવાને માટે સૂત્રકાર જે વિશેષ सा सत्रमाही ह्या त से पातने छ। साथै छे "जाणामणिकजय-रयण-महरिह-परिमल-खपुत्तदार-परिजण-दासी-दास-भयग-पेस्स-हय-गो .... Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी का अ०५ सू०१ परिमहस्वरूपनिरूपणम् ५०३ द्रोणमुखानि जलपथ स्थल्पथगम्याः पुरविशेपाः, 'सेड' खेडानि-धूलीप्राकार युक्तानि, 'घड' कटानि-कुत्सितनगराणि 'मडन' मडम्बानि-दूर दूर वसति युक्ता प्रदेशाः, 'सपाह' साहा-पत्र कपका धान्यादिकमानीय स्था. पयन्ति ते 'पट्टण' पत्तनानि-जलस्थल पथान्यतरपययुक्तानि निवासस्थलानि, एतेपा इन्दः, एपा यत्सहस्र तेन मण्डित-शोभित यत्तत्तादृश, तथा ' थिमियमेयणीय' स्तिमितमेदिनीक-स्तिमिता = स्वचक्रपरचक्रमयवर्जिता, मेदिनी-भूमि यस्मिन् तत्ताहगम् , तथा 'एगच्छत्त' एकच्छरम्-एकराजकमित्यर्थः, चक्रवर्तिपदप्राप्तेः पार माण्डलिकत्वे एतादृश भरतक्षेत्र परिभुज्यत्यया, तथा 'ससागर ' सागरसहिताम् ' बमुह यमुधां-समग्रा पृथ्वी च चक्रवर्तिपदप्राप्त्यनन्तर भुक्त्या, एतद्भोगेऽपीत्यर्थ., 'अपरिमियमणततण्डमणुगयमदिच्छसारनिश्रेष्ठनगर, जलपथ, स्थलपथ इन दोनो से गम्य स्थान रूप पुरविशेप धूली प्राकार से युक्त सेड, कुत्सितनगररूप कट, दूर दूर वसति से युक्त प्रदेशरूप मडर, सवाह-जहां पर कृपकजन धायादि लाकर रखते हैं ऐसे प्रदेश, जल पथ तथा स्थलपथ इन दोनों मे किसी एक पथ से युक्त पत्तन, इन सर की रजारों की संख्या से मडित, तथा ( घिमियमेयणीय ) स्वचक्र और परचक्र के भय से वर्जित भूमि से युक्त तथा (गच्छत्त) एक राजा वाले, चक्रपति पद की प्राप्ति के पहिले माण्डलिकपनेमें नगनगरादि सहित (भरह) भरतक्षेत्र को भोग करके, तथा (ससागर वमुह भुजि ऊण) चक्रवति पद की प्राप्ति के अनन्तर समुद्रसहित ममस्त पृथ्वीनो पटखड मडित भरतक्षेत्र को भी भोग करके (अपरिमियमणततण्मणुगयमहिसारनिरयमूलो) अपरिमित-प्रमाण આદિ નગર, જળમાર્ગ તથા જમીનમાર્ગે પ્રવેરા કરી રાડાય એવુ નહેર ધૂળના દિલા વાળુ ખેડ, કુત્સિત નગર રૂપ કર્બટ જેની આસપાસ ઘણે દૂર સુધી ગામે ન હોય એવું મડબ, આ બાહ-જ્યા ખેડૂતે ધાન્યાદિ લાવીને રાખે એવા પ્રદેશે, જળમાર્ગ તથા સ્થળમાર્ગ એ બન્નેમાંથી એક માર્ગ વાળુ પતન, से पधानी बनी भ्याथी युस्त, तथा “ थिमिय मे यणीय" 24 मने. ५२स्या यथा २डित भूभिवाया तथा " एगच्छत्त" मे, २० , यजपति ५६ पास र्या पडदा भारति 1 तरी पर्वत तथा ना माहित “ भरह" सरतक्षेत्र ५२ सत्ता सोपान, तथा “ मसागर वसुह भुजिऊण" यति ५४ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સમુદ્ર સહિત આખી પૃથ્વીને-છ ખડ વાળા ભરત ક્ષેત્રને 4 नागपान “अपरि-मियमणत-तण्ह-मणुगय-महिसार-निरयमूलो' अ५-- Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ प्रभयाकरणसूत्रे भापा प्रसिद्धानि, 'कुपिय' कुप्यानि-गृहोपकरणानिआसन्दीपल्यदशादीनि धण' धनानि-गणिमादीनि 'धन्न' धान्यानि-शाल्यादीनि, 'पाण'पानानि गुमादीनि, ' भोयग भोजनानि - अनादोनि । भान्छायग । मान्छादनानि-वनक बलादीनि, 'गध' गया - कोप्टपुटादि मुगन्धिद्रव्यविगेपाः, 'मल' माल्यानि = पुप्पदीनि 'ग' गन्धा-कोप्टपुटादि मुगन्धिद्रव्यविशेषाः, 'मल्ल ' माल्यानि-पुप्पादीनि, 'मायण' भाजनानि-स्थली स्टोरादीनि, 'भवण' भग्नानि-मासादगृहादीनि, पतेपा द्वन्द्वः, तेपो यो 'विहि विधि-विधानम्उपार्जनादि लक्षण, त 'चेर' एप अपि, ए शब्दोऽपर्थका, तमपि 'बहुविडिय बहुरिधिकम्-अनेकमकारम् ' भुनिअण' मुम्मा-उपभुज्य इत्यग्रेण सरन्या, तथा 'भरह ' भरत = भरतक्षेत्र च भुक्ता % कोदश भरतक्षेत्रमित्याह ? - 'नग नगर' इत्यादि । 'नगनगरनिगमजणायपुरवरदोगमुहसेड कचउमडरसराहण पट्टणसहस्सपरिमडिय ' नग-नगर-निगम-जनपद-पुरसर-द्रोणमुखखेट-कर्बटमडम्ब-सपाह-पत्तन सहस्रपरिमण्डितम् , तन-'ग' नगा:-पर्वता. 'गार' नगराणि करवर्जितपुराणि, 'निगम' निगमाः वणिग्निवासस्थानानि, 'जणवय जनपदा =देशा 'पुर वर' पुरराणि-नगरश्रेष्ठानि राजधान्यादीनि, 'दोणमुह' कुरसी पलग आदि, गणिमादिक धन, गाल्यादिक धान्य, दुग्धादिरूप पान, भोजन, वस्त्र, कम्बल आदि आच्छादन, कोप्ठपुट आदि सुगधित द्रव्यविशेष, पुष्प, स्थाली कटोराआदि माजन, प्रासाद गृह आदि भवन, इन सय पदार्थों को उपार्जन आदि करने रूप (बहुविदिय चेव) अनेक प्रनार की विधि को भी (भुजिऊण) भोग करके, तथा (नगनगरनिगमजणवय पुरवर-दोणमुह-खेड-कन्नड-मडव-सवाह पट्टणसहस्स परिमडिय ) नग-पर्वत, नगर-अष्टादश प्रकार के कर से रहित पुर, घणिग्जनों के निवास स्थानरूप निगम, जनपद-देश, राजधानी आदि શા, આસન, વાહન, કુષ્ય-ખુરસી પલગ આદિ ઘરનું રાચરચીલ, સેના મહિર આદિ ધન, ચેખા આદિ ધાન્ય, દૂધ આદિ પય દ્રવ્યો, ભજન, વસ્ત્ર કામળ આદિ ઓઢવાના સાધનો, કઠપુટ આદિ સુગંધિત દ્રવ્ય, પુષ્પ, થાળી વાટકા આદિવાસ, પ્રાસાદ ગૃહ અને ભવન, એ સઘળા પદાર્થોનું ઉપાર્જન १२१३५ " बहुविहिय चेव " मने प्रारे तेन "भुजिण" लोग शन, तथा “ नगनगरनिगमजणवय - पुरवर - दोणमुह - खेड- कब्बडनमडबसवाह-पट्टण-सहस्स-परिमडिय" नस-५'त, नगर अढा२ ४ारना ४थी રહિત શહેર, વેપારીઓના નિવાસસ્થાનરૂપ નિગમ, જનપદને રાજધાની Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंनी टीका अ०५ ०१ परिप्रहस्यरूपनिरूपणम् ५०३ द्रोगमुग्वानि जलपय स्वल्पयगम्याः पुरविशेषाः, 'सेड' खेडानि-धूलीमाकार युक्तानि, ' ड' कटानि-कुत्सितनगराणि 'मडन' मडम्बानि-दूर दूर वसति युक्ता प्रदेशाः, 'सपाह' साहापत्र कृपका धान्यादिकमानीय स्था. पयन्ति ते 'पट्टण' पत्तनानि-जलस्थल पथान्यतरपथयुक्तानि निवासस्थलानि, एतेपा इन्दः, एपा यत्सहस्र तेन मण्डित-शोभित यत्ततादृश, तथा ' यिमियमेय. णीयं' स्तिमितमेदिनीक-स्तिमिता = स्वचक्रपरचक्रभयवर्जिता, मेदिनी-भूमि यस्मिन् तत्ताहगम् , तथा 'एगच्छत्त' एकच्छनम्-एकराजकमित्यर्थः, चक्रवर्तिपदमाप्तेः प्राक् माण्डलिकत्वे एतादृश भरतक्षेत्र परिभुज्येत्यथा, तथा 'ससागर ' सागरसहिताम् ‘वमुद' यमुधा-समग्रा पृथ्वी च चक्रवर्तिपदप्राप्त्यनन्तर भुक्त्वा, एतद्भोगेऽपीत्यर्थः, 'अपरिमियमणततण्डमणुगयमहिच्छसारनिथेष्टनगर, जनपथ, स्थल्पथ इन दोनो से गम्य स्थान रूप पुरविशेप धूली प्राकार से युक्त खेड, कुत्सितनगररूप कर्यट, दूर दूर वसति से युक्त प्रदेशरप मडर, सवाह-जहां पर कृपकजन धान्यादि लाकर रखते हैं ऐसे प्रदेश, जल पथ तथा स्थलपथ इन दोनों में किसी एक पथ से युक्त पत्तन, इन सब की हजारों की संख्या से मडित, तथा (घिमियमेयणीय ) स्वचक्र और परचक्र के भय से वर्जित भूमि से युक्त तथा (एगच्छत्त ) एक राजा वाले, चक्रवति पद की प्राप्ति के पहिले माण्डलिकपने में नगनगरादि सहित (भरह) भरतक्षेत्र को भोग करके, तथा (ससागर चमुह भुजि ऊण) चक्रवति पद की प्राप्ति के अनन्तर समुद्र-- सहित समस्त पृथ्वीनो पटखड मडित भरतक्षेत्र को भी भोग करके (अपरिमियमणततण्डमणुगयमहिसारनिरयमूलो) अपरिमित-प्रमाण આદિ શ્રેષ્ઠ નગર, જળમાર્ગે તથા જમીનમાર્ગે પ્રવેશ કરી શકાય એવું શહેર ધૂળના કિલ્લા વાળુ ખેડ, કુત્સિત નગર રૂપ કMટ જેની આસપાસ ઘણે દૂર સુધી ગામ ન હોય એવું મડબ, સબાહ-જ્યા ખેડૂતે ધાન્યાદિ લાવીને રાખે એવા પ્રદેશે, જળમાર્ગ તથા સ્થળમાર્ગ એ બનેમાથી એક માર્ગ વાળું પત્તન, से पधानी बनी मध्याथी युत, तथा “थिमिय मेयणीय" स्वय मने ५२यना नयथा हित भूभिवा तथा “ एगच्छत्त" से शाणा, यपति ५. प्रासय ५सा भA Plat AN पता तथा नगरे। सहित “ भरह" सरतक्षेत्र ५२ सत्ता सागवान, तथा “ससागर वसुह भुजिऊण " यति ५४ પ્રાપ્ત કર્યા પછી સમુદ્ર સહિત આખી પૃથ્વીને-છ ખડ વાળા ભત ક્ષેત્રને ५५ लावीत "अपरि-मियमणत-तण्ड्-मणुगय-महिसार-निरयमूलो' अपरि Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रश्नट्याकरण भाषा मसिद्धानि, 'कुपिय' कुप्यानि-गृहोपकरणानिआसन्दीपल्पकादीनि धण' धनानि-गणिमादीनि 'धन्न' धान्यानि-शाल्यादीनि, 'पाण'पानानि दुग्पादीनि, ' भोयग भोजनानि - अशनादोनि ' आन्छायग । पान्छादनानि-क्षक म्बलादीनि, 'गध' गन्धा - कोप्टटादि सुगन्धिद्रव्यविगेपाः, 'मल्ल' माल्यानि = पुष्पदीनि ' गध' गन्धा -फोटपुटादि मुगन्धिद्रव्यविशेषाः, 'मल्ल' माल्यानि-पुप्पादीनि, 'मायण' भाजनानि-स्थलीस्टोरादीनि, 'भवण' भानानि-मासादगृहादीनि, एतेपा द्वन्द्वः, तेपो यो 'पिहि' विधि-विधानम्उपार्जनादि लक्षण, व 'चेर' एप-अपि, एक दोऽपर्थक, तमपि 'बहुविडिय' बहुरिधिकम्-अनेकप्रकारम् मुजिजण ' भुम्मा उपभुज्य इत्यग्रेण सपन्यः, तथा 'भरह ' भरत = भरतक्षेत्र च मुक्तता = कोश भरतक्षेत्रमित्याह ? - 'नग नगर' इत्यादि। 'नगनगरनिगमजणषयपुरवरदोगमुहसेड फनडमड यसपाहण पट्टणसहस्सपरिमडिय । नग-नगर-निगम-जनपद-पुरसर-द्रोणमुग्वखेट-कर्बट मडम्प-सपाह-पत्तन सहस्रपरिमण्डितम्, तत्र-'ग' नगा:-पर्वताः 'गगर' नगराणि करवजितपुराणि, 'निगम' निगमाः पणिग्निवासस्थानानि, 'जणवय' जनपदा -देशा 'पुर वर' पुरषराणि-नगरश्रेष्ठानि राजधान्यादीनि, 'दोणमुह' कुरसी पलग आदि, गणिमादिक धन, शाल्यादिक धान्य, दुग्धादिरूप पान, भोजन, वस्त्र, कम्बल आदि आच्छादन, कोप्टपुट आदि सुगधित द्रव्यविशेष, पुष्प, स्थाली कटोराआदि भाजन, प्रासाद गृह आदि भवन, इन सर पदार्थों को उपार्जन आदि करने रूप (बहुरिहिय चेव) अनेक प्रनार की विधि को भी (भुजिऊण) भोग करके, तथा ( नगनगरनिगमजणवय पुरवर-दोणमुह-खेड-कबड-मडव-सवाह पट्टणसहस्स परिमडिय ) नग-पर्वत, नगर-अष्टादश प्रकार के कर से रहित पुर, घणिग्जनों के निवास स्थानरूप निगम, जनपद-देश, राजधानी आदि શય્યા, આસન, વાહન, કુષ્ય-ખુરસી પલગ આદિ ઘરનું રાચ રચીલુ, સેના મહેર આદિ ધન, ચેખા આદિ ધાન્ય, દૂધ આદિ પિય દ્રવ્યો, ભજન, વસ્ત્ર, કામળ આદિ ઓઢવાના સાધને, કાષ્ઠપુટ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યો, પુષ્પ, થાળી વાટકા આદિવાસ, પ્રાસાદ ગૃહ અને ભવન, એ સઘળા પદાર્થોનું ઉપાર્જન ४२११३५ "बहुविहिय चेव" मने रे नी "भुजिऊण" पलास जगन, तथा “ नगनगरनिगमजणवय -पुरवर - दोणमुह - खेड- कब्बडनमडबसबाह-पट्टण-सहस्स-परिमडिय" ना- त, ना२ सा२ प्रजाना ४२२१ રહિત શહેર, વેપારીઓના નિવાસસ્થાનરૂપ નિગમ, જનપદ - . ની Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ सुदर्शनी टोका १० ५ सू० १ परिग्रहस्वरूपनिरूपणम् त्वपत्रपल्लवाः, तेपा धर-पारमा । तपा 'जस्स' यम्प परिग्रहतरोः ' कामभोगा' कामाभोगा एव 'पुप्फफल' पुष्पफलानि । तपा-'आयासविमरणाकलहपापियग्गसिहरो ' आयामविमरणालहमकम्पिताग्रशिखरः-आयास:शरीरश्रमः, विमरणा-मानसी पीडा, कलहः पचनभण्डनम्, एत एप प्रकम्पितमनशिखरम्-अग्रभागो यस्य सः, तथा 'नरवसपूजिभो' नरपतिसपूजिता भूपतिपरिसेवितः, तथा - हुजणस्स हिययदडओ' बहुजनस्य हदयदयितःअनेकजनवल्लभः इत्ययः, तपा-अय परिग्रह तरु:-'इमस्स' अस्य-प्रत्यक्षस्य 'मोपसारमुत्तिमग्गस्स ' मोक्षपर मुक्तिमार्गस्य-मोक्षस्य -श्रेष्ठो यो मुक्तिरूपो निर्लोभतारूपो माग -उपायस्तस्य 'फलिहभूमो' अर्गलाभूता-मोक्षस्यावरोधकफाष्ठभूतो वर्त्तने, इत्येव स्वरूप 'चरम अहम्मद्वार' चरममधर्मद्वारम् अन्तिममधमद्वामम् । एतत्कयनेन यादृशेति प्रथममन्तरद्वारमुक्तम् ।। सू०१॥ मायाचारी ही जिसकी चाल है, पत्र है और पल्लर हैं । (जस्स पुष्फफल काम भोगा) कामभोग ही जिसके पुष्प ओर फल हैं। (आयासविलूरणाफलहपापियग्गसिहरी) आयास शारीरिक श्रम वितरणा-मानसिक पीडा, और कलह,ये ही जिस के प्रकपित अग्रभाग, (नरवहसजिओ) तथा यह परिग्रहरूप वृक्ष भूपतियों द्वारा परिसेवित है, और (चठ्ठजणस्सदिययदइओ) अनेक जनों को अत्यत प्यारा है, (इमस्स मोक्खवर मुत्तिमग्गस फलिहभूओ) तथा यह परिग्रहरूप वृक्ष मोक्ष के श्रेष्ठ मुक्तिरूप-निर्लोभतारूप-मार्ग का अर्गला रूप है । (चरिम अहम्मदार) ऐमा यह पांचवा अन्तिम अधर्मद्वार है।। भावार्थ-परिग्रह नाम ममत्वभाव का है। इसकी दूसरी सज्ञा मृ» भी है । इस मारूप तृष्णा का अन्त नहीं है। परिग्रह के भायायारी तनी छोरी पान भने ५८स छ “ जस्स पुप्फफल कामभोगा" भाग १ तेना पु०५ भने ५ छ “ आयास विसूरणाकलहपकपियग्ग सिहरो " मायास-शागर श्रम, विसू२६।-मानभि पाड। मने ४१७, मेरा तेना सायमान समयमाग छ “ नरवइ सपूजिओ" तथा मा परि ३५ वृक्षनु नृपो सेवन ४२ छे भने “बहुजणस्स हिययदइओ" ते अने सोने अत्यत प्रिय साग छ, “ इमस्स मोक्सवरमुत्तिग्गरस फलिहभूओ" तथा ॥ પરિગ્રહ રૂપ વૃક્ષ મોક્ષના શ્રેષ્ઠ મુક્તિરૂપ-નિર્લોભતારૂપ માર્ગના આડે આગ– माया छ “चरिम अहम्मदार " मे २) पायमु द्वार छ ભાવાર્થ-મમત્વ ભાવને પરિગ્રહ કહે છે તેનું નામ મૂછ પણ છે આ મૂચ્છરૂપ તૃણાને પાર જ હોતું નથી પરિગ્રહના પજામાં ફસાયેલ જીવ प्र. ६४ Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ रयमूलो' अपरिमितानन्तवृष्णानुगतमहेन्छासारनिस्यमूलः, अपरिमिताप्रमाणरहिता याऽनन्ततृष्णा तयाऽनुगता या महेच्छा - अप्रामार्याभिटापरूपा तस्याः सार=स्थिरांशरूपो यो निरयो दुर्गति स एव मूल यम्य परिग्रहतरी यः सः तथोक्त , पुनः कीदृश परिग्रहतारित्याह-'लोभारिकमायमहरायो' लोभफलिफपायमहास्कन्धा-लोमः, कलि:-युद्धम्, पाय - क्रोधमानमायारूपव महान् स्कन्धो यस्य स , यद्यपि कपाय ग्रहणेने लोभो गताः, तथापि तस्य भाषा न्य ख्यापनार्थ पृथगुपादानम् । तथा पितामयनिचिया पिउलसालो' चिन्ताशत निचितविपुलशाल:-चिन्तागतानि निचितानि-एक्जीकृतान्ये पिपुग-विशाला शाला:-शाखा यस्य स 'चिन्ताशतस्पविपुलशालासमन्वितः । तथा-'गारव पनिरल्लियग्ग विडयो' गौरनपविरल्लियाग्रपिटप - 'गारव' गौरवाणिसद्धिरसससातरूपाण्येव 'पविरल्लिय' विस्तारसन्त , अय देशीशब्दः 'अग्गविडव ' अग्र टिपा: शाखामध्यभागाग्राणि यस्य सः, तया ' नियडितया पत्त पल्लपथरो' निकृतित्वरूपत्रपल्लवधरः-निकृति'-माया, सेर ' तयापतपरलव' रहित-ऐसी अनततृष्णा से अनुगत अमाप्त अर्थ की अभिलाष रूप महेच्छा का सार-स्थिराशरूप जो निरय-दुर्गति है वह दुर्गति ही जिस परिग्रहरूप तरु का मूल है (लोभकलिकसायमरक्खघो) तथा जिसके महान् स्कंध, लोभ-लालच, कलि-युद्ध एव फ्रोध, मान, माया, कषाय ये है । यद्यपि कपाय के ग्रहण से लोभ का ग्रहण हो जाता है फिर भी उसका जो यहा पृथक रूप से ग्रहण किया गया है उसका तात्पर्य उसको प्रधानता दिखलाने का है। तथा (चिंतासयनिचियविउल सालो) जिसकी विशाल शाखाएँ एकत्रीभूत सेकड़ो चिन्तएँ है । तथा (गारवपविरल्लियांगविडवो) ऋद्धि रससातरूप गौरव ही जिसके विस्तार युक्त अग्रविटय हैशाखा के मध्यभाग एव अग्रभाग हैं। (नियडितयापत्तपल्लयधरो) निकृतिમિત–પ્રમાણ રહિત તૃષ્ણથી અપ્રાપ્ય વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવાની અભિલાષા રૂપ મહે રછાને સાર-સ્થિરાશરૂપ જે દુર્ગતિ છે તે દુર્ગતિ જ તે પરિગ્રહરૂપી વૃક્ષનું भाछे, " लोभकलिकसायमहक्सधो"ल-सालय, सि-युद्ध भने आध, માન, માયા, કષાય આદિ તે વૃક્ષના મહાન સ્કંધે છે જે કે કષાયમા લોભને સમાવેશ થઈ જાય છે છતા પણ તેને અહી અલગ રીતે ગ્રહણ કરવામાં मावस छ तेना उतुनी प्रधानता मतावानी तथा " चिंतासय निचिय विउल मालो" से त्रित यितामा तनी शमाया छ तथा “ गारव पविरल्लि यग्गविडवो" *द्धिरस सात३५ गौरव ॥ तेना विस्तार युटत अविट५ छसामान मध्य मा भने मला छे "नियडितयापत्तपल्लवधरो" निति Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्दाशिनी टोका श० ५ सू० २ परिग्रहस्य त्रिंशन्नामनिरूपणम् अधुना यनामेति द्वितियमन्तरद्वारमाह- मूलम् - तस्स नामाणि गोणाणि हुंति तीस, त जहापरिग्गहो १, सचयो २, यो ३, उवचयो ४, निहाणं ५, संभारो ६, संकरो ७ एवं आयारो ८, पिडो ९ दव्वसारो १०, तहा महिच्छा १९, पडिबंधो १२, लोहप्पा १३, महट्टी १४, उवगरण १५, सरक्खणाय १६, भारो १७, संपायुपायको १८, कलिकरडी १९, पवित्यरो २०, अणत्थो २१, सथवो २२ अगुत्ती २३, आयासो२४, अविओगो २५, अमुत्ती २६, तहा २७, अणत्थगो २८, असत्थी २९ असतोसे ३०, त्तिविय, तस्स एयाणि एवमादीनामधेजाणि हुंतितीसं ॥ सू० २ ॥ टीका' तस्य य ' इत्यादि 4 तस्स ' तस्य परिग्रह नामक पञ्चमाधर्मद्वारस्य च ' नामाणि ' नामानि 'इमानि - अनुपद वक्ष्यमाणानि ' गोणाणि ' गौणानि - गुणनिष्पन्नानि 'हुवि ' भान्ति, कियत्सरयकानि भवन्ति ? इत्याह- 'तीस ' त्रिशत्सग्यकानीति, ' तजहा ' तद्यथा-' परिग्गहो ' परिग्रहः - परिगृद्यते इति परिग्रहः -- हिरण्य सुवर्ण धनधान्यादि, १ 'सचयो' सचयः - पनवान्यादि राशीना समूहीकरणम् २ ' चयो ' चय - एकैकमितिकृत्यादानम् ३, 'उबचयो ' उपचय: - एकैकमिति - कृत्वाऽऽदत्ताना धनान्यादिना राशिकरणम् ४, ' निहाण ' निपान सुम्यादौ अब यन्नाम इस द्वितीय अन्तहार को सूत्रकार कहते है'तस्स नामाणि ' इत्यादि० | " टीकार्य - ( तस्स ) इम परिग्रह के ( गोणाणि नामाणि तीस हृति) गुण निष्पन्न तीस नाम ह । ( तजहा ) वे इम प्रकार है - ( परिग्गहो १, सचयो २, चयो ३, उच्चयो ४, निहाण ५, सभारो ६, सकरो ७, एव "" हवे यन्नाम ” એ બીજા અન્તર્દ્વારનું સૂત્રકાર વર્ણન કરે એ— तरस नामाणि " त्याहि भार श्रीस नाभी छे " त जहा साहो १ सचयो २ घयो ३ अचयो ४ टीजर्थ - " तरस " मा परिथना " गोणाणि नामाणि तीस हुति " शुशु" ते श्रीस नामी था प्रमाणे " परि निहाण ५ समारो ६स+रो ७ एवआयारो ८ ५०० " Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ प्रश्नध्याकरण फदे में फँमा हुआ प्राणी अपनी अनन प्णाओं की पूर्ति करने में ही लगा रहना है । उसकी कोई मी कृष्णा शान नही होती है । यदि कदाचित् कोई तृष्णो शांत भी रो जाये तो इमरी तणा उसके समक्ष मुंह फाड़कर आ जाती है, और उसकी पूर्ति करने में यह लग जाते है। इस तरह करते २ यात प्राणी उनकी पूर्ति करने में आसक्ति से वध होता जाता है और अपना कि गो यठता है। विवेक का सो बैठना परिग्रह। यरा पर मत्रकार ने हम परिग्रारूप पंचम आस्रव द्वार का वर्णन वृक्ष के रूप से किया है। परिग्ररी जीव छोटी, घड़ी, जड, चेतन, पाच पा आन्तरिक चाहे जो वस्तु हो, और कदाचित् न भी हो तो भी उसमें ध जाता है। नाना प्रकार के मणि आदि पदार्थो को भरतपड की पूर्ण विभूति को भोग करके भी परिग्रही जीव की तृप्णा अनवरत अशातही रहती है। हम वृक्ष की जड़, स्कंध, विशाल शाखाएँ, अग्रचिटप, छाल पत्र, पल्लव, पुष्प, फल, आदि क्या २ है यह सब विपय ही इस मूत्र में विवेचित किया गया है। इस तरह के कथन से सूत्रकार ने परिग्रह का यादृश नाममा जो प्रथम अन्तार है उसका वर्णन किया है, क्योकि इसहार में स्वरूप का कथन होता है, वह यहा पर अच्छी तरह से दिग्वला दिया गया है ।सू० १॥ પિતાની અનત તૃષ્ણાઓ પૂરી કરવામા જ મડચા રહે છે તેની કોઈ પણ તૃષ્ણ શાત પડતી નથી જે કઈ તૃષ્ણા શાત પડી તે તેની જગ્યાએ બીજી તૃષ્ણા મેહુ ફાડીને તૈયાર થઈ જાય છે, અને તે સતેજવાને તે જીવ પ્રવૃત્ત થાય છે આમ કરતા કરતા તેની પૂર્તિ કરવામા આસક્તિથી બધાઈ જાય છે અને પિતાની વિવેક બુદ્ધિ ગુમાવી દે છે વિવેકને ઈ નાખવો તે પરિગ્રહ છે. અહી સૂત્રકારે પરિગ્રહ નામના પાચમા આસવ દ્વારનું વર્ણન પરિગ્રહને વૃક્ષનું રૂપક દઈને કર્યું છે. પરિગ્રહી જીવ, નાની, મેટી, જડ, ચેતન, બાહ્ય કે આતરિક ગમે તે પ્રકારની ચીજમાં આસક્ત બની જાય છેવિવિધ પ્રકારના મણિ આદિ પદાર્થોને તથા ભરતખડની સંપૂર્ણ સમૃદ્ધિને ઉપભોગ કરીને પણ પરિગ્રહી જીવની તૃષ્ણ સતત અશાત જ રહે છે આ પરિગ્રહરૂપ વૃક્ષના भूण, थ, विशामाया, मविट५, छास, पान, पासप, ५, ३० વગેરે શુ શુ છે, તે બધાનું વિવેચન આ સૂત્રમાં કરવામાં આવ્યું છેઆ પ્રમાણેના કથન વડે સૂત્રકારે પરિગ્રહના યાદશ (કેવા પ્રકારનુ) નામના પહેલા અતર્કારનું વર્ણન કર્યું છે, કારણ કે આ દ્વારમા સ્વરૂપનું કથન થાય છે તે સ્વરૂપનું વર્ણન અહી સુદર રીતે કરવામા આવ્યુ છે. સૂ-૧ Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका २० ५ ० २ परिग्रहस्य प्रिंजघ्नामनिरूपणम् . ५०९ एवम्-यथा धनमाप्तिर्भवेदेवम् , आचार:-माचरणम् ८, ' पिंडो' पिण्ड =धनधान्यादीना समुदायः ९, 'दबसरो' द्रव्यसार.-द्रव्याणामेव सर्वोत्कृष्टपदार्थ स्वेन परिशानम् १०, 'तहा' तथा 'महिच्छा' महेन्छा-अपरिमितमाछा ११, 'पडिवो' प्रतिवन्धः-आमक्तिकारकः १२, 'लोहप्पा' लोभात्मा-कोभअतः इसका नाम सभार है । परिग्रही जीव धान्य आदि पदार्थों को कोष्ठ आदि में भरकर रख देता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर वे काल में लाये जा सके-इसलिये इसका छठा नाम सभार है ६ । परिग्रही जीव सुवर्ण आदि द्रव्यके अधिक हो जाने पर उनका अग्नि में गलवाफर पाशा करवा लेता है, इसलिये इसकासातवा नाम सकर है ७। धन कमाने की लालसा से परिग्रही जीव ऐसाआचरण करताहै कि जिससेधन का लाभ अधिकमात्रा में होतारहे,इसलिये इसका आठवा नाम एवमाचार है ८। पिण्ड इसका नाम इसलिये है कि इस में धन धान्यादि पदार्या का समुदाय पिण्डरूप से घर में रहा करता है । परिग्रही जीव धनादि पदार्थो को ही सर्वोत्तम मानता है इसलिये इनका नौवा नाम द्रव्यसार है १० । परिग्रही जीव की इच्छाएँ आकाश की तरह अनत हुआ करती हैं इसलिये इस का नाम महेच्छा है ११ । मणुप्यों में इस परिग्रह से ही पर के द्रव्यों में आसक्ति जगती है इसलिए इसका नाम प्रतियघ है १२ । परिग्रही जीव मे लोभ की मात्रा बहुत अधिक होती ધાન્ય આદિ પદાર્થ ભરીને રાખી મુકાય છે, તેથી તેનું નામ “સ ભાર છે પરિગ્રહી જીવ ઘાન્યાદિ પદાર્થોને કાઠી આદિમાં ભરી રાખે છે કે જેથી જરૂર પડે ત્યારે તેને ઉપયોગ કરી શકાય, તેથી તેનું છઠું નામ “સ ભાર” છે (૭) પરિગ્રહી જીવ સુવર્ણ આદિ દ્રવ્ય વધી જાય છે ત્યારે તેને અગ્નિમાં ગળાવીને તેના પાશા પડાવી લે છે, તેથી તેનું સાતમુ નામ “સ કર” છે (૮) ધન કમાવાની લાલસાથી પરિગ્રહી જીવ એવું આચરણ કરે છે કે જે આચરણથી ધન પ્રાપ્તિ વધુ પ્રમાણમાં થતી રહે, તેથી તેનું આઠમુ નામ એવમાચાર છે (૯) તેનુ નવમુ નામ “પિંડ” એ કારણે છે કે પરિગ્રહી જીવ ધન ધાન્યાદિ પદાર્થોને જથ્થા પિંડરૂપે ઘરમાં રાખ્યા કરે છે (૧૦) પરિગ્રહી જીવ ધનાદિ પદાર્થોને જ સર્વોત્તમ માને છે, તેથી તેનું દસમુ નામ ‘દ્રવ્યસાર છે (૧૧) પરિગ્રહી જીવોની ઈચ્છાઓ અકાળની જેમ અન ત હેય છે, તેથી તેનું નામ “મહેચ્છા” છે (૧૨) આ પરિગ્રહને કારણે જ ५२ मा मामाने मासहित पहथाय छे तथा तेनु नाम 'प्रतिबध' છે (૧૩) પરિગ્રહી જીવમા લેભની માત્રા ઘણી જ વધારે હોય છે, તેથી તે Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायाकरण ५०८ निधानरूपेण स्थापनम्५, 'समारो' समार:-सभ्रियते समरण पा संमार.-कोष्टादी भरणमित्यर्थः ६, 'संकरी' सफर -सफीर्यते सपिण्डपने इति, सहर:-सुवर्ण रजतादीन् बह्मौ परिद्रव्य पालकादिम्पारणम् ७, 'एव आयारो' एमाचार: आयारों ८, पिंडो ९, दवसारो १०, तामसिच्या ११, पहियधो १२, लोहप्पा १३, महट्टी १४, उवगरण १५, सरखणा 7 १६, मारो १७, सपायुपायको, १८, कलिकरडी १९, परित्यरो २०, अणत्यो २१, सथयो २२, अगुत्ती २३, आयासो २४, अपिओगो २५, अमुत्ती २६, तणा २७, अणत्यगो २८, आसत्थी २९, अमतोसे ३०, त्ति चित्र, तस्स ण्याणि एवमाई नामधेज्जाणि इति तीम) हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य आदि, पदार्थ ग्रहण किये जाते है इमलिये ये परिग्रह , अतः इसका प्रथम नाम परिग्रह है १ । धन धान्य आदिकी राशिया इममें एकत्रित की जाती है अतः इस अपेक्षा इसका दूसरा नाम सचय है २। परीग्रही जीव एक एक करके वस्तुओं का सग्रह या ग्रहण करता है, इस अपेक्षा इसका तीसरा नाम चय है ३ । उपचय शब्द का अर्थ वृद्धि है, क्रम क्रम करके कमाये गये धन धान्य आदि पदार्थो का इस उपचर में वर्धन होता है इसलिये इसका चौथा नाम उपचय है। जमीन आदि में धनादिद्रव्य को परिग्रहि जीव गाड़ दिया करते है, ताकि चौर आदि से उसकी रक्षा होती रहे, इसलिये इसका पांचवा नाम निधान है ५, कोष्ठ आदि में जो वद्धित धान्य आदि पदार्थ भरकर रख दिये जाते है। पिंडो ९ व्यसारो १० तहा-महिच्छा ११ पडिबधो १२ लोहप्पा १३ महही १४ स्वगरण १५ सरक्षणाय १६ भारो १७ सपायुपायको१८ कलिकरडी १९ पवित्थरो २० अणत्थो २१ सथवो २२ अमुत्ती २३ आयासो २४ अविओगो २५ अमुत्ती २६ तण्हा २७ अणत्यगो २८ आसत्थी २९ असतोसे ३० ति वि य तस्स एयाणि एवमाई नामधेज्जाणि हूति तीस " (१) (२९य, सुवर्ण, धन, ધાન્ય આદિ પદાર્થો ગ્રહણ કરવામા આવે છે તેથી તે પરિગ્રહ છે તે છી તેનું નામ “પરિગ્રહ” છે (૨) ધન ધાન્ય આદિના ઢગલા તેમા એકત્ર કરાતા હોવાથી તેનું બીજુ નામ “સ ચય” છે (૩) પરિગ્રહી જીવ એકે એકે વસ્તુ એને સંગ્રહ કરે છે અથવા તેને ગ્રહણ કરે છે તેથી તેનું ત્રીજુ નામ ચય છે (૪) ઉપચય શબ્દને અર્થ વૃદ્ધિ થાય છે કેમે ક્રમે કમાયેલ ધન ધાન્ય આથિ પદાર્થનું આ ઉપચયમાં વર્ધન થાય છે, તેથી તેનું ચોથ નામ “ઉપ ચય” (૫) ચાર આદિથી રક્ષણ કરવા માટે ધન આદિ દ્રવ્યને પરિગ્રહી લોકો દાટી દે છે તેથી તેનું પાચમુ નામ “નિધાન છે (૬) કોઠી આદિમા-વધેલ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ० १ सू० २ परिग्रहस्य निशनामनिरूपणम् ५११ सस्तवः =परिचयः - परिचयकारणत्वात् २२, 'अगुत्ती' अगुप्तिः = तृष्णाया अगोपनम् २३, 'आयाम' आयासः = दुखम्, आयामहेतुत्वात्परिग्रहोऽ प्यायास:उक्त' २४, ‘अनिओोगो' अवियोगः - नादरपरित्यागः २५ ' अमुत्ती ' अमुक्ति:अनिलभता २६, 'तण्डा ' तृष्णा धनादेशकाइक्षा २७, ' अणत्यगो' अनर्थकःअनर्थ कारणत्वात् २८, ' आसत्थी' आसक्ति:- मूर्च्छा, तत्कारणत्वात् २९, मे लगा रहता है इसलिये इसका नाम प्रविस्तर है २० । परिग्रह अनेक अनर्थो का कारण रहता है इसलिये इसका नाम अनर्थ है २१ । परिग्रही जीना अनेक जीवो के साथ सस्तवपरिचय रहता है। इसलिये परिचय का कारण होने से उसका नाम सस्तव है २२ | इसमें तृष्णाका गोपन नही होता है-अत इसका नाम अगुप्ति है २३ । परिग्रह की जाला में जलते हुए जीव को बहुत अधिक आयासों दुखों को भोगना पडता है इसलिये उनका हेतु होने से परिग्रह का नाम भी आयाम है २४ । परिग्रही जीव मे लोभ की अधिक से अधिक मात्रा होने के कारण वह धनादिक का परित्याग दान आदि सत्कृत्यों में भी नही कर सकता है इसलिये इसका नाम अवियोग है २५ । इस परिग्रही जीव मे निर्लोभता नही होती है इसलिये इसका नाम अमुक्ति है २६ । धनादिक के आगमन - आय की आकाक्षा परिग्रही जीव के सदाकाल रहती है इस लिये इसका नाम तृष्णा है २७ । परिग्रह अनेक अनर्थो का कारण है इसलिये इसका नाम अनर्थक है २८ । मूर्च्छा का कारण होने से इसका - ८ विस्तार पुवामा लाग्यो रहे छे, छेथी तेनु नाम 'प्रविस्तार ' छे (२१) परि ગ્રહ અનેક અર્થોનુ કારણ અને છે, તેથી તેનુ નામ 'जनर्थ' छे (२२) परिग्रही लवना भने वनी साधे 'सस्तव ' परियय थतो रहे छे, तेथी परिथयतु भरण होवाची तेनु नाभ ' सस्तव ' छे (२३) तेभा तृष्णयानु गोयन થતુ નથી, તેથી તેનુ નામ अगुप्ति' छे (२४) परिग्रहनी नवाजामा भजता જીવાને ઘણા વધારે આયાસે-૬ખા ભાગવવા પડે છે તેથી તે આયાસેના કારણરૂપ હાવાથી પરિગ્રહનુ નામ પણ आयास " है (२५) परिग्रही જીવેામા લેાભની માત્રા વધારેમાં વધારે હાવાને કારણે તે દાન આદિ સત્કૃત્યામા ધનને પરિત્યાગ કરી શકતા નથી તેથીતેનુ નામ अवियोग' छे (२९) ते परिथडी लवमा निर्योलता होती नथी, तेथी तेनु नाम ' अमुक्ति ' છે (૨૭) ધનાદિ પદાથૅ મેળવવાની આકાક્ષા પરિગ્રહી જીવને સદાકાળ રહેછે, તેથી તેનુ નામ तृष्णा' छे (२८) परिग्रह भने अनर्थोने भाटे जरगुइय हाय छे, तेथी तेनु नाम ' अनर्थक' छे (२७) भूर्छा 'मासहित' तु द्वार ८८ < " · Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रश्नध्याकरणसत्रे सभाषः १३, 'महट्टी' महातिः, महाःकारगवा १३, 'उमाण' उपकरण सामग्री १५, 'सरसप्पणय' सरक्षणा च-शरीरादीना मरक्षणमित्यर्थः १६, 'भारो' भार-अष्ट कर्मभारकारणम् १७, 'मपायुपायगो' सपातीपारका-सपातानादुर्गती प्रस्थितानाम् उपायको मार्गमूतः१८, 'कलिकरटो' करिफरण्ड'-करीनां कलहानां करण्ड पानविशेष इस कलिकरण्ड १९, 'परिन्यरो' प्रविस्तर:धनधान्यादिविस्तारः २०, 'अणत्यो ' अनर्थ'-अनर्थकारणवाद २१, 'सयवो' है, इसलिये यह परिग्रह लोभात्मा लोम सभार है १३ । इस परिग्रह से जीव को पड़ी से बड़ी आत्तियों का सामना करना पड़ता है अत: उन आत्तियों का करण हराने से यह परिग्रह महानिरूप है १४ । इस परिग्रह के प्रभाव से ही विविध प्रकार की सामग्री जीव एकत्रित करता है अतः इसका नाम उपकरण है १५ । परिग्रही जीव अपनेशरीर आदि पदार्थो की रक्षा करने में विशेष सापान रहता है। इसलिये इसका नाम सरक्षण है १६ । परिग्रही जीव के परिणामों की सरलेशता के कारण अष्टविध कमों का वध बहुत तीव्र होता है इसलिये इसका नाम मार है १७ । परिग्रही जीव का पतन दुर्गति में होता है अतः दुर्गति में पतन होने का यह मार्गभूत है इसलिये इसका नाम संपातोपायक है १८ । परिग्रही जीव के अनेक शत्रु उत्पन्न हो जाते है हर एक के साथ कलह आदि होने लगते है इसलिये यह परिग्रह कलही का एक प्रकार का करण्डपिटारा है-इसलिये इसका नाम कलह करण्ड है १९ । परिग्रही जीव अपने धन धान्य आदि पदार्थो का विस्तार करने પરિગ્રહ લોભાત્મા લેભ સ્વભાવ છે (૧૪) આ પરિગ્રહને લીધે છોને મોટામાં મેટી આફતો સામનો કરવો પડે છે, તેથી એ આતિ (આફત) નું કારણે હોવાથી તે પરિગ્રહ મહાતિરૂપ છે (૧૫) તે પરિગ્રહના પ્રભાવથી જ વિવિધ પ્રકારની सामग्री पत्रित अरे छ, तेथी तेनु नाम' उपकरण 'छे (१६) परिहा જીવ પિતાના શરીર આદિ પદાર્થોના રક્ષણ માટે વધારે સાવચેત રહે છે, तथी तनु नाम 'सरक्षण' छ (१७) परियडी बनी वृत्तिमानी सथित તાને કારણે અષ્ટવિધ કમને બધ ઘણે જ તીન હોય છે, તેથી તેનું નામ 'भार' छ परिघडी आतिभा ५ छ गतिभा पतन ४२२ववाना १९३५ डावाने २0 तेनु नाम 'सपातोपायक' छ (१४) परियडी अपना અનેક શત્રુઓ પેદા થાય છે દરેકની સાથે તેને કલહ આદિ થયા કરે છે તે કાગણે ને પરિગ્રહ કલહના એક પ્રકારના કરડિયા જેવો હોવાથી તેનું નામ 'कलहकरण्ड' छे (२०) परिअड ७१ पोताना धन धान्य माहियाना Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५० ३ यथा ये परिग्रह कुर्वन्ति तन्निरूपणम् पा J 1 - Arda + 'विहा जोइसिया ये देवा वहस्तई बदर एकछि सहधूमकेउ बुहाय अंगारकाय तत्त्तवणिजकण जेवहा जोइसियम्मि चारी चरंति केऊयागइरइया- अट्टावी पति विहाय नक्खत्त देवगणा, गाणी ठाणसठियाओं प ""तारगाऔ, ठियलेंसांचारिणो य अविस्सा ममडलाई । मरिचराउडलोगवासी दुविहा वैमाणिया देवासोहम्मीरिसाण सणकुमार- माहिद - बभलोगलंत के महासुक्स हस्ता आणयपाणय- आण्डेच्या, कप्परविसायवासिणी वासुरगणा: गेवेज्जा, अणुत्तरा य दुविहा कप्पाती या विमाणवासी महिड्डिया उत्तमा सुखरा एत्र चेते चिउत्रिहास परिसा 'धि' देव ' ममायति । भवणं वाणजाणविमायणासणाणि यणाणात्रित्थभूसणाणि 'य' पवरपहरणाणि य- जाणी मणि पत्रोपर्णादिव्वं य भायणाविर्हि नाणादिहका मरुवब्रेड * दिवयं अच्छराए, द्वीव्रतमुद्दे, दिसाओं, विदिशाओ इणिय वणसडे पत्र गामनमणिय आसमुज्जा में काणणाणि घ कूत्र सरतले ययाविहिग्य देवकुलसंभवावः' "सहिमाइया" किराणाणि यं प्रगिविहत्ता परिग्गृह, मिउल•सार देवा वि सईदगा न वित्ति न छुट्टि उबल मंति, अञ्च्चत Fi स्व 1 1 विलोभाभिभूयन्ना ।" " - ;"; ~ श 2 +1 12 I' पे י لا J प १३ X-1 वासहर इक्खुगवट्टपव्वय कुडलरुयावर माणुसुत्तरका लीदहिलवणसलिलदहपतिरति कस्थजण कसे लदे हिमुह ओवोयुपायकचणकविचितज मकवर लिटरिकूडवासी सू० ३॥ कामरे , ~ 228 4 टीका तँच पुग परिग्ग" चे पुन परिग्रह पुनः शब्दोऽत्र Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ मध्याकरणसूत्रे ' असतोसेति विय' असतोष: ३०, इत्यपि च ' तस्म' तस्य परिग्रहस्य 'एयाणि ' एतानि ' एवमादि प्रमादीनि उक्तप्रकाराणि ' नामरेज्जाणि ' नामधेयानि नामानि हुति भवन्ति ' तीस ' त्रिंशत् । परिग्रहस्य परिग्रहाय - सतोपान्तानि निशन्नामधेयानि भवन्तीत्यर्थः । अनेन ' यन्नामेती' द्वितीयमन्तरद्वारमुक्तम् ||म्०२|| 1 अथ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तानाह--' त चपुणे ' इत्यादि ; मूलम् - तच पुण परिग्गहं ममायति लोभवत्था भवणवर विमाणवासिणो परिग्गह रुईयी परिग्गहे विविहकरणबुद्धी देवनिकाया य असुरभुयगसुवन्नचिज्जुजलण-दीव - उदहि दिसि -पवण - थणिय-अणपन्नियपणपन्निय इसिवाइय भूयवाइय कंदिय महाकदिय कुण्ड पतग देवा पिसाय - भूय- जक्खरक्खर - किनर किपुरिस महोरगगधव्वाय तिरियवासी । पचनाम आसक्ति है २९ | परिग्रही जीव को जीवनभर सुखप्रद सतोष नही होता है अतः असतोपका हेतु होने से इसका नाम भी असतोष है ३० | इस प्रकार इस परिग्रह के ये पूर्वोक्त प्रकार से तीस नाम हैं। इस तरह इस सत्र द्वारा सूत्रकार ने " यन्नाम " यह द्वितीय अन्तरद्वार कहा है । भावार्थ- परिग्रह नामके पचम आसव द्वार के कितने नाम गुण fromन्न हो सकते हैं यह बात सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा प्रदर्शित की है । परिग्रह से लेकर असतोप पर्यन्त जो ये तीस नाम प्रकट किये हैं वे कहीं तो कारण में कार्य के उपचार से और कही कार्य में २ कारण के उपचार से बनाये गये हैं, ऐसा जानना चाहिये ॥ सू० २ ॥ होवाथी तेनु नाम ' आसकि' छे (३०) परीग्रही लवने लवनभर सुभग्रह सतो! थतो नथी, तेथी असतोषना अरइय होवाथी तेनु नाम ' असतोष' છે. આ પ્રમાણે પરિગ્રહના પૂર્વોક્ત ત્રીસ નામ છે આ રીતે આ સૂત્રદ્વારા सूत्रारे यन्नाम નામના બીજા અન્તર દ્વારનુ કથન કર્યુ છે , ભાવાર્થ-પરિગ્રહ નામના પાચમા આસવ દ્વારના ગુણ પ્રમાણે કેટલા નામ હાઇ શકે છે તે ખાખત સૂત્રકારે આ સૂત્રમા દર્શાવી છે પરિગ્રહથી લઈ ને અસ તાષ સુધીના જે ત્રીસ નામેા પ્રગટ કર્યો છે તેમાના કેટલાક કારણમાં કાના ઉપચારથી અને ફેટલાક કાર્ય મા કારણના ઉપચારથી અનાવવામાં मावेस छे, ओभ सभवानु छे ॥ सू- १॥ Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्दाशिनी टोका ० सू० ३ यथा ये परिषद कुर्वन्ति तनिरूपणम् ५१५ परिग्रहे - परिग्रहनिपये 6 निविदकरणी , ७ " ६ परिग्रहरुवयः - परिग्रहे रचि -आसक्तिर्यपां ते तथोक्ताः, तथा 'परिग्गहो ' विविधकरणद्धयः - विविधानि करणानि क्रिया' बुद्धिव येषां ते तथोक्ताः परिग्रहोपार्जनमतप इत्यर्थः एतादशा इन्द्रसहिता देना परिग्रह परिगृद्य न वप्ति, न तुष्टिमुपलभन्ते, इत्यप्रेण सम्बन्ध, तत्र 'देवनिकाया य देवनिकायाश्च वक्ष्यमाणा ता ने भवनपत्यादीन् नामनिर्देशपुरस्सर माह- 'असुर' असुरा:-असुरकुमारा. ' भुयग ' भुजगाः = नागकुमाराः 'सुवन्न' सुपर्णाः सुपर्णकुमाराः, विज्जु' विद्युतः- विद्युत्कुमाराः 'जलण ' ज्वलनाअग्निकुमारा. 'दीन' द्वीपा . - द्वीपकुमाराः ' उदहि' उदधिकुमाराः ' दिसि' दिशाकुमाराः 'पण' परनानायुकुमाराः ' वणिय' स्तनितकुमाराः, एते भननपतयः ?, ता- 'अगपनि य 'अनपनि का: ' अमज्ञप्तिकाः ' ' पणपनि य पणपत्रिका: ( पञ्चमतिका ) ' इमिवाड य ' ऋपिनादिका 'भूयनाइय' भूत वादिकाः ' कदि य ' क्रन्दिताः ' महाकदिय' महाक्रन्दिता 'कुहड' कुष्माण्डाः 'पतगदेव ' पतङ्गदेवाः, एतेऽष्टौ व्यन्तरनिकायदेवा २, असुराधारभ्य पतङ्गदेवपर्यन्तानामितरेतरयोगद्वन्द्वः । तथा ' पिसाय' पिशाचाः 'भूय ' भूताः ' जक्व' यक्षा " रक्खस 'राक्षसा: ' किंनर ' किन्नरा 'किंपुरिस' किम्पुरुषाः निकायों का बोध स्वय हो जाता है। इसलिये यहा चारो प्रकार के देव गृहीत हुए हैं। क्यों कि ये दव (परिग्गहे विधिह करणबुद्धी ) परिग्रह के विषय में इनकी विविध प्रकार की क्रियाएँ होती हैं, तथा उसमे इनकी बुद्धि भी सदा सचेष्ट रहती है । अर्थात् परिग्रह के उपार्जन करने मैं इनकी मति खूब निपुण होती है । इस तरह इन्द्रसहित ये चारो प्रकार के देवनिकाय परिग्रह को प्राप्त करके भी उसमें तृप्ति से विह्नने ही बने रहते है । ( देवनिकाया य-असुर-भुयग- सुवन्न- विज्जु-जलण -दीव उदहि- दिसि -पवण-थणिय- अणपन्निय-पणपन्निय-इसिवाइयभूयवाहय-कदिय- महाकदिय-कुण्ड- पयग- देवा पिसायभूय-जक्ख - ના આધ આપે। આપ થઈ જાય છે તે કારણે અહી ચારે પ્રકારના દેવે श्रयु रेस छे, जगण े ते देवे। " परिग हरुई" परिश्रमा रुथि -भासहित वाजा होय छे, भने “ परिग्गहे विधिहकरण बुद्धी" परिवहना विषयमा तेभनी વિવિધ પ્રકારની ક્રિયાઓ થાય છે, અને તેમા તેમની બુદ્ધિ પણ સદા સચેષ્ટ રહે છે. એટલે તે પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરવામા તેમની બુદ્ધિ ઘણી જ નિપુણ હાય છે. આ રીતે ઈન્દ્ર સહિત તે ચારે પ્રકારના દેવનિકાય પરિગ્રહને પ્રાપ્ત કરીને पशु तेनाथी अतृप्त रहे छे " देवनिकाया य-असुर - भुयग - सुवन्न- विज्जु-जलणदीव उदहि- दिसि - पवण-धणिय- अणपन्निय- पणपन्निय-इसिवाइय-भयवाइय-कदिये - Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नग्याकरण वाफ्यालङ्कारे, उपर्युक्त निगन्धि परिग्रह 'ममायनि' ममायन्ते परिपहनमस्त्र कुर्वन्ति, ममत्व कुन्तिीत्याह -- लोभरत्या ' लोगग्रस्ताः, के के च ते ? इत्याह-'भरणारविमाणासिगो' भरनरपिमानासिना' भान' इत्यत्र 'वामिनः' इत्यस्य सम्पन्याद् भानगासिनामपनपतयः, अत आरम्य यावद् परविमानमासिना अनुत्तरिमानासिनः, भरनपतिवानन्यन्तर - ज्योतिष्कवैमानिकाचतुर्विधा अपि देवा इत्ययः, यीशास्त' इत्याह-'परिग्गहरुई ' अघ सूत्रकार जिस प्रकार से जो जीव इस परियर को करते हैं उनका कथन करते है-'त च पुण' इत्यादि । टीकार्थ-(तच पुण परिगगर लोभवस्था ममायति ) हम उपर्युक्त तीस प्रकार के नाम वाले परिग्रह में लोभ से ग्रस्त हुए जीव ममत्व करते है । वे जीव कौन २ से है ? सूत्रकार अब इस यात को प्रदर्शित करते हैं-(भगवरविमाणवामिणो) भवनवासी देव, वानन्यन्तरदेव, ज्योतिष्कदेव और वैमानिक देव ये चारों प्रकार के देव परिग्रह में ममत्व करते है-अर्यात्-परिग्रह प्राप्त करके भी इन्हें सतोप नहीं होता है। (भवणवरविमाणवासिणी) यहा पर इस पद से भवनवासी और घरविमानवासी ऐसा शाब्दबोध होता है। भवनवासी शब्द से अस्स: रकुमार आदि देव तथा वरविमानवासी शब्द से अनुत्तरविमानवासी देव अभिहित हुए हैं। इस तरह देवो के इन दो निकायों का वर्णनकथन-आने से इनके बीच के चानव्यन्तर और ज्योतिष्क इन दो હવે સૂત્રકાર એ પ્રગટ કરે છે કે કયા જીવ કઈ રીતે પરિગ્રહ કરે -"त च पुण "छत्याल टी -" च पुण परिगह लोभवत्था ममायति" ५२ उस श्रीस नाम વાળા પરિગ્રહમાં લેભને વશ થયેલ છે મમત્વ કરે છે તે છે કયા કયા छ १ वे सूत्रा२ ते शव छ " भवणवरविभाणवासिणो, सपनवासी દેવ, વાનવ્યન્તર દેવ, જ્યાતિષ્ક દેવ, અને વૈમાનિક દેવ, એ ચારે પ્રકારના દેવ પરિગ્રહમા મમત્વ કરે છે–એટલે કે પરિગ્રહમાં પ્રાપ્ત કરવા છતા પણ तभने सतोष यता नथी "भवणवरविमाणनासिणो " मी मा ५४थी लप નવાસી અને ઉત્તમ વિમાનવાસી એ અર્થ સમજાય છે ભવનવાસી શબ્દથી અસુરકુમાર દેવ આદિ તથા “ઉત્તમવિમાનવાસી” શબ્દથી અનુત્તર વિમાનવાસી દેવ ગ્રહણ થાય છે આ પ્રમાણે દેના તે બે નિકાન (પ્રકારનું) વર્ણન આવવાથી તેમની વચ્ચેના વાવ્યન્તર અને જતિષ્ક એ બે નિકા (ાત) Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्ली -रीका R०५ मू०३ यथा ये परिग्रह पुर्वन्ति तनिरूपणम् ५१७४। पनीयरत कारण त यत्तपनीयफना-नानी यमु वर्ग तम्य काम समयसम्मान वयोला भनी परितापनेम तुपर्णस्य याशों को मैवमि, ताश-वर्ण युक्त जमा पासात्मने बहुवचनम् । तथा ग-यनारे जे गहा' ये जनाः सम्पनिकाल मसिद्धा नेप्नुलाग्लान्या, जोइसम्मिाख्यातिपि-ज्योतिया चार अरतिका -परिभाम्यन्ति, ने.ग्रहाः, नधा र य तवश्व-ज्योतिष्पनिनेपानम-जगत शुभाशुमनिमितमानम्त्योदय, मासुमतिपुडियातास चोटीवालान्तासन इत्यादिनाम्ना भापाममिद्धाः कीरगाएते. इत्याद'गहमागनिरतिका'-, गमनशीलमाश्फराशितोऽन्यरागो गमनम्बभागाएते चन्द्रमूर्यग्रहात्रिविधायसेन। तिकदेवा उक्ताः । तया ' अवानीमहविटा य ' अटानिंगतिविधाच 'नासत्तदेव-- गणारी नवनायीहगीदत्याह-तयारमाणामठाणमठियाओमी अस्निगरिक मंगल में भेदायगी तित्ततवाणिज्जणगर्वणी! तसतपनी-पाहुणे मुंवणे के वर्ण के जीर्ण धालीह। अति-ना अग्नि में तपाने से सुवर्ण का जला रगदोता है वैसी ही 'इसको रंग हतिया (जे र्य गेही जोइमिम्मि चार चैति इनसे अंतिरिक्त जी इस समय में प्रसिद्ध नेपच्युलेपैल आदि ग्रेह है कि जी ज्योतिश्चक में। परिभ्रमण करतेवर तथा-(कर्जये) फैतु ग्रह जो जंगत के शुभ अशुभ निमित्त को लेकर उदित होता है और जिसे पूछडियो-म तारा" चोटीवाला तारा" इत्यादि नाम से लोग फरा करते हैं ये सबहो (गइरहया ) गमनशील है-एक राशि से अन्यराशि पर गमन. करने के स्वभायवाले हैं। ये उक्त (तिविरा) तीन प्रकार के चद्र, सूर्या ग्रहस्प ज्योतिपी देवे तथा' (अट्ठावीम विरी) अट्ठाईस' प्रकार के (नक्वत्तदेवंगणा) नक्षत्र (णाणासठाणसठियाओ) नाना गाय ", , धूमातु, युध-मने २0१४-11 में ताश छ, त - २४-मण “ तत्ततवणिज्जणगवण्णा" तावदा मुना २ पाणछ,'तया “जे अगहा जोइसिम्मि चार चरति" ते भिवाया-ystallia કરે છે તે છે તથા તગ્રહ જે જગતના શુભ અશુ મિ.દર્શાવવર્તેિ ઉગે છે અને જેને પ્ર િતાગને નામે ઓળખે છે, એ બધ * "गहरईया " भिनास यशसिमाथी सन्यासिभ ' पानास्वमा रोतिबिहा" न चन्द्र, भूयः अन भ७३५, न्याति देवा तथा अट्रोवीसइविहामायावी इन नक्खक्षण वगणा" नक्षत्राणामडियालो", विविध साAAT Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'महोग' महोरमागधन्या धर्मान, एतेपा, इन्द्र । एजेऽव्यातरमेदार एते हि विरिस्वास निर्यवासिनः-मनुप्युलोकत्रासिन, तथा सचविहार पञ्चविधा चन्द्रसूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारारूपाः, 'जोइसियाय' ज्योतिपिकाच देवाः, से के ? इत्याह - 'वहस्सइचदमूरसु कामणिन्छ।' वृहस्पतिचन्दमरशमशनवर तथा 'बहुधूमकेबुहा य' राहुघूमकेतुबुधाश्च तथा अगारकाय अङ्गारस्व:मंगलता; मको विशेष कीदृशः एमः ? इत्याह-तत्ततवणिज्जणगणा तारा रक्खसकिनर-किंपुरिस महोरग-गनव्या यतिरियवासी) अवसान कार उन देलनिकायो-को नामनिर्देश पूर्वक प्रकट करते है, उनमें वे सब से पहिले भवनपतियों के भेदो, के नामों को करते हैं अमुस्कुसापु नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युत्कुमार, ज्वलन, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार दिशाकुमार, वायुसार और स्तनितकुमार ये दृश प्रकारके भवनप्रति हैं। तथा अप्रज्ञप्तिक, पञ्चधज्ञप्तिक, ऋपिवादिक, भूत्वादिकदिल, महामहिला कमांडासतगदेव, आठप्रकार के ये व्यन्तर निकाय केले है। तथा पिशाच, भूत, सक्षा पक्षप किन्नर, किंपुमत महोगपर्व ये. आठ व्यखर देवों के दो येत्यन्तरदेवतिर्यग्लोक मनुपरलोक वासी हैं। तथा-(प्रचविहाजोड सियाय देवा महस्सइ चनसूरसुक्सनिच्छ चन्द्र, सूर्य, ग्रह नक्षत्र,श्व द्वारा, ये पाच प्रकार के ज्योतिपिक देव हैं। इन में जो मह जाती के देव है उनके ये वृहस्पति चद्र, सूर्य शुक्र शनैश्चर तथा राहुधूमके उ हाय पाएगा याहुः धूम,केतु धर महाफदिय-फुहण्ड-पया-देवा पिसायभूय-जक्सरक्सस-किलर-किंसुरिसनमहोरगः गधन्दाम तिरियवासी." बजार ते व नियोन नामाना निश सहित પ્રગટ કરે છે તેમનામાથી સૌથી પહેલા ભવનપતિના ભેદના નામે બતાવે છે–અસુરકુમાર, નાગકુમાર, સુપર્ણકુમાર, વિઘુકુમાર જવલનઅગ્નિકુમાર, દ્વીપકુમાર ઉદધિકુમાર, દિશાકુમાર, વાયુકુમાર અને સ્વનિતકુમાર, એ દસ પ્રકારના શવનું છે અપ્રમિક પશુપસિડ કષિાદિક ભાવાદિક કદિત, મહાફ દિલ, એંડ, અને મતદેવ, એ આઠ પ્રકારના વ્યન્તર નિકાય, हेवा-तथा पिशाय भूत, AR RANA २५, भार, गया, मे मा व्यन्त२३१ तिया -मनुष्यता पासी छे तया " पनविहा- . जोइसियाय देवा वहस्सइ च सूर अक्सनिच्छरासायन्द्र सूर्य , नक्षत्र અને તારા એ પાચ પ્રકારના તિષિક દેવો છે, તેમાં ગ્રહ જતિના જે તે छ aad पति, य सूर्या, ४, शनि तथा . . . Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुनी -सीका 7०५ १०३ यथा ये परिप्रद पुर्वन्ति तन्निरूपणम् । पनीयतकापर्णः-तप्तं यसपनीयकमान्तपनीयमु वर्ण तस्य वर्षासमोधस्य माग तयोता भानी परितापने सुवर्णस्त्र यादो पो भवमि, तादृश-वर्ण-पुता ब्यक आईसात्स्वे रद्दषचनम् । नया गप उतरे जे गह' ये पां. सम्पतिकाल मसिद्धानेपामुलालान्याजोइसम्मि'ध्यातिषि-ज्योनिश्रा चारारतिक -परिभाम्पत्ति, ते ग्रहाः, नधा फेस य तपन-ज्योतिष्प विशेपा हे जगह शुभाशमनिमितमवलम्ब्योदय, प्रागुनति- पुलडियातास चोटीवाला तास इत्यादिनाम्ना भाषामसिद्धा, कोदशाएने इत्याद'गडदया जानिरतिका'-। गमनशीएफराशितोऽन्यरागा, प्रगमनस्वभावा।। एते चन्द्रमर्यग्रहात्रिविधाजसोनम विष्कदेवा उक्ताः । तथा 'अहानीमापिटा य' अष्टानिशतिरिधाश्च नरखत्तदेव:गणा नक्षदरगामीशी उत्याह-तया नावामठाणमंठियाओमी और अगरिक भगल ये भेद हा यलगारक तत्ततरणिजकणगर्वणी तसतपनीय-तपाये हुगे सुवर्ण के वर्ण के जैसा धेर्ण वाली है। अर्थात् अग्नि में पाने से सुवर्ण का जैसा रंग होता है वैसी ही इसको रंग हैतिया (जेय गह। जोइसिम्मि चार चरति इनसे अंतिरिक्त जी इस समय में प्रसिई नेपच्युले हपैल आदि ग्रेह है कि जी ज्योतिश्चक में। परिभ्रमण करते हैं वह तथा-(1ऊ य) केतु ग्रह जो जगत के शुभ अशुभै निमित्त को लेकर उदित होता है और जिसे पूछडियोग तारा चोटीवाला तारा" इत्यादि नाम से लोग कहा करते हैं ये सब ही (गइरहया) गमनशील है-एक राशि से अन्यराशि पर गमन, करने के स्वभायवाले है। ये उक्त ( सिविहा) तीन प्रकार को चद्र,सूर्य ग्रहस्प ज्योतिपी देवे तथा (अट्ठावीमह विरी) अट्ठाईसे' प्रकार के (नक्खत्तदेवगणा) नक्षत्र (णाणासठाणसठियाओ) नाना रगाय " , धूमकेतु, भु५-२मने अा छ, त - २४- " तत्ततवणिज्जकणागवण्णा " त सुप ना २२ । पायो तथा “जे अ, गहा जोइसिम्मि चार चरति" ते सिवायत-staina સમયમાં પ્રસિદ્ધ નેપન, હર્ષલ આદું રહે છે જે તિક્ષકમાં ફરિભ્રમૂર્ણ डा तथा केऊय अंडीगतना शुभ अशुभ मानिमित्त દયંવર્ન ઉગે છે અને જેને પૂછડિયા તારીને મનને આપે છે એ બધ" "महरइयो " भनी छे शशिमाथी भन्न शरिभाभ' श्वामावापामा छ त Seri"तिविहां " ांशु प्रानन्द्र, सूय अन 8 यातिषी देवा तथा अदाधीसइविहा 18वीन नखक्षी देवगणा" नक्षत्र, # णाणासठाणसठियाओ" विविध प्रशासन से स्थानामा पोprmanand Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण - - - - नानासस्थानसस्थिताश्च 'वाराओ' तारकाः, कथ भूतास्तारकाः ? इत्या:-- 'ठियलेस्सा ' स्थितलेश्या:-स्थिताः स्थिराः लेश्या:-दीप्तय. यासा ताः, नक्षत्रतारकाणामेकस्थानस्थितिमत्त्वात, यद्वा--मनुप्यक्षेत्राद रहिव्यवस्थितत्वाद स्थितलेश्यावत्व तासाम् , 'चारिणो य' चारिश्च यासचरगशीलाचन्द्रसूर्यग्रहाच, 'अविस्सतमडलगई। अनिश्रान्तमण्डलगतयः-अपियान्ता-विश्रामाजिता मण्डलेन-चक्रमालेन गति येषां ते तथा सततपरिभ्रमणशोलाः सन्तीत्यर्थः, एते प्रकार के सस्थान से सस्थित ऐसे तारागण कि जिनकी (ठियलेस्सा) लेश्या-दाप्ति-स्थिर है। ये नक्षत्र और तारागण एक स्थान में स्थित हैं, अथवा मनुष्यलोक से बाहर ये अवस्थित है-गति रहित हैं-इसलिये यहा इन्हें स्थिर दीप्ति वाला कहा गया है। तया (चारिणीय अवि स्साममउलगई ) सचरणशील चद्र, सूर्य, ग्रह ये सर सतत परिभ्रमण शील है । तात्पर्य इसका यह है कि ये पाच प्रकार के ज्योतिषी देव मानुषोत्तर नामक पर्वत रूप जो मनुष्य लोक है उस मनुष्यलोक मे सदा भ्रमण कीया करते है । उनका भ्रमण मेरुपर्वत के चारो और होता है। मेर के समतलभूभाग से सातसौ नन्वे योजन नी ऊँचाई पर ज्योतिश्चक्र क्षेत्र का आरभ होता है। जो वा से ऊँचाह में एक सो दश योजन परिमाण है और तिरछा असख्यात द्वीप समुद्र परिमाण है। उस मे दश योजन की ऊँचाई पर अर्थात् उक्त समतल से आठ सौ योजन की ऊंचाई पर सूर्य के विमान है, वहा से अस्सी योजन की ऊँचाई पर अर्थात् समतल से आठ सो अस्सी योजन की उँचाई पर रखता ठियलेस्सा" स्थिर पाता। छ, ते नक्षत्री मने ताગણું એક જ સ્થાને રહેલા છે, અથવા તેઓ મનુષ્યલોકની બહાર આવેલા છે–ગતિરહિત છે તે કારણે અહી તેમને સ્થિર દીતિ (તેજ ) વાળા मतान्या छ तथा "चारिणो य अविस्साममडलगई" सयरणीय यद्र सूर्य ગ્રહ એ બધા સતત પરિભ્રમણÍલ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે એ પાચ પ્રકા રમે જ્યોતિષીદેવ માનુત્તર નામના પર્વતરૂપ જે મનુષ્યલેક છે, તે મનુષ્ય લેકમાં સદા પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે તેમનું ભ્રમણ મેરુ પર્વતની ચારે તરફ થાય છે મેરુના સમતલ ભૂભાગથી સાતસે નેવુ જનની ઊંચાઈ પર જે તિશ્ચકના ક્ષેત્રને આર ભ થાય છે જે ત્યાથી ઊંચાઈમા એક દસ ચાજને પરિમાણ છે અને તિરકસ ઊંચાઈ અસ ખ્યાત દ્વીપ સમુદ્ર પરિમાણ છે તેમા દસ એજનની ઊંચાઈએ એટલે કે ઉપરોક્ત સમતલ ભૂમિથી આઠ જનની ઊંચાઈ પર સૂર્યના વિમાન છે, ત્યાથી એ સો એજનની ઊંચાઈ પર અથવા સમતલથી આઠસે એ સી એજનની ઊચાઈ પર ચન્દ્રના વિમાન • ચી Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तनिरूपणम् ५९ चंद्र के विमान हैं। यहा से वीस योजन पर की उंचाई तक में अर्धाद समतल से नवसौ योजन की उँचाई तक में ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं। चद्र के उपर चीन योजन की ऊँचाई में पहिले चार योजन की ऊँचाई पर नक्षत्र है, इसके बाद चार चार योजन की ऊँचाई पर चुपग्रह, उधग्रह से तीन योजन की ऊंचाई पर शुक्र, शुक्र से तीन योजन ऊँचे गुरु, गुरु से तीन पोजन ऊचे मगल और मगल से तीन योजन ऊँचे शनैश्वर हैं । इस प्रकार यह चन्द्र के ऊपर का पीस योजन का क्षेत्र नक्षत्र आदिकों द्वारा घिरा हुआ रहता है। इस तरह इससे हमें यह बात जानने में देरी नहीं लगती है कि मनुष्य क्षेत्र में जो काल का-मुर्त-अहोरात्र-पक्ष, मास आदि का जितना भी व्यवरार होता है वह सबहस ज्योतिश्चक्र की चाल से ही होता है। यह ज्योतिश्चक की चाल उस ढाईद्वीपरूप मनुष्यक्षेत्र में अमिश्रान्त रूप से ही होती रहती है। मनुष्य क्षेत्र के बाहर के ज्योतिक विमा नस्थिर है । ये वहा स्वभावतः इधर उधर भ्रमण नहीं करते । इसी कारण से उनकी लेश्या और उनका प्रकाश भी एक रूप-स्थिर है। अर्थात् वहां राहु आदि की छाया पड़ने से ज्योतिप्कों का स्वाभाविक पीतवर्ण ज्यो का त्यों बना रहता है। और उदय अस्तन होने के कारण વિસ એજનની ઊંચાઈ પર એટલે કે સમતલથી નવસે જનની ઊંચાઈ સુધીમાં ગ્રહ, નક્ષત્રો અને તારા છે ચન્દ્રથી ઉપરની વીસ જનની ઊંચાઈમાં પહેલા ચાર યજનની ઊંચાઈ પર નક્ષત્રે છે, ત્યાર બાદ ચાર એજનની ઊંચાઈ પર બુધ નામનો ગ્રહ છે. બુધ ગ્રહથી ત્રણ જનની ઊંચાઈ પર શુક છે ગુકથી ત્રણ યોજન ઊંચે ગુરુ છે ગુરુથી ત્રણ જન ઊ મગળ છે, મ ગળથી ત્રણ ચજન ઊંચે શનિ છે આ પ્રમાણે ચન્દ્રની ઉપરનું વીસ જનનું ક્ષેત્ર નક્ષત્ર આદિ દ્વારા ઘેરાયેલુ રહે છેઆ રીતે આપણને એ વાત સમજતા વાર લાગે તેમ નથી કે મનુષ્યક્ષેત્રમાં જે કાળનો મુહત, દિવસ રાત, ૫ખવાડિયા, માસ આદિને-જે વ્યવહાર થાય છે તે સઘળો આ તિશ્ચકની ચાલથી જ થાય છે તે તિગ્રકની ચાલ આ અઢીદ્વીપરૂપ મનુધ્ય ક્ષેત્રમાં અવિરત ચાલ્યા કરે છેમનુષ્ય ક્ષેત્રની બહારના તિષ્ક વિમાન સ્થિર છે તેઓ ત્યા સ્વભાવિક રીતે જ આમ તેમ ભ્રમણ કરતા નથી એ જ કારણે તેમની વેશ્યા અને તેમનો પ્રકાશ પણ સ્થિર છે એટલે કે ત્યાં રાહ આદિની છાયા પડવાથી તિષ્કને સાધારણ પીળો રંગ એને અવે રહે છે અને ઉદય અસ્ત ન થવાને કારણે તેમને પ્રકાશ પણ એક સરખો Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - % 3AE पञ्चविधा ज्योतिपिक देशमा अनिमानिकानाह-उपस्चिरर ' परिचराःतिर्यग्मोकस्योपरिवर्तिनः- उडालोगवागिणोश उप्रलोकवासिनः विमाणिमा य देवाधिमानिकाशदिवा पबिहा' द्विविधा:-दिम काराः, परपोपपन्न कल्पातीव भेदात ता-करपोपपना द्वादेशघा, तानाह- सोहम्मी-सण-संर्ण कुमार-मीहिंद भलोग-लतंग महामुग-सहरसार-आय-पाणय-भारण-न्चुया सौधर्मशान 'सनत्कुमारमाहेन्द्रनीलो गन्तकमहोशुक्र-सहस्रारीनेतमागतारणायुताः, ते पविमणिवासिणी कल्परनिमानगासिन.-कैल्पोपपना मुरगणा' सुरंगणी अर्थ पाल्पातीतीनाह- मेजा गयकाः अघुत्तरी अनुत्तरीE ntitatti krt. उनका प्रकाश भी एकसा स्थिर ही रहती है। इस प्रकार यह पांच प्रकार के ज्योतिषिक देवों के विषय में भावार्थ रूप से यत् किश्चितायन किया है। अब सत्रकार चैमानिर्क देवों के विषय में कहते हैं- ( उकरिचिरा उठूलोगेवासी वैमाणिया देवा दुधिहा) तिर्यग्लोक है। ये वैमानिक के जार जो ऊर्चलो है उसमें ये देव रहते हैं। इनका नाम वैमानिक देव कल्पोपपत्र और कल्पातीत के भेद से दो प्रकार के होते है। इनमें कल्पोपपन्न बाहर प्रकार के है, वे ये है- सोहम्मी-साण-सणकारमाहिंद-घभलोग-लसँग-महातुक-सहस्सार-आणय-पणिय-आरण-5 चुयाँ) सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महा शुक्र, सहस्रारे, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत । इन (कप्पवरीब विमाणवासिणो सुरगणा ) कल्पवरविमानों में रहनेवाले सुरगण कल्पापपन्न कहलाते हैं । (गेवेज्जा अणुत्तरा य दुविहा कप्पातीय विमाणજે સ્થિર રહે છે. આ પ્રમાણે પાંચ પ્રકારને અતિપિકને વિશે બાવા રૂપ ડું કર્થક કરવામા આવ્યું છે, હવે સૂત્રકાર વૈમાનિક વિષે કહે છે" उपरिचरा, उड्लोगनासी' वैमोणियादेवा दुविहार तय Sangit G५२, લેક છે તેમા તે દે રહે છે, અને તેમને વૈમાનિ કહે છે. તે મેનિક નિા બે ભેદ છે-કપાતીત અને પિત્ત તેમનાં કપ નીચે પ્રમાણે આર Hना -" सोहम्मीरसाण सणकुमार-माहिंद-बभलोग-लतग-महासुक-सहरसार -आणय-पारण बारेणऽच्चुया" सीधी, न, सभा , माड, ets aldy, माशु, ससार, मानत, प्राणत, सा२६५ अश्युत से “पवर विमीणवासि! "सुरगणा ॥ ५ विभामा २९ना मुशाने पापन " गेवेजा अणुत्तरा'य दुविहr कल्पातीया विमाणवासी महड्ढिया उत्तमा Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ०५ सू०३ यथा ये परिग्रह युनि तन्निरूपणम् ५२१ थेति 'दुविहा' हिरियाः कपातीया' कलातीता. 'विमाणपासी' विमानसीन:-अनुत्तरिमानमासिन 'महडिया' महर्दिका 'उत्तमा' उत्तमाः श्रेष्ठाः मुखराः सर्वोपु प्रधाना, 'एव चं' इत्युक्तनकारेण 'चउब्धिहा' चतुर्विधाः-भवनातिमानव्यन्तरज्योतिप्कामानिररूपा, सररिसावि' सपरि पदोऽपि न केवल मेते रिन्तु पपा परिरदोऽपीत्य , देवाः 'ममायति' ममा. यन्ते ममत्त कुर्वन्ति । कस्मिन् विपये ममत्व कुर्वन्तीति तान्याह-'भवणवाहणनागरिमाणमय गारगागि य ' भानरानयाननिमानशयनासनानि च, तथा 'नागारिह प्रत्यभूमगागि य ' नानाविवभूपगानि च 'पपरपहरणाणि य' वासीमडिया उत्तमा सुरवरा एच चैते चन्धिहा मपरिसा वि देवा ममायति ) कम्पातीत के दो भेद है (२) ग्रेवेधक विमानवासी और (२) अनुत्तर विमानवाली इनमें जो पाच अनुत्तर विमानां में-विजय, वैजयन्त, अपराजित और सर्वार्थ मिद्ध इनमें रहनेवाले देव है वे मद्धिक कहलाते हैं और सर देवों में उत्तम-श्रेष्ठ एव प्रधान माने जाते है। कल्पोपपन्न देवों मे स्वामिसेवक भाव होता है। करपातीत में नहीं। ये तो सभी इन्द्रवत् होने से अहमिन्द्र कहलाते हैं। मनुष्यलोक में किसी निमित्त पर कल्पोपपन्न देव ही आते है-कल्पातीत नही । इस प्रकार भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकरूप चारों प्रकार के देव अपनी २ परिपदासरित इन भवन आदि पदार्थों में ममत्व करते हैं। सूत्रकार अब इन्ही ममत्व के विपयभूत पदार्थो को करते हैं-(भवण-वारण-जाणविमाण-सयणासणाणि ) भवन, वाहन, यान, विमान, शयन, आसन तया- (नागाविस्वत्थभृसणणि य) सुरवरा एव चउचिहा सपरिसा वि देवा ममयति" ४६पातीतना मे छ (१) अवय विमानवामी गने (२) अनुत्त विमानवासी तमाना विय, વૈજ્યન્ત જ્યન્ત અપરાજિત અને સવાર્થ સિદ્ધ એ પાચ અનુત્તર વિમાનમાં રહેનાર જે દેવે છે તેમને મહદ્ધિક કહે છે, તે દેવે બધા દેમા શ્રેષ્ઠ ગણાય છે મનુષ્યલકમાં કઈ પણ નિમિત્તે પપા દેવો જ આવે છે, કપાતીત આવતા નથીઆ રીતે ભવનપતિ, વાનવ્યન્તર, જ્યોતિષ્ક અને વૈમાનિક, એ ચાર પ્રકારના દેવ પિત પિતાની પરિષદ સાથે તે ભવન આદિ પદાર્થોમાં મમત્વ રાખે છેસૂત્રકાર હવે તે મમત્વના વિષય રૂપ પદાર્થો દર્શાવે છે' भवण-याइण-जाण-विमाण-सयणा-सणाणि " अपन पाउन, यान, विमान, शयन, सामन, तथा “ नाणाबिहानभूसणाणि य" विविध वस्त्रो, माभूष! - - Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५२० पचविधा ज्योतिपिफ देशमक्षा अवमानिकाना--'उपस्चिरर ' परिम्परा:तियग्लोकस्योपरिवर्तिग उडालोगवाषिणोन अर्धलोकासिन वेमानिय योधमानिकाच दिवा दुविहा' द्विविधा-दिमकारा, कल्पोपर्पन पासीत भेदीताता-कल्पोपपना द्वादेशधा, तानाह- सोहम्मी-सीण-संणकुमार-मीहिंद गभलोग-लतंग महासुर-सहस्सार-मागय-पाणय-भारण-चुया सौधर्मेशान 'सनत्कुमारमाहेन्द्रह्मलौलान्तकमहशुक्र सहस्रीरोनतमागतारणाच्युताः, ते प्परविमाणवासिणी कल्पवरनिमाननासिन.-कल्पोपपना मुरगणा' सुरंगणाअ पल्पातीतीनाह-मेंजा" येयका अगुत्तरी अनुत्तरी 1 . espitiपउने का प्रकाश भी एकसी स्थिर ही रहनों है । इस प्रकार यह पांच प्रकार के ज्योतिपिक देवों के विषय में भावार्थ रूप से यत् किवितायन किया है । अब सूत्रकार वैमानिक देवों के विषय में करते हे (उपरिचिरा उडलोगवासी वेमाणिया देवा विहा) तिर्यग्लोक है। ये वैमानिक के जार जो अर्चलोग है उसमें ये देव रहते हैं। इनका नाम 'वैमानिक 'देव क्ल्पोपपन्न और फल्पातीत के भेद से दो प्रकार के होते है। इनमें कल्पोपपन्न बाहर प्रकार के हैं, वे ये हैं- सोहम्मी-साण-सणकुमारमाहिंद-घभलोग. लतंग-महासक- सहस्सार-आणय-पणिय-आरण-5 ज्या) सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तर्क, महा शुक्र, सहनारे, आनत, प्राणूत, आरण और अच्युत । इन् (कप्पवरबि विमाणवासिणी सुरगणा ) कल्पवरविमानों में रहनेवाले,सुरगण कल्पा पपन्न करलाते हैं। (गेवेज्जा अणुत्तरा यदुविहा कप्पातीय विमाण"જ સ્થિર રહે છે એ પ્રમાણે પાંચ પ્રકારના અતિષિક વિશે ભાવાર્થ રૂપ ડું ન કરવામા આવ્યું છે. સૂત્રકાર વૈમાનિક દે ‘વિ કહે છે परिचर। उड्डलोगरासी' माणियादेवा दुविहा 'तिय Salmit S५२, ' લેક છે તેમતે દે રહે છે, અને તેમને વૈમાનિક કહે છે તે વૈમાનિક ના બે ભેદ છે-કુપાતીત અને કપિપપ તેમના કપિપપન્ન નેચે પ્રમાણે આર अता- सोहम्मीरसाण-सणकुमार-माहिद-बभन्लोग-लंतग-सहासु-सासमार -आणया-पारण-सारणऽच्नुया" सौधा, शान, सनामार भाड, Marati सान्त:, भY४, ससार, मानत, प्रात, आमच्युत र “क्रायवर विमाणवामिणों सुरगणा सर विभाममा २नार सुस्काराने स्पेन र "गेवेजा अणुत्तरा'य दुविहा कल्पातीया विमाणवासी महाढिया उत्तमा E Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शिनी टोका ०१०५ ३ यथा ये परिग्रहं कुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५२३ 6 " 6 " , ? घसत्यादिकानि, तत्र - कृप - प्रसिद्ध, सरः- प्रसिद्धम्, तडागः - सपद्माऽगाधजलाशयः, पी आयतजलाशयनिशेष दीपिका- चतुष्कोण जलागयरूपा'देवकुलानि देवमाप्रसिद्धा, मनाः पानीयशालाः, वसतय =सामान्य गृहाणि, एतान्यादी पा तानि तथोक्तानि, 'टुका निहूनि 'कित्तणानि च ' कीर्तनानि च अय देवी देवऋद्धि सम्पन्नः " इस्पेन प्रशसा वाक्यानि च परिग्रहलेन ममायन्ते । ततथ मकृत परिग्गह ' परिग्रह कीदृश परिग्रहम् ? ' निउन्द्रव्यसार विपुलद्रव्यसार = विपुलानि द्रव्याण्येव सारो यस्मिंस्त तथोक्त, परिगिण्डित्ता ' परिगृत ' सइदगा ' सेन्द्रकाः -चन्द्रमहिताः देव देवा अपि न तित्ति नवृप्ति नैच्छनिनित्त न तुहिं' न तृष्टिम् नापि सन्तोपम् ' उनलभति ' उपलभन्ते=माप्नुयन्ति, आकाङ्क्षाया निरावाघत्वात् । अय भाग. - देवा हि महार्थलाभे समर्या. दीर्घायुपश्च भान्ति परन्तु तेऽपि परिग्रहनिपये न सतोष प्राप्नुयन्ति इतरेपा पुन का कथा ? | माझ्याइ) कुवा मर, तडाग- पद्मसहित अगाध जलाशय, चापी, दीर्घिका - चतुष्कोणचाली वावडी, देवकुल- देवगृह, सभा, प्रपा-प्याऊ, वसति - सामान्यघर, इत्यादि और भी बहुत सी वस्तुए हैं जिनमें इन देवों का ममत्व होता है । तथा (नया कित्तणाणि य ) अनेक विध कीर्तनों में "यह देव दिन्य ऋद्धि सपन्न है " इत्यादि रूप प्रशसा वाक्यो में इनका परिग्रहरूप से ममत्व होता है । (विउलव्वसारपरिग्गह परिगहित्ता सरदगा देवा चिन तित्ति न तु अच्चत विल्लोभाभिभूयसन्ना उवलभति ) इस प्रकार विपुल सार वाले परिग्रह को ग्रहण करके इन्द्रसहित देव भी इच्छाविनिवृत्तिरूप तृप्ति को तथा सतोष रूप तुष्टि को आकाक्षा की निरानावता के कारण प्राप्त नहीं कर पाते हैं । तात्पर्य इसका यह है कि महर्द्धि देव यपि इच्छित अर्थ के लाभ करने में समर्थ Sorry , H - 66 " योभूयु वावडी, हेवटुस - देवगड, सला, प्रथा - हुवाडा, वमति-सामान्य घर, વગેરે વસ્તુઓમા તથા એ સિવાયની બીજી પણ અનેક વસ્તુઓમા દેવા મમ વ રાખે છે તથા 'बहुयाइ वित्तणाणि य " अने अजरनी प्रशसामा “मा દેવ દિવ્ય ઋદ્ધિ વાળા છે” ઇત્યાદિરૂપ પ્રશમાના રાખ્તોમા તેમનુ પશ્ચિહરૂપે મમત્વ હોય છે निसार परिग्गह परिव्हित्ता सइदगा देवा विन तित्तिं न तुट्ठि अच्चतवि उललोभाभिभूयसन्ना उपलभति" अ प्रभागे विपुझ સારવાળા પરિગ્રહને ગ્રહણ કરવા છતા પણ ઇન્દ્ર સહિત દેવા પણ ઇચ્છામાથી નિવૃત્તિ રૂપ તૃપ્તિને તથા સતાપ રૂપ તુષ્ટિને આકાલાની અપરિમિતતાને કારણે પ્રાપ્ત કરી માતા નથી કહેવાનુ તાત્પ એ છે કે મદ્વેિ દેવ! જો કે ઇચ્છિત વસ્તુ પ્રાપ્ત કરવાને સમથ તથા લાખા આયુષ્ય વાળા હોય છે તે પણ તેઓ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ૨૨ प्रश्नध्याकरण भारमहरणानि च=मराणि-अठानि यानि प्रारणानि-आयुगानि तानि च, तथा'नाणामणिपचपण्णदिव्य च भायणविहिं ' नानामणिपश्चार्णदिव्य च माननविधिम्-नानामणीना-चन्द्रकान्तमूर्यकान्तादिमणीना चे पनपर्णा स्तै दिव्य श्रेष्ठ विविधभाजनसमूहम् , तथा-'नागारिहकागस्ववेउनिय अन्डरगगसधाए य' नानाविधकामरूपविकुर्विताप्रोगगमधातांध - नानाविधानि-जनेकप्रकाराणि यानि कामरूपाणि स्वेछारूपाणि तानि किषितानि येस्ते तथाभूता वेऽप्सरोगणास्तेपा सधातास्तान-अपरः रामूहानित्यर्थः, तथा 'दीनममुद्दे' द्वीपसमुद्रान्, 'दिसाओ विदिसाओ' दिशारिदिशा : चेडयाणि' चैत्यानि वृक्षान् क्ल्पतरु रूपान् वनसडेवनपण्डानि-अनेकरियससम्रहान् 'पन्यते' पर्वतान् ‘गाम. नगराणि य ' ग्रामनगराणि च, तया 'आरामुज्जाणकाणणाणि य 'आरामोधानकाननानि च-आरामाः-उपवनानि, उपानानि-पुष्पप्रधानमनानि,काननानि अरण्यानि,एतेपामितरेतरयोगद्वन्द्व , तथा - कृतमरतलागाविदीहिय देवकुलसभप्पावसहिमाइयाड , कूपसरस्तडागवायीदीपिकादेवकुलसभाप्रपा नानाविध वस्त्र, आभूषण, ( पयरपहरणाणि य) श्रेष्ठ आयुध, (नानामणि पचवण्णदिव्व य) चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त आदि नानामणियों के पचवर्णवाले श्रेष्ठ माजन , तथा (नाणाविर कामरूबवेउब्धियअच्छरग णसघाए य ) नाना प्रकार के स्वेछानुसार जिन्हों ने रूपों को बनाया है ऐसी अप्सराओ का समूह (दीवसमुद्दे ) द्वीप, समुद्र (दिसाओविदिसाओ) दिशा, विदिशा, (चेइयाणि ) कल्पवृक्षरूप चैत्यवृक्ष, (वन सडे ) अनेक विध वृक्षसमुह (पन्चा) पर्वत (गामनगराणि य ) ग्राम, नगर, (आरामूज्जाणकाणणाणि य ) आराम-उपान, उद्यान-पुष्पप्रधान चन, कानन-अरण्य, ( कृवसरतलागवावीदीहियदेवकुलसभपवावसहि " पवरपहरणाणि य " श्रेष्ठ मायुधी, "नानामणि पचवणदिव्य य " य-zird, सूर्यन्त माह विविध भणियोना पाय वा पात्रा, तथा " नाणाविह कामरूव-वेउब्बिय- सरगणसघाए य” भने ४२ानुसार विविध ३५ो धार या छ मेवी मसरामानी समूह, “दीवसमुद्दे " द्वीप समुद्र दिसाओं विदिसाओ" हिशा विहिशासा, " चेइयाणि " ५११३५ यत्यय, "वन सडे " भने विध वृक्ष भभूड, “ पन्वए " तो, " गामनगराणि य " साम। नगरी, " आरामुज्जाणकाणणाणि य" राम स्थाना-64वन, धान, ०५, प्रधान वन, आनन-२९५, “ पूवसरतलागवावीदीहियदेवकुलसभप्पवावसहि माइयाइ "पा, सश५२, ता,मयुत म04 vNय, पाव, ale's Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' सुदर्शिनी टीका ५०५ सू०३ यथा ये परिग्रह कुन्ति तनिरूपणम् ५५५ कादशकुण्डलनामकद्वीपान्ततिनः कुण्डलाकाराः पर्वताः, रुचकारा जम्मूद्वीपात् त्रयोदश रुचक पर नामक द्वोपानर्गत मण्डलाकारा पीता', मानुषोत्तरा:मनुष्यक्षेत्रमीमाकारणोमण्डलाकारिपर्वताः, कालोदधिः द्वितीयः ममुद्रा, लवणःलवणसमुद्रः, सलिला सलिलानि सन्त्यासु मलिलगा, गगादिमहान्य', हदपतयःनदमघानाः पद्ममहापमादि महादाः, रतिरा' नन्दीश्वरनाम काटमद्वीपचक्रवाल विदिश्चतुष्टयव्यवस्थिताः सहस्रयोजनोन्छूिताः दशातगव्यूतभूमिगतमूलभागाः, सर्वत्र समाश्चत्वारो झट्टरी मस्थानान्तः पर्वताः, अजनक शैला अवनपर्वता:- नन्दीश्वरचक्रवालम यभागतिनो दिक चतुष्टयसस्थिता नमनरत्नमयाश्वत्वारः पर्वताः, सर्ने कृष्णवर्णाः सन्ति । तथा-दधिमुखाः असनकचतुष्ट्रय पार्थपति पुष्करिणीपोडगमध्यभागवर्तिन पोडशश्वेतपर्वताः, तथा-चवपातोत्पाता:सीप से वे कुउलनामफ दीप के अन्तर्वर्ती कुण्डलाकारवाले पर्यतों में, स्चकवरपर्वतो में-जबूढीप से तेरहवा रूचकवर नामका जोटीप है उसके अन्तर्गत मडलाकार पर्वतो में, मानुपोत्तर पर्वतों मेंमनुप्य क्षेत्र की सीमा करने वाले मठलाकार पर्वतो में, कालोदधि नामके द्वीतीयसमुद्र में, लवणसमुद्र, में गगा आदि महानदियों में, नद प्रधानों में पद्म, महापा आदि महा इदों में, रतिफरों में-जो नदीश्वर नाम के आठवें द्वीप की चार विदिशाओ में स्थित है एक हजार योजन उचे है तथा एक हजार कोशतक जिनका मूल भाग पृथ्वी में है-अदृश्य है, और जो मर्वत्र सम है ऐसे झल्लरी के आकारचाले चार पर्वतों में, अजनक गिरियों में नदीश्वर द्वीप के मध्यभाग मे रहे हुए, चार पर्वतों में कि जो अजन रत्नमय होने से काले है और चारों दिशाओं मे स्थित हैं दधिमूखों में-चारों अजनगिरियों के पासमें रही हुई सोलह पुष्करिકાર પર્વતેમા, ચકવર પર્વતેમા–જબૂદ્વીપથી તેરમો જે રુચકવર નામને દિલીપ છે તેની અંદર મડલકર પર્વતેમ, માનનુત્તર પર્વતેમા, મનુષ્ય ક્ષેત્રની સીમા કરનારા માડલાકાર પર્વતેમા, કાલેદધિ નામના બીજા સમુદ્રમા, લવણ સમુદ્રમા, ગગા આદિ મહા નદીમાં, નદ પ્રધાનોમા–પધ, મહાપ આદિ મહા હમા, રતિ રામાન દીશ્વર નામના આઠમા દીપની ચાર વિદિશાઓમાં રહેલ, એક હજાર ચૌજન ઊંચા તથા એક હજાર કે સુધી જેને મૂળ ભાગ પૃથ્વીમા છે-અદશ્ય છે, અને જે સર્વત્ર સમાન છે, એવા ઝાલરના આકારના ચાર પર્વતેમા, અજનગિરિમા-નદીશ્વર દ્વીપના મધ્ય ભાગમાં આવેલ ચાર પર્વતેમા કે જે અજન રત્નમય લેવાથી કાળા છે અને ચારે દિશાઓમાં ઉભેલા છે, દધિમુખમા-ચારે આ જનગિરિની પાસે આવેલ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সাবান্ধব पुर्वोक्ता देवाः कथम्भूता ? इत्याह- 'अन्चतपिउलटोमाभिभूयमण्णा' अत्यन्तपिपुललोभाभिभूतसताः - अत्यन्तः-अतिशय विपुगे यो लोभस्तेन अभिभूता सज्ञा सज्ञानम्मनो चेपा ते तथोक्ता संग्रहकगीला त्यय , के ते देवा ? इत्याह-पासहरइक्सुगार वट पन्चयकुडल-रुचग परमाणुसोत्तर-पालो दधि लपण-सलिल-दहपति-रतिकर अजणक-सल-दहिगुह-पातुप्पाय-कवण क-वित्तविचित्त-जमा-परगिहरकडयासी । वर्षधरेपुकारपर्वतकृण्डल रुचक वरमानुपोत्तरकालोदधिलवणमलिलादपतिरतिरुगवनाशलदधिमुखापातोत्पात - काञ्चनक - चित्रविचित्र - यमकवरशिखरकटासिनः तत्र - वर्ष धरा-हिमवदादि पर्वताः, इपुकारा धातकीखण्डपुष्करवरद्वीपायोः पूर्वाप रार्द्धयो मर्यादाफारिणो दक्षिणोत्तरायताः पतिविशेपाः, वृत्तपर्वताः शब्दापाति विकटापातिगन्धापातिमाल्यपन्नामका वर्तुलढयपर्वता, कुण्डला--जम्बूद्वीपादे एव दीर्घायुष्क रोते हैं, परन्तु वे भी परिग्रह के विषय में सतोष से रहित ही रहते हैं। अत.जर इन देवों की यह दशा है तो फिर अन्य देवों की बात ही क्या कही जा सकती है। ये सब देव अत्यत बहुत पढे लोभ से अभिभूत-युक्त सज्ञा-मनोवृत्ति वाले होते है, अर्थात्सग्रहशील होते है । (वासहरइस्खुगार वह पश्वयकुडलस्यगवरमाणुसु सरकालोदहीलवणसलिलदहपतिरतिकर अजणकसेलदहिमुर-ओवा युप्पायकचणकविचित्तजमकवरसिहरिकूडवासी) तथा हिमवत् आदि वर्षधरों में, इपुकारो में-घातकीखड तथा आधे पुष्करपरद्वीप के पूर्वाध और पश्चिमा रूप दो भागों की मर्यादाकारी तथा दक्षिणोत्तर तक लबे ऐसे पर्वतों मे, वृत्तपर्वतो में शब्दापाति, विकटापाति, गन्धापाति तथा माल्यवान इन नामके वर्तुल वैताढय पर्वतों मे, कुडलो में ग्यारह जम्बू પરિગ્રહના વિષયમા સ તેષ રહિત જ રહે છે તે જ્યારે એ દેવોની એવી હાલત છે તે બીજા દેવની તે વાત જ શી કરવી ! એ બધા દે અત્યંત साली वृत्तिना डाय छ, भेटलेतेसो सडशी डाय छ “वासहर-- इक्खुगारवट्ट-पब्वय-कुडल-रुयगवर-माणुसुत्तर-कालोदहि- लवणसलिल-- दहपति रतिकर-अजणकसेलदहिमुहओवायुप्पायकचणकविचित्त जमकवरसिहरि फूडवासी તથા હિમવત આદિ વર્ષધરોમા ઈષુકામા, વાતકી ખડ તથા અ પકવરવર દ્રોપના પૂર્વાર્ધ અને પશ્ચિમાધ3પ બે ભાગોની મર્યાદા દર્શાવતા તથા દક્ષિણથી ઉત્તર સુધી લાબા એવા પર્વતેમા, વૃતપર્વતેમા-શબ્દાપાતિ, વિકટાપાતિ, ગ ધાપાતિ, તથા માલ્યવાન એ નામના વલ વૈતાઢય પર્વતેમા કુડલે મા-અગિયાર જ બપથી કુડલા નામના દ્વીપની અંદર આવેલ કડલા Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनीटीका म० ५ सू ३ यथा ये परिग्रहं पुर्वन्ति तन्निरूपणम् ५२७ तथा चन्दनवनफूट आदिकों में इनके बसने का स्वभाव होता है। ऐसे ये चारों प्रकार के देव परिग्रह मे तृप्ति धारण नही करते है। भावार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी एव कल्पवासी, इस प्रकार से ये दोनों के मूल चार भेद है इनमे भवनपति देवों के असुरकुमार आदि दा भेद, व्यन्तरनिकाय के-पिशाच, भूत आदि सोलह भेद, ज्योतिप्क निकाय के सूर्य, चन्द्र आदि पाचभेद, तथा कल्पवासियों के ल्पिोपपन्न और कल्पातीत ऐसे दो भेद है। सौधर्म ईशान आदि पारर कल्पों में रहने वाले कल्पोपपन्न, और नवग्रैवेयक तथा पच अनुत्तर विमानों में रहने वाले कल्पातीत है। मनुष्यक्षेत्र में रहने वाले ज्योतिपी देव भ्रमणशील है तथा मनुप्यक्षेत्र से बाहिर के ज्योतिषी देव अवस्थित हैं । इन सर देवों के भवन, वाहन आदि विशिट प्रकार का परिग्रह रहता है । उसके रहने पर भी इनकी भावना फिर अधिक परिग्रह की ओर सग्रहशील रहती है । इन सब दवो का हिमवन आदि पर्वतों में रहने का होता है । सब प्रकार की इन्हें सुखसामग्री प्राप्त रहती है फिर भी इनकी वान्छा परिग्रह की ओर से तृप्त नहीं होती है । सतोपवृत्ति इनके चित्त में नही जगती है ।। सू० ३ ॥ પર્વતેમા ચન્દનવનકૂટ આદિમાં વસવાને જેમને સ્વભાવ છે એ ચારે પ્રકારના દેવે પણ પરિગ્રહથી તૃપ્ત થતા નથી ભાવાર્થ—ભવનવાસી, ચન્તર, જ્યોતિષી અને ક૫વામી, એ રીતે દેવોના મૂળ ચાર ભેદ છે તેમા ભવનપતિ દેના અસુરકુમાર આદિ દરા ભેદ , વ્યન્તર દેવના પિશાચ, ભૂત આદિ સેળ ભેદ, તિવી દેના સૂર્ય, ચન્દ્ર, આદિ પાચ ભેદ, તથા ક૫વાસીઓના કયપ, અને કપાતીત એવા બે ભેદ, સૌધર્મ, ઈરાન આદિ બાર કલ્પમાં રહેનાર પન્ન, અને નવયક તથા પાચ અનુત્તર વિમાનમાં રહેનાર કપાતીત દે કે મનુષ્ય ક્ષેત્રમાં રહેનારા જોતિષીદે ભ્રમણશીલ છે તથા મનુષ્ય ક્ષેત્રની બહારના જ્યોતિષી દેવે સ્થિર છે એ બધા દેવને ભવન, વાહન આદિ વિશિષ્ટ પ્રકારને પરિગ્રહ રહે છે તે બધી વસ્તુઓ હોવા છતા પણ તેમની વૃત્તિ અધિક પરિગ્રહને માટે સહશીલ રહ્યા કરે છે, તે બધા દેવનું નિવાસસ્થાન હિમવાન આદિ પર્વત છે. તેમને બધા પ્રકારની સુખસામગ્રીઓ મળે છે છતા પણ પરિગ્રહ માટેની તેમની વાસના તૃમ થતી નથી તેમના ચિત્તમાં સતોષ વૃત્તિ જાગતી નથી પસૂ ૩ न Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ व्याकरणसूत्रे अवपतन्ति वैमानिका देना येषु तेनवाताः, यनानपत्य वैमानिका देवा मनुष्यक्षेत्रेषु समागच्छन्ति, उत्पतन्ति पेभ्यस्ते उत्पाताः येभ्य उत्पत्य भवनपतयो मनुष्यक्षेत्रे समागच्छन्ति, अपातयत्पातावेति उन्छ', विगि उपटादय पर्वता इत्यर्थः, तथा-काञ्चनका = उत्तरकुरुम ये देवकुरुम ये च प्रत्येक पञ्चाना महादादीना प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः दश काञ्चनकपर्वता सन्ति इति सर्व संकलनया द्विशतसख्यकाः काञ्चनकपता भवन्ति । वा चित्रविचित्रो = निषध नामक वर्षधर समीपवर्त्तिनो शीतोदामानमहानद्युभयत पनि चिनिचित्रकू टाभिधानपतो, यमकरो = नीलनद् पिधर मत्पारानी शीताभिधानमहानद्युभयतदेवर्तिनो यमकारनामको पर्वतो, शिग्वरिणः = समुद्रमयवर्तिनो गोस्तुभादिपर्वताः, 'कूटा = चन्दनवन कूटादय, तेपा इन्द्रः, एषुस्तु शील येपा ते तयोक्ता, देवाः परिग्रहे तृप्तिं न लभन्ते ॥ सू० ३ ॥ जियो के मध्यभाग में जो सोलर सोलह श्वेत पर्वत है उनमें, अथपातपर्वतो में - जहाँ उतर कर वैमानिक देव मनुष्य क्षेत्र में आते हे उन स्थानों में (ये स्थान तिमिच्कुट आदि नाम वाले पर्वत कहलाते हैं ) कावनपर्वतों में ये पर्वत उत्तरकुरु तथा देवकुरु के बीच में हर एक पांच महाइदों के प्रत्येक के दोनों कोनों पर दश दश है। इस तरह से ये दोनों दोसों की संख्या में है उन पर्वतों में, चित्रविचित्र कूट नाम के पर्वतों में ये दोनो पर्वत निषेध नामके वर्षधर के समीप में हैं, तथा शीतोदा नामकी महानदी के दानो तट पर वर्तमान नील वर्णधर के पास रहे हुए तथा शीता महा नदी के दोनों तट परवर्तमान ऐसे यम कचर नाम के पर्वतों मे, शिखरी- समुद्रमभ्यवर्ती गोस्तृभ आदि पर्वतों में, સાળ પુષ્કરણિયાના મધ્ય ભાગમા જે સેાળ સેાળ શ્વેત પત છે તેમા, અવ પાત પર્વતામા જ્યા ઉતરીને વૈમાનિક દેવે મનુષ્ય ક્ષેત્રમા આવે છે એ સ્થા નામા, ઉત્પાત પર્યંતામા-જ્યા ઉતરીને ભવનપતિ મનુષ્યક્ષેત્રમા આવે છે તે સ્થાને મા ( તે સ્થાને તિગિöટ આદિ નામના પતા કહેવાય છે ) કાચનક પતામા-તે પતા ઉત્તરકુરુ તથા દેવકુરુની વચમા દરેક પાચ મહાહેદોમાના પ્રત્યેકના મને ખૂણા પર દશ દશ છે, અને એ રીતે તે મ તે ખસેાની સખ્યામા છે, તે પંતામા, ચિત્રવિચિત્રકૂટ નામના પનતામા-એખ ને પર્વતે નિષધ નામના વધરની પાસે છે, તથા શીતેાદા નામની મેાટી નદીના ખતે કિનારા પર આવેલા છે, નીલ વધરની પાસે આવેલ તથા ગીતા મહાનદીના કિનારા પર આવેલ ચમકવર નામના પતામા નિખરી-સમુદ્રની વચ્ચેના ગાસ્તંભ આદિ ww Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ ० ४ मनुव्यपरिग्रहनिरूपणम् ५२९ } हुति, नियमा सल्ला दडा य गारवा य कमाया य सन्नाय - कामगुणअहगा य इदियलेसाओ, सयणमुपओगा सचिताचित्तमी सगाई दवाइ अनंतगाड इच्छति परिघेत्तु । सदेवमणुयासुरम्म लोए । लोभपरिग्गहो जिणवरे हि भणिओ, नत्थि एरिसो पासो पडिवधो अत्थि सव्वे जीवाण सव्वलोए ॥ सू० ४ ॥ , टीका- 'खार अम्मभूमी' वक्षस्काराकर्मभूमिनु वक्षस्कारा = चित्रकृविजयविभाग गरिणथ, कर्मभूमय = हैमतिका भोगभ्रमयश्च तासु तथो कामु ये वर्तन्ते तथा 'सुविभत्तभागदेसामु ' सुविभक्तभागदेशा सुविभक्ता भांगदेशा पाया ताम्तयोक्तामु 'कम्मभूमिसु ' कर्मभूमीसु -- कृप्यादिं स्थानभूतेषु भारतादिषु ' जे विय' येऽपि च नराः 'चाउरतचव वट्टी ' चा तुरन्वचक्रर्तिनो सुदेवा, वल्देन 'मडलिया ' माण्डलिका 'इस्सरा' ईश्वराः 'तारा' ' तवराः, 'सेणावई' सेनापतय, 'इन्भा' इभ्या: ' सेट्ठी 'श्रेष्ठिनः ' अब सूत्रकार मनुष्य के परिग्रह का वर्णन करते हैं - ' वखार इत्यादि ( वखार अम्मभूमीसु ) विजय विभागकारी चित्रकूट आदि. वक्षस्कारों में, अकर्मभृमियो मे हैमवतिक आदि युगलिक धर्मवाले क्षेत्रों में, तथा (सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमील) सुविभक्त भाग देशवाली कर्म भूमियों में कृप्यादि कर्म के स्थानभृत भरत आदि क्षेत्रों' में (जेविय नरा चा उरत चावट्टी वासुदेवायलदेचा मंडलिया इस्रा तलवरा सेणानईइन्भा सेट्ठिया रहिया पुरोहियाकुमारा दडणायगा गायगा माविया सत्यवाहा कोडबिगा अमच्चा एए अण्णे य एवमादी परिग्ग सचिणति ) जो भी मनुष्य हैं, चातुरन्तचक्रवती हैं, << << हवे सूत्रजर मनुष्योना पग्नुि वर्शन उरे छे" वक्सार " त्याहि वक्सार - अकम्म भूमोसु" वित्र्य विभागअरी चित्रट आहि वक्षस् રામા, અકમ ભૂમિયામા-હુમતિ- આદિ યુગલિક ધર્મવાળા ક્ષેત્રમા, તથા सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमीसु' सुविलन्त लाग देशवाणी उभं लूमियोमाखेती स्याहि उर्मना स्थान३५ लत साहित्रमा " जेविय नरा चाउरतचकवट्टी वासुदेवा देवा मडलिया इस्सरा तलवरा सेणावई इच्भा से ट्टिया रट्रिया पुरोहिया कुमारा पडणायगा गणणायगा माडत्रिया सत्थवाहा कोडुनिया अमच्ची ए ए अणे य एवमादी परिग्गह सचिणति " 7 मनुष्यो छे, यातुरन्त यवर्ति छे ०६७ Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ प्रश्नव्याकरणसत्र अथ मनुष्यपरिग्रह वर्णयति-परखार' इत्यादि मूलम् - बक्खार अकम्मभूमीसु सुविभत्तभागदेसासु कम्मभूमीसु । जे वि य नरा चाउरंतचकवही वासुदेवा वलदेवा मंडलिया इस्सरा तलवरा मेणावई इभा सेठिया रहिया पुरोहिया कुमारा दडणायगा गणणायगा भाडंविया सत्थवाहा कोडुपिया अमच्चा एए अण्णे य एवमादी परिग्गह संचिगंति-अणतमसरणं दुरतं अधुरमणिच्च असासय पावकम्मनेम अवकिरियन्त्र विणासमूल वहवध परिकिलेसबहुलमणंतसकिलेसकरणं । ते त धणकणगरयजनिचियपडिया चेव लोभत्था ललार अतिवयंति सव्वदुक्खसनिलवण । परिग्गहस्लेव य अहाए सिप्पसय सिक्खए बहुजणो कलाओ य बावत्तरिसुनिउणाओ लेहादियाओ सउणरुआवसाणाओ गणियप्पहाणाओ चउस िव महिलागुणे रइजणणे सिप्पसेव असिमसि किसिवाणिज ववहार अत्थसत्थ इसुसस्थ च्छरुप्पगय विविहाओ य जोगजुजणाओ । अन्नेसु य एवमाइएसु बहुकारणसएसु जावजीव नडिजए सचिणंति मदबुद्धी परिग्गहस्सेव य अट्टाए करेंति पाणाणवहकरण, अलियनियडि साइसपओगे परदव्य अभिज्झ सपरदार-गमणासेवणाए आयासविसूरण कलहभडणवेराणि य अवमाणविमाणणाओ । इच्छमहिच्छपिवाससतत तिलिया तण्हगेहिलोभत्था अत्ताण अनिग्गहिया करेंति कोहमाणमायालोभे अकित्तणिज्जे। परिग्गहे घवे Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् पापकर्मणां विनष्टतानापरणीयादिकर्मणां मूलमित्यर्थः, तथा अपकिरियव्व' अबकरितव्यम् , त्याज्यम् , 'विणासमूलम् ' पिनाशमूलम् ज्ञानादिगुणनाशकारपम् , ' बहनधपरिफिलेसबहुल' वन्यपरिक्लेशपएलम्बधो-हिंसन, पन्धोपन्धनम् , तज्जनिता परिस्लेशास्तापा बहुला =मचुरा यस्मिंस्त तथोक्तम् , तथा -'अणतसफिलेसकारण' अनन्तमक्लेगकारणम्-अनन्ता ये सक्लेशा:-दुःखानि. तेपा कारणम् । एतादृश परिग्रह चक्रपादयस्तद्भिन्नाश्च नराः सचिन्वन्ति । तेपूर्वोक्ताः 'लोमरत्या' लोभग्रस्ताः 'त धणकगग रयणनिचय' त धन कनक रत्ननिचय 'पडियाचे' पिण्डयन्तथैव ससार-चतुर्गतिलक्षणम् , 'अतिवयति' भाव वाला होने के कारण यह अशाश्वत है । (पावकम्मनेम ) ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का कारण मूल होने से यह पापकर्म का नेमभूत है। (अवकिरियब) मुमुक्षुओ को छोडने योग्य होने के कारण यह अवकरितव्य-त्याज्य है। (विणासमूल ) ज्ञानादिगुणों के नाश का हेतु होने से यह विनाशमूल है। (वयधपरिकिलेसबटुल ) इसके भीतर वध-हिंसा, बध-बंधन, और परिक्लेश-सताप ये सब बहुत अधिकरूप में हुए है। (अणतकिलेसकारण) इसीलिये यह जीवो को अनतसक्लेश कारण होता है। ऐसे इस परिग्रह को चक्रवर्ती जन आदि तथा इनसे भिन्न जो और मनुष्य है वे सचित करते रहते है। क्यों कि ये समस्त ही जन ( लोभत्था ) लोभरूप कपाय से ग्रसित होते है। (तं घणकणगरयणनिचय) इसी कारण उस धन, कनक एव रत्न के निचय को (पडियाचेव ) सग्रह करने में ही लगा रहा करते है। इसी कारण " पावकम्मनेम" ज्ञानापरणीय मा भनु भूग ४।२१ डापाथीत पाना निमित्त ३५ छ, “ अवकिरियव्य " भुभुक्षाने ते छ।उवा योग्य पाथी ते " अवकरितव्य" त्याrय छ, “विणासमूल " ज्ञानाहिशुशाना नाश २ भाट ४१२५ ३५ डापाथी ते विनाशभूण छ " वहनधपरिकिलेसकारण" तना અદર વધ-હિંસા, બે ધબ ધન, અને પરિકલેશ-સતાપ એ બધું વધારે प्रमाणुमा २२स छ " लोमघत्या " ते भरणे ते ७वाने मनत सवेश-- સતાપનું કારણ બને છે એવા તે પરિગ્રહને ચક્રવર્તિ આદિ તથા તે સિવાયના બીજા જે માણસે હોય છે, તેઓ સચય કરતા રહે છે, કારણ કે તે सघणा सा " त धणकणगरयणनिचय" ते १२ तसाधन, न, मन रत्नना सभूलना “पडियाचे" स अ ७२वामा १ सीन २७ छ मेर Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० प्रश्नव्याकरण 'रहिया ' राष्ट्रियाः 'पुरोहिया 'पुरोडिता 'कुमारा' कुमारा: दडणायगा' दण्डनायकाः 'गणनायगा' गणनायकाः 'माडरिया' माडम्पिकाः 'सत्यवाहा' सार्थवाहाः 'कुडपिया' कौटुम्मिता, 'अमचा' अमात्या', 'एए' एते चातु रन्तचक्रवाघमात्यान्ताः तथा ' अन्ने य एवमाई । अन्ये च एमादयः पूर्वोतेभ्यः इतरे च तत्सदृशा ये नराः परिग्गह' परिग्रह 'सचिणति' सचिन्वन्ति -परिग्रहस्य सचय कुर्वन्तीत्यर्थ कीदृश परिग्रहम् ? इत्याह-' अणत ' अनन्तम्अपरिमाणत्वात् , 'अमरण' अशरण-रक्षगासमर्थत्वात् , 'दुरत' दुरन्त-पर्यत्रसानदारुगम् ' अधुव' अधुर-पिनश्वरम् , 'अनिच्च' अनित्यम् अस्थिरम् , ' असासय ' अशाश्वत-प्रतिक्षण विशरणशीलम् , 'पावसम्मणेम' पापकर्मनेमवासुदेव हैं, वलदेव है, माण्डलिक हैं, ईश्वर हैं, तलवर है, सेनापति है, इभ्य हैं, श्रेष्ठी है, राप्टिय है, पुरोहित हैं, कुमार है, दडनायक हैं, गणनायक है, माडम्पिक है, सार्थवार है, कौटुम्पिक है, अमात्य है, तथा इनसे भिन्न जो और भी इन्ही जैसे मनुष्य है वे सय परिग्रह का सचय करते है। अब सूत्रकार विशेपणो द्वारा परिग्रह विशेपमा प्रकट करते है वे कहते हैं कि यह परिग्रह ( अणत ) अपरिमित होने से अनत है। (असरण ) रक्षा करने में असमर्थ होने से अशरणरूप है। (दुरत) अन्त में इसका विपाक जीवों को बहुत ही भयकर रूप में भोगना पड़ता है-इसलिये दुरन्तविपाक वाला होने के कारण यह दुरन्त है । ( अधुव) विनश्वर स्वभाव वाला होने के कारण यह अध्रुव है। (अणिच्च ) अस्थिर होने से यह अनित्य है । ( असासय ) प्रतिक्षण खिरने का स्थ વાસુદેવ છે, બળદેવ છે, માલિક છે, ઈશ્વર છે, તલવર છે, સેનાપતિ છે, ઈભ્ય छ, श्रेष्ठी छ, राष्ट्रिय छ, पुरोहित छ, सुभा२ छ, उनाय छ, गनाय छे, માડમ્બિક છે, સાર્થવાહ છે, કૌટુમ્બિક છે, અમાત્ય છે, તથા તે સિવાયના બીજા પણ તેમના જેવા જે લેકે છે તે બધા પરિગ્રહને સચય કરે છે હવે સૂત્રકાર વિશેષણ દ્વારા પરિગ્રહમા વિશેષતા પ્રગટ કરવાને માટે छ 8-म। पश्डि " अणत" मेड पाथी मनात छे “असरण" २क्षा ४२वान असमर्थ हावाथी मश२४३५ छ, “ दुरत " वन तना વિપાક (ફળ) બહુ જ ભયકર રીતે ભોગવવું પડે છે-તેથી દુરઃ વિપાક पाणी डावाने ४२ ते हुरन्त छ “ अधुव" नाशवतवमान उपाथी त म छ, “अणिच्च ” मस्थि२ डापायी त भनित्य , " असासय" પ્રતિક્ષણ હાથમાથી ખરી પડવાના સ્વભાવવાળો હોવાથી તે આશાશ્વત છે, Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनीटीका अ०५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रनिरूपणम् ऽवसरो लभ्यते तत् शिल्प ' शिल्पसेवा ' इत्युन्यते, तथा 'असिमसिकिसिवाणिज्ज' असिमपीकृपिपाणिज्यम् असिःखगाभ्यासः, मसि.म्ममिकृत्यमक्षरलेखनादि, कपिः-कर्पगम् , 'वाणिज्न' राणिज्यम्-वणिर्म, एतेपा समाहारद्वन्द्वः, तत् ' ववहार 'व्यवहार-व्यवहारशास्त्रम् , तथा ' अत्यसत्य' अर्थशास्त्रम् , अर्थोंपायप्रतिपादक कौटिल्याईस्पत्याधशास्त्रम् , 'मुसत्य' इपुगास्त्रम्-मनुर्वेद 'च्छरुप्पगय ' सरुमगत खद्गमुष्टिग्रहणोपाय, तो 'विविहाओ' विविधाः 'जोगजुजणाओ य' योगयोजनाव-वगीकरणादिप्रयोगाश्च शिक्षते । तथा हुए है सीखते है। तया (सिप्पसेव ) ऐसी शिल्प विद्या को सीखते है कि जिसके बल पर उन्हें राजा की सेवा करने का अवसर प्राप्त हो जाता है। तथा असि, मपी, कृषि एव वाणिज्यव्यापार, (ववहार ) व्यवहार शास्त्र इन कर्मो को सीखते है | तलवार वगैरह अस्त्र शस्त्रादि से आजीविका चलाना इसका नाम असिकर्म है। लेखन आदि करके जीवन निर्वाह करना इसका नाम मपीकर्म है । खेती किसानी करके जीविका चलाना इसका नाम कृपिफर्म है। पापार धदा करना इसका नाम वाणिज्य कर्म है। जिससे लोक व्यवहार चलता है वह व्यवहारशास्त्र है। परिग्रही जीव ( अत्यसत्य ) अर्थशास्त्र का भी अध्ययन करते हैं । इस अर्थ शास्त्र के प्रणेता कौटिल्य, बृहस्पति आदि हुए हैं। इसके अध्ययन से व्यापारिक क्षेत्र में व्यापारियों को पैसेकी आयके साधन कैसे२ क्यार होते हैं इस सब विपय का बोध हो जाता है। इसी परिग्रह की ममता से जीव (इसुसत्य) धनर्वेद को (छरुप्पगय) तलवार आदि के चलाने (की कला को तथा (विविहाओ जोगजुजणाओ) वशीकरण आदि તેમને રાજાની સેવા કરવાની તક મળે તથા અસિ, મલી, કૃષિ અને વાણિજ્ય व्यापार, ववहार " व्यपार मात्र कोरे आर्या शी छे तसा२ मा અસ્ત્ર શસ્ત્રાદિથી નિર્વાહ ચલાવવી તેનું નામ અસિકમ છે, લેખન આદિ કરીને જીવન નિર્વાહ ચલાવે તેનું નામ મલીકર્મ છે ખેતી કરીને નિર્વાહ ચલાવી તેનું નામ તુષિકર્મ છે વ્યાપાર રોજગાર કરે તેનું નામ વાણિજ્ય કર્મ છે જેનાથી લેકવ્યવહાર ચાલે છે તે વ્યહારશાસ્ત્ર છે પદિગ્રહી જીવ " अत्थसत्य " अर्थशास्त्रनु ५ अध्ययन रे छे ते अर्थशास्त्र प्रता કૌટિલ, બૃહસ્પતિ આદિ થયા છે તેનો અભ્યાસ કરવાથી વ્યાપારના ક્ષેત્રમાં પૈસા કમાવવાના સાધને કેવા કેવા હોય છે, અને ક્યા કયા હોય છે એ બધી બાબત વેપારીઓને જાણવા મળે છે એ જ પરિગ્રહની મમતાથી જીવ " इसुसत्थ " धनु , " छरुप्पगय" तलवार माहि पापपानी , तथा Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ | স্বপ্নবাজলে 'अतिव्रजन्ति-माप्नुवन्तीत्यर्थ ,कीटश ससारम् ? इत्याह-'सन्यदुक्समनिलयण' सर्वदुःखसनिलयनम्बसार्वदुःखाना सनिलयनम् मायभूतम् । तथा-'परिग्गहस्स य अढाए' परिग्रहस्य च अर्थाय-परिग्रह लक्षिकृत्येत्यर्थः), 'बहुजगो' बहुजनाजनसमुदायः 'सिप्पसय ' शिल्पगत-आचार्योपदशगम्यमनेकविध शिल्प 'सि क्खते ' शिक्षते । तथा 'मुनिउणहओ ' मुनिपुणा: शिक्षार्थिना मुनैपुण्यापायकाः 'लेहाइयाओ' लेखादिका: लेस आदी यास तास्तथोक्ता , 'सउणरुयानसा गाओ' शकुनरुतारसाना. शकुनाना-पक्षिणा रुत जल्पितम रसानेऽन्ते यासां तास्तथोक्ताः, 'गणियप्पहाणाओ' गणितमधाना=गणित प्रधान यास तास्तथोक्ता, यावत्तरि' द्विसप्तति कलाओय' कनाथ शिक्षते । तथा- रतिजणणे' रतिजननान रतिराग जनयन्ति ये ते रविजननास्तास्तथोक्तान 'चउसहि च - महिला गुणे' चतुः पठि च महिलागुगान्बात्स्यायन मोक्तान नृत्यगीतादीन् , तथा 'सिप्पसेर' शिल्पसेवा-शिल्पेन सेना ता तथोक्ताम् , येन शिल्पेन राजसेवा 1 परिग्रही जीव (सव्वदुक्खसनिलयण ) समस्त दुःखो के आश्रयभूत इस (ससार) चतुर्गतिरूप ससार में (अतिवयति) भटकते रहते है। तथा (परिग्गहस्सय अट्ठाए वहुजणो सिप्पसय सिक्खण) इस परिग्रह के निमित्त को लेकर ही बहुत से लोग कलाचार्य के उपदेश से प्राप्त होने • वाले अनेक शिल्पो को सीखते है तथा (सुनिउणाओलेहाउयाओ सउ ५ णरुयावसायाओ गणियप्पागाओ यावत्तरिकलाओ) अपने में अच्छी (र तरह से निपुणता बढाने वाली लेखकला से लेकर शकुनरुत पर्यय७२बहत्तर कलाओ को जिने किमे गणितप्रधान होता है सीखते हैं तथा (रइजणण - चउसहि च महिलागुणे ) रागजनक नृत्य, गीत आदि स्त्रीयों से सबंध रखने वाली चौसठ कलाओ को कि जिनके प्रदर्शक वात्स्यायन ऋषि सो परियडी 4 " सब्बदुक्खसनिलयण " समस्त मान माश्रयभूत मा " ससार " या२ गतिवाया ससारमा " अतिवयति" मट४ ४२ छ, तथा "परिग्गहस्सय अदाए बहु जणो सिम्पसय सिक्सए " मा परि नाम * ઘણું લોકે કલાચાર્યના ઉપદેશથી પ્રાપ્ત થતી અનેક કળાઓ શીખે છે, તથા - "मुनिउणाओ लोहाइयाओ स ऊणरुयोवसायाओ गणियप्पहाणाओ बावत्तरिकलाभा, • પિતાની નિપુણતા સારી રીતે વધારનારી લેખન કળાથી લઈને શકુનરુત સુધી ૭૨ બેતેર કલાઓ કે જેમાં ગણિત મુખ્ય હોય છે તે બધી કળાઓ શીખે છે, तथा "रइजणणे चउसदिय महिलागुणे" स नई नृत्य, गीत मा श्रीमा साथ - સ બ ધ રાખનારી ચેસઠ કલાઓ શીખે છે એ કલાઓના મદર્શક વાસ્યાયન ऋषिता तथा “सिप्पसेव " मेवी शि५ विद्यामा शीछे २ प्रकार Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ५ ० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् 'अभिज्झा' अगिध्या-आसक्तिस्ता तथोक्ताम् , तथा 'सपरदारगमणासेवणाए' स्वदारगमनसेवनायाम् ' आयासचिमूरण ' आयासखेट, स्वदारगमने आयासशारीर मानस च अमम्, परदारासेपने खेदम्-परदाराप्राप्ती मनः खेद च कुरन्तीत्यर्थः, तथा 'पलद्दभडणवेराणि य' भण्डनवैराणि च तत्र-फलहोपाचिफ युद्धम् , भण्डनम्-परदीपोद्घाटन गाठीपदान वा, वैर-चित्तेऽमाऽनुवन्धः, तथा 'अपमाणविमाणणाओ' अपमानविमानने, अपमान विनयध्वसः, विमाननातिरस्करणम् , एतानि सर्वाणि परिग्रहस्यवार्थाय कुर्वन्ति । तथा' इन्टमहिच्छ प्पिवाससमयतिसिया' इच्छामहेच्छापिपासासतततृपिता., तत्र इच्छा-अभिलापमा. प्रम्, महेच्छा-महाभिलापश्चक्रवर्त्यादिपदाना पिपासा-पिपयमुखपानेच्छा, ताभ्यः वपिता इस वृपिताः तथा 'तण्दागेहिलोभवत्या' तृष्णादिलोभनम्ताः, तृष्णा अप्राप्तव्यस्य लाभेन्छा' गृद्धि प्राप्तद्रव्यासक्ति', लोमा चित्तरिमोहनम् , तैकरते है । (परदञ्चअभिज्झ) दूसरों के द्रव्य में आसक्ति भाव करते हैं। (सपरदारगमणा सेवणाए आयास विसूरण ) अपनी स्त्री के सेवन में शारीरिक एव मानसिक परिश्रम करते हैं, परस्त्री के अप्रासि में मनखेद किया करते हैं। तया (कलह भडणवेराणिय) कलह-वाचिक युद्ध, भडन -असभ्य शब्दो का प्रयोग-गाली देना आदि, वैर-चित्त में क्रोच करना तथा (अवमाणविमाणणाओ) दूसरों का अपमान परना, तिरस्कार करना ये सब बातें हम एक परिग्रह के निमित्त ही पापियो मारा की जाती हैं। तथा (ईच्छमहिच्छप्पिवाससययतिसिया ) परिग्रही जीव इच्छाओ से, पड़ी २ अभिलापाओं से, एव विषय सुखपान की कामनाओंसे सदा तृपित व्यक्ति की तरह तृपित ही बने रहते हैं। तथा (तण्डागेहिं लोभघत्था) तृष्णा-अप्राप्त-द्रव्य को प्राप्त करने की भावना, गृद्धि प्राप्तद्रव्य में अभिज्झ" भीतना द्रव्यमा मासहित राणे छे “सपरदारगमणासेवणाए आयासविसरण " पातानी स्त्री सेपानी शरीरिज मने मानभि परिश्रम ४२ छ, मेने ५२सीनी मासिथी भनमा ६ मनुलवे छे तथा "फलह भहणवेराणिय" -वायुद्ध, मउन-गाणे! मामसभ्य होना पण वै२-मनमा ध य तथा "अवमाणविमाणणाभो" भीकतनु अपमान, તિરસ્કાર વગેરે બધી બાબતે એક પરિગ્રહને કારણે જ લેકે દ્વારા કરાય છે. तथा " इच्छमहिन्छपिवाससयतिसिया" परिवही ४२याथी, मोटी મેટ અભિલાષાઓથી, અને વિષય સુખપાનની કામનાઓથી સદા ઝૂષિત માણ सनी म तृषित । २ह्या ४२ छे तथा "तण्हागेहि लोमघत्था" तृष्णा-मान દ્રવ્યને પ્રાપ્ત કરવાની ભાવના, ગૃદ્ધિ-પ્રાસ દ્રવ્યમાં વધારે પડતી અસક્તિ અને Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ प्रश्नव्याकरण । अन्नेसु एमाइएमु ' बहसकारणसएम' अन्ये एपमादिकेपु बहुषु कारणश तेपु-शिल्पादिभिन्नेषु परिग्रहोपादानशतेपु 'जानजीर' यावज्जीवं 'नडिज्जए' निमज्जते-निमग्नी भवति । तथा ' सचिणति मदबुद्धी' सपिन्वन्ति मन्दबुद्धय परिग्रहम् । तथा ' परिग्रहस्सेय य अट्टाए करेंति ' परिग्रहस्यैव च अर्थाय कुर्वन्ति, 'पाणाणवहकरण' माणाना वधकरम्परिग्रह कतुं प्राणिना वध कुर्वन्तीत्यर्थः, तथा-'अलियनियटिसाइसपोगे' अलीकनिकृतिसाति सप्रयोगान, अधिकम्-असत्यम् , निकृतिः-मधुरसचनादिभिरावास्य वचनम् , सातिसप्रयोगः-विगुणद्रव्येषु द्रव्यान्तर सयोज्य प्रशस्तगुणभ्रमोत्पादनम् । एतेषा द्वन्द्व , तास्तथोक्तान , परदन अमिज्झ' परद्रव्यानिध्याम्-परद्रव्येपु-घरधनेषु अनेकविध प्रयोगों को भी (सिस्सए ) सीखते है। (अन्नेसु य एव. माइएसु) तथा इसी तरह के और भी इन शिल्पादिकों से भिम अनेक (बहुकारणसएसु) परिग्रह के सैकड़ों कारणो में परिग्रह को अर्जन करने की लालसावाला प्राणी (जावजीव )जीवन पर्यंत (नडिनण) मग्न होता रहता है। (सचिणति मदघुद्धी) इसलिये इस कथन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जो मदबुद्धि होते हैं वे ही उत्कट परिग्रह का सचय करते हैं । तथा (परिग्गहस्सेव य अट्टाए पाणाणवहकरण करेंति ) परि ग्रह के निमित्त ही प्राणी प्राणियों के प्राणों को वध करते हैं तथा (अलि यनियडि-साइ सपओगे ) इस परिग्रह को लक्ष्य करके ही वे (अलिय) असत्यभाषण करते हैं (नियडि) मधुर २ भाषणों से दूसरो को विश्वास दिलाकर फिर उन्हे ठगते है, (साइसपओगे) ओछी कीमत की वस्तु मे बहुमूल्यवाली वस्तु को मिलाकर उसे अधिक मूल्यवाली बनादिया “ विविहाओ जोगजुजणाओ" शी२५] सामने विध प्रयोग पy शीमे "अन्नेसु य एवमाइएसु" तथा जाय। सिवायना से प्रारना भीon भने "वहुकारणसएसु" परिहाना से ४ अरणमा पश्डिन प्राप्त ३२ पानी amal 4 0 " जावजीव" मासु "नडिजए" बीन २ छ “सचिणति मदबुद्धी" तेथी मा थनथी र अतित थाय छ तथा કે જે લોકે મદજીદ્ધિવાળા હોય છે તેઓ જ ઉત્કટ પરિગ્રહને સ ચય કરે છે तय “परिग्गहस्सेव य अढाए पाणाणवहकरण करे ति" परिअडने तिमि । प्राणी अथवा प्राणीमाना प्राशना १५ ४२ छ, तथा " अलिय-नियडि-साइ सपओगे" मा पनि सक्ष्य रीने तेस। “अलिय" असत्य माले छ, “नियडि " भी भी। वयनाथी बीमा पोताना प्रत्ये विश्वास मा पार पाथी तेने गे छे “ साइसपओगे" साछी जीभतनी परतुनु लारे श्रीमतनी वस्तु साथ मिश्र शत ना धारे मा Gm, " परपन्य Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुदर्शिनी टीका १० ५ ० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् ५३७ लेश्याश्च भवन्ति । तथा - 'सयणसपोगा ' सजनसमयोगा। स्वजनैः-पुत्रदा रादिभिः सह सपयोग' सपोगाश्च भवन्ति । ते चक्रवर्त्यादयः 'अणतगाह' अनन्तकानि-पर्यमानरहितानि ' सचित्ताचित्तमीसगाड' सचित्ताचित्तमिश्राणि -तच सचित्तानि सजीवानि-पुरादीनि अचित्तानि अजीवानि-हिरण्यमुवर्णरत्नादीनि, मिश्रकाणि सचित्ताचित्तख्याणि हिरण्य मुवर्णाघाभरणसहितानि पुनकलनाशब्दादि विपयरूप आनत्र, इन्द्रियो की अनर्गल प्रवृत्तिया, कृष्ण, नील आदि अप्रशस्त लेश्याएँ रहती हैं । अर्थात् परिग्रह पाप के सद्भाव में ही नियमतः मायादि शल्यों का सद्भाव जोवों में पाया जाता है। मन वचन आदि योगों की प्रवृत्ति इसी के होने पर अशुभ रूप मे रहती हैं। गौरवों का अस्तित्व तथा कपायों की सत्ता एच आहार आदि चार प्रकार की सज्ञाओ का सद्भाव इस एक परिग्रह की मौजूदगी मे ही जीयो में पाये जाते ह । इहियों की स्वच्छद प्रति ण्य कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं का सरध इसी परिग्रह से जीवों में पाया जाता तथा स्वजन आटि के साथ का सप भी इसी परिग्रह के ऊपर निर्भर है। चक्रवर्ती आदि सभी मनुष्य यही चाहते हैं कि हमारे पास अनत सचित्त, अचित्त और मिश्र परिग्ररूप द्रव्य बना रहे । पुत्र आदि सचित्त परिग्रह, हिर ण्य, सुवर्ण, रत्न आदि अचित्त परिगह, एच हिरण्य, सुवर्ण, रत्न आदि के आभरण सहित पुत्रादि मिश्र परिग्रह है। तात्पर्य इसका यही है कि चक्रयती से लेकर छोटे से छोटो प्राणी यही चाहता रहता है कि ઈન્દ્રિયની અનર્ગલ પ્રવૃત્તિ, તથા કૃષ્ણ, નીલ આદિ અપ્રશસ્ત વેશ્યાઓ રહે છે એટલે કે પરિગ્રહ પાપની હાજરીમાં નિયમથી માયાદિ જેને સદ ભાવ મા આવે છે તે હોય તે મન વચન આદિ યોગની પ્રવૃત્તિ અશુભ રૂપે રહે છે ગીરનું અસ્તિત્વ તથા કષાયની સત્તા, તથા આહાર આદિ ચાર પ્રકારની સંજ્ઞાઓ આદિને સાવ એક પરિગ્રહની હાજરી હોય તે જ જીવમાં જોવા મળે છે ઈન્દ્રિયની સ્વચ્છ દી પ્રવૃત્તિ અને કૃષ્ણ આદિ અશુભ લેશ્યાઓનું અસ્તિત્વ આ પરિગ્રહને કારણે જ જીવોમાં હોય છે તથા સ્વજન આદિ સાથે સ બ ધ પણ આ પરિગ્રહ પર આધાર રાખે છે ચક વતિ આદિ સઘળા લેકે એ જ ચાહે છે કે અમારી પાસે અનત સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર પરિગ્રહરૂપ દ્રવ્ય કાયમ રહે પુત્ર આદિ સચિત્ત પરિગ્રહ છે હિરણ્ય, સુવર્ણ રત્ન આદિ અચિત પરિગ્રહ છે અને સુવર્ણ, રત્ન આદિના આભૂષણ સહિત પુત્રાદિ, તે મિશ્ર પરિગ્રહ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે ચક Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ प्रश्न याकरणसूत्रे स्ता व्याप्ताः, तथा ' अत्ताण अपिग्गहिया' आत्मनाऽनिगृहीत अगीकृतात्मानः करेंति' कुर्वन्ति । किं कुन्ति ? इत्याद~~'कोहमाणमायालोमे' क्रोधमाजमायालोभान, कीदृशान् ? 'अकिनणिज्जे' अकीर्तनियान्-अपाच्यान् । तथा 'परिग्गहे चेन' परिग्रहे एव 'हुति' भान्ति, 'नियमा' नियमावनिश्चयतः, कानि कानि भवन्ति ? त्याह ' सल्ला शल्यानि = मायानिदानमिल्या. दर्शनरूपाणि त्रीणि, 'दण्ड य' दण्डाभ-दुप्पणिहितमनोपायरूपाः, 'गार• वाय' गौरवाणि चन्मद्धिरमसातरूपाणि च कसायसण्णा य 'पायसज्ञाश्च कपाया-मतिताः, सज्ञा:-आहार मेयुनमयपरिग्रहादयः, तया-कामगुणअण्हगा य कामगुणावाश्च कामगुणाश दादयस्त एप आश्रमाआवद्वाराणि 'इदिय ' इन्द्रियाणि-अमवृत्तानि इन्द्रियाणि, 'लेसाओ' लेश्याः अप्रशस्ता अधिक आसक्ति, लोभ-लालच, इन सब से घिरे रहते है (अत्ताणा अंणिग्गहिया) इन की आत्मा इनके वश में नहीं हो पाती है। और इस तरह ये परिग्रह की ममता में फंसकर (कोरमाणमायालोभे) क्रोध, मान माया और लोभ जैसो कषायो को कि जो (अकित्तणिज्जे ) शन्दो से प्रकट नहीं की जा सकती हैं ( करेंति ) करते रहते है । ( परिग्गहे चेव हुति नियमा सल्ला, दडा य गार वा य कसायसण्णा य कामगुणअण्हगा य इदिय लेनाओ सयणसपओगा सचित्तचित्तमीसगाइ दवाइ अणत गाइ परिघेतु इच्छति) इस परिग्रह मे ही नियम से माया, मिथ्यादर्शन और निदान, ये तीन शल्य रहते हैं । मन, वचन और काय की दुष्ट तीरूप व्यापार रहता है। ऋद्रि रस सातरूप गौरव रहता है। अनंता. नुबंधी आदि कपायें, आहार, भय, मैथुन, और परिग्रह ये चार सज्ञाऐं, सोल, मे पधाथी घरायस २९ “ अत्ताण अणिग्गहिया "मनु भन तभना भूभाडा नथी, भने मा शत परिसडनी ममतामा साधन “कोहमाण मायालोमे" अध, मान, भाया भने सोलरवा पाय २“अकित्तणिज्जे' शही द्वारा प्रगट री शात नयी " करे ति" तभनु सेवन ४२ छ “ परि गहे चेव हुति नियमा सण्या, दडाय गारवा य कसोय सण्णाय कामगुणअण्ड गाय इदियलेसाओ सयणसपओगा मचित्ताचित्तमीसगाइ व्वाइ अणतगाइ परिघेतु इच्छति" मा परियडमा ४ नियमथी । भाया, भिथ्याशन मन નિદાન, એ ત્રણ શલ્ય રહે છે મન, વચન અને કાયની દુષ્ટતારૂપ પ્રવૃત્તિ રહે છે અદ્ધિ રસ સાતરૂપ ગૌરવ રહે છે અન તાજુબ ધી આદિ કવા, આહાર ભય, મિથુન અને પરિગ્રહ એ ચાર સંજ્ઞાઓ, શબ્દાદિ વિષયરૂપ આસ્રવ, Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीफा १० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहनिरूपणम् ५३७ लेश्याश्च भवन्ति । तया - ' सयणसपओगा' सजनसप्रयोगा स्वजनै पुत्रदा रादिभिः सह मप्रयोगा सयोगाश्च भवन्ति । ते चक्रवर्त्यादय• 'अणतगाह' अनन्तानि पर्यमानरहितानि ' सचित्ताचित्तमीसगाई' सचित्ताचित्तमिश्रमाणि -तच सचित्तानि सनीवानि-पुनादीनि अचित्तानि-अजीवानि-हिरण्यमुवर्णरत्नादीनि, मिश्रमाणि-सचित्ताचित्तरूपाणि हिरण्यसुवर्णाद्याभरणसहितानि पुत्रकलत्रा शब्दादि विषयरूप आरब, इन्द्रियो की अनर्गल प्रवृत्तियां, कृष्ण, नील आदि अप्रशस्त लेश्या रहती हैं। अर्थात परिग्रह पाप के सद्भाव में ही नियमतः मायादि गल्यों का सद्भाव जोवों में पाया जाता है। मन वचन आदि योगों की प्रवृत्ति इसी के होने पर अशुभ रूप में रहती हैं। गौरवों का अस्तित्व तथा कपायों की सत्ता एव आहार आदि चार प्रकार की सनाओ का सद्भाव इस एक परिग्रर की मौजूदगी मे ही जीरो में पाये जाते है । इड़ियों की स्वच्छद प्रवृत्ति न कृष्ण आदि अशुभ लेश्याओं का नयध इसी परिग्रह से जीवों मे पाया जाता है। तथा स्वजन आदि के साथ का समय भी इसी परिग्रह के ऊपर निर्भर है। चक्रवर्ती आदि सभी मनुष्य यही चाहते हैं कि हमारे पास अनत सचित्त, अचित्त और मिश्र परिग्ररूप द्रव्य बना रहे । पुत्र आदि सचित्त परिग्रह, हिरण्य, सुवर्ण, रत्न आदि अचित्त परिग्रह, एक हिरण्य, सुवर्ण, रत्न आदि के आभरण सहित पुत्रादि मिश्र परिग्रह है। तात्पर्य इसका यही है कि चक्रयर्ती से लेकर छोटे से छोटो प्राणी यही चाहता रहता है कि ઈન્દ્રિયની અનર્ગલ પ્રવૃત્તિ, તથા કૃષ્ણ, નીલ આદિ અપ્રશસ્ત વેશ્યાઓ રહે છે એટલે કે પરિગ્રહ પાપની હાજરીમા નિયમથી માયાદિ જેને સદુ ભાવ છવામાં આવે છે તે હોય તે મન વચન આદિ ગોની પ્રવૃત્તિ અાભ રૂપે રહે છે ગીરનું અસ્તિત્વ તથા કષાની સત્તા, તથા આહાર આદિ ચાર પ્રકારની સંજ્ઞાઓ આદિને સાવ એક પરિગ્રહની હાજરી હોય તે જ જીવોમાં જોવા મળે છે ઈન્ડિયાની રવાદી પ્રવૃત્તિ અને કૃષ્ણ આદિ અશુભ લેશ્યાઓનું અસ્તિત્વ આ પરિગ્રહને કારણે જ જીમાં હોય છે તથા સ્વજન આદિ સાને સ બ ધ પણ આ પરિગ્રહ પર આધાર રાખે છે ચક વલ આદિ સઘળા લેકે એ જ ચાહે છે કે અમારી પાસે અનત સચિત્ત, અચિત્ત અને મિશ્ર પરિગ્રહરૂપ દ્રવ્ય કાયમ રહે પુત્ર આદિ સચિત્ત પરિગ્રહ છે હિરણ્ય, સુવર્ણ રત્ન આદિ અચિત્ત પરિગ્રહ છે અને સુવર્ણ, રત્ન આદિના આભૂષણ સહિત પુત્રાદિ, તે મિશ્ર પરિગ્રહ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે ચક્ર Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ प्रश्नध्याकरण दोनि, 'दव्याइ ' द्रव्याणि ' परिधेनु ' परिग्रहीतुम् इच्छन्ति । 'सदेवमणुयासुरम्मि लोगे' सदेवमनुजामुरे लोके 'लोभपरिगहो' लोगपरिग्रहः लोभात्परिग्रहो लोभरूपो वा परिग्रही भाति, 'जिणारेह' जिनपर 'भणिओ' भणित:मोक्तः नित्यि' नास्ति 'एरिसो' ईशः परिग्रहसदृशोऽन्यः कश्चिदपि 'पासो' पाशा बन्धनम् , 'पडिधो ' प्रतिवन्या मतिरोधः । अय परिग्रहः 'सरलोए' सर्वरोकेनिपु लोकेपु 'सब जीवाण' सर्पजीनाम् सप्राणिनाम् 'अत्यि' 'अस्ति विद्यते । सक्ष्मनीगानामपि परिग्रहसज्ञा भवतीति सर्वगदग्रहणम् ॥ ४॥ जो भी परिग्रहरूपवस्तु जितनी भी मात्रा में हमारे पास है वह ज्यों कि त्यो बनी रहे-नष्ट न हो, और उतनी मात्रा से भी फिर अधिक मात्रा में वृद्धिंगत हीती रहे तो अच्छी बात है (सदेवमनुयालुरम्मि लोगे) देवलोक में, मनुष्यलोक में, तथा असुर लोक में (लोभपरिग्गो) लोभ परिग्रह-लोभ से परिग्रह अथवा लोभम्प परिग्रह-तरोता है। (जिणवरेहिं भगिओ) ऐसा जिनेन्द्र देवोंने कहा है । (नत्यि एरिसोपासो -पडिययो सब्वलोए सन्चजीवाण अस्थि) इस परिग्रह के जैसा दूसरा और कोई भी पास-बधन, तथा प्रतियध-प्रतिरोध-आत्मकल्याण रोधक पदार्थ नहीं है। यह परिग्रह तीनों लोकों में समस्त जीवों के है। प्रश्नसूक्ष्म जीवों के यह परिग्रर किस रूप में है ? उत्तर-यह परिवह उनमे परिग्रह सज्ञा रूप मे है। इसी बात को करने के लिये सूत्र मे 'सर्व' शब्द का ग्रहण किया है। વર્તિથી લઈને નાનામાં નાને જીવ એ જ ચાહે છે કે જે કઈ પરિગ્રહરૂપ જેટલા પ્રમાણમાં અમારી પાસે છે તે તેમને તેમ રહે-નાશ ન પામે, અને छे ते ४२त५ तेभा पधारे। यता २९ तो मई । सा३ “सदेनमनुया सुरम्मिलोगे" TRaiमा, मनुष्योउमा तथा मसुखोभा " लोभ परिग्गहो" साल परियड-सोलथी परिघड अथवा सोम३५ परियड लीय छ, “जिणवरेहि भणिओ" मे निनन्द्र हेवामे उस छ" नत्थि एरिसो पासो पडिग्धो सव्व लोए सव्वजीवाण अत्थि" मा परियड २७ भी रो पण मधन नथी, તથા પ્રતિરોધક–આત્મકલ્યાણ રેધક પદાર્થ નથી આ પરિગ્રહ નણે લેકમાં સઘળા ને હોય છે પ્રશ્ન–સૂક્ષ્મ જીવેમાં આ પરિગ્રહ કેવી રીતે છે ? ઉત્તર–આ પરિગ્રહ તેમનામાં પરિગ્રહ સત્તારૂપે છે એ વાત દર્શાવવાને भाटे सूत्रमा 'सर्व' शहन प्रयो। ये छ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ० ५ सू० ४ मनुष्यपरिग्रहहीरूपणम् ५३६ भावार्थ-अढाई द्वीप के भीतर ही मनुप्यो का निवास है, अतः सभी मनुप्य चाहे वे चक्रवर्ती आदी विशिष्ट व्यक्ति भी क्यो न हों इस परिग्रह सचय की तृष्णा से रहित नहीं है । सभी अपनी २ योग्यता और पद के अनुसार इसके सचय में लगे रहते हैं। कोई भी जीव इस पात का विचार नहीं करता कि इस परिग्रह के सचय का गतिम परिणाम कैसा होता है । जीव जीतने भी कष्टों को भोगता है वह इस परिग्रह के सचय निमित्त ही भोगता है, क्यो कि यह परिग्रह स्वय अनंतक्लेशो का घर है । इम परिग्रह को लोभकपाय के आवेश मे ही जीव सचित कीया करते है । यह महान् से महान् अनर्थो की जड कही गई है। पुरुष सनधी ७२ वहत्तर कला तथा स्त्री सरधी ६४ चौसठ कलाओ को प्राणी इसी परिग्रह के निमित्त सीखता है। असि, मपी, कृपि, आदि कर्म इसी के लिये मनुष्यों को करने पड़ते है । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को इमी की लालसा से बद्ध होकर हडपना चाहता है । मनुष्यों में दानवता का रूप इसी की कृपा से आता है। आदनीयतको भुलाने वाली रही एक चीज है । माया मिथ्या आदि शल्यो का घर यही एक परिग्रह है। इसकी ज्वाला में झलना हुआ प्राणी सदा हेय और उपादेय के विवेकसे विहीन बना रहता है । मन वचन और काय - ભાવાર્થ—અઢી દીપની અંદર જ માણને વસવાટ છે, સઘળા મનુષ્ય ભલે ચકવર્તિ આદિ વિશિષ્ટ શક્તિ હોય તે પણ તેઓ પરિગ્રહ સચયની તૃષ્ણા વિનાના હતા નથી બધા પિત પોતાની ગ્યતા અને પદ પ્રમાણે તેના સ યમ, પ્રયત્નશીલ રહે છે. કોઈ પણ જીવ એ વાતને વિચાર કરતા નથી કે આ પરિગ્રહના સચયનું આખરી પરિણામ કેવું હોય છે જીવ જેટલા કહે ભેગવે છે તે આ પરિગ્રહના સ ચયને માટે જ ભગવે છે, કારણ કે આ પરિ ગ્રહ પિતે જ અનત કલેશનું ધામ છે આ પરિગ્રહને લેભ (કષાય) ના આવેગમાજ જીવ સચય કર્યા કરે છે તે મેટામા મેટા અનર્થોનું મૂળ ગણાય છે પુરુષ સ બ ધી ૭૨ બોતેરકલાઓ તથા સ્ત્રી વિષયક ૬૪સઠ કલાઓ માણસ આ પરિડને નિમિત્તેજ શીખે છે અસી, મથી, કૃષિ આદિ કર્મો પણ તેને જ માટે લોકોને કરવા પડે છે તેની લાલસાએ જ એક રાષ્ટ્ર બીજા રાષ્ટ્રને ગળી જવા માગે છે મનુષ્યમાં દાનવતા તે પરિગ્રહને કારણે જ આવે છે માનવતાને ! ભલાવનારી તે એક ચીજ છે તે પરિગડ જ માયા મિથ્યા આદિ શલ્યનું ધામ છે તેની જ્વાળામાં ફસાયેલ છે સદા હેય અને ઉપાદેયના વિવેકથી રહિત બની જાય છે. આ પરિગ્રહને કારણે જ મન, વચન અને કાયાની કુટિલ Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० प्रश्नध्याकरण _ 'ये यथा कुर्वन्तीति द्वार मुक्तम्' अथ परिग्रहो यादृश फल ददाति तदुच्यते'परलोगम्मि ' इत्यादि मूलम्-परलोगम्मि य नहा तमपविट्ठा महयामोहमोहिय मई तमोसंधयोर तसथावर सुहमवायरसु पज्जत्तमपजत्तग एव जाव परियति जीवा लोभवससनिविद्या । एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो इहलोइओ परलोइओ अप्पसुहो बहुदुक्खो की कुटिल प्रवृत्ति इसी परीग्रह के प्रभाव से जीवन को तहस नहस करती रहती है। कपायों की उत्कटता इसीके कारण जीवन में उतरती है । आहार आदि सज्ञाएँ इसी के प्रभाव से जीवन के पीछे पड़ी रहती है । गारव और हन्द्रिकों की स्वच्छद प्रवृत्ति का कारण इसी परिग्रह की कामना है। कर्मों का अधिकरूप में आस्रव और कृष्णादि अशुभलेश्याओं का सवध इसी परिग्रह के बल पर होता है । ससारका कोई भी प्रोणी यह नहीं जानता है कि मेरे पास जितना भी परिग्रह है उसका वियोग हो। भले ही मुनिजन इसकी कामना न करेंफिर भी प्रत्येक सचेतन व्यक्ति सचित्त आदि परीग्रह की पोट से बधा ही रहता है। समस्तलोक में इस परिग्रह का अल्पाधिकरूप मे साम्राज्य छाया हुआ है। यही आत्मकल्याण का निरोधक है। इसीलिये श्रावक जन इसका प्रमाण और मुनिजनसकल सयमी जीव-इसका सर्वथा परिहार कर देते है ॥सू०४॥ પ્રવૃત્તિ જીવનને બરબાદ કરે છે તેને જ કારણે જીવનમાં કષાની ઉત્કટતા ઉતરે છે તેને જ પ્રભાવથી આહાર આદિ સ જ્ઞાઓ જીવનમા પી પકડવા કરે છે ગારવ (અભિમાન) અને ઈન્દ્રિયેની અચ્છ દી પ્રવૃત્તિનું કારણ આ પરિગ્રહની કામના જ છે. આ પરિગ્રહને કારણેજ કર્મોને અધિક પ્રમાણમાં આસવ અને કૃષ્ણાદિ અશુભ લેશ્યાઓને સબધ થાય છે સંસારમાં કોઈ પણ જીવ એ નથી ચાહતે કે તેની પાસે એટલે પરિગ્રહ હોય તેને વિયોગ થાય કદાચ મુનિજન તેની કામના ન કરે, તે પણ પ્રત્યેક સચેતન વ્યક્તિ સચિત્ત આદિ પરિગ્રહના સચયથી બધાયેલ રહે છે સમય લેકમા આ પરિ ગહન ચેડા કે વધુ પ્રમાણમાં સામ્રાજ્ય જામે છે તે જ આત્મકલ્યાણનું નિરાધક છે તેથી શ્રાવકેએ તેની મર્યાદા બાધવી જોઈએ અને મુનિજનેએસકલ સંયમી જીવે-તેને તત ત્યાગ કરે જોઈએ છે સૂ. ૪ Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिशी टीका अ० ५ सू०५ परिग्रहो यत्फल ददाति ननिरूपणाम् महन्भओ वहुरयप्पगाढो दारुणो ककसो, असाओ वाससहस्सेहि मुच्चइ, न य अवेदइत्ता अत्थि हु मोक्खोत्ति एवमाहसु नायकुलनदणो महप्पा जिणो वीरवरनामधेजो कहसि य परिग्गहस्स फलविवाग। एसो सो परिग्गहों पचमो नियमा नाणामणिकणगरयणमहरिह० जीव इमस्स मोरखवरमुत्तिमग्गस्स फलिहभूओ ॥ सू० ५॥ ॥ चरिम अहम्मदार समत्त । 'टीका-परलोगम्मि ' इत्यादि-- जीवा माणिनः लोभनससनिविद्या' लोभवशसनिविष्टाः लोभवशेन परिग्रहे सनिविष्टा =अभिनिविष्टाः लोभवशपरिग्रहग्रहिलाः 'परलोगम्मि' परलोके जन्मान्तरविपये चकारात् इहलोके च 'नहा' नष्टाः-पिनष्टाः सुगतिनाशात् मत्पथभ्रशाच, तथा 'तम' तम =अशानान्यकार ' परिहा' प्रविष्टा 'महया मोहमोहि पूर्व में 'ये यथा कुर्वन्ति ' यह द्वार कहा अर सूत्रकार परिग्रह जिस प्रकार का फल देता है इस विषय को कहते है-'परलोगम्मि य' इलादि। टीकार्थ-(लोभवससनिविट्ठा जीवा ) लोम के वश से परिग्रह के वशवती यने हुए जीव ( परलोगम्मि य नट्ठा) अपने परभव को भी नष्ट कर टालते है । अर्थात् उनका यह लोक तो नष्ट हो ही जाता है, साथ मे परमर भी उनका बीगढ़ जाता है । क्यों कि ऐसे जीयों को सुगति की प्राप्ति नहीं होती है, तथा इसभव में वे मत्पय से विहीन घने रहते है। तथा (तमपविट्ठा ) अज्ञानरूप अधकार में प्रविष्ट होकर माग "ये यथा कुर्वन्ति " ते अन्तार व्यु वे सूत्रता परिया उषु ३ मापे थे, ते तावे -" परलोगम्मिय" त्यहि हाथ-लोभवससनिविदा जापा" सामने अधीन थ/ने पनिडने तामे थयेसा ॥ " परलोगम्मि य नद्वा" पोताना ५२सपने पर नए की નાખે છે, એટલે કે તેમને આ લેડ બરબાદ થાય છે જ, પણ સાથે સાથે તેમને પરભવ પણ બગડે છે કારણ કે એવા ને સુગતિ પ્રાપ્ત થતી નથી, मन मा सभा तेसो मन्माया हे तथा “ तमपविट्ठा" मशान Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण यमई' महामोहमोहितमतयः-महामोइन-अष्टोदयचारित्रमोहनीयन माहिता मतिर्येपा ते तथोक्ता', 'तमोसधयारे' तमिसान्धकारे, तमित्रागनी तद्वद् योऽन्धकारी आज्ञानात्यकारस्तस्मिन् 'तस थायरमुटुमगापरेमु' उसस्यापरम्मबादरेषु तया ' पज्जत्तमपज्जत्तग एर जार' पर्याप्तापर्याप्त पा पारत् अत्रयारउन्दादिद सग्राह्यम्-पर्यासापासासाधारणमत्येकगरीरेषु तथा अण्डज पोतन -रसज-जरायुज-सस्वेदजोझिनोपपातिकेपु नारकतिर्यग्देवमनुप्पेषु यथासम्भव जरामरणरोगपहलेपु पल्योपमसागरोपमाणि यावत् आनादिकमनयदा दीर्यमबान चातुरन्तससारकान्नार ' परियति' पर्यटन्ति । एसो सो' एप सः (मयामोहमोरियमई ) उनको मति प्रकृष्ट चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से मोहित बनी रहती है। इमसे वे न तो एकदेशरूप चारित्र अगीकार कर सकते हैं और न सफलरूप चारित्र हो । अत. ऐसे प्राणी (तमोसधयारे ) रात्रि के गाढ अधकार जैसे अज्ञानान्धकार में ही पड़े रहते हे । (तसथारमुहमवायरेसु) और स, स्थावर, सूक्ष्म, चादर इनमें तथा (पज्जत्तमपज्जत्तग) पर्याप्तक अपर्याप्तक ( एवजाव) इसी प्रकार यावत् शन्द से साधारण प्रत्येक शरीर इन जीवों मे तथा अडज, पोतज, रसज, जरायुज, सस्वेदज, उद्भिज्ज जीवों में एव औप पातिक देव और नारकियों में (परियति) जन्म मरण करते हैं। स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण ये पाच इन्द्रिया जिन जीवों में होती है वे त्रस हैं। बस नामकर्म के उदय से यह पर्याच जीयो को प्राप्त होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय जिन जीवों मे होती है वे ३थी धारमा प्रवेश शन "महया मोहमोहिय मई" भनी भति प्रष्ट ચારિક મેહનીય કર્મીના ઉદયથી મોહિત થયેલી રહે છે તેથી તેઓ એ શત ચારિત્ર અગીકાર કરી શકતા નથી અને સલરૂપ (સપૂર્ણચારિત્ર પણ मा२ श Azत नथी तेथी सवा " तमोस वयारे " शनिता ॥ अ५१२ २मन-५४१२मा ८ ५७॥ २९, "तसथावरसुट्टमवाय रेसु" स स स्था१२ सूक्ष्म, मरे मारमा, तथा पज्जत्तमपज्जत्ता" पर्या, अपर्यात, “ एव जाव ' से प्रभारी यावत् शपथी साधा२५ प्रत्ये* शरीर लामा, तथा ४४, पात४, २०, युन, सस्पेन, Green wवामा मने मो५५ति हमने नाशीमामा "परियति" प्रम! કર્યા કરે છે. જન્મ મરણ કર્યો કરે છે જે જીવોને સ્પશન, રસના, ઘાણુ, ચક્ષુ અને કર્ણ, એ પાચ ઈન્દ્રિયે હેય છે તેમને રસ કહે છે બસ નામ કમને Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ०५ सू०५ परिमहो यत्फलं ददाति तनिरूपणम् ५५३ स्थावर है । स्थावर नाम धर्म के उदय से हि यह पर्याय जीयो को प्राप्त होती है । दोन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रियतफ के जीव ही उस माने गये है। सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से जीव सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म और चादर ये दो भेद केन्द्रिय जीवों के होते हैं । चादर नामकर्म के उदय से जीव पादर पर्यायवाला होता है। घाटर नामकर्म के उदय से जीवो को ऐसे शरीर की प्राप्ति होती है कि जो शरीर चर्म चक्षुओं का विषयभूत बनता है । इसके विपरीत सक्ष्म नाम कर्म होता है। जिन जीवों की अपनी योग्य पर्याप्सिया पूर्ण हो गई होती है वे पर्याप्त जीव है। तथा जिनकी ये पर्याप्तियां पूर्ण जन तक नहीं होती है वे अपर्याप्तक जीव है। जिन जनत जीवो का एक ही साधारण शरीर होता है वे साधारण जीव है और जिन जीवों का भिन्न २ गरीर होता है वे वे प्रत्येक जीव है। साधारण नाममके उदयसे जीव साधारण और प्रत्येक नामकर्मके उदय से जीव प्रत्येक शरीर होता है। अडेसे जो जीव उत्पन्न होते है वे अडज कहलाते हैं। जैसे मथर,कतर, आदि जीव। जो किमी मकारके आवरण से वेष्टित न होकर ही पैदा होते हैं वे पोतज है जैसे हाथी शशक, नेवला, चूहागेर वगैरह जीव । आसव अरिष्ट तथा विगडे हुए आचार, मुरव्या ઉદયથી જીવને તે પર્યાય (નિ) પ્રાપ્ત થાય છે જે જીવોને ફક્ત એક સ્પન ઈન્દ્રિય જ હોય છે, તેમને સ્થાત્રિ કહે છે સ્થાવર નામ કર્મના ઉદયથી જ તે પર્યાય જીવોને પ્રાપ્ત થાય છે કીન્દ્રિયથી લઈને પચેન્દ્રિય સુધીના જીવને જ “ ત્રસ” માનવામાં આવે છે સૂમ નામ કર્મના ઉદયથી જીવ સૂમ થાય છે સૂક્ષ્મ અને બાદર એ બે ભેદ એકેન્દ્રિય જીવોના હોય છે ખાદર નામકર્મના ઉદયથી જીવ બાદર પર્યાયવાળા થાય છે બાદર નામ નર્મના ઉદયથી જેને એવા શરીરની પ્રાપ્તિ થાય છે કે તે શરીરે ચર્મચક્ષઓ વડે જોઈ શકાય છે તેનાથી ઉલટું સૂમ નામકર્મ છે જે છાની ચગ્ય પર્યાસિયો પૂરી થઈ ગઈ હોય છે તે જ પર્યાપ્તક કહેવાય છે તથા તેમની તે પર્યાસિયે જ્યાસુધી પૂરી થતી નથી ત્યાસુધી તેઓ અપર્યાપ્ત જીવે છે જે અનત જીવેનુ એકજ સાધારણ રીર હોય છે, તે સાધારણ જીવે છે, અને જે જીવોના ભિન્ન ભિન્ન શરીર હોય છે, તે પ્રત્યેક જીવ કહેવાય છે સાધારણ નામ કર્મના ઉદયથી જીવ સાધારણ સારી થાય છે અને પ્રત્યેક નામકર્મના ઉદયથી જીવ પ્રત્યેક શરીર થાય છે ઈડામાંથી ઉત્પન્ન થતા જીને અડજ કહે છે, જેવા કે મોર કબૂતર આદિ જીવ જે કઈ પણ પ્રકારના આવરણથી ઢંકાયા વિના જ જમે છે એટલે કે બચ્ચા રૂપે જન્મે છે તેમને પિત જ કહે છે, જેમકે હાથી, સસલુ, નાળિયે, ઉદર, સિંહ વગેરે છ આસ, અરિષ્ટ, બગડેલા Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ प्रश्नध्याकरणसूत्रे यमई' महामोहमोहितमतयः-महामोहेन-मष्टोद यचारितमोहनीयन मोहिता मतिर्येपा ते तयोक्ताः, 'तमोसधयारे' तमिसान्यकारे, तमिसागनी तद्वद् योऽन्धकारो आशनात्यकारस्तस्मिन् 'तस थापरमहमसायरेम' सम्याररमूम वादरेपु तया ' पन्नत्तमपज्जत्तग एर जार' पर्याप्तापर्याप्तक एन योरन् अत्रयाचन्छन्दादिद सग्राह्यम्-पर्याप्सापर्याप्तरसाधारणमत्येकगरीरेषु तथा अण्डज पोतन -रमज-जरायुज-सस्वेदजोशिलोपपातिकेषु नारकतिर्यग्देवमनुप्येषु य सम्भव जरामरणरोगबहुलेपु पल्योपमसागरोपमाणि यावत् आनाटिकमनपदा दीर्घम धान चातुरन्तससारकान्नार 'परियति ' पर्यटन्ति । एसो सो' एप सः (नयामोहमोहियमई) उनको मति प्रकृष्ट चारित्र मोहनीर कर्म के उदय से मोहित बनी रहती है। इससे वे न तो एकदेशरूप चारित्र अगीकार कर सकते हैं और न मफलरूप चारित्र हो । अत ऐसे प्राणी (तमोलधयारे ) रात्रि के गाढ अधकार जैसे अज्ञानान्धकार में ही पड़े रहते हे । (तसथावरसुतुमयायरेसु) और ब्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर इनमें तथा (पज्जत्तमपज्जत्तग) पर्याप्तफ अपर्याप्तक ( एवजाव) इसी प्रकार यावत् शब्द से साधारण प्रत्येक शरीर इन जीवों में तथा अडज, पोतज, रसज, जरायुज, सस्वेदज, उद्भिज्ज जीवों में एव औप पातिक देव और नारकियों में (परियति) जन्म मरण करते है। स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण ये पाच इन्द्रिया जिन जीवों मे होती हैं वे उस हैं। बस नामकर्म के उदय से यह पर्याच जीवो को प्राप्त होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय जिन जीवों में होती है वे ३५ ५ घारमा प्रवेश श२ " महया मोहमोहिय मई " भनी भति प्रष्ट ચારિત્ર મેહનીય કર્મના ઉદયથી મહિત થયેલી રહે છે તેથી તેઓ અશત ચારિત્ર્ય અગીકાર કરી શકતા નથી અને સકલરૂપ (સ પણ) ચારિત્ર પણ मना।२ शत नथी तेथी मे वो " तमोस धयारे" बिना पाट मध२ २३॥ अज्ञानापारमा २४ ५७या २९ छ, “तसथावरसुहमवाय रेसु" भने त्रस, स्थापन सूक्ष्म, अरे मामा, तथा 'पज्जत्तमपज्जत्ता" पति, अपर्या, “एव जाव" से २४ प्रमाणे यावत् शपथी साधारण પ્રત્યેક શરીર છમ, તથા અડજ, પિતજ, રસ, જરાયુજ, સરોજ, Bre wवामा मने मो५५ति ६२ मने नीमामा “परियति" भाष्य કર્યા કરે છે જન્મ મરણ કર્યા કરે છે જે જીવોને સ્પશન, રસના, ઘાણ, ચક્ષુ અને કર્ણ, એ પાચ ઈન્દ્રિયે હોય છે તેમને ત્રસ કહે છે ત્રસ નામ કર્મના Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका अ० ५ ० ५ परिग्रहो यत्फल ददाति तनिरूपणम् ५१५ 'परिग्सहस्स' परिग्रहस्य ' फलविनागो' फलविपाक 'इहलोइओ' इहलौकिकः, मनुष्यभवापेक्षया, 'परोइनो' पारलौकिक', नरकतिर्यग्गत्याद्यपेक्षया ' अप्पसुहो' अल्पमुखः - अल्पमुख यस्मिन् स तयोक्त', 'हुदुक्खो' हुदुःख:- बहूनि दुःखानि यस्मिन् स तपोक्त', 'महन्भओ' महाभयः 'हुरयपगाढो ' हुरजः प्रगाढः जः प्रभूतकर्म मगाठ = दुर्मोच यस्मिन् स तथोक्त, दारुणो= रौद्रः 'क्सो' वर्कश= कठिन', 'अमाओ' अशात - अशात वेदनीयरूप अस्ति, एप परियह' ' वासमहस्सेर्हि ' वर्षसहस्रैः = अनेकपल्योपमसागरोपमकालैरुपभोगेन 'मुच ' मुन्यते । ' न भवेयइत्ता जत्थिहु मोक्खोति 'न अवे दयिताऽस्ति मल्ल मोक्षः = परिग्रहफ दमनुपभुज्य नास्ति मोक्षः 'ति एवमाहसु ' सागरोपम प्रमाणकालतक घूमता रहता है । ( एसो मो परिग्गहस्सफलवियागो ) परिग्रह का यह फलविपाक (इरलोइओ) मनुष्यभव की अपेक्षात (परलोइओ) परलोक-नरक - तिर्यच गति की अपेक्षा ( अप्पो ) अत्पसुख वाला तथा ( पहुदु ग्वो) बहु दुःखवाला है। (मओ) महाभयकर है। (बहुरयप्पगाढो ) इसमें जो प्रभूत कर्मरूप रज का वध होता है वह प्रगाढ बड़ी मुश्किल से दूर किया जाय, ऐसे होता है। तथा (दारुणो ) यह फलरूप विपाक दारूण भयानक (कक्क्सो) कर्कश कठिन एव (असाओ) अशात अशात वेदनीयरूप होता है। (वासस हस्सेहिं) इसी परिग्रह रूप पाप का फल अनेक पल्योपम एव सागरोपम प्रमा कालतक भोगने से (मुच्चह) छूटता है । (अवेत्ता) विना इसका फल भोगे उन जीवों को (न अत्थि मोक्खो ) मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती अभ्यारे छे " एसो सो परिग्गहस्स फलविवागो " परिवहन या इसवि परलोइओ " પરલેાક महसुण वाणी तथा 66 "" પાક इहलोइओ " मनुष्य लवनी अपेक्षाये तथा नरगति भने तिर्ययगतिनी अपेक्षाओ " अप्पमुहो" भडा लय ५२ छे, “ बहु होय छे ते प्रगाढ भडा बहुदुक्सो ” वधारे हुषाणो छे, " महन्मओ" रयपगाढो " तेभा ने विद्युत ३५ २४नेो जघ भुश्जेसीओ निवारी शाय तेवा - होय छे, तथा " दारुणो " ते इस विचा દારૂણ-ભય કર " कक्क्सो ” शनि, मने " असाओ " અશાત-અશાત वेहनीय३य होय छे " बाससहस्सेहिं ” ते परियहु३ग पायनुज मने, यस्थान પમ અને સાગરાપમ પ્રમાણ કાળ સુધી ભાગવવાથી જ ८८ मुच्चइ " लवो तेभाथी छूटी शो " अवेयइत्ता " तेनुज सोगव्या विना लवोने "न अत्थी मोक्सो ” भोक्षनी प्राप्ति थती नथी " ति एवमाहमु "ते प्राश्नु अथन ro ६५ LL L Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પણ प्रश्नण्याकरण आदिमें जोजीच फुल न आदि उत्पन होते राते हैं ये रमज जीव है । जो जीव जरायुसे वेष्टिन होकर उत्पन्न होते हैं ये जरायुज ह जेसे मनुष्य बंदर ओदि जीव । जरायु एक प्रकारका जाल जैसा आचरण रोता है, जो रक्त और मांस से भरा रहता है। इस में पैदा होने वाला बच्चा लिपटा रहता है। जरायुज, अडज और पोतज इन जीवों के गर्भ जन्म होता है। जो जीव पमीने से उत्पन्न होते है ये सस्वेदज है जैसे जू आदि जीवाजो जमीनको फोडकर उत्पन्न होते हैं ये उद्भिज्जीव हैं। जैसे शलभ(पतगी या तीड)आदि जीच। देव और नारकी ये उपपात जन्मसे उत्पन्न शेते हैं। इस कथनसे तियंचगति, मनुष्य गति,देवगति और नरक गतिइन चारो गतियों के जीचोंका ग्रहण हो जाता है। इन गतियो के जीवों में यथा समव जरा, मरण और रोग की बहुलता रहती है। उन गतियों में जीव पल्योपमप्रमाण एव सागरोपम प्रमाण काल तक परिभ्रमण किया करते है । परिभ्रमणका नाम ही सप्तार है। यह ससार कान्तार (अटवी) अनादिअनतस्वभाववाला है। उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूपकाल ही इसमें बड़े लम्चे चौडे मार्ग हैं। तथा यह चतर्गतिरूप है। ऐसे इस ससाररूप गहन वन में यह जोच परिग्रह के उपार्जन जनित पापसे पल्योपम तथा અથાણું મુરખ્ય આદિમાં જે ફુગ આદિ ઉત્પન્ન થાય છે તે રસજ છો કહે વાય છે જે જીવે જરાયુથી વીટળાઈને પેદા થાય છે તેમને જગયુજ કહે છે, જેમકે મનુષ્ય વાદર આદિ જી જરાયુ એક પ્રકારનું જાળ જેવુ આવ રણ હોય છે, જે રક્ત અને માસથી ભરેલા રહે છે, તેમાં જન્મનારૂ બાલક વીટળાઈ રહે છે જરાયુજ, અને પિતજ અને જન્મ ગર્ભમા થાય છે, જે છે પરસેવાથી પેદા થાય છે તેમને સરદજ કહે છે, જેમકે જૂ આદિ છે જે જીવો જમીનને ખેદીને ઉત્પન્ન થાય છે તેમને ઉહિજ જી કહે છે જેમ કે નીડ આદિ છે દેવ અને નારકી એ બને ઉ૫પાત જન્મથી ઉત્પન્ન થાય છે આ કથનથી તિર્યંચગતિ, મનુષ્યગતિ દેવગતિ, અને નરકગતિ એ ચારે ગતિના છ ગ્રહણ થઈ જાય છે, તે ગતિના જીવમા યથા સભવ જરા, રંગ અને મરણની અધિકતા રહે છે, તે ગતિમાં જીવ પત્યેપમ પ્રમાણ અને સાગરેપમ પ્રમાણ કાળ સુધી પરિભ્રમણ કર્યા કરે છે પરિભ્રમણ એટલે જ સ સાર, તે સ સારકાન્તાર અનાદિ અનત સ્વભાવવાળા છે ઉત્સર્પિણ અસપિણીરૂપ કાળ જ જેમાં ઘણું લાબા પહેળા માર્ગો છે તથા તે ચારગતિરૂપ છે એવા આ સંસાર રૂપ ગહન વનમાં આ જીવ પરિ ગ્રહને કારણે ઉપાર્જિત પાપથી પલ્યોપમ તથા સાગરેપમ પ્રમાણ કાળ સુધી Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुदर्शिनी टीका १० ५ सू० ५ अध्ययनोपसंहार ५४७ उक्तोस्रवपञ्चक निगमनाय गायापञ्चमाह ' एएहिं ' इत्यादिमूलम्-एएहि पंचहि आसवेहि रयमाचिणित्तु अणुसमयं । चउविहगइ पेरत, अणुपरियहति ससारं ॥१॥ सव्वगई पक्खदे, काहिति अणतगे अकयपुण्णा । जेय न सुणति धम्म, सोऊण य जे पमायंति ॥२॥ अणुसिपि बहुविह, मिच्छट्टिी य जे नरा अवुद्धीया। वद्धनिकाइयकम्मा, सुणति धम्म न य करति ॥३॥ कि सका काउ जे, ज नेच्छइ ओसह मुहा पाउं । जिणवयण गुणमहर, विरेयण सव्वदुक्खाणं ॥ ४ ॥ पंचेव य उज्झिऊणं, पचेव य रक्खिऊण भावणं। कम्मरयविप्पमुक्का, सिद्धिवरमणुत्तर जंति ॥५॥सू०६॥ ॥ इय पच आसवदारा समत्ता ॥ छाया-एतैः पञ्चभिरास्रव रज आचित्यानुसमयम् ।। चतुर्णियातिपर्यन्तमनुपर्यटन्ति ससारम् ॥ १॥ सगतिमस्कन्दा , करिष्यन्ति अनन्तकान् पकृतपुण्याः । ये च न श्रृष्यन्ति धर्म, श्रुत्वा च ये प्रमान्ति ॥ २॥ अनुशिष्टमपि पहुविध, मि यादृप्टिका ये च नरा अशुद्धिकाः। पद्धनिकाचितकर्माण., श्रृण्वन्ति धर्म न च कुर्वन्ति ॥ ३ ॥ कि शक्ताः क्त्त ये, यन्नेच्छन्ति औषध मुधा पातम् । जिनवचन गुगमपुर, मिरेवन सर्वदुःखानम् मे ४ ।। पञ्चैत्र च उज्यित्वा, पञ्चैव च रक्षित्वा भावेन । कमरजो विममुक्ताः, सिद्धिवरामनुत्तरा यान्ति ॥ ५॥ टोका--एते. = अनन्तरोपपणितस्वस्पैः पञ्चभिः = पञ्चसम्यकैरात्रवैःप्राणातिपातदिरूपै. 'रय ' रजा-ज्ञानापरणीयादि ममलम् , आत्मनो मलिनकारकत्वात 'अणुममय' अनुसमय - प्रतिक्षणम् 'आचिणित्त' आचित्य अब सूत्रकार उक्त इन पाच आस्रवो के विषय में पाच गाथाओं द्वारा सक्षिप्तरूप से उपसहार करते हुए अपने विचार प्रदर्शित करते હવે સૂત્રકાર ઉપરોક્ત પાચ આ વિષે પાચ ગાથાઓ દ્વારા સ ક્ષિત Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न याकरण त्येवमूचुस्तीर्थककरगगधरादयः, तथा ' कहेसिय' कविताच 'नायकुलनंदणो' शाककुलनन्दनः 'महापा' महात्मा 'निणो' जिनः 'पीरवग्नामोनो' पीरपरनामधेयः । 'परिग्गहस्स' परिगहस्य 'फलनियाग' फल विपारम् ।' एसो सो परिगहो पचमो' एप सः पूक्तिप्रकारः परिगहः पञ्चमः 'नियमा' नियमाद् विज्ञेयः, कथभूतो विज्ञेयः' इत्याह-' नाणामगिकणगरयणमहरिह' नानामगिकनकरत्नमहाई०, 'जाव' यावत् , अन यापन्छन्दादभ्ययनप्रारभपाठः, 'हिययदइओ' इत्यन्त यावत्सग्राह्य', 'इमस्स' अस्य प्रत्यक्षीभूतम्य ' मोरखपरमुत्तिम ग्गस्स ' मोक्षवरमुक्तिमार्गस्य 'फलिहभूओ' परिवभूतोऽर्गलासदृशोऽस्ति ।।१॥ ॥चरमम् अपमहार समाप्तम् ॥ है। (ति एवमासु) ऐसा इस प्रकार का कथन तीर्य कर एव गणध. रादिक देवो का है। तथा उन्हीं के कथनानुमार (नायकुटनदणो) ज्ञातकुलनदन (महप्पा) महापुरुप (जिणो वीर पर नामधेजो) प्रभु जिनेन्द्र देवने भी (परिग्गहस्म) परिग्रह का ( फलविवाग) ऐसा ही फलरूप विपाक ( कहेसिय) कहा है । (एसो मो) इस तरह यह (परिगहपचमो) पचम परिग्रह (नियमा) नियम से (नाणामणिकणग रयणमहरिह जाव) नानामणि कनक रत्न आदिरूप है। यहा पर यावत् शब्द से इस मार को प्रारभ करते समय जो पाठ 'हिययदइओ' तक इस परिग्रहरूप वृक्ष के विषय में कहा है वह सब गृहीत किया गया है। यह परिग्रह (इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स) इस मोक्ष का जो निलों भतारूप श्रेष्ठ मार्ग है उसका (फलिहभूओ ) अर्गला रूप है ॥ सू०५॥ ॥ परिग्रह नामका यह अन्तिमद्वार समाप्त हुआ ॥ तीर्थ । मने गधर माहि देवानु छ तथा तमना इथन प्रमाणे ४ "नाय फुलनदणो " ज्ञात नहुन "महप्पा " महापुरु५, "जीणो-वीरवरनामधेजो" प्रभु निन्द्र हेवे ५५ " परिग्गहस्स" परियडना “ फलविवाग" मेवो । विपा " केहसिय" स छ "एसो सो" ! शत ते "परिग्गहो पचमो" पायमा परिघ मास " नियमा" नियमथी "नाणामणिकणगरयण महरिह० जाव" विविध मणि, १४, २ मा ३५ छ ही यावत् Avथी मा द्वारा प्रारले " हिययदइओ" सुधानाले 3 परि३५ वृक्षना વિષયમાં કહેવામાં આવેલ છે તે આખે પાઠ ગ્રહણ કરાયેલ છેઆ પરિગ્રહ " इमस्स मोस्खवरमुत्तिमगगस्स" भाक्षी निमिता श्रेष्ठ भाग छ तना "फलिह भूओ" भागनिया समान छ ॥ ९-५॥ ' પરિગ્રહ નામનું આ છેવટનું દ્વાર સ પૂર્ણ થયુ છે Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहार वद्ध = सात्ममदेशेषु स^ ठेपित, निकाचित = दृढप्त्तर पदम् - उपशमनादिकरणानामपियीकृत कर्म यैस्ते तथोक्ताः, नरा. गुरुणा बहुविधम् = अनेकमकारम् - विविधहेतुदृष्टान्तपूर्वकम् अनुशिष्टमपि उपदिष्टमपिध मं श्रुतचारिनलक्षण श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति=न च समाचरन्ति ॥ ३ ॥ 'जे' ये मनुग्या सर्वदु खाना=जन्मजरामरणादिरूपागा 'निरेयण ' विरेचन= कोष्ठशुद्धिरूपविरेचनमिनविरेचन निवारक 'गुणमधुर' गुणमधुर गुणै. = आत्मविकासिगुणैर्मधुर-मिष्टम्, एत्तादृश ' जिणनयण 'जिननचन = पचन- जिनवचनरूपम् ' आसह ' ओषध 'मुहा ' मुधा उपकारसुद्धया ' ज ' यत् 'नेच्छड' नेच्छन्ति =नपिनन्ति ते ' किं काउ ' किं कर्तु 'सका ' शक्ता' = समर्था भवन्ति मिथ्यादृष्टि होते हैं विवेक बुद्धि से विहीन होते हैं तथा (निकाय कम्मा) निकाचित कर्मो का वध किए हुए होते हैं, ऐसे मनुष्य बहुविह (अणुदिप गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदि से बहुत प्रकार से समझाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (धम्म) धर्मको (सुपति) सुन तो लेते है परन्तु ( न य करेंति ) उसे अपने आचरण मे नही लाते हैं ||३|| रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्थ औधि का पान नही करते हैं तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं इसी तरह (ये) जो सारी प्राणी (सव्त्र दुक्खाण विरेयण (जरा, मरण आदि समस्त दुःखो को जड़मूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमपुर ) आत्मविकासी गुणो से मीठे ऐसे ( जिणवयण ) जिनेन्द्र प्रभु के वचन रूप (ओसह ) औपव को (मुहा) उपकार बुद्धि से ( पाउ नेच्छ ) नही पाते हैं वे ( किं कार सकl) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं । " जे नरा मिच्छादिट्ठी अनुठीया " ? मनुष्यो मिथ्यादृष्टि वाणा होय छे, विनेज्युद्धि विनाना होय छे तथा " बद्धनिकाइयकम्मा " निक्षयित भेना मध वाणा होय छे, शेवा मनुष्यो " बहुविध अणुदिट्ठपि " गुरुमो દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દૃષ્ટાતે આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छता पशु श्रुतयास्त्रि३५ " धम्म " धर्मनु " सुणति શ્રવણ તા કરે છે, પણુ नय करेति " पशु तेने पोताना आाथरशुमा उतरता नयी ॥3॥ જેમ રાગો માણસ રાગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે >> << હેર તે તેને रोग दूर खाने राजिमान थतो नथी, सेल प्रमाणे “ये " ? ससारी विरेण " ४श, भरशु याहि सगणा हु जाने निर्भूजे डरनार "6 તવા 'गुणमहुर " आत्मविजसी गुणोथी भधुर मेवा ८८ (6 ભગવાનના વચનપ नेच्छइ " प्रास जस्ता ओमह " औषधने " मुद्दा " नथी, तेथे "किं काउसक्का " " जिणायण ” दिनेन्द्र पर मुद्धिथी 66 पाउ ६ पशु खाने समर्थ Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ५४८ স্যালয় आत्मप्रदेश सहोपचित्य 'चउविहगई पेरत' चतुर्विधगतिपर्यन्तम्, चतुर्विधाचतुःमकारा गविनरकादिस्या पर्यन्तो रिमागो यस्य स त तथोक्त संसार 'अणुपरियति ' अनुपर्यटन्ति परिभ्रमन्ति ॥ १ ॥ ये च प्राणिनोधर्म नयन्ति, तथा ये च श्रुत्वापि प्रमायन्ति-प्रमाद कुर्वन्ति ते उभयेऽपि 'अयपुण्णा' अकृतपुण्या-माणातिपातादिपापपरायणत्वात् हीन पुण्या 'अनतए ' अनन्तकान्-अनन्तान् 'सत्यगइपरखदे ' सर्पगतिमसन्दाननरकनिगोदादि चतुर्गतिभ्रमणानि 'कार्हिति ' करिप्यन्ति ॥ २॥ ये च मिथ्यान्टिका अनुद्धिका-विवेकबुद्धिविक्ला वदनिकाचितकर्माणः है- 'एएहिं , इत्यादि। (एहिं ) इन हिंसा आदिरूप (पहिं )पाच (आसवेरि) आस्र वों के आचरण करने से जीव ( अणुसमय) प्रतिक्षण (रय आचिणित) ज्ञानावरणीय आदि कर्ममल का बंद करके-आत्मप्रदेशों के माय एक क्षेत्रावगाहरूप सघध करके ( चउविगइपेरल) नरकादिरूप चार प्रकारकी गतिवाले (ससार ) ससार में (अणुपरियति ) परिभ्रमण किया करते है ॥१॥ (जे य न सुणति धम्म ) जो प्राणी श्रुतचारित्ररूप धर्म का श्रवण नहीं करते है तथा (सोऊण य जे पमायति) जो सुनकर के भी प्रमाद पतित होते रहते हैं, ये दोनों ( अफयपुण्णा) प्राणातिपात आदिको मे परायण रहने के कारण हीन पुण्यवाले हैं । (अनतए सव्व गईपरखदे काहिंति ) अतः अनतरूप में नरकनिगोद आदि चारोगतियों में परिभ्रमण करते रहेंगे ॥ २ ॥ (जे नरा मिच्छादिट्ठी अवुद्धीया मनुः 64सार अशन पोताना विद्यारे शिवि छ-" ए ए हिं" त्याह ___“ एएहि " डिंसा माह ३५ “ पचहि" ते पाय " आसवेहि " भास वान मायरवाथी छ। “अणुमभय" प्रत्ये क्षणे "रय आचिणित्तु "शाना વરણીય આદિ કર્મમલને બધ બાધીને–આત્મ પ્રદેશની સાથે એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ समय ४शन " चउविहगइपेर " न२६ ३५ यार गति वा “ससार" ससारमा “ अणुपरियट्टति" परिनभए। उर्या २ छ ॥१॥ “जेय न सुणति धम्म" २ ७ श्रुतयारित्र३५ धनु श्रवण ४२। नथी, तथा “ सोऊण य जे पमायति " सालजीने पर प्रभाहमा मला २९ छे, ते मन "अकयपुण्णा" प्रातिपात माहिभाबीन २२वान पारणे अन्यहीन सय छ, “अनतए सजगई पक्सदेकाहिंति " तथा मनन्त३५ न२કનિદ આદિ ચારે ગતિમાં પરિભ્રમણ કર્યા કરશે તેરા Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहार पद्ध-स्वात्मप्रदेगेषु म लेपित, निकाचित-दृढ़त्तर पद्धम्-उपशमनादिकरणानामविपयीकृत म येस्ते तथोक्ता., नग. गुरुणा बहुविधम् अनेकमकारम्-विविधहेतुदृप्टान्तपूर्वकम् अनुशिष्टमपि-उपदिष्टमपिधर्म-श्रुतचारिनलक्षण श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति न च समाचरन्ति ॥ ३ ॥ 'जे' ये मनुन्या सर्वदु खाना-जन्मजरामरणादिरूपागा 'पिरेयण ' विरेचन-कोप्ठशुद्धिरूपविरेचनमिरविरेचन निवारक 'गुणमहुर' गुणमधुर गुणे = आत्मविकासिगुणैर्मधुर-मिष्टम् , एतादृश 'जिगरयण 'जिनपचनबचन-जिनवचनरूपम् ' आसह ' ओपध ' मुहा' मुधा-उपकारसुद्धया 'ज' यत् 'नेच्छई' नेन्छन्ति नपिरन्ति ते 'किं काउ' किं कर्तुं 'सका ' शक्ताः समर्था भवन्ति प्यमि यादृष्टि होते हैं विवेक बुद्धि से विहीन होते हैं तथा (बद्धनिकाय कम्मा) निकाचित कर्मो का घर किए हए होते हैं, ऐसे मनुष्य बत्तविह (अणुदिपि) गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदिसे नहत प्रकारसे सामझाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (धम्म) धर्मको (सुणति) सुन तो लेते है परन्तु (न य करेंति ) उसे अपने आचरण मे नही लाते हैं ॥३।। रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्थ ओपधि का पान नही करते है तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते है इसी तरह (2) जो ससारी प्राणी (सव्व दुक्वाण विरेयण (जरा, मरण आदि समस्त दुग्यो को जड़मूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमहुर) आत्मविकासी गुणो से मीठे ऐसे (जिणवयण) जिनेन्द्र प्रभु के वचन रूप (ओसह ) औपध को (मुहा) उपकार बुद्धि से (पाउ नेच्छ३) नहीं पाते हैं वे ( मार सका) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं। जे नरा मिच्छादिट्ठी अनुीया" रे मनुष्यो मिथ्याल्टि वाणा हाय, विमुद्धि विनाना डाय छे तथा " बद्धनिकाइयकम्मा " निथित उभाना ५५ पाय जय छ, मेवा मनुष्यो " बहुविह अणुदिपि" शुरुमा દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દૃષ્ટાતા આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छ॥ ५५ श्रुतयारित्र३५ “धम्म" धनु “सुणति " Oq तो रे प "न य करे ति" ५ तन पाताना मायरमा उतरता नयी ॥3॥ જેમ રોગી માણસ રોગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે તે તેને शश १२ ४२वाने शतिभान यतो नथी, को प्रमाणे “ये"२ ससाश " सयदुक्साणविरेयण " ८२, भ२५] माहि सामान निभूण ४२नार तवा "गुणमहर" मामविलासी गुपथी मधु२ मेवा " जिणपयण" लिनेन्द्र लापानना क्यन३५ " ओसह " औषधने “मुहा" ५२ मुद्धिथी “पाउ नेच्छद" प्रास उता नथी, तभा “कि काउसका" ४४ ५९ ४२वाने समय - ~LL Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પટ ম্যাঙ্গণে __ आत्मप्रदेश सहोपचित्य ' चउविहगई पेरत' चतुर्विधगतिपर्यन्तम्, चतुर्विधा चतुःप्रकारा गति =नरकादिस्या पर्यन्तो विभागो यस्य स त तथोक्त संसारस् 'अणुपरियट्टति ' अनुपर्यटन्ति परिभ्रमन्ति ॥ १॥ ये च माणिनोधर्म न श्रृण्वन्ति, तथा ये च श्रुत्वापि प्रमायन्ति अमादं कुर्वन्ति ते उभयेऽपि ' अकयपुण्णा ' अकृतपुण्या-माणातिपातादिपापपरायणत्वात् हीनपुण्या ' अनतए ' अनन्तकान्-अनन्तान् ' सगइपरखदे ' सवैगतिपस्कन्दाननरकनिगोदादि चतुर्गतिभ्रमणानि ' फाहिति' करिप्यन्ति ।। २ ॥ ये च मि यादृन्टिका अनुद्धिका-विवेकबुद्धिविग्ला पद्धनिकाचितकर्माणः है- 'एएहिं , इत्यादि। (एहिं ) इन हिंसा आदिरूप (पचहि पाच (आसवेहिं ) आस वों के आचरण करने से जीव ( अणुसमय ) प्रतिक्षण (स्य आचिणित्त) ज्ञानावरणीय आदि कर्ममल का यद करके-आत्मप्रदेशों के साथ एक क्षेत्रावगाहरूप सयध करके (चउविगइपेरत) नरकादिरूप चार प्रका रकी गतिवाले (ससार) ससार में (अणुपरियति) परिभ्रमण किया करते हैं ॥ १॥ (जे य न सुणति धम्म ) जो प्राणी श्रुतचारित्ररूप धर्म का श्रवण नही करते है तथा (सोऊण य जे पमायति ) जो सुनकर के भी प्रमाद पतित होते रहते हैं, ये दोनों ( अझयपुण्णा) प्राणातिपात आदिको में परायण रहने के कारण हीन पुण्यवाले हैं । (अनतए सव्व गईपक्खदे काहिंति ) अत. अनतरूप में नरकनिगोद आदि चारोगतियों में परिभ्रमण करते रहेंगे ॥ २ ॥ (जे नरा मिच्छादिट्ठी अबुद्धीया मनु. 64 1२ अरीन पाताना पियारे शव -" ए ए हिं" त्याह ___“ एएहि " हिंसा माहि ३५ “ पचहिं" ते पाय " आसवेहि " मास वान मायक्वाथी "अणुसभय " प्रत्ये। सो "रय आचिणितु " ज्ञाना વરણીય આદિ કર્મમલને બ બ બાધીને–આત્મ પ્રદેશની સાથે એક ક્ષેત્રાવગાહરૂપ सय ४शन " चउविहगइपेर" न२४ा ३५ यार गति वा “ ससार" ससारमा " अणुपरियति" परिभ्रम उयो ४२ छ ॥१॥ “जेय न सुणति धम्म" रे ७३ श्रुतयारित्र३५ धमनु श्र4] ४२ता थी, तथा “ सोऊण य जे पमायति " सालजी २ प्रभावमा मला २६ छ, ते मन्ने “ अफयपुण्णा" प्रातिपात माहिमा दीन २२वान ४२ अन्यहीन डाय छ, “अनवए सन्नगई पक्सदेकाहिंति "तथी अनन्त३थे नर-- કનિદ આદિ ચારે ગતિચામાં પરિભ્રમણ કર્યા કરશે સારા Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका भ०५ सू० ५ अध्ययनोपसंहार ५४२ पद्ध-स्वात्मपदेगेषु स लेपित, निकाचित दृढ़त्तर बद्धम्-उपगमनादिश्रणानामविपयीकृत कर्म यैस्ते तयोक्ताः, नग. गुस्णा बहुविधम् अनेकमकारम्नविविधहेतुप्टान्तपूर्वकम् अनुगिष्टमपि-उपदिष्टमपिधम-युवचारिवलक्षण श्रृण्वन्ति किन्तु न च कुर्वन्ति न च समाचरन्ति ॥३॥ 'जे' ये मनु या सर्पद खाना-जन्मजरामरगादिरूपाणा 'पिरेयण ' विरेचनकोप्टशुदिपविरेचनमिरविरेचन निवारक ' गुणमहुर' गुणमधुर गुणैःआत्मविकासिगुणैर्मधुर-मिष्टम् , एतादृश 'जिणायण ' जिनाचनम्वचनजिनवचनरूपम् ' आमह ' पोपध 'मुहा' मुधा-उपकारसुद्धया 'ज' यत् 'नेन्छ' नेउन्निम्नपिपन्ति ते 'मि काउ' किं कर्नु 'समा ' शक्ता=समर्था भवन्ति प्यमि पाटष्टि होते हैं विवेक बुद्धिसे विहीन होते हैं तथा (पनिकाइयकम्मा) निकाचित कर्मों का यर किए हुए होते हैं, ऐसे मनुष्य यविह (अणुदिदृषि) गुरुओं द्वारा विविधहेतु तथा दृष्टान्त आदिसे नुत प्रकारसे सामनाये गये भी श्रुत चारित्ररूप (धम्न) धर्मको (सुणति) सुन तोलेते है परन्तु (न य करेंति) उसे अपने आचरण मे नही लाते हैं ॥३॥ रोगी होकर भी जो रोग निवारणार्य ओपधि का पान नहीं करते हैं तो जैसे वे अपने रोग को दूर करने में समर्थ नहीं हो सकते हैं इसी तरह (ये) जो ससारी प्राणी ( सव्व दुक्माण विरेयण (जरा, मरण आदि समस्त दुग्यों को जडमूल से उखाड देने वाले तथा (गुणमहुर) आत्मविकासी गुणो से मीठे ऐसे (जिणवयण) जिनेन्द्र प्रमु के वचन रूप (ओसह) औषध को (मुहा) उपकार बुद्धि से (पाउ नेच्छ5 ) नहीं पाते हैं वे (किं कार सका।) कुछ भी करने के लिये समर्थ नहीं हो सकते हैं। _“जे नरा मिन्छादिदी आदीया"२ मनुष्यो मिथ्याट वामा डाय , विषमुद्धि विनाना हाय छ तथा "पद्धनिकाइयक्रम्मा" नियित भना । पापा हाय छ, सवा मनुष्य। "बहुविह अणुदिपि" गुरुया દ્વારા વિવિધ હેતુ તથા દુષ્ટાતા આદિ દ્વારા બહુજ સમજાવવામાં આવે છે छत पशु श्रुतयारित्र३५ 'धम्म " धनु “सुणति " श्रq तो रे ), ५५ " न य करे ति" ५ ते घोताना मायरामा उतरता नयी ॥3॥ જેમ રેગો માણસ રોગના નિવારણ માટે ઔષધિ ન પીવે તે તેને शश २ ४२वाने शतिमान था नथी, से प्रभारी “ये" ससारी " सम्बदुस्साणविरेयण" ०८२१, भ२५ मा सामान निभूज २नार तथा “गुणमहुर” मामविासी गुणाथी मधु२ सेवा " जिणग्यण "नेन्द्र समानता क्यन३५ " ओसह " गोषधने “मुहा" 6५२ मुद्धिथी “पाउ मेच्छह " प्रास उता नथी, तशा " किं काउसका " ४४ ५४ ४२वाने समय Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० प्रश्नध्याकरणसूत्र अपि तु न किमपि । ये जोपध न पिरन्ति ते रोगनिवारणे कथमपि समर्था न भवन्तीति भारः । सो 'नेच्छइ ' इत्यत्रैकवचनमार्फत्वाद ॥४॥ ___ भावेन अन्तःकरणेन पञ्चैव च प्राणातिपातावासद्वाराणि 'उझिऊण ' उज्झित्वा-त्यतया तथा पञ्चेव च प्राणातिपातादिनिरमणलपणानि सपरद्वाराणि रविवऊण' रक्षित्वा-पालयित्वाकर्मरजोनिप्रमुक्ताः सन्त सिद्धिवरा-सिद्वीना मध्ये बरा श्रेष्ठा सफलफर्मक्षयलभ्या भारसिद्धिस्ता तथोक्ताम् , अतएर अनुत्तरा सर्वोत्तमा 'जति ' यान्ति-अपुनरावृत्ति सिद्धिगति गन्छन्तीत्यर्थः ॥५॥ इति श्रीविश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचकपञ्चदशमापाफलितललितक लापालापक-प्रविशुद्धगयगयनैकग्रन्यनिर्मापक-बादिमानमर्दक-श्रीगाहछत्रपतिको ल्हापुर रानप्रदत्त-'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-बाल बह्मचारि -जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री-घासीलाल - प्रतिपिरचिताया दशमानस्य श्री प्रश्नव्याकरणमूत्रस्य सुदर्शन्याख्याया व्याख्याया हिमादिपञ्चास्रवद्वाररूप प्रथमो विभागः समाप्तः ॥ १॥ विरेचन औषधि जिस प्रकार कोष्ठ की शुद्धि कर देती है उसी प्रकार प्रभु के वचनरूप औषध भी कोप्टरूप आत्मा की शुद्धि विधायक होती हैं, इसलिये इन्हें विरेचक चूर्ण के जैसा कहा है ॥४॥ जी भव्य जीव (भावेण पचेव उज्झिाऊण ) भावपूर्वक इन पूर्वोक्त प्राणातिपात आदि पाच आस्रव द्वारो को छोड़ करके और (पचेच रक्खिऊण ) प्राणातिपातादिविरमणरूप पाच सवरदारी पाल करके (कम्मरयविप्पमुक्का) कर्मरूप रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं, वे (अनुत्तर सिद्धवर जति) अपुनरात्तिरूप सर्वोत्तम भावसिद्धि सिद्धिगति को प्राप्त करते हैं ॥५॥ ॥ ये पाच आसव- 'अधर्म' द्वार समाप्त हुए । ॥ प्रश्नव्यारण सूत्र का प्रथम विभाग समाप्त ॥ થઈ શકતા નથી જેમ વિરેચન ઔષધિ કે સાફ કરી નાખે છે તેમ પ્રભુના વચનરૂપી ઔષધ પણ આત્મ રૂપી કઠાની શુદ્ધિ કરનાર છે, તેથી તેને વિરેચન यूए समान उद छ । ४ ॥ २ सय व "भावेण पचेव उज्झिऊण " मा पूर्व त पूर्वरित प्रातिपात माहि पाय साप द्वाशन डीन, “पचेव रक्सिण " प्रा! तिपातहिविरभाए३५ पाय सवारीनु पालन रीने “कम्मरयविष्पमुक्का" भ३५,२४थी तदन २डित य छ तेस। “ अनुत्तर सिद्धिवर जति " જ્યાથી આ સ સારમાં પાછા આવવું પડતું નથી એવુ સર્વોત્તમ ભાવસિદ્ધિસિદ્ધિગતિ-એક્ષ-પ્રાપ્ત કરે છે, પા છે પાચ આસવાર સમાપ્ત છે છે પ્રશ્નવ્યાકરણ સૂત્રને પહેલે વિભાગ સમાપ્ત છે Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -द्वितीयो भागःअन प्रथमभागे पञ्चासत्रा वर्णिता, द्वित्तीयभागे तु तत्प्रतिपक्षभूतान् पञ्च सरानभिषिमुः। श्रीसुधर्मास्वामी तेषु मथममहिंसारक्षणसवरद्वार विण्वन् शिप्यमामध्येदमाह-'जम्य ' इत्यादिमूलम्-जयू। एत्तो सवरदाराई पंच वोच्छामि आणुपुवीए । जह भणियाणि भगवया, सव्वदुक्खविमोक्खणहाए ॥१॥ पढम होई अहिंमा १, वितिय सच्चवयणं इति पण्णत्त । दत्तमणुन्नाय३ संवरो य वभचेर५ मपरिग्गहत्तं५ च ॥२॥ तत्थ पढम अहिसा, तसथावरसव भृयखेमकरी । तीसे सभावणाए किचिवोच्छ गुणदेसं ॥३॥ ताणि उइमाणि सुव्वय | महव्वयाइ लोगहियसव्वयाइ सुयसागरदेसियाइं तवसजममहव्वयाइ सीलगुणवरव्वयाइ सच्चज्जवव्वयाइ नरगतिरियमणुयदेवगइविवजगाई सम्ब जणसासणगाइ कम्मरयविदारगाइ भवसयविणासगाइ दुहसयोवनोयगाई सुहसयपवत्तगाइ कापुरिसदुरुत्तराइ सप्पुरिसनिसेवियाइ निवाणगमणमग्गसग्गप्पणायगाइ सवरदाराइ पच कहियाणि भगवया ॥ सू० १॥ द्वितीय विभाग प्रारभप्रथम विभाग में पाच आस्रवो का वर्णन किया गया है। अब इस द्वितीय विभाग में इन पाच आस्रवों के प्रतिपक्षभृत पांच सवरो को कहने की कामनावाले श्री सुधर्मास्वामी सर से पहिले उनमे से अहिंसालक्षण सवरद्वार का विवेचन करने के निमित्त जत्रूस्वामी को ___णीनेभागપહેલા વિભાગમા પાચ આઝવેનું વર્ણન કરાયુ છે. હવે આ બીજા વિભાગમાં તે પાચ આસ્ત્રવોથી વિરૂદ્ધના પાચ સ વર વિશે વર્ણન કરવાની ઈચ્છાવાળા શ્રી સુધર્માસ્વામી સૌથી પહેલા તેઓમાના અહિ સાલક્ષણ સ વરદ્વારનું Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ प्रश्नामाकरणसत्र टीका-'ज' इत्यादि-- हे जम्चू । - इतः मवरद्वाराणि पञ्च वक्ष्यामि आनुर्पा यथा भणितानि भगवता सर्वदुःखविमोक्षणार्याय ॥ १ ॥ प्रथम भवत्यहिंसा, द्वितीय सत्याचमिति प्राप्तम् । दत्तानुज्ञातसपरथ, ब्रह्मचर्यपरिग्रहत्यं च ॥२॥ तन प्रथममहिंसा, उसस्थापरभूतक्षेमकरी। तस्या सभापनायाः, फिश्चिद् वक्ष्यामि गुणोद्देशम् ॥ ३ ॥ इति डाया। तत्र हे जम्यूः । इतः आसवहारकथनानन्तर 'आणुपुचीए' आनुपूर्व्याअनुक्रमेण पञ्च 'संघरदाराइ ' सरद्वाराणि, मप्रियते-निरु यते म कारण माणातिपातादिक येनात्मपरिणामेन स सवरस्तस्य द्वाराणि = उपायभूतानि% अहिंसादीनि 'वोच्छामि' वक्ष्यामिकथयिष्यामि । नाह दया वक्ष्यामि, किन्तु भगवता महावीरेण सर्वमाणिना 'सबरखविमोग्वणढाए' सर्वदुयसयोधन करके प्रथमसूत्र कहते है-'जबू' इत्यादि । टीकार्थ-(जनू) हे जवू ! (पत्तो) आस्लवद्वार कहने के बाद में अब ( आणुपुचीए) अनुक्रम से (पच सवरदाराइ) पाच सवाद्वारों को (बोच्छामि ) कहगा। जिस आत्मपरिणाम से कर्मो के आस्रव के कारणभूत प्राणानिपातादिक परिणाम रोक दिये जाते हैं उसका नाम सवर है । उसके उपायभूत द्वार अहिंसादिक परिणाम है। इन्ही परि__णामों का नाम सवर द्वार है । मैं इन सबरदारो का कथन अपनी बुद्धि के अनुसार नहीं करूँगा-किन्तु (भगवया) भगवान महावीर ने (सव्वदुक्रवविमोक्वणट्टाए) समस्त प्राणियों के दुःखो को दूर करने के વિવેચન કરવાને માટે જ બૂસ્વામીને સધીને પહેલું સૂત્ર કહે છે– 'जबू" त्या "जबू" । " एतो" माना२ वि य ५०ी हवे है "आणुपुत्रीए " अनुभ' पचसवरदाराइ , यसरी "वोच्छामि" કહીશ જે આત્મપરિણામથી કર્મોને આમ્રવના કારણભૂત પ્રાણાતિપાતાદિક પરિણામને રોકવામાં આવે છે તેનું નામ સવર છે તેના ઉપાયરૂપ દ્વારે અહિંસા વગેરે પરિણામ છે એ જ પરિણામોને સ વરદ્વાર કહે છે હુ તે सववाशनु वर्णन भारी भुद्धि प्रमाश नही- " भगवया"लगवान भलावी२ “सव्व दुक्सविमोक्सणट्टाए " समस्त प्राणीमानामा २ ४२वाने Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीकाम० १ सू० १ पञ्चमसवरद्वारनामानि विमोक्षणार्याय 'जह' यथा-यपाणि भणितानि, तयैव वक्ष्यामि ॥ १ ॥ पच सवर द्वाराणि वक्ष्यामीति प्रतिज्ञाय तन्नामान्याह-'पढम होइ अहिंसा' इत्यादि। पञ्चसवर द्वारेषु 'पढम ' प्रथममहिंसा सवरद्वार भाति, द्वितीय मत्यवचननामक, उतीय दत्तानुज्ञातग्रहणलक्षण, चतुर्थं ब्रह्मचर्य, च-पुनः पञ्चममपरिग्रहत्व सवरद्वारम् ॥२॥ पञ्च सवरद्वारनामान्युक्तानि, सप्रति प्रथममहिसासवरद्वार वर्णयितुमाइ-' तत्य पढम अहिंसा' इत्यादि 'तत्य' तत्र सवरपञ्चकमध्ये प्रथम सवरद्वारमहिंसा भवति, साहि 'तसथावरसन्चभूयखेमारी ' सस्थावर सर्वभूतक्षेभरीप्रसस्थावरादि सर्व लिये (जह) जिस रूप से इनका (भाणियाणी ) प्ररूपण किया है उसी तरह से में इनका प्ररूपण-वर्णन करूंगा ॥१॥ अब वे पाच सवर बार कौन २ से है ? मत्रकार उनका क्रमशः नामनिर्देश करने के लिये कहते हैं-' पढम होड अहिंसा' इत्यादि। उन पांच सवर द्वारों में से (पढ़म) सय से पहिला सवर द्वार (अहिंसा होइ) अहिंसा है। (वितिय ) दूसरा सवर ढोर (सच्चवयण ) सत्यवचन है (दत्तमणुन्नाय ) तीसरा सवर दार दत्तानु जालग्रहण है । चौथा सवर ढार (यभचेर ) ब्रह्मचर्य है । और पांचवा सवर द्वार (अपरिग्गरत्त ) अपरिग्रहत्व है ॥२॥ इस प्रकार पाच सवर द्वारों के नाम कह कर अय सूत्रकार सर्वप्रथम अहिंमा म्प सवर द्वार को वर्णन करने के विये तीसरी गाथा कहते हैं-(तत्थ) इन पाच सवर द्वारों के बीच में (पढम ) पहिला सवरद्वार ( अहिंसा ) अहिंसा भाट “जह" २ शते तेनु “भाणियाणि" प्र३५ उयु छ मेक शते તેનું પ્રરૂપણ-વર્ણન કરીશ કે ૧છે - હવે તે પાચ સવરદ્વાર કયા કયા છે? તેને અનુક્રમે નામ નિદેશ ४२वान भाट सूत्रा२ 3 छ-" पढम होइ अहिंसा" त्या ते पाय सहारामा " " पढम" सीथी पडेटु स. १२६२. " अहिंसा होइ मडिसा छ, “ वितिय " भी मप२६२ " सञ्चवयण" सत्य वयन " दत्तमणुन्नाय " श्रीनु स १२६२ हत्तानुड छ, व्याथु सपना “ भचेर " प्राय छ, भने पायभु स१२६१२ “अपरिगहत्त " अपरियड ॥२॥ આ પ્રમાણે પાચ સવરદ્વારના નામ કહીને હવે સૂત્રકાર સૌથી પહેલા , સવરદ્વાર અહિંસાનું વર્ણન કરવાને માટે ત્રીજી ગાથા કહે છે “ધ” એ पाय सवारीमा “ पदम " पडेयु स १२६॥२ " भहिंसा" अहिंसा के प्र० ७० Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ प्रश्नध्याकरणले प्रतानि तानि तथोक्तानि, तया- ' सीलगुणवरब्बयाई' शीलगुणवरब्रतानिन शील-चित्तसमाधिः गुणा. विनयादयः तैराणि-श्रेष्ठानि यानि ब्रतानि तानि तथोक्तानि- ' सचज्जवन्धयइ ' सत्यापनतानि, तर-सत्यम् भूपावादवर्जनम् , आर्जवम् मायाननम् , तद्वाणि यानि नतानि तानि तयोक्तानि, तथा'नरगतिरियमणुयदेवगविविधज्जगाइ' नरकतिर्यदमनुज देवगतिश्विर्जकानिनरकतिर्यमनुनदेवाभिशाश्वतम्रोगतीविनर्जयन्ति मोक्षगतिमापकत्वेन यानि तानि तथोक्तानि, तथा- 'सबनिगलासगगाड' सर्वजिनशासनरानि सर्वजिने शिष्यन्ते =उपदिश्यन्ते यागि तानि तथोक्तानि, तथा-'कम्मरयवियारगाइ' कर्मरजोविनाम सयम है, इसमें प्रवृत्त साधु के नवीन कर्मों का आगमन रूक जाता है अर्थात् नबीन कर्मों के आस्रव का निरोध होना यहि इस सयम ना फल है । इसलिये ये सवरद्वार तपसयम रूप महावत हैं । तथा ये सवरद्वार-(सीलगुणवरव्ययाइ ) शील' गुगवर व्रतरूपह-चित्त की समाधि का नाम शोल है, विनय आदि का नामगुण है । इनसे भेष्ठ जोबत हैतदुपये सवर द्वार है। (सच्चजवन्वायाइ) सत्य-मृपावादका परित्याग, आर्जव-माया का त्याग, इन रूप जो व्रत है तदपये सवरद्वार हैं । (नरगतिरियमणुयदेवाइविवजगाइ ) इनकी आराधना से आराधक जीव को मोक्षगति कीप्राप्ति होती है इसलिये ये सवर द्वार नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव, इन चारो गतियों से अपने आराधक जीव को दूर कर देते है इसलिये ये नरक तिर्यक मनुज देवगति विवर्जक हैं । (सव्वजि णसासणग्गइ) इन सबरद्वारों का उपदेश अभीतक जितने भी जिन हो પ્રવૃત્ત થયેલ સાધુને નવા કર્મોનું આગમન અટકી જાય છે એટલે કે નવા કર્મોના અસવને નિરોધ થવો એ જ આ સયમનું ફળ છે, તેથી તે સવર द्वार त५ सयभ३५ महानत छ तथा ते सवा२-" सीलगुणवरव्वयाइ" શીલગુણવરવ્રત રૂપ છે-શીલ એટલે ચિત્તની સમાધિ, વિનય આદિ ગુણે કહે पाय छ, तमना १3 २ व्रत छ ते २॥ २ सव२२ छे “सच जवनयाइ " सत्य-भूषापानी परित्याग, मा-भायाना त्यान, मे मारना २ प्रत ते ते प्रधान ते स१२६२ छ “ नरगतिरियमणुयदेवाइविवन्नगाइ" तेमनी माराधनाथी माराथ वन भोक्षगति प्राप्त थाय छ તેથી તે તે સ વાર પિતાની આરાધના કરનાર જીવોને નરક, તિર્યંચ, મનુષ્ય અને દેવ એ ચાર ગતિમાં જતા રોકે છે, તેથી તેઓ નરક, તિર્યં ચ મનું ધ્ય અને દેવગતિના વિવક Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० १ सू० १ पञ्चवरद्वारलक्षणनिरूपणम् ७५७ दारकाणि-कर्म-ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारक, तदेव जीवस्य गुण्ठनेन मालिन्यापाद-- कवेन रजालि , तद् विटारयन्ति-निवारयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तया-मामयनिगासगाइ' भवशवपिनाशकानि = भनशतानि = जन्मशतानि विनाशयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, भरपरम्पराविच्छेदकानीत्यर्थः, अत एव 'दुइसयविमोयगाट' दुःखशतविमोचकानि-दुःखशतानि विमोचयन्ति यानि तानि तथोक्तानि, तथा - 'मुहसयपवत्तगाइ' सुखशतवर्तकानि-मुखशतानि प्रवर्तयन्ति यानि ताति तथोक्तानि, तथा-'कापुरिसदुरुत्तराई ' कापुरुप चुके हैं उन मरने दीया है। (कम्मरयविदारगाड) ये सवरद्वार कर्मरज के विदारक है-ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार की कर्मरूप धूलि को ये उडाने नष्ट करने वाले हैं । ज्ञानावरण आदि कर्मो को धूलि की उपमा इसलिये दी है कि धूलि जिस प्रकार मलिनता आदि करती है उसी प्रकार ये कर्म भी जीव में व्यवहार नय की अपेक्षा से मलिनता करते है, अर्थात् ज्ञानादिक गुणों का आवरण आदि कर देने से जीव मे अज्ञान आदि विभाव भावों के वर्धक होते हैं । ( भवसयविणासगाइ ) ये सवरद्वार भवशतविनाशक हे-अर्थात्-इनकी आराधना करने मे आरा धक, जीवों के जो इनकी आराधना के विना सैकडों भव-जन्म-होने वाले थे वे सब नष्ट हो जाते हैं । (दुक्खसयविमोयगाइ ) भवपरपरा इनके प्रभाव से विच्छिन्न हो जाती है, इसीलिये इन्हें दुखशत विमोचक कहा है । (मुह सयपवत्तगोड ) जय सैकडों दुख इनकी " सव्व जिणसासणग्गइ " मार सुधीमा रेसानेश्वरे 45 गया a पधारे ते ११२वाशना अपरा माया छ " कम्मरयविदारगाइ" ते સવ દ્વારા નર્મન્સને નાશ કરનાર છે-જ્ઞાનાવરણ આદિ આઠ પ્રકારના કર્મપી રજને નાશ કરે છે જ્ઞાનવરણ આદિ કર્મોને ધૂળ-રજની ઉપમા દેવાનું કારણ એ છે કે ધૂળ જેમ મલિનતા આદિ કરે છે તેમ એ કર્મો પણ જીવમાં વ્યવહાર નયની અપેક્ષાએ મલિનતા કરે છે, એટલે કે જ્ઞાનાદિઠ આદિ ગુણાનું આવરણ કરી નાખવાથી જીવમાં અરાન આદિ ઉલટા ભાવોના વર્ધક થાય છે " भरसयविणासगाइ" ते १५२६२ and विनाश छ-मेटो भनी આરાધના કરવાથી આરાધક જીવોને તેમની આગધના કર્યા વિના જે એકડો सप थवाना ता ते मधा नष्ट जय "दुम्ससयविमोयगाइ" भना પ્રભાવથી ભવની પર પરે છે જાય છે, તે કારણે તેમને દુ ખ ગત વિમ25 व्या छ “सुहसयपरत्तगाइ " ने तमना मानधनाथी से Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ प्रश्नव्याकरणम् दुरुत्तराणि कापुरुपैः= कातरैः दुःखेन उत्तीर्यन्ते यानि तानि तथोक्तानिकापुरुपैः प्रतिप तुमशस्यानोत्ययः, तथा- 'सप्पुरिमनिसेचियाइ ' सत्पुरुषनिपेवितानि-आश्रितानि, तया-'निधाणगमणमग्गसग्यपणायगाइ' निर्माणगमन मार्गस्वर्गप्रणायकानि-निर्माणमोक्षस्तस्य गमने मार्ग इस मार्गा यानि तानि निर्वाणगमनमार्गाणि, तथा-स्वर्गे प्रकर्षण नयन्ति जीवान् यानि तानि स्वर्गप्र णायकानि, उभयोः कर्मधारयस्तानि तथोक्तानि, पञ्चसपरद्वाराणि 'भगक्या' भगवता महागीरेण 'उ'तु-निश्चयेन 'कहियाणि' कयितानि-मोक्तानि, अत इमान्यवश्य श्रद्धेयानीति भावः ।। मू०१॥ इति प्रथमसारदार प्रस्तावना । आराधना से विनष्ट हो जाते है तो यह बात भी निश्चित हो जाती है कि ये सैकड़ों सुग्वों के प्रवर्तक होते हैं। जर इनका इतना विशिष्ट प्रभाव है तो फिर क्या है हरएक प्राणी इनकी आराधना करने लगेगा इसके लिये सूत्रकार कहते है कि ये सबरद्वार (कापुरिसदुरुत्तराइ ) का पुरुप दुरुत्तर है-जो कायरपुरुप है-उनके द्वारा तो धारण करने के लिये अशक्य है। परन्तु ( सप्पुरिसनिसेवियाइ ) सत्पुरुपों से ये सेवित-आचरित होते है, अर्थात् जो सत्पुरुप हैं-अन्त रात्मा जीव है-वे ही उन्हें धारण करते हैं। अधिक क्या कहा जाय ये सवरद्वार (निचापागमणमग्ग-मग्गप्पयाणगाइ) मोक्ष के गमन में मार्गरूप है, अगर जीव मे इतनी योग्यता नहीं हों तो स्वर्ग में प्रयाण कराने वाला जरूर होता है । इस प्रकार के (ये पच सवरदाराइ कहियाणि) पांच मवर द्वार भगवान महावीर ने कहे है। इसलिये प्रत्येक भव्य जीव को इन्हे अपनी श्रद्धा का विषय अवश्य बनोना चाहिये। ॥१०॥ દુખ નષ્ટ થઈ જાય છે તો એ વાત પણ નકકી થઈ જાય છે કે તે સેકડો સુખના પ્રવર્તક થાય છે જ્યારે તેમને આટલો બધો વધારે પ્રભાવ છે તે દરેક પ્રાણી તેની આરાધના કરવા માડશે તેથી સૂત્રકાર બતાવે છે તે તેમનું २६२ " का पुरिसदुरुत्तराइ " पुनरुत्तर छ-२ डाय२ १३॥ छ-माड सात्मा ७१ छ, तेमना दास ते धारण ३२पाने भाटे सशयछ ५४ सप्पु रिसनिसेनियाइ " ५१ सत्५३। ५ तेनु सेवन-माय२९५ उराय वधु १ ते स १२६।२ " निमाणगमणमग सगप्पयाणगाइ' भाक्षगमनना भाग રૂપ છે, જે જીવમાં એટલી ગ્યતા હોય તે તે તેને માટે અવશ્ય સ્વર્ગ प्रालि ४शवनाश निवउ छ २ मारना “पच सवरदाराइ कहियाणि" पाय સ વરદ્વાર ભગવાન મહાવીરે કહેલ છે તે દરેક ભવ્યજીવે તેમને અવશ્ય પિતાની શ્રદ્ધાનો વિષય બનાવવો જોઈએ છે સૂ Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंनी टीका म १ सू०२ प्रथमसंवरद्वारनिरूपणम् अथ प्रथमसवरनिरूपणायाह-'तत्य पंढम' इत्यादि-- मूलम्-तत्थ पढमं अहिसा जा सा सदेव मणुयासुरस्स लोगस्स भवइ दीवो ताणं सरणं गई पडद्या, निव्वाणं १, निव्वुई २, समाही३, संती, कित्ती५,कंती६, रइय७, विरइय८, सुयंग९,तित्ती१०, दया११, विमुत्ती१२, खंती१३, सम्मत्ताराहणा१४, महती१५, वोही१६, बुद्धो १७, धितीय१८, समिद्धी१९, रिद्धी२०, विद्धी२१, ठिई २२, पुट्ठी२३, नदा २४, भद्दा २५, विसुद्धी २६, लद्धी २७, विसिदिट्ठी२८, कल्लाणं २९, मगल३०, पमाओ ३१, विभूई३२, रक्खा ३३, सिद्धवासो३४, अणासवो ३५, केवलीणठाण ३६, सिव ३७, समिई३८, सील ३९, सजमो४०,त्ति य, सीलघरो ४१, सबरोय४२, गुत्ती४३, ववसाओ ४४, उस्लओ४५, जन्नो४६, आयतण४७,जतण ४८,मप्पमाओ४९, अस्साओ५०, वीसासो५१, अभओ५२ सव्वस्स५३, वि अमघाओ चोक्ख ५४, पवित्तो ५५, सुई ५६ पूया ५७, विमल५८, पभासा ५९, य, निम्मल ६० तरत्ति। एवमादीणि नियगुणनिम्मियाइ पज्जवनामाणि होति अहिसाए भगवईए ॥ सू० २ ॥ टीका-'तत्य' इत्यादि 'तत्थ' तत्र-तेषु पञ्चसु सवरद्वारेषु मध्ये 'पढम' प्रथमम् आद्यम् 'जहिसा' अहिंसालक्षण सवरद्वार भवति । अहिंसा कीदृशी ? इत्याह-'जा मा' या सा सुप्रसिद्धा-अहिंसा ' सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स' सदेवमनुजासुरस्य इस प्रकार यह प्रथम सवर द्वार की प्रस्तावना है। अब सूत्रकार આ પ્રમાણે આ પ્રથમ વરદ્વારની પ્રસ્તાવના છે હવે સૂત્રકાર પ્રથમ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० प्रभव्याकरणसूत्र लोकस्य 'दीयो' द्वीपो भवति, अय भाव--सयोगरियोगचिन्तासन्तानवितान तरङ्गायमाणमोहमहारतपर्व कपायधापदकर्थितमथ्यमानगात्राणामनाणाना प्राणानामियमहिंसाऽऽश्वासस्थानरूपो द्वीपो भाति, तया-'ताण' प्राणम् , आपदभ्यो रक्षणालाणस्वरूपाऽस्ति । तथा-' सरण' शरणम्-पिपिदविपदव्याकुलानामाश्रय प्रथम सवर द्वार के निरूपण के लिये सूत्र करते है-'तत्य पढम' इत्यादि। टीकार्थ-(तत्य) उन पाच सयरवारों में से (पढम अहिंमा) पहिला सवरडार अहिमा है। (जा सा सदेवमणुयामुरस्म लोगस्स. दीवो भवड ) यह सुप्रसिद्ध अहिंसा देवलोक, मनुष्यलोक और असुर लोक के लिये एक द्वीप जेसी है । इसका तात्पर्य यह है कि सयोग और • वियोग की सन्तानपरपरारूप तरङ्गो से यह मोहमहावर्तरूप गत कि जिसमे समस्त ससारी जीव सर्वथा मग्न हो रहे हैं, व्याप्त हो रहा है उसमे पड़े हुए इन ससारी जीवों को कपायरूप श्वापद-हिंसक जानवर रातदिन दुःखित करते रहते है और उनके शरीर को मथते ररते हैं। वहा उनकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । इस तरह अशरणभूत हुए इन प्राणीयों की रक्षा करने वाली यह एक अहिंसा ही है। अतः यह अहिंसा उनके लिये आश्वासन के स्थानरूप एक द्वीप के जेसी है । तथा (ताण) जीवों की यह आपत्ति विपत्ति से रक्षा करती है इसलिये यह बागरूप है । तथा ( सरण ) अनेक विपदाओ से घिरे हुए जीवों सवारना नि३५५ने भाटे सूत्र ४ छ-" तत्थ पढम" Uत्यादि -"तत्थ" ते पाय स १२६ारोमाथी पढम अहिंसा" पाटु सवार मडिंसा छे “जा सा सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स दीवो भवइ " ते सुप्रसिद्ध અહિંસા દેવલોક, મનુષ્યલેક, અને અસુરલેકને માટે એક દ્વીપ જેવી છે તેને ભાવાર્થ એ છે કે સગ અને વિયાગરૂપ સતાન પર પરા રૂપ મોજા ઓ વડે આ મેહ મહાવર્તરૂપ ખાઈ કે જેમાં સર્વે સ સારી જ સ પૂર્ણ રીતે મગ્ન થઈ ગયેલા છે, ડૂબી ગયા છે, તે સ સારી જીને કષાયરૂપ શ્વપદ હિંસક પશ નિશદિન દુખી કરે છે અને તેમના શરીરને વલોવ્યા કરે છે ત્યાં તેમનું રક્ષણ કરનાર કેઈ નથી આ રીતે નિરાધાર એવા તે પ્રાણીઓની રક્ષા કર નાર આ એક અહિંસા જ છે તેથી આ અહિંસા તેમને માટે આશ્રય સ્થાનરૂપ A ५ समान छ तथा “ ताण" ते ७वानुमापत्ति-विपत्ति साभे रक्षण पुरे तथी ते ३५ छ तथा “सरण " मने पिहाथी घरायसा वाने Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका अ० १ २०२ प्रथमसंवाद्वारनिरूपणम् ५६१ स्थानम् , 'गई 'गति गम्यते-मोक्षार्थिभिराधीयते इति गतिः= प्राप्यम्थान तथा-' पट्टा' प्रतिष्ठा प्रतिष्ठन्ते-आसते यस्या सर्वे गुणा सा प्रतिष्ठा-सर्वगुणा नामाधारस्सम्पा। साम्प्रतमहिंसायाःगुणनिप्पन्नानि पष्टिनामान्याह 'निव्याण' इत्यादि-'निव्याण' निर्वाण-मोक्षः, तद्वेतुत्वात् १, 'नियुई 'निवृति'-स्वास्थ्यम्-कर्मव्याधिनजितत्वात् २, 'समाही' समापि =समता, समभानहेतुत्वात् ३, 'सती' शान्तिा ड्रोहवर्जितत्वात् ४, 'फित्ती' कीतिः यशः तद्धेतुत्वात् ५, को यह एक उत्तम आश्रय स्थान रूप है । तया (गई ) जो मोक्ष के अभिलाशी जीव है वे इसका आश्रय करते है इसलिये उनकी अपेक्षा यह गतिरूप है । तथा ( पडट्ठा ) समार में जितने भी सदगुण है उन सप की प्रतिष्ठा-आधारभूत यही एक अहिंसा है, इसके अभाव में अन्य विद्यमान सद्गुणो की प्रतिष्ठा-कीमत-नहीं होती है। अब सूत्रकार इस अहिंसा भगवती के गुण-निम्पन्न साठ नामो को करते है। उनमें पहिला नाम(निव्वाण) निर्वाण-मोक्ष है । क्यों कि यह उमकी हेतुभून होती है १ । दूसरा नाम इसका (निब्चुई ) निवृत्ति है, निवृत्ति शब्द का अर्थ स्वास्थ्य है- कर्मों के आत्यतिक अभाव होने से ही जीवों को प्राप्त होता है २।अहिसा का तीसरा नाम (समाही) समाधि है, समाधि का अर्थ समता है, यह अहिंसा मम माव की कारण होती है इसलिये कारण में कार्य के उपचार से इसे स्वय समाधिरूप कह दिया है ३ । अहिंसा का चौथा नाम (सति) शान्ति है, क्यो कि जहा द्रोह भारत से माश्रयस्थान३५ छ तथा " गई" मारना मलिदापी रे જીવે છે તેઓ તેને આશ્રય લે છે, તેથી તેમની અપેક્ષાએ તે ગતિરૂપ છે, तथा " पइटा" समारमा रेसा सशु छे ते मधाना आधार ३५ मा मे અહિંસા જ છે, તેના અભાવે બીજા વિદ્યમાન સદ્ગુણોની કોઈ પ્રતિષ્ઠા-કિંમત થતી નથી હવે સૂત્રકાર આ અહિંસા ભગવતીના ગુણ પ્રતિપાદિત સાઠ નામ सतावे छे तमा पच्यु नाम "निव्याण" निyि-मोक्ष २५ ते तना २४३५ डाय छे (१) तेनु पाणु नाम “ निभुई" नित्ति छ, निति શબ્દનો અર્થ સ્વાધ્ય થાય છે-કર્મોને અત્યત અભાવ હોવાથી તે જીવને थाय (२) मडिसानु त्रीतु नाम " समाही " समाधि छ, समाधिनी मथ સમતા છે, આ અંહિસા સમભાવનુ કાણુ હોય છે તેથી કારણમાં કાર્યના ઉપચારથી ते स्वयं ममाधि३५ अपामा मावेस छे (3) अहिंसानु याथु नाम "सती" શાનિત છે, કારણ કે જ્યા દ્રોહને અભાવ હોય છે ત્યાજ શાત હેય છે અહિં Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ प्रमध्याकरणसू 'कती' कान्तिा प्रसन्नता तदेतत्वात् ६, 'रई य' रतिः आनन्दस्तज्जनयत्वात् ७, 'विरई य' चिरतिः-चिरागः सारयकमार्जितसात् , सुयग' श्रुताहातश्रुतज्ञानाग कारण यस्याः सा तथोक्ता, उक्तमपि-" पढम नाण तओ दया" इति ९, 'तिनी' तिः सतोपः सर्वप्राणिसतोषजनाचात् १०, दया-माणिरक्षाउपमर्दनपर्जितस्वात् ११, 'निमुत्ती' विमुक्ति -चिरुन्यन्ते प्राणिनः सकलययका अभाव होता है वहीं शाति होती है, अहिंसा में द्रोह का लेश भी नहीं होता है, इसलिये इसे शाति शब्द से व्यवहृत किया गया है ४ । (कित्ती) यशकी हेतुभूत होने से इसका पांचवां नाम कीर्ति है। अहिंसक जीव की कीर्ति का सर्वत्र विस्तार रोता है यह यात सुप्रसिद्ध ही है ५। (कती) प्रसन्नता की हेतुभूत होने से इसका नाम कान्ति भी है ६ । (रई च) आनन्द की उत्पादक होने से इसका नाम रति है ७ । (चिरई य) सावद्यकर्मो से वर्जित होने के कारण इसका नाम विरति भी है ८ । (सुयग) इस अहिंसा का कारण तज्ञान होता है इसलिये इसका नाम श्रुतान है । क्योकि ऐसा कहा है कि पहिले ज्ञान होता है बाद में दया ९। (तित्ती) समस्त प्राणियों के लिये यह सतोष जनक होती है इसलिये इसका नाम तृप्ति है १० । इस अहिंसा में प्राणियों की रक्षा होती है इसलिये प्राणियो के प्राणों के उपमर्दन कृत्य से रहित होने के कारण यह (दया) दयारूप है ११। इसके प्रभाव से प्राणी समस्त प्रकार के वध एव वधनो से छट जाता है સામા દ્રોહનું નામ માત્ર પણ હોતુ નથી તેથી તેને શાનિત શબ્દથી વર્ણવેલ છે (४) "कित्ती' यशना ॥२५५ ३५ डावाथी तेनुपाय नाम प्रति छ अहिंस नीत सर्वत्र साय छे ते पात सुप्रसिद्ध छ (५) “कती " प्रसन्नताना ४१२५३५ पाथी तेनु नाम न्ति ५ छ (6) "रईय" मान पान ४२१२ बाथी तेनुनाभ २ति छे (७) "विरईय" साप थी २हित वाथी तेनु नाम विरति पशु छ (८) "सुयग" हिंसाने २ तज्ञान थाय छ, तेथीतेनु નામ શતાગ છે, કારણ કે પહેલા જ્ઞાન થાય છે, અને ત્યાર પછી દયા એવું माया छ (6) "तित्ती" समस्त प्राणीमाने माटते सतोष नहाय છે તેથી તેનું નામ તૃપ્તિ છે (૧૦) આ અહિંસાથી પ્રાણીઓની રક્ષા થાય છે, तथी साना प्राणुस हारना इत्यथी ते २डित वाथी ते "दया" या३५ છે (૧૧) તેને પ્રભાવથી પ્રાણુઓ સમસ્ત પ્રકારના વધ અને બઘનેમાથી સત થાય છે, તેથી સકળ વધબ ધનેથી પ્રાણીઓને મુક્ત કરાવનાર હોવાથી Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ० १ सू० २ प्रथमसंवरतारनिरूपणम् वन्धनेभ्यो यया सा तथोक्ता, सफलपधबन्धनविमोचकत्यात् १२, ‘खत्ती' क्षान्तिा क्रोधादिनिग्रहकारकत्नात् १३, 'सम्मत्ताराहणा' सम्यक्त्वारापना सम्मस्व-सभ्यमोधरूपमारा यते यया सा तथोक्ता, जिनशासनाराधनकारणत्वाद १४, 'महई ' महती सर्वधर्मानुष्ठानश्रेष्ठत्वात् १५, 'मोही' बोधिः-सर्वशीक्तधर्ममाप्तिरूपत्वात् १६, 'बुद्धी' बुद्धिः, परदुःखारपोषकत्वात् १७, 'घिई' धृतिः, म्रियमाणजीवस्याभयप्रदायकत्वात् , यद्वा-धृतिश्चित्तदाढर्यम् , असिया चित्ते दाढयस्य समुत्पयमानत्वात् १८, 'समिद्धी' समृद्धि, आनन्दजनकत्वात् इसलिये प्राणीयो की सकल वध बन्धनों से विमोच का होने के कारण इसका नाम (विमुत्ती) विमुक्ती है १२ । यह समस्त क्रोधादि कपायों की निग्रह कारिफा है इसलिये इसका नाम ( खती) क्षान्ति है १३ । सम्यक् बोधरूप मम्यक्त्व इसके होने पर ही आराधित होता है, अर्थात् यह जिनशासन की कारण होती है इसलिये इसका नाम (सम्मत्ताराहणा) सम्यक्त्वाराधना है १४ । धर्मके समस्त अनुष्ठानों में यह श्रेष्ठ है इसलिये इसका नाम (महती ) महती है १५ । सर्वजप्रतिरादित धर्मकी प्राप्तिरूप होने से इसका नाम (योही) बोधि है १३ । परदु.खो की अयोधिका होने से, अर्थात् परकीय दुःखो को पतलाने वाली होने से इसका नाम (वुद्धी) बुद्धि है १७ । मरते हुए जीवों को इसके प्रभाव से अभय की प्राप्ति होती है इसलिये इसका नाम (विई) धृति है। अथवा-धृति शब्द का अर्थ चित्त की दृढता है, सो अहिंसा से चित्त मे दृढ़ता उत्पन्न होती है यह बात निविवाद है १८ । आनन्द तेनु नाम "विमुत्ती" विभुति छ, (१२) ते समस्त अपाहि पायोना निय नारी छ, तथा तेनु नाम 'सती" क्षन्ति छ (13) सभ्यनाथ રૂપ સમ્યકત્વ તે વિદ્યમાન હોય તે જ આરાધાય છે, એટલે કે તે જિનશા सननी माराधनाना १२४३५ सय छ नयी तेनु नाम “सम्मत्ताराहणा" સમ્યકત્વારાધના છે (૧૪) ધર્મના સમસ્ત અનુષ્ઠાનેમા તે શ્રેષ્ઠ છે તેથી તેનું नाम “ महती " महती छ (१५) सर्व प्रतिपाति भनी प्रासि३५ पाथी तनु नाम “बोही" माधि (१६) ५२९ जानी अपमाधि पाथी मेरो है पानाम पतावनारी पाथी तेनु न म “बुद्धी" मुद्धि छ (१७) भरता लवाने तेना प्रमाथा मजयनी प्राप्ति थाय छ, तथा तेनु नाम"धिई" પતિ છે અથવા ધતિ શબ્દનો અર્થ ચિત્તની દઢતા છે તે અહિંસાથી ચિત્તમાં દઢતા ઉત્પન્ન થાય છે તે વાત નિર્વિવાદ છે (૧૮) આનદની જનક હેવાથી Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ प्रश्नध्याकरण १९, 'ग्दिी' प्रद्धि , मीहेतुत्वात् २०, 'विद्वी ' पृद्धि , वीर्थदरादिपुण्यम कृतिपुञ्जसपादकत्वात् २१, 'रि' स्थिति -साद्यपर्य सितमोक्षास्थितिसम्पादकत्ताद २२, 'पुढी' पुष्टिः-पुण्यपुष्टिकारकत्वात् २३, 'नदा' नन्दा-नन्दयति आनन्दयतीति नन्दा, स्वर्गापवर्गमुखप्रापकत्वात् २४, 'भदा' भद्रा-भन्दते-कल्याण फरोतीति भहा २५, 'निमुद्री विशुद्धिः-पापमलपिशोधात्तात् २६, 'लदी' लब्धि - केरल ज्ञानकेरलदर्शनादि लब्धहेतुत्वात् २७, 'विमिट्टदिट्टी' विशिष्ट दृष्टिप्रधानदर्शनमतमित्ययः, उक्त चकी जनक होने से इसका नाम (समिद्धी) समृद्धि है १९ । लक्ष्मी की हेतुभूत होने से इसका नाम (रिडी) ऋद्धि है २० । इसके प्रभाव से तीर्थकर आदि पुण्य प्रकृतियों का जीवों को पध होता है इसलिये इसका नाम (चिद्धि) वृद्धि है २१ । इसके आचरण करने से मोक्ष में प्राप्त हुए जीवों की स्थिति आदि अनन्त होती है इसलिये इसका नाम (ठिई) स्थिति है २२ । पुण्य की पुष्टि का कारण होने से इसका नाम (पुट्ठी) पुष्टि है २३ । स्वर्ग और मोक्षके स्तुप जीवों को इसकी कृपा से प्रास होते है अत वे उन सुखो की प्राप्ति से वहा आनन्द करते हैं इसलिये इसका नाम ( नदा) नन्दा है २४ । यह जीवों का कल्याण फराती है इसलिये इसका नाम (भदा) है २५ । पापमल का इससे विशोधन होता है इसलिये इसका नाम (विमुद्धी) विशुद्धी है २६ । केवलज्ञान, केवलदर्शन, आदि लब्धिया इसके ही प्रभाष से होती है, इसलिये इसका नाम (लद्धी) लब्धि है २७ । (विसिदिट्टी) अहिंसा तेनु नाम “ समिद्धी" समृद्धि छ (१) सभीना २५३५ पाथी तेनु नाम “रिद्धी" ऋद्धिछे (२०) तेना प्रमाथी तीर्थ २ माहि पुष्यप्रति योनी पीने ५५ थाय छ तेथी तेनु नाम “विद्धी । (२१) तेन माय२ હુથી મોક્ષ પ્રાપ્ત કરેલ જીવોની સ્થિતિ આદિ અનત થાય છે, તેથી તેનું नाम “ठिई" स्थिति छ (२२) १९यनी पुष्टिनु ते २५ पाथी तेनु नाम "पुट्ठी" पुष्टि छ (२3) तेनी पाथी यौन स्वागने भाक्षना सुभा પ્રાપ્ત થાય છે, તેથી તે સુખની પ્રાપ્તિથી તેઓ ત્યા આનદ કરે છે તે કારણે तेनु नाम “नदा" छे (२४) ते वान उदया शव छ तेथी तेनु नाम “भदा" लदा छे (२५) भजनी तनाथी शिद्धि थाय , तथा तेनु नाम “विसुद्धी" विशुद्धि छे (२६) उशान, वन माह मे। तेना प्रमाथी । वो पास थाय छ, तथा तेनु नाम " लद्धी" al 'छे (२७) "विसिट्ठ विट्ठी" मडिसार प्रधान शन छे तेथी तेनु नाम Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०१ सू० २ प्रथमसवरद्वारनिरूपणम् " किं तया पठितया, पदकोटया पलालभूतया । यत्र यत् न ज्ञात, परस्य पीडा न कर्त्तव्या " ॥१॥ इति ।। पदकोटिमित्तानेकशास्त्राभ्यय किम् ? यत्र दया न वर्तते । दयावर्जितानि सकलान्यपि शास्त्राणि पलालभूतानीत्यर्थः २८, 'कल्लाण' कल्याणम् , ग्ल्य मोक्षस्तत्मापकत्वात् २९, मगलम् दुरितोपशमनकारकत्वात् ३०, ‘पमोओ' प्रमोदः हर्पजनकत्वात् ३१, — विभूई विभूतिः-सकलसपत्तिहेतुत्वात् ३२, ' रक्खा' रक्षा जीवरक्षणस्वभावात् ३३, 'सिद्धावासो' सिद्धावासा साद्यपर्य ही प्रधान दर्शन है इसलिये इसका नाम विशिष्ट दृष्टि है २८ । कहा भी है "किं तया पठितया, पदकोटथा पलाल भूतया । यत्र यत् न जात, परस्य पीडा न कर्त्तत्या ॥१॥ ___" पद कोटि परिमित अनेक शास्त्रो के अध्ययन से क्या लाभ हो सकता है जय कि जीव को इतना ही ज्ञान न हो पावे कि पर प्राणी को पीड़ा नही करना चाहिये ।। १ ।। दयोपदेश विहीन शास्त्र पलाल जैसे निःसार है २८ । मोक्ष-प्रदान कराने वाली होने से इसका नाम (कल्लाण) कल्याण है २९ । पापों का-इससे उपशमन होता है इसलिये यह ( मगल ) मगलरूप है ३० । हर्प की जनक होनेसे यह (पमाओ) प्रमादरूप है ३१ । सकल सपत्तियों की हेतुभूत होने से इसका नाम (विभुई) विभुति है ३२ । (सक्खा) जीवों વિશિષ્ટ દષ્ટિ છે કહ્યું પણ છે " किं तया पठितया, पदकोटथा पलालभूतया । यत्र यत् न ज्ञात, परस्य पीडा न कर्तव्या ॥१॥ કોટિ પદે વાળા અનેક રાઓને અભ્યાસ કવ્વા છતા પણ જે જીવને એટલુ પણ જ્ઞાન ન પ્રાપ્ત થાય કે બીજા પ્રાણીઓને પકડવા જોઈએ નહી, તે તેના અધ્યયનથી છે લાભ ? ૧ દયાના ઉપદેશ વિનાના શાઓ ૫લાલ જેવા નિ સાર છે (૨૮) મોક્ષ त उपना२ सापाथी तेनु नाम " कल्लाण" या छे (२८) तेना पडे पापानी क्षय थाय छे तेथी ते " मगल" भण३५ छे (३०) पनी न डोबाथी ते “पमोओ" प्रमा३५ छे (३१) स स पत्तियाना २९१३५ डापाथी तेनु नाम “ विभूई" विभूति छ (३२) " रक्खा " वानी रक्षा કરવાને તેને સ્વભાવ હોવાથી તેનું નામ રક્ષા છે (૩૩) તેની આરાધના Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६९ সমাজগেলে वसितमोक्षगतिनिवास हेतुत्वात् ३४, 'अणासमो' अनाथ-कर्मागमननिराधकत्वात् ३५, 'केलीण ठाण' केवलिना स्थानम्-तेपामाश्रयभूतत्वात् , अहिमास्य वकेवलज्ञान समुत्पद्यते इत्यर्थः ३६, 'सिच' शिवम्-उपद्रवानितत्वात् ३७, 'समिई । समितिः-सम्पपत्तिः , तदूपत्वात् ३८, सील' गील-समाधिः, तदेतत्वात् ३९, 'सजमोति य 'मयमइति च-सयम -हिंसा निवृत्तिम्तद्वेतुत्वात् ४०, ‘सीलघरो' गोलगृहम्-शील सदापारी, यहा नहाचर्य, तम्य गृहकी रक्षा करने का ही इसका स्वभाव है। इसलिये इसका नाम रक्षा है ३३ । इसकी आराधना करते२ ही जीव सिद्वों के आवास में सिद्धिगनि नामक स्थान विशेप में निवास करने लग जाता है इसलिये इसका नाम (मिद्वावासो) सिद्धावास है ३४। (अणासवो) कों के आगमन द्वार की यह निरोधिका है इसलिये इसका नाम अनास्रव है ३५ । ( केवलीण ठाण ) केवलज्ञानी-इसका आश्रय करते है इसलिये इसका नाम केचलि स्थान है। अर्थात् जो अहिंसक होता है उसे ही केवल ज्ञान उत्पन्न होता है ३६ । अहिंसक जीव को कर्जा से भी किसी भी प्रकार के उपद्रव प्राप्त नहीं हो सकते है इसलिये उपद्रवर्जित होने से इमका नाम (सीच) शिव है ३७ । सम्यक् प्रवृत्ति का नाम समिति है. यह अहिंसा समिनिरूप होती हैं इसलिये इसका नाम ( समिई ) समिति है ३८ । शील-समाधि-का यह कारण होती है इसलिये इसका नाम (सील ) शील है ३९ । (सजमो त्ति य) सयम-हिंसा की निवृत्ति होनारूप सयम की यह साधक है इसलिये इसका नाम सयम है। ४० शील-सदाचार अथवा ब्रह्मचर्यकी यह स्थान है इसलिये इसका नाम કરતા કરતા જ જીવ સિદ્ધોના આવાસમા સિદ્ધિગતિ નામના સ્થાનમાં નિવાસ ४२वा साो छ तेथी तेनु नाम " सिद्धावासो" सिद्धावास छ (३४) "अणा सवो" उर्भाना सायमन द्वारनी तनिधि छ, तथा तेन नाम मनासव छ (34) " केनलीण ठाण" विज्ञानी तेन माश्रय छे तथा तेनु नाम उपजी સ્થાન છે એટલે કે જે અહિંસક હોય છે તેને જ કેવળજ્ઞાન પ્રાપ્ત થાય છે (૩૬) અહિંસક જીવને કેાઈ પણ સ્થળેથી કઈ પણ પ્રકારના ઉપદ્રવ થઈ शता नथी तेथी पद्रव २डित डोवाथी तेनु नाम “मिव "शिव (३७) સમ્યક્ પ્રવૃત્તિને સમિતિ કહે છે આ અહિંસા સમિતિડપ હોય છે તેથી તેને " समिई " समिति छ (३८) शील-समाधिना ते १२५३५ डाय छ तथा तेनु नाम "सील" शाद छे (36) ' सजमोत्तिय" सयभ-साथी નિવૃત્ત થવા રૂપ સંયમની તે સાધક છે, તેથી તેનું નામ સયમ છે (૪૦) शीट सहायार भयका प्राय ते स्थान छ था .. - "मीलारो" Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका भ १ सू० ३प्रथमसंवरद्वारनिरूपणम् स्थानम् ४१, 'सबरो य' संपरश्वकर्मागमकारणसपरणात् ४२, 'गुत्ती' गुप्तिः -जीरस्याशुभमत्तिनिरोधकत्वात् ४४, ' ववसाओ' व्यवसाय:-रि-विशिष्टोऽवसाय अभ्यवसायः आत्मपरिणामः ४४,'उस्सओय' उच्यछ्यश्च-द्रव्यभावो. प्रतिहेतुत्वात् ४५, 'जण्णो' यज्ञः-स्वर्गादिसतिदायकखात् ४६, 'आयतण ' आयतनम्-गुणानामाश्रयः ४७, 'जयण' यत्ना-निरवयानुष्ठानत्वात् ४८, 'अप्पमाओ' अपमादः-प्रमादवर्जनम् ४९, ' अस्साओ' आश्वासः-परतृप्तिहेतु(सीलघरो) शीलगृह है ४१ । कमोंके आगमन भूत कारणो का वह निरोध कर देती है इसलिये इसका काम (सबरो) सवर है ४२ । इसके आचरण करने से जीवो की अशुभ प्रवृत्ति क जाती है इसलिये इसका नाम (गुत्ति) गुप्ति है ४३ । यह आत्मा का विशिष्ट प्रकार का एक परिणाम है इसलिये इसका नाम ( ववसाओ) व्यवसाय वि-अवसाय अध्यवसाय है ४४ । यह द्रव्य और भाव इन दोनो की उन्नति कराने वाली होती है इसलिये इसका नाम (उस्मओ य) उच्छय है ४५ । स्वर्ग आदि सद्गति की प्राप्ति जीवों को इसके सेवन करने से होती है इसलिये इसका नाम (अण्णो) यज्ञ है ४६ । सभी सद्गुणों का यही एक आश्रयस्थानभूत है इमलिये इसका नाम (आयतण) आयनन है ४७ । वह निरवद्य अनुष्ठानरूप है इसलिये इसका नाम (अयण) यत्न है ४८ । इस प्रमाद असावधानताका परित्याग हो जाताहै इसलिये इसका नाम(अप्पमाओ)अ શીલ ગૃહ ઇ (૪૧) કર્મના આગમન રૂપ કારને તે નિરોધ કરી નાખે છે तेथी तेनु नाम “ सवरो" स१२ छ (४२) तेने मायपाथी वानी अशुभ प्रवृत्ति अटी लय छे तथा तेनु नाम " गुत्ति" अति छ (४3) ते मात्भानु विशिष्ट प्रकार में नियाभ छ, तेथी तेनु नाम " ववसाओ" व्यवसायविमवसाय-अध्यवसाय छे (४४) ते द्रव्य भने साव, मन्ननी उन्नति ४२नारी छे तेथी तेनु नाम “टप्सओय " उन्छय छ (४५) तेना सेवनयी पोने -qr सातिनी प्राप्ति थाय छे, तेथी तेनु नाम “जण्णो" યજ્ઞ છે (૪૬) સવળા સદ્ગુણેનું તેજ એક આશ્રયસ્થાન છે, તેથી તેનું નામ " आयतण' आयतन छ (४७) ते निरव मनुन३५ छे तथा तेनु नाम "जयण" यत्न छ (४८) तेमा प्रभाह-मसावधानतानी परित्याग 25 नय छे, तेथी तेनु नाम “ अप्पमाओ" मप्रभा छ (४६) ५२ प्राणायाने ते तृप्सिना २५३५ बाय छे, तेथी तेनु नाम “ अस्साओ" मावास छ (५०) Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - m ame ५६८ त्वात् ५०, 'वीसागो' विश्वास माणिना प्रतीतिजनकस्यात्, यद्वा-प्राणिप्राण स्याविरुद्धसमाचरणलक्षणः ५१, अभओ' अभयः निर्भयहेतुत्वात् ५०, 'मन्चम्मवि. अमाधाओ' सर्वस्यापि सकलमाणिगणस्य अमाघाता-मान.मी., सा च देधा धनलक्ष्मीः प्राणलक्ष्मीश्व, तस्या घातो हनन माषातो, न मानत अमाघात:-- अमारिः स्वपदद्वारा प्राणिना प्राणत्राणकरणात् ५४, 'चोरग्व' चीक्षा पवित्रादपि पवित्रा-कर्ममलापहारकत्वात् ५४, परित्ता' पवित्रा आत्मनैमहेलतुत्वात् ५५, प्रमाद है ४९परप्राणियों को यर तृप्ति का कारण होतीहै इमलिये इसकानाम ( अस्साओ) आश्वास है ५० । प्राणियों में यह प्रतीति उत्पन्न करा देती है इसलिये इसका नाम (वीमाओ) विश्वास है। अथवा प्राणियो के प्राणों के विरुद्ध आचरण इसमे नहीं होता है इसलिये भी इसका नाम विश्वास है ५१ । प्राणियो को यह भयरहित बना देती है। इसलिये निर्भय की हेतु होने से इसका नाम अभय है ५२। दूसरे जीवो की मा-धन-लक्ष्मी और प्राणरूपलक्ष्मी का इसमें घात नहीं होता है इस लिये इसका नाम ( अमाघाय) अमाघात है । मा शब्द का अर्थ लक्ष्मी होता है-धन रूप लक्ष्मी और प्रागरूप लक्ष्मी के भेद से यह लक्ष्मी दो प्रकार की होती है । अहिंमा से इन दोनों का सरक्षण होता है यह बात प्रत्यक्ष है इसलिये इसका नाम अमाघात है ५३। यह अहिंसा पवित्र वस्तुओं से भी है अतिपवित्र है इसलिये इसका नाम (चोक्खा) चोक्षा है ५४ । इससे आत्मा के ऊपर जमा आअनादिकाल का मेल-विभाव परिणति दूर हो जाती है। अत:आत्मा निर्मल-अपने स्वरूप में मग्न-हो मामा त प्रतीति पनि छ तथा तेनु नाम "वीसाओ" विश्वास છે અથવા પ્રાણુઓના પ્રાણના વિરૂદ્ધનું આચરણ તેમા થતું નથી, તેથી પણ તેનું નામ વિશ્વાસ છે (૫૧) પ્રાણુઓને તે ભય રહિત કરે તેથી નિભ यताने भाटे २४भूत वाथी तेनु नाम "अभय" छ (१२) wlan यानी મા-ધન-લક્ષ્મી અને પ્રાણરૂપ લક્ષ્મીને તેમાં ઘાત થતું નથી, તેથી તેનું નામ " अमाघाय" अमाघात छे 'मा' शनी मर्थ सभी थाय छ-धन३५ લક્ષ્મી અને પ્રાણરૂપ લીમી, એ રીતે તેના બે પ્રકાર પડે છે અહિંસાને એ અને સરક્ષણ થાય છે તે વાત પ્રત્યક્ષ છે (૫૩) તે અહિંસા પવિત્ર વસ્તુઓ ४२ता ५५ वधारे पवित्र छे, तेथी तेनु नाम "चोक्खा" चोक्षा छे (५४) તેનાથી આત્મા ઉપર જામેલો અનાદિકાળને મેલ-વિભાવ પરિણતિ-દૂર થઈ જાય છે, તેથી આત્મા પિતાના નિર્મળ સ્વરૂપમાં મગ્ન થઈ જાય છે તે કારણે Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०१ सू० २ प्रथमसंवरद्वार निरूपणम् ५६९ " " , ( सुई' शुचि = भाजतोच हेतुत्वात् ५६, 'छा' पूजा=भावाचना- प्राण्युपमर्दनरहितत्वात् ५७ 'विमल' मिला- मिथ्यात्यारित्यादिगलनर्जितसाद, ५८, पभासा य ' प्रभासा च - प्रकाशरूपा के पलवानज्योतीरूपत्वात्, सर्वप्राणिना सुखप्रकाशकत्वाच ५९५ ' निम्मलत्तरा निर्मतरा - सकलकर्मगर्जितत्वाव ६०, 'त्ति एवमादीणि' इत्येवमादीनि 'नियगुणनिम्मियाई' निजगुणनिर्मितानि= गणलक्षितानि पञ्जवनामागि' पर्यायनामानि तत्तत्तद्धर्माविताभिधानानि, हुति' भवन्ति ' अहिंसाए भगवर्टए ' अहिंसाय । भगवत्या ॥ ०२ ॥ , 4 " , जाती है - इसलिये इस आत्माकी निर्मलता का कारण होने से हम अरिमा का नाम ( पवित्ता) पवित्र है ५५॥ भाव शुचिता का कारण होन से इसका नाम (ई) शुचि है ५६ । इस अहिंसा में प्राणियो के प्राणों का उपमर्दन नही होता है अत यह भावपूजारूप होने से इसका नाम ( पूया ) पूजाभावपूजा ह ॥ ५७ इसकी जो आराधना करते हैं वे मियाल अविरति आदि मलों से वर्जिन हो जाते है इसलिये इसका नाम ( विमल ) विमला है ५८ | यह अहिंसा केवलज्ञानरूप ज्योति स्वरूप होने से ( पभासा य ) एक प्रकाशरूपा है। इसलिये इसका नाम प्रभास है ५९ । इसकी प्रादुर्भूत होते ही आत्मा से नकल कर्मों का अभाव हो हैम ( निम्मलतरा ) निर्मलतरा है ६० । ( एवमाण नियगुणनिमियाइ पज्जवनामाणि होति अहिंसाए भगवईए ) इस प्रकार इस अहिंसा भगवती के ये साठ नाम गुणानुसार है। ये नाम इम अहिंसा भगवती के पर्यायवाची - तत्तद्वर्म की अपेक्षा को लेकर शब्द है | मृ० २ ॥ "" ८८ आत्मानी निर्भणता भाटे अशुभत होवाची ते अडिसानु नाम " पवित्ता " પવિત્રતા છે (૫૫) ભાવ શુચિતાના કારણરૂપ હોવાથી તેનુ "सुई " शुचि છે (૫૬) આ અહિંસામા પ્રાણીઓના પ્રાણાનું ઉપખ્તન થતુ નથી તેથી તે ભાવપૂજારૂપ હાવાથી તેનુ નામ पूया ” धून लावपून छे (५७) ने तेनी આરાધના કરે છે તે મિથ્યાત્વ, અવિરતિ આદિ મળેથી રહિત થઇ જાય छे, तेथी तेनु नाम " विमल " विमला छे (१८) मा अहिंसा ठेवण ज्ञान ३५ योनिश्वय होवाथी " प्रभासाय " मेड अमराइय छे, तेची तेनु नाभ प्रभास, (प) तेनो हुर्भाव थता न आत्मामाथी धीरे ધીરે સઘળા भेना लावथ लय हे, तेथी तेनु नाम " निम्मलतरा " निर्मलतरा छे (१०) 'एवमारीणि नियगुणनिम्म्याइ पज्जन अमाणि होति अहिंसाए भगवईए આ પ્રમાણે આ અહિંસા ભગવતીના ગુણ પ્રમાણે સાઠે નામ છે તે નામેા આ અહિમા ભગવતીના પર્યાયવાચી-તે તે ધમની અપેક્ષાએ શબ્દ એ ાસ રા " प्र० ७२ Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० प्रभव्याकरणसूत्रे - - - समति अहिंसामाहात्म्यमाद मूलम्-एसा भगवई अहिसा, जा सा भीयाण पिव सरणं पक्खीण पिव गयणं, तिसियाण पित्र सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुद्दमझेव पोपवहण, चउप्पयाण च आसमपय, दुहटियाणं च ओसहिवल, अडवीमज्झे च सस्थगमण, एत्तो विसिट्टतरिया अहिसा जा सा पुढवीजल अगणि मारुयवणस्सइ - वीय - हरिय -- जलचर--- थलचर-खहयर तस-थावर-सव्वभूयखेमकरी ॥ सू० ३॥ टीका-'एसा भगवई ' इत्यादिएपा-जिनशासनप्रसिद्धा-अहिंसा भगाती या सा 'भीयाण पिन सरण' भीतानामिव शरणम्=भय भीताना माणिना नाणाथ गृहमिवास्ति, 'पक्खीणपिच गयण' पक्षिणामित्र गगनम्=पक्षिणा गगनमित्र, यथा पक्षिणा गमने गगनमाधारो भवति, तथैव सर्वधर्माणामियमहिंसाऽऽधार । 'तिसियाण पिव सलिलम्___ अब सत्रकार इस अहिंसा के माहात्म्य को प्रदर्शित करते है'एसा भगवई ' इत्यादि। टीकार्य-( एसा) जिनशासन मे प्रसिद्ध यह ( अहिंसा भगवई) अहिंसा भगवती (जा सा) जो वह अहिमा ( भीयाण पिव सरण) भयभीत हुए प्राणियों की रक्षा करने के लिये घर जैसी है। ( पक्खीण पिव गगण ) तथा जिस प्रकार पक्षियो को गमन करने में आधारभूत आकाश होता है उसी तरह समस्त धमों की आधारभूत यह अहिंसा ही है। (तिसियाण पिव सलिल ) जिस प्रकार तृषित व्यक्तियों की व सूत्रा२ मा मडिंसानु महात्म्य शकिछे-“ एसा भगवई" त्या ___“ पसा" ordसनमा प्रसिद्ध ते" अहिंसा भगवई " अहिंसा भगवती, "जा सा" २ “भियाण पिन सम्ण" लयीत गनेस प्राणीमानी २क्षा ४२ वान भाट ३२ समान छ, “पक्खीण पिर गगण " तथा म पक्षागाने ગમન કરવામા આકાશ આધારભૂત થાય છે, એ જ પ્રમાણે સમસ્ત ધર્મોને भाटे आधारभूत 21 मङिमा ४ छ, “ तिमियाण पिव सलिल " भ त२ Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका अ० १ सू० ३ अहिंसामाहात्म्यनिरूपणम् पितामिव सलिलम्-जलम् , प्राणरक्षकत्वात् , 'सुहियाण पिव अमण' क्षुपिर नामिनाशनम् क्षुधातमाणिना कृतेऽशन भोजनमिव, जन्नग्राणा: इति वचना तथा-' समुद्दमझे व पोयरहण ' समृद्रमध्ये इस पोताहनम्-यथा समुद्रम ये : माणिना त्राणाय भवति, तथैव ससारसमुद्रमध्ये इयमहिंसा प्राणिना त्राण पोतायते इति भावः । तथा-'चउप्पयाण च आसमपय ' चतुप्पदानां च आश्र पदम्-यथा चतुप्पदप्राणिना कृते गोप्ठ विश्रामस्थान तयैवाहिंसापि सर्वप्राणि प्राणरक्षा का साधनभूत जल होता है उमी प्रकार यह अहिंसा : प्राणियों के प्राणों की रक्षा का एक साधन है। (खुहियाण पिच असण " अन्न ही प्राण है ” इस उक्ति के अनुसार जिस प्रकार भूख : पीडित हुए प्राणियों के लिये भोजन एक मात्र आधारभूत होता उसी प्रकार यह अहिंसा भी जीवो की रक्षा करने का एक सर्वोत्त साधन है । (समुद्दमझेव पोयवहण ) समुद्र के बीज में नौका जिर प्रकार प्राणियों की रक्षा करने वाली होती है उसी प्रकार ससार समु के बीच में पतित हुए प्राणियों की रक्षा करने के लिये यह अहिंस ही एक सर्वोत्तम द्रढ़ नौका जैसी है। (चउप्पयाण च आसमपय चतुप्पद-जानवरों के लिये जिस प्रकार विश्रामस्थल गोष्ट होता है उस प्रकार यह भगवती अहिंसा भी सर्वप्राणियों के लिये सर्वोत्तम विश्रामस्था है। (दुट्ठियाण च ओसबिल ) रोगग्रस्त व्यक्तियों को जिस प्रका ओपधि का सहारा होता है उसी प्रकार कर्मरोगग्रस्त भव्य जीवों में સ્થાઓની પ્રાણુરક્ષા માટે પાણી સાધનરૂપ બને છે, એ જ પ્રમાણે આ અહિંસા प्राणीमाना प्राप्रयापदानु मे साधन छ " खुहियाण पिच असण" અન્ન જ પ્રાણ છે” તે કથન પ્રમાણે જેમ સુધાથી પીડાતા પ્રાણીઓ માટે ભજન જ એક માત્ર આધાર હોય છે એ જ પ્રમાણે આ અહિંસા પણ वानु २क्षय ४२वानु मे सर्वोत्तम साधन छ “समुहमज्जेव पोय वहण" સમુદ્રની વચ્ચે જેમ નૌકા પ્રાણીઓનું રક્ષણ કરે છે તેમ આ સાર સાગરમા છેલા પ્રાણુઓની રક્ષા કરવાને માટે આ અહિંસા જ મજબૂત નૌકા જેવી छ "चउप्पयाण च आसमपय " यतु५४-नवरीने भाटभ गा४ (4131) વિશ્રામસ્થાન હોય છે એ જ પ્રમાણે આ ભગવતી અહિંસા પણ સમસ્ત प्रामाने भाट सर्वोत्तम विश्रामन्थान छ “ दुहट्ठियाण च ओसहि बल" ઉગીને જેમ ઔષધિને સહારો હોય છે તેમ કરેગગ્રસ્ત ભવ્ય જીને Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० प्रश्नध्याकरणम् संमति अहिंसामाहात्म्यमाद मूलम्-एसा भगवई अहिंसा, जा सा भीयाणं पिव सरणं पक्खीणं पिव गयण, तिसियाणं पिव सलिल, खुहियाणं पिव असणं, समुदमझेव पोपवहण, चउप्पयाण च आसमपय, दुहट्रियाण च ओसहिवल, अडवीमज्झे च सत्थ. गमण, एत्तो विसिट्टतरिया अहिसा जा सा पुढवीजल अगणि मारुयवणस्सइ - वीय - हरिय -- जलचर--- थलचर-खहयर तस-थावर-सव्वभूयखेमकरी ॥ सू० ३॥ टीका-सा भगवई ' इत्यादिएपा-जिनशासनप्रसिद्धा-अहिंसा भगाती या सा 'भोयाण पिन सरण' भीतानामिव शरणम्-भय भीताना प्राणिना वाणाथ गृहमिवास्ति, 'पक्खीणपिच गयण' पक्षिणामिव गगनम्=पक्षिणा गगनमिव, यथा पक्षिणा गमने गगनमाधारो भवति, तथैव सर्वधर्माणामियमहिंसाऽऽधार । 'तिसियाण पिव सलिलम्= अब सूत्रकार इस अहिंसा के माहात्म्य को प्रदर्शित करते है'एसा भगवई ' इत्यादि । टीकार्य (एसा) जिनशासन मे प्रसिद्ध यह (अहिंसा भगवई) अहिंसा भगवती (जा सा) जो वह अहिंसा (भीयाण पिव सरण) भयभीत हुए प्राणियों की रक्षा करने के लिये घर जैसी है। ( पक्खीण पिव गगण ) तथा जिस प्रकार पक्षियो को गमन करने मे ओधारभूत आकाश होता है उसी तरह समस्त धर्मो की आधारभूत यह अहिंसा ही है। (तिसियाण पिव सलिल) जिस प्रकार तषित व्यक्तियों की वे सूत्र४२ २५ अडिसानु मान्य शवि --" एसा भगवई " त्यात "एसा" शासनमा प्रसिद्ध ते" अहिंसा भगवई " अहिंसा माती, "जा सा" “भियाण पिव सण" मयलीत मनेस प्राणीमानी २क्षा ४२ वान भाट ५२ समान छ, “पाखीण पिन गगण " तथा २५ पक्षायाने ગમન કરવામા આકાશ આધારભૂત થાય છે, એ જ પ્રમાણે સમસ્ત ધર્મોને भाट साधारभूत ! महिमा ४ छ, “तिमियाण पिव सलिल "म तर Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ० १सू० ४ अहिंसाधारकपुरुपस्वरूपनिरूपणम् ५७३ अथ यै महापुरुषैरियमहिसोपलब्धा सेविता च तानाह-' एसा भगवई ' इत्यादि मूलम्-एसा भगवई अहिसाजा सा अपरिमिय नाण दसणधरोहसीलगुण-विणय-तव-संजम नायगेहि तित्थकरेहि सत्रजगजीववच्छल्लेहिं तिलोगमहिएहि जिणचदेहि सुट्ट दिहा, ओहि जिणेहि विण्णाया, उज्जुमईहि विदिट्ठा विउलमईहि विदिता, पुवधरेहि अधीया, वेउबीहि पइण्णा,आभिणिवोहियनाणीहि सुयनााणीहि मणपज्जवनाणीहि केवलणाणीहि आमोसहिपत्तेहि खेलोसहिपत्तेहि विप्पोसहिपत्तेहि जल्लोसहिपत्तेहि सम्बोसहिपत्तेहि वीयवुद्धिएहि कोहबुद्धीहि पयाणुसारीहि सभिण्णसोएहि सुयधरेहि मणवलिएहि वयवलिएहि कायवलिएहि नाणवलिएहि दसणवलिएहि चरित्तत्रालिएहि खीरासवेहि महआसबेहि सप्पियासवेहि अखीण महाणसिएहि चारणेहि विज्जाहरेहि चउत्थभत्तिएहि छभत्तिएहि दसमभत्तिएहि एव दुवालस- - चउदससोलस--अद्धमास-मास -दोमास तिमास-चउमासपचमास छम्मासभत्तिएहि उक्खित्तचरएहि एवं निक्खित्त चरएहि अतचरएहि पतचरएहि लूहचरएहि समुदाणिहोती है। यदि यथार्थरूप मे जीवो की रक्षा करने वाली-अभयप्रदान करने वाली यदि कोई सर्वोत्तम वस्तु है तो वह एक अहिंसाही है ।स०३॥ अब सूत्रकार जिन महा पुरुषों ने इस भगवती अहिंसा की प्राप्ति યથાર્થ રીતે જીવોની રક્ષા કરનારી–અભયપ્રદાન કરનારી કેઇ પણ સર્વોત્તમ વસ્તુ હોય તે તે એક માત્ર અહિંસા જ છે જે સૂ-૩ હવે સૂત્રકાર જે મહાપુરુષે એ આ ભગવતી અહિસાની પ્રાપ્તિ તથા સેવા Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रध्यापन विश्रामस्थानम् । तथा- दुइद्वियाण च भोसहिरल' दुःवस्थितानाच ओपधिवलम्-रोगग्रस्ताना प्राणिना कृते थथोपधम् - थैर धर्मरोगग्रस्ताना कृतेऽस्मिाष धम् , तथा अडगीमझे च सत्वगमण' अटवीमध्ये दस सार्थगमनम्-यया-अटवीमध्ये सार्थेन सहगमन सुखकर माति, तथैमासमार्गमस्थितानामहिंसा, किम धिकम् ? 'एत्तो' इतः एभ्यः पूक्तिभ्योऽपि अहिंसा 'रिसिहतरिया' रिशिष्ट तरिकाविशिष्टतरा । 'जासा' या साहिंसा 'पुढयो-जल अगणि-मारुय वगस्साबीय-हरिय-जलचर-थलचर-खहयर-तस-धार-सत्रभूय-खेमकरी' पृथिवीजलाग्नि मारुत-वनस्पति-गोन-उरित-जलचर-स्थलवर खेचर उस स्थावरसर्वभू तक्षेमकरी। पृथिव्यादिपट्कायनीगना कल्याणकारी परीपति दयाभगाती ॥४॥ अहिंसा ही एक परम औय पीरूप है। (अडोमझे वसत्वगमण) जगल के बीच में जिस प्रकार सार्थ-समुदाय के साथ चलना मुखप्रद होता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में प्रस्थित हुए मनुष्य को यह अहिंसा है अर्थात्-साथ का काम देती है । और अधिक क्या कहें- ( पत्तो) इस पूर्वोक्त उपमानों से भी (विसिहनरिया ) अहिंसा विशिष्टतर है। क्यों की (जा सा अहिंसा) यह जो अहिंसा है वह (पुढवी जलअगणि-मारुय-वणस्सइ-बीय-हरिय-जलचर थलचर खयर तस थावर सव्वभूयखेमकरी) पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति, बीज, हरित, जलचर, थलचर, खेचर, बस और स्थावर इन सय भूतों की-पृथिव्यादि छह काय के जीवों की-कल्याणकरी-रक्षा करने वाली है। भावार्थ-इस अहिंसा भगवती के समक्ष ससार के सभी विशिष्ट जड पदार्थ तुच्छ है । क्यों कि उनसे जीवो की यथार्थरूप में रक्षा नहीं भाट अडिसा भाटा मोष५३५ छ “अडवीमज्ञ वसश गमण । म જ ગલની વચ્ચે સાર્થ–સમુદાયની સાથે જવાનું સુખકારી હોય છે તે જ પ્રમાણે મેક્ષ માર્ગે પ્રયાણ કરતા મનુને સાટે અહિંસા સાથેની ગરજ સારે છે qधारे शु । एत्तो" पूर्व प्रथित पभाना २ता पy 'विसिद्वतरिया" महिंसा मधित२ छ धारण "जा सा अहिंसा" मा अहिंसा छे ते " पुढवीजलअगणि-मारुय-वणस्मइ-वीय -हरिय-जलयर- सहयर - तस-थावर सबभूय- सेमकरी' पृथिवी, ra, मशि वायु बनस्पति, पी, रित, જલચર, થલચર, ખચર, રસ, અને સ્થાવર તે બધા ભૂતની પૃથિવ્યાદિ છ કાયના જીવોની કલ્યાણકારી-રક્ષા કરનારી છે ભાવાર્થ-આ ભગવતી અહિંસાની આગળ એ સારના સઘળા વિશિષ્ટ જડ પદાર્થો તુચ્છ છે કારણ કે તેમનાથી યથાર્થ રીતે જીવોની રક્ષા થતી નથી જે Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका म० १० ४ हिसाधारकपुरुषस्वरूपनिरूपणम् ५७३ ___ अथ यै महापुरुषैरियमहिंसोपलब्धा सेविता च तानाह-' एसा भगवई' इत्यादि मूलम्-- एसा भगवई अहिसाजा सा अपरिमिय नाण दसणधरेहिसीलगुण-विणय-तव-सजम नायगेहिं तित्थकरेहि सव्वजगजीववच्छल्लेहि तिलोगमहिएहि जिणचदेहि सुट्ठ दिहा, ओहि जिणेहि विण्णाया, उज्जुमईहि विदिट्ठा विउलमईहि विदिता, पुवधरेहि अधीया, वेउव्वीहि पइ. पणा, आभिणिवोहियनाणीहि सुयनााणीहि मणपज्जवनाणीहि केवलणाणीहि आगोसहिपत्तेहि खेलोसहिपत्तेहि विप्पोसहिपत्तेहि जल्लोसहिपत्तेहि सम्बोसहिपत्तेहि वीयबुद्धिएहि कोवुद्धीहि पयाणुसारीहि सभिण्णसोएहि सुयधरेहि मणवलिएहि वयवलिएहि कायवालएहि नाणवलिएहि दसणवलिएहि चरित्तनलिएहि खीरासवेहि महुआसवेहि सप्पियासवेहि अखीण महाणसिएहि चारणहि विज्जाहरेहि चउत्थभत्तिएहि छहभत्तिपहि दसमभत्तिएहि एव दुवालसचउदससोलस--अद्धमास-मास -दोमास तिमास-चउमासपचमास छम्मासभत्तिएहि उक्खित्तचरएहि एवं निक्खित्त चरएहि अतचरएहि पतचरएहि लूहचरएहि समुदाणिहोती है। यदि यथार्थरूप मे जीवो की रक्षा करने वाली-अभयप्रदान करने वाली यदि कोई सर्वोत्तम वस्तु है तो वह एक अहिसा ही है ।।सू०३॥ अन सूत्रकार जिन महा पुरुपो ने इस भगवती अहिंसा की प्राप्ति યથાર્થ રીતે જીવોની રક્ષા કરનારી–અભયપ્રદાન કરનારી કોઈ પણ સર્વોત્તમ વસ્તુ હોય તે તે એક માત્ર અહિંસા જ છે કે સૂ-૩ હવે સૂત્રકાર જે મહાપુરુએ આ ભગવતી અહિસાની પ્રાપ્તિ તથા સેવા Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ এখালেহ चरएहि अण्णगिलाइएहि माणचरएहि संमट्टकप्पिाहि तज्जायसंसहकप्पिएहि उवनिहिएहि सुद्धेसणिएहिं ससादत्तिएहिं दिलाभिएहि अदिहलाभिएहिं आयविलिएहि पुटलाभिएहि आयविलिए हिं पुरिमडिएहि एकासणिएहिं निविइएहि भिन्नपिडवाइहिं परिमियपिडवाइएहि अंतहारेहि पताहारेहि अरसाहारेहि विरसाहारेहि लूहाहारेहि तुच्छाहारेहि अतजीविहि पतजीविएहि लूहजीविहि उनसतजीविएहि पसतजीविहि विवित्तजीविहिं अस्वीरमहसप्पिएहि अमज्जमसासिएहि पडिमट्टाइएहिं ठाणुकडिएहिं वीरामणिएहि सजिएहि डडायइएहि लगडसाईहि एगपसिएहिं आयावएहि अवाउडएहि अणिट्टयएहि अकडुयएहि धुयकेसमसुलोमनहेहि सव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहि समणु. चिन्ना, सुयधरविदियत्थकायवुद्धिणो धीरमइवुद्धिणो य जे ते आसीविसउग्गतेयकप्पा निच्छयववसाय पज्जत्तकयमइया णिच्च सज्झायज्झाणा अणुवद्धधम्मज्झाणपचमहव्वयच. रित्तजुत्ता, समिया समिईसु, समियपावा,छविह जगवच्छला, निच्चमप्पमत्ता, एएहि अन्नेहि य जा सा अणुपालिया भगवई ॥ सू० ४ ॥ टीका-'एसा भगाई ' इत्यादि-- • 'एसा भयवई अहिंसा' एपा भगवती अहिंसाएपा पूर्वोक्ता भगवती पूजनीया सज्ञप्ररूपिताऽहिंसैप सम्यगहिसाऽस्ति, न तु सर्वज्ञेतरकल्पिता । 'जा की है, तथा सेवा की है उन महापुरुषों को प्रकट करते है-'एसा भग वई' इत्यादि। टीकार्य-(एसा भगवई अहिंसा) यह वेक्ति भगवति अहिंसा सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित अहिंसा ही सच्ची अहिंमाहै, सर्वज्ञ से भिन्न इतर शछ ते महापुरुषाना नाम प्राट ७२ छ-" एसा भगवई " त्या Astथ-सा भगवई अहिंसा" मा पूर्व गवती मसि-सज्ञ द्वारा પ્રરૂપિત અહિસા જ સાચી અહિ સા છે, સર્વજ્ઞ સિવાયના બીજા છદ્મસ્થ Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० १ सू० ४ महिसाधारकपुरुपस्वरूपनिरूपणम् ५७५ या - जिन सिद्धान्तोक्ता अहिंसा 'सा' सा' अपरिमियमाणदसणधरेहिं ' अपरिमि तज्ञानदर्शनधारकैः 'सीलगुणनिणयतवस जमनायगेहिं शीलगुणविनयतपः सयमनायकैः, शील=चित्तसमाधान देवगुणस्त, तथा विनयतप सयमा स्वस्य परेपा च नयन्ति मापयन्ति ये ते तैस्तयोक्तेः ' तित्थकरेहिं ' तीर्थङ्करै चतुर्विधसघनायकैः ' सव्वजगजीववच्छखेहिं ' सर्वजगज्जीवनत्सलः - सकलप्राणि कारुण्योपेतः, योगक्षेमकारिकलात्, ' तिलोगम हिएहिं ' त्रिलोकमहितै निलो कपूजितैः = तीर्थ करनामकर्मणो जगत्पूजनीयत्वात्, 'जिणचदेहिं ' जिनचन्द्रै:= जिनाना सामान्य जिनाना मध्ये चन्द्रा इव तैः कारुणिकनिशा करैरित्यर्थ, 'मुद्धदिवा' सुष्ठु दृष्टा = केवला लोकैः कारणतः स्वरूपतः कार्यतच सम्यग विनिश्चिता, स्व प्राणियों द्वारा कथित अहिंसा सच्ची अहिंसा नहीं है- इस तरह ( जा ) जिन सिद्धान्तोक्त जो अहिंसा है (सा) वह (अपरिमिथनाणदसणधरेहिं ) अपरिमित - अनत - ज्ञान और दर्शन के धारण करने वाले (सीलगुणविणतवसजमनायगेहिं ) शील रूपगुण विनय एव तप, इनका स्वय आचरण करने वाले और परको आचरण कराने वाले (तित्थकरेर्हि) तीर्थकर - चतुर्विध सघ का नेतृत्व करनेवाले (सव्यजगजी - चवच्छल्लेहि) समस्त जगत के जीवों के प्रतिवात्सल्यभाव रखने वाले और (तिलोगमरिएहिं ) तीर्थंकर नामकर्म जगत्पूज्य होने के कारण तीनों लोको द्वारा पूजे जाने वाले, ऐसे ( जिणचदेहि ) जिन चढ़ोने सामान्य जिनो की बीच में चद्रमा के तुल्य तीर्थंकर महाप्रभुओ ने यह अहिंसा भगवती को पूर्वोक्त प्रकार से ( खुट्टदिठ्ठा ) अपने केवलालोक से कारण स्वरूप को, एच कार्य की अपेक्षा को लेकर अच्छी 66 "" જીવો દ્વારા કથિત અહિંસા માચી અહિંસા નથી આ રીતે जा - " निनસિદ્ધાતેાક્ત જે અહિ સા छे" सा " ते " अपरिमियनाणदसणधरेहिं " अथ રિમિત-અને તત્વજ્ઞાન અને દનના ધાર विनायगे हिं શીલરૂપગુણુ, વિનય અને તપનુ નતે આચરણ કરનારા અને બીજાને તેનુ આચણુ કરાવનારા " तित्थकरेहिं ” तीर्थ ४२ - तुर्विध सधनु नेतृत्व उश्नाश " सव्वजगजीववच्छ हिं " भगतना समस्त वा प्रत्ये वात्सल्यभाव राम नारा भने “ तिलोगमहिएहिं " तीर्थ ४२ नामदर्भ लगत्थून्य होवाने आरो त्रहो बोउ द्वारा पुन्ननाश, सेवा ' जिणच देहिं " विनय द्रोभे-सामान्य निनोनी અદર ચંદ્રમા સમાન તીર્થંકર મહાપ્રભુએ આ ભગવતી અહિંસાને પૂર્વક્તિ शते " सुठु दिट्ठा " पोताना जेवसासोध्थी अरण स्वइये, भने जर्यांनी अपे ક્ષાએ સારી રીતે દેખી છે-નિશ્ચિત કરી છે તેમણે તેના બાહ્ય અને અભ્ય Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ - प्रश्नध्याकरणसूत्रे तर गुरूपदेशः, कर्मक्षयोपशमादि पाहयाभ्यन्तर कारणमस्या:प्रमत्तभोगापाणव्यप रोपगलक्षणहिंसामतिपक्षरुप सम्पम् , स्वर्गापवर्गमाप्तितिलाण च कार्यम् , उति । तथा-'ओहिनिणेहि ' अधिजिना निशिष्टायधिशानिमिः 'रिणाया 'विज्ञाताभेदप्रभेदैविदिता, तथा ' उज्जुमईहिंदि मजुमतिभिरपि-मनन मतिः-सवेदन मित्यर्थः, ज्वीसामान्यग्राहिणी मति दिर्यपा ते ऋजुमतया अर्धततीयाडगुल न्यूनमनुष्यक्षेत्राति सज्ञि पञ्चेन्द्रियमनोदव्यप्रत्यक्षीकरणहमनःपर्यायज्ञानमेद चन्तस्तैरपि, 'दिवा' दृष्टा, वथा-'विउलमईहिं ' विपुलमतिभिः पर्यायशवोपेता चिन्तनीय घटादिवस्तुविशेषग्राहिणी मति उद्धि र्येपा ते पिपुलमतयस्तैः निहितातरह देसी है-निश्चित की है। उन्हो ने इसके बाद और आभ्यन्तर कारण गुरुपदेश, कर्मक्षयोपशम आदि कहे हैं। इसका स्वरूपप्रमत्तयोग से जो प्राणव्यपरोपगरूप हिंसा का स्वरूप है उससे विपरीत स्वरूप प्रकट किया है । तथा स्वर्ग और अपवर्ग की प्राप्ति होना इसका कार्य कहा है। (ओहिजिणेहि विण्णाया) विशिष्ट अवधि ज्ञानियों द्वारा यह अहिंसा भगवती भेद प्रभेदों सहित विदित हुई है। तथा (उज्जुमईहि विदिट्ठा) जुमति मन. पर्यय ज्ञानियो द्वारा यह प्रत्यक्ष रूप में देखी गई है। जो विषय को सामान्यरूप से जानता है वह ऋजुमतिमन. पर्यय है । यहा पर ऐसी आशका नहीं करना चाहिये कि " जय ऋजुमति सामान्यग्राही है तप तो वह दर्शन ही हुआ उसे ज्ञान क्यों कहा क्योकि यह सामान्यगाही है। इसका तात्पर्य इतना ही है कि वह विशेपोको जानता है पर विपुलमति जितने विशेषों को नहीं जानता। अर्धतृतीयअड्गुल न्यून-अर्थात् ढाई अंगुल कम मनुष्य क्षेत्र में रहे ન્તર કારણ ગુરૂપદે, કર્મપિશમ આદિ બતાવેલ છે તેનું સ્વરૂપ-પ્રયત્ત ગથી જે પ્રાણ હરનાર હિસાનું સ્વરૂપ છે તેના કરતા ઉલટ સ્વરૂપ પ્રગટ કરેલ છે તથા સ્વર્ગ અને અપવર્ગની પ્રાપ્તિ થવી તે તેનું કાર્ય કહેલ છે " ओहिजिणेहि विण्णाया" विशिष्ट अधिज्ञानीयाद्वारा भगवती मडिसा लेह, प्रमेह सहित सभरपामा मावेश छ तथा " उज्जुमईहिं वि दिदा" नुमति मन ययज्ञानीया द्वारा ते पत्यक्ष उपेलवामा मावल છે જે વિષયને સામાન્ય રીતે જાણે છે તે બાજુમતિ અને પર્યાય છે અહી એવી શકી ન કરવી જોઈએ કે “જે મજુમતિ સામાન્યગ્રાહી છે તે તે દર્શન” જ ગણાય તેને જ્ઞાન કેમ કહ્યું ? કારણ કે તે સામાન્યગ્રાહી છે” તેને ભાવાર્થ એટલે જ છે કે તે વિશેષેને જાણે છે પણ વિપુલમતિ જેટલા विशयाने तशुतो नथी “अर्धतृतीयअड्गुलन्यून" सेट मढी मागण Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ0 ५ सू० ४ अहिंसामाप्तमहापुरुषनिरूपणम् विशेपतो दृष्टा, एते उभयेऽपि मन पर्ययज्ञानिनः । तथा- 'पुचपरेहि' पूर्वधरैः उप्तादाग्रायणीयवीर्यादि चतुर्दश पूर्वपरै ( अपीया ) जधीता-श्रुतनिवद्धा पठिता, तथा 'वेधीहि । कुर्विकै चैक्रियविधारिभि , 'पइण्णा' प्रतीर्णा निस्तीर्णा-आजन्मपरिपालितेत्यर्थः, तथा-'आभिणिनोहियनाणीहिं' आभिनियोधिकज्ञानिभिः, अभि-अर्थाभिमुख'-अविपर्ययरूपत्वात् , नि-नियतोऽसशयरूपत्वान् . गोर' मवेदनम् अभिनिरोध', स एर आमिनिनोधिकम् , जायतेऽनेनेनि ज्ञानम् , आभिनियोधिक च तज्नानम्-आभिनियोधिकतानम्-इन्द्रिय नोइन्द्रिय निमित्तो वोष इत्यर्थ , मोऽस्ति पेपा तैस्तथोक्तः, मतिज्ञानवद्भिरित्ययः, हुसजी पचेन्द्रिय जीवों के मनोद्रव्यों को यह ऋजुमति साक्षात् जानता है। यह ज्ञान क मनःपर्ययक भेद है। ( विउलमहिं विदिया) मनः पर्यय ज्ञानका दुसरा भेदविपुलमति है । इस विपुलमति मनः पर्ययज्ञानवाला पदार्थी को ऋजुमति की अपेक्षा विशुद्धतर आदि रूप से जानता है । क्यो कि यह मति पर्यायशनोपेत होती है, तथा चिन्तनीय घटादि वस्तुओं में सूक्ष्मतर आदि रूप से वर्तमान धमों को जानती है । उन ऐसे विपुलमति मन पर्यय ज्ञानियों द्वारा यह भगवती अहिंसा ऋजुमति की अपेक्षा अधिक और विशेषरूप से विदित-ज्ञातदृष्ट हुई है । तथा (पुत्रधरेहिं अधीया) उत्प दपूर्व, अमायणीपूर्व, वीरपवाद आदि चतुर्दशपूर्व के धारी महात्माओं ने श्रुतज्ञानियों नेश्रुत मे निबद्ध हुई इस अहिंसा भगवती को पढ़ा है। (वेउव्वीहिवेडण्णा) वैक्रियलब्धिधारी मुनिजनों ने इसे आजन्म पाला है। (आभिणियोहियनागीसियनाणीहिं,मगाजवनागीहिं केवलनाणीहि એ મનુષ્યક્ષેત્રમાં રહેલ સી પચેન્દ્રિય જીના મનદ્રવ્યોને તે બાજુમતિ मासात नए छ भन पयज्ञाननी मा को- “ विउलमइहिं विदिआ" મન પર્યવ જ્ઞાનને બીજે ભેદ વિપુલમતિ છે આ વિપુલમતિ મન પર્યાય જ્ઞાનવાળા પદાર્થોને ત્રાજુમતિના ડરતા વધારે વિશુદ્ધ રૂપે જાણે છે કારણ કે મતિપર્યાય તોપેત હોય છે, તથા કમ્પનીય ઘટાદિ વસ્તુઓમાં સૂફમતર આદિ રુપે વર્તમાન ધર્મોને જાણે છે એવા તે વિપુલમતિ મન પર્યયજ્ઞાનીઓ દ્વારા આ ભગવતી અહિસા જુમતિના કરતા અધિક અને વિશેષ રૂપે વિદિત -ज्ञात-इट 45 तथा “पुव्वधरेहिं अधीया " G५६३, अनाया, વીર્યપ્રવાદ આદિ ચૌદ પૂર્વના વારક મહાત્માઓએ-શ્રુતજ્ઞાનીઓએ–શ્રતમાં भू थायेद मा भारती डिमानु मव्ययन अयु छ, “वेउव्धीहिं वेइण्णा" वैयिधिधारी भुमिरना तेनु मा. पादान -[ 2 ' आभिणियोहियनाणीहिं सुयनाणीहि, मणपज्जवनाणोहिं केवलनाणीहिं 'न्द्रिय भने ना म. ७३ Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७८ 1 प्रनयाकरणसूत्रे तथा - ' सुयनाणीहिं श्रुतानिभि'श्रुतम् - आचाराद्रादि, तद्वेदिभिरित्यर्थ, तथा - ' मणपज्जनाणीहि मन पर्यानानिभिः- मनसो मन्यमानमनोद्रव्याणां पर्यत्रः = परिच्छेदो मन'- पर्यंत्रः सज्ञानम् मन:पर्ययज्ञानम्, तदस्ति येषां ते तथोक्तास्तैः, तथा-' के पलनाणीहि केवलज्ञानिभिः = केवलमै कमराहायमनन्त परिपूर्ण यद् ज्ञान तत्केलान, तदस्यास्ति येषा ते तयोक्ताः, तथा-' आमोस हिपतेहि ' आमश पधिमाप्तैः - आमर्श= शरीरसम्पर्कः, स धिः- सर्वरोगापहारिया - तपश्चरणमभावो लग्निविशेषस्ता माप्ता ये ते तथोक्तास्तैः, तथा' खेलोसहिपत्ते हि ' श्लेष्मपधमाप्तैः श्लेमा ओपधिर्भवति यत्र क सा इन्द्रिय ओर नो इन्द्रिय इनसे उत्पन्न जो ज्ञान होता है उसका नाम आभिनिबोधक ज्ञान है । 'अभि' और ' नि ' ये दो उपसर्ग य प्रकट करते हैं कि यह ज्ञान सन्मुख रखे हुए नियमित क्षेत्रवर्ती पदार्थ को ही जान सकता है । इस आभिनियोधिक ज्ञानियों द्वारा मतिज्ञानधारियों द्वारा, तथा आचाराग आदि त के जानने वालों द्वारा, तथा मनः पर्यवज्ञानियों द्वारा - मनवाले सज्ञि प्राणी- किसी भी वस्तु का चितवन मनसे करते हैं । चिन्तवन के समय चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चितवनकार्य मे प्रवृत्तमन भिन्न २ आकृतियों को धारण करता रहता है वे आकृतिया ही मन की पर्याये हैं, और उन मानसिक आकृतियों को साक्षात् जानने वाला ज्ञान मन पर्यत्र ज्ञान हैं, इस मनः पर्यव ज्ञान को धारण करने वाले मुनिजनों द्वारा, तथा केवल ज्ञानियों द्वारा असहाय, एक, अनन्त, परिपूर्ण यह केवल शब्द का अर्थ है, ऐसा जो ज्ञान होता हैं वह केवल ज्ञान है, यह ज्ञान जिस आत्मा में होता है उसका नाम केवलज्ञानि है ऐसे केवल ज्ञानि आत्माओं द्वारा " દ્વારા ન્દ્રિય વડે ઉત્પન્ન થયેલ જે જ્ઞાન છે તેનુ નામ આિિનેધક જ્ઞાન છે શ્રમિ” અને “ત્તિ (” એ અને ઉપમગે એ પ્રગટ કરે છે કે તે જ્ઞાન સન્મુખ રાખેલ નિયમિત ક્ષેનવર્તી પદાર્થને જ ાણી શકે છે તે અભિનિષાધિક જ્ઞાનીએ દ્વારા, મતિજ્ઞાનધારીઓ દ્વારા તથા આચારાગ આદિ સૂત્રીના જાણુકાર તથા મન પય જ્ઞાનીએ દ્વારા–મનવાળા–સ સી પ્રાણી-કોઇ પણ વસ્તુનુ મન વડૅ ચિન્તવન કરે છે. ચિન્તવનને વખતે જેનૂ ચિન્તવન કરવામા આવે છે તે વસ્તુના ભેદ પ્રમાણે ચિન્તનકામા પ્રવૃત્ત થયેલ મન જુદી જુદી આકૃતિયાને ધારણ કરતુ રહે છે, તે આકૃતિયા જ મનની પર્યાયા છે અને તે માનસિક આકૃતિયાને પ્રત્યક્ષ જાણનાર જ્ઞાન મન પય જ્ઞાન છે, તે મન પર્યય જ્ઞાનને ધારણ કરનાર સુનિએ દ્વારા, તથા કેવળજ્ઞાનીએ દ્વારા–અસહાય, એક અન ન્ત, પરિપૂણુ તે કેવલ ” શબ્દના અર્થો છે, એવુ જે જ્ઞાન છે તેને કેવળ ८८ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शिनी टीका ० स्) ४ अहिंसाप्राप्त महापुरुषनिरूपणम् ५७९ , , पस्ता प्राप्ता अधिगता ये ते तैस्तयोक्तः, तथा ' जल्लोसहिपत्तेर्हि ' जल्लोपधिमाप्तै जल्ल= शरीरसमुद्भवश्चम, स एवापधिस्ता प्राप्ता ये तैस्तथोक्तः, ' तथा 'विप्पोसठिपत्तेहिं ' विडोपधिमाप्तैः, निग्रुप: = मुखनिन्दन, त एव औपधिर्निमुडोपधिस्ता प्राप्तास्तैस्तथोक्तः, तथा-' सन्नोसहिपत्तेर्हि ' सर्वम् = कर्णवदननासिकानयन जिला समुद्भव मल तदेव ओपधिस्ताम्प्राप्तास्तैस्तथोक्तैः, तथा पीयबुद्धिजिद्धिक, नीज मित्र निधिगमरूपमहातरुजननाद् बुद्धिर्येपा ते वीजयुद्धयस्तैस्तथोक्तै, जय भात्रः - उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सदित्यादिवद प्रधान पदमर्थपद, तेनैकेनापि वीजभूतेनाधिगतेन येऽन्य प्रभूतमप्यर्थमनुसरन्ति ते वीजमुद्धय उच्यन्ते, तथा ' कोहबुद्धिएहि ' कोष्ठ शुद्धि कै. कोष्ठप्रक्षिप्तधान्यमिव येपासून सुचिरमपि तिष्ठतस्ते कोष्ठ द्वयस्तैस्तथोक्त', ' पयाणुसारीहिं ' पदानुसारिभिः = पदेन सूनावयवेन एकेनोपल वेन तदनुकूलानि पदशतान्यनुसरन्ति ये ते पदानुसारिणस्तैस्तथोक्तः, तथा 'सभिन्न सोएहिं सभिन्नश्रोतोभिःसभिन्नानि समानार्थग्राहीणि श्रोतासि = इन्द्रियाणि येषा ते सभिन्नश्रोतसस्तैस्तथोक्तैः, 'ये एकतरेणापीन्द्रियेण सर्वेन्द्रिय गम्यात् विषयान् अवगच्छन्ति ते सभि ( समणुचिन्ना ) सेवित हुई है, ऐसा सन्न्ध आगे से जोड़ लेना चाहिये । तथा ( आमोसहिपत्तेर्हि, खेलोसहिपत्तेर्हि, जल्लो सहिपत्तेर्हि,, विष्पोत्पत्तेहिं सव्वोसहिपत्तेर्हि, बीयबुद्धि एहिं को बुद्धिएहिं, पयाणुसारीहिं, सभिन्न सो एहिं ) आमशपधिलब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, मौन लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, जल्लोपधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, विप्रुडोपधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, सर्वोपधि लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, तथा बीजवुद्धि लब्धि - बीज समान बुद्धि वाली लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, कोष्ठ बुद्धिलब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, पदानुसारी लब्धि जिन्हें प्राप्त हो चुकी है, सभिन्नश्रोतस लब्धि जिन्हे प्राप्त हो चुकी है, उनके द्वारा सेवित हुई है, तथा જ્ઞાની કહે છે. એવા કેવળજ્ઞાની આત્મા દ્વારા समणुचिन्ना ” सेवायेसी छे मेवो भव सागणना वाज्य माथे लेडी सेवाना है तथा ' आमोमहि पत्तेर्हि, खेलोयहिपत्तेर्हि, जल्लो सहि पत्ते हि विप्पोस हिपत्तेहि, सब्वोसहिपत्तेर्हि, बीयबुद्धि हिं, कोट्ठबुद्धिएहि, पयाणुसारीहि, सभिन्न सोए हि ” આમનૌષધેિલબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઇ ગઇ છે જૌષધિલબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે, વિઝુડા ષષિલબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે, તથા ખીજભુદ્ધિ લબ્ધિ-ખીજના સમાન બુદ્ધિવાળી લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઇ ગઇ છે બુદ્ધિ લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઈ ગઈ છે પદાનુસારી લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઇ ગઇ છે, સ ભિન્નશ્રોતસ લબ્ધિ જેમને પ્રાપ્ત થઇ ચુકી છે, તે વડે ( અહિંસા સેવાયેલ છે તથા 66 Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० नय्याकरणसूत्रे " 'दस वस्तस्न , ', ) नश्रोतस उच्यन्ते, तथा - सुधरेहिं श्रुत परे = जानाराङ्गादिमुनधारकः, तथा' भणलिएहि ' मनोलि-मनस्:- नानाविपातेऽपि येा मनो धर्मात्मानमपि न चलनि तैरित्यर्थः, यलिनिचोपलिके:= वालयुक्तैः दुर्गादिमार्थापदार्थ निराकरणसमर्थ वाणीनोपेतैरित्यी 'कापवलि एहि ' फायनलिकैः = परीको सर्गमनसमर्थकापनयुक्तेरित्यर्थ 'नागरविरहि ' ज्ञानर लिक:- ज्ञानेन मत्यादिना लिनस्तस्तथोक्तेः दानयूक्तरित्पर्व', ' चलिए हिं' दर्शननलिकैः- दर्शन - निपङ्कितादितवानस्पतेन थोक्तै, 'चरिच लिएहिं ' चारित्रिक चारित्रकायसम तप य लम्, तद्वद्भिरित्यर्थः, तथा 'सीरामनेहिं ' क्षीराखौ:=क्षीरादधिधरै, येणा वचनमाकर्ण्यमान मनः शरीरगुग्पोत्पादनाय मभवति ते क्षीरासना उच्पन्ते, तथा 'महुआसवे हिं'. = शर्कराद्यपेक्षयापि मधुर द्रव्यमनु 'शहद' इति भापाप्रसिद्ध, तदिव वचनम् आस्रनन्ति = णिस्सरयन्ति ये ते मध्यावस्तस्तथोक्तै, तथा 'सप्पि आसवेर्हि' सर्पिरासचै'=मर्पि. = अन्यन्तसुरभियुक्त स्नेहयुक्त च घृतमिन वचनमात्र वन्ति = निस्सारयन्ति ये सर्पिरारास्तैस्तथोक्तं', तथा 'अक्खीणमद्दाणसिहिं' अ क्षीणमहानसिक : = महानसम् = अन्नपाकस्थान, तदाश्रितत्वादन्नमपि महानसमुच्यते अक्षीण महानस येषा ते अक्षीणमहानसि कास्तैन्तथोक्तैः येषामसाधारणान्तरायक्षयो पशमादल्पमात्रमपि पात्रपतितमन्न गौतमादीनामित्र लक्षसस्य केभ्योऽपि दीयमान 4 , ( सुयुधरेर्हि) जो आचराग आदि श्रा के धारक हैं उनके द्वारा सेवित हुई है तथा (मण लिएहिं वद्यनलिएहि, काय लिहि ) जो मनबल से युक्त है, वाग्वल से युक्त हैं, कायवल से युक्त है उनके द्वारा सेवित हुई है। तथा (नागबलिएहिं, दसणबलिएहिं चरितालिएहिं ) मत्यादिक ज्ञान से जो बलिष्ठ हैं, दर्शननलिक हैं, चारित्रनलिक है उनके द्वारा सेवित हुई है, तथा (खीरासवेहिं महुआसवेहिं, सप्पियासवेर्हि, अ खीणमहाणसिरि) क्षीरास्रवलब्धिधारी है, मालधिधारी हैं अक्षीणमहानस ऋद्धिधारी हैं, उनके द्वारा सेवित हुई हैं, तथा ( चारसुधरेहिं ” આચારાગ આદિ સૂત્રના જેએ ધારક છે તેમના દ્વારા તે સેવા येस छे, तथा मण लिएहि, वय लिएहि, कायबलिएहि " ने मनोजवा છે, વાગ્મળ વાળા છે, અને ડાયમળવાળા છે તેમના દ્વારા તે સેવાયેલ છે, તથા नाण लिए, दुखण लिएहि, चरित लिएहि " भत्याहि ज्ञान वडे ने अविष्ठ છે, જે દર્શનખળયુક્ત તથા ચારિત્રમળયુક્ત છે તેમના વડે તે સેવાયેલ છે, તથા “ सीरासवेहिं, महुआसवेहिं, सप्पियासवेहि, असीणमहाणसिएहिं " क्षीरात्रव લબ્ધિધારી, મવ્યાન્નવલબ્ધિધારી, સર્પિરાસ્તવલબ્ધિધારી અક્ષીણમહાનસદ્ધિ धारी द्वारा ने सेवायेक्ष छे, तथा ' चारणेहिं विज्जाहरेहिं " यरशुद्धि धारी 66 " "6 Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ०५ सूत्र ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुपनिरूपणम् स्वयमेवामुक्त नक्षीयते ते अक्षीणमहानसा उन्यन्ते । तथा 'चारणेहि चारणैःचरण-गमन तम्रियते येपा ते चारणा' चरणमिहरिशिष्टमाकाशगमनागमनगृह्यते, ते द्विविधा. विद्याचारणा जड्याचारणाश्च, तत्र-विद्यारलेन समुप्तनाफाश गमनागमनलब्धिमन्तो विद्याचारणा । इय लधिनिरन्तरपष्ठपष्ठतपश्चरण कर्तुर्जायते। तथा ये मुनयश्चारित्रतपोपिशेपमभावेण जयोपरि हस्तस्थापनमात्रेण गगनगमनागमनलब्धिसपना भवन्ति ते जड्याचारणा उच्यन्ते । इय लब्धिनिरन्तराष्ट्रमाष्टमतपश्चरणकर्तुर्जायते । तत्र-विद्याचारणा जम्बूद्वीपापेक्षयाऽटम नन्दीश्वरनामद्वीप जड्याचारणाश्च त्रयोदश रुचकवरद्वीप गन्तु समर्थाः । विद्याचारणा प्रथमोसातेन मानुपोत्तर पर्वत गच्छन्ति, द्वितीयेनोत्पातेन नन्दीधरम् , प्रतिनिवर्तमान एकेनेवोत्पातेन स्वस्थानमागच्छन्ति । तथा-मेर गच्छन्तः प्रयमेनोत्पातेन नन्दनबन गछन्ति, द्वितीयेनोत्पातेन पण्डकवनम् , ततः प्रतिनिवर्तमाना एकेनोत्पातेन स्वस्थानमागच्छन्ति । जड्याचारणा हि एकेनोप्तातेन जम्मृद्वीपापेक्षया त्रयोदशरुचकारद्वीप गच्छन्ति । प्रतिनिवर्तमाना एकेनोत्पादेन न दीश्वरमायान्ति द्विती येन स्वस्थानम् । यदि पुनमशिखर जिगमिपरस्तदा प्रयमेनोत्पातेन पण्डकवनमधिरोहन्ति । प्रतिनिवर्तमानाश्च एकेनोत्पातेन नन्दनवनमागच्छन्ति, द्वितीयेन स्वस्थानम् । तथा 'विज्जाइरेहिँ ' विद्याधरै , रोहिणीप्रज्ञप्त्यादिविद्याधारकै तथा 'चउत्थभत्तिएहिं ' चतुर्थभक्तिकैः एकोपवासकारकै, 'छ?भत्तिएहि । पष्टभक्तिः , उपवासद्वयकारकैः, ' अहमभनिए' अष्टमभक्तिकैः उपवासत्रयकारकै', तथा-' दसमभत्तिएहिं ' दशमभक्तिकै उपवासचतुष्टयकारकैः, ' एवं णेहिविज्जाहरेहिं) चारणद्धिधारी हैं, रोहिणीप्रजप्त आदि विद्या के धारी हैं उनके द्वारा सेवित हुई है । तथा (चउत्थभत्तिहिं, छट्ठभत्तिएहिं,अट्ठमभत्तिपहिं दसमभत्तिएहि रायवालस चउदस मोलस-अद्धमास मास -दोमास तिमास-चउमास-पचमास-छम्मास भत्तिएहिं) चतुर्थभक्तिक -जो एक उपवास करने वाले है, पष्ठिभक्तिक-दो उपवास के करने वाले है, अहम भक्तिक-तीन उपवास करने वाले हैं, दसभक्तिक-चार उपवास डिप्रशस्ति माह विधाना पा२४ । २ सेवायेद छ, तथा “ चउत्थम त्तिएहि, छट्ठभत्तएहिं, अट्ठमभत्तिएहिं, दसमभत्ति हिं एन दुवालस-चउन्स-सोलस -अद्धमास-मास-दोमास-तिमास-चउमास-पचमास-सम्मास भत्तिएहिं" यतुर्थભક્તિ-જે એક ઉપવાસ કરનાર છે, ષષ્ઠભક્તિક-જે બે ઉપવાસ કરનાર છે, અઠ્ઠમભક્તિક-ત્રણ ઉપવાસ કરનારા, દસમભક્તિક-ચાર ઉપવાસ કરનારા, એજ પ્રમાણે કાદરી–પાચ ઉપવાસ, ચતુર્દશ-છ ઉપવાસ, પડશ-સાત ઉપવાસ, અને Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण दुबालस-घउदस-सोलस-गद्धमास-मास-दीमास-तिमाम-चउमाम- पचमास छम्मासमत्तिएहि एप द्वादशचतुर्दश पोदशामाम मासहिमामनिमासचतुर्मामपत्र मासपण्मासभक्ति द्वादशादि पण्मासान्तभक्ततपश्चरणयुक्त, तथा-'उम्वि तचरएहि' उत्क्षिप्तचरकै उरिक्षत-गृहस्थन स्वप्रयोजनाय पापानाधृतमन्य पात्रास्थापितमेपानादिक चरन्ति अभिग्रहरिशपात्तपणाय गउन्तीति उत्ति प्तचरकास्तैः दायकेन पूर्वमेवपाकभाजनादुद्धृतस्य गोपरित्यर्थः, तथा 'निक्ली तचरएहिं ' निक्षिप्तचरकैः-निक्षिप्त-गृहस्थन स्वार्थ पारपानामृत्यान्यपात्रे स्थापितमन्नादिक चरन्ति-तथाविधाभिग्रहवशात्तपणाय गन्छन्तोति निक्षिप्त घरकास्तै पारुपात्रोघृतान्यपात्रस्थापिताहारग्रहणाभिग्रहयद्धिरित्यर्थः । तथा'अतचरएदि ' अन्तचरकै =अन्त नीरम तक्रमिश्रित पर्युपित च पल्लवणकाधन्न चरन्ति-गवेपयन्ति, ये ते तथा तैस्तथोक्तः अन्ताहारग्रहणाभिग्रहादिरित्यर्थे । तथा-' पतचरएहि ' प्रान्तवरकै प्रान्त-पुराणकुलत्यालयकाद्यन्न चरन्तिगवेपयन्ति ये ते तथा तेस्तथोक्तमान्ताहारग्रहणामिग्रहरद्धिरित्ययः । तथा'लूहचरएहि रक्षचरकै रूक्षभोजनग्रहणाभिग्रहादिः, तथा- समुदाणचरएहि' समुदानचरकैः उच्चावचकुलेषु सामान्यरूपेण भिक्षाग्रहणशीलैः, तथा-'अण्णगि लाइएहिं ' अन्नग्लायकैः-अन्नेन अभि यह विशेपात् पर्युपितानभोजनेन वाय क ग्लानिमापन कृश इत्यर्थस्तैः। तथा-'मोणचरएहि ' मौनचरको मौनमौनव्रत तेन चरन्ति ये ते मोनातका , तथाविधाभिग्रहयशाद् भिक्षाविशुद्धिप्रश्नाके करने वाले हैं, इसी तरह द्वादश-पाथ उपवास, चतुर्दश-छह उप वास, षोडश-सात उपवास, एव आर्द्धमास, मास, हिमास, त्रिमास, चतुर्मास,पञ्चमास, पण्मासभक्तिक-छ महीने के उपवास करनेवाले हैं उनके द्वारा यह सेवित हुई है, तथा (उरिखत्तचरएहिं, एव निक्खिचरएहिं, अतचरएहिं, पतचरएहिं, लूहचरएहिं, समुदाणिचरएहिं, अण्णगि लाइणहिं, मोणचरणहिं) उक्षिप्तचरक है, निक्षिप्तचरक, अतचरक है, प्रान्त चरक हैं, रूक्षचरक है, समुदानचरक हैं, अन्नग्लायक है, मौनचरक हैं। सभास, भास, मे मास, Y मास, २ भास, पाय मास, मन षण्मा सभक्तिक-छ भासन Stस ४२नारा द्वारा ते सेवायेद छ तथा 'उक्खित्त चरएहिं, एव निक्सितचरएहिं, अतचरएहि, पतपरएहिं, लूहचरएईि, समुदायचर एहि, अण्णगिलाएहिं, मोणारएहिं " रे तय२४ छ, विक्षिप्तय२४ छ, જે અતચરક છે, ને પ્રાન્તચરક છે, જે રૂલચરક છે, જે સમુદાનચરક છે, જે मनसाय छ, भौन-२४ छ तेसाना बारा ते पाये छ तथा "सस Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८३ सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरपनिरूपणम् तिरिक्त मौनमाम्याय सचरणशीला., तथा-' ससट्टाप्पिएहिं । ससृष्टकल्पिकैः-- 'समृण्टेन हस्तेन भाजनेन च दीयमानमन्नादि ग्राह्य' मित्येवरूपः क्ल्प नाचारो येपा ते समृप्टकल्पिकाम्तैस्तथोक्तै', तथा-'तजायससट्टप्पिएहिं ' तज्जातसह प्टफल्पिकै यत्मकार देयद्रव्य तजातेन-तत्प्रकारेण द्रव्येण ससृष्टे इस्तभाजने ताभ्या दीयमान ग्राह्यमित्येवरूपाकल्या-समाचारो येपा ते तज्जातससृष्टकल्पिकास्तैस्तथोक्त , तया ' उवनिहियएहिं ' उपनिहितकै =उपनिहित-दायकेन स्वय भोक्तु समीपे स्थापितम् , तेन चरन्ति ये ते उपनिहितकास्तैस्तयोक्तै तथा 'सुद्धसणिएहिं ' शुद्धपणिकैः-शङ्कादिदोपपरिहारतः पिण्डग्रहण शुद्धपणा तद्वन्तः शुद्धपणिकास्तैस्तथोक्तः, तथा' सखादत्तिएहिं ' सख्यादत्ति सख्यामधानाभिः पञ्चपादिपरिणामवतीभिः दत्तिभिः सकृद्भक्तादिपात्रपावलक्षणाभिश्चरन्ति ये ते सग्यादत्तिकास्तैस्तथोक्तै', तथा' दिलाभिएहि दृष्टिलाभिकैप्टस्य-दृष्टिगोवरीभूतस्यैवान्नपानादे. लाभो येपा ते दृष्टिलाभिकास्तैस्तथोक्तैः, तथा' अदिट्ठलाभिएहि ' अदृष्टलाभिकै नदृष्टस्यापि पाकगृहम यानिर्गतस्य कर्णात श्रुतस्य भक्तादेरदृष्टाद्वा पूर्वमनुपलब्धाद् दायकाद् लाभो येपामस्ति तेऽदृष्टला. भिकास्तैस्तथोक्तः, तथा' पुछलाभिएहि पृष्टलाभिकै पृष्टस्य हे साधो । कि ते दीयते इत्यादि रूपेण प्रश्नविपयी कृतस्य यो भिक्षामाप्तिरूपी लाभस्तदाग्रहअहिलै, तथा-'आयविलिएहि' आचामाम्लिकै आचामाम्लत्रतयुक्तैः, तथा'पुरिमड्रिएहि ' पूर्वादिकैः पारणायामपि पूर्वाद्वदिनेऽशनपानादि प्रत्याख्यानशीलैः, तथा-' एकासणिएहि ' एकाशनिकैः, पारणायामपि एकाशनव्रतधारिभिः, उनके द्वारा सेवित है। तथा ( ससट्टकप्पिएहिं, तज्जायससट्ठकप्पिएहिं, उवनिहिहिं, उद्धेसणणिएरि, सखादत्तिहिं, दिहलाभिहिं, अदिद्वलाभिएहिं, पुट्ठलाभिहिं, आयपिलिएहिं, पुरिमडिएहिं ) ससृष्टकल्पिक हैं, तज्जातसमृष्टकल्पिक है, उपनिहितक है, शुद्धपणिक है, सख्यादत्तिक हैं, दृष्टिलाभिक हैं, अदृष्टिलाभिक है, पृष्टलाभिक हैं, आचामाम्लव्रतयुक्त हैं, प्राद्धिक है, उनके द्वारा यह अहिंसा पाली गई है। तथा (एकामणिएहिं, निधिहएहिं, भिन्नपिंडवाइएहि, परिमियपिंडवाइर्दट्रकथिएहिं, तज्जायससटु कप्पिएहि, उवनिहिएहि, सुढेसणणिएहि, ससादत्तिएहिं दिदुलाभिहिं, अदिट्ठलाभेएहिं, पुट्ठालाभिएहिं, आयबिलिएहिं पुरिमट्टिएहिं " २ સઋષ્ટ કલ્પિક છે તાત સૃષ્ટ કલ્પિક છે, ઉપનિહિત છે, શુદ્ધષણિક સમ્પાદત્તિક છે દૃષ્ટિલાભિક છે, અષ્ટલાભિક છે, પૃષ્ઠલા-ભિક છે, આચામાન્સ વ્રત યુક્ત છે પૂર્વાદ્ધિક છે, તેમના દ્વારા આ અહિસા પાળવામાં આવે છે તથા " एकासणिहिं, निम्विइएहिं, भिन्नपिंडवाइएहिं, परिमियपिंडवाइएहिं, अताहारेहि, -- Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नण्याकरण तथा-' निविदह' निर्षिकृतिक वितिभ्यो पृतादिपदार्थ यो निर्गना ये ते नितिकातस्तथोक्तैः-रिकृतिमत्याग्यानशीलैरित्यर्थः, तथा भिण्णपिंडवाइएहि । मिनपिण्डपातिक-भिमस्य त्रुटितस्य पिण्डस्पतकादिस्पस्य मोद यस्य सतो भिन्नात पिण्डात यः पात:-पात्र पतन येपा ते मिन्नपिण्डपाविका स्तैस्तथोक्तैः, तथा परिमियपिंडवारपर परिमितपिंडपातिक-परिमितो द्रव्यादिः पिण्डपातो भक्तादिलामो येपामस्ति, ते परिमितपिंडपातिकास्तैस्तयो क्तैः, तथा-'जताहारेदि ' अन्ताहारैः अन्त नीरस तक्रमिलितपयुपित च बल्ल चणकापन्नगाहरन्ति ये ते ते, तया-' पताहारहि । प्रान्ताहार: मान्त-पुरातन कुलस्याल्लचगमायनम् आहरन्ति येते तेः, तथा-'अरसाहारहिं ' अरसाहारः अरसो रसर्जित आहारो येपा तेऽरसादारास्तैस्तथोक्त:-दिशादि सस्कार वर्जिताहारग्रहणादिः, तथा-'रिमाहारेडिं' विरमाहारः-पिरस-विगतरस पुराणधान्यौदनादि आहरन्तीति रिसाहारास्तैः, 'लूहाहारेहि ' स्वाहाकक्ष घृतादिनर्जितमाहरन्तीति स्क्षाहारास्तैस्तरोतः, तरा तुच्छाहारेहि ' तुच्छाहा अच्छउदरीचूर्णाटिक कुलत्यकोद्रनादिर च आहारति ये ते तुच्छाहारास्तैः, तथा-' अतजीनीहिं' अन्तनोनिभि –अन्तेन जीवन्ति ये तेऽन्तजीविनस्ते, 'पतीविहिं ' प्रान्तीनिभि. 'लहजीविहि' क्षजीविभीः 'तुच्छजीविहिं ' तुच्छनीनिमि , तथा 'उपसत्तजीनिहिं ' उपशान्तजीविभिः-शनादीना प्राप्ताव अताहारेटिं, पताहारेहि, अरसाहारेहिं, विरसाहारेटिं, लूहाहारेटिं,तुच्छा हारेहिं, अतजीविहि, पतजीविहिं, लहजीविहिं, तुच्छजीविहिं, उवसतजीविहिं, पमतजीविहि, विवित्तजीविहि, अखीरमसप्पिएहिं, अमजमसासिएहिं) एकाशनिक है, विकृतिप्रत्याख्यानशील है, भिन्नपिंडपातिक हैं, परिमितपिंडपातिक है, अन्ताहार वाले हैं, प्रान्ताहार वाले हैं, अर. साहार वाले है, विरसाहार वाले हैं, रूक्ष आहार करने वाले हे तुच्छा हार वाले है, अतजीवी हैं, प्रान्तजीवी है, रूक्षजीवी हैं, तुच्छ जीवी है। उपशान्त जीवी हैं प्रशान्त जीवी है, विविक्त जीवी हैं, अक्षीर मधुसपताहारेहि अरसाहारेहिं, विरसाहारेहि, लूहाहारेहि, तुच्छाहारेहि, अतजीविहिं, लीविडि, लूइजीविहि, तुच्छ जीविहि, उपसतजीविहिं पसत्यजीविहि विवित जीविहिं, असीरमहसपिह, अमज्न मसासिएहि "२ शनि छ, હિત પ્રત્યાખ્યાનશીલ છે, લિપિડ પાતિક છે, પરિમિતપિડ પાતિક છે, અને હાર વાળા છે, પ્રાન્તાહાર વાળા છે, અરસાહારવાળા છે વિરસાહાર વાળા છે, કક્ષ આહાર કરનારા છે, તુચ્છ આહાર કરવા વાળા છે, અન્તજીવી છે, પ્રાન્તજીવી છે, રૂક્ષજીવી છે, તુચ્છવી છે, ઉપરાન્તજીવી છે, પ્રશાન્તજીવી ને Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका १०१ सू० अहिंसाप्राप्तमहापुरुपनिरूपणम् ५८५ प्राप्तौ च सत्यागुपशा नतया जीनिये ते उपगान्तजीनिस्तैस्तथोक्तै रहिघृत्यावदनचरुवातीनामम्यानसमुपशान्तयम् । तथा 'पमतजीरिहि ' प्रशान्तजीविभिः-अन्तकृत्या कोपादीनामुपगमन प्रशान्तलम् । तया-'सिवित्तजीविहि' विविक्त नीविभिः विरिक्त दोपनितैरनादिभिनीरन्ति येते विविक्तजीग्निस्तैस्तथोक्तः, तथा-'अ वीरमहुमप्पिएहिं ' अक्षीरमधुसर्षिकै-क्षाकीर दुग्ध, मधुशरादिमधुरद्रव्यम् , मर्पि'घृतम् , एतानि न सन्ति अशनतया येपा तेऽक्षीरमधुस पिंप्यास्तैस्तथोक्तः, तथा-' अमज्जमसासिएहि । अमघमासाशिक-मघमास च यामाहारो नास्तीति भाव ,मामाहारस कैनथा 'ठाणा एनिस्मानातिगः स्थानकायोत्सगादिमितिशयेन गन्छन्ति प्राप्नुवन्ति ये ते स्थानातिगाः कायोत्सर्गका रिणस्तै' 'पडिमटाइपति' प्रतिमास्यायिकै -अनिमया = एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविगेपेणैः तिष्ठन्तीत्येर शीला ये ते प्रतिमास्थायिनस्तैस्तथोक्तः, तथा ' ठाणुादुर्श. ' स्थानउत्कुटुकै स्थानमुत्कुटुक येपाते स्थानोत्कुटकास्तैस्त थौस्तै, तथा-पीरामणिएहिं 'पीरासनिकै'=सिंहारानोपविष्टस्य भुविन्यस्तपा दस्य अपनीतसिंहासनस्येव यदवम्यान तद् पीरासन, तदस्ति येपा ते वीरासनिकास्तै, तथा-'णेसज्झिएहिं ' नपधिकै', निपद्या-समपुततयाऽवस्थान, तयां चरन्ति ये ते नैपधिशास्तैस्तथोक्तै' तथा-डडाइएहिं । दण्डायत्तिका दण्डा इव भूयस्ततया आयत शरीर दण्डायत तदस्ति येपा ते दण्डायतिकास्तैस्तथोक्तः, दण्डासनकारिमिरित्यर्थ , तथा-' लगडसाइरहि' लगण्डशायिकै =लगण्ड-4 माष्ठ, तद्गत् मस्तस्य पाना 'एट्टी' इति लोकमसिद्धाना च भुनिलगनेन पिक है अमदामामाशिक (मद्यमासादिक का सेवन नहीं करनेवाले) है उन्होंने उनका सेवन किया है। तथा जो (ठाणाहहिं, पडिमट्ठाइहिं, ठाणुकडिहिं वीरासणिए हिं, णेसज्जिाहिं डटाईएहिं, लगण्डसाईएहिं, एगपासगेहि, आयावएहि, अप्पावडे, अणिट्ठभएहि अकुडयएहिं, धुय केसमंसलोमनहे हिं, मव्वगायपडिकम्मविप्पमुक्केहि समणुचिन्ना) स्थाना तिग है, प्रतिमास्थायिक है, स्थानोत्कुटिक हैं, वीरासनिक हे, नैपधिक हैं, दण्डायतिक है, रगण्डशायिक हैं, एक्पाचक हैं, आतापक है, अप्रावृत જીવી છે, અક્ષીર મધુ સર્પિષ્ટ છે અમઘમામાણિક છે, તેમણે તેનું સેવન કર્યું छ तथा 'टाणाइ, पडिमट्ठाइहिं टाणुकडिएहि, वीरासणिएहिं, णेसज्जिएहि, डडाइहिं, लगणुमाईगहि पगपामगेहिं आयावडिं, अप्पावडेहिं अणिमएहि अकडु यएहि, युयके ममसोमनहेहि, सध्यगाउपडिकम्मपिपमुक्केहि समणुचिन्ना " स्थानाતિગ છે, પ્રતિમા સ્થાયિક છે સ્થાનકુટિલ છે, વીરાસનિક છે, નિધિ છે, છે, દડતિક છે, લગુડગાયિક છે, એક પાર્શ્વક છે, પ્રતાપ છે, અપ્રાવૃત્ત Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ प्रकार कोष्ठ-चोटी में प्रक्षिप्त अनाज प्रत समयतर मुरक्षित रश करता है उसी प्रकार प्राप्त उम रधि के प्रभाव से अवगत मृत्र और अर्थ ये दोनों बहुत समय तक मुनिजना को गारणाप में स्थिर रहते है-वे उन्हें विस्मृत नहीं होते। यह बुद्धि जिन मुगिजनो को प्राप्त हो जाती है वे कोप्ठयुद्धि के पगि मुनिजन । वायर स्प एक ही पद के उपलब्ध होने पर जो सैकड़ों पदों का अनुसरण कर लेते है ये मुनि जन पदानुसारी लन्धि के धारी कहे जाते है। जिस गति से एक री किसी इन्द्रिय से मुनिजन सर्वेन्द्रियाम्म विपरो को जान देते हैं उस लब्धि का नाम सभिन्नश्रोतस् है । यह लधि गिन मुनिजनों को प्राप्त होती है वे मुनिजन सभिननोता ! आचारांग नादि मृत्रो के पाठी जो मुनिजन होते है ये श्रुतधर कहे जाते है। अनेक प्रकार के परीपद और उपसर्गों के आने पर भी जिन मुनिजनों का मन धर्म से थोड़ा सा भी विचलित नहीं होता है उनका नाम मनोनलिक है। जो मुनि जन अपनी वाणी के द्वारा दुर्गादियों द्वारा प्रवपिन मिथ्याप्ररूपणाओं को ध्वस्त करने में समर्थ बनते है उन मुनियो को वचोयरिक कहा जाता है। जो मुनिजन कठिन से कठिन परीपह और उपसर्गो को सहन करनेमें शक्ति शाली होते हैं वे कायलिक हैं। मत्यादि ज्ञान से जिनका સુરક્ષિત રહે છે તેમ પ્રાપ્ત થયેલી આ લબ્ધિના પ્રભાવથી અવગતસૂત્ર અને અર્થ તે બન્ને ઘણા સમય સુધી મુનિજનોને ધારણા રૂપે સ્થિર રહે છે–તેમને તે ભૂલતે નથી આ બુદ્ધિ જે મુનિજનેને પ્રાપ્ત થાય છે તેઓ કોષ્ટબુદ્ધિના ધારક મુનિવરે છે. સૂત્રના અવયવરૂપ એક જ પદ ઉપલબ્ધ થતા જે. સેકડે પનું અનુસરણ કરી લે છે, તેવા મુનિજનને પદાનુસારીવબ્ધિના ધારક કહેવાય છે જે લબ્ધિના પ્રભાવથી કોઈ એક જ ઈન્દ્રિય વડે મુનિજન સર્વેન્દ્રિયગમ્ય વિષયને જાણી લે છે તે લબ્ધિનું નામ મિત્રોત છે આ લબ્ધિ જે મનિજનેને પ્રાપ્ત થાય છે તે મુનિજન સમિત્રોના કહેવાય છે, આચારાગ આદિ સૂત્રોનું પઠન કરનારા જે મુનિજન હોય છે તેમને ભુલધર કહે છે અનેક પ્રકારના પરીષહ અને ઉપસર્ગો નડવા છતા પણ જે મુનિજ તેનુ મન ધર્મમાથી તલભાર પU વિચલિત થતું નથી તેમને નોસ્ટિવ કહે જે મુનિજને દુર્વાદીઓ દ્વારા પ્રરૂપિત મિએ પ્રરૂપણાઓનું ખડન કરવાને સમર્થ થાય છે તે મુનિવરોને રોઢિા કહે છે જે મુનિજને આકરામાં આકરા પરીષાને ઉપસર્ગોને સહન કરવાને પક્તિમાન હોય છે તેઓ Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - सुदर्शिनी टीका म० । सू० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरषरूिपणम् ५८९ आत्मयल चढ़ायदा होता है वे ज्ञानवलिक है । निःशकित आदि अपने अगों से युक्त जिनका तत्वश्रद्धानरूप दर्शन होता है और इस दर्शन से जिनकी आत्मा यलि'ठ बनी रहती है वे दर्शनलिक है। पटनाय के जीवों का सरक्षण करना इसका नाम सयम है, इस सयमरूपचारित्र के बल से जिनकी आत्मा बलशाली होती हे वे चारित्रवलिक ह। जिनके मुख से निकला हुआ यचन सुनते ही मन और शरीर को सुखोत्पादक होता है वे क्षीरास्रवलब्धि के धारी मुनिजन हें। मिसरी आदि मिष्ट द्रव्य से भी अधिक मिष्ट-मधु शहद होता है, शहद जैसा मीठा जो वचन निकालते हे पोलते है वे मध्वास्रव लन्धि के धारी मुनिजन कहलाते हैं । सर्पिरास्त्रपलब्धि के प्रभाव से मुनिजनो का वचन अत्यतप्तुरभि:युक्त एव स्नेहयुक्त घृत के जैसा बोलने पर सुनने वालो को लगता है। महानस शब्द का अर्थ भोजन बनाने का स्थान है, उसके आश्रित होने से भोजन को भी महानस कहते है । जिनमुनिजनो को यह अक्षीणमहानस नामकी लन्धि उत्पन्न हो जाती है उनके असाधारण, अन्तराय के क्षयोपशम से अल्पमात्र भी पानपतित अन्न गौतमादिक ऋपियो की तरह एक लाख व्यक्तियो को दे देने पर भी जब तक वह स्यय न खालेवे कायनलिक उपाय छ भत्या ज्ञानयी रेनु मामा वृद्धि पान्यु डाय छ તેમને જ્ઞાનવરિશ કહે છે, નિ શકિત આદિ અગો વડે યુક્ત જેમનું તત્વ શ્રદ્ધાનરૂપ દર્શન હોય છે અને એ દર્શનથી જેમને આત્મા બળવાન બનેલા હોય છે તેવા મુનિવરેને વનસ્ટિક કહે છે છતાયના જીવોનું રક્ષણ કરવું તે સવમ કહેવાય છે તે સયમરૂપ ચારિત્રના બળથી જેમને આત્મા બળવાન હોય છે તેમને રાત્રિરસિ કહે છે જેમના મુખમાથી નીકળેલ વચન સાભળતા જ મન અને શરીરને સુખ થાય છે તેમને ક્ષીરાસન િધારી મુનિ કહેવાય છે સાકર વગેરે મિષ્ટ દ્રવ્ય કરતા પણ વધારે મિષ્ટ મધ હોય છે મધ જેવા મીઠા વચન જે બેલે છે તેવા મુનિજનોને મદત્તાત્તવાદિષ ધારક કહેવાય છે સર્પિરાસ્ટવલબ્ધિના પ્રભાવથી મુનિજનના વચન અત્યંત સુરભિ વાળા તથા સ્નિગ્ધ ઘીના જેવા શ્રોતાજનોને લાગે છે માનસ શબ્દનો અર્થ ભજન બનાવવાનું સ્થાન છે, તેનુ આશ્રિત હેવાથી ભેજનને પણ મહાનસ કહે છે જે મુનિજનોને આ ક્ષીણમાના નામની લબ્ધિ ઉત્પન્ન થાય છે તેમના અસાધારણ અન્તરાયના ક્ષપશમથી સહેજ પણ પાત્રમાં પડેલું અન્ન ગૌતમાદિ ઋષિયોની જેમ એક લાખ વ્યક્તિઓને આપી દેવા છતા પણ જ્યા સુધી તેઓ પોતે ખાઈ લેતા નથી ત્યા સુધી પૂરૂ થતુ નથી તેને ભાવાર્થ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९० प्रभम्यावरण तस्तक समाप्त नहीं होता है । तात्पर्य इसका यह है कि हम लन्धि धारी मुनिजनों के पात्र में दिया धोरा मी अन्न लागों मुनिजन भी उससे आहार कर ले परन्तु यह तपतक समाप्त नहीं होता है कि जयतक वर लब्धि धारी उसे रचय नहीं या देता है। हमी प्रकार इसके दाता के विषय में भी समझ लेना चाहिये । यह लब्धि गौतमादि ऋषि जनों को धी। चारणलब्धि का यह मतलब है कि जिस लब्धि के प्रभाव से आकाश में मुनिजनों का आना जाना रोता है। चरण-गमन-यह गमन जिनके होता है उनका नाम चारण है। हम लब्धि के धारी मुनिजन दो प्रकार के होते है-(१) विद्याचारण (२) जपाचरण । जिन विया के यल से यह आकाश में गमनागमनरूपलब्धि उत्पन्न होती है वे यिद्याचारण मुनिजन है । यर लन्धि उन मुनिराजों को उत्पन होती है जो निरन्तर पष्ठ पप्ठ की तपश्चर्या करते रहते हैं। तथा जो मुनि चारित्ररूप तपविशेप के प्रभाव से ऐमी लब्धि सपन्न बन जाते हैं कि वे जघा के ऊपर हाथ रखते ही आकाश में उड़ जाते हैं, इसी लन्धि का नाम जघा चारण है। यह लब्धि उन मुनिराजों को प्राप्त होती हैं जो निरन्तर अष्टम अष्टम की तपस्या करते हैं। इनमें जो विद्याचा रण मुनिजन होते हैं वे इसके बल पर जदीप की अपेक्षा से आठवा એ છે કે આ લબ્ધિધારી મુનિવરોના પાત્રમાં પડેલ અન્ન, તેમાથી લાખે મુનિજને આહાર લે તે પણ જ્યાં સુધી તે લબ્ધિધારી મુનિ પિતે જ તે ખાઈ જતા નથી ત્યા સુધી તે સમાપ્ત થતું નથી ઓ પ્રમાણે તેના દાતાને વિષે પણ સમજી લેવું આ લબ્ધિ ગીતમાદિ જિનેને પ્રાપ્ત થયેલ હતા " चरणलब्धि" सेवा प्रानी ना प्रभावी भुनिना 18tशमा सव२ ४२ ४३ श छ, धरण-मन-ते मन- तेरेभनु डाय છે તેમને વાળ કહે છે આ લબ્ધિધારી બે પ્રકારના મુનિજન છે () विद्याचरण (२) जघाचरण भने विधान प्रमाथी माशमा मनासमत३५ લબ્ધિ પ્રાપ્ત થાય છે તેઓ “વિ વાચારણ” મુનિજન કહેવાય છે આ લધિ નિરતર છઠ, છઠની તપસ્યા કરનાર મુનિજનેને પ્રાપ્ત થાય છે તથા જે સુનિયા ચારિત્રરૂપ તપ વિશેષના પ્રભાવથી એવી લવિયુક્ત થઈ જાય છે કે તેઓ જ ઘા પર હાથ મૂકતા જ આકાશમાં ઉડી જાય છે, એ લશ્વિનું નામ તથા જાણ છે નિરન્તર આઠમ અમની તપસ્યા કરનાર મનિજનોને આ લે પ્રાપ્ત થાય છે તેમાં જેઓ વિચાચારણ મુનિજન છે તેઓ તેના પ્રભાવથી જ બદ્રીપની અપેક્ષાએ આઠમો જે નદીશ્વર નામને દ્વીપ છે ત્યા સુધી જઈ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका भ० १ सू०४ अहिंसा राप्त महापुरुषनिरूपणम् ५९१ जो नदीवर नाम की द्वीप है वहा तक आ जा सकते है । तथा जो - जघाचारण मुनिजन है वे तेरहवा द्वीप जो रुचकचर द्वीप है वहा तक आ जा सकते है । विद्याचरण प्रथम उडान में मानुपोत्तर पर्वत तक चले जाते हैं, और दूसरी उडान मे नदीश्वर द्वीप तक, फिर वे जन वहा से होते हैं तो एक ही उडान में अपने स्थान पर वापिस आजाते है । तथा मेरु पर जाते हुए वे प्रथम उत्पात से नदनचन तक जाते है और द्वितीय उत्पात से पण्डक वनतक जाते है, फिर वे जब वहां से वापिस होते हैं तो एक ही उत्पात मे अपने स्थान पर आ जाते हैं। जधाचारण जो मुनिजन होते हैं वें जबूद्वीप की अपेक्षा एक ही उड़ान में तेरहवें रुचकवर द्वीप में पहुँच जाते हैं, और वहा से वापिस होते समय एक ही उडान में नदीश्वरद्वीप में आ जाते है । और दूसरी उडान में अपने स्थान पर आ पहुँचते है । यदि वे सुमेरुपर्वत पर जाने के अभिलाषी होते हैं तब प्रथम उत्पातमे पडकचन में जाते है । फिर वापिस होते समय एक ही उत्पात से नंदनवन में और द्वितीय उत्पातमें अपने स्थान पर आ जाते हैं। रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के जो धारण करने वाले होते हैं वे विद्याधारक है । एक उपवास का नाम चतुर्थभक्त, दो उपवास का नाम षष्ठभक्त, तीन उपवासका नाम अष्टभक्त, चार उपवास का नाम दशઆવી શકે છે, તથા જે જ ઘાચણુ મુનિજને છે તેએ તેરમે ચકવર નામને દ્વીપ છે ત્યા સુધી જઇ વે શકે છે. વિદ્યાચારણ પહેલા ઉડ્ડયનમા માનુષાન્તર પર્વત સુધી ચાટ્યા જાર છે, ખીજા ઉડ્ડનમા નદીશ્વર દ્વીપ સુધી જાય છે. પછી જ્યારે તેઓ ત્યાથી પાન ક્રે છે ત્યારે એક જ ઉડ્ડયનમા પેાતાના સ્થાને આવી જાય કરે તથા મેરુ જતા તેઓ પહેલા ઉડ્ડયનમા નદનવન સુધી જાય છે અને ખીજા ઉડ્ડયને પડક વન સુધી જાય છે પછી જ્યારે તેઓ ત્યાથી પાછા આવે છે ત્યારે એક જ ઉડ્ડયનમાં પેાતાના સ્થાને આવી જાય છે જધા ચરણુ મુનિજન જ ખૂદ્રીપની અપેક્ષાએ એક જ ઉડ્ડયનમા તેરમા રુચકવર દ્વીપમા પહેાચી જાય છે, અને ત્યાથી પાછા ફરતા એક જ ઉડ્ડયને તે નદીશ્વર દ્વીપમા આવી જાય છે અને બીજા ઉડ્ડયને પેાતાને સ્થાને પહેાચી જાય છે જે તેએ સુમેરુ પર્વત પર જવાની ઈચ્છા કરે તે પહેંલા ઉત્પાતથી પડક વનમા જાય છે, પછી પાછા ફરતી વખતે એક જ ઊત્પાતે નદન વનમા અને આજે ઉત્પાતે પેાતાના સ્થાનમા આવી જાય છે રાહિણી પ્રજ્ઞપ્તિ આદિ વિદ્યાએ ધારણ કગ્નારને વિદ્યાવાવ કહે છે એક ઉપવાસને ચતુર્થાં ભક્ત, ખે ઉપવાસને ષડભક્ત, ત્રણ ઉસવાસને અષ્ટમભક્ત, ચાર ઉપવાસને દશમભક્ત, つ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ प्रश्नध्याकरणसूत्र मभक्त, पांच उपवास कानाम द्वादशभक्तामर उपयाम का नाम चतुर्दश भक्त,सात उपचाम का नाम पोटामत, है। इन उपवामों को जो मुनिजन करते हवे चतुर्थ भक्तिक आदि मुनिजन है । इसी तरह जो अर्धमास आदिके उपचासों को करते हैं वे अर्धपाम आदि भक्तिक है। जो मुनिजन इस प्रकार का अभिग्रह विशेप धारण कर लेते हैं कि हम उसी आहार को लेगे कि जो आहार गृहस्वने अपने प्रयोजन के लिये पारुपात्र से उठाकर दुमरे पान में नहीं गया होगा। इस प्रकार का अभिग्रह रद्ध होकर जो आहार की गवेपणा करने के लिये अपने स्थान से परि गमन करते है वे उरिक्षप्त चरक मुनिराज हैं। तथा जो इस प्रकार का अभिग्रह करके आहार लेने के लिये अपने स्थान से जाते हैं कि में वही आहार ग्रहण करूँगा जो गृहस्थ ने अपने लिये पाक पात्र से निकाल कर दूसरे पात्र में रखा होगा। इस प्रकार के अभिग्रह को धारण कर जो आहार की गवेपणा करने के लिये अपने स्थान से बाहर भ्रमण करते ह वे निक्षितपरक है । तया जो मुनिजन अन्तनीरस, तक्राउमिश्रित और पर्युपित (वासी) वल्ल, चणक-चना ओदि પાચ ઉપવાસને દ્વાદરાભક્ત, છ ઉપવાસને ચતરાભક્ત, સાત ઉપનામને છેડ પભક્ત, કહે છે એ ઉપવાસે કરનાર જે મુનિજને છે તે ચતુર્ભક્તિક આદિ મુનિજન કહેવાય છે એ જ પ્રમાણે જે અમાસ આદિ સમયના ઉપવાસ કરે છે તેમને માતમ આદિ કહે છે જે મુનિજન એવા પ્રકારને અભિગ્રહ ધારણ કરે છે કે અમે એવો જ આહાર લઈશું કે જે ગૃહળેપિતાના ઉપયોગને માટે રાધવાના વાસણમાથી લઈને બીજા પાત્રમાં નહીં રાખ્યો હોય આ પ્રમાણે અભિગ્રહ બાધીને જે આહારની શોધમાં પોતાને સ્થાનેથી બહાર નીકળે છે તેમને વિર મુનિરાજ કહે છે તથા જે મુનિ રાજ એવા પ્રકારને અભિગ્રહ ધારણ કરીને પિતાને સ્થાનેથી આહાર લેવા નીકળે છે કે “હુ એ જ આહાર વહેરીશ કે જે ગૃહસ્થ રાઘવાના પાત્ર માથી પિતાના ઉપયોગ માટે બીજા પાનમાં કાઢી રાખ્યો હોય આ પ્રકારના અભિગ્રહ કરીને જે આહારની શોધ કરવાને માટે પોતાને સ્થાનેથી બહાર नाणे छ ते भुनिन निक्षिप्तचरक उवाय छ तथा मुनि२४ अतનીરસ, છાશમિશ્રિત * સી વલ, ચણા ચણા આદિ આહાર Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०५ अहिंसाप्राप्तमहापुरुषनिरूपणम् ५९३ आहार लेने का अभिग्रह धारण कर उसकी गवेपणा करते है वे अन्तवरक हैं । प्रान्तचरक वे मुनिराज हैं जो पुराने वल, चणक एव कुलत्थी आदि अन्न को लेने का अभिग्रह बद्ध होकर गोचरी करते हैं । तथा जो रूक्ष भोजन ही में लूँगा, इस प्रकार की प्रतिक्षा धारण करते हैं । जो ऊंचे नीचे कुलों मे सामान्य रूप से भिक्षा ग्रहण करने के स्वभाववाले होते हैं वे समुदानचरक हैं अन्नलायक - अन्नसे, अर्थात् अभित्र विशेष के कारण वासी अन्न खाने से ग्लान अर्थात् कृशदुरठे जो है वे अन्नलायक हैं । भिक्षा विशुद्धि के सिवाय जो मौन व्रत को धारण कर आहार के लिये जाते हैं वे मौनचरक साधु हैं । तथा जिनका ऐमा कल्प होता है कि जो आहार हमें ससृष्ट-भरे हुए हाथ और भाजन - पात्र से दिया जावेगा वही मै लुगा वे ससृष्ट कल्पिक हैं । तथा - तज्जातमसृष्ट कल्पिक वे मुनिजन हैं जो इसप्रकार का नियम लेते हैं कि जिस प्रकार का द्रव्य देने योग्य है वह उसी प्रकार के द्रव्य से ससृष्ट हस्त भाजन से दिया जावेगा तो ही लेगे । जो इस प्रकार का नियम धारण करते है कि दाता ने जिस आहार को अपने आप अपने पास खाने के लिये रखा होगा वही हम लेगे । इस प्रकार के अभिग्रह वाले પ્રાન્તવર મુનિંગજ તેમને કહે છે કે જેએ જૂના વાલ, ચણા, કળથી આદિ અન્ન લેવાના અભિગ્રહ કરીને ગોચરી કરે છે તથા જે એવી પ્રતિજ્ઞા ધાણ કરે છે કે હું ૩૯ (લૂખું ) ભાજન જ લઈશ તેમને દૂર કહે છે જે એક સરખી રીતે ઉંચા તથા નીચા કુળમા ભિક્ષા મહેણુ કરવાના સ્વભાવવાળા छे तेथे समुदानचरक हे अन्नग्लायक-यास मलिग्रहने अरणे वासी भन्न ખાવાથી ગ્લાન એટલે કે કૃશ-દુબળા પડી ગયેલા હોય તેમને અન્નગ્લાયક કહે છે ભિક્ષા વિશુદ્ધિના સિવાય, જે સાબુ મૌનવ્રત ધારણ કરીને આહારને માટે જાય છે તેમને મોન કરે છે તથા જેમને! એવા નિશ્ચય-ધારણા होय छे" माहार अमने ससृष्ट-लरेला हाथ तथा भाजन पात्रमाथी વહેરાવાશે તેજ અમે લઈશું ” એવા મુનિએને સદૃપિ કહે છે તથા જે મુનિજને એવા પ્રકારના નિયમ કરે છે કે વહેારાવવાનુ જે દ્રવ્ય હાય તે એજ પ્રકારના દ્રવ્યથી ભરેલ પાત્રમાથી વહેારાવવામા આવશે તે જ લઈશ, ते भुनिनाने तज्जातससृष्टकल्पिक रहे छे ? भुनिन्नो सेवा नियम धारण કરે છે કે દાતાએ પેાતે જ પેાતાને ખાવા માટે જે આહાર પેાતાની પાસે शय्यो होय ते सोन या अझरना अलिगड धारी भुनिया उपनि प्र० ७५ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण उपनिहितक है । शंका आदि दोपों के परिवार से शुद्ध आहार का ग्रहण करना इसका नाम शुद्धपणा है। हम शुद्धपणा से जो संपन होते हैं वे शुद्वैषणिक है। अर्थात शंका आदि दोपों से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करने का जिनका अभिग्रह होता है वे शुद्वैषणिक हैं। सख्याप्रधानवाली दत्तियों से जो गोचरी के लिये जाते है अर्थाद दाता के हाथ से देते समय साधु के पात्र में मक्तपान आदि का जो एक बार अविच्छिन्नरूप से गिरना उसे दत्ति करते हैं, इस प्रकार की पांच आदिदत्तियों के लेने का अभिग्रह जिन्हें होता है वेसग्यादत्तिक हैं। जिन साधुओ को ऐसा नियम होता है कि हम उसी आशर को लेगे जो हमारे दृष्टि गोचर होगा। इस प्रकार के नियमवाले साधु दृष्टिलामिक कहे जाते हैं। तथा अदृष्टलाभिक वे माधुजन है जो पाकगृह के भीतर से निकले हुए ऐसे भोजन को फि जो दृष्टि में तो आया नहीं है केवल कान से ही उसका नाम सुन लिया है उसे लेनेका नियम धारण करते हैं। अथवा-'पूर्व में अनुपलब्ध दाता से ही म भिक्षा लूगा' इस प्रकार का जो नियमविशेप रखते है वे अदृष्टलाभिक मुनि हैं। 'हेसाधो! मै आप के लिये क्या द् अर्थात् आपके लिये किस वस्तु की इस समय चाहना है ' इस प्रकार दाता के द्वारा प्रश्नविषयीकृत वस्तु દિવ કહેવાય છે શુષણ એટલે શકા આદિ દે રહિત શુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરે તે આ શુષણયુક્ત મુનિજનેને સુ વા કહે છે એટલે કે શતા આદિ દેથી રહિત શુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરવાને જેમને અભિગ્રહ છે તેઓ શુષણિક છે, સખ્યા પ્રધાનવાળી દક્તિથી જે ગોચરીને માટે જાય છે એટલે કે દાતાના હાથથી આપતી વખતે સાધુના પાત્રમા ભક્ત પાન આદિનુ ધારાવળી તૂટ્યા વિના એક વખતમાં જેટલું પ્રવાહી રેડાય તેને દત્તિ કહે છે આ પ્રકારની પાચ, છ આદિ દનિય લેવાનો જેમને અભિગ્રહ હોય છે તેમને સાત્તિશ કહે છે જે સાધુઓને એ નિયમ હોય છે કે જે આહાર અમારી નજરે પડશે તે જ આહાર અમે લઈ, એવા નિયમ 4साधुमाने दृष्ठिलाभिक उछ तथा अष्ठिलाभिक मुनिना तभन કહે છે કે જેઓ રસોડામાંથી બહાર કાઢવામાં આવેલ એવુ ભોજન સ્વીકારે છે કે જે નજરે પડયુ હતુ નથી પણ તેનું નામ જ કણે પડ્યું હોય છે અથવા “અગાઉ જેની પાસેથી દાન ગ્રહણ ન કર્યું હોય એવા દાતા પાસેથી જ દાન ગ્રહેણું કરીશ” એવા મુનિને કદામિ કહે છે “ હે મુનિરાજ હુ આપને માટે શુ આપુ “ એટલે કે ” આપ અત્યારે શી વસ્તુ લેવા માગે છે ... આ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४ अहिंसाप्राप्त महापुरुषनिरूपणम् ६६५ - को लेने का जिनके अभिग्रह होता है वे पृष्टलामिक मुनि है जो आचामा म्लत (आयल) से युक्त होते हैं ने आचाम्लिक मुनि है । पारणा के दिवस भी जो पूर्वार्द्ध के समय खाने पीने का त्याग कर देते हैं वे पुरिमडूपूर्वार्द्धक मुनि हैं । तथा जो पारणा के दिन भी एकाशनव्रत के वारी होते हैं वे एकाशनिक है। जो घृत आदि पदार्थरूप विकृतियों से विहीन ही भोजन लेते है वे निर्विकृतिक मुनि है । 'पात्र में गिरने पहिले जो भिक्षा की वस्तु सक्तुकादि रूप मोदक आदि पिण्ड अर्पित करते समय बीच में ही फुटकर पात्र में पड़ेगी उसे ही मै लगा' इस प्रकार जो नियम धारण करते है वे भिन्नपिंडपातिक मुनि है । ' इतनी ही वस्तु - भक्ष्यपदार्थ - खाने योग्य हम भोजन में खायेंगे' ऐसा नियम जिन साधुओं के होता है वे परिमितपिंडपातिक मुनि है। नीरस, तक्र (छ)मिश्रित और पर्युपित वल चणक आदि अन्न का जो आहार करते हैं वे अन्ताहारी मुनि हैं । पुरानीं कुलधी, वल, चना आदि अन्न का जो आहार करते है वे प्रान्ताहारी मुनि है । जो रसवर्जित आहार लेते हैअर्थात् जो मुनि हिंग आदि के वधार से वर्जित आहार को लेने के नियमवाले होते हैं वे अरसाहारी हैं। जिनमें रस नही होता ऐसे પ્રમાણે દાતા દ્વારા પ્રશ્નવિષયીકૃત વસ્તુ લેવાને! જેમને અભિગ્રહ હોય છે તેમને ધૃષ્ટામિળ મુનિ કહે છે જે મુનિ આચામામ્લવ્રત યુક્ત હેાય છે તેમને રામસ્જિદ મુનિ કહે છે પારણાને દિવસે પણ જે પૂર્વાદ્ધ મધ્યાહ્ન પહેલા भावाचीवानो त्याग उरेतेभने परिमट्ट - पूर्वार्द्धक भुनि नहे छे तथा ने પારણાને દિવસે પણ એકામન વ્રત ધારી હાય છે તેમને શિનિષ્ઠ કહે છે જે ઘી આદિ પદારૂપ વિકૃતિચાથી રહિત ભાજન લે છે તેમને નિવિન્નત્તિજ भुनि उहे हे " यात्रमा पड्या पडेसा ने लिक्षानी वस्तु-सक्तु जहि३५ भोट આદિ પિંડ અણુ કરતી વખતે વચ્ચેજ ભાગી જઈ ને પાત્રમા પડશે તેને જ હું લઈશ આ પ્રકારને નિયમ ધારણ કરનાર મુનિને મિવિકાતિર મુનિ કહે છે " मासी वस्तु खाद्य पदार्थ-हु लोटनमा पार्धश " એવા नियम धारण ४श्नार भुनिनाने परिमितपिंडपातिक छे नीरस, छाशમિશ્રિત, અને પષિત વાસી વાલ, ચણા આદિ અન્નને આહાર કરનાર મુનિજનાને અન્તાહારી કહે છે જૂની કળથી, વાલ ચણા આદિ અન્નને આહાર કરનાર મુનિઓને પ્રાન્તાદારી કહે છે જે રસરહિત આહાર લે છે એટલે કે જે મુનિ હિંગ આદિના વઘારથી રહિત આહાર લેવાના નિયમવાળા હોય છે "" Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ प्रभाकरणसूत्रे उपनिहित हैं। शंका आदि दोपों के परिसर से शुद्ध आहार का ग्रहण करना इसका नाम शुद्धेपणा है । हम शुद्रेपणा से जो संपन होते हैं वे शुद्रेणिक हैं। अर्थात् शंका आदि दोषो से रहित शुद्ध आहार को ग्रहण करने का जिनका अभिग्रह होता है वे शुद्धेषणिक है। सख्याप्रवानचाली दत्तियों से जो गोचरी के लिये जाते है अर्थात् दाता के हाथ से देते समय साधु के पात्र में भक्तपान आदि का जो एक बार अविच्छिन्नरूप से गिरना उसे दत्ति कहते हैं, इस प्रकार की पांच छ आदि दत्तियों के लेने का अभिग्रह जिन्हें होता है वे सग्यादत्तिक है। जिन साधुओ को ऐसा नियम होता है कि हम उसी आशर को लेगे जो हमारे दृष्टि गोचर होगा । इम प्रकार के नियमचाले साधु दृष्टिलाभक कहे जाते हैं । तथा अदृष्टलाभिक वे माधुजन हैं जो पाकगृह के भीतर से निकले हुए ऐसे भोजन को कि जो दृष्टि में तो आया नहीं है केवल कान से ही उसका नाम सुन लिया है उसे लेनेका नियम धारण करते है। अथवा – ' पूर्व में अनुपलब्ध दाता से ही मै भिक्षा लूगा' इस प्रकार का जो नियमविशेष रखते है वे अदृष्टलाभिक मुनि है। 'हैसाधो ! मै आप के लिये क्या दू अर्थात् आपके लिये किस वस्तु की इस समय चाहना है ' इस प्रकार दाता के द्वारा प्रश्नविषयीकृत वस्तु हितक अहेवाय છે શુદ્વૈષણા એટલે શકા માદિ દોષ રહિત શુદ્ધ આહાર ગ્રહણ કરવા તે આ શુદ્વેષણાયુક્ત મુનિજનેને શુદ્ધેયનિષ્ઠ કહે છે એટલે કે શકા આદિ દોષોથી રહિત શુદ્ધ આહાર ગ્રહણુ કરવાને જેમના અભિગ્રહ છે તેઓ શુદ્વેષણિક છે, સખ્યા પ્રધાનવાળી દૃત્તિયેાથી જે ગાચરીને માટે જાય છે એટલે કે દાતાના હાથથી આપતી વખતે સાધુના પાત્રમા ભક્ત પાન આદિત્તુ ધારાવળી તૂટ્યા વિના એક વખતમા જેટલુ પ્રવાહી રેડાય તેને વ્રુત્તિ કહે છે આ પ્રકારની પાચ, છ આદિ ત્તિયે લેવાના જેમના અભિગ્રહ હોય છે તેમને સાત્તિ કહે છે જે સાધુઓને એવા નિયમ હોય છે કે જે આહાર અમારી નજરે પડશે તે જ આહાર અમે લઈશું, એવા નિયમ वाणा साधुयाने दृष्टिलाभिक हे छे तथा अहष्ठिलाभिक सुनिन्नो तेभने કહે છે કે જેઓ રસાડામાથી મહારકાઢવામા આવેલ એવુ ભોજન સ્વીકારે છે કે જે નજરે પડયુ હતુ નથી પણ તેનુ નામ જ કહ્યું પડયુ હોય છે અથવા “અગાઉ જેની પાસેથી દાન ગ્રહણ ન કર્યું હેાય એવા દાતા પાસેથી જ દાન ગ્રહણ ४रीश” भेवा भुनिने अदृष्टलाभिक डे " डे भुनिशन्न । हु आपने भाटे " भेटले " શુ આપુ આપ અત્યારે શી વસ્તુ લેવા માગે છે ” આ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४ महिंसाप्राप्त महापुरुषनिरूपणम् ५९७ में कायोत्सर्ग आदि तपश्चरण करते है वे स्थानातिग मुनि है । एक रात्रिकी आदि मत्तिमाधारण कर कार्योत्सर्ग विशेषरूप में ही रहते हैं वे प्रतिमा स्थायी मुनि हैं। जिनका स्थान उत्कुटुक होता है, अर्थात् जो उत्कुट आसन से बैठते है वे स्थानोत्कुटुक हैं। सिंहासन पर बैठे हुए व्यक्ति का कि जिसके दोनों पैर नीचे टिके हुए हों जब वे सिंहासन नीचे से हटा लिया जाता है तो वह उस समय उसी स्थिति में अर्थात् अपनी पूर्व की स्थिति मे ही रहे तो उस आसन का नाम वीरासन है । इस आसन को जो आचरित करते हैं वे वीरासनिक मुनि है । जिस आसन में दोनों पुत समानरूप से जमे रहते है उस आसन का नाम निषद्या है । इस निपया से जो बैठते है वे नैपधिक है । द की तरह जिनका शरीर भूमिपर आयत-लना - जिस आसन मे रहता है - उसका नाम दडायत आसन है । इस आसन को जो आचरित करते हैं वे दण्डायतिक है । अर्थात् जिस में जमीन पर दड की तरह लया होकर सोया जाता है उस आसन को जो मुनि करते हैं वे दण्डायतिक मुनि कहलाते हैं । जिस आसन में दोनों पैरो की एडी और मस्तक का पृष्ठभाग जमीन पर लगा रहता है, तथा पीठ का भाग जमीन से उठा કહે છે. જે અતિશય પ્રમાણમા કાયાત્સગ આદિ તપશ્ચરણ કરે છે તેમને स्थानातिग अनि छे ने मेड रात्रिनी याहि प्रतिभा धारण उरीने प्रयोત્સના વિશેષરૂપમા રહે છે તેમને પ્રતિમાયાથી મુનિ કહે છે જેમનુ સ્થાન उत्सुटुन होय छे, भेटले } ? उमुटु आसने मेसे छे तेभने स्थानोत्कुटुक મુનિ કહે છે સિંહાસન પર બેઠેલ વ્યક્તિ કે જેના ખન્ને પગ નીચે ટેકવેલા હાય, તેની નીચેથી સિહામન ખસેડી લેવામા આવે છતા પણ તે જે પેાતાની એજ સ્થિતિમાએટલે કે પેાતાની અગાઉની સ્થિતિમા રહે તે તે આસનને વીરાસન કહે છે આ આસનનુ સેવન કરનાર મુનિને વીરાસનિષ્ઠ કહે છે જે આસનમા અને પુત્ર સમાન રીતે દૃઢ રહે છે તે આસનનુ નાથ નિષદ્યા છે આ નિષદ્યાથી જે બેસે છે. તેને નૈચિ કહે છે દડની જેમ જેમનુ શરીર જમીન પર આયત-લ ખાધેલ સ્થિતિમા જે આસનમા રહે છે તે આસનને डायत आसन उडेछे मा आसन हरनारने दण्डायतिक भुनि उडे छे मेटले કે જેમા જમીન પર ઇડની જેમ લાખા થઈ ને સૂઇ જવાય છે, તે આસન જે મુનિ કરે છે તેમને રૂ′ાયતિ મુનિ કહે છે જે આસનમા ખન્ને પગની એડી તથા મસ્તકને પાછળના ભાગ જમીન પર લાગી રહે છે તથા પીને Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रनव्याकरणसूत्र पुराने धान्य ओदन आदि अन से निष्पन्न हुए आहार को लेनेका जिनका नियम होता है घेचिरमाहारी मुनि है। यतादि के मयध से वर्जित हुए रूखे लूखे आहार को लेने का जिनका नियम होता है वे रूक्षागरी मुनि हैं । बदरी फल घोर के पिसे हुए चूर्ण आदि का, तया कुलधी कोद्रव आदि से घने हुए आहार का जो सेवन करते हैं वे तुच्छारारोमुनि है । इसी तरह अन्त आहार से जो जीते है वे अन्तजीवी, प्रान्त आहार से जो जीते है वे मान्तजीवी, रूक्षाहार से जो जीते है चे रूक्षजीवी, तुच्छाहार से जो जीते है वे तुच्छजीवी मुनि है । अगन आदि की प्राप्ति होने पर अथवा नहीं होने पर जिनकी बाहिरी चेष्टा में-मुम्ब में चक्षुरादि इन्द्रियों में म्लानता नहीं आती है वे उपशान्तजीवी मुनि है। तथा अन्तरग में जिन साधुओं के आहार आदि की अप्राप्ति में क्रोधा दि कपायो का उपशमन रहता है वे प्रशान्तजीवी मुनि है । दोपवर्जित अन्नादि के खाने से हो जो अपना जीवन निर्वाह करते है विविक्तजीवी मुनि है । क्षीर-दुग्ध,मधु शर्करा आदिमधुरद्रव्य और सर्पि धृत,इनपदार्थीका जो आहार नहीं करते है वे अक्षीरमधुसर्पिक मुनि है । मद्य और मास का आहार नहीं करने अमद्यासाशिक मुनि कहलाते है । जो अतिशयरूप તેમને અ ને કહે છે જેમાં રસ હોતે નથી એવા જૂના ધાન્ય, ચેખા આદિ અન્નમાથી તૈયાર થયેલ આહાર લેવાના નિયમવાળા મુનિઓને વિસાણા કહે છે ઘી વિનાને લુખો આહાર લેવાને જેમને નિયમ છે તેમને હાર મુનિ કહે છે બાર આદિ ફળોનું ચૂર્ણ આદિતથા કળથી,કેદરા વગેરેમાંથી બનેલાઆહારનું જે સેવન કરે છે તેમને તુઠ્ઠારી કહે છે, એ જ પ્રમાણે અન્ત આહારથી જે જીવે છે तभर अन्तजीवी, प्रान्त माहारथी रे वे छ भने प्रान्तजीवी, ३क्ष मालाરથી જે જીવે છે તેમને બીવી અને તુચ્છ આહારથી જે જીવ છે તેમને સુનીવર મુનિ કહે છે ભેજન આદિ પ્રાપ્ત થાય કે ન થાય છતા પણ જેમની મુખમુદ્રામા, ચક્ષુરાદિ ઈન્દ્રિમાં પ્લાનતા દેખાતી નથી તેમને ૩૫ ન્તિવી મુનિ કહે છે તેવા અન્તર ગમાં જે સાધુઓને આહારાદિની એપ્રા મિમા કોઠાદિ કષાયોનુ ઉપશમન રહે છે તેઓ કાતરી મુનિ છે, દોષા રહિત અન્નાદિ ખાઈને જ જે પિતાને જીવન નિર્વાહ ચલાવે છે તેમને વિવિ #જીવી મુનિ કહે છે ક્ષીર-દૂધ, મધુ-સાકર આદિ મધુર દ્રવ્ય તથા સપિત એ પદાર્થોને જે આહાર નથી કરતા તેમને અક્ષરમપુર મુનિ કહે भय भने भासने मा२ ४२ता नथी तभने अमद्यम न Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ १ ० ४ अहिंसाप्राममहापुरुपनिरूपणम् य' धीरमतिबुद्धपश्च-धीरा-स्थिरामतिः अवग्रहादिका, बुद्धिः ओत्पत्तिक्यायेपा ते तथोक्ताः, तथा 'जे ते 'ये ते, 'आसीविसउग्गतेयकप्पा' आशीविपी. ग्रतेजः कल्पा आशीविपासास्ते च ते उग्रतेजस घोरविषधराश्च आशीवि पोग्रतेजसस्तत्तल्याः ये ते-आशीविपोग्रतेजः फल्पा । तथा 'निच्छयववसायप ज्ज तकयमईया' निश्चयव्यनसायपर्याप्तकृतमतया निश्चयः वस्तुनिर्णयो, व्यवसाय उद्यमः पुरुपकारइति यावत् तद्विपये पर्याप्ता-परिपूर्णा कृता-विहिता मतियुद्धियस्ते तथोक्ता सफलवस्तुनिर्णायका इत्यर्थः तथा-' णिच्च सज्झायज्ज्ञाणा' नित्य स्वाध्यायध्यानाः-नित्य-सर्वदा स्वा-यायो-वाचनादिकम् , ध्यानन्दुनितश्चित्तनिरोद्धरूप येपा तथोक्ताः, अतएव ' अणुवद्वधम्मज्झाणा' अनुनद्धधर्म यानाःअनुबद्ध-धारामशाहन्यायेन निरन्तर घृत धर्मध्यानम्-आज्ञाविचयापायरिचयविपाकविचयसम्थानपिचयरूप यैस्ते, तथा-'पचमहव्ययचरित्तजुत्ता' पञ्चमहानवचारित्रयुक्ता =पञ्चमहानतानि-माणातिपातादिनिरमणलक्षणानि तद्रूप यच्चारित तेन एव औत्पत्तिकी आदि बुद्धि जिनकी धीर-स्थिर है, तथा (जे ते आसी विसउग्गतेयकप्पा) जो सर्प के समान उग्रतेज वाले है, (निच्छुयवव. सायपलत्तकयमइया) निश्चयवस्तुनिर्णय करने मे एव उद्यम-पुरुषार्थ करनेमें जिन्होने अपनी बुद्धि को परिपूर्ण बना लिया है, अर्थात् जो अच्छी तरह से समस्त वस्तुओं का निर्णय करने वाले है तथा (निच्च सज् यज्झाणा) जो नित्य ही वाचनादिरूप स्वा-याय में एव आर्चरौद्ररूप दुर्ध्यान से चित्त निरोधरूप ध्यान मे मग्न रहते हैं, इसीलिये (अणुबद्धधम्मज्माणा) वारा प्रवाह न्याय से जिनका निरन्तर आज्ञाविचय, अपायविचय, सस्थानविचय रूप धर्मध्यान होता रहता है, तथा ( पचमहन्वय चरित्तजुत्ता) जो प्राणातिपातादि विरमणरूप पवमहानतों से અવગ્રાહારિરૂપ મતિ અને ઔત્પત્તિકી આદિ બુદ્ધિ ધીર-સ્થિર છે, તથા બરે ते आसी विसउग्गतेयकप्पा" अपना समान उतरवाणा छ, “निच्छय ववसाय पज्जतकयमइया" निश्चयवस्तु निर्णय ७२वामा भने धम-पुरुषार्थ કરવામાં જેમણે પિતાની બુદ્ધિને પરિપૂર્ણ બનાવી લીધી છે, એટલે કે જે सारी शत समस्त वस्तुमान निय ७२नार छ, तथा “निच्च सज्झायज्झाणा" २ नित्यवायना३ि५ स्वाध्यायमा भने भातशेद्र३५ दुध्यानमाथी थित्तनिरोध३५ ज्ञानमा बीन २९ छे, तेथी ' अणुपद्धधम्मजाणा" धारा प्रवाह ન્યાયથી જેમનુ નિરન્તર આજ્ઞાવિય, અપાય વિચય, સસ્થાન વિજયરૂપ ધર્મ ध्यान &u ४२ छ, तथा “पचमहन्वयचरितजुला" प्रातिपाताल qि२ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ प्रश्नध्याकरणसूत्र तथा-' सुयधरविदितत्यकायद्विणो' तारनिर्दितार्यकायबुद्धयः श्रुतघरा:श्रुतज्ञानिनस्तपिदितो ज्ञातोऽर्थकः या तत्त्वज्ञानराशिः सुतसमही यया सा श्रुतधररिदितार्थकाया, तादृशी उद्धियेपा ते तथोक्ताः, तथा-'धीरमाबुद्धिणो रहता है-उस आसन को लगहासन कहते है । इस आमन से जो मुनि शयन करते हैं वे लगउशायी मुनि है । सोते समय जो एक ही करवट से सोते है-करयट नहीं बदलते है-ऐसे मुनि एक पार्षिक है। जो साधुजन, शीत, उष्ण आदि की आतापना लेते है वे आतापक मुनि है। हेमन्त ऋतु में जो प्रावरण से रहित होते है ये अनावृत मुनि है।जो मुनि अपने मुख के श्लेष्मा के अपरिष्ठापक होते हैं वे अनिष्ठीवकमुनि हैं। जो मुनि शरीर में खुजली चलने पर भी उसे नहींतुनाते हैं वे मुनि अकण्ड यक है । तथा जो अपने केशों का मूछ दाढी आदि के यालों का-तथा नखों का सस्कार नहीं करते है-जैसे है वैसा ही उन्हें रखे रहतेर ऐसे मुनि धृतकेशश्मश्रुलोमनखवाले कहलाते है यह जिन कल्पिक मुनियोंका तथा जो मुनि अपने समस्त शरीर का सस्कार नहीं करते है वे मुनि सर्व, गात्रप्रतिकर्मविमुक्त हैं। तथा (सुयधरनिदियत्यकायबुद्धिणो) श्रुतज्ञा; नियों द्वारा तत्त्वज्ञानराशिरूप श्रुतसमूह जिसके प्रभाव से विदित होता है ऐसा जिन्ही की बुद्धि है तथा (धीरमइवुद्धिगो) अवग्रहादिरूपमति ભાગ જમીનથી અદ્ધર રહે છે, તે આસનને લગુડાસન કહે તે આસને જે મુનિ શયન કરે છે તેમને ઢાકાથી મુનિ કહે કહે છે સૂતી વખતે જે એકજ પડખે શયન કરે છે-પડખુ ફેરવતા નથી–તેવા મુનિઓ પશ્ચિક કહે વાય છે જે મુનિજને શીત, ગરમી આદિની આતાપના લે છે તેમને વાતો જ મુનિ કહે છે, હેમન્ત ઋતુમાં જે પ્રાવરણથી રહિત હોય છે તેમને હકીકૃત મુનિ કહે છે જે મુનિ પિતાના મુખના શ્લેષ્માના અપરિશ્તાપક હેાય છે તેમને નિકીત્ર કહે છે જે મુનિ શરીરમાં ખુજલી ચળ આવવા છતા પણ તેને ખજવાળતા નથી તેમને જલ્દવ મુનિ કહે છે જે મુનિ પિતાના કેશન-મૂછ, દાઢી આદિના વાળના તથા નખના સંસ્કાર છેદન) કરતા નથી, જેવા હોય તેવાજ તેને રહેવા દે છે, એવા મુનિઓને धृतकेशश्मश्रुलोमनसा ४ दे तथा मुनि पोताना "स्त शरीना स २२ २ नथी ते मुनिमाने सर्वगोत्रप्रतिकमविमुक्त " . छे तथा “ सुयधर विदियत्थकायबुद्धिणो" श्रुतज्ञानीमा १२॥ तत्वज्ञानाति श्रुतसमूना प्रला वथा विहित थाय छ मेवी मनी मुद्धि तथा परिमखु । Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा अ १ सू० ४ अहिंसाप्राप्तमहापुरुपनिरूपणम् ६०१ में नहीं आया। इसका कारण केवल यही दुआ कि उनकी अन्तरग दृष्टि इस महनीय तत्व तक गहराई के साथ नही परेच पाई। इसके वास्त वि अन्तरग स्वरूप का विवेचन यदि हमे कहीं मिलता है तो वह एक वीतराग परपरा में ही मिलता है। इसका कारण यहाँ यह हुआ कि जिन तीर्थकर गगधर आदिकों ने उस तत्व का विवेचन किया वे यहुत ही बड़ी समष्टिवाले थे। ज्ञान के पूर्ण विकास से वे इतने अधिक विज्ञानी पन चुके थे कि प्रत्येक पदार्थ अपनी समस्त अवस्थाओ के साथ उनके उस विशिष्ट जान में दर्पण मे प्रतिनिम्न की तरह स्पष्ट रूप से प्रतिविम्बित झलकता रहता या । अत• इस प्रकार के ज्ञान से उन्होंने अहिंसा भगवती के वास्तविक स्वरूप का दर्शन किया है तभी जाकर उन्होंने अपने सिद्धान्तो में इसका सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन किया है। यह विवेचन उमस्थों से नहीं हो सका । यही यात सूत्रकारने अपने इस सूत्र द्वारा प्रदर्शित की है वे कहते है कि इस अहिंसा भागवनी के दर्शन उन महापुरुपोंने किये है कि जो अपरिमित केवल ज्ञान और दर्शन के अधिपति थे। शील, विनय, तप और सयम से जिन्होंने अपनी आत्मा को पिलकुल 'सौटची के' सोने जैसा बना लिया था। जिनके पास राग द्वेष से विशाल योधा पछाड़ खाकर सर्वथा विनष्ट हो चुके ગ્રામ કેવળ એ જ આવ્યું કે તેમની અન્તરગ દૃષ્ટિ આ મહાન તત્વમાં ઉડાણથી પ્રવેશી નથી તેના વાન્તવિક અન્તરગ રવરૂપનું વિવેચન આપણને વિતરાગ પર પગ સિવાય અન્ય સિધ્ધાતેમા મળતું નથી તેનું કારણ એ છે કે જે તીર્થ કર, ગણધર આદિએ આ તત્વનું વિવેચન કર્યું છે તેઓ બહુ જ દીર્ઘદૃષ્ટિવાળા હતા જ્ઞાનના પૂર્ણ વિકાસથી તેઓ એટલા બધા વિજ્ઞાની બની ગયા હતા કે પ્રત્યેક પદાર્થ તેની સમસ્ત અવસ્થાઓ સહિત તેમના એ વિશિષ્ટ જ્ઞાનથી જેમ દર્પણમાં પ્રતિબિંબ દેખાય તેમ સ્પષ્ટરૂપે દેખાતા હતા, તેથી એ પ્રકારના જ્ઞાનથી તેમણે ભગવતી અહિંસાના વાસ્તવિક સ્વરૂપનું દર્શન કર્યું હતું, તેથી જ તેઓએ પિતાના સિદ્ધાન્તોમાં તેનુ સૂમિમાં ચમ વિવેચન કર્યું છે, આ વિવેચન ઘો વડે થઈ શકયું નહીં એ જ વાત સૂત્રકારે પિતાના આ સૂત્ર દ્વારા પ્રદર્શિત કરી છે તેઓ કહે છે કે આ ભગવતી અહિંસાના દર્શન તે મહાપુએ કર્યા છે કે જેઓ અનન્ત જ્ઞાન અને દર્શનના અધિપતિ હતા, જેમણે શીલ, વિનય, તપ અને સયમ દ્વારા પિતાના આત્માને “સે. ટચના ” ના જે વિશુદ્ધ બનાવ્યું હતું જેમની પાસે રાગદ્વેષરૂપી સમર્થ ઢા ભે ભેગા થઈને તદ્દન નષ્ટ થયા હતા ત્રણેક જેમની Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० प्रझम्याकरणसूत्रे , ' युक्ता येते तथा - 'समियासमिसु ' समिताः समिति - ईर्यादिपसमितिभिर्युक्ता इत्यर्थः तथा - ' समियाना ' शमितपापा: शमितान्तं पापमाणातिपातादिरूप येषा ते तथोक्ताः, तथा 'उन्निहनगरच्छा परिवयजगत्सलाः पद् जीवन काय हिता इत्यर्थः तथा-येते ' णिच्चमष्पमत्ता ' नित्यमममताः सर्वदा प्रमादरहिता, सन्ति, 'एडिय ' एतैश्च पूर्वोक्तगुणविशिष्टेः, तथा-' अण्णेहि य' अन्यैव अनुकूललक्षणैर्गुणवद्भिर्या सा=जगत्मसिद्धा एपा भगवती अहिंसा ' अणुपालिया ' अनुपालिता- रामनः काययोगेरागधितेत्यर्थः ॥ ४ ॥ 1 युक्त घने हुए हैं, तथा ( समिइसुसमिया ( जो ईर्या आदि पाच ममितियों से युक्त है और इसी कारण से ( समिहपाचा ) जिन्हों के प्राणातिपातादिरूप पाशात हो चुके हैं, तथा (छन्निर जगवच्छला ) जो सदा छरका के जीवो की रक्षा करने में वत्सल भागवाले होते हैं तथा ( णिचमप्पमत्ता) जो पांच प्रमादों से नित्य रहित होते हैं (एहि) ऐसे इन पूर्वोक्त गुणों से विशिष्ट महात्माजनों द्वारा तथा (अण्णेहिय) इस प्रकार के लक्षणों से युक्त अन्य गुणवालों द्वारा (जा सा भगवई ) यह जगत्प्रसिद्ध भगवती अहिंसा ( अणुपालिया ) मन, वचन, और काय, इन तीन योगों की एकाग्रता से अच्छी तरह आराधित की गई है। भावार्थ -- अहिंसा तत्व को यद्यपि प्रत्येक सिद्धान्त कारोंने अपने २ सिद्धान्तानुसार अपनाया है । परन्तु इस तत्व का बाहिरी स्वरूप विवेचन करते ही वे रह गये है । अन्तरग स्वरूप विवेचन उनकी दृष्टि भगुइय पाथ भहाव्रतोथी युक्त थयेस छे, तथा " समिइ सुसमिया " ने धर्या આદિ પાચ સમિતિયાથી યુક્ત છે અને એ જ કારણથી " समिइपावा " જેમના પ્રાણાતિપાતાદિપ પાપ શાન્ત થઇ ગયા છે, તથા "छव्विहजगव ज्छला ” જે સદા છકાયના જીવાની રક્ષા કરવામા વત્સલ ભાવ વાળા હાય छे, तथा " णिच्चमप्पमत्ता " ने सहा याथ प्रभाहोथी रहित होय "एएहि " मेवा से पूर्वोक्त गुणोथी युक्त भहात्मानो द्वारा तथा " अण्णेहिय " मा ८८ પ્રકારના ગુણેાથી યુક્ત અન્ય ગુણવાન દ્વારા जा सा भगवई " मा नविध्यात लगवती भडिमा “अनुपालियो" भन, वयन, भने अय, से त्राही ચેગેાની એકાગ્રતાથી સારી રીતે આરાધવામા આવી છે ભાવા—અહિંસા તત્ત્વને એ કે દરેક સિદ્ધાન્તકારાએ પેાત પેાતાના સિદ્ધાન્તાનુસાર અપનાવેલ છે, પણ આ તત્ત્વના ખાદ્ય સ્વરૂપનુ જ વિવેચન તેમણે ક અન્તર્ગ સ્વરૂપ વિવેચન તેમની નજરે ન પડયુ તેનુ પિર Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० १ सू० ० अहिंसापालकफर्तव्यमियणम् ६०३ न वि गरिहणाए नवि हीलणानिदणा गरिहणाए भिक्खं गवसियन्व, न वि भेसणाए न वि तज्जणाए न वि तालणाए न वि भेसणतज्जणतालणाए भिक्ख गवेसियव्वं, न वि गारवेणं न वि कुहणाए न वि वणीमगयाए न वि गारवकुहणवणीमगयाए भिक्खं गवेसियत्व, न वि मित्तयाए न वि पत्थणाए न वि सेवणाए न वि मित्तयपत्थणसेवणाए भिक्ख गवेसियव, अण्णाए अगड्डिए अदुहे अदीणेअविमणे अकल्लुणे अविसाई अपरिततजोगी जयणघडणकरणचरियविनयगुणजोगसपउत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए । इम च ण सव्वजगजीवरक्खणदयणाए पावयणं भगवया सुकहिय अत्तहिय पेच्चा भविय आगमेसिभद्द सुद्धं नेयाउय अकुडिलं अणुत्तर सव्वदुक्खपावाणविउसमणं॥५॥ टीका-'इम च पुढपी' इत्यादि 'पुढशीदगअगणिमारुयतरुगणतसथावरसम्वभूयसनमदयद्वयाए । पृथ्वीदकाग्निमारुततरुगणासस्थावरसर्वभूतसयमदयार्थ, तत्र-पृथिवी-प्रसिद्धा, दक= पानीयम् , अग्निः, मारुतो-चायुः, तरुगणा बनस्पतिसमूहः, त्रमा द्वीन्द्रियादयः, स्थावरा:-पृथिव्यादिपञ्चकम् , एतेपा सर्वभूतानाम्यमाणिना सयमो रक्षण जो इस अहिसारूपप्रथमसवरद्वार को पालन करने के लिये उद्यत हैं उन्हें क्या करना चाहिये सो कहते है-'इम च' इत्यादि ! टीका-(पुढवी-दग-अगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावर-सव्वभूय सजभ दयट्ठाए) पृथिवी, दक-जल, अग्नि, वायु, वनस्पति समूह, द्वीन्द्रियादिक पाच स्थावर, इन सब प्राणियों की रक्षा निमित्त दयारूप જેઓ આ અહિંસારૂપ પ્રથમ સવરદ્વારનુ પાલન કરવાને માટે તૈયાર थया तेभो शु उनमे ते - "इम च" त्या ___साथ-(पुढवी, दा, अगणि, मारुय, तरुगण ,तस,थापर,सत्यभूय,सजमदयट्टाए) पृथिवी, ६४, स, शनि, वायु, वनस्पति मह, दीन्द्रियाडि स, पृथि. વ્યાદિક પાચ સ્થાવર, એ બધા પ્રાણુઓની રક્ષા નિમિત્ત દયારૂપ પ્રજનને Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रश्नध्याकरणसूत्रे अथ ये-अहिंसारपायमरापणार पालगितमागास्तपा यहि पेयं तदाह__ मूलम्-इमच पुढवी-दग-अगणि-मारुय-तरुगण-तसथावरसबभूयसंजयदयट्टयाए सुद्ध उछंगसियव्य अकयमकारियमणाहुयमणुद्दि अकीयफडनवकोडिहिं परिसुद्धदसहि यढो. सेहि विपमुक उग्गम उप्पायणेसणासुद्धववगयचुय चइयचत्तदेह च फासुयं च न निसिजकहापयोयणस्खासु ओवणियं न तिगिच्छामतमूलभेसज्जकाजहेउं न लकवणुप्पाय सुमिणजोइसानिमित्त कहकुहकप्पउत्त न विडभणाए न विरक्षणाए न वि सासणाए न विडभणरक्खणसासणाए भिक्खगवेसियव्वं, न वि वदणाएन विमाणणाए न विपूयणाए नवि वदणमाण णपूयणाए भिक्ख गवेसियत्व, न वि हीलगाए न वि निंदणाए थे। तीन लोक जिनकी चरण सेवा कर अपने आपको धन्य मानता था । उन्ही के आदेशानुसार उनकी शिष्यप्रशिष्य परपरा में हुए मनः पर्यय और अविधिज्ञानधारियों ने इस अहिंसा भगवती को भेद प्रभेदो से जाना, और उसे विशेपरूप से देखा । पूर्वधरों ने इसे श्रुतनियद्ध किया। वैक्रियलब्धिधारियो ने इस भगवती का आजन्म पालन किया । एव आभिनियोधिक ज्ञानियों से लेकर सर्वगात्रप्रतिकर्म विमुतादि अनेक महापुरुषो ने इस अहिंसा भगवती को अपनी २ शक्ति के अनुसार बहुतही अच्छी तरह से पाला है ॥ सू०४ સેવા કરીને પિતાની જાતને ધન્ય માનતા હતા એમના જ આદેશ પ્રમાણે તેમની શિષ્ય-પ્રશિષ્ય પર પરા થઈ ગયેલ મન પર્યાય અને અવધિજ્ઞાનીઓએ આ ભગવતી અહિંસાને ભેદ-પ્રભેદે સહિત જાણી અને તેનું વિશેષરૂપે દર્શન કર્યું વક્રિય લબ્ધિધારીઓએ આ ભગવતીનું જીવનપર્યત પાલન કર્યું અને આમિનિબેધિક જ્ઞાનીઓથી લઈને સર્વગાત્ર પ્રતિકર્મ વિરુડતા આદિ અનેક મહાપુરૂષોએ આ ભગવતી અહિંસાનું પોત પોતાની શક્તિ પ્રમાણે ઘણું જ સારી રીતે પાલન કર્યું છે સુ ૪ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ सुदशिनी टीकाम० १ सू० ५ अहिंसापालक कर्तव्यनिरूपणम् नानुजानाति ३, न पचति ४, न पाचयति ५, पचन्त नानुनानाति ६, न क्रोणाति ७, न क्रापयति ७, क्रीणन्त नानुजानाति ९, इत्येता नवकोटयः. आभिः 'परिमृद्ध' परिशुद्ध, तथा- दसहिं य दोसेहिं ' दशभिश्च दोपैः-शङ्कितादिदशदोपैः 'विप्पमुक' पिममुक्तम्, 'उग्गमउप्पायणेसणासुद्ध' उद्गमोत्पादनपणाशुद्ध-आधारुर्मादयः पोडप उद्गमदोपाः, धान्यादयश्च पोडश उत्पादनादोपाः, तद्रूपाया एपणा-गवेपणा, तया शुद्धम् , तथा-' वगयचुयचइयचत्तदेह च' व्यपगतन्युतत्याजितत्यक्तदेह च-तत्र व्यपगताः स्वय पृथग्भूता आगन्तुका पियीलिकादयः, च्युताः मृताः स्वत परतोना दातव्यस्त्वाश्रिता उसने साधु के निमित्त दूसरों से हिंसा कराई हो २, और न साधु के निमित्त हिमा करने वाले की अनुमोदना की गई हो ३। तथा माधु के निमित्त जो स्वय न पफाया हो १, दूसरों से नहीं पकवाया गया हो २ और न जिसमें पकाने वाले की अनुमोदना की गई हो ३, तथा साधु के निमित्त जो पैसा देकर न खरीदा गया हो १, न दूसरों से खरीदवाया गया हो २ और न जिसमें खरीदने वाले की अनुमोदना की गई हो । इस प्रकार की इन नव कोटियो से विशुद्ध आहार आदि की गवेपणा साधु को करनी चाहिये । (दसदिय दोसेहिं विप्पमुक्क) जो आहार शंकित आदि दश दोपों से परि वर्जित हो (उग्गम उपायणेमणासुद्ध) उद्गम, उत्पादनरूप एपणा-गवेषणा से शुद्ध हो-आधाकर्म आदि सोलह उद्गमदोप है, धात्री आदि सोलह उत्पादना दोपो है। इन बत्तीस दोषों से जो रहित हो तथा (वधगयचुयचइयचत्तदेह) (व्यपगत) जिस કરાવી ન હોય, કે આધુને નિમિત્તે હિંસા કરવાની અનુમોદના થઈ ન હોય, તથા સાધુને નિમિત્તે જે તેણે જાતે બનાવ્યું ન હોય, બીજા પાસે બનાવરાવ્યું ન હોય, કે જેને પકવવાની અનુમોદના અપાઈ ન હોય તથા સાધુને નિમિત્તે જે પૈસા આપીને ખરીદ કર્યું ન હોય, કે બીજા પાસે ખરીદ કરાવાયુ ન હોય, કે ખરીદનારને ખરીદવાની અનુમોદના કરાઈ ન હોય, એ રીતે નવ आरे विशुद्ध माडा२ महिनी साधुसे गवेष। २वी नये (दसहिय दोसेहिं विप्पमक) मालारास होषाथीडित हाय, (उगम पायणे सणा सुद्ध) अद्भ, पा1३५ मेपणा-गवेषणाथी शुद्ध ।य,-माधाम मासिक હમ દેષ છે, વાત્રી આદિ મેળ ઉત્પાદન દેવ છે-એ બનીસ દોથી જે રહિત डाय, तथा (ववगयचुयचइयचत्तदेह ) (०५५)२ माडामाथी Saale ल! ते १ सयई गया जाय, तया (चुय) ७. स्वय चव गया Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ प्रश्नध्याकरण तिनिमित्ता या दराया तस्या अयोजन तम्म, ' म ' इद च-वक्ष्यमाण 'सुद्ध' शुद्ध-निर्दोप 'उठ' उसस्तोक स्तोक ग्रहणम्पगगनादिक 'गोसय न्च 'गवेपितव्यम् , यथा-लूनानक्षेत्राकणादान तथैव साधुनाऽपि गृहस्थार्थ निष्पादितमन्नादिकस्तोक स्तोक गरेपणीयमिति भार । कीदगम्-उन्छ गर्वपि तव्यम् ? इत्याह-'अपय ' अत-सातु निमितमनिप्पादितम् , 'कारिय' अकारितम् अन्यद्वारा न कारितम् , तथा-'अगाय' अनाहतम् गृास्थेन साथी रनिमन्त्रणपूर्वक दीयमानम् , ' अणुट्टि' अनुदिष्टम् आदेशिकादि दोपवर्जितम् , तथा-'अकीयफड' अफ्रीतकृत-साधूना कते मृत्वेनानिप्पादितम् । एतदेव वर्णयन्नाह-'नवकोडोहिं ' नाफोटिभिः, न हन्ति १, न घातयति २, घ्नन्त प्रयोजन के लिये (इम च) इस वक्ष्यमाण (सुद्ध उठ गवेमियव्य) शुद्ध-निर्दोप, आहोर आदि की उठ गोड़े २ रूप में गवेपणा करना चाहिये, अर्थात् जिस प्रकार काटे गये खेत से कणों का आदान किया जाता है उसी प्रकार साधु को गृहस्थ ने अपने लिये बनाये हुए भोजन आदि में से थोड़ी थोड़ी मात्रा में उसके यहा से आहार आदि लेना चाहिये। आहारादि (अरुय) साधु के निमित्त उसने नहीं बनाया हो और (अकारिय) न दूसरों से उसने बनवाया हो (अगाय ) बुलाकर-अर्थात्-निमत्रण करके जो न दिया जाय, (अणुद्दिट्ट) औद्देशिक आदि दोपों से जो धर्जित हो, तथा (अकीयकड ) साधुओं के निमित्त मूल्य देकर जो नहीं खरीदा गया हो तथा (नय कोडिहिंपरिसुद्ध) नवकोटियों से अर्थात् नौ प्रकार से जो परिशद्व हो, अर्थात् जिस आहार में साधु के निमित्त जीवो की हिंसा नहीं हुई हो, न भाट (इम च ) इसवक्ष्यमाण, (सुद्व उठ गवेसियव्य) शुद्ध, निषि माहार આદિની ચેડા થોડા પ્રમાણમાં ગવેષણ કરવી જોઈએ, એટલે કે જેમ લાયેલ ખેતરરમાથી કણનુ આદાન કરાય છે, એ જ પ્રમાણે સાધુએ, ગૃહસ્થ દ્વારા પિતાને માટે બનાવાયેલ ભોજન આદિમાથી થોડા થોડા પ્રમાણમાં આહાર माहि सेवन ती ते माEि (अकय) साधुने भाट मनाच्या डावा नही, मने ( अकारिय) भीगतनी पासे मनापशव्या डावा नडा (अणाहुय) मासावीने मेटले ते निमत्रीने २ न अपाय, (अणुट्ठि) सोशि भाई होपोथी २ २हित डाय, तथा (अकीयनड) साधुने भाटे भत्य मापान ते महायेसन डाय,du ( नवकोडिहि परिसुद्ध) नप अटीय। વડે-નવ પ્રકારે જે પરિશુદ્ધ હોય, એટલે કે તેણે સાધુને નિમિત્તે બીજા પાસે હિંસા Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदोशनी टीका १०१ ० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् ६०७ भूतादिनिग्रहलक्षणः, मूलम् रक्षरल्यादीनां, भैपज्य-व्यसयोगरूपम् , एतच्चतुष्टयरूप कार्यमेव हेतु यंत्र तत्तथो भैक्ष न गोपितव्यमित्यग्रेण सम्पन्धः । तथा-'न लपवणुप्पायमुमिण जोइस निमित्तकहकुहकप्पउत्त' न लक्षणोत्पात स्वमज्योतिपनिमित्त कथाकुहक प्रवक्त-तत्र लक्षण-स्त्रीपुरुषादि लक्षण, उत्पाताः भुकम्पादिशास्त्राणि, स्वमः समगास्त्रम् , ज्योतिप-नक्षत्रादि शुभाशुभसूचक शास्त्रम् निमित्तम्भूतभविपदादि सूचक शास्त्रम् , कथा-कामकथा सूचक शास्त्रम्, कुहक-परेपा विस्मयोत्पादकप्रयोगः, एमि प्रयोगैर्विस्मितेन दायकेन प्रयुक्त इलाज, मत्र-भूतादि ग्रह के निग्रह निमित्त उपायभूत मत्र का प्रयोग, मूल-वनीपधि, एव भैषज्य-अनेक औषधि मिश्रित दवा, ऐसी भिक्षा मुनिजनों को कल्प्य नहीं होती है । तथा न लक्खणुप्पायसुमिणजोइसनिनित्तकहकुहकप्पउत्त) जिस भिक्षा की प्राप्ति मुनि को लक्षणो के स्त्री पुरुप आदि के चिह्नादिको के-दिखाने का प्रदर्शन करना पडे, भूकप आदि के शास्त्र का कथन करना पड़े, स्वप्नशास्त्र का, जोतिपशास्त्र का, निमित्त शास्त्र का, काम कथा सूचक शास्त्र का, तथा दूसरों के लिये आश्चर्योत्पादक प्रयोगो का सहारा लेना पडे, ऐसी भिक्षा मुनिजन के लिये कल्प्य नहीं है । तात्पर्य इसका यह है कि दाता को उनके हस्त आदि की रेखाओ से प्रसन्न करके, भूकप आदि का शुभाशुभफल कथन करके, काम वद्भक कथाओ को कह करके, सप्न शास्त्र का प्ररूपण करके, ज्योतिषशास्त्र में अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करके तथा आश्चर्यकारी प्रयोगों को दिखा करके यह कहना कि मैं बहत ભૂતાદિગ્રહના નિગ્રહને માટે ઉપાયભૂત માત્રને પ્રયોગ, મૂળ-વનૌષધિ, અને ભિષજ્ય-અનેક ઔષધિ મિશ્રિત દવા, આદિ બતાવવું પડે એવો આહાર મુનિसनाने ये नही तथा (नलक्खणुप्पाय सुमिणजोइसनिमित्त कह कुहकापड ) જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ માટે મુનિને સ્ત્રી-પુરુષ આદિના ચિહ્માદિકને બતાવવાનું પ્રદર્શન કરવું પડે ભૂક૫ આદિના શાસ્ત્રોનું કથન કરવું પડે, સ્વમ શાસ્ત્ર, જ્યોતિષશાસ્ત્ર, નિમિત્ત શાસ્ત્ર, કામકથા સૂચક શાસ્ત્ર, તથા બીજાને માટે આશ્ચર્યોત્પાદક પ્રયોગ વગેરેની મદદ લેવી પડે એવી ભિક્ષા મુનિજનને કલ્પ નહી તેનું તાત્પર્ય એ છે કે દાતાને તેમના હસ્ત આદિતિ રેખાઓ વડે ખુશ કરીને, ભૂતપ આદિનુ શુભાશુભ ફળ કહીને, કામવર્ધન કથાઓ કહીને, સ્વપ્ન શાસનું પ્રરૂપણ કરીને, જ્યોતિષશાસ્ત્રમાં પિતાની વિદ્વતા બતાવીને, તથા આશ્ચર્યકારક પ્રગો બતાવીને પિને બહુ જ મહાન વિદ્વાન છે એવી છાપ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ प्रेमव्याकरण पृथिवी कायिकादयः 'चइय' त्यानिता दातव्यपदार्थान दायकेन भृत्यादि द्वारा पृथयारिता , अथवा 'चत्ता' सयमेर दायकेन त्यक्ता पृथमृता देवा जीवशरीराणि यस्मादाहारातत् तथोक्तम् , अतण्य 'फागुप च' प्रामुक च% व्यपगतनीव च, एतादृशम्-माहा मानादिक गपेपितव्यम् । तथा कीटम भरे न गपितव्यम् ? इत्याह-न निसिनाहापयोयगाखामु ओषणीय' न निपद्य कथाप्रयोजनार याश्रुतोपनीत, वत्र-निपय आसने उपविश्य यत् स्याप्रयोजन-धर्म कयानिमित्तम् आग्या युगा-भाग्यान प्रतिदिशात्र, तेन तथाविधयाकरणेन, यत् उपनीतम् धर्मकयाः दारफेन दातुमानीतमगनाटिक, वन गवेपितव्यमित्यग्रेण सम्पन्धः । तथा-नविगिछामनमूलभेमज्जकन्नड' न चिकित्सामन्त्रमूलभपज्य कार्य हेतु = चिकित्मा-रोगनिवारणलपणा, मन्त्रा आहार से पिपीलिकादिक जीव स्य अलग हो गए हों तथा (चुय) जीव स्वय चव गये हों अथवा अग्न्यादि के सयोग से चवगये हों, (चइय) दाता ने भृत्यादि द्वारा पृथक् करा दिये हों, (चत्त) स्वय दाता ने पृथक् करदिये हो, (फासुय च) मासुकोसा अशन आदि मुनिजनों को कल्प्य है और ऐसे ही आहार की उन्हें गवेपणा करनी चाहिये। तथा जो ऐसा न हो उसकी उन्हें गवेपणा नहीं करनी चाहिये, इसी विषयको अब सूत्रकार "न निसिज" इत्यादि पदो द्वारा प्रकट करते हैं, वे करते हैं कि (न निसिज्जक कहापभोयणक्खामु ओवणीय) आसन पर बैठ कर धर्म कथा सुनाते समय यदि कोई दाता उन मुनिजन के पास देने के लिये अशनादि देय द्रव्य लाया हो तो वह उन मुनिजनों को कल्पता नही लेना है । तथा-(न तिगिच्छामतमूलभेसजकजउ ) जिस भक्ष्य की प्राप्ति में मुनि को चिकित्सा-रोगनिवारण के निमित्त डाय मया भनि महिना सयोगथी नाश पाम्या डाय, (चय) होता ना । २० २०या जाय, (चत्त) हातात भने म यो डाय, (फासुयच ) प्रामुक सेवा माडार माहि भुनियान उधे छ भने यस જ આહારની તેમણે ગષણું કરવી જોઈએ, તથા જે આહાર એ ન હોય તેની ગષણા તેમણે કરવી જોઈએ નહીં એ જ વિષયને હવે સૂત્રકાર “ન निसिज" त्यादि हो । प्रगट उरे छ तेसा मयावे छ (न निसिज कहायओयणकखासुओरणीय ) भासने मेसीन मया सात मत કેઈ દાતા તે મુનિને આપવા માટે અશનાદિ દેયદ્રવ્ય લાવ્યું હોય તે તે निनाने नथी, तथा (नतिगिच्छामत भूल भेसज्जकजहेउ) २ આહારની પ્રાપ્તિ માટે મુનિને ચિકિત્સા–રેગ નિવારણ માટે ઈલાજ, મત્ર Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ०१ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् 09 भूतादिनिग्रहलक्षण', मूलम् वृक्षल्ल्यादीनां, भैपज्य-व्यसयोगरूपम् , एतच्चतुष्टयरूप कार्यमेव हेतु यंत्र तत्तयो भैक्ष न गोपितव्यमित्यग्रेण सम्पन्धः । तथा-'न लावणुप्पाय मुमिण जोडस निमित्तकहकुहकप्पउत्त' न लक्षणोत्पात स्वम ज्योतिपनिमित्तफयाकुहक प्रयक्त-तत्र लक्षण-स्त्रीपुरुषादि लक्षण, उत्पाताः =भुकम्पादिशास्त्राणि, स्वामः-समगास्त्रम् , ज्योतिप-नक्षत्रादि शुभाशुभसूचक शास्त्रम् निमित्त-भूतभविष्यदादि सूचक शास्त्रम् , कथा कामकथा सूचक शास्त्रम्, कुहक-परेपा विस्मयोत्पादकप्रयोगः, एमि प्रयोगैर्विस्मितेन दायकेन प्रयुक्त इलाज, मत्र-भूतादि ग्रह के निग्रह निमित्त उपायभूत मत्र का प्रयोग, मूल-वनौपधि, एव भैपज्य-अनेक औपधि मिश्रित दवा, ऐसी भिक्षा मुनिजनों को कल्प्य नहीं होती है । तथा न लक्खणुप्पायसुमिणजोइसनिनित्तकहकुहकप्पउत्त) जिस भिक्षा की प्राप्ति मुनि को लक्षणो के स्त्री पुरुप आदि के चिह्नादिको के-दिखाने का प्रदर्शन करना पडे, भूकप आदि के शास्त्र का कथन करना पड़े, स्वप्नशास्त्र का, जोतिपशास्त्र का, निमित्त शास्त्र का, काम कथा सूचक शास्त्र का, तथा दूसरों के लिये आश्चर्योत्पादक प्रयोगो का सहारा लेना पडे, ऐसी भिक्षा मुनिजन के लिये कल्प्य नहीं है । तात्पर्य इसका यह है कि दाता को उनके हस्त आदि की रेखाओ से प्रसन्न करके, भूप आदि का शुभाशुभफल कथन करके, काम वर्द्धक कथाओं को कह करके, सप्न शास्त्र का प्ररूपण करके, ज्योतिपशास्त्र में अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करके तथा आश्चर्यकारी प्रयोगो को दिखा करके यह कहना कि में रहत ભૂતાદિગ્રહના નિગ્રહને માટે ઉપાયભૂત માત્રને પ્રગ, મૂળ-વનૌષધિ, અને ભિષ-અનેક ઔષધિ મિશ્રિત દવા, આદિ બતાવવું પડે એવો આહાર મુનિबनाने पेनडी तथा (नलक्खणुप्पाय सुमिणजोइसनिमित्त कह कुहकप्पट ) જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિને માટે મુનિને સ્ત્રી-પુરુષ આદિના ચિહ્નાદિકને બતાવવાનું પ્રદર્શન કરવું પડે ભૂક પ આદિના શાસ્ત્રોનું કથન કરવું પડે, સ્વમ શાસ, જ્યોતિષશાસ્ત્ર, નિમિત્ત શાસ્ત્ર, કામકથા સૂચક શાસ્ત્ર, તથા બીજાને માટે આશ્ચર્યોત્પાદક પ્રગો વગેરેની મદદ લેવી પડે એવી ભિક્ષા મુનિજનોને જે નહી તેનુ તાત્પર્ય એ છે કે દાતાને તેમના હસ્ત આદિતિ રેખાઓ વડે ખુશ કરીને, ભૂતપ આદિનુ શુભાશુભ ફળ કહીને, કામવર્ધન કથાઓ કહીને, સ્વપ્ન શાસ૩ પ્રરૂપણ કરીને, તિષશાસ્ત્રમાં પોતાની વિદ્વતા બતાવીને, તથા અ પ્રગો બતાવીને પિતે બહુ જ મહાન વિદ્વાન છે એવી છાપ Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ গােঙ্কজনুই पृधिमी कायिकादय. 'चाय' त्यागिता दातव्यपदार्यात् दायफेन भृत्यादि द्वारा पृथवारिता., अबरा चित्ता'श्यमे दायकेन त्यता पृथकृता देहा जीपशरीराणि यस्मादाहाराचन् नयोक्तम् , अनार 'फागृय च' प्रामुक च%3D व्यपगतजीव च, एतादृशम्-माहात्मशमादिक गपेपित यम्। तथा कीटम भक्ष न गवेपितव्यम् ? इत्याह-'न निसिनकहापयोयगाखास ओरणीय' न निपद्य कथामयोजनाग्याश्रुतोपनीत, वन-निपा आसने उपविश्य यत् कथाप्रयोजन-धर्मकयानिमित्तम् आया युवाभापान मतिपदशाव, तेन तथाविधयाकरणेन, यत् उपनीतम् धर्ममयाक दारफेन दातुमानीतमशनाटिक, वन गवेपितव्यमित्यग्रेण सम्मन्यः । तथा-'न तिगिकामनमूलभेमजसज्जहेउ' न चिकित्सामन्त्रमूलभपज्य कार्य हेतु = चिकित्सा रोगनिवारणल गा, मन्त्रा आहार से पिपीलिकादिक जीव स्य अलग हो गए हों तया (चुय) जीव स्वय चच गये हों अथवा अग्न्यादि के सयोग से चवगये हों, (चय ) दाता ने भृत्यादि द्वारा पृथक करा दिये हों, (चत्त) स्वयदाता ने पृथक कर दिये हो, (फासुय च) प्रासुकऐसा अशन आदि मुनिजनों को कल्प्य है और ऐसे ही आहार की उन्हें गवेपणा करनी चाहिये। तथा जो ऐसा न हो उसकी उन्हें गवेपणा नहीं करनी चाहिये, इसी विषयको अव सूत्रधार "न निसिज्ज" इत्यादि पदो द्वारा प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि (न निसिज्जक कहापोयणस्खासु ओवणीय) आसन पर बैठ कर धर्म कथा सुनाते समय यदि कोई दाता उन मुनिजन के पास देने के लिये अशनादि देय द्रव्य लाया हो तो वह उन मुनिजनों को कल्पता नहीं लेना है । तथा-(न तिगिच्छामनमूलभेसजकजहेउ ) जिम भैदय की प्राप्ति में मुनि को चिकित्सा-रोगनिवारण के निमित्त हाय अथवा मनि मानिस योगथा नाश पाभ्या हाय, (चइय) हाता न। द्विा२२ २ ४२१व्या खाय, (चत्त) हातात तेभने सध्या हाय, (फासुयच ) प्रासुकमेव माहा२ मा भुनियान ४क्ष्ये छ मने मेवा જ આહારની તેમણે ગવેષણ કરવી જોઈએ, તથા જે આહાર એ ન હોય તેની ગષણ તેમણે કરવી જોઈએ નહીં એ જ વિષયને હવે સૂત્રકાર ન निसिज" त्या हो । अट २ मा भयावे (न निसिज्ज कहायओयणकखासुओरणीय) आस मेसी घमा समाती मते न કઈ દાતા તે મુનિને આપવાને માટે અશનાદિ દયદ્રવ્ય લાવ્યું હોય તે તે निधनाने ४८५ता नथी, तथा (नतिगिच्छामत भूल भेसज्जकजहेउ) र આહારની પ્રાપ્તિ માટે મુનિને ચિકિત્સા-ગ નિવારણ માટે ઈલાજ, સત્ર Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवशिनी टीका अ० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम ६०१ रक्षणशासनेन — भित्तस' भैक्ष ‘गवेसियब ' गवेपितव्यम् । तथा-'न वि वदणाए' नापि वन्दनया-नापि प्रशसया “दिग्व्यापिनो भवद्गुणाः पूर्वश्रुताः, परमद्यभवानस्माभि'प्रत्यक्षीकृतः' इत्येन रूपया, बन्दनगन्दोऽत्र प्रशसावाचकः, 'न नि माणणया' नापि माननया आसनादि प्रदानेन ' न विपूयणाए ' नापि पूजनया-दायकाय किंचिद्वस्तुप्रदानरूपया एतदेव समुदायेनाह-'न वि पदणमागणपूयणाए' नापि वन्दनमाननपूजनया 'भिक्तख गवेसियव्य ' भैक्ष गवेपित. आदि को पढ़ा दगा तो मुझे इसके यहां से भिक्षा मिलती रहेगी" ऐसे विचार से जो भिक्षा प्राप्त हो तो वह भिक्षा भी मुनि को नहीं लेनी चाहिये । इसी तरह जिस भिक्षा की प्राप्ति मे युगपत् दभन, रक्षण और शासन इनका प्रयोग करना पड़ता हो उस तरह से भी मुनि को निक्षा की गवेपा नहीं करनी चाहिये । तथा (न वि वदणाण, न विमाणणाण, न वि प्रयणाण, न वि वदणमागणपूषणाए, न वि हीलणाए, न वि निंदणाए, न वि गरिह गाए, नवि हीलगा निंदणा गरिहणाए भिक्ख गवेसियन्त्र) जिस भिक्षा की गवेपणा करने में साधु को दाता की " आप की गुणराजि दिगन्ततक फैली हुई है- आपकी प्रशंसा मैं ने पहिले से ही सुन रखी है परन्तु साक्षात्कार आप का आज ही हुआ है। इस प्रकार से बदना-प्रशंसा करनी पडे ऐसी भिक्षा साधु को कल्प्य नहीं है । यहा वदन शब्द प्रशसार्थक है । जिस भिक्षा की प्राप्ति में दाता को आमन आदि का प्रदान पूर्वक सन्मान करके अर्थात् आसनादि प्रदान द्वारा दाताको प्रसन्न करके भिक्षा की प्राप्ति करनी पडे-ऐसी भिक्षा भी साधु को लेना उचित नहीं है। इसी तरह दाता તેને ત્યાથી ભિક્ષા મળ્યા કરશે” એવા વિચારથી જે ભિક્ષા પ્રાપ્ત થાય તે ભિક્ષા પણ સાધુને કપે નહી વળી જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમાં યુગપત,દભ, રક્ષણ અને શાસનને પ્રગ २। ५३ से ४ानी लिक्षानी प्राप्ति भुनिने ४८पे नही तथा (न वि वद णाए, न विमाणणाए, न वि पूरणाए, न व दणमाणणपूणयाणए, न वि हीलणाए न वि नि दणाए, न वि गरिहणाए न वि हिलणा निंदणा गरिहणाए भिक्ख गवे सियव्व) २ मिक्षानी प्राप्ति माटे साधुन हातानी मानी शुशि हित સુધી વ્યાપેલ છે, મે આપની પ્રશંસા પહેલેથી જ સાભળી હતી પણ આપને સાક્ષાત્કાર તે આજે જ થ” એ રીતે વદણ-પ્રાસા કરવી પડે એવી ભિક્ષા સાધુને કલ્પ નહી અહી વદન શબ્દ પ્રશમાના અર્થમાં વપરાય છે આસનાદિ આપીને દાતાનું સન્માન કરવું પડે અથવા તે રીતે તેમને પ્રસન્ન કરવા પડે તે પ્રકારની ભિક્ષા પણું સાધુને કતપે નહી વળી દાતાને પિતાની તરફથી प्र० ७७ Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ प्रभाकरमर भैक्ष न गवेपितव्यम् । तथा-' न पिटमणा' नापि दम्मनया मायाप्रयोगेण भैक्ष गवेपितव्यम् , एनपि रावणाए' नापि रक्षणयादायकस्तुरक्षणेन, 'न वि सासणाए' नापि शासनया-शिक्षणेनन्तर पुत्रपौत्रादिक शिक्षयिष्यामीति कयनेन समुदायेनाह-'न पिढभणरखणसासणा' नापि दम्मनघड़ा भारी विद्वान् । अतः मुझे यह अच्छी तरह अली भिक्षा देगा। इस प्रकार के उपायों का जिम मिक्षा की प्राप्ति में सारा लेना पड़े वह भिक्षा मुनि को फल्पा नहीं कहीं गई है. अर्थात इस प्रकार की क्रिया से मुनि को भिक्षा लेने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। तथा (न विडभणाए ) मायाचारी का सहारा लेकर भी भिक्षा वृत्ति मुनि को नहीं करनी चाहिये, अर्थात जिस भिक्षा की गवेषणा करने में माया का प्रयोग करना पड़े ऐसी भिक्षा भी मुनिजन को कल्प्य नहीं है। (नवि रस्खणाण, न वि सामणाण, न विडभण रक्खणसासणाए मिश्ख यवेसियञ्च ) इसी तरह जिस भिक्षा की गवेपणा करने में प्राप्ति करने में-दायक की वस्तु के सरक्षग का भार अपने ऊपर आया हो, अर्थात-दाता यद कहे कि "महाराज! आप इस वस्तु को देखे रहना मैं अभी आकर आपको भिक्षा देता ह-इस प्रकार दाता अपनी वस्तु के सरक्षण करने का भार मुनि को सोपता हो और पीछे आकर भिक्षा देता हो तो वह भिक्षा मुनि को कल्प्य नहीं है। इसी तरह जीस भिक्षा की प्राप्ति में मुनि को यह भाव जगे कि “ मैं इस दाता के पुत्र पोत्र પાડીને દાતા પાસેથી સારા પ્રમાણમાં સારી ભિક્ષાની આશા રાખવી, વગેરે ઉપાયને જે ભિક્ષામાં સહારે લેવું પડે તેવી ભિક્ષા સાધુઓને તપે નહી એટલે કે એ પ્રકારના ઉપાયથી સાધુઓએ ભિક્ષા લેવાના પ્રયત્ન કરવા नध्य नडी तथा (नविउ मणाए) भायायारीनी भह सधन पर मुनिम ભિક્ષાવૃત્તિ કરવી જોઈએ નહીં એટલે કે જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ માટે માયાને प्रयास ४२३। ५3 मेवी मिक्षा भनिनोन पे नही (न विरक्खणाए, न विसासणाए, न विड़ भण रक्खण सासणाए भिक्स गवेसियव्व) प्रमाण જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમા, દાતાની વસ્તુના સરક્ષણનો ભાર પિતાના પર આવ્યા હાય, એટલે કે દાતા એમ કહે કે “મહારાજ! આપ આ વસ્તુનું ધ્યાન રાખજે હુ આપને ભિક્ષા આપુ છુ ” આ રીતે દાતા પિતાની વસ્તુના સરક્ષણની જવાબદારી મુનિને સેપે અને પછી આવીને ભિક્ષા અર્પણ કરે તે તે ભિક્ષા મુનિનેકપે નહી એ જ પ્રમાણે જે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિમા મુનિના મને એ ભાવ જાગે કે “ હુ આ દાતાના પુત્ર, પૌત્ર આદિને -> • भन Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ १ सू० ५ अहिंसापालफर्तव्यनिरूपणम् गवेसियव्य ' भैक्ष गवेपितव्यम् । तथा 'नवि भेसणाए' नापि भीपणया= दायकभयोत्पादनया, 'न वि तज्जणाए 'नापि तर्जनया-" ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! इत्यादि तिरस्काररूपया 'न वि तालणाए' नापि ताडना-चपेटादिदानरूपया, समुदायेनोन्यते--'न पि भेसणतज्जणतालणाए' नापि भीषणतर्जन ताउनया भैक्ष गवे पितव्यम् । तथा 'नवि गारवेण' नापि गोरवेण 'अह क्षत्रियोऽस्मीत्यायभिमानेन, 'न वि कुहणाए ' नापि कुहनया क्रोधेन, न वि व णिमगयाए' नापि बनीपकतया-पाचश्यत्त्या, समुदायेनाह-'न वि गारवकुइणाणिमगयाए' नापि गौरव कोधवनीपकतया भैक्ष गवेपितव्यम् । तथा'न वि मित्तयाए' नापि मिनतया-दायकेन सह मैनीभानोत्पादनेन, 'न वि पस्थणाए' नापि प्रार्थनया, "यूय दायका , याचकरक्षकाः वय याचका , फरना साधु को योग्य नहीं है। इसी तरह (न वि भेसणाण, नवितजणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तजण-तालणाए भिक्ख गवेसियन्त्र) दायक (दाता ) को भय का उत्पादन करके, “रे दुष्ट मैं तुझे बतलाऊँगा" इस प्रकार दाता का तिरस्कार करके, दायक (दाता) को मोरपीट करके, तथा एक ही साथ एक ही दायक ( दाता) के साथ भीषगा, तजेना और ताडना करके भिक्षा की गवेपणा नहीं करनी चाहिये । तथा-(नवि गारवेण न वि कुणाए, न वि वणीमगयाए नवि गारवाहणवणीमगयाए भिक्ख गवेसियन्व) ' मैं क्षत्रिय ह" इत्यादि अभिमान रूप गौरव से, क्रोध से, एव याचक वृत्ति से, तथा एक ही साथ गौरव क्रोध एव याचक वृत्ति से भी भिक्षा की गवेपणा नहीं करनी चाहिये । ( न वि मित्तयाए न वि पत्यणाए न वि सेवणाए न वि मित्तय-पत्यण-सेवणाए भिक्ख गवेसियन्च ) तथा न वि तज्जणाए, न वि तालणाए, न वि भेसण-तज्जण-तालणाए मिक्स गवेसियय" हाताने लय तापीने “रे हुएट इतने मतावी. " से રીતે દાતાને તિરસ્કાર કરીને, દાતાને માર મારીને તથા એક સાથે દાતા પ્રત્યે ભીષણ તર્જન અને તાડના કરીને ભિક્ષાની ગવેષણ કરવી જોઈએ નહી. तथा “ न वि गारवेण, न वि कुणाए, न वि वणीमगयाए न वि गारवकुणपणीमगयाए भिक्स गवेसियव्य " " क्षत्रीय छु" माहि अभिमान३५ ગૌરવથી, ક્રોધથી, અને યાચક વૃત્તિથી તથા એક સાથે ગૌરવ, કોઇ અને याय वृत्तिथी ५५ मिक्षानो गवेष। ७२वी मे नही " न वि मित्तयाए, म वि पत्थणाए, न वि सेवणाए, न वि मित्तय-पत्थण-सेवणाए भिक्स गवे सियव्य " तथा हातानी साथै भित्र शन, “मा५ हात छ।, यायाना Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ध्यम् । तथा-'नविही उणाप' नापि हीलनया-"जात्या नीनोऽसि कर्ष स्वया भिक्षादीयते" त्यादि दायक जात्युद्धाटनरूपारमाननया 'नगिनिदणाए' नापि निन्दनया" कृपणोऽसि, बनीपकोऽसि" इति दायादापोद्धाटनया, 'ननि गरिहणाए' नापि गहणया जनसमक्ष दायानिन्दया, समुदायेनाइ'न मि हीलगनिधणगरिहणार' नापि होउन निन्दनई गया 'मिक्वंको अपनी और से कुछ वस्तु देकर उनसे भिसा की चारनारव भिक्षा की गयेपणा करने का तरीका उचित नहीं है। अर्थात् इस तरीके से भिक्षा की चाहना करना योग्य नहीं है। हमी तरह युगपत्-एक ही दाता के प्रति चन्दन, मानन और पूजन का प्रयोग कर के साधु कोमिक्षा की गवेपणा करना योग्य नहीं है। तगादाता की जातिका उद्घाटनरूप अवमानना करके कि " तुम तो जाति में नोच हो भिक्षा कैसे दोगे" इस प्रकार से करकर के उसे भिक्षा देने के लिये ऋजु करना और फिर भिक्षा कि गवेपणा निमित्त उसके यहा जाना यह भी साधु का भिक्षा प्राप्ति का तरीका साधु समाचारी के योग्य नहीं है । इसी तरह " तुम कृपण हो वनीपक हो" इस प्रकार से दाता के दोपों को उद्घाटन करना और फिर उसे भिक्षा देने के लिये नाजु करना यह भी साधु के लिये भिक्षा की गवेरणा करने का तरीका करप्य नहीं है। जनता के समक्ष दायफकी निन्दा करके, तथा एक ही साथ एक ही (दाता) दायक के प्रति हीलना, निन्दना तथा गर्हणा करके भिक्षा की गवेषणा કઈ વસ્તુ આપીને તેની પાસેથી ભિક્ષા મેળવવાની આશા રાખીને ભિક્ષાની ગવેષણ કરવી તે યુક્તિ પણ સાધુને માટે યોગ્ય નથી એટલે કે આ યુક્તિથી ભિક્ષા મેળવવાની ઈચ્છા રાખવી તે ચોગ્ય નથી વળી યુગપ-એક જ દાતા પ્રતિ વન્દન, માનન, પૂજન, આદિને પ્રયોગ કરીને ભિક્ષાની ગવેષણ કરવી તે સાધુને માટે ઉચિત નથી તથા દાતાની જાતિના ઉલ્લેખરૂપ તિરસ્કાર કરીને દા ત “તુ તે નીચ છે, ભિક્ષા કેવી રીતે દઈશ” આ રીતે કહીને તેને ભિક્ષા અર્પણ કરવાને માટે રજુ કરો અને પછી ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ માટે તેને ત્યા જવું, એ ભિક્ષા પ્રાપ્તિને ઉપાય સારા આચાર વાળા સાધુને માટે ઉચિત નથી એ જ પ્રમાણે “તમે કજુસ છે વનપક છે” એ રીતે દાતાના દે જાહેર કરીને પછી તેને ભિક્ષા દેવા માટે રાજી કરવો એ ઉપાય પણ સાધુને ભિક્ષાપ્રાપ્તિ માટે કપત નથી, લેકેની સમક્ષ દાતાની નિન્દા કરીને તથા એક સાથે દાતાની હિલને (તિરસ્કાર) નિન્દા, તથા ગહણ કરીને ભિક્ષાની ગણુ કરવી તે સાધુને Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीकाम० १ सू० ५ अहिंसापालककर्तव्यनिरूपणम् ६१३ 'भिक्षालाभो भविष्याति न वे ' त्यादि विपादरहितः, तथा-' अपरितत जोगी ' अपरितान्तयोगी अलाभादिपु तन्तनाटादि शब्दवर्जितः, तथा-'जयणघडणकरणचरियरिणयगुणजोगसपउत्ते ' यतनघटन करणचरितविनयगुणयोगसमयुक्तः, तत्र-यतन माप्तेषु सयमयोगेषु उद्यमः, घटनम्=अप्राप्तसयमयोगमाप्ति चेटनम् , एतद् द्वय कुरुते यः स यतनघटनकरणः, तथा-'चरितनिनया सेरितो येन स चरितविनयः, तथा-गुणयोगेन-समाधिगुणयोगेन समयुक्तो य. स-गुण योगसप्रयुक्ताः, एतेपा कर्मधारयः, एतादृशो 'भिख ' भिक्षुः साधु भिक्खेसणानिरए' भिक्षपणानिरतः भिक्षागवेपणाया निरतो भवेदिति सम्बन्ध , एवम्भूतेन भिक्षुणा भैक्ष गवेपितव्यमिति भाव । अथोपसहरम्नाह-'इम च' इत्यादि-' इम च ण समजगजीवरकखणदयट्टयाए पावयण' इद च खल्लु 'पावयण' प्रचन 'सव्यजगजीपरखणदयट्टयाए ' सर्वे ये जगज्जीयाः पड्जीपनिकायाः, तेपा रक्षणरूपा या दया-अनुकम्पा तदर्य-सर्वजगज्जीवरक्षणदयार्थम् ' भगवया ' भगवता महागीरेण 'सुकहिय' सुकथितं न्यायागाधितत्वात् , ररित होकर, अरुण-अपने दुख को किसी के पास किसी भी रूप में प्रकट नहीं करके, अविपादी-"भिक्षा का लाभ मुझे होगा या नहीं होगा" इस प्रकार के विपाद भाव को छोड करके अपरिततजोगीभिक्षावृत्ति नहीं मिलने पर तनतनाने की वृत्ति का परित्याग करके, तथा- यतनघटनकरण -प्राप्त सयम में उद्यमशील तथा अप्राप्त सयम की प्राप्ति करने मे निरन्तर चेष्टाशील, ऐसा साधु कि जो चरित विनय-विनय से युक्त वना हुआ है, तथा गुणयोगसप्रयुक्त-समाधिगुण के योग से जो युक्त हो रहा है ऐसा होकर भिक्षु-मुनि भिक्षेपणा मेभिक्षा की गपेपणा करने मे निरत होवे । ( इम च ण पावयण) यह प्रवचन (सव्वजगज्जीवरक्वगदयठाए) पट्ट निकायरूप जगत के जीवो की रक्षणरूप दया के निमित्त (भगवया सुकत्यि) भगवान् अविपादी-" भने निशाना सास भी नही भणे" मे २ना विवाह लापने छ।सने, अपरिततजोगी-मिक्षा नही भाता तनतनाव नी वृत्तिनो पर त्याग शन, तथा यतनघटनकरण-भात सयभमा मशीद तथा मास सयभनी प्राप्ति २वामा निरन्तर प्रयत्नतीस, व साधु २ चरितविनय विनयथी युक्त थयेद छ, तथा गुणयोगसप्रयुक्त-समाधि गुशुना योगथा २ યુકત થયેલ છે, એવા થઈને ભિક્ષુ-મુનિ ભિલાની ગવેષણ કરવાનો પ્રયત્નશીલ थाय "इमच ण पावयण" मा अवयन "सव्यजगज्जीव रस्षणदयद्राए" पगतना ७४आयना यानी २२॥३५ ध्याने निभित्ते “भगवया सुकहिय " Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દર प्रभम्याकरण नापि सेवनयान्नापि ; दीयतामस्मभ्य " मित्यादिरूपया, नवि सेणया सेवाच्या, समुदायेनाह - नवनियपण सेवणा नापि मित्रता प्रार्थना सेवया भक्ष गवेपितव्यम् । तर्हि यथ गयेषितव्यम् ? इत्याह- ' अष्णाए ' अज्ञात्तः = ' धनिकोsय मनजितः' इति दायाजनेातः, ' अगड़िए ' अमृद्रा:= आहारादिषु गृद्धभाववर्जितः, 'अहुट्टे' जद्विष्ट:- आहारेषुदायकेषु न द्वेषभाववर्जितः, 'अदीणे' अदोन = दीनतार्जित', 'अमिणे' 'अभिमनाः=भगमादिप्रयुक्तमान - सिकविकाररहितः, 'अस्तु' रामदर्शक 'अरिसाई' अनिवादी= , " दायक - दाता के साथ मित्रता करके, आप दाता है- याचकों के सरक्षक हैं, हम याचक है अत आप हमें भिक्षा दीजिये ऐसी दाता से प्रार्थना करके, तथा दाता की सेवा वृत्ति करके भिक्षा की गवेषणा नहीं करनी चाहिये । इसी तरह इन तीनों मानों को एक मार किसी दाता के साथ प्रयुक्त करके भिक्षा की गवेपणा साधु को नही करनी चाहिये । किन्तु (अण्णा अगट्टीए अट्टे अदीणे अचिमणे अकलुणे अविसाई अपरिततजोगी-जयण घटण करणचरिंय विनय गुणजोग सपडत्ते भिक्खू भिक्खेसणाए णिरए) अज्ञात - दयिक (दाता) जनों से " यह साधु धनिक थे और धनिक अवस्था से दीक्षित हुए है" इस रूप से अज्ञात बनकर अगृद्ध आहार आदि मे गृद्धभाव से वर्जित होकर, अद्विष्ट आहार अथवा दाता में द्वेषभाव से विहीन होकर, अदीन - दीनता के भाव से रहित होकर, अविमना - भिक्षा के नहीं मिलने पर मानसिक विकार से સરક્ષક છે, અમે યાચક છીએ, તેા આપ અમને ભિક્ષા આપે! ” એવી દાતાને પ્રાથના કરીને તથા દાતાની સેવાવૃત્તિ કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવી જોઈએ નહી એ જ રીતે એ ત્રણે ખાખતાના દાતા પાસે એક સાથે પ્રયાગ કરીને સાધુએ ભિક્ષાની ગવેષણા કરવી જોઈએ નહી પણ (( अण्णाए अगsिee अट्ठे अदीने अविमणे अकलुणे अविसाई अपरितकजोगी जयणघडण करणचरियविनयगुण जोगस पडते भिक्खु - भिक्खेसणाए णिरए " अज्ञात - " मा साधु धनिङ हुता અટલે કે ધનિક સ્થિતિમાથી દીક્ષિત થયેલ છે” એ વિષે દાતાએથી અજ્ઞાત रहीने अगृद्ध-भाडार महिमा शृद्ध लावधी रहित मनीने, अद्विष्ट-भाडोर अथवा हाता प्रत्ये द्वेष लाव रहित थाने, अदीन-हीनताना लावथी रहित थने, अमिना - लिक्षा न भजना छता पशु मानसि विारथी रहित थाने अकरुण - अर्ध पशु अारे पोताना हु भने अक्षय n ते अगद 'इरीने Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी रीका अ० १ सू० ५ अहिंसापार ककर्तव्यनिरूपणम् कर्तव्य है कि छहकाय के जीवो की रक्षा करे । क्यो कि यह लोक इन्हों जीवों से भरा हुआ है अतः अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति सयमित रग्बने से छकाय के जीवों की रक्षा होती है। मुनिजन इस अरिंसा महाबत के पालक होते हैं अतः उनके लिये प्रभु का आदेश है कि वे ऐसे उ7 आहार आदि की गवेषणा करने में निरत रहें कि जो शुद्ध हो, अकृत, अकारित, अननुमोदिन, अनाहत, अनुद्दिष्ठ, अक्रीनकृत, कयकोटिविशुद्ध, शफितादिदोपवर्जित, आधाकर्मादि दोपों से विहीन एव जीवजन्तु रहित हो। ऐसा ही आहारादि उन्हें उनकी सामाचारी के अनुसार कल्पित कहा गया है। इससे विपरीत उनके अहिंसामहाव्रत के प्रतिफल कहा गया है। इसलिये उन्हे उपाश्रय मे दाता द्वारा देने के लिये लाये गये आहार को कभी नहीं लेना चाहिये। चिकित्सा आदि करके जिसभिक्षा की प्राप्ति हो वह भी उन्ह वर्जनीय कही गई है । कारण मुनिजन सिंह वृत्ति के बारक होते हैं और अयाचकवृत्ति वाले होते हैं, इस प्रकार के व्यवहार से प्राप्त भिक्षा में सिंहत्ति का सरक्षण नहीं होता है । भिक्षा की गवेपणा में दभ का आचरण नहीं होना चात्येि, दायक (दाता) की वरतु के रक्षण का प्रश्न नहीं होना चाहिये और न कोई एसी वान ही होना चाहिये कि जिमसे मुनि के જીની રક્ષા કરે કારણ કે આ લે એ જ જીથી ભરેલ છે, તેથી પિતાની દરેક પ્રવૃત્તિ સ યમિત રાખવાથી છવાયના જીવોની રક્ષા થાય છે મુનિજન આ અહિંસા મહાવ્રતના પાલક હિય છે, તેથી તેમને માટે ભગવાનને આદેશ છે કે તેઓ એવા કચ્છ આહાર આદિની ગવેષણ કરે કે જે શુદ્ધ હોય, અકૃત, અકારિત, અનુદિત, અનાહત, અનુદ્દિષ્ટ, અકીતકૃત, નવટિ વિશુદ્ધ શકિત આદિ દેવ રહિત, આવાકર્માદિ દેથી રહિત અને જીવજન્ત રહિત હાય એવો આહાર જ તેમની સમાચારી અનુસાર તેમને માટે જો તે કહેલ છે તેનાથી ઉલટે આહાર અહિસા મહાવ્રતને પ્રતિકળ ગણાય છે તેથી તેમણે ઉપાયમા દાતા દ્વારા અપરણ કરવા માટે લેવાયેલ આહાર કદી લેવું જોઈએ નહી ચિકિત્સા આદિ કરીને જે જિલ્લાની પ્રાપ્તિ થાય તે પણ તેમને માટે ત્યાજ્ય ગણેલ છે, કારણ કે મુનિજન સિહવૃત્તિના ધારક હોય છે તથા અયાચક વૃત્તિ વાળા હોય છે આ રીતે મેળવેલ આહામા બિહવૃત્તિ તથા અયાચકવૃત્તિનું સક્ષણ થતું નથી ભિલાની વેષણમાં દભનું આચરણ થવું જોઈએ નહી, દાતાની વહુના -લણનો પ્રશ્ન થવો જોઈએ નહી કે કઈ વાત ન બનવી જોઈએ કે જેથી મુનિના આચારવિચમા અન્તર પડે Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ प्रश्नध्याकरणसूत्र 'अत्तहिय ' आत्महितम् आत्मना जीना हित-हितकारणात् , 'पच्चाभाविय' मेत्यभाविक-प्रेत्य = जन्मानरे भाति-शुभफरतया परिणमतीत्येव शीलम् , तथा-' आगमेसि भद्द' आगमि यद् भद्रम् गाविल्याणजनम्म् 'सुद' शुद्ध-निर्दोपम् 'नेयाउय' नयायिक-न्याययुक्तम् 'अरुढिलं' अकुटिलम् ऋजुमोक्षमापकत्वात् , 'अणुत्तर 'अनुरारम्-सर्वप्रधानत्वात् , तथा-'सबदुक्खपावाण' सनदुःखपापाना ' पिउसमण ' ब्युपगनम्-उपगमकारकमिद प्रवचनमिद मवचनमिति पूर्वेण सम्बन्ध ॥ ०५॥ महावीर ने कहा है-इन कधन में किसी भी तरह से युक्ति और गाला से पाधा नहीं आती है । (अत्तरिय ) यर जीनों का हितकारक है और (पेचाभाविय) परमर में शुभ फलरूप से यह परिणमता है। इसीलिये (आगमेसिभ६) भविष्यकाल में यह कल्याणजनक है। (मुध्ध) भगवान द्वारा प्रतिपादित होने के कारण इसमें किसी भी तरह से कोई पूर्वापरविरोधरूप दोप नही आता है-इसलिये शुद्धनिर्दोप है, तथा (नेयाज्य) न्याययुक्त है । ( अडिल ) इसकी आरा धना करने से जीव मोक्ष को प्राप्त करलेते है इसलिये वह अकुटिलऋजु है । ( अणुत्तर) समस्त सिद्धा तों में इसकी प्रधानता होने से यह अनुत्तर है । तथा (सचदुस्तपावाणविउसमण) समस्त दुखों का और पापों का यह उपशमकारक है। भावार्थ--सूत्रकार इस सूत्र द्वारा यह प्रकट कर रहे हैं कि जो अहिंसारूप सवरद्वार को पालन करने के लिये उद्यत हैं उनका यह ભગવાન મહાવીરે કહેલ છે–આ કથનમાં કઈ પણ પ્રકારે-યુક્તિ અને શાસ્ત્રથી पाधी मापता नथी “ अत्तहिय " त नु निता छ भने "पेच्चा भाविय" ५२१मा शुल १३ ते परिणमे छ तेथी " आगमेसिभ " भविष्यमा તે કલ્યાણજનક છે “સુદ્ધ” ભગવાન દ્વારા પ્રતિપાદિત હોવાથી તેમાં કોઈ પણ પ્રકારે કોઈ પૂર્વાપર વિવરૂપ દેય આવતો નથી તેથી શુદ્ધ-નિર્દોષ છે, तथा " नेयाउय " न्याययुस्त छ “ अकुडिल " तेनी माराधन। ४२पाथी ७१ भाक्षने पास ४२ छ ते १0 ते अकुटिल- छ, ( अणुतर) समस्त सिद्धान्तमा भुस्य वाथी ते अणुत्तर -सर्वोत्तम छ तथा "सत्वदुक्खपावाण विउसमण "सभरतमो तथा पाषानु ते शमन उ२ना२ छ ભાવાર્થ-સૂત્રકાર આ સૂત્ર દ્વારા એ પ્રગટ કરે છે કે જેઓ અહિંસા ઉપ સવરદ્વારનું પાલન કરવાને તત્પર છે, તેમનું એ કર્તવ્ય છે કે_છકાયના Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०१ सू०६ भावनास्वरूपनिरूपणम् अहिंसाया पञ्च भावना भवन्तीति ताः प्रतिपादयन् प्रथमामीर्यासमितिरूपां मारनामाह-'तस्स इमा' इत्यादि मूलम्-तसा इमा पच भावणाओ पढमस्स वयस्त हुंति, पाणाइवायवेरमाणं परिरक्खणट्टयाए । पढम-ठाण-गमण गुणजोगजुंजणजुगतर-निवइयाए दिट्टीए इरियव्व कीडपयंगतसथावरदयावरण निच्च पुप्फफलतयपवालकदमूलदगमट्टियवीयहरिय परिवजणए सम्म, एव खु सव्वे पाणा ण हीलियबा न निदियव्वान गरहियव्वा न हिसियत्वा न छिदियव्या न भिदियव्या न वयना न भय दुक्खं च किचिलम्भा पाबेउ'जे एव इरियासमियजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा असवलमसकिलिटुनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए सजए सुसाहू ॥ सू० ६ ॥ पहुँचाकर उससे मुनिजन मात्रा मे भिक्षा लेते हैं। इमी तरह और भी कोन २ सी प्रवृतिया भिक्षा की गवेपणा करने मे बाधक होती हैं-वे सब इस मूत्र में प्रदर्शित की गई है, । मुनि को भिक्षा की गवेपणा फरते समय अज्ञात, अगृद्ध, अधिष्ठ, अदीन, अविमन, अकरुण, अविपादी और अपरितानयोगी आदि स्थिति वाला रहना चाहिये। तभी जाकर पूर्णरूप से अहिंसा महाव्रतरूप सवरद्वारपलता है ।।-॥ सू ०५॥ પાસેથી મુનિજન પરિમિત પ્રમાણમાં ભિક્ષા ગ્રહણ કરે છે એ જ પ્રકારે બીજી કઈ કઈ પ્રવૃત્તિ ભિલાની ગવેષણ કરવામાં બાધક થાય છે તે બધુ આ સૂત્રમાં બતાવ્યું કે, ભિક્ષાની ગષણા કરતી વખતે મુનિએ અજ્ઞાત, અમૃદ્ધ, અદ્વિ, અદીન, અવિમન, અકણું, અવિષાદી, અને અપરિતાતગી આદિ સ્થિતિ વાળા રહેવું જોઈએ ત્યારે જ પૂર્ણ રીતે અહિયા મહાવ્રતરૂપ સવારનું પાલન થાય છે કે સૂપ प्र०७८ Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ प्रभापार आचार विचार में अन्तर पत्ता हो। मं तुम्हारे पुत्र को पढादंगा, आप के गुण दिगन्ततक व्यापक हो रहे है आप पड़े दानी है, म ने आप को आज ही देवा है वैसे तो आपकी कीर्ति कई पार सुन चुकार, ये मग पाते ऐसी हैं जो मुनि की आत्मा को हीन यनाती है उसे अपने कर्तव्य से गिराता है। इन सय यातों से जो आत्मा का पतन होता है वह सबसे बड़ी हिमा है। इसीलिये मुनि को हम प्रकार के व्यवहार से प्राप्त होने वाली भिक्षा की गवेपणा करने का निषेध किया गया है। तथा दाता के प्रति मुनि को ऐसा भी व्यवहार नहीं करना चाहिये कि जिससे उसकी आत्मा में क्लेश भार जगे, जैसे-'तू कृपण है, वनीपकथाचक है तू क्या भिक्षा देगा, नीच व्यक्ति जो रोते हैं वे भिक्षा नहीं देते है" इत्यादि अपमान जनक शब्दों में एक तो भाषा ममिति नहीं पलती है, तथा ऐसे व्यक्तियो मे जिस किसी प्रकार से भिक्षा देने का जोश जागता है जो उस भिक्षा में शुद्धि का बाधक होता है, भिक्षा देते समय जिस आत्मा मे सक्लेश जगे घर भिक्षा मुनिजनों को अग्राह्य कही गई है। जिस प्रकार फूल को थाधा न पहुँचाकर उससे भ्रमर रस पी लेता है उसी प्रकार दाता को किसी भी प्रकार का सक्लेशन न હું તમારા પુત્રને ભણાવી આપના ગુણે દિગન્ત સુધી ફેલાયેલ છે, આપ મોટા દાતા છે, આપની કીર્તિ તે મે ઘણીવાર સાભળી છે પણ આપને જેવાને લાભ તે આજ જ મ ” આ બધી વાત એવી છે કે જે મુનિના આત્માને હીન બનાવે છે તેને પિતાની ફરજ ચૂકાવે છે આ બધી વાતેથી આત્માનું જે પતન થાય છે તે સૌથી મોટી હિંસા છે, તે કારણે એવા પ્રકા રના વ્યવહારની પ્રાપ્ત થતી ભિક્ષા ગ્રહણ કરવાને મુનિને માટે નિષેધ છે— તથા મુનિએ દાતા પ્રત્યે એ વ્યવહાર પણ ન કરવો જોઈએ કે જેથી તેના આત્મામાં કલેશ થાય, દા ત “ તુ કૃપણ છે, વનપક યાચક છે, તુ શુ ભિક્ષા આપી શકવાને છે, જે નીચ વ્યક્તિ હોય છે તે ભિક્ષા દેતી નથી” ઈત્યાદિ અપમાન જનક શબ્દમા એક તે ભાષા સમિતિનું પાલન થતુ નથી, તથા એવી વ્યક્તિઓમાં ગમે તે રીતે ભિક્ષા આપવા જ પિદા થાય છે, જે તે ભિક્ષાની શુદ્ધિમા બાધક થાય છે ભિક્ષા દેતી વખતે દાતાના આત્માને કલેશ થતું હોય તે એવી ભિક્ષા મુનિજનોને માટે અગ્રાહ્ય-(ન સ્વિકારવાને યોગ્ય ) દર્શાવેલ છે જેમ ફૂલને નુકશાન પહોચાડવા વિના ભમરા તેમાથી રસપાન કરે છે તેમ દાતાને કઈ પણ પ્રકારને કવેશ પહોચાડ્યા વિના તેમની Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनीटरीका म० १ सू ६ भावनास्वरूपनिरूपणम् 'पढम ' प्रथमम् ईसिगिति भारनामाह- ठाणगमणगुणजोगजुजणजुगतरनिबइयाए 'स्थानगमनगुणयोगयोजनयुगान्तर-निपातिफया-'टाण' स्थानम् = उपवेशनमित्यर्थः, 'गगण' गमनचलनम् , तत्र गुणा सस्थावरोपघातवर्जनरूपः, वस्त्र योगा सम्पन्यरत योजयति करोति या सा स्थानगमनगुणयोगयो जना, तथा-युगान्तरे-युगममाणभूभागे निपतति या सा युगान्तरनिपातिका, अनुकूल पड़नेवाली थोडी यहत प्रवृरिया स्थूल दृष्टि से विशेष रूप में गिनाई गई है । जो भावना के नाम से प्रसिद्ध है। यदि इन भावनाओं के अनुसार बराबर वर्ताव किया जाय तो गृहीत व्रत उत्तम औपधि के समान प्रयत्नशील के लिये सुदर परिणाम कारक सिद्ध होते हैं। यही बात "परिरक्वणद्वाए " इस पद द्वारा यहाँ वनित की गई है। इन पांच भावनाओं में जो (पढम ) पहिली ईसिमिति नामकी जो भावना है वह इस प्रकार है ( ठाणगमणगुणजोगजुजणजुगतर नियझ्याए) स्व पर को क्लेश न हो इस प्रकार यत्न पूर्वक गमन करना इसका नाम ईर्यासमिति है। इसी का विशेष सुलाशा सूत्रकार इसपद द्वारा कर रहे ह-स्थान-बैठना और गमन-चलना इनमें जिसके द्वारा इस प्रकार की प्रवृत्ति होनी चाहिये कि जिससे प्रस और स्थावर जीवोंका उपचातक न हो, इस गुणरूप सबध को जी जोड़ने ने वाली हो तया जिससे युगप्रमाण भूमिभाग का अवलोकन हो रहा हो, अर्थात् चलते २ साधु अपने आगे की युगप्रमाण भूमि का આવનારી ડી ઘણી પ્રવૃત્તિ સ્થલ દૃષ્ટિથી વિશેષ રૂપે ગણાવવામાં આવેલ છે, જે ભાવનાને નામે પ્રસિદ્ધ છે જે તે ભાવનાઓ પ્રમાણે બરાબર વર્તન કરાય તે ગ્રહણ કરાયેન વ્રત પ્રયત્નશીન વ્યક્તિને માટે ઉત્તમ ઔષધિ સમાન डाय सा५ सिद्ध थाय छ । ४ पात “परिरक्सणद्वाए" ५६ द्वारा यही ४चिवामा सावी छे से पाय साचन सामा “पढम " पोथी ईर्यासमिति नामनी रे सावना छ । मा प्रमाणे छ “ठाणगमणजोगजु जणजु गतरनिरह ચાg” પિતાને કે પરને કલેશ ન થાય તે પ્રમાણે જતન પૂર્વક નમન કરવું તેનુ નામ ઈસમિતિ છે તેનું વધારે સ્પષ્ટીકરણ સૂત્રકાર આ પદ દ્વારા કરે છે-સ્થાન-બેસવુ અને ગમન-ચાલવાની ક્રિયામાં તેમના દ્વારા એ રીતની પ્રવૃત્તિ થવી જોઈએ કે જેથી ત્રસ અને સ્થાવર જીવોની હત્યા ન થાય, આ ગુણ રૂપ સ બધને જે જોડનારી હોય તયા જેવી યુગ પ્રમાણ ભૂમિભાગનું અવલે કન થતું હોય એટલે કે ચાલતી વખતે પોતાની આગળથી યુગ પ્રમાણ ભૂમિનું Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण टीका--' तस्स' इत्यादि। 'तस्स' तस्य प्रमिद्धस्य 'परमसा अयम्प' प्रथमम्य व्रतस्य = अहिंमा व्रतस्य 'इमा पच ' इमाः पञ्च 'भारणाओ' मानना-माप्यते गाम्यते आत्मा याभिस्ताः ईर्यासमित्यादयः इति मन्ति । किमर्थ पन मापना भवन्ती? -त्याह - ' पाणाडवायरमणपरिरक्षणयाए । माणातिपात-चिरमणपरिरक्ष णार्थाय - माणातिपातचिरमणलभणरय प्रथममहानतम्य परिरक्षणार्थाय । तत्र ___ इन व्रतों को स्थिर रखने के लिये प्रत्येन चत की पांच २ भावनाएँ हैं सो अन सूत्रकार अहिंसावत की जो पाच भावनाएँ होती है उनमें सप से परिली ईर्या समितिरूप पहिली भावना को प्रकट करते है'तस्स इमा' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स ) उस प्रसिद्ध (पढमस्स वयस्स ) प्रधमत्रत की (इमा पच भावणाओ हति) ये ईर्यासमिति आदि पांच भावनाएँ होती है । क्यों कि इन भाननाओं से (पाणाहायवेरमणपरिरस्वणट्टाए) प्राणातिपातविरमण रूप जो अहिंसा व्रत है उसकी अच्छी तरह रक्षा होती है। तात्पर्य करने का यह है कि अत्यन्त सावधानी के साथ विशेप २ प्रकार की अनुक्रल मत्तियो का सेवन न किया जाय तो स्वीकार करने मात्र से ही प्रत आत्माको अपने रूप नहीं बना सकते है। अर्थात् वे आत्मा मे चिरस्थायी नही रह सकते हैं, निर्दोपरूप से सावधानी के साथ उनका पालन नहीं हो सकता है-वे यथार्थरूप मे आत्मा में नहीं उतर सकते । ग्रहण किये हुए व्रत जीवन को यथार्थरूप से अपने रूप में रग सके-अपनी अटल छाप आत्मा पर जमा सके इसलिये प्रत्येक व्रत के એ પાચ વાતોને સ્થિર રાખવા માટે પ્રત્યેક વ્રતની પાચ પાચ ભાવના છે હવે સૂત્રકાર અહિંસાવતની જે પાચ ભાવના છે તેમાની સૌથી પહેલી ध्ा समिति माह मा पाय लावना प्रगट हरे छे-“ तस्स इमा" त्या "तस्स" ते प्रसिद्ध "पढमस्स वयस्स" प्रथम प्रतनी "इमा पच भावणा हुति" ध्यासभिात माहिमा पाय लावनार डाय छ र उ त भावनासाथी "पाणाइवायवेरमणपरिरम्सणद्रोए" प्रातिपात विभा३५ અહિસાવત છે તેની સારી રીતે રક્ષા થાય છે કહેવાને ભાવ એ છે કે અત્યત સાવધાનીથી ખાસ ખાસ પ્રકારની અનુકુળ પ્રવૃત્તિોનુ સેવન ન કરાય તે સ્વીકાર કરવા માત્રથી જ વ્રત આત્મામાં ચિરસ્થાયી રહી શકતું નથી– નિદોષ રીતે સાવધાનીથી તેનું પાલન થઈ શકતુ નથી તે યથાર્થ રૂપે આત્મામાં ઉતરી શકતા નથી ગ્રહણ કરાયેલ તો જીવ નને યથાર્થ રીતે પિતાના રંગે રંગી શકી-પિતાની અટલ છાપ આમા પર જમાવી શકેઆત્મામાં ઉડાણથી પ્રવેશી શકે, તે માટે પ્રત્યેક મ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शिनी टोका अ०१ सू०६ भावनास्वरूपनिरूपणम् नावज्ञातव्या भवन्ति, मुनिः प्राणि माणसरमणपरत्वात्तानापज्ञा विपयीकरोतीति भागः, एवमग्रेऽपि सर्वत्र वाक्यरचना कार्या । 'न निदियवा ' न निन्दितव्या भान्ति-परपीडापर्जनपरत्वात् , 'न गरहियव्या' न गर्दितव्याः भरन्तिलोरसमक्ष दोपोद्घाटनपूर्वक गाविपयभृता न भवन्तीत्यर्थ, तपा-'न हिंसियन्ना' न हिसितव्या'-पादाम्मणादिना न हन्तव्या', भवन्ति, एव 'न डिदि यन्वा' न उत्तव्याः ग्वादिना, 'न भिदियया' न भेत्तव्याः - कुन्तादिना, 'न रहेयन्ना' न व्यधनीया पीडोत्पादनादिना भवन्ति । तथा - 'न भय दुव च लभा पावेउ न भय दुस च लभ्या मापयितुम् , दुःख भय च प्राप यितु योग्या न भवन्तीति भावः । एवम् अनेन प्रकारेण 'इरिया समि-जोगेण ' ईर्यासमितियोगेन 'भानिओ ' भावितो-धासितो भवति 'अतरप्पा' अन्तरात्मा जीव , स भावितात्मा-भवतीत्य, कीमो भवति ? इत्याह-सवल्मसफिलिहनियणचरित्तभावणाए' अशमलासकिष्ट निर्नगचारिनभावनयाः, अगवला यया) निंदा के विषयभृतनहीं बनते है। (न गरहियव्वा ) लोगों के समक्ष दोपोद्धाटन पूर्वक गर्दा के विषयभूत नहीं बनते है । (न रिलियन्वा) पादादि द्वारा आक्रमिक होकर हिंसा के विषयभूत नहीं बनते है, (न छिदियमा) हेदन करने के विषयभूत नही बनते है, (न भिदिय व्वा) भेदन करने के विपयभूय नहीं बनते है। (न-वहेयव्या) पीडो त्पादनादि द्वारा व्यथा कष्ट पहुँचाने के योग्य नहीं बनते हैं। (न भय दुक्स च किंचि लमा पावेउ ) और न किसी भी तरह से भय ओर दुख को प्राप्त कराने के योग्य बनते है। (एस ) इस प्रकार (ईरियाममियजोगेण ) ईर्या समिति के योग से (भाविओ अतरप्पा) वासित हुआ अन्तरात्मा-जीव-भावितात्मा कहलाता है और यह(असवलमसफिलिनिव्वण चरित्त भावणार ) अशरल-मलिमता रहित समन्त et "ण हीलयव्वा' अवताना विषाभूत मनता नथी न निदियवा' निहाना पियामृत मनना नया, “न गरहियन्या" सोनी मम होपोद्धाटन भनि विपभूत जनता नथी " न हिसियव्वा " पाहाडे माभित थईन डिमान विषयभूत मनता नयी, “ न डिंदियच्या " छन ४२वाना विषयभूत मनता नया, "न भिदियव्वा" मेहन ४२वाना विषयमत मतता नथी, "न वहेयव्या” या पाहन माहि द्वा-व्यथा पायापाने योज्य मनता नथी "न भय दुक्स च फिचिरम्भा पावेउ " मन छ । પ્રકારે ભવ અને દુ ખ પ્રાપ્ત કરવાને ચગ્ય બનતા નથી “ ” આ પ્રકારે ॥इरियास नियनोगेण" ध्यसमितिना योगयी “भाविओ अतरप्पा" सुरत मात्मा-७३-मावितात्मा उपाय छ भने ते "असरलमसझिलिनियणचारत Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० प्रभव्याकरणसूत्रे 6 glob , अनयो धर्मधाग्य, तया, 'विडी' रहना, 'कीउपयगतमथापरदयावरेण ' फीटपतगनसस्थानस्यापरेण, वन-कीटावुद्रजन्तनो नीलघु 'ट' कादयः, पतङ्गाः = मसिद्धाः इत्यादयः सस्थावराधे केन्द्रियाः तेषु दयापरस्तेन तथ - फफलताकद गम यिनी यह रिपरिपणि' पुष्पफलत्वमत्राल कन्दमूलदकमृत्तिकानी जहरितपरिवर्जितेन तत्र- पुप फल चमसिद्धम् त्व= पुष्पफलादीना त्वचा प्रवासपनाः कन्दः, गृरणादिकः, मूलम् = मूलक 'द्ग' द=जलम् मृत्तिका, वीजम् हरित. हरितकायः एते परिवर्तिता येन स तेन मुनिना ' निन्च ' नित्य 'सम्म सम्पर=पतनापूर्वम्, ईरियब्ब ' ईरितव्य - मार्गे गन्तव्यम् | 'ए' एन=अमुना मारेण प्रवर्त्तनेन खलु तस्य मुने: ' सव्वे ' सर्वे ' पाणा ' माणाः पाणिनः, 'न हीयिव्वा न हीलयितव्याः " 1 1 जिससे अच्छी तरह अवलोकन कर चल रहा हो ऐसी (टिडीए) दृष्टि से (कीडपयगतसथानरयापरेण पुष्फफलतयपवालकद्मूलद्गमहरिपरि णिच्च सम्म ईरियञ्च ) लट शग्व आदि क्षुद्र जन्तुरूप कीटों के ऊपर तथा पतगों जादि जानवरो के ऊपर, एव एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के ऊपर ढया रखने में तत्पर बने हुए, तथा पुष्प, फल' त्वक्-छाल, मचोल, - कोंपल- पनाकुर, सूरण आदि कद मूल दकसचित्त जल, मृत्तिका - सचित्तमिट्टी, वीज और हरितकाय, इन सब सचित्तपदार्थो को अपने और पर के उपयोग में लाने का जीवनपर्यत परित्याग कर चुकने वाले ऐसे मुनिजनों को देस २ कर सदा यतना पूर्वक मार्ग मे गमन करना चाहिये । ( एव सु ) इस तरह यतनापूर्वक दृष्टि से देख देव कर चलने वाले मुनिजन के ( सव्वेषाणा ) समस्त प्राणी (ण हीलियव्वा ) अवज्ञा के विषयभूत नहीं बनते है । (न निंदि જેથી સારી રીતે અવલેા કરીને સાધુ ચાલતા હોય એવી “ दिट्ठए " दृष्टिथी “कीडपय गतसथावरद्यावरेण पुष्पफलतयपबालकदमूलद्गमट्टिय नीयहरिय परिवज्जणए णिच सम्म ईरियन " લ શખ આદિ ક્ષુદ્ર જન્તુરૂપ કીડાઓ ઉપર તથા પતગિયા આદિ જન્તુઓ ઉપર, અને એકેન્દ્રિય સ્થાવર જીવાની ઉપર ध्या राभवाने तत्थर मनेस, तथा पुण्य, इण, त्व-छास, प्रवास-अपण-पत्रा કુર, સૂરણ આદિ દમૂળ, આ બધા સચેત પદાર્થોને પેાતાના - બીજાના ઉપ ચાગમા લેવાના આજીવન પાિગ કરી નાખ્યા હાય એવા મુનિજને ને હમેશા જોઈ જોઈ ને યતના પૂર્ણાંક રસ્તા પર ચાલવુ જોઇએ एव खु રીતે યતનાપૂર્વક નજર વડે જોઇ જોઇને ચાલનાર મુનિજનને “ " " >> Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शिनी टोफा अ०१ सू०६ भावनास्वरूपनिरूपणम् ६२१ नायज्ञातव्या भवन्ति, मुनिः प्राणि माणसरक्षणपरत्वात्तानाज्ञा पिपयीकरोतीति भानः, एमनेऽपि सर्वन वाक्यरचना कार्या । 'न निदियवा ' न निन्दितन्या भान्ति-परपीडापर्जनपरत्वात् , 'न गरहियव्या' न गर्दितव्याः भान्तिलोकसमक्ष दोपोद्घाटनपूर्वक गाविषयभृता न भवन्तीत्यर्थः, तथा-'न हिंसि यन्ना' न हिसितव्याः-पादाक्रमणादिना न हन्तव्याः, भवन्ति, एव 'न छिदि यव्वा' न उत्तव्याः खगादिना, 'न भिदियघा' न भेतव्याः - कुन्तादिना, 'न वहेयन्या 'न व्यथनीयाः पीडोत्पादनादिना भवन्ति । तथा – 'न भय दुक्ख च लभा पावेउ'न भय दुख च लभ्याः प्रापयितुम् , दुःख भय च प्राप यितु योग्या न भवन्तीति भावः । एवम् अनेन प्रकारेण 'इरिया समिइजोगेण ' ईर्यासमितियोगेन 'भानिओ ' भावितोपासितो भवति 'अतरप्पा' अन्तरात्मा जीव', स भारितात्मा-भवतीत्यर्थ , कीरगो भाति ? इत्याह-'असवलमसफिलिहनियणचरित्तभाषणाए' अशनलासरिट निर्मणचारित्रमावनयाः, अशवलाकच्या) निंदा के विषयभूतनहीं बनते हैं। ( न गरहियच्या ) लोगों के समक्ष दोपोद्धाटन पूर्वक गर्दा के विषयभून नहीं बनते ह । (न हिलियव्या) पादादि द्वारा आक्रमिक होकर हिंसा के विपयभृत नहीं बनते है, (न बिंदियया) छेदन करने के विषयभून नही बनते है, (न भिदिय व्वा) भेदन करने के विपय भूय नहीं बनते ह । (न-वहेयव्वा) पीडो त्पादनादि द्वारा व्यथा कष्ट पहुंचाने के योग्य नहीं बनते है। (न भय दुक्ख च किंचि लम्भा पावेउ) और न किसी भी तरह से भय और दुख को प्राप्त कराने के योग्य निते है। (एन) इस प्रकार (ईरियाममियजोगेण ) ईर्या समिति के योग से (भाविओ अतरप्पा) वासित हुआ अन्तरात्मा-जीव-भावितात्मा कहलाता है और यह(असवलमसकिलिनिव्वण चरित्त भावणाए ) अगरल-मलिनता रहित सभात प्राn "ण हीलयव्या' अवज्ञान विभृत मनता नथी । न निदियत्रा' निहाना विषयाभूत गनना नथी, “ न गरहियवा" सोनी समक्ष दोषीद्धाटन मना विपत्मृत पनता नथी “न हिंसियचा " पहाडे २माभित थईन साना विषयाभूत गनत नयी, "न छिदियव्या" न ४२वाना विषयभूत मनता नथी, “न भिदियव्वा" लेन रवाना विषयभूत मनता नथी, “न चहेयव्या” ची पाहन माहि द्वारा व्यथा पायावाने योज्य मनता नथी “न भय दुक्स च किचिलमा पावेउ" भने छ । मारे लय भने म प्राप्त उपाने योग्य मानता नया ' एव " मारे ॥ ईरियासमियनोगेण" यसमितिना योगयी “भाविजो अतरप्पा" युत मी-09-मावितात्मा उडेवाय छ भने ते “असरलमसफिलिनियणचरित Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ प्रभम्याकरण मालिन्यरहिता, असक्लिष्टा विशुद्धपमानमन. परिणामयुक्ता, निर्यणा=अक्षता या चारित्रभावना तया देतुभूतया 'अगिए' महिंसकः - सभावनाया अहिंसायाः परिपालकत्वात्, 'समय' सयतः सम्यग्जीन रक्षायतनोपवत्यात्, 'सुसाहू' साधु - मोक्षसाधको मुनिर्भवति ॥ मृ० ६ ॥ तथा विशुद्धयमान मनःपरिणाम से युक्त ऐसी हेतुभूत अखड चारित्र भावना के प्रभाव से (अहिमए / अहिंसक होता है, अर्थात् भावनामहित अहिंसा का परिपालक होने के कारण वह हिमात्ति से रहित होता है तथा ( स ) अच्छी तरह से जीव रक्षा की यतना में उत होने के कारण सजत होता है । और (सुमार ) ऐसा होने के कारण ही वह साधु-सच्चा साधु-मोक्ष साधक मुनि-शेता है । भावार्थ - इम सूत्र छारो सूत्रकार ने अरिमावत की रक्षा और स्थिरता के निमित्त पांच भावनाओं में से ईर्ष्या समिति नामकी प्रथम भावना कही हे, । इस भावना में उन्हों ने यह ree किया है कि अहिंसाव्रत का आराधक प्राणी यदि मानना का निमित्त नहीं मिलता है तो उस व्रत का गहराई के साथ परिपालन नहीं हो सकता है। अहिंसा आदि व्रतों के रंग में आत्मा को रंग देनेवाली ये भावनाए ही है । इसलिये सच्चे अर्थ मे अहिंसक बनने के लिये मुनि को सबसे पहिले ईय समिति का पालन करना चाहिये । इस समिति के पालन करने से भावणाए " अशल-भक्षिता रहित तथा विशुद्ध भन परिणामधीयुक्त वी हेतुभूत अक्षत-थारित्रलावन ना प्रभावथी ' अहिसए" अहिसा थाय छे, એટલે કે ભાવનાપૂર્વક અહિંસાના પરિપાલક હોવાથી તે ડિસાવૃત્તિથી રહિત भने छे तथा " सजए " सारी रीते व रक्षानी यतनाभा तत्पर होवाने भराये सयत थाय छे भने “ सुसाहू " सेवा थवाने जर ते सुसाधु-साथ સાધુ-મેક્ષ સાધક મુનિ-થાય છે ભાવાર્થ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે અહિંસા જ્ઞતની રક્ષા અને સ્થિરતાને માટે જે પાચ ભાવના છે તેમાની ઇૉર્સમતિ નામની પહેલી ભાવના ખતાવી છે. આ ભાવનામા તેમણે એ પ્રગટ કર્યુ છે કે અહિં સા વ્રતના આરાધક પ્રાણીને જે ભાવનાનુ નિમિત્ત ન મળે તે તે વ્રતનુ સૂક્ષ્મ રીતે પાલન થઈ શકતુ નથી અહિંસા આદિ તેાના રગમા આત્માને રંગી દેનારી આ ભાવ નાઆ જ છે તેથી માચા અર્થમા અહિંસક બનવાને માટે મુનિએ સૌથી પહેલા ર્માંસમિતિનુ પાલન કરવું જોઈએ. આ સમિતિનુ પાલન કરવાથી ત્રસ Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०१ सू०७ भायनास्वरूपनिरूपणम् द्वितीयां मनोभावनामाह मूलम्-चीयं च मणेण पावएण पावगं आहम्मियं दारुणं निसंस वहबधपरिकिलेसबहुल जरामरणपरिकिलेससंकिलिट्र, न कयावि मणेण पावएणं पावर्ग किचि विझायव्व एव मणसमिइजोगेण भाविओ भवह अतरप्पा असवलमसकिलिहनिव्वणचरित्तभावणाए अहिसएसेंजए सुसाहू।सू०७॥ टीका-पीय च ' इत्यादि । 'वीय च ' द्वितीया च पुनर्भावना मनः समितिख्यामाह-'पावएण' त्रम और स्थावर जीवों की रक्षा होती रहती है। उठने पैठने में गमन करने में साधु जीवों की चिरावना न हो' इस यात की विशेप माव धानी रखता है। युगप्रमाण भूमिका अवलोकन करता हुआ आगे २ के मार्ग में पढ़ता रहता है । इस तरह उसके द्वारा न कोई प्राणी हीलयितन्य होता है न निन्दितव्य होता है न गर्हितव्य होता है, और न हिंसितव्य रोता है। न छेत्तव्य होता है, न व्यथितव्य होता है और न दाख को प्राप्त कराने के योग्य ही होता है। इस प्रकार ईर्यासमिति के योग से भावितात्मा बना हुआ मुनिजन अपने अहिंसावत को निर्दोप रीति से पालन करता हुआ सन्चा अहिंसक बन जाता है। तथा इस प्रकार की प्रवृत्तिशाली होने के कारण वह सुसासु-मोक्ष को साधन करने वाला मुनि इस अर्थ को चरितार्थ करता है ।। स०६॥ अर सूत्रकार इसव्रत की दूसरी भावना जो मनोगुप्ति है उसे प्रकट અને સ્થાવર જીવોનું રક્ષણ થાય છે ઉઠવા બેસવામાં તથા ગમન કરવામાં વધારે જીવોની વિરાધના ન થાય” તેનુ મુનિ વધારે વ્યાન રાખે છે યુગ પ્રમાણ ભૂમિનું અવલોકન કરતા કરતા સાધુ માર્ગે આગળ વધે છે આમ થવાથી તેના દ્વારા કઈ પ્રાણી હીલયિતવ્ય, નિન્દિતવ્ય, ગહિંતવ્ય, અને હિસિ તવ્ય થતુ નથી તેનુ છેદન થતુ નથી કે તેને વ્યથા પહોચતી નથી, તથા દુખને પામતુ નથી આ રીતે ઈસમિતિના યોગથી ભાવિતાત્મા બનેલ મુનિ જન પિતાના અહિ રાવતનું નિર્દોષ રીતે પાલન કરતા કરતા સાચા અહિંસક થઈ જાય છે તથા આ રીતે પ્રયત્નશીલ હેવાને કારણે તે સુસાધુ–મેલને माधना। मुनि, मे मथने यस्ता ॥ -१ ॥ -હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની મનગુપ્તિ નામની બીજી ભાવના છે તેનું Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - १२५ प्रमाणावरे पापकेन-अशुभेन ' मणमा ' मनमा 'पाग' पापम् अशुभ माति, 'अर म्मिय ' अधार्मिक दर्गतिजनात्यान् , दारण-पिमा, तीबदुपजनकवाद , 'निमस' नृशंसम् आत्मन्तियातमन्नाद , तया-'हरपििक्लेमबहुल' वध पन्धपरिक्लेगलम् , तर-धी-मारणम् , न्य-निगाटियन्या, तज्जनित परिक्लेश-परितापस्नेन र पापा-सभृतम् , प्रतिगमयमसबसतापजनक त्यात् , तथा - ' मरणमयपरिस्टेिसममिलिट्ट , मरणभयपरिक्शसक्लिएम्-मरण-माणपियोगस्तम्य यद् गय तनिती य पशिलेशपरममन्तापस्तेन मेक्लिप्टसच्याप्तम्, नरकनिगोदापनन्तबजनवान्, एताश-निगेपणविशिष्ट करते ह-यीय च' इत्यादि। टीकार्थ-(घीय) दसरी मनोगुप्ति नामकी भावना हम प्रकार से है ( पावण्ण मणेण) अशुभ मन से जशुभ होता है अर्थात-अशुभ मन से जीव पाप का उपार्जन करता है। यह पाप ( अहम्मिय ) दुर्गति का जनक होने से अधर्म म्प है। (दारुण) तीव्र दुषों का उत्पदक होने से दामण-विपम अर्थात्-कष्टकारक होता है। तथा (निसस) इसमे आत्मा के हितका घान रोता है इसलिये नृशस है। (वयधपरिकिलेसवहल ) वध, बधन और इनसे उत्पन्न परिक्लेश-परितापसे यह सदा भरा रहता है । अर्थात प्रति समय यह असय सताप का जनक होता है। (मरणभयपरिकिलेससकिलिह) मरग के भय से जनित परम सताप से यह व्याप्त रहा करता है। अर्थात्-पाप से जीव नरक निगोद आदि के अनत दुःखो को भोगा करता है। इसलिये यह टी२ छ-"वीय च" त्यात ---"बीय" मी मनाशुसि नामनी भावना मानी छ-"पावएण मणेण " अशुभ भनथी अशुभ थाय छ-मेट सशुल भनथी ०१ पायन 6पान ४२ छे मा ५५ " अहम्मिय" तिनु नापाथी मध३५ छ “ दारुण" तीबमोनु SHE डापाथी दास-विषम मेटले ३ ४४४ २४ जाय छे तथा 'निसस" तभी आत्माना तिना घात थाय तथा त नृशस छ " वहब धपरिकिले सरहुल" वध, धन मन तभना ४ारो G ભવેલ પરિકલેરા--પશ્તિાપથી તે સદા ભરેલ રહે છે, એટલે કે પ્રતિસમય તે अस मता५ पहा ना२ बाय 2 "मरणभयपरिकिलेससकिलिट्ठ" મરણના ભયથી ઉત્પન્ન યેલ પરમ સતાપથી તે વ્યાપ્ત રહ્યા કરે છે એટલે કે પાપથી જીવ નરક નિગદ આદિના અનત દુખને ભ ગ યા કરે છે તે Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदाशना टाका अ० १ सू०७ भावनास्वरूपानरूपणम् पाप-पापेन मनसा भाति, अतएव-तत् ' कयापि' कदापिकस्मिन्नपि काले 'किंचि वि' किंचिदपि-स्वल्पमपि 'पारग' पापम् अशुभ न ' झायव्वं ' ध्यातव्यम्न चितनीयमित्यर्थः । एवम् अमुना प्रकारेण 'अवरप्पा' अन्तरात्मा जीवः ‘मणसमिडजोगेण' मनः समितियोगेन भारितो भवति । भावितात्मा कीदृशो भपति ? इत्याह --- अगालसक्लिष्टनित्रणचारित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकासयत' सुसाधुर्भवति । एपामर्थो द्वितीयभावना व्याख्याया द्रष्टव्यः ॥७॥ पाप नरक निगोद आदि दुर्गतियों के अनत दुखों का जनक होने से उनसे मदा भरा रहता है ऐसा कहा गया है । इस प्रकार के विशेषणों से विशिष्ट पाप यह जीव पापयुक्त मन से करता है। ऐसा समझ कर (कयावि किंचि वि) किमी भी काल में कुछ भी थोड़ा सा भी (पावण्ण मणेण ) पापकारी मन से (पावग ) पाप-अशुभ (न झायव्व) नहीं विचरना गहिये। (एव मणसमिटजोगेण अतरप्पा भाविओ भवह ) इस प्रकार से अतरात्मा-जीव मन समिति के योग से भावित होता है । ( असरलमसकिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंमए सजएसुसाह) यह भावित आत्मा मलिनता से रहित तथा विशुद्धयमान मन परिणाम से युक्त ऐसी हेतुभून चारित्र भावना के प्रभाव से अहिंसक होता है। और मयत होता है । और ऐसा होने के कारण ही वह सच्चा साधु-मोक्ष साधक मुनि-कहलाता है। भावार्थ-मन को अशुभ ध्यान से बचाकर शुभ भ्यान मे लगाना કારણે તે પાપ નર નિગદ આદિ દુર્ગતિના અનત દુબેન જનક હોવાથી તેનાથી સદા ભરેલ રહે છે એમ કહેવામા આવ્યુ છેઆ પ્રકારના વિશેષ– शोथी युत ५.५ मा ७१ पापयुक्त भनथी उरे छे से सभने “ कयावि कि चि वि" 35 पy आणे भाडा पशु “पावएण मणेण" पापा भनथी " पावग" पा५-५शुम “न झायव्य " पियार मे नही " एव मण समिइजोगेण अतरप्पा भाविओ भवइ" ॥ ४॥२ सतरात्मा-छप भन समि तिना योगथी सावित थाय छ “ अमबलमसरिलिटुनिव्वणचरितभावणाए अहि सए सजए सुसाहू " ते लावित मात्मा मलिनताथी २डित तथा विशुद्ध મન પરિણામથી યુક્ત એવી હેતુભૂત ચારિત્ર ભાવનાના પ્રભાવથી અહિંસક થાય છે અને સયત બને છે અને એવુ થવાથી જ તે સાચો સાધુ–મક્ષ સાધક મુનિ કહેવાય છે * ભાવાર્થ-મનને અશુભ ધ્યાનથી બચાવીને શુભ ધ્યાનમા લગાડવુ તેને -- प्र ७९ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रमायाकामा तृतीयां पचनसमितिम्पा भाषनामाद--तस्य न' यादि । मूलम्-तइयं च-चईए पावियासापपावगं अहम्मियं दारुणं निसंसं वहवधपरिफिलेसबहल जरामरणपरिफिलेससंफिलिहं न कयानि वईए पावियाए पावर्ग किचि वि भासियव्वं, एवं वइसमिइजोगेण भाविओ भवड अतरप्पा असवलमस किलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिसओ सजओ सुसाहू॥८॥ मनोगुप्ति है। शुभ ध्यान में लगाने का उपदेन हम लिने दिया जाता है अथवा मन को शुभ यान में इमलिये लगाया जाता है कि मन स्वयं अशुभ पनने न पाये । अशुभ ध्यान के मपर्फमध से मन अशुभ वन जाता है। और अशुभ मन से पाप काही उपार्जन होता है। पाप से जीवों को नाना प्रकार के कष्टों को भोगना पड़ता है। क्यों कि पाप स्वय एक अधर्म है। अधर्म होने से ही यह आत्मा के हित का घातक बनता है। और इसी कारण से जीवों को नाना प्रकार के दुग्वों को देता है। इस प्रकार पिचार कर जो मुनिजन अपने मन को अशुभ ध्यान में किसी भी समय नहीं लगता है उससे पचता रहता है ऐसा वह मुनि उस मन समिति से भापित बनकर अपने अहिंसा व्रत को निर्दोपम्प से पालन करता इआआदर्श अहिंसक बन जाता है । और इस प्रकार की प्रवृत्ति करने के रंग में रंगा हुआ वहसच्चे अर्थ मे साबुपद को सार्थक करता है ॥ १०७॥ મને ગુમિ કહે છે શુભ ધ્યાનમા લગાડવાને ઉપદેર એ માટે અપાય છે અથવા મનને શુભ ધ્યાનમા તે કારણે લગાડાય છે કે મને પિતે જ અશુભ બનવા પામે નહી અશુભ ધ્યાનના સપથી મન અશુભ બની જાય છે, અને અશુભ મનથી પાપનું જ ઉપાર્જન થાય છે પાપથી જેને વિવિધ પ્રકારના કષ્ટો ભેગવવા પડે છે કારણ કે પાપ પોતે જ એક અધર્મ છે અધર્મ હેવાથી જ તે આત્માના હિતનુ ઘાતક બને છે, અને એ જ કારણથી જીવને વિવિધ પ્રકારના દુખ દે છે આ પ્રમાણે વિચાર કરીને જે મુનિજન પિતાના મનને કદી પણ અશુભ ધ્યાનમા લગાડતા નથી, તેનાથી બચતા રહે છે, એવા તે મુનિ તે મન સમિતિથી ભાવિત બનીને પિતામાં અહિંસાવ્રતનુ નિદોષ પાલન કરીને અહિંસક બની જાય છે, અને તે રીતની પ્રવૃતિ કરવાના રગે ૨ ગાયેલ તે મુનિ સાચા અર્થમાં સાધુના પદને સાર્થક કરે છે સ ૭ u Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू०४ भावनास्वरूपनिरूपणम् टीका- ' तय च ' इत्यादि । ' तइय च ' तृतीया च भावना वचनसमितिरूपामाह--' वईए पावियाए ' वाचा पापिया=पाद्यभाणरूपयेत्यर्थः पापकमाघार्मिक दारुण दशस वध ६२७ अब सूत्रकार इस अहिंसाप्रत की तीसरी वचन समितिरूप भावना का प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं-' तइयच' इत्यादि० | टीकार्य - (नइय) वचनसमिति रूप तृतीय भावना इस प्रकार से हैं( पाविया वईए) सावयभाषणरूप वाणी से (पावग) जीव पाप का बध करता है । यह पाप (अहम्मिय दारुण निससवह यधपरिकिलेसबहुल जरामरणपरिकिलेस सकिलिह भइ) अपरूप है क्योंकि इससे जीवों को दुर्गति की प्राप्ति रोती है तथा इससे तीव्र दुखो को जीव भोगते है इसलिये यह दारुण-विषम है । आत्माके हितका इससे घात होता है इसलिये यह नृशंस है । वन, वचन और इनसे जन्य परिक्लेश- परिताप से यह पाप सदा भरा रहता है । जरा और मरण के भय से जनित सताप से यह सदा व्याप्त रहता है। ऐसा विचार कर जो मुनि ( न कयावि वई पाविया किंचिवि पावगभामियन्त्र) इस पाप वाणी को सावद्यभाषणरूप वचन को किसी भी समय थोडा सा भी नही बोलते है वे इस वचन समिति के योग से भावितात्मा वन जाते हैं । ( एव वय હવે સૂત્રના આ અહિંસાવ્રતની વચન સમિતિ નામની ત્રીજી ભાવનાનુ प्रतिपादन ज्याने भाटे सूत्र हे घे -" तइय च " त्याहि टीडार्थ - " तइय " वयनसमितिउप श्री ભાવના આ પ્રમાણે છે— " पावियार वईए " भाव लापश्य वाशीयी " " पावग જીવ પાપના ખધ આવે છે તે પાપ " अहम्मिय दारुण निसस वहन परिक्लेिस नहुल जरामरण परिकिलेससकिलिट्ठ भनइ અધમ રૂપ છે તેનાથી જીવાને દૃતિની પ્રાપ્તિ થાય છે તથા તેનાથી જીવ તીવ્ર દુખા ભાગવે છે તેથી તે દારુણુ-વિષમ છે તેનાથી આત્માના હિતના ઘાત થાય છે તેથી તે નૂરા સ જે વધ, ખ ધન અને તેના વડે ઉત્પન્ન થયેલ પરિકલેશ-પશ્તિાપથી તે પાપ સદા ભરેલ રહે છે જરા અને મરણના ભયથી જનિત મતાપ વડે તે સદા વ્યાપ્ત રહે છે. એવા विचार जीने ने भुनि " न क्यानि वई पवियाए किंचिवि पावग भासियन्न " આ પાપવાણીને સાવદ્ય ભાષણુરૂપ વચનને-કેાઇ પણ કાળે થાડુ પણ ખેલતા નથી, તે આ વચનસમિતિના ચેાગથી ભાવિતાત્મા બની જાય છે, ર एव " Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ प्रध्यारो वन्धपरिकलेशरछुल जरामरणपरिफ्लेग सल्टि भाति, अतण्य न कदापि वाचा पापिक्या पापक किंचिदपि भारितव्यम् । पर पारसमितियोगेन भावितो भाति अन्तरात्मा। भारितात्मा कीटशो भाति , इत्यार---अमवलामक्लिष्ट निर्मगचरित्रभाश्नया हेतुभूतया-अहिंसका संयत' सुमाधुर्मपति । एपामयों द्वितीयमापनाव्यायाया द्रष्टव्यः || मृ०८ ॥ समिहजोगेण भाविमोअतरप्पा असयलमसफिलिनिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसओ मजओ सुमाह मवह ) हम प्रकार वचन ममिति के योग से भावितात्मा पना हुआअतरात्मा-जीव-अभयल, असक्लिष्ट एव निर्बण निरतिचार चारित्र की भावना से अस्मिक और सयतयन जाता है । और सच्चे रूप में साधु-मोक्ष को साधन करने वालेइस नाम को चरितार्थ कर लेना है। भावार्थ-सावद्य भाषण नहीं करना इमका नाम वचन समिति है। सावद्य भापण करने से पाप का बध होता है। पाप अधर्म होने से विविध प्रकार के दासों का दाता होता है। यध यान आदि विविधकष्ट जीव को इसी के उदय से भोगने पटते है। इसलिए साधु का कर्तव्य है कि वह कभी भी कही पर भी किश्चित् रूप में भी असत्यभाषण नहीं करे । ऐसा विचार कर जो मुनि इस पापवाणी से निवृत्त हो जाते है वे ही अपने अहिंसानत को निर्दोप रूप में पालते हैं। इस प्रकार अपन अहिंसावत को पालन करने वाले साध ही मच्चे साधु-मोक्षको साधन करने वाले कलाते है ॥ भू०८ ॥ वयसमिइजोगेण भाविओ अतरप्पा असलमसकिलिनिवणचरित्तभावणाए अहिंसओ सजओ सुसाहू भवई" मा पारे क्यन समितिना योगयी लावતાત્મા બનેલ અતરાત્મા-જીવ-અશબલ, અસલિષ્ટ અને નિર્વાણચારિત્રની ભાવનાથી અહિ સક અને સયત બની જાય છે અને સાચા અર્થમાં સાધુ મોક્ષને સાધનારા–એ નામને ચરિતાર્થ કરી લે છે ભાવાર્થ–સાવદ્યભાષણ ન કરવું તેનું નામ વચન સમિતિ છે સાવા ભાષણ કરવાથી પાપને બધ બધાય છે પાપ અધર્મ હોવાથી વિવિધ પ્રકારના દુખનુ જન છે તેના ઉદયથી વધુ બ ધન આદિ વિવિધ કષ્ટ જીવને ભાગ વવા પડે છે તેથી સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તે કી પણ, કયાય પણ, થોડા પ્રમાં ણમા પણ અસત્ય ભાષણ ન કરે એ વિચાર કરીને જે મુનિ આ પાપવા હીથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તે જ પોતાના અહિસાવ્રતનુ નિદૉષ રીત પાલન કરે છે આ પ્રમાણે પિતાના અહિ સાબતન પાલન કરનાર સાધુ જ સાચા સાધુ-એક્ષને સાધન કરનાર સાધુ-કહેવાય છે કે સૂ. ૮l --- Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ० १ सू० ९ भाग्नास्वरूपनिरूपणम् चतुर्थीमेपणा भावनामाह-' चउत्थ ' इत्यादि । मूलम् चउत्थ आहारएसणाए सुद्ध उछ गवेसियव्य अण्णाए अकहिए आसिट्टे अदीणे अकलुणे अविसाई अपरिततजोगी' जयणघडणकरणचरियविनयगुणजोगसपउत्ते भिक्खू भिखेसणाए जुत्ते समुदाणेऊण भिक्खायरिय उछ घेत्तूण आगए गुरुजणस्त पास गमणागमणाइ यारपडिकमणपडिकते आलोयण दायण च दाऊण गुरुजणस्स गुरुसदिस्स वा जहोवएस निरइयार च अप्पमत्ते पुणरवि असणाए पयते पडिकमित्ता पसते । आसीणसुह निसपणे मुहुत्तमेत्त च झाणसुहजोगनाणसज्जायगोवियमणे धम्ममणे अविमणे सुहमणे अविग्गहमणे समाहियमणे सद्धासंवेगनिज्जरमणे पवयणवच्छल्लभावियमणे उठेऊण य पहढे तुट्टे जहराइणिचं निमतइत्ता य साहवे भावओ य विइण्णे गुरुजणेण उववि? सपमजिऊण ससीस काय तहा करयल अमुच्छिए अगिद्धे अगरहिए अणज्झोबवण्णे अणाइले अल्लुद्धे अणत्तट्ठिए असुरसुर अचवचव अद्यमविलवियमपरिसाडिय आलोयभायणे जयमप्पमत्तेण बवगयसजोगमणिगाल विगयधूम अक्खोवजणवणाणुलेवणभूयसजमजायामायानिमित्त सजमभारवहणट्टयाए भुजेज्जा पाणधारणट्टयाए सजएणं समिय । एवमाहारसमिइ जोगेण भाविओ अतरप्पा असवलमसकिलिमुनिव्वणचरित्तभाव. णाए अहिसए सजए सुसाहू ॥ सू०९ ॥ Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० प्रायानसून टीका-'चउत्य ' चतुर्ग भावनागेपणापामाद - ' आहारएमगाए । आहारैपणया ' मुद्ध' शुद्ध-निग 37 उ मेर ' गसियय ' गोषित व्यम् । यथा-लनान्नक्षेत्रातणादान, तथैन साधुनापि गृहस्थायं निष्पादितमन्न स्तीक स्तोक एपेपणीयमिति गान. | Tीमः सन गंपयेत् याह-'अण्णा' अज्ञात:-'निरोऽय मानित 'लादिरूपेग दारगानः, अहिए' अक पिता- धनिकोऽह प्रजनित ' त्यामरुटितः, 'असिह' अगिटा. 'उग्रव शीयोऽय मोगशीयोऽय' मिनि दायकायापनियोधित', तथा-'अदीणे 'अदीनः अब सूत्रकार चौथी एपणा समितिरूप भावना को करते हैं - 'चउत्य' इत्यादि। टीकार्थ-(आरमणा मुद्ध उगवेसियन) साबु आमरण पणा से शुद-निर्दीप उन्ध-घोडा गोडा लेने रूप भिक्षा की गवेषणा करे। तात्पर्य हमका यह है कि जैसे-जूने गये क्षेत्र से कणो का आदान होता है उसी तरह मातुको भी गृत्स्थ के लिये निष्पादित अन्न की स्तोक २ अल्प २ रूप में गवेपणा करनी चाहिये । जयब ह भिक्षा की गवेषणा करे तर उसे (अण्णा) अज्ञात होना चाहिये-दाता उसे यों न समझे कि यह धनिक होकर प्राजित हुआ है, इत्यादिरूप से दाता से उन्हें अपरिचित रहना चाहिये। (अमरिण) अकथित होना चारिये में धनिक या गरीब नहीं या फिर भी दीक्षित हुआ इस प्रकार का अपना परिचय उसे दाता को नहीं देना चाहिये। (असिहे) अशिष्ट रहना चाहिये-यह सामु उग्ररशीय हे, भोगवशीय है, इस रूप से दाता के वे सूत्रता मेषा समिति नामनी याथी भावना मताछ “च उत्थ" ध्याla A.-" आहारएसणाए सुद्ध उछ गवेसियव्व " साधु माहारेषाथी શુદ્ધ-નિર્દોષ લન્ડ શેડી ડી માત્રામાં ભિક્ષાની ગવેષણ કરે તેને ભાવાર્થ એ છે કે જેમ લાયેલ ખેતરમાથી કણનું આદાન થાય છે, એ જ રીત સાધુએ પણ ગૃહસ્થને માટે તૈયાર કરેલ અગ્નિ ડી ચોડી માત્રામાં ગષણા १२वी ने न्यारे ते लिखानी गवेषाए। ४२ त्यारे तो “अण्णाए " અજ્ઞાત રહેવું જોઈએ દાતાને તે વાતની ખબર ન પડવી જોઈએ કે તે ધનિક સ્થિતિમાથી દીક્ષિત થયેલ છેઆ પ્રકારે તેણે દાતાથી અપરિચિત રહેવું नमे “ अकहिए " मथित २ नये-" पनि उता गरी न હતે છતા પણ મે દીક્ષા લીધેલ છે ” એ પ્રકારને પિતાને પરિચય તેણે हातानोन नही " आस" मशिष्ट २३ नये " 20 साधु ઉગ્રવ શાય છે, ભગવસીય છે,” તે પ્રકારે દાતા આગળ તેણે પ્રગટ થવું Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० १ १०९ भावनास्वरूपनिरूपणम् -दीनतापर्जितः अालुणे' आरुण =न्यगृत्तिरहितः, 'अविसाई' परिपाटी'भिक्षालाभो भविष्यति न ये 'त्यादि रिपादनित , तथा-' अपरिततनोगी' अपरितान्तयोगी-अलाभादिषु तन्तनाादि गटवर्जिन', तथा-'जयणघडण करण चरिय पिनयगुणजोगसपउत्ते' यतन घटनकरणचरितपिनयगुणयोगसप्रयुक्तः, तर यतन-प्राप्तेषु सयमयोगेपु उद्यमः, बटन अप्राप्ति सनम-योगमाप्तिचेष्टनम् , एतद्वय कुरुते य स यतनघटनकरणः, तथा-चन्ति =मेरितो विनयो येन स चरितविनयः, तथा गुणयोगेन-समाधिगुणयोगेन सप्रयुक्तो य सः-गुणयोग सप्रयुक्तः, एतेपा र्मधारयः, एताटशो - भिक्ग्व् ' मिथु =साधु 'भिक्खेसगाए' प्रति उसे प्रकटित नहीं होना चाहिये । (अदीणे ) अदीन होना चाहिये दीनता के भाव से रहित रहना चाहिये अपने व्यवहार से दाता के प्रति उसे दीनता का भाव प्रकट नहीं करना चाहिये । ( अफलुणे) अकरण-ओठीवृत्ति से रहित होना चाहिये। उमकी वृत्ति ऐसी न हो कि जिस से वह दाता के दृष्टि मे ओछी प्रतीत हो। ( अविसाई) विपाद से उसे रहित होना चाहिये-भिक्षा का लाभ होगा या नही होगा इस प्रकार का विपाद उसे नहीं करना चाहिये । (अप रिततजोगी) अपरितातयोगी-अलाम आदि की अवस्था मे उसे तनतनाट नहीं करना चाहिये। (जयण-डण-करण-चरिर विनयगुणजोगसपउत्ते ) प्राप्त सयमयोग में उद्यम करना इसका नाम यतन है इस यतन को तथा अप्रास सयमयोग को प्राप्ति मे चेष्ठा करना हमका नाम घटन है, इस पटन को जो करने गला है वह यतन घटन करण है तथा विनयगुण को पहिले से जिग्ने आचरित किया है एव समाधि RJD नही . अदीणे " महीन रहन-दहीनताना माथी २डित रघु જેઓ–પિતાના વ્યવહારથી દાતા આગળ તે દીનતાને ભાવ પ્રગટ કરે ने नही " अकलुणे" २५४२११-साछी वृत्तिकी २डित युनेस, तेनी वृत्ति मेची नवीन ते हातानी ष्टि गाठी काय, 'अविसाई" તેણે વિષાદ રહિત રહેવું જોઈએ મિલાલાભ મળશે કે નહી એવો વિવાદ तणु ४२३ मे न “अपरिततजोगी " अतियोगी-महान माह भवस्थामा र तेणे तनतनाट नइयो ने " जयण, घडण-करण-चरिय -विनयजोगसपउत्ते" पास सयम योगमा GH. ४२३। तेने 'यतन' ४ છે આ વતનને તથા અપ્રાપ્ત સયમ ગની પ્રાપ્તિની રોષ્ટા કરવી તેને ઘટન કહે છે આ ઘટનને જે કાર છે તે ચતવનકાળ છે તથા વિનયગુણને પહેલેથી જ જેમણે આચર્યો છે તથા સમાધિગુણના વેગથી જે યુક્ત બનેલ Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण्याकरण भिक्षेपणायां 'जुत्ते ' युक्त नः ' समुदाणग' ममदानीय भिक्षामनेक गृहेषु भ्रमित्या 'भिखाचरिय उठ' मिलानमुनागपाल्पग्रहगरूपा मिल 'घेतण' गृहीत्वा गुरुजनस्य 'पास' पार्थ-समीप' आगा' ममागतः ' गम णागमणाझ्यारपडियमणपडिररुते । गमनागमनातिनारमतिरमणपतिवन्त: गमनागमनातिचाराणा मतिनाणेन ईर्यापविकीमाश्रित्तेन प्रतिक्रान्ता-निवर्तितपापः, ' गुरुजणस्स ' गुरुननस्य । गुगसदिसम्म ' गुरुसन्दिप्टम्प गुरुणा निदिप्टस्य रत्नाधिकम्यान्यमुनेरन्तिके पाजोपस' ययोपदेगा उपदेशानति क्रमेण ' निरइयारं ' निरतिकार च ' गेयणा दायण च दाउण' आलोचना दान च दत्चा-यथा यथा मिना गृहीता तथा नया मी समालोच्य 'अप्पमते' अपमत्तः-प्रमादवर्जितः 'पुण' पुनरपि चागामिले 'अणेसणाग ' अनेप गुण के योग से जो युक्त ना आ है वर नियगुण सप्रयुक्त कहलाता है ऐसा (भिक्खू ) मा (भिरखेमणाण जुत्ते) भिक्षेपणा में सलग्न होकर रह (समुदाणेऊण ) भिक्षार्थ अनेक घरों में घूमें, और वहा से (भिस्पायरिय उठ) अल्प अरप रूप मे भिक्षा (घेत्तूण) ग्रहण करके फिर वह (गुरुजणस्स पान आगर) अपने गुरुजन के पास में आवे । (गमणांगमणाइयारपडियमणपटिकते आलोयण दायण च दाऊण) और वह गमनागमन के अतिचारों के प्रतिक्रमण से ईर्यापथिकी प्रायश्चित्त से प्रतिकार ने इस तरह निवर्तितपाप होकर वह (गुरुजणस्स ) गुरुजन के (या) अथवा ( गुरुसदिट्ठस्स) गुरु से सदिष्ट अन्य रत्न त्रयाधिक मुनि के (जहोवएस) उपदेश के अनुसार जहा २ से भिक्षा उसने ली है उस उस प्रकार से सबकी (निरइयार) निरतिचार आलोचना करे आरोवना करके (अप्पमत्ते) प्रमाद वर्जित, बना हुआ तथा छ ते विनयशु प्रयुत उपाय छे सेवा " भिस्स' साधु " भिक्खे सणाए जुत्ते" लक्षानी मेषामा “ समुदाणेऊण" लक्षाने भाट भने घर १२, सने त्याथी “ भिक्सायरिय " अ५ १६५ मात्रामा लिक्षा 'घेत्तूग' अडए गते "गुरुजणस्स पास आगए" पोताना शुरुननी पास माव, " गमणागमणाइयारपडिक्कमणपडिक्तआकोयणवायर्ण य दाऊण" । म त ગમનાગમનના અતિચારોના પ્રતિક્રમણ વડે ઈર્યાપથિકી પ્રાયશ્ચિત્તથી પ્રતિકાન્ત थाय भने से शत पानी निवृत्त न " गुरुजणस " गुरु-नन “वा" मथवा “गुरुसदिदुस्म" शुरुथी निटि अन्य त्नत्रयधारी मुनिना "जहोवएस" ઉપદે પ્રમાણે જ્યા જ્યારે તેણે ભિક્ષા મેળવી હોય તે તે પ્રકારે તે સૌની "निरइयार " निरतियार मासोयना ४२ मासायना ४शन " Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी का अ० १ सू०९ भायनास्वरूपनिरूपणम् णायाम् उद्गमादिदोपरूपायाम् , ' पयए' प्रयत' अयत्नवान-तद्गतदोपपरिहारे उद्यमवानित्यर्थ , पडियमित्ता' पतिकन्य-कायोत्सर्ग कृत्वा 'पसते ' प्रशान्तः= आहारेऽनातुरः तया-'जामीण सुहनिसणे' आसीनसुग्वनिपण्णः, तत्र-आसीन = उपविष्टः, सुखनिपणागमनागमनजनितपरिश्रममवेदयन् सुखपूर्वक स्थितः, पुनः कीदृशः ? 'मुहत्तमेत्त च' मुहर्तमान च, ' झाणसुभगोगनाणसज्जायगोत्रियमणे' भ्यानशुभयोग ज्ञानस्वाध्यायगोपितमनाः, तर यान-धर्म यानादिलक्षणम् , शुभयोगा सयमव्यापार , ज्ञानम्-भगवदुपदिप्टमोक्ष हेतुनिरवयसात्तिपरिचिन्तनम् , तथा-स्वाध्यायः मूलमनपरिगुणनम् , एतैोपित = विषयान्तरगमनेन निरुद्ध मनो येन सः, अतएर 'धम्ममणे' धर्ममना'-श्रुतचारिजलक्षणधर्मयुक्ताः, तथा' अविमणे' अविमना =अरमपिरसारिलाभेऽपि विपादार्जितचित , तथा ' मुह (पुणरवि अणेसणाए पया) आगामी साल में उद्गमादि दोप रूप अनेपणा मे प्रचत्नगील बना हुआ-अर्थात्-एपणागत दोपों के परिहार में मदा सावधान बना हुआ वह मुनि (पटिझमित्ता) कायोत्सर्ग करके (पसते ) प्रशान्त बने-आहार में आतुर न बने ( आसीणहनिसपणे) चैठ जावे और भिक्षा के निमित्त गमनागमन में होने वाले परिश्रम का कुछ भी ख्याल न करे प्रत्युत सुखपूर्वक-अच्छी तरह से चैटे । (मुहत्तमेत्त च झागलुभजोगनाणसमार गोळ्यिमणे) उस समय वह एक मुहर्ततफ धमे चानादिरूप ध्यान से, शुभयोग से, भगवान के द्वारा कथित मोल की हेतुभूत निरवद्य साधुवृत्ति के विचार से, तथा मूलसूत्र के परिगुणन से विषयान्तर में जाते हुए अपने मन को रोंके और श्रुतचारित्ररूप धर्म से युक्त अपने मन को रसे। इस तरह (धम्ममग्गे) धर्म मार्ग वाला तथा (अविमणे) अविमन-अरम चिरस आदि आहार अमाह २हित अनेट तथा “पुणरवि अणेमणारा पया" भविश्यमा मा દોષરૂપ અનેણામાં પ્રયત્નશીલ બનીને–એટલે કે એણુગત દાના ત્યાગમાં सावधान मनीन ते भुनि “ पडिकमित्ता" डायोत्सर्ग उरीने 'पसत" प्रान्त मन-माहारने भाट मातुर ने भने “आसीणसुहनिसणे" गेसी नय मन ભિક્ષાને નિમિત્ત ગમનાગમનમાં થતા પરિશ્રમને કહેજ પણ વિચાર ન કરે अत्यंत भुण -१२१५२ शत मेले मुहत्तमेत्त च झाण सुभजोगनाणसज्झाय गोवियमणे" ते सभये ते मे भुत सुपी बम ध्याना३ि५ ध्यानया, शुभ ગથી ભગવાન દ્વારા કથિત મોલની હેતુભૂત નિરવદ્ય સાધુ વૃત્તિના વિચાથી, તથા મૂળસૂત્રના પરિગુણનની બહારના વિષયમાં પોતાના મનને જતા ॐ भने पोताना भनने तयात्रि३५ घममा परीवे मानते 'धम्ममग्गे" धर्मभनव तया "अविमणे" भविमन-म२म, नीम माहिमा प्रातिमा पू.८० Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ प्रमायाकरण मणे ' मुग्यमनासयमानुरक्तचितः, नया-'मपिग्गहमणे' अविग्रहमना:-मक्लिटमनोभापार्जितचित्त , तथा- समाहियमणे' समाहितमना=गमाहित रागद्वेष राहित्येन आत्मनि सम्यगुपनोत मनो येन सः, उपशान्तचित्त इत्यर्थ , तथा'सद्धासवेगनिज़रमणे । श्रद्धासंवेगनिनरामना, तन-बदा-जिनमताभिरुचिः, सयेग =मोक्षामिलापः, निर्जराधर्मक्षपण च मनमि यत्य ग, तचार्यश्रदानान्मोसरचिस्ततो निर्जरा, तद्वानित्यर्थः, तया-पायण बलमावियमणे' प्रवचनवा त्सल्पभावितमनाः माचनानुरागरजितचिचः, 'उठेग्ण य ' उत्या य च 'पह?' महप्ट:-अतिशयममुदितः, अत-तुढे 'तुष्टः 'जहाराणिय' यथारानिक यथापर्याय लघु पर्यायानुसारेण 'साहये' साधून समानसमाचारिकान् मुनीन् 'भावो' मारत:-अन्त करणेन ननृपर्युपरितया 'निमतइत्ता य' निमन्य% आहारग्रहणार्य समायं अनन्तर ' गुरुजणेण ' गुरुननेन 'विठणे य' रितीर्णच% के लाभ में भी विपाद से विहीन चित्त वाला, (सुरमणे) सुखमनसयम में अनुरक्त चित्त बाला,तथा ( अविग्गामणे) सलिष्ट मनोभाव से वर्जित हृदयवाला, और (समात्यिमणे ) रागद्वेप से रहित रोने के कारण उपशान्त मनवाला तथा (सद्धा सवेगनिज्जरमणे) श्रद्धातत्त्वार्थ-श्रद्धान, सवेग-मोक्ष मे मचि और निर्जराकर्मक्षपण इनमें मन रखनेवाला, (पवयणवच्छल्लभाविधमणे) प्रवचनानुराग से जिसका चित्त अनुरजित बना हुआ है ऐसा वह साव (उद्देऊण य) अपने स्थान से उठकर (पढे) अतिशय प्रमुदित एव (तुहि) सतुष्ट होता हआ (जहाराइणिय साहवे) यथापर्याय-बडे छोटे के क्रमानुसार साबुओं से भावपूर्वक (निमतइत्ता य) आहार ग्रहण करने के लिये प्रार्थना करे। इसके बाद (गुरुजणेण विइण्णे य) गुरुजनो बडो का Y विषा६ २डित वित्तवाणा, “सुहमणे" सुगमन-सयभमा मनु२४त वित्त वा, तथा “ अविग्गहमाणे " ससिट भनाला २डित इयवाणा, मन " समाहियमणे" रागदेष २डित जापान सीधे 8421न्त भना , तथा "सद्धा सवेगनिज्जरमणे" श्रद्धा-तत्वार्थमा श्रद्धा, सश-मोक्षनी यि मने नि । भक्षपशुमा मन शमनार "पवयणवच्छल्लभावियमणे" अवयनानुराशीनु वित्त अनु२ जित मन्यु छ सेवा ते माधु 'उठेऊणय ' पोताना स्थानेथी हीन "पह" भतिशय मानहित मने “तुति" सतुष्ट न “जहाराइणिय साहवे, यथा पर्याय-नाना मोटाना उभ प्रमाणे साधुमान मापूर्व " निम तइत्ताय " माडा२ ७ २पाने माटे विनति ४२ त्या२ मा “गुरुजणेण विइण्णेय " गुरुना 43 अपायेस माडा२ " तमे सोन " Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ० १ सू०९ भाषनास्यरूपनिरूपणम् दत्ते सति 'भुडव त्वमशनादिक' मित्यनुज्ञाते ना सति, 'अविटे' उचितासने उपविष्टः सन् 'समीस काय ' सशीपं काय-सपूर्ण शरीर, तथा करयल ' कर तल च 'सपमज्जिऊग' सामाज्य अमुच्छिए' अमूछितः आहारविपये मूछारहितः ' अगिधे' अगृद्धः-अप्राप्तरसेऽप्याड्झारहित', 'अगढिए ' अग्रथितः रसानुगताकाक्षास्पतन्तुजालैरनापद्धः, तथा- अगरहिए ' अगहित आहारविपयै अकृताहारगर्ह , अकृतदाउगईश्चेत्यर्थः, तथो-'अगझोववष्णे' अनध्युपपन्ना रसविपये लोलुपतार्जितः, तथा-'जणाडले' अमारिल =अकलुपः 'अलद्धे । अलुब्धो-लोभरहितः, तथा अगत्तहिए ' अनात्मार्थिकानकवलमात्मस्वर्थीपरमार्थकारीत्यर्थः, असुरसुर' मुरसुरशब्दरहितम् , ' अचपचवम् ' चपड चपड दिया हुआ आहार " तुम भोजन करो" इस प्रकार आज्ञा मिलने पर वह साधु (उवविढे ) उचित आसन पर बैठ कर (ससीस काय करयल सपमज्जिऊण) मस्तक से लेकर अपने समस्त शरीर को और करतल को अच्छी तरह प्रमार्जित करे । प्रमार्जित करके (अमुच्छिए ) आहार के विषय में अछि बना हुआ वर साधु (अगिद्धे ) अप्राप्त रस में आकाक्षा से रहित, तथा (अगदिए ) रसानुगत आकाक्षा रूप तन्तुजाल से, अनारद तया (अगरहिए)-आहार के विपय में अथवा दाता के विषय में गर्दा करने से रहित और (अणज्झोवरपणे) रस के विपय में लोलपता से विहीन बन कर आहार करे । उस समय वह (अणाले ) अनाविल-अकलुए और ( अलद्ध) अलुब्ध-लोभरहित होकर (अणतट्टिण) अनात्मार्थिक-केवल आत्मस्वार्थी न बनता हुआ आहार करते समय वह (असुरसुर) सुर सुर भातात साधु “ उवविद्वे" योग्य मासन ५२ मेसीन "ससीस कायकरयल सपमज्जिऊण" Rथी साधने पाताना मा शरीने तथा यमीन साग शत प्रभावित ४शने “ अमुच्छिए " २२ना विषयमा अभूति मनाने ते साधु “ अगिद्ध" nात २सनी मरक्षाथी -डित तय "अगढिए" २सानुगत साक्षा३पी तन्तुया मना-भुत तथा “ अगरहिए " माही २ना विषयमा हाताना विषयमा गई ४२पानी ल्याथी २डित तथा " अण ज्झोववणे" २सनी ममतमा सदुपता २डित मनीने माडा ४२व नध्य ते सभये ते " अणाइले " मनाविस-४ो। २हित अने" अलुढे " मखुण्यसोलरहित थाने "अणतदिए " मनात्मा4ि3-34 भाभस्वार्थी न मने माडा२ ४२ती मते ते " असुरसुर " "सु२ ९२" श न ४२ "अचवचरण Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रभाषाकरण श दरहितम् . ' अहुय' गुनग्-नाणीवा जत्रिपिय ' अविरचितम् ना तिमन्दम् 'परिमाडिय' मास्मिादिग-परिगाटार्जितम्, चिन्तापातयमित्यर्थ , तथा-'आलोयमायणे' लोकमागने मारायुक्तपात्रे 'जय ' यत-पतनापूर्व फम् ' अप्पमत्तेण' अप्रमतेन-सामधानेन 'गयसनांग' व्यपगतमयोगम् सयोजनादोपरहितम् अधिकरणादियुक्तास्तुनोऽपत्यगादियुक्तरम्नुनि समलन सयोगस्तद्रहितमित्पर्यः, ' अभिगारम् ' अनहारम् =मशारदापार्जितं रागरहित मित्यर्थः, तथा-'विगयधूम' विगतम-शूमदोपति उपरहितमित्य यः, तदुक्तम् 'रागेण सहगाल दोसैण सथमग रियाणाहि' इति, तथा-'भापोवनणरणाणुलेवण भूय' अक्षोपासननणानुलेपनभूतम्-तन जास्याफटधुरः,उपासनम् लाभ्यज्ञ नम् तया-'वणाणुलेवग' प्रगानुलेपन-अगस्य-स्फोटकम्य अनुलेपनम् औपघलेपनम् , तयोर्भूत-मदृश यत्तत्, तथा-सनमनायामायानिमित्त-सययाना माना निमित्त शब्द न करे (अचवचल) चपड चपट शन्द न करे। (अट्ठय) न पष्टुत जल्दी जल्दी (अपिलपिय ) न पहुन धीरातथा (अपरिसाडिय) साते समय आहार के सीय को जमीन पर नहीं गिराता हुआ (आलो यभायणे) प्रकाशयुक्त पात्र में (ज्य) यतना पूर्वक (अप्पमत्तेण) बडी सावधानी के साथ (वयगय सजोग) सयोजनादि दोपरहित-अर्थात्अधिक लवण आदि से युक्त वस्तु को अरप लवण आदि से युक्त वस्तु के साथ न मिलाकर ( अणिगाल च) अगार दोप रहित आहारसामग्री में राग रहित तथा (विगयधुम) धृमदोपरहित-द्वेपरहित (अक्खोवजणवणाणु लेवणभूय) जिस प्रकार शकट की धुरा में तैल का लगाना भारवहन के निमित्त ही किया जाता है और दसरे किसी प्रयोजन के लिये नहीं किया जाता है तथा व्रण-घाव-पर मरहमपट्टी आदि का " य५४ २५५४" . न “ अहय" वधार पथीभाय नही, 'अवि लबिय " qधारे धामेथी माय नहीं तथा “अपरिसाडिय" माती मत माहाना पहाने भान ५२ ५४ा हीधा विना "आलोयभायणे" ५ पास पात्रमा " जय " यतन। पूर्व "अप्पमत्तेण" ए सावधानीथी “ बवगयसजोग" सयोना होप २डित-मेट पधारे भी. माहि पाणी परतुने यो। भी1 माहि पाणी वस्तु साथै यत्र या विना "अणिगाल च" मार होप २डित माडार साभामा हित तथा “विगयधूम " धूम होप २डित देघ २हित “अक्सोनजणवणाणुलेवणभूय" भ नी घरीमा તેલનું સિચન ભારવહનને માટે જ કરાય છે પણ બીજા કોઈ કારણે કરાતું Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० १ सू० ९ भावनास्वरूपनिरूपणम् ६३७ सयमयाना-सयमपरिपालन सैव माना-आलम्बन तन्निमित्त तदेतोः सयमयात्रानिर्वाहार्यमेवेत्यर्थ, तथा-'सजमभाग्रहणयाए' सयमभारवहनायतया पयमभारसहनार्थम् , तया-'पाण धारणट्टयाए ' माणधारणार्यतया माणधारणार्थ च 'सजए ण ' सयतः सलु 'समिय' सम्यक्-यतनापूर्वक-समिक वा-समभावेन, 'भुजेज्जा' भुञ्जीत । यथा अक्षस्योपाञ्जन भारवहनार्थमेव घिीयते, नान्यप्रयोजनार्थम् , यथा च त्रणानुलेपन तन्नित्ययमेर विधीयते, तथैव-सयमयानानि हार्थ-सयमभारवहनार्थ प्राणधारणार्थ च साघुर्भुनीत, न तु शरीरबलरद्वयर्थ रूपलावण्यवृद्धथै चेत्याशयः । एवम्-अमुना प्रकारेण आहारसमितियोगेन भावितो भवति अन्तरात्मा । भारितात्मा कीदृशो भाति ? इत्याह-अशरलासलिष्टनिव्रणचरित्रभावनया हेतुभूतया अहिंसकःसयतःमुसाधुभवति । एपा पदानामर्थों द्वितीयभावनाया व्याख्यातस्ततोऽवगन्तव्यः ।।मु०९॥ प्रयोग उसकी निवृत्ति के दिये किया जाता है उसी तरह (सजमजायामाया निमित्त) सयमयात्रा के निर्वाह के लिये (सजमभार वहणहाए) सयम रूप भार को ढोने के लिये और (पाणपारणच्याए) प्राण धारण के लिये (सजएण) सयत-मुनि (समिय) यतना पूर्वक समभाव से (भुजेज्जा) आहार करे। किन्तु शारीरिक बलवृद्धि के लिये तथा रूपलावण्य की वृद्धि के लिये नही करे। (एचमाहारसमिइजोगेण भाविओअतरप्पा असवलमसकिलिठ निव्वणचरित्त भावणाए अहिंसए सजए सुसा) इस प्रकार का आहार समिति के योग से अतरात्मा भावित हो जाता है। भावित हुआ वह अन्तरात्मा अशवल, असलिष्ट एव निव्रण (निरतिचार)चरित्र की भावना के कारण अहिंसक और सयत बन जाता है, और मच्चे रूप मेसायु-मोक्ष को साधन करने वाले इस नाम को चरितार्थ कर लेता है। नया मे प्रमाणे “ सजमजायामायानिमित्त" मयमयात्राना निवडने भाट "सजमभारवहणढाए " सयभ३पी मा२नु वहुन उवाने माटे भने “प्राणधारणटाए" प्राधाराने भाट "सजएण" सत-मुनि “समिय" यतना पूर्व सभमाथी “मुजेज्जा" माडा२ उरे ५५ सा धारवाने भोटे तथा ३५सायनी वृद्धिने माटे न ४२ “एषमाहारसमइजोगेण भावेण अतरप्पा असपलमसकिमिट्टनिब्याणचरित्तभावणाए अहिंसए सजए सुसाह" આ રીતે આહાર સમિતિના ચેગથી આ તાત્મા ભાવિત થયે જાય છે ભાવિત થયેલ તે અન્તરામાં અાવેલ અને લિષ્ટ અને નિર્વાણું ચારિત્રની ભાવનાને કારણે અહિંસક તથા સ યત બની જાય છે, અને સાચા અર્થમાં સાધુ મોક્ષને સાધન કરનાર તે નામને ચરિતાર્થ કરે છે. Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३८ - - - - भावार्थ-इस सूत्र यारा सूप्रकार ने एपणा समिति नाम की चतुर्थ भावना का स्पष्टीकरण किया है। इसमें वस्तु का गवेषण, उसका ग्ररण तथा उपयोग, इत तीन यातों का विचार किया जाना है। उछ आहार की गवेषणा करते समय साधु को अमात, अकथित आदि रूप में रह कर ही विचरना चाहिये । आहार प्राप्त शेगा या नहीं होगा' इस मकार के सदेहयुक्त विचार से उसे विपाद मारमपन्न नहीं होना चारिये । अपने द्वारा गृहीत सयम की जिम प्रकार रक्षा रोसा ही प्रयत्न उसको करते रहना चाहिये तथा जो संयम भाव प्राप्त नहीं हुआ है उसकी प्राप्ति में उसका सतत उद्योगी ररना चाहिये । भिक्षाका लाम न होने पर उसके चित्त में ग्लानि का माव नहीं जगना चाहिये । ओर न क्रोधादि के आवेश में आकर तनतनाट करना चाहिये। भिक्षा प्राप्ति के निमित्त उसे अनेक गृहस्थों के घर पर जाना अनिवार्य है। वहा से वह अल्परूप में प्रत्येक घर से भिक्षा ले। जा देसे की भिक्षा की पति हो गई है तो वह वापिस उपाश्रय में आवे और गुरु के समक्ष प्राप्त भिक्षा को रखकर गमनागमनजन्य अतिपारों की प्रतिक्रमण करके शुद्धि करे । फिर गुरु के पास अथवा गुरुनिर्दिष्ट अन्य और रत्नाधिक मुनि के समीप जिस २ प्रकार से उसने गोचरी ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે guળાભિરિ નામની સાથે ચોથી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તેમાં વસ્તુના ગપણ, તેનું ગ્રહણ, તથા ઉપ ગ, એ ત્રણ વાતને વિચાર કરાય છે ઉ છ આહારની ગવેષણ કરતી વખતે સાધુએ અજ્ઞાત, અકથિત, આદિ રૂપમાં રહીને જ વિચારવું જોઈએ આહાર પ્રાપ્ત થશે કે નહી થાય” એવા સદિગ્ધ વિચારથી તેણે વિષાદ કરે જોઈએ નહી પિતે ગ્રહણ કરેલ સયમની જે પ્રકારે રક્ષા થાય એ જ પ્રયત્ન તેણે કરતા રહેવું જોઈએ તથા જે સચમ ભાવ પ્રાપ્ત થયો નથી તેની પ્રાપ્તિ માટે પ્રયત્નશીલ રહેવું જોઈએ, ભિક્ષા પ્રાપ્ત ન થતા તેના મનમાં લાનિનો ભાવ ઉત્પન્ન થ જોઈએ નહીં અને ક્રોધાદિના આવેશમાં આવીને તનતનાટ કરે જોઈએ નહીં ભિક્ષા પ્રાપ્તિને માટે અનેક ગૃહસ્થને ઘેર જવું તે તેને માટે અનિવાર્ય ગણાય છે ત્યાથી પ્રત્યેક ઘરેથી તે થોડી થોડી ભિક્ષા ગ્રહણ કરે જ્યારે ભિક્ષાની પ્રાપ્તિ પૂર્ણ થઈ ગયેલી લાગે ત્યારે તે ઉપાશ્રયમાં આવીને ગુરુની સમક્ષ પ્રાપ્ત થયેલ ભિક્ષાને મૂકીને ગમનાગમન જન્ય અતિ ચારેની પ્રતિક્રમણ કરીને શુદ્ધિ કરે પછી ગુરુની પાસે અથવા ગુરુનિદિષ્ટ બીજા કેઈ ત્રિરત્ન ધારી સાધુની પાસે તેણે જે જે પ્રકારે ગોચરી પ્રાપ્ત કરી Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० १ सू.९ भावनास्वरूपनिरूपणम् भिक्षा प्राप्त की है उसकी आलोचना करें। इस तरह प्रमाद चर्जित पनकर वह आगामी काल में इस रातकी विशेष सावधानी रखे की जिससे उगमादि दोपों का आहार में परिहार (निवारण) होता रहे। कायोत्सर्गकरके वह आहार में अनातुर बनकर शांति-सुखपूर्वक वैठ जावे। और जबतकआहार करने का समय न आये इसके पहिले अपने मन को ध्यान, शुभयोग, ज्ञान, और स्वाध्याय में लगाये। किसी भी प्रकार का सक्लिष्ट भाव अपने मन में न आने देवे । याद मे-जय आहार का समय आ जावे तय उठकर यथापर्याय अर्थात् बडे छोटी के क्रम से समस्त साधुजनों को योग की अवक्रतापूर्वक आहार के लिये आमत्रित करे । गुरुजन जन भोजन करने की आज्ञा प्रदान करे तव अपने सशीर्ष शरीर आदिका प्रमार्जन कर, अमृच्छित आदि भाव सपन्न घनकर यत. नापूर्वक आगमोक्त विधि के अनुसार आहार करे । आहार करते समय इस बात का यह ध्यान रखे कि यह आहार में शरीर में वलवृद्धि के निमित्त अथवा काति आदि बढाने के निमित्त नहीं कर रहा है किन्तु सयमयात्रा के निर्वाह के निमित्त सयमभार वहन करने के निमित्त, और प्राणधारण के निमित्त ही कर रहा है। इस प्रकार आहारसमितिके योग से यह जीव वासित हो जाता है तो वह अपने ग्रहीन व्रत के अहिंसा अतिचार आदि दोपों से रक्षित करता हुआ सच्चा अहिंसक सयत હોય તેની આલોચના કરે આ રીતે પ્રમાદ રહિત બનીને તે ભવિષ્યમાં તે વાતની વધારે કાળજી રાખે કે જેથી ઉદ્દમાદિ દેને આહારમાં ત્યાગ થતો રહે કાત્સર્ગ કરીને આહાર માટે આતુર બન્યા વિના તે શાતિથી બેસી જાય અને આહાર કરવાને સમય ન થાય ત્યા સુધી પોતાના મનને ધ્યાન, શભયોગ, જ્ઞાન અને સ્વાધ્યાયમાં લીન કરે, કોઈ પણ પ્રકારને સ કિલષ્ટભાવ પિતાના મનમાં થવા દે નહી પછી જ્યારે આહાર કરવાનો સમય થાય ત્યારે ઉઠીને પર્યાય પ્રમાણે એટલે કે મોટા-નાનાના કામમાં સમસ્ત સાધુઓને વિનય પૂર્વક આહારને માટે આમ ત્રે, ગુરુજન જ્યારે ભોજન લેવાની આજ્ઞા આપે ત્યારે પિતાના શિર શરીર આદિનુ પ્રમાર્જન કરીને, અમુકિત આદિ ભાવયુક્ત બનીને યતના પૂર્વક આગમેત વિધિ પ્રમાણે આહાર કરે આહાર કરતી વખતે તેણે તે વાતનું ધ્યાન રાખવું કે હું આ આહાર શરીરમાં બળ વધારવા માટે કે રૂપ વધારવા માટે કરતા નથી પણ સ યમયાત્રાના નિર્વાહને માટે સયમભાર વહેવાને માટે, અને પ્રાણધારણને માટે જ કરૂ છુ આ પ્રમાણે આહાર સમિતિના ચોગથી તે જીવ વાસિત થઈ જાય છે તે તે પોતે Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० मन्नध्याकरण अथ पञ्चम निक्षेपभानामाद-'परम' हत्यामूलम् - पंचम पीढफलग सेज्जा संथारगवत्थपत्तकंचलदंडगरयहरण चोलपट्टगमुहपत्तिगपायपुछणाद्धि, एयपि संजमस्स उबवूहणट्टयाए वायातवद समसगसीयपरिरक्खणट्टयाए उवगरण रागदोसरहिय परिहरियव्वं, सजणं निच्च पडिलेहण पफोडणापमज्जणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेण होइ सनयं निक्खियव्वं च गियिव्त्र च भायण भडोबहि उबगरणं । एवं आयणभंडणिक्खेवणासमिइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा असवलमसंकिलिहनिव्वणचरित्त भावणाए अहिंसए सजए सुसाहू | सू० १० ॥ टका - ' पचम' इत्यादि " पचम' पञ्चमीमादाननिक्षेपरामित्तियां भारनामाह-' पीढकलगसेज्जा सथारगप्रत्थपत्तकालदडगरयहरणचोलपट्टगमुहपौत्तियपाय पुणाई पीठफलक शग्यासस्वारक रखपान कम्पलदण्ड करजोहरण चोलपट्टकमुग्वपोति पादमञ्छनादि, तत्र - पीठ = काष्ठमय 'पाट ' इति प्रसिद्धमासनम्- ' फलक = 'नाजोट " बन जाता है | और सुसाधु नामगे सफल करता है । ॥ सु०९ ॥ अब सूत्रकार पाचवी जो निक्षेपभावना है उसे प्रकट करने के लिये सूत्र कहते हैं - ' पचम' इत्यादि । टीकार्थ - (पचम) पाचवी भावना आदान निक्षेपसमितिरूप है वह इस प्रकार है (पीढफलग सेज्जासारगवत्थपत्तकबलदडगर यह रणचोलગ્રહણ કરેલ અહિંસાવ્રતનુ અતિચાર આદિ દોષાથી રક્ષણ કરતા થ સાચા અહિંસક સત અની જાય છે અને સુસાધુ નામને સફળ કરે છેાસૂ લા હવે સૂત્રકાર પાચમી જે નિક્ષેપ ભાવના છે તેનુ વધુન કરવાને માટે उहे छे-" पचम " इत्याहि टीजर्थ—' पचम ” पाथभी भावना आदाननिक्षेपसमिति नामनी छे ते या प्रभा छे-पीढ फलग सेज्जासधारगवस्थपत्तकनल डगरयहणचोलपट्टगमहपत्तिग Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका भ० १ सू०१० भावनास्वरूपनिरूपणम् प्रसिद्धाः 1 इति प्रसिद्ध, शग्या = शरीरग्रमागलक्षणा, मस्तारकः = सार्द्धहस्तद्वयममाणआसनविशेषः, त्र, पान, कम्प दण्डकः = रोगिभिर्वृद्वैश्च गमनागमानर्थ रक्षिता यष्टि', रजोहरण, चोलपकः, तथा मुखपोतिका = मदोरमुखवस्त्रिका, पादमोहन = ममार्जित एतान्यादौ यस्य तत्, इत्यादिकम् 'उवगरण' उपकरण साधोरस्ति ।' यपि ' आहारवदेतदपि पीठफलकादिक ' सजमस्स ' सयम - स्य - सप्तदशविधस्य ' उबनूयणट्टयाए ' उप हणार्थम् - पोपणार्थम् भवति । अतः 4 पायासमसगसीय परिरक्खणट्टयाए ' वातातपढशमशकशीत परिरक्षणार्थ 'सजएण 'सयतेन मुनिना ' रागदोसरहिय ' रागद्वेपरहित यथा स्यात्तथेदम् उपकरण ' परिहरियन' परिधर्तव्यम् धारणीयमित्यर्थः । तथा ' निच्च ' नित्य तेपा यथायोग्य 'पडिलेणा पष्फोडणापमज्जणा ए' प्रतिलेखना प्रस्फोटनाप्रमार्जनासुतत्र-मतिलेखना- उभयकाल मत्युपेक्षणा, प्रस्फोटना = यतनया विधूननम्, प्रमार्जना पगमुहपत्तिगपाय पुणाड) पीठ पाट, फलक-नाजोट शग्या शरीरप्रमाणविठौना, सस्तारक - अढाईहायप्रमाणआसनविशेप, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्ड- रोगी अथवा वृद्ध मानुओ द्वारा अपने पास गमनागमनार्थ रक्सी हुई लकड़ी, रजो हरण, चोलपट्टक, मुखपोतिका-सदोरक मुसबत्रिका और पादप्रोञ्छन- प्रमार्जिका इत्यादि उपकरण साधु के है । ( ग्यपि - सजमस्स उवणट्टयाए ) आहार की तरह ये भी सतरह प्रकार के सयम का पोषण के लिये है । इसलिये इनका (वायातवदसमसग सीयपरिरक्खणडयाए सजएण रागदोसरहिय परिहरियव्व ) बात - ( पवन ) आतप-धूप, दश, मशक एव शीत से रक्षित होने के लिये मुनि को रागद्वेपरहित होकर धारण करना चाहिये । तथा ( निच्च) नित्य ही ( पडिलेहणा पफोडणा पमज्जणार) इन उपकरणों में से भाजन भाण्ड पायछणाइ " पीठ-पाट, फलक-मान्नेह, शय्या - शरीरना प्रमाणुनु पाथरशु सप्तारक-अढी हाथना भायनु मामनविशेष, वस्त्र, पात्र, उणा, दण्ड- रोगी અથવા વૃદ્ધ સાધુઓ દ્વારા પેાતાની પાને આવવા જવા (ટેન્ડ માટે ) રાખેલી साडी, रन्नेहरण, योसयट्टड, मुखपोत्तिका छोरा सहित मुहयत्ति, अने पाहओ छन પ્રમાકિા ઈત્યાદિ સાધુના ઉપકરણા છે ‘ एयपि सजमस्स उववूहणट्टयाए આહાની જેમ એ પણ સત્તર પ્રકારના સયમના પાણ માટે છે તેવી તેમને वायातवढसमसगसीयपरिरक्सणट्टाए सजएणं रागदोसर हिय परिहरियव्व " वात-पवन, आतिय, तडझे, हग, भशन भने शीतथी झारा पाभवाने भाटे મુનિએ ગદ્વેષ રહિત થઈને તેમને ધારણ કરવા જોઇએ તથા ‘નિચ” હુ મેગા " पडिलेहणापमज्जगाए " मे उ५८२शोभाथी नलाउ भने उपविनी प्रति ८८ " : Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દાર रजोहरणादिभिः समार्जना, तामु तामु-पतिलेपनाटिकरणानन्तरमित्यर्थ'अहो य राओ य ' अहम रोनाच 'मायणमडोवरिडागरण' भाजनभाण्डो पध्युपकरणं-ता-भागन-पारम्, भाण्डम् उन्दरम्, उपविधनम्, एतस्थित यरूप यदुपकरण तत् , ' अप्पमत्तेण' अप्रमत्तेन सता 'समय' सतत-निरन्तर 'निक्खियन्ध ' निक्षेतव्य-स्थापनीय 'गिनियच गीतव्य च 'होड' भवति एयमादानभाण्डनिक्षेपणासमितियोगेन मारिनो भानि अन्तरात्मा जीवः । भाषिताऽन्तरत्मा कीशो भाति' इत्याह-मशालामसिष्टनिणचारिन भावनया हेतु भूतया अहिंसकः सयतः मुसाधुपति पतेपामर्थः पूर्वमुक्तः, तत पारगन्तव्यासू१. और उपधि की प्रतिलेपना प्रस्फोटना प्रमार्जना कर लेने पर-प्रतिलेग्वना दोनों समय प्रत्युपेक्षणा प्रस्फोटना, प्रमार्जना-रजोहरणादि से पुजना करके (अहोय राओन्य) दिन में और रात्रि में (भायण भंडोवहीऊवगरण) भाजन-पात्र, भाण्ड उन्दक, और उपधि-वस्त्र । इन उपकरणों को जमीन पर रग्वना पडता है, उटाना पटता है। मो ऐसी स्थिति में साधु का यह कर्तव्य है कि घर इन सयको धरते उठाते (सयय ) निरन्तर (अप्पमत्तेण) अप्रमत्त रहे। (निस्वियव्य गिहियन्च होह) इन उपकरणों को जन भूमि पर धरे तब उसकी प्रमार्जना करे फिर धरे, उटावे तय उन उपकरणों की प्रमार्जना करके उठावे । इस तरह करने से जीवों की विराधना नहीं हो सकती है। यही सायु की अप्रमत्त अवस्था है। (एच) इस तरह (आयाण भडनिवखवणासमिहजोगेण ) आदान भाण्डनिक्षेपणासमिति के योग से ( अतरप्पा) जीव લેખના પ્રશ્કેટના પ્રમાર્જના કરી લીધા પછી--પ્રતિલેખના-બને સમય પ્રત્યુપ क्षएा, प्रशटना-यतन माय२७, प्रमार्जना- २२६५ माहिथी पूल वगेरे ४ा पछी " अहोय राओय" हिस्से तथा सत्र "भायण भडोवहिउवगरण" लान-पात्र, भाण्ड-6-६४ अने उपधि-१२५, स. ७५४२शाने भान पर રાખવા પડે છે, તથા ઉપાડવા પડે છે તે એવી પરિસ્થિતિમાં સાધુનું એ तव्य छ , ते मधाने खेता, भूता " सयय" निश्तर " अप्पम " मप्रमाही २ " निक्सियव्य गिहियव्य होइ" Gणाने त्यारे भान પર મૂકે ત્યારે તેની પ્રમાર્જના કરે અને ફરીથી ત્યાથી ઉઠાવે ત્યારે તે ઉપ કરણની પ્રમાર્જના કરીને ઉઠાવે, આ પ્રમાણે કરવાથી જીવોની વિરાધના થઈ शती नथी . क साधुनी अप्रमत्त अवस्था छ "एव" गते "आयाणा भड निक्खेवणासमिइजोगेण " माहान मा निक्षेप समितिना योगथा “ अ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका म० १ ० ११ अध्ययनोपमहार ६४३ सम्मत सूत्रकारः प्रथमस परकारमुपसहरन्नाह-' एवं ' इत्यादि मूलम्-एवमिणं सवरदार सम्म संवरिय होइ, सुप्पणिहियं, इमेहि पचहि वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहि, णिच्चं आमरणत च एस जोगो णेयम्बो धिइमया मइमया अणासवो अकल्लसो अच्छिद्दो अपरिसाइ असकिलिहो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ । एव पढम सव्वरदार फासिय पालिय सोहियं तीरिय किट्टिय आराहिय आणाए अणुपालियं भवड। एव णायमुणिणा भगवया पण्जवियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धवरसासणमिण आघवियं सुदेसिय पसत्थ पढम सवरदारं समत्तं त्ति वेमि॥ सू-११ ॥ ___टीका-' एवमिण' इत्यादि-- 'एमिण ' एवम्---उक्त कमेण इदम्-अहिंसालक्षण 'सबरदार' सनरद्वारम्= सवररय-अनाश्रवस्य द्वारम् उपायः ' सम्म' सम्यक् ' सबरिय' सहतम्-संसे(भाविओ भवड) यावित बना हुआ वह जीव हेतुभून अशवल, असक्लिट, निव्रण (निरतिचार)चारीत्र की भावना से अहिंसक सयत बन जाता है। और सच्चेरूप में अपने सावुपद को सार्थक कर लेता है। निर्जन्तु भूमि पर उपकरणो का धरना और उठाना इसका नाम आदानभाण्डनिक्षेपणा समिति है। इस समिति के योग से आत्मा-मुनि अपने अहिंसा महारत की रक्षा और स्थिरता करता रहता है ॥ ॥ सू० १०॥ अय सूत्रकार प्रथम सवर द्वार का उपसहार करते हुए कहते हैंतरप्पा" 4 “भाविओ भाइ" सावित मनी लय लावित मने ते જીવ હિતભૂત અગબેલ, અસ વિલણ, નિર્વાણુ ચારિત્રની ભાવનાથી અહિંસક સયત બની જાય છે અને સાચા અર્થમાં પિતાના સાધુ પદને સાર્થક કરે છે ભૂમિ પર ઉપકરણને મૂકવા તથા ઉપાડવા તેનુ નામ આદાન ભાડ નિક્ષેપણ સમિતિ છે આ સમિતિના ચેગથી આત્મા મુનિ–પિતાના અહિંસા મહાવ્રતની રક્ષા તથા સ્થિરતા કરતા રહે છે કે સુ-૧૦ | वे सूत्रा२ प्रथम स १२वारा G५२ ३२॥ छ-"एवमिण त्या Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रभम्यापरणाचे रजोहरणादिभिः समार्जना, तामु तामु-मतिलेपनादिकरणानन्तरमित्यर्थ'अहो य राओ य ' अहम रोनी च 'मायणभटोनहिउपगरण' भाजनमाण्डो पध्युपकरण-ता-भाजन-पानम् , माण्डम्-उन्द्रमा, उपधिययम् , स्त्रित यरूप यदुपारण तत् , ' अप्पमत्तेण अप्रमतेन सता गयय' सतत-निरन्तर 'निक्खियब्ध ' निक्षेत्रव्य-स्थापनीय 'गिण्डियन्त्र गीतव्य च 'हो' भवति ण्वमादानभाण्डनिक्षेपणासमितियोगेन मारिनो मानि अन्तरात्मा जीवः । मावि ताऽन्तरत्मा कीदृशो भाति । इत्याह-अशलामनिटनिणचारित्र भावनया हेतु भूतया अहिंसकः सयत मुसाधुर्भवति, एतेषामःपूर्वमुक्ता, तत पागन्तव्यः।१० और उपधि की प्रतिलेखनाप्रस्फोटना पमार्जना कर लेने पर-प्रतिलेखना दोनों समय प्रत्युपेक्षणा प्रस्फोटना, प्रमार्जना-रजोररणादि से पुजना करके (अहोय राओन्य) दिन में और रात्रि में (भायण भंडोवहीअवगरण) भाजन-पात्र, भाण्ड उन्दक, और उपधि-वस्त्र । इन उपकरणों को जमीन पर रपना पडता है, उटाना पडता है। मो एसी स्थिति में साधु का यह कर्तव्य है कि यह इन सरको धरते उठाते (सयय) निरन्तर (अप्पमत्तेण) अप्रमत्त रहे। (निस्चियन्व गिण्डियव्व होइ) इन उपकरणों को जर भूमि पर धरे तब उसकी प्रमाजना करे फिर धरे, उठावे तय उन उपकरणों की प्रमार्जना करके उठावे। इस तरह करने से जीवों की विराधना नही हो सकती है। यही साधु की अप्रमत्त अवस्था है। (एच) इस तरह (आयाण भडनिवखदणासमिहजोगेण ) आदान भाण्डनिक्षेपणासमिति के योग से (अतरप्पा) जीव લેખના પ્રટના પ્રમાર્જના કરી લીધા પછી–પ્રતિલેખન-બને સમય પ્રત્યુ क्षा, प्रशासना-यतना मान्य२७, प्रमार्जना-२०२९५ माहिथी पूरपु पोरे ४ा पछी " अहोय राओय" हिवसे तथा शत्रे " भायण भडोवहिउवगरण" सान-पात्र, भाण्ड-G६४ सन उपधि-4 से 8५४२शाने भान ५२ રાખવા પડે છે, તથા ઉપાડવા પડે છે તે એવી પરિસ્થિતિમાં સાધુનું એ तव्य छे ते मे मधान खेता, भूतu “ सयय " निश्तर " अप्पम " अप्रमादी २९ “निक्खियव्व गिव्हियव्य होइ" से 8५४२णाने न्यारे भान પર મૂકે ત્યારે તેની પ્રમાર્જન કરે અને ફરીથી ત્યાથી ઉઠાવે ત્યારે તે ઉ૫ કરણની પ્રમાર્જના કરીને ઉઠાવે, આ પ્રમાણે કરવાથી જીવોની વિરાધના થઈ शती नथी । साधुनी अप्रमत्त अवस्था छ "एव" भाग "आयाणा भड निक्खेवणासमिइजोगेण " माहान लाउन समितिना योगथा “ अ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका म० १ सू० ११ अध्ययनोपमहार सम्मत सूत्रकार. प्रथमस परवारमुपसहरनाह-' एवं ' इत्यादि मूलम्-एवमिणं संवरदारं सम्म संवरिय होड, सुप्पणिहियं, इमेहि पचहि वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्तिएहि, णिच्चं आमरणत च एस जोगो णेयम्बो धिइमया मडमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिसाइ असकिलिहो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ । एव पढम सव्वरदार फासिय पालिय सोहियं तीरियं किट्टिय आराहिय आणाए अणुपालियं भवड । एवं णायमुणिणा भगवया पण्णावियं परूवियं पसिद्ध सिद्ध सिद्धवरसासणमिण आघविय सुदेसिय पसत्थ पढमं संवरदारं समत्तं त्ति वेमि॥ सू-११ ॥ टीका-' एवमिण' इत्यादि-- 'एपमिण ' एवम्--उक्तक्रमेण इदम्-अहिंसालक्षण 'सबरदार' समरद्वारम्सवररय अनानवस्य द्वारम् उपायः 'सम्म' सम्यक् 'सबरिय' सस्तम्-संसे(भाविओ भवई) यावित बना हुआ वह जीव हेतुभूत अशवल, असक्लिट, निव्रण (निरतिचार)चारीत्र की भावना से अहिंसक सयत बन जाता है। और सच्चेरूप में अपने सावुपद को सार्थक कर लेता है। निर्जन्तु भ्रमि पर उपकरणो का धरना और उठाना इसका नाम आदानभाण्डनिक्षेपणा समिति है। इस समिति के योगसे आत्मा-मुनि अपने अहिंसा महारत की रक्षा और स्थिरता करता रहता है । ॥ सू० १० ॥ अब सूत्रकार प्रथम सवर द्वार का उपसहार करते हुए कहते हतरप्पा, १ "भाविओ भनइ" भावित नायले लावित अनेस ते જીવ હેતભૂત અશળલ, અસલિઈ, નિત્રણ ચારિત્રની ભાવનાથી અહિંસક સયત બની જાય છે અને સાચા અર્થમાં પિતાના સાધુ પદને સાર્થક કરે છે ભૂમિ પર ઉપકરણને મૂકવા તથા ઉપાડવા તેનું નામ આદાન ભાડ નિક્ષે પણું સમિતિ છે આ સમિતિનાયેગથી આત્મા મુનિ–પિતાના અહિંસા મહાવ્રતની રક્ષા તથા સ્થિરતા કરતા રહે છે કે સુ-૧૦ ...वे सूत्रा२ प्रथम स१२वारG५सार उता छ-"एवमिणत्याह Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ধ্বশ্বাসে - - रित मत् 'सुपणिहिय ' मुमणिरित-पुरसित ह' भाति । 'मणायणायप रिररिसएहि मनोरचनकायपरिनित -योगप्रयपरिरक्षितः मेरि पनि विकार णेहि एभिः पञ्चभिरपि कारण पूर्वोक्ताभि पत्रमिपिनाभिः 'णिन्च' नित्यम् 'आमरणत' आमरणान्त-मरणपर्यन्त च ' जोगो' पप योगा-अहिंसाला णसवररूपन्यापारः विश्मया' धृतिमवा-स्वपित्तेन 'मामया' मतिमताहेयोपादेयमेधायुक्तेन 'नेयधो' नेतन्या बोढव्य परिपालनोय इत्यर्थः । कीट शोऽय योगः ? इत्याह-अय योग.-'अणासो' अनाय-नृतनकर्मागमनरहितस्वात् 'अफलुतो' अकलुप:-अशुभाध्यसायरहितत्वाद, 'अच्छिदो' अच्छिद्रःछिन्नपापसोतत्वात् , अपरिस्साई' अपरिस्रावीपिन्दुस्पेणापि कर्मजलभवेशरहि'एवमिण' इत्यादि टीकार्थ । (ण्यमिण सवरदार मम्म मवरिय सुपणितिय होड) उक्त क्रमसे यह अस्मिारूप प्रथम सरकार सेवित किये जाने पर सुरक्षित हो जाता है। (मणवयणकायपरिरक्तिएहिं ) इसलिये मन वचन और काय इन तीनो योगों से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये (इमेहिं पचहिं वि कारणेहिं) इन पृक्ति पाच भावनारूप कारणों से (निच्च ) नित्य (आमरणत) मरणपर्यंत-जीवन भरतक (एस जोगो) इस अहिसारूप सवरद्वार का (धिहमया) स्वस्धचित्त से युक्त एव (मइमया) हेयोपादेय की धुद्धि से सपन्न होकर मुनि को (नेयन्वो) परिपालन करना चाहिये । क्यो कि यह जहिसारूप सवर योग (अणा सवो) नूतन कर्मागमन को रोकने का कारण होने से अमानवरूप है। (अकलुसो) अशुभ अभ्यवसाय से रहित होने के कारण अकलुप रूप है। (अच्छिद्दो) इससे पापका स्रोत नष्ट हो जाता है इस कारण से यह ___Nil:-"एघमिण सवरदार सम्म सवरिय सुपणिहिय होई" ह्या प्रमाणुना કમથી આ અહિંસારૂપ પ્રથમ સ વરદ્વારનું સેવન કરવાથી તે સુરક્ષિત થઈ જા, छ "मणवयणकायपरिरक्सिएहिं" तेथी मन, क्यन मन य स त्रय यागाथा सारी शत सुरक्षित राये “ इमेहि पचहि विकारणेहि " से पूर्वाहत पाय भावना३५ ारथी “निच्च" मेशा " आमरणत "भरपर्यतमान, "एसजोगो" । मङिमा३५ सववार "धिमया" स्पस्य वित्तथी मन " मइमया" यायायनी मुद्धिथी युक्त छन भनि “नेयव्यो" पारा सन २ नये १२ए या महिंमा३५ सपश्यास " अणासवो नवा भगमनने पान जारभूत डावाथी ने मनाश्रव ३५ छ " अकलुसो अशुभ अव्यवसायथी २डित जापान को सप३५ छ “अच्छिदो' तनाथा પાપને પ્રવાહ નાશ પામે છે તે કારણે તે અછિદ્રરૂપ છે “ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका १० . सू०११ अध्ययनोपसहार ६४५ तत्याद , ' अमफिरिटो' असहिष्ट -अममाधिभावनितत्वात् ' सुद्धो' शुद्धा चर्ममलयर्जितत्वात् ' सबनिणमणुण्णानो' सर्वजिनानुज्ञात -सकल्प्रागिहितकारकत्वात् सर्वेपामर्हतामनुमतश्चास्ति । एवम्-उक्तमकारेण 'पढम सवरद्वार' अयम सपरद्वार, , फासिय' स्पृष्ट कायेन, ' पालिय पालित सततमुपयोगेन सेनितम् , ' सोहिय ' गोधितम्-अविचारमननेन, 'तीरिय ' तीरित-तोर प्रापित पूर्णरूपेण सेवितम् , 'किट्टिय' कीर्तितम् अन्येषामुपदिष्टम् , तथा 'आराहिय' आराधित-विमरणनियोगः सम्यगाचरितम् , ' आणाए ' आज्ञयासनवचनेन, 'अणुपालिय' अनुपालित च भवति । एवम् उक्तरूप सबरद्वार केन कथितम् ? अन्छिद्ररूप है। (अपरिस्साई ) एक चिन्दु मात्र भी कर्मस्प जल का इस में प्रवेश नहीं हो सकता है अत. उससे रहित होने के कारण यह अपरिम्नावी है। (असफिलिहो) असमाधिरूप भाव से यह वर्जित होता है इसलिये असक्लिष्ट है। तया (सुद्धो) कर्ममल से सर्वथा विहीन होने के कारण यह शुद्ध है। इसीलिये यह (मव्यजिणमणुण्णाओ) समस्त अहंत भगतों को अनुमत-मान्य हुआ है क्यों कि इसीसे सकल प्राणियों का हित हुआ है। (एज पढम सबरदार) उक्त प्रकार से प्रथम सवरद्वार को (फासिय) जो अपने काय से स्पर्श करते हैं (पालिय) निरन्तर ध्यान पूर्वक इसका सेवन करते हैं (सोरिय) अतिचारों से इसे रहित बनाते है (तीरिय) पूर्णरूप से इसे अपने जीवन में उतारते है (किष्टिय ) दूसरो को इसे धारण करने का उपदेश देते हे तथा (आराहिय) तीन करण तीन लोगों से जो इसे अच्छी तरह आचरित करते ह (आगाएअणुपालिय भवह ) सर्वज के वचन એક બિન્દુ જેટલા પણ કર્ણરૂપી જળને તેમાં પ્રવેશ વડ નાતો નથી, તેથી तनाथी -डित डावाने ४२० ते मनापी , “असकिलिलो" समाधि३५ लावी ते २डित डाय छे तेथी ते मस GिAL त " मुद्धो" भ. भगथी अवथा २डित डावाने जाणे ते शुद्ध छे तेथी ते “सचजणमणपणाओ" समस्त मत लवानाने मान्य थये। छ, stoey , तेनाथी सपा प्रशासानु हित यु छे “ एत्र पढम सपरदार" Exa प्रारे प्रथम भवानी "फोसिय" २ पोताना शरीरथी - रे ' पालिय , निरन्तर ध्यानपूर्व तेनु पासन उरे के "सोहिय" मतियारोथी तने २डित मनाचे छ “ तीरिय" पूएते तेने पाताना सनम नारे , 'किष्टिय" vीन ते पाणवान। पहेश मापे छ, तथा ' आराहिय " ए र त्रय योगाथी २तेने सारी रीत मायरे छ " आणाए अणुपालिय भवइ "समा Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S ALARATI ६४६ प्रमण्याकरणसूचे इत्याह-'गायमुणिगा' ज्ञातमुनिना-प्रमिनियशोदपेन मुनिना भगवता महागीरेण 'पण्णाीय ' प्रमापितम्-शिष्यम्प मामान्यतया परितम् , 'पविय प्ररूपित भेदानुभेदपदर्शनपूर्वक कथितम् , 'पमिट' प्रसिदर-मर यातम् , मिष -प्रमाणप्रतिष्ठितम् , 'सिद्धपरमायण' सिद्धरामानम्-मिहाना-निष्टिनार्यानां वरशासन-प्रधानाज्ञानास्पम् , ' इण' इदम 'आरिय' जाग्यात-मरती मावेन कथितम् , 'मुदसिय' मुदेशितम् सवमनुनामुराया परिषदि मुहादिष्ट पसत्यं के अनुसार ही पालते हैं। (एव) इस प्रकार उक्त रपयर मवर हार (णायमुणिणा) प्रसिद्ध क्षत्रिय वश में उत्पन्न मुनि (भगवया भगवान महावीर ने (पण्णविय) प्रजापित किया है-शियों के लिये सामान्यरूप से कहा है। (परुविय) प्ररपित किया है-भेदानुभेद प्रदर्शन पूर्वक कथित किया है। इसलिये यह (पमिद्ध) प्रसिद्ध है-आचा र्यादिकी परपरा से इसका पालन करना इसीरूप में चला आ रहा है। तथा (सिद्ध ) सिद्ध है-इसमें किसी भी प्रमाण से बाधा नहीं आती है अत प्रमाणप्रतिष्ठिन है। तथा (सिद्धयरसोसणमिण ) जो सिद्ध हो चुके हैं-कृतकृत्य बन चुके है-उनका यह वर शाशन रूप है सो इसी को (आचिय) प्रभु महावीर ने कहा है। और (सुदेसिय) इसका उपदेश उन्हों ने देव, मनुज एव असुरों सहित परिपदा में अच्छी तरह दिया है । (पसत्थ) यर प्रथम सपर हार समस्त प्राणियों का हितकारक होने से मगलमय है। (पढम सवरदार ममत्त ) इस तरह का पयन प्रभारी पाणे छ, “एव" मा प्रभाव हा प्रभारीना २१३५नु त स१२६२ "णायमुणिणा" प्रसिद्ध क्षत्रिय पशमा सत्पन्न थये भुनि "भगवया" मावान महावीरे “पण्णविय" प्रज्ञापित ४२ जे-ध्यान भाटे मामान्य ३थे घुछ “परूविय" ५३पित रेस छे-सहानुले मतावान 534 छे तथा "पसिद्ध " प्रसिद्ध -मायायोहिनी ५२ ५२॥ २॥ माते तेनु पालन કરવાનું ચારયુ આવે છે એવુ “સિદ્ધ” સિદ્ધ થયેલ છે તેમાં કાઈ પણ પ્રમાણથી બાધા (મુશ્કેલી) આવતી નથી તેથી તે પ્રમાણપ્રતિષ્ઠિત છે તથા " सिद्धवरसासणमिण" सिद्ध य या छे, इतस्य पनी या छ-तमनु तश्रेष्ठ शासन ३५ ॥२ त “ आधविय " गडावी२ प्रभु ४९ छ " सुदेसिय" तेन पटेश भणे हेप, मानव भने सम३। सरितनी परिषहोमा सागरी मापे “पसथ " ॥ प्रथम सपवार समस्त प्रvel मान माटे हितसा डावाथी म समय छ “पढम सवरदारी Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सुदशिनीटीफा अ०७ सू० ४ अध्ययनोपसहार ६४७ 'प्रसस्त प्रशस्त-सर्वप्राणिहितकरत्वान्मगुलमयम्, पढम मपरदार' प्रयमसवरद्वार 'समत्त 'समासम्, 'तिमि' इति ब्रीमि-अस्यायःपूर्वमुक्तः ।। १० ११॥ ॥ इति गथम सवरलार समाप्तम् ॥ ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्गलभ - प्रसिद्ववाचकपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनेकग्रन्थनिर्मापक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जनशासाचार्य' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिनाकरपूज्यश्री घासीलालपतिविरचिता श्री प्रश्नव्याकरणमूत्रसुदर्शन्या ग्याया व्याख्याया सपरात्माके द्वीतीये-भागेऽहिसानामक प्रयम सरद्वार समाप्तम् ॥ १ ॥ यह प्रथम सवर द्वार समाप्त हुआ! (त्ति बेमि) हे जव। जैसा में ने भगवान महावीर के मुग्व से इसे सुना है वैसा ही यह मैंने तुम से कहा है-अपग कल्पना से इसमें कुछ भी नहीं कहा है ॥ भावार्थ-प्रथम सवरद्वार का उपसहार करते हुए सत्रकार कहते है कि हम सवरद्वार को प्रत्येक मुनिजन के लिये अच्छी तरह उपयोग पूर्वक पानभावनाओं सहित पावज्जीव पालन करना चाहिये । इसके पालन करने में यदि कोई परीपह और उपसर्ग आवे तो उन्हे धैर्यपूर्वक सहलेना चाहिये, क्योंकि यह मवर द्वार नवीन कर्मो के आस्रव को रोकता है। इसके पालन करने से अशुभ अव्यवसाय उत्पन्न नहीं होने पाते हैं। पापों का स्रोत इसके प्रभाव से वध हो जाता है। यह प्रा२नु २॥ प्रथम स१२६२ से पूर्ण थयु “त्तिवेमि" । मे ભગવાન મહાવીરના મુખેથી સાભળ્યું છે એવું જ તે મે તમને કહ્યું છે– મારી કલ્પનાથી તેમાં મે કઈ પણ કહ્યું નથી ભાવાર્થ–પ્રથમ સવદ્વારને પસંહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે આ એ વરદ્વારનું પ્રત્યેક મુનિએ સારી રીતે ઉપયોગ પૂર્વક પાચ ભાવનાઓ સહિત જીવનપર્ય ત પાલન કરવું જોઈએ તેનું પાલન કરતા જે કોઈ પરીષહ તથા ઉપસર્ગ નડે તે પૈયેથી તેને સહન કરી લેવા જોઈએ, કારણ કે આ સવરદ્વાર નવીન કમેને આશ્રવ થતો રેકે છે તેનું પાલન કરવાથી અશુભ અધ્યવસાય ઉત્પન્ન થવા પામતું નથી તેને પ્રભાવથી પાપોના પ્રવાહથી બંધ થઈ જાય છે Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ an ६४८ प्रमध्याकरणमरे अपरिचावी आदि विशेषणों वाला है। अर्हत मगवतो ने उसे अपने जीवन में उतार कर ही समस्त जीवो को इसे धारण-सेवन करने का आदेश दिया है। भगवान मरागीर ने भी ऐसी ही इस प्रथम सवरद्वार की प्रशसा की है। और तीर्थकर परपरा के अनुसार ही उन्हों ने इसे पालन करने आदि का आटा दिया है। तथा इनका देवमनुपादि सहित परिपदा में उपदेश दिया है, अतः यर प्रमाणप्रतिष्ठित है। जोर मगलमय है ।। १० ११ ।।। ॥ इस प्रकार यह प्रथम सपरद्वार समाप्त हुआ। તે અપરિસાવી આદિ વિશે વાળુ છે અ ત વગવાને તેને પોતાના જીવનમાં ઉતારીને જ મન અને તેને ધારણ કરીને તેનું સેવન કરવાને આદેશ આપે છે ભગવાન મહાવીરે પણ આ પ્રથમ અવતારની એવી જ પ્રામા કરી છે અને તીવ કર પર પગ અનુસાર જ તેમણે તેનું પાલન કરવા આદિને અદે દી છે તથા તેને દેવ, મનુવાદિ સહિતની પશ્વિમ ઉપદેશ આવે છે, તેથી તે પ્રમાણભૂત છે અને મગળમય છે ભૂ-૧૧ It આ રીતે આ પ્રથમ વરસ્ટાર સમાપ્ત થાય છે Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सत्यवचन नाम द्वितीय सवरद्वारम् ॥ गत प्राणातिपातविरमण, सम्प्रति सत्यवचन प्रारभ्यते । अस्य पूर्वाध्ययनेन सहाय सम्बन्धः-पूर्व माणातिपातविरतिरभिहिता, सा तु अलीरवचनविरत्यैव समवति, इत्येनेन सयन्धेनायात सत्यवचनाख्य द्वितीयमभ्ययन प्रारभ्यते, तस्येदमा. दिम सूत्रम्-'जबू एत्तो पितिय च ' इत्यादि मूलम्-जवू । एत्तो विइय च सच्चवयणं सुद्ध सुइयं सिवं सुजाय सुभासिय सुकहिय सुव्वयं सुदिट्ट सुपडठियं सुपड़ठियजस सुसजमियवयणदुइय सुरवरनरवसभपवर-वलवग सुविहिय-जण बहुमय परमसाहुधम्मचरणतवनियम-परिग्गहिय सुगइ-पहदेसग च लोगुत्तम च वयमिण विजाहरगगणगमणविजाणसाहग सग्गमग्गसिद्धिपहदेसग अवितहं तं सच्च उच्चुय अकुडिल भूयत्थ अत्थओ विसुद्ध उज्जोयग पभासग भवइ, सव्वभावाण-जीवलोगे अविसंवाइजहत्थमहर पच्चक्खं सत्यवचन नामक द्वितीय सवरद्वार प्रारमप्राणातिपातविरमण नाम का सवरद्वार कहा जो चुका है। अय सत्यवचन नामका द्वितीय सवरद्वार प्रारंभ होता है। इसका पूर्व अध्ययन के माथ सबध इस प्रकार से है-जयतक अलीकवचनों से जीव की विरति नहीं होगी-तपतक प्राणातिपान का विरमण सभव नहीं हो सकता। इसी सबध को लेकर सूत्रकार ने इस द्वितीय सत्यवचन नामक अध्ययन को प्रारभ करते हैं। इसका यह प्रथमसूत्र है સત્ય વચન નામનું બીજા સવરદ્વારને પ્રારંભ પ્રાણાતિપાત વિરમણ નામનું પહેલા સ વરદ્વારનું વર્ણન પૂર્ણ થયું હવે સત્યવચન નામના બીજા સ વરદ્વારના વર્ણનની શરૂઆત થાય છે તેનો આ પ્રકારે આગળના અધ્યયન સાથે સબંધ છે જ્યા સુધી અસત્ય વચનેથી જીવની વિતિ થતી નથી ત્યા સુધી પ્રાણાતિપાતનું વિરમણ સ ભવી શકતુ નથી એ સાધને દર્શાવીને સૂત્રકારે આ દ્વિતીય સત્યવચન નામના અધ્યયનને प्रारम ४२ छे तेनु पडे सूत्र मा प्रमाणे छ-"जवू ! एत्तो थिइय च". Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० प्रभध्याकरणसूत्रे देवय व जंत अच्छेरकारगं अवस्थेतरेसु बहुए माणुसाणं सच्चेणं महासमुद्दमज्झे विचिति, न निमजति मूढाणिया वि पोया सच्चेण य उद्गसंभममि वि न वुद्धंति, न य मरति याहं च ते लब्भति, सच्चेण य अगणि सभममि विन उज्यंति उज्जुगा मणुस्सा । सच्चेण य तत्ततेत उलोहसीसकाइ छिव्वति, धरैति न उज्यंति मनुस्सा | पव्वयकडगाहिं मुश्चंते न य मरति सच्चेण य परिग्गहिया असिपजरगया समराओ वि णिइति अणहाय सच्चवाई, वहवधाभिओगवेर घोरेहिं पमुच्चति य, अमित्तमञ्झाहिं निइति अणहाय सच्चवाई | सा देव्वाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रयाणं ॥ सू० १॥ टीका - ' जनू ' इत्यादि सुधर्मा स्वामी जवू स्वामिन प्रत्याह हे जम्मू' ! ' एत्तो ' इत' - प्रथमसवरद्वारानन्तरम् ' विश्य च ' द्वितीय खलु सरद्वार " सन्चत्रयण' सत्यवचनम् = सद्द्भ्यो- मुनिभ्यो गुणेभ्य पदार्थेभ्यो वा हितम् - उपकारक सत्यम्, उक्त 6 'जबू ! एन्तो विश्य च ' इत्यादि । टीकार्थ- श्री सुधर्मा स्वामी जबरवामी से कहते हैं (जबू !) हे जवू ! (तो) इस प्रथमसवरद्वार के बाद यह (विश्य च ) दूसरा सवर द्वार सत्य नामका है सो मैं इसे कहता है, तुम सुनो - ( सच्च वयण ) " सद्द्भ्यो हित " सत्य अर्थात् सत् का मुनिजन का अथवा गुणो का या पदार्थो का जो वचन हित - उपकारक होता है वह सत्य वचन है । " कहा भी है , टीअर्थ - श्री सुधर्भास्वामी यू स्वाभीने हे छे 'जबू " हे ४५ । "एत्तो" आपला सवरद्वार पछी ' बिइय च " जीन्तु सत्य नामनु ने सवरद्वार છે તેનુ હુ વર્ષોંન કરૂ છુ તે તમે સાભળે! દ सच्चवयण "" सद्द्भ्यो हित" સત્ય એટલે કે સત્તુ મુનિજનનુ અથવા શુષ્ણેાનુ અથવા પદાર્થાન જે વચન હિત–ઉપકારક હાય છે તે સત્યવચન ગણાય છે કહ્યુ પણ છે Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् " सच्च हिय सयामिह सतो मुगउ गुणा पयत्या पा" छाया-सत्य हित सतामिह, सन्तो मुनयो गुणाः पदार्या वा" इति, सत्सु तिष्ठतीति वा, सत्यम् , सत्यच तद्वचन च सत्याचनम् , परमाण नागपरायण हितकर सुखावहमनुद्वेगजनक मुधावत्स्वादीय वचन सत्यवचनमित्यर्थः । कीटश सत्यवचनम् ? तदाह- 'सुद्ध' शुद्ध-निटोपलाद , 'मुचिर 'शुचिक पनिनत्वात् , 'सिव' शिव-मोक्षजनक त्वाम् , ' सुनाय' मुजात-शुभविक्षया समुत्पन्नत्वात् , 'मुभासिय सुभापितम् "सच्च यि सयामिछ, सतो मुणउ गुणा पयत्या वा"। सतों का हित जिससे होता है वह सत्य मुनि होते हैं या गुण अथवा पदार्थ होते हैं। सत्य की दुमरी व्युत्पत्ति इस प्रकार से भी है " सत्सु तिष्ठनीति सत्य, सत्य च तद्वचन च सत्यवचन" जो वचन सज्जन पुरुषों में रहता हैं वह नलवचन है। यह सत्यवचन पर के प्राणो के वाण करने में परायण होता है, सय के हितकारी होता है, मुखदायक होता है, उद्वेगजनक नहीं होता है, और सुधा के जैसे स्वादीय-अत्यत मधुर होता है । (सुद्ध ) सत्यवचन मे किसी भी प्रकार का दोष नही होता है-अत' निर्दीप होने से यह शुद्ध है (सु इय) इसमें किसी भी प्रकार की अपवित्रता नहीं होती है अतः यह पवित्र होने से शुचिक है। (सिव) इस वचन से जीवों को मोक्ष की प्राप्ति होती है-इसलिये मोक्षजनक होने से यह शिवरूप है। (सुजाय ) हार्दिक शुभ भावना से प्रेरित होकर ही ऐसा वचन बोला जाता है "सच्च हि य सयामिह, सतो मुगउ गुणा पयत्या वा" તેનું હિત જેનાથી થાય છે તે સત્ય છે, મુનિ અથવા ગુણ અથવા પદાર્થ से मारना सत्य छ सत्यनी भी व्युत्पत्ति या प्रमाणे ५ -" सत्सु तिष्ठतीति सत्य, सत्य च तद्वच च सत्यपचन " सन पुरुषोभा २ क्यन રહે છે તે સત્યવચન છે તે સત્યવચન અન્યના પ્રાણેનું રક્ષણ કરવાને સમર્થ હોય છે, બધાને માટે હિતકારી હોય છે, સુખાયક હોય છે, ઉદ્વેગજનક सातु नथी, अमृत २७ अतिशय भी डाय छे “सुद्ध " सत्यवयनमा ५५ प्रारना होष जात नथा, तेथी निषि पाथी ते शुद्ध छे “सुइय " તેમાં કોઈપણ પ્રકારની અપવિત્રતા હતી નથી તેથી તે પવિત્ર હોવાથી શચિક छ " सिव" क्यनथी छवाने भाक्षनी प्राप्ति थाय छे, तेथी भावना डापायी ते शिव३५ छे “ सुजाय " शुम लानाथ रान मेव વચન બેલાય છે તેથી શુભ ભાવનામાથી ઉદ્ધવેલ હોવાથી તે સુજાત છે. Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० प्रभायाकरण देवय च जंतं अच्छेरकारगं अवत्थतरेसु बहुपसु माणुसाणं सच्चेणं महासमुद्दमझे वि चिति, न निमजति मूढाणिया वि पोया सच्चेण य उदगसमममि विन वुद्धति, न य मरति याहं च ते लन्भंति, सच्चेण य अगणि संभममि विन डांति उज्जुगा मणुस्सा । सच्चेण य तत्ततेलतउलोहसीसकाइ छिन्वति, धरॅति न डज्झति मणुस्सा। पव्वयकडगाहिं मुञ्चते न य मरति सच्चेण य परिग्गहिया असिपंजरगया समगओ वि णिइति अणहाय सच्चवाई, वहवधाभिओगवेरघोरोहिं पमुञ्चति य, अमित्तमज्झाहिं निइति अणहाय सन्चवाई। सा देवाणि य देवयाओ करेंति सच्चवयणे रयाणं ।सू०१॥ टीका-'जबू' इत्यादि सुधर्मा स्वामी जवू स्वामिन प्रत्याह-हे जम्मू ! ' एत्तो' इत:-प्रथमसवरद्वारानन्तरम् ' विश्य च ' द्वितीय खलु सपरद्वार 'सन्चायण ' सत्यवचनम्न सद्भ्यो-मुनिभ्यो गुणेभ्य पदार्थम्यो या हितम्-उपकारक सत्यम् , उक्तच-- 'जबू! एत्तो विइय च' इत्यादि। टीकार्थ-श्री सुधर्मा स्वामी जनूरचामी से करते है (जबू') हे जवू ! ( एत्तो) इस प्रथमसवरद्वार के बाद यह (यिइय च ) दूसरा सवर द्वार सत्य नामका है मो मैं इसे कहता हूँ, तुम सुनो-(सच्च वयण) " सद्भ्यो रित" सत्य अर्थात् सत् का मुनिजन का अथवा गुणों का या पदार्थो का जो वचन हित-उपकारक होता है वह सत्य वचन है। कहा भी है___टार्थ-श्री सुधपाभी यू स्वाभान ४ 'जबू!" | "एत्तो" मा पसा स१२वार पछी — विइय च " clag सत्य नाभनु रे सवार छतेनुहुन ४३ छु ते तमे २ सय " सञ्चवयण "" सद्भ्यो हित,": સત્ય એટલે કે સત નુ મુનિજનનું અથવા ગુણોનું અથવા પદાર્થોનું જે વચન હિત–ઉપકારક હોય છે તે સત્યવચન ગણાય છે કહ્યું પણ છે- -- Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६५३ दोना, अमरवलपताम्-वासुदेवभतिवासुदेवादि योद्धृपुरुपाणा, तथा-मुविहितजनाना-महापुरुषाणा च बहुमत समत यत्तत् , तथा-' परमसाधम्मचरण ' परमसाधुधर्मचरणम्=परमसाधूना = उत्कृप्टक्रियावां मुनीना धमचरणधर्मानुष्ठान यत्तत् , तथा-'तवनियमपरिग्गहिय' तपो नियमपरिगृहीतम्-तपो नियमाभ्या परिगृहीतम् अङ्गीकृत यत्तत्तथा, तपोनियमौ हि सत्यमादिनामेव भवतो नेतरेपाम् , तथा-'मुगउपपदेमग' मुगतिपथदेशक-मुगतेः पन्था. मुगतिपय , तस्त्र देशकम् , प्रज्ञापकम् , च-पुन. ' इण ' इट ' लोगुत्तम' लोकोत्तम लोकेपु-लोकत्रयेपु उत्तम श्रेष्ठम् ' वय' व्रतम् अस्ति । तथा-उद सत्यवचन 'पिज्जाहरगग णगमणपिज्जाण' विद्याधरगगनगमनविद्याना-रियाधराणा या गगनगमननिद्यास्तासा ' साहग' सापक-सत्यवादिनामेव विद्याः सिध्यन्तीत्याशन , तथा'सग्गमग्गसिद्धिपहदेसग' सर्गमार्गसिद्धिपधदेश स्वर्गमार्गसिद्विपथयोर्देशक निर्देशन यत्तत्तथा, तथा-' अपितह ' अवितथ-मिथ्याभावरहित यत् 'त' तत् चक्र आदि श्रेष्ट पुरुपों को, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदि सुभटयोद्वाओ को और मापुस्परूप सुविहितजनों को यहुमान्य हुआ है। (परसाधम्मचरणतयनियमपरिग्गहियलुगहपदेसग च इण लोगुत्तम च वय ) उत्कृष्ट किया शाली मुनिजनो का यह धर्माचरण-धर्मानुष्ठान है । तथा-तप और नियमों से ये परिगृहीत होना है-अर्याततप और नियम सत्यवादी के ही होते है । इतर जीवों के नहीं।सगति के पथ का पर प्रज्ञापक-निर्देशक होता है। और तीनो लोको में यह सत्यवचन श्रेष्ठ व्रत है। तधा-यह सत्यवचन (विज्जाहरगगण-गमण. विज्जाणसाग) विद्याधरों की गगन में गमन करने वाली जो विद्याएँ है उनका साधक है। (सग्गमग्गसिद्धिपहढेसग) स्वर्ग के मार्ग का और सिद्वि के पथ का प्रदर्शक है। (अवितह ) अक्तिय-मिथ्याभाव ચક્રવર્તી આદિ શ્રેષ્ઠ પુને વાસુદેવ, પ્રતિવાસુદેવ આ િસુભટને અને મહાपु२५ युविहिन बनाने मई मान्य छ “परसाहुधम्मचरणतवनियमपरि. माहिमुगइपहदेसग च इण लोगुत्तमं च वय" श्रेष्ठ जियाजी मुनिनानु તે ધર્માચરણ-ધર્માનુષ્ઠાન છે તથા તપ અને નિયમથી તેઓ પગૃિહીત થાય છે–એટલે કે તપ અને નિયમ સત્યવાદીઓ માટે જ શકય હોય છે અને માટે નહીં સુગતિના માર્ગનું તે પ્રજ્ઞાપક-નિર્દેશક હોય છે, અને ત્રણે લોકમાં । सत्य नयन श्रे० प्रत छ तथा मा मत्यवयन “विज्नाहारगगणगमण पिज्जाण साहग" विधायशनी मामा गमन ४२वानी २ विधामा छ, तेभनु साधः छे “सग्गम गसिद्धिपदेसग" म्वना भार्गनु छ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभम्पारवते प्रमोदजकत्वात् , तथा ' मुहिय' सुरुषितम्-नोतरागप्रतिपादितस्यात् , 'मुलय' सुव्रत-सवितमधानवान, क्या-'मुदिह 'मुद्दष्टम्-भतीन्द्रियानिभिरपरगा दिहेतुतया दृष्टत्वात् , ' सुपइद्विय ' मुप्रतिष्ठितम्-समम्तममणिरुपपादितवाद । 'मुपहियजस' गुपतिप्टितयशः-सुप्रतिष्ठित यशो यस्य तत, लोकत्रयप्रसिद्धत्वाद, वथा- 'मुसममिपश्यणाय' मुगंयमितपचनोदित-गुसपमित सम्यनियनित यद्वचन तेनोदित कथितम् , निर्दीपाचनः पवितमित्पर्य , तथा 'सुरवर नरवसभपवर सलबगसुविहिय जगबहुमय ' । सरपरनराममारसलवत्सुविहितजनबहुमतम् -- मुरपराणाम् --- इन्द्रादीनो, नरएपमागो = चक्रवयों अत शुभ विवक्षा से समुत्पन्न रोने के कारण या सृजात है। (सुभा सिय) यर प्रमोद का जनक होता है इसलिये यर सभापित है (मुकरिय) इसका प्रतिपादन वीतराग आत्माओं ने किया है इसलिये या सुकथित है (सुधय) सर्वव्रतों में उसकी प्रधानता मानी गई है इमलिये यह सुव्रतरूप है । (सुदिट्ट) अतीन्द्रिय अर्थो को जानने वाले सर्वज्ञ प्रभुओं ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) आदि के हेतु रूप से दवा है इसलिये यह सुदृष्ट है। (सुपइहिय) समस्त प्रमाणो द्वारा उपपादितरोने से यह सुप्रतिष्ठित है। (सुपइडियजस ) तीनों लोकों में इस वचन का यश सुप्रसिद्ध है इसलिये यह सुप्रतिष्ठिन यशवाला है । (सुसजमियवयणयुइय ) इसे सत्य वचन को वे ही मनुष्य योल सकते हैं कि जिनका वचन सुसमित होता है अच्छी तरह से नियत्रित होता है। (सुरवरनरवसभपवर घलवगसुविहियजणयहुमयं) यह वचन इन्द्रादिक उत्तम देवों को, "सुभासिय "ते माह हत्पन्न ३२३ डापाथी सुभापित छ “सुकहिय " વીતરાગ આત્માઓએ તેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેથી તે સુકથિત છે "सुव्यय " स मतभा ते भुण्य भनायु छ तेथी ते सुमत छ — सुदिट्ठ, અતીન્દ્રિય અર્થોને જાણનારા સર્વજ્ઞ પ્રભુએ તે અપવગ આદિના હેતુરૂપ नेयु छ, तेथी ते सुष्ट छ “सुपइट्रिय " समस्त प्रमाण वास ते प्रात पाहन थयेलापाथी ते प्रभामृत-सुप्रतिष्ठित “सुपइद्रियजस" ब्र લોકમાં આ વચનને યશ સુપ્રસિદ્ધ છે તેથી તે સુપ્રતિષ્ઠિત ચશવાળું છે " ससजमियवयणवुइय " 21 सत्य ययन से भाएसमासी शो छ : २सना क्यन सुसयभित खाय छ-सारी ते नियत्रित हाय छे “ सुरवर भरवसभपवरवलवगसुविहियजणबहुमय" मा पयन धन्द्र साह उत्तम वान Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६५३ दोना, ताम्-वासुदेवमतिवासुदेवादि योद्धपुरुषाणा, तथा मुविहितज , 3 नाना = महापुरुषाणाच नहुमत समत यत्तत्, तथा-' परमसाहुधम्मचरण ' परमसाधुधर्मचरणम् = परमसाधूना = उत्कृष्टक्रियाचतां मुनीना धमचरण धर्मानुष्ठान यत्तत् तथा - 'तवनियमपरिग्गहिय तपो नियमपरिगृहीतम् = तपो नियमाभ्या परिगृहीतम् = अगीकृत यत्तत्तथा तपोनियमौ हि सत्यनादिनामेव भवतो नेतरेपाम्, तथा - ' युगपदेसग ' सुगतिपथदेशक सुगते. पन्थाः सुगतिपथ, तस्य देशकम्, मज्ञापकम्, च=पुनः 'हण ' इट' लोगुत्तम' लोकोत्तम = लोकेपु लोकत्रयेषु उत्तम= श्रेष्ठम् ' वय ' व्रतम् अस्ति । तथा उद् सत्यवचन 'निज्जाहरगग गमनिज्जाण विद्याधरगगनगमन विद्याना=नियाधराणा या गगनगमन विद्यास्वासा ' साहग' साधक - सत्यवादिनामेन विया सिध्यन्तीत्याशनः तथा-'मग मग्गसिद्धिपदेसग' स्वर्गमार्गसिद्धिपथदेश = स्वर्गमार्गसिद्विपययोर्देशक = निर्देशक यत्तत्तथा, ता-' अनितह ' अवितथ = मिथ्याभावरहित यत् ' त' तत् चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ पुरुषों को, बलदेव, प्रतिवासुदेव आदि सुभटयोद्वाओ को और महापुरुषरूप सुविहितजनों को बहुमान्य हुआ है । ( पर साधम्मचरणमवनियमपरिग्गद्दियसुगहपरदेसग च इण लोगुत्तम च वय) उत्कृष्ट क्रिया शाली मुनिजनो का यह धर्माचरण - धर्मानुष्ठान है । तथा-तप और नियमों से ये परिगृहीत होता है- अर्थात्तप और नियम सत्यवादी के ही होते है । इतर जीवों के नहीं । सुगति के पथ का यह प्रज्ञापक-निर्देशक होता है। और तीनो लोको में यह सत्यवचन श्रेष्ठ व्रत है । तथा यह सत्यवचन ( विज्जाहरगगण-गमण विज्ञाणसाग) विद्याधरों की गगन में गमन करने वाली जो विद्याएँ है उनका साधक है । ( सग्गमग्गसिद्धिपरदेसग ) स्वर्ग के मार्ग का और सिद्धि के पथ का प्रदर्शक है । ( अवितह ) अवितथ - मिथ्याभाव ચક્રવર્તી આદિ શ્રેષ્ઠ પુરુષાને વાસુદેવ, પ્રતિવાસુદેવ આ િસુભદ્રાને અને મહાપુરુષ સુવિહિત જનાને બહુ જ માન્ય છે " पर साहुधम्मचरणतव नियमपरिहियसुगइपदेसग च इण लोगुत्तम च वय " श्रेष्ठ ज्यिासाजी भुनिम्नानु તે ધર્માચરણ-વર્માનુષ્ઠાન છે તથા તપ અને નિયમેથી તે પગૃિહીત થાય છે-એટલે કે તપ અને નિયમ સત્યવાદીઓ માટે જ શ! હાય છે અન્યને માટે નહીં સુગતિના માર્ગનુ તે પ્રજ્ઞાપક-નિર્દેશક હોય છે, અને ત્રણે લેાકમા આ સત્ય વચન શ્રેષ્ઠ વ્રત છે તથા આ સત્યવચન " विज्नाहारगगणगमण विज्ञाण साहग ” વિદ્યાધરાની આકારામા ગમન કરવાની જે વિદ્ય એ છે, तेभनु भाछे " सग्गमग्गसिद्धिपदेसग " સ્વર્ગના માર્ગનું પ્રદર્શક છે Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ प्रश्नध्याकरणसूत्र 'सच्च' सत्यम् सत्यवचननामक द्वितीय सारतारम् । पुन. कीटशम् ? स्याह'उज्जय' जुकम्-सरलमाषप्रास्त्यिाद , नया भादिष्ट' अटिल-कटिलभानवनितत्वात् , तथा-'भूयस्य' भूतार्थम् धास्तविकम् , तथा अस्यो ' अर्थत:-परमार्थतः पिशुदम् , तथा-नीरलोके समानाण' सर्वभागानाजीपादिसम्लपदार्थानाम् ' उनोयग ' उद्योतन्मकागम् , अाप 'पमामग' प्रमापफ-प्रतिपादक भवति, पुनः 'अविसमा ' अविसमादिविन्द्धवादि, तथा 'नहत्यमहर' यथार्थमधुरम् , या पमिति कत्या मधुर यथार्थमपुर वास्तविकमधुरमित्यर्थः, तथा-'पन्चक्ख देवय च' प्रत्यक्ष देवत न, सत्य प्रत्यतो देव इन्ययः। एतादृशं 'ज' यत् सत्यम् , 'त' तत् ' अन्सारग' आश्रर्यकारक भवति, से रहित है। (त सच्च ) ऐसा सत्यवचन नामका दितीय सरद्वार (उज्जुय) सरल भाव का प्रवर्तक होने से प्राजुक है। तवा (अडिल) इसमें भावों की कुटिलता नहीं रोती है इसलिये कुटिलभानों से वजित होने के कारण यह अकुटिल है (भूयत्य ) यथार्थ अर्थ का इसके द्वारा प्रतिपादन होता है इसलिये यर भूतार्थ है। (अत्यो निसुद्ध) परमार्थ दृष्टि से यह विशुद्ध है इसलिये यह अर्थनो विशुद्ध है। तथा-(सव्वभा वाण उज्जोयग) जीवलोकमें यह समस्त जीवादिपदार्थो का प्रकाशक है इसलिये यह (पभासग भवइ) उनका प्रतिपादक (प्रभावक) भी है। यह सत्यवचन (अविसवाइ) अविरुद्ध रूपसे अपने स्वरूपको कहने वाला है इसलिये (जहत्यमहर) वास्तवोकरूप में मधुर है। और (पञ्चश्व देव यच) प्रत्यक्षदेव है-साक्षात् देव जैसा है (जत) जो यह सत्यवचन " अवितह " भवितय-मिथ्यासावथी रहित छ “त सच्च' मा सत्य नामनु मी स १२वा२ " उज्जुय " सस सानु प्रपत डापाथी * छ तथा “ अकुडिल" तमा लावानी सित जाती थी तेथी दुटिस लावायी २डित पान २0 ते मटिस छे “भूयत्य । यथार्थ अनुतना द्वारा प्रतिपाइन थाय छे तथा ते सूता “ अत्थओ विसद्ध" परमार्थ हटियात विशुद्ध छे तथा ते " अर्थतोविशुद्ध"छ तथा सव्वभावाण उज्जोयग" भात समस्त पाहानु त छ तथी ते "पभासग भवइ" तेमनु प्रतिपाय छे मा सत्यवयन " अविसवाइ" मवि३४३ पाताना २१३५२ जना छ तथा जहाथमहुर' वास्तव शत मधुर छ, भने “पच्चक्सदेवय च" प्रत्यक्ष व छ-साक्षात देव छ "ज त मा'२ सत्यवयन ते "अच्छेरकारग अवत्य Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६५५ = माणुस्साण ' मनुष्याणा कुत्र १ ' बहुए बहु केपु - अनेकेषु ' अवत्थंतरेसु ' अपस्थान्तरेषु = अवस्थाविशेषेषु । तदेवाश्चर्यकारित्वमाह - ' सच्चेण ' सत्येन 'महाममुद्दमज्झे नि ' महासमुद्रमध्येऽपि 'चिह्नति ' तिष्ठन्ति, न निम— ज्जन्ति =न ब्रुडन्ति ' मृढाणिया पि' मूढानीका अपि = मूढा' = नियत दिग्गमन प्रति मूढता प्राप्ता - अनीकाः = नायिकाः येषां ते तथोक्ताः अपि ' पोया' पोता : नाव. ' सच्चेण य ' सत्येन च ' उद्गसम्मम्मि ' वि' उदकसभ्रमेऽपि = आवर्तेऽपि ' न बुड्डति' त्र बुडन्ति, तथा - तत्रस्था जना अपि ' नय मरति ' न च म्रियते, " थाह ' स्ताय =तल च ते ' लम्भति ' लभन्ते । तथा - 'सच्चेण य सत्येन च 'अगणित ममम्ति वि अग्नितभ्रमेऽपि = चालामालास कुठेऽप्यनले 'उज्जुगा ' ऋजुकाः = सत्यवादिनो ' मणुस्सा ' मनुष्या 'न उज्झति' न दह्यन्ते= न दग्धा भवन्ति । तथा - ' मणुस्मा' सत्यवादिनो मनुष्याः ' सच्चेण य ' 6 है वह (अच्छेरकारग अवत्वतरेसु बहण्सु माणुमाण) अनेक अवस्थाओं में मनुष्यों के लिये आश्चर्य पैदा करने वाला है, जैसे- ( सच्चेण महासमझे विचिट्टति न निमज्जति मूढा णिग्राविपोया) जिननौकाओं के नाकि जन जन नियत दिशाओ में जाने के ज्ञान से विकल हो जाते हैं तब उनकी वे नौकाएँ महासमुद्र के बीच मे भी इस सत्य के बल पर ही तैर जाती है डूबती नही है । ( सच्चेण य उदगमभममि विन वुडति न य मरति, चाह च ते लम्भति ) सत्य के प्रभाव से, जल की भमर में फॅसे हुए भी मनुष्य न डूबते हैं और न मरते हैं प्रत्युत उन्हें वहा भी थाह मिल जाती है । ( सच्चेण य अगणि सभममि वि न उज्झति उज्जुगा मणुस्सा ) सत्य का ही ऐसा प्रभाव है कि जिससे ज्वालाओं से धधकती हुई अग्नि में भी ऋजुक सत्यवादी - मनुष्य जलता तरेसु बहुसु माणुसाण" अने अवस्थामा मनुष्याने भाटे आश्चर्य येहा अग्नार छे, भट्ठे “ सच्चेण महासमुद्दमज्झे वि चिट्ठति न निमज्जति मूढा णियावि पोया" ने नौायोना नाविजे न्यारे नियत दिशामा भवाना ज्ञानथी રહિત થાય છે ત્યારે તેમની તે નૌકાએ મહાસમુદ્રની વચ્ચે પણ આ સત્યના प्रभावथ डूमती अरडे हे " सच्चेण य उद्गसभम मि विन वुडति न य मरति, थाह च ते लम्भति" सत्यना प्रभावथी पाणीना पभणमा इसायेस મનુષ્ય પણ ડૂમતા નથી કે મરતા નથી એટલે કે ત્યા પણ તેને ઋણુ મળી ये" सच्चेण य अगणिसभममि विन डज्झति उज्जुगा मणुस्सा " सत्यना જ એવેા પ્રભાવ છે કે જ્વાળાએ વડે પ્રજ્વલિત અગ્નિમા ઋજીક-સત્યવાદી Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्येन च तत्ततेलतउलोरसीसगाइ' तातेलापुलौहगीयाकानि, तल प्रसिटम् अपुरङ्गम् , लौहम् अय, भीगक प्रसिद्धम्, तप्तानि-उत्कलित्तानि यानि तैलअपुलोदशीशकानि तानियोक्तानि यिति' स्पृशन्ति, 'घरति' धारयन्ति हस्त किन्तु तेन 'न उन्झति'नदान्ते । तया- 'सन्चेण पग्ग्गिहिया' मत्पन परिगृहिता मनुप्याः, 'पञ्चयकडगादि' पर्वतकटकेभ्य -पर्वतप्रदेशेभ्यः 'मुन्चत" मुच्यन्ते पात्यन्ते, तथापि न य मरति 'नच नियन्ते । तपा-'सच्चाई' सत्यवादिन 'असिपजरगया पि' असिपञ्जरगता अपि चतुर्दिनु सहस्तमत्रुपुरुपपरिवेष्टिता अपि सर्वतः बजे पत्तत्म्पपीत्यर्थः, 'अणाय य 'जनधा एकअक्षतशरीराग्य 'समरामो' समरात, 'णियति' निर्यान्तिमगिन्ति । तथा 'सन्चाई 'सत्यमादिनः पुरुषाः 'वहनधाभिमोगरयोयहि धा धाभियोग नहीं है। (सच्चेग य मणुस्मा तत्तनेहतउलो सीमगाह) सत्य से मनुष्य तप्त उबलते हुए तेलको, पिरले हुए रोगे को, लाल हुए लोहे को गलेर शीशे को (छियति) ह देते हैं, अर्थात्-शीतल करता है(धरेंनि) उन्हें रायमें ले लेता है, परन्तु (न टज्झति) ये उनसे जलते नहीं है। (पन्वरकड़े गाहिं मुच्चते न य मरति सच्चेण परिगरिया) सत्यवादी मनुष्य को यदि पर्वत के ऊपर से भी नीचे धकेल दिया जावे तो भी वह सत्य के प्रभाव से मरता नहीं है-सर्वधा यच जाता है। इसी तरह जो (सच्चवाई ) सत्यवादी मनुप्य होते है वे (असिपजरगया) चारो ओर से युद्ध में तलवारों को लिये हए अपने शत्रुओं द्वारा घेर भी लिये जावें तो भी वे (अणहार ) अक्षत शरीर ही (णिइति ) चाहे कितनी ही तलवारों के घार उन पर पड़ रहे हों, और वे उस युद्धभूमि में सुर क्षित निकल आते हैं। और (वहनधाभिओगवेरधोरेहि पमुचति य) भास भगता नथी "सच्चेण य मणसा तत्ततेलतउलोहसीसगाइ ॥ मत्यथा માણસ ઉઠળના તેલને, લાલચળ લોઢાને અને ઓગાળેલ સીસાને પણ પી * छे “धरे नि" भने हाथमा सा पy "न डझति' तेरा तनाथी हाती नयी "पवयकडगाहिं मुच्चते न यमर ति सच्चेण परिग्गहिया" સત્યવાદી મનુષ્યને જે પર્વતના ઉપરથી નીચે ધકેલી દેવામા આવે તે પણ સત્યના પ્રભાવથી મરતે નથી–તેને વાળ પણ વાક થઈ શકતો નથી मा शत रे " सन्चवाई " सत्यवाही मनुष्य हाय छै" असिपजरगया" युद्धमा ચોમેરથી હાથમાં તલવાર ધારણ કરેલ શત્રુઓ વડે ઘેરાઈ જાય તો પણ ' अणहाय' अक्षत सगरे । णिइति" मे तरी वाशना घा ती પર પડવા છતા પણ તે રણમેદાનમાથી સુરક્ષિત બહાર આવે છે આને Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ सुदर्शिनीटीका अ० २ सू० १ सत्यस्वरूपनिरूपणम् वैरयौ रे - धो घात पन्धः निगडादि वन्धः, 'अभिओगो' अभियोगः-अपराधारोपः, वैरपोरः-घोरगता, एनेपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, एभ्यः ‘पमुच्चति' प्रमुच्यन्ते, च= पुनः 'अमित्तमज्झाहि' अमिनमध्यात्-शत्रुमध्यात्='अणहा य' अनघाश्च-अक्षतगरीराथ, 'निइति' निर्यान्ति-निर्गच्छन्ति । उक्तमपि " सत्येनाग्निर्भवेन्छीतोऽगाधाम्मुभिरपि स्थलम् । नासिश्नित्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी ॥ इति । तया 'देवयानोर' देवताच 'सच्चरयणे रयाण' सत्यलचने रतानां= सत्यवादिना मणुष्याणा 'सादेव्याणि' सादिव्यानि-मानिव्यानि 'करेंति' कुर्वन्ति। वध घात, वध निगड़ (वेडी)आदि बंधन अभियोग अपराधारोप, एव घोर शत्रुता इनसे भी बच जाते है । ( अमित्तमझारिणिइति अणहा य सच्चवाई ) यदि कदाचित् ये शत्रुओ के बीच में आ भी जावे तो भी शत्रु उनका कुछ भी विगाउ नहीं कर पाते है-उनके बीच से वे अनअक्षत शरीर ही निकल आते हैं। का भी है "सत्येनाग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्युधिपि स्थलम्। नासिछिनत्ति सत्येन, सत्यान्न दशते फणी॥" सत्यवादी पुरुपो के ममक्ष अग्नि शीतल रो जाती है, अगाधसमुद्र भी स्थल जैसा हो जाता है, तलवार की धार भोयरी हो जाती है और फणी-सर्प उसे डस नहीं पाता है। अधिक क्या कहा जाय (सच्चवयणे रयाण) जो सत्यवचन में रत होते है उन सत्यवादी मनुष्यों का (देवयाओ य) देवता (सादि'यह बधाभिओगवेरघोरेहि पमुचति य" qध-धात, १५-निगड माहि मधन, અભિગ-અપરાધારેપ, અને ઘોર શત્રુતા એ બધાથી પણ બચી જાય છે " अभित्तमज्झाहिणिड ति अणहाय सञ्चवाई" हाय ते शत्रुशानी पाये गाना જાય તે પણ શત્રુ તેને કાઈ ઈજા કરી શકતા નથી–તેમની વચ્ચેથી તે અક્ષત શરીરે જ બહાર નીકળી જાય છે વધુ પણ છે– "सत्येनाग्निभवेच्छीतोऽगावाम्बुधिरपि स्खलम् । नासिच्छिनत्ति सत्येन सत्यान्न दशते फणी॥" સત્યવાદી પુરુ પાસે અગ્નિ શીતળ થઈ જાય છે, અગાધ સમુદ્ર પણ સ્થળ સમાન થઈ જાય છે, તલવારની ધાર બૂઠી થઈ જાય છે અને સર્વે તેને ડસ દઈ શકતો નથી भु शु “ मचायणे रयाण " सत्य वयनमा २ सीन २९ छ त सत्यवाही मनुष्यानु "देवयाओय " देवता "सादिव्वाणि क्रेति" सानिध्य Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amana ६५८ मनग्याकरण सत्यवादिना वचनमनन्यथाका देशान्तरसानिधौ तिष्ठतीति भार । उक्तमपि-- मिय सत्य पापय घरति हृदय कस्य न जने । गिर सत्या लोकः मतिपदमिमामयति च ॥ मुरा सत्याद् वास्याद् ददति मुदिता कामितफलम् । अतः सत्याद् गास्याद् व्रतमभिमत्त नास्ति मुग्ने ॥ १ ॥” इति ।। मू०१॥ व्वाणि करेंति) सानिध्य करते है, अर्थात् मत्यवादी के वचनों को __ अनन्यथा सत्य करने के लिये देव उनके निकट रहते है। करभी है "मिय सत्य वाक्य हरति उदय कस्य न जने, गिर सत्या लोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च । सुरासत्याद् वाक्याद् ददति मुदिता:कामितफलम् , अत:सत्याद वास्याद् व्रतमभिमत नास्ति भुवने ॥ १॥ प्रिय सत्य वचन किम सहृदय व्यक्ति के हदय को हरण नहीं कर लेता है। अर्थात् सके हृदय को हरण कर लेता है। लोक हर एक समय हर एक बात में इस सत्य वचन के ही अभिलापी होते हैं। सत्यवचन से देवता भीमसल रहते हैं, और वे सत्यवादी के इच्छित मनोरथ की पूर्ति करते रहते हैं। इसलिये सत्यवचन के समान अभि मतव्रत लोक मे और कोई नहीं है। भावार्थ-सत्रकार ने इस द्वितीय सवर द्वार में सत्यवचन रूप महावत के स्वरूप का कथन किया है। क्यो कि प्रधम सबरद्वार के साथ સેવે છે, એટલે કે સત્યવાદીના વચનને અનન્યા-માચા પાડવાને માટે દે તેમની પાસે રહે છે કહ્યું પણ છે– " प्रिय सत्य वाक्य हरति हृदय कस्य न बने, गिर सत्यालोकः प्रतिपदमिमामर्थयति च । सुरा सत्या वाक्याद् द्दति मुदिता. कामितफलम् , अतः सत्याद् वाक्याद् व्रतमभिमत नास्ति भुवने ॥ १॥" પ્રિય સત્યવચન કઈ સહુથી વ્યક્તિનું મન હરતું નથી એટલે કે સૌના મનને હરી લે છે કે દરેક વખતે દરેક વાતમા આ સત્ય વચનના જ અભિલાષી હોય છે સત્ય વચનથી દેવતા પણ પ્રસન્ન રહે છે અને તેઓ સત્યવાદીના ઇ-છત મનેર પૂરા કરે છે તે કારણે સત્ય વચન જેવું શ્રેષ્ઠ વચન જગતમાં બીજુ કઈ પણ નથી ભાવાર્થ-સૂત્રક, આ બીજા સ વરદ્વારમાં સત્ય વચન નામના મહા તન સ્વરૂપનું વર્ણન કર્યું છે કારણ કે પ્રથમ સ વરદ્વાર સાથે તેને ઘાડ Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदशिनी टीका अ०२ सू१ सत्यस्वरूपनिरूपणम् इसका धनिष्ट सबर है आर वह इस प्रकार से है कि जब तक जीव अलीक (अमत्य) वचनों से निवृत्त नहीं होता तपतक वह प्राणातिपात विरमण रूप प्रथमसवरद्वार का आराधक नहीं बन सकता है। यह सत्यवचन शुद्ध, शुचिक, शिन, सुजात आदि अनेक विशेपणो से सपन्न होता है। सत्यवादी की सर्वत्र प्रतिष्ठा होती है। इन्द्रादिक देवों को, तथा चक्र. वर्ती आदि श्रेष्ठ पुरुषों को मत्यवचन बहुमान्य होते है । समस्त विद्या. ओं की सिद्धि इन्हीं सत्यवचनों से होती है। स्वर्ग, मोक्ष की सिद्धि के यह पय प्रदर्शक होता है। सत्य होकर भी जो अप्रिय होते हैं वे वचन सत्यवादि को बोलने योग्य नहीं होते है। किन्तु प्रिय सत्यवचन ही सत्यवादी बोला करते ह । सत्यवादियों के समक्ष ससार की समस्त शक्तिया नतमस्तक हो जाया करती हैं अर्थात-गिर जुकाता है। मनसा वाचा कर्मणा जो इस सत्य की आराधना में लीन होते है वे इस भव में तो सुग्वी होते ही है परन्तु परभव में भी उन्हें सुखों की प्राप्ति होती हैं। तप नियम से सर सत्यवचन से ही शोभित और फलप्रद होते हैं। परिणामों मे जिनके जितनी अधिक सरलता होगी उनके वचनों में उतनी अधिक सत्यता होगी। सत्यवादियों के देवता तक सेवक होते हैं। सत्य में सावद्यभाषण का सर्वथा परित्याग हो जाता है। इन वचनों સબધ છે તે આ પ્રકારે છે ત્યા સુવા જીવ અસત્ય વચનેથી મુક્ત થત નથી ત્યા સુધી તે પ્રાણાતિપાત વિરમણરૂપ પ્રથમ સવરદ્વારને આરાધડ બેની શકતે નથી આ સત્ય વચન શુદ્ધ, શુચિ, શિવ, સુજાત આદિ અનેક વિશેપણથી યુક્ત હોય છે ત્યવાદીની હ મેરા પ્રતિષ્ઠા થાય છે ઈન્દ્રાદિક દેવને તથા ચક્રવર્તી આદિ શ્રેષ્ઠ પુરુષોને સત્યવચન બહુ માનને એગ્ય લાગે છે એ સત્ય વચનથી જ સઘળી વિદ્યાઓ સિદ્ધ થાય છે સ્વર્ગ, મોક્ષની પ્રાપ્તિમાં તે માર્ગદરક હોય છે સત્ય હોવા છતા પણ અપ્રિય લાગે તેવા વચન સત્યવાદીઓએ બેલવા જોઈએ નહીં, પણ સત્યવાદી પ્રિય સત્ય વચન જ બેલે છે સત્યવાદીઓ આગળ સંસારની સમસ્ત ગતિએ માથુ નમાવે છે મન વચન અને કાયાથી જે આ સત્યની આરાધનામાં લીન રહે છે તેઓ આ ભવમાં તો સુખી થાય છે પણ પરભવમાં પણ તેમને સુખની પ્રાપ્તિ થાય છે ત૫ નિયમ એ સૌ સત્ય વચનથી જ શોભે છે અને ફળદાયી નિવડે છે પરિ ણામામાં જેમની જેટલી વધારે સરળતા હશે તેટલી તેમના વચનેમા વધારે સત્યતા હશે દેવતા પણ સત્યવાદીઓની સેવા કરે છે સત્યમ સાવઘ ભાષણને સર્વથા પરિત્યાગ થઈ જાય છે આ વચનેથી જીવને સૌથી મટે આધ્યાત્મિક Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रमभ्यारणले शतम् , विन्दुत्रयस्थापनेन सहस्र भवति ॥ ३ ॥ इति स्थापनापत्यम् ।। नामसत्यम् यथा-फुलमनर्द्धयन्नपि फुल बर्द्धन इत्यादि ॥ ४ ॥ रूपसत्यम्-यथा-साघुरूप धारणेन साधुरिति ॥ ५॥ प्रतीत्यसत्यम्-यथा मध्यमा प्रतीत्याश्रित्य अनामिका इस्सा, कनिष्ठिकामाश्रित्य तु दीर्या । इति प्रतीत्यसत्यम् ।। ।। व्यवहार सत्यह २। भिन्न वस्तुमें भिन वस्तुके आगेप करनेवाले वचनको स्थापना सत्य कहते हैं, जैसे एक के आगे दो पिन्दुओ की स्थापना करके उसे १०० कहना, तथा विन्दुनय की स्थापना करके उसे एक हजार कहना३ । दूसरी कोई अपेक्षान रपकर केवल व्यवहार के लिये किसी का सजाकर्म करना इसका नाम नामसत्यदे-जैसे किसी लड़के को कुलपर्धन रखटेना। कुल वर्धन का तात्पर्यहोता है-कुल को बहाने वाला, परन्तु व्यवरार चलाने के लिये जो सजाकम किया जाता है-नाम रखा जाता है-उसमें इसकी अपेक्षा सापेक्ष नहीं हुआ करती है, इमी का नाम नामसस्य है ४। पुद्गल के रूपादिक अनेक गुणों में से रूप की प्रधानता को लेकर जो वचन कहा जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं-जैसे केशोंको काला करना, अथवा रूप स्वरूप धारण की मुख्यता को लेकर जो वचन कहा जाता है वह भी रूपसत्य है- जैसे-साधु के स्वरूप को धारण करने वाले व्यक्ति को साधु करना ५ । किसी विवक्षित पदार्थ की अपेक्षा से दूसरे पदार्थ के स्वरूप का कथन करना इसे प्रतीत्यसत्य या आपेक्षिकसत्य પકજ માનવુ તે સામત સત્ય છે (૩) ભિન્ન વસ્તુમાં ભિન્ન વસ્તુને આરોપ કરનાર વચનને સ્થાપના સત્ય કહે છે જેમકે એકની સામે બે બિન્દુઓની સ્થા પના કરીને તેને સે (૧૦૦) કહેવા તથા ત્રણ બિન્દુઓની સ્થાપના કરીને હજાર (૧૦૦૦) કહેવા (૪) બીજી કોઈ પણ અપેક્ષા રાખ્યા વિના ફક્ત વ્યવહારને માટે જ કોઈને કોઈ સજ્ઞા આપવી તેને નામ સત્ય કહે છે જેમકે કુળને વધારે નહીં છતા પણ કોઈનું નામ કુળવર્ધન રાખવું કુળવર્ધનને અર્થ થાય છે કુળને વધારનાર, પણ વ્યવહાર ચલાવવાને માટે જે નામ રાખવામાં આવે છે તેમાં કોઈ અપેક્ષા સાપેક્ષ થતી નથી, તેનું જ નામ નામ સત્ય છે (૫) પુદ્ગલના રૂપાદિત અનેક ગુણેમાથી રૂપની પ્રધાનતાને લીધે જે વચન કહેવાય તેને રૂપસત્ય કહે છે જેમકે વાળને કાળા કહેવા, અથવા રૂપ–ટવરૂપ ધારણની મુખ્યતાને લઈને જે વચન કહેવામાં આવે છે તે પણ રૂપસત્ય છે જેમ કે સાધુના સ્વરૂપને ધારણ કરનાર વ્યક્તિને સાધુ કહેવા તે રૂપસત્ય છે (૬) કોઈ વિવક્ષિત પદાર્થની અપેક્ષાએ બીજા પદાર્થના સ્વરૂપનું કથન કરવું તેને પ્રતીત્ય સત્ય અથવા આપેક્ષિક સત્ય કહે છે જેમ કે વચલી 1 કરતા Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका ५० २ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् सत्यम् - यथा गिरिगतवणार्दहनेऽपि घटगत - जलस्य गलनेऽपि गिरिदद्यते घटो गलतीति व्यवहारो भवति ॥७॥ भारसत्यम्-यस्मिन् वस्तुनि यस्य धर्मस्याधिक्यम् , तदपेक्षया सत्यम्भावसत्यम् , यथा व्यवहार-पञ्चवर्णसभवेऽपि क. सुरभुको हरित इत्यादि।।८॥ योगमत्यम् योगेन-वस्तुसयोगेन सत्य-योगसत्यम् यथा-उत्रयोगाच्छनी दण्डयोगाद् दण्डीति ।। ९॥ औपम्यसत्यम्-उपमा सत्यम्-यथा-चन्द्रयन्मुखम् , समुद्रमत्तटाग इत्यादि ॥ १० ॥ इति । तथा 'चोदकहते हैं जैसे मध्यमा की अपेक्षा अनामिका अगुली को हस्वकहना और कनिष्ठिका अगुली की अपेक्षा दीर्घ कहना ६ । नैगम आदि नयो की प्रधानता से जो वचन घोला जाता है उसे व्यवहार मत्य कहते हैं, जैसे पर्वत के ऊपर की घास आदि के जलने पर ऐमा कहना कि पर्वतजल रहा है, घटसे जल के निकलने पर ऐसा करना कि घडा गल रहा है, यह सब व्यवहार सत्य है, क्यों कि व्यवहार में ऐसे वचनों को सत्य माना गया, है ७। जिस वस्तु में जिस धर्म की अधिकता हो उसको लेकर जो वचन कहा जाय वह भावसत्य है, जैसे पाचो वर्णो की सभवता होने पर भी धगले को शुक्ल करना, तोते को हरा कहना । वस्तु के सयोग से जो वचन बोला जाता है वह योगसत्य है, जैसे छत्ता के सबध से पुम्प को स्त्री कन्ना, दण्ड के सबध से दण्डी कहना ९। दुसरे प्रसिद्ध सदृश पदार्थ को उपमा कहते है, इसके आश्रय से जो वचन बोला जाता है वह उपमासत्य है, जैसे चन्द्र के समान मुख, समुद्र के समान तडाग होता है, ऐसा वचन कहना। (चोदस पुव्वीहिं અનામિકા આંગળીને નાની કહેવી અને ટચલી આંગળીની અપેક્ષાએ તેને મોટી કહેવી (૭) નગમ આદિ નાની પ્રધાનતાથી જે વચન બોલવામાં આવે છે તે વચનને વ્યવહાર સત્ય કહે છે જેમ કે પર્વત ઉપરના ઘાસ આદિને આગ લાગે તે પર્વત સળગી રહ્યો છે તેમ કહેવુ, ઘડામાથી પાછું પડતું હોય તો ઘડે ટપકે છે તેમ <હેવું, એ બધા વ્યવહાર સત્ય ઉદાહરણ છે, કારણ કે વ્યવહારમાં એવા વચનને સત્ય માનવામાં આવે છે (૮) જે વસ્તુમાં જે ધર્મની વિશેષતા હોય તેને લઈને જે વચન કહેવાય તે ભાવ સત્ય છે જેમ કે પાચ વર્ણોની સભવિતતા હોવા છતા પણ બગલાને સફેદ કહેવા, પિપટને લીલા કહેવા તે ભાવ સત્ય છે (૯) વસ્તુના સાગથી જે વચન બેલાય છે તે ગાસત્ય છે જેમકે સ્ત્રીના સ બ ધથી પુરુષને છત્રી તહેવું, દડના સબધથી દડી કહેવુ (૧૦) બીજા પ્રસિદ્ધ સદશ પદાર્થને ઉપમા કહે છે, તેને આશ્રય લઈને જે વચન બોલાય છે તે ઉપમા સત્ય છે જેમ કે ચન્દ્રમાના સમાન મુખ, समुद्रनायु ताप होय, मेवा क्यन उवा ते ५मा सत्य छ " चोइस Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ - प्रमध्यापरणो सपुमोहि' चतुर्दशपूर्षिभिः । पाहुडत्यविडय' मानार्थविदितम-गांभविशेपाभिधेयतया सत्यनादपूर्वनाम्ना मातम्, तथा- मारिलीण य' महगां च 'समयपण' समप्रदत्त समयेन-मिदानेन प्रदत्तमोर्ग, ममि सिद्धा न्तरूपतया गृहीतमिया, तथा 'दविंदनरिभामियत्य' देनरेन्द्रभाषिनाथम् देवा नाम्-इन्द्रादीना नरेन्द्राणा-चक्रवर्तिमभृतीना भापित: पतिभापितोऽर्थः प्रयोजन यस्य तत् , तपा-माणियसाहिए' मानिसमाधित वैमानिक मानिकट साधित मापनाविषयीहत, सेपितमिन्यर्थः, तपा-'महान्य' महार्यम्-महान् अर्थ: =प्रयोजन यस्य तत् , तपा'मतोमहिरिग्जासाटणत्य' मन्त्रीपधिनियासाधनार्थम्मन्नापधिविद्याना साधनमय प्रयोजन पन्य ता , तेन पिना तन्सियभामाद , तथा-'चारणगणसमगसिपिज' चारणगगमगसिद्वविद्यम् चारणगणानापाट टत्यचिय) स सत्य को चतुर्दश पूर्वधारियों ने प्राभृता स्प से विदित किया है अर्थात् पूर्वगत अशविशेप की अभिरेयता से सत्यवादपूर्व इस नाम से जाना है, (मररिसीण य समापदण्ण) मर्पियों ने इसे सिद्वान्तरूप से स्वीकार किया है, (देवनारंट मासियत्य) इन्द्रादिको के लिये तथा चावी आदि (राजाओं) के लिये इसका प्रयोजन उपादेयरूप से कहा गया है, (वेमाणिय मारिय) वैमानिक देवों ने इम सत्य को अपनी साधना का विषयभूत बनाना है अर्थात् इसका सेवन किया है (मरस्य) ह महान् अर्थ-प्रयोजन वाला है (मतोसहिविज्जासारणत्य) मन्त्रीपधि ऐच विद्याओं का साधन इसका प्रयोजन है क्योंकि सत्य के विनामत्रादिसिद्ध नहीं होतेहै, (चारणगणसमणसिद्धविज्ज) हमी के प्रभाव से इसी चारणगणो को आकाशगा पुव्वीहिं पाहुडत्थविइय" मा सत्यने यौह धागास प्रालताथ विहित કર્યું છે એટલે કે પૂર્વગત અ શવિશેષની અભિધેયતાથી સત્યવાદ પૂર્વ એ नामथी एयु छ " महरिसीण य ममयपदण्ण " महर्षिभोगे तेने सिद्धांत ३थे स्वीयु छ “ देवनरिंद भासियत्थ” दाहिन तथा पती मात नरेन्द्रीने भाटे तेनु प्रयासन पायउथे ४वायु छ, “ वेमाणियसाहिय । વૈમાનિક દેએ આ સત્યને પિતાની સાવનાનો વિષય બનાવ્યો છે એટલે કે तेनु सेवन यु छ, “महत्य" ते महान पथ-प्रयोगवा “मतो सहिविगासाहणत्य" ते भ-मौषधि भने विद्यासानु साधन तेनु प्रयोग छ १२५ सत्य विन भत्राहि म यता नथी, “चारणगणममणसिद्ध ન્ન છે તેના પ્રભાવથી ચારણ ગગને આકાશગામિનો વિવાની તમને Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ०२ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् विद्याचारणादीना अमणाना च सिद्धविद्या-आकाशगामिनी वैक्रियादि रूपा च यस्मात्तत्तयोक्तम् , तया-'मणुयगणाण' मनुजगणाना 'यदणिज्ज' वन्दनीय स्तवनीयम् , तथा-'अमरगगाण' अमरगणाना-देवानाम् 'अच्चणिज्ज' अर्चनीयम्-सत्कारयोग्यम् , तथा- 'अमुरगणाण च' असुरगणाना च 'पूयणीय' पूजनीय-प्रशसनीयम् , तथा 'अणेगपाखडिपरिग्गहिय ' अनेकपाखण्डिपरिगृहीतम् अनेकधर्मानुयायीभिरपि स्वीकृत 'ज' यत्सत्य 'त' तत् 'लोकम्मि' लोके 'सारभूय ' सारभूत= सारभूत-सर्वप्रधानत्वात् पुनस्तत्सत्य कीशम् ? इत्याह-' गभीरयर महासमुद्दाओ' गभीरतर महासमुद्रात् , अक्षोभ्यत्वात् , तथा-'घिरयम्ग मेरुपव्ययाओ' स्थिरतरक मेरुपर्वतात्मनिश्चलत्वात् , तथा'सोम्मयरग चदमडलाओ' सौम्यतरक चन्द्रमण्टलात्-सतापशमनहेतुत्वात् , तथा-'दित्तयर मुरमडलामो' दीप्ततर मुरमण्डलात्म्ययापद्वस्तु प्रकाशकत्वात् , मिनी विद्या की तथा श्रमणोकों वैक्रियादिरूप विद्याओ-लब्धियो कीसिद्धि होती है । (मणुयगणाण वदणिज्ज ) मनुष्यों के लिये यह सत्य वदनीय है, (अमरगणाण अच्चणिज्ज) अमरगणों के लिये यह अर्चनीय है. तथा (असुरगणाण पृयणिज्ज) असुरगणों के लिये यह पूजनीय प्रशसनीय है (अणेगपावडिपरिग्गदिय) अनेक धर्मानुयायियों ने भी इसको स्वीकार किया है। (जत लोगम्मि सारभूय) ऐसा यह मत्यात लोकमें मर्यप्रधान होने से सारभूत है। ( गभीरयर मासमुदाओ) यह सत्य अक्षोभ्य होने से महासमुद्र की अपेक्षा अत्यत गभीर है। (धिरयर मेमपन्वयाओ) निश्चल होनेसे मेरुपर्वत की अपेक्षा अत्यत स्थिर है ( सोम्मयरग चदमडलाओ) मताप के शमन का हेतु रोने से चद्रमडल की अपेक्षा अत्यत सौम्य है। (दित्तयर सूरमडलाओ ) यथावत् वस्तु का प्रकाशक होने से यह सत्य सूर्य मडल की अपेक्षा अधिक वैया३५ विद्याशा-पियानी प्राप्ति थाय छे “मणुयगणाण वदणिज्ज" मनुष्याने भाटे मा सत्य पहनीय छे तथा “ असुरगणाण पूणिज्ज " मथुर गरीने भाटे पूलनीय-प्रशसनीय छ "अणेगपासडि परिग्गहिय" मन धर्भाना मनुयायीमासे ५५ तना वीडी२ छ, 'ज त लोगम्मि सारभूय" मेषु मा सत्यव्रत सोभा २५ प्रधान बाथी सारभूत , “गभीरयर महासमुद्दाओ" मा सत्य साक्ष्य हावाथी समुद्र ४२त ५ पधारे समीर छ "थिरयर मेरूपव्वयाओ" निश्श डोपाथी ते भेरुपर्वत उरता ५९ पधारे निय२ छे “सोम्मयरग चदमडलाओ" सातापनु रामन ४२ना२ डापाथी यन्द्र भ७ ४२ता ५ पधारे सौम्य छ “ दित्तयर सूरमडलाओ" पन्तुना साया સ્વરૂપનું પ્રકાશક હોવાથી આ સત્ય સૂર્યમંડળ કરતા પણ વધારે સ્થિર છે प्र८४ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ma r - - - - - - तथा-'विमलयरं सरयनहयलागो' विमलारं शरनभस्तलात-गन्कालिक गगनतलादप्यधिक निर्मय, मालिन्परहितत्वात् , तथा-'मुरमियर गधमायणाओ' सुरभितर गन्धमादनाद-गन्धमादनपतात् र हि-नीलवन वर्षपरपर्वतम्य दक्षिणदिशि, मेरोयिन्यकोणे, गीतोदानयुत्तरकल्पर्तिनो गधिलारवीनाम्नोऽएमविजयस्य पूर्वदिशि तया-उत्तरपुरूणा सकिएभोगभूमिकक्षेत्रात् पश्चिमदिशि महानिदेशानस्यो गनदन्तमस्थानसम्यितो गन्धमादननामा वक्षस्कारपर्वतोऽस्ति । गधेन न्वय माधति मदयति मा निरासिदेवदेवीना मनामीति गन्धमादन । यथा पिग्यमाणाना सचूर्ण्यमानानाम्-उत्कोर्यमाणाना विकीर्यमादीप्त है। (विम्लयर सरयनस्यलाओ) मलिनता से विहीन रोने के कारण शरत्कालिक आकाशतल की अपेक्षा अधिक निर्मल है। तथा (सुरभियर गरमायणाओ) जनों के पदयों को आकर्षण करने वाला होने के कारण यह सत्र गधमादन नामक पर्वत की अपेक्षा अत्यन्त सुग न्धित है । यह गधमादन नाम का वक्षस्कार पर्वत नीलवर्षधर पर्वत की दक्षिणदिशा में, मेरु के पायव्यकोण मे, गीतोदानदी के उत्तर तट पर रहे हुए गन्धिलायती नामक अष्टमविजय को पूर्वदिगा में, तथा उत्तर कुरु के सर्वोत्कृष्ट भोगभूमिकक्षेत्र रो पश्चिमदिशा में महाविदेहक्षेत्र में है । उसका सस्थान आकार-गजदत जैसा है अर्थात्-गजदत के आकार में यह स्थित है। अपनी गंध से स्वय को सुगधित करता है तथा अपने ऊपर रहने वाले देवदेवियों के मन को मदोन्मत्त बना देता है उसका नाम गधमादक है ऐसा यह पर्वत है। जैसे पिसते हुए, फैले हुए, अथवा एक वर्तन से दूसरे वतेन " विमलयर सरयनह्यलाओ" मलिनताथी २हित पावी १२४ातुनी माशत ४२तपशु धारे नि " सुरभियर गवमायणाओ" भान સેના ચિત્તનું આકર્ષણ કરનાર હોવાથી આ સત્ય ગ ધમાદન નામના પત કરતા પણ અધિક સુગન્ધિત છે તે ગન્ધમાદન નામને વક્ષસ્કાર પર્વત નલિ વર્ષ ધર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં, મેઝ, વાયવ્ય કોણમા, શીદા નદીના ઉત્તર કિનારે રહેલ ગન્ધિલાવતી નામના અષ્ટમવિયની પૂર્વ દિશામા, તથા ઉત્તર કરુના સર્વોત્કૃષ્ટ ભેગભૂમિક ક્ષેત્રની પશ્ચિમ દિશામાં મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં છે તેને આકાર ગજદત જેવો છે એટલે કે તે ગજરાતના આકારે ઉભે છે પિતાની ગ ધવડે જે પોતે વાસયુક્ત બને છે અને પોતાની ઉપર વાસ કરતા દેવદેવીઓના મનને જે મદોન્મત્ત કરી નાખે છે, તેનું નામ ગધમાદન છે Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ २ सू० २ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६६७ णाना माण्डाद् भाण्टानगर या साहियमाणाना कोस्टपुटाना यावत्तगरपुटादीनां मनोज्ञा उदारा गन्या अभिनिःमान्ति, तदपेक्षयाऽप्युटारगन्धयुक्तोऽय पर्वतः। ततोऽप्यधिकतरमुरभिमत्मत्यमिति भावः, जनाना हृदयार्जकत्वात् । तथा'जे विय' येऽपि च ' लोगम्मि' लोके 'अपरिसेसा ' अपरिशेपाः सकलाः 'मतजोग, मन्त्रयोगा'-मन्त्राः-हरिणगमेपिदेवादि मन्त्रा.-योगा वशीकरणादिप्रयोजना द्रव्यसयोगा, 'जया य' जपाश्च-मन्त्रविधाजपनानि 'विज्जा य' विद्याश्च-रोहिणीप्रत्राप्त्यावर., 'जमा य' जन्मकाब-तिर्यग्लोकवासिनोऽन्न जम्भकादि भेदेन दशविधा देशविशेषा. 'नत्याणिय' अवाणि च-माणादीनि 'सत्याणिय' शलागि च खड्दानि 'सिम्याओ य' शिक्षाथ-कगग्रहणादीनि 'आगमा य' जागमाक्ष मन्ति । ' सघाइ पिताइ' सर्माण्यपि तानि 'सच्चे' सत्ये 'पहिगद ' प्रतिष्ठितानि, सत्यमाश्रित्येप सर्वापि तिष्ठन्तीति भावः ॥२॥ ने रसे जाते हुए सुगधित तगर आदि द्रव्यों की मनोज उदार गध चारों ओर फैलाति है उससे भी अधिक उदार गध से युक्त यह पर्वत है। इस पर्वत से भी अधिकतर सुगधि सपन्न यह मत्य है। (जे चि य लोगम्मि अपरिसेसा मतजोगा जवा य विज्जा जभगा य अत्याणि य सत्याणि य सिम्साओ आगमा य सम्याइ विताह सन्चे पहद्रियाइ) तथा लोक में जो भी समस्त मन्त्र-हरिणैगमेपिदेवादिमत्र, और योग वशीकरण आदि प्रयोजनवाले द्रव्यसयोग हैं, मत्रविद्या के जाप हैं, रोरिणीप्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ हैं, तिर्यग्लोफवासी अन्नज भक पान] भक आदि दशप्रकार के देवविशेय हे, वाणादिक अस्त्र, खड्ग आदि शस्त्र, कलाग्ररण आदि शिक्षाएँ और आगम है वे सब इस सत्य के ही आश्रय से हैं। એ તે પર્વત છે જેમ ઘસાતા ફેલાતા અથવા એક પાત્રમાથી બીજા પાત્રમા રેડાતા સુગધિત નગર આદિ દ્રવ્યની મનોજ્ઞ ઉદાર ગબ્ધ ચારે તરફ ફેલાય છે, તે કરતા પણ વધારે ઉદાર ગધવાળે આ પર્વત છે તે પત કશ્તા પણ घा धारे सुगधियुत मा मत्य के "जे चित्र लोगम्मि अपरिसेसा मतजोगा जयाय विज्जा य जगमाय अत्याणिय सत्थाणिय सिक्साओ आगमा य सच्याइ विताइ सच्चे पइद्रियाइ" तथा सोउमारे मत्र-निगमषिદેવાદિ મત્ર, અને ગર્વનીકરણ આદિ પ્રજનવાળા ચમચાગ છે, માત્ર વિદ્યાના જાપ છે, રહિણીપ્રજ્ઞપ્તિ આદિ વિવાઓ છે, તિર્યલોટવાસી અન્નક, પાનજીભ, આદિ દરા પ્રકારના દેવવિશેષ છે, બાણાદિ અશ્વ, તલવાર આદિ ગજ કલાગ્રહણ આદિ શિક્ષાઓ અને આગમ છે, તે બધુ આ સત્યને જ આશ્રયે રે Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ म्याकरणसूत्रे सत्यमपि वा न वक्तव्य, कीदृश वक्तव्य ? मित्याह -- ' सच्चपि य' इत्यादि # मूलम् -- सच्च पिय समस्त उवरोहकारग किंवि न चत्तव्त्र, हिसासावज्जसपउत्त, भेयविकहकारर्ग, अणत्थवाय कलहकारग, अणज्जं, अववायविवायसंपत्तं वेलव, ओजज्जबहुलं निलज्ज, लोयगरहणिज्जं, दुद्दिह, दुस्तुय, भावार्थ-यह सत्य तीर्थकरो का सुभाषित है। इसे व्यवहार दृष्टि से जनपद सत्य आदि के भेद से यह दश प्रकार का कहा है। पूर्वधरों ने इस सत्य को सत्यप्रवादपूर्व के नाम से अभिहित किया है। ऋषियो ने इसे सिद्धान्त का रूप दिया है । देवेन्द्र नरेन्द्र आदि को के भाषण का महत्व इसी मत्य के सहारे माना गया है । मत्र औषधि आदि विद्याओं की साधना सत्य के प्रभाव से सफलित होती है। आकाशगामिनी विद्या चारणनाद्धि एव वैक्रियलब्धि ये सब इसी सत्य के प्रभाव से जीवों को प्राप्त होती हैं। मनुष्य, देव एवं असुर, सब के लिये यह वदनीय है । अनेकधर्मानुयायियों ने भी इसे मान्य किया है । समस्त वस्तुओं में यह एक सारभूत श्रेष्ठ वस्तु है। इसका प्रभाव अनिवचनीय है । महासमुद्र आदि की अपेक्षा भी यह गभीरतर आदि धर्मो वाला है। लोक में जितने भी मत्र योग आदि हैं वे सब इसी सत्य के सहारे टिके हुए हैं । सू० २ ॥ ભાવા—આ સત્ય તીર્થંકરાનુ સુભાષિત છે વ્યવહાર દૃષ્ટિએ જર્મ પદ સત્ય આદિના ભેદથી તે દશ પ્રકારનુ ખતાવ્યુ છે, પૂર્વ ધએ આ સત્યને સત્યપ્રવાહ પૂના નામથી ઓળખાવ્યુ છે. ષિઓએ તેને સિદ્ધાન્તનુ રૂપ આપ્યુ છે. દેવેન્દ્ર નરેન્દ્ર વગેરેના ભાષણની મહત્તા મા સત્યની મદદથી જ મનાયેલ છે. મંત્ર ઔષધિ આદિ વિદ્યાની સાધના આ સત્યના પ્રભાવથીજ સફળ થાય છે આકાશગામિની વિધા-ચારણુૠદ્ધિ અને વૈયિલબ્ધિ એ બધુ આ સત્યના પ્રભાવથી જ જીવાને પ્રાપ્ત થાય છે માનવ, દેવ અને અસુર મૌને માટે તે વશ્વનીય છે. અનેક ધર્મના અનુયાયીઓએ પણ તેને માન્ય યુ છે સમન્ત વસ્તુએમા તે એક સારભૂત શ્રેષ્ઠ વસ્તુ છે તેને પ્રભાવ અવર્ણનીય છે મહાસાગર આદિના કરતા પણ તે વધારે ગભીરતા આદિ ગુણાવાળુ જગતમા જેટલા મત્ર ચૈગ આદિછે તે અા આ સત્યને આધારે જ ટકેલા એ વા Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६९ सुदर्शिनी टीका अ०२सू० ३ सत्यस्वरूपनिपणम् अमुणिय । अप्पणो थवणा परेसि निदा-न तसि मेहावी, ण तमि धण्णो न तसि पियधम्मो, न तंसि कुलीणो, न तसि दाणवई, न तंसि सूरो, न तसि पडिरूवो, न तसि लहो, न पडिओ, न वहुस्सुओ, न वि य तसि तवस्ती, ण यावि परलोगणिच्छियमईऽसि, सव्वकाल जाइकुलरूववाहिरोगेण वावि ज होइ वज्जणिज्ज दुहओ उवयारमइकत एवविह सच्चपि न वत्तव्वं । अह केरिसय पुणाइ सच्चं तु भासियव १ ज त दवेहि पज्जवेहि य गुणेहि कम्मेहि वहुविहेहि सिप्पहि आगमेहि यनामक्खाय निवाय उवसग्गतद्वियसमाससधिपयहेउ-जोगिय उणाइ-किरिया-विहाण धाउसरविभत्तिवन्नजुत्ततिकल्ल दसविहपि सच्चं जह भणिय तह य कम्मुणा होइ । दुवालसविहा होइ, भासा वयणं पि य होइ सोलसविह । एवं अरहतमणुन्नायं समिक्खिय सजएण य कालम्मि वत्तव्वं । इमं च अलिय-पिसुणफरुस-कडुय-चवल-बयणपरिरक्खणट्टयाए पावयण भगवय सुकहिय,अत्तहिय,पेच्च भावियं,आगमेसिभद्द, सुद्ध नेयाउय, अकुडिल, अणुत्तर, सव्वदुक्खपावाणविउ समणं ॥सू० ३॥ टीका-'सच्च पि य ' सत्यमपि च तत् 'सनमस्स' सयमस्य ' उवरोहकारग' उपरोधकारक-बाधक भवेत् , तत् किं वि' किमपि 'न वत्तत्व' न वक्तव्यम् । किं भूत तत्-सत्य यन्न वक्तव्यम् ' इत्याह-'हिंसा सापज्जसपउत्त' किस प्रकार का सत्य नहीं बोलना चाहिये और किस प्रकार का તેવા પ્રકારનું સત્ય બોલવું ન જોઈએ અને કેવા પ્રકારનું બોલવું જોઈએ? Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० प्रश्नयाकरण पोलना चाहिये ? इस पात को सप्रकार करते है-'मन्चपि य' इत्यादि । टीकार्य-(सच्च पि य सजमस्म रोकारग किंदिन वत्तव) सत्य होने पर भी जो वचन सयम का पाघको घर मुनिजन को थोडा सा भी नहीं बोलना चाहिये। सत्य होने पर भी जो वचन मयम के पाक होते है वे इस प्रकार से है-(निमासावजसपउत्त) हिंसा और सावध जो वचन है वे सत्य शेने पर भी सयम के नायकाने के कारण नहीं बोलना चाहिये । हिंसा का तात्पर्य यहा प्राणिय से और सावध का तात्पर्य पापयुक्त मलाप से है। इन सहित जो वचन होते हैं वे हिंसासावद्य सप्रयुक्त वचन हैं। जिन सत्यवानों से प्राणियों के प्राणों का वध होता हो, तथा जिनसे पाप में जीवों की प्रवृति होती तो ऐसे वचन सत्यमहामनी के लिये कभी भी भापण करने योग्य नहीं है । (भेविकहकारग) इसी तरह जो मत्यवचन चारित्र के जनक हो, राजकथा आदि से समय रखते हों, तया (अणत्यवायफलहकारग) जिन सत्य वचनो का कोई प्रयोजन सिद्ध नही होता हो अर्थात् जो निरर्थक हो, जिन सत्य वचनों से परस्पर में वाद विवाद और कलह पढता हो, तथा ते पात सा२ तावे छ-" सच पि य" त्यादि "सच ति य सजमरस उपरोहकारग किं वि न वत्तर' सत्य सापा છતા પણ જે વચન સમયમમાં બાધક હોય તે મુનિજને જરા પણ બોલવું જોઈએ નહીં સત્ય હોવા છતા પણ જે વચન સયમમાં બાધક હોય છે તે मा प्रभारी छ-" हिंसा सावजसपउत्त" डिसा भने सावध रे पयन छ તે સત્ય હોવા છતા પણ સચમના બાધક હોવાથી બેલવા જોઈએ નહીં હિંસા એટલે આ જગ્યાએ પ્રાણિવધ સમજ અને સાવદ્ય અર્થ પાપયુક્ત સ લાપ છે હિંસા અને સાદ્યયુક્ત જે વચનો છે તે હિસાસાવદ્ય પ્રયુક્ત વચન કહેવાય છે જે સત્ય વચનેથી પ્રાણુઓના પ્રાણને વવ થતો હોય તથા જે વચનેથી પાપમાં જીવોની પ્રવૃત્તિ થતી હોય એવા વચન સત્યમ प्रतीत भाटे ४ी पर मासपाने यो साता नथी, “भेयविकहकारग" એ જ પ્રમાણે જે સત્ય વચન ચારિત્રના ઘાતક હોય, રાજકથા આદિ સાથે संजय रामत साय, तथा “ अणत्थयायकलहकारगर सत्य वयनानु કેઈ પ્રયજન સિદ્ધ થતુ ન હોય એટલે કે જે નિરર્થક હોય, જે સત્ય पथनाथी ५२२५२मा विवाह भने ४१ त बोय तथा “ अणज" Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिती रीका १० २ सू० ३ सत्यस्वन्पनिरूपणम् हिंसासापद्य सप्रयुक्त, तत्र-हिंसामाणिवध , सारद्यम्=पापयुक्तसलापादि, ताभ्या सपयुक्त सदित पत्ता , पुनः किंभूतम् ' 'भेयपिसहकारक ' भेदरियाकारकम् , भेदः = चान्त्रिभेद', विस्था = राजकयादि', तत्कारक यत् तत् , तथा'अगत्यवायफल कारक' अनर्थवादकलाकारसम् = तत्र - अनर्थो = निरर्थको यो गादः सोऽनर्यादा निप्मयोजनो जल्प , कलहो-विग्रहः, तत्कारक यत्तत् , तथा-' अणज्ज' अन्धाग्यम्-न्यायवर्जितम् , तथा 'अपवायविवायसपउत्त' अपवार निरादमप्रयुक्तम् , जपनाद =परदपणकथन, विवाद' वाक्लह', ताम्या समयुक्त यत्तत् , ता 'वेलर' विडम्मक-परनिटम्पनाकारकम् , तपा-'ओजघेज बहुल' ओनो धैर्यबहलम्-ओजा यह कार,आवेशो वा, धैर्यवृष्टता, ताभ्यां पहलव्यासम् , अत एव निल्लज्ज' निर्लज्ज लज्जा रहितम् , पुन• 'लोगगरहणिज्ज' लोक्गर्दणीयम् साधुजननिन्दितम् , येन सत्येन परस्य हिंमा मर्मोंद्धाटनादिक वा भरेत्तत् ‘दृष्टि' दुर्दष्टम् असम्यग्दृष्टम् , ' दुस्सय ' दु श्रुतम्(अणज्ज) जो न्यागानुकूल न हो, (अववायविवाय सपउत्त) अपवाद, विवाद से युक्त से वे भी नहीं घोलना चाहिये। पर के दूपणो का करना वह अपवाद है, वाघालह का नाम विवाद है । इसी तरह (वेलव) जो पर पी पिडम्बना के कारक हों तथा (ओजज्जरल) जिन मत्य वचनों के गोलने मे बोलने वाले का अहकार भाव ज्ञात होता हो अपवा आवेश प्रकट होता हो, वृष्टता जात होती हो ऐसे बचन भी नही बोलना चाहिये। तथा (निल्लज्ज ) जिन सत्यवचनों के बोलने में लज्जा जाती हो और (लोकगरहणिज्ज) मायुजन जिन वचनों की निदा करते हो ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये। तथा (दुट्ठि) जिन सत्य वचनों से परप्राणी की हिंमा अथवा मर्मका उद्धा न्यायानुन डाय, " अवायपिवायसपउत्त " ५५वाह, विपाथी युत साय તે પણ બોલવા જોઈએ નહિ પારડા દૂષણોને -હેવા તે અપવાદ છે અને वाणीना उसने विवाह ४ छ, मेरा प्रमाणे " वेलम " २ पनी विडसना ४२ना सत्य तथा " ओजधेज्जबहुल " २ मत्य पयो मालवाथी मासनाने અહવાર ભાવ જણાતો હોય અથવા આવેશ પ્રગટતો હોય, ધૃષ્ટતા જણાતી हाय, शेवा वयन पर न मालवा ने तथा “ निहज्ज " २ सत्य पयन मोसपामा Arnard हाय भने “ लोयगरहणिज्ज" माधुरन रे क्यानी નિદા કરતા હોય એવા વચન સત્ય હોય તો પણ બોલવા જોઈએ નહીં, तय " दुटुि" २ सत्य पयनयी ५२ प्रानी डिसा थती साय, २०१५ Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ मनग्याकरणम् असम्यक् श्रुतम् , तया-'अमुणिय ' अज्ञातम्-प्रमभ्यगजातम् , एवाश सत्यम पि न वक्तव्पमिति भावः। पुनः कीदृश सत्य न रक्तव्यम् ? इत्याह--'अप्पगो थपणा' आत्मनः स्तरना-प्रशसा यत्र मरेनन्, सन्तुतिस्प यत्सत्य तर वक्तव्य मित्यर्थः । तथा-परेसिं निंदा' परेपा निन्दा- अन्येपा पिये सत्याऽपि नि न्दा यस्मिन् भवेतन वक्तव्यमिति भारः, कथम् ? उत्याह--'न तमि महावि' न समसि मेधापी-अपूर्वश्रुतदृष्टग्रहणशक्तियुक्तः माशो मेधारीत्युन्यते, एनाश स्व नासि तया-'ण तसि धण्गो' नत्वमसि धन्या-धनान् , धन्पपादपायं वा, 'ण तसि पियधम्मो' न बमामि मियधर्माधर्मपरायणाः, तथा-'न तसि कुलीनो' न त्वमसि कुलीना-उन्चकुलीनचठमातः, 'न उमि दागबई' टन होता हो वे दुर्दष्ट वचन हैं और (दुस्सुय) जो अच्छी तरह से सुने गये हो वे दुःश्रुत वचन हैं, तथा (अमुणिय) जो अच्छी तरह से जानने में नहीं आये हो वे असम्यक ज्ञात वचन है, इन दुईटादि वचनों को चाहे ये वचन सत्य मी हो तो भी नहीं बोलना चाहिये । (अप्पणो धवगा परेमि निंदा) इसी तरह जिन सत्यवचनों में आत्मप्रशसाआत्मश्लाघा भरी होवे, और जिन सत्ययचनों में पर की निंदा होती हो वे सत्यवचन भी नहीं बोलना चाहिये, किस प्रकार नहीं बोलना चाहिये सो कहते हैं-(न तसी मेहावी) तुम मेधावी नहीं हो, अर्थात् जो व्यक्ति अपूर्व, अश्रुत एव अदृष्ट पदार्थ को ग्रहण करने की शक्ति से युक्त होता है उसका नाम मेघावी है ऐसे मेघावी तुम नही हो, तथा (ण तसि धण्णो) तुम धनवान् या धन्यवाद के पात्र नही हो, (न तसि पियधम्मो) तुम प्रियदर्माधर्मपरायण-नहीं हो, (न तसिभभ भयो पता लय ते या 2 पयन छ भने " दुस्सुय ' रे म२२२ समायु न डाय श्रुतपयन उवाय छ, तथा “ अमुणिय" જે બરાબર જાણવામાં આવ્યું ન હોય તેના વિષે વચન બોલવા તે અસભ્ય જ્ઞાત વચન છે, એ દુષ્ટ આદિ વચને સત્ય હોય તે પણ બાલવા જોઈએ नहीं "अप्पणो थवणा परसेनिंदा " से प्रभारी सत्य वचनामा मात्मप्रशसा આત્મશ્લાઘા-ભરી હેય તથા જે સત્ય વચનેમા બીજાની નિદા થતી હોય તે સત્ય વચન પણ બોલવા જોઈએ નહીં કઈ રીતે બોલવા ન જોઈએ તે હવે -"न तसि मेहावी" तमे भेधावी नथा यति अपू, मश्रुत माने અદૃષ્ટ પદાર્થને ગ્રહણ કરવાની શક્તિવાળી હોય છે તેને મેધાવી કહે છે તથા " ण त सि धण्णो" तमे धनवान या धन्यवाह पात्र नथी “न त सि पियधम्मो" तमे घभ ५२या नथी, “न त सि कलीणो" र २ नयाँ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूणनिरूपणम् ६७३ न त्वमसि दानपति =दाता, 'न तसि मरो' न तामसि गर'पराक्रपशाली, 'न तसि पडिस्पो' न त्वमसि प्रतिरूप =सुन्दरः, 'न तमि लट्ठो' न त्वमसि लटः सौभाग्यपान , 'न पडिलो' न पण्डिना विद्वान् त्वमसि, न च त्व 'वहुस्सुओ' बहुश्रुतः बद्दपियोऽसि, न पिय तराि तात्सी' नापी च त्वमसि तपस्वी 'ण यावि परलोगणिन्छिमईऽसि' परलोके निश्चिता सगयरहिता मतिर्यस्य सःपरलोकनिश्चितमतित्रापि व नामि । मेधादिनितान् सत्यपि एवरूपा निन्दा न र्तव्येति भावः । किं बहुना, 'जाइकुलरूपयाहिरोगेण या वि' जातिकुलरूप व्यागिरोगेण गऽपि-पा-अयग जाति: मानशः, कुल-पिठवशः, रूप-सोन्दर्य, व्याधि चिरम्यायि कुष्ठादि., रोग' शीघ्रधातो जरादि , एतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तेन कारणेनापि जात्यापि कारणमनलम्व्यापि 'ज' वत् ' सव्वकाल' कुलीणो) तुम कुलिन नहीं हो, (न तसि दाणवई) तुम दानपति-दाता नही हो, (न तसि सरो) तुम पराममशाली नहीं हो, (न तसिपडिख्वो) तुमप्रतिरूप-सुन्दर-नहीं हो, (न तसि लट्ठो) तुम लष्टसौभाग्यसपन्न नही हो, (न पटिओ) तुम पडित नहीं हो (न बहुस्सुओ) तुम नहुश्रुत-अनेक विद्याओं के वेत्ता नहीं हो, और (न वि य तसि तवस्सी) न तुम तपस्वी हो । और (न योवि परलोगणिच्छियमई सि) न तुम परलोक में सशय रहित मतिवाले ही हो," इस प्रकार के वचन अविवेकी व्यक्तियों से नहीं कहना चाहिये, क्यो कि इस प्रकार के वचनों से उनकी निदा होती है । (सव्व काल जाइकुलरूववाहिरोगेण ज होह वज्जणिज्ज) इसी तरह जाति-मातृवश, कुल-पितृयश, रूपमौदर्य, व्यापि-चिरस्थायी कुष्टादि, तथा शीघ्रघातक ज्वरादि रोग, इन 'न तसि दाणाई" तमे हाता न.1, 'न तसि सूरो" तमे पराभी नयी “न तसि पटिरूवो' तमे सुह२ नया “न तसि लट्टो" तमे सष्ट सौभाग्यशाणी नथी, "न पडिओ" तमे ५ति नथी, “ न बहुस्सुओ" तमे महुश्रुत-मने विद्यामाना २ नथी, मने " न वि य त सि तवरसी" तभे तन्वी नबी, अने “ न यारि परलोगिणच्छियमईसि " तमे परसोने વિષે સશયરહિત મતિવાળા નથી'' એ પ્રકારના વચને માણસોએ બોલવા જોઈએ નહી કારણ કે તે પ્રકારના વચનેમા તેમની “શ્રોતાની નિદા થાય थाय छे “सध्य काल जाइकुल रूववाहिरोगेण ज होइ वज्जणिज्ज" मेर પ્રકારે જાતિ માતૃવશ, કુળ-પિતૃવ શ રૂપ-સૌદર્ય, વ્યાધિ-કાયમી કઢ વગેરે તથા શીઘઘાતક જવરાદિ રોગ એ બધા કારણેને લઈને પણ કદી એવા प्र ८५ Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TA ६७४ प्रश्नध्याकरणसूत्रे सर्वकालसर्मदा 'यन्नणिज्ज' पर्जनीय त्याज्य लोके 'होइ' भाति, एवं विह' एवविध 'हो' उभया: लोकतः गायतश्र, 'उपचारमात' उपचार मतिकान्त व्यवहारविरुद्ध 'गचपि' सत्यमपि न बननन वक्त यम् । 'अ' जय ' केरिसय ' की तु 'पुणाइ' पुनः 'सन्च भासियच' सत्य भापितव्यम् ? आह-'ज त' यत्तत् 'दहि' दयः त्रिकालगतिमिः पुद्गलादिभिः ‘पज्मोहि' पर्योः ननपुराणादिभिः समवर्तिभिमः, च-पुनः 'गुणेहि ' गुणैः पहभूतवर्गादिमि, कम्मेहि' पर्मभि =कृयादि व्यापार, सय कारणों को लेकर भी कभी ऐसे पचा नहीं करना चाहिये कि तुम्हारा मातृवश अरुला नहीं है, पितृवश तुमारा शुद्ध नहीं है, तुममे सौदर्य नहीं है, तुम व्याधि सपना हो कुछी आदि । तात्पर्य-इसका यही है कि मातृवशादि से विहीन तथा कुष्ठादि सपन व्यक्तियों से ऐसे घचन नहीं कहना चारिये। क्यो कि इस प्रकार के वचनों से उन्हें दुःख होता है। (दुहओ उचयारमइफत) इसी तरह जो वचन लोक तथा आगम, ऐसे दोनों की अपेक्षा व्यवहार विरुद्ध हो (पवविह सच्च पिन वत्तब्य ) ऐसे वचन सत्य होने पर भी नहीं बोलना चाहिये। (अरकेरिसय पुणाइ तच्च तु भासियन्च ) अब सूत्रकार यह कहते है कि साधुजनों को-महावतारा एक सयमी जनों को-किस प्रकार के सत्य. वचन बोलना चाहिये-(जत) जो वचन ( व्वेहि ) त्रिकालवर्ती पुगलादि द्रव्यो से (पज्जवेटिं) नवीन पुरानी आदि क्रमवर्ती पर्यायो से (गुणेहिं) द्रव्य के साथ अविना भाव रूप सयध रखने वाले वर्णादि गुणा વચન ન કહેવા જોઈએ કે “ તમારે માતૃવ શ સારો નથી, તમારો પિતૃવશ શુદ્ધ નથી, તમારામાં સૌદર્ય નથી, તમે વ્યાધિયુક્ત કોઢ વગેરે રોગયુક્તછે ” તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેને માતૃવશ આદિ હીન હોય, કઢ આદિ રેગોથી જે ચુક્ત હોય તેને તેવા વચને કહેવા જોઈએ નહીં, કારણ કે તેના क्यनाथी तेन थाय छ-" दुहओ अवयारमइक्कत " मे ४ प्रभार पयन तथा साराभ, जननी अपेक्षा व्यवहार विहाय "एवं विह सच्चपि न वत्तन" मेना पयन सत्य हाय त ५५ मोसम नडा “ अहकेरिसय पुण,इ सच्चतु भासियव्य " वे सूत्रा२ मे मता छ ॐ સાધુજનોએ-મહાવ્રતાધિક સ યમીજને કેવા પ્રકારના સત્યવચન બોલવા न "ज त" क्यन “दव्वेहिं" डिसपती पालद्रव्याथी "पज्ज वैहिं" नवी गुनी मावि भवता पर्यायाथी " गुणेहिं" द्रव्यनी साथै भाव नामा१३५-स५५ रामना२ वह गुणाथी "कम्मे हि " या पाया२ ३५ Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिशी टीका १० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६७५ तथा-'बहुरिहेर्हि सिप्पेहि ' बहुविधैः शिल्पैः= आचार्याधिगतैः चित्रकर्मादिभिः क्रियातिशेपै , 'आगमेहि' आगमैः सिद्धान्तैथ युक्त सत्य उक्तव्यम् । पुनः कीश सत्य नक्तव्यम् ? इत्याह-'नामकमाय निवाय उपसग्गत द्धियसमामसधि पयदेउजोगियउणाइसिरियाविहाणधाउसरविभत्तजुत्त ' नामारयातनिपातो - पसर्गतद्वितसमाससन्धिपदहेतुयौगिकोणादिक्रियाविधानधातु वरविभक्तियुक्त-- तत्र-नाम-व्युत्पन्नमव्युत्पन्न च द्विविध, तन-व्युत्पन्न-जिनदत्तजिनदासादि, अव्युत्पन्न-डित्थडवित्यादि, आख्यातम्-क्रियापद भूतभविष्यद्वर्तमानरूपम् , से (कम्मेटिं) कृप्यादि व्यापाररूप कर्मों से (विहेहिं सिप्पेहिं ) आचार्याधिगत चित्रकर्मादिस्य क्रिया विशेपो से, तथा (आगमेहिय) आगम-सिद्वान्नों से युक्त हो ऐसे सत्ववचन नोलना चाहिये । (नामस्खायनिवायउयसग्गतद्वियनमामसधियहेउजीगिय उणाइकिरिया विहाणघाउसरविभत्तिनजुत्त ) इसी तरह, नाम, आरयात, निपात, उपसर्ग, नद्धित, समाल, सन्धि, पद, हेतु, योग, उणादिप्रत्यय, कियाविधान, धातु, स्वर, विभक्ति और वर्ण इनसे युक्त हो (तिकरल दसविह पिसच्च) त्रिकाल विपय गला जनपद सत्य आदि दस प्रकार का भी सत्यवचन बोलना चाहिये । व्युत्पन्न और अव्युत्पन के भेद से नाम दो प्रकार का होता है। जिनदत्त, जिनदास आदि नाम व्युत्पन्न नाम हैं, और डिस्थ, डविथ आदि नाम अव्युत्पन्न नाम हैं। आख्यात नाम क्रियापद का है। यह भूत भविष्यत् और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का होता है, जैसे-अभवत्, भविष्यति और भवति । अर्थ में मेथी, 'बहुविहेहि सिप्पेहि " मायाधिशत मित्र३५ याविशेषाथी, तथा " आगमेहिय' मागम-सिद्धातथी युग डाय मेवा सत्यवयन मालवा नमे “नामसायनिवाय-उपसगतदिय-समाससधिपयहेउजोगिय--उणाइ किरियाविहाणधाउसविभत्तिवन्नजुत्त" से प्रभारी नाम, आध्यात, निपात, Sat, तद्धित, सभास, सन्धि, ५६, तु, योग, GRE, प्रत्यय, यानि धान, धातु, २१२, विमति, मन व मे माथी युत राय " तिकल्ल दस विह पि सच्च " नि विषयवार ५ सत्य माहि २॥ ५ સત્યવચન બેલવા જોઈએ વ્યુત્પન્ન અને અવ્યુત્પન્ન ભેદથી નામ બે પ્રકારના साय छ निहत्त, निहास माहि व्युत्पन्न नाम , मने डित्य, डवित्थ આદિ અવ્યુત્પન્ન નામ છે આખ્યાત નામ કિયાપદનુ છે તે ભૂત ભવિષ્ય અને पत भानना मेथी व प्रा२ना छ, म अभवत् (थये!) भविष्यति (थरी) Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ प्रश्नम्याकरणसूत्र निपाताअर्थद्योतकाः खलु पाटग , उपमर्गा: अपरादयः, तद्विताः अपत्याध र्थाभिधायकप्रत्ययान्ताः गदाः, यथा-नाभेरपत्यनामयः अपमः, सिद्धार्थस्या पत्य सैद्धार्थो महावीरः' इति । समासा अनेकपदानामेकीकरणम् , स चाव्ययी भानादिभेदादनेकविधा, सन्धिार्गान्त समां नाम् , यया 'श्रापकोऽ'-त्यादि। विशेषता के घोतक जो होते हैं वे निपात है जैसे पलु दव आदि शब्द, प्र, परा आदि उपसर्ग कालाते हैं। इनके सर से एक ही घातुके अर्थ में भिन्नता आ जाती है, जैसे '' धातु के माय जर 'प्र' उपसर्ग का सबध होता है-तप उसका अर्थ प्रहार हो जाता है, और जय 'आ' का सवध होता है तब आहार रो जाता है, इत्यादि । अपत्य आदि अर्थ के अभिधायक जो प्रत्यय है वे प्रत्यय वाले शन यहां तद्विन शब्द से गृहीत हुए हैं जैसे-" नाभे अपत्य पुमान् नाभेयः" यहा नाभि शब्द से तद्धित प्रत्यय होने पर नाभेय बनता है तथा सिद्वार्थ शब्दसे अण् प्रत्यय होने पर 'सैद्धार्थ बनता है, ये तद्धित शब्द है। इसी प्रकार और भी तद्धित शब्द जगन लेना चाहिये। परस्पर सबध रखने वाले दो वा दो से अधिक पदों की बीच की विभक्ति का लोप करके मिले हुए अनेक पदों का नाम समास है। समास अव्ययी भाव आदि के भेद से अनेक प्रकार काहोता है। सधि शब्द का अर्थ मेल होता है-अर्थात्-वर्णों की मन भवति (छ) २ Auअभा विशेषताने शव छ भने निपात ४ छ भ " खलु" " इस" माह शण्ड "" "परा" माह ઉપસર્ગો છે. તેમના ઉપગથી એક જ ધાતુના અર્થમાં ફેર પડી જાય છે, सभ "ह" धातु साथै न्यारे “प्र" Gyan मामा भाव छ त्यारे तना अर्थ " प्रहार" 25 लय छ, भने न्यारे तनी मा "आ" ५ સર્ગ મૂકવામાં આવે ત્યારે તેને અર્થ “આહાર થઈ જાય છે, અપ્રત્યે આદ मर्थन शावना प्रत्ययो छे त प्रत्यया शहोने सही "तद्धित" शथी. उस छ, भ3-" नामे अपत्य पुमान् नाभेय " " नामि" शन तद्धित प्रत्यय सागवायी " नाभेय" श६ मन्यो छ, तथा सिद्धार्थ ' शम् 'अण्' प्रत्यय सात "सौद्धाय " मन त तद्धित म्हो छ આ પ્રકારે જ બીજા તદ્ધિત શબ્દો પણ સમજી લેવા પરસ્પર સ બ ધ રાખ નાર બે કે બેથી વધારે પદની વચ્ચેની વિભક્તિને લેપ કરીને જોડાયેલા અનેક પદોને સમાસ કહે છે અવ્યયી ભાવ આદિ ભેદથી સમાસ અનેક પ્રકા રના છે “સ ધિ” શબ્દને અર્થ “જોડાણ થાય છે એટલે કે વર્ષોની અતિ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६७७ : पद-सृपन्त विदन्त च पथा-' जिनः भवति' इत्यादि हेतुः साध्याविनाभूतत्वलक्षण, यथा- पर्वतोऽयमान वृमा ' दित्यादि, यौगिक = योगनिष्पन्न पद 'पद्मनाभो नीलकान्तः' इत्यादि उणादि उणादिप्रत्ययनिप्पन्न पदम्, ' करोति चित्रकार्यमिति कारू:' सानो तिस्त्रपर कार्यमिति सोधु' ' इत्यादि. क्रियाविधान = कृदन्तप्रत्ययनिप्पन्न 'पाठक, पाचकः, पाकः' इत्यादिरूप पदम्, धातनः=कियानाचिनो स्वादयः स्वराः = जकारादयः परजादयः, अतिसमीपता होने पर उनके मेल से जो ध्वनि में विकार होता है उसका नाम सधि है - जैसे 'श्रावकः अत्र ' ऐसी स्थिति में 'आवकोऽत्र ' ऐसी सधि होती है, इस सधि का नाम पूर्वरूप सधि है । सुनन्त और तिङ्गन्त को पद कहते है, जैसे- ' जिन: ' यह सुबन्त पद है ओर ' भवति यह तिडन्त पद है । जो साव्य के साथ अविनाभाव सवध से यधा होता है उसका नाम हेतु है, जैसे धूमवाला होने से यह पर्वत अग्निवाला है, यहा पर साध्य - अग्नि है और उसके बिना नही होने वाला धूम है। योग से जो शब्द निष्पन्न होते हैं वे यौगिक शब्द है, जैसे पद्मनाभ, नीलकान्त आदि शब्द । उणादि प्रत्यय से जो शब्द बनते हैं वे उणादि है, जैसे- कारु ( शिल्पी) साधु आदि शब्द । धातु के अन्त में प्रत्यय लगाकर जो शब्द बनते हैं वे कृदन्त हैं, जैसे- पाठक, पाचक, पाक आदि शब्द | किया के वाचक जो भू आदि शब्द है वे धातु कहलाते हैं। दूसरे वर्णो की सहायता के विना जिनका उच्चारण होता है ऐसे દ્વાર ઉત્પન્ન થાય છે " श्रावकोडन " से अ સમીપતા હૈાય ત્યારે તેમના જોડાણુથી ધ્વનિમા જે तेने सन्धि न्हे छे, नेम हे " श्रावक अत्र " श्री · રની સન્ધિ થાય છે, આ સન્ધિને પૂર્વરૂપ સન્ધિ કહે છે. સુત્રન્ત અને તિજ્ઞન્ત यह हे छे, म डे- 'जिन " ते सुमन्त यह मने " भवति " ते તિગન્ત પદ છે, જે સાધ્યની સાથે અવિનાભાવ ઞ ઞધથી અ ધાયેલ હોય છે તેને હેતુ કહે છે જેમ કે ધૂમવાળા હોવાથી આ પર્યંત અગ્નિવાળા છે, અહી માન્ય અગ્નિ છે, અને તેના વિના ન પેદા થનાર ધુમાડા છે. ચેગી જે રાખ્યું અને છે તેમને યૌગિક રાખ્ત કહે છે. જેમ કે પદ્મનાભ, નીલા न्त, माहि यौगि शो छे " उणादि " प्रत्ययथी ने शब्दो जने छे ते " उणादि " न्हेवाय छे, प्रेम अरु (शिपी ) साधु અન્તે પ્રત્યય લગાડીને જે શબ્દ અને છે તેને કૃદન્ત કહે છે, જેમકે પાચક પાક આદિ શબ્દ ક્રિયાના વાચક ‘· મૂ ” આદિ જે શબ્દો ધાતુ કહે છે બીજા વોની મદદ વિના જેનુ ઉચ્ચારણ થાય છે એવા ’ हि शब्द धातुने પાઠક, તેમને " Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - ___ प्रमध्याकरण वा, विभक्तयः स्वादयस्तिरादयश, वर्णाः = कादयः, गिर्युक्त तिकल्ल' त्रैकाल्य-त्रिकालविषय 'दसनिह पि' दशविधमपि जनपदादिरूप 'सर्च' सत्य वक्तव्यम् । तथा यत्सत्य 'जह 'पया येन प्रकारेण 'मणिय ' भणितम् उच्चारित 'तह य ' तया च तेनैव प्रकारेण 'कम्मुणा' कर्मणापि-कार्येणापि परिणत ' होइ ' भाति, तत्सत्य वक्तव्यमिति मारः, तथा-'दुवालसविहा' द्वादशनिधा-माकृत सस्कृतमांगपिशाचसौरसेनोपभ्रममदातू पइपिया, सा पुन: गद्यपद्यभेदाद् द्विविति द्वादशविधा 'मासा' भाषा मोइ' भरति, तथा'वयण पि य पचनमपि च 'होइ' भाति 'सोलमविह' पोउधित्वमेव विज्ञेयम् - अकार आदि शब्द, अथवा पडज आदि स्वर स्वर कहलाते हैं। 'सु, औ, जस, आदि विभक्तिया तथा 'तिप्, तम, भी' आदि प्रत्यय ये सप विभक्तियां कहलाती हैं, और कनर्ग आदि वर्ग करलाते हैं। (जह भणिय तह य कम्मुणा होइ) तथा जो सत्य जिस प्रकार से कहा गया है वह सत्य उसी प्रकार से कार्य से भी परिणत हो जाता है ऐसा सत्य योलना चाहिये। तात्पर्य इसका यह है कि जिस सत्य को, योलने वाला व्यक्ति कार्य रूप में परिणत कर सके ऐसा सत्य बोलना चाहिये। (दुवालसविहा होइ भासा) भापा वारह प्रकार की होता है-वह इस प्रकार से प्राकृत, सस्कृत, मागधी, पैशाची, सौरसेनी और अपभ्रश । यह छहों प्रकार की भाषा गद्य और पद्य के भेद से घारह प्रकार की हो जाती है। ( वयण पिय रोइ सोलसविर) वचन के सोलह प्रकार होते हैं, वे इस प्रकार से है१२ मा श६ २५44 पडूज माहि १२२ १२ १ छ, “सु, औ, जस्" माहि विमतियो तथा “ति तसू झी" मा प्रत्यय से सौने वित्तिये। ॐ छ, ( शुभरातीमा स, ने, थी, नी, नी, नु, ना, मी माह विनातिना प्रत्यया छ) भने 'क ख' मा १ उपाय छ "जहभणिय तहय कम्मुणा होइ" तथा सत्य २ सारे उपायु डाय ते सत्य तारे કાર્યમાં પણ પરિણમતુ હોય તેવુ સત્ય બોલવું જોઈએ, તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જે સ યને બેલનાર વ્યક્તિ કાર્ય રૂપે અમલમાં મૂકી શકે તેવું સત્ય मोसनेमे, “दुवालसुविंहा होइ भासा " सा! मा२ प्रजानी डाय छे તે આ પ્રમાણે છે-પ્રાકૃત, સંસ્કૃત, માગધી, પૈશાચી, સૌરસેની, અને અપભ્રંશ આ છ પ્રકારની ભાષા ગદ્ય અને પદ્યના ભેદથી બાર પ્રકારની થઈ જાય છે, "यण पिय होइ सोलसविह" क्यनना सो प्रा२ हाय छे. ते नीय प्रमाणे छ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ सुर्शिनी टोका अ० २ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् ६७९ ___ " वयणतिय लिगतिय कालतिय तह परोक्खपन्चक्ख । उवणीयाइचउक्क अज्जत्य चेन सोलसम में" छाया-पचनत्रिक लिङ्गत्रिकं कालत्रिक तथा परोक्ष-प्र-त्यक्षम् । उपनीतादि चतुप्फमध्यात्म चैत्र पोडशम् ।। इति, तत्र-वचनम् = एकचन द्विवचन बहुवचन च, यथा-'पट घटी घटाः ' 'भाति, भवतः भवन्ती' त्यादि । त्रिलिङ्गम्स्त्रीपुनपूसकरूपम् , यथा-'प्रकृतिः आत्मा मनः' इत्यादि । कालत्रिक भूतभविष्यद् वर्तमानस्पम् , यथा ' अभृद् , भविष्यति, भवति इति । तथा-परोक्षम्-भूतानयतनकालिकमिन्द्रियागोचरम्-यथा-मपभो बभूवे' त्यादि । प्रत्यक्षम्-वर्तमा" वयणतिय३ लिंगतिय६ कालतिय तहपरोस्ख१० पच्चक्ख ११ । उवणीयाह चउघ १५, अज्जत्थ चेव सोलसमम् ॥१॥" एकवचन, दिवचन और यहृवचन ३। पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुसकलिंग ६। भूतकाल, भविष्यत्काल और वर्तमानकोल ९ इस प्रकार ये सय वचन के वचन लिङ्ग और काल तीन तीन होते है, इस तरह वचन के ये नौ भेद हो जाते हैं ९ । 'घटः, घटो, घटाः' ये घट शब्द के एकवचन, द्विवचन और यहवचन है ३। इसी तरह " भवति भवतः भवन्ति " इनमें भी जानना चाहिये ३। 'प्रकृतिः, आत्मा, मन, ये शब्द के तीन लिङ्ग हैं, प्रकृतिः स्त्रीलिङ्ग, और मन', यह नपुमकालिग है ६१ अभूत, भविष्यति भवति ये तीन काल हैं 'अभूत्' यह भूत काल है, 'भविष्यति' यह भविष्यत् काल है और 'भवति' यह वर्तमान काल है ९ । भूतकालीन एव अनद्यतनकालीन वचन इन्द्रिय के अगोचर होता "वयणतिय ३ लिंगतिय ६ कालतिय ९ तह परोक्ख १० पच्चक्ख ११ । उवाणीयाइचउक्क १५ अज्झत्य चेव सोलसम ॥ १ ॥" એકવચન, દ્વિવચન અને બહુવચન ૩, પુલિગ, સ્ત્રીલિંગ અને નપુસકલિગ ૬, ભૂતકાળ, ભવિષ્યકાળ અને વર્તમાનકાળ ૯, આ રીતે તે બધા વચનના પ્રકારે, લિગ (જાતિ) અને કાળ ત્રણ ત્રણ હોય છેઆ રીતે વચ नना ते नवले याय छ, “घट , घटौ, घटा ते 'घ' राहना से क्यन, द्विवयन भने मवयन छ 3 से प्रभारी " भवति भरत भवन्ति " मे ३पामा ५ सभावानु छ 3, " प्रकृति आत्मा मन " ते त्रणे पुदी ही જાતિ( લિગ) ના રાબ્દ છે પ્રકૃતિ સ્ત્રીલિગ છે આત્મા પુલિગ છે અને મન નપુસકલિ ગ છે , વતમાન, ભૂત અને ભવિષ્ય એ ત્રણ કાળ છે “ગभूत् " ते भूत छ, “भविष्यति" ते भविष्य छ भने " भवति ॥ ते વર્તમાનકાળ છે ૯, ભૂતકાલીક અને ભવિષ્યકાલીન વચને ઈન્દ્રિયને અગોચર Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे नकालिकमिन्द्रियगोचरम् - यथा- 'निरय शास्त्र पठतीत्यादि । तथा-उपनीतादि चतुष्क वचनम्, तत्र - उपनीतरचनम् = गुणारोपणवचनम्, यथा-' रूपनानय मन स्त्री' त्यादि । अपनी वचन = गुणापनयननचनम्, यथा-'दु श्रीरोऽय दुर्वचनो ऽयमित्यादि । उपनीता पनीतरचनम् = कचिद् गुणमारोप्य कोऽपि गुणोऽपनी यते येन वचनेन तदुपनीता पनी त वचनम्, यथा-' रूपवानय किन्तु दुःशीलः ' इत्यादि । एतद्विपर्ययेण अपनी तोपनीतवचनमपि मरति । येन वचनेन पूर्वे कमपि गुणमपनीय पश्चादपर कोऽपि गुण उपनीयते तदपनीतोपनीतवचनम्, यथादुःशीलोsय किन्तुरुपत्रा' नित्यादि । तथा-पोडश वचनम् -' अज्झत्थ' अध्या ६८० " है, जैसे " ऋषभो पभूव" यह वाक्य परोक्ष अर्थको विषय करनेवाला होने से परोक्ष माना जाता है १० । जो वाक्य वर्तमान काल को विषय करता है वह प्रत्यक्ष वाक्य माना जाना है जैसे "मुनिरय शास्त्र पठति" यह प्रत्यक्ष वाक्य है ११ । उपनीतवचन १२, अपनीतअवचन १३, उपनीत पनीतवचन १४ और अपनीतोपनीतवचन १५, इम प्रकार ये उपनीतादि चार है । इनमें जो वचन गुणों का आरोपण करता है वह उपनीत चचन है-जैसे " यह मनस्वी अच्छे रूप वाला है १। जो वचन गुणों का अपनयन करता है वह अपनीत वचन है - जैसे यह दुःशील है २ । जो वचन किसीगुणको आरोपित करके किसी गुण का अपनयन करता है वह उपनीतानीतवचन है, जैसे यह स्पवाला तो है परन्तु दुःशील है ३ | इसी तरह जो किसी गुण का अपनयन करके गुण का आरोपक होता है पर वह अपनीतोपनीतवचन है, जैसे यह दुःशील " "ऋषल यर्ध गये। " का वाध्य परीक्ष 66 24 होय छे, भडे " ऋषभा बभूत्र' અને વિષય કરનારૂ હાવાથી પરેાક્ષ મનાય છે ૧૦ જે વાચ વર્તમાન કાળને વિષય કરે છે તે પ્રત્યક્ષ મનાય છે “ મુનિ આ શાસ્ત્ર વાચે છે. ૧૧ (१२) उपनीतक्यन, ( 13 ) अपनीतवथन, (१४) उपनीतापनीतवशन भने (૧૫) અપનીતે પનીતવચન એ રીતે ઉપનીતાદિ ચાર વચન છે (१) तेभा ગુણાનુ આરેાપણુ કરનાર વચનને ઉપનીત વચન કહે છે જેમ કે મનસ્વી સારા રૂપવાળે છે ” (२) ने वयन गुणानु अपनयन रे छे ते अपनीत वयन छे, प्रेम डे " मा हुशील छे" (3) ने वयन अर्ध गुणुनु આશપણ કરીને કાઈ ગુણનુ અપનયન કરે છે તે ઉપનીતાપનીત વચન છે, જેમકે “તે રૂપાળા છે પણ્ દુ શીલ છે” એ જ રીતે જે વાય ઈ ગુણુનુ અપનયન કરીને કાઇ ણુનુ આરેપણ કરતુ હાય તે અપનીતેપનીત વચન છે Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका असू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपणम् मम्=आत्मानमधिरुत्य , वचन तदध्यात्मवचनम् यथा - ज्ञानस्वरूपोऽयमात्मे त्यादि । इति पोडविध वचनम् । एन=उत्प सत्यम् ' अरहन्तमणुण्गाय अनुज्ञातम् = तीर्थकरोपदिष्ट ' समिक्खिय' समीक्षित = पर्यालोचित सदेव " सजएण ' समतेन= साधुना ' काळे य, काले च अवसरे समागते एन 'वतन्त्र' वक्तव्यम् । भगवदर्भूित स्वयमपर्यालोचित वचन साधुनाऽवसर विना न वक्तव्यमिति भावः । नयोपसारमा = ' इमं च' इत्यादि 'इम च ' 1 =ग्नन्ततीर्थकरणगधरैः प्रोक्तमिद= प्रत्यक्ष ' पात्रयण ' 'अलिय-विणफरुस - कडुथवलयणपरिचयाए ' अलीकपिशुन-परुप - फदुरुपपचनपरिरक्षणार्थं तत्र अलीकम् असद्भूतार्थं पिशुन-परतो है परन्तु अच्छे रूप वाला है ४ । वचन का सोलहवां भेद वह है, जो अध्यात्म होना है, जो आत्मा को अधिकृत करके बोला जाता है जैसे " यह आत्मा ज्ञान स्वरूप हे " इत्यादि १६ । (एव अरहत मणुष्णाय ) इस प्रकार इन सोलर तरह के वचनों को वोलने में तीर्थकर प्रभु की आज्ञा है । और जो वचन ( समिक्खिय ) पर्यालोचित है अर्थात् अच्छी तरह से विचार करके निकाले गये हो ऐसे वचन ( सजएण) साधु को ( कालम्मि ) अवसर आने पर ( वक्तव्य ) बोलने चाहिये, परन्तु जिन वचनों को बोलने की प्रभु की आज्ञा नही है और जो अपर्यालोचित हो ऐसे वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये। अब इसका उपसहार करते हुए सूत्रकार कहते है - ( इमच पावयण) पूर्वकालिक अनत तीर्थकरों के द्वारा कहा हुआ यह प्रत्यक्षीभूत प्रवचन ( अलिय - पिसुणफरूस-कडुवचनलवयणपरिरक्खणट्टयाए ) अलीक, पिशुन, परुष, " ८८ જેમ કે આ દુ શીલ તે છે પણ મુદ્દે રૂપવાળા એ ’ (१६) वयनना સેાળમે ભેદ્ય તે છે કે જે અ યાત્મ હાય છે, જે આત્માને ઉદ્દેશીને મેલાય छे प्रेम " आत्मा ज्ञानवश्य छे " त्याहि, " एव अरइत मणुष्णाय આ રીતે તે મેળ પ્રકારના વચને ખેલવાની તીર્થંકર પ્રભુની આજ્ઞા છે અને જે વચત ' समिस्सिय" पर्यायोचित -भारी गते वियारीने उभ्याરાયા હોય, એવા વચન सजण्ण " साधुमे कालम्मि " અવસર આવતા << वतन्त्र ” ખેલના જોઈએ, પણુ જે વચને ખેલવાની ભગવાનની આજ્ઞા નથી અને જે અપર્યાવાચિત હોય તેવા વચને સાધુએ મેલવા જોઇએ નહીં હવે તેના ઉપમહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે "" इमच पावयण પૂર્વકાલીન અનત તીર્થંકર દ્વારા દેવાયેલ આ પ્રત્યક્ષીભૂત પ્રવન, 'अल्यि-पिसुणफरूस-कडुय-चवल-वयण परिसराणहुयाए" असी-असत्य, पिशुन, परुष IC ६८१ " Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ प्रश्नप्यावरणसरे दोपसूचक,पाप-परमर्मोद्वाटक,गटु कम्-उद्वेगजनम् चपलम् असमीक्ष्य प्रोक्त यद् पचन तस्मात्-मुनीना परिरक्षणा म् , अर्थात्-मुनिभिरीश पचन न वाच्य मिति हेतोः 'भगाया' भगरता 'सुफरिय ' मुकथितम् । कथम्भूत प्रवचन मुकथितम् ? इत्याह- जगहिय ' आत्महिनम् - आत्मनो हितकारकम् , 'पेन्चाभारिय ' प्रेत्य भारिफनन्मान्तरेऽपि शुभफलदायम् , अतण्य 'आगमेसिमद' आगमिप्यद् भद्रम् भरिप्यत्कल्याणकारसम् , तथा-'मृद्ध शुद्ध निर्दोपस्वात् , पुनः 'नेयाउय नैयायिकन्याायुक्तम् , पीतरागभापितसाद , तथा-' अङ्क डिल' अकुटिलम्माजुभाषजनकत्वात् , ' अणुतर' अनुत्तरम् सर्वश्रेष्ठत्वाद, तथा-सम्पदुक्खपागण' सर्वदुःखपापानां-सामजनशानाररणीयाधष्टविध कर्मणा 'दिउसमण' व्युपशमनम् तर्पयाप्रशमनकारकम् । एनाटग माचन भगवता कथितमित्यर्थः ।। सू-३ ॥ कटुक, चपल, वचनो से मुनिजकों की रक्षा होती रहे इस अभिप्राय से (भगवया) भगवान ने (सुरुरिय) अच्छी तरह से प्रतिपादित किया है। असदभूत अर्थ को कहने वाला पचन अलीक, पर दोप सूचकवचनपिशुन. पर के मर्मका उद्धाटक वचन पम्प, उद्वेग को पैदा करन वाला वचन कटुक, और विना विचारे बोला गया वचन चपल कहलाता है। यह प्रवचन (अत्तरिय) आत्मा का हितकारक है तथा (पेचा भाविय) जन्मान्तर मे भी शुभफल का देनेवाला है। (आगमेसिभ६) इसीलिये इसे भविष्यत् में कल्याणकारक कहा गया है। (सुद्ध) इस प्रवचन में किसी भी प्रकार का पूर्वापरविरोधरूप दोष नहीं होने से ये शुद्ध हैं। (नेयाउय ) यह वीतराग द्वारा भापित होने के कारण न्याययुक्त है । तथा (अकुडिल ) इससे नाजुभाव उत्पन्न हो जाता है इसलिये यह अकुटिल है। (अणुत्तर ) इस के जैसा उत्तम और कोई કઠેર, કડવા, ચપલ વચનેથી મુનિજનનિ રક્ષા થયા કરે તે ઉદેશથી 'भगवया" लगवाने "सुकहिय" सारी रीते प्रतिपाहन यु छ भमभूत मथने ना३ वयन अलीक, ५२होष सूयः पयन पिशुन, मीना भमन भुस पातु वयन परुप, द्वेग हा ४२नार पयन कटक मने विद्यार्या विना घालाये क्यन चपल उवाय छ मा प्रवन्धन "अत्तहिय" मामाने भाट हत तथा “पेच्चाभाविय" माता पार ना३ छ " आगमेसिभद" ते २ तन मविष्यमा या[१२४ व्यु छ “सुद्ध આ પ્રવચનમાં કોઈ પણ પ્રકારે પૂર્વાયરવિધરૂપ દોષ નહી હોવાથી તે "नेयाय" ते वीतराग द्वारा उडवायेद डावाथी न्याययुध्त छ तथा "अकुडिल" तेनाथी भाव सरताप थायो तथा ते पारस , "अणुत्तर " तेनान श्रेष्ठ मान ६ प नी तेथी ते मनुत्तर में Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका १०२ सू० ३ सत्यस्वरूपनिरूपण ६८३ नहीं है इसलिये यह अनुत्तर है। और यह (सव्वदुक्रवपावाण विउसमण) अनेक विध दुःखां के देने वाले ज्ञानावरणीयादि अष्टप्रकार के कर्मों का सर्वथा उपशम करने वाला है। ऐसे विशेषणो से विशिष्ट इस प्रवचन को भगवान ने कहा है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा यह प्रकट किया है कि सत्य होने पर भी किस प्रकार के वचन नहीं घोलना चाहिये और किस प्रकार के वचन बोलना चाहिये। उन्हों ने कहाहै कि जिन सत्यवचनों से सयम में पापा आवें वे वचन कभी नहीं करना चाहिये, क्यो कि ऐसे वचन सत्य होने पर भी असत्य के जैसे होने से हेय त्याज्य हे । जिन सत्य वचनों से हिसा हो जावे, पाप में जीवो की प्रवृत्ति हो जावे, चारित्र से भ्रष्ट हो जावे, अथवा अपने चारित्र में किसीप्रकार की चाधा उपस्थित हो जावे, राजकथा आदि का प्रसग जिनमें होवे, जो प्रयोजन शून्य हो, जिनसे कलह उत्पन्न हो जावे, न्यायानुकूल जो न हो, अपवाद विवाद से जो युक्त हो, पर की विडम्मनाकारक हो, जिनके योलने में अपनी आत्मप्रशसा भरी हो, अथवा किसी प्रकार का आवेश भाव अल्कता हो, मुनने वालो को जिनमे अपनी धृष्टना प्रकाशित भने ते " सव्वदुक्सपावाण विउसमण" मने प्रा२नो ना२ જ્ઞાનાવરણી આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોને સર્વથા ઉપશમ કરનાર છે, એવા વિશેષણથી યુક્ત આ પ્રવચન ભગવાન મહાવીર દ્વારા કથિત છે ભાવાર્થ સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ સ્પષ્ટ કર્યું છે કે સત્ય હોય તે પણ કેવા પ્રકારના વચન બોલવા જોઈએ, તેમણે એ બતાવ્યું છે કે જે સત્યવચનથી યમમાં બાધા નડે, તેવા વચને કદી પણ ન બેલવા જોઈએ, કારણ કે તેવા વચને સત્ય હોય તે પણ અસત્ય જેવા હોવાથી હેય છે જે સત્યવચનથી હિંસા થઈ જાય , જેની પાપમાં પ્રવૃત્તિ થાય, ચારિત્રમાં ભ્રષ્ટતા આવે, અથવા પિતાના ચારિત્રમા કોઈ પ્રકારની બાધા ઉપસ્થિત થાય, જેમાં રાજકથા આદિનું વર્ણન આવે, જે પ્રયજન વિનાનું હોય, જેનાથી કલહ પેદા થાય, જે ન્યાયાનુકૂળ ન હોય, જે અપવાદ વિવાદથી યુક્ત, પારકાની વિડ બના કરનાર હય, જે બેલવામા આત્મશ્લાઘા થતી હોય, અથવા કોઈ પ્રકારને આવેશ ભાવ જણાતો હોય, જેમા સાભળનાર આગળ પિતાની Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ६८४ प्रश्नध्याकरण होती हो, जिनके बोलने मे लन्ना की भी लाज जाती हो, लोक में जो निन्दित माने जाते हों, पर के मर्म को जो छेदते हो, दुईष्ट, दुःश्रुत एच जो अज्ञात हो ऐसे सत्यवचन भी नहीं बोलना चाहिये । तथा भापासमिति के विरोधी रोने से ऐसे बचन मी नहीं करना चाहिये कि जो दूसरों की निंदा कारक हों, कर्णक्टु तथा दुग्यप्राशे, जसेतू महामूर्य है, मेघावी नर्स है, धर्मप्रिय नहीं है इत्यादि। तथा जो द्रव्य जैसा है, जैसे आकार का है, जिस क्षेत्र काल आदि से संबध रखता है, ऐसा ही उमका प्रतिपादन करनेवाला अविसवादी वचन जो होता है वह वचन द्रव्य से युक्त कहलाता है, इसी प्रकार उस द्रव्य में जो पर्याये हो रही हो, अधना- जिस पर्याय से वह युक्त हो-उस पर्याय का प्रदर्शक वचन पर्याय से युक्त वचन कहलाता है। गुणों की अपेक्षा को लेकर जो वचन बोला जाता है यह गुण से युक्त वचन कहलाता है। कृप्यादि व्यापारों को लेकर जो वचन कहे जाते हैं वे कर्मयुक्त वचन कहलाते है । "ये शिल्पी है ये चित्रकार है" इत्यादि जो क्रियाविशेषों को लेकर जो वचन कहे जाते है वे बहुविधशिल्पयुक्त वचन करलाते है। तथा सिद्धान्त के अनुसार जो वचन कहे जाते हैं वे सिद्धान्तयुक्त वचन कहलाते हैं। उसी तरह नाम आदि से युक्त जो ધૃષ્ટતાનું પ્રદર્શન થતું હોય, જે બેલવામા લાજ લેવાતી હોય, જગતમાં જે નિન્દાપાત્ર મનાતા હોય, બીજાના મર્મને જે છેદતા હોય, દુદણ, દશુત, અને જે અજ્ઞાત હોય એવા સત્યવચન પણ બોલવા જોઈએ નહી તથા ભાષાસમિતિના વિરોધી હોવાથી એવા વચને પણ ન બેલવા જોઈએ કે જે બીજાની નિન્દાકારક હૈય, કર્ણક તથા દુ ખપ્રદ હોય જેમ કે “તુ મહામૂર્ખ છે, મેધાવી નથી, ધર્મપ્રિય નથી ” ઈત્યાદિ, તથા જે દ્રવ્ય જેવું છે જેવા આકારનું છે, ક્ષેત્ર કાળ આદિ સાથે સબંધ રાખે છે, એવું જ તેનું પ્રતિપાદન કરનારા અવિસ વાદી જે વચને હોય છે તે વચને દ્રવ્યયુક્ત કહેવાય છે એ જ પ્રમાણે તે દ્રવ્યમાં જે પર્યાયે થઈ રહી છે, અથવા જે પર્યાયથી તે યુક્ત હય, તે પર્યાયને દર્શાવનારૂ વચન પર્યાયયુક્ત વચન કહેવાય છે ગુણોની અપેક્ષાએ જે વચન બોલાય છે ને ગુણયુક્ત વચન કહેવાય છે કૃષ્ણાદિ વ્યાપારોની અપેક્ષાએ જે વચન બોલાય છે તે કયુ वयन उवाय छ “तमा शिल्पी छ, तसा सिर छ" त्याहि (याવિશેની અપેક્ષાએ જે વચન કહેવાય છે તે બહુવિધ શિલ્પયુક્ત વચન કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે નામ આદિથી યુક્ત જે વચન કહેવાય છે તે Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका य० २ सू०४ प्रथमभावनास्वपनिरूपणम् ६८५ समति सत्यवचनस्य पञ्च भाग्ना. प्रतिपात्यन् पूर्व समितियोगलक्षणां प्रथमा भावनामाह-' तस्म इमा' इत्यादि मृलम्-तस्स इमा पच भावणाओ चीयस्त वयस्स अलियवयण-बेरमण-परिरक्खणट्टयाए । पढम सोऊण संवर? परमट्ट सुट जाणिऊण न वैगिय, न तुरिय, न चवलं न कडुयं, न फरुस, न साहस, न य परस्ल पीलाकर सावज्ज सच्च च मिय च गाहग च सुह सगयमकाहलं च समीक्खिय सजएण कालम्मिय बत्तव्य । एव अगुवाइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पासजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपण्गो ॥ सू०४ ॥ टीका- तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य 'वीयस्स वपस्स ' द्वितीयस्य व्रतस्य इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च 'भाषणाओ ' भावनाः ‘अलियरयणवेरमणपरिरक्खणवचन कहेजाते हैं वे नामादियुक्त वचन कहलाते हैं। इस प्रकार के ये सत्यवचन सयम आदि के बावक नहीं होते है। ऐसे वचन सत्यवती योल सकता है। तथा वह प्राकृत आदि भेद से बारह प्रकार की भाषा और एकवचन आदि के भेद से सोलर प्रकार का वचन भी बोल सकता है। इस प्रकार के वचन बोलने में प्रभु की आज्ञा है। ऐसे वचन योलने में किसी भी जीव को पाधा नहीं पहुँचती है । सू०३ ।। अय सूत्रकार सत्यवचन की पाच भावनाओ को कहने के अभिप्रोय से सर्वप्रथम वे अनुविचिन्त्य समिति नाम की प्रथम भावना નામાદિયુક્ત વચન કહેવાય છે, આ પ્રકારના તે સત્યવચને સયમ આદિમા બાધક થતા નથી એવા વચન સત્યવતી બોલી શકે છે તથા તે પ્રાકૃત આદિ ભેદથી બાર પ્રકારની ભાષા અને એક વચન આદિ ભેદથી નળ પ્રકારના વચન પણ બેલી શકે છે, આ પ્રકારના વચન બોલવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે એવા વચને બોલવાથી કેઈપણ જીવને બાધા પહોચતી નથી | સૂ ૩ li હવે સત્રકાર સત્યવચનની પાચ ભાવનાઓ દર્શાવવાને માટે સૌથી __ पसा तसा अनुविचिन्त्य समिति नामनी पक्षी भावनानु qणुन उरे छ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रश्नव्याकरण • हयाए ' अली रुपचनविरमणपरिरक्षणार्थम्-मृपावादाविरमणमतपरिक्षणाय सन्ति । तासु ' पहम ' प्रथमा समितियोगलक्षणां भावनामाह-सोऊग' श्रुत्वा मुगुक समीपे समाकर्ण्य, तथा-'परमह' परमार्थ-परमतत्त्व प्रथमभारनारहस्य 'संवरह' सरार्थ-सवरस्य-मृपावादविरविलक्षणम्य अर्थ प्रयोजन-मोक्षलक्षणम् , अथवा सवरा कर्मनिरोधएर अर्थः प्रयोजन यस्य स त तथोक्तम् , यद्वा-सवरस्यप्रस्तुतसंपरा ययनस्य अर्थधान्य ' मुहह' मुन्छ-सम्यक जागिऊण' झाला न-नै 'वेगिय' वेगित-नदीपनाह वेगयुक्त पचन वक्तव्यमित्यग्रेण सम्बन्धः, तथा-न नैव तुरिय' सरित-पात्यारत् त्वरायुक्त रचनचाञ्चल्याद, नम्व करते हैं-'तस्स इमा' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स वीयस्स वयस्स इमा पच भावणाओ) उस प्रसिद्ध द्वितीय महाव्रत की ये वक्ष्यमाण पांच भावनाएँ ( अलियवयणवेरमण परिरक्सणयाए) उस अलीकवचन विरमणरूप सत्यव्रत की रक्षा के लिये है। उनमें (पढम) प्रथम भावना इस प्रकार है-(परमट्ट सवरह सोऊण) सुगुरु के समीप प्रथम भावना के रहस्य को कि जो रहस्य मृपावाद विरतिरूप प्रयोजन पाला है, अथवा कर्मनिरोधरूप सवर हा जिसका प्रयोजन है, अथवा इस प्रस्तुत सवराध्ययन के वाच्या का सुनकरके (सुदु जाणिऊण) अच्छी तरह जान करके (न वेगिय ) नदी के प्रवाह की तरह वेगयुक्त वचन साधु को नहीं बोलना चाहिये इस प्रकार "वत्तब" शब्द का सध सब के साथ लगा लेना चाहिये। (न तुरिय) पात्या-वधूरे-की तरह त्वरायुक्त वचन चचलता से युक्त " तस्स इमा" त्याह टा--" तस्स बीयरस वयस्स इमा पच भावणाओ" ते प्रसिद्ध मात भारतनी सा वक्ष्यमा पाय लावनामा “ अलियवयणवेरभणपरिरक्खणट्टयाए" ते मसी-मसत्य-विरभ३५ सत्यप्रतनी परिक्षाने भाटे छे तमा " पढम" पडती भावना प्रमाणे -" परमट्ट स वरद सोऊण" सहशु२ પાસે પહેલી ભાવનાનુ રહસ્ય કે જે મૃષાવાદ વિરતિરૂપ પ્રજનવાળું છે, અથવા કર્મ નિરોધરૂપ સ વર જ જેનું પ્રયોજન છે, અથવા આ પ્રસ્તુત सध्ययन वाय्यार्थ सामनी 'सुजाणिऊण " सारी शत लएनि " न वेगिय "नहीन प्रवाईनीभ वेशयुक्त पयन साधुये मालवा જોઈએ નહીં આ રીતે “વક્તવ્ય” શબ્દને સબધ બધા સાથે જોડી લેવો "न तुरिय" पात्या-पधुर।- (परायुक्त " न चवल" घानी गात Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० २ सू ४ प्रथमभावनास्वरूपनिरूपणम् ६८७ ' " ( " न च परस्स ? 3 " , ' " ' चाल ' चपल - हयगमन वच्चपलभानमन्त्रितम्, न=नै ' कडुय ' निम्नवत् कटुकम् अर्थतः, न=ने ' फरुस ' परुप कठोर पापाण कठोरभावयुक्त, तथा न=नैप ' साहसम् ' - उन्मत्तयत् अविचारित, तथा-' न य परस्य पीडाकर= दुःखजनक 'सावज्ज' सावध सपाप वचन वक्तव्यम् । उक्तदोषदुष्ट वचन न वक्तव्यमित्यर्थः । तर्हि कीदृश वचन वक्तव्यम् ' इत्याह- 'सच्च च = मद्भूतार्थत्वात् 'यि च - परिणाममुखजनकत्वात्, 'मिय' मितच, परिमिताक्षरस्यात्, तथा-' गाहग' ग्राहर= श्रोतुरर्थप्रतीतिजनकत्यात मीतिजनकत्वाथ, 'युद्ध' शुद्ध वेगितत्वादिदोषरहितत्वात् तथा समय सगतम्= युक्तियुक्तत्वात्, 'अकाल अकाल-मन्मनाक्षररहितत्वात् चपुनः 'समिक्खिय' समीक्षित = पूर्व बुद्धया पर्यालोचितत्यात्, एताश वचन ' सजएण ' (न चवले) घोडे के गमन की तरह चपलभाव से युक्त (न कड्डय ) नीम की तरह अतः कटुक, इसी तरह (फक्स) पाषाण की तरह कठोर ( न साहस) उन्मत्त के वचन की तरह अविचारित, और ( न य परस्स पीलाकर ) पर को पीडाजनक ( सावज्जा) सावध - पापयुक्त ऐसे वचन नही बोलना चाहिये। किन्तु जो वचन ( सच्च च ) सदभूत अर्थ को विषय करने वाले होने से मत्य हो, (हिय च ) परिणाम में सुखजनक होने से हितकारक हों, (मिय च ) परिमित अक्षरों से युक्त होने से जो मित हों, (गाह्ग च ) श्रोता को अर्थ की प्रतीति एव प्रीति के कराने वाले होने से ग्राहक हों, (सुद्ध ) वेगित्वादि दोपों से रहित होने से शुद्ध हों, तथा (समय) सगतयुक्ति युक्त हों, ( अकाल ) अफाइल हो मन्मन अक्षर से रहित हो, (समिक्खिय ) समीक्षित हों - बुद्धि से पहिले जिनका विचार अच्छी तरह कर लिया જેવુ ચપળભાવ યુક્ત વચન, 66 न कडुय " नीसना नेवु भेटते हैं उहुड, એ જ રીતે "6 "" फरस पथ्थर ठेवु उठोर" न साहस," उन्मत्तना वयन रेवु व्यवियारी, भने “ न य परस्स पीलाकर " जीनने पीडानन “सावज्जा" સાવદ્ય-પાપયુક્ત વચન મેલવા જોઈએ નહીં પણ જે વચન सच्च च " યથાર્થ અને વિષય કરનાર હોવાથી સત્ય હૈાય, हिय च " परिणाभे सुमन होवाथी डितअर होय " मिय व " परिभित अक्षरीवाणु होवाथी જે ત્રિત હાય, गाहग च " श्रोताने अर्थनी प्रतीति अने प्रीति उशवनार હાવાથી ગ્રાહ્ય હાય, 66 सुद्ध ” વૈગિત્વ આદિ દોષરહિત હાવાથી શુદ્ધ હોય, તથા " समय " सगत-युतियुक्त होय, " अकाइल " अजहत होय-भन्भन अक्षरे। विनानु होय, " समिक्सिय " सभीक्षित हाथ-मुद्धिथी नेता यहेद्या {{ "" 46 Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरण • द्वयाए ' अली कचनविरमणपरिरक्षणार्थम्-मपापादविरमणमतपरिरक्षणार्य सन्ति । तासु 'पढमं ' प्रबमा समितियोगलक्षणां भारनामाह-'सोजण' श्रुत्वा सुगुरु समीपे समाकर्ण्य, तथा-'परमह' परमार्थ-परमतत्त्व प्रथमभाग्नारहस्य 'सबरह' सरार्थ-सररस्य-मृपावादपिरतिलक्षणस्य अर्थ प्रयोजन-मोक्षलक्षणम् , अपना सवरा कर्मनिरोधएर अर्थः प्रयोजन यस्य स त तथोक्तम् , यहा-सारस्यमस्तुतसाराभ्ययनस्य अर्थधान्य ' मुहह' मुष्ठ-सम्या 'नागिऊण' शास्त्रा नम्नैव 'वेगिय' गितम्नदीमाह वेगयुक्त वचन वक्तव्यमित्यग्रेण सम्बन्धः, तया-न नैव 'तरिय ' सरित-पात्यायत् त्वरायुक्त पचनचाश्चल्यात् , ननेत्र कहते हे-'तस्स इमा' इत्यादि। टीकार्थ-(तस्स वीयस्स वयस्स इमा पच भावणाओ) उस प्रसिद्ध दितीय महावत की ये वक्ष्यमाण पाच भावनाएँ ( अलियवयणवेरमण परिरक्वणट्टयाए) उस अलीकवचन विरमणरूप सत्यव्रत की रक्षा के लिये हैं। उनमें (पढम) प्रथम भावना हम प्रकार है-(परमट्ट सवरह सोऊण) सुगुरु के समीप प्रथम भावना के रहस्य को कि जो रहस्य मृपावाद विरतिरूप प्रयोजन पाला है, अथवा कर्मनिरोधरूप सवर ही जिसका प्रयोजन है, अथवा इस प्रस्तुत सवराध्ययन के वाच्याथे को सुनकरके (सुटु जाणिऊण ) अच्छी तरह जान करके (न वेगिय ) नदी के प्रवाह की तरह वेगयुक्त वचन साधु को नहीं घोलना चाहिये इस प्रकार "वत्तब" शब्द का सर सर के साथ लगा लेना चाहिये। (न तुरिय) वात्या-वधूरे-की तरह त्वरायुक्त वचन चचलता से युक्त " तस्स इमा" त्याह टी--" तस्स बीयस्स पयरस इमा पच भावणाओ" ते प्रसिद्ध भात महानतनी मा १क्ष्यमा पाय मापनासा “ अलियवयणवेरभणपरिरक्सगट्टयाए," ते मसी-मसत्य-विरमा ३५ सत्यवतनी परिक्षाने माटे छे तमा "पढम " पडमी सावन २मा प्रमाणे छ-" परमद्र सवरद्र सोऊण" सशुरु પાસે પહેલી ભાવનાનું રહસ્ય કે જે મૃષાવાદ વિરતિરૂપ પ્રજનવાળું છે, અથવા કર્મ નિરોધરૂપ સ વર જ જેનું પ્રોજન છે, અથવા આ પ્રસ્તુત सवराज्ययनना वाय्यार्थ सामजीन 'सुठुजाणिऊण" सारी रीत djiन " न वेगिय " नहीना रानी भ युक्त क्यन साधुणे मालवा જઇએ નહીં આ રીતે વક્તવ્ય” શબ્દનો સબ ધ બધા સાથે જોડી લેવા " न तुरिय" पात्या-वधु-नी परायुत "न चवल" पानी ld Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ५ द्वितीयभावनास्वरूपनिरूपणम् अथ क्रोधनिग्रहरणा द्वितीया भावनामा 'नीय हो ' इत्यादि मूलम् - बीय कोहो ण सेवियन्वो, कुद्धो चडिकिओ माणुसो अलिय भणेज्ज, पिसुणं भणेज्ज, फरुस भगेज, अलिय पिसुणं फरुसं भणेज, कलह करेज, बेर करेज, विगह करेज, कलह वेर विगह करेज, सच्च हणेज, सील हणेज, चिणय हणेज सच्च सील विणय हणेज, वेग्नो भवेज्ज, वत्थं भवेज्ज, गम्मो भवेज्ज, वेसो वत्युं गम्मो भवेज्ज, एव अन्नं च एवमाइयं ६८९ पूर्वक बोलना इसका नाम अणुविचिन्त्य भाषण है। यह भाषा समितिरूप है। सत्य मे और भाषा समिति में कुछ भेद कहा गया है वह यह है कि हरएक के साथ सभाषण व्यवहार में विवेक रखना तो भाषा समिति है । आर अपने समशील साधु पुरुषो के साथ सभापण व्यवहार में हितमित और यथार्थवचन का उपयोग करना सत्यव्रतरूप यति धर्म है | उस भावना से इस सत्यव्रत की स्थिरता होती है । बोलते ' समय साधु को वेग से, त्यग से और चपलता से नहीं बोलना चाहिये। और न विना विचारे ही घोलना चाहिये। बोलने का जन समय आवे तब ही सत्य, हिन, मिन वचन बोलना चाहिये । अविचारित और अस्पष्ट वचन नहीं बोलना चाहिये। उस तरह की वचन प्रवृत्ति में सावधान बना हुआ साधु सत्यव्रत को सुशोभित करता हुआ प्रत्येक अपनी कर चरण आदि की प्रवृत्ति को यतन। पूर्वक करता रहता है । सृ०४॥ વિચિન્ત્ય ભાષણ કહે છે તે ભાષાસમિતિરૂપ છે સત્યમા અને ભાષાસમિતિમા કેટલા ભેદ ખતાવવામા આવ્યા છે તે એવા પ્રકારના છે ૐ દરેકની સાથે વાતચીતમા વિવેક રાખવા એ તે ભાષાસમિતિ છે અને પોતાના સમશીલ સાધુજને માથે વાતચીતમા તિ, મિત અને યથા વચનના ઉપયોગ કરવા તે સત્યવ્રતરૂપ યતિવમ છે આ ભાવનાથી તે સત્યવ્રત દૃઢ વાય છે. ખેાલતી વખતે સાધુએ વેગથી વાથી અને ચપલતાથી ખેલવુ જોઈએ નહી વિના વિચાર્યે પણ ખેલવુ જોઈએ નહીં જ્યારે ખેલવાના અવસર આવે ત્યારે જ સત્ય, હિત, મિત વન ખેલવા જેઈ એ વિચારિત અને અસ્પષ્ટ વચન ખેલવા જોઈએ નહીં આ પ્રકારની વચનપ્રવૃત્તિમા સાધાન અનેલ સાધુ સત્ય ન્નતને સુગેાભિત કગ્ગા, પેાતાની કચ્છુ ચણુ અતિની પ્રત્યેક પ્રવૃત્તિને યતનાપૂર્વક રતા રહે છે ! સૂ॰ ૪ ૫ 49 Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮૮ प्रमायाकरणम् सयतेन साधुना 'कालगिग य' काले अपमरे 'वन- क्त यम् । अवम् अनेन मकारेण ' अणुपीइ समिहनोगेण अनुपिचित्यममितियोगेन अनुरिवियों लोच्य यासमितियोगेन-मापास्पारामितिः, तम्या योगेन 'मानिओ' मावित मन्त रप्पी' अन्तरात्मा-जीन:-सजयकरचरणनयणायणो 'सयतकरचरणनयनवदन सयत = सम्यग्यतनायुक्त करचरणनयनादन यस्य स तथोक्त सन् समाहितेन्द्रियः सन्नित्यर्थः, 'मरो' गरः पराक्रमगाठी, 'सन्चज्जरसपभो' सत्याजनसपन्न'-सत्यम् अमृपा आर्जयम् मानुता, ताम्या सपनो-युक्तो भवति । इत्येपामथमा भावना ।। मू-४॥ गया हो ऐसे हों, ऐसे ही वचन साधु को अवसर आने पर-जय तप नरी किन्तु बोलने का जप समय उपस्थित हो तब बोलना चाहिये। (एव) इस प्रकार (अणुवीडममिह जोगेण) अनुविचिन्त्य भाषासमिति के योग से-विचार कर घोलने रूप भापासमिति के समय से (भाविओ अनरपा) भावित हुआ जीव (सजयकरचरणनयणययणो) अच्छी तरह यतना से युक्त कर-हाय, चरण-पैर, नयन-नेत्र एव वदन-मुख वाला बनकर, अर्थात् समाहित इन्द्रियों वाला रोकर (सरो) पराक्रमशाली बन जाता है, अर्थात् सत्यमहावत की आराधना में आये हुए उपसर्गों और परीपहों को जीतने में शक्तिशाली हो जाता है। तथा (सच्चज्जवसपन्नो भवइ ) सत्य और ऋजुता से सपन्न बन जाता है। भावार्थ-अहिंसा प्रत की तरह सत्यव्रत की भी पांच भावनाएँ हैं। उनमे परिली भावना अनुचिचिन्त्य भाषा समिति है। विचारસારી રીતે વિચાર કરી લીધું હોય, એવા વચને જ સાધુએ અવસરે-ગમે ત્યારે નહીં, પણ બોલવાને સમય ઉપસ્થિત થાય ત્યારે બોલવા જોઈએ " एव" मा प्रा" अणुवीइ समिइ जोगेण" मनुविचिन्त्य भाषा समितिना योगथी -वियार ४शन मालवा३५ भाषा समितिना समधथी " भाविओं अतरप्पा" सावित गनेदा १ "सजयकरचरणनयणबयणो " सारी रात યતનાયુક્ત હાથ, પગ, નેત્ર અને મુખવાળા થઈને, અથવા સમાહિત ઈન્દ્રિ योवाणा 52 "सूरो" ५।उभशाणी मनी नय छ सटवे सत्य भडा વ્રતની આરાધનામાં નડેલ ઉપસર્ગો અને પીપહોને જીતવાને સમર્થ બની જાય छ, तथा "सच्चज्जयसपन्नो भवइ" सत्य भने सन्नुताथी युटत मनी नय छ ભાવાર્થ—અહિંસાવ્રતની જેમ સત્યવ્રતની પણ પાચ ભાવનાઓ છે તેમ પહેલી ભાવના અનુવિચિત્ય ભાષાસમિતિ છે વિચારપૂર્વક . તેને અને Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - मुदर्शिनी टीका म० २ ० ५ द्वितीयभावनास्वरूपनिरूपणम् ६९१ शास्त्रविरुद्धा फया-वार्ता कुर्यात् , ' कलह वेर निगह ' कलह वैर विश्था च कुर्याद, तथा-' सच्च ' सत्य सद्भूतार्थ 'हणेज्ज' हन्यात्-नागये , 'सील' शील-सदाचार हन्यात् , 'विणय' विनय-रिनीतभार हन्यात् । तथा-क्रोधयुक्तो माननः 'वेसो' द्वेष्यः-सर्वेपामप्रियो ' भवेज्ज' भवेत् , तथा- 'वत्थु' वास्तु-गृह, दोपगृह दोपपात्र 'भवेज' भवेत् , तथा-'गम्मो' गम्यः अनादरस्थान भवेत् , तथा-' वेसो वत्यु गम्मो द्वेप्यो वास्तुगम्य एतत्रितयोऽपि भवेत् । 'एय ' एतत्=पूर्वोक्तम् , 'चन्न' अन्यच्च 'एमाइय' एवमादिकम् भी ठान देता है, (वेर करेजा) दूसरो से शत्रुता भी कर लेता है, तथा (विगह करेज्जा ) जो कया शाल से विरुद्ध होती है उसे भी कह देता है । तथा (कलह वेर विगह करेज्ज) कलह पैर और विकथा, इन तीनों को भी करता है। तया (सच्च हणेज्ज ) सत्य-सदभूत अर्थ का अपलाप कर देता है। तथा (सील हणेज्ज) शील-सदाचार को नष्टकर देता है, (विणय हणेज्ज ) विनीत भाव को धिक्कार देता है। तथा (मच्च सील विणय हणेज्ज ) सत्य शील और विनय, इन तीनों को नष्ट कर देता है । तथा (वेसो भवेज्ज ) जो मानव क्रोध से युक्त होता है वह दूसरो को अप्रिय बन जाता है, (वत्थु भणेज्ज) द्वेष पात्र बन जाता है और ( गम्मो भवेज्ज) सय के अनादरणीय होता है। (वेसो वत्यु गम्मो भवेज्ज) यह दूसरो को अप्रिय पिपात्र और अनादर इन तीनों का स्थान बन जाता है । इन पूर्वोक्त वचनो को तथा ( एव अन्न च एवमाइय) इसी प्रकार के और भी दूसरी तरह के असत्यकरेज्ज" ५२२५२भा वायुद्ध ५५ वडारे छे । वेर करेज्जा" भी बी साथै शत्रुत॥ ५Y उरे छ, तथा " विगह करेज्जा" तथा रे ४ा शाखना विरुद्ध डाय छे ते ५५] ४२ छे तथा “ कलह, वेर विगह करेज्ज" , वै२ भने विथा से नशे 3रे 2 तथा "सच्च हणेज्ज" सत्य-यथाथ अर्थन। अपसा५ ४री नामे , “ सील हणेज्ज" शास-सहायारन! नाश श नाणे छ, “विणय हणेज्ज" विनीत लापने विजारे छ, तप " सच सील विणय हणेज" सत्य, शle मने विनय सत्रणेने नटश ना तथा “ वेसो भवेज्ज" २ मानव धयुद्धत मने छ ते भीतन मप्रिय थाय छ, “पत्थु भवेज्ज" द्वेषपात्र मने छ भने “गम्मो भवेज्ज" मधाने भाटे मना२पात्र मन छ “ वेसो वत्थ गम्मो भवेज्ज" ते मीलने अप्रिय द्वेषपात्र सने मना १२पात्र से नाणेनु स्थान मन छे से पूर्वरित यो तथा “ एव अन्न च Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नथावरण भणेज्ज, कोहग्गिसपलितो, तम्हा कोहो न सेवियन्यो। एव खंतीइ भाविओ भवइ अंतरप्पा सजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसंपन्नो ॥ सू० ५॥ टीम-पीय 'द्वितीया भाननामह-कोहो' प्रोध' समादिशान्तिअक्षातिपरिणतिम्पो 'म सेविययोन सेवितव्य । कय न सेरितन्यः? इत्या -'कुद्धो' क्रुद्धाकोधयुक्तः, 'चडपियो' चाण्डिस्थित' पाण्डित्य-रौद्ररूपत्वं सनातमस्य चाण्डिस्थित. रौद्ररुपयुक्त 'माणुमो मानुप 'अलिय ' अलीकम्असत्य 'भणेज्न' भणेत् भाषेत, तथा-'पिमुण' पिशुन-परदोपसूचक वचन भणेत् , 'फरुस' परुप-परमर्मोद्धाटक भणत् , तथा-'अलिय पिमुण फरुस' अलीक पिशुन परुपमेतलितयमपि भणत् । तरा-लाम्मायुद्ध 'करेन' कुर्यात् , 'वेर' और शत्रुता 'करेन' कुर्यात् , 'विगह ' विस्था-विगतार्था अय सत्रकार को पनिग्रहरूप द्वितीयभावना को प्रकट करते हैं'वीय कोहो' इत्यादि, टोकार्थ-मोध निग्रहरूप जो द्वितीय भावना है उसमे (कोहो न सेवियव्यो) फ्रो का सेवन नहीं किया जाता है। क्यों कि जो (कुरो मणुसो) क्रोधयुक्त पुरुप होता है यह (चडकिओ) रौद्ररूप से युक्त बन जाता है। ऐसा मनुष्य ( अलिय भणेज ) झूठ बोल देता है (पि सुण भणेज्ज) पर के दोपो के सूचकवचन पोल देता है (फरूस भर्णन ) दूसरों के मर्मको छेदने वाले वचनों को कर देता है, तथा (अलिय पिसुण फरूस भणेज ) अलीक, पिशुन और पाप, इन तीनों तरह के वचनों का भी प्रयोग कर देता है । (कलह करेज्ज ) परस्पर मे वाग्युद्ध હવે સૂત્રકાર કોનિગ્રહરૂપ બીજી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કરે છે "बीय कोहो" त्याहि बोधनिय३५२ मील लानातभा “कोहो न सेविय व्वो" औधनु सेवन न २ नये १२५५ है "कुद्धो मणुमो" औधी पुरुषा डाय छ तया“चडकिओ" शैद्र३५पास सनी लय छे मेवो भव्य " अलिय भणेज्ज" भू माली नाणे “ पिसण भणेज्ज" मीनना air दर्श क्या माली नामे छे “फरुस भणेज्ज " on aiना भमन छ ना। वयना माली नय छ, तथा “ अलिय पिसण फरस भणेज्ज" असत्य પિશન અને પરુષ, એ ત્રણે પ્રકારના વચનોને પ્રયોગ કરી નાખે છે “દ Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू०६ तत्तीयभाव वरूपनिरूपणम् अब तृतीया लोभनिग्रहरूपा भावनामाह-'तइय लोहो' इत्यादि । मूतम्-तइयं लोहो न सेवियवो, लुछो लोलो भणेज्ज अलियं । खेत्तस्स वेत्थुस्स वा करण लुडो लोलो भणेज्ज भान नहीं रहता है कि इन हमारे वचनों से दूसरे प्राणियों के प्राणों पर क्या बीतेगी । भूट बोलने में उसे योडा सा भी सकोच नही होता। दूसरे की चुगली करने से वह नहीं चुकता-पर के ऊपर असत्यदोपारोप करने से यह पीछे नहीं हठता। हर किसी के साथ कलह करता रहता है। शत्रुता करने में वह घडा निपुण होता है। शास्त्र विरुद्ध पोलने की इसे थोडी मी भी चिन्ता नही होती। जो पदार्थ जिसरूप में होता है उसे उस रूप में करने में इसे शर्म आती है। विनीतभाव की इसको दृष्टि में कोई कीमत नही होती है । जब यह क्रोधरूपी अग्नि से सतप्त हो उठता हैतब इसकी परीस्थिति पूर्वोक्त प्रकार से तो होती हे परन्तु इससे अधिक भी कभी २ बन जाती है । ऐसी स्थिति में इसका कोई हितैषी नहीं रहता है । सब ही इसका अनादर करने लगते हैं। इसलिये इस क्रोध का परिहार करना चाहिये । इस प्रकार विचार कर जो मुनिजन क्षान्ति परिणति से इम क्रोध को जीतते है अर्थात् क्रोध नहीं करते हैं वे ही इस द्वितीयभावना से अपने अन्तःकरण को वासित कर सत्यव्रत को स्थिर बना लेते है ॥ सू० ५॥ બોલવા લાગે છે તેને તે વાતનું પણ ભાન રહેતું નથી કે મારા વચનેથી બીજા પ્રાણીઓના જીવને કેટલું દુ ખ થાય છે અસત્ય બોલવામાં તેને જરા પણ સંકોચ થતો નથી બીજની નિંદા કરતા પણ તે અટકતું નથી–અન્યની ઉપર અસત્ય દેવારે૫ કરતા તે પાછો હઠતો નથી હરકોઈ સાથે તે કલહ કરતો રહે છે દરમનાવટ કરવામાં તે નિપુણ હોય છે. શાસ્ત્રવિરૂદ્ધ બોલવામાં તેને જરા પણ દુખ થતુ નથી જે પદાર્થ જે રૂપે હોય છે તે રૂપે તેને કહેવામાં તેને શરમ લાગે છે તેની દષ્ટિએ વિનીત ભાવની કઈ કીમત હોતી નથી જ્યારે ક્રોધરૂપી અગ્નિથી સતત થઈ જાય છે ત્યારે તેની હાલત પૂર્વોક્ત પ્રકારની તે થાય જ છે પણ તેનાથી અધિક પણ કોઈ કઈ વાર બને છે એવી સ્થિતિમાં તેને કોઈ હિતિષી રહેતો નથી સૌ તેને અનાદર કરવા માડે છે તેથી તે ક્રોધનો ત્યાગ કરે એઈએ આ રીતે વિચારીને જે મુનિજન સાત્તિ પરિણતિથી એ કોધને જીતે છે, એટલે કે કોઈ કરતા નથી, તેઓ જ આ બીજી ભાવનાથી પિતાના અત કરણને ભાવિત કરીને સત્યવ્રતને સ્થિર કરી લે સૂત્પા Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नमाकरणसूत्र एव जातीय वचन ' कोहग्गिमपरितो' क्रोधाग्निममदीप्तो नरी 'मन' भणेत् कवयेत् , ' तम्हा 'तरमाद चारणा कोही न सेनिकयो' क्रोधो न सेवितव्यः। एवम् अनेन प्रकारेण' ग्यतोह' क्षान्त्याउपशमन 'भाविओ' भावितः 'अतरप्पा' अतरात्मानजीर सयतकररणनयनपदन. सूरः सत्या जैवसंपन्नो भाति ।। ५ ।। इति द्वितीया भावना ॥ २ ॥ वचनों को (कोर ग्गिसपलिती भवेज्ज) मोधाग्नि से मतप्त हुआ मनुष्य कर दिया करता है। (वमा कोहोत सेवियचो) इसलिये क्रोध का कभी भी सयमीजन को सेवन नहीं करना चाहिये। (एवखतीइ भाविओ अतरप्पा) उम प्रकार शान्तिपरिणति मे वामित हुआ जीव (सजयकरचरणनयणवयणो) सयत कर, चरण, नयन बदन वाला हो जाता है और (सूरो) अपने मत्यवन की आराधना में पराक्रमशाली होता हुआ (सच्चज्जयसपनो भयड) सत्य और आजब इन दोनों से सपन्न धन जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यत्रत की दूसरी भावना का वर्णन किया है। वह भावना कोध निग्रह रूप है। सान्तिपरिणति क्रोध की होती है। मनुष्य पर जब इसका आवेग आ जाता है तो उसकी आकृति बदल जाती है उसका रूप रौद्र हो जाता है। इस स्थिति में उस का वचन व्यवहार सत्यधर्म से प्रतिकृल हो जाता है ! वह इसके आवेश मे यहा तद्वा बोलने लग जाता है। उसको इस बात का एवमाइय" से प्रारना भी पशु असत्य पयन। “कोहग्गिसपलितो भवेज" अघानियुत मनुष्य मोती जय छ “ तम्हा कोहो न सेवियव्वो" ते १२ सयभी साओगे. ही प ओध उ नसे नहीं "एव सतीइ भाविओ अतरप्पा" मा शत शान्तिपरिणतिथी सावित थयेस ७५ " सजय करचरणनयणवयणो" स यत, थ, ५, नयन, पहनवाणे। anय छे मन "सूरो" पाताना सत्यवतनी भाराधनामा प्रराम “ सञ्चज्जवसपन्नो भवइ" सत्य અને આજે, એ બનેથી યુક્ત બની જાય છે ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા સત્યવ્રતની બીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે તે ભાવના ક્રોધનિગ્રહરૂપ છે શાન્તિપરિણતિથી ઉલટી પરિણતિ કોની હોય છે, મનુષ્ય પર જ્યારે તેને આવેશ આવે છે ત્યારે તેની આકૃતિ બદ લાઈ જાય છે, તે રૌદ્રરૂપ ધારણ કરે છે, આ પરિસ્થિતિમાં તેના વચને તથા વ્યવહાર સત્ય ધર્મથી પ્રતિકૂળ થઈ જાય છે તે તેના આવેશમાં ગમે તેવું Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका अ० २ सू०५ तृतीयभावनास्वरूपनिरूपणम् 'वत्थुस्स' वास्तुनः घासभूमे वा 'कएण' कृतेन-कृते इत्यर्थः, अत्र हेत्वर्थे तृतीया, एव सर्व ज्ञेयम् । लुब्धो लोलोऽलीक भणेत् ॥ १।। तथा-' कित्तीए' कीर्तेः 'लाभस्स' लाभस्य पा कृते लुब्धो लोलोऽलीक भणेत् ॥ २ ॥ 'उडीए' ऋद्धः सपत्तेः ' सौक्खस्स' सौख्यस्य या कृते लुब्यो लोलोऽलीक भणेत् ॥३॥ भक्तस्य पानस्य या कृते लुब्यो लोलोऽलीक भणेत् ॥ ४॥ 'पीढस्स' पीठस्य 'फलगस्स' फलकस्य पा कृते लुब्धो लोलोऽलीक मणेत् ॥५॥ तथा'सेज्जाए' शग्यायाः 'सथारगस्स ' सस्तारकस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलीक भणेत् ।। ६ ।। ' त्यस्स' वस्त्रस्य-चोलपटादे ' पत्तस्य' पारस्य वा कृते लुब्धो कृट वचन बोल सकता है (खेत्तस्स वत्थुस्स वा करण लुद्धो लोलोअलिय भणेज्ज ) कटवचन-झूठवचन बोलने के निमित्त ये उसे होते हैं-वह लोभी मनुष्य चञ्चलचित होता हुआ खेत अथवा निवामभूमि-गृह के निमित्त झूठवचन कह सदता है (कित्तीए लाभस्स चा करण लादो लोलो अलिय भणेज्ज) अपनी कीर्ति अथवा लाम के निमित्त असत्यभापण कर सकता है ( इड्डीए सोक्खस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज) ऋद्धि-सपत्ति अथवा सौख्यके निमित्त असत्यवचन पोल सकता है । (भत्तस्स पाणस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज ) आहार अथवा पानी के निमित्त असत्यवचन कह सकता है (पीढस्स फलगरस वा कएण लदो लोलो अलिय भणेज्ज) पाट अथवा बाजोठ के निमित्त असत्यवचन कह सकता है, (सज्जाए सवारगरस वा करण लद्धो लोलो अलिय भणेज्ज) शय्या अथवा सस्तारक के लिये वह लोभ चचलचित्त होकर असत्य बोल सकता है ( वत्थस्स पत्तस्स वा करण वा कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" तेनेट क्यन-असत्य पयन मासवाना નિમિત્ત આવા હેાય છે–તે લેભી મનુષ્ય ચચલ ચિત્ત થતા ખેતર અથવા निवासमूभि-धरने निभित्री असत्य क्यन डी श छ “ कित्तीए लाभस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" ते पातानी जीत मथवा सामने भाटे मसत्य मासी शछे “इडिढए सक्सिस्स वा कएण लुजो लोलो अलिय भणेज्ज" द्धि सपत्ति अथवा सुमने माटे ते मसत्य पयन मानी श छे " भत्तस्स पाणस वा कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" माडा२ मथवा पीने भाटे ते असत्य १२न डी श छे 'पीढस्स फलगस्स वा कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज " पाट २अथवा ५ने निमित्त ते सत्य क्यन मोदी शछे " सज्जोए सथोरगस्स वा करण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" शय्या अथवा सस्ता२ माटे ते सामी यस वित्त यता मसत्य मोसी छे “चत्थास Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राण्याकरण अलिय १, कित्तीए लाभस्स वा कएणलडो लोलो भणेज्ज अलिय २, इड्डीए सोक्सस्त वा कएण, लुछो लोलो भणेज्ज अलियं ३, भत्तस्स पागस्स वा करण, लदो लोलो भणेज्ज अलियं ४, पीढस्स फलगस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलिय ५, सेज्जाए सथारगरस वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ६, वत्थस्स पत्तस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं ७, कवलस्स पायपुंछणस्स वा कएण, लुद्धो लोलो भणेज्ज अलिय ८, सोसस्स सोस. णीए वा कएण, लुतो लोलो भणेज्ज अलियं ९, अन्नेसु एवमाइसु वहुसु कारणसएसुलु हो लोलो भणेज्ज आलियं १० तम्हा लोहो न सेवियम्बो, एव मुत्तीए भाविओ भवइ अ. तरप्पा संजयकरचरणनयणवयणो सूरोसच्चज्जवसंपन्नो॥६॥ टाका-'तइय' तृतीया भावनामाह-'लोहोन सेवियन्यो' लोमो न सेवितव्य । लोभसेवनेन किं भवेत् ? इत्याह-'लुद्धो ' लुधो-लोभयुक्तो नरा 'लोलो' लोल'वञ्चल:=पन् 'अलिय ' अलीक कटापन भणेज्न' भणे कथयेत् । केन निमित्तेन लुब्धोऽलीक भणे ? इत्याह-'खेत्तस्स' क्षेत्रस्य ____ अब सूत्रकार तृतीय भावना जो लोभनिग्रह रूप है उसे प्रकट करते हैं—'तय लोहो' इत्यादि । टीकार्थ-(तइय ) लोभ निग्रहरूप तृतीय भावना इस प्रकार से है. (लोहो न सेवियवो) लोभ सेवन करने योग्य नहीं है। क्या कि (लद्धो लोलो अलिय भणेज्ज) लोभ के सेवन करने से प्राणी लुब्ध कहलाता है, और वह लोभ युक्त बना हुआ मनुष्य चञ्चल चित्त होकर वे सूत्रधानि नामजी बी लादनानु पर्छ । २ छे “तइय लोहो” । टी-" तइय" aei.३५ त्री भावना मा प्रभारी छ-" लोहो न सेवियव्वो" साल सेवन ४२वाने योग्य नथी १२“लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" हालतुं सेवन २वाथी पाए हुण्य उपाय छ, म त बलयुटत भनय यय वित्तवाणी नेट क्यन मोदी , “खेत्तस्स वत्युत्त Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशिनी टीका ५० २ सू० ७ चतुर्थीभावनास्वरूपनिरूपणम् अथ चतुर्थी धैर्यभावनामद -' चउत्थ' इत्यादि--- मूलम्-चउत्थ न भीडयन्व, भीय खु भया अइति लहुअ, भीओ अवितिज्जओ मणूसो, भीओ भूएहि घिप्पइ, भीओ अन्न पि हु भेसेज्जा, भीओ तवसजम पि हु मुएज्जा, भीओ य कर लेता है और ( सरो) अपने सत्यव्रत के पालन में पराक्रमशाली वन कर (मच्चजवस पन्नो भव) मत्य और आर्जव धर्म से सपन्न हो जाता है। भावार्य-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यव्रत की तृतीय भावना को कहा है। इस तृतीय भावना का नाम लोभनिग्रह है। लोभ के निग्रह करने के लिये विचारधारा इसमे प्रकट की है। 'लोभ ही पाप का चाप है ' ऐसा ख्याल कर लोभ के फदे में नहीं फंसना चाहिये। जो रोभी होता है वह लुब्धक कहलाता है। लोभी का चित्त हरएक घस्तु की प्राप्ति के निमित्त चचल हो उठता है। लोभी व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के निमित्त झूठ बोल सकता है । खेत, मकान, ऋद्धि, सुख, भक्त, पान आदि को निमित्त लेकर असत्य भापण करता है। अत'लोभ का निग्रह करना ही उचित है इस प्रकार भावना भा कर जो इस लोभ को परित्याग से अपनी आत्मा को यासित यनाता है वह अपने सत्यमहाव्रत को स्थिर कर लेता है । उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति सयमित होती है। सू ० ६॥ पराभवाणी मनाने ' सच्चज्जवसपन्नो भवइ " सत्य सने आ धमथा યુક્ત થઈ જાય છે ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં સત્યવતની ત્રીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે આ ત્રીજી ભાવનાનું નામ લેભનિગ્રહ છે લેભને નિગ્રહ કરવાને માટે વિચારધારા આમા પ્રગટ કરી છે “લાભ જ પાપને બાપ છે ” આ વિચાર કરીને લેભની જાળમાં ફસાવું જોઈએ નહીં. જે લોભી હોય છે તે લખ્યક કહેવાય છે ભીનું ચિત્ત દરેક વસ્તુની પ્રાપ્તિ માટે ચ ચલ થઈ જાય છે લોભી વ્યક્તિ પોતાને સ્વાર્થ સાધવાને માટે અસત્ય બોલી શકે છે ખેતર, મકાન, સંપત્તિ સુખ આહાર પણ આદિન નિમિત્તે પણ તે અસ ત્યવચને બેવે છે તેથી લોભને નિગ્રહ કરો તે જ યોગ્ય છે એવા પ્રકારની ભાવના સેવાને જે આ લોભના પરિત્યાગથી પોતાના આત્માને વાસિત બનાવે છે, તેઓ પિતાના સત્ય મહાવ્રતને સ્થિર કરી લે છે તેમની દરેક પ્રવૃત્તિ સ યમિત હોય છે સૂ૦ ૬. Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभायाकरण लोलोऽलोक भणेत् ॥७॥ 'करलस्म' फम्मलस्य 'पायपृछगस्स' पाटमोचनस्य वा कृते लुब्धो लोलोऽलोक गणेत् ॥८॥ तथा 'सीसम्म' नियम्य 'सीमणोए' शिष्याया या कृते लु पो लोलोऽलीक भणेत् ॥९॥ 'अन्नेमु जन्या 'एबमाइणसु' एवमादिकेपु-एक प्रकारेपु रहुपु कारणातेगु मासेषु लुन्यो लोगेऽलोक मणेन् ॥ १० ॥'तम्हा ' तम्मात् कारगाव लोमो न सेपितव्यः । एषा-अमुना प्रकारेण 'मुत्तीए' मुक्या-निर्लोमतास्पया भारित 'अारप्पा' अन्तरात्माजीक सयतकरचरणनयननदनः शूरः सत्यार्जनस पन्नो भाति ॥ यू०६ ।। ॥ इति ठतीया भावना ॥ लुद्धो लोलो अलिय भणेन्ज ) इसी तरह बन्न अयया पात्र के लिये चचल चित्त बना हुआ वह लोभी झुट बचन पोल मस्ता है ( कयलस्स पायपुछणस्स चा करण लुदो लोलो अलिय मणेज्ज) कम्बल अथवा पादपोंछन के निमित्त को लेकर वह चचल चित्त पना हुआ लोभी मृषा. वादि कह सकता है (मीसम्म सीसणीप वा कण्ण लदो लोलो अलिय भणेज्ज) शिष्य अथवा शिष्या के निमित्त लुब्ध यह चचलचित्त रोकर मृपामापण करता है ( अन्नेसु एवमाइण्सु पसु कोरणसण्सु लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज ) इसी तरह और भी उनसे सैकडों कोरणों को निमित्त करके वर लोभी चचल चित्त होकर झूठ बोल सकता है (तम्हा लोहो न सेवियचो) इसलिये लोभ सेवन करने योग्य नहीं है। (एव मुत्तीए भाविओ अतरप्पा) इस प्रकार निर्लोभतारूप तृतीय भावना से वासित हुआ अतरात्मा-जीव (सजयकरचरणनयनवयणो) अपने कर, चरण, नयन और मुखकी प्रवृत्ति को यत्नाचार से सयमित पत्तस्स या कएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" प्रमाणे १स 3 पात्रने भाट ययद यित यस त साली अमत्य क्यन मासी श छ “कबलरस पायपुछणस्त वा फएण लुद्धो लोलो अलिय भणेज्ज" उमर पासूया भाटते यय वित्त अनेस सोली भूषापाई उही छ “सीसस्स सीसणीए वा करण लुदो लोलो अलिय भणेज्ज" शिष्य अथवा शिष्याने निमित्त gv५ ते यया थित भृषालाषा 3री शते "अन्नेसु एपमाइएसु बहुसु कारण सपस लदो लोलो अलिय भणेज्ज" माशते मा सिवायना से 31 ४.२न निमित्त तसाली ययायित धन असत्य मालीश छ “ तम्हा लोहो न सेवियवो" तेथी साल सेवन ४२वायोग्य नथी "एन मुत्तीए भाविओ अत रप्पा" मारीत निलता३५ श्री सापनाथी मावित अनेस सतरात्मा-प "सजयकरचरणनयणवयणो" पाताना वाथ, 41, नयन मन भुमनी प्रवृत्तिन सतनासयभित रीछ भने "सरो" तानासत्यतन पालनमा Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९९ सुदर्शिनी टीका अ०२ सू०७ चतुर्थीभावनास्वरूपनिरूपणम् तपः सयम चापि 'मुएज्जा' मुञ्चति-परित्यजति । तथा-भीतः 'भर 'भारम् कार्यभार 'न नित्थरेजा' न निस्वारयति-न निहियति । तथा-'सप्पुरिसनिसेविय' सत्पुरुपनिपेवित च ' मग्ग' मार्ग भीतो न 'ममत्यो' समर्थः = पर्याप्तः ' अणुचरिउ ' अनुचरितुम् , सत्पुरुपासेपित मार्ग भयत्रस्तो न गन्तु शक्नोतीति भार । ' तम्हा' तस्माद् हेतोः 'भयस्स वा' भयस्य-भीते , 'वाहिस्स ' व्याधेः क्रमेण माणापहारिणः कुष्ठादे , ' रोगस्स' रोगस्यशीघ्रतया प्राणापहारिणो ज्वरादे वी 'जराए' जरायाः वा मच्चुस्स' मृत्यो र्वा ' अन्नस्स' अन्यस्य एभ्य इतरस्य वा 'एमाइयस्स' एवमादिकस्य-एव बना देता है, तया (भीओ तवसजम पिहुमुएज्जा) वह तप सयम का भी परित्याग कर देता हैं । ( भीओ य भर न तित्यरेडजा) भीत मनुष्य शक्ति से इतना अधिक विहीन बन जाता है, अर्थात् उसमें इतनी अधिक मानसिक दुर्बलता आ जाती है कि जिसकी वजह से वह किसी भी कार्यभार को वहन नहीं कर सकता, अर्थात् किमी भी काम को वह पूरा नहीं कर सकता। (सप्पुरिमनिसेविय च मग्ग भीओ न समत्थो अणुचरिउ) सत्पुरुप जिस मार्ग का सेवन करते आये हैं उस मार्ग पर चलने के लिये भी वह पिचारा समय नहीं हो सकता है। (तम्हा न भीइयव्य भयस्स वा वाहिस्स वा रोगरस वा जराए वा मच्चुस्स वा अन्नस्स वा एवमाइयस्स) इसलिये कीसी भी प्रकार के भय के, क्रम २ से प्राणों को अपहरण करनेवाली व्याधि के, अथवा कष्टादिके, शीघ्रता से प्राणो का अपहरण करनेवाले ज्वर आदि रोग के, वृद्धावस्था के, तथा मृत्यु के अथवा इन्ही जैसी अन्य और कोई तवसजम पिहुमुएन्जा" ते त५ सयभनी ५ परित्याग रीछ "भीओ य भर न तित्थरेजा" यमीत भालो सरकाधा शतडीन /, अटले तेनामा એટલી બધી માનનિક દુર્બળતા આવી જાય છે કે જેના કારણે તે કઈ પણ કાર્યને બોજો ઉઠાવી રાતે નથી એટલે કે કોઈ પણ કામને તે પૂરૂ કરી શકતો નથી "सप्पुरिसनिसेविय च मग्ग भीओन समत्यो अणुचरिउ"सत्पुरुषार भागनु सेवन કરતા આવ્યા છે, તે માર્ગે ચાલવાને પણ તે સમર્થ બની શકતું નથી " तम्हा न भीइयव्य भयस्स वा वाहिस्सवा रोगस्स वा जराए वा मच्चुरस वा अन्नरस वा एवमाइयस्स" तेथी दो पY प्रा२ना मयथा, भे उभे प्राणाने હરી લેનાર વ્યાધિના, અથવા નુષ્ઠાદિના, શીવ્રતાથી પ્રાણ હરી લેનાર જવર આદિ રેગ્ન, વૃદ્ધાવસ્થાના તથા મૃત્યુના અથવા તેમના જેવી કોઈ પણ પ્રકા Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ प्रश्नध्याकरण भरं न नित्थरेज्जा, सप्पुरिसनिसेविय चमगंभीओ न समत्थो अणुचरिउं । तम्हा न भीइयव्व भयस्स वा वाहिस्स वा रोगस्स वा जराए वा मच्चुरस वा अन्नस्स वा एवमाइयस्स । एव धिज्जेण भाविओ अतरप्पा सजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसपन्नो ॥ सू० ७ ॥ ___टीका-'चउत्थ' चतुर्थी भावनामा:-'न भीडयन्य' न भेतव्य भय न कर्तव्यम् । कथ भय न तव्यम्' इत्याह-'मीय' भीत भययुक्त माणिन खलु भया' भयानि 'लहुय' लघुक-गीयम् ' अइति' आयन्ति प्राप्नुवन्ति, तथा ' भीओ ' भीतः 'मणुमो ' मनुष्यः 'अनितिज्नओ' अद्वितीय असहायो भनति, अय भारः-भीतो मनुष्यो न फम्यापि सहायको भाति, न कोऽपि तस्य सहायको या भवति । तथा-' भीओ' भीतो मनुष्यः । भूएहिं ' भूते:प्रेतैः 'विप्पइ ' गृह्यते, भूतारिष्टो भवतीत्यर्थः । तथा-भीत: 'अन्न पि' अन्यमपि ' मेसेज्जो' भीपयते । तथा-भीत' ' तवसनम पि' तपः सयममपि अब सूत्रकार चौथी भावना जो धैर्य भावना है उसे कहते हैं'चउत्थ' इत्यादि। टीकार्य-(चउत्थ) वह चौथी धैर्य भावना इस प्रकार से है (न भीइयन ) भय नही करना चाहिये । क्यो कि (भीयखु भया अइति लहुअ ) जो भययुक्त होता है उस प्राणी के पास निश्चय से भय शीघ्र आते हैं। (भीओ अवितिज्जओ मणूसो) तथा जो भय से डरता है ऐसा मनुष्य अद्वितीय होता है-वह न किसी की सहायता कर सकता है और न कोई दूसरा मनुष्य उसका ही सहायक होता है। (भाआ भुएहिं धिप्पा) भीत मनुष्य को भूत पकड लेते है। (भीओ अन्न पिहुभेसेज्जा) भय से भीत दृआ मनुष्य दूसरों को भी भययुक्त 6वे सूत्रा२ याथी धैर्यमापना नामनी लापना विष छ-" चउत्थ" त्या टार्थ-'चउत्थ" ते याथा धैय भावना या प्रमाणे छ-"न भीइयत्व ' लय पाभव। नये नही २ "भीय ख भया अइति लहअ" भी काय छते व्यक्ति पासे यास मय शा मावेछ भीओ अवितिज्जआ मणूसो" तथा यथी ७३ वो मनुष्य मद्वितीय डाय छे-ते धन મદદ કરી શકતો નથી અને કોઈ બીજે મનષ્ય તેને સહાયક થતો નથી " भीओ भूएहिं विप्पइ" मयलीत मनुष्यने भूत पीछे “भीओ अन्न पि हुभेसेज्जा" लयीत मनुष्य मी योजने ५ लयलीत ४२ थे, तभीमा Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीको अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरुपणम् हासं, अण्णापणजणिय च होज्ज हासं, अण्णोण्णगमणं च होज मम्म,अण्णोण्णगमणं च होज्ज कम्म कदप्पभिओगगमण घ होज्ज हासं, आसुरिय किव्विसत्तण च जणेज्ज हास, तम्हा हास न सेवियव्व । एव मोणेण य भाविओ भवइ, अतरप्पा सजयकरेंचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसपन्नो ॥ सू० ८॥ टीफा-'पचम 'पञ्चमी भारनामाह-' हास' हास्य नोकपायमोहोदयात्सनिमित्तमनिमित्त पा विवृतवर्णपुरस्सर मुखव्यादान हास्यम् , न 'सेवियच' सेषितव्यम् । किमर्थ न सेरितव्यम् ? इत्याह-'हासडत्ता' हासयितार.-परिहासकारिण 'अलियाइ ' अलिकानिन्सद्भूतार्थगोपनरूपाणि 'असतगाइ' असत्कानि अय सूत्रकार पचमी मौन भावना को कहते है-'पचम , इत्यादि । टीकार्य-(पचम) पाचवी मौन भावना इस प्रकार है। (हास न सेवियन्य ) इस भावना में हास्य के सेवन का परित्याग कर दिया जाता है । जब जीव को हास्यनो कपाक मोह का उद्य होता है तव वह हास्य का निमित्त मिले अथवा न भी मिले तो भी वह ही. ही करता हुआ हसने लग जाता है । हँसते समय उसका मुख खुल जाता हैं दात स्पष्ट दिखलाइ देने लगते है। सयमी जन को इस हास्य का सेवन नहीं करना चाहिये । क्यो कि (हासइत्ता) जो परिहास करने वाले व्यक्ति होते है वे ( अलिअइ असतगाइ जपति ) सद्भुत वे सूत्रा२ पायभी भीनमापन पता —“ पचम" त्या टा--" पचम" पायभी भीनमापना . प्रमाणे छ-"हास न सेवियन" मा भावनामा स्यनो परित्या राय छे न्यारे ने 'हास्य नोकपाय' भीडन। मध्य थाय छे त्यारे त हास्यनु निमित्त भणे न भणे છતા પણ તે “હી-હી” કરતો હસવા મડી જાય છે હસતી વખતે તેનું મુખ ઉઘડી જાય છે અને દાત સ્પષ્ટ રીતે દેખાય છે સયમી જને આ હાસ્યનું सेवन २ नये नही २५ “ हासइत्ता"२ परिहास ४२ना२ व्यति डेय ने " अलिआइ असतगाई जपति" याथः सथन छावना सन Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० ৪াংস विधस्य भयजनकस्य पातुनो शासन' भीइयन्त्र' भेतव्यम् एवम् अनेन प्रका रेण 'धिज्जेग' धैर्येण 'भाभिओ'भावितः 'अतरप्पा' अन्तरात्मा जीवः सयतकरचरणनयादनः शरः सत्याप्रसपनो भाति ॥ ७॥ ॥ इति चतुर्थी भावना ।। अथ पञ्चमी मौनमारनामाह-'पचम' इत्यादि मूलम्-पचमं हासं न सेवियव । अलियाइ असंतगाई जपति हासइत्ता परपरिभवकारणं च हास, परपरिवायप्पियं च हास, परपीलाकारगं च हासं, भेयविमुत्तिकारगं भयजनक वस्तु के यश से नहीं डरना चाहिये। (व घेज्जेण भाविओ अतरप्पा सजय करचरणनयगवयणो मरो सच्चज्जवसपनो भवइ ) इस प्रकार धैर्य से भावित हुआ जीव अपने कर, चरण, नयन एव बदन की प्रवृत्ति को सयमित रखता हुआसत्यव्रत के पालनमें पराक्र मशाली बन जाता है और सत्य एव आर्जव भार से मपन्न हो जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा सत्यव्रत की चौथी भावना कहा है। इस भावना का नाम धर्यभावना है। इस भावना म धैर्य के अभाव में क्या २ हानि होती है और धैर्य रखने से क्या २ लाभ होते हैं, इन सय बातोंका विचार किया जाता है। इन विचारों से आत्मा जब धैर्य शाली बन जाती है तो वह अपने द्वारा गृहीत सत्य' व्रत को पूर्णरूप से सुरक्षित रखति हुइ स्थिर बना लेती है ।। सू०७॥ २नी लय परतुन! अयथी २७ नय नही, " एव धेज्जेण भाविओ अतरप्पा सजयकरजरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसपनो भवई" मा पारे यथा ભાવિત થયેલ છવ પિતાના કર, ચરણું, નયન, અને વદનની પ્રવૃત્તિને સંય મિત રાખીને સત્યવ્રતના પાલનમા પરાક્રમશાળી બની જાય છે અને સત્ય તથા આર્જવના ભાવયુક્ત બની જાય છે ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ વ્રત દ્વારા સત્યવ્રતની થી ભાવના બતાવી છે તે ભાવનાનું નામ ધર્યભાવના છે આ ભાવનાનું વર્ણન કરતા ધિર્યના અા કયી કયી હાનિ થાય છે અને હૈયે રાખવાથી કયા કયા લાભ થાય છે તે બધાને વિચાર કરાયો છે આ વિચારોથી આત્મા જ્યારે ધર્યવાન બને છે ત્યારે તે પોતે ગ્રહણ કરેલ સત્યવ્રતને સંપૂર્ણ રીતે સુરક્ષિત અને સ્થિર हातले स० ७॥ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०३ सुदर्शनी टीका अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरूपणम् जनित-परस्परकृत च भवति हास्यम् , तथा हास्ये 'अण्गोण्णगमण' अन्योन्यगमन-परस्पराधिगमनीय च 'मम्म' मम-प्रच्छन्नपारदार्यादिदुश्चेष्टित् भवति । तथा-'अण्गोण्णगमण' अन्योन्यगमन परस्परविज्ञेय च 'कम्म' कर्म लोकनिन्दादिरूप 'होज्ज' भाति । हास्येन मन्छन्नमपि कर्म प्रकाशित भरतीति भावः। तथा-कदप्पाभिओगगमण' फन्दाभियोगगमनम्-कन्दः कान्दर्पिका देवविशेपा हास्यकारिणो भण्डप्राया , अभियोगा. आज्ञाकारिणो देवाः, तेपु गमन गमनकारणम्-तत्तनविशेपेक्त्पत्तिकारण च भवति हास्यम् । हास्यकारी साधुश्चारिनलेशाद्देवल माप्तोऽपि तत्र कान्दपिकेपु जाभियोगिकेपु देवेपृत्पद्यते न तु महर्दिकेषु इत्यर्थः। तथा-' आसुरिय' अमुरत्व 'किल्विसत्तण' किल्लिपत्व चाण्डालमायदेनविशेषत्व च 'जणेज्ज' जनयेत् 'हास' हास्यम् । यतो हास्या दीदृशो गतिर्गवति जीवस्य, ' तम्हा' तस्मात् ' हास' हास्य न सेपितव्यम् । आपस में दो आदि जन मिलने से होता है । (अण्णोण्णगमण च होज्ज मम्म ) इस हसी मे परदाररमण आदि दुश्चेष्टाये प्रच्छन्न रहा करती हैं। तथा (अण्णोण्ण गमण च होज्ज कम्म) इसी हसी मे परस्पर में होनेवाले दुष्कृत्यो से उनकी लोक मे निंदा होती है उसे वाटर वे अपने मुख यद्यपि नहीं कहा करते है फिर भी आपस की हंसी से ही उनका दुष्कृत्य लोकों के समक्ष प्रकाशित हो जाता है। (कप्ताभिओगगमणं ) तथा हास्यकारी साधू चारित्र के लेश से यदि देवगति में उत्पन्न होवे तो भी वह भांट जैसे कान्दर्पिक तथा आज्ञाकारी आभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है मर्द्धिक देवो में नही । (आस्तुरिय किब्धिसत्तणं चजणेज्ज हाम) यह हास्य चाडालप्राय असुरदेवो में किल्बिषजाति के देवों में उत्पत्ति का कारण होता है। (तम्हा हास न सेवियन्व) इसपाथी थाय छ " अण्णोण्णगमण च होज्ज मम्म" से डायमा ५२६१२२माए माहिश्श्यष्टासा प्रश्छन्न रहती डाय छे तथा “ अण्णोण्णगमण च होज्ज कम्म" मा हास्यमा मन्यान्य थता हुत्याने सीधे तनी 3भा निह थाय છે, તેને તેઓ પિતાના મુખથી બહાર કહ્યા કરતા નથી તે પણ અન્યની सी-भत5थी तेभनु दुष्कृत्य सोडी समक्ष १२ 25 लय छे “कदप्पामि ओगगमण" तथा स्यारी साधुले गतिमा त्पन्न थाय तो पार ચારિત્રતાની ન્યૂનતાને કારણે તેઓ ભાડ જેવા કાર્ષિક તથા આજ્ઞાકારી આભિ योगि वाम उत्पन्न थाय छ, मद्धि वाम नहीं “ आसुरिय किब्वि सत्तण च जणेज्न हास" ते हास्य यास माहितिम मसुरोमा प पतिना हेवामा उत्पत्तिनु १२ मने छ " तम्हा हास न सेवियव्य" ते Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० प्रश्न याकरणसूत्र असद्भूतानि वचनानि 'जति' जापन्नि-चुपते । हास्यकाग्गिी द्वितीयमहा व्रतनाशका मान्तीत्यर्थः । कीदृश हाम्यम् ? इत्याद-'परपरिभाकारणं-परापमानहेतुक च हास्य भाति । तथा-'परपरिमायप्पिय' परपसिादमिय-परपरिवादः =अन्यदूपणाविधान प्रिय इष्टो यस्मिस्तत्वादश च हास्य भाति । तया-'परपीलाकारग' परपीडाकारक च हास्य भाति । तया-'भेयरिमुनिकारग' भेदविमूर्तिकारक-भेदः चारित्रभनः निमूर्ति =कितनयनपदनादित्येन विकृतशरीराकृतिस्तयोः कारक च हास्यम् । अण्गोग्गजणिय च होज्ज हास' अन्योन्य अर्थको गोपन करने वाले एव असद्भूत अर्थ को प्रकट करने वाले वचनों को बोला करते है । सत्यमहानत में सद्भूत अर्धका प्रकाशन और असदुद्भुत अर्थ का प्रकट करना हेय कहा है, अतःहास्य मे जब इस प्रकार की परिस्थिति रहती हैं कि उममें असद्भूत अर्थ का प्रकटन और सद्भूत अर्थ का गोपन होता है, तो द्वितीय मरावत का सरक्षण इस अवस्था में केसे हो सकता है नहीं हो सकता, इसलिये - हास्य का त्याग कहा गया है। (परपरिभवकारण च हास) रास्य पर के अपमान का कारण होता है। (परपरिवायप्पिय च रास) होस्य में पर के दूपण का कथन करना प्रीय लगता है। (परपीलाकारग च हास ) हास्य मे इस यातका भी ध्यान नहीं रहता है कि इस हास्य से अन्य को कष्ट हो रहा है। (भेयविमुत्तिकारग च हास) हास्य चारित्र के भग का हेतु हो जाता है। इसमें नयन वदन आदि शारीरिक अवयव विकृत बन जाते हैं। (अपणोग्गजणिय च होज्ज हास) हास्य અસદ્દભૂત અર્થને પ્રગટ કરનારા વચનો બોલ્યા કરે છે સત્યમહાવ્રતમા સદૂભૂત અર્થનું ગોપન તથા અસદ્દભૂત અર્થનું પ્રકારના હેય ગણવેલ છે તે હાસ્યમાં જ્યારે એવા પ્રકારની પરિસ્થિતિ રહે છે કે તેમાં અસદભૂત અર્થ પ્રગટ કરાય છે અને સદભૂત અર્થનું ગોપન કરાય છે, તે એ પરિસ્થિતિમાં દ્વિતીય મહા વ્રતનું રક્ષણ કેવી રીતે થઈ શકે ? થઈ શકે જ નહી માટે હાસ્યને પરિત્યાગ ४२. न सम सूत्र मतान्यु छ “परपरिभवकारण च हास” स्य मन्यना अपमाननु ४२५ मन छ “परपरिवायप्पिय च हास" हास्यभा अन्यना एषोनु थन ४२९ प्रिय सागे छ “परपीलाकारग च हास' હાસ્યમે તે વાતનું પણ ભાન રહેતુ નથી કે તે હાસ્યથી કઈ બીજાને કષ્ટ २४ २छु छ “ भेयविमुत्तिकारग च हास" हास्यने सीधे यात्रिी ५ થાય છે તેમાં નયન, વદન આદિ શરીરના અવયવો વિકૃત થઈ જાય છે "अण्णोष्णजणिय च होज हास” २५ मे पधारे भास अन्योन्य भा Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंनी टीका अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरूपणम् ७०३ जनित परस्परकृत च भवति हाम्यम् , तथा हास्ये 'अण्णोण्णगमण' अन्योन्यगमन-परस्परापिगमनीय च मम्म' मर्म-पच्छन्नपारदार्यादिदुश्चेष्टित भवति । तथा-'अण्गोण्णगमण' अन्योन्यगमन-परस्परविजेय च 'कम्म' कर्म लोकनिन्दादिरूप 'होज्ज' भनति । हास्येन प्रच्छन्नमपि कर्म प्रकाशित भातीति भावः। तथा-'कदप्पाभिओगगमण' कन्दभियोगगमनम्-कन्दः कान्दर्पिका देवविशेपा हास्यकारिणो भण्डमाया , अभियोगा=आज्ञाकारिणो देवाः, तेषु गमन गमनकारणम् तत्तद्देवरिशेपेपूत्पत्तिकारण च भवति हास्यम् । हास्यकारी साधुश्चारिनलेशाद्देवत्व प्राप्तोऽपि तर कान्दर्पिकेपु आभियोगिकेपु देवेपृत्पद्यते न तु महर्दिकेषु इत्यर्थः। तथा- आसुरिय' अमुरत्व 'किव्यिसत्तण' पिल्विपत्वचाण्डालमायदेव विशेषत्व च 'जणेज्ज' जनयेत् ' हास' हास्यम् । यतो हास्या दीडशो गतिर्गवति जीवस्य, ' तम्हा' तस्मात् ' हास' हास्य न सेवितव्यम् । आपस में दो आदि जन मिलने से होता है। (अण्णोण्णगमण च होज्ज मम्म ) इस हसी मे परदाररमण आदि दुश्चेष्टाये प्रच्छन्न रहा करती हैं। तथा (अण्णोपण गमण च होज्ज कम्म) इसी हसी मे परस्पर में होनेवाले दुष्कृत्यो से उनकी लोक मे निंदा होती है उसे बाहर वे अपने मुख यद्यपि नहीं कहा करते है फिर भी आपस की हँसी से ही उनका दुप्कृत्य लोकों के समक्ष प्रकाशित हो जाता है । (कदप्पाभिओगगमण ) तथा हास्यकारी साधू चारित्र के लेश से यदि देवगति में उत्पन्न होवे तो भी वह भांड जैसे कान्दर्पिक तया आज्ञाकारी आभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है महर्द्धिक देवो मे नही । (आसुरिय किब्बिसत्तण चजणेज्ज हाम) यह हास्य चाडालप्राय असुरदेवो में किल्पिपजाति के देवों में उत्पत्ति का कारण होता है। (तम्हा हास न सेवियन्व) इसपाथी थाय " अण्णोण्णगमण च होज्ज मम्म" से हास्यमा ५२६१२२भए। माहिदुश्यष्टासा प्रश्छन्न २७ती डाय तथा “ अण्णोण्णगमण च होज्ज कम्म" मा हास्यमा अन्यान्य यता त्याने सीधे तेनी मेडमा नि थाय છે, તેને તેઓ પિતાના મુખથી બહાર કહ્યા કરતા નથી તે પણ અન્યની सी-भत४थी । तेमनु दुष्कृत्य हो। समक्ष २ 25 लय छे “ कदप्पामि ओगगमण" तथा स्यारी साधु ने वितिभा यन्न थाय तो पY ચારિત્રતાની ન્યૂનતાને કારણે તેઓ ભાડ જેવા કાદપિંક તથા આજ્ઞાકારી આભિ योनिड वोमा पनि थाय छ, भडशि वोमा नहीं “ असुरिय किब्वि सत्तण च जणेज्न हास" डान्य न्याय माहि गतिमा अमुवामा CR तिना वोमा उत्पत्तिनु ॥२६५ मने छ “तम्हा हास न सेवियव्य" ते Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AND ७०४ प्रश्नपाकरणमा एवम् अनेन प्रकारेण हाम्यानरूपेण, 'मोणेण' मानेन पचनस यमेन 'भाविओ' भाषितः । अतरप्पा' अन्तरात्मा-जीर रायतररचरणनयनबदनः गूर सत्यार्ज वसपनो भवति ॥ स ० ८॥ लिये जप हास्य से जीव की प्रेमी गती होती है कि वह इस तस्य का सेवन नही करे। (एव) इस प्रकार (मोणेण य माविओ अतरप्पा सजय करचरणनयणययणो सरो मच्चन सपन्नो भयह ) हास्यवर्ज नरूप मौन से-वचन सयम से-भावित हुआ जाय अपने कर, घरण, नयण और बदन-मुग की प्रवृत्ति को सयमित यनाता हुआ सत्यव्रत के पालन में पराक्रमशाली बन जाता है और सत्य एच आर्जवभाव से सपन्न हो जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र हारा पांचवी मौन भावना का स्व रूप कहा है। मौन भावना का तात्पर्य हास्य का परित्याग करना है। हांसी करने वाला प्राणी झट वचन का प्रयोग भी प्रसगवश करता है। तथा इस कृत्य से दूमरों का अपमान भी होता है। रास्य मनोविनोद का कारण होता है सही परन्तु सयमी के लिये हास्य से मनो विनोद करने की क्या आवश्यकता है। हास्य से दूसरों के मनों में चोट पहुँचे इससे और अधिक अशोभनीय यात क्या हो सकती है। अध्यात्म के मार्ग में हसी मजा करने का सर्वथा परित्याग कहा है। हास्य में पर के दूपणों का कथन प्रिय लगता है। यह हास्य नो કારણે-હાસ્યથી જીવની એવી ગતિ થાય છે તેથી જીવન તે કર્તવ્ય છે કે તે હાસ્યનું सेवन न ४रे "ए" मा रे " मोणेण य भाविओ अतरप्पा सजयकरचरणनयणवयणो सूरो सच्चज्जवसपनो भव" स्य त्या३५ भौनयी वयन સયમથી ભાવિત થયેલ જીવ પોતાના કર, ચરણ, નયન અને વદનની પ્રવૃત્તિને સયમિત કરીને સત્યવ્રતના પાલનમા પરાક્રમશાળી બની જાય છે અને સત્ય તથા આર્જવ ભાવથી યુક્ત બની જાય છે ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા પાચમી મૌન ભાવનાનું સ્વરૂપ બતાવ્યું છે મૌન ભાવનાનુ તાત્પર્ય હાસ્યને પરિત્યાગ છે હાસી કરનાર માણસ પ્રસંગ વશાત્ અસત્ય વચનને પ્રગ પણ કરે છે, તથા તે કૃત્યથી બીજાનું અપમાન પણ થાય છે હાસ્ય-મને વિનેદને માટે કારણે જરૂર હોય છે પણ સયમને હાસ્યની મદદથી મનેવિનેદ કરવાની શી આવશ્યકતા છે? હાસ્યને કારણે અન્યના દિલમાં ચોટ લાગે તેનાથી વધારે ખરાબ વાત બીજી કઈ હોઈ શકે ? અધ્યાત્મ માર્ગમાં હસી મજાકને સર્વથા ત્યાગ બતાવ્યું છે હાસ્યમાં બીજાના Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० २ सू० ९ अध्ययनोपसंहार द्वितीय सपरद्वारमुपसहरमा - ' एवमिण ' इत्यादि - मूलम् - एवमिण सवरस्स दार सम्म सचरिय होइ सुप्प : णिहिय इमेहि पंचहि वि कारणेहि गणवयणकाय परिरक्खिएहि निच्च आमरणंतच एस जोगो णेयव्वो धिइमया मइमया अणामवो अकलुसो अच्छिदो अपरिस्सावी असंकिलिडो सव्वजिणमणुनाओ । एव चीय संवरदार फासिय पालिय सोहिय तरिय किहिय अणुपालय आणाए आराहिय भवइ, एव ७०५ पाय के उदय से होता है ! जिससे चारित्र का मग होता है। दूसरे व्यक्तियों की गुप्त चेष्टाएँ भी इस हास्य के द्वारा प्रकट हो जाया करती हैं। यद्यपि चारित्र का उससे पूर्णरूप से भग नहीं भी होता है तो भी साधु इसके प्रभाव से महर्दिक देवो में उत्पन्न नही होता है । कान्दर्पिक आभियोगिक आदि देवो में ही उत्पन्न होता है, अतः शस्य का सेवन करना सत्यवती के लिये सर्वथा त्याज्य है, ऐसा समझ कर जो इसका परित्याग कर देता है वह सत्यव्रती अपने व्रत को पूर्णरूप से स्थिर कर पालन करता है । इस प्रकार हास्य जन्य दोषों का विचार कर हास्यवजनरूप वचनसम से अपनी आत्मा को भावित करके साधु अपने व्रताराधन में पराक्रमशाली बन जाता है और गृहीत सत्यव्रत को पूर्णरूप से सुरक्षित कर स्थिर बना लेता है || सृ० ८ ॥ દૂષણા જાહેર કરવા તે પ્રિય લાગે છે તે હાસ્ય નાકષ યના ઉદ્દયથી થાય છે, જેના કારણે ચારિત્રનો ભગ થાય છે, ખીજી વ્યક્તિઓની ગુપ્ત ચેષ્ટાએ પણ તે હાસ્ય દ્વારા પ્રગટ થયા કરે છે ભલે તેનાથી ચારિત્રને પૂર્ણત ભ ગ થતા ન હેાય, તે છતા પણ સાધુ તેના કારણે મહદ્ધિક દેવામા ઉત્પન્ન થતા નથી કાન્દપિંક, અભિચેગિક આદિ દેશમા જ ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી હામ્યનુ સેવન કરવુ તે સત્યવ્રતીને માટે સધા ત્યાજ્ય છે, એવુ સમજીને જે તેના પરિત્યાગ કરે છે, તે સત્યમતી પેાતાના વ્રતને સ પૂર્ણ રીતે સ્થિર કરે છે અને તેનુ પાલન કરે છે આ રીતે હાન્યમાંથી ઉદ્દભવતા દેષોને વિચાર કરી હાસ્ય વનરૂપ વચનસ યમથી પેાતાના આત્માને ભાવિત કરીને સાધુ પેાતાના વ્રતની આરાધનામા સમ અની જાય છે અને ગ્રહણ કરેલ મત્યવ્રતનુ સ પૂર્ણ રીતે સુરક્ષિત કરીને સ્થિ અનાવી લે છે ! સૂ॰ ૮ || प्र ८९ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ प्रमायाकरणस्ने नायमुणिणा भगवया पन्नविय परूवियं पसिद्ध सिद्धवरसासणमिणं आपविय सुदेसिय पसस्था वीयसबरदारसमत्तीत्त बेमि।सू०९॥ ॥ इय पण्हावागरणे वीयं संवरदार समत्त । टीका-'एच' पोक्तप्रकारेण 'इण 'द सरस्स ' रागरस्य 'दार' द्वार-सत्यवचन नाम द्वितीय दारमित्यर्थ , ' सम्म 'सम्यर 'सबग्यि ' सच रित सत् 'होड' भाति, 'मुप्पणिहिय' 'सुपणिहित समारापितम् । तथा-'इमेहि' एभिः 'पचहि पि' पञ्चभिरपि ' फारणेहिं 'कारण:-भावनामि , कीदृशैः का रणैः ? इत्याह-' मणवयणकायपरिरक्तिह' मनोपनकायपरिरक्षित. मनोवा फायपरिरक्षितपञ्चभावनाभिरित्यर्थ , 'निच्च ' नित्यम् ' आमरणत च ' आमर णान्त=मरणपर्यन्त च ' एस जोगी' एप योग मत्यवचनम्पो योग' 'णेयवो' इस प्रकार सत्यव्रत की स्थिरता के निमित्त पाच भावनाओं को कहकर अप सूत्रकार इस द्वितीय सवरद्वार का उपसहार करते हुए करते हैं-' एवमिण , इत्यादि । टीफाई-'एच) पूर्वोक्त प्रकार से (इण) यह (सरदार) सत्यवचन ____नामक द्वितीय सवरद्वार (सम्म-सचरियं ) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुप्पणितिय ) सुरक्षित (होह) हो जाता है। (इमेहिं पचहिं वि कारणेहिं मणवयणकायपरिरक्खिहं ) इसलिये मन वचन और काय इन तीन योगो से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये इन पांचभावनारूप कारणों से (निच्च ) सदा (आमरणत च) जीवन भरतक ( एसजोगो) यह सत्यवचनरूप योग (धिइमया मइमया) स्वस्थचित्त से एव हेयो આ રીતે સત્યવ્રતની સ્થિરતાને માટેની પાચ ભાવનાઓ વર્ણવીને હવે सूत्रधार मा भी सवारना सहार ४२ता -" एवमिण" त्याl साथ---" एव" पूर्वात प्रकारे ॥ " इण" " सवारसदार "सत्य पयन नाभनु मी सवार “ सम्म-सचरिय" सारी शत पाय ता " सुप्पणिहिय" सुरक्षित " होइ" and " इमेहि पचहि वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्सिएहि " ते डरो मन, वसनसने अयमे त्राणे योगाथा सारी रीत सुरक्षित ४२रायेदा म पायमापना३५ शाथी “निच्च" मा " आमरण त च" वन पर्यन्त " एसजोगो, मा सत्यवयन३५ थान "विडमया मइमया" स्वस्थ यित्त भने योपादेयता विवथी युश्त यस भुमिना "णेयव्यो " पासन ४२३॥ योग्य छ २ मा सत्यमावत Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७09 सुदर्शिनी टीका अ०२ सू) ९ अध्ययनोपमहार नेतन्या-पालनीयः ' धिडमया' धृतिमता ' मइमया' मतिमता-मेधाविना कथ भूतोऽय योग ? इत्याह- अणासवो' अनायवः ' अफलुसो ' अमलुप 'अच्छिदो' अन्छिद्रः अपरिस्सानी ' अपरित्रानी 'असफिलिहो' जसक्लिष्टः 'स बजिणमणुण्णाओ' सर्वजिनानुसातश्च । एवम् एतादृशमिद 'वीय' द्वितीय 'सरदार' सवरद्वार 'फामिय' स्पृष्ट' पालिय' पालित ' 'सोहिय' शोधित 'तीरिय' तीरित 'फिट्टिय' कीर्तितम् ' आराहिय ' आराधितम् 'आणाए' आज्ञया यथावत् ' अशुपापिय ' अनुपालित ' भवति । एवम् नमुना प्रकारेण 'णापादेय के विवेक से युक्त हुए मुनिजन को (णेयव्यो) पालन करने योग्य है, क्यों कि यह सत्य महाव्रतरूप योग ( अणामवों) नूतनकर्मो के आस्रव को रोकने वाला होने से अनास्रव रूप है, (अकलुसो) अशुभ अध्यवसार से रहित होने के कारण अकलुपरूप हे (अच्छिद्दो) पाप का स्रोत इससे घद हो जाता है इसलिये अच्छिद्ररूप है, (अपरिस्सावी) एक चिन्दुमात्र भी कर्मरूप जल इसमे प्रविष्ट नती हो सकता है इसलिये यह अपरिस्रावी है, (जसकिलिहो) असमाधिरूप भावसे यह चर्जित होता है इसलिये असक्लिष्ट है । ( सत्वजिणमणुपणाओ) इसीलिये यह समस्त भूत, भविष्यत्, और वर्तमान काल के तीर्थंकरों को मान्य हुआ है। (एव) इस उक्त प्रकार से (वीय) द्वितीय सवर द्वार को जो मुनिजन ( फासिय ) अपने शरीर से स्पर्श करते है, (पालिय) निरन्तर ध्यानपूर्वक इसका सेवन करते हैं, (सोदिय) अतिचारों से इसे रहित बनाते हैं, (तीरिय ) पूर्णरूप से इसे अपने जीवन में उतारते है, (किटिय ) दूसरों को इसे धारण करने का उपदेश देते ३५ यो “अणासवो" ना छीना मासपने ना२ उपाथी मनास१३५ "अकलसो" मशुम मध्यवसायति पाथी मनुष३५ " अच्छिद्दो" पापन। सोत तनाथी १५ 45 तय तेथी भ२ि०३५ , " अपरिस्सावी " બિન્દુ પણ કર્મરૂપી જળ તેમાં પ્રવેશી શકતું નથી, તેથી તે અપરિસાવી છે, "असकिल्विो" मसमाधि३५ माथी ते २डित डाय छ तेथी ते असार ॐ ॥ सव्यजिणमणुण्णाओ" तेथी ते समरत भूत, भविष्य मने वर्तमान ना तीर्थ शो मान्य उस " एव " म! धुते मारे "वीय" मी सवारने २ भुनिन “फासिय ” पोताना २२थी स्पशे , "पालिय" निरन्तर ध्यानपूर्व तेनु सेवन ४रे थे, " सोहिय " मतियाराथी २डित मनावे छे, " तीरिय " पूरा शते तेने पाताना वनमा तारे छ "किट्रिय, अन्यने तेनु सेवन उरवान। ५२ मा छ, तथा “अपापा Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० - - - - - - - - प्रश्नोयार यमुणिणा' मातमुनिना भगाता महावीरण ' पण्णपिय ' प्रमापित ‘परूविंय' मरूपित ' पसिद्ध ' मसिद्धम् 'मिद्धवरसासणमिणं' सिद्वारशामनमिदम् 'आप विय' आग्व्यात 'सुदेसिय' मुदेशित ' पसत्थ ' प्रशस्त ' चीय सवरदार' द्वितीय सवरद्वार ' समत्त ' समाप्तम् । एषा सर्वेपा पदाना व्याग्या प्रथमसवर द्वारोपसहारे द्रष्टव्या । 'तिमि' इति ब्रीमि-अस्यार्थः पूर्वमुक्तः ॥मू-९।। ॥ इति श्री विश्वविर यात-जगबलभ - प्रसिद्धवारकपञ्चदशभापाकलिवललिवकलापालापा-प्रविशुद्धगद्यपधनेकग्रन्यनिर्मापक- गदिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुररानप्रदत्त जनशास्त्राचार्य' पदभूपित्तकोल्हापुरराजगुम पालनामचारि जैनाचार्य जनधर्मदिराकरपूज्यश्री घासीलालनतिरिरचिताया श्री प्रश्नन्यावरणमनस्य सुदर्शन्या ख्याया व्याख्याया सपरात्माके द्वीतीये-भागे सत्यवचननामक द्वितीय सरद्वार समाप्तम् ॥ २॥ हैं तथा (अणुपालिय) त्रिकरण त्रियोगों से जो इसका अच्छी तरह से आचरण करते है वे ( अणाए आराहिय भवह ) इमकी आराधना सर्वज्ञ भगवान् के वचनों से ही करते हैं ऐसा जानना चाहिये । (एव) इस प्रकार से यह उक्तरूप सवरबार (णायमुणिणा) प्रसिद्धक्षत्रियवश में उत्पन्न हुए मुनि भगवान् मरावीर ने (पण्णविय ) प्रज्ञापित किया है शिष्यो के लिये सामान्य रूप से करा है । (परुविय) प्ररपित किया हैभेदानुभेदप्रदर्शन पूर्वक कथित किया है । इसलिये यह (पसिद्ध) प्रसिद्ध है-आचार्यादिपरपरा से इसका पालन इसी रूप से चला आ रहा है अत. निर्दोष है । तथा (सिद्धवरसासणमिण) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके है उनका यह उत्कृष्ट शासनरूप है सो (आघविय। लिय" त्रि.२५ योगाथी मातभनु सारी माय२५५ ४२ छ तमा " अणाए आराहिय भवइ " तनी माराधना स सापानना वयनाथा ४२ छ सम सभा, "एव" मा प्रकारे मा ( या प्रमाणेनु) सपर द्वार “णायमुणिणा" प्रसिद्ध क्षत्रिय ५शमा भिसा भडावी२ मावान "पण्णविय" प्रज्ञापित यु छ शिष्याने भाट सामान्य ३२ ४ा छ 'परू पविय " ५३पित यु छ सहानुले शानव यु छ तेथी त “ सिद्ध" પ્રસિદ્ધ છે આચાર્યાદિ પર પરાથી તેનું આ રૂપેજ પાલન થતું આવ્યું છે, तथीत निषि छ तथा “सिद्धररसासणमिय " भूतमा २८क्षा (सखा २५ गया छ तमना अष्ट शासन३५ वजी "ओधविय " तेनु - Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनीटीका अ० • सू० ९ अध्ययनोपसंहार ७०९ इसी का कथन भगवान महावीर प्रभुने किया है और (सुदेसिय) ऐसा ही उपदेश इसका उन्होंने देव, मनुज एव असुरों सहित परिपदा में दिया है । (पसत्य ) यह द्वितीय सवरद्वार समस्त प्राणियों का हितका रक होने से प्रशस्त-मगलमय है । ( वीय सवरदार समत्त ) इस तरह का यह द्वितीय सवरद्वार समाप्त हुआ। (त्तिवेमि ) हे जब मैंने जैसा __ यह श्री महावीर प्रभु के मुख से सुना है उसी तरह का यह तुमसे कहा है । अपनी तरफ से इसमें कुछ भी कल्पित करके नहीं कहा है ।। भावार्थ-दूसरे सवर द्वार का उपसहार करते हुए सूत्रकार कह रहे है कि इस द्वितीय सवरद्वार को कि जिसका नाम सत्यमहाव्रत है जो मुनिजन इन कथित पच भावनाओं की दृढ़ला पूर्वक पालते हैं-जीवन भरतक-इसके अनुसार अपनी कर, चरण आदि की प्रवृत्ति को करते रहते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं, नवीन कर्मों का वध होता नही है । पापों का स्रोत इसके प्रभाव से उनका रुक जाता है यह अपरिस्रावी आदि विशेषणों वाला है । त्रिकालवी ममस्त अरिहत भगवतों ने इसका स्वय पालन किया है, और जीवो को इसके पालने का उपदेश आदेश उन्हो ने परिपदा में दिया है। भगवान महावीर ने भडावार सुरेख छ भने "सुदेसिय " तेभर तेना २मा प्रमाणे ५ अपहेश देव, मनुष्य भने असुरेश सहितनी पशिहोमा माये! छे “ पसत्य" ! દ્વિતીય સવરદ્વાર સઘળા પ્રાણુઓનું હિત કરનાર હોવાથી પ્રશસ્ત-મગળમય छ " बीय सवरदार ममत्त " 20 मी सव२वा२ समास थयु "त्तिवेमि" હે જબૂ! મે જેવુ મહાવીર પ્રભુના મુખથી સાભળ્યું છે, મારી તરફથી તેમા કલ્પિત કાઈ પણ ઉમેરીને તે કહેવાયું નથી ભાવાર્થ---બીજા સવરદ્વારને ઉપસાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે–સત્ય મહાવ્રત નામના બીજા સ વરદ્વારનું જે મુનિજન ઉપરોકત પાચ ભાવનાઓને જીવન પર્યત દૃઢતાપૂર્વક પાલન કરે છે, તેના પ્રમાણે પોતાની કર ચરણે આદિની પ્રવૃત્તિ કર્યા કરે છે તેમના અશુભ અધ્યવસાય અટકી જાય છે, તેમને નવા કને બધ બ વાત નથી, તેના પ્રભાવથી તેમના પાપોને સ્રોત અટકી જાય છે, તેથી તે અપરિસ્ત્રાવી આદિ વિશેષણવાળું છે ત્રિકાલવર્તી સમસ્ત અરિહંત ભગવાને તેનુ પિતે પાલન કર્યું છે, અને તેના પાલનને પરિ. પદમા ને ઉપદેશ આપે છે ભગવાન મહાવીરે પણ તેમના પ્રમાણે જ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० प्रमण्याकरण भी उन्हीं के अनुसार इस द्वितीय मगरद्वार की प्रशमा की है स्वा भी इसका पालन किया है। अतः या मगलमय है। निर्दोष है। बाधा घर्जित है । इसे धारण फर प्रत्येक सज्ञी पर्याप्त पचेन्द्रिय मनुष्य के अपना जीवन सफल बनाना चाहिये । इस प्रकार जत्रू स्वामी से 4 सुधर्मा स्यामी ने कहा ।। सू-९ । ॥ द्वितीय सवरद्वार ममाप्त ॥ આ બીજા સવરદ્વારની પ્રશંસા કરી છે અને જાતે પણ તેનું પાલન કર્યું છે તેથી તે મગળમય છે, નિર્દોષ છે, ધારિત છે, તેને ધારણ કરીને પ્રત્યેક સરી પથમિ પચેન્દ્રિય મનુષ્ય પિતાનું જીવન સફળ બનાવવું જોઈએ આ પ્રમાણે શ્રી સુધર્માસ્વામીએ જબૂસ્વામીને કહ્યું સૂત્ર ૯ બીજી સ વરદ્વાર સમાપ્ત છે Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ तृतीय संवरद्वारं प्रारभ्यते पूर्वस्मिन्नध्ययरे मृपावादविरमण नामक द्वितीय संवरद्वार मोक्तम्, तच्चादतादानविरमणं विना न सभवतीत्यतः क्रमप्राप्ते तृतीयेऽध्ययनेऽदत्तादानविरमणनामक तृतीय सरद्वारमभिधीयते-'जबू' इत्यादि--- मूलम् -जवू । दत्तमणुन्नायसंवरो नाम होइ तइयं सुव्वय । महन्वय गुणव्वय परदवहरणपडिविरइकरणजुत्तं अपरिमियमणंततण्हाणुगय-महिच्छमणवयणकल्लुस-आयाणसुनिग्गहिय, सुसंजमियमणहत्थयायनिहुयं निहुयं निग्गथ, णेट्रियं, निरुत्तं, निरासव, निभयं, विमुत्त उत्तमनरवसभ-पवर-वलवगसुविहियजणसंमयं-परमसाहुधम्मचरणं, जत्थ य गामागरनगर-निगम---खेड-कव्वड---मडव---दोणमुह-- सवाह--पट्टणा समगय च किचि दव्व मणि-मुत्त-सिलप्पवाल कस दूस-रयय वरकणग-रयणमाइं पडियं पम्हट्ट विप्पणठं न कप्पइ कस्सइ कहेउ वा गेण्हेउ वा अहिग्न्न सुवण्णाएणं समले? कचणेणं अपरिग्गहसबुडेणं लोगम्मि विहरियन्व ॥ सू० १॥ टीका-'मुव्यय ' मुशोभन रत-चारित्रपालनरूप यस्य वत्सबुद्धौ हे मुव्रत !-शोभनातशालिन् ! 'जबू' हे जम्बूः ! इद प्रारभ्यमाण ' तइय' तृती तृतीय सवरद्वार प्रारभ पूर्व अ ययनमें मृपावाद विरमण नाम का जो दूसरा सबरदार कहा गया है, अदत्तादानविरमण के विना नही हो सकता है, इसलिये सूत्रकार क्रमप्राप्त इस तृतीय अध्यय में अदत्तादानविरमण नाम का ત્રીજા વરદ્વારનો પ્રારંભ આગળના અધ્યયનમાં મૃષાવાદ વિરમણ નામના બીજા સ વરદ્વાર વિશે જે કહેવામાં આવ્યું તેનું પાલન અદત્તાદાન વિરમણ વિના થઈ શકતું નથી તેથી સૂત્રકાર અનુક્રમે આવતા આ તૃતીય અધ્યયનમા અદત્તાદાન વિરમણ Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ प्रभाकरणसूत्रे " यमध्ययनं 'दत्तमणुन्नागारी ' दत्तानुगातस तर = दत्त=दाय के वितीर्णम् अन्नपाना दिकम्, अनुज्ञात= प्रातिहारकपोटफनकादिकं च ग्राममित्येवरूपः मारी- दत्ता नुज्ञातसारो नाम ' होइ भनति । ' महयय ' महाव्रतमिदम् तथा-' गुणजयं' गुणगुणानाम् ऐहिकपारलौकिकोवकाराणा कारणभूत नव-गुणव्रतम् । की शमिदम् ? इत्याह-' परदव्यहरणपडिनिरकरणजुत्त' परद्रव्यहरणम तिनितिकर णयुक्त=परेषां यद् द्रव्य=धन तस्य यद् हरणम् = आदान, तत्मति या विरति = विर मण तस्या कारणम् = आचरण, तेन युक्त=सहितम्, परद्रव्यादानविमुखकारकमि त्यर्थः तथा - अपरिमियमणतण्डाणुगय महिन्द्रयमाण सुनिग्ग for ' अपरिमितानन्तवप्णानुगतमहेन्उमनो रचनालुपादानमुनिगृहीतम् = अपरि तीसरा सवरद्वार करते है-' ज ' इत्यादि । " ין टीकार्य - (सुन) हे शोभन व्रत शालिन जबू ! ( तइय) यह प्रारभ्यमाण तृतीय अभ्ययन ( दत्तमणुन्नायसवरो ) दत्तानुज्ञान सवर नामका है । इम दत्तानुज्ञात ( दिया हुआ ) में दाता के द्वारा वितीर्ण अन्नपान का तथा अनुज्ञात पीठफलक आदि के लेने का विधान किया गया है । यह (मव्वय ) दत्तानुज्ञानसचर महाव्रत है । ( गुणव्वय ) तथा गुणव्रत है - इह लोक सघवी तथा परलोकसनधी गुणों का यह कारणभूत व्रत है । अथवा समस्तव्रतों का यह उपकारक है इसलिये गुणव्रत है (परदहरण डिविरह करणजुत्त ) इस व्रत के आराधन से जीव का आचरण दूसरों के द्रव्य को ग्रहण करने की प्रवृत्ति से सर्वथा विरक्त होता है ( अपरिमियमणंततण्हाणुगयमहिच्छमणवयणकलुसआयाण सुनिग्ग हिय ) तथा इस महाव्रत की आराधना से, विद्यमान 66 નામના ત્રીજા સવરદ્વારનુ વર્ણન કરે છે- जबू' " इत्याहि टीअर्थ - " सुव्वय " हे शोलनव्रतशाजी " 77 तइय આ શરૂ કરેલ ત્રીજી અધ્યયન " दत्तमणुन्नायसवरो " हत्तानुज्ञान भवर नाभनु छे छत्तानुज्ञात ( દીધેલુ) મા દાતાદ્વારા વિતીણું અન્નપાન તથા અનુજ્ઞાત પીઠલક આદિલેવાનુ વિધાન કરેલ છે તે महव्वय " हत्तानुज्ञान सवर महाव्रत हेवाय छे ܕܐ 46 गुणव्वय તથા ગુણવ્રત છે—આલા અને પરલેાક સ ખધી ગુણેનુ કારણ ભૂત આ વ્રત છે, અથવા સમસ્ત તેને માટે તે ઉપકારક હાવાથી તેને परदव्वहरण पडिविरइकरणजुत्त " ગુણુવ્રત કહ્યુ છે કરવાથી અન્યનુ દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવાની પ્રવૃત્તિથી જીવે ८८ આ વ્રતની આરાધના સથા વિરક્ત રહે છે 27 नरे " अपरिमियमणत तण्हाणुगयमहिन्छ मणत्रयणकलुस आयाण सुनिमा ह ચડતા દ્રવ્યને પ્રાપ્ત કરવાની જે અસીમ તથા અક્ષય સ્પૃહા લાલસા થાય છે Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका भ० ३ सू० १ अदत्तादाननिरमणस्वरूपनिरूपणम् ? , मिता = परिमाणरहिता, अनन्ता=अक्षया या नृगा=स्पृहा - विरामानन्याव्यवेच्छा, तयाऽनुगते ये महेच्छे=विद्यमान द्रव्यलाभनिपचे महेच्चायुक्ते मनोवचने-मनोवा णीच, ताभ्या यत् क्लुप== परधनविपयत्वेन पापरूपम् नादान = ग्रहण तत्सु निगृहीत = सुनियन्त्रित यत्र तम्, तथा 'सुसजमिन महत्वपायनिय मुसयमितमनोह स्तपादनिभृत-सुसयमितेन सम्यम् नियन्त्रितेन मनमा हस्तो पादौ च परद्रव्यादानव्यागत् नितौ=उपरतौ यन तत् । उक्तविशेषणद्वयेन परद्रव्यादाने मनोवानिरोधः प्रदर्शित | पुरस्थभूत ि इत्याह- निरगव निर्धन्य = निह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्माद् नाद्यभ्यन्तरग्रन्थिरहिन मर्त्यः, नया - 'हिर्ग' द्रव्य के अव्यय होने की जो अपरिमित एव अक्षय स्पृहालालमा होती है वह, तथा इस पृहा - लालसा से जो घडी और अविद्यमान द्रव्य के लाभ विषयक इच्छाओं की परपरा चलती है कि जिससे मनवचन की पर धन को लेने-हण करने की जो कलुक्ति प्रवृत्ति होती रहती है वह सुनियन्त्रित हो जाती है। तथा जन मन की परधन को हरण करने की कलुषित विचारधारा सुनियन्त्रित हो जाती है फिर ( सुसजमियमणस्त्राय ) उम मन के नियन्त्रित होते ही परद्रय के ग्रहण करने के निमित्त जो हाथ पैरों का व्यापार होता है वह भी उपरत-बद हो जाता है । इस तरह इन दोनों विशेषणों से यह कहा है कि इस महाव्रत के सेवन करने से, परद्रव्य करने के लिये जो मनचचन और काय का व्यापार पहिले होता था वर सर्व पद हो 'जाता है | ( अदत्तादानविरम गलवर) व दत्तानुनाल सवर कैसा है सो कहते है-( निग्गंथ ) हम महाव्रत की आराधना से बाह्य और તથા તે લાલસાથી ખીજા અવિધમાન દ્રવ્યની પ્રાપ્તિ માટેની મેાટી મેટી ઈચ્છાઓની જે પર પરા ચાવે છે કે જેથી મન વચનની પારાનુ ધન લેવાની જે દોષપૂર્ણ પ્રવૃત્તિ ચાલુ મ્હે છે તેનુ આ મહાવ્રતની આરાધનાવી નિયન્ત્રણ થાય છે, તથા જ્યારે પાકાનુ ધન હરી લેવાની મનની કલુષિત વિચારધારા સુનિયત્રિત થઈ જાય ત્યારે " ससनमियमणहत्य पायनिहुय " ते भन्नु નિયમન થતા જ પારકાનું દ્રવ્ય ગ્રહણ કરવા માટે હાથ-પગની જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તે પણ મધ પડી જાય છે. આ રીતે એ મને વિશેષણાથી એ દર્શાવવામા આવ્યુ છે કે આ મહાવ્રતનુ સેવન કન્વાથી પરદ્રવ્ય લેવાને માટે મન, વચન અને કાયાની જે પ્રવૃત્તિ પહેલા ચાલતી હતી તે તન ાધ પડી જાય છે " अदत्तादानविरमणसवर " मा छत्तानुज्ञात स व छे ते हवे हे छे" निग्ाथ " मा भावतनी आराधनाथी मा भने माक्यन्तर परियह हर प्र० ९० ܙ ७१३ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨૪ प्रश्नम्याकरणसूत्रे , नैष्ठिक = सर्वधर्मकर्मपर्यन्तप्रति 'निम्त ' निस्तं गगरूपादेयत्येन निरुक्तम्, अव्यभिचरिता तथा निगस ' निराश्रय कर्मादानरहितम्, 'निर्भय' नि पादरहित 'गुत्तरमुक्तम् तथा-' उत्तमनखसभ-पर-विधियजणममय उत्तमनरगृपभर सुविदितजनमम्मतम - उत्तमा उत्कृष्टा ये नस्टपमाः- नरश्रेष्ठाः 1:-जिना तथा - मालवन्तः= चक्रतिवाद निःसाधुलोका स्तेषा समतम् = अभिमत यत्तत्तथा तथा - ' परममा धम्मपरण 'परमपारणं परम माधूनाम् उत्कृष्टपत स्त्रिन धर्मचरण=धर्मपालनम् यत्तत्तथा, पतारणमिद दत्तानुमानमपसारम् । अत्र तृतीये आभ्यन्तर परिग्रह दूर हो जाता है, अतव्रता और आभ्य न्तर की ग्रन्थि से रहित होता है तथा (ट्टिय ) समस्तधर्मो के प्रकर्ष पर्यन्त यह रहता है, एव (निरुत्त ) सर्वज्ञ प्रभुने इसे उपादेयेरूप से कराहै, अथवा यह अन्यभिचरित है, अर्थात् जितना भी सकल सयमी का धर्म है उसके साथ यह अभावी है । (नीरामव) इसमें नवीन कर्मो का आदान नही होता है । (निव्भय ) नृपादि का भय इसके आचरण में माधु को नहीं रहता है इसलिये यह निर्भय है । ( विमुत्त) लोक दोष आदि से यह रहित होता है । ( उत्तमनरवसभ, पवरथलवग - सुचिहियजणसमय ) उत्कृष्ट जो नरवृषभ - जिनदेव हैं तथा बलदेव वासुदेव आदि जो प्रवर लवत व्यक्ति है, तथा सुविहितजन जो साधु लोक हैं, इन सन के लिये यह मान्य है । तथा ( परमसा धम्मचरण) परमसाधुजनों - उत्कृष्टतपस्विजनों का यह धर्माचरणरूप | ( अदत्तादानविरमण ) ऐसा यह दत्तानुज्ञातसचरद्वार है । इस થઈ જાય છે એટલે કે આ વાત બાહ્ય અને આભ્યન્તરની ગ્રન્થિથી રહિત होय छे, तथा "ट्ठिय " ते समस्त धर्भेनु पर्यन्त छे, भने “ निरुत्त" સર્જેન પ્રભુએ તેને ઉપાદેયરૂપે બતાવ્યુ છે, અથવા તે અન્યભિચારિત છે, એટલે કે સચમીના જેટલા બ્યા છે તેની સાથે તે સુઞગત છે " निरासव " तेनाथी नवीन अधाता नथी " निव्भय "तेने सायरवाभा साधुने नृपा हिनो लय रहेता नथी तेथी ते निर्भय हे " विमुक्त' बोल, होष आहिथी ते रहित होय छे" उत्तम रसभ, परबग - सुविहिय जणसमय " ने श्रेष्ठ નરવૃષભ–જિનદેવ છે, તથા બળદેવ વાસુદેવ આદિ જે પ્રબળ ખળવાન પુરુષા છે, તથા સુવિહિત જન જે સાધુલે છે, તે સૌને માટે તે માન્ય છે તથા 'परमसाहुधम्मचरण જે પરમ સાધુજના ઉત્કૃષ્ટ તપસ્વીજનાને માટે તે ધર્માચરણરૂપ છે, એવુ આ અદત્તાદાન વિરમણુ-દત્તાનુજ્ઞાત સવરદ્વાર છે મા ८८ = · ܕܐ 1 Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्दाशिनीटीका अ० ३ सू० १ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् 1 " सवरे साधुभि कि कर्तव्यम् १ इत्याह- ' जत्थ य यत्र च - तृतीयसवरद्वारे गामागर - नगर-निगम - खेड - कन्नड-मडन- दोणमुह-सनाह-पट्टणासमगय च = ग्रामाकर - नगर निगम - खेट कट-मडम्न-द्रोणमुस-समान- पचनाश्रमगत चग्रामाकरनगरनिगमखेटकर्नटमडम्पद्रोणमुखमा पट्टाश्रमाणा व्यारया पूर्वमुक्ताः, तद्गतच 'किंचिदव्य ' किंचिद्रव्य किमपिद्रव्यम्, तदेवाह - 'मणिमुत्तसिल्प्पनालकस - दूस-यक- वरकणग - रयणमाइ ' मणिमुक्ताशिला - प्रवाल कास्य-दृष्य-रजत-वरकनक - रत्नादि- मणिः - पद्मरागादिः, मुक्ता = मुक्ताफल, 'शिला' बहुमूल्यपापाणपण्डम् मचाल = विद्रुमः ' मूंगा ' इति भाषाप्रसिद्ध, 6 कस ' कास्य - ' कामा ' इति प्रसिद्धम् ' ' दृष्य ' वस्त्रनिशेषः, रजत = ' चान्दी' इतिभाषामसिद्धानरकनक = त्वन्तरापेक्षया श्रेष्ठ सुपर्ण, रत्न= कर्केतनादिकम् आदि यस्य तत्तथाभूत द्रव्य 'पडिय' पतित - वस्त्राञ्चलादेः, 'पट्ट' प्रस्मृत-कुनापि विस्मृत ''णिष्ट= गवेषरुद्भिरपि न प्राप्तम् तथाभूत मणिमुक्तादिक 3 " - ७१५ तृतीय सवरद्वार में सावुजनो को क्या करना चाहिये इसके लिये सूत्र कार कहते हैं - ( जत्य य ) इस तृतीय सवरद्वार में ( गामागरनगरनिगमखेड कवड मंडप दोणमुहसवार पट्टणासमगय च ) साधुजनों को ग्राम, आकर, नगर निगम, खेट, कट, मडम्ब, द्रोणमुख, सवाह, पहन, आश्रम, इन स्थानों में, रही हुई ( किंचि दव्व ) कुछ भी वस्तु ( मणिमुत्तसिलप्पचालक सदूसरयकवर कणगरयणमाइ ) मणि, मुक्ता, शिला, प्रवाल, कास्य, दूष्य- वस्त्रविशेष, रजत-चादी, सुवर्ण, रत्न आदि वस्तु (पडिय) किसी की गिर गई हो, (पम्हट्ट ) भूली हुई हो, (विपण ) ढूंढने पर भी नही मिली हो, (न कप्पर करसह कहेउ वा गेતૃતીય. સ વરદ્વારમા સાધુજનેએ શુ કરવુ જોઈ એ તે બતાવવાને માટે સૂત્રકાર " 66 छे-" जत्थ य આ ત્રીજા સવરદ્વારમા 'गामागारनगरनिगम खेडकव्वड मड बदोणामुहसबाहपट्टण समगय च" साधु नामे श्रम, नगर, આફર निगम, पेट, कुट, भडभ्ण, द्रोणुभुभ, सवाई, चट्टन, आश्रम, से स्थानाभा रहेवी ' किंचि दव्य " अव पशु वस्तु मणिमुत्तसिलप्पवालकसदूसरयकवर क्णगरयणमाइ " भणि, भुस्ता, शिक्षा, प्रवाज, जस्य, हृप्य गोड भार वस्त्र, २०४ - आदि, सुवाश रत्न माहि वस्तुओ " पडिय" जेधनी पड़ी गई होय, पम्हटु " अ लृली गयु होय, "घिप्पणट्ट ” શોધવા છતા પણ જડી न होय, "न कप्ाइ कस्सइ कहेउवा गेण्हेउवा " तेने सेवानु सयत अस (6 Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ प्रमण्याकरण पत्र द्रव्य न 'कस्सइ ' कस्यापि मयाम्पाऽपयनन्य कहेउ' स्थयितु पा, 'गे ण्हेउ ' स्वय ग्रहीतु परेण वादवि पान कप' न कम्पते, मायोनिवृत्तिवान् । परद्रव्य हप्ना साधुना कि पर्याव्या, ? इत्याह-'अहिरनमुरगाण' अहिरण्य सुवर्णकेन-हिरण्यवर्णनफेन 'समलेदुकाणे' समठेप्टुकाननेन=ममातुल्यः लेष्टु =मृतपण्डं पाशन-णि च उपेक्ष गोयतया यम्य तेन तथोक्तेन मृत्वण्टे सुवर्णे च समभारतेत्यर्थः, 'अपग्गिहमयुरेण' अपरिग्रहसरतेननास्ति परग्रहो यस्य सोऽपरिग्रहः, अन ए सात ममत्वभाषार्जितस्तेन तथोक्तेन साधुना 'लोगम्मि' लोके मर्त्यलोके 'विहरियन' पिहर्तव्यम् , साधुभिरुक्तरीत्या पिहरणीयमिति भारः ।। स०१॥ ण्हेउ वा )और न रवय लेना चाहिये उसको सयत अथवा असयत से लेने के लिये नही करना चाहिये। क्योंकि इस प्रकार की प्रवृत्ति मुनिमार्ग में कल्पित नही कही है। कारण कि साधु (अहिरण्णसुव्यण्णेण)हिरण्य और सुवर्ण इन सब से निवृत्तिवाला होता है माधु को नहिरण्य की चारना होती है और न सुवर्ण की। (समलेटुकवणेण) उमकी दृष्टि में तो उपेक्षणीय होने के कारण मृत्खड मिट्टी का ढेला और काचन दोनों घरावर होते है । अर्थात् वह इन दोनो मे समभाव वाला होता है। (अपरिग्त्रहसवुडेण ) इस तर ममत्वभाव से वर्जित होने के कारण अपरिग्रह से युक्त होते है साधु को इस प्रकार का होकर इस लाक में विचरना चारिये। भावार्थ-ससार में निर्भय होकर विचरण करने के लिये सब से उत्कृष्ट साधन यदि कोई है कि जिससे लोगों की दृष्टि का आकर्षण हो યતને કહેવું ન જોઈએ, અને પિતે લેવી જોઈએ નહીં કારણ કે એવા प्रारनी प्रवृत्ति भुनीभाभा लयित भावी नथी १२ साधु " अहिरण्ण सुव्वण्णेण" (२९य मन सुपरस मधानी निवृत्ति हाय के साधुन (२ एयनी -छ। डाती नथी । सुप ना ४२छा डाती नथी " समलेट्ठुकचणेण" તેની દૃષ્ટિએ ઉપેક્ષા પાત્ર હોવાથી માટીનું ઢેફ અને કાચન અને સમાન छ भेटले भन्नेमा ते समभावाणी हाय, अपरिग्गहसबुडेण" मा રીતે મમત્વભાવથી રહિત હોવાથી તે અપરિગ્રહી હોય છે સાધુએ એ પ્રકારે અપરિગ્રહવત યુકત બનીને આ લેકમાં વિચારવું જોઈએ ભાવાર્થ–સ સારમાં નિર્ભય થઈને ફરવાને માટે જે કોઈ સર્વશ્રેષ્ઠ સાધન હિય કે જેનાથી લોકોની દૃષ્ટિ આકર્ષાય અને સાધુત્વ પર વિશ્વાસ જામે તે Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका ग० ३ ० १ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् ७७ और साधुत्व पर वि वाम-श्रद्धा जमे-तो वह एक अपरिग्रहत्व का ही सिद्धान्त है। इसमें अन्तरग और बहिरग, इन दोनो प्रकार के परिग्रह का सैधान्तिक दृष्टि से परित्याग होता है । माधु के पास निर्ग्रन्थ मुनि के पास इन दोनो प्रकार के परिग्रह का अभाव होता है। बाहिरी दृष्टि में जो कुछ उसके पास में है वह सब सयमधर्मोपकरण है, परिग्रह नहीं है । सकवार ने यही पात सायु के लिये इस तृतीय सवरद्वार में समझाई है । पूर्व अध्ययन में-द्वितीय अध्ययन में मृपावाद का नौको टियों से सायु को जो त्याग करना कहा है वह तबतक पूर्णरूप से पा. लित नहीं हो सकता कि जबतक अन्तरग और परिरग का त्याग नहीं हो जाता । अपरिमित अनत तृष्णाओं पर अकुश करने वाली यही एक अपरिग्रहता है । मन, वचन और काय की परके द्रव्य को आदान (गृहण) करने की प्रवृत्ति पर रोक लगा देने वाली यही अपरिग्रहता है। इस अपरिग्ररता की छत्रच्छाया मे पलने वाला साधु नवीन कर्मों के वध से रहित हो जाता है, तथा सरका विश्वासपात्र बन जाता है। उसे किसी भी प्रकार का किसी का भय नहीं रहता है । ग्राम आकर आदि किसी भी स्थान मे भूली हुई, पडी हुई, रखी हुई, किसी भी तरह की वस्तु वह न स्वय लेता है और न दूसरो से उसे लेने को कहता है। તે એક માત્ર અપરિગ્રહત્વને સિદ્ધાત જ છે તેમાં આતરિક તથા બાહ્ય એ અને પ્રકારના પરિગ્રહનો સિદ્ધાતિક દૃષ્ટિએ પરિત્યાગ થાય છે સાધુની પાસે નિર્ચન્થ મુનિની પાસે આ બન્ને પ્રકારના પરિગ્રહનો અભાવ હોય છે બાહ્ય રીતે જોતા તેમની પાસે જે કઈ હોય છે તે બધુ સયમ ધર્મોપકરણ છે, પરિગ્રહ નથી, સૂત્રકારે એ જ વાત સાધુને માટે આ ત્રીજા વરદ્વારમાં સમ જાવી છે. આગળના અધ્યયનમા બીજા અધ્યયનમાં મૃષાવાદને નવ પ્રકારે ત્યાગ કરવાનું સાધુઓને જે કહેવામાં આવ્યું છે તેનું અતરગ તથા બહિરગ પરિ ગ્રહને ત્યાગ ન થાય ત્યા સુધી પાલન થઈ શકતું નથી અપરિમિત-અનત તૃષ્ણાઓ પર અકુશ રાખનાર આ એક અપરિગ્રહતા જ છે આ અપરિગ્રહના જ, મન, વચન અને કાયાથી અન્યનુ દ્રવ્ય પડાવી લેવાની પ્રવૃત્તિ પર એક (અકુશ) નું કામ કરે છે આ અપરિગ્રહતાની છત્રછાયામાં રહેતા સાધુ નવા કર્મોના બધથી રહિત બની જાય છે તથા સૌને માટે વિશ્વાસપાત્ર બની જાય છે તેને કેઈને પણ કોઈ પણ પ્રકારને ભય રહેતું નથી ગ્રામ, આકર આદિ કોઈ પણ સ્થાનમાં ભૂલથી રહેલી, પડી રહેવી, મૂકી રાખેલી કઈ પણ પ્રકારની વસ્તુ તે પિતે લેતે નથી કે લેવાનું બીજાને કહેતા નથી. આ વ્રતને લીધે Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •७१८ प्रश्नध्याकरपणे पुनर्मुनिकर्त्तव्यमाह-'जपिय ' उत्पादि मूलम्-जं पि य होजा हि दव्वजायं सलगयं खेत्तगयं रनमतरगय वा किंचि पुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकट्टसकराइ अप्प वा वहुं वा अणु वा चल वा न कप्पइ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हेउ । जे हणि हणि उग्गह अणुण्णाविय गेण्हियन बजेयवो य सम्वकाल अचियत्तघरप्पवेसो अचियत्तभत्तपाणं अचियत्तपीढफलगसेनासथारगवत्थपा. यकवल दंडग-रयहरण--निसेज्ज चोलपग मुहमोत्तियपायपुछणाइभायणभंडोवहिउवगरण। परपरिवाओ परस्त दोसो परववएसेण जचगेहेंति, परस्सनासेइजच सुकय दाणस्स य अतराइय, दाणविप्पणासो पेसुण्ण चेव मच्छरिय च ॥२॥ टीका-'ज पि य' यदपि च ' होजा' भवेत् , हि निश्चित 'दबनाय' द्रव्यजात, तदेवाह= 'खलगय' खलगत-खल धान्यराशीकरणभूमिस्तन गत-- स्थित, तथा-'खेत्तमय' क्षेत्रगतम् क्षेत्रस्थित 'रनमतरगय' अरण्यान्तर्गतम् वनान्तः स्थित वा । किंचि । किञ्चित-किमपि 'पुप्फफलतयप्पवालकदमूलईस व्रत से साधु की आत्मा समस्त वस्तुओं में असारता के दर्शन कर लेने से ढेला और काचन में समान वुद्धि वाला बन जाता है । सू-१॥ सूत्रकार पुनः मुनिजन के ही कर्तव्य को कहते हैं-'जपि य' इ० टीकार्थ-(जपि य होज्जा हि दव्वजाय ) जो कुछ भी द्रन्य हो चाहे व ( खलगय ) खलिहान मे पड़ा रो चाहे (खेत्तगय) खेत में पडा हो, या ( रनमतरगयं वा) जलग में पड़ा हो ( किंचि) સાધુને આત્મા સમસ્ત વસ્તુઓમાં અસારતાનું દર્શન કરી લેવાથી તેનું અને માટીના ઢેફાને સમાન ભાવે જેનાર બની જાય છે સૂત્ર ૧ | सूत्रा२ ५२Nथी भुनिनन तव्या शचि - जपि य" त्या टीडा---"जपि य होज्जा हि दव्वजाय "२ प द्रव्य डाय, लख "सलगय ” मामा ५७यु डायलले “खेत्तगय " ततरमा ५७यु डाय, "रन्नमतरगय वा" सनी २५६२ ५७यु डाय “किं चि" गमेत Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०३ सू०२ अदत्तादानविरमणस्वरूपनिरूपणम् ७१९ 4 तणकटुसकराइ पुष्पफलत्वक् प्रचालफन्द मूलतृणकाष्ठशर्करादि तत्र - पुष्पफले प्रतीते, लकुचा, प्रालोकुरः कन्दः =यूरणादिः, मूलम् = मूलकादि, तृणकाष्ठं च प्रतीतम्, शर्करा := ' ककर ' इति भाषा प्रसिद्धा, एतान्यादौ यस्य तत्तथोक्त द्रव्यम् अप्प ' अल्प- स्तोक या ' बहु' हु=प्रचुर वा अणु' अणु आकारेण सूक्ष्म वा 'यूल' स्थूलम् - आकारेण बृहद् वा, तत् 'न कप्पड़' न कल्पते ' उग्गहे ' अवग्रहे ' अदिष्णे ' अदत्ते तत्तद्वस्तुस्वामिनि देश ममाप्येत्यर्थः, गेण्हेउ ' ग्रहीतुम्, किन्तु ' जे' यद् ग्राह्य भवेत्, तत् 'हणि हगि ' अहन्यइनि=प्रतिदिनम् ' उग्गह ' अवग्रह - तत्सामिनिदेशम्, 'अणुष्णनि य' अनुज्ञाप्य = प्राप्य 'गेण्डियन्त्र' ग्रहीतव्यम् । तथा सव्नकाल ' सर्वकाल सदा 'अचियत्तघरप्पवेसो ' अमीतिकारकगृहप्रवेश " वज्जेयव्यो' वर्जितव्य' तथा " 4 > कुछ भी हो जैसे (पुष्पफलतयप्पनालकद्मृलतणकट्टसकराड ) चाहे वह वस्तु पुष्परूप में हो, फलरूप में हो, छालरूप में हो, प्रवाल- कोंपल रूप में हो, सरण आदि कद रूप में हो, मूलक आदि रूप मे हो, तृण काष्ठ आदि के रूप हो चाहे ककर आदि के रूप में भी क्यों न हो । ये सब वस्तुएँ वहा ( अप्प वा ) थोड़ी हो या ( बहु वा ) बहुत हो (अणु वा ) आकार से छोटी हो या (थूल वा ) बडी हो, किसी भी तरह से वह इन वस्तुओ को ( न कप्पर उग्गहे अदिण्णम्मि गेहेउ ) विना उनके मालिक की आज्ञाप्राप्त किये किसी भी रूप में लेना नही कल्पता है । तथा (जे) जो वस्तुएँ साधु के लिये ग्राह्य है वे भी (हणि हणि ) प्रतिदिन (उहे अणुणावि य ) उनके स्वामी की आज्ञा प्राप्त कर ही (गेहियच्व ) ग्रहण करने योग्य हैं। तथा ( वज्जेयच्वो य सव्वकाल द्रव्य होय, " पुप्फफ्लतयप्पबालकदमूल तणकटुसकराइ ” ભલે તે વસ્તુ પુષ્પરૂપે હાય, લરૂપે હોય, છાલરૂપે ડાય, પ્રવાલકુ પળના રૂપમા હેાય, સૂરણ આદિ કદરૂપે હોય, મૂળ આદિ રૂપમા ાય, તૃણુ કાષ્ઠ આદરૂપે હાય, ભલે કાકરા माहिये होय, ते बधी वस्तुओ त्या " अप्प बा" थोडी होय े " बहु वा " वधारे होय, " अणु वा " उभा नानी होय “ यूग वा માટી હાય, अर्ध पशु रीते थे पस्तुभने “ न कप्पइ उग्गहे अदिष्णम्मि गेण्हे उ " तेना માલિકની આજ્ઞા લીધા વિના કોઇ પણ રીતે તેને ગ્રહણ કરવાનુ મુનિને ८ जे કલ્પતુ નથી તથા " इहिणि " प्रतिहिन " લઈને જ " गेण्डियव्व " "" વસ્તુએ સાધુઓને ગ્રહણ કરવા अणुणा व " तेमना ગ્રહણ કરવા ચૈાગ્ય છે તથા ચેાગ્ય છે તે પણ भासिउनी माज्ञा वज्जेयो य सव्व $6 Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० प्रभायाकरण 'अचियत्तभत्तपाण' अप्रतीतिकारकभक्तपान यनितव्यम् , अविनासमाजनस्य भक्तपान न ग्रारामित्यर्थः, तथा-'विपरपीटफगसेज्नासधारगवन्यपायफैजल्दडगरोहरणनिसेनचोरपगमुहपोतियपायपुरणाभायगमटोरिउवगरण' अपतीतिकारकपीठफलशग्यासस्तारकास्त्रपामयदण्टकरजोहरणनिषधाचोल्प हरुसदोरकमुग्वास्त्रिका पादोजना:माननभाण्डोप युपकरण पनितव्यम् । __ अविश्वासभाजनस्य पीटफगादिक न ग्रागमित्य, तथा 'परपरि वाओ' परपरिपादः-काम्या परदोपप्रकटनम् , जितव्य , परमस' परस्य 'दोसो ' दोपश्च पर्जनीय , परोक्षे निन्दा, प्रत्यक्ष दीपकथनम्, इत्युभय च अचियत्तघरप्पवेसो) जो अपनी प्रतीति-विचाम-नहीं करता हो उसके घर पर साधु को सर्वदा नहीं जाना चाहिये, तथा (अनियत्तभत्तपाण ) जो अपनी प्रतीति नहीं करता हो उसके यहा से माधु को भक्तपान नहीं लेना चाहिये । इसी तरह (अचियत्तपीढफ-गसेज्जासथारगवस्थपायकाल दडगरओहरणनिसेज्जचोलपगमुहपोत्तियपायपुछणाइ ) जो व्यक्ति अपने ऊपर विश्वास नहीं रग्नता हो उसके द्वारा प्रदत्त-(दिया हुआ) पीठ, फलक, शय्या, सम्तारक, वस्त्र, पात्र, कम्बल, दण्डक,, रजोहरण, निपया, चोर पटक, सदोरकमुत्रवत्रिका, पादप्रोन्छन आदि, तथा (भायणभटोवहि उवगरण) भाजन, भाड, उपधि, ये सब उपकरण नहीं लेना चाहिये। (परपरिवाजो) तथा काकुरूप से साधु को पर के दोपों को प्रकट नहीं करना चाहिये। तया (परस्सदोसो) परोक्ष में निंदा करना और साम्हने दोपों को कहना ये दोनों काल अचिजतघरप्पवेसो"२ पाताना विश्वास न उरतो डाय, तेना धरे साधुणे ४ीन नही, तथा “अचियत्तभचपाण" २ पाताना ५२ વિશ્વાસ ન મૂકતો હોય તેને ત્યાથી સાધુએ આહાર પાણી સ્વીકારવા नये नहीं . ४ ते " अचियत्तपीढफलगसेम्जासधारगवत्थपायकबलदडगरओहरणनिसेज्जचोलपट्टगमुहपोतियपायपु छणाइ"२ व्यक्ति याताना १२ विश्वास ન રાખતી હોય તેના દ્વારા અપાયેલ પીઠ, ફલક, શય્યા, સસ્તારક, વસ્ત્ર, પાત્ર કબળ, દડક, રજોહરણ નિષદ્યા, ચોલપટ્ટક, દેરાસહિત મુહપત્તિ, પાદ પ્રોગ છને तथा “ भायणभडोवहिउवगरण" altd, (पात्रा मा, (ध, २५ अधा साधना सेवा सो नही “परपरिवाओ" तथा अनी म साधु सास viloni avो प्रगट ४२वा लेने नहीं तथा “परस्मदोसो" घशक्ष રીતે નિંદા કરવાની તથા સામે જ દે કહેવાની પ્રવૃત્તિ સાધુએ છેડવી Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शिनी टीका भ० ३ सू०२ अदत्तादानविरममस्वरूपनिरूपणम् ७२१ वर्जनीयम् । तथा-परमाणसेण' परव्यपदेशेन वालग्लानादीना निमित्तेन 'जच' यच्च अशनादिर, 'गेण्हेइ' गृहातियायकारक , तदन्यौपभोक्तव्यम् । वालग्लानादिनिमिचमानीत संस्तु यथाशिष्ट भवेन् , तथा तद् तस्तु स्वामिनिदेशेन सभोक्तव्यमित्ययः, 'परस्स' परस्य तथा 'ज च' यच्च ‘सुकय सुकृत= पुण्यादिक 'नासेइ' नाशयति, अपहनुते, येन रचनादिना परकृतपुण्यादेरपातिभवति, तद् तिव्यमित्यर्थः, तथा-'दाणस्स य' दानस्य च ' अतराइय' अन्तरायिकम् येन वचनादिना दानान्तगयो भवेत्तद वर्जनियम् , तथा-'दाणविषणासो' दानचिमणाश:-येन पचनादिना दानस्य विनाशो भवति, तद् वर्जनीयम् , तपा-'पेसुन्न चे' पैशुन्य परोक्षे परदोपाविष्करण 'चुगली' इति भापा प्रमिह चेत्र ‘मन् रित्त च ' मात्सर्यम् ईप्यो च वर्जनीयम् ॥ सू० ॥ घातें भी साधु को नोड देनी चाहिये। तथा-(परचवण्सेण ज च गेण्हति) थाल ग्लान आदि के निमित्त से जो अशन आदि वैयावृत्यकारक साधु लाया होवे वर इसरे साधुओं को अपने उपयोग में नहीं लेना चाहिये। तात्पर्य इसका यह है कि पाल ग्लान आदि अवस्थापन साधुजन के लिये जो वस्तु लाई गई हो वह उनके उपयोग से यदि बच जाय तो वह उस वस्तु के स्वामी की आज्ञा लेकर ही दूसरे साधुओं को अपने उपयोग में लानी चाहिये । तया (परस्म ज च सुकय) जिस वचन से दूसरे के सुकृत आदि पुण्यकों का अपहनुव होता हो ऐसा वपन साधु को त्याग कर देना चाहिये। तथा (दाणस्स अतराइय) जिस वचन से दान में अतराय हो जावे तो ऐसा वचन भी नहीं कहना चाहिये। तथा (दाणविप्पणासो) जिस वचन से दान का विनाश होता हो ऐसा वचन भी नहीं बोलना चाहिये । तथा (पेसुण्ण ) साधु को न तया " परववएसेण ज च गेण्हति " मासान मानि निमित्त આહાર આદિ વિયાવૃત્યકારક સાધુ લાવ્યા હોય તે બીજા સાધુઓએ પિતાના ઉપયોગમાં લેવો જોઈએ નહી તેનું તાત્પર્ય એ છે કે બાલ ગ્લાન આદિ અવસ્થાપન્ન સાધુજનને માટે જે વસ્તુ લાવવામાં આવી હોય તે તેઓએ વાપર્યા પછી વયે તે તે વસ્તુના માલિકની આજ્ઞા લઈને જ બી સાધુઓએ तनचाताना पयोगमा देवी से तय " परस्स ज च सुरुय" क्य નથી બીજના સુવ્રત આદિ પુન્ય-ર્મોન ના થતો હોય તેવા વચનો સાધુએ બોલવા જોઈએ નહી, એટલે તેવા વચને બોલવાનું સાધુએ બઘ કરવું ASI तथा " दाणस्स अतराइय" २ क्यनथी हानमा मत। नरे सेवा क्यने ५५ वा मे नही तय "दाणविषयासो" २ वयनाथी हानना विना य य ते वयना पर मालवा मे नही तया "पेसु न Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gરર कीडशो मुनिरिक वा नाराधयती ? त्याद-'जे रि ययादि मूलम्-जे मि य पीढफलगसेनामंथारगपत्थपायकंबल दडगरयहरणनिसेज चोलपटगमुहपातिगपाय पुंलणाइभायण भडोवहिउबगरणं असविभागी असगहरु, नातेणे व वइतेणे य रूबतेणे य आयारतेणे य भावतेणे य लवकरे झंझकरे कलहकरे वेरकरे विकहारे असमाहिकर सया अप्पमाणभाई सयय अणुवद्धवेरे य निच्चरोसी से तारिसए नाराहए वयमिण ॥ सू०३॥ टीका-'जेविय' योऽपि च मुनिः पीठफलगनेज्जासथारगपत्थपायकवलचोलपट्टगरयहरणमुहपोतियपायपूरणाइभायणभोरटिउमगरण ' पीठफलरुशय्यासस्तारकास्त्रपानरमलचोलपहरजोदरणमुसरनिकापादपोछनादि - भाजनभाण्डोपध्युपकरणम्-एपणागुणविशुद्धिलब्ध पीठकलकादिक लब्ध्वेति गम्यते, तस्य अस विभागीअविभागकारी-आचार्यग्लानादिभ्य पीठफळ कादीन अविभज्यव सार्थबुद्धया सपमुभोक्ता भवति स इद व्रत नाराधयतीत्यग्रेण किसीकी युगली नहीं करना चारिये। तथा (मच्छरिय) साधु को इयाभाव का भी परित्याग कर देना चारिये ॥स-२॥ किस प्रकार का मुनि इस व्रत की आराधना नहीं कर सकता है इस यात को कहते है-'जे विय' इत्यादि। टीकार्थ-(जे वि य) जो मुनि रापगागुण की विशुद्धि से प्राप्त पीठ, फलक, शय्या, सस्तारक, वस्त्र, पात्र, करल, दड, रजोहरण, नियघा, चोलपट्टक, सदोरकमुखवस्त्रिका, पादपोञ्छन आदि, तथा भाजन, भाड, उपधि, उन सब उपकरणों को प्राप्त करके उनकाविभाग " साधुणे धनी याही वा नासनही तथा "मच्छरिय" साधुमे ઈર્ષ્યાભાવને પણ પરિત્યાગ કરવો જોઈએ તે સુ-૨ u કેવા મુનિ આ વ્રતની આરાધના કરી શકતા નથી તે વાત હવે સત્ર ४२ ४ छ-"जे वि य" Vत्याही ट -"जे वि य" २ भुनि सपा शुशुना विशुद्धिथी H ये थी ५०४, शच्या सस्ता२४, पक्ष, पात्र, उपस, ६७ २०२५, निषधा, यास५४, ३१२ સહિતની મુહપત્તિ, પાદછન આદિ તથા ભજન, ભાડ, ઉપનિ એ બધા Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंगी टीका १०० सू० ३ किडनमुनिअदत्तादागादिवत नाराधयसि ७२३ सम्बन्धः । तथा-'असगहरुई' असंग्रहरुचिः-न सग्रहे रुचिर्यस्य स तथोक्त:गोपग्रहकरस्य एपणादोपरहितस्य लभ्यमानस्य रसपानादिकस्य स्वार्थपरायणत्वेन-' मम प्रचुर वनपानादिक विद्यते किमन्येपा चिन्तया' इति विचिन्त्य साहबुदिार्जित इत्यर्थः । अत्र मूर्छया सग्रहकरण निपिद्धम् । तथा 'तबसेणे' तप. स्तेना नपचौर.व्यथा स्वभारतः कृगगरीरकश्चिदनगार सृष्ट्रवा फरिपृच्छनि-'भो मुने ! यो मासक्षपणको मुनिः श्रूयते स भगानेव ' तदा स स्वमानापर्थमाह-'साधरः क्षपका एव भान्ति ' अथवा तूप्णीमास्ते, स तपःनहीं फरता है-अर्थात् आचार्य, ग्लान आदि मुनिजनों को इन पीठ, फरक आदि का विभाग न करके स्वार्थमुद्वि से जो स्वय इनका उपभोक्ता होता है, वह माधु इस व्रत की आर पना नही कर सकता है। तया ( असगहरुई ) जिसकी सग्रह में रचि नहीं होती है, अर्थात् जो साधु स्वार्थ में परायण होने के कारण इन पीट फलक, वन, पात्र आदि उपकरणों को कि जो अपने गच्छ के उपकारक और एपणादोप से विशुद्ध है मिलते हुए भी उस भावना से कि मेरे पाम तो ये वस्त्र पात्रादि उपकरण हैं मुझे दूसरो की चिन्ता से क्या काम है। इस विचार से सग्रह करने की बुद्धि से वर्जित होता है वह साधु इस व्रत का आराधक नहीं हो सकता है। मूळ भाव से ही संग्रह करने का निषेध है । तथा जो साधु ( तयतेणे य) हसी तरह जो तपः स्तेन है, अर्थात् जैसे कोई साधू स्य भारतः कृश शरीर हो और कोई दूसरा इस प्रकार पूछे कि हे मुने! जो मास क्षपण आदि करने वाले तपस्वी मुनिઉપકરણેને પ્રાપ્ત કરીને તેના વિભાગ કરતા નથી એટલે કે આચાર્ય, ગ્લાન આદિ મુનિજનેને માટે એ પીડ, ફલક આદિના વિભાગ કયા વિના સ્વાર્થ બુદ્ધિથી પિતે જ તેને ઉપભેગા કર્યા કરે છે, તે સાધુ આ વ્રતની આરાધના रात नथी तथा 'असगई"नी सभा सचिडती नथी, એટલે કે જે સાધુ માથે પરાયણ હોવાથી એ વસ્ત્ર, ફુલ, પાત્ર, વસ્ત્ર, આદિ ઉપકરણે, કે જે પોતાના ગરછના ઉપકારક અને એવાદથી રહિત છે તેની પ્રાપ્તિ થવા છતા પs “મારી પાસે તે આ વસ્ત્ર પાત્રાદિ ઉપકરણ છે મારે બીજાની ચિન્તા શા માટે કરવી જોઈએ?” એવી ભાવનાથી સ ગ્રહ કરવાની બુદ્ધિથી રહિત થઈ જાય છે, તે સાધુ પણ આ વ્રતને આરાધક થઈ શકતો નથી મૂરભાવથી જ સગ્ર કરવાને નિષેધ છે તથા જે સાધુ " तवतेणेय" से शते तयार छ, सात साधु स्वाभावि રીતે જ દુબળા શરીર વાળો હોય અને તેને જોઈને બીજુ કોઈ એમ પૂછે કે-“હે મુનિ! મા ખમણ આદિ કરનાર મુનિજન વિષે સાંભળવામાં આવ્યું Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ प्रश्रयाक स्तेनः प्राच्यते, 'बहतेणे' र स्तेन: पापचौर:-यया-करित व्याख्यावार साधुमवलोक्य कश्चित् एउति---'गार यानपाचम्पनि र्य श्रुतः स भवानेर' इति पृष्टः स बूते-'मुनयस्तादृशा मरन्त्यर यहा मौनमास्ते, इत्येव यः परस्य ख्याति स्वात्मनि स्थापयति स वास्तेना, 'स्पतेणे य' पम्तेनश्रएतदिष येऽपि पूर्वयोजना कर्तव्या। तथा 'आयारे चर' आगारे साधुममावायर्यादि राज सुने जाते हैं वे आपरी है क्या? इस प्रकार सुनकर वह अपने मान के निमित्त ऐमा कहे कि साधु तो तपाची ही रोते हैं, अथवा सुनकर चुप रहे, इस प्रकार से वर्तन करने पाला या मुनि तपश्चोर(तप का चोर ) कहा जाता है। (तप का घोर) तपश्चौर-मुनिस व्रत की आराधना करनेवाला नहीं होता है। इसी तरह (पातेणे) व्याख्यान करते हुए किमी मुनिराज को देखकर कोई उमसे इस प्रकार पूछे कि जो व्याख्यानवाचस्पति मुनिराज सुने जाते हैं वे आप ही है क्या ? इस प्रकार सुनकर वर मुनिराज उसके समाधान निमित्त यह कह दे कि महानुभाष मुनिजन तो व्यारयानवाचस्पति ही रोते है, अथवा कुछ न कह कर चुप रहे इस प्रकार का व्यवहार करनेसे वह मुनि वचन का चोर वचस्तेन माना जाता है. क्यों कि उसने पर की ख्यातिको अपनेमें स्थापित किया है, इस तरह से पदाकि ख्यातिको अपने में स्थापित करने वाला साधु वाक् चौर कहा जाता है। इसी तरह (रूवतेणे) रूपस्तेन की भी व्याख्या जान लेनी चाहिये. अर्थात्-विशिष्ट रूप છે તે શુ આપ જ છે?” આ પ્રકારનો પ્રશ્ન સાભળીને તે પિતાના માનને માટે એવું કહે કે “સાધુ તે તપસ્વી હોય જ છે અથવા તે વાત સાભળીને મૌન રહે, એ પ્રકારનું વર્તન કરનાર સુનિને તપચાર કહે છે તપચાર મુનિ આ વતની આરાધના કરી શકતું નથી એ જ રીત "वइतेणे" व्याज्यान उरत अ भुनिशनधन भने 20 प्रभारी પૂછે કે વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ જે મુનિરાજ ગણાય છે તે શુ આપ જ છે આ પ્રમાણે સાભળતા તેના સમાધાનને માટે એમ કહે છે કે “હે મહાવું_ ભાવ' મુનિજન તે વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ જ હોય છે અથવા તેને કઈ પણ જવાબ ન આપતા ચૂપ રહે, એવા પ્રકારના મુનિને વચસ્તન-વચનાર કહેવાય છે, કારણ કે તેણે બીજાની ખ્યાતિનું પિતાનામાં આરોપણ કર્યું છેઆ રીતે પારકાની ખ્યાતિનું પિતાનામાં આરોપણ કરનાર સાધુને વચનચર उपाय छ, से प्रभारी "रूवतेणे" ३५स्तेन-३५योरनी च्या ५९ सम જવી એટલે કે વિશિષ્ટ રૂપયુક્ત કઈ સાધુની ખ્યાતિ સાભળીને કે Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० २ सू०३ किटगमुनिअदत्तादानादिक व्रतं नारायधति ७२५ विषये स्तेना-चौर.,यथान्स यः ' उत्कृष्टाचारवान् साधुः श्रूयते, स भवाने ?' तदा वक्ति 'साधुस्तु-उत्कृष्टाचारवान् भवन्त्येव' मौन पा समारम्यते इत्ये। स्वात्मनि अविद्यमानामुत्कृष्टाचारवता स्थापयन्साधुराचारस्तेनो भवति, तथा'भावतेणे य ' भावस्तेनश्व-भावस्य-श्रुतज्ञानादि विशेषस्य स्तेनःचौरो भावसपन्न किसी साधु की ख्याति सुनकर कोई रूपवान् मुनि से ऐसा पूछे कि महाराज ! जिनकी रूप में ख्याति म सुन रहे हैं वे आप ही है फ्या? तो इस प्रकार की बात सुनकर वह ऐसा कहे कि साबुजन तो विशिष्टरूप शाली होते ही हैं, अथवा कुछ न कहे-चुपचाप रह जावे, तो मौन सम्मतिलक्षण" के हिसाब से पर के विशिष्ट रूपशालित्व का अपने में आरोप करने की भावना से वह रूपस्तेन कहलावेगा। इस तरह जो साधु रूपस्तेन होता है वह इस व्रत को नहीं पाल सकता है। इसी तरह (आयान्तेणे) जो साधु समाचारी आदिके विपयमें स्तेन होता है वह आचारस्तेन कहा जाता है, जैसे किसी सायुकी आचार विषय में उत्कृष्ट ख्याति मुनकर दमरा कोई एसा पूछे कि भोमुने ! जिन साधुराजकी आचार में विशेष ख्याति सुनी जाती है क्या वे आपही है ?, इस प्रकार सुनकर वह साधु प्रत्युत्तर रूप में ऐसा कहे कि महानुभाव। साधु तो उत्कृष्ट आचार चाले होते ही हैं, इस प्रकार करने वाला साधु आचारस्तेन कहलाता है, क्यों कि इस तरह की स्थिति से उसने માણસ કઈ રૂપવાન મુનિને એવું પૂછે કે “મહારાજ! અમે રૂપને વિષે જેની ખ્યાતિ સાભળી છે તે મુનિ શુ આપ જ છે ?” આ પ્રકારની વાત સાંભળીને તે એવું કહે છે કે સાધુજન તો વિશિષ્ટ રૂપયુક્ત હોય જ છે” અથવા કઈ પણ જવાબ ન આપે તે “મૌનને સમતિનું લક્ષણ” માનીને બીજાના વિશિષ્ટ રૂપનુ પિતાની અંદર આપણું કરવાની ભાવનાથી તે રૂપચાર કહેવાય છેઆ રીતે જે સાધુ રૂપચાર હોય છે તે આ વ્રતને पाणी शत नथी माशते "आयारतेणे" रे साधु समायरी माहि मागतमा ચાર હોય છે તે આચાર ચોર કહેવાય છે જેમ કે કોઈ સાધુની આચારની બાબતમાં ઉત્કૃષ્ટ ખ્યાતિ સાભળીને બીજી કોઈ વ્યક્તિ તેને એવું પૂછે કે “હે અનિ. જે મુનિરાજની આચારમાં ખાસ ખ્યાતિ સભળાય છે, તે શુ આપ પિતે જ છે?” આ પ્રમાણે સાભળીને જે મુનિ એ પ્રત્યુત્તર વાળે કે મહાનુભાવ! સાધુઓ તે ઉત્કૃષ્ટ આચારવાળા જ હોય છે” આમ કહેનાર સાધુને આચારર કહેવાય છે કારણ કે આ પ્રકારની પરિસ્થિતિમાં તેણે પોતાનામાં જે Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ प्रभयाकरण स्तेना, फस्यापि श्रुतविशेषस्या पारयान कत्यापि सम्वादुपस्य जनसमधे खकीयत्येन त ख्यापयन साधुर्भावसरोन उच्यते । व्या यः साधु 'साकरे' शब्दकरपाररात्रिगमनानन्तर यो मरता महना शदेन मागते स भन्दकर उभ्यते । 'झझकरे 'ममाफर:-पेन कार्येण गणस्य मदो भाति ततार्यकारी 'कलहकरे कलाकार याचिरुमण्डनकारी 'वरकरे ' रफर परस्परशत्रुभावो त्पादक , क्या-फिहकरे' विक्याम्च्यादिश्याफारी, 'असमाहिकारगे' असमाधिकारका परचित्तोडगकारकः, तथा-सया' सदा 'अप्पमाणमोड' अपने में अविष्णमान उत्कृष्ट आचारवत्ता स्थापित की है अतः जो ऐसे आचारस्तेन शेते है उनसे इस महारत की आराधना नहीं हो सकती है, (भावतेणे ) जो श्रुतजान आदि मार की चोरी करता है वह भावस्तेन करलाता है, जैसे किसी के मुख से किसी साधु का श्रुत विशेषसमधी अपूर्व व्याख्यान सुनकर करता है कि यह व्याख्यान तो मेराही दिया हुआ है, इस प्रकार का भानस्तेन साधु भी इस महाव्रतकी आराधना नहीं कर सकता है। इसी तरह (सहकरे) जो साधु एक प्रहर रात्रि के चले जाने के बाद पड़े जोर २ से बोलना है उसका नाम शब्दकर है । (अकरे ) जिस कार्य से गण में भेद हो जाय उस काम को करने वाला माधु अशाफर है। (कलहकरे) आपस में जा वाक्कलह कर बैठता है उसका नाम कलहकर है, ( वेरकरे ) परस्पर में जो शत्रुता का उत्पादक होता है यह बैरकर है, (विकरकरे ) स्त्री आदि विकथाओं को करनेवाला साधु विकथाकर है, (असमाहिकर। - - અવિદ્યમાન છે તે ઉત્કૃષ્ટ આચારવત્તાનું આપણું કર્યું છે તેથી જે સાધુઓ એવા આચાર ચોર હોય છે તેમનાથી આ મહાવ્રતની આરાધના થઈ શકતા नथी "भावतेणे" श्रुतशान महलानी यारी छे ते माक्या२ उपाय છે જેમ કે કોઈના મોઢે કેઈ સાધુન કેઈશાઅ સ બ ધી અપૂર્વ વ્યાખ્યાન સાભળીને જે સાધુ એમ કહે કે આ વ્યાખ્યાન તેમે જ આપેલું છે” આ પ્રકારને ભાવચાર साधु ५५मानतनी साराधना सती नथी से प्रभारी "सहकरे" श००४२જે સાધુ એક પ્રહર રાત્રિ પ્રસાર થયા પછી ઘણા જોરથી બેલે છે તેને શદકર छ, “झझकरे" अयथा सभउमा हमार थाय त आय ४२नार साधु आ४२. ४वाय छ, “ कलहकरे ' सापसमा पास 3 मेसे. छ A९४२ ४९ छ, “ वेरकरे' आपसमा २२२ पहा ४२वनार डाय ते २२ ४२ ४३ छ, “ विकहकरे " भी मालवियामा रनार आधुन विभा२ ५७ Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शिनी टीका भ० ०४ को मुनिरदतादानादिवतमाराधयति ७२७ अप्रमाणभोजी द्वात्किचलाधिकाहारी, 'सयय ' सतत निरन्तरम् ' अणुरद्धवैरे' अनुद्धौरा अन्याच्छिन्नौरभाव, चपुनः 'निच्चरोसी' नीत्यरोपी= सदाकोपील:, ' से वारिसए ' स तादृशः साधुः 'नाराहए ' नाराययति' इण इदम् = पूर्वोक्त, त= दत्तादानविरतिस्वरूपम् ॥ ० ३ ॥ 3 " 2 क पुनरिद प्रतमाराधयितुं समर्थः ' इत्याह-- ' अह के रिसए ' इत्यादि - मूलम् - अह केरिसए पुणाई आराहए वयमिणं ? जे से उवहि भत्तपाणसगहणदाणकुसले अच्चंत वाल दुबल गिलाण बुडखवगपवत्त्यआयरिय उवज्झाए सेहे साहम्मिए तवस्सिकुलगणस य इयट्टे निज्जरही वेयावच्च अणि - स्सिय दसविह बहुविहं करेइ, नय अवियत्तस्त घरं पविसइ, न य अचित्तस्स भत्तपाण गिण्हइ, न य अचियत्तस्स सेवइ पढिफलग -- सेज्जा- सथारग- वत्थपाय - कबल--दडगरओहरण- निलज्जबोलपट्टगमुहपोत्तियपाय पुछणाइ - भायण अपने और पर के चित्त में उद्वेगभाव पैदा कर देने वाला साधु असमाघिकारक है, (सया अप्पमाणभोई) सदा वत्तग्रास से अधिक भोजन करने वाला साधु अप्रमाणभोजी कहलाता है (सयय अणुवद्धबेरे य) जिसका वैर भाव कभी भी शान न हो वह साधु सन्तानु-बद्ध र कहलाता है, (निच्चरोसी) जो नित्य ही कुपिन स्थिति में रहता है वह नित्यरोपी कहलाता है । ( से तारिसए) इस प्रकार तपस्तन आदि विशेषणवाला साधु ( इण वयनाराण ) इस महावत की आराधना नही कर सकता है ॥ ३ ॥ 66 छे, असमाहिकरे " पोताना तथा अन्यना शित्तमा उद्वेग हा उश्नार साधुने असमाधि २५ छे, "सया अप्पमाणभोई 62 સદા ખત્રીશ કાળિયા કરતા पधारे आहार देनार साधुने अप्रभाथ लोक उहे छे, "सयय अणुबद्धवेरेय" એની વેર ભાવના કદી પણ શાન્ત ન થાય તે સાધુને સતતાનુખદ્ધ વૈર કહેवाय छे, " निच्चरोसी " ने हमेशा अधभा रहे छे तेने नित्यरोपी आहे छे, " से तारिसए" या रीते तपशोर आदि विशेष वाणी साधु" इणवय આ મહાવ્રતની આરાધના કરી શકતે નથી 33 || ૩ || नाাइ० Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૨૮ अंडोबहिउगरण, नय परिवाय परस्स जंपड,न यावि दोसे परस्स गेण्हइ, पर ववएसेण वि न किचि गण्हह, ण य वि परिमाणइ कंचिजण, ण यावि णासेड दिण्णमुनय, दाऊण य काऊण य ण होइ, पच्छाताविए, सविभाग-मीले, सगहो वग्गहकुसले, से तारिसए आराहेइ वयमिणं ॥ सू०४ ॥ टीका-'अह' अति प्रश्ने, केरिगए' की: मायः 'पुणाई' 'वयमिण' नतमिदम् भदत्तादानविरमगरूपमिद नतम् , ' आराइए' आरार यति ' इति प्रश्न सति माह-'जे से' यासः 'उअतिमत्तपाणसगणदागसले' उपधिभक्तपानसग्रहणदानकुशला नत्र उपधिः पनपात्रादिः, भक्तपाने प्रसिद्ध तेपा सग्रहणे-भादाने साधर्मिके-यो दाने च कुशलो विधितो मुनिः। 'अन्च तवाल दुचलगिलाग वुद्ध खरगपरत्तय आयरिय उपज्झाए से हे साहम्मिए तपस्सि कुल गग सधै य ' अत्यन्त गालदुर्यग्लानद्धमामक्षपकप्रयतमाचार्योपाध्याये क्षे अय सूत्रकार इस महावत की आराधग करने के लिये कैसा सापु समर्थ हो सकता है ? यह करते-'अर केरिसए' इत्यादि। टीमर्थ (अर केसिए पुणाई चयमिण आराहा १) कैसा साधु इम अदत्तादानविरमणरूप महावत की आराधना कर सकता है । इमक उत्तर में करते हैं (जे से ) जो माधु (उचहिभत्तपाण सगहणदाण कुसले ) उपधि वस्त्र गर आदि, एव भक्तपान, इनको अपने सार्मिक साधओं के लिये लेने में और उन्हें इन वस्तुओं के देने में कुशल विधिज्ञ-होता है, तथा (अच्चतयालव्यलगिलाणबुडखवगपवत्तय आयरिय उवज्ञाए) जो मर में अ यत पाल हैं--आठ वष . હવે આ મહાવ્રતની આરાધના કરવાને માટે કે સાધુ સમર્થ હોઈ शछ । सूत्र२ मतावे छ “ अह के रिसए" त्या टी2-"अह केरिसए पुणाईवयमिण आराहए?' साधु मा महत्ताधान વિરમણરૂપ મહાવ્રતની આરાધના કરી શકે છે? તેના જવાબથા સૂત્રકાર કે छ-"जे से" २ साधु “वहिभत्तपाणसगहणदाणकुसले" उपाध, . ' પાત્ર આદિ અને આહાર પાણી, પિતાના માર્મિક સાધુઓને માટે લ भने भने ते १२तुमी वामा पुश-विधिज्ञ-डाय छ, तथा “ अच्चतबार दुब्बललाणवुडखगपवत्तयआयरिय उवज्माए " सधमा सत्य બાળ છે–આઠ વર્ષના બાળ સાધુ છે, તથા જે દુર્બલ છે-કમજોર હા Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदशिनी टीफा १० ३ सू०४ कोमुनिरयतादानादिवतमाराधयति ७२२ साधर्मिके तपस्विकुलगणसझे, तत्र अन्यन्तत्राला चष्टापोयोपालः, अत्यन्त दुर्वल! कशागत्वेन स्वकार्यररणाक्षमः, 'गिलान' रहान व्या यादिना भिक्षा टनादावसमर्थ , 'युड्स' वृद्धः स्थविर ज्ञानवः, पर्यायटद्व , वयोवश्व, 'खवग' क्षपकामासक्षपणारग्रनप.मारित्वेन प्रपचनप्रभावकः, 'पवत्तय' मवर्तकःप्रशस्तयोगेपु यथायोग्यतया सावन मार्तयतीति प्रवर्तक , आचार्य: गणनेतायो हि शादानुसारेण सयमाचरति, अन्याश्चाचार यति स आचार्य , तदुक्तम् “आचिनोति च शास्त्राणि, आचार ग्राहयत्यपि । स्वयमाचरते यस्मात्तस्मादाचार्य उच्यते " इति। उपाध्याय'-उप-समीपे आगतान् शिष्यान् सूनार्थमध्यापयति यः स उपाध्याय', एने समाहारद्वन्द्वः, तस्मिन्, तथोक्ते, तया ' सेहे' शैक्षे-नवदीक्षिते सायौं, तथा-'साहम्मिए' सार्मिके श्रुतलिङ्गमपचनैः समानश्रद्धावान् पालक साधु हैं तथा जो दुर्बल हैकम जोर होने से जो अपने कार्य करने में अक्षम है, जो ग्लान हैं-व्याधि आदि के निमित्त को लेकर जो भिक्षावृत्ति आदि करने में असमर्थ हैं, जो घृद्ध है-स्थयिर-जरा से जर्जरित शरीर वाले ह जान की अपेक्षा दीक्षापर्याय की अपेक्षा और आयु की अपेक्षा जो वृद्ध-पडे हैं, जो क्षपक हैं मासक्षपक आदि उग्र तपस्या करनेवाले हैं, जो प्रवर्तक हैं-प्रशस्त-योगोंमें साधुजनो को उनकी योग्यता के अनुसार प्रवृत्ति कराने वाले हैं, जो आचार्य हैगण के नेता हैं-अर्थात्-साधु सवधी आचार को जो स्वय पालते हैं, और दूसरे साधुओं से पलाते हैं, जो उपा यार हैं-अपने पासमें आये हुए साधुओं को-शिष्यजनों को जो सूत्र पढाते हैं, जो (से) शिव्य है-जय दीक्षित साधुजन हैं, जो (सारम्मि) साधर्मिक है-श्रुत लिङ्ग और प्रवचन-प्ररूपणा उनको लेकर जिनकीश्रद्धा समान है जो જે પિતાના કામ કરવાને અસમર્થ છે, જે જ્ઞાન છે વ્યાવિ આદિ ને કારણે જે ભિક્ષાવૃત્તિ આદિ કવ્વાને અસમર્થ છે, જે વૃદ્ધ છે-રવિર–જરાને કારણે જર્જરિત શરીરવાળા છે, જ્ઞાનની અપેક્ષાએ, દીક્ષા પર્યાયની અપેક્ષાએ અને આયુની અપેક્ષાએ જે વૃદ્ધ મેટા છે, જે પડ છે મા ખમણ આદિ ઉગ્ર તપસ્યા કરનાર છે, જે પ્રવર્તક છે- શ ત ગોમા માધુજનને તેમની ગ્યતા અનુસાર પ્રવૃત્તિ કરાવનાર છે, જે આચાર્ય છે–ગણના નેતા છે એટલે કે સાધુના આચારોને જે જાતે પાળે છે અને બીજા સાધુઓ પાસે પળાવે છે, જે ઉપાધ્યાય –પોતાની પાસે આવેલા સાધુઓ-શિષ્યજનેને જેઓ सूत्री ला , २ “सेहे " शिष्यो छ-नहीक्षित साधुभाछे, २ "सा Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० w मयाबरपरले साधर्मिक उन्यते, तस्मिन् , तपा-'नागि गगंधे यनपम्पिकालगणसः च, तत्र-तपस्सी-फिति निक, चतुर्यभक्तादिकारी गरा, पा - परगुरुमभिष्पसमृदायरूपम् , गण'कुलगमुदाय,मामाणमायापा, एनेगा समाहारना, तस्मिस्तथोक्ते च, अन सर्वत्र विषगार्थ सामी, नेन नदिपक मित्यर्थ, 'बेइ य?' चैत्यार्य-चेत्य-शान रितीमशाने 'त्यस्मात् सदाहित्वाइ मावे किपि 'चित् । सशान सम्यग्रगान, चिटा चैन्य, सार्य प्यम्, तर अर्थ:-प्रयोजन यस्य स तथोक्त. सम्यग जानाभिशापीत्यर्थः नया-' निग्नट्टी' निर्जराय:(तस्मितगणमघे य) तपस्वी -विकृति (गिय) के त्यागी । अधया चतुर्थ भक्त आदि तपस्याओं के कग्ने पाले हैं, तथा जो एक ही गुरु के शिष्यों का समुदाय है वह कुल है, कुल के समुदाय का नाम गण है, गणसमुदाय को मर करते है सो इन सयकी (इय?) सम्यक ज्ञान की प्राप्ति का अभिलापी तथा (निज्जरठी) कर्मो की निर्जरा का इच्छुक मुनि (माणिस्मिय ) हरलोक और परलोक सपषी आकाक्षा रहित होकर ( दसविह ) दश प्रकार की (यहुविर) भक्तपान आदि विविध प्रकार से (वेयावच करेइ) चैयाकृत्य करता हैउनकी सहायता करता है वह इस मरोवनको पाल सकता है। ___यहा जो 'चेहयद्वे' पद आया है उसकी छाया 'चैत्यार्थ' ऐसी है । सज्ञानार्थक चित् धातु से "सपदादित्वात् " उस सूत्र छारा भाव में क्विा ' प्रत्यय होने पर चित् ऐसा शब्द बन जाता है, इस का अर्थ सज्ञान-सम्यग्ज्ञान-होता है। फिर स्वार्थ मे 'प्यT' प्रत्यय होने पर हम्मि" साधभि छ, २ "तपसि कुल्गणसघे य" तपस्या छ, विति-"विगय" ના ત્યાગી છે, અથવા ચતુર્થભક્ત આદિ તપસ્યા કરનાર છે, તથા જે એક " गुरुना शिष्य समुदाय "कुल' छ, जुसना समुदायने गए ४ छ, गहना समुदायने स५ छ तो ये भीनी "चेइयट्रे" सभ्य ज्ञानना प्राविना मलितापी तथा " निज्जरठ्ठी" भनी नि माट सु मुनि 'अणि स्सिय" मा भने ५२सो समधी साक्षा २डित यधने "दसविह" इस प्रा२नी "बहुविय " मा.२ या माहिविविध रे " वेयावच्च करेइ" વૈયાવૃત્ય કરે છે—તેમની જે સાધુ સહાયતા કરે છે તે આ મહાવ્રત પાળી શકે છે महीने "चेइयटे" ५६ माव्यु छेतेनी छाया "चैत्यार्थ"सज्ञा नाय' 'चित् । धातुथी “ विप्" प्रत्यय दासता 'चित' अव ७४ मना तय छ, तना अर्थ से ज्ञान-सम्मान-थाय छे छ। स्वार्थमा 'व्य' પ્રત્યય લાગતા ચૈત્ય શા. મિદ્ધ થઈ જાય છે તે ચિત જ ચ છે એવા Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्दशनीटीका १० ३ सू० ४ कोमुनिरदत्तादानादिवतमाराधयति कर्मनिर्जराभिलापी, 'अणिस्सिय ' अनिश्रित-कीर्त्यादिनिरपेक्षम् इहलोकपरलोकाद्याशसारहितमित्यर्थः, 'बहुविह ' बहुविधम् = भक्तपानादिभिर्महुमकराक, 'दसविह' दशविध आचार्यादिदशविधस्थानक, 'वेयावच्च' वैयाकृत्य-भक्तपानादिभिः साहाय्य करेड' करोति । ननु अत्यन्तवालदुलादि सद्धान्ताना चतुर्दशाना वेयारत्यस्थानतया प्रथमचैत्य शब्द सिद्ध हो जाता है-तर चित् ही चैत्य है ऐसा अर्थयोध होता है । यर चैत्य-सम्यग्ज्ञान-ही जिमका प्रयोजन है वह चैत्यार्य है, इस प्रकार का अर्थ होने से इसका तात्पर्य यह रोता है कि जो साधु सम्यग्ज्ञान की अभिलापा वाला है। "अणि स्सिय" यह पद क्रियाविशेपण के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जिसका साराश है कि वह साधु इन याल आदि मुनिजनो का वैयावृत्त करते समय यह भावना न रखे कि मुझे कीर्ति आदि की प्राप्ति अथवा इहलोक सयधी सुखों आदि की प्राप्ति इनकी सेवा करने से होगी। " यहुविध" यह चैयावृत्य का विशेपण है जो यह कहता है कि वैयावृत्य तप भक्तपान आदि से अनेक प्रकार का है। शास्त्रो मे चैयावृत्य के भेद दस कहे हैं । कारण आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, साधर्मिक, कुल,गण और सघ ये दस स्थान सेवाके हैं । इसलिये इनकी सेवा रूप यह वैया घृत्य भी दश प्रकार का कहा गया है। शका-इस "अच्चतथाल" आदि पद में तो अत्यतयाल से અર્થ થાય છે તે ચિત્ય-સમ્યગૂ જ્ઞાન જ જેનું પ્રયોજન છે તે ચૈત્યાર્થ છે, તે પ્રકારને અર્થ થવાથી તેનું તાત્પર્ય તે થાય છે કે જે સાધુ સમ્યગ शाननी मलिता! पाप छ “ अणिस्सिय " 0 ५६ डियाविशेषना ३५मा વપરાય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે તે સાધુ તે બાલ આદિ મુનિઓનુ વૈયા વૃત્ય કરતી વખતે એવી ભાવના ન રાખે કે મને કીતિ આદિની પ્રાપ્તિ અથવા मास तथा ५२४ सपा सुभानी प्रालि भनी सेवाथी थशे "पहविध" તે વિયાવૃત્યનું વિશેષણ છે જે એ બતાવે છે કે વૈયાવૃત્ય તપ આહાર પાણી આદિ અનેક પ્રકારના છે રાસ્ત્રોમાં વૈયાવૃત્યના દસ ભેદ બતાવ્યા છે કારણ है माया, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, सक्ष, सान साभि, भुस, र અને સઘ એ દશ સેવાના સ્થાન છે તેથી તેમની સેવારૂપ આ વૈયાવૃત્ય પણ દશ પ્રકારનું કહેલ છે -4 “ अच्चतमाल " मा ५४मा सत्यत माथी सन स५ Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - mega ७३२ मुक्तत्वाद् दधि यात्ममिनि कयन गय न गिध्यते ? अन्य वैयाक्यस्य स्थान दशरिध व्यार यामप्ति ( २५.३.७) ज्यवहारमा उ. १.) पागमेषु सर्वत्र प्रसिद्ध, तब तहभूतानामन्तार, तथाहि-अत्यन्त दुर्व भयो नेसमावेशः, तपोस्तत्सनिहितत्वेनोक्तत्वात भक्तानानयनादायक्षमपेन तरसाश्यान्च । क्षपक-प्रवर्गस्योराचार्य सनिवेग,तयोस्तता निस्तित्वेनोक्तवाद छेकर सघ तक चौदह वैयाकृत्य के स्थान होते है अतः वैयावृत्य के स्थान होने से वैयावृत्य भी चौदस प्रकार का होना चाहिये फिर यहाँ जो उसमें दश विधता प्रकट की है सो यर फधन परस्पर में क्या विरुद्ध नहीं है ? अवश्य विरुद्ध है। उत्तर-दोका ठीक है, परन्तु विचार करने पर इसका समाधान अच्छी तरह से हो जाता है-वैयावृत्य के ये दशपकार के ही स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति (श. २५ उ.७) व्यवहारसूत्र (उ १०) आदि आगमी में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। इनमें ही इनसे पहिभूत भेदों का अन्तर्भाव हो जाता है। जैसे जो साधु अत्यन्तपाल एवल इन दोनों का समा वेश ग्लान साधुओं में हो जाता है क्योंकि ये उन्हीं से होते है इसीलिये उनका पाठ उनके साथ रखा है। जिस प्रकार ग्लान साधु भक्तपान आदि के लाने में असमर्थ होता है उसी प्रकार से ये भी है। इस तरह इनमें परस्पर मे महशता आने से इन दोनों का समावेश ग्लान में हो जाता है। इसी तरह से जो क्षपक और प्रवर्तक हैं उनका સુધી વૈયાવૃત્યના ચૌદ સ્થાને થાય છે, તે તે બધા વૈયાવૃત્યના સ્થાન હોવાથી વૈયાવૃત્ય પણ ચૌદ પ્રકારના થવા જોઈએ છતા અહી તેના દસ પ્રકાર પ્રતા વ્યા છે તે તે કથન શુ પરસ્પરમાં વિરોધાભાસ દર્શાવતું નથી ? અવશ્ય વિરોધાભાસ દર્શાવે છે ઉત્તર--શિવા બરાબર છે પણ વિચાર કરતા તેનું સારી રીતે સમાધાન થઈ જાય છે વૈયાવૃત્યના એ દશ પ્રકારના જ સ્થાન નાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ (શ ૨૫ 6-७) व्यवहारसूत्र (6-१०) माहि मागभामा सर्वत्र प्रसिद्ध छ तमना માજ તેમનાથી બાહ્ય ભેદને સમાવેશ થઈ જાય છે જેમ કે જે સાધુ અત્ય તે બાલ અને દુર્બળ છે તે બનેને સમાવેશ શ્વાન સાધુએ મા થઈ જાય છે, કારણ કે તેઓ તેમના જેવા જ હોય છે તેથી તેમને પાઠ તેમની સાથે રાખે છે જેમ ગ્લાન સાધુ આહાર પાણી આદિ લાવવાને અસમર્થ હોય છે તેમ તેઓ પણ અસમર્થ છે એ જ રીતે તેઓની વચ્ચે પરમ્પરમાં સમાનતા આવવાથી તે બનેનો સમાવેશ “ ગ્લાન' મા થઈ જાય છે, એ જ રીતે જે Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ ३ शिनी टोका भ०३ सू४ को मुनिरवसादानादिद्यतमाराधयति प्रवचनमभावकरवेन तत्सादृश्याच्च । एव च वैयावृत्यस्य- आचार्यादि स्थानभेदेन दशविधत्वकथनमविरुद्धम् । यतु - ' चेइयट्ठे ' इत्यस्य व्याख्यानम् - ' -" चैत्यानि = जिनप्रतिमा, एतासां योsर्थः योजन यस्य स तथा वत्र " इति टोकान्तरे लभ्यते तद्भ्रान्तिमूलपस्, वैयावृत्यस्य जिन प्रतिमा प्रति विधानाभावात् । जिनपतिमाया अपि वैयावृत्य स्वीकारे व्याग्य्याप्रज्ञप्त्याद्यागमेषु वैया वृत्त्यस्य दशविधत्वमरूपण विरुभ्यतेलग्रहणेन वैयावृत्यस्यैकादशसख्याऽति प्रसङ्गात् । अन्तर्भाव आचार्य में कर दिया जाता है। जिस प्रकार आचार्य प्रवचन के प्रभावक होते है उसी प्रकार से ये दोनो भी होते हैं, अतः उनके जैसे इन्हें प्रभावक होने से परस्पर में इनसे सहगता आ जाती है यही बात प्रकट करने के लिये सूत्रकार ने इन दोनों का पाठ आचार्य के पास रखा है । इस तरह से विचार करने से वैयावृत्य के स्थान दस ही प्रकार के सिद्ध होते हैं, इसलिये इनके भेद से वैयावृत्य में दशविधत्वकथन विरुद्ध नहीं है ऐसा जानना चाहिये । तथा - जो "चेइयट्ठे " इस पदका व्याख्यान - " चैत्याना अर्थः प्रयोजनम् यस्य सः चत्यार्थः " चैत्य जिन प्रतिमा है प्रयोजन जिसको ऐसा साधु " ऐसा कहते है- उनका यह व्याख्यान भ्रान्ति मूलक है। कारण जिन प्रतिमा के प्रति वैयावृत्य करने का विधान नही है । यदि यह विधान माना जावे तो फिर व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि आगमो में जो वैयावृत्य के ये पूर्वोक्त दश भेद माने गये हैं उनमें विरोध आता है, क्यों ક્ષપક અને પ્રવર્તક છે. તેમના સમાવેશ આચામા ડેરી દેવાય જેમ આચાર્ય પ્રવચનના પ્રભાવક હાય છે તેમ તેઓ મને પણ હાય છે, તથા તેમના જેવા તે પ્રભાવ- હાવાથી પરસ્પરમા તે મામતની સમાનતા આવી જાય છે એ જ વાત પ્રગટ કરવાને માટે સૂત્રકારે તે તેના પાઠ આચાય સાથે કર્યો છે. આ રીતે વિચાર કરતા વૈયાવૃત્યના દસ પ્રકારના જ સ્થાન સિદ્ધ થાય છે, તેથી તેમના ભેદને કરણે વૈયાવૃત્યમા ઢગ વિધતાનું કથન વિરૂદ્ધ પડતુ નથી એમ સમજવુ જોઇએ 16 तथा- ' चेइयट्टे " मा हनु व्याभ्यान " चैत्याना अर्थ प्रयोजनम् यस्य स चत्यार्थ " चैत्य दिन प्रतिभा छे तेनु प्रयोजन ने मेवासाधु” એવુ જે કહે છે તેમનુ તે કધન ભ્રાન્તિમૂલક છે કારણ કે જિન પ્રતિમાનુ વૈયાવૃત્ય કરવાનુ વિધાન નથી જો આ વિધાન માની લેવામા આવે તે વ્યાખ્યાપ્રજ્ઞપ્તિ આદિ આગમામા તૈયાનૃત્યના જે પૂર્વોક્ત દસ લેખતાવ્યા છે Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - ४ ...अभयाकरण विमानादिगणरहिताया जहात्मिकाया निनमतिमाषाभक्तपानादि साहाय्यानपेक्षणान्नास्ति वयारत्यम्यानमाप्तियोग्यता, अआ पा-यावश्यदाविषस्वातिपादकागमपिरोधनारणामाचार्य निनप्रतिमाया समावेशनमपि भ्रान्तिमूलकमेव । इह चैत्यशन्दस्य मानार्थकत्वमागमानुलम् , यावृत्येन श्रुतादिनान जायते लम्यते वर्धते च, तथा तीर्थकरनामगोत्रकर्मोपानित भाति । तीर्थरत्वं च केवलज्ञानानान्तरीयकम् , अतः शानार्थी चैयाकृत्य यरोतीत्ययः सम्यगेत्र, उक्तकि जिन प्रतिमा यादृत्य नामका एक और ग्यारहवा भेद उत्पन्न हो जाता है। दूसरी यात एक यह भी है कि जो जिन प्रतिमा शेती है उसमें वैयाकृत्य के स्थान प्राप्ति की योग्यता से नहीं है, क्यों कि उसमें ज्ञानादिगुण तो कोई है ही नहीं यह तो जड़ पत्थरकी बनी हुई होती है, उसे भक्तपान आदि द्वारा सहायता पहुंचाने रूप वैयावृत्य की क्या आवश्यकता है ? । तथा जो वैगमृत्य में दशविधान का प्रतिपादन करने वाला आगम है उसमें विरोध न आवे इस अभिप्राय से प्रेरित होकर जो आचार्य में जिन प्रतिमा का समावेश करते हैं उनका ऐसा करना भी भ्रान्तिमूलक ही है । चैत्य शब्द में ज्ञानार्थकताकी यह हमारी मान्यता आगमनुकल है, क्यों कि वैयादृत्य से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है, और उसकी वृद्धि होती है। तीर्थकर नामगोत्र कर्मका उपार्जन होता है तीर्थकर प्रकृति का वध जिस जिव के हो जाता है वह अवश्य ही केवलज्ञान का अधिकारी यन जायगा। क्यो कि यह प्रकृति केवल તેમાં વિરોધ આવી જાય છે, કારણ કે જિન પ્રતિમા વયાવૃત્ય નામને એક અગ્યારમે ભેદ તત્પન્ન થઈ જાય છે અને બીજી એક એ પણ વાત છે કે જે જિન પ્રતિમા હોય છે તેમાં વૈયાવૃત્યના સ્થાન પ્રાપ્તિની ચોગ્યતા જ નથી, કારણ કે તેમાં જ્ઞાનાદિ કઈ ગુણ તે છે જ નહી–તેતે જડ પથ્થરની બનેલા છે, તે આહાર પાણી દ્વારા તેને સહાયતા પહોચાડવાની શી આવશ્યકતા છે તથા વૈયાવૃત્યમાં દરા વિધાતાનું પ્રતિપાદન કરનાર જે આગમ છે તેમાં વિરોધાભાસ ન લાગે તે અભિપ્રાયથી પ્રેરાઈને જે આચાર્યના જિન પ્રતિ માને સમાવેશ કરે છે, તેમનું તે પ્રમાણે કરવું તે પણ ભ્રાનિમૂલક જ છે ચિત્ય રાબ્દમાં જ્ઞાનાર્થકતાની અમારી આ માન્યતા આગમનુકલ છે, કારણ વૈયાવૃત્યથી શ્રુતજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને તેની વૃદ્ધિ થાય છે તથા તીર્થ કર નામગાત્ર કર્મનું ઉપાર્જન થાય છે તીર્થકર પ્રકતિને બધ જે જીવને બધાય છે તે અવાય કેવળ જ્ઞાનને અધિકારી બનશે કારણ કે તે કેવળ Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका भ० ३ सू० ४ कोमुनिरदशादानाविद्यतमाराधयति ? ७३५ श्रोत्तराध्ययनमूने- "चेयापच्चेण भते ! जीवे किं जणयइ ? वेयारच्चेग तित्थयर नागोय कम्म निबंध || " ( उत्त०अध्य, २९ ) टीकार्य' न' न च ' अचियत्तस्य' अमीतिरस्स= मीतिरहितस्य प्रतीति रहितस्य नासाध्यागमनमनिच्छत इत्यर्थः, 'घर' गृह ' पत्रिस' प्रविशति, न च जमतीतिकस्य ' भत्तपाण ' भक्तपान ' गेहइ ' गृह्णाति, न च अमीतिकस्य अमतीतिकस्यापीठफल काय्यासस्तारकवस्त्रपाद कम्पलदण्ड कम्पलरजोहरणनिपद्याची पोरसवस्रिका पादमोन्नादि भाजनभाण्डोपध्युपकरण, ज्ञान की अविनाभाविनी है। तीर्थकर प्रकृति नियमतः केवलज्ञान को उत्पन्न करनेवाली होती है, इसलिये ज्ञानार्थी होकर वैयावृत्य करता है ऐसा अर्थ हमारा निर्दोष ही है । उत्तराभ्ययन सूत्र में यही बात कही है - -" वेयावच्चेण भते । जीवे किं जनयइ ? वेयावच्चेण तित्थयर नागोय कम्म निह " ( उत्तराध्घ अ २९ घोल ४३ ) तथा जो साधु ( न य अचियत्तस्स घर पविसइ) साधु के अपने घर पर आने से अप्रीति अथवा अमतीति-अविश्वास वाला होता है वह अचित्त कहलाता है ऐसे व्यक्ति के घर में साधु प्रवेश नहीं करता है, तथा (न व अचियत्तस्मभत्तपाण गिण्हह ) उस अप्रीति और अप्रतीति- अविश्वास वाले के घर से भक्त पान नही लेता है, और ( न य अचियत्तस्स पीढ फलगसेज्जासयारगवत्थपायकथल दडग रओहरण निसेज्ज घोलपट्टगमुहपोतियपायपुछणाइ भाषण भडीवहि उबगरण सेवइ) न उस अप्रीति और अप्रतीति वाले के पीठ, फलक, शय्या, નની અવિનાભાવિની પ્રકૃતિ છે તીર્થંકર પ્રકૃતિ સ્વાભાવિક રીતે જ કેવળજ્ઞા નને ઉત્પન્ન કરનારી હાય છે, તેથી જ્ઞાનાથી થઈ ને વૈયાવૃત્ય કરે છે એવે અમે દર્શાવેલે અર્થ નિર્દોષ જ છે ઉત્તરાધ્યયન સૂત્રમાં એ r વાત કરી छे-' बेयावन्चेर्ण भते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेण तित्थयरमगोय कम्म निबधइ " ( उत्तराध्य २ २७ पोस ४३ ) तथा के साधु "न य अचियत्तइस पर पविसइ" साधु पोताने घेर भाववाथी के व्यक्ति सप्रीति अथवा अविश्वास વાળા થાય છે તે અચિયત્ત કહેવાય છે—એવી વ્યક્તિના ઘરમા માધુ પ્રવેશ કરતા નથી, તથા न य अचियत्तस्म भत्तपाण गिण्हइ " ते अभीति भने अविश्वाभवाणाना घरेथी माहारयाली सेता नथी, भने “ न य अचियत्तस्स पीढफलग सेज्जासथारगवत्थपायकन लदडगरजोहरण निसेज्जचोलपट्टगमुहपोत्तिय पायपु छणाइमायणभडोवहिउबगरण सेवइ " તે અપ્રીતિ અને અવિશ્વાસવાળાના 16 Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ সমাজসে किश्व-ज्ञानादिगुणरहिताया जडात्मिकाया जिनमतिमायाभक्तपानादि साहाय्यानपेक्षणान्नास्ति वैयाटत्यस्थानमाप्तियोग्यता, अत एप-यावृत्त्यदाविध त्वमतिपादकागमविरोधवारणार्थमाचार्ये जिनमतिमाया समावेशनमपि भ्रान्तिमूलकमेव । इह चैत्यशन्दस्य ज्ञानार्थकत्वमागमानुकूलम् , वैयावृत्त्येन श्रुतादिज्ञान जायते लभ्यते वर्धते च, तथा तीर्थकरनामगोकर्मोपार्जित भाति । तीर्थकरत्वं च केवलज्ञानानान्तरीयकम् , अतः शानार्थी वैयावृत्य करोतीत्यर्थः सम्यगेव, उक्तकि जिन प्रतिमा चैयावृत्य नामका एक और ग्याररवा भेद उत्पन्न हो जाता है। दूसरी यात एक यह भी है कि जो जिन प्रतिमा होती है उसमें वैयावृत्य के स्थान प्राप्ति की योग्यता हो नहीं है, क्यों कि उसमें जानादिगुण तो कोई है ही नहीं वह तो जड़ पत्थरकी बनी हुई होती है, उसे भक्तपान आदि द्वारा सहायता पहुँचाने रूप चैयावृत्य की क्या आवश्यकता है ? । तथा जो वैयावृत्य में दशविधत्त का प्रतिपादन करने वाला आगम है उसमें विरोध न आवे इस अभिप्राय से प्रेरित होकर जो आचार्य मे जिन प्रतिमा का समावेश करते है उनका ऐसा करना भी भ्रान्तिमूलक ही है। चैत्य शब्द में ज्ञानार्थकताकी यह हमारी मान्यता आगमनुकूल है, क्यों कि वैयावृत्य से श्रुतज्ञान की प्राप्ति होती है, और उसकी वृद्धि होती है। तीर्थकर नामगोत्र कर्मका उपार्जन होता है तीर्थकर प्रकृति का वध जिस जिव के हो जाता है वह अवश्य ही केवलज्ञान का अधिकारी बन जायगा। क्यो कि यह प्रकृति केवल તેમાં વિરોધ આવી જાય છે, કારણ કે જિન પ્રતિમા વૈયાવૃત્ય નામને એક અગ્યારમે ભેદ ઉત્પન્ન થઈ જાય છે અને બીજી એક એ પણ વાત છે કે જે જિન પ્રતિમા હોય છે તેમાં વૈયાવૃત્યના સ્થાન પ્રાપ્તિની યોગ્યતા જ નથી, કારણ કે તેમાં જ્ઞાનાદિ કઈ ગુણ તે છે જ નહી–તેતે જડ પથ્થરની બનેલી છે, તો આહાર પાણી દ્વારા તેને સહાયતા પહોચાડવાની શી આવશ્યકતા છે? તથા વૈયાવૃત્યમાં દશવિધાતાનું પ્રતિપાદન કરનાર જે આગમ છે તેમા વિરોધાભાસ ન લાગે તે અભિપ્રાયથી પ્રેરાઈને જે આચાર્યમાં જિન પ્રતિ માને સમાવેશ કરે છે, તેમનું તે પ્રમાણે કરવું તે પણ બ્રાનિમૂલક જ છે ચિત્ય શબ્દમાં જ્ઞાનાર્થકતાની અમારી આ માન્યતા આગમાનુલ છે, કારણ કે વિયાવૃત્યથી શ્રુતજ્ઞાનની પ્રાપ્તિ થાય છે, અને તેની વૃદ્ધિ થાય છે તથા તીર્થ કર નામગોત્ર કમનું ઉપાર્જન થાય છે તીર્થ કર પ્રકૃતિને બધ જે જીવને બધાય છે તે અવાય કેવળ જ્ઞાનને અધિકારી બનશે કારણ કે તે કેવળજ્ઞા Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनीटीफा अ० ३ सू० ४ फोमुनिदत्तादानाविनतमाराधयति ? ७३७ वैयावृत्यादिकार्य, 'ण होइ न भवति 'पन्छानाविध पाचापिका पश्चात्तापकारी । तथा-' सविभागमीले ' सपिभागशील -यभत्तादे. सचिमागमारी 'साहोवग्गहफुसले । सग्रहोपगहफुशल', तर-संग्रहः शिप्यादिपरिवर्द्धनम् , उपग्रहः तेपामेव भक्तवतादिदानपूर्वम्मुपष्टम्मानम् , ता कुशलो दक्षो भवति, ' से तारिसे ' स तादृश सा. 'ण' इदम् = अदत्तादानविरमणरूप 'वय' प्रतम् ' आगहेर ' आराधयति. नान्यः ॥ मु०४॥ विप होह) यवन्तु को देनर एव वैयाकृत्य आदि कार्य को करके जो पश्चाताप नहीं करता है, ( सविमागसीले) लय भक्तादिक का जो सविभागवारी होता है, और (सगहोवगाहकुसले) शिप्यादि के परिबर्द्धन में और उनके भक्त श्रुत आदि दानपूर्वक उपप्टभन मे दक्ष होता है, (से तारिसे ) ऐसा यह मायु ( इण वय आराहेइ) इस अदत्तादानविरमणरूप व्रत को आराधित करता है, दूसरा नहीं। भावार्य-सूत्रकार ने इस सत्र द्वारा यह समझाया है कि किस मकार का कार्य करने वाला साधु इस महानत का आरावक होता है। उनका कहना है कि जो साधु पीछे के दूसरे सत्र में कही गई यातों के अनुसार आचरण करता है वही साधु इस महानत का आराधक बनता है, वे बाते इस प्रकार से है-जो सामु उपधि और भक्तपान के सग्रहण एव दान करने में दक्ष होता है, अत्यत बाल, दुर्यल, ग्लान, वृद्ध, क्षपक, प्रवत्तक, आचार्य, उपा-याय आदि का घयावृत्य करता है। क्यावृत्य माय गर२ पश्चात्ताप ४२ता नथी, "सविभागसीले प्रास भाडाहिना रे सविनाशाय छ, भने “सगहोवग्गहकुसले' शिष्या हिना પરિવર્ધનમાં અને તેમના ભક્ત શ્રુત આદિ દાન પૂર્વક ઉપષ્ટ ભનમાં દક્ષ डाय छे “से तारिसे" मे ते साधु " इण वय आराहेइ ' म महत्ताहान વિરમણરૂપ નતનું આરાધન કરી રાક છે, બીજા કરી શકતા નથી, ભાવાર્થ-સૂવારે આ સૂત્ર દ્વારા સમજાવ્યું છે કે કેવું કાર્ય કરનાર સાધુ આ મહાવ્રતને આરાધક થાય છે તેમનું એવું કથન છે કે જે સાધુ આગળ બીજા સૂત્રમાં બતાવેલ વાત અનુસાર આચરણ કરે છે તે જ સાધુ આ મહાવ્રતને આરાધક બને છે તે વાતે આ પ્રમાણે છે-જે સાધુ ઉપધિ અને ભક્તપાન (આહારપાણ) નો સગડ અને દાન કરવામા દક્ષ હોય છે, અત્ય ત બાળ, દુર્બીલ, ગ્લાન, વૃદ્ધ સંપક, પ્રવર્તે, આ ચાર્ય ઉપાધ્યાય આદિની વૈયાવચ-વૈયાવૃત્ય કરે છે,અપ્રીતિ જનને ત્યા ગોચરીને માટે જતું નથી, તેના દ્વારા प्र.९३ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ मनव्याकरणस्ने 'सेवइ' सेवते, न च 'परस्स' परस्य 'परिचय' परिवाद-निन्दा 'जपई' जल्पति, 'न याविन चापि परस्य 'दोसे' दोपान् ‘गेण्इइ ' गृहाति, परदोपदी न भवतीत्यर्थः, तया- परवरएसेण गि' परव्यपदेशेनापि बालरलानादिनिमित्ते नापि स्वार्थमन्यार्थ या न किंचि' न किञ्चिद् औषधीपज्याघपि, 'गेण्ड' गृह्णाति, तथा 'ण य'नच 'पिपरिणामेइ ' पिपरिणमयवि-धर्माद् गुर्यादिभ्यश्च विमुखी करोती ' कचि जण' कश्चिदपि जन शिष्यादिकम् । ' न याचि' न चापि ' णासेइ नाशयति 'दिण्णमुरुय दत्सुकृतम् , दत्तम् अभयदानादिक, सुकृतन्त्रतप्रत्याख्यानादिक अपि तु तदनुमोदयतीत्यर्थः, परकृत शुभकृत्य न प्रच्छादयन्ति, तथा-'दाऊण य ' दया च देय वस्तु, 'काऊण य' कृत्या च सस्तारक, वस्त्र, पादकवल, दउक, रजोहरण, निषया, चोलपट्टक, सदो रकमुखवत्रिका, पादप्रोग्छन आदि तथा भाजन, भाण्ड, उपधि, उपकरण, इनका सेवन करता है, (न य परिवायपरस्स जपड) दूसरों की निंदा नहीं करता है, (न यावि परस्स डोले गेहत) दूसरों के दोषो को नहीं देखता है, (पर ववएसेणवि न किंचि गेडा) याल, ग्लोन आदि के निमित्त से लाये हुए औपध, भैपज्य आदि कुछ भी बस्तु अपने अथया दूसरे के काम में नरी लेता है, (ण य विपरिणामेइ कचि जण ) धर्म से तथा अपने गुरुजनों से जो शिष्यादिकों को विमुख नहीं करता है, (ण यावि णासेइ दिण्ण सुकय) दत्त-अभय दानगदिक का, सुकृत-व्रत प्रत्याख्यान आदि का जो नाश नही करता है किन्तु उनकी अनुमोदना ही करता है, अर्थात् परकृत शुभकृत्यों को जो आच्छादित नहीं करता है (दाऊण य काऊण य ण य पच्छासा पी8, ५१४, शय्या सस्ता२४, पर, पास, ४, २०२५], यासप, દેરા સાથેની મુહંપત્તિ, પાદBછન આદિ તથા ભાજન, ભાંડ, ઉપાધિ मा ५४२५नु सेवन ४२ते नथी, "न य वि परिवायपरस्स जपई" भीलनी निह४२ते। नथी, “न या वि परस्स दोसे गेण्हा" जीना दोषाने तो नयी, " परववएसेण वि न किंचि गेण्हह" माण, खान माहिने निभित्ते લાવેલા ઔષવ, વૈષજ્ય, આદિ કોઈ પણ વસ્તુ પિતાના અથવા ભીજાના ઉપ यासमा सत नथी “ण य विपरिणामेह किंचि जण" शिष्याहन भयो है ४३गनाथी विभुम ४२त नथी, ‘ण यावि णासेइ दिण्ण सुका " तઅભયદાનાદિકનું સુકૃત-પત પ્રત્યાખ્યાન આદિને જે નાશ કરતે નથી–પણ તેની અનુમોદના જ કરે છે, એટલે કે અન્ય વડે કરાયેલ શુભકૃત્યને જે ઢાકાતે नयी " दाऊणय काऊणय ण य पच्छात्ताविए हाइ' उय परत . . Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनीटीका अ० ३ ० ४ कोमुनिदत्तादानादियनमाराधयति । ७३७ वैयावृत्त्यादिकाय, ' होड ' न भवति 'पन्छानाविप' पाचापिका नचानापकारी । तथा-सचिभागमीले ' सरिभागशील-धमत्तादे. सविभागकारी 'साहोवग्गहसले । सग्रहोपगहकुशल', तत्र-सग्रहः शिष्यादिपरिवर्द्धनम् , उपग्रहातेपामेव भक्तश्रुतादिद्वानपूर्वकमुपष्टम्गनम् , तर कुशलो दक्षो भवति, ' से तारिसे ' स तारशः साधुः 'रण' इदम = अदत्तादानविरमणरूप 'वय' व्रतम् ' पारा हेड ' आराधयति. नान्यः ॥ ०४॥ थिए होइ) देयवस्तु को देजर एव वयावृत्य आदि कार्य को करके जो पश्चाताप नहीं करता है, ( सवि गागसीले) लय भक्तादिक का जो सविभागमारी होता है, और (सगहोवगगहकुसले ) शिप्यादि के परिवर्द्धन में और उनके भक्त श्रुत आदि दानपूर्वक उपप्टभन में दक्ष होता है, (से तारिसे ) ऐसा रह साधु ( इण वय आराहेइ) इस अदत्तादानविरमणरूप व्रत को आराधित करता है, दूसरा नहीं। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सत्र नारा यर समझाया है कि किस मकार का कार्य करने वाला साधु इस महानत का आरोधक होता है। उनका कहना है कि जो साधु पीछे के दूसरे सत्र में कही गई थातों के अनुसार आचरण करता है वहीं साधु इस महानत का आराधक घनता है, वे पाते इस प्रकार से है-जो सायु उपधि और भक्तपान के सग्रहण एव दान करने में दक्ष होता है, अत्यत चाल, दुर्यल, ग्लान, वृद्ध, क्षपक, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय आदि का वैयावृत्य करता है। क्यावृत्य माहिआय नो पञ्चात्ता५ ४२ता नथी, “ सविभागसीले " प्राप्त माहिना सविनाश डाय , मने “सगहोवग्गहकुमले' शिष्याहिना પરિવર્ધનમાં અને તેમના ભક્ત મૃત આદિ દાન પૂર્વક ઉપષ્ટ ભનમા દક્ષ य से तारिसे" मेवे ते माधु " इण वय आराहेइ ' मा महत्ताहान વિરમણરૂપ મતનું આરાધન કરી શકે છે, બીજા કરી શકતા નથી, ભાવાર્થ સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા સમજાવ્યું છે કે કેવું કાર્ય કરનાર સાધુ આ મહાવ્રતને આરાધ૮ થાય છે તેમનુ એવુ કથન છે કે જે સાધ આગળ બીજા સૂત્રમાં બતાવેલ વાત અનુસાર આચરણ કરે છે તે જ સાધુ આ મહાવ્રતને આરાધક બને છે તે વાતે આ પ્રમાણે છે-જે સાધુ ઉપધિ અને ભતપાન (આહારપાણી) નો સંગ્રહ અને દાન કરવામા દક્ષ હોય છે. અત્યત બાળ, દુર્મલ, ગ્લાન, વૃદ્ધ લપક, પ્રવર્તે, ચાર્ય ઉપાધ્યાય આદિની વૈયાવચ-વૈયાવૃત્ય કરે છે, અપ્રીતિક જનને ત્યા ગોચરીને માટે જતો નથી, તેના દ્વારા Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३८ प्रश्नध्याकरणसूत्र अप्रीतीकजन के घर पर गोचरी के लिये नही जाता है, उनके द्वारा प्रदत्त पीठ फलक आदि का उपयोग नहीं करता है। दूसरों कि निंदा नहीं करता है, पर के दोपों की तरफ दृष्टिपान नहीं करता है, पर के व्यपदेश से अपने लिये तथा दूसरों के लिये कुछ भी वस्तु नहीं लेता है, गुर्वादिक से उनके शिप्यादिकों का भेद नरी कराता है, अभयदाना दिक को दे करके, यावृत्य को करके जो पीछे से पछताता नहीं है, सग्रहशील होता है-सविभागसारी शेता है, शिप्यादि सपत्ति बढाने में कुशल होता है ऐसा साधु ही महावत का आगक होता है। वैयाकृत्य जो आचार्य आदि की करता हैं-उसमें उसका अभिप्राय अपने में ज्ञानवृद्धि और कर्मो की निर्जरा होने का होता है। वैयावृत्त आचार्य आदि दस प्रकार के स्थान सेव्य होने के कारण दस प्रकार का है। सूत्र में यद्यपि चौदर प्रकार के चैयाकृत्य के स्थान प्रकट किये हैं पर अत्यत पाल और दुबल इन साधुओ का अन्तर्भाव ग्लान में एव क्षपक और प्रभावक साधुओं का अन्तर्भाव आचार्य में कर दिया जाता है, इसलिये इस प्रकार से ये दस ही होते है । मुरय रूप से जिसका कार्य आचार और व्रत ग्रहण कराने का होता है वह आचार्य है, मुख्यरूप से जिमका कार्य मूल सूत्र का अभ्यास कराने का होता અપાયેલ પીઠ, ફલક આદિને ઉપયોગ કરતું નથી અન્યની નિંદા કરતું નથી અન્ય ના દે તરફ નજર નાખતું નથી બીજાનું નિમિત્ત બતાવીને પિતાને માટે તથા અન્યને માટે હાઈ પણ વસ્તુ લેતે નથી, ગુર્નાદિક સાથે તેમના શિષ્યાદિમાં ભેદભાવ પડાવતે નથી, અભયદાન આદિ દઈને, વૈયાવૃત્ય કરીને જે પાછળથી પસ્તા નથી, એગ્રહશીલ હોય છે–સ વિભાગકારી હોય છે, શિષ્યાદિપ સપતિ વધારવામાં કુશળ હોય છે, એ સાધુ જ આ મહાવ્રતને આરાધક થઈ શકે છે તે આચાર્ય આદિની જે વૈયાવચ કરે છે તેમા તેને હેતુ પિતાના જ્ઞાનની વૃદ્ધિ તથા કર્મોની નિરા કરવાને જ હેય છે વૈયાવૃત્ય આચાર્ય આદિ દસ પ્રકારના સેવાને પાત્ર સ્થાન હોવાથી દસ પ્રકારનું છે સૂત્રમાં જે કે ચૌદ પ્રકારના વૈયાવૃત્યના સ્થાન બતાવ્યા છે પણ અત્ય ત ખળ અને દુર્બળ સાધુઓને સમાવેશ પ્લાનમાં અને શપક અને પ્રભાવ સાધુ એને સમાવેશ આચાર્યમા કરી દેવામાં આવેલ છે, તેથી આ રીતે તેના દસ પ્રકાર જ થાય છે મુખ્યત્વે જેનુ કાય આચાર અને વત ગ્રહણ કરાવવાનું હોય છે તે આચાર્ય કહેવાય છે મુખ્યત્વે જેનું કાર્ય મૂળ સૂત્રને અભ્યાસ mary Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शनी टीका म० ३ सू० ५ उपसंहार अथोपसहारमाह-'इम च' इत्यादि । मूळग्-इमं च परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहिय पेच्चाभावियं आगमेसिभदं सुद्धं नेयाउयं अकुडिल अणुत्तर नव्यदुक्ख पावाण विउसमणासू०५॥ ____टीका-'इम च' दृढ़ च-पूरनन्ततीर्थकरगणधरैः मोक्तमिद प्रत्यक्ष ' पारयण ' मपचन 'परदपहरणधेरमपरिरक्खगट्टयाए ' परद्रव्यहरणविरमणपरिरक्षणार्थपरद्रव्यहरणविरमणस्य-अदत्तादानविरमणनतस्य परिरक्षणार्थ = है वह उपा याय है, जो विगय आदि के त्यागरूप तपों को तपता है वह तपस्वी है, जो नवदीक्षित कर शिक्षण प्राप्त करने का उम्मीदवार होता है वह शक्ष है, रोग आदि से जिसका शरीर क्षीण हो गया हो वह ग्लान है, एक ही दीक्षाचार्य का शिष्यपरिवार कुल है, जूदे २ आचार्यों के शिप्यरूप साधु यदि परस्पर सहाध्यायी होने से समानवाचना वाले रो तो उनका समुदाय गण है, गण का समुदाय सघ कहलाता है। जो प्रत्रज्याचारी होता है वह साधु है । श्रुतलिंग और प्रवचन में जो समान हों वे साधर्मिक हैं ॥ सू० ४॥ अब सूत्रकार उस प्रकरण का उपसहार करते हुए कहते हैं'इमच' इत्यादि टीकार्य-(इम च परदपहरणवेरमणपरिरक्खट्टयाए पावयण भगवयो सुकरिय) पूर्व में अनत तीर्थंकरों एव गणधर देवों द्वारा कहा કરાવવાનું હોય છે તે ઉપાધ્યાય કહેવાય છે જે વિગય આદિના ત્યાગરૂપ તપ કરે છે તે તપસ્વી કહેવાય છે, જે નવદીક્ષિત થઈને શિક્ષણ પ્રાપ્ત કરવાને માટે ઉમેદવાર હોય છે તેને રક્ષ કહે છે વેગ આદિથી જેનું શરીર ક્ષીણ થઈ ગયુ હોય તેને ગ્લાન કહે છે એક જ દીક્ષાચાર્યના શિષ્ય પરિવારને કુલ કહે છે. જાદા જાદા આચાર્યોના શિષ્યરૂપ સાધુ જે પરસ્પર સહાધ્યાયી હોવાથી સમાન વાચનાવાળા હોય તે તેમના સમુદાયને ગણું કહે છે ગણના સમુદાયને સઘ કહે છે જે પ્રત્રજ્યા (દીક્ષા) ધારી હોય તે સાધુ કહેવાય છે શ્રતલિંગ અને પ્રવચનમાં જે સમાન હોય તે સાધર્મિક કહેવાય છે કે સૂ૦ ૪ हुवे सूत्रा२ 241 4४२४ने। ५सा२ ४२ ४३ छ-"इम च" त्यादि साथ--" इम च परदव्वहरण वेरमणपरिरक्सट्टयाए पावयण भगवया सुकहिय" पूर्व सनत तीर्थ ४२। मने गधरे द्वारा उपायेस मा प्रत्यक्षी Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० এখানে रक्षणनिमित्त ' भगाया' भगाता 'अमहिय ' मुकाधित गाविस्तर प्ररूपितम् । कथ भूतं भवचन भगवता सुकथितम् ? इत्याद-~'अत्तहिय 'जात्महितम् आत्मनो हितकारकम् , तथा-'पेच्चाभानिय 'मेत्यभाविक-जन्मान्तरेऽपि शुभफलदायकम्, अत एव-' आगमेसिभह' आगमिष्यद् भद्रभरियाले-कल्याणकारकम् , तथा 'सुद्ध' शुद्र-निर्दोपत्वात् , पुनः- नेयाउय' नयायिकम् , गीतरागमापि तत्वात्-तथा-'अकुडिल' अकुटिलम्जु मारजनकत्वाद 'अणुत्तर अनुत्तरम्-सर्व श्रेष्ठत्वात् , तथा सम्बदरखपावाण' सर्वदुःखपापाना सफलदाखजनकज्ञानावर पणीयायष्टविधकर्मणा 'विउसमण' व्युपशमन-साधा प्रशमनकारकम् । एतादृशं मवचन भगवता सुकथितमित्यर्थः ॥ ०५॥ अस्य तृतीयवतस्य पञ्चभावनाः प्रतिपादयन् सम्प्रति निरिक्तरसतियासाभिधां प्रथमा भावनामाह--' तस्स इमा' इत्यादि । मूलम्-तस्स इमा पचभावणाओ तइयस्स वयस्त हुंति, परदव्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्टयाए । पढम देवकुलसभा-प्पवागया यह प्रत्यक्षीभूत प्रवचन, परद्रव्यविरमणरूप महाव्रत की परिरक्षा के निमित्त भगवान ने विस्तारपूर्वक प्रखपित किया है। यह प्रवचन (अत्तहिय ) आत्मा का हितकारक है, (पेच्चामाथिय) जन्मान्तर में भी शुभफल का प्रदाता है, इसीलिये यह (आगमेसिभद्द) भविष्यत् काल में कल्याण कारक कहा गया है। ( सुद्र) यह निर्दोष होने से शुद्ध है, (नेयाउय) वीतराग प्रभु द्वारा भाषित होने से न्यायसपन्न है, (अकुडिल ) ऋजुभावका जनक होनेसे अकुटिल है, (अणुत्तर) सर्वश्रेष्ठ होनेसे अणुत्तर है तथा (सव्वदुक्खपावाण विउसमण) सकल दुःखजनक ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मो का सर्वथा प्रशमनकारक है। सू०५ ॥ ભૂત પ્રવચન પરદ્રવ્ય વિરમણ૩૫ મહાવ્રતની પરિરક્ષાને નિમિતે ભગવાને विस्तारपू' प्र३पित ४२स छ २ अपयन " अत्तहिय " मात्भानु (Sat२४ छ, “पेच्चाभाविय " मातरम पर शुमानु ना३ छ, थी a "आगमेसिभद्द" माविष्यमा ४८या २६ मतावामा माव्यु छ “सुद्ध' तनिष सापाथी शुद्ध छ, " नेयाउय " पातशय प्रभुदा२॥ ४थित पाथी न्याययुत छ, “अकुडिल" agमापनु न वाथी मटिल छ, "अणुत्तर" सव श्रेष्ठ पाथी मनुत्तर छ तथा “सव्वदुक्खपावाण विसमर्ण" स४॥ ખજનક જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોનું સર્વથા પ્રશમનકારક છે સૂપ Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीका अ०३ २०६ 'विविकासतियास'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४१ वसहरुक्खमूल-आराम-कंदराऽऽगर-गिरिगुहा-कम्मतुजाण जाणसाला-कुवियसाला-मडव-सुन्नघर-सुसाणलेण आवणे अन्नम्मि य एवमाइयन्मि दग-माहिय-बीय-हरिय -तसपाण असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्थे उवस्मए होई विहरियव्व । आहाकम्मबहुले य जेसे आसि य संमजिओसित्तसोहिय छाण दुमणलिपण अणुलिपण जलणभडचालणं अंतोवाहि मज्झे य असजमो जत्थ वट्टइ, सजयाणं अटा वज्जेयव्वे हु उवस्सए से तारिसे सुत्तपरिकुटे । एव विविक्त वासवसहि समिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, निच्च अहिगरणकरणकारावण पाव• कम्म विरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई ॥ सू० ६॥ टीका-' तस्स ' तस्य प्रसिद्धस्य ' तइयस्स वयस्स' तृतीयस्य ततस्य= अदत्तादानविरमणनाममतृतीयव्रतस्य ' इमा' इमा:-क्ष्यमाणाः 'पच भावणाओ' पञ्चभावनाः 'परदव्वहरणवेरमणपरिरकखणट्ठयाए' परद्रव्यहरणविरमणपरिरक्षणार्थाय अदत्तादानविरमणव्रतस्य रक्षानिमित्त 'इंति' भवन्ति । तासु 'पढम' प्रथमा पिचिक्तरसतिवासलक्षणा भावनामाह-साधुभिः क्वविहर्तव्यमिति, ___अय सूत्रकार उस तृतीय व्रत की पाच भावनाओं को समझाने की इच्छासे सब से प्रथम विविक्तवसतिवास नाम की पहिली भावना को प्रकट करते है--'तम्स इमा' इत्यादि । टीकार्थ-(तस्स) उस प्रसिद्ध (तहयस्स बयस्स) तृतीय अदत्तादान विरमण व्रत की (इमा) ये वक्ष्यमाण (पच भावणाओ हुति ) पांच भावनाएँ है। ये भावनाएँ (परदवहरणवेरमणपरिरक्खणठ्ठयाए ) इस - હવે સૂત્રકાર આ ત્રીજા વ્રતની પાચ ભાવનાઓ સમજાવવાને માટે સૌથી प्रथम विश्वसितवास नामनी पडशी भावनाने प्रगट २ छ-"तस्स इमा" टा--" तस्स" ते प्रसिद्ध " तइयस्स वयस्स" alan महत्तहान विरभ प्रतनी “इमा” मा प्रमाणे " " पच भावणोओ ति" पाय साप नामा छे में लाना। " परदव्वहरणबेरमणपरिरक्सणट्ठयाए " मा महत्ता Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणनिमित्त ' मग ध 'गुशिरिनर प्ररूपितम् । पप गरी भागमा गुशिFr-'अराहियजामहितमन्त्रात्मना तिसारस्पना-मामArnमागरेऽपि भूमफरदायकम अत एव-' मागगमित मागिले-मन्त्रागकारक। या 'सुद 'रनिहीतान..-'गाय' यागिम् , गीतरागमा तत्यान-नया-अादिल' भाटिया-पगुमानरचान 'प्रगुता अनुलाम्-सव श्रेष्ठत्वाद , तगा 'मनापा' पापानांगरलाखननकाना णीयायप्रविधकर्मणा पिउगमण गुपगमनागमनकास पता भवचन मगरता गुरपितमित्पर्ण ॥५० ॥ ____ अस्प रतीयमतस्य पानावनाः प्रतिपादयन् सम्प्रतिरिक्तवरातिवासामिया प्रयमा भावनामाह--'समा' स्वादि । मूलम्-तरस इमा पचभावणाओ तइयरस वयस्त हुति, परदनहरणवेरमणपरिरखणयाए । पढस देवकुलसभा पवा गया थर भत्यक्षीभूत प्रवचन, परद्रव्यविरमणरुपमहाव्रत की परिरक्षा के निमित्त भगवान ने विस्तारपूर्वक प्ररूपित किया है। यह प्र (अत्तयि ) आत्मा का हितकारक है, (पेच्चाभारिय) जन्मान्त भी शुभफल का प्रदाता है, इसीलिये या (आगमेसिभद्द ) भाल काल में कल्याण कारक कहा गया है। (मुद्ध) यह निषि हान शुद्ध है, (नेयाउय) वीतराग प्रभु द्वारा भाषित होने से न्यायसपना (अडिल ) ऋजुभावका जनक होनेसे अटिल है, (अणुत्तर) सका होनेसे अणुत्तर है तथा (सचरखपायाण विउसमण) सकल दुःखजन ज्ञानाचरणीय आदि अष्टविध कर्मो का सर्वथा प्रशमनकारक है। सू०५॥ ભૂત પ્રવચન પરદ્રવ્ય વિરમણરૂપ મહાબતની પરિરક્ષાને નિમિત્તે ભગવાને विस्तारभू पित रेख छ । अपयन " अत्तहिय " मानु त४१२७ छ, "पेच्चाभाविय " मास्तरमा ५५ शुसानु ना३ छ तथा त "आगमेसिभ" लाविष्यमा या २४ तावामा माव्यु छ “सुद्ध'। निहार डापाथी शुद्ध छ, “ नेयाउय " यात प्रभुदास उथित पाथी न्याययुत छ, " अकुडिल " गुमापनु a पाथी भरिख छ, “ अणुत्तर " सब ० पाथी मनुत्तर छ तथा "सम्बदुक्खपावाण विसमण" सण ખજનક જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોનુ સવથા પ્રશમનકારક છે " जनक Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुर्शिनी टीका २०३ सू०६ विविकपसतियास'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ४१ वसहरुक्खमूल-आराम-कंदराऽऽगर-गिरिगुहा-कम्मतुजाण जाणसाला-कुवियसाला-मडव-सुन्नघर-सुसाणलेण आवणे अन्नम्मि य एवमाइयम्मि दग-महिय--बीय-हरिय--तसपाण असंसत्ते अहाकडे फासुए विवित्ते पसत्ये उवस्मए होई विहरियव्वं । आहाफम्मबहुले यजैसे आसि य समजिओसित्तसोहिय छाण दुमणलिंपण अणुलिपण जलणभडचालणं अतोवाहि मज्झे य असजमो जत्य वड, सजयाण अट्टा वज्जेयवे हु उवस्सए से तारिसे सुत्तपरिकुटे । एव विविक्त वालवसहि समिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा, निच्च अहिगरणकरणकारावण पावकम्म विरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई ॥ सू० ६ ॥ टीका-'तस्स' तस्य प्रसिद्धस्य ' तइयस्स पयस्स' तृतीयस्य तस्य= अदत्तादानविरमणनाममतृतीयव्रतस्य ' इमा' इमाः-वक्ष्यमाणा' 'पच भावणाओ' पञ्चभावनाः 'परदबहरणवेरमणपरिरक्खणट्ठयाए ' परद्रव्यहरणविरमणपरिरक्षणार्थाय अदत्तादानविरमणव्रतस्य रक्षानिमित्त 'हुति' भवन्ति । तासु 'पढम' प्रथमा पिचिक्तरसतिनासलक्षणा भावनामाह-साधुभि. क्वविहर्तव्यमिति, अथ सूत्रकार उस तृतीय व्रत की पांच भावनाओं को समझाने की इच्छासे सब से प्रथम विविक्तवसतिवास नाम की पहिली भावना को प्रकट करते हे--'तम्स इमा' इत्यादि । ___टीकार्थ-(तस्स) उस प्रसिद्ध (तव्यस्स घयस्स) तृतीय अदत्तादान विरमण नत की (इमा) ये वक्ष्यमाण (पच भावणाओ हुति) पांच भावनाएँ हैं। ये भावनाएँ (परदन्वहरणवेरमणपरिरक्खणट्टयाए) इस હવે સૂત્રકાર આ ત્રીજા વ્રતની પાચ ભાવનાઓને સમજાવવાને માટે સૌથી प्रथम विपातपसितपास नभनी पडेली लानाने प्रगट ४२ छ-"तस्स इमा" --" तस्स" ते प्रसिद्ध " तइयस्स वयस्स" alon महत्ताहान विरभ वतनी “इमा” मा प्रमाणे “ “पच भावणोओ ति" पाय माप नाम छ में लानामा “परदव्वहरणबेरमणपरिरक्षणद्वयाए " या महत्ता Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभव्याकरण तदेव स्पष्टयति-" देवकुल-सभा-प्पा-सह-रुस्खमूल-आरामकदराऽऽगरगिरिगुहा-कम्मतु-माण-जाणसाला-फुपियमाला-मडर-मुन्नघर--मुसाण-लेग आवणे । देवकुलसभाप्रपाऽऽमयक्षमूलारामकन्दराऽऽकरगिरिगुहारमोन्तोधानयानशाला कुप्यशालामण्डपशून्य रहश्मशानल्यनापणे-तत्र-देवकुलम्व्य न्तरादि देवगृहम् , सभा सभागृह यत्र समये समये मन्त्रणाय जना आगत्य समिलन्ति तत्, प्रपा-पानीयशाला, आरसधा-परिव्राजक्यहम् , समूल-मसिद्धम् , आरामः माधवीलतादिपरिमण्डितोरमणीयो नरिशेपः, फन्दरादरी, जाफरो-लोहायु स्पत्तिस्थानम् , गिरिगुहा-प्रतीवा, फर्मान्त:लाहाकारादिशाला 'कारखाना' 'मील 'जीण' इत्यादि नाम्ना प्रसिद्ध स्थानम् । उद्यानम्-उपपनम् , यान अदत्तादान विरमण व्रत की परिरक्षा के निमित्त की गई हैं ( पढम) उनमें प्रथम भावनो इस प्रकार है-इस प्रथम भावना का नाम विविक्तयसतिवास है ! इसमें साधुओं को कहा निवास करना चाहिये यह प्रकट किया गया है, (देवकुलसभा-प्पवा-वसह-रुक्खमूल-आराम-कदरागारगिरिगुहा-कम्मतु-जाण-जाणसाला-कुवियसाला-मडव-सुन्नघर-सुसा ण-लेण-आवणे) देवकुल मे-व्यन्तर आदि देवों के स्थान में, सभा में-जहा पर मत्रणा के लिये आकर समय २ पर मनुष्य एकत्रित होते हैं ऐसे स्थान मे, प्रपा मे-पानीयशाला में, आवमय में-परिव्राजकों के घरो में, वृक्षमूल मे-तरु के नीचे में, आराम में-माधवीलता आदि से परिमडित रम्यवन में, कन्दरा में-गुफा में, आकर में लोहादिक धातु ओं के उत्पत्ति स्थान में, गिरिगुहा में-पर्वत की गुफा में, कर्मान्त मेंलोहकार आदि की शाला में, कारखाना-मील-इत्यादि नाम से प्रसिद्ध हान विभा प्रतनी परिक्षाने भाट मतावामा मापी छ “ पढम" तभानी પહેલી ભાવનાનું નામ “વિવિક્તવસતિવાસ” તેમા સાધુઓએ કયા વાસ કરવો a मताव्यु छ “ देवकुल सभा-पवा-सह-रुक्खमूल-आराम-कदरागार-गिरिगुहा-कम्म तु-ज्जाण-जोणसाला-कुवियसाला-मडव-सुन्नघर-सुसाण-लेण--आवणे" દેવકુલમા–વ્યન્તર આદિ દેના સ્થાનમા, સભામાં જ્યાં માત્રણને માટે આવીને વખતેવખત માણસો એકઠા થાય છે એવા સ્થાનમાં, પ્રપામા-પાનીયશાળમાં આવસથમા--પરિવ્રાજકના ઘરમા, વૃક્ષમૂળમા–ઝાડની નીચે, આરામમા-માધવી લતા આદિથી આચ્છાદિત રમ્યવનમા, કન્દરામાં–ગુફામા, આકરમા–સેતુ આદિ ધાતુઓની ખાણમા, ગિરિગુહામા–પર્વતની ગુફામાં કર્માત્મા -લુહાર આદિની શાલામાં કારખાના-મીલ આદિ નામે પ્રસિદ્ધ સ્થાનેમા, ઉદ્યાનમા-બાગમાં, Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०३ सू०६ 'विविक्तययतिवास'नामकप्रथमभायनानिरूपणम् ७५३ शाला-रयादिगृहम् , कृप्यशाला-गृहोपकरणशाला, मण्डपा विश्रामस्थानम् , शून्यगृह प्रसिद्ध, श्मशानम् असिद्धम् , लयन-पृहम् , आपण:=पण्यस्थानम् , 'हाट' इति भापा प्रसिद्धम् , एपा समाहार द्वन्द्वस्तस्मित्तथोरते, अर्थात्-देवकुलादिरूपेऽप्टादशविधे, नथा-'अनमिय ' अन्यस्मिंश्च ‘एरमाइयमि' एवमादिके-एव विधे कथ भूते ? इत्याह-' दगमट्टिय-वीय-हरिय-तस पाण अससत्ते' दकमृत्तिका वीजहरितप्रसप्राणसमक्ते-दकम् जलम् , मृत्तिका प्रतीता, वीजानि= शाल्यादोनि, हरितानि-दुर्गादीनि समाणाद्वीन्द्रियादयः, तैरससक्ते रहिते, पुनः कीदृशे ? 'आहाकठे' यथाश्ते गृहस्थेन स्वार्थ निर्मिते 'फामुए ' प्रामुके -निर्योपे 'विविक्ते-स्त्रीपशुपण्डरहिते, अत एम-' पसत्ये' अगस्ते श्रेष्ठे साधुनिवासयोग्ये 'उस्सए' उपाश्रये-साधुभिः 'पिरियन्ध' विहर्तव्य आश्रयितव्य ' होड' भाति । एतादृशे उपाश्रये साधुभिर्नियासः कर्तव्य इत्यर्थः। स्थान में, उद्यान में-उपवन में, यानशाला में स्थादि गृह में, कुप्यशाला में-गृहोपकरण रखने के स्थान में, मडप में-विश्राम स्थान में-शुन्य गृह में-सूने घर में, श्मशान में-मरघट में, लवन में-पर्वत की तलहटी में निर्मित पापण घर में, आपण में-हाट में (अनमि य एवमाइयम्मि)तथा इसी तरह के दूसरे स्थान में कि जो (दगमहिय-घीय-हरिय-तसपाण अससत्ते) जल, मृत्तिका, बीज, दूर्वा, द्वीन्द्रियादिक प्रस, इन से रहित हो, तथा ( अहाकडे ) जिस गृहस्थ ने अपने निमित्त पनवाया हो, एच जो ( फासुए) निर्दोष हो, तथा (विचित्त) स्त्री, पशु, पंडक से रहित हो और ( पसत्थे) प्रशस्त-साधुजनों के निवास योग्य हो (उवस्सए) ऐसे उपाश्रय मे (होइविहरियव्य) साधुओ को रहना चाहिये। (अहा થાનશાલામા-રથાદિ ગ્રહમા, કુખ્યશાલામા-ગૃહોપકરણ રાખવાની જગ્યામાં, भ उपमा-विश्राम स्थानमा, शून्यमा -सूना घरमा, स्मशानभा (भरघरमा), सयनमा-पतनी तटीमा स्येस पाषाणुधरमा, मापाशुभा-हाटमा, “ अग्नम्मि य एवमाइयम्मि" तथा मे प्रा२ना मन्य स्थानमा २ " दगमहिय-धीय -हरिय-तसपाणअससत्ते" , भाटी, मी इ, द्विन्द्रीया िस से साथी रहित हत्य, तथा “ अहाकड " २ पाताने माट मनाप सन्यु डाय, अन " फासुए " निषि डाय, तथा “ विवित्त" सी, ५२, ५३४थी २हित डाय, मने "पसत्थे" प्रशस्त-साधुबनाना निवासने भाटे योज्य राय " उवस्सए " मेवा उपाश्रयमा “ होइ विहरियव्व " साधुमारी २७ नये "अहाकम्मनहुले य जेसे" भने अाश्रय आधाम मसराय Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ प्रश्नध्याकरण अथ कथम्भूते उपाश्रये साधुभिर्न वस्तव्यम् ? इत्याह-'आदाफम्मबहुले ' आधा कर्मबहुल:=आधोनम्-आधातया, अर्थात् सार्थ यत्मसायोपमर्दनरूप कर्म,तेन बहुलो व्याप्तो 'जे' यः एप विध उपाश्रयो ' से ' स पर्जयितव्य । अनेन अदतादानविरमणलक्षणमूलगुणाशुद्धः परिहारः उक्तः। स दोपरमत्युपभोगेन मूल• गुणहानिर्भवतीति भारः । तथा 'जत्य' यत्र-' अतो' अन्तर्भागे 'चाहिए चहिर्भागे, 'मज्झे य' मध्ये च 'आसियसम्मज्जि मोसित सोहियछाणदुमण लिंपण अणुलिंपण जलगभडचालण ' आसक्ति समानितोसिक्तगोधितछाणधवलनलेपनानुलेपनज्वलनभाण्डचालनम्-ता-आसिक्तम् आसेचनम् उदकादिच्छोटनमित्यर्थः, सम्मार्जितम्-शलारा इस्तेनमार्जन्येत्यर्थः, कच परसशोधनम् , शोधित भित्त्यादि सलग्नजालाद्यपनयनेन शुद्धीकृत 'डाग' छाण उगणनगोमयेन ,सस्करणम् , दुमण' धालन-सेटिकादिना भित्त्यादेरुज्ज्वलीकरणम् , कम्मयहुळे य जे से ) और जो उपाश्रय आधार्म घल हो-साधु के निमित्त पटूकायमदनरूप कर्म से न्याप्त हो-उसमे साधु को नहीं वसना चाहिये । क्यों कि ऐसे उपाश्रय में रहेने से साधु के इस अदत्तादानविरमणरूपमूलगुण की शुद्धि नहीं रहती है। और नही रहने से इस मूलगुण की शुद्धि रहती हैं। तात्पर्य इसका यह है कि सदोपवसति के उपभोग से साधु के मूलगुणों की हानि होती है यही यात "अहाकम्मबिहुलेय जे से" इस सूत्राश द्वारा प्रदर्शित की गई है । तथा (जस्य अतो यहिं सज्झे य ) जो उपाय भीतर में यादिर मे और मध्यभाग में (आसियसमजि ओसित्तसोहिय-छाण-दुमणलिंपण अणुलिंपण-जलणभडचालण) पानी से छिड़का हुआ हो, बुहारु समार्जनी से जहा का कूडा कचरा साफ कर दिया गया हो, भीत आदि पर लगे हुए -जाले - जहाँ उतार दिये गये हो, जो गाय के गोबर से लीपा गया हो, चुने आदि से સાધુને નિમિત્તે છકાય મર્દનરૂપ કર્મથી વ્યાપ્ત હોય, તેમાં સાધુએ રહેવું જોઈએ નહીં કારણ કે એવા ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સાધુના આ અદત્તાદાન વિરમણરૂપ भूण गुणन हानि थाय छे, मे वात "अहाफम्म-बहुले य जेसे " मा सूत्राश द्वारा प्रगट ४२० छे तथा “ जत्य अतो वहिं मज्झे य" २ उपाश्रय म १२, मा२ मन भाय मागमा "आसियसमज्जिओसित्तसोहियछाण दुमणलिंपणअणुलिंपणजलणभ डचालण" पाणी छोटेस हाय, साथी न्यानो કચરો સાફ કર્યો હોય, દીવાલ આદિ પર લાગેલા જાને ત્યાથી ઉતારી લીધા હોય, જે ગાયના છાણથી લીધેલ હોય, ચુના વગેરેથી જેની દીવાલે Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 6 सुदर्शिनी टीका अ ३ सू०६ 'विविक्तवमति नामक प्रथम भावनानिरूपणम् ७०५ 'लिंपण ' लेपनम् = मृत्तिकामिनितगोमयादिना न्यादिपूरणेन सकृल्लेपनम्, ' अणुलिंपण' अनुलेपनम् - शोभा पुनः पुनर्लेप नग् ज्वलन = शीतापनोदनाय वहेः प्रज्वलीकरणम्, भाण्डचालनम् = गृहस्थितभाण्डानामपरत्र स्थापनम् उपलक्षणमेतदन्यवस्तूनामपि एतेषा समाहारद्वन्द्रः एतदूप - ' अमजमो' असजम जीन निराधारूप साधुनिमित्त ' ' वर्तते ' से तारिसे ' स तादृशः 'मुत्तपरिकुट्टे' सूत्रपरिष्टः- आगमनिषिद्ध, 'हु' निश्रयेन 'अस्सए ' उपाश्रयः 'सजयाग समतानाम् ' अड्डा ' अर्थान ' वज्जेयव्त्रो' वर्जितव्यः । सयमि भिरेतादृशे जीवधनायुक्ने उपाय न कदापि नस्तव्यगिति भावः । प्रथमभानानुपसारनाह - ' एवं ' एनम् उक्तरूपेण ' विवित्तवासरसडिस मिडजोगेण ' विविक्तनासनमतिसमितियागेन - विक्ता = स्त्रीपशुपण्डकरहिता जनरहिता वा या जिसकी भीते पोतकर उज्ज्वल कर दी गई हों, जिनमें छेद वगैरह गोवरमिश्रित मिट्टी से पर दिये गये हों, तथा जो वार २ सुन्दर दिखाने के निमित्त गोमयादि मिश्रित मृत्तिका से लीपा गया हो, जहा शीत को दूर करने के लिये अग्नि जल रही हो और जहा से रखे हुए गृहस्थजनों के वर्तन उठा २ कर दूसरी जगह रखे जा रहे हो इस प्रकार का (असजमो वट्टड) जीवविराधना रूप अमयम जहा साधु के निमित्त हो रहा हो ( से तारिसे ) इस प्रकार का जो ( सुत्तपरिकुट्टे ) आगम से निषिद्ध है (उस्स) वह उपाश्रय ( सजयाण अट्ठा) साबुओ के लिये ( वज्जेयव्वो) वर्जनीय है, अर्थात् इस प्रकार के उपाश्रय में साधु को नहीं वसना चाहिये । अव सूत्रकार प्रथम भावना का उपसहार करते हुए कहते है -- (एव) उक्तरूप से इस ( विवित्तवासवसहिसमिइजोगेण) विविक्तवासवसतिसमिति के योग से - स्त्री पशु पडक से ઉજ્જ્વળ મનાવવામા આવી હાય, જેમાના છિદ્રો આદિ છાણુમિશ્રિત માટીથી પૂરી દીધા હાય, તથા જે સુદર દેખાય તે માટે વારવાર છાણુ આફ્રિ મિશ્રિત માટીથી લીપવામા આવેલ હાય, જ્યા શીત દૂર કરવાને માટે અગ્નિ ખળતા હાય, અને જ્યાથી ગૃહસ્થેાના વાસણ ઉપાડી ઉપાડીને બીજી જગ્યાએ મૂકવામા भावता होय, मी अजरनो " असजमोह " જીવ વિરાધનારૂપ અસ યમ न्या साधुने निमित्ते थ रह्यो होय, ' से तारिसे " या अस्तु ?" सुत्त परिकुट्टे " भागमद्वारा निषिद्ध छे, " ते उपाश्रय नवस्सए ८८ सजवाण अट्ठा साधुमने भाटे ' वज्जेयच्वो " वर्तनीय छे भेटले ते प्राश्ना उपाश्रयभा સાધુએ રહેવુ જોઇએ નહી હવે સૂત્રકાર પહેવી एव ઉપર કહ્યા પ્રમાણે આ 6 27 ભા“નાના ઉપમહાર કરતા विवित्तवासवस हिसमिइजोगेण उडेछ- " "" ८८ "" Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ प्रश्नव्याकरणसूत्रे ' वासनसति निवासस्थान तद्विपया या समितिः = मस्यरु मतिस्तया यो यांगः= सम्बन्धस्तेन ' भानिओ ' भारितः प्रासितः 'अतरप्पा' अन्तरामा=जीवः ' निच्च नित्य-सदा 'अधिगरण करणापानम्मरि अधिकरणकरण कारणपापकर्मनिरतः - अधिक्रियते = अधिकारी क्रियते दुर्गतानात्मा येन तदधिकरणम् = आसिञ्चनादिरूप सावधानुष्ठानम् तस्त्र यत्स्वयकरणमन्यतो ना कारणम् - उपलक्षणादनुमोदन च तदेव पापमै तस्माद् निरतो नित्तयः सः तोक्तः, तथा - ' दत्तमणुष्णाय उग्गहरुई ' दत्तानुनावोद्गृहरचिः ' तत्र दत्तस्य = ढात्रा वितीर्णस्य एपणीयस्य अनुज्ञातस्य = नीर्यकरगणधरदेचास्य देव उग्र= ग्रहणे रुचिः प्रीतिर्यस्य स तथोक्त दशाननुज्ञात रमतेर परिभोक्तेत्यर्थ, , भवइ' भाति || मु०६ ॥ 1 रहित ऐसे एकान्त निवास स्थान में बसने रूप समिति के सबध से (भाविओ अतरप्पा ) भवित जीव ( निच्च) सदा ( अहिगरणकरण कारावणपावकम्मर ) आसिंचनादि सावधानुष्टान के करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्म से निवृत्त बना रहता है । तथा (दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई) दाता से वितीर्ण, एव तीर्थंकर गण पर आदि देवों द्वारा बसने के लिये अनुज्ञात हुए ऐसे देवकुल आदि स्थान के ग्रहण में प्रीतिवाला होने से वह दत्तानुज्ञात वसति के ग्रहण की रुचि वाला अर्थात् अदत्त अननुज्ञान वसनि का अपरिभोक्ता होता है । भावार्थ - अदत्तादानविरमणव्रत की रक्षा और सुस्थिरता के निमित सूत्रकार इस सूत्र द्वारा इसकी पाच भावनाओं में से विविक्तवासवसति नाम की प्रथम भावना का स्वरूप प्रकट करते हुए कहते हैं વિવિક્તવાસવસતિ સમિતિના ચેાગથી સ્ત્રી, પશુ, પડકથી રહિત એવા એકાન્ત निवास स्थानमा वसवाइय समितिना सण धथी " भाविभो अतरप्पा " लावित જીવ "' firea " સા अहिगरणकरणकारावणपावकम्मविर " मार्सियनाहि સાવદ્ય અનુષ્ઠાન કરવાથી, કરાવવાથી અને તેની અનુમેદ્યનારૂપ ૫ પમાઁથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તથા दत्तमणुण्णाच उग्गहरुई " हातानी वितीर्थ, भने तीर्थ ४२ ગણધર આદિ દેવેદ્વારા વસવાને માટે અનુજ્ઞા મળેલ એવા દેવકુલ આદિ સ્થાન ગ્રહણુ કરવામા પ્રીતિયુકત હાવાથીતે દત્તાનુજ્ઞાત વસતિને ગ્રહણ કરવાની રુચિવાળો એટલે અદત્ત અનનુજ્ઞાત વસતિના ઉપભોગ કરનાર અને છે ભાવાર્થ-અદ્યત્તાદાન વિરમણ વ્રતની રક્ષા અને સુસ્થિરતાને નિમિત્તે સૂત્રકાર આ સૂત્રદ્વારા તેની પાચ ભાવનાએમાથી “ વિવિકતવાસવસતિ ” નામની પહેલી ભાવનાનુ સ્વરૂપ પ્રગટ કરતા બતાવે છે. સાધુઓએ દેવકુલ આફ્રિ ८८ Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी३ अ०३ टीका सू०६ विविक्तप्रसति'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ७४७ कि साधु को देवकुल आदि स्थानो मे जो कि उसके निमत्त को लेकर नहीं नने हुए होते है ठहरना चाहिये या किसी उपाश्रय में। यह उपा श्रय सायु के निमित्त पना नहीं होना चाहिये, गृहस्थ ने इसे अपने निमित्त बनाया हो ऐसा होना चाहिये। साधु के निमित्त बनाने में साधु को सावयानुष्ठान कराने रूप असयम का दोप लगता है। स्त्री पशु पटक से इस स्थान को वर्जित होना चाहिये। तथा 'साधु महाराज आ रहे हैं इस रयाल से साधु का निमित्त लेकर वह पानी से छिड़का हुआ नहीं होना चाहिये, वहा के जाले वगैरह उतारे हुए नहीं रोना चाहिये । गोनर आदि से लीप पोत कर उसे साफ सुथरा किया गया नही होना चाहिये । उसमें की शीत को दूर करने के लिये वहा अग्नि वगैरह जलाकर उसे गरम किया हुआ नहीं होना चाहिये, इत्यादि जिस रूप से आगम में साधु के लिये निवास योग्य वमति रहने के लायक कही गई है वह 'उस रूप का होना चाहिये । तभी जाकर यह प्रथम भावना पल सकती है। और इस तरह की प्रवृत्ति करने वाला साधु अपने अदत्तादानविरमणव्रत की रक्षा और सुस्थिरता कर सकता है। सूत्र में जो अधिकरण शब्द आया है उसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ "दुर्गति मे जाने योग्य आत्मा जिसके बल पर बनता है।" સ્થાને, કે જે તેમને નિમિત્તે બનાવ્યા હતા નથી, તેમાં વસવું જોઈએ અથવા તે કઈ ઉપાશ્રયમાં વસવું જોઈએ તે ઉપાશ્રય સાધુને નિમિત્તે બનાવેલ હોવા જોઇએ નહીં. પણ ગૃહસ્થે પિતાને નિમિત્તે જ તે બધાવેલા હોવા જોઈએ સાધુને નિમિત્તે બનાવવામાં સાધુને સાવધ અનુષ્ઠાન કરાવવા ૩૫ અસ યમને દેષ લાગે છે સ્ત્રી, પશુ પડકથી તે સ્થાન રહિત હોવુ જોઈએ તથા “સાધુ મહારાજ પધારવાના છે ” એવા ખ્યાલથી સાધુને નિમિત્તે તેના પર પાણી છ ટાગ્યુ હોવુ જોઈએ નહીં, ત્યાના જાળા વગેરે ઉતારેલ હોવા જોઈએ નહીં છાણ આદિથી લીપીને તેને સ્વચ્છ અને સુઘડ બનાવ્યો હવે જોઈએ નહીં ત્યાની રીતને દૂર કરવા માટે ત્યાં અગ્નિ વગેરે સળગાવીને તેને ગરમ કરેલ હોવો જોઈએ નહી, ઈત્યાદિ પ્રકારે જે રીતે આગમમાં સાધુને માટે ગ્ય નિવાસ બતાવવામાં આવેલ છે તે પ્રકારનુ તે નિવાસસ્થાન હોવું જોઈએ ત્યારે આ પહેલી ભાવના સફળ થાય છે અને તે પ્રકારની આ પ્રવૃત્તિ કરનાર સાધુ પિતાના અદત્તાદાન વિરમણનતની રક્ષા અને સુસ્થિરતા રાખી શકે છે. સૂત્રમાં જે અધિકરણ વાદ આવ્યા છે તેને વ્યુત્પત્તિ પ્રમાણે મળતો અર્થ “જેના naash na na man" ....... आय सा Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७४८ प्राण्याकरणसूत्रे द्वितीयां भावनामाह-पीय' इत्यादि । मूलम्-वीयं आरामुजाणकाणणवणप्पदेनभागे जं किंचि इक्कड वा कढिणग वा जतुग वा परमेरकुच्चकुसडभप्पलालभूयगवल्लयपुप्फफलतयप्पवालकंदमूलतणकदृसकराइ गेण्हइ सेज्जोवहिस्स अट्टा, न कप्पइ उग्गहे अदिपणम्मि गेण्हिडं, जे हणि हणि उग्गहं अणुपणविय गेण्हियव्यं । एवं उग्गहसमिइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा णिच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहई ॥ सू०७॥ टीका-वीय द्वितीयाम् अनुज्ञातसस्तारकग्ररणरूपा भावनामाह तन-आरामुज्जाणकाणणवणप्पदेसभागे ' आरामोशनकाननानप्रदेशभागे-तत्र-आरामः - इस प्रकार है। आसिश्चनादिकर्म ऐसे ही है, क्यो की ये सावद्यानुष्टान हैं। करना, कराना और अनुमोदना करना इनका व्रतादि के विचार में समानकोटि का स्थान कहा गया है, अतः साधु के लिये आसिञ्चनादि कर्म यदि साधु के निमित्त को लेकर किये जा रहे है तो वह भी सावद्यानुष्टानरूप असयम का भागी धनता है। अतः साधु को ऐसे सावद्यानुष्टानरूप असयमभावसे दूर रहने का प्रभुका आदेश है ।।सू० ६॥ अघ सूत्रकार द्वितीयभावना को प्रकट करते हैं-'बीय आरामुजाण' इत्यादि। टीकार्थ-(बीय) इस व्रत की दूसरी भावना अनुज्ञातसस्तारकग्रहण रूप है। वह इस प्रकार है-(आरामुज्जाणकाणणवणप्पदेसभागे) સિંચનાદિ કર્મ એવા જ છે કારણ કે તે સાવધ અનુષ્ઠાન છે કરવું, કરાવવું અને અનુમોદના આપવી એ ત્રણેનું વ્રતાદિકના વિચારમા સમાન કોટિનું સ્થાન આપ્યું છે, આસિંચનાદિ કર્મ જે સાધુને નિમિત્તે કરવામાં આવતા હોય તે તે સાધુને માટે પણ સાવદ્યાનુષ્ઠાનરૂપ અસયમના ભાગીદાર બને છે તેથી પ્રભુને એવો આદેશ છે કે સાધુઓએ તેવા સાવદ્યાનુષ્ઠાનરૂપ અસયમ ભાવથી २ २ ने ॥ सू० ६ ॥ हवे सूत्रा२ मील मानाने प्रगट ४३ छ-"बीय आरामुज्जाण" त्या ___ -"धीय " मा प्रतनी भी माना "अनुज्ञात मस्ता२४ अड) ३५ छ, ते या प्रमाणे छे-' आरामुजाणकाणणवणप्पदेसभागे" भाराभ Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 16 " " सुदर्शिनी टीकाद्य०३ स् 9 'अनुज्ञातसस्तार ग्रहण' नाम २ भावनानिरूपणम् ७४५ माधवीलतादिपरिमण्डितनविशेषः, उद्यानम् = उपवनम् कानन = सामान्यवृक्षोपेत वनम्, वनम् = नगरदूर चर्चिनम्, एतेषा य प्रदेश: = स्थान तस्य यो भागः = एक देशस्तत्र स्थित 'इक् ढाण' इति भाषा प्रसिद्ध तृणविशेष चा=अथवा 'कढिग ' कठिन = ' रोइस ' इति भाषा प्रसिद्ध गुणविशेषः वा, यद्वा-' जतुग ' जन्तुक= जलाशयोत्पन्नगुणविशेषम् =अथना 'परमेरकुच्चकुसडग्भप्पलालमूयग चलयपुप्फफटतयप्पबाल कद मूलवणक सफराह' परमेरकूर्च कुशदर्भपलाल मूयकवलवज पुष्पफलवक्रम पालकन्दमूलराष्टशर्करादि, तंत्र - परा : तृणविशेष, मेरा:मुब्जसरिका. कूर्चानि यैस्तृणविशेषैः भित्तौ सेटिकावलेपनार्थ कृर्चा ( कूँची ) निर्मीयन्ते ते तृणविशेषाः कृशाः = स्वाकारास्तृणविशेषा, दर्भाः दीर्घाकाराः कुशाएव दर्भा उच्यन्ते, पलाल:= ' पुआल ' इति भापाप्रसिद्धः, मूयकः = ' मोति - गा' इति भाषा प्रसिद्धस्तृणविशेषः, चलवजः =दर्भजातीयतृणविशेषः, पुष्फफल त्वमवाल कन्दमूलतृणकाष्ठशर्कराः प्रतीताः, एता आदौ यस्य तत्तथोक्त 'ज आराम - माधवीलता आदि से परिमंडित चनविशेष में, उद्यान- उपवन में, कानन - सामान्य वृक्षों से युक्त वन मे, वन - नगर से दूरवर्ती जंगल में, अर्थात् इन स्थानों के प्रदेशों के एकदेश में स्थित ( ज किंचि ) जो कुछ (इकड़ वा ) ढाढूण - तृणविशेष, अथवा ( कढिणग वा ) कठि - नक- रोडस नामक तृणविशेष, अथवा ( जतुग वा ) जतुक - जलाशय मेंउत्पन्न हुए जतुक नाम के तृणविशेष, ( पर - मेर - कुच - कुस - ङभप्पलाल - मूयग-वलय- पुष्फ-फल-तय- प्पवाल - कद-मूल--तण-कठ्ठसक्राइ) पर नाम के तृणविशेष, कुश नामक तृणविशेष, दर्भनामक तृणविशेष, पलाल नामक तृणविशेष, मोर्निंग नामक तृणविशेष, वल्वज - दर्भ - जाति का तृणविशेष, पुष्प, फल, त्वक्-डाल, प्रवालभाधवीसता माद्दिथी भारछाहित वनमा, उद्यान - भागभा, जनन-सामान्य वृक्षोथी યુક્ત વનમા, વન-નગરથી દૂર આવેલા જગલમા, એટલે કે તે સ્થાનેાના प्रदेशोभाना भेट देशमा, स्थित " ज किचि " ? अ " " इकड वा ढाढ़ शुभेड प्रान्नु घास, अथवा " कठिणग वा " निरोधसनाभनु मे अरनु ઘાસ અથવા जतुग वा જ તુક–જળાશયમા પેદા થયેલ જતુક નામનુ ઘાસ 16 ܕܕ "पर, मेर, कुञ्च, कुस, डब्भ, प्पलाल, मूयग, वल्लय, पुप्फ, फल, तय, पवाल, कद, मूल, तण, क्ट्ठ सकराइ" ५२ नामनु घास, भैर-भुन्ट नाभनु ઘાસ, કુશ નામનુ ઘાસ, દ` નામનુ ઘાસ પલાલ નામનુ ઘાસ, મેર્લિંગ નામનુ घास, वल्व४-हर्लनी लतनु घास, पुण्य, इण, वडू-छास, अवास-डुं यज, Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ مای प्रमध्याकरण किंचि' यत्किचित् ' सेज्जीबहिस्स' शग्योपधेः भग्योपकरणस्य 'अट्ठा' अर्या य हेतवे 'गेण्हइ' गृहानि, तत् ' उग्गहे ' अपनहे-आशायाम् 'अदिणे' अ दत्ते अदत्तायाम् , अर्थात् तत्तद्वस्तु सामिन आयाममाप्तया सत्या' गेण्हिउ' ग्रहीतु साधूना 'न कप्पइ ' न कल्पते, 'ने' यत्-यम्मात् कारणात् 'इणिहगि' अहन्यहनि प्रतिदिनम् ' उग्गई ' अपग्रहम् 'अणुणपिय' अनुशाप्य प्राप्य तत्तस्तु साधुभिः 'गेण्डियय ' ग्रहीतव्य भाति । उपसहरनाह-परम् अनेन प्रकारेण 'उग्गहसमिइजोगेण' अवग्रहसमितियोगेन-मनग्रहः-शम्योपध्यर्थ तृणाघादा नस्य तत्तत्स्वामिन आशा तन या समिति.सम्यहमचिस्तया यो योग-सबन्धस्तेन भावितोयासितः । अतरप्पा' अन्तरात्मा जीयो नित्यम् , ' अहिर कोंपल, कन्द, मूल, तृण-सामान्य तृणविशेप, काष्ठ-लकड़ी, शर्कराककड, इनमें से जिस किसी पदार्थ को जो (सेज्जोवहिस्स अट्ठाण गेण्इ) शय्योपकरण के निमित्त लेता है, परन्तु ( उग्गहे अदिण्गम्मि गेण्हिउ न कप्पड) इन २ वस्तुओं के स्वामी यदि उन • वस्तुओंको लेने की आज्ञा नहीं देते हैं तो साधुको इन वस्तुओंफा लेना नहीं कल्पता है (जे) इसलिये जो (हणि हणि उग्गह अणुण्ण वि य नेटिव) प्रतिदिन उन २ वस्तुओं को लेनेके लिये उनर वस्तुओंके स्वामी की आज्ञा साधु को लेनी चाहिये, और आज्ञा प्राप्त हो जाने पर ही उन२ वस्तुओं को लेना चाहिये। (एव उग्गहसमिहजोगेण भाविओ अतरप्पा निच्च अहिकरण, करण कारावणपावकम्मविर दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवह) इस प्रकार से अवग्रहसमिति के योग से-शय्योपधिके निमित्त तत्तद्वस्तुओं के स्वामी की आज्ञा प्राप्तकर तृणादि को के लेने मे सम्यक् प्रवृत्ति के साथ सबध કદ, મૂળ, તૃણ સામાન્ય ઘાસ, કાષ્ઠ–લાકડા, શર્કરા–કકડ, તે બધામાથી કઈ पर पहायने रे " सेज्जोवहिस्स अट्टाए गेहद" शय्या मनापाना साधन तश से छ, ५g “ उग्गहे अदिण्णम्मि गेण्हिउ न कप्पइ" aa वस्तुमाना માલિક જે તે તે વસ્તુઓ લેવાની રજા ન આપે તો સાધુઓને તે વસ્તુઓ सेवा ४६५ती नथी "जे' तथी "हणि हणि उगह अणुण्णविय गेण्डियन्व" प्रात દિન તે તે વસ્તુઓ લેવાને માટે તે તે વસ્તુઓના માલિકની મજૂરી સાધુએ सेवा मे, मने भभूरी भण्या पछी ते ते वस्तु देवी " एव उग्गह समिइजोगेण भाविओ अतरप्पा निच्च अहिकरण, करणकारावरणपावकम्म विरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवइ" मा प्रभाये अपड समितिना यायोશપધિને નિમિત્તે તે તે વસ્તુઓના માલિકની આજ્ઞા મેળવીને તૃણાદિકોને Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शिनी टोका स०३ सू०७ 'अनुझान सस्तारकगृहण' नाम२ भावना निरूपणम् ७५१ णकरण कारावणपात्र कम्पनिरए ' अधिकरणकरण कारणपापकर्मनिरतः तत्र अधि करणम्=अननुज्ञातेकडादीनामादानरूप साग्द्यकर्म तस्य यत्स्य करणम् अन्यतश्च कारणम् उपलक्षणादनुमोदन च, एतद्रूप यत्पापकर्मतस्माद् निरतो नित्तो यः स वयोक्तः, तथा-' दत्तमणुण्गायउग्गहरु दत्तानुज्ञातावग्रहरुचिः = दत्तस्य = वस्तु स्वामिना वितीर्णस्य, अनुगातस्य ग्रहणार्थं कथितस्य तीर्थकरगणधरैराज्ञप्तस्य वां तृणादिवस्तुनः उद्ग्रहः = ग्रहण, तस्मिन् रुचिः अभिप्रायो, यस्य स तथोक्तः, भाइ' भवति ॥ मृ० ७ ॥ " " से, भावित हुआ जीव सदा सावधानुष्ठान के करने, कराने और उसकी अनुमोदनाजन्य पापकर्म से निवृत्त वना रहता है। तथा दाता से वितीर्ण एव तीर्थकर गणधर आदि देवों द्वारा ग्रहण करने के लिये कथित के ग्रहण करने के अभिप्राय वाला होता है । इम तरह इकड आदि चस्तु उसकी अनुजात सस्तारक ग्रहणरूप द्वितीय भावना लघ जाती है। भावार्थ-सूत्रकार ने इससूत्र द्वारा इस व्रत की अनुज्ञात संस्तारक ग्रहण नामक दूसरी भावना का उल्लेख किया है । इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि साधु का कर्तव्य है कि वह शय्योपकरण के निमित्त आराम आदि स्थानों के किसी भी भाग से जो ढक्कड आदि वस्तुए लेवे वर उनके स्वामियों की आज्ञा प्राप्त कर ही लेवे । अन्यथा उसे अदशादान ग्रहण करने का दोष लगेगा जो इस मूलगुण की अशुद्धि का कारण बनेगा। अतः जो शय्या सस्तारक के निमित्त इक्कड आदि तृणविशेषो લેવાની સમ્યકૢ પ્રવ્રુત્તિના ચેાગથી, ભાવિત થયેલ જીવ સદા સાવઘાનુષ્ઠાન કરાવવાના અને તેની અનુમાદના કરવાના પાપકર્માંથી નિવૃત્ત રહ્યા કરે છે તથા દાતા વડે વિતીણુ અને તીર્થંકર ગણધર આદિ દેવેશ દ્વારા ગ્રહણ કરવાને ચેાગ્ય કહેલ ઇક્કડ આદિ વસ્તુ ગ્રહણ કરવાના અભિપ્રાયવાળા થાય છે. આ રીતે તેની અનુજ્ઞાત સસ્તારક ગ્રહણુરૂપ બીજી ભાવના સાધ્ય અને છે W ભાવા—સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા આ વ્રતની ‘અનુજ્ઞાત મસ્તારક ગ્રહણ” નામની ખીજી ભાવનાનુ સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તેમા એ સ્પષ્ટ કરવામા આવ્યુ છે કે સાધુતુ તે કર્તવ્ય છે કે તે શય્યાના સાધન નિમિત્તે આરામ આદિ સ્થાનાના કોઈ પણ ભાગમાથી ઈક્કડ આદિ જે વસ્તુઓ લે તે તેના માલિકની રજા મેળવીને જ લે નહી તે તેમને અદત્તાદાન ગ્રહણ કરવાના દોષ લાગે છે, જે આ મૂલગુણની અશુદ્ધિનુ કારણુ ખનશે તેથી શય્યા સસ્તારકને નિમિત્તે ઈકડ સ્માદિ પ્રકારના તૃણુ વિશેષને પ્રાપ્ત કરવાને માટે જે સાધુએ તેના માલિકની Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५२ - - - ___ अथ तृतीया भावनामाह-'तइय' इत्यादि मूलम्-तइय पीढफलगसेज्जासथारगट्टयाए रुक्सान छिदियवा, न य छेयण भेयणेण य सेना कारियव्वा जस्सेव उवस्सए वसेज्जा, सेज्ज तत्थेव गवेसेज्जा, न य विसम सम करेज्जा, न य निवायपवायउस्सुगत्त, न उसमसगेसु खुभियव्वं,. अग्गीधूमो य न कायव्यो । एवं सजमवहुले सवरवहुले संवुडवहुले समाहिबहुले धीरे काएण फासयते सययं अज्झाणजुत्ते समिए एगे चरेज्ज धम्म, एव समिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुन्नाय उग्गहरुई ॥ सू० ८॥ टीका-'तइय' तृवीया शग्यापरिकर्मनिरूपा मारनामाह-तत्र- पीढफलग सेज्जासथारगट्टयाए' पीठफलफशग्यासस्तारकार्यतायै-तत्र-पीठ- बाजोट' को प्राप्त करने के लिये उनके स्वामीयो की आज्ञा प्राप्तकर उन २ वस्तु ओं को लेता है वह इस द्वितीय भावना का पालक होता है। इस तरह के विचार से जो साधु अपनी प्रवृत्ति करता है वह अधिकरण करण कारण पापकर्म से निवृत्त बनकर इस व्रत को इस भावना द्वारा स्थिर करने वाला हो जाता है ।। सू०७॥ अप सूत्रकार इस व्रत की तृतीय भावना को कहते हैं-'तइय पीढफलग.' इत्यादि। टीकार्थ-(तइय) इस व्रत की तीसरी भावना शय्यापरिकर्मवर्जनरूप है। वह इस प्रकार से है-(पीढफलगसेज्जा सथारगट्टयाए) આજ્ઞા લઈને તે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરે છે તેઓ આ બીજી ભાવનાના પાલક હોય છે આ પ્રકારના વિચારથી જે સાધુ પિતાની પ્રવૃત્તિ કરે છે તે અધિકરણ કરણકારણ પાપકર્મથી નિવૃત્ત થઈને આ વ્રતને આ ભાવના દ્વારા સ્થિર કરનાર બની જાય છે. સૂ૦ ૭ છે व सूत्रा२ २॥ व्रतनी श्री भावना सतावे -"तइय पीढफलग" त्यादि ---" तइय " मा प्रतनी श्री लावना " शय्यापरिभवन" नामनी छ त मा प्रभारी छ-" पीढफलगसेज्जासथारगढ़या " पी:-Hima, Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०३ सू०८' शव्यापरिकम वजन'नामकतृतीयभावनानिरूपणम्७५३ इति मापा प्रसिद्ध, फला. पाट' इति भाषा प्रमित , शरया-शरीरममाणा, सस्तारका साहस्तद्वयममाण आमनविशेषः, तदर्थ 'सखा' वृक्षाः 'छिदियव्या' देत्तव्य । न य' न च 'यणभेयणेग ' छेदनभेदनेन छेदन=तद्भू म्याश्रितरक्षाणा ननम् , भेदन-यापाणादीना द्विधाकरणम् , अनयो समाहारः तेन तथोक्तेन च ' सेज्जा' शग्या 'न कारिया'न कारयितव्या परः । तथा 'जरसेन ' यस्यैव गृहपतेः ' जस्साए ' उपाश्रये असतो 'वसेज्जा' वसेत् , । तत्र ' तत्र 'सेन्ज' मां--शयनीय 'गवेसेज्जा' गवेपयेत्= कुर्यादि । च-पुनः 'नय वि सममा करेना' विपमा भूमि समां कुर्यात् । 'न य' न च 'निवायपवागउम्मुगत्त' निवातप्रवातोत्सुकत्यम्-निवात-निर्वातस्थानम् , मगाव-मटवायुस्मानम् , ता-उन्मुकत्यम्-उत्सुकता ' न करेज्जा' पीठ-बाजोट, फलक-पाट, गग्या-शरीरप्रमाण, सम्तारक-ढाई हाथप्रमाग मारननिशेप, माधु सबधी इन वस्तुओं को बनवाने के निमित्त (रूकता न डिदियन्या ) वृक्षां को नहीं काटना चाहिये। और (न य छेयण-भेयणेण सेज्जा कारियन्वा) न उनके छेदन, भेदन से शय्या करवानी चाहिये । वृक्षों का कटवाना इसका नाम छेदन है और उनका फडयाना इसका ना भेट्न है । तथा (जस्सेन उवस्सए वसेज्जा सेज्जतथेच गवेसेज्जा) जिस गृहपति के (उवस्सए) उपाश्रय में-वसतिस्थान में साधु (वसेजा) क्से-रहे, (तत्थेव) वही पर अर्थात-उसी मकान मालिक से अथवा उसी वस्ती से (लेज्ज गवेसेज्जा) शय्या की गवेपणा करे न य निसम सम करेजा) वहा की भूमि को यदि वह चिपम-ऊदी नीवी होवे तो उसे सम-एकसी न करे, और (न य निवाय पोय उस्सुगत) न वह निर्वान स्थान की तया प्रघात स्थान की ફલક-પાટ, પચ્ચા-નારીરપ્રમાણુ, સસ્તારક-અઢી હાથના માપનું એક આસન, माहि साधुने उपयोगी थान मानावाने मट" रुक्खा न छि दियव्वा" वृक्षोने 14 से नही, मन “न य छेयण भेयणेण सेज्जो कारियव्वा "तभन છેદાવી ભેદાવીને રામ્યા કરાવવી જોઈએ નહી વૃક્ષોને કપાવવા એટલે તેમનું छन मन तेभन ३२॥ तेनु नाम लेहन छ, तथा “ जस्सेव उवस्सए वसेज्जा सेज तत्येव वेसेज्जा" २ तिना “उवस्सए " पाश्रयभा पतिभ्यान साधु वसेज्जा " मे २९, " तस्थेव" त्या सरोवर मानमावि पासेथी अथवा ते पस्तीमाथी " सेज्ज गवेसेज्जा" शय्यानी गवेषण। ४३ ' न य विसम सम करेजा" त्यानी मीन विषम-जयी नीची डाय तो तेने असणी न ४२ अने " न य निवाय पवाय उस्सुगत्त" Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७५४ प्रश्नध्याकरणसूत्र न कुर्यात् । अय भार -शीती निनिस्थानस्य ग्रीमती मातम्यानस्य पान्छा न कुर्यात् । इति । 'न य'नच 'उसमगेमु' दशमापु मत्सु 'सुभियन्व' क्षोभितव्यम् , दशमशकादीनामुपदरे सत्यपि पोमो न कर्तव्य इति भावः । तथा' अग्गीमो य ' अग्निर्धमश्र-दशमगकाटीना निवारणार्यमग्निधूमो या 'न का. यन्यो' न कर्तव्यः । एपम्-उक्तस्पेण 'सनमबहले ' सयमनालासयमा पट कायरक्षणलक्षण , स पहल प्रचुरो यस्य मतथोक्तः, तपा-सपरपहले ' सबर बहुल सरापागातिपाताधासमहारनिरोपा, स बहुप्रचुरो यस्य सत थोक्ता, तथा-'संयुड पहले ' सटतरहुल सहतपायेन्द्रियजयः, तद् बहुल प्रचुर यस्य स तथोक्तः, तथा-' समाहिपहले' समाधिपहल:=पमापि चित्त स्वास्थ्य, स बहुल• प्रचुरो यस्य स तथोक्तः, एतागो धीरे धीर-अक्षोभ्य' 'काएण' कायेन 'फासयते' स्पृशन्-परीपहान् गहमानइत्यर्थः, तथा-'सयय' उत्सुकता-भावना रखे अर्थात् शीतऋतु में निर्वातस्थान की ओर ग्रीष्म ऋतु में हवादार स्थान की इच्छा न करे। तथा-(न उसमसगेसुखुभियव्व ) ठहरे हुए स्थान में दशमशक आदि का उपद्रव होवे ता उससे उसको क्षभित नहीं शेना चाहिये। और (अग्गी धूमो न काययो) न उल स्थान पर उन दशाशक आदि को भगाने के निमित्त अग्नि वा धूओ करवाना चाहिये। (एच) इस प्रकार की प्रवृत्ति रखने से (सजमबरले) षट्काय रक्षणरूप सयम की प्रचुर मात्रा स युक्त सयम पहल, तथा (सबरबहले ) प्राणात्तिपात आदि आत्रव द्वार के निरोध रूप सवर की प्रचुर मात्रा से सरित होने के कारण सवर बहुल, तथा ( सवुडवले) कपाय और इन्द्रियों के जीतने रूप सवृत की प्रचुर मात्रा से रहित होने के कारण सवृतबहुले, तथा તે નિર્યાત સ્થાનની કે પ્રવાસસ્થાનની ઉત્સુકતા રાખે નહી, એટલે કે શિયાળામાં પવન વિનાના સ્થાનની અને ઉનાળામાં હવા આવે તેવા સ્થાનની તેણે ઈચ્છા २वी नडी तथा "न डसमसगेसु खुमियव्य" तेमन यालवाना स्थानमा स भ-७२ माहिनी पद्रव हाय तो तथा तेहए क्षोम पाम नही मने " अग्गी भूमो न कायवो" भरे ते अस, भ२७२ साहिन सा31 माटते स्थानमा અગ્નિ કે ધુમાડે કરાવો જોઈએ નહી ઇ » આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ रामपाथी "सजम बहुले " ७४१५ २क्षय३५ सयभनी अत्यत मात्राथी युत सयमाहुर तथा " सबरबहुले" प्रातिपात मामासारना निश५३५ सपनी sी मात्राथी युक्त पाने जारहरी स२पडल, तथा " सबुडबहुले" કષાય અને ઇનિદ્રાને જીતનાર સવૃતની અતિ અધિક માત્રાથી યુક્ત હોવાને Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिशी टीका १०३ भू० शय्यापरिचर्मवर्जन'नामातृतीयभावनानिरूपणम्७५५ सततम्-निरन्तरम् , ' अज्ञप्पज्झाणजुत्ते' अध्यात्मध्यानयुक्तः आत्मानमधिकृत्य अध्यात्मम् आत्मालम्बनल्प यः यान तेन युक्त समन्वितः, तथा-' समिए' समिता समितिभिर्युक्त 'एगे' एक. एकाकी रागद्वेपरहित , 'धम्म' धर्म श्रुवचारित्रलक्षण ' चरेज्ज' चरेत् आचरेत् । उपसहरनाह-' एवम् ' प्रकारेण 'सिज्जासमिडजोगेण ' शग्यासमितियोगेन भारितोऽन्तरात्मानित्यम् , ' अहिक रण करणाराग्णपापम्मपिरए' अधिकरणकरणकारणपापकर्मविरत अधिकरण= शय्यापरिकल्पनायें वृक्षादीना छेदनभेदनरूप यत्मावद्य कर्म, तस्य यत्स्वय करणम्, अन्यतश्च कारण उपलक्षणत्वादनुमोदन च तद्प यत्पापकर्म ततो विरतोनिवृत्तो यः स तधोक्त , तथा-दत्तानुज्ञातानग्रहरुचिः दत्तानुज्ञातैपणीयपीठफलकादेरुपभोगकारी भाति ।। सू-८ ॥ (समाहियाले ) चित्त की स्वस्थतारूप समाधि की प्रचुर मात्रा से सहित होने के कारण समाधि पठुल, बना हुआ वह साधु (फासयतेकाण्णधीरे ) परीपहो को मरते हुए शरीर से धीर-अक्षोभ्य बना रहता है। तधा (सयय अज्झप्पज्जाणजुत्ते) निरन्तर आत्मावलम्बन रूप ध्यान से युक्त बना हुआ वह साधु (समिए) पाच समिति के पालन से (एगे) अकेला रागद्वेप रहित होकर (धम्म चरेज्ज) श्रुतचारित्ररूप धर्म का आचरण करता रहता है (एच) इस प्रकार से (सेज्जासमिहजोगेण ) शय्यासमिति के योग से (भाविओ अतरप्पा) भावित हुआ जीव ( निच्च) नित्य (अहिकरणकरणकारणपावकम्मविरए) शय्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादिकों के छेदन भेदन रूप सावद्य अनुछान के करने दूसरों द्वारा कराने तथा अनुमोदना रूप पापकर्म से निवृत्त १२) सतमस, तया “समाहिबहुले " चित्तनी स्वस्थता३५ समाधिया मत्यत प्रभामा युद्धत डावाने सरणे समाधि , मनेसते साधु " फासयते काएणधीरे" पपलाने मडन ७२ता उता शरीरया धीर-क्षोलरहित २ छ तथा " सयय अज्झप्पज्जाणजुत्ते " निरत२ मामा मन३५ ध्यानी युक्त मनेर त साप " समिए " पाय समितिना पसनथी " एगे" असा रागद्वेष २डित थधन " धम्म चरेज" श्रुतयारित्र३५ धनु मान्य२५ उर्या ४२ छ “ एव" मा शत "सेज्जा समिइ जोगेण" शय्यासमितिना योगथी "भाविओ अतरप्पा" भावित थयेस ७५ " निच्च" नित्य "हिकरणकरणकारणपावकम्मविरए" शय्या પરિકલ્પના વૃક્ષાદિના છેદન ભેદનરૂપ સાવધ અનુષ્ઠાન કરતા, બીજા પાસે ४२पता तथा मनुभाहना३५ पा५४थी निवृत थ य छे तथा “दत्तम-' Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्रयाकरण ७५४ न कुर्यात् । अय भार'-शीतनों निनिस्थानस्य ग्रीमतों मपातम्यानस्य पान्छो न कुर्यात् । इति । 'नय' न च ' उसमगेसु ' दशमाकेगु मत्सु 'गुभियन्च' क्षोभितव्यम् , दशमशकादीनामुपदरे सन्यपि क्षोगो न कर्तव्य इति मारः। तपा‘अग्गीध्मो य ' अग्निधूमश्र दशमगकाटीना निवारणार्थमग्निधूमो वा 'न का ययो' न कर्तव्यः । एपम् उक्तरूपेण 'मजमवरले ' सयममहुलासयमा पट कायरक्षणलक्षण , स पहल =पचुरो यस्य मतथोक्तः, तया- साबहुले ' सबर बहुल =समरपागातिपानाधासमहारनिरोधः, स बहुप्रचुरो यस्य सत थोक्तः, तथा- संपुडपहले' सटत पहल सरत-पायेन्द्रियजयः, तद् बहुल मचुर यस्य स तथोक्तः, तथा-'समाहिरहले' समापिमहुल: ममापि चित्त स्वास्थ्य, स बहुल' प्रचुरो यस्य स तयोक्तः, एतादृशो 'धीरे धीरप्रक्षोभ्यः 'काएण' कायेन 'फासयते' स्पृशन् परीपदान् राहमानइत्यर्थः, तथा-'सयय' उत्सुकता-भावना रखे अर्थात् शीतऋतु में निर्वातस्थान की ओर ग्रीष्म ऋतु में हवादार स्थान की इच्छा न करे । तथा-(न डसममगेसुखुभियव्य ) ठहरे हुए स्थान में दशमशक आदि का उपद्रव होवे ता उससे उसको क्षुभित नहीं रोना चाहिये। और (अग्गी धूमो न काययो) न उस स्थान पर उन दशमशक आदि को भगाने के निमित्त अग्नि चा धुओं करवाना चाहिये। (एच) इस प्रकार की प्रवृत्ति रखने से (सजमघरले) पकाय रक्षणरूप सयम की प्रचुर मात्रा से युक्त सयम पहल, तथा (सवरबरले) प्राणात्तिपात आदि आत्रव द्वार के निरोध रूप सवर की प्रचुर मात्रा से सरित होने के कारण सवर बहुल, तथा ( सवुडबहुले) कपाय और इन्द्रियों के जीतने रूप सवृत की प्रचुर मात्रा से रहित होने के कारण सवृतबहुले, तथा તે નિર્યાત સ્થાનની કે પ્રવાતસ્થાનની ઉત્સુકતા રાખે નહી, એટલે કે રિયાળામાં પવન વિનાના સ્થાનની અને ઉનાળામાં હવા આવે તેવા સ્થાનની તેણે ઈચ્છા ४२वी नहीं तथा “न इसमसगेसु खभियव्य" मन थामवाना स्थानमा डास, भ७२ माहिना पद्रव डाय ता तथा तो क्षीस पाभव। नडी मन “अग्गी भूमो न फायव्यो" तभी ते अस, भ२७२ माहित नसाउभाटेत स्थानमा અગ્નિ કે ધુમાડે કરાવવું જોઈએ નહી “ g * આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિ रामाथी "सजम बहुले" ७४ाय २क्षय३५ सयभनी मत्यत मात्राथा युटत सयभमहुद तथा “सबरबहुले" प्रातिपात माहि मानववारना निशष३५ सनी घणी मात्राथी युत पाने २२ से १२a, तय “सबुडबहुले" કષાય અને ઇન્દ્રિયોને જીતનાર સ વૃતની અતિ અધિક માત્રાથી યુક્ત હોવાને Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदशिनी टोका अ० ३ ०२ 'अनुमातभक्त नामचतुर्थीभावनानिन्पणम् ७५७ ___ चतुर्थी भावनामाह-' चउत्थ' इत्यादि । मूलम्-चउत्थ साहारणपिडवायलाभे सइ भोत्तव्व,संजएण समिय, न सागसूवाहिय, न खद्ध, न वेगिय, न तुरियं, न चवल, न साहस, न य परस्ल पीलाकरंसावज्ज । तह भोत्तवं जइसे तइय वय न सीयइ साहारणपिडवायलाभे सहुमं अदिण्णादाणविरमणवयनियमण, एव साहारणपिंडवायलाभे समिइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा णिच्चं अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुन्नाय उग्गहरुई ॥सू०९॥ टीका-' चउत्य' चतुर्थीम् अनुज्ञातभक्तादिमोजनलक्षणा भावनामाइतत्र-'साहारणपिंडवायलाभे' साधारणपिण्डपातलाभे साधारण कल्पनीय उसाधु सयन वहुल आदि होकर परीपद और उपसर्गो से अडोल यनता हुआ श्रुत चारित्र रूप धर्म की आराधना में सावधान बन जाता है। इस तरह शय्यापरिकर्मवर्जन रूप शय्यासमिति के योग से भावित आत्मा शय्यापरिकल्पनार्थ वृक्षादिकों के छेदन भेदन आदि रूप सावध कर्म के करने कराने और अनुमोदनाजन्य पापकर्म से बच जाता है। और इस तृतीयभावना का पालक हो जाता है । सू० ८ ॥ ___अव सूत्रकार चौथी भावना को प्रदर्शित करते हैं-'चउत्थ साहारण.' इत्यादि । टीकार्य-(चउत्य ) चौथी भावना अनुज्ञातभक्तादि भोजनरूप है जो इस प्रकार है-(साहारणपिंडवायलाभे सह) उच्च नीच कुल से નહી આ રીતે તે સાધુ સમયમબડુલ, મવરબલ આદિ થઈને પરીષહો તથા ઉપસર્ગો સામે અચળ બનીને થતચારિત્રરૂપ ધર્મની આરાધનામાં સાવધાન બની જાય છે. આ રીતે પ્રાધ્યાપરિકમવર્જનરૂપ શાસમિતિના ચોગથી ભાવિત આત્મા શા પરિકલ્પનાયેં વૃક્ષાદિના છેદન ભેદન આદિરૂપ સાવદ્ય કર્મ કર વવાથી અને અનુમોદનાજન્ય પાપકર્મથી બચી જાય છે અને આ ભાવનાને પાલક થઈ જાય છે કે સૂ૦ ૮ છે हवे सूत्रधार याबी मानता छ-" चउत्य साहारण " त्या "चउत्थ" याथी भावना अनुज्ञात मतानि ३५ छे ते मा प्रभारी छ “साहारणपिंडवायलाभे सइ" उस्य नीय युगमाथी पे तेवा लिक्षा तथा Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ याकरण हो जाता है । तथा (दत्तमणुण्णाय उग्गरमई मरह) दत्तानुमानावग्रह रूचिवाला-दत्तानुजातैपणीय पीठ फलक आदिका उपभोगकारी रोता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा शग्यापरिकमर्जिन नामक तीसरी भावना का स्पष्टी करण किया है। उन्हों ने इस में यह मममाया है कि जो साधु इस भावना को भाता है-सेवन करता है-उसका कर्तव्य है कि वह अपने निमित्त काटे गये पृक्ष से बने हुए पीठ फलक आदि के उपभोग करने का परित्याग कर देवे। तथा जिस गृहपति के यहा वह ठहरे वही पर अर्थात् उसी मकान मालिक से अथवा वस्ती से वह अपनी शय्या की गवेपणा करें। यदि वहा की भूमि नीची ऊंची होवे तो वर उसे सम न करे । यदि गर्मी के समय में किसी गृहपति की वसती में ठहरने का अवसर प्राप्त हुआ हो और वहा या आने का साधन न हो तो वह सवात स्थान की चाहना न करे तथा यदि शीतस्तु में किसी गृहपति के यहा या किसी उपाश्रय आदि में ठहरने का मौका आ गया होवे ओर वह स्थान सवात हो तो उसे निर्वातस्थान की कामना नहीं करनी चाहिये। दशमशक पीडित करे भीतो भी उसे क्षुभितचित्त नहीं होना चाहिये-और न उन्हें भगाने का उसे कोई उपाय ही विचारना या करना चाहिये। उस तरह से वह गुण्णायउगगहराई भवइ" त्तानुज्ञातापड शिवाणी-हत्तानुशातपाय पी8, ફલક આદિનો ઉપભેગકર્તા બને છે ભાવાર્થસૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા શારિર્મવર્જન નામની ત્રીજી ભાવ નાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તેમણે તેમાં એ સમજાવ્યું છે કે જે સાધુ આ ભાવનાનું સેવન કરે છે, તેનું કર્તવ્ય એ છે કે તે પિતાને નિમિત્તે કપાયેલ વૃક્ષમાથી બનાવેલ પીઠ, ફલક આદિનો ઉપભેગ કરવાને પરિત્યાગ કરે તથા જે ગૃહપતિને ત્યા તે ઉતરે ત્યાં જ એટલે કે એ જ મકાનમાલિક પાસેથી અથવા વસ્તીમાથી તે પિતાની શગ્યાની ગવેષણ કરે છે ત્યાની જમીન ઊ ચી નીચી હોય તે તેને સમતલ ન કરે જે ઉનાળાની ઋતુમાં કોઈ ગૃહપતિના આવાસમા ભવાની જરૂર પડી હોય અને ત્યાં હવા આવવાની વ્યવસ્થા ન હોય તે હવા આવે તેવા સ્થાનની ઈચ્છા ન કરે તથા જે શિયાળામાં કોઈ ગૃહપતિને ત્યા અથવા કોઈ ઉપાશ્રય આદિમાં ઉતરવાને અવસર આવે અને તે સ્થાનમાં પવન આવતો હોય તે તેણે પવન ન આવે એવા સ્થળની ઈચ્છા જોઈએ નહી ડાસ, મચ્છર આદિ સતાવે તે પણ તેણે ચિત્તમ ક્ષોભ પામવા જોઈએ નહી અને તેને નસાડવાને તેણે વિચાર કે ઉપાય કરવું જોઈએ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका म० ३ ०२ 'अनुशातमत'नामकचतुर्थीभाग्नानिरूपणम् ७५९ चालनरूपचापल्ययुक्त भोक्तव्यम् । न साहसम्-अप्रतिलेखित भोक्तव्यम् , तथा'नय'नच 'परस्स' परस्य एकेन्द्रियादेः 'पीकर' पीडाकर 'सावज्ज' सापद्य-सचित्त भोक्तव्यम् । एवमुपक्षणादुरस्त्रपात्रादिपरिभोगोऽपि ग्राह्यः। तर्हिकय भोक्तव्यम् ? इत्याह | 'तह भोक्तन्य' तथा भोक्तव्य 'जह ' यथा 'से' वस्यसयतस्य ' तइय' तृतीय 'वय' नत अदत्तादानविरमणरूप 'नसीयह' न सीदति-न नश्यवि यया-अदत्तादानविरमगरूप व्रत न विनश्येत्तथा भोक्तव्यमित्यर्थः, 'साहारणपिंडवायला साधारणपिण्डपातलामे सति ' मुहुम' मूक्ष्म दुर्निरीक्षम् ,-पूर्णरूपेणेत्यर्थ , ' अदिण्णादाणविरमणवयनियमण' अदत्तादानविर शीघ्रता करके भोजन नहीं करना चाहिये। तथा (न चवल) हाथ, गर्दन आदि अवयवों को चलाते हुए भोजन नहीं करना चाहिये। तथा ( न सारस ) अप्रतिलेखित भोजन नहीं करना चाहिये। और (न य परस्स पीलाकर सावज्ज एकेन्द्रियादिक जीवो को पीडा कारक सावद्य-सचित्त-भोजन न करना चाहिये । इसी तरहले वस्त्र पात्रादिकके परिभोग में भी यही बात समझ लेनी चाहिये। तो फिर कैसे भोजन करना चाहिये ? इस बात को अप सूत्रकार प्रकट करते हैं, वे कहते हैं कि (से) उस सयत को (तह भोत्तव्च ) इस प्रकार से भोजन करना चारिये कि (जह ) जिससे (तइय वय) अनत्तादानविरमणरूप तीसरा व्रत (न सीयइ ) नष्ट न होवे (साहारणपिंडवायलाभे) इस तरह पूर्वोक्त साधारण कल्पनीय-पिंडपात-भिक्षा की प्राप्ति होने पर (सुष्टम) सूक्ष्म रूप से अर्थात्-पूर्णरूप से (अदिण्णादाणविरमणवयनियमण) इस नध्य तथा "नवल" डाथ, ४ मा अवयवान सावता सावता पार साटन २७ मे नही तथा "न साहस" मप्रति मितान न ४२७ नास नही सन "न य परस्स पीलाकर सावज्ज" मेन्द्रिय मालिवाने પીડા કારક સાવદ્ય-સચિત્ત-ભજન ન કરવું જોઈએ એ જ રીતે વસ્ત્ર, પાત્ર આદિના પરિભોગમાં પણ એ જ વાત સમજી લેવી તે પછી કેવું ભોજન કરવું જોઈએ ? તે વાતને પ્રગટ કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે “ સે” તે સયતે "तह भोत्तव्य " 21 प्रमाणे सन ४२७ नये “जह" रथी " तइय वय" महतहान विरम ३५ श्री प्रत “न सीयइ, नए न - याय “साहारणपिंडवायलाभे " ! रीते पूर्वरित साधारण पनीय उपात-मिक्षानी प्रति यता “ सुहुम " सूक्ष्म३चे सरसे , ५१३३ " अदिण्णादाणविरमणवयनियमण" महत्तान विरभ प्रत ५२ नियत्र-मधिर Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नग्याकरण च्चावचकुलग्राह्यो य पिण्डपातः भिक्षा, उपलक्षणाद् खपानापन्यापपिरपिगपते, तस्य लाभः = दायकामाप्तिस्तस्मिन् । सइ । मति सजण्ण' सयतेनसाधुना 'मोत्तव्य भोक्तव्यम् = परिमोक्तव्य । 'मोक्तव्यम् ' इत्यग्रेऽपि सर्वत्र योज्यम् , कथ भोक्तव्यम् ? इत्याह-समिय' सम्यक् = अदत्तादान यया न भवति तथेत्यर्थः । सम्यक्त्वमेवाह-' न सागमनहिय 'न भाकपाधिम्मोक्त व्यम् । शाफम्पाधिके भोजने कृते सति प्रमाणादधिकाहारो भाति, तेनादत्तादा नदोपापत्तिर्भवति, तथा 'सद्ध ' प्रचुर भोक्तव्यम् । 'न वेगिय' न वेगित वेगयुक्त वेगेन ग्रास मुसे मक्षिप्य भोक्तव्यम्, 'न तुरिय स्वरित-वरायुक्त यासस्य गिलने शीघ्रता कला भोक्तव्यम् । तथा-न 'चल' चपर-इस्तग्रीवादिकाय, कल्पनीय भिक्षा तथा सतपात्र आदि उपधि का लाभ होने पर (सजएण भोत्तव्य ) मुनि को उसे अपने खाने आदि के उपयोग में लेना चाहिये । साधु को आहार किस प्रकार से कैसा लेना चाहिये मूत्रकार अब इस बात को कहते हैं-(समिय) अदत्तादान का दोष न लगे इस प्रकार से यतना रग्बते हुए न साग सूवाहिय) शाक और दाल की अधिकता के साथ भोजन नहीं करना चाहिये-अर्थात्-शाक और दाल की अधिकता वाला भोजन प्रमाण से अधिक खा लिया जाता है, इसलिये बत्तीस ग्रास लेने की अपेक्षा भोजन में अधिकता आने से साधु को अदत्तादान दोष की आपत्ति आती है। (न खद्ध) उचित मात्रा में भी दाल शाक के साथ प्रचुर मात्रा में आहार नहीं करना चाहिये। तथा (न वेगिय) जल्दीर उतावली के साथ भी भोजन नहीं करना चाहिये । तथा (न तुरिय) त्वगयुक्त होकर ग्रास के गिलने में पर पात्र माहि विना anet यता "सजएण भोत्तन" भनि तपाताने માટે ખાવા આદિના ઉપયોગમાં લેવું જોઈએ હવે સૂત્રકાર એ વાત બતાવે છે કે મુનિએ ભજન કેવી રીતે ખાવું જોઈએ અને કેવું ન ખાવું જોઈએ "समिय " महत्ताहानना होप नाते प्रमाणे यता पू' "न सागसूवहिय" શાક અને દાળની અધિકતા વાળુ ભેજન કરવું નહીં, એટલે કે શાક અને દળની અધિક્તા વાળું ભેજનું પ્રમાણમાં વધારે ખવાય છે, તે કારણે બત્રીશ पास ४२ता aiva पधारे खेवाथा साधुने महत्तहान होप न छ “ न खद्ध" પ્રમાણમાં દાળ શાકની સાથે વધારે પ્રમાણમા પણ આહાર લેવો જોઈએ નહી, તથા "न वेगियध्व" alaka uथा पान ४२७ नयनी, तथा "नतु रिय"१२१ सहित जियागणे तारपामा ५ ४शन ५७ लान नही ४२७ Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६१ सुशिनी टीका अ०३ सू० ५ पञ्चम ‘विनय ' भावनानिरूपणम् पनी भावनामाह--' परम ' इत्यादि मूलम्-पंचम साहम्लिएसु विणओ पउजियवो । उवगरण पारणासु विणओ पउजियव्वो, वायणपरियणासु विणओ पउंजियम्बो । दाणग्गणपुच्छणासु विणो पउजियव्यो । निक्खमणपवेसणासु विणओ पउजियव्यो । अण्णेसु य एवमाइएसु वहसु कारणसएसु विणओ पउजियव्यो । विणओ वि तबो, तवो वि यम्मो, तन्हा विणओ पउंजियवो गुरुसु सासु तवस्सिसु य । एव विणएण भाविओ भवइ अंतरप्पा निच्चं अहिकरणकरणकारावणपापकम्मविरए दत्तमणुण्णा य उग्गहरुई ॥ सू० १०॥ है, क्यों कि ऐसा आहार प्रमाण से अधिक कर लियाजाता है, जिससे अदत्तादान का दोप आता है। आहार करते समय इस यात का विशेष ध्यान रग्वना योग्य है कि हाथ, पैर, गर्दन आदि अवयव अनावश्यक रूप से न चले । आहार करते समय आहार जरदी२ से न किया जावे। ग्राम जल्दी २ से न गिला जावे । एकेन्द्रियादिक जीवों को वाचाकारी आहार-सचित्त आहार न लिया जावे। तात्पर्य करने का यह है कि अदत्तादानविरमणात नष्ट न हो इस प्रकार से साधु को आहार करना चारिये। इस तरह की प्रवृत्ति से इस बात पर पूर्ण रूप से नियत्रणकाबू हो जाता है। वह मायु अननुज्ञात मक्तादि भोजन रूप सावधकर्म के करने,करान और अनुमोदनारूप पापकर्म से विरत यन जाता है ।सू०९॥ ત્યાગ કરવું જોઈએ એવુ તેમા દર્શાવ્યું છે, કારણ કે તે આહાર વધારે પ્રમાણમાં લેવાય છે તેથી સાધુને અદત્તાદાનને દેય લાગે છે આહાર કરતી વખતે એ વાતનું ખાસ વ્ય ન રાખવું જોઈએ કે હાથ, પગ ડેક આદિ અવયવો બીન જરૂરી રીતે હાલે ચાલે નહી આહાર કરતી વખતે ઝડપથી આહાર લેવો જોઈએ નહી, કળિો જલ્દી ગળાની નીચે ઉતરે નહી એકેન્દ્રિયાદિજીને પીડાકારી આહાર–અચિત્ત આહાર લેવો જોઈએ નહી એ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે અદત્તાદાન વિરમrs ૩૫ ન ન થાય તે પ્રકારે સાધુએ આહાર કરવું જોઈએ આ પ્રકારની પ્રવૃત્તિથી આ મન પર સ પૂર્ણ રીતે અકુશ આવી જાય છે તે સાધુ અનનજ્ઞાન ભક્તાદિ ભેજનરૂપ સાવદ્ય કર્મ કરતા, કરાવતા અને અનુમોદના થતા પાપકર્મથી મુક્ત થઈ જાય છે કે ૯ प्र० ९६ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० प्रभव्याकरण मणव्रतनियमनम् अदत्तादानविरमणतस्प यनियमन-नियन्त्रण तद् भवति । एवम् अनेन प्रकारेण 'साहारपिंडवायलामममिइजोगेण ' साधारणपिण्डपात लामसमितियोगेन साधारणपिण्डपातलामे या ममितिः सम्यम्पत्तिः नस्या योगेन-सम्मन्धेन भारितोऽन्तरात्मानित्य-सदा अधिकरणारणकारणपापकर्मविरतः =अधिकरणस्य अननुज्ञातभक्तादिभोजनलक्षणमावधमणीयकरण कारणमुपलक्ष णत्वादनुमोदन च तदेव यत्पापकर्म ततो पिरतो-निटत्तः, दत्तानुतातावग्रहरुचि भैति । एतद् व्यारया पूर्वपरिज्ञेया ॥ स ९ ॥ अदत्तादानविरमण व्रत पर नियत्रण-अधिकार हो जाता है। (एव) इस प्रकार से (साहारणपिउवायलाभे) साधारणपिंपातलाभ में (समिइजोगेण) सम्यक प्रवृत्ति के सबंध से (भाविओ अतरप्पा) भावित अन्तरात्मा (निच्च ) नित्य-सदा (अहिकरण करणकारारणपावकम्मविरए) अननुज्ञात भक्तादि भोजनरूप सावधकर्मके करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्मसे विरत हो जाती है। और (दत्तम गुण्णाय उग्गहरुई भवद) दत्तानुज्ञात अवग्रह में रुचिशाली रो जाता है । ___भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा अदत्ताटानविरमण व्रत की चौथी भावना को कहते है। इस का नाम अनुज्ञातभक्तादि भोजन है। साधु के लिये दाना द्वारा कल्पनीय भिक्षा अथवा उपधि की प्राप्ति हो जाने पर उसे किस तरह से अपने उपयोग में लानाचारिये इसका इसमें विचार किया गया है। आहार के विचार में साधु को दाल शाक की अधिकता के साथ में आहार करने का त्याग कहा गया थनय छ "ए" म प्राय " साहारण पिंडवायलाभे" साधा लिक्षानी प्राप्ति थता “ समिइजोगेण" अभ्यर प्रवृत्तिना योगथी, " भाविओ अ तरप्पा" मावित मतरात्मा " निच्च" नित्य “ अहिकरणकरणकारावणपाव कम्मविरए " मननुज्ञात Hglle alr३५ सापद्यम ४२पाथी, ४२६वपाथी, सन तनी अनुमहिना ३५ ५५७मया भुत थ य छ भने "दत्तमणुण्णाय सग्गहरुइ भवइ" त्तानुज्ञात सयमा २यिवाणी थय ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતની ચાથી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તે ભાવના અનુજ્ઞાત ભક્તાદિ ભેજન નામની છે દાતા દ્વારા સાધુને કપે તેવી ભિક્ષા અથવા ઉપધિની પ્રાપ્તિ થઈ જાય ત્યારે તેણે કેવી રીતે તે પિતાના ઉપયોગમાં લેવી જોઈએ તે બાબતને આ ભાવનામાં વિચાર કરવામાં આવ્યું છે વધારે દાળ શાક સાથે આહાર લેવાને સાધુએ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका म०३ सू.१० "विनय' नामकपञ्चमभावनास्वरूपनिरूपणम् ७६३ सण प्रयोक्तव्यः । तथा-'दागरगहणपुच्छगामु' दानग्रहणमच्छनासुन्दान-न्धस्थानादे ग्लानादिभ्यो पितरणत् , ग्रहणम्-परेण दीयमानस्यैवान्नादेग्रहणम् , मच्छना-विस्मृतमूत्रार्थविपये पन्नः, एतामु 'विणओ' पिनय =दान ग्रहणयोगुर्वा शालक्षण , मच्चनाया वन्दनादिरूप प्रयोक्तव्य । तया- निलमणपवेसणाम' निष्क्रमणमवेशनयोः = गमनागमनयोः पिनयः = गमने आनश्यिकीरूपः, नागमने नेपेधिकीरूपः प्रयोक्तव्यः, किं बहुना ' अण्णेसु य' अन्येषु च 'एवमाइएम' एवमादिकेपु-एवविधेषु बहुपु 'कारणसएम' कारणगतेषु पिनयः प्रयोत्तव्यः । कस्मात्कारणाद् विनय प्रयोक्तव्यः ? इत्याह-विणनोवि' पिनयोऽपि तपा-न केवलमनशनादिकमेव करने में साधु को (विणओ पाजियच्चो ) वन्दनादिरूप विनय करना चाहिये। तथा (दाणग्गरणपुच्छणास्तु विणओ पउनियव्यो) दान मेदाता द्वारा दिये हुए अन्नादि को का ग्लान आदि साधुओ के लिये वितरण करने में-दाता द्वारा दिये गये अन्नादिक के लेने में गुरु की आज्ञा प्राप्त करना स्प विनय, प्रच्छना मे-विस्मृत हुए स्त्रार्थ को गुर्यादिकों से पूछने मे-वदनादि रूप विनय भाव रखना चाहिये । तथा (निक्खमणपवेसणासु) निप्क्रमण और प्रवेशन में-गमन और आगमन में-(विणओ पउजियव्यो) आवरियकी रूप और नैपेधिकी रूप विनय करना चाहिये अर्थात्-गमन में आवश्यकिरूप और आगमन मे नैपेधिकीरूप विनय भाव साधु को रखना चाहिये। (अण्णेसु एवमाइएसु सुयहस्सु कारणेसु इसी तरह के और भी बहुत से सैकड़ों कारणो में (विणओ पउजियव्वो) विनय भाव का आचरण करते माहि शन विनय विवो नये तथा “ दाणग्रहणपुच्छणासु विणओ पर जियव्यो" हानभा-हता द्वारा मायेस अन्नानि सान मा साधुरामा વિતરણ કરવામાં વિનય રાખવું જોઈએ ગ્રહણ કરવામા-દાતા દ્વારા અપાયેલ અન્ન આદિ લેવા માટે ગુરુની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરવા રૂપ વિનય પાળવું જોઈએ પ્રચ્છનામા-ભૂલાઈ ગયેલ સૂત્રાર્થ ગુરુ આદિને પૂછતી વખતે વદ આદિ રૂપ विनय माप राम तथा “निक्समणपवेसणासु" निमा मने अवेशना-मन मने मागमनमा “विणओ पउ जियो" सापश्थिती ३५ નધિકી રૂપ વિનય ભાવ સાધુએ રાખવો જોઈએ, એટલે કે ગમનમાં આવસ્થિકી રૂપ અને આગમનમા નધિકી રૂપ વિનય ભાવ સાધુએ રાખવો જોઈએ " अण्णेसुएइमाइएसु बहुसु कारणेसु" ॥ प्रानी अन्य से 31 मतोमा ५५ " विणओ पउ जियञ्चो" विनय साप मायरन से विणओ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ - - - M प्रश्रभ्याकरणसूत्रे टीका--'पचम' पश्चमी पिनयमाननामाह- सामिपमु' साघमिकेषु पर्यायव्येष्ठ 'रिणओ' पिनयः 'पउजिययो' भयोक्तव्याकरणीयः । तया' उवगारणपारणामु' उपकारणपारणयो तत्र-उपहारणस्परयोरुपकारकरण, तत्र-स्वस्य सयमपालनेन, परस्य ग्लानाधराया यातत्यादि यरणेन, पारणातपसः पारणा श्रुतस्य पारगमन या पारणा. तयोःपिनयः प्रयोक्तच्या द्वयोरपि मृदुस्वाभारतया स्थातव्यमित्यर्थः, तथा-' नायणपरियणामु' वाचनापरिचतेनयोधाचना मूत्रग्रहणम् , परिवर्तना-तस्यैवगुणनम् , तयो विनय' बन्दनादिन अप सत्रकार पाचवी भावना को करते हैं-'पचम साहम्मि एस्तु' इत्यादि। टीकार्य-(पचम) इस व्रत की पाचवीं भावना विनय है-जिमका स्वरूप इस प्रकार से है-(साहम्मिएसु विणभो पउजियन्यो) अपने समान धर्मवालो मे जो दीक्षा पर्याय की अपेक्षा ज्येष्ठ है उनमें विनय वृत्ति रखनी चाहिये। तथा (उचगारणपारणासु विणओ पउजियव्वो) स्व और पर के उपकार करने में और पारणा करने में विनय रखना चारिये, सयम की आराधना करना यर निज का उपकार करना और ग्लान आदि अवस्था में अन्य साधु का वैयारत्य आदि करना यह पर का उपकार करना है, तपस्या का पारणा करना अथवा श्रुत के पार पहुँचना यह पारणा है इन दोनों स्थितियो में मृदु स्वभाव से रहना यही उपकारण पारणा का विनय करना है। इसी तरह (वायणपरियदृणासु) सूत्र की वाचना में और उसके परिवर्तन करने में स्वाध्याय व सूत्रा२ पायभी भावना मताव छ-" पचम साहम्मिएसु" त्याहि___ -" ५ चम" ॥ ब्रतनी पायभी भावना विनय छ, रेनु १३५ मा प्रभारी छ -~" साहम्मिण्सु विणओ पजियव्यो" पोताना सायमी सामान દીક્ષા પર્યાયની અપેક્ષા એ મોટા હોય તેમના પર વિનયવૃત્તિ રાખવી જોઈએ तया“ सबगारणपारणास विणओ उउप जियव्वो" १ अने पर। 6५४१ કરવામાં અને પારણા કરવામાં વિનય રાખવો જોઈએ સયમની આરાધના કરવી તે પિતાના ઉપર ઉપકાર કર્યો ગણાય છે અને શ્વાન આદિ અવસ્થામાં અન્ય સાધુઓનુ વૈયાવૃત્ય-વૈયાવચ-કરવી તે પરને ઉપર ઉપકાર છે તપનું પારણુ કરવુ અથવા કૃતને પાર પહેચવું તે પણ પારણુ છે એ બને સ્થિતિમાં મૃદુ સ્વભાવથી રહેવું તે જ પારણાને વિનય કરવાની રીત छे से शत “वायण परियणासु" सूत्रनी वायनामा मने तेनु परिपतन ४२वामा-स्वाध्याय ४२वामा माधुसे "विण पउजियन्वो" ! Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ० ३ सू० ११ अध्ययनोपसहार अध्ययनमुपसंहरति- ' एरमिण ' इत्यादि । मूलम्-एवमिणं सवरस्सदारं सम्म चरियं होइ सुपणिहिय, इमेहि पचहिं वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहि निच्च आमरणंतच एसो जोगो नेयन्वो धिमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छा अपरिरसावी असकिलिट्टो सुद्धो सव्वजिणमणुपणाओ । एव तइयं सवरदार फालिय पालिय सोहिय तरिय किहिय सम्मं आराहिय आणाए अणुपालिय भवइ । एव नायसुणिणा भगवया पण्णविय परुविय पसिद्धं सिद्धि भावना है । अपने से जो दीक्षा पर्यान में ज्येष्ट है, उन साधुओं में विनय धर्म का पालन करना तथा स्वयं सयम के पालन करने में और पारणा मे मृदु स्वभाव रखना, इत्यादि विनय सवधी जितनी भी क्रिया हैं उन्हें मोक्षमार्ग के सावनों में यथायोग्यरूप से पालन करते रहना उनके प्रति अविनयरूपता का भाव चित्त में नही आने देना यह विनय भावना है । तात्पर्य यह है कि ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके प्रति योग्यरीति से वनुमान रखना यह विनयधर्म है । इस धर्म से भावित हुआ अंतरात्मा अविनय रूप मावध कर्म के करने कराने, और उसकी अनुमोदना जन्य पापक्रिया से विरक्त हो जाता है और इस भावना का पालक बन जाता है | सू० १० ॥ પર્યાયમા જે પેાતાના કરતા માટા હાય તેમના પ્રત્યે વિનયધર્મનુ પાલન કરવુ, તથા નિજ સયમનુ પાલન કરવામાં તથા પારણામા મૃદુ સ્વભાવ રાખવા, ઈત્યાદિ વિનય સ મ ધી જેટલી ક્રિયાએ છે તેમનુ મેાક્ષમાના સાધનેામા ચેાગ્ય રીતે પાલન કરતા રહેવુ, તેમના પ્રત્યે અવિનય ભાવને ચિત્તમા પ્રવેશવા ન દેવે તે વિનય ભાવના ગણાય છે તેનુ તાત્પર્ય એ છે કે જ્ઞાનાદિ સેક્ષમા અને તેના સાધના પ્રત્યે ચૈાગ્ય રીતે બહુમાન રાખવુ તે વિનય ધમ છે. આ ધર્માંથી ભાવિત થયેલ આત્મા અવિનયરૂપ માદ્ય કર્મ કરતા, કરાવતા અને તેની અનુમેાદનાથી પરિણમતી પાપ ક્રિયાથી પચી જાય છે, અને આ ભાવનાને पास पनी लय छे, ॥ सू १० ॥ Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म-माया तपः अपि तु पिनयोऽपि आभ्यान्तरतपोभेदेपु पठितः, तया-- तवो वि' तपोऽपि 'धम्मो धर्मः काठ सयमएर धर्मः, किन्तु तपोऽपि धर्मः, तस्य चारित्राशत्वात् , ' तम्हा' तस्मात् ' गुस्सु ' गुरुपु 'सामुगायुपु 'तपरिस मु य ' तपस्विपु च पिनयः प्रयोक्तव्यः । एव विनयेन भावितोऽन्तरात्मा नित्य मधिकरणकरणकारणपापकर्मचिरतानाधिकरणस्य - अनियरूपसागपार्मणो यत्क रण कारणमुपलक्षणत्वादनुमोदन च, एतस्प यत्तापकर्म, ततोविरतो-निटत्तो दत्ता जुगावावग्रहरुचि भरति । एतद व्यारयापूपमुक्ता ।। सू०१० ॥ रहना चारिये । क्यों कि (विण नो पितो) यह चिनय भी आभ्यतर तप है-केवल अनशन आदि ही तप नहीं है। तथा ( तो वि धम्मो चारित्र का अश होने से तप भी धर्म है. केवल सयम ही धर्म नहीं है। (तम्हो विणओ पजियन्यो गुरुसु साहस तवम्मिसु य) इसलिये गुरुजनो के विपय में, साधुजनों के विषय में आर तपस्सी जनाक विषय में विनय धर्म का व्यवहार अवश्य ही करना चाहिये । (एवविणएण भाविओ अन्तरप्पा निच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरूई भवइ) इस प्रकार विनय धर्म से भावित जीव नित्य अविनयरूप सावद्यकर्म के करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्म से निवृत्त हो जाना है और दत्तानुज्ञात अपग्रह मे रूचिवाला बन जाता है। भावार्य-सूत्रकार ने इस सुत्र द्वारा अदत्तादानविरमण रूप का पाचवी भावना का स्वरूप प्रदर्शित किया है इस भावना का नाम विनय वि तवो" मा विनय ! सत्य तर त५ छ, उपवास माहित५ नयी " तवो वि धम्मो” यात्रिी महापाथी त५ ५४ धर्म छ, ३४त सयम धर्म नथी " तम्हा विणओ पउ जियव्यो गुरुसु तवस्सिसु य" ते जाणे गु२० જને પ્રત્યે, સાધુજને પ્રત્યે, અને તપસ્વીજને પ્રત્યે વિનય ધર્મને વહેવાર अवश्य रामा नये “ एव विणएण भाविओ अतरप्पा निच्च अहिकरण फरणकारावणपावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहरुई भवइ" मा प्रकारे विनय ધમથી ભાવિત જીવ નિત્ય અવિનયરૂપ સાવધ કર્મ કરતા, કરાવતા અને તેની અનુમોદનારૂપ પાપકર્મથી નિવૃત થઈ જાય છે અને દત્તાનુજ્ઞાત અવગ્રહમાં રુચિવાળા બની જાય છે ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂવદ્વારા અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતની પાંચમી ભાવનાનું સ્વરૂપ દર્શાવ્યું છે તે ભાવનાનું નામ છે વિનય ભાવના” છે દીક્ષા Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीका ग० ३ १० ११ अध्ययनोपसहार मध्ययनमुपसहरति-' एवमिण ' इत्यादि । मूलम्-एवमिण संवरस्सदारं सम्म चरियं होइ सुपणिहियं, इमेहि पचहि वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहि निच्चं आमरणतच एसो जोगो नेयम्वो धिइमया मइमया अणासवो अकलुसो अच्छिद्दो अपरिरसावी असंकिलिट्टो सुद्धो सव्वजिणमणुण्णाओ। एव तइयं सवरदार फालिय पालिय सोहिय तीरिय किष्ट्रिय सम्म आराहिय आणाए अणुपालिय भवइ। एव नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूवियं पसिद्धं सिद्धि भावना है । अपने से जो दीक्षा पर्याय में ज्येष्ठ है, उन साधुओं में विनय धर्म का पालन करना तथा स्वय मयम के पालन करने में और पारणा में मृदु स्वभाव रखना, इत्यादि विनय सबंधी जितनी भी क्रियाए ह उन्हें मोक्षमार्ग के सापनों मे यथायोग्यरूप से पालन करते रहना उनके प्रति अविनयरूपता का भाव चित्त में नहीं आने देना यर विनय भावना है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके सावनों के प्रति योग्यरीति से बदमान रखना यह विनयधर्म है। इस धर्म से भावित हुआ अतरात्मा अविनय रूप मावद्य कर्म के करने कराने, और उमकी अनुमोदना जन्य पापक्रिया से विरक्त हो जाता है और इस भावना का पालक बन जाता है । सू० १०॥ પર્યાયમાં જે પિતાના કરતા મોટા હોય તેમના પ્રત્યે વિનયધર્મનુ પાલન કરવું, તથા નિજ મયમનું પાલન કરવામાં તથા પારણામાં મૃદુ સ્વભાવ રાખ, ઈત્યાદિ વિનય સબધી જેટલી ક્રિયાઓ છે તેમનું મેલમાર્ગના સાધનેમા એગ્ય રીતે પાલન કરતા રહેવું, તેમના પ્રત્યે અવિનય ભાવને ચિત્તમાં પ્રવેરાવા ન દે તે વિનય ભાષના ગણાય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે નાનાદિ મોક્ષમાર્ગ અને તેના સાધને પ્રત્યે એગ્ય રીતે બહુમાન રાખવું તે વિનય ધર્મ છે આ ધર્મથી ભાવિત થયેલ આત્મા અવિનયરૂપ સાવધ કર્મ કરતા, કરાવતા અને તેની અનુમોદનાથી પરિણમતી પાપ ક્રિયાથી બચી જાય છે, અને આ ભાવનાને पास मनी नय छ, ॥ ९ १० ॥ Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७६५ मध्याकरण तपः अपि तु विनयोऽपि आभ्यान्तरतपोभरपु पठितः, तथा- तो वि' तपोऽपि 'धम्मो धर्मः न काल सपमएर धर्मः, किन्तु तपोऽपि धर्मः, तस्य चारित्राशत्वात् , ' तम्हा' तस्मात् ' गुस्सु ' गुरुषु 'साहस' माधुषु ' तवस्सि मु य ' तपस्विषु च पिनयः प्रयोक्तव्यः । एष नियेन भारितोऽन्तरात्मा नित्य मधिकरणकरणकारणपापकर्म चिरतोनधिकरणस्य = अनियर पसारयकर्मणो यक्त रण कारणमुपलक्षणत्वादनुमोदन च, एनप यत्तापकर्म, वतोपिरतो-निरत्तो दत्ता दुतावावग्रहरुचि भवति । एतदू व्यारयापूरमुक्ता ॥ सू०१० ॥ रहना चारिये । क्यों कि (विणो चि तयो) यह विनय भी आभ्यतर तप है-केवल अनशन आदि ही तप नही है। तथा (तो चि धम्मो । चारित्र का अश होने से तप भी धर्म है, केवल सयम ही धर्म नहीं है। (तम्ही विणओ पजियन्यो गुरुसु साहस तवम्मिसु य) इसलिय गुरुजनों के विपय में, माधुजनों के विषय में और तपस्वी जनों के विषय में विनय धर्म का व्यवहार अवश्य ही करना चाहिये । (एकविणएण भाविओ अन्तरप्पा निच्च अहिकरणकरणकारावणपावकम्मविर दत्तमणुण्णाय उग्गहरूई भवह) इस प्रकार विनय धम.स भावित जीव नित्य अचिनयरूप सावद्यकर्म के करने, कराने और उसकी अनुमोदनारूप पापकर्म से निवृत्त हो जाता है और दत्तानुज्ञात अथग्रह में रूचिवाला बन जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा अदत्तादानविरमण रूप की पांचची भावना का स्वरूप प्रदर्शित किया है इस भावना का नामविनय वि तवो" मा विनय ५ सय २ त५ छ, 6वास मा त५ नया " तवो वि धम्मो" यानि मडापाथी त५ ५५ धम छ, ३४० सयम र धर्म नथी " तम्हा विणओ पउ जियव्यो गुरुस तपस्सिसु य" ते २९ शु२० જન પ્રત્યે, સાધુજને પ્રત્યે, અને તપસ્વીજને પ્રત્યે વિનય ધર્મને વહેવાર अपश्य राभवाने “ एव विणएण भाविओ अतरप्पा निच्छ अहिकरण करणकारावण पावकम्मविरए दत्तमणुण्णाय उग्गहराई भवई' ! प्रारे विनय ધર્મથી ભાવિત જીવ નિત્ય અવિનયરૂપ સાવદ્ય કર્મ કરતા, કરાવતા અને તેને અનુમોદનારૂપ પાપકર્મથી નિવૃત થઈ જાય છે અને દત્તાનુજ્ઞાત અવગ્રહમાં રુચિવાળે બની જાય છે ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્રધારા અદત્તાદાન વિરમણ વ્રતની પાંચમી ભાવનાનું સ્વરૂપ દર્શાવ્યું છે તે ભાવનાનું નામ વિનય ભાવના” છે દીક્ષા | Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंनी टीका १० ३ ० " अध्ययनोपसदार अध्ययनमुपसहरति-' एरमिण ' इत्यादि । मूलम्-एवमिण सवरस्सदारं सम्म चरियं होइ सुपणिहियं, इमेहि पचहि वि कारणेहि मणवयणकायपरिरक्खिएहि निच्च आमरणतच एसो जोगो नेयन्वो विडमया मडमया अणासवो अकलुसो अच्छिदो अपरिरसावी असंकिलिहो सुद्धो सम्वजिणमणुण्णाओ । एव तइयं सवरदार फालिय पालिय सोहियं तीरिय किट्टिय सम्म आराहिय आणाए अणुपालिय भवइ। एव नायमुणिणा भगवया पण्णबिय परूवियं पसिद्धं सिद्धि भावना है। अपने से जो दीक्षा पर्यार में ज्येष्ठ है, उन साधुओं में विनय धर्म का पालन करना तथा स्वय मयम के पालन करने में और पारणा मे मृदु स्वभाव रसना, इत्यादि विनय सवधी जितनी भी क्रियाए हैं उन्हें मोक्षमार्ग के साधनों में यथायोग्यरूप से पालन करते रहना उनके प्रति अविनयरूपता का भाव चित्त में नहीं आने देना यर विनय भावना है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति योग्यरीति से बरमान रखना यह विनयधर्म है। इस धर्म से भावित हुआ अतरात्मा अविनय रूप मावध कर्म के करने कराने, और उमकी अनुमोदना जन्य पापक्रिया से विरक्त हो जाता है और इस भावना का पालक बन जाता है । सू० १०॥ પર્યાયમાં જે પિતાના કરતા મોટા હોય તેમના પ્રત્યે વિનયધર્મનુ પાલન કરવું, તથા નિજ સયમનું પાલન કરવામાં તથા પારણામા મૃદુ સ્વભાવ રાખ, ઈત્યાદિ વિનય સ બધી જેટલી ક્રિયાઓ છે તેમનું મોક્ષમાર્ગના સાધનમાં ચોગ્ય રીતે પાલન કરતા રહેવું, તેમના પ્રત્યે અવિનય ભાવને ચિત્તમાં પ્રવેરાવા ન દેવે તે વિનય ભાવના ગણાય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જ્ઞાનાદિ મોક્ષમાર્ગ અને તેના માધને પ્રત્યે મેગ્ય રીતે બહુમાન રાખવું તે વિનય ધર્મ છે આ ધર્મથી ભાવિત થયેલ આત્મા અવિનયરૂપ સાવધ કર્મ કરતા, કરાવતા અને તેની અનુમોદનાથી પરિણમતી પાપ ક્રિયાથી બચી જાય છે, અને આ ભાવનાને पास सनी लय छ, ॥ सू १० ॥ Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ সপ্নাঞ্চল वरसासणमिणं आघविय सुदेखियपसत्थ तइय सवरदारं समत्त तिवेमि ॥ सू० ११ ॥ ॥इय पण्हावागरणे तइयं संबरदार समत्त॥ टीका-एव पूर्वोक्तमकारेण 'इण' इद 'सरस्स' समरस्य 'दार' द्वारम् अदत्तादानविरमणनामा तृतीय द्वारमित्यर्थः, ' सम्म' मम्परु 'चरिय' चरित सत् ' होइ' भाति 'मुपणिहिय ' सुमणिहित-समाराधितम् । तथा-'. मेहि ' एभि पचहि । पिञ्चभिरपि 'कारणेहि कारणे: भावनाभिः, की दृशैः कारणैः ? इत्याह-' मणवयणकायपरिरक्खिएहि ' मनोरचनकायपरिरक्षितःमनोवाकार्यः परिरक्षितैः,मनोवाकाययोगयुक्ताभिः पञ्चभावनाभिरित्यर्थः, 'निच्च' नित्यम् ' आमरणत च ' आमरणान्त-मरणपर्यन्त च ' एस जोगो' एप योगा अदत्तादानविरमणरूपो योग ‘णेययो' नेतव्यः पालनीय, 'घिइमया' धृतिमता ' मइमया' मतिमता । कथ भूतोऽय योगः १ इत्याह- अणासो' अना अघ सूत्रकार इस अध्ययन का उपसहार करते हुए करते हैं'एवमिण' इत्यादि। टीकार्थ-(एव) पूर्वोक्त प्रकार से (इण) यह (सवरस्स दार अदत्तादानविरमण नाम कातृतीय सवरद्वार (सम्म चरिय) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुपणियि) सुरक्षित (होइ) हो जाता है। इसलिये (मणवयणकायपरि रक्खिपहिं ) मन, वचन, काय इन तीन योगों से अच्छी तरह सुरक्षित कीये गये ( इमेहिं) इन ( पचहिं विकारणेहिं ) पाच भावना रूप कारणों से (निच्च ) सदा (आमरणत च) जीवन भर तक ( एस जोगो) यह अदत्तादानविरमण रूप योग (घि इमया मइमया) चित्त स्वस्थता से तथा हेयोपादेय की विवेकता से सूत्रा२ मा अध्ययन पसार ४२ता -" एव मिण " त्या:-- साथ-" एव" पूरित मारे " इणं " मा " सवरस्सदार " सन्ता हान विरभा नामनु श्री स१२६२ “सम चारिय " सागरीत पाणपामा भाव तो " सुपणिहिय' सुरक्षित थ य छे तेथी "मणवयणकाय परिरक्सिएहि" भन, क्यन मने जायाना योगाथी सारी रात सुरक्षित राये। " इमेहिं" मा " पहिं वि कारणेहि " पाय सापना३५ ॥२॥थी “निच्च" सहा " आमरण तब 'वन ५ "एसजोगो" मा महत्ताहान विरभ १३५ योग "घिइमया मइमया" यित्तनी सस्था तथा व्यापायना विवेश्या Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६७ सुदर्शिनी टीका ४० ३ सू० ११ अध्ययनोपसंहार सवः नूतनकर्मागमनरहितत्वात् , ' अफलसो' आलुपः = अशुभाम्यवसायरहि तत्वाद् , 'अन्छिदो ' अन्छिद्र =छिन्नपापस्रोतस्त्वात् 'अपरिस्मानी' अपरिसापीपिन्दुरूपेणापि मजलप्रवेशरहितत्वात् , 'जसफिरिहा' असलिटा =असमाधिभापतित्वात् , 'मुद्धो' शुद्धः-कर्ममलयनितत्वात् , 'सव्वनिणमणुण्याओ' सजिनानुज्ञातः सकलपाणिहितकारकत्वात्सपामर्हतामनुमतश्चास्ति । एवम् ए तादृशमिद । ' तइय' तृतीय सवरद्वारम् ' फासिय 'स्पृष्ट कायेनाचरित, 'पालिय' पालित-सततमुपयोगेनसेचित 'सोहिय' शोधित अतीचारवर्जनेन शुद्धी युक्त हुए मुनिजन को (नेयम्यो ) पालन करने योग्य है । क्यों कि यह अदत्तादानविरमण रूप योग (अणासवो) नूतनकर्मो के आगमन से रहित होने के कारण अनास्रवरूप है, (अम्लसो) अशुभ अध्यवसाय से वर्जित होने के कारण अकलुप है, (अच्छिहो ) पाप का स्रोत इससे छिन्न हो जाता है अतः अच्छिद्र है ( अपरिस्साधी) चिन्दुरुप से भी कर्मरूपजल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इमलिये यह अपरिस्रावी है। (असकिलिट्ठो) असमाधिभाव से वर्जित होने के कारण यह असलिष्ट है। (सुद्धो) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है (सव्वजिणमणुण्णायो समस्त प्राणियो का इससे हित होता है इस लिये समस्त अरहत नगवतो को यह मान्य हुआ है। (एव) ऐसा यह ( तइय ) तृतीय सवर द्वार है । इस सवरद्वार को जो (फासिय) अपने शरीर से आचरित करते हैं, (पालिय) निरन्तर उपयोग पूर्वक इसे सेवित करते हैं (मोहिय ) अतिचारों से इसे रहित करते हैं सुरत भनिनान " नेयव्यो" पासन ४२वा योग्य छ मा महत्तहान विभाग ३५ या अणासवो" नवा ना मागमनथी २डित जवान (२२ मनास१३५ छ, “ अकलुसो" मशुल अध्यवसायथी २डित पाने अरहरी मटुप छ, “अच्छिो " पापना सोतनाथी छिन्न नय छ तेथी मछिद्र छ, “अपरिसावी) म ३५ नु नि ५ तेमा प्रवेशी शतु नथी तेथी ते अ५ रिसावी छ, " अस किल्टिो" समाधि मा २हित पाने २ ते असे. See , " सुद्धो" भ' माथी -हित पाने २0 ते शुछ, “सव्वजिणमणुण्णाओ" समस्त प्रमानु तनाथी या थाय छे, ४२ समस्त मत मावानाने ते मान्य थयेट छ, “एव " मे " तइय" । ततीय स१२६२ छे भासवान ने “फासिय " पाताना शरीरथी मायरे . "पालिय" नि२ त२ ७५या। पूर्व नेनु मेवन ४२ छ, "सोहिय" मतियाराथी छ "किहिय" तनु " - . Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - মাজকে वरसासणमिणं आघविय सुदसियपसत्य तइय सवरदार समत्त तिमि ।। सू० ११ ॥ इय पण्हावागरणे तइयं संवरदारं समत्त। टीकाएर पूर्वोक्तमकारेण 'इण' इद 'सारस्स ' सरस्य 'दार' द्वारम् अदत्तादानविरमणनामक तृतीय द्वारमित्ययः, ' सम्म' सम्पर ' परिय' चरित सत् ' होइ' भाति 'मुप्पणिहिय ' सुमणिहित-समाराधितम् । तथा-'. मेहि ' एभि पिचर्हि 'रि-पञ्चभिरपि 'कारणेहि यारण: भावनाभिः, की दृशैः कारणैः । इत्याह-'मणरयणकायपरिरक्खिएहि मनोरचनकायपरिरक्षित मनोवाकाय परिरक्षितैः,मनोकाययोगयुक्ताभिः पञ्चभापनाभिरित्यर्थः, 'निच्च' नित्यम् ' आमरणत च ' आमरणान्त-मरणपर्यन्त च ' एस जोगो' एप योगाअदत्तादानविरमणरूपो योग 'णेयमो' नेतन्यः पालनीयः । घिउमया' धृति मता' मइमया' मतिमता। कय भूतोऽय योग.' इत्याह-अणासत्रो' अना. अब सूत्रकार इस अध्ययन का उपसहार करते हुए करते हैं'एवमिण' इत्यादि। टीकार्थ-(एव) पूर्वोक्त प्रकार से (इण) यह (सवरस्स दार अदत्तादानविरमण नाम कातृतीय सवरद्वार (सम्म चरिय) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुपणिहिंय ) सुरक्षित (होड ) हो जाता है। इसलिये (मणवयणकायपरि रखिएहिं) मन, वचन, काय इन तीन योगों से अच्छी तरह सुरक्षित कीये गये ( इमेहिं) इन (पहिं विकारणेहिं ) पाच भावना रूप कारणों से (निच्च ) सदा (आमरणत च) जीवन भर तक (एस जोगो) यह अदत्तादानविरमण रूप योग (घि इमया मइमया) चित्त स्वस्थता से तथा हेयोपादेय की विवेकता से & सूनार मा अध्ययन मा ४२त छ-" एव मिण " त्याह Aथ-" एव " पूर्वरित मारे " इणं " " सवरस्सदार " Aat हान विभा नाभनु alog स१२६॥२ "सम चारिय " सारी शते पावामा मावत " सुपणिहियें' सुरक्षित य छ तेथी "मणवयणकाय परिरक्सिएहि " भन, क्यन सन याना योगाथी सारी शत सुरक्षित राय "इमेहि " ! " पचहिं वि कारणेहि " पाय मान॥३५ शाथी “निच्च" सह आमरण त च । न त एसजोगो" मा महत्ताहान विभ १३५ या “धिइमया मइमया" कितनी स्वस्था तथा व्यापायना (वथी Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६९ सुदशनीटीका अ० ३ सू०११ अध्ययनोपसार 'मुदेसिय ' मुदेशित सदेवमनु नामुराया पर्पदि मुष्पदिष्टम् ‘पनत्य' मरास्तसर्वमाणिहितकरत्वान्मङ्गलमय 'तपय सपवार ' हनीय मवरद्वार 'समत्त' समाप्तम् । 'तिमि ' इति बनीमि । अम्यार्य पूर्वमुक्त ॥ स. ११ ॥ इति श्रीविश्वनिपात-जगदूपलभ-प्रसिद्धवावकपञ्चदशभाषाकलितललितकला पागपक-अविशुद्धगधगयनैकग्रन्थनिर्मापक-वादिमानमर्द-श्रीगाहूछत्रप तिकोल्हापुरगमपदत्त- जैनशास्त्राचार्य ' पदभृपित-कोल्हापुरराजगुर-मालपरमचारि-जैनाचार्य-जैगनमदिवाकरपूज्यश्री-घासीलारपतिविरचिताया दामाजस्य श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रए मुदर्शन्या रपाया व्यारवाया सवरात्मा के द्वितीयेभागेऽदत्तादान चिरमणनामक तृतीय सरद्वार समाप्तम् ॥ सर्व भात्र से इसके विपय में कहा है और (सुदेसिय ) देवो, मनुजों तग असुरो से युक्त परिपदा में इसका उपदेश दिया है। (पसत्य ) सर्वप्राणीयो का हितकारक होने से भगलमय है (तक्ष्य सवरदार समत्त ) यह तृतीय सवर हार ममाप्त हुआ (त्ति वेमि ऐसा मैं कहता है। अर्थात् हे जव ! इस तृतीय सवर द्वार का जैसा कथन मैंने साक्षात् भगवान महावीर के मुख से सुना है वैसा ही मैंने तुम से कहा हैअपनी तरफ से इसमें मैंने कुछ भी मिश्रित नहीं किया है। भावार्थ- इस तृतीय सवर द्वार का उपसहार करते हुए सूम्रकार समना रहे है कि इन ततीय सवर द्वार का जो मुनिजन तीन करण तीनयोग से सुरक्षित की गई पाच भारनाओ से जीवन भर पालते हैंतिथे घुछ भने 'सुदसिर "हो, मनु मने गया युत परिपहामा तना पीधा " पसत्य " म सानु हित ना२ डापाथी ते भगमय , “तइय सबरदारसमत्त" मा तुतीय सव२६१२ समास थयु, त्तिवेमि" मे ४९ छु मेटये | २ तृतीयस पवारनु કથન જે પ્રમાણે સાક્ષાત ભગ નિ મહાવીરના મુખે સાભળ્યું હતું તે જ પ્રમાણે તમને કહુ છુ-મારા તરફથી તમા કઈ પણ ઉમેરવા આવ્યું નથી ભાવાર્થ –આ ત્રીજા વરદ્વારને ઉપહાર કરતા સૂત્રકાર સમજાવે છે કે આ ત્રીજા વરદ્વારનું જે મુનિજન ત્રણ કરણ ત્રણ વેગથી સુરક્ષિત કરવામાં આવેલ પાચ ભાવનાઓ સહિત પાલન કરે તે પ્રમાણે પોતાની દરેક Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૮ ARC प्रभव्याकरण कृत 'तीरिय' तीरित-तीर मापित पूर्णरूपेण सेरित, 'किटिय' कीर्तितम्अन्येपामुपदिष्टम् , ' आराहिय' आराधितम् किरणनिगोंग'-सम्यगाचरितम् , ' आणाए । आशया-सर्वशवचनानुमारेण ' अणुपालिय' अनुपालित भाति । एवम् अमुना प्रकारेण 'नायमुगिणा ' ज्ञावमुनिना-शातार यप्रसिद्धक्षत्रियशोदवेन मुनिना भगरता महावीरेण ' पण्णपिय' प्रज्ञापित-शिष्येभ्यः सामान्यतया कथित, 'परूविय ' मरूपित-भेदानुभेदप्रदर्शनपूर्वक कथित, 'पसिद्ध ' प्रसिद्ध जिनवचने प्रख्यात, 'मिद्धारसासगमिण ' सिद्धपरशासनमिद, सिद्धानानिष्ठितार्थाना वरशासन-प्रधानाज्ञारूपम् , 'आधरिय' आरयात-पर्यनोमावेन कथित, (तीरिय) पूर्णरूप से इसका सेवन करते है (लिहिय) दसरों को इसके पालन करने का उपदेश देते है, (सम्म ) तीन काण तीन योगों से इस की भली प्रकार से ( आराहिय) अनुपालना करते हैं (आणाए अणुपारिय भवा ) उन के द्वारा यह योग तीर्थकर प्रभु की आज्ञानुसार ही पालित होता माना जाता है । (एव) इस प्रकार से (णायमुणिणा भगक्या) ज्ञातनामक सिद्ध क्षत्रियवश में उत्पन्न हुए मुनिराज भगवान महावीर ने (पण्णविय ) शिष्यों के लिये इस विषय का सामान्यरूप से समझाया है। (परूविय) याद में भेद प्रभेद पूर्वक उसका कथन किया है । इसीलिये ( पसिद्धे) जिनवचन में यह प्रख्यात हुवा है अर्थात् जिनवचन के अनुसार ही आचार्य परपरा से इसका पालन करना इसी रूप से चला आ रहा है । तथा (सिद्धवरसासणमिण ) भृतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह प्रधान आज्ञारूप शासन है। (आघविय) ऐसा भगरान् महावीर प्रभु ने पालन ७२वानी अन्य पहेश मा छ “ सम्म" प ४२६ प योगाथी तेनु सारी शते “ आराहिय " अनुपालन ४२ , “ आणाए अणुपालिय भवइ" તેમના દ્વારા આ વેગનુ, તીર્થ કર પ્રભુની આજ્ઞા અનુસાર પાલન થાય છે सम भानपामा मावे छ " ' एव" । प्रा३ "णायमुणिणा भगवया" જ્ઞાત નામના પ્રસિદ્ધ ક્ષત્રિય વશમાં ઉત્પન્ન થયેલ મુનિરાજ ભગવાન મહાવીર "पण्णविय "शियाने भारी मा विषय सामान्य ३२ सभालच्या , “परूविय" त्या२ माईले प्रले सहित तेनु ४थन अर्यु छ तेथी “पसिध्धे " विनय ચનમાં તે પ્રખ્યાત થયેલ છે એટલે કે જિનવચન અનુસાર જ આચાર્ચ પર५२थी तनु २ रीते पालन ४२वानु यायु २ छ तेथी " सिद्धवरमा सणमिण" भूतभा २८ सिद्धो 25 गया छ तभनु मा भुज्य माश। ३५ शासन छ "आपविय" मे सपान भडाबारे सव' माया तन Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ चतुर्थ सवरद्वारं प्रारभ्यते ॥ व्याख्यात तृतीयमदत्तादानविदमणनामक सपरद्वारम् । अथ ब्रह्मचर्य नामक क्रमप्राप्त चतुर्थ सवरद्वारमभिधीयते । अस्य पूर्वेण सहायमभिसबन्ध -पूर्वत्रादत्ता दानविरमणमुक्त' तच्च मैयुनविरमणमन्तरेण न सभरतीत्यनेन समन्धेनायातमिद चतुर्थ सपद्वारम् । तस्येदमादिम सत्रम्-'जयू ' इत्यादि। मूलम्-जवू । एत्तो य वभचेर उत्तमतवनियमनाणदसणचरित्तसमंतविणयमूल जम नियमगुणप्पहाणजुत्तं हिमवतमहततेयमत पसत्थगभीरथिमियमझं अज्जवसाहुजणाचरिय मोक्खग्ग विसुद्धसिद्धगइनिलय सासयमबावाहमपुणभवं पसत्थं सोम्म सुह सिवमचलमक्खयकर जइवरसारक्खिय सुचरियं सुभासिय नवरि मुणिवरेहि महापुरिसधीरसूरधम्मियधिइमताण य सया विसुद्ध भव्य भव्वजणाणुचरिय निस्सकियं निव्भय नित्तुसं निरायास निरुवलेव निव्वुइघर नियमनिप्पकंप तव चतुर्थ सवर द्वार प्रारभतृतीय अदत्तादान विरमण नामक सवरद्वार का व्याख्यान हो चुका, अब क्रम प्राप्त चतुर्थ ब्रह्मचर्य नामका सवरद्वार का व्याख्यान भारभ किया जाता है। इसका पूर्व सवरद्वार के साथ इस प्रकार से सबध है-जयतक मैथुन चिरमण नहीं होगा तब तक तृतीय सवरहार की सभवता नहीं हो सकती, इसलिये उसके अनन्तर सूत्रकार अय इस चतुर्थ सवरद्वार को प्रारभ कर रहे हैं। उसका यह सर्व प्रथम सूत्र है-'जबू' इत्यादि । 1 ચોથા સરકારને પ્રારભ ત્રીજા અદત્તાદાન વિરમણ નામના સવરદ્વારનું વર્ણન પૂરૂ થયુ, હવે અનુક્રમે આવતા ચોથા બ્રહ્મચર્ય નામના સવરદ્વારનું વર્ણન શરૂ કરવામાં આવે છે તેને આગળના સ વરદ્વાર સાથે આ પ્રમાણે સ બ ધ છે-જ્યા સુધી મિથુન વિરમણ થાય નહીં ત્યાં સુધી ત્રીજુ સવરદ્વાર સંભવિત થઈ રાતુ નથી, તેથી તેનું કથન કર્યા પછી હવે સૂત્રકાર આ ચોથા સ વરદ્વારની શરૂઆત ४२ छ तेनु सौथी पा सूत्र या प्रमाणे छे-"ज" त्यादि Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७७० प्रश्नव्याकरण इसके अनुसार अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति पर अकुश रखते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं, नवीन कर्मों का उनको यध नरी रोता है और सचित कर्मो की निर्जरा होती रहती है। पापों का स्रोत इसके प्रभावसे यध हो जाता है । यह अपरिनानी आदि विशेषणांगला है। त्रिकालवर्ती समस्त अरिस्त भगवंतोंने हमका पालन कियाहै । उन्हां के अनुसार भगवान महावीर प्रभु ने भी इसका उन्ही की मान्यतानुसार स्वरूपादि प्रदर्शन द्वारा कथन किया है। अपनी परिपदा में आये हुए समस्त जीवों को इसी प्रकार से इसका विवेचन किया है, अतः यह मगलमय है इसे धारण कर प्रत्येक जीय को-ममस्त सही पचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्यों को अपना जन्म सफल बना लेना चाहिये। इस प्रकार जवू स्वामी को इस तृतीय सवर द्वार के विषय में सुधर्मास्वामी ने समझाया है ॥ सू० ११ ॥ ॥ तृतीय सवरहार समाप्त ।। પ્રવૃત્તિ પર અંકુશ મૂકે છે, તેમના અશુભ અધ્યવસાય અટકી જાય છે, તેમને નવા કને બધ બધાને નથી. અને સચિત કર્મોની નિર્જરા થતી રહે છે તેના પ્રભાવથી પાપને ઓત બધ પડી જાય છે તે અપરિસ્ત્રાવી આદિ વિશેષણેથી યુક્ત છે ત્રિકાલવતી સમસ્ત અરિહંતોએ તેનું પાલન કરેલ છે તેમના પ્રમાણે જ ભગવાન મહાવીરે તેનું તેમની માન્યતા અનુસાર સ્વરૂપદિ પ્રદર્શન દ્વારા કથન કર્યું છે પોતાની પરિષદામા આવેલ સમસ્ત જીવો સમીપ એ જ પ્રકારે તેનું વિવેચન કર્યું છે, તેથી તે મગલમય છે તેને ધારણ કરીને પ્રત્યેક જી-સમસ્ત પચેન્દ્રિય પ્રર્યાપ્ત મનુએ--પિતાને જન્મ સફળ કરે જોઈએ આ પ્રમાણે સુધર્મા સ્વામીએ જ બૂસ્વામીને આ ત્રીજા સ વર દ્વાર વિષે સમજાવ્યું છે એ સૂ ૧૧ તૃતીય સવરદ્વાર સમાપ્ત Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०४ सू०१ प्रहाचर्यस्वरूपनिरूपणम ७६ तथा-'जमनियमगुणप्पडाणजुत्त' यमनियमगुणप्रधानयुक्तम्-तत्र-यमाःमाणाति पातचिरमणादय , नियमा-अभिगहादयस्ने च ते गुणप्रवाना. = गुणमुख्या:गुणाना मध्ये यमा नियमाश्च पर्वत श्रेष्ठ इत्यर्थ , तयुक्तम्, तथा-'हिमवतमहत्तेयमत ' हिमवन्महत्तेनम्पि-हिमवानिय पर्वतविशेष इस मह-विशाल तेजस्वि च यत्तत्तथोक्त, जय भव.-यथा हिमपान सकळपर्वतापेक्षया महान् तेजस्ती च वर्तते, तयैवेद ब्रह्मच सफलतापेक्षया विशाल तेजाम्बिचेति । उक्त च " जताना ब्रह्मचर्यहि, निर्दिष्ट गुरुक नतम् । तज्जन्यपुण्यसभार, सयोगाद् गुरु रुन्यते ॥ १॥" इति । तथा-'पसत्यगभीरथिमियमझ' प्रशस्तगभीरस्तिमितमभ्य प्रशस्त-शुभ गम्भीरम् अगाधम् , स्तिमित-स्थिर च मव्यम् अन्त. करण यस्मिन् सति तत्तथो (जमनियमगुणप्पाणजुत्त ) यह प्राणातिपात विरमण आदि यमों से एव अभिग्रह जादि नियर्मा से कि जो समस्तगुणो में श्रेष्ठ माने गये हैं युक्त है, तथा (हिमवतमहततेयमत ) जो हिमवान् पर्वत की तरह विशाल और तेजस्वी है, अर्थात् जिस प्रकार हिमवान् पर्वत सकल पर्वतों की अपेक्षा महान् और तेजस्वी माना जाता है, उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य व्रत भी सफलवतो की अपेक्षा विशाल तेजस्वी व्रत माना गया है। कहा भी है "ताना ब्रह्मचर्य हि, निर्दिष्टं गुरुक नतम् । तजन्य पुण्यसभार, सयोगाद् गुरुरुच्यते ॥१॥ व्रता मे सप से बडा त ब्रह्मचर्य है । क्यों कि ब्रह्मचर्य के पालन करने से जो पुण्यसमूह प्राप्त होता है-उसी के सबध से गुरु माना जाता है। अर्थात्- इसी ब्रह्मचर्य का पालक ही सच्चा गुरु कहलाता है। तथा-(पसत्वगभीरथिमियमज्झ ) इस ब्रह्मचर्य के सद्भाव से पालन " जमनियमगुणप्पहाणजुत्त" प्रातिपात विरभ माह यमाथी मन मलिગ્રહ આદિ નિયમેમાથી, કે જે સવે ગુણેમાં શ્રેષ્ઠ મનાય છે યુક્ત છે તથા " हिमवतमहततेयमत"२ डिमालय पतनी म विशा अने तरची છે, એટલે કે જેમ હિમાલય પર્વત સઘળા પર્વતે કરતા મહાન અને તેજસ્વી મનાય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને પણ સઘળા વર્તન કરતા વિશાળ તેજસ્વી વ્રત માનવામાં આવે છે કહ્યું પણ છે – "व्रताना ब्रह्मचर्य हि, निर्दिष्ट गुरुक तम् । तज्जन्यपुण्यसभार, - सयोगाद् गुरुरुच्यते ॥ १॥ વ્રતમાં સૌથી ટુ વ્રત બ્રહ્મચર્ય . કારણ કે બ્રહ્મચર્યના પાલનથી જે પુન્ય સમૂહ પ્રાપ્ત થાય છે-તેના કારણે તેને ગુરુ મનાય છે એટલે કે मा प्रहाय ने पास ११ साया गुरु उपाय छे तथा " पसत्यगभीरथि Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रश्नव्याकरणसूत्र संजममूलदलियणिभ पंचमहव्वयसुरक्सिय समिडगुत्तिगुत्त झाणवरकवाडसुकयरक्षणमझप्पदिण्णफलिह सन्नद्वय होच्छइय दुग्गइपहं सुगइपहदेसग च लोगुत्तम च वयमिण पउमसरतलागपालिभूय महासगडअरगतुवभूयं महाविडिमरखरखधभूयं महानगरपागारकवाडफलिहभृयं रज्जुपिणन्डोव्यइदकेउ विसु. गगुणसंपिणद्धं ॥ सू० १॥ _____टीका--'जबू' हे जम्बू । ' एत्तो य' इतश्व-मदत्तादानविरमणसवरद्वारसमाप्त्यनन्तर च 'वभचेर' प्रमचयं नाम चतुर्थ समरद्वारमभिगीयते । तत्ति स्वरूपमित्याह-' उत्तमतवनियमनाणसणचरित्तविणयमूल ' उत्तमतपोनियमज्ञानद शनचारित्रपिनयमूलम्-तत्र उत्तमा प्रधानाः ये तपो नियमज्ञानदर्शनचारित्रविनया तत्र-तपः अनशनादिक द्वादशनिधम् , नियमा=अभिग्रहादय , ज्ञान-पदार्थाना विशिष्टबोधः, दर्शनम् तत्वश्रद्धानरूपम् , चारित्र-सावद्ययोगविरतिलक्षणम् , त्रि नया अभ्युत्थानादिलक्षण., एतेपी द्वन्द्व, तेपा मूलमिवमूल कारण यत्तत्तथोक्तम्, टीकार्थ-(जबू) हे जम्बू ! (एत्तो य) अदत्तादानविरमण नामक सवरद्वार की समाप्ति के अनन्तर अब मैं (वभचेर ) ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ सवर द्वार को करता है। उसका स्वरूप इस प्रकार है-(उत्तमतवनियमनाणदसणचरित्तविणयमूल ) अनशन आदि बारह प्रकार के उत्तमतपों का, उत्तम अभिग्रह आदि रूप नियमो का, पदार्थी का विशिष्टयोध रूप उत्तमज्ञान का, पदार्थों का अद्धानरूप उत्तमदर्शन का सोवद्ययोग विरतिरूप उत्तम चारित्र का, और अभ्युत्थान आदि रूप उत्तम विनय का, मूल की तरह यह ब्रह्मचर्य मूल कारण है, तथा __Ast-"ज" है. यू | "एत्तो य" महत्तान विरभान नामना सवारी समाति ५छी वे " बमचेर " प्रहाय नामना याथा सव२ द्वारनु वर्ष ४३ तेनु २१३५ मा प्रभारी छ “ उत्तमतरनियमनाणदसणचरित्त विणयमूल" अनशन माह मा२ २ना उत्तम तनु, उत्तम मनि आदि રૂપ નિયમન, પદાર્થોના વિશિષ્ટ બોધરૂપ ઉત્તમ જ્ઞાનનુ, પદાર્થોના શ્રદ્ધાન રૂપે ઉત્તમ દર્શનનુ સાવદ્યોગ વિરતિરૂપ ઉત્તમ ચારિત્રનું, અને અભ્યસ્થાન 'આદિ રૂપ ઉત્તમ વિનયનું, મૂળની જેમ આ બ્રહ્મચર્ય મૂળ કારણ છે તથા Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ सू० १ ब्रह्मचर्यस्वरूपनिरूपणम् तधा-'सुह ' सुख-सुखस्वरूपत्वाद , 'सिव ' शिवम् निरुपद्रवत्वात् , तथा'अयल ' अचलम्-म्पन्दनादिवर्जितत्वात् , तथा ' अस्वयकर ' अक्षयकरम् अक्षयो मौतस्तत्करम् भवतीजाडराजननात् , तया-' जइबरमारक्खिय' यतिवरसंरक्षितम् यतिवरैः- मुनिमधानः तीयङ्करगणधरादिभिः सरक्षित परिपालितम् , तथा · सुचरिय ' सुचरितम्-शोभनानुष्ठानम् , तथा-'मुणिवरेहिं ' मुनिपरैःतीर्थंकरादिभिः 'नवरि' केवल 'मुभासिय ' सुभापित-मृष्ठ प्रतिपादितम् , च =पुनः-इट ब्रह्मचर्य 'महापुरिसवीरमरधम्मियधिडमताण ' महापुरुषधीर शूरधामिकधृतिमताम्-महापुरुपा:-पुरुषश्रेष्ठा, धीरशूराः=धीगणां मध्ये सूरा अत्य न्तसादससपन्नाः, धार्मिका धर्मपरायणाः, धृतिमन्तो धैर्यवन्तः, एपा कर्मधारयः, तेपा तथोक्तानाम् 'सया' सदा-कुमारादिसविस्थासु ' सुविसुद्ध' सुहोने से यह प्रशस्त है । (सोम्म ) समस्त मनुष्यों के मन को प्रफुल्लित करने वाला होने से यह मौम्य है। (सुह) सुखस्वरूप होने से यह एक सुख है। (सिवमयलमक्खयकर ) उपद्रव रहित होने से यह शिवरूप है । स्पन्दनादि क्रिया से वर्जित होने के कारण यह अचल है। भवरूप बीज के अकुरका उत्पादक नहीं होने से अक्षय-मोक्षदा कारक है अतः यह अक्षयकर है-1 (जइवरसारक्खिय) मुनिप्रधान-तीर्थकर एव गणधर आदि देवों द्वारा पाला गया होने से यह यतिवर सरक्षित है। (सुचरिय ) शोभन आचार रूप होने से यह सुचरित है। (नपरि मुनिपरेहिं सुभासिय केवल मुनिवरों-तीर्थंकरों द्वारा ही यह अच्छी तरह से प्रतिपादित किया गया है। तथा यह ब्रह्मचर्य महापुरिसधीर-सर- धम्मिय-धिइमताण य सया विसुद्ध ) महापुरुषों का, धीरों के " पसत्थ " नि डापाथी ते प्रशस्त छ “ सोम्म" भरत भनुध्यामा भनने प्रवृत्ति ४२ना२ सापाथी त सौम्य छ “ सुह " भुम२१३५ डोपाथी ते से सुभ छ “सिवमयलमक्सयकर " ५२डित हवाथी ते शिवરૂપ છે ચન્દનાદિ ક્રિયાથી રહિત હોવાથી તે અચળ છે ભવરૂપ બીજના અકુરનુ ઉત્પાદક નહી હોવાથી તે અક્ષય–મોક્ષકારક છે, તેથી તે અક્ષયકર "जइवरसारक्खिय " मुनिप्रधान-तीर्थ ४२ भने गध। माह वो दास पाये छापाथी ते यतिव२ स २क्षित छ “ सुचरिय " सु४२ माया२३५ ते सुयरित " नवरि मुनिवरेहिं सुभासिय" उ भुनिय।-तीय ४२। द्वारा तेनु सारी शत प्रतिपादन ४२॥यु छ तथा “ महापुरिस-धीर-सूरभम्मिय-धिइमताण य सया विसुद्ध " महापुरुषा, धीशनी १२ये ५५ धीर Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ يوف মালুম कम् , ब्रह्मचारिणोऽन्तःकरण प्रशस्ततागाम्भीर्यस्थैर्ययुक्त भवतीति भावः । तया -- 'अज्जवसाहुजणाचरिय' आजपमाननाचरितम् आर्जन्सरलभावे सलग्ना ये साधुजनास्तैराचरितम् । तथा ' मोसमग्गे ' मोसमाः मोक्षम्यानप्रापफ इत्यर्य तथा 'विसुद्धसिद्धिगइनिलये' विशुद्धसिद्धगतिनिलय =विशुद्धारागादिदोषर जितत्वान्निर्मलाया सिद्धिः कृतकृत्यता, सैरगम्यमानताद् गतिम्तस्या निलयोगृहम् सिद्धिगतिमापकत्वात्सिद्विस्थानमित्यर्थ , तथा 'सासय ' शाश्वत माधपर्यवसितशिवसुखजनकत्वात् , ' अव्यापार ' अव्यागाध शारीरिकमानसिन्दुः खवर्जितत्वात् 'अपुणभर' अपुनर्भवम् पुनर्जन्मप्रतिरोधात्यात् , ‘पमत्य' प्रशस्तम्-निर्मलत्वात् , तथा-' सौम्म ' सोम्यम्--सारजनमनोमोटजनकत्वाद, कर्ता का अतःकरण शुभ, गभीर-अगाध, एव स्थिर हो जाता है । तथा (अजवसाहुजगाचरिय ) यह ब्रह्मचर्य, आर्जव में-सरलभाव में-सलग्न बने हुए साधुजनों के द्वारा आचरित किया जाता है । तथा-(मोक्ख मग्गे ) यह ब्रह्मचर्य अपने पालनकर्ता को मोक्ष स्थान की प्राप्ति कराने वाला होता है तथा ( विसुद्धसिद्धिगह निलये ) यह ब्रह्मचर्य विशुद्धरागादि दोषो से वर्जित होने के कारण निर्मल-जो कृतकृत्यता रूप गति है उसका घर है-सिद्धि गति का प्रापक होने से सिद्धि का स्थान है तथा (सासय) साद्यपर्यचसित शिव सुख का जनक होने से यह ब्रह्मचर्य शाश्वत है ( अव्वाचाह) शारीरिक एव मानसिक दुःखों से रहित होने के कारण यह ब्रह्मचर्य अव्यायाध-याधा से रहित है। ( अपुणभन) इसके प्रभाव से ससार मे जीव का पुनर्जन्म नहीं होता, उसका यह प्रतिरोधक है इसलिये यह अपुनर्भवरूप है। (पसत्यानिमल मियमझ" ते प्रायया पासनथी तेनु पासन ४२नारनु सात २४ शुन, लार, मथ, मने स्थिर थ तय छे तथा “ अज्जवसाहुजण चरिय" આ બ્રહાચર્ય, આર્જવ, સરલ ભાવમાં લીન થયેલ સાધુજને દ્વારા આચરવામાં भाव छ तथा "मोक्समग्गे " मा प्रायर्य, तेनु पालन ४२ना२ने भाक्षना प्राप्ति शबना२ डाय छे तथा “विसुद्धसिद्धिगइनिलये"मा प्रहाययं विशुद्ध રાગાદિ દેથી રહિત હોવાને લીધે નિર્મળ-કે કૃતકૃત્યતા રૂપ ગતિ છે તેનું घर -सिद्धिगति प्रात ४२वाना२ डापाथी सिद्धिनु -थान छ, तथा “ सासय " यभी शिव सुमनु न पाथी मा ब्रह्मययं शाश्वत छ “ अव्वावाह " શારીરિક અને માનસિક દુખેથી રહિત હોવાને કારણે આ બ્રહ્મચર્ય અવ્યાमाध-माधाथी २जित छ, “ अपुणभय" तेना प्रमाथी ससारमा ने પુનર્જન્મ લે પડતો નથી તેનું તે પ્રતિરોધક છે તેથી તે અપુનર્ભવરૂપ છે Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०१ प्रमचर्य स्वरूपनिरूपणम् ७६७ तयवेद ब्रह्मचर्यमनि शुभ्रमिति भाष., तया- निरायास' निरायास-तेहाजन कम् , 'निस्वलेव ' निरुपलेपम्-विषयस्नेहपार्जितम् , तथा-'निसुइयर' नि तिगृहम् निहतेः-चित्तसमावेः गृह स्थानम् , ' नियमनिष्पाप' नियमनिष्प्र कम्प-नियमेन=निश्चयेन, निष्पकम्प-अविचलम्-निरतिचारत्वात् , तथा-' तर रूप तुप से विहीन होने के कारण निलकुल शुभ्र-पवित्र है । (निरायास) हमके पालन करने से किसी भी प्रकार का पालनकर्ता को आयासअर्थात्-कष्ट नहीं उठाना पड़ता है इसलिये खेद का अजनक होने से यह निरायामरूप है। (निम्बलेव ) वैपयिक पदार्थो की ओर ब्रमचारी के चित्त में थोड़ा सा भी स्नेह-रागभाव नही होता है, अतः विपय स्नेहवर्जित होने से यह ब्रह्मचर्य निरुपलेप है। (नियुइघर) ब्रह्मचारी के हि चित्त की स्वस्थता रहती है, क्यों कि विपयों की ओर उसकी लालसा नही जाती है, अत उस सबंध को लेकर उसके चित्त में असमाधिरूप आकुल व्याकुल परिणति नही रहती है इसलिये यह ब्रह्मचर्य चित्त ममाधि का एक घर है। (नियमनिप्पकप) अतिचारों से विहीन होने के कारण यह ब्रह्मचर्य नियम से-निश्चय से निष्प्रकम्पअविचलित होता है। तात्पर्य यह है कि गृहस्थों के ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार लग सकने के कारण उनका वह ब्रह्मचर्य विचलित नहीं होता है परन्तु साल सयमी जनों का ब्रह्मचर्य अतिचारों से विहीन होता है, इसलिये यह यहा अविचलित कहा गया है । (तवसजमहापाथी तन गुन पवित्र “निरायास" तेनु पासान उपाथी पासन કર્તાને કોઈ પણ પ્રકા આયાસ–ખેદ એટને કે કષ્ટ ઉઠાવ પતુ નથી तेथी मेहनन नहपान २ ते निरायास३५ छ " निस्चलेच" वैषयि પદાર્થોની તરફ બ્રહ્મચારીને ચિત્તમાં જરી પણ નેહ-રાગભાવ થતો નથી, तथी विषय-२३ २खित सापाथी प्रहायर्यने निकपडे५ छ " निन्जुइधर " બ્રહ્મચારીના ચિત્તની સ્વસ્થતા રહે છે, કારણ વિષયોની પ્રત્યે તેને લાલસા થતી નથી તે સબ ધને લીધે તેને ચિત્તમા અસમાધિરૂપ આકુળ વ્યાકુળતાના રૂપ પરિણતિ રહેતી નથી તેથી આ બ્રહ્મચર્ય ચિત્ત સમાધિનું એક ઘર છે "नियमनिष्पकप " अतियाराथी (हुत पाने २२, २मा प्राय अवश्य નિષ્પકમ્પ-અવિચલિત હોય છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે ગૃહના બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં અતિચાર લાગી શકે છે તે કારણે તેમનું બ્રહ્મચર્ય અવિચલિત હેતુ નથી, પણ અકળ મયમીજનનુ બ્રહ્મચર્ય અતિચારેથી રહિત હોય છે, તે प्र० ९८ Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ प्रमव्याकरणम् विशुद्ध-निर्दोषम् , एपामेव नामचर्य तिोप भरतीनि मात्र, तथा-' भन्न भव्य-कल्याणरूपम् , ' भव्यमणाणुचरित्र' भव्यजनानुचरितम् भव्यजनसमारा धितम् , तथा-'निम्मकिय ' निगडित, नामचारी हि विषयगृहान्यत्वान नाना मध्ये निःशयनीयो भातीति नामचर्यमपि निगदिगम् , तथा 'निमय निर्भय, ब्रह्मचारिणो हि निर्भया भान्ति, निर्भयताकारणत्वात् ब्रह्मचर्यमपि निर्भ यम् तथा- नितुम' निस्तुप-विशुद्धमित्यर्थः, यथा-सुपनिर्गत तण्डल शुभ्र भवति भी बीच में धीर कहे जाने वाले शरों का अत्यत मारसप्तपन्न व्यक्तियों के, धार्मिक पुरुषों के, और धैर्यशाली पुरुषों को यह सदा-कुमार आदि अवस्थाओं में भी सुविशुद्ध-निर्दीप रहता है। ( मन्च) यह ब्रह्मचर्य कल्याणरूप है। (भन्यजणाणुचरिय ) भन्यपुरुपो द्वारा या आराधित किया हुआ है । (निस्सकिय) यह व्रत्मचर्य निश्शकिन रोता है। क्यों कि ब्रह्मचारी विषयलालसा से शून्य होने के कारण मनुष्यों के भीतर किसी भी तरह से शकास्पद नही होता है अतः यह प्रभाव उसके ब्रह्मचर्य का ही है इमीलिये यहां पर सूत्रकार ने निशक्ति वृत्ति का कारण होने से ब्रह्मचर्य को भी निश्शकित कहा है। इसी तरह यर ब्रह्मवर्य (निभय ) निर्भय होता है। क्यों कि ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले पुरुप रत्न सर्वत्र निर्भय रहा करते है, अतः निर्भयता का कारण होने से ब्रह्मचर्य को निर्भय विशेपण से सूत्रकार ने विशिष्ट किया है । तथा यह ब्रह्मचर्य (नित्तुस) निस्तुप है-तुपविहीन तण्डुल जिस प्रकार शुभ्र होता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी विषय लालसा તરીકે ઓળખાતા શુરે, અત્યત સાહસયુક્ત વ્યક્તિઓ, ધાર્મિક પુરુ, અને, પૈર્યશાળી પુરુષોને તે સદા કુમાર આદિ અવસ્થામાં પણ સુવિશુદ્ધ નિર્દોષ २९ छे “ भव्य " मा प्रायः स्या३५ छ " भव्यजणाणुचरिय " मध्य पुरुषी द्वारा तेनु अराधन थाय छ " निस्सकिय " मा ब्रह्मययनिति હોય છે, કારણ કે બ્રહ્મચારી વિષય લાલસા રહિત હોવાથી મનુબેમાં કઈ પણ પ્રકારે શકાને પાત્ર થતું નથી આ તેના બ્રહ્મચર્યને જ પ્રભાવ હેવાથી અહી સૂત્રકારે નિ હાનિત વૃત્તિનું કારણ હોવાથી પ્રહાચર્યને પણ નિ શક્તિ पुछे से प्रभारी मा प्राय " निभय " मय जाय छ १२०५४ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરનાર પુરુષે સર્વત્ર નિર્ભય રહી શકે છે તેથી નિર્ભ– યતાનું કારણ હવાથી બ્રહ્મચર્યને સત્રકારે નિર્ભય વિશેષણ લગાડયું છે તથા मा प्रहाययं " नित्तुस " निस्तुप-तुप विहीन (शात विनाना) या જેમ શુભ્ર હોય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય પણ વિષય લાલસા રૂપી તુર વિહીન Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अष्ट सू० १ 'विनय' प्राचर्य स्वरूपनिरूपणम् हसग च ' गतिपथदेशक च= गते =सर्गापास्य पन्था' - तुगतिपथस्तस्य देशदर्शक यत्तव तथा-' लोगुत्तम च' लोकोत्तम चलोयेष्ठ 'चयमिण' तमिदम् - ३६ ब्रह्मचर्यरूप नत 'पउमसरतलागपायभूय' पद्मसरस्नडागपालिभूतम् - पद्मप्रधानः सरस्तडागः पद्मपरस्तदाग', पण सरस्तडागइव सुखत्वेन प्रमोदकत्वेन इरत्वेन च समुपादेयत्वाद् र्मोऽपि पद्मसरस्तडागः, तस्य पालिभूत = रक्षास्पेन पालिकल्प यत्तत्, तथा ' महामगडअगर तुनभूय' महाशकटाररूनुम्नभूतम् - महाशकटस्य=अरका इन=अरा परका क्षान्तादयोगुणास्तेपा तुम्नभूतम्, आवार भूतम् तथा 'महाविडिमपक्व भूय' महाविटपवृक्षस्कन्धभूतम् - महान्तो पिटपाः शाखा GST पदेसग च) और उसे स्वर्ग और अपवर्गरूप सुगति के मार्ग को दिखलाता रहता है । इसीलिये ( वयमिण ) यह व्रत ( रोगुत्तम च ) लोकय में श्रेष्ठ है । तथा यह व्रत ( पसरतलाग पालिभृय ) पद्मप्रधान सरोवर और asia की पालि जैसा है, अर्थात् सुग्वद होने के कारण, प्रमोद कारक होने के कारण, और मन को हरण करने वाला होने के कारण जैसे पद्मप्रधान सरोवर और तडाग समुपादय होते हैं उसी प्रकार सुखदाता प्रमोदक और मनोहर होने के नाते धर्म सी समुपादेय होता है- -अतः धर्म भी पद्मप्रधान सरोवर और तडाग जैसा है । उस धर्म रूप सरोवर और तडाग का यह रक्षक होने के कारण पालि-पाल जैसा है। तथा ( महासगडअरगतुनभृप ) महाशकट के आरों के समान क्षान्त्यादिक गुणों का यह तुम्यभूत-आधारभूत है । तथा (महा विडिमरुख खधभूय) महाशाखा शाली वृक्ष के समान आश्रितों 66 सह त रोजी हे छे “सुगइपदेसगच" अने तेने स्वर्ग भरे वर्गो ३५ सुगतिना भार्ग दर्शवितु रहे छे तेथी "वयमिणं " माव्रत " लोगुत्तमच " त्र सोभा શ્રેષ્ઠ છે તથા मा વ્રત परमसरतला गपालिभूय " भोथायुक्त सरोवर અને તળાવની પાળ જેવુ છે એટલે કે સુખદે હોવાને કારણે, પ્રમેાદકારક હાવાને કારણે, અને મનેાહર ાવાતે કારણે જેમ પદ્મપ્રધાન સરૈાવર અને તળાવ સમુપાદેય હાય છે તે જ પ્રકાર સુખદાતા, પ્રમાદક અને મનેહર હાવાને કારણે ધમ પણ મમુપાદેય હોય છે તેથી ધમ પદ્મયુક્ત મરેવર અને તળાવ જેવા છે તે ધરૂપ સરેવર અને તળાવનુ ( બ્રહ્મચર્ય રક્ષક "" 66 હાવાથી પાળ જેવુ છે તથા "" महासगडअरगतुन भूय भडा राइट-गोडा-नी ધરીના સમાન ક્ષાન્ત્યાદિ ગુણુાનુ તે તુમ્મભૂત છે તથા क्सधभूय ” મહા રાખાવાળા વૃક્ષની જેમ આશ્રિતાનુ महाविडिमरुवखપરમ સુખકારી હાવાથી Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७८ प्रश्नध्याकरणसूत्रे मजममूलदलियणिभ ' तपः-सयममलदकिनिमम तपः सयमयो मृलदलिकमूलद्रव्यम् मूलध-मित्यर्थः, तस्य निभम्पा यत्तत्तथा, तथा-' पचमहव्वयसरक्खिय ' पञ्चमहानतमुरक्षित पञ्चमहागानां मध्यस्थितन सुरक्षितमिव यत्त सथोक्तम् , तथा 'समिइगुत्तिगुत्त' समिनिगुप्तिगतम्-ममितिमिाईर्यासमित्या दिभिः, गुप्तिभिः मनोगुप्यादिमिश्र गुप्तम्-रक्षितम् , तथा-'हाणपरकगडसुक्यरखण' भ्यानपरमेषधम यानमे सपाटम्-तेन सुटि-शोगनतया कृत रक्षण यस्य तत् , तथा--'अज्झप्पदिण्गफलिह' यात्मदत्तपरिवम् अध्यात्ममेन-सका वएव कपाटदृढीकरणार्थ दत्तः परिष-अर्गला रसायें यस्य तत् , तथा-' सनद्धन दोच्छइयदुग्गइपह । सनद्धनद्धाच्छादितदर्गतिपयम्-सनद्रोपद्धआन्छादितश्च अर्थात् सनतो निरुद्रो दुर्गतिपयो दुर्गतिमार्गों येन तत्तपोक्तम् , तथा- मुगइपमूललियणिभ ) तप और संयम का यह वनचर्य मृल धन जैसा है। (पचमहव्वयसुरस्विय) जिस प्रकार पान पुरुषों के बीच में रहा हुआ पुरुप सुरक्षित रहता है उसी प्रकार यह ब्रमवयं भी पाच महाव्रतों के याच में स्थित होने के कारण सुरक्षित के जैसा है। (समिइयत्तिगुत्त) ईसमिति आदि पांच समितियों से एच मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियों से भी इसकी मदा रक्षा होती रहती है इसलिये यह समिति और गुप्तियों से भी गुप्त-सुरक्षित कहा गया है। तथा (प्राणवरकवाड सुकयर खण) उसकी रक्षा सदा धर्म यान रूप मजबुत किवाड़ों से भी बहुत अच्छी तरह होती रहती है (अजनप्पदिणफलिह इसकी रक्षा के निमित्त इन किवाडों में मजवती लाने वाला अर्गला जैसा अध्यात्म-सद्भाव वा काम करता है। (सन्नद्धबद्धोच्हयदुग्गहपह) यह ब्रह्मचयें अपने पालक के दुर्गतिमार्ग को सर्वथा रोक देता है, (सुगइ २५ तेने मी वियसित प्यु छ तसजममूलदलियणिभ " त५ भने सयभनु मा प्रहायर्थ भूगधन समान छ “पचमवयसुरक्खिय" જે રીતે પાચ પુરુષેની વચ્ચે રહેતે પુરુષ સુરક્ષિત રહે છે, તે જ પ્રમાણે मा अभयय पर पाय मडावतोनी पाये हेसडपाया सुरक्षित छ " समिडू गुत्तिगुत्त "झा यो समिति माह पाय समितिमाथी मने मनाति माह-- ત્રણ ગુપ્તિથી પણ તેનુ સદા રક્ષણ થતું રહે છે, તે કારણે તે સમિતિ અને शुतियाथी पाए गुस-सुरक्षित वायु छ तथा “ झाणवरफनाडसुक्य रक्षण" તેનું રક્ષણ હ શા ધયે ધ્યાનરૂરી મજબૂત કમાડાથી પણ ઘણું સારી રીતે शत यया ४२ छ " अण्झपदिण्णफलिह" तनी रक्षाने निमत्त त भाडामा મજબૂતી લાવનાર આગળીયા જેવું અધ્યાત્મ-સદભાવ ત્યા કામ આપે છે " सन्नवदोच्छड्यदुग्गइपह" मा प्रभाय तेनु भवन उरना२ना गतिमान Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ० ४ सू० २ घमचर्य स्वरूपनिरूपणम् पुनरपि ब्रह्मचर्यमाहात्म्यमाह-'जम्मिय मग्गे' इत्यादि। मूलम्-जम्मि य भग्गे होइ सहसा सव्व सेभग्गमहियचुपिणयकुसल्लियपट्टपडिय-खडियपरिसडियविणासिय विणयसीलतवनियमगुणसमूहं त वंभ भगवत गहगणणक्खत्ततारगाणं च जहा उडुबई मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागरणं च जहा समुद्दो, वेरुलिओ चेव जहा मणीणं, जह मउडो चेव भूसणाणं वत्थाणं चेव क्खोमजुयल अरविद चेव पुप्फजेट गोसीस चेव चदणाणं हिमवतो चेव ओसहीणं सीतोदा चेव निन्नगाणं उदहीसु जहा सयभूरमणोरुयगवरो चेव मडलिगपव्वयाणपवरे भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार चतुर्थ सवरद्वार का विवेचन कर रहे हैं । इसमें नौ कोटि से अब्रह्म का पूर्ण त्याग हो जाता है, इसलिये यह ब्रह्मचर्य महावत कहलाता है। व्रत का तात्पर्य यही है कि दोपों को समझ कर उनके त्याग का नियम करने के बाद फिर से उनका सेवन नहीं करना । ब्रह्मचर्य व्रत को परिपालन करने के लिये अतिशय उपकारक कितने ही गुण हैं, जैसे आकर्पक स्पर्श, रस, गध, रूप, शब्द और शरीरसस्कार आदि में न फँसना, त्रुटियो को हटाने के लिये जानादि सद्गुणों का अभ्यास करना, एव गुरुकी आधीनता के लिये गुरुकुल मे वास करना । इस सूत्र में इसी ब्रह्मचर्य महावत के गुण गौरव का व्याख्यान सूत्रकार ने किया है । सू० १ ॥ ભાવાર્થ...આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકાર ચોથા સાવરકારનું વિવેચન કરે છે તેમા નવ પ્રકારે અબ્રહ્મને સ પૂર્ણ ત્યાગ થઈ જાય છે તેથી તે બ્રહ્મચર્ય મહા નત કહેવાય છે નતનુ તાત્પર્ય એ છે કે દોને સમજીને તેમના ત્યાગને નિયમ કર્યા પછી ફરીથી તેનું સેવન ન કરવુ બ્રહ્મચર્ય વ્રતનુ પરિપાલન કરવાને માટે અતિશય ઉપકારક કેટલાક ગુણ છે, જેમ કે આકર્ષક સ્પર્શ, રસ, ગધ, રૂપ શબ્દ અને શરીર સંસ્કાર આદિમા ફસાવુ નહી, ત્રુટિને દૂર કરવા માટે જ્ઞાનાદિ સદ્દગુણેને અભ્યાસ કરે, અને ગુરુની આધીનતાને સેવનને માટે ગુરુકુલમાં વાસ કરો આ સૂત્રમાં એ જ બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રતના ગુણ ગૌરવનુ વર્ણન સૂત્રકારે કર્યું છે કે ૧ Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ থাকলে यस्य स महाविटपः,सचासौ रक्षश्र नाश्रिताना परमोपकारसत्यसायाद धर्मस्तस्य स्कन्धभूत यत्तत्तधोक्तम् , अय भा-यथा सन्धोरसगाग्वाऽऽधारभूतस्तथैवनाम चर्य धर्मशाखाऽऽधारभूतम् । तथा-' महानगरपागारसगाडफलिभूय ' महानगरमाकारकपाटपरिषभूतम्-महानगरमित्र महानगर विविधमुखहेतु साधा धर्मः, तस्य रक्षकत्वात् प्राकाररूप, कपाटरूप पग्विभूतम् = अर्गलारूपम् , यत्तत्तथी क्तम् तथा-' रज्जुपिणद्धोबडदकेऊ ' रज्जुपिनदइन इन्द्रकेतुः यथा-रज्जुबदर न्द्रवजो महोत्सवे सोपरि वर्तमानः परमशोमा जनयति, तथैवेदं सर्वत्रतश्रेष्ठ ब्रह्मचर्यम् । तथा-'विसुद्धणेगगुगसपिणद्ध % विशुद्धानेकगुणसपिनद्ध विशुद्धा येऽ नेकगुणास्तैः सपिनद्ध सग्रथितमिदं ब्रह्मचर्यमस्ति । मू०१ ॥ का परम उपकारी होने से धर्म का यह स्कध जैसा है। अर्थात् जिस प्रकार स्कध वृक्ष की शाखाओ का आधारभूत रोता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी धर्म की शाखाओं का आधारभूत है। तथा (महानगरपागारकवाडफलिरभूय ) महानगर के समान विविध मुखो का हेतुभूत होने के कारण धर्मरूप नगर का यह रक्षक होने से प्राकार जैसा, कपाट जैसा और अर्गला जैसा है। तया (रज्जुपिणदोव्वइदकेऊ) जिस प्रकार रज्जु बद्ध इन्द्रध्वज महोत्सव में सर्वोपरि वर्तमान होता हुआ परम शोभा को विस्तारता है उसी तरह यह ब्रह्मचर्यव्रत भी सर्वव्रतों में श्रेष्ठ है और परम शोभा का जनक होता है। तथा (विसुद्धणेगगुणसपिणद्ध) विशुद्ध अनेक गुणों से यह ब्रह्मचर्य अच्छी रीति से (सपिणद्ध ) ग्रथित-युक्त है। તે ધર્મના સકધ જેવું છે એટલે કે જેમ થડ વૃક્ષની શાખાઓને માટે આધાર રૂપ હોય છે એ જ પ્રકારે બ્રહ્મચર્ય પણ ધર્મની શાખાઓના આધાર ३५ छे तथा “ महानगर पागार कवाड फलिहभूय " महानामा समान विविध સુનુ હેતુભૂત હેવાને કારણે ધર્મનગરનું તે રક્ષક હેવાના પ્રકાર જેવું, ४ाट २७ मने Ananछे तथा "रज्जुपिणदोव्वइदके" रेभ २०१४ (૨૩) બદ્ધ ઈદ્રધ્વજ મહત્સવમાં સર્વોપરિ દેખાતે પરમ શેભાને વિસ્તારે છે તે જ પ્રમાણે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રત પણ સર્વવતેમાં શ્રેષ્ઠ છે અને પરમ समानु न य छ तथा — विसुद्धणेगुगुणसपिणद्ध " विशुद्ध भने गुथी मा प्राययं सारी रीते " सपिणद्ध " अथित-युत छ Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " वा भगवायविणामिहियच. सुदर्शनी टीका अ० ४ २० २ ग्रहमचर्य स्वरूपनिरूपणम् __ पुनरपि ब्रह्मचर्यमाहात्म्यमाह- जम्मिय भग्गे' इत्यादि । मूलम्-जम्मि य भग्गे होइ सहसा सब सेभग्गमहियचुपिणयकुसल्लियपल्टपडिय-खडियपरिसडियविणासिय विणयसीलतवनियमगुणसमूहं तं वंभ भगवंत गहगणणक्खत्ततारगाणं च जहा उडुवई मणिमुत्तसिलप्पवालरत्तरयणागरण च जहा समुद्दो, वेरुलिओ चेव जहा मणीण, जह मउडो चेव भूसणाणं वत्थाणं चेव क्खोमजुयल अरविद चेव पुप्फजेटू गोसीसं चेव चंदणाण हिमवतो चेव ओसहीणं सीतोदा चेव निन्नगाणं उदहीसु जहा सयभूरमणोरुयगवरो चेव मडलिगपव्वयाणपवरे भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार चतुर्थ सवरडार का विवेचन कर रहे हैं। इसमें नौ कोटि से अब्रह्म का पूर्ण त्याग हो जाता है, इसलिये यह ब्रह्मचर्य महाव्रत कहलाता है। व्रत का तात्पर्य यही है कि दोपों को समझ कर उनके त्याग का नियम करने के बाद फिर से उनका सेवन नहीं करना । ब्रह्मचर्य व्रत को परिपालन करने के लिये अतिशय उपकारक कितने ही गुण हैं, जैसे आकर्षक स्पर्श, रस, गध, रूप, शब्द और शरीरसस्कार आदि में न फँसना, त्रुटियो को हटाने के लिये जानादि सद्गुणों का अभ्यास करना, एव गुरुकी आधीनता के लिये गुरुकुल मे वास करना । इस सूत्र मे इसी ब्रह्मचर्य महावत के गुण गौरव का व्याख्यान सूत्रकार ने किया है। सू० १॥ ભાવાર્થઆ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકાર ચોથા વરદ્વારનું વિવેચન કરે છે તેમાં નવ પ્રકારે અબ્રાને સ પૂર્ણ ત્યાગ થઈ જાય છે તેથી તે બ્રહ્મચર્ય મહા વ્રત કહેવાય છે વ્રતનું તાત્પર્ય એ છે કે દોને સમજીને તેમના ત્યાગનો નિયમ કર્યા પછી ફરીથી તેનું સેવન ન કરવુ બ્રહાચર્ય વ્રતનુ પરિપાલન કવ્વાને માટે અતિશય ઉપકારક કેટલાક ગુણ છે, જેમા કે આકર્ષક સ્પર્શ, રસ, ગધ, રૂપ શબ્દ અને નારી સરકાર આદિમા ફરમાવુ નહી, ત્રુટિને દૂર કરવા માટે જ્ઞાનાદિ સદગુણેને અભ્યાસ કર, અને ગુરુની આધીનતાના સેવનને માટે ગુરુકુલમાં વાસ કરે આ સૂત્રમાં એ જ બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રતના ગુણ ગૌરવનું વર્ણન સૂત્રકારે કર્યું છે કે ૧ છે Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - 20 स्य समहाविटपः,स चासौ वृक्षन आश्रिताना परमोपकारस्त्यसायाद धर्मस्तस्य स्कन्धभूत यत्तत्तथोक्तम् , अय मार:-पथा स्कन्धोरक्षनाखाऽऽधारभूतस्तथैवनाम पर्य धर्मशाखाऽऽधारभूतम् । तथा- महानगरपागारकबाडफलिहभूय ' महानगरमाकारकपाटपरिधभूतम्-महानगरमित्र महानगर विविधमुखहेतु साधाद् धर्मः, तस्य रक्षकत्वात् माकाररूप, कपाटरूप पग्धिभूतम् = अर्गगरूपम् , यत्तत्तथो क्तम् तथा-' रज्जुपिणदोन्बइदकेक' रज्जुपिनद्धय इन्द्रमतुः यथा-रज्जुबदर न्द्रघजो महोत्सवे सोपरि वर्तमानः परमशोभा जनयति, तथैवेद सर्ववतश्रेष्ठ ब्रह्मचर्यम् । तथा-' विसुद्धणेगगुणसपिगद्ध = विशुद्धानेकगुणसपिनद्ध विशुदा येऽ नेकगुणास्तैः सपिनद्ध सग्रथितमिदं ब्रह्मचर्यमस्ति । भू०१॥ । का परम उपकारी होने से धर्म का यह स्कध जैसा है। अर्थात् जिस प्रकार स्कध वृक्ष की शाखाओ का आधारभूत रोता है उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य भी धर्म की शाखाओं का आधारभूत है। तथा (महानगरपागारकवाडफलिहभूय) महानगर के समान विविध मुखो का हेतुभूत होने के कारण धर्मरूप नगर का यह रक्षक होने से प्राकार जैसा, कपाट जैसा और अर्गला जैसो है। तथा (रज्जुपिणद्वोव्वइदकेऊ ) जिस प्रकार रन्जु बद्ध इन्द्रध्वज महोत्सव में सर्वोपरि वर्तमान' होता हुआ परम शोभा को विस्तारता है उसी तरह यह ब्रह्मचर्यत्रत भी सर्वव्रतों में श्रेष्ठ है और परम शोभा का जनक होता है। तथा (विसुद्धणेगगुणसपिण) विशुद्ध अनेक गुणो से यह ब्रह्मचर्य अच्छी रीति से ( सपिणद्ध ) ग्रथित-युक्त है। તે ધમના ક ધ જેવુ છે એટલે કે જેમ થડ વૃક્ષની શાખાઓને માટે આધારરૂપ હોય છે એ જ પ્રકારે બ્રહ્મચર્ય પણ ધર્મની શાખાઓના આધાર ३५ छ तथा “ महानगर पागार कवाड फलिहभूय " भडानना समान विविध સુખનુ હેતુભૂત હેવાને કારણે ધમનગરનુ તે રક્ષક હેવાના પ્રકાર જેવું, ४ाट मने RAR१ छे तथा "रज्जुपिणद्धोव्वइदकेऊ" रेभ. २०४९ (દેરડુ) બદ્ધ ઈદ્રધ્વજ મહોત્સવમાં સર્વોપરિ દેખાતે પરમ શેભાને વિસ્તારે છે તે જ પ્રમાણે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રત પણ સર્વતોમાં શ્રેષ્ઠ છે અને પરમ शासान डाय छ तथा 'विसुद्धणेगुगुणसपिणद्ध " विशुद्ध मने गुणाथी मा प्राययं सारी शते “ सपिणद्ध " अथित-युत छ Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. सुदर्शिनीटीका अ० ४ सू० २ ग्रामययं स्वरूपनिरूपणम् ग्नमथितचूर्णित कुशलियतपर्यस्तपतितम्पण्डित-परिशटितविनाशितम् तत्र 'सभग्ग' सभग्नम् घट हर, 'महिय' मथितन्दधीव निलोडित 'चुणिय' चूर्णित-चणकवत् पिष्टम् 'कुसल्लिय' कुशल्यितम्=-कुत्सितम्-अन्तः प्रविष्टतोमरादि शल्यमिव शल्य, यत् पविष्ट सत् , केनाप्युपायेन न निःसरति तत्कुशल्यं, तत्सजात यस्येति कुशल्यित दृष्टगल्गयुक्त, यथा वरुतया मविप्टेन शल्येन शरीर विदारित भवति, तथैव विनयादिक विदारित भाति, 'पलट्ट' पर्यस्त-पर्वतशिखराद् स्थूलपापाणखण्ड इव स्वस्थानाचलितम् , 'पडिय' पतितम् मामादशिखरात्कलश इशाधोनिपतितम् 'सडिय' खण्डितम् दण्ड इव विभागेन छिन्नम् , 'परिसडिय' परिगटित - कुष्ठापहताहमिविगलितम् , 'निणासिय' विनाशित-विनष्टम् , 'होड ' भाति । अथोपाया ब्रह्मचर्यस्य माहात्म्य पर्यते-'त बम भगवत' इत्यादि । 'त'तत्-मसिद्ध 'भगवत' भगन-सोत्कृप्टैश्चर्यशालि 'भ' ब्रह्म-ब्रह्मचर्य ' गहगणनखत्ततारगाण च ' ग्रहगणनक्षत्रतारकाणा च, ग्रहगणः मगलादिः, नक्षत्राणि अधिन्यादयः, तारका पसिद्धाः, आमा मध्ये 'जहा' डिय विणासिय रोइ) घटकी तरह समग्न हुकडे २ हो जाते हैंनष्ट हो जाते है, दधि की तरर विलोडित-अस्तव्यस्त हो जाते हैं, चना आदि की तरह-चूर्णित-पिसे जाते है, कुशल्य-टेढे-चक्र बाण से विदारित हुए शरीर की तरह विदारित हो जाते है, 'पर्वत की चोटी से पतित पापोणग्वण्ड की तरह अपने स्थान से च्युत हो जाते है, पतित प्रासाद की छत से गिरे नए कलश की तरह अधोनिपतित हो जाते हैं, फाडे गरे दड की तरह खडित होते जाते है, परिशटितकुष्ठादि से उपहत अग की तरह गलित हो जाते है, और विनाशितविनष्ट हो जाते है । (त वभ भगवत ) सर्वोत्कृष्ट ऐश्वर्यशाली प्रसिद्ध यह ब्रह्मचर्य (गगणनखत्ततारगाण च जहा उपई ) मगल आदि જેમ ટુકડે ટુકડા થઈ જાય છે, –નષ્ટ થઈ જાય છે, દહીની જેમ વિલોડિતઅસ્તવ્યસ્ત થઈ જાય છે, ચણ આદિની જેમ ચૂરેચૂરા થઈ જાય છે, કુશલ્યવકબાણથી વી ધાયેલ શરીરની જેમ વિદ્યારિત થઈ જાય છે પર્વતના શિખર પરથી પાષાણખડની જેમ પિતાને સ્થાનેથી ભ્રષ્ટ થઈ જાય છે, પતિત–મહેલની છત ઉપરથી પડેલા કલશની જેમ અનિપતિત થઈ જાય છે ચીરાયેલ લાક ડીની જેમ ખડિત થઈ જાય છે, પરિશટિત-કેઢ આદિથી ઉપહત આગની જેમ शसित थ य छ भने विनष्ट २४ लय छे “त बभ भगवत" सटि मेवाणी प्रसिद्ध छ प्राय " गहगणनक्सत्ततारगाण च जहा उडुवई" Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - Get मनग्याकरण एरावण इवकुजराणं सीहो जहा मिगाण पवरो सुपन्नगाणं च वेणुदेव धरण जहा पण्णग इदराया कप्पाण चेव वंभलोष, सभासु य जहा भवे सुहम्मा ठिईसु लवसत्तममपवरा दाणाणं चेव अभओ दाणं किमिराओ चेव कंबलाण सघयणे घेव बजरिसभे सठाणे चेव समचउरसे झाणेसु य पर सुकज्झाण नाणेसु य परमकेवल तु सिद्ध लेसासु य परममुक्कलेसा तित्थकरो चेव जहा मुणीण वासेसु जहा विदेहे गिरिराया घेव मदरवरे वणेसु जहा गंदणवण पवरं दुमेसु जहा जबू सुदसणा वीस्सुयजसा जीयानामेण अय दीवो, तुरगवई गयवई रहवई नरवई जह वीसुए चेव राया रहिए चेव जहा महारहगए एवमणेगगुणा अहीणा भवति एगम्मि वभचेरे ॥ सू० २ ॥ टीका-'जम्मि य' इत्यादि । 'जम्मि य' यम्मिश्च ब्रह्मचर्ये 'भग्गे' भग्ने विराधिते सति 'सच' सर्व 'विणयसीलतवनियमगुगसमूह' विनयशील. तपोनियमगुणसमूहः-विनयो गुरुपतिपत्तिलक्षण', शील-सदाचारः, तपः अनशनादिक द्वादशविय, नियमः अभिग्रह', गुणसमूहा नानादिगुणसमुदाय', एपा समाहारे विनयशीलतपोनियमगुणसमूह क्रियाज्ञान चेतियमपीत्यर्थः, सहसा% झटिति 'सभग्गमहियचुप्णिय कुसल्लियपल्लहपडिय ग्वडियपरिसडियविणासिय'संभ फिर ब्रह्मचर्य का माहम्य कहते है-'जम्मिय भग्गे' इत्यादि । टीकार्थ-(जम्मिय भग्गे) जिस ब्रह्मचर्य के विरावित होने पर( सव्व विणयसीलतवणियमगुणसमूह ) समस्त विनय, शील, तप, नियम और गुण समूह-अर्थात्-क्रिया और ज्ञान ये दोनो ही (सहसा) इकदम (सभग्गमदिय-चुणिय-कुसल्लिय-पल्लट-पडिय-खडिय-परिस वे सूत्रा२ ब्रायनु महात्म्य ७९ छ- “ जम्मिय भग्गे" fo 210--"जम्मिय भग्गे" २ प्रायः विराधना यता “ सव्व विणय सीलतवणियमगुणसमूह " समस्त विनय, la, तप, नियम भने शुशुसभूड सटोलिया भने ज्ञान ने “सहसा" भयान: "सभग्गमहियचु ग्णियकुसलिय--पलठ्ठ-पडिय सडिय-परिसडिय-विणासिय होइ” टेसा पानी Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ०४ सू० २ ग्रामचर्यम्बम्पनिरूपणम् हिण' ओपधीनाम्=ओप युत्पत्तिस्थानाना म ये हिमवान पर्वत इव । ' सीतोदा चेर' सीतोदेवानामर याता महानदीव 'निम्नग,ना' निम्नगानाम् नदीना मध्ये । ' उदहीसु ' उदधिपु-समद्रेषु ' सयभूरमणो' स्वयभूरमण समुद्रः 'रुय गवरो चेर' रचस्वर इन-यथा रुचकार:-रुचकाभिधानत्रयोदशद्वीपवर्तीपर्वतचिोपः, 'मडलिकपध्धयाण' माण्डरिकपर्वताना मानुपोत्तरकुण्डलवररचावरा मिधाना गरे 'पररे' प्रवर श्रेष्ठ । ' एरापण इर' ऐरावण व 'कुजराण' कुशराणा मय, यथा हस्तिना मध्य ऐगरत भवर इत्यर्थः । 'जहा' क्या 'मीठो ' सिंह मिगाण' मृगाणाम् अरण्यपशूना मध्ये ' पवरो' प्रपरः यथा'गुपण्णगाण न' सुपर्णकानामुपर्णकुमाराणा मध्ये 'वेणुदेवे ' वेणुदेवः प्रवरः यथा च 'पग इदराया' पन्नगेन्द्रराज , ' धरणे' धरणो-धरणेन्द्रो नागकुमाराणा मध्ये मरर, तथैवेद ब्राम पर्य प्रताना मध्ये प्रवरम् । तथा-कप्पाण' फ्ल्पाना-देरलोकाना मध्ये 'बगलोए चेव ' ब्रह्मलोक इव-पञ्चमो देवलोकः पर्वत, (निगाण मीतोदा चेव ) नदियों मे जैले मीतोदा नदी, (उद तीस जहा सयभूरमणो) समुद्रों मे जसे स्वयभूरमणममुद्र, (मडलिगपचयाण स्यगवरी चेय ) माडलिक पर्वतों में जैसे रुचक वरपर्यंत, (पवरे ) श्रेष्ठ माना जाता है, उसी प्रकार समस्तवतो में यह वत श्रेष्ठ माना गया है। तथा (कुजराण एरावण इव) हाथीओ मे जैसे ऐरावत हाधी श्रेष्ठ होता है (मिगाण जहा सीहो पवरो) 'गो के बीच मेंजगली जानवरों मे-जैले सिंह श्रेष्ठ होता है (सुपन्नगाण च वेणुदेवे सुपर्णकुमारों में जैसे वेणुदेव श्रेष्ठ होता है, (जहा पन्नग इदरायाधरणे) पन्नगों का इन्द्रराज धरणेन्द्र जैसे नागकुमारों में श्रेष्ठ होता है, (कप्पाण चेव यमलोए) करपो में जैसे पांचवा ब्रमलोक प्रवर होता है, "ओसहीण हिमव तो चे" श्रीपधियाना 64न्ति स्थानमा म हिमालय पर्वत, "निन्नगाण सीतौदा चेय" नहीयामा भशीत नही " उदही सुजदा सयभूग्मणो" समुद्रोमा म २१य सूरभए समुद्र “मडलिगपव्वयाणरुयगवरो चेच " भाति पर्वतमा म २५४१२ पर्वत, “पवरे" श्रेष्ठ भनाय छ, તે જ પ્રકારે સઘળા ગ્રામ આ બ્રહ્મચર્યવ્રત શ્રેષ્ઠ મનાય છે તથા “નराण एरावण इव" हाथीगामा म मेरा हाथी १०० सय छ, “ मिगोण जहा सीहा पपरो" भगानी 4-4- सी नपरेनी ५२२-२ सि श्रेष्ठ डाय ते, “ सुपनगा प वेणुदेवे" सुपए शुभाशमा म योद्वेष श्रे हाय छ, “जहा पन्नग इदराया धरणे" पनगोन। छन्द्र ५२ नागर भाभा श्रे०४ डाय छे, “ कप्पाण चैव वमलोए" पोमा रेभ पाया Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ प्रमण्याकरण यथा 'उड्डाई ' उड्पतिः चन्द्रः सर्वश्रेठस्तथैवताना मध्ये सर्वश्रेष्ठमस्ति । क्या'मणिमुत्तसिलप्पपालरत्तरयणागराण' मणिमुक्ताशिलामवालरतरत्नाकराणा-मणय चन्द्रकान्तायाः, मुक्ताफलानि-शिलापवालानि पिनुमाणि, रक्तरत्नानिम्यारागा दीनि तेपामारा उत्पत्तिभूमयः, ये ते तथा तेपा मध्ये 'जहा' यथा 'समूहो' ममुद्रा, श्रेष्ठत्तथैवेद जताना मध्ये श्रेष्ठम् , एच मर्वत्र सयोज्यम् । तथा-'जह चेव ' यथा चैत्र 'मगीण' मणीना मध्ये ' वेरुलिओ'हर्य-ये यमणिः । 'जह चेव' यया चैत्र 'आभूसणाण ' आभूपणाना मध्ये 'मउडो' मुकुट । 'पाण' नागा माये 'खोमजुयल चेय' क्षोमयुगमित्र । 'अरविंद चेर' अरविन्दमिव कमलमित्र 'पुप्फजेट' पुष्पज्येष्ठम्-पुष्पेषु अरविन्द श्रेष्यमित्यर्थः । गोसीस चे गोशीर्ष हरिचन्दनमित्र 'चदणाण' चन्दनाना मध्ये 'हिमवतो चेव' हिमवानिव 'ओस ग्रहो में, अश्विनी आदि नक्षत्रों में, और ताराओं में जैसे चद्रमा सर्व श्रेष्ठ माना जाता है उसी तरह सर्व नतों में श्रेष्ठ माना गय, है। तथा ( मणिमुत्तमिलप्पवालरत्तरयगगराण च जहा समुहो) चन्द्रकान्त आदि मणियो की, मुक्ताफलों की, मूगों की और पद्मराग आदि रक्तरत्नों की उत्पत्ति स्थानो में जैसे समुद्र श्रेष्ठ होता है उसी तरह यह वत भी सर्वव्रतो में श्रेष्ठ माना गया है। तया-(जह चेव मणीण वेरुलियो ) जैसे मणियों में वैडूर्यमणि, (जह चेव आभूमणाण मउडो) आभूपणो में जैसे मुकुट, (वत्थाग खोमजुयल चेव) वस्त्रों में जैसे क्षौम युगल, ( अरविंदचेव पुप्फजेट्ट ) पुष्पों में जैसे अरविंद (कमल)(चदणाण गोसीस चेय) चदनो में जैसे हरिचदन, (ओस हीर्ण हिमवतो चेव ) औषधियों की उत्पत्ति के स्थानो में जैसे हिमवान् ભગળ આદિ ગ્રહેમા, અશ્વિની આદિ નક્ષત્રોમા, અને તારાઓમાં જેમ ચ ન્દ્રમાં સર્વશ્રેષ્ઠ મનાય છે એ જ પ્રમાણે સર્વત્રતામાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવ્યું છે तया " मणिमुत्तसिलप्पकालरत्तरयणागराण च जहा समुद्दो" यन्द्रशान्त माल મણિઓની, મેતીની, મૂગની અને પરાગ આદિ રક્તરોની ઉત્પત્તિ કરવાના સ્થાનેમ જેમ સમુદ્ર શ્રેષ્ઠ મનાય છે એ જ પ્રમાણે આ વ્રત पर सर्व प्रतीमा श्रे०४ भनाय छे तथा “जहचे मणीण वेरुलिओ" रेम अनिमामा पेय भी, 'जह चेव आभूमणाण मउडो" भूपमा म मुगुट "वत्याण सोमजुयल चेव" स्रोमा सेभ दोभयुस "अरविंद चेव पुप्फजेटु " अपामा भ. २विह, “चदणाण गोसीस चेव" यहनामा म स्थिहन Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८७ सुदशिनी टीका अ० ४ सू०२ ब्राययस्वरूपनिरूपणम् प्रवर तथैव व्रताना मध्ये इद ब्रह्मचर्य प्रारम् । तथा-' झाणेमु य' ध्यानेषु चध्यानमध्ये यथा 'परममुष ज्झाण' परमशुल यान-शुरू-यानस्य चतुर्थपादरूपं प्रवरम् , तया-नाणेमु य 'ज्ञानेपु च यथा परम केवल तु परिपूर्णविशुद्धकेवलज्ञान अर्थात्-क्षायिकज्ञान सिद्ध-अपरत्वेन प्रसिद्वम् , तयैवेद ब्रह्मचर्य व्रतानामध्ये प्रसिद्धम्-तथा-'लेसासु य ' लेश्यागु-कृष्णाधासु च यथा, 'परममुक्क लेस्सा' परमशुक्ल्लेश्या-शुक्लध्यानस्य तृतीयभेदवर्तिनी प्रवरा । 'तित्थकरो चेव ' तीर्थकरश्चैत्र 'जहा' यया 'मुणीण' मुनीना मध्ये प्रपर 'पासेसुवर्षेषु क्षेत्रेषु 'जहा' यथा 'विदेहे' पिटेह -महानिदेहक्षेत्र प्रवरम् , तथैवेद व्रतसताना मध्ये प्रारम् । यथा जम्बूद्वीपे 'मदरवरे' मन्दरपरो 'गिरिराया' गिरिरानोन्मेरुपातचैव पर्वताना मये प्रवरः, 'पणेमु ' वनेषु 'जहा' यथास्रसस्थान प्रवर माना जाता है-उसी प्रकार यह ब्रह्मचर्य व्रतों में प्रधान चत माना जाता है। इसी तरह (आणेसु वर मुकद्माण ) चार ध्यानों में जैसे परम शुक्ल यान शुक्लध्यानका चौथा भेद, उत्तम होता है और (नाणेसु य परमकेवल सिद्ध) आभिनियोधिक आदि पांच ज्ञानों मे जैसा केवलज्ञान उत्तम होता है (लेसासु य परममुक्कलेसा) कृष्ण आदि छह लेश्याओं में जैसे परमशुक्ललेश्या-शुक्लध्यान के तीसरे (पाये) पादमें होनेवाली लेश्या-उत्तम होती है (जहा मुणीण तित्थयरो) मुनियो के यीच में जैसे तीर्थकर सर्वोत्तम होते है, तया (वोसेसु जहा विदेहे ) क्षेत्रों में जैसे विदेरक्षेत्र सर से उत्तम क्षेत्र होता है, उसी तरह व्रतों में यह ब्रह्मचर्य व्रत सबसे प्रधान व्रत है। तथा-(मदरवरे गिरिराया) जैसे जबूढीप मे पर्वतों के मध्य में मदर वर गिरिराज श्रेष्ठ है, સસ્થાન જેમ શ્રેષ્ઠ મનાય છે તેમ આ બ્રહ્મચર્ય વ્રત પણ સઘળા વ્રતમાં भुण्य भनाय छे से प्रभारी “ झाणेसु वर सुफझाण " या ध्यानामा म ५२भ शुसध्याननी याथो से उत्तम डाय छ, भने “ नाणेसु य परम फेवल सिद्ध " मालिनिमाधि मा पाय ज्ञानामा रेभ वणशान उत्तम हाय छ, “लोमासु य परमसुकलेसा" ! माछि बेश्यासामा म शुस वेश्या-शुसध्यानना श्रीन पहभा-पायामा थनारी सश्या-उत्तम राय छ "जहा मणीण तित्ययरो" भुनियानी ये रेभ तिर्थ १२ मत्तिम डाय छ, " वासेस जहा विदेहे " क्षेत्रामा म विहे क्षेत्र सर्वोत्तम छ, प्रभारी मा अक्षय त सपा प्रतामा प्रधान मत छे तथा “मदरवरे गिरिराया " भ yal पतामा निशि म ४२५२ ४ , “वणेसु जहा पदण Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ प्रमायाकरणसूत्रे क्षेत्रस्य महत्चादिन्द्रयस्यानि शुभपरिणामत्वाचा प्रघर । ' समासुय ' सभामु प्रतिभानपिमान भाग्निीपु मुर्मसभोत्पातमभाऽभिपसमाऽकारममाव्यव सायसभासु च मध्ये 'जहा' यथा' मुहम्मा ' मुधर्मा समा प्रपरा 'भवे ' भवति तथैवेद ब्रह्मचर्य व्रतेपु प्रार भवति । तथा-'ठिइस स्थितिपु-आयुकेषु मध्ये 'लवसत्तमन्ध' लसप्तमेव अनुत्तरदेवमास्थितियया प्ररा। 'दाणाण घेव अभओदाण' दोनाना मये अभयदानमिवेद ब्राह्मचर्य मारम् । 'फलाण' कम्बलाना मध्ये 'फिमिराभो चेर' मिराग इ-कृमिरागकम्पल इस कमे रक्तकीट विशेपस्य राग इस रागो यस्य कम्पलस्य भीम सम्बर कमि राग कम्पल प्रोच्यते, रक्तकम्मल इत्यर्थः, तथा-'सत्रयणे' सहनने-पहननम ये वनऋपभादीना पण्णा सहननाना मध्ये 'रज्जरिसभे' जनपभ सानन परम् 'सठाणे' सस्थाने पइविधसस्थानमध्ये यथा 'सम उरस' समचतुरस्र सस्थान (सभासु जहा सुहम्मा भवे सभाओं में जैसे सुधर्मा सभा श्रेष्ठ होती हैं, अर्थात् सुधर्मा सभा उत्पात सभा, अभिपेकसभा, अलकारसभा, व्यवसायसभा, इन सभाओ में जैसे सुधर्मा सभा सय से श्रेष्ट मानी जाती है उसी प्रकार यर ब्रह्मचर्यचत भी समस्त प्रतो मे श्रेष्ठ माना जाता है । तथा (ठिईसु जहा लवसत्तमव्यपवरा) आयुओं में अनुत्तरविमानवासी देवों की जैसे आयु उत्तम मानी जाती है और (दाणाण चेव अभयो दाण) दानो के बीच में जैसे अभयदान श्रेष्ठ माना जाता है उसी तरह यह ब्रह्मचर्यत्रत भी समस्तवतो में प्रधान व्रत माना जाता है। तथा (कवाण किमिराओ चेव) करलो में जैसे रक्त कम्बल, (सघयणे चेववज्जरिसभे) छह सहननो में जैसे वज्रऋषभ सहनन, ( सठाणे चेव समचउरसे ) छह सस्थानो मे जैसे समचतुरप्र श्रेष्ठ हाय छ, “ सभासु जहा सुहम्मा भवे " समायामा म सुधर्मा સભા શ્રેષ્ઠ હોય છે, એટલે કે સુધર્માસભા, ઉત્પાદસભા, અભિષેક સભા, અલ કારસભા વ્યવસાયસભા, એ સભાઓમાં જેમ સુધર્માસભાને શ્રેષ્ઠ માનવામાં આવે છે, એ જ પ્રકારે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને પણ સર્વે તેમાં શ્રેષ્ઠ માનવામાં साव छ तथा “ ठिइसु जहा ल्वसत्तमव्वपवरा" मायुध्योमा रेभ मनुत्तर विमानवासी वानु मायुष्य भत्तम भनाय , गने “ दाणाण चेवअभ भोदाण" हानामा म मलयान श्रेष्ट भनाय ), प्रभारी सा प्रशायर्य तपय समस्त प्रतीभा श्रेष्ठ भनाय तथा “कालाण किमिराओ चेव" भगोमा रेभ २४त मण सधयणे चेव वन्नरिसभे" छ सननामा म R षम सहनन, "सठाणे चेव समचउर से"छ सस्थानामा सभयतुरख Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २० ४ सू० ३ प्रचाराधफल्म ८९ शन्तीत्यर्थः । अयमाशयः-प्रताना मध्ये ब्रहाचर्य व्रत सर्वत अप्ठम् । अतस्तदाराधकाः सर्वत श्रेष्ठा भवन्तीति ।। मृ० २ ॥ मूलम्-जम्मि य आहिय वयमिण सच सीलं तवो य विणयो य सजमो य खत्ती गुत्ती मुत्ती, तहेव इहलोइय परलोइयजसो य कित्ती य पच्चाओ य, तम्हा निहुएणं वभघेरं चरियव्वं सबओ विसुद्ध जावज्जीवाए जावसेयही संजओत्ति, एव भणियं वय भगवया । तं च इम-“पचमहव्वयसुव्वयमूल समणमणाइलसाहुसुचिण्ण । वेरविरामणपज्जवसाण सव्वसमुदमहोदहितित्थं ॥१॥ तित्थगरेहि सुदेसियमगं नरगतिरिच्छविवज्जियमग्गं । सबपवित्तसुनिम्मियसारं सिद्धिविमाणअवगुयदा॥ २॥ देवनरिदनमसियपुज्ज सव्वजगुत्तममगलमग्ग । दुद्धरिस गुणनायगमेकं मोक्खपहस्स वडिसगभूयं" ॥ ३ ॥जेण सुद्धचरिएणं भवइ सुवभणो सुसमणो सुसाहू सुइसी सुमुणी सुसजए स एव भिक्खू , जो सुद्ध चरइ वभचेर ॥ ३ ॥ जाते है । इसलिये व्रतों के बीच में यह ब्रह्मचर्यत्रत सर्व श्रेष्ठ व्रत है, अतः इसके आराधकजन भी सर्वतःश्रेष्ठ होते है। भावार्थ-इस एक ब्रह्मचर्य महाव्रत के आराधित होने पर समस्त सद्गुण स्वय आराधितहो जाते हैं और इसके विनष्ट होने पर वे समस्त सद्गुण नष्ट हो जाते हैं। अत.समस्त व्रतोमे यह व्रत सर्वश्रेष्ठ है। सू०२॥ વતને આચરવાથી સમસ્ત ગુણ પુરુષમાં આવી જાય છે તે કારણે વ્રત મધ્યે આ બ્રહાચર્યવ્રત સર્વ શ્રેષ્ઠ વ્રત છે, તેથી તેની આરાધના કરનાર વ્યક્તિ સર્વ શ્રેષ્ઠ હોય છે ભાવાર્થ-આ એક બ્રહ્મચર્ય વ્રતની આરાધના કરવામાં આવે તે સમસ્ત સદ્દગુણ તેની જાતે જ આરાધિત થઈ જાય છે અને તેને નાશ થતા તે સમસ્ત સદૂગુણોને નાશ થઈ જાય છે તેથી સઘળા વ્રતમાં આ વ્રત સર્વશ્રેષ્ઠ છે સારા Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८८ प्रश्नयाकरण 'णदणषण ' नन्दनयन 'पर' पार 'दुमेनु' द्रुगेम-रक्षेषु 'जहा' यथा'सुदसणा' सुदर्शना-मुदर्शनाख्या 'जबू' जम्बू-त्रीविङ्गः क्षविशेषः, मा "विस्मयजसा ' विश्रुतयशा:-यशसा पिख्याता । जम्या कि नाग यशः ? इत्याह -'जीय यस्याः 'नामेण' नाम्ना अय 'दोरे 'दीपो-जस्यूद्वीपोऽस्ति, तथैवेद ब्रह्मचर्य व्रतानां मध्ये रियातम् । तथा-'जहा चेर' यथा चैव 'तुर गवई ' तुरगपतिः अश्वसेनायुक्त. 'गयाई 'गजपति: गनसेनायुक्त 'रहबई' स्थपतिः-रथसेनायुक्तः नरबई । नरपति:नरसेनायुक्तो 'राया' राजा विश्रुतः, 'जहा चेव' यथा चैव ' रहिए ' रथिके-रथारोहिमध्ये 'महारहगए' महार थगत महारथारोही विश्रुत' । तथैव ताना मध्ये इद त विश्रुतम् प्रसिद्धम् एवम् एवम्प्रकाराः 'अणेगगुगा' अनेकगुणाः अवरत्वविश्रुतत्यादयोऽने केगुणा 'एगम्मि वभचेरे ' एकस्मिन् ब्रह्मवर्ये 'अहीणा' अधीना' स्वाधीना. भवन्ति, एकस्मिन् ब्रह्मचर्ये समाराधिते सति सर्व गुणाः समागत्य तस्मिन् पुरुपे समावि (वणेसु जहा णदणवण पवर ) वनो में जैसे नदनवन श्रेष्ठ है, (दुमे सु जहा सुदसणा जविस्सुयजसा ) वृक्षो में जैसे जब वृक्ष प्रसिद्धयश सपन्न है कि (जीयनामेण अय दीवो) जिसके नाम से यह द्वीप जघु द्वीप कहलाता है, उसी प्रकार व्रतों में ब्रह्मचर्य व्रतश्रेष्ठ है । तथा (तुरगवई, गयवई, रवई, नरवई, राया जहाचेव रहिए महारहगए, एवमणेगगुणा एगम्मि बभचेरे अहीणा भवति ) जैसे अश्वसेनायुक्त, गज सेनायुक्त, रथसेनायुक्त, नरसेनायुक्त, राजा प्रसिद्ध होता है, तथा रथारोहियों के बीच मे महारधारोही प्रख्यात होता है, उसी तरह व्रता में यह ब्रह्मचर्यव्रत प्रख्यात है। इस तरह प्रवरत्व, विश्रुतत्व आदि अनेक गुण एक इस ब्रह्मचर्य में अधीन होते हैं, अर्थात् एक ब्रह्मचर्य के आराधित कर लेने पर समस्तगुण आकार उस पुरुष में आश्रित हो वण पवर " पनामा म न हनवन श्रेष्ठ छ, “ दुमेसु जहा सुदसणा जबू वि म्सुयजसा" वृक्षामा २भ मूवृक्ष प्रसिद्ध यश सपन " जिय नामेण अय दीवो" ना नामथी मा ५ नमूद्वीप उपाय छ, मे प्रमाण मतभा प्रदायर्य नत श्रे४ छे तथा "तुरगवई, गयवई, रहगई, नरवई राया, जहा चेव रहिए महारहगए, एवमणेगगुणा एगम्मि बभचेरे अहीणा भगति "म હયદળવાળ, ગજદળવાળે, રથદળવાળા અને પાયદળવાળે રાજા પ્રસિદ્ધ હોય છે તથા રથારેહિરોની વચ્ચે મહારથાહી પ્રખ્યાત હોય છે, એ જ પ્રમાણે ઘતેમાં પણ બ્રહાચર્ય વ્રત પ્રખ્યાત છે આ પ્રમાણે શ્રેષ્ઠતા, વિશ્રત, આદિ અનેક ગુણ આ એક બ્રહ્મચર્યને આધીન હોય છે, એટલે કે એક બ્રહમચર્ય Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १० ४ सू०३ ग्रामचर्याराधनफलम् पन' चरितव्यम् मासेषितव्यम् कीदृश ब्रह्मचर्यमासेवितव्यम् ? इत्याह'सबओ निसुद्ध' सर्वतो विशुद्वम् ? मनः प्रभृति त्रिकरणत्रियोगनिर्मल, कियकालमासेवितन्यम् ? इत्याह-'जायज्जीवाए' यावज्जीवया प्रतिज्ञया यापज्जीवतया का जीवनपर्यन्तमित्यर्थः, तथा-'जावसेयहि सनमोत्ति ' यावत् श्वेतास्थि सयत, इति, वेतानि दुष्कर तप' करणादुपिराभावेन शुक्लानि अस्थीनि यस्मितत्-श्वेतास्थि अस्थिपञ्जरप्राय शरीर तत्र सयतः प्रतिबद्धो जीवो यावद् भवेत् , मरणपर्यन्तमित्यर्थः । अय भानः-साधुना दुश्वर तपश्चरणादिना स्वशरीर रुधिर पिशोप्य मरणारधि ब्रह्मचर्य पालनीयमिति । अथवा यावन्योऽथि सयत' इतिच्छाया, श्रेयो मोक्षस्तदर्थयितु शील यस्य स श्रेयोऽर्थी, स चासौ सयतश्चेति कर्मधारयः अय भाव'-साधुर्यारत्काल मोक्ष नमाप्नोति, तारत्काल तेन ब्रह्मचर्य पालनीयमिति । 'एव ' इत्येव ' भणिय ' भणित ' भगवया' भगवता महाएण) निश्चलभाव से (घभचेर ) इस व्रत्मचर्य महानत का (जावजीवाए ) जीवनपर्यन्त (चरियव्च) पालन करना चाहिये । (जाव सेयद्विसजयो त्ति) यावत् श्वेतास्थि सयतः अर्थात् चाहे भले ही दुश्वर तपश्चरण आदि द्वारा अपने शरीर का खून सूक जाने से श्वत हद्धियां ही उसमें अवशेष रह गई हो तपतक । अथवा यावत् श्रेयोऽथि सयत-अर्थात्साधु को जबतक मुक्ति की प्राप्ति न हो जाये तबतक इस महाव्रत का अवश्य पालन करते रहना चाहिये। "जाच सेयहि सजओ" इसकी एक तो श्वेतास्थिसयतः" ऐसी सस्कृत छाया होती है और दूसरी"श्रेयोऽथिसयत." ऐसी भी होती है । ( एव भणिय वय भगवया) इस प्रकार से इस प्रत का भगवान महावीर ने जो कि अन्तिम तीर्थनियन भाषा ब भचेर " मा प्रायथं मानतनु “जावज्जीयाए " न पर्यत चरियन" पादान ४२ मध्ये जाव से डिसजओत्ति " 'योवत् श्वेतास्थिसयत " सर १२ तपश्चरण मा वा पोताना शरीरनु साडी સૂકાઈ જવાથી સફેદ હાડકા જ તેમા બાકી રહ્યા હોય એવી સ્થિતિમાં પણ मा प्रतनु पासन ४२७ नमे २२था यावत् श्रेयोऽथि सयत-सट ल्या સુધી સાધુને મોક્ષની પ્રાપ્તિ ન થાય ત્યા સુધી આ મહાવ્રતનું પાલન કરતા रन “जाव सेयट्टिसजओ" तेनी सडककृत छाया "श्वेतास्थिसयत " याय छ, भने भी “श्रेयोऽथिसयत " मेवी ५y छाया थाय छ " एव भणिय वय भगवयो" मा प्रभारी अन्तिम तीर्थ ४२ भगवान महावीरे मा प्रतनु Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० प्रभव्याकरणसूत्रे टीका' जम्मिय ' इत्यादि जम्मिय ' यस्मिथ ब्रह्मचर्ये आराधिते ' इण ' हद मयज्या -- लक्षण 6 वय ' व्रतम् ' आरादिय ' आराधित भाति । तथा पुनरपि यदाराधित भवति, तदाह - ' सच्च' सत्य ' सील ' शीर = साधाचारः - ' तो य' तपथ 'विणओ य' विनयश्च 'सजमो य ' सयमध, तथा-' खती ' क्षान्तिः ' गुत्ती ' गुप्तिःमनोगुप्त्यादिका, 'मुत्ती' मुक्ति: निलमता 'तन ' तथैन ' इहलोsय परलो इय' ऐहलौकिकपारलौकिक 'जमो य' यशश्र यशः = एक दिग्गामिनीरयातिः ' कित्तीय ' कीर्तिश्व = सर्व दिग्गामिनीमसिद्धि, पचओ य' प्रत्ययश्च साधुर यम् एव रूपो विश्वासः, एतत्सर्व ब्रह्मचर्ये समाराधिते भवतीति भावः । 'तम्दा ' तस्माद् हेतो: ' निहुएण ' निभृतेन निथलभावेन ' चभचेर ब्रह्मचर्य 'चरि , " , ' 'जम्मिय' इत्यादि ० | टीकार्थ - ( जम्मिय आराहिए ) जिस ब्रह्मचर्य व्रत के आराधित कर लेने पर ( इण वय आराहिय ) यह प्रव्रज्यारूपव्रत आराधित हो जाता है तथा - ( सच्च सोलतवो य विषयो य सजमो य खति, गुत्ती, मुत्ती, तहेव इहलोsय, परलोहय, जसो य कित्ती य पच्चओ य ) सत्य, शील - सदाचार, (मुनि का आचार ) तप, विनय, सयम, क्षान्ति मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिया, निर्लोभनारूप मुक्ति, तथा इहलोक सबधी, और परलोक सवधी यश-एक दिशामे फैलानेवाली प्रसिद्धि, कीर्तिसब दिशा में फैलाने वाली प्रसिद्धि, तथा - प्रत्यय-" यह साधु है इस रूप विश्वास, ये सब आराधित हो जाते है । ( तम्हा ) इसलिये ( सव्वओ विसुद्ध ) नौ कोटि- त्रिकरण त्रियोग से निर्मल बनाकर (निहु 22 “afny” Seuls— (6 अर्थ - " जम्मिय आराहिए " ? श्रह्मचर्य व्रतनु सेवन स्वाथी " इ वय आराहिय " मा अनल्याइय नत माशधित थर्ध लय छे, तथा सच्च सील तवो य विषयो य सज्रमो य सत्ती, गुत्ती, मुत्ती इहलोइय परलोइय जसो य कित्ती य पच्चओ य " सत्य, शीस, सहायार, ( भुनिना आधार ) तय, विनय, સયમ, ક્ષાતિ, મનેાગૃતિ અગ્નિ ત્રણ ગુપ્તિ, નિભિતારૂપ મુક્તિ, તથા આલેાક સ બધી તથા પરલેકસ ખ ધી યશ-એક શિોમા ફેલાનાર પ્રસિદ્ધિ, કીતિસઘળી દિશાઓમા ફેલાનાર પ્રસિદ્ધિ, તથા પ્રત્યય-“ આ સાધુ છે” એ પ્રકારના વિશ્વાસ, એ બધા આરાષિત થઈ જાય છે तम्हा " तेथी " सबभ विसुद्ध ” નવ પ્રકારે ત્રિકરણુ ત્રિયાગથી નિળ ખનાવીને 'निहुएण " " ܙܕ Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए९३ - - - सुदर्शिनी टीफा १०४ सू०३ घामचयाराधनफलम् तथा-'सत्यममुदमहोदहितित्य । सर्वसमुद्रमहोदधितीर्थम्-सर्वे च ते समुद्राः सर्व समुद्रास्तेषु महान उदधि-स्सयम्भूरमण समुद्रात्तुल्य विशालत्वात्ससारोऽपि महोदधिस्तस्य तीर्थमिव-पारगमनाय नौकेर यत्तत्तथाऽरित ॥ १॥ 'तित्थगरेहि ' इत्यादि-'तित्वगरेहिं ' तीर्यकरै-जिन ' सुदेसियमग्गं' मुदेशितमार्गम्-सुदेशितः मुदर्शितः मार्गः गुप्त्यादि तत्पालनोपायो यस्मिस्ततया, तथा-'नरगतिरिच्छनिमज्जियमग्ग' नरकतिर्यविवर्जितमार्ग-नरकस्यनरकगते , तिरश्चः तिर्यग्गतेश्च विवर्जित प्रतिरोधितो मार्गो गतिर्येन तादृशम् । स्था-'सयपवितनिम्मियसार' सर्पपविनम्रनिर्मितसार गर्वपवित्राणि-सर्वाणि पावनानि सुनिर्मितानिन्मृविहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, सफलव्रत मर्प उसके लिये हार जेमा बन जाता है और विप भी सुसाधु जैसा हो जाता है-जो नौ कोटि से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक होता है। यत् ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है जो शत्र भी मित्र बन जाता है। (मन्चसमुहमहोदहितित्व) समस्त समुद्रों में अतिम स्वयभूरमणसमुद्र एक यहत विशाल समुद्र है-इसके जैसे विशाल होने से ससार भी एक महोदधि जैसा है, उससे पार होने के लिये यह ब्रह्मचर्य एक नौका के समान है ॥१॥ (तित्थगरेहिं सुदेमियमग्ग) तीर्थकर भगवतो ने इसके पालने का गुप्ति आदि रूप उपाय कहा है। ( नरगतिरिच्छविवज्जियमग्ग) इसके प्रभाव से नरकगति और तियञ्चगति का मार्ग रुक जाता है (सव्वपवित्तसुनिम्मियसार ) तथा જે નવ પ્રકારે શુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને આરાધક હોય છે તેને માટે સાપ હાર જેવું બની જાય છે અને વિષ પણ અમૃત જેવુ થઈ જાય છે ब्रायना २५ प्रभाव शत्रु ५५ भित्र मनी लय छ, “सव्वसमुरमहोदहितित्थ " सपा समुद्रीमा मतिभस्य भूरभए समुद्र से घणे विशा સમુદ્ર છે-તેના જેવો વિરાળ હોવાથી સ સાર પણ એક મહાસાગર જે છે, તેને પાર જવાને માટે આ બ્રહાચર્ય એ એક નૌકા જેવું છે ! ૧ છે "तित्थगरेहिं सुदेसियमग्ग” तीर्थ ७२ लगवाना तेना पासन भाट राति माह उपाय मताव्या छ " नरगतिरिच्छविवज्जियमग्ग" तेना प्रमाया न२४गति अन तिय २५ जतिनो भाग मटी तय छ “ सवपवित्त सुनिस्मियसार" मने तेना अमाप सौने प्रवित्र भने सारभूत मनावी ? छ, से भी प्रत सघणा ताने पवित्र ४८ ४२ना३ छे “सिद्धविमाणअ वगुयदार" तथा मोक्ष गतिनु मने अनुत्तर विमानानु ६० तेनाथी जय प्र१०० Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरेण चरमतीर्थकरेण । ' त च ' तच्चतम् ' इम' इदम् अग्रे-वक्ष्यमाणस्वरूपमस्ति । तदाह तिसृभिर्गाथामिः 'पचमहव्यय ' इत्यादि। 'पचमहव्ययसुव्वयमूल' पश्चमहानतमुनतमूलम् पश्च-पञ्चसर यकानि यानि महाप्रतानि-प्राणातिपातविरमणादि लक्षणानि, नान्येव मुत्रतानि तेपा मूलम्कारणम् इद ब्रह्मचर्यवतमस्ति । तथा-इद नह्मचर्यरत, 'समण' शमन-चित्त समाधिजनक, तथा-' अनापिलमाधुमुचीर्णम् = अनाविला. = पालुपा:-निर्मल चारित्रा ये साधनस्तैः सुचीर्ण-समाराधितम् , तथा-वेरविरामणपज्जवसाण' वैरविग्मणपर्यवसानम् और =शनुभावस्तस्य विरमण निवृत्तिः पर्यवसानेऽन्ते यस्य वत् , ब्रह्मचर्य हि वैर विनिार्य परमप्रीतिमुपजनयतीति भारः । उक्त च सप्पो हारायए वस्स, विस चावि मुहायए । चभचेरप्पभावेण, रिऊ मित्तायए सया ॥ १ ॥ छाया--सर्पो हारायते तस्य विप चापि सुधायते । ब्रह्मचर्यप्रभावेण रिपुर्मित्रायते सदा ॥ १ ॥ इति । कर हुए है कथन किया है। (तच इम) इस महाव्रत का स्वरूप तीन गाथाओ से कहते हैं (पचमव्ययसुन्वयमूल ) यह ब्रह्मचर्य महावतरूप सुव्रतों का मूलकारण है, (समण ) चित्तसमाधि का जनक है, (अगाइलसाहुमुचिण्ण) निर्मल चारित्रधारी साधुओं द्वारा अच्छी तरह आराधित किया हुआ है ( वेरविरामणपज्जवमोण ) वैरविरोध का यह अत करके परम प्रीती का जनक होता है । कहा भी है "सप्पो हरायए तस्स, विस चावि सुहायए । चभचेरप्पभावेण, रिऊ मित्तायए सया ॥१॥ ४यन यु छ "तच इम" मा भारतनु २१३५ १४ गाथामा द्वारा ४९ छे “पचमहन्वयसुव्ययमल " मा महाशयः भारत प्रातित विरमय पाय महामत३५ सुनतानु ४२५५ छ “समण" यित समाधिनु न छे, " अणाइल साह सुचिण्ण" नि यस्त्रधारी साधुमा द्वारा सारी शत अराधित थये। छ," वेरविरामणपज्जवसाण" ३२ (पराधना અન્ત લાવીને તે પરમ પ્રીતિનુ જનક થાય છે કહ્યું પણ છે "सप्पो हारायए तस्स विस चापि सुहायए। चमचेरप्पभावेण, रिऊ मित्तायए सया ॥१॥ Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ४ स्०३ यात्मवाराधनफलम् ___ तथा-'सत्यममुदमहोदहितित्य । सर्वम्मुद्रमहोदवितीर्थम्-सर्वे च ते समुद्राः सर्ग समुद्रास्तेषु महान उदधिः स्यम्भूरमण समुद्रातुल्य विशालत्वात्ससारोऽपि महोदधिस्तस्य तीर्थमित्र-पारगमनाय नोरेव यत्तत्तथाऽरित ॥ १॥ 'तित्यगरेहि ' इत्यादि-'तित्थगरेहिं ' तीर्यकरैः जिन · सुदेसियमगं' मुदेशितमार्गम्-सुदेशितः मुदर्शित. मार्गःगुप्त्यादि तत्पालनोपायो यस्मिंस्तचया, तथा-' नरगतिरिच्छनिमज्जियमग्ग' नरकतिर्यविवर्जितमार्ग-नरकस्यनरकगते , तिरश्च' तिर्यग्गतेश्च विवर्जित प्रतिरोधितो मार्गो गतिर्येन तादृशम् । तथा-'सयपरित्तसुनिम्मियसारं' सनपवित्रसूनिर्मितसार गर्वपवित्राणि-सर्गणि पावनानि निर्मितानिन्मृपिहितानि साराणि-प्रधानानि येन तत्तथा, सफलव्रत मर्प उसके लिये हार जैसा बन जाता है और विप भी सुसाधु जैसा हो जाता है-जो नौ कोटि से शुद्ध ब्रह्मचर्य व्रत का पालक होता है। यह ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है जो शत्र भी मित्र बन जाता है। (मन्यसमुदमहोदहितित्य) समस्त सनुद्रों में अतिम स्वयभूरमणममुद्र एक यहत विशाल समुद्र है-इसके जैसे विशाल होने से ससार भी एक महोदधि जैसा है, उससे पार होने के लिये यह ब्रह्मचर्य एक नौका के समान है ॥१॥ (तित्थगरेहिं सुदेसियमग्ग) तीर्थकर भगवतो ने इसके पालने का गुप्ति आदि रूप उपाय कहा है। ( नरगतिरिच्छविधजियमग्ग) इसके प्रभाव से नरकगति और तियश्चगति का मार्ग रुक जाता है (सव्वपवित्तसुनिम्मियसार ) तथा ન જે નવ પ્રકારે શુદ્ધ બ્રહ્મચર્ય વ્રતને આગધડ હોય છે તેને માટે સાપ હાર જે બની જાય છે અને વિષ પણ અમૃત જેવું થઈ જાય છે ग्रहाययन भ प्रभाव 23 स ५ भित्र तय छ, “ सव्वसमुरमहोदहितित्थ " स ममुद्रा २ तिमय भूरभए समुद्र मे घी विशण સમુદ્ર છે–ના જે વિચાળ હોવાથી સ સાર પણ એક મહાસાગર જેવો છે. તેને પાર જવાને માટે આ બ્રહ્મચર્ય એ એક નૌકા જેવું છે કે ૧ ૫ "तित्थगरेहि सुदेसियमग्ग" तीर्थ २ सयानास तेन पादान भाट गुप्ति माह Gपाय मता-या छ " नरगतिरिच्छविवज्जियमग्ग" तेन असावया न२४गति भने ति जतिना भी सटही तय छे “सबपवित्त सुनिम्मियसार" मने तेना प्रमाद सीने पवित्र भने सारभूत मनावी है छ, टते 3 मा व्रत सघणा प्रताने पवित्र १८ उन३ ले “सिद्धविमाणअ वगुयदार" तथा भास गतिनु मन अनुत्तर विमानानु ४० तेनाथी USA जय १०० Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ७९५ प्रश्नध्यापरणसूत्रे पवित्रकारीत्यर्थः, तथा- सिद्विविमाणगांगुयदारं ' सिधिनिमानापातवा रम्-सिद्धेः-मोक्षगते , विमानानाम् अनुत्तरविमानानाम् च, अपारतम्-उद्घाटित द्वार-प्रवेशमुख येन तत्तथा, स्वीपरर्गद्वारोदाटकमित्यर्थः ॥ २॥ पुनः कीदृश ब्रह्मचर्यम् ? इत्याह-'देवनारद ' इत्यादि । 'देवनरिंदनममिय पुज' देवनरेन्द्र नमस्थितपूज्यम्-देवाः भानपत्यादयः, नरेन्द्रा चक्रपदयम्तः नमस्यिता % नमस्कृता ये महापुरुषास्तपा पूज्यम्नादरणीयम् । तथा-' सधनगुत्तममगल. मग्ग' सर्वजगदुत्तममगलमार्गःसर्वजगत्सु-निपु लोकेषु उत्तमो मगल्न यो मार्गः उपाय , सोऽस्ति । तथा- दुरिस' दर्पम् देनदानवैरप्यपरिभानीयम् , 'गुण नायग' गुणनायक-गुणान-ज्ञानादिरूपान नयति मापयति यत्तत्ताटशम्-गुणधायकमित्यर्थः, तथा-' एक्क' पक-प्रधानम्-निरुपम इत्यर्थ , तथा 'मोक्ख पहस्स' मोक्षपथस्य मोक्षमार्गस्य ' पटिसगभूय ' जयतमाभूतम्-शिरोभूपगसदृशमिद ब्रह्मचर्यमस्ति ॥ ३ ॥ इसका ही प्रभाव सय को पवित्र और सारभूत बना देता है । अर्थात् यह व्रत समस्त व्रतों को पवित्र और दृढ़ करने वाला है। (सिद्विविमाणअवगुयदार) तथा मोक्षगति का और अनुत्तर विमानो का हार इससे खुल जाता है, अर्थात् स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) के द्वारका यह उद्घाटक है-खोलनेवाला है ॥२॥ (देवरिंदनमसियपुज्ज) भवनपति आदि देवों द्वारा चक्रवर्ती आदि नरेन्द्रों द्वारा, नमस्कृत हुए ऐसे महापुरुषों के यह पूजनीय-आदरणीय है। तथा-(सवजगुत्तममगलमम्ग) यह तीनो लोकों मे उत्तम और मगलकारी मार्ग है। तया (दद्धरिस) देव और दानवोसे भी यह पराजित होने वाला नहीं है (गुणनायग)ज्ञानादि सदगुणो को यह प्राप्त कराने वाला है। (एक्क) यह प्रधाननिरुपम है (मोक्खपदस्स वडिंसगभूय) और मोक्षमार्गका यह शिरोभूषणरूप है।॥३॥ છે એટલે સ્વર્ગ અને અપવર્ગના દ્વારનુ તે ઉદ્ધાટન કરનાર છે-ઉઘાડનાર છે મારા "देवनरिंदनम सियपुज्ज' मनपति मावि सने यती मा नरेन्द्र ५ જેમને નમન કરે છે એવા મહાપુરુષને તે પૂજનીય અને આદરણીય છે તથા " सव्व जगुत्तममगलमग्ग" ते त्रणे सोडमा उत्तम मने भारी भा छ, तथा " दुद्धरिस" वो भने हान। वास ५० ते ५रित थाय से नयी "गुणनायण" ज्ञानादि सगुणाने ते प्रास उरावना छ ' एकक" ते प्रधान -श्रेष्ट-अनुपम छ " मोक्सपहरस वडिंसगभूय " मने भादमागनु शिरे। ભૂષણ રૂપ છે | ૩ | - Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९५ सुदर्शिनी टोकाट अ० ४ सू०३ ब्रह्मचर्याराधनफलम् ___ तथा-'सुद्धचरिएण ' शुद्धचरितेन सम्यगाचरितेन 'जेण' येन ब्रह्म चर्येण, 'भाइ' भरति 'मुरभणो' सुनाह्मणः आत्मज्ञानतत्परः, मुसमणो' मुश्रमण =मृतपरस्त्री 'मुसाहू ' सुसाधुः निर्माणसाधकः 'सुईसी ' सुमपिः, यथावस्तुदर्शक', 'मुमुणी ' मुमुनिः जिनाज्ञाधारकः, 'सुसजए ' सुसयतःपरमयतनापरायणः। तया स एव 'भिक्सू भिक्षुः सत्यागी परमपुरुषार्थसाधको वा, जो यः 'सुद्ध' शुद्र 'वभचेर' ब्रह्मचर्य 'चरई' चरति पालयति॥३॥ (सुद्धचरिण जेग सुरभणो भवड ) अच्छी तरह आचरित हुए इस ब्रह्मचर्य से ही मनुष्य सुब्राह्मण-आत्म ज्ञान में तत्पर-होता है, (सुसमणो) सुश्रमण-मुतपस्वी, (सुसाइ) सुसाधु-निर्वाण साधक, (सुईसी) सुऋपि-यथावत् वस्तुदर्शक (मुमुणी ) सुमुनि-जिनाज्ञा का आराधक, आर (सुसजा) सुसयत परम यतना में परायण होता है। तथा (स ण्य भिक्ख) यही सचा भिक्ख है-सर्व त्यागी-अयवापरम पुरुपार्थ साधक है, (जो सुद्ध यभचेर चरइ ) जो इस ब्रह्मचर्य को शुद्ध रीति से पालना है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस ब्रह्मचर्य की गुणगरिमा (मरिमा) का ही कयन किया है । वे कहते है कि इस एक ब्रह्मचर्य व्रतके पूर्णरूपसे नाराधिक होनेपर सत्य, शील आदि जितने भी सद्गुण हैं वे सब आराधित हो जाते है । यह ब्रह्मचर्य पचमहावतों का मूलकारण है । अतःयावज्जीव साधु को इसका सेवन करते रहना चाहिये । जिस "सुद्धचरिएण जेण सुघमणो भवइ ' सारी सायरपामा मावस मा प्राय थी। मनुष्य सुग्राम-मात्म ज्ञानमा तत्५२ थाय छ, “सुसमणो" सुश्रम-सुतपस्या-" मुसाहू " सुसाधु-निर्वाण साध४, “सुईसी"सुऋषि-यथावत् वस्तु शर, "सुमुणी " Trt ज्ञानी माराध, भने “सुसजए" सुसयतपरभ यतनामा परायण थाय छ, तथा “स एव भिक्रसू" ते साया Yि छ-त्यागी २५३१ ५२म पुरुषार्थ सा छ, “जो सुद्ध बमचेर घरह" આ બ્રહ્મચર્યને શુદ્ધ રીતે પાળે છે ભાવાર્ય–સૂત્રકારે આ સૂત્રદ્વારા બ્રહ્મચર્યના ગુણ ગૌરવનુ જ વર્ણન કર્યું છે તેઓ કહે છે કે આ એક બ્રહાચર્ય વ્રતનુ પૂર્ણ સ્વરૂપે આરાધના કરવામાં આવે તે સત્ય, શીલ આદિ જેટલા સદ્દગુણ કે તેમનું આરાધન આપોઆપ થઈ જાય છે આ બ્રહ્મચર્ય પાચ મહાનતોનું મૂળ કારણ છે તેથી સાધુએ જીવનપર્યન્ત તેનું સેવન કરવું જોઈએ જે રીતે મૂળ વિના કઈ પણ વસ્તુની Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण ब्रह्मचारिणां किं रिमनाचरणीयम् ? कि कि चाचरणीयम् ? इति दर्शयति'इम च ' इत्यादि। मूलम्-इमं च रइरागदोसमोहपवखणकरं किं मज्झप्पमाय दोसपासत्थसीलकरण अभंगणाणि य तेलमजणाणि य अभिक्खणं कक्खसीसकरचरणवयणधोवणसंवाहणगायकम्मपरिमदणाणुलेवणचुण्णवासधूवणसरीरपरिमडणवाउसि य हसियभणिय-नट्ट-गीय-वाइयनडनदृग-जल्लमल्ल-पेच्छणवेलवगजाणिय सिगारागाणि अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमवभचेरघाओवघाइयाइ अणुचरमाणेण वभचेर वजेयव्वाइ सव्वकालं। भावेयव्यो भवइ अतरप्पा इमेहि तवनियमसीलजोगेहि णिच्चकाल, कि ते, अण्हाणक अदंतधोवणसेयमल्लधारणमूणत्रयकेसलोयखमदमअचेलगखुप्पिवासलाधवसीतोसिणकहसेज्जाभूमिनिसेज्जपरघरप्पवेसलद्धावलद्धमाणावमाणनिदण-दसमसकफासनियमतवगुणविणयमाइएहि जहा से थिरतरग होइ वभसू ४॥ ____टीका-'इम च' इत्यादि । ' इम च ' इद च वक्ष्यमागम्-अप्रसन्नपार्श्व स्थादीनामाचरणीयमाचारजातम् , 'रइरागदोसमोहपवणार' रतिरागद्वेपमो प्रकार मूल के बिना किसी भी वस्तु की स्थिरता नही होती है-उसी प्रकार इम एक व्रत के अभाव में किसी भी व्रत की किसी भी सद्गुण की स्थिरता और शोभा नहीं होती है। इत्यादि रूप से इस सूत्र में इसकी महत्ता का प्रदर्शन किया गया है । सू० ३ ॥ अप सूत्रकार ब्रह्मचारी को किस किस बात का आचरण करना સ્થિરતા સભવી શકતી નથી, એ જ રીતે આ એક વ્રતને અભાવ હોય તે બીજા કોઈ વ્રત કે સદ્દગુણની સ્થિરતા અને શોભા સભવતી નથી ઈત્યાદિ રીતે આ સૂત્રમાં બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું મહત્ત્વ બતાવવામાં આવ્યુ છે કે સૂ ૩. હવે બ્રહ્મચારીએ કેવા પ્રકારનું આચરણ કરવું જોઈએ અને કેવા Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्दाशिनी टीका भ० सू०४ ब्रह्मचारीणामाचरणीयादिनिरूपणम् BS , 1 - हमबर्द्धनकर, तंत्र - रति' = निपरानुरागः, रागः = स्वजनेषु स्नेहः, द्वेपः = शत्रुभावः, मोह: अज्ञानम्, एपा यत्मवर्द्धन मद्धिस्तस्य कर= कारकम् पुन' 'किंमज्य-प माय दोस-पासत्थसील - करण किंमध्यममाददोपपार्श्वस्थशीलकरणम् - तंत्र किंमध्य = कि = कुत्सित म ये यस्य तत्तथोक्तम् - असारमित्यर्थः, तथा - प्रमाददोपः, प्रमादोऽसानधानता, सएव दोप: = ममाददौपः पार्श्वस्थशील= पार्श्वस्थाना-ज्ञानाचारादि वहिर्वर्तिना साध्याभामाना शीलम् = अनुष्ठान निष्कारण नित्यपिण्डपरिभोगादि, एतेपा करणम् = कारक भवति । सम्मति तदेव निशदयति- अभगणाणि य' अभ्यञ्जनानि च घृतनवनीतादिना शरीरमर्दनानि ' तेल्लमज्जगाणि य ' तैलमज्जनानि च = तैलाभ्यङ्गपूर्वकस्नानानि तथा-तथा- 'अभिनवण' अभीक्ष्णम् चाहिये और किस किस का नहीं ? इस बात को प्रदर्शित करते है' इम च इत्यादि० । टीकार्थ -- ( इम च ) यह वक्ष्यमाण अवसन्न, पार्श्वस्थ, कुशील, ससक्त, यथाछद साधुओं का आचार ( रइरागदोसमोहपवडूणकर ) रति - विषयों में अनुराग, राग-स्वजनों में स्नेह, द्वेष- शत्रुता और मोह - अज्ञान, इनकी वृद्धिकरने वाला होता है और (किंमज्झ- पमायदोस - पासत्य - सील-करण ) किं मध्य-असार प्रमाददोपअसावधानतारूप दोप का, पार्श्वस्थ शील- ज्ञानाचारादि से हिर्भूत शिथिलाचारियो के अनुष्टान का निष्कारण नित्य पिण्डपरिभोगादिरूप स्वभाव का, जनक होता है । अब सूत्रकार इसी पार्श्वस्य आदि के आचार को विश दरूप से समझाते है - ( अभगणाणि य ) अभ्यगन - घृत नवनीत आदिसे शरीर का मर्दन करना ( तेल्लमजणाणिय) तेलका मालीस करना तथा प्रार न २ लेह मे ते सूत्रभर जताये छे - ' इम घ " इत्यादिअर्थ इम च આ પ્રમાણે તેવામા આવતા અવસન્ન, પાર્શ્વસ્થ, डुशील, ससत, સ્વછંદી સાધુએ.ના આચાર दोसमोर रति - विषयोभा यासहित, राज खनन पर स्नेह, द्वेष- शत्रुता भने भोईअज्ञान, मे सौनी वृद्धि उश्नार होय छे भने 'किंमज्झ - पमायदोस-पासत्यसीलकरण "दि मध्य-अभार, प्रभाहदोष, असावधानता३य घोषनु पार्श्वस्थशीसજ્ઞાનાચારાદિથી ખાહ્ય શિથિલતા ચારીએના અનુષ્ઠાનનુ, નિષ્કારણ નિત્ય પરિ ભેગા રૂપ સ્વભાવનુ જનક થાય છે હવે સૂત્રકાર આ પાર્શ્વસ્થ આફ્રિના मायारने विस्तारपूर्व' समन्नवे - " अभगणाणिय" अस्य न धी, भाषाशु આદિથી શરીરને માલીસ કરવુ, " तेल्लमज्जणाणिय " तेसनु भासीस ने "" 66 27 Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणसूत्रे ò૮ =वारवारम्, 'कखमीस करचरण यणधोरण वाहणगायकम्मपरिमद्दणाणुलेवण चुणनासधूरणसरीरपरिमडणनाउमय हसिय भणिय नहगीयापन नहगजलम पेच्उणवेलनग' कक्षाशीर्ष करचरण नदन मानगान कर्मपरिमर्दनानुलेपनच् र्णवासधूपनशरीरपरिमण्डन नाकुशिता सितभणितनाय्य गीतनादित नटनर्त्त जल मलमेक्षणम्पिक तन कक्षा नहुउयमूलाधोवर्त्तिस्थानम्, शीपं शिरः, करचरण = प्रसिद्धम्, पदन=मुख, तेषा यद् धार=पान, साधन हस्ताभ्यां पादपीडन मात्र+म= शरीरपरिकर्म= समर्दनादि कर्मपरिमर्दन = सर्वतः शरीरमर्दनम्, तथा अनुलेपनचूर्णवास वृपनशरीरपरिमण्डनम्, तT अनुलेपनम् शरीरे चन्दनानुलेपनम् , चूर्णवास = मुगन्धिद्रव्यचूर्णम्, धूपनम् = अगुरु धूपादिकरणम्, शरीरपरिमण्डनम् = खादिभिः शरीरशृङ्गारकरणम्, तथा याकुशिक नखात्र केशसमारचनम् = कुश=+रचारित्र तदेवप्रयोजन यस्य तद्वाकुशिक श्रृगारप्रयोजनक नखकेशन खसमारचनादिक, हसित -हासः, भणित - खीणा विकृतभणनम्, नाट्य = नटकर्म, गीतगानम्, वादि (अभिक्खण कक्खसीस कर-चरण वयण-धोवण सना गायकम्मपरि महगाणुलेवेण चुण्णवासधूवणसरीरपरिमडणवाउसिययहसियभणिय न -गीय वाइय नड नग जल मल पेच्ण वेलनग) वारपार काख मस्तकहाथ-पैर और मुहका बोना, दोनो हाथों से शरीरका दानना, गोत्रकर्मशरीर की सफाई पर विशेष ध्यान रखना परिमर्दक-दूसरो से शरीर को रातदिन दयवाना, अनुलेपन शरीर पर चदन का बार २ लेप करना, चूर्णवास सुगन्धित द्रव्यो के चूर्ण से, धूपन अगुरु आदि के धूप से शरीर को अलंकृत करना, तथा वाकुशिक - श्रृगार के प्रयोजन को लेकर नख, वस्त्र औरकेशों को समारना तथा हसित -हासका हँसी मजाक-मरकरी आदि का करना, भणित-स्त्रियों के जैसा गाली आदि भाण्डवचनों का बोलना स्नान ४२वु, तथा " अभिक्सण कखसीस, कर, चरणनयण- घोवण-सवाहण गायकम्मपरिमद्द गणुले पण चुण्ण - वासवूण - घरीर - परिमडणत्रा उसियहसिय- भणियनह-गीय - वाइय - नड - नट्टग - जल - मल्ल - पेच्छण - वेलाग " वारवार भगत, भाथु, હાથ-પગ અને માને ધાવુ, અને હાથથી શરીરને દખાવવુ, ગાત્રકમ--શરીરની સ્વચ્છતા પર વધારે ધ્યાન આપવુ, પરિમન-બીજા પાસે શરીરને રાતદિવસ દુખાવવુ, અનુલેપન~વારવાર શીરે ચદનને લેપ કરવે, ચૂર્ણોવાસ–સુગ ધિત દ્રવ્યોના ચૂર્ણથી, ધૂપન અગસ્ત્ર આદિના ધૂપથી શરીરને અલ કૃત કરવુ, તથા વાકુશિક-શ્રૃંગારને માટે નખ, વસ્ત્ર અને કેળને સમારવા તથા હૅસિત ઠઠ્ઠા કરી સ્માદિ કરવુ, ભણિત–સ્રીએના જેવી ગાળો આદિ અશિષ્ટ વચના Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % D सुशिनीटीका अ०४ सू०४ नमचारीणामाचरणीयादिनिरूपणम् तम्-पटहादिवादनम् तपा-नटा: नाटयितार , नर्तका:-नृत्यकारिणः, जल्ला 3 चर्ममयरज्जूपरिहत्यकारसाः, मल्ला. मल्लयुद्ध कारिणः, तेपा प्रेक्षगम् अवलोकनम् तथा-विडम्ममा विदूषकाः, एपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, वर्जयितव्या इति योगः। तथा-'जाणि य सिंगारागाराणि य' यानि च शृङ्गारागाणि चम्झारापारभूतानि अगचेष्टादीनि तानि तथा-'अण्णाणि य' अन्यानि च-एभ्यइतराणि च 'एनमाडयाणि ' एमादिकानि एव प्रकाराणि यानि तवसजमनभचेरघाओघाइयाह' तपः सयमब्रह्मचर्यचातोपपातिकानि, तन तपः सयमब्रह्मचर्याणा घातो देशतः, उपधाव सर्पतो जायते यदशात् तानि तथोक्तानि 'वभचेर' ब्रह्मचर्यम् , ' अणुचरमाणेण' अनुचरता पालयता 'मन्यकाल' सर्वकाठ-सर्वदा 'बज्जेयघाइ। वर्जितव्यानित्याज्यानिभान्ति, वर्जितव्यानीत्यस्यैकवचनविपरिणामेनान्यत्राsप्यन्वयो योध्य । तथा-'भावेयधो य' भावितव्यश्च भवति 'अतरप्पा' अन्तरात्मा जीपः । के भवितव्यो भाति ? इत्याह-' इमेहिं ' एभि. 'तबणियमसीलनाटय-नाटक का देखना, गीत-गान का, वादित-पटह आदि घजते हुए पाजों का सुनना, नट-नटों का, नर्तक-नृत्यकारी जनों का जल्लजल्लों का-चर्ममयरज्जु के जपर नाचने वालो का, मल्ल-मलों के-पाहु युद्ध का प्रेक्षण-रूचिपूर्वक अवलोकन करना, तथा-विडम्बकों-विपको को देखना यह सब वर्जना चाहिये तथा 'जाणिय' जो भी (सिंगारागाराणि ) श्रृंगार के आधारभूत ऐसे, तथा (एवमाइयाणि अण्णाणि य) इसी तरह के और भी जो (तब सजमयभचेरघाओवघाइयाइ ) तप, सयम एप ब्रह्मचर्य में एक देश से दूपण लगाने वाले हो अथवा सर्वदेश से उनका घात करने वाले हों, इन सब को (पभचेर अणुचरमाणेण ) जो इस ब्रह्मचर्य महावत के पालन करने वाले सयमी जन हैं उन्हें (सव्वकाल वज्झेयव्वाइ) सदा के लिये छोड देना चाहिये । એલવા. નાટક જેવા, ગીત તથા પટ આદિ વાજિત્રોને અવાજ સાભળો, નટોના, નૃત્ય કરનારના, ચર્મમય દોરડાઓ પર નાચનારાઓના, મલ્લોના દયુદ્ધનું નિરીક્ષણ કરવાનું તથા વિદષાને જોવાનું એ બધાને त्याग ४२वो न तथा "जाणिय" "सिंगारागाराणि" श्रृंगारना साधन३५ गोवा तथा " एवमाइयाणि अण्णाणिय" सेवा प्रा२नु alag ५२ "तबसजमचभचेरधाओवधाइयाइ" त५ सयम, मन प्रझायर्यभा मे દેશથી દૂષણ લગાડનાર હોય અથવા સર્વ દેશની તેમને ઘાત કરનાર डाय, ते अधाना "बमचेरअणुवरभाणेण" २ मा प्राययं महानतनु पालन ४२नार सयभी बनना छ तेभो “सयकाल बज्जेयव्वाइ" महाने भाटेत्या ४२वे! Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 700 प्रश्नव्याकरणसूत्रे जोगेहिं ' तपोनियमशी ल्यांगे = तपः प्रभृतिव्यापारे: ' निन्चकाल' नित्यकाल सर्वदाऽन्तरात्मा भवितव्य' । 'किते' के ते कथम्भूतास्ते तपोनियमशील योगाः? इत्याह- ' अण्डाण अतधोरण सेयमलजलधारण मृगाय के मलोयनमदम अलग खुप्पिनासला सीतो सिस्नु - सेज्जाभूमिनि सेज्जापरघरपरेस द्वावद्वमाणात्रमानिंदणदसमस गफास नियमतागुणविणयमाइएहिं ' अस्नानकादन्तधावनस्वेदमलज ल्लधारण मौनातकेशलोच क्षमादमाचेलक सुत्पिपासालाघनशीतोष्णकाष्ठगग्याभूमिनिपधापरगृह वेशल धापलब्धमानापमान निन्दनदशमश कस्पर्श नियमतपोगुणविनयादिकैः- तत्र - अस्नानक= स्नानार्जनम्, अदन्तधावनदन्तधावनार्जनम्, तथा स्वेदमलजल्लधारण, तत्र-स्वेद =मस्वेद', मल-स्वेदरजः ससर्गात्समुत्पन्न नीभूतम् तथा (इमेहिं तवणियमसीलजोगे हिं ) इन तप, नियम और शीलसदाचार, इन सबसे उस ब्रह्मचर्य महाव्रतधारी को ( अतरप्पा ) अपनी अन्तरात्मा (निच्चकाल) सदा ( भाविनो भवइ ) भावित करना चाहिये । (किं ते) वे तप नियम-शील योग कौन हैं ? उन्हें दिखलाते हैं- अण्हाणग-अदत बोवणसेय मल्ल-जल-धारण- मृणवय- केसलोयखमदम अलग खुपिनासलाधनमीतोसिणकट सेज्जा भूमिनि सेज्ज पर घर पवेस-लद्वा बल्द्व-माणावमाग- निंदणदसममगफासनियमतव गुणचिणयमाइएहिं ) उस साधुके तप, नियन और शील इस प्रकार के होना चाहिये वह साधु यावज्जीव स्नान न करे, अर्थात् उस महाव्रती को जीवन भर तक स्नान करने का त्याग कर देना चाहिये, कभी भी देतौन नहीं करना चाहिये, शरीर में प्रस्वेद - पसीना आता हो, तो उसे वायु आदि करके नही सुखाना चाहिये । इस पसीने में आकर ध तथा 'इमेहिं तवणियम सीलजोगेहिं मे तथ, नियम, अने शीस-सहायार એ બધાથી તે પ્રદ્દાચ મહાવ્રતધારીએ “ अतरप्पा ” પેાતાના અ તરાત્મા " निच्चकाल " सहा " भावियत्रो भइ " लावित २ध्ये " कि ते " ते तथ नियम- शीक्षायोग देवी होय हे ते मताचे छे-" अण्णाणग- अदतधोरण - सेय-मल-जल-धारण- मूणवय के सलोय - समदम - अचेलग - सुप्पिवास लाघव सीतोसिणकट्टसेज्जाभूमि-निसेज्ज -परघरप्पवेसलद्धावलद्धामाणावमाण नि दणद सम सफास नियम तव गुणविणयमाइएहि " ते साधननु तथ, नियम भने शीत मा પ્રકારનુ હાવુ જોઈએ-તે સાધુ જીવન પર્યન્ત સ્નાન ન કરે એટલે કે આ મહાવ્રતધારીએ અને ત્યા સુધી સ્નાન કરવાના ત્યાગ કરવા જોઈએ, કરી પણ દાતણુ કરવુ જોઇએ નહી, શરીરે પરસેવા વળતા હાય તે પવન નાખીને તેને સૂવવે જોઈ એ નહી, તે પરસેવામા રજા ચાટી ગયા હોય તે તેને શરીર પરથી દૂર કરવા જોઈએ નહી કાન, નાક આદિ ઇંદ્રિયમા - - Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०१ मुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ प्रहरीणामाचरणीयादिनिरूपणम् जल्लकर्णनासिकादि समुत्थ मलम् , तपा धारणम् , तथा-माननतम् , केशलोचः, एतौ प्रसिद्धो, समा कोनिग्रह , दम.न्द्रियनिग्रह., अवेलकम्-धर्मोपकरणातिरिक्तवस्त्राभाव , क्षुत्पिपासे प्रसिद्धे, लाघवम्=अल्पोपामित्वम् , शीतोष्णे प्रसिद्धे, काठशल्या काठफल कशयनम् , भूमिनिपधा-भूमाउपवेशनम् , तथा-पर गृहप्रवेशल-बापरचमानापमाननिन्दनानि, भिक्षार्थ परगृहप्रवेशः, तत्रापि लया. पलब्धौ लाभालाभो, मान-सम्मान', अपमानः अवमानना, निन्दन कुत्सितव. चन च, तथा-' दशमशफस्पर्शः दशमशाशनम् , तथा-नियमा= द्रव्याघभिग्रहः, यदि रजःकण ससक्त हो गये हों तो उन्हें शरीर से नहीं छुडाना चाहिये । कर्ण, नासिका आदि इन्द्रियो में लगे हुए मैल को भी दूर नहीं करना चाहिये । मौनत्रत रखना चाहिये तथा अपने केशो का लौच करना चाहिये । क्षमा-कोव का निग्रह करना दम-इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये । अचेलक-धर्मोपकरणो के सिवाय अतिरिक्त वस्त्र नहीं रखना चाहिये क्षुधा और पिपासा कि वाधा को सहना चाहिये । अल्प उपधिरखना चाहिये, शीत और उष्ण जन्य परीपह को सहन करना चाहिये । काष्ठ के फलक पर शयन करना चाहिये । जमीन पर बैठना चाहिये । भिक्षा के निमित्त पर घर जाना चाहिये । भिक्षा का लाभ हो अथवा न हो दोनो अवस्थाओ में समताभाव रखना चाहिये । मान और अपमान मे समवृत्ति रहना चाहिये। कीई अपनी निंदा करता हो तो उसमें अक्षमता नहीं आनी चाहिये । दशमशकों को दशनरूपयाधा से उद्विग्न नहीं होना चाहिये । द्रव्यादि का अभिग्रह रूप नियम का, अनशन आदि तपस्याओं का मूलगुणो का और अभ्युत्था લાગેલા મેલને ઉખેડે ન જોઈએ મૌનવ્રત રાખવું જોઈએ તથા પિતાના કેશને લેચ કર જોઈએ ક્ષમા-ક્રોધને નિગ્રહ કરવો જોઈએ, દમ-ઈન્દ્રિ ચેનો નિગ્રહ કરે જોઈએ અચેલ-ધર્મના ઉપકરણો સિવાય વધારાના વઆદિ રાખવા જોઈએ નહી, ભૂખ અને તરસની મુશ્કેલી સહન કરવી જોઈએ, શેડા જ ઉપાધિ રાખવા જોઈએ, શીત અને ઉષ્ણતા જન્ય પરિષહ સહન કરવા જો એ લાકડાની પાટ પર સૂવું જોઈએ, જમીન પર બેસવું જોઈએ ભિક્ષાને નિમિત્તે પર ઘેર જવું જોઈએ ભિક્ષાને લાભ મળે કે ન મળે છતા પણ આ બંને પરિસ્થિતિમાં સમભાવ રાખવો જોઈએ માન અને અપમાનમાં સમવૃત્તિથી રહેવું જોઈએ કે પિતાની નિદા કરતુ હોય છે તેથી અક્ષમતા થવી જોઈએ નહી ડાસ, મછરના ડરૂપ મુશ્કેલીથી ઉદ્વિગ્ન થવું જોઈએ નહી દ્રવ્યાદિના અભિગ્રહ રૂપ નિયમનુ અનશન આદિ તપસ્યાઓના મૂળ म १०१ Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रमण्याकरणसूत्र तपा=अनशनादि गुणा'मूलगुगारयः, विनय अभ्युत्यानादिः, एपा द्वन्द्वः, ए. तान्यादौ येपा तैस्तथोक्यों गैरयमात्मा भारितव्यः । अस्नानाऽदन्तधावनादीना सहनेन नियमारीनामाचरणेन च सहात्मा सयो जितव्य इत्यर्थ । किमर्थमित्याह-'जहा या-येन कथा 'मचेर' ब्रह्मचर्य ' थिरतरंग ' स्थिरतरक-सुस्थिर 'होइ' भाति ॥ मू०४ ॥ नादिरूप विनय का पालन करना चाहिये । ये मरयाते माउ के आचार के अन्तर्हित रहती है । मो वा इन मर वालों से ओतप्रोत पतप, नियम और शील से अपनी आत्मा को भावित करता रहे अर्थात् अस्नान, अदन्तधावन आदि जो नाधू के मूलगुण हैं उनका वह शास्त्रोक्त विधि के अनुसार पालन करता हुआ और नियमादिकों का आचरण करता हुआ अपनी आत्मा को विशुद्ध करता रहे कि (जरा से बभचेर थिरतरग होड ) जिससे उसका ब्रह्मचर्य सुस्थिर बना रहे। भावार्थ-ब्रह्मचर्य महावत धारी सफल सयमी जन अपने आचार विचार को इस प्रकार का स्वच्छ और निर्मल बनावे कि जिससे उनमें अवसन्न पार्श्वस्थ कुशील आदिपना लेशमात्र भी न आने पावे । साधु पर प्राप्त करके भी विषयों में अनुराग बना रखना स्वज नों मे स्नेह रखना तथा ढेपी के प्रति द्वेषभावना रखना, आदि परिगति अवसन्न पार्श्वस्य साधुओ की है। शारीरिक सस्कार मे ही विशेष यान रखना, गीत नृत्य, वादित्र आदि मे चित्त की प्रवृत्ति करना, तप सयम आदि की आराधना सिर्फ लक्ष्य न होना, ये सब ब्रह्मचर्य ગુણોનું અને અભ્યસ્થાનાદિરૂપ વિનયનું પાલન કરવું જોઈએ આ બધી વાતે સાધુના આચારમાં આવી જાય છે તે તે એ બધી વાતેમાં ઓતપ્રેત થઈને તપ, નિયમ અને શીલથી પિતાના આત્માને ભાવિત કરતે રહે એટલે કે અસ્નાન, અદન્તધાવન આદિ જે સાધુના મૂળગુણ છે તેમનું શાસ્ત્રોક્ત વિધિ પ્રમાણે પાલન કરીને નિયમાદિનું આચરણ કરીને તે પિતાના આત્માને વિશદ્ધ કરતે રહે " जहा से चभचेर थिरतरग होइ" था तेनु प्राय सुस्थिर मनतु २९ ભાવાર્થ -બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રત ધારી સકલ સ યમી જન પિતાના આચાર વિચારને એવા સ્વચ્છ અને નિમર્ગ બનાવે જેથી તેમનામાં અવસ પાર્શ્વસ્થ આદિ સાધુઓના આચાર વિચારની ઝલક લેશમાત્ર પણ ન આવી શકે સાધન પદ પ્રાપ્ત કરીને પણ વિશ્વમાં અનુરાગ ચાલુ રાખવે, સ્વજને પ્રત્યે સ્નેહ અને દુશ્મનો પ્રત્યે દ્વેષ રાખવો આદિ પરિણતિ અવસગ્ન પાર્શ્વસ્થ સાધુઓની છે શારીરિક સ રકારેનુ જ વધારે ધ્યાન રાખવું, ગીત, નૃત્ય, વાજિત્ર આદિમા ચિત્તને વુિ, તપ, સયમ આદિની આરાધનાને જ લક્ષ્ય Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशिनी टीका अ ५ सू० ब्रह्मचारीणामनाचरणीयादिनिरूपणम् ८०३ मूलम् - इम च अवभचेरवेरमणपरिरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहिय अत्तहिय पेच्चाभाविय आगमेसिभद्द सुद्धनेयाउय अकुडिल अणुत्तर सव्वदुक्खपात्राण विउसमण ॥ सू०५ ॥ टीका-' इम च' इत्यादि " 'इम च' इद च ' पायण ' प्रवचनम् 'अनभचेरवेरमणपरिरक्खणडयाए' अब्रह्मचर्यविरमणपरिरक्षणार्थं चतुर्थ महानतरक्षण निमित्त भगवता कथितम् आत्महित, आत्महितकारकम् आगमिष्यद् भद्र शुद्ध नैयायिकम् अकुटिलम् अनुत्तर सर्वदुःखपापाना व्युपशमनम् । एषामर्थ पूर्व तृतीयसवरद्वारे प्रोक्तः ॥ ०५ ॥ " के घातक हैं, अत' साधु को अपने मूल गुणों की रक्षा करते हुए तप सयम एव ब्रह्मचर्य से अपनी आत्मा को भावित करते रहना चाहिये । इस तरह से उसका ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़तर हो जाता है ॥ सृ० ४ ॥ फिर कहते हैं-' इम च ' इत्यादि० । टीकार्य - ( इम च पावयण ) यह प्रवचन ( अबभचेर वेरमणपरि रक्खणट्ट्याए भगवया सुकहिय ) अब्रह्मचर्य विरमण की परिरक्षा के निमित्त भगवान् ने कहा है । ( अत्तहिय) यह आत्मा का हितकारक है, (पेच्चाभाविय) परलोक में भी शुभफल का दाता है । ( आगमेसिभ६ ) इसी कारण यह भविष्यत् काल मे कल्याणप्रद कहा गया है । (सुद्ध ) निर्दोष होने से यह शुद्ध है । (नेयाउय ) वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक प्रभु द्वारा भाषित होने से न्यायसंपन्न है । ( अकुडिल ) ન ગણવુ, એ બધુ બ્રહ્મચર્ય વ્રતનુ ઘાતક થાય છે તે સાધુએ પેાતાના મૂળ ગુણાની રક્ષા કા કરતા તપ, સયમ અને બ્રહ્મચદ્રતથી આત્માને ભાવિત કરતા રહેવુ જોઈ એ આ પ્રમાણે કરવાથી તેનુ બ્રહ્મચર્ય વ્રત વધારે દૃઢ થતુ જાય છે સૂ ૪ ૫ વળી સૂત્રકાર કહે છે— “ इम च " इत्यादि अर्थ 27 इम च पानयण આ પ્રવચન (( अब भचेर विरमणपरिरक्खणट्टयाए भगवया सुकहिय " मा ब्रह्मययं विग्भणुनी परिरक्षाने निभित्ते लगवाने हे “अत्तहिय " ते आत्माने भाटे हितजर छे, “पेच्चाभा विय " परसोभा पशु शुल इज हेनाइ छे " आगमेसिभद्द ” ते अरखे ते ભવિષ્યકાળમાં કલ્યાણ દાયક મતાવવમા આવ્યુ છે. सुद्ध ” નિર્દોષ હોવાથી ते शुद्ध छे " नेयाज्य " वीतराग, सर्वज्ञ भने हितोपदेश प्रभु द्वारा उथित होवाथी न्याय युक्त े, ' अकुडिल " ऋभुलावनु न होवाथी अञ्जुटिसके ८८ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - L०४ ম্যাজমুল अथ चतुर्थव्रतस्य पञ्चभावना: प्रतिपादयन् तर पूर्वमसमक्तमासासति नाम्नी मथमा भावनामाह-'एयम्म ' इत्यादि मूलम्-एयरस इमा पचभावणा उत्थवयस्त हुति अवभचेरवेरमणपरिरक्खणहयाए । पढम सयणासणघरदुवार अंगणआगासगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्थुकपसाहण गण्हाणिकावगासा अवगासा जे य वेसियाण अत्थतिट्टति य जत्थ इत्थियाओ अभिक्खण मोहदोसरइरागवडणाओ कहिति य कहाओ बहुविहाओ ते हु वजणिजा इत्थिससत्तसकिलिट्ठा। अण्णे वि य एवमाई य अवगासा ते हु वजणिज्जा, जत्थ मणोविब्भमो वा भंगो वा भंसणा वा अह रुद्द च होज्जा झाणं त त च वजेजवजाभीरू अणायतणअतपतवासी। एवमसंसतवासवसहीसमिइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा आरयमना विरयगामधम्मे जिइदिए वभचेरगुत्ते ॥ सू० ६ ॥ टीका-'एयस्स' एतस्य ' चउत्थवयस्स' चतुर्थततस्य ब्रह्मचर्याभिषेयस्य ऋजुभाव का जनक होने से अकुटिल है । (अणुतर ) सर्वश्रेष्ट होनेसे अनुत्तर है । तथा (सबदुक्खपावाण विउसमण) समस्त दुःखोंके जनक ज्ञानावरणीय आदि अष्टविध कर्मों का यह उपशमकारक है ।।सू०५ ॥ ___ अव सूत्रकार इस चतुर्य महाव्रत की पांच भोवनाओं को प्रति-- पादन करने के अभिप्राय से सर्वप्रथम अससक्तवासवसति नाम की पहिली भावना को प्रकट करते है-'ण्यस्स' इत्यादि। टीकाथ-(एयस्स चउत्थवयस्स इमा पच भावणा हुति) इस "अणुत्तर" स श्रष्ठ उपाथी अनुत्तर छ, तथा 'सव्वदुक्सपावाण विउसमणसमस्त દુખના જનક જ્ઞાનાવરણીય આદિ આઠ પ્રકારના કર્મોનુ તૈઉપશમ કરનાર છે સૂપ હવે સૂત્રકાર આ ચોથા મહા વ્રતની પાચ ભાવનાઓનું પ્રતિપાદન કર पाने भाटे सौथा पडे " अससकवासवसति” भनी पडही भावनानु २५०४२ ४३ छ- “ एयस्स"त्याह -" एयस्स पउत्थवयरस इमा पच भोवणा हुति " मा प्रार्थ Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीकाम. सू ६ 'गर्भसक्तयासवसति नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८८५ इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्चभावनाः, 'अपभचेरवेरमणपरिरक्खणद्वयाए ' अब्रह्मचर्यविरमणपरिरक्षणार्थ चतुर्थव्रतरक्षणनिमित्त, 'हुति' भवन्ति । तत्र- पढम' प्रथमा स्त्रीपशुपण्ड कससक्ताश्रयवर्जनलक्षणां भारनामाह-'सयणासणघरदुवारअगण आगामगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्युगपसाबणगण्टाणिकावगासा' शयनासनगृहद्वाराङ्गनाकागगवाक्षशालाऽभिलोकनपश्चाद् वास्तुकप्रसाधनकस्नानिकावकाशाः तत्र-शयन शय्या, आसन-प्रसिद्धम्, गृह-गेहम् , द्वारम्-गृहद्वारम् , अङ्गण= गृहाङ्गणम् , आकाशः अनाहत स्थानम् , गवाक्षोधातायनम् , शालाः = भाण्डशालादयः, अभिलोकनम् अभिलोक्यते दूरस्थित वस्तु यदास्थाय तद् अभिलोक नम् उन्नत स्थानम् , तथा-पश्चादू-वास्तुक-पृष्ठभागवतिगृह, तथा-प्रसाधनकस्य मण्डनस्य स्नानिकाया-स्नानक्रियायाश्च येऽवकाशा:-गृहाः, एपा द्वन्द्वः, एते स्त्रीसप्तक्तेन सक्लिप्टा र्जनीयाः । तथा-'जे य' ये च ' अवकासा' अवकाशा ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थव्रत की ये वक्ष्यमाण पाच भावनाएँ हैं। इनसे (अयभचेरविरमणपरिरक्खणट्टयाए) अघ्रह्मचर्य विरमण रूप ब्रह्मचर्यव्रत की अच्छी तरह से रक्षा होती है । (पढम ) इनमें स्त्री, पशु पडक से ससक्त वसति का वर्जने करने रूप प्रथम भावना है। वह इस प्रकार है- (सयणासणघरदुवारअगणआगासगवक्खसाला अहिलोयणपच्छवत्थुग) शयन-शय्या, आसन, गृह द्वार, आगन, खुला, हुआ स्थान, अरोखा, शाला, अभिलोकन-वर स्थान कि जिसके सहारे से दर की वस्तु देवी जा सके ऐसी ऊँची जगह पश्चाद् वास्तृकपीछे के भाग में रहा हुआ घर, तथा (पसाणग-हाणीकावासा) मडन घर और नहाने के घर, ये सब यदि स्त्रियों से ससक्त हों तो साधु का कर्तव्य है कि वह इनका परित्याग करे । तथा-(जे य अवनाभना याथा प्रतनी मा प्रभारी पाय मापनामा तेमनाथा “ अब भचेर विरमणपरिरक्षणट्ठयाए " मा प्रदायर्य विरमा ३५ प्रहायर्य प्रतनी सारी शते २१। थाय छ " पढम" तभी स्त्री, पशु, ५ जना ससथा युत सवाटना त्या ७२५। ३५ पडसी लापन ते या प्रमाणे छ-"सयणा सणघरदुवारअगणआगासगवाससाला अहिलीयणपच्छ्वत्थुग " शयन---शय्या. मायन, ड, द्वा२, मास, मुसl orव्या, २, nel, ममिसाउन-मेवी ઉચી જગ્યા કે જ્યાથી દૂરની વસ્તુઓ દેખી શકાય, પશ્ચાદ્દવાસ્તુક-પાછળના सासमा मावह घर, तथा “पसाहणग-हाणिकावासा" मउन ५२ मन નહાવાના ઘર, એ બધા સ્થાને જે સ્ત્રીઓથી યુક્ત હોય તે તેમનો પરિ. त्यास ४२वो ते सानु तव्य छ तथा “जे य अवगासा" २ सान A Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ - - - ___प्रभस्याका बारे गृहा स्थानानीत्यर्थ , 'वेसियाण ' वेश्यानाम् ' अह' अर्थ निमित्त 'तिद्वंति' तिष्ठन्ति सन्ति, तथा-'जत्थ' यत्र 'इत्थियाओ' त्रियो हि अभिक्षण' अभीक्ष्ण-मुहुर्मुहु 'मोहदोसरइरागमद्भुणाओ' मोहढोपरतिरागर्धना=मोहदोष रइरागान् वर्धयन्ति यास्ता मोहादिरद्धिकारिण्य इत्यर्थः, 'बहुविहानो' बहुविधाः-जातिकुलरूपनेपथ्यपियाः 'कहाओ' कथाः 'कहिति' कथयन्ति, 'ते खलु ' इत्थी ससत्तसफिलिहा' स्रीससक्तसक्लिप्टाः = स्त्रीससर्गयुक्ता गृहाः, 'वजणिज्जा' पर्जनीया भवन्ति । तथा-'अण्णे पिय' अयेऽपि च 'एवमाई' एक्मादय -एव प्रकारा येऽअमाशा भान्ति, 'ते हु' ते खलु 'वजणिज्जा' वर्जनीया भवन्ति । किंबहुना-'जत्थ' यत्र यत्र-उत्तरन 'त त' इति वीप्साप्रयोगादत्रापि वीप्सा बोद्धव्या, ज्ञायते, 'मणो विन्भमो वा ' मनो विभ्रमो वा -श्रृङ्गाररससमुत्पन्न चित्तस्याऽस्थिरतम् , 'भगो या ' ब्रह्मचर्यस्य सर्वभङ्ग, गासा) जो स्थान (वेसियाण अट्ठ-तिहति) वेश्याओ के निमित्त बने हुए हों तथा (जस्थ ) जिन स्थानों पर बैठ कर (इत्थियामो) स्त्रिया (अभिक्खण) बार बार (मोहदोसरइराग वणाओ) मोर दोपरति और रागको बढानेवाली (पहुविहाओ) विविध प्रकारकी (कहाओ) कथाओंको (कहति) कहती हों, (ते) वे स्थान (इत्थी ससक्त सकिलिट्ठा) स्त्रीयोंसे ससक्त होनेके कारण साधुको उनका परित्याग कर देना चाहिये। तथा (अण्णे वि) और भी कोइ (एबमाई य अवगासा) ऐसे स्थान हो तो (ते हु) उनका भी साधु को (वज्जणिज्जा) परित्याग कर देना चाहिये । अधिक और क्या कहा जाय (जत्थ जत्थ) जिस २ स्थान पर साधु का (मणोविन्भमो ) मन विभ्रम युक्त बन जावे (वा) अथवा ( भगो) उसके ब्रह्मचर्य व्रत का भग होने की सभावना (वा) अथवा " वेसियाणअटू-तिति " श्यामाना निमित्त गन। छाय, तथा "जत्य" २ स्थान। ५२ मेसीन " इत्थियाओ" सीमा “ अभिक्खण" वा२ पार " मोहदोसरइरागवडूढणाओ " भाड, दोष, २ति ने सारे वधावना " बहुबिहाओ" विविध प्रनी "कहाओ" या " कहेंति" ४डता डाय "ते हु" त स्थान। " इत्थी ससत्त सकिलिला"श्रीमाथी युक्त डान र साधुमास तमना परित्याग ४२ री तथा अण्णे वि" भवा मीन पY ' एव माईय अवगासा स्थान हाय तो “ते हु" तभना पर साधु “वजणिज्जा" परित्याग ४३री न पधु शु ४६। "जत्थ जत्थ " रे स्थान ५२ साधुनु "मणोविन्भमो' भन विलमयुत मनी नाय “वा" या ' भगो" तेना अक्षय रतन गनी शयता Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - सुशिनी टीका अ०४ सू०६ 'अससक्तवासयसति'नामकप्रथमभावनानिरूपणम्८०७ 'मसगा वा ' भ्रशना वान्ब्रह्मचर्यस्य देशतो भङ्गो वा, तया-' अट्ट ' आतम्= इप्ट सयोगाभिलापरूपम् , 'रुद्द ' रौद्र तदुपायभूतहिंमाऽनृतादत्तादानग्रहणानुपन्धरूपम् , 'आण' ध्यान ' होज्जा' भवेत् ' त त च 'ततच्च 'वज्जेज्ज' वर्जयेत् , का ? इत्याह-य 'पज्जभीरुः' अवधभीरू सापद्यवमतिवासजन्यपापभीरुः, अत एव- अणायतणअतपतवासी' अनायतनान्तमान्तवासी न आयतन स्त्रीपशुपण्डकानामित्यनायतनम् , स्त्रीपशुपण्ड करहितमित्यर्थः, अन्तम्-इन्द्रिया ननुकूल, पर्णकुटयादि, प्रान्त तदेव प्रकृष्ट श्मशानन्यगृहक्षमूलादिक वा स्थान तत्र वस्तु शील यस्यासौ-निर्दोप वसतिवासीत्यर्थः, स ताग स्थान वर्जयेदिति भाव । उपसहरनाह--'एव' एवम् अनेन प्रकारेण 'अससत्तामवसइसमिइजोगेण ' अससक्तवाससतिसमितियोगेन-प्रससक्तः स्वीपशुपण्ड रूसंसर्गरहितो यो (भसणा) एक देश से वह भग होने की सभावना हो तथा (अह मद्द च झाण होज्जा) दृष्ट सयोगामिलापरूप आर्तध्यान, हिंसा, झूट, चोरी आदि मे आनद मानने रूप रौद्रयान, उसके चित्त में जग जाने की संभावना हो, तो साधु को (त त च) उस स्थान का (वज्जेज्ज) परित्याग कर देना चाहिये। क्यों कि साधु (अवज्जभीरू) सावद्यवसति वास जन्य पाप से सदा भीरु-डरने वाला होना है। ( अणायतणअंतपतवासी) आर वह ऐसे ही निर्दोष स्थान में ठहरता है कि जहा स्त्री, पशु, पडक नहीं रहते हो, तथा जो अपनी इन्द्रियों के अनकूल न हो, किन्तु श्मशान, शूनगृह, वृक्षम्रल आदिरूप हो । इसलिये जब सिद्धात में निपि वसति मे ठहरने की आज्ञा प्रभु की हैं तो यह वातनिश्चित है कि वह सदोपवसति मे न ठहरे। (एव अससत्तवाम"वा" अथवा " भसणा" शिथी तमा न थपानी सलवितता हाय तथा “ अट्ट रुद्द च झाण होज्जा" | मालिसाषा ३५ मात्तध्यान, હિસા, જૂઠ, ચેરી આદિમા આનદ માનવારૂપ રૌદ્રધ્યાન, તેના ચિત્તમાં ઉત્પન્ન थवानी शयता काय तो साधुसे " त त च"ते ते स्थानना "वजेज" परित्याग री देवेनये ४१२६ है माथु ' अवन-भीरू" साप सति पास ५न्य पापाथी महा ७२ना२ सय ७ " अणायतण अतपतशासी" सने તે એવા નિર્દોષ સ્થાનમાં રહે છે કે જ્યા સ્ત્રી, પશુ, પેડક રહેતા હોય નહી તથા જે પિતાની ઈન્દ્રિયોને અનુકળ ન હોય, પણ સ્મશાન, ખાલી મકાન, વૃક્ષમૂળ આદિ રૂપે હોય તેથી નિર્દોષ વસતિ (વસવાટ) મા રહેવાની સિદ્ધાતમાં પ્રભુએ આજ્ઞા આપેલી છે તે એ વાત નિશ્ચય જ છે કે તેમણે सहीष पसतिभा २३ मे नही " एव अससत्तवासवसतिसमिइजोगेण " Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૦૮ recent M वासस्थानम् तन या वसतिः निवासस्तदूपो यः समितियोगस्तेन 'भाविओ' भावितासितः 'अतरप्पा ' भन्तरात्मा = जीनः ' आरयमगा जारतमना आसमन्तात् रत=नह्मचर्ये समस्त मनो यस्य स तथा, - विरयगानम्मे ' विरतग्रामधर्मः = निवृत्तो ग्रामघमत = मैथुनाद्य स तथा अत एव ' जिइदिए' जितेन्द्रिय = वशीकृतेन्द्रियः, 'नभचेरगुत्ते ' ब्रह्मचर्यगुप्तः=ननिय ब्रह्मचर्यमहितः दशविधत्रह्मचर्य - समाधिस्थानयुक्तीना 'भाइ' भवति ॥ ०६ ॥ पुन - ' वसति समिजोगेण ) इस प्रकार स्त्री, पशु, पडक के समर्ग से रहित स्थान में ठहरने रूप समिति के योग से ( भाविओ अतरप्पा ) भावित अतरात्मा - मुनि (आरयमणा ) सर्व प्रकार से ब्रह्मचर्य व्रत में ससक्त मन वाला हो जाता हैं और - (विरयगामधम्मो ) ग्रामधर्म-मैथुन से विरत हो जाता है । अतएव वह (जिदिए वभचेरगुत्तेभव ) जितेन्द्रिय बनकर नवविधब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मचर्य समाधी स्थान से युक्त वन जाता है। भावार्थ -- इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत को स्थिर रखने वाली पाच भावनाओं में से प्रथम स्त्रीपशु पडक सेवित शयनासन वर्जन रूप भावना का स्वरूप स्पष्ट किया है। माधुजन को ऐसी ही वसति-स्थान में निवास करने को प्रभु की आज्ञा है कि जो निर्दोष हो । स्त्री पशु पडक आदि के ससर्ग से रहित हो। क्यो कि ऐसे स्थान में निवास करने से माधु के ब्रह्मचर्य व्रत का देश से भग अथवा सर्वथा भग हो सकता है । तथा जिस स्थान पर बैठकर स्त्रिया विविध આ રીતે સી, પશુ, અને પડકના સસથી રહિત સ્થાનમાં રહેવા રૂપ समितिना योगथी “भाविओ अतरप्पा" लावित अतरात्मा-भुनि " आरयमणा" हरे अअरे प्राथर्य व्रतमा दृढ भनवाजा थर्ध लय छे भने “विरयगामधम्मो " श्राभधर्म-मैथुनथी भुक्त था लय छे तेथी ते " जिइदियधभचेरगुत्ते भवइ' જિતેન્દ્રિય થઈને નવ વિધ બ્રહ્મચર્યંની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ પ્રાચય સમાધિ સ્થાનથી યુક્ત ખની જાય છે "" भावार्थ- —આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતને સ્થિર રાખવાની પાચ ભાવનાઓમાથી સૌથી પહેલી સ્ત્રી, પશુ, પડક સેવિત શયનાસન વનરૂપ ભાવનાનું સ્વરૂપ સ્પષ્ટ કર્યું છે. સાધુજનાને એવા સ્થાનમા વસવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે કે જે નિર્દોષ હાય, સ્ત્રી, પશુ, પડ- આદિના સસથી રહિત હાય કારણુ કે એવા સ્થાનમા વસવાથી સાધુના બ્રહ્મચર્ય વ્રતના અર્થાત જગ થાય છે અથવા સર્વથા સગ થઈ શકે છે. તથા જે સ્થાને બેસીને Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोक्षाम०४ सू०७ 'स्त्रीकथाविरती' नामक द्वीतियभावना निरूपणम् ८०९ द्वितीया स्त्रीकथाविरविनाम्नी भावनामाह-' बीय ' इत्यादि मूलम्वीय नारीजणरस मज्झे न कहेयव्वा कहा विचित्ता विव्वोकविलाससपउत्ता हास सिगार लोइयकहव्व मोहजणणी न आवाहवरकहाविय इत्थीणं वा सुभगदुव्भगकहाचउसट्टि महिलागुणाणं च न देसजातिकुलरूवणामनेवत्थपरिजणकहाओ इत्थियाण अण्णावि य एवमाइयाओ कहाओ सिगारकलुणाओ तवसंजमवभचेरघाओवघाइयाओ अणुचरमाणेण वंभचेर न कहयव्त्रा न सुणेयव्वा न चितियव्त्रा । एवं इत्थीकहा विरइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा आरयमणा विरयामधमे जितिदिए वभचेरगुत्ते ॥ सू०७॥ प्रकार की श्रृंगार आदि वर्धक कथाएँ किया करती हों, जो स्थान वेश्याओं के लिये निर्मित हुए हो, जो मन क्षोभ कारक हो, आतरीध्यान के प्रवर्तक हों, ऐसे भी स्थानों में साधु को नहीं ठहरना चाहिये, किन्तु जो स्त्री आदि के ससर्ग से रहित हो, इन्द्रियों में क्षोभ कारक न हो ऐसे उमज्ञान, शून्य गृह आदि स्थानों में ही साधु को निवास करना चाहिये । इस प्रकार इस अससक्तवासवसति नामक प्रथम भावना से भावित हुआ जीव ब्रह्मचर्य व्रत की सर्वप्रकार से रक्षा करता हुआ मैथुन से विरक्त होकर उसकी नौ कोटि से पूर्णपालना करने में सावधान रहना है || सू०६ ॥ શ્રીએ વિવિધ પ્રકારની શ્રૃંગાર આદિ વ કથાએ કહેતી હાય, જે સ્થાન વેશ્યાએ માટેજ અનાવ્યા હાય, જે મનમા ક્ષેાભ કરનાર હાય, આ રૌદ્ર ધ્યાન તરફ દોરનાર હે”, એવા સ્થાનેમા પણ સાધુઓએ વસવુ જોઈએ નહી, પણ જે સ્થાન શ્રી આદિના મસથી રહિત હાય, ઇન્દ્રિયામા ક્ષેાલ કરનાર ન હેાય એવા સ્મશાન, ખાલી ઘર આદિ સ્થાનામા સાધુએ નિવાસ કરવા જેઈએ આ પ્રકારે આ “ અસ ભક્ત વાસ વસતી નામની ભાવનાથી ભાવિત થયેલ જીવ બ્રહ્મચર્ય વ્રતની દરેક રીતે રક્ષા કન્ત મૈથુનથી રહિત અનીને તેનુ નવ પ્રકારે પાલન કરવામા સાવધાન રહે છે ! સ્ ૬ u १०२ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्र टीका-'वीय ' द्वितीया स्त्रीकथापिरतिलक्षणा माननामाह---- 'नारीजणस्स' नारीजनस्य-त्रीपादो 'मज्झे' मध्येऽन्तराले न-नैव 'कहेयच्या' कथयितव्या ' कहा' पथावाक्यप्रान्धरूपा । कथामेव विशिनष्टि'विचित्ता' विचित्रा विचित्ररत्तान्तसमन्त्रिता, तथा-'विन्योकपिलाससपउत्ता' 'विन्योकविलाससप्रयुक्ता-पियोका अत्यभिमानपशादिप्टेऽपि वस्तुन्यनादरफरणम् , तदुक्तम्-'निनोकस्त्वतिगर्नेण वस्तुनीप्टेऽप्यनादरः, इति । विलास!= स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्मणा चैत्र यो विशेषः सातदुक्तम्-" स्थानासनगमनाना इस्तभ्रूनेत्रकर्मणा चैव । ____ उत्पद्यते विशेपो यः शष्टः स तु दिलास' स्यात् ।। " इति । विनोकवि अय सूत्रकार स्त्रीकथाविरति नामकी द्वितीय भावना को प्रदर्शित करते हैं-'वीय नारीजणस्स' इत्यादि। टीकार्थ--(पीय दूसरी स्त्रीकथाविरति रामकी भावना इस प्रकार से है- (नारीजणस्स मज्झे) स्त्रियों के बीच में बैठकर साधु को ( कहा ) कथाएँ कि जो (विचित्ता) विचित्र वृत्तान्तो से युक्त हो (विन्योकविलाससपउत्ता) इष्ट वस्तु में भी अनादर कराने वाली हो तथा विलासभाव बढानेवाली हों (न कहेयव्या) नही करना चाहिये। अति अभिमान के वश से इष्ट वस्तु में भी अनादर करना इसका नाम विन्चोक है, तथा स्थान, आमन, गमन में एक हस्त, भ्र, नेत्र इन की क्रियाओं में विशेषता आना इसका नाम पिलास है। ये दोनों प्रकार की विशेप चेष्टाएँ स्त्रियों मे शृगारभावजनित हुआ करती हैं। विश्वोक और विलास इन दोनों से जो कथाएँ युक्त हो वे साधु को हवे सूत्रा२ “नीकथाविरति" नामनी भी भावना मता छ"बीय नारी जणरस" त्यहि -- 'बीय"श्री ४ा नामनी भावना मा प्रमाणे -" नारीजणस्स मझे" स्त्रीमानी -ये मेसीन साधुसे मेवी “कहा" उथामा २ "विचित्ता" विचित्र वर्णन पाणी जाय “पियोकविलाससपउत्ता" टवस्तुमा पY मनाहर शवनाशाय तथा विसासमा धापनाशाय "न कहेयव्वा' ते ४वान નહી અતિ અભિમાનને વશ થઈને ઈષ્ટ વસ્તુને પણ અનાદર કરે તેને વિવેક કહે છે, તથા સ્થાન, આસન, ગમનમાં અને, હાથ, જૂ નેત્ર વગેરેની ક્રિયામાં વિશેષતા આવે તે વિલાસ ગણાય છે એ બંને પ્રકારની વિશેષ ચેષ્ટાઓથી સ્ત્રીઓમાં શ્રગાર ભાવ પેદા થાય છે વિવેક અને વિલાસ એ બનેથી Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका म०४ सू०७ 'नोकथाविरति'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८११ लासौ-स्त्रीणा शृङ्गारभावजनितो चेष्टाविशेषी, ताभ्या समयुक्ताः,तथा-'हाससिंगारलोइयकहा ' तत्र हासनारलौकिककथा हास्या हास्यस्थायिभारो रसविशेपः, श्रृङ्गारम्रतिस्थायिभागोरसविशेप , एतत्मभाना या लौकिकीकथा सा तया, 'मोहजणणी' मोहजननी-मोहोदीरिका कथा न वक्तव्या । तथा-'आवाहविवाहवरक हावि य' आनाइविहारपरकयापि च नावाहा अभिनवपरिणीतस्य वधूवरस्य आनयनम् , विवाहा-पाणिग्रहणम् , तत्प्रधाना या वरकथा-परिणेतृस्था साऽपि च न वक्तव्या । तथा-' इत्थीण ' स्त्रीणा 'सुभगदुभगकहा ' मुभगदुर्भगकथा "इटग्नेत्रनासिकाकपालादियुला च स्त्री दुर्भगा भरति " इत्यादिरूपा कथा वा न स्त्रियों के बीच बैठकर कभी नहीं कहना चाहिये, क्यों कि ऐसी कथाओं के कहने में रागभार की सयुक्तता सायु के जानी जाती है। इससे उसके ब्रह्मचर्यचन में दोप आता है। इसी तरह (हाससिंगारलोइयकहा) जो लौकिक कथा हास्य और शृगाररस प्रधान हो, तथा (मोजणणी) मोर की जनक हो वह भी नहीं करना चाहिये । तथा (आवाहविवाहवरकहोविय ) जो कथा नव दपतियों के आगमन से सवध रखती हों, अर्थात-जिस कथा का विषय नव परिणित वधू और वर के सबध को लिये हुए तथा जिस कथा मे विवाह सबंधी चर्चा हो, ऐसी आवाह और विवाह प्रधान वाली घरकथा भी साधु को नहीं करनी चाहिये । इसी तरह (इत्थीण वा सुभगदुम्भगकहा ) स्त्रियों सबधी सुभग दुर्भग कथा भी नहीं करना चाहिये, अर्थात्-'इस प्रकारके नेत्र, नासिका और कपाल आदिवाली स्त्री सुभग होती है और इस प्रकारके नेत्र नासिका, યુક્ત હોય તેવી કથાઓ સાધુએ સ્ત્રીઓની વચ્ચે બેસીને કદી પણ હેવી જોઈએ નહી, કારણ કે એવી કથાઓ કહેવામાં રાગ ભાવની સ યુક્તતા આવી જાય છે તેથી બ્રહ્મચર્ય નતમા દેવ આવી જાય છે એ જ રીતે “gs सिंगारलोइयकहा " २ सौडि ४था हास्य भने २ २स प्रधान डाय, तथा “ मोहजणणी" माह पह। उ२नार काय, ते म उसी ने नही तो “ आवाहविवाहवरकहानिय " २ था न पतियाना मागमन સાથે સંબંધ ધરાવતી હોય, એટલે કે જે કથાને વિષય નવ પરિણિત વધુ અને વરના સબ ધમાં હોય, તથા જે કથામાં વિવાહ સ બ ધી ચર્ચા આવતી હોય. એવી આવાહ અને વિવાહ પ્રધાન વર કથા પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ नही सन प्रमाणे " इत्यीण वा सुभगदुन्भगकहा" श्रीया समधी सुमन વિરળ કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહી, એટલે કે “આ પ્રકારના નેત્ર, નાક અને કપાળવાળી સ્ત્રી સુભગ હોય છે અને આ પ્રકારના નેત્ર, નાક અને Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमयाकरणसूत्रे वक्तव्या। तथा-'चउसट्ठीमहिलागुगा' चतुप्पष्टिमरिलागुणा आलिगनातीनामष्टानां प्रत्येकस्याष्टनिधत्वेन ये चतुप्पप्टिसरयका महिलागुणास्तेऽपि च न वक्तव्याः। तथा- देसजाइकुलरूपणामनेत्यपरिजणकहाओ' देगनातिलरूपनामनेपथ्य परिजनकथाः तत्र-देशकथा-लाटादिदेशमम्बन्धिसोणा वर्णनम् , यथा-'लाटयः और कपाल आदि से युक्त स्त्री दुर्भग होती है, इस प्रकार ये स्त्रीयो की सुभगता और दुर्भगता से सय र रग्बने वाली फया मी साधु फो नही कहना चाहिये । तथा (चउसहि महिलागुणाण च) जिस कमा में स्त्रियो के चौसठ गुणों से सयध हो, अर्थात् सियों के चौसठ गुणों को लेकरजो कथा चलती हो वह भी साधु को नहीं करनी चाहिये । आलि. गन आदि आठ गुण प्रत्येक आठ २ प्रकार के होते है, उस तरह ८xc=६४ प्रकार के महिलाओं के गुण कहे गये है। सो ये चौसठ ६४ प्रकार के महिलाओ के गुण भी कथामें चर्चनीय नरी होनी चाहिये। तथा (देसजाति कुलस्वणामनेवत्यपरिजणकाओ इत्थियाग अण्णावि य एवमाइयाओ सिंगारकलुणाओ सजमसभा घाओवघाउयाओ बमचेर अणुचरमाणेण न कहेयव्वा न सुणेयान चिंतियया) देश,जाति, कुल, रूप, नाम, नेपथ्य, परिजन, इनसे सबध रखनेवाली स्त्रियोंकी कथाएँ भी नही कहनी चाहिये-लाटादि-देश सनधी स्त्रियों का वर्णन जिस कथामे होता है वह देश कया है, जैसे-लाट देश की स्त्रिया बहुत ही कोमल કપોળ વાળી સ્ત્રી વિરલ હોય છે... આ રીતે સ્ત્રીઓની સુભગતા કે વિરલતા साथै सय ५ रामती ४था ५९४ साधुणे की नसे नही “चउसद्धि महिला गुणाण च" २ थाना स्त्रीयाना यास शुणेसाथे स५५ डाय એટલે કે સ્ત્રીઓના ચોસઠ ગુણોને અનુલક્ષીને જે કથા ચાલતા હોય તે પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ નહી આલિંગન આદિ આઠ ગુણોમાને પ્રત્યેક ગુણ આઠ આઠ પ્રકારનું હોય છે, આ રીતે ૮૪૮૬૪ પ્રકારના સ્ત્રીઓના ગુણ બતાવ્યા છે તે તે ચેસઠ પ્રકારના સ્ત્રીઓના ગુણ પણ કથામાં ચર્ચાવાને योग्य नथी तथा "देसजातिकुलरूपणाम-नेवस्थ-परिजण-कहाओ इस्थियाण अण्णा वि य एवमाइयाओ कहाओ सिगारक्लुणाओ सजमव पचेरघा ओवनाइयाओ बभचेर अणु चरमाणेण न कहेयच्चा न सुणेयव्या नचिंतियव्या" देश,जति सुज,३५,नाम, नेपथ्य, પરિજન, વગેરે સાથે આ બધ રાખનારી સ્ત્રીઓની કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહી લાટાદિ દેશની સ્ત્રીઓના વર્ણન જે કથામાં હોય તે દેરા કથા છે, જેમકે “લાટ દેશની સ્ત્રીઓ બહુ જ મૃદુ વચન વાળી અને નિપુણ હોય Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ३०४ सू० ७ रनोकथाविरतिनामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८१३ कोमलवचनाः इति निपुगा या भवन्ती" त्यादि । जातिकया ब्राह्मणादिजाति सन्धिकथा, यथा-" पिगबानगीवाभारे या जीनन्तिमृता इव । धन्यामन्ये शूद्रीः पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः ।। कुलकथा, यथा-अहो चोलुक्यपुत्रीणा साहस जगतोऽधिकम् । पत्या गृते दिगन्त्यग्नि याः प्रेमरहिता अपि" इति । रूपकथायथा-चन्द्रवस्त्रा सरोजाक्षी, सड़ीः पीनधनस्तनी । किंलाटीनो मता सा स्या, देवानामपि दुर्लभा ॥ १॥" इति । वचनवासी और निपुणता युक्त हुआ करती हे ब्राह्मण आदि जाति से सबध रखनेवाली स्त्रियो की कथा कहना इसका नाम जाति कया है । जैसे पति के अभाव में जीवन व्यतीत करने वाली ब्राह्मणियों को धिकार है-त्यों कि ये जीती हुई भी एक तरह से मरी हुई जैसी हैं। और वे शूद्र जाति की स्त्रिया धन्य हे जो लाख पतिवाली होने पर भी निन्दित नहीं होती ह । कुल से सरध रखतेवाती स्त्री सबधी कथा कुल कथा है-जैसे-अहो ! चौलुग्यवश की स्त्रियो का साहस जगत मे सबसे अधिक होता है क्यों कि ये पति के मर जाने पर प्रेम से विहीन होती हुई जीती २ अग्नि में जल जाती हैं। स्त्रियों के रूप से मर रखने वाली कथारूप कथा है-जैसे लाटदेश की स्त्रिया चन्द्रमा के जैसी मुखवाली होती हैं कमल जैसी आँखो वाली होती हैं वाणी मे इनके मिठास रहता है, उनके दोनो कूच पुष्ट और स्थूल होते हैं ।भला ऐसी सुन्दर स्त्री किसको नहीं अच्छी लगेगी? ऐसी स्त्रीतो देवो को भी दुर्लभ हुआ करती છે ” બ્રાહ્મણ આદિ જાતિ સાથે મધ રાખનાર સ્ત્રિઓની કથા કહેવી તે જાતિ કથા કહેવાય છે જેમ કે ” પતિ વિના જીવન વ્યતીત કરનારબ્રહ્મ aણીઓને ધિક્કાર છે, કારણ કે તેઓ જીવતી હોવા છતા પણ એક રીતે તે મૃત જેવી જ છે “તે શુદ્ર જાતિની સ્ત્રિઓને ધન્ય છે કે જે લાખપતિ હોવા છતા પણ નિંદિત થતો નથી ” આ બીજી જાતિ કથાના દષ્ટાતે છે જે કુળ સાથે સંબંધ રાખનારી સ્ત્રી વિષેની કથાને કુળ કથા કહે છે જેમ કે “અહો ! ચાલુક્ય વંશની સ્ત્રીઓના સાહસ જગતમાં સૌથી વધારે હોય છે, કારણ કે પતિનું મૃત્યુ તથા તે પ્રેમભગ્ન થવાથી જીવતી અગ્નિમાં પ્રવેશ કરી બળી મરે છે ” સ્ત્રીઓના રૂપ સાથે સંબંધ રાખનારી કથાઓને રૂપકથા કહે છે. જેમ કે લાટ દેશની સ્ત્રિઓ ચન્દ્રમુખી હોય છે, કમળનયની હોય છે, તેમની વાણુંમાં મીઠાશ હોય છે, તેમના બને કુચ પુષ્ટ અને સ્થૂળ દેય છે એવી સુંદર સ્ત્રી ને ન ગમે ? એવી સ્ત્રીઓ તે દેવોને પણ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ ___प्रश्न याकरणसूत्रे वक्तव्या। तथा-'चउसट्टीमहिलागुणा' चतुष्पष्टिमहिलागुणा मालिजनादीनामष्टानां मत्येकस्याएविधत्वेन ये चतुष्पप्टिसरयका महिलागुणास्तऽपि च न वक्तव्याः । तथा- देसजाइकुलरूपणामनेवत्यपरिजणकहाओ' देगनातिलस्पनामनेपथ्य परिजनकथाः तन-देशकया-लाटादिदेशसम्बन्विस्त्रोणा वर्णनम् , यथा-' लाटयः और कपाल आदि से युक्त स्त्री दुर्भग होती है, इस प्रकार ये त्रीयो की सुभगता और दुर्भगता से सय रग्गने वाली का भी माउ को नही कहना चाहिये । तथा (चसहि महिलागुणाण च) जिस कमा में स्त्रियो के चौसठ गुणों से सयध हो, अर्थात् स्त्रियों के चौसठ गुणों को लेकरजो कथा चलनी हो वह भी साधु को नहीं करनी चाहिये । आलि गन आदि आठ गुण प्रत्येक आठ २ प्रकार के होते है, इस तरह ८xe=६४ प्रकार के महिलाओं के गुण कहे गरे है। सोये चौसठ ६४ प्रकार के महिलाओ के गुण भी कयामें चर्चनीय नही होनी चाहिये। तथा (देसजाति कुलवणामनेवत्यपरिजणाओ इत्वियाग अण्णावि य एचमाइयाओ सिंगारकलणाओ सजमरभचे वाओवघाउयाओ वभचेर अणुचरमाणेण न कहेयव्वा न सुणेरच्या न चिंतियव्या) देश,जाति, कुल, रूप, नाम, नेपथ्य, परिजन, इनसे सबध रसनेवाली स्त्रियोकी कथाएँ भी नही कहनी चाहिये-लाटादि-देश सरधी स्त्रियों का वर्णन जिस कथामे होता है वह देश कया है, जैसे-लाट देश की स्त्रिया बहुत ही कोमल કપોળ વાળી સ્ત્રી વિરલ હોય છે આ રીતે સ્ત્રીઓની સુભગતા કે વિરલતા साथै स५५ रामती ४था ५५४ साधुणे ४वी न मे नही " चउसद्धि महिला गुणाण च" २ थाना सीमाना याम गुणे। साथै समय એટલે કે સ્ત્રીઓના ચોસઠ ગુણોને અનુલક્ષીને જે ડઘા ચાલતી હોય તે પણ સાધુએ કહેવી જોઈએ નહી આલિ ગન આદિ આઠ ગુણેમાને પ્રત્યેક ગુણ આઠ આઠ પ્રકારનું હોય છે, આ રીતે ૮૪૮૬૪ પ્રકારના સ્ત્રીઓના ગુણ બતાવ્યા છે તે તે ચેક પ્રકારના સ્ત્રીઓના ગુણ પણ કથામાં ચર્ચાવાને योग्य नथी तथा "देस जातिकुलरूपणाम-नेवाय-परिजण-कहाओ इत्थियाण अण्णा वि य एषमाइयाओ कहाओ सिंगारक्लुणाओ सजमव भचेरघाओघवाइयाओ वभवेरअणु चरमाणेण न कहेयच्चा न सुणेयव्या नचिंतियव्वा" देश,जति शुष,३५,नाम, नेपथ्य, પરિજન, વગેરે સાથે સબંધ રાખનારી સ્ત્રીઓની કથાઓ પા કહેવી જોઈએ નહી લાટાદિ દેશની સીઓના વર્ણન જે કથામાં હોય તે દેશ કથા છે, જેમકે “લાટ દેશની સ્ત્રીઓ બહુ જ મૃદુ વચન વાળી અને નિપુણ હોય Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २०४ मू० ७ सोकधाविरतिनामकद्वितीयभावना निरूपणम् ८१३ कोमलचनाः इति निपुणा नन्त "त्यादि । जातिका त्राह्मणादिजाति सन्धिकथा, यथा-"पितामणीर्धनाभावेन जीवन्तिमृता इव । धन्यामन्ये रात्रीः पतिलक्षेऽप्यनिन्दिताः ॥ कुलकथा, यथा-अहो चोलुक्यपुत्रीणा साहस जगतोऽधिकम् । पत्या मृते विन्त्यग्निं याः प्रेमरहिता अपि " इति । रूपकथायथा चन्द्रवन्ना सरोजाक्षी, सङ्गीः पीनधनस्ननी । किडाटीनो सता सा स्या, देवानामपि दुर्लभा ॥ १ ॥ " इति । वचनबाली और निपुणता युक्त हुआ करती है ब्राह्मण आदि जाति से सन रग्वनेवाली स्त्रियों की कथा कहना उसका नाम जाति कथा है । जैसे पति के अभाव मे जीवन व्यतीत करने वाली ब्राह्मणियों को धिकार है- क्योंकि ये जीती हुई भी एक तरह से मरी हुई जैसी है । और वे शुद्र जानि की खिया धन्य है जो लाख पतिवाली होने पर भी निन्दित नही होती है । कुल से सरध रखतेवाली स्त्री सबधी कथा कुल कथा है - जैसे- अहो ! चौलायका की स्त्रियों का साहस जगत में सबसे अधिक होता है क्यों कि ये पति के मर जाने पर प्रेम से विहीन होती हुई जीती २ अग्नि में जल जाती हैं । त्रियों के रूप से मन्त्र रखने वाली कथा रूप कथा है - जैसे लाटदेश की त्रिया चन्द्रमा के जैसी मुखवाली होती हें कमल जैसी आँखो वाली होती हैं वाणी मे इनके मिठास रहता है, उनके दोनो कूच पुष्ट और स्थूल होते है | भला ऐसी सुन्दर स्त्री किसको नहीं अच्छी लगेगी ? ऐसी स्रीतो देवो को भी दुर्लभ हुआ करती छे" બ્રાહ્મણ આદિ જાતિ સાથે મઞધ રાખનાર સ્ત્રિઓની કથા કહેવી તે જાતિ કથા કહેવાય છે ‘ જેમ કે પતિ વિના જીવન વ્યતીત કરના બ્રાહ્મણીઓને ધિક્કાર છે, કાણુ કે તેઓ જીવતી હોવા છતા પણ એક રીતે તા भूत व छे " ८ તે શુદ્ન જાતિની સિએને ધન્ય છે કે જે લાખપતિ હોવા છતા પણ નિદિત થતી નથી ” આ ખીજી જાતિ કથાના દૃષ્ટાંતે છે જે કુળ સાથે સખધ રાખનારી શ્રી વિષેની કથાને કુળ કથ કહે છે. જેમ કે “ અહો ! ચાલુકય વશની સ્ત્રીઓના સાહસ જગતમા સૌથી વધારે હોય છે, કારણ કે પતિનુ મૃત્યુ તથા તે પ્રેમભગ્ન થવાથી જીવતી અગ્નિમા પ્રવેશ કરી ખળી મરે છે ” સ્ત્રીઓના રૂપ સાથે સમ ધગખનારી કથાને રૂપકથા કહે છે. જેમ કે લાટ દેશની ત્રિએ ચન્દ્રમુખી હાય છે, કમળનયની હાય છે, તેમની વાણીમા મીઠાશ હોય છે, તેમના અન્ને કુચ પુષ્ટ અને સ્થૂળ હોય છે એવી સુંદર સ્ત્રી કોને ન ગમે ? એવી સ્ત્રીઓ તે દેવને પણ " Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ - - प्रश्नव्याकरणसूत्र नामकथा-यथा-इय यथा नाम्ना गुदरी, तथा-स्पगुणाभ्यामपि । नेपथ्य कथा, यथा-" घिद्धनारीरौदीच्या बहुसनान्छादिवागलतिकत्वात् । यौवन न यूनां चक्षुर्मादाय सभवति ॥" इति । परिजनकथा-यथा-" चेटिकापरिवारोऽपि तस्याः कानो विचक्षणः। भावज्ञाः स्नेहवान् दक्षो पिनीतः मुकुटस्तथा ॥ " इति । एताः कथा न कर्तव्याः । तया-' इत्थियाण' स्त्रीणाम् 'अग्गानि य 'अया __ अचि च ' एवमाझ्याभो कहाओ' एपमादिका कयाः या हि 'सिंगारकलु __णाओ' शृङ्गारकरणा:-शृङ्गाररस करुणरसयुक्ताः, तथा ' सजमरभचेरघाओव हैं। नाम कोलेकर जिस कथा में स्त्री सवधी सौन्दर्य का वर्णन किया जाताहै वह नाम कया है,जैसे-यह स्त्री जसे नाम से सुन्दर है वैसे ही यह रूप और गुणों से भी सुन्दर है, स्त्री सधी वेशभूपा आदी की चर्चाजिस कथा में रहती है वह नेपथ्यका है, जैसे-उत्तरदिशा की स्त्रियों को धिक्कार है-जो अनेक वस्त्रों से आच्छादित रहा करती है, क्यों कि इसतरह रहने से इनका यौवन युवापुरुपो की आखो को आनदप्रदान नहीं करता है । स्त्रियों के परिजनों को लेकर जो कथा कही जाती है वे परिजन कथाएँ हैं, जैसे-उस स्त्रि का चेटिका जन-दासी जन रूप परि वार-भी बडा सुन्दर, निपुण, भावज्ञ, स्नेहयुक्त, दक्ष-व्यवहारकुशल, विनीत एव कुलीन है। साधु को ऐसी स्त्री सवधी देशादि कथाएँ रागभाव से युक्त होकर नहीं करना चाहिये । तथा इसी तरह की और भी स्त्रियों से सबंध रखने वाली शृगार रस एव करुण रस દુર્લભ છે નામને અનુલક્ષીને જે કથામાં સ્ત્રી બધી સૌદર્યનું વર્ણન કરાયુ હોય છે તે નામ કથા કહેવાય છે કે “આ સ્ત્રીનું નામ જેટલું સુંદર છે એટલી જ તે રૂપ અને ગુણમાં પણ સુંદર છે સ્ત્રીની વેશભૂષા આદિની ચર્ચા જે કથામાં હોય છે તે નેપથ્ય કથા કહેવાય છે જેમ કે “ ઉત્તરની સ્ત્રી ઓને ધિક્કાર છે, જે અનેક વસ્ત્રોથી અછાદિત રહે છે, કારણ કે તે પ્રમાણે રહેવાથી તેમનું યૌવન યુવાનની આખેને આનદ પ્રદાન કરતુ નથી ” સ્ત્રિ ના પરિજનને અનુલક્ષીને જે કથા કહેવાય છે તે પરિજન કથાઓ છે જેમ કે તે સ્ત્રીને દાસિજન રૂપ પરિવાર પણ ઘણો સુદર, નિપુણ, ભાવ, નેહાળ, દક્ષ-વ્યવહાર કુશળ, વિનીત અને કુલીન છે” સાધુએ એવી સ્ત્રી સબ ધી દેશાદિ કથાઓ રાગ ભાવથી યુક્ત થઈને કહેવી જોઈએ નહી તથા એ જ પ્રકારની સિઓ સાથે સંબંધ રાખનારી છૂગાર રસ અને કરુણરસ Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ स्त्रीकवाचिरति'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ८१५ घाइयाओ' सयमब्रह्मवर्यघातोपपातिकास्ताः कथाः, 'वभचेर' ब्रह्मचर्यम् , 'अणुचरमाणेण' अनुचरता न कहेयन्त्रा' स्वय कथितव्याः, न नापि च 'सुणे यवा' अन्यस्य कथयतः श्रोतव्या न 'चितियन्या' चिन्तितव्या', न चिन्ता. विपयीकर्तव्या। एनम् ' इत्थीकहानिरइसमिइजोगेण' स्वीफ्याविरतिसमितियोगेन-वीणा या कथास्ततो या पिरनिस्तद्रूपो यः समितियोगस्तेन भारितोऽन्तरात्मा आरतमना ब्रह्मचर्यासक्तमना', विरतग्रामधर्म -निवृत्तभैथुनभावः । जिते. न्द्रियः वशीकृतेन्द्रिय', ब्रह्मचर्यगुप्तः नवविवब्रह्मचर्यगुप्तिसहितः, उत्तराध्ययनम्अपोडशाध्ययनोक्त दशविधनह्मचर्य समाधिस्थानयुक्तो वा भवति ।। मू० ७॥ प्रधानकथाओं को नहीं करना चाहिये। तथा जिन कथाओ से सयम और ब्रह्मचर्य का घात और उपघात होता हो ऐसी कथाएँ भी ब्रह्मचर्य को पालन करने वाले साधू को न स्वय कहना चाहिये, न सुनना चाहिये और न ऐसी कथाओं का विचार ही करना चाहिये। (एव इत्थी कहावि रइ समिहजोगेण भाविनों अतरप्पा विरयगामधम्मे जिइदिए बभचेर गुत्ते भवह ) इस प्रकार से स्त्रीकथाविरतिरूप समिति के सबध से भावि तभा जीव ब्रह्मचर्य में आसक्त मनवाला हो जाता है और ग्रामधर्ममैथुन क्रिया से निवृत्त हो जाता है, अतएव वह जीव जितेन्द्रिय बनकर नवविध ब्रह्मक्य की गुप्ति से अथवा उत्तराध्यपन सूत्र के मोलहवे अ ध्ययन में कहे हुए दशविध ब्रह्मचर्य समावि स्थान से युक्त बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की द्वितीयभावना का स्वरूप प्रकट किया है। इसमें उन्हो ने रागभाव से स्त्रीमात्र પ્રધાન કથાઓ પણ કહેવી જોઈએ નહીં તથા જે કથાઓથી સયમ અને બ્રહ્મચર્યને ઘાત અને ઉપઘાત થતો હોય એવી કથાઓ પણ બ્રહ્મચર્યનું પાલન કરનાર સાધુએ કહેવા ન જોઈએ, સાભળવી ન જોઈએ અને એવી थामान विया२ ५९ ३२२ नये नहि "एव इयीकहाविरइसमिइनोगेण भाविओ अतरप्पा विरयागामधम्मे जि दिए बमचेरगुत्ते भवइ” मा प्रमाणे સ્ત્રી કથા વિરતિરૂપ સમિતિનાયેગથી ભાવિત થયેલ જીવ બ્રહાચર્યમા આસકત મનવાળો બની જાય છે અને ગ્રામધર્મ-મિથુનક્રિયાથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તેથી તે જીવ જિતેન્દ્રિય બનીને નવવિધ બ્રચર્યની ગુપ્તિથી અથવા ઉત્તરાધ્યયન સુત્રના સોળમા અવ્યયનમાં કહેલ દશવિધ બ્રહ્મચર્યસમાધિ સ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે ભાવાર્થ—આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતની બીજી ભાવનાનુ સ્વરૂપે પ્રગટ કર્યું છે તેમાં તેમણે રાગભાવથી સ્ત્રી માત્રની કથાઓ કહેવાને Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरणसूत्रे तृतीया भाग्नामाह-'तपय ' इत्यादि मूलम्--तइयं नारीणं हसिय- भाणिय चिहिय विप्पेनित्रय गइविलासकीलियं विनोइ य नगीयवाइय सरीर सटाण वणकरचरणनयणलावणरूबजावणपयोधराधरवत्थालझारभूसणाणि य गुज्झोवकासियाइ अण्णाणि य एवमाइयाणि तव संजमवभचेरघाओवघाइयाइ अणुचरमाणेणं वभचेर न चक्खुसा न सणसा न वयसा पत्थेयव्वाइ पावकम्माई एव इत्थीरूव विरड समिइजोगेण भाविओ भवइ अतरप्पा आरयमणा विरयगामधस्मे जिइंदिए वभचेरगुत्ते ॥सू॥ ८॥ टीका-'तइय' ततीया स्त्रीरूपनिरीक्षणार्जनरूपा भावनामाह-'नारीण नारीणां __ 'हसियभणियचिहियपिप्पेक्खियगडविलासकीलिय' सितभणितचेप्टितरिमेक्षित की कथा करने का निपेच किया है, क्यों कि ऐसी बाते कामवर्धक हुआ करती है, अतः ब्रह्मचारी को अपने ब्रह्मचर्य व्रत में एकदेश अथवा सर्वदेश से चावक ऐसी कोई भी पात बियो के बीच में बैठकर नहीं करनी चाहिये । इस प्रकास उस ब्रह्मचारी का इन हर समय सुरक्षित बना रहता है ।। सू०७ ॥ ___ अब सूत्रकार इस व्रत की तृतीय भावना को कहते है-'तहय नारीण' इत्यादि। टीकार्थ-(तइय ) इस व्रत की रक्षा करने वाली तृतीय भावना स्त्री रूप निरीक्षणवर्जन करने रूप है। इस मे (नारीण) स्त्रियों के નિષેધ કર્યો છે, કારણ કે એવી વાત કામ વર્ધક હોય છે, તેથી બ્રહાચારીએ પિતાના બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં એક દેશી અથવા સવાથી બાધક એવી કોઈ પણ વાત બીઓની વચ્ચે બેગીને કહેવી જોઈએ નહી આમ કરવાથી તે બ્રહ્મચારીનું વ્રત સદાકાળ સુરક્ષિત બની જાય છે કે સૂ ૭ २ सूत्र मानतनी भी भावना मतावे " तइय नारीण "Sale साथ-" तइय" या प्रतनु रक्षए। नारी श्री लावना सीना चन निरीक्षा ४२वाना परित्यास रचानी छ तभा "नारीण" सिमाना Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुशिनी टीफा अ४ सू. ८ 'स्त्रीरूपनिरीक्षवर्जन नामक्तृतीयभावनानिरूपणम्८७ गतिविलासमोडितम् , तत्र हमित हास्यम् , भणित-जल्पितम् , चेष्टितम्-हस्तपादन्यासादि, विप्रेक्षितम्-निरीक्षितम् , गतिः गमनम् , विलास'नेजनितचेष्टाविशेषः, कीडित स्वसग्नीभिः सह खेलनम् , एपा समाहरद्वन्द्वः, तया-- 'वियोइयनहगीयगाइयसरीरसठाणपण्णकरचरणनयणलावण्णरूनजोषणपयोधराधर वत्थालंकारभृमणाणि य ' नियोकितनाटयगीतवादिनशरीरसस्थानवर्णकरचरणनयनलावण्यम्पयौवनपयोधरा परवस्त्रालङ्कारभूपणानि च, तन-वियोक्ति-पूर्वोक्तलक्षणोवियोकः, नृत्य-नर्तनम् , गीतगानम् , पादितचीणादिवादनम् , श , रीरसस्थान=स्वदीर्घादिशरीराकृतिः, वर्ण =गौरत्वादिलक्षण , तथा-करचरणनय नलावण्यम-करचरणनयनाना लापण्य-सौन्दर्यम् , रूप-स्वरूपम् , योवन तारण्यम् पयोपरी स्तनौ, अवर: अधरोष्ठः, पखाणि प्रसिद्धानि, अलङ्कागः = हारादय, भूपणानि-मण्डनानि, एतेपा द्वन्द्व , तानि । तथा गुज्झोवकासियाइ ' गुह्यारकाशिकानि गुह्यभूतालज्जनीयत्वान् स्थगनीया अवकाशा =शरीरामयमा इत्ययः, त (हसियभणियचिट्ठियविप्पेखियगइविलासकीलिय ) हास्य का, भणित बोलने का, उनकी चेष्टाओ का, चितवन का, चाल का, नेत्र जनितचेप्टाविशेषरूप विलास का, अपनीसखियो के साथ उनके खेल खेलने का, तथा उनके (वियोइ य नगीइ वाइय सरीर-सठाणवण्णकरचरणनयण लावण्णवजोवणपयोधराधरवत्थालकारभृमणाणि य) वियोक का, नृत्य का, उनके द्वारा गाये गये गीतो का उनके वीणादिवादन का. उनके हुस्व, दीर्घ आदि शारीरिक सस्यान का उनके गौर आदि वर्ण का, कर-हाथ, चरण-पैर, नयन-नेत्र इनके लावण्य-सौ दर्य का, रूप का, यौवन का, उनके स्तनों का, उनके अधरो का, उनके द्वारा पहरे हुए वस्त्रों का हार आदि अलकारो का, भूपणो का तथा (गुज्झोवकासियाइ ) उनके कामोद्दीपक गुप्त अगो का, तथा (एवमाइयाणि "हसियमणियचिट्टियविप्पेक्सियगइक्लिोसकीलिय" स्यनु, लगित-बालीन, તેમના હાવભાવનુ, ચિતવનનું ચાલતુ, આખના ઇશારારૂપ વિલાસનુ, પિતાની समियो साथेनी तेनी आनु, तथा तेमना “ विनोइय नहगीइवाइय सरीर-सठाणवण्णकरचरणनयणलामण्यरूवजोवणपयोधराधरवत्थाल कारभूसणाणि य " વિખેડનું, નૃત્યનું તેમના દ્વારા ગવાતા ગીતનુ, તેમના વણાદિ વાદનનુ, તેમના હસ્વ, દીર્ધ અદિ શરીર બધારણનું, તેમના ગોરા આદિ पनु, ७०-डाथ, य नेत्र, माहिना सोनु, ३५नु, यौवननु तमना સ્તનેનુ, તેમણે પહેરેલ વસ્ત્રનુ, હાર આદિ અલ કારેનુ, આભૂષણનું તથા " गुज्झोवकासियाइ" तमना भात्त गुप्त २५ गानु, तथा " एवमाइयाणि Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नव्याकरण एव गुह्यापकाशिकानि स्त्रीणा गुप्ताहानीत्यर्थः । तथा-'अण्णाणि य एषमाइयाणि' अन्यामि च एवमादिकानि हमितादिसटशान्यन्यान्यपि, ' तवसयमनभरघाओवघाइयाइ ' तपः सयमब्राह्मचर्यघातोपातकानि, 'पारकम्माड ' पापकर्माणि 'व. भचेर ' प्रहमचर्यम् ' अणुचरमाणेण' अनुचरता 'न चारसुसा' न चक्षुषा 'न मणसा' न मनसा 'न यसा' न वचसा 'पत्येयचाइ' मार्थयितव्यानिम्न चक्षुपा द्रष्टव्यानि, न मनसा चिन्तयितव्यानि, न वचसा प्रार्थयितव्यानीत्यर्थः । एवम् अनेन प्रकारेण ' इत्योपपिरइसमिइजोगेण स्त्रीरूपपिरतिममितियोगेन: स्त्रीणा यद् स्प ततो या विरतिस्तदूपो यः समितियोगस्तेन भारितोऽन्तरात्मा जीवः 'आरयमणा' आरतमना:-ब्राह्मचर्यासत्तचित्तो विरतग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्च भाति ।।सू०८॥ पावकम्माइ तवसजमयभचेरघाओवाझ्याह) इसी प्रकार की और भी पाप कर्मरूप बातों का कि जो तप, सनम एव ब्रह्मचर्य व्रत को एकदेश से अथवा सर्वदेश से घात करने वाली हों (यभचेर अणुचरमाणेण) ब्रह्मचर्य रत की आराधना करने वाले साधु को (न चस्खुसा) राग संयुक्त होकर न आखों से निरीक्षण करना चाहिये, (न मणसा) न मन से विचार करना चाहिये, और (न वयसा) न वचन से (पत्थेयव्वाइ) प्रार्थना करना चाहिये । ( एव इत्यीत्वविरहसमिइ जोगेण भाविओ अतरप्पा आरयमगा विरयगामधम्मे जिइ दिए बभवेर-- गुत्ते भवइ ) इस तरह से स्त्रीरूप निरीक्षण विरतिरूप समिति के योग से सबंधित जीव ब्रह्मचर्य व्रत में आसक्त मनवाला हो जाता है और ग्रामधर्म-मैथुन सेवन से निवृत्त हो जाता है। अत एव वह जीवजितेन्द्रिय बनकर नव विध ब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मपावकम्भाइ तवसजमय भचेरधाओवघाइयाइ" से प्रा२नी भी पाप કર્મરૂપ વાતે કે જે તપ, સ યમ અને બ્રહ્મચર્યવ્રતને એક દેશથી અથવા सशथी घात ४२नारी डाय "व भचेरअणुवरमाणेण' प्रायनतनु पालन ४२नार साधु "न चक्चुसा" श युक्त न तभनु निरीक्षण ४२७ मे नडा, "न मणसा" भनथी विया२ ४२वो नये नहीं भने "न वयसा " क्यनथी न " पत्थेयव्याइ" प्रार्थना ४२वी नये " एव इत्थीरूव विरइसमिइजोगेण भाविओ अतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइदिए ब भचेरगुत्ते भव" मा प्रमाणे रा३५ નિરીક્ષણ વિરતિરૂપ સમિતિના ચેગથી ભાવિત જીવ બ્રહ્મચર્યવ્રતમા આસક્ત મનવાળે થઈ જાય છે, અને ગામધર્મ ગ્રંથનના સેવનથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તેથી તે જીવ જિતેન્દ્રિય બનીને નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દેશવિધ Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ०४ सू०९ 'पूर्वरतादिविरति'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम् ११९ चतुर्थभावनामाह-' चउत्थं ' इत्यादि। मृलम्-च उत्थ पुव्वरय-पुव्वकीलियपुव्वसगथसथुया जे ते आवाहविवाहचोलकेसु य तिहिसु जण्णेसु उस्सवेसु य सिगारागारचारुवेसाहि हावभावललियविक्खेवविलास सालिणीहि अणुकूलपेमियाहि सद्धि अणुभूया सयणसंप ओगा उ उ मुहवरकुसुमसुरभिचदणसुगधवरवासधूवसुहफरिसवत्थभूसणगुणोववेया रमणिजा उज्जगेजपउरणडणगजल्लमल्लमुट्टियवेलवगकहगपवगलासगआइक्खलखमखतूणइल्लतुंवाणियतालायरपकरणाणि य वहणि महुर-सरगीय सुरसराइ अण्णाणि य एवमाइयाणि तव-संजमवंभचेरघाओवघाइथाइ अणुचरमाणेण वंभचेर न ताइ संमणेण लभा दट्ट न कहेउ न वि य सुमरेउं जे, एवं पुत्वरय पुव्वकीलिय विरइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए बभचेरगुत्ते ॥ सू० ९ ॥ टीका-'चउत्य' चतुर्थी-पूर्वरतपूर्वक्रीडितस्मरणविरतिरूपां भावनामाह-'पुन्छरयपुबकीलियपुग्यसगथसथुया' पूर्वरतपूर्वक्रीडितपूर्वसग्रन्थसस्तुताः, तत्र-पूर्व तम्चर्य समाधि स्थान से युक्त बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की तृतीय भावना का कथन किया है । इस मे रागभाव से युक्त बनकर साधु को स्त्री के रूपादि निरीक्षण करने का सर्वथा त्याग करना महागया है।सू०८॥ સમાધિસ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે ભાવાર્થ-આ નત દ્વારા સૂત્રકારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતની ત્રીજી ભાવનાનું વર્ણન કર્યું છે તેમા રાગ ભાવથી યુક્ત થઈને સ્ત્રીના રૂપાદિનું નિરીક્ષણ કરવાને સાધુએ પરિત્યાગ કરે જોઈએ તે બતાવ્યું છે કે સૂ ૮. Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० प्रश्नन्याकरणसूत्रे गृहस्थावस्थाकालिकी कामरति , पूर्वकीडितम् गृहस्थातम्याश्रितं मीभिः सह क्रोडनम् , पूर्वसग्रन्यसस्तुताः-पूर्व गृहस्थावस्थाया ये सग्रन्या श्वसुरकुरमान्य सवद्धा श्यालकश्यालिकादयः पालकमार्यादयश, तया-सस्तुता दर्शनभापणादिभिः परिचिताः, एपा द्वन्द', एते अमणेन न द्रष्टुन कथयितु न वाम्म लभ्याः इति परेण सरन्धः । तथा-'जे ते ये ते 'जागाह विवाहचोकम' आगाहति वाहचूलकेपु, तत्र-आवाहो-च वापरगृहानयनम् , विवाहा आगिग्रहण, चूरक अब इस व्रत की चौथी भावना को करते है--' चउत्य पुवरय०' इत्यादि। टीकाथ-(चउत्य) ब्रह्मचर्य व्रत की पूर्वरत पूर्वक्रीडित स्मरणविरतिनाम की चौकी भावना इस प्रकार है-(जे ते ) जो वे (पुधरय पुधकीलियासगवसयुरा) पूर्वरत गृहस्थावस्था में जो कामकेलि की गई हो वह पूर्वरत है। गृहस्थावस्था में जो स्त्रियों के माय कीटा की गई हो वह पूर्वक्रीडित है । तथा-गृहस्थावस्था में जिनके साथ श्वातुर, साले, साली, आदि का सवध रहा हो, वे पूर्व सग्रन्य है और जिनके साथ दर्शन भापण आदि से अधिक परिचय रहा हो वे पूर्वसस्तुत हैं। इन सब का ब्रह्मचर्य महाप्रत धारण करने वाद साधु को न स्मरण करना चाहिये, न उनका कथन करना चाहिये और न सवधी आदि जनों को देखने की लालसा ही रखनी चाहिये ! तथा ( आवार विवाह वे मानतना याथी भावनानु ४थन ३२ छ " चउत्थ पुयरय" त्याह 1-" चउत्थ" प्रायय प्रतनी याथी लावना" पूर्वरतपूर्वमीडित स्मरणविरति ' नामनी ते मा प्रमाणे --"जे ते पुवरयपु वकीलिय पुरसगथसथुरा" पूर्वरत-न्यावस्यामा २ मी31 3A डाय ते पूरत કહેવાય છે ગૃથાવસ્થામાં સ્ત્રીઓની સાથે જે કીડા કરાઈ હોય તે પૂવ કીડિત કહેવાય છે તથા ગુસ્થાવસ્થામાં જેમની સાથે સમગ, સાળા, સાળી આદિને સબંધ રહ્યો હેય ને પૂર્વ સગ્રન્થ કહેવાય છે અને જેમની સાથે દર્શન, ભાષણ આદિથી વધારે પરિચય રહ્યો હોય તેઓ પૂર્વ સસ્તુત કહેવાય છે બ્રહ્મચર્ય મહાવ્રત ધારણ કર્યા પછી સાધુએ એ બધાનું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી, તેમની વાત કરવી જોઈએ નહીં અને સ બધી આદિ જનેને જોવાની खासमा रामवासनही तथा आराहविवाहचोलकेसमयावा--धूने वरना ઘેર લાવતી વખતે, વિવાહ પ્રસ ગે, તથા બાળકના ચૂડાકર્મ સસ્કારના Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टोका अ०३ भू०८ 'पूर्वरतादिविरति'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम् ८२६ =चुडाकर्मचालाना शिखागरणम् , एपा द्वन्द्व , तेपु तथोक्तेपु च=पुनः 'तिहिसु' तिथिपु-मदनत्रयोदशीपभृतिषु, नया-'जण्णेमु' यज्ञेषु = नागादिपूजाप्रकरणे, तथा ' उस्सवेमु' उत्मपु-न्द्रोत्मादिषु च ' सिंगारागारचारवेसाहि' श्रृङ्गा रागारचामवेपाभिवृक्षारस्थ = शृगाररसस्य आगारभूता याश्चारुवेपा: शोभन नेपथ्यसपन्नास्ताभिः ,तया-'हावभारलाग्यविखेवविलापमालिणीहि हारभावल लितविक्षेपविलासमालिनीमि -तत्र हार काम ननितो मुल्यविकार., भाव-कामजनिता चित्तसमुन्नाति ,तदुक्तम् 'हामो मुखविकारः साद् भारश्चित्तसमुन्नति.'इति। ललितम्-चेष्टाविगेपः, तदुक्तम् " हस्तपादाविन्यासो भ्रनेत्रौष्ठपयोजितः । सुकमारो विधानेन ललित तत्प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥” इति । निक्षेपः-चेष्टाविशेपः, तल्लक्षण त्विदम्--- अप्रयत्नेन रचितो, धम्मिल्लः श्लयपन्धनः । एकाशदेशधरणैस्ताम्बूललपलाञ्छनम् ॥ १ ॥ रलाटैकान्तलिखिता, विपमा पालेखिकाम् । असमञ्जसविन्यस्त मज्जन नयनान्जयो ॥२॥ तथा-अनादरपद्धताद् ग्रन्येर्जघनवासस । वसुबालम्मित' प्रान्तः, स्कन्धात्तस्तम्तयाऽशुक ॥३॥ जघने हारपिन्यासो रशनायास्तथोरसि । इत्यवज्ञाकृत यत्स्यादज्ञानादिनमण्डनम् ॥ ४॥ वितनोति परा शोभा स विक्षेप इति स्मृतः ॥" पिरास.-चेष्टाविशेप , सतु-" स्थानासनगमनाना हस्तभ्रनेकर्मणा चैव । उत्पद्यते विशेपो यः विष्टः स तु विलासः स्यात् ॥ १॥” इति । चोलकेसन) आवाह-वधू को घर के घर पर लाने के समय मे, विवाह के अवसर मे, वालको के चूडा (चोटी) काम सस्कार के प्रसग में, तथा (तिहिस) मदनत्रयोदशी आदि तिथियो मे, तया (जण्णेसु) नागा दिकों की पूजा के अवसर रुप यज्ञों मे,तया (उस्सवेसु य) इन्द्रोत्सव आदि उत्सवों में, (सिंगारागारचारुवेसाहिं) शृगाररस की घरभूतनी हई तथा सुन्दर वेषभूषा से सजित हुई ऐसी तया (हावभावललियप्रसभा तथा "तिहिसु" भहन त्रयोदशी तिथिमामा, तय “जणेस" नाविनी भूतना अस२३५ यशोभा तथा " उस्सवेसु य" धन्द्रोत्सव माह उत्सवोभा, ' सिंगारागारचारुवेसाहि" शु॥२ २सना मा॥२३५ मनेली तथा सु१२ वेषभूषाथी सुसरित थयेसी तथा हावभावललियविक्खेवविलाससा Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટરર. प्रमव्याकरणसूत्रे एभिः शालन्ते शोभन्ते यास्ताभिः, नया-'जणुफलपेमियाहिं ' जनुकूल प्रेमिकामिः अनुल-मनोऽभिरुचिकर प्रेम-प्रीविर्यामा ताभि', प्रतादृशीमिः 'सद्धिं ' सार्धम् , 'अणूभूया' अनुभूना: अनुमाविषयीकता. 'सयणमपजोगा' शयनसप्रयोगाशयनानि च राप्रयोगा =सम्पश्चेिति इतरेतरयोगद्वन्द्व, शयन सपयोगा ? इत्याह-' उ उ मुहारकुमुममुरभिचदगमुग परमागर गृहफरिमा त्यभूसणगुणोरवेया' मातमुख घरकुममसुरमिचन्दनमुगन्धरनामधूप मुसम्पर्शनवभूपणगुणोपपेताः, तत्र-तुमुसानि-कालोचितानि यानि घरकुमुमानि, तया-मुरभि चन्दनस्य सुगन्धो शोमनामोदयुक्तो परम् श्रेष्ठो यो पास गन्धः स , तथा-धूपः, तथा-मुखस्पर्शानि यानि वस्राणि, तथा-भूपणानि च, तेपा ये गुणास्तैम्पपेता स्ते श्रमणेन द्रष्टु कपयितु स्मर्तुं वा न योग्या' । तथा-'रमणिज्जा उज्ज गेज्नप विस्खेवविलाससालिणीहिं ) राव, भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुहावना स्त्रियों के साथ तगा (अणुशलपेमिया) जिनकी प्रीति मन को मुदित करने वाली होती है ऐसी (इस्वीहिंसादि) स्त्रीयों केसाथ भोगे गये शयन सरधी और सपर्क सरधो पूर्वकालिक भोगों का कि जो ( उ उमुबरकुसुमसुरभि चदण सुगध-वर-वासधूच-सुहफरिस वत्थभूसण-गुणोववेया) कालोचित कुसुमों की सुगधि आदि रूप गुणों से विशेष रूप में आकर्षक होते थे, सुरभिचदन की श्रेष्ट गध से जो मनोमोहक बने रहते थे, कृष्णागुरु आदि सुगधित द्रव्यों की धूप के ससर्ग से जिनमे से महक उड़ा करती थी तथा वस्त्र और ओभूपर्णा के आडम्बर की छटा से जिन्हे भोगने लिए चित्त परबस लालायित बन जाया करता था, उन सब साधु को कभी भी स्मरग नहीं करना चाहिये, किसी से ऐसे भोगों की,पाते नहीं करना चाहिये और न ऐसे लिणीहि " डाव, माप, वि२५ मन विसासथी शालती श्रीमानी साथै तथा "अणुकूलपेमियाहि "नी प्रीति भनने मानत नारी जय सेवी " इत्थीहि सद्धि " श्रीमानी साथे लोगवस शयन समधी मसग समधी पूरी लि लागानु २ ' उ उ मुहबर-कुसुमसुरभि-चदण-सुगध-वरसाधूनसुह फरिसवस्थ-भूसण-गुणोववेया " सारित पोना सुगधी माहि३५ सुधाथी વિશેષ આકર્ષક થતુ હતુ, સુરભિ ચ દનની શ્રેષ્ઠ ગધથી જે મને હર બનતુ હતુ, કૃષ્ણાગરૂ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યના ધૂપને સ સર્ગથી જેનામાં મહક ઉઠયા કરતી હતી તથા વસ્ત્ર અને આભૂષણના આડબરની છટાથી જેને ભગવાને માટે મન લલચાઈ ગયા કરતુ હતુ, એ બધી વાતનુ સાધુએ કદીપણું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી, કેઈની સાથે એવા ભોગેની વાત કરવી જોઈએ નહી, Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टोका १०४ सू०९ 'पूर्वरतामिविनि नाम चतुर्थभावनाशिम्पम ८५३ भोगों की ओर लक्ष्य ही रखना चाहिये। काम से जो मुख पर एक प्रकार की विकृति आ जाती है उसका नाम हाव है। काम से उद्भूत जो चित्त में एक प्रकार की उन्नति आ जाती है उसका नाम भाव है। एक विशेप प्रकार की चेष्टा का नाम ललित है। यह चेष्टा स्त्रियों के हस्त,पान, शरीर, भू,नेत्र और ओष्ट आदि मे होती है। विक्षेप नाम चित्त की असावधानी का है । जय ललना जनों का चित्त इस विक्षेपनाम की चेष्टाविशेप से युक्त हो जाता है तो उनमे विशेष प्रकार की चेष्टा जाग्रत होने लगती हैं जैसे वे अपनी चोटी को ढीली बांध लेती है। नीवी उनकी शिथिल ध वाली हो जाती है । मस्तक पर सिन्दुर विन्दु की जगह कज्जल की रेखा और आखो मे सिन्दूर की रेवा लगाली जाती है। अयमा आँखों में जो अजन लगाती ह वह भी अस्त व्यस्त रूप में लगा लेती है । इलादि सब प्रकार की उनकी मण्डन विधि अवज्ञात होती है। फिर भी इस स्थिति मे उनकी शोमा मे न्यूनता नहीं आती है। स्थान, आसन, गमन आदि में जो एक प्रकार की विगेपता आ जाती है वह विलास है। इसी तरह (रमणिज्जा उज्जगेज्जपउरणडगा जल्लमल्लमुडिकवेलपग-फगपनग-लामग-आइस्वग-लख मख-तणाल અને એવા ભેગોની તફ઼ લફર પણ ગખવું જોઈએ નહી કામ ભાવથી મુખ પર જે એક પ્રકારની વિકૃતિ આવી જાય છે તેને “હા” કહે છે કામાતુર ચિત્તમા જે એક પ્રકારની ઉન્નતિ આવી જાય છે તેને “ભાવ” કહે છે એક વિશેષ પ્રકારની ચેષ્ટાનું નામ લલિત છે તે ચેષ્ટા સ્ત્રિઓના હાથ, પગ, શરીર જ. નેત્ર અને આઠ આદિમા થાય છે ચિત્તની અસાવધાનીને વિક્ષેપ કહે છે જ્યારે સ્ત્રિઓનું ચિત્ત આ વિક્ષેપ નામની વિશિષ્ટ ચેષ્ટાથી યુક્ત થઈ જાય છે ત્યારે તેમનામાં વિશેષ પ્રકારની ચેષ્ટાઓ જાગૃત થવા માંડે છે જેમ કે તેઓ પિતાના ચોટલાને ઢીલે બાંધી લે છે તેની નાડીનુ બ ધન શિથિલ થઈ જાય છે મસ્તક પર સિન્દરના બિન્દુની જગ્યાએ કાજળની રેખા અને આખોમાં કાજળને બદલે સિદૂરની રેખા લાગી જાય છે અથવા આખોમા જે આજ આજવામાં આવે છે તે પણ અસ્તવ્યસ્ત રીતે અજાઈ જાય છે ઈત્યાદિ બધા પ્રકારની તેમની મડનવિધિ અવગણવાને પાત્ર છે છતા પણ એવી પરિસ્થિતિમાં પણ તેમના રૂપમાં ન્યૂનતા આવતી નથી સ્વાન, આસન, ગમન આમા જે એક પ્રકારની વિશિષ્ટતા આવી જાય છે તેનું નામ વિલાસ છે એ જ રીતે " रमणिज्जा-उज्जगेज्ज-पउरणडणदृगजरमल्ल-मुट्ठियवेलग-कहगपहग लासग आइक्सग लसमस-तूणइल्ल-तुन वीणिय तालायर-पकरणाणि य" सु४२ पाच मन Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ प्रश्न-याकरणाचे एभिः गालन्ते शोभन्ते यास्ताभिः, तया- अणुफलपेमियाहि ' अनुल प्रेमिकाभिः अनुकूल-मनोऽभिरचिकर प्रेग-प्रीतिर्यामा ताभिः, पनाहशीभिः 'सद्धिं ' सार्धम् , 'अणूभृया' अनुभूअनुमापिपपीता 'सगणमपजोगा' शयनसप्रयोगा' शयनानि च गायोगा सम्पर्काग्रति इतरेतरयोगद्वन्दः, शयन समयोगा ? इत्याह- उ उ मुहारमममुरभिवतगमग परमागम मृटफरिमव त्यभूसणगुणोरया' ऋतमुसउरकुमममुरगिचन्दनगन्यारतामधूप मुग्यम्पर्शनवभूपणगुणोपपेता', तर तुमुखानि कालोचितानि यानि परफुमुमानि, तथा-मुरभि चन्दनस्य सुगन्धो शोभनामोदयुक्तो परम् श्रेष्ठो यो पास' गन्धः सः, तथा-धूप', तथा-मुखस्पर्शानि यानि वस्त्राणि, तथा-भूपणानि च, तेषां ये गुणास्तैमपपेता स्ते श्रमणेन द्रष्टु कायितु स्मत वा न योग्या । तथा-'रमणिन्ना उज्ज-गेज्जप विस्खेवविलाससालिणीहिं) शर, भाव, ललित, विक्षेप और विलास से सुहावना स्त्रियों के साथ तया (अणुकृलपेमियाहिं ) जिनकी प्रीति मन को मुदित करने वाली होती है ऐसी (इत्यहिं सदि) स्त्रीयों के साथ भोगे गये शयन सबधी और सपर्क संबंधो पूर्वकालिक भोगों का कि जो ( उ उमुबरकुसुमसुरनि चदण लुगध-वर-वासयूव-सुहफरिस: वत्यभूसण-गुणोववेया) कालोचित कुसुमों की सुगधि आदि रूप गुणों से विशेष रूप में आकर्षक होते थे, सुरभिचदन की श्रेष्ट गध से जो मनोमोहक बने रहते थे, कृष्णागुरु आदि सुगधित द्रव्यों की धूप के ससर्ग से जिनमे से महक उड़ा करती थी तथा वस्त्र और ओभूपों के आडम्बर की छटा से जिन्हे भोगने लिए चित्त परबस लालायित घन जाया करता था, उन सब साधु को कभी भी स्मरण नहीं करना चाहिये, किसी से ऐसे भोगों की,वाते नहीं करना चाहिये और न ऐसे लिणीहिं" ७१, ला, वि२५ अने. विलासथी शोलती श्रीमानी साथे तथा " अगुकूलपेमियाहि "नी प्रति भनने माननि ४२ना डाय छ सवी " इस्थीहि सद्धि " खीमानी साथै सामवेद शयन सधासस समाधी पूर्व निगानु रे ' उ उ मुहवर-कुसुमसुरभि-चदण-सुगध-वरसाधूबसुह फरिसवस्थ-भूसण-गुणोववेया" साथित पुष्पाना सुगधी माहि३५ गुथी વિશેષ આકર્ષક થતું હતું, સુરભિ ચદનની શ્રેષ્ઠ ગ ધથી જે મનોહર બનતુ હતુ, કૃષ્ણાગરૂ આદિ સુગંધિત દ્રવ્યના ધૂપના સંસર્ગથી જેનામાં મહક ઉડયા કરતી હતી તથા વસ્ત્ર અને આભૂષણોના આડ બરની છટાથી જેને ભેગવવાને માટે મન લલચાઈ ગયા કરતુ હતુ, એ બધી વાતનુ સાધુએ કદીપણ સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી, કોઈની સાથે એવા ભેગની વાત કરવી જોઈએ નહી, Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीकाअ०४ ०१०' व्रणीत भोजनवर्जन नामकपञ्चमभावना निरूपणम् ८२७ भवइ अंतरप्पा आरयमणा विरयगामवम्मे जिइदिए वंभरगुते ॥ सू० १० ॥ टीका- ' पचम' पञ्चमीं प्रणीतभोजनवर्जनरूपा भावनामाढ - ' आहारपणीयनिद्धभोयणविजए ' जाहारमणीत स्निग्य भोजननिवर्जन:- जाहारः = अशनादिः, स च प्रणीतः=मगलत्स्नेहनिन्दुध, तथा-स्निग्ध-चिवण च तद् भोजन च = स्निग्धभोजनम्, अनयोर्द्वन्द्व', तस्य विसर्जकः = परित्यक्ता, तथा ' सजए ' सयतः - सयमवान् ' मुसाहू ' सुसाधु =निर्वाणसाधक योगसाधनतत्परः, तथावत्रगखीरद हिसप्पिनवणीय तेलगुडखड मच्छडि यखज्जगनिगइ परिचत्तकयाहारो' व्यपगत क्षीरदधिसर्पिर्नवनीत तैलगुड खण्डमत्स्यण्डिक मधु खाद्य कविकृतिपरित्यक्तकृता हारः- तत्र-व्यपगताः=परिहृताः क्षीर- दुग्ध, दधि- प्रसिद्धम्, सर्पिः = घृतम्, नवनीत- 'मक्खन' इति भाषाप्रसिद्धम्, तैल प्रसिद्धम्, गुडः = प्रसिद्ध ' खण्ड = शर्करा, " अब सूत्रकार इस व्रत की पाचवी भावना को कहते है - ' पचमआहारपणीय' इत्यादि० | टीका - (पचम) पाचवी भावना इस व्रत की प्रणीत भोजन वर्जन रूप है, वह इस प्रकार से हे - (आहारपणीयनिद्ध भोयणविवज्जए) जो आहार प्रणीन- जिसमे से घृत की विन्दुएँ नीचे टपक रही हो ऐसे कामोद्दीपक तथा स्निग्ध-रसयुक्त हो साधु को वह नही खाना चाहिये । क्यों कि वह (सजए ) वह सयमवाला होता है और (सुसाहू) निर्वाण साधक मनोवाक्काय योग के सावन करने में तत्पर रहता है, इसलिये उसको ( वयगयखीर दहिसप्पिनवणीय तेलगुडखड मच्छडिय महुखज्जगचिगह पर चित्तकयाहारो) दूध, दही, घृत, मक्खन, तेल, गुड, ત્યાગ हवे सूत्रार मा नतनी पायभी भावना गतायें छे- "पचम आहारपणीय" त्याहि टीअर्थ - " पचम" मा व्रतनी पामभी भावना " प्रणीत भोजन नाभनी छे ते या प्रभा छे - " आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए ' ने आगीत, भेटले કે જેમાથી ઘીના ટીપા નીચે ટપકતા હોય એવા કામેાદ્દીપક તથા સ્નિગ્ધસ્ युक्त भाडार साधुमे जावो लेह से नही अर े ते ' सजए ' सयभी डाय छे भने “सुसाहू" निवाणुनाभाध मनो वानय योग माधवाने तत्पर होय छे तेथी तेभो " ववगय सीर दहिसप्पि - ननणीयतेल गुडस डमच्छडियमहुसज्जगविगइ पर चित्तकयाहारो " दूध, हडी, घी, भाषण, तेस, गोण, साउर, भाड वगेरेथी ܙܕ Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ प्रमध्याकरणम् अथ पश्चमी भावनामाह-पचम' इत्यादि मूलम्-पचम आहारपणीयणिहभोयणविवजए संजए सुसाहू ववगयखीरदहिप्सपिनवणीयतेलगुडखडमच्छंडियमहुखज्जगविगइपरिचत्तकयाहारो न दप्पणं नवहुसो न निइगं न सायसूवाधियं । न खद्ध तहा भोत्तव जहा से जायामायाए भवइ, न य भवड विभमो य भंसणा य धम्मस्स, एव पणीयाहारविरइसमिइजोगेणं भाविओ विरयगामधम्मे जिइ दिए यभचेरगुत्ते भवड ) इस प्रकार से पूर्वरत, पूर्वक्रीडीतों में विरतिरूप समिति के योग से भावित अतरात्मा-जीवब्रह्मचर्य में स्थिर मन वाला बन जाता है और ग्रामधर्म से मैथुनकृत्य से-विरक्त हो जाता है। ऐसा वह महात्मा अपनी इद्रियों को जीत कर नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मचर्य के समाधिस्थान से युक्त बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सरकार ने ब्रह्मचर्य व्रत की चौथी भावना प्रकट की है। इस मे यह कहा गया है कि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले साधु को प्रव्रज्या लेने के पहिले गृहस्थाश्रम में भोगे गये विविध प्रकार के भोगों की याद नही करनी चाहिये! इम भावना का नाम पूर्वरत पूर्वक्रीडीत स्मरणविरति है। इसी विपय का विशेष वर्णन इस सूत्र में किया गया है । सू० ९॥ यमणा विरयगामधम्मे जिइदिए बभचेरगुत्ते भवइ" मा प्रकारे पूरत, पूर्वકીડિતમા વિરતિરૂપ સમિતિના ચેગથી ભાવિત થયેલ અતરાત્મા–જીવ બ્રહ્મ ચર્યમા આસક્ત મનવાળો બની જાય છે અને ગામધર્મથી–મૈથુન કિયાથી વિરક્ત થઈ જાય છે એ તે મહાત્મા પિતાની ઇન્દ્રિયને જીતીને બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દશવિધ બ્રહ્મચર્યના સમાધિસ્થાનથી યુક્ત થઈ જાય છે - ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકાર બ્રહાચર્ય વ્રતની ચાથી ભાવના પ્રગટ કરી છે તેમા એ બતાવવામાં આવ્યું છે કે બ્રહ્મચર્ય વ્રતનું પાલન કરનાર સાધુએ દીક્ષા લીધા પછી પહેલા ગૃસ્થાશ્રમમાં ભોગવેલ વિવિધ પ્રકારના ભેગેને યાદ કરવા જોઈએ નહીં આ ભાવનાનું નામ છે પૂર્વરત પૂર્વક્રીડિત રમર વિરતિ એછે આ જ વિષયનું વધુ વર્ણન આ સત્રમાં કર્યું છે કે સૂ ૯ Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीकाम०४ ए०१०'प्रणीतभोजनवर्जन नामकपञ्चमभावनानिरूपणम्८२७ भवइ अतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइंदिए वभचेरगुत्ते ॥ सू० १०॥ टीका-पचम' पञ्चमी प्रणीतभोजनार्जनरूपा भावनामाह- आहारपणीयनिद्धभोयणविरजए' आहारमणीतस्निग्मभोजननिवजन:-आहार = अशनादिः, स च प्रणीतः गलत्स्नेहरिन्दुश्च, तथा-स्निग्ध-चिक्ण च तद् भोजन च-स्निग्धभोजनम् , अनयो ईन्द्र', तस्य विनर्जका परित्यक्ता, तथा 'सजए' सयता-सयमवान् ‘सुसाह ' सुसाधु =निर्वाणमापक योगसाधनतत्परः, तथा'ववगयखीरदहिसप्पिनवणीयतेलगुडखडमच्छडियखज्जगविगइपग्चित्तफयाहारो' व्यपगतक्षीरदधिसपिनवनीततेलगुडवण्डमत्स्यण्डिफमधुखाद्यकविकृतिपरित्यक्तकृता हारः-तत्र-व्यपगताम्-परिहताः क्षीर- दुग्ध, दधि-प्रसिद्धम् , सर्पिः धृतम् , नवनीत 'मरखन' इति भापाप्रसिद्धम् , तैल प्रसिद्धम् , गुडः प्रसिद्धः खण्ड =शर्करा, अब मूत्रकार इस व्रत की पाचवी भावना को कहते है-'पचमआहारपणीय' इत्यादि। टीका-(पचम) पाचवी भावना इस व्रत की प्रगीत भोजन वर्जन रूप है, वह इस प्रकार से है-(आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए) जो आहार प्रणीन-जिसमे से घृत की चिन्दुर नीचे टपक रही हो ऐसे कामोद्दीपक तथा स्निग्ध-रसयुक्त हो साधु को वह नहीं खाना चाहिये। क्यों कि वह (सजए) वह सयमवाला होता है और (सुसाहू) निर्वाण साधक मनोवाकोय योग के सावन करने में तत्पर रहता है, इसलिये उसको ( ववगयखीरदहिसप्पिनवणीय तेलगुडखडमच्छडिय मदुखजगविगइपरचित्तकयाहारो) दूध, दही, धृत, मक्खन, तैल, गुड, वे सा२ मा प्रतनी पायमी लापना मता छ-"पचम आहारपणीय" त्या All-" पचम" मा प्रतनी पामभी लापना "प्रणीतभोजन" त्यास नाभनी छे ते माप्रमाणे छ-"आहारपणीयनिद्धभोयणविवज्जए'२ प्रीत, सटो કે જેમાથી ઘીના ટીપા નીચે ટપકતા હોય એ કામેવીપક તથા સ્નિગ્ધરા युत माडा२ साधुमे पावन मे नही २ ते ' सजए ' सयभी डाय छ भने "सुसाहू" निवा नासाथ भनी पाय योजावाने त५२ डाय छ तथा तेभ " ववगय खीर दहिसप्पि-नपणीयतेलगुडसडमच्छडियमहुसज्जगविगइ परचित्तकयाहारो" इध, डी, घी, मामा, तेद, गाण, स४२, माड पोरेथा Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ প্রশ্বাসে मत्स्यण्डिका 'मिश्री'ति प्रसिद्धा च यस्मात्सः, तथा-मधुपमिद्धम् , यात्र-'साना' इति प्रसिद्धम् , इत्यादि लक्षणाभि विकृतिभिः परित्यक्तो यः सः, अनयोः कर्मधारयः, एतदूपो यः आहारः सकतो येन स तथोक्तः, अन्तम्मान्तमोजीत्यर्थः निष्ठान्तस्य पूर्वनिपातः, एतादृशः साधुः 'न' ने 'दप्पण' दर्पण-दर्पकारक भोजन भुजीत । तथा-न 'रहसो' पदृशः-दिनमध्येऽनेकवार भोजन कुर्वीत । तथा-'न निडग' नैत्यिक-नित्यपिण्ड मुजीत, तथा-न 'सायमूप्पारिग' शाकम्पाधिकभोजन भुञ्जीत । तथा-'सद्ध' प्रचुर भुजीत ! कय तर्हि भोक्तव्यम् ? इत्याह-'तहा' तथा भोत्तव्य' भोक्तव्यम् , 'जहा' यथा-तद् भोजन ' से ' वस्य ब्रह्मचारिणः, 'जायमायाए ' यानोमानाय, यात्रायै-मयमयात्रानिर्वाहार्य या माना-माहारपरिमाणरूपा भगवनिर्दिष्टाना यानामाना तस्यै, शर्करा, मिश्री, इनसे रहित तथा मसाजा, इत्यादिम्प विकृतियोंसे रहित आहार करना चाहिये । अर्थात् साधुको अन्त प्रान्तभोजी होना चाहिये।जो साधु इस प्रकार का आहार लेता है वह युक्त नहीं हैं-उसे (न दप्पण) दर्पकारक भोजन नही करना चाहिये (न यसो) नदिन में अनेक बार भोजन करना चाहिये (न निडगं) न उसे नित्य पिंड भोजी ही होना चाहिये और (न सायसवाहिय) न उसे शाक और दाल की अधिकतावाला भोजन ही करना चाहिये (न खद्द) न उसको प्रचुरमात्रा में भोजन करना चाहिये। किन्तु इस प्रकार से भोजन करना चाहिये कि (जहा ) जिससे वह भोजन (से) उस ब्रह्मचारी की (जायामायाए भव) यात्रा मात्रा के लिये हो अर्थात सयम के निवाह के लिये हो । यात्रामात्रा को तात्पय है कि सयमनिर्वाह रूप यात्रा के लिये आहार का परिमाण जितना प्रभु ने निर्दिष्ट किया है वह आहार રહિત તથા મધ, ખાજ ઈત્યાદિ વિકૃતિઓથી રહિત આહાર કરે જોઈએ એટલે કે સાધુએ અન્ત પ્રાન્તભેજી થવું જોઈએ જે સાધુ આ પ્રકારને આહાર से छे तो " न दप्पण" ६५४५४ मोशन से नही “न बहुसो" हिवसमा मने पा२ लान सेनेने नडी न निग" तो नित्यपि 3 लाल थयु ये नडी, भने, “न सायसवाहिय, ते पधारे onl3 युत सानोवु नही ' न खह" तश वधारे प्रमाणभा सान उखु नम्मे नही पाओवी ते सोन ४२७ नये "जहो" आयात मोशन "से" ते ब्रह्मयानी “जायामायाए भवइ" यात्रमात्राने भाट હિય, એટલે કે સ યમના નિર્વાહ માટે જ હોય યાત્રામાત્રાનું તાત્પર્ય એવું છે કે સ યમ નિર્વાહરૂપ યાત્રાને માટે ભગવાને આહારનું જેટલું પ્રમાણે કરી? Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका अ०४ सू.१० प्रणीतभोजनरजन'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम्८२९ सयमयात्रार्थमित्यर्थः, 'भाइ' भवति । एष सति पम्मन्स पर्मस्य रिपये, 'विभमो वा ' विभ्रमो धातूपचयेन मनसोऽस्थिरत्वाद भ्रन्तिश्च न भवति, तथा-धर्मम्य 'भमगा' भ्रशना नागश्च न भाति । एवम् अनेन प्रकारेण 'पणीयाहारपिरइसमिइजोगेण ' प्रणीताहारनिरतिसमितियोगेन-पणीतो य आहारस्तस्माद् या पिरतिस्तदूपो यः समितियोगस्तेन भावितोऽन्तरात्मा आरतमना विरतग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्व भाति ।। मू०१०॥ उतना ही होना चाहिये। ऐसा होने पर (धम्सस्स विभमो वा भसणा य न य भवड ) धर्म के विषय मे, धातु के उपचय से मानसिक अस्थि रता होने के कारण जो भ्रान्ति होती है वह नहीं हो सकती है, और न उसके धर्म का रस (नाश) ही हो सकता है । (एव पणीयाहारविरइसमिहजोगेण भाविश्वो अतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइदिए बभचेरगुत्ते भवइ) इस प्रकार प्रणीताहारविरतिरूप समिति के योग से भावित बना हुआ मुनि अपने द्वारा ग्रहीत ब्रह्मचर्य मे सलग्न मनवाला बन जाता है और ग्रामधर्म-मैथुन से-विरत हो जाती है। इस प्रकार अपनी इन्द्रियोंको जीत कर वह महात्मा नवविध ब्रह्मचर्य की गुप्तिसे अथवा दशविध ब्रहाचर्यके समाधिस्थानसे युक्त बन जाता है। भावार्थ-इस सूत्रधारा सूत्रकार ने ब्रह्मचर्य प्रन की पाचवी भावना प्रकट की है। इस भावना का नाम प्रणीताहार वजन है। ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने वाले सायु को ऐसा भोजन नहीं करना चाहिये जो छ तटसा प्रभामा त माडा रानमे सयु यता " चम्मस्स भि मो वा भसणा य न य भवइ" धर्मना विषयमा, धातुन सघड वाने કારણે માનસિક અસ્થિરતા થવાથી જે ભ્રાન્તિ થાય છે, તે થઈ શક્તી નથી, एवं पणीयाहारपिरइसमिइजोगेण भानिओ अतरप्पा आरयमणी पिरयगोमधम्मे जिइ दिए बभचेरगुत्ते भवइ" मा ारे प्रपीताडा२ विति३५ समितिना योगथी ભાવિત થયેલ મુનિ પોતે ગ્રહણ કરેલ બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં આસક્ત મનવાળે થઈ જાય છે અને ગામધર્મ-મૈથુનથી વિરક્ત થઈ જાય છે. આ રીતે પિતાની ઈન્દ્રિયોને જીતાને તે મહાત્મા નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુસિથો અથવા દશવિધ બહાર્યના સમાવિસ્થાનથી યુક્ત બની જાય છે ભાવાર્થ –આ સૂત્ર દ્વારા ભૂવારે બ્રહ્મચર્ય વ્રતથી પાચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે આ ભાવનાનું નામ પ્રતાહાર વર્જન ” છે બ્રહ્મચર્યવ્રત ધાણ કરનાર સાધુએ એવું ભોજન લેવુ ન જોઈએ કે જે કામોદ્દીપક રસ યુક્ત Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३० ম্যাঙ্ক अयोपमहरन्नाह-एवमिण ' इत्यादि । मूलम्-एवमिण सवरस्स दार सम्मं सचरिय होइ सुप्पणिहिय इमेहि पंचहि वि कारणेहि मणक्यणकायपरिरक्खिएहि णिचं आसरणंत एसो जोगो णेयव्यो घिदमया मइमया अणासवो अमल्लसो अच्छिदो अपरिस्साई असकिलिछो सुद्धो सवजिणमणुण्णाओ । एव चउत्थ सबरदार फासिय पालियं सोहिय तीरिय किट्टिय सम्म आराहिय आणाए अणुपालियं भवड । एव नायमुणिणा भगवया पण्णवियं परूविय पसिद्धं सिद्धवरसासणमिण आघविय सुदेसियं पसत्थ चउत्थं संवरटार समत्त त्तिवेमि ॥सू०११॥ ॥इय पण्हावागरणाणं चउत्थ सवरदार समत्त ॥ टीका-एव ' एवम्=पूतोक्तप्रकारेण ' इण ' इदम् ' सवरस्स' सवरस्य-चतुर्थस्य ब्रह्मचर्यनामकस्य सवरस्य 'दार' द्वार 'सम्म' सम्मक 'सचरिय' कामोद्दीपक रसयुक्त हो । साधु तो अन्त प्रान्त भोजी होता है अतः उसको दर्पकारक भोजन का परित्याग करते हुए दिन में अनेक बार भी भोजन नही करना चाहिये और न उसे नित्यपिंड भोजी ही होना चाहिये । अधिक भोजन सयमाचार में प्रमाद और प्रणीत रसवाला भोजन मानसिक अस्थिरताका कारण बनता है इसलिये उसे नित्य इस प्रणीताहार विरतिरूप समितिके योगसे अवश्य भावित रहनाचाहिये।।१०।। अब सूत्रकार इस विषय का उपसहार करते हुए कहते हैं--'एव હોય સાધુ તે અન્નપ્રાન્ત ભોળ હોય છે તેથી તેણે દકારક ભોજનને પરિત્યાગ કરે જે એ દિવસમાં અનેક વાર ભોજન લેવું જોઈએ નહી અને તેણે નિત્ય પિડ ભોજી પણ થવું જોઈએ નહી અધિક ભોજન સમાચારમાં પ્રમાદ અને પ્રણને રસવાળું ભોજન માનસિક અસ્થિરતાનું કારણ બને છે તેથી તેણે હમેશા આ પ્રણતાહાર વિરતિરૂપ સમિતિના ચોગથી અવશ્ય ભાવિત રહેવું જોઈએ સૂ ૧૦ - Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनोटीफा १० ४ सू०११ अध्ययनोपसहार संचरित सम्यगाचरित, ' मुप्पणिहिय' सुप्रणिहितम्- एकाग्रता समारारित 'होइ' भवति । ' इमेहि पहि पि' एभिा=अनुपद मोक्तपञ्चभिरपि 'कारणेहि' कारणैः भावनारूपे , कीदृश कारणैरित्याह- मणग्यणकारपरिरक्विएहि' मनोवचनकायपरिरक्षित. मनोवाकायैः सम्यक् समाराधितैः। कियत्कालम् ? इत्याह-‘णिन्च ' नित्य-सर्वदा 'आमरणतः जामरणान्त मरणपर्यन्तम् 'एसो' एप पूर्वोक्तो 'जोगो' योग ब्रह्मचर्यस्पो ‘णेययो' नेतव्य पालनीय , केन ? इत्याह-'विमया मइमया' धृतिमता मतिमता, कीटगोऽय योगः ? इत्याह~-' अगासमो' अनाश्रयः 'अकलुमो' अकलुषः । अन्छिटो' अच्छिद्रः 'अपरिस्साई ' अपरिखानी ' असफिलिटी' अमहिए. ' सुद्धो' शुद्धः 'सबमिण' इत्यादि। टीकार्थ-(पवमिण) इस प्रकार से यह (सवरम्स दार ) चौथा ब्रह्मचर्य नामका सवरद्वार (सम्म सचरिय) अच्छी तरह से पाले जाने पर (सुप्पणिहिय भवड) स्थिर हो जाता है। इसलिये (इमेहि पहिं वि कारणेहिं मणययणकायपरिरक्खिएहिं ) मन, वचन और काय, उन तीनों योगो से अच्छी तरह सुरक्षित किये गये इन पांचभावनारूप कारगों से (निच्च ) सना (आमरणत) जीवन भरतक (सोजोगो) यह ब्रह्मचर्यरूप योग (णेयन्वो) चित्त की स्वस्थता एव हेयोपादेय की विवेकता से युक्त हुए मुनिजन पालन करना चाहिये। क्यों कि यह ब्रह्मचर्यरूप योग (अणासो) नूतनकर्मो के आगमन से रहित होने के कारण अनाप्रवन्स्प है, (अकुलसो) अशुभ अत्यवसाय से वर्जित होनेके कारण अकलुप है, (अच्छिद्दो) पाप का स्रोत वे सूत्रा२ मा विषयमा पसा२ २ ४ -" एवमिण " त्यादि साथ-" एवमिण" मा प्रहा. मा “सपरस्स दार " यायु प्राय नामनु स१२वार “ सम्म सचरिय " सारीते पावामा माने तो “सुप्पणिहिय भवइ" स्थिर नय छ “ इमेहिं पचहिं चि कारणेहि मणवयणकाय प रिसखिएहि " भन, चयन भने अय, ये तो येथी सारी रीते सुरक्षित उशयेश से पाय भावना ३५ पारशाथी “निश्च" महा आमरणत" वन पर्यन्तन! "एसो जोगो" मा ब्रह्म यर्थ ३५ योगणेयव्यो" शित्तनी २१-थता भने હેપાદેયની વિક્તાપૂર્વક મુનિ જેનોએ પાળવો જોઈએ કારણ કે આ બ્રહ્મ य३५ या " अणासवो" नूतन उनी सागमन त सोपाने २ अनासव " अक्लुसो" मशुम मध्यवमाययी २डित बाथी म ९५ छ, "अन्छिदो" पापना श्रोत तेनाथी छिन्न थवाने २ मा छे "अपरिरसाई" - - Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ प्रध्याकरणसूत्रे जणमणुण्णाओ' सजिनानुगतः । एपम्-जनेन प्रकारेण 'चय : चतुर्य 'स परदार ' सवरदार ' सपरद्वार ' फासिय' स्पृष्ट ' पालिय' पालित 'सोडिय' गोधित 'तोरिय' तीरित 'किटिय' कीर्तितम् , ' सम्म' सम्यरु 'आराहिय' आराधितम् आणाए ' आज्ञया ' अनुपालिय' अनुपालित 'भाइ' भवति । एवम् अनेन प्रकारेण 'नायमुणिगा' ज्ञानमुनिना-ज्ञातवशोहन मुनिना 'भग या 'भगवता महावीरेण ' पपपरिय' प्रज्ञापिा ' परनिय मरूपित ' पसिद्ध' इससे छिन्न रो जाने के कारण अच्छिन्द्र है। (अपरिम्नाई ) मिन्दुरूप से भी कर्मरूप जल इसमें प्रवेश नहीं कर सकता है इसलिये यह अप रिस्रावी है (असकिल्हिो ) असमाधि मार से वर्जिन होने से यर असक्लिष्ट है, (सुद्धो) कर्ममल से रहित होने के कारण शुद्ध है, (सव्वजिणमणुण्णाओ ) समस्त प्राणियो का इससे रित होने के कारण समस्त अरहत भगवतों का यह भाव दुआ है, (एव) इस प्रकार से जो इस ( चउत्य सवरदार ) चतुर्थ सबर द्वार को ( फासिय ) अपने शरीर से स्पृष्ट करते हैं, (पालिय) निरन्तर उपयोगपूर्वक उस का सेवन करते है (सोरिय) अतिचारों से इसको रहित करते है, (तीरिय) पूर्णरूप से इसका सेवन करते है, (किटिय ) दूसरों को इसके पालन करने का उपदेश देते हैं ( सम्म ) तीन करण तीन योगों से इसकी भलीप्रकार से (आराहिय ) अनुपालना करते है सो उनके द्वारा यह योग (आणाप अणुपातिय भवड)) तीर्थकर प्रभुकी आजानुसार ही पालित होता है । (एव) इस प्रकार से (नायनुणिणा भगवया महा કર્મરૂપ જળનું બિદુ પણ તેમાં પ્રવેશ કરી શકતું નથી તેથી તે અપસ્ત્રિાવી છે " असकिलिट्रो" समाधि लावधी २डित पाथी ते अस सिट छ, “सुद्धो" भगथी २हित सोपान दारो शुद्ध छ । सजिणमणुण्णाओ" समस्त જીવોનું તેનાથી હિત થવાને કારણે સમસ્ત અહંત ભગવાને દ્વારા તે માન્ય थये , "ए" मा ४२२ । " चउत्थ सवरदार " याथा स १२वारना "फासिय " पोताना शरीथा २५० ४२ छ, " पालिय" नित२ रुपया पूर्व तेनु सेवन ४२ छ, 'सोहिय " मतियाराथी तेनु २२ , 'तीरिय" पृशते तेनु सेवन उरे छ, “किट्रिय" मीलन तेनु पासन उ२ान 94६श मा छ, 'सम्म" र ४२ प योगथीत सारी रीते " आराहिय" मनुपाटान उरे छ, तमना द्वारा योगनु “आणाए अणुपालिय भवह" तीय ३२ सावाननी सामानुसार पालन थाय छ " एव" | डारे “नाय मुणिणा भगवया महावीरेण "ज्ञात पसमापन थयेस भुनि लगवान भडा Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३३ -- सुदशिनी टीश अ० ४ २० । अध्ययनोपमहार प्रसिद्ध । मिवरमामणमिग' सिद्धपरशामनमिदम् , 'आवरिय' आख्यात 'सुदेसिय' मुदेशित 'सत्य' प्रशस्त 'चउत्थ सरदार' चतुर्थ सवरद्वार 'समत्त' ममाप्तम् । ' तिमि ' इति ब्रवीमि । अस सूास्य व्यारयाऽ पूर्ववद् पो या ॥ मू०११ ॥ ॥ इति श्री विश्वविर यात-जगहम - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलितललितकलापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्यनिर्मापक- गदिमानमर्दकश्रीगाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जैनशास्त्राचार्य' पदभूपितकोल्हापुरराजगुरु-पानाचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिनाकापूज्यश्री घासीलालनतिपिरचिनाया श्री प्रश्नव्याकरणमुनस्य सुदर्शन्या रयाया व्यारयाया सपरात्माके द्वीतीये-भागे ब्रह्मचर्यनामक चतुर्थ सनरद्वार समाप्तम् ॥ ४ ॥ वीरेण ज्ञातवश में उत्पन हर मुनि भगवान महावीर ने (पण्णविय) इस चतुर्थ सवरद्वार को गिप्यों के लिये मामान्यरूप से समझाया है। ( परविय ) वार में भेद-प्रभेद पूर्वक उसका कथन किया है । (पसिद्ध) उमीलिये जिनवचन में यह प्रसिद्ध हुआ है । तथा (सिद्ववरसासणमिण ) भूतकाल में जितने भो सिद्ध हो चुके है उनका यह प्रधान आज्ञारूप शासन है। (आपवित्र) मा भगवान महावीर प्रभुने इसके विषय में सर्व नाव से कहा है और ( सुदेमिय ) दवों मनुजों तथा अस्तुरों से युक्त परिपदा मे इसका उपदेश दिया है। (पसत्य। समस्त प्राणियों का हितकारक होने से प्रशस्त-मगलमय है (चउत्थ सरदार समत्त ) यह चतुर्थ सबरडार समाप्त हुआ (त्तियेमि) हे जबू ! जैसा मैंने भगवान से सुना है वैसा ही में करता। पारे “ पण्णविय " मा योथा वारने शिष्याने भाटे सामान्य ३२ समनव्यु 52 "परूविय" सार था लेह असे. पूर्व तेनु थन युछे ' पसिद्ध" ते णे नवयनमा त प्रसिद्ध थये २ तथा “सिद्धवरसासणमिण" ભૂતકાળમાં જેટલા સિદ્ધ થઈ ગયા છે તેમનું આ મુખ્ય આજ્ઞા રૂપ શાસન छ " आघविय" से लगवान महावीरे तेन विधे म माथी ४यु छ गने “ सुदेसिय" वो, माणुस तथा असुरोथी युत परिपामा तेना उपशाच्या छ “पसत्य" समस्त प्राणीमाने माटे हित २४ उपाथीप्रशस्त भगमय छ 'चउत्य सवरदार समत्त"मा योथु म१२६।२ सभात थयु “त्तिबेमि" હે જ બૂ' જેવું ભગવાનને મુખે સાભળ્યુ હતુ તેવુ જ તેનું કથન કરૂ છુ. प्र १०५ Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३४ प्रमभ्याकरण भावार्थ-इस चतुर्थ सबरयार का उपमहार करते हुए उत्रकार कहते है कि जो मुनिजन इस चतुर्ध सवरदार को मन वचन और काय, इन तीन योगों से शुद्धिपूर्वक पाच भावनाओं सहित मरणपर्यंत पालते है उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं। नवीन कर्मो का वध घद हो जाता है । सचित कर्मो की निर्जरा होने लगती है। पापा का स्रोत रुक जाता है । यह अपरिनापी आदि विशेषणो वाला है त्रिकालसमस्त अरहत भगवतों ने इसका पालन किया है । उन्हीं के कथनानुसार भगवान महावीर प्रभुने भी इसका स्वरूपादि प्रदर्शन पूर्वककथन किया है । इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिप्य अतिम केवली श्री जवू स्वामी को समझाया है ॥ म०११ ॥ ॥ चतुर्थ सवरद्वार समात॥४॥ ભાવાર્થ – આ ચોથા સવરદ્વાર ઉપસહાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે જે મુનિજન આ ચોથા સવરદ્વારને મન, વચન અને કાય એ ત્રણે ગેની શુદ્ધિ પૂર્વક પાચ ભાવનાઓ સહિત મરણ સુધી પાળે છે તેમના અશુભ અધ્યવસાય બંધ થઈ જાય છે નવીન કમેને ન ધ પણ અટકી જાય છે સંચિત કર્મોની નિજેર થવા માંડે છે, પાપને સ્ત્રોત અટકી જાય છે તે અપરિસાવી આદિ વિશેષણો વાળ છે ત્રિકાળવતી સમસ્ત અહંત ભગવાને તેનું પાલન કરેલ છે તેમના કથનાનુસાર ભગવાન મહાવીરે પણ તેના સ્વરૂપ આદિ દર્શાવીને તેનું કથન કર્યું છે આ પ્રમાણે થી સુધર્મા સ્વામીએ પિતાના શિષ્ય અતિમ કેવલી શ્રી જ બૂસ્વામીને સમજાવ્યું છે કે સૂ ૧૧ છે જેથુ સ વરદ્વાર સમાપ્ત છે જ છે Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पञ्चमं संवरद्वार प्रारभ्यते ॥ व्याख्यात ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ सबरद्वारम् , तद्धि सर्वथा परिग्रहविरत स्यैव सभपतीति क्रमप्राप्त परिग्रहविरमणनामा पञ्चम सपरहारमभिधीयते । तस्येदमादिम सत्रम्-'जयू' इत्यादि । मूलम्-जंबू । अपरिग्गहसवुडे य समणे आरभपरिग्गहाओ विरए कोहमाणमायालोभा, एगे असजमे, दोचेव रागदोसा, तिणि य दंडा, गारवाय गुत्तीओ तिण्णि, तिणि य विराहणाओ, चत्तारि कसाया, झाणसण्णा, विगहा तहा य हुति चउरो, पच-किरियाओ, समिइ, इदिय, मवयाइं य ५, छज्जीवनिकाय, छच्चलेसाओ, सत्तभया, अहमया, नवचेव य धभचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समणधम्मे एक्कारस उवासगाणं, वारस य भिक्खूणं पडिमा, तेरस किरियाट्ठाणाइ, चउद्दस भूयगामा, पन्नरस परमाहम्मिया, सोलस गाहा सोलस य, असजम १७, अवभ १८, णाय१९, असमाहिहाणा २०, सबला २१, य परीसहा २२ य, सूयगडज्झयणा२३, देव२४, भावणा२५, उद्देस२६, गुण२७, कप्प२८, पावसुय २९, मोहणिज ३०, सिद्धाइगुणा ३१, य जोगसंगह ३२, सुरिणा ३३, तित्तीसासायणा । आदि एकाइय करेत्ता एगुत्तरियाए बुड्डीए वड्डिएसु तीसाओ जाव य भवेतिगाहिया। विरइपणिहिसु अविरईसु य अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु हा. णेसु जिणप्पसत्थेसु अवितहेसु सासयभावेसु अवढिएसु सकं कंख निराकरित्ता सदहइ सासणं भगवओ अणिआणे अगारवे Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-इस चतुर्थ सबरमार का उपमधार करते हुए सूत्रकार करते हैं कि जो मुनिजन इस चतुर्थ मवरदार को मन वचन और काय, इन तीन योगों से शुद्धिपूर्वक पाच भावनाओं सरित मरणपर्यत पालते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं। नवीन फर्मो का वध पद हो जाता है । सचित कर्मों की निर्जरा रोने लगती है। पापा का स्रोत रुक जाता है । यह अपरिनानी आदि विशेषणों वाला है निकाल समस्त अरहत भगवतों ने इसका पालन किया है। उन्हीं के कथनानुसार भगवान महावीर प्रभुने भी इसका स्वरूपादि प्रदर्शन पूर्वककथन किया है । इस प्रकार श्री सुधर्मास्वामी ने अपने शिप्य अतिम केवली श्री जवू स्वामी को समझाया है ॥ म०११ ॥ ॥ चतुर्थ सवरद्वार समाप्त४॥ - - - ભાવાર્થ – આ ચેથા સવરદ્વારને ઉપસાર કરતા સૂત્રકાર કહે છે કે જે મુનિજન આ ચોથા વરદ્વારને મન, વચન અને કાય એ ત્રણે ગેની શુદ્ધિ પૂર્વક પાચ ભાવનાઓ સહિત મરણ સુધી પાળે છે તેમના અશુભ અધ્યવસાય બંધ થઈ જાય છે નવીન કર્મોને બાધ પણ અટકી જાય છે સચિત કર્મોની નિજેરે થવા માટે છે, પાપને સોત અટકી જાય છે તે અપરિસાવી આદિ વિશેષણ વાળું છે ત્રિકાળવતી સમસ્ત અહંત ભગવાને તેનું પાલન કરેલ છે તેમના કથનાનુસાર ભગવાન મહાવીરે પણ તેના વ રૂપ આદિ દર્શાવીને તેનું કથન કર્યું છે આ પ્રમાણે શ્રી સુધર્મા સ્વામીએ પિતાના શિષ્ય અતિમ કેવલી શ્રી જ બૂસ્વામીને સમજાવ્યું છે કે સૂ ૧૧ / છે શુ સ વરદ્વાર સમાપ્ત છે ૪ Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ पञ्चमं संवरद्वारं प्रारभ्यते ॥ व्यारयात ब्रह्मचर्य नामक चतुर्थ सरद्वारम् , तद्धि सर्वथा परिग्रहविरत स्यैव सभवतीति क्रमप्राप्त परिग्रहविरमणनामक पञ्चम सरद्वारमभिधीयते । तस्येदमादिम सुत्रम्-'जबू' इत्यादि । ___ मूलम्-जंबू। अपरिग्गहसवुडे य समणे आरभपरिग्गहाओ विरए कोहमाणमायालोभा, एगे असजमे, दोचव रागदोसा, तिणि य दडा, गारवाय गुत्तीओ तिणि, तिषिण य विराहणाओ, चत्तारि कसाया, झाणसण्णा, विगहा तहा य हंति चउरो, पंच-किरियाओ, समिइ, इदिय, मवयाइ य ५, छज्जीवनिकाय, छच्चलेसाओ, सत्तभया, अहमया, नवचेव य वभचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समणधम्मे एक्कारस उवासगाणं, वारस य भिक्खूणं पडिमा, तेरस किरियाट्ठाणाइ, चउद्दस भूयगामा, पन्नरस परमाहम्मिया, सोलस गाहा सोलस य, असजम १७, अवभ१८, णाय१९, असमाहिट्ठाणा २०, सबला २१, य परीसहा २२ य, सूयगडज्झयणा२३, देव२४, भावणा२५, उद्देस२६, गुण२७,कप्प२८, पावसुय २९, मोहणिजे ३०, सिद्धाइगुणा ३१, य जोगसंगह ३२, सुरिणा ३३, तित्तीसासायणा । आदि एकाइयं करेत्ता एगुत्तरियाए बुड्डीए वडिएसु तीसाओ जाव य भवेतिगाहिया। विरइपणिहिसु अविरईसु य अण्णेसु य एवमाइसु बहुसु हा. णेसु जिणप्पसत्थेसु अवितहेसु सासयभावेसु अवढिएसु संके कंख निराकरित्ता सदहइ सासणं भगवओ अणिआणे अगारवे Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ્ reoयाकरणसूत्रे अल अमूढे मणवयणकायगुत्ते जो सो वीर-वरनयण - विरइ पवित्थर बहुविहपगारो समत्तविसुद्धबद्धमूलो धिइकदो विजय वेइओ निग्गयतेलोक्क विउलजसनिचियपीणपीवर - मुजायखंघो पचमहव्वयविसालसालो भावणातयं तज्झाणसुभग जोगनाणपल्लववरकुरधरो बहुगुणकुसुमसमिद्धो सीलसुगंधो अणण्यफलो पुणो य मोक्खारवीयसारो मंदरगिरिसिहरचूलिया इव इमस्स मोक्खवरमुत्तिमग्गस्स सिहरभूओ सवरपायवो चरिम सवरदार ॥ १ ॥ टीका- 'जनू' हे जम्बू ! 'अपरिग्गहसजुडे ' अपरिग्रहवृतःपरिग्रहः= धर्मोपकरणातिरिक्त वस्तुग्रहणम्, धर्मापकरणे मूर्च्छा च तद्भिन्नोऽपरिग्रहाः, तत्र - सघृत सलग्नो यः स चकाराद् ब्रह्मचर्यदि गुणयुक्तथ यः स, 'समणे' पाचवा सवरहार प्रारंभ ब्रह्मचर्य नाम का चतुर्थ सवरद्वार समाप्त हो चुका। यह ब्रह्मचर्य नामका चतुर्थ सवर उसी व्यक्ति के होता है जो परिग्रह से सर्वथा विरत होता है । इसलिये क्रम प्राप्त परिग्रह विरमण नाम का पाचवा सवर द्वार कहा जाता है, उसका यह प्रथम सूत्र हैजनू' इत्यादि । धर्मोपकरणों से अतिरिक्त वस्तुओ का ग्रहण करना और धर्मोपकरणों में मूर्च्छाभाव का रखना इसका नाम परिग्रह है । इस परिग्रह से जो भिन्न है वह अपरिग्रह है । ( जनू ) हे जनू ! ( अपरिग्गहसबुडे य समणे ) जो इस अपरिग्रह मे सलग्नचित्त होता है एव ब्रह्मचर्य आदि પાચમા સવરદ્વારના માર ભ બ્રહ્મચય નામનુ ચોથુ સ વતદ્વાર સમાપ્ત થયુ તે બ્રહ્મચય નામના ચતુર્થ સવર એ જ વ્યક્તિને થાય છે કે જે પરિગ્રહથી સથા વિરક્ત અને છે તે કારણે અનુક્રમે આવતા પરિગ્રહ વિરમણ નામના પાંચમા સવરદ્વારનું पर्जुन अवामा आवे छे, तेंतु या पडे सून छे" जबू " त्याहिધર્મપકરણો કરતા વધારે વસ્તુઓ ગ્રહણ કરવી અને ધમેાપકણોમા મૂર્છાભાવ રાખવા તેને પરિગ્રહ કહે છે આ પરિગ્રહથી જે ઉલટુ છે તે अपरिय सेवा छे “जबू " । अपरिग्गहसवडेय सम ' मा अपरि ગ્રહમા આસક્ત ચિત્તવાળા હોય છે અને બ્રહ્મચય આદિ ગુણોથી યુક્ત હોય " Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ রেও सुदर्शिनी टीका४ भ० ५ सू०१ परिग्रहचिमणनिरूपणम् अमणो भवति । एतदेव वर्यते-'आरभ परिग्गहाओ' भारम्भपरिवहाद-आरम्भः पृथिन्याधुपमर्दः, परिग्रहः पायाभ्यन्तरभेदाद् द्विवियः, तन-गाह्य परिग्रहः धर्मापकरणातिरिक्तभिन्नरस्तुग्रहण, धर्मोपकरणेपु मृर्ग च । आन्तर' परिग्रह स्तु-मिथ्यादिरतिरूपायप्रमादाशुभयोगस्प', जनयोः समातारद्वन्ध , तम्माद् 'पिरए' पिरतो यः म अमणो भवति । तया : 'मोहमाणमायालोमा' क्रोधमानमायाकोभात् , अन-समारत्वादेश्त्वम् 'रिए' पिरतः स अनणो भवति । अयादि सरयया मिथ्यात्वादि लक्षणाऽऽभ्यन्तरपरिगविगति विशढयन्नाह'एगे' इत्यादि, 'एगे असजमे' एकोऽसयमा-पिरतिलक्षणः, 'दो चा रागदोसा' हो चैव रागद्वेपौ । तथा-'तिप्णि य' नयश्च 'दडा' दण्डा', तथा त्रीणि 'गारवा ' गौरवाणि च, 'गुत्तीनो' गुप्तयः, 'तिणि य ' निस्त्रथ । तथागुणो से युक्त होता है वही श्रमण है । यह अमण (आरमपरिग्गहा ओ विर) आरभ और परिग्रह से सर्वथा विरत होती है। पृथिवी आदि जीवों का उपमर्दन जिन क्रियाओं से होता है वे सब आरभ है। परिग्रह पाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार का होता है । धर्मों पकरणो से भिन्न वस्तुओं का अपनाना-पास में रखना-तथा धर्मापकरणों पर मृ भाव-ममत्वभाव रखना यह वाद्यपरिग्रह है। मिथ्यात्व, अविरति, कपाय, प्रमाद और अशुभयोग, ये सर अभ्यन्तर परिग्रह हैं। श्रमण वही हो सकता है जो आरम और पाह्याल्यन्तर परिग्रह से सर्वया विरत रोता है । (विरण कोहमाणलोभा) इसी तरह जो क्रोध, मान, माया और लोन, इनसे विरत होता है वही श्रमण कहलाता है। ( एगे असजमे, दो चेव रागदोसा, तिणि य दडा-गारवाय, गुत्तीओ तिण्णि, तिण्णि य विराहणाओं, चत्तारिकसाया, आणसण्णा, विगहा तहा छ में श्रम छ । श्रम “आर भपरिगहाओ विरए " मा भने પરિગ્રહથી તદ્દન વિરક્ત હોય છે પૃથિવી આદિ નુ ઉપમર્દન જે ક્રિયા એથી થાય છે તે સઘળાને આર ભ કહે છે પરિમહના બે ભેદ છે–બાહ્ય પરિગ્રહ અને અભ્યાન્તર પરિગ્રડ ધર્મોપકરણે સિવાયની વસ્તુઓ પાસે રાખવી તથા ધર્મોપકણો ઉપર મૂરભાવ મમત્વભાવ રાખવો તે બાહ્યપરિગ્રહ છે મિથ્યાત્વ, અવિરતિ, કષાય, પ્રમાદ અને અશુભ યુગ એ બધા આભ્યાન્તર પરિગ્રહ છે જે બાહ્ય અને આભ્યન્તર પરિગ્રહથી સર્વથા વિત હોય છે તે श्रम यश "विरए कोहमाणमायालोमा" से प्रभाएर अध, भान, भाया अने सामथी हित डोय तेरी श्रम उपाय छे “गे असजमे, दोचेव रागासा, तिपिणयदडा-गारवाय, गुत्तीओ तिष्णि, तिण्णि य रािहणाओ, Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभध्याकरण 'तिण्णि य ' तिम्रय 'निराधणामो' रािधनाः । तथा-'चत्तारि' चत्वारः 'कसाया' कराया । तथा चत्वारि 'माणा' ध्यानानि, 'तहा य' तया च 'चउरो' चतस्रः 'विगहा' पिया', 'ति' भान्ति । तथा-पच । पञ्च 'किरियामओ' क्रिया, तथा-पच 'समिइदियमहरयाइ य' समितीन्द्रियमहा प्रतानि च । पञ्च समितयः, पञ्चन्द्रियाणि, पञ्च महानतानि च । तया-'छज्जीयनिकाया' पनीरनिकाया । छन्चलेसाओ' पढ़ च रेगः । तथा-'सत्त भया' सप्त भयानि । तया-'अट्ठमया' अष्टमदा' । 'ना चेय' ना चाच भवेरगुत्तीओ 'ब्रामचर्यगुप्तयः । 'दसप्पकारे य' दशपकारच = दरिया, 'समणधम्मे' श्रमण धर्मः । तथा-'एफारस' एकादश 'उपासगाण' उपास काना 'चारस य' द्वादश च 'मिक्सूण मिखुणा 'पडिमा' प्रतिमाः। 'तेरस' त्रयोदश 'किरियाठाणाइ' क्रियास्थानानि । 'चउदस' चतुर्दश भूपगामा' भूतग्रामाः । "पन्नरस' परमाहम्मिया' पश्चदश परमाधार्मिका' । ' सोळसगाहा यति चउरी) तथा ये जो असयमादिक एक से लेकर तेतीस योल है, जैसे-अविरतिरूप एक असयम, दो राग और देप तीन दण्ड, तीन गौरव, तीन गुति, तीन विराधना, चार कपाय, चार ध्यान, चार सज्ञो, चार विकथा, (पचकिरियाओ) पाच किया, (समिइदियमहत्वयाइ) पाच समिति, पाच इन्द्रिय पाच महावत, (उज्जीवनिकायछच्चलेसा ओ सत्तभयाअट्ठमया नव चेव य चमचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समण धम्मे, एकारस उवासगाण वारसय मिक्सूण पडिमा) छहजीवनिकाय छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दश प्रकार का श्रमणधर्म, ग्यारतश्रावको की, बारह भिक्षो की प्रतिमा, (तेरस किरियाद्वाणाइ, चउद्दसभूयग्गामा, पन्नपरसरमाहम्मिया, सोलसगाहा चत्तारि कसाया, झाणसण्णा विगहातहा य हुति चउरो" तथा मारे समय માદિક એકથી લઈને તેત્રીસ બેલ છે, જેવા કે-અવિરતિરૂ૫ એક અસયમ, બે રાગ અને દ્વેષ, ત્રણ દડ, ત્રણ ગૌરવ, ત્રણ ગુપ્તિ, ત્રણ વિરાધના, ચાર चाय, या२ ध्यान, या२ सा, या२ विया, "पच किरियाओ" पाय या " समिइ दियमहब्बयाइ" पाय समिति पाय घन्द्रिय, पाय मानत, छज्जीवनिकाय छचलेसाओ सत्तभया अदृमया नरचेव य ब भचेरगुत्ती, दसापकर य समणधम्मे, एकारस, उवासगाण बारसयभित्खण पडिमा" छानाय, છ લેસ્થા, સાત ભય આઠ મદ, નવ બ્રહ્મચર્ય ગુપ્તિ, દશ પ્રકારનો શ્રમણ धर्म, मशिया२ श्रावनी, मार लिमानी प्रतिभाया, " तेरस किरियाहाणाई, चउदस-भूयगामा पत्नरसरमाहम्मिया, सोलसगाहा सोउसा य असजम १७, Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सदशिनी टीका अ५ स०१ परिग्रहविग्मणनिरूपणम् य' पोडशगाग पोटशानि च-गायेनि पोडगमध्ययन येषा तानि गाथापोड शनि मनकताङ्गम्य प्रथमश्रुतस्कन्धाभ्ययनानि, तानि च पोडशमरयकानि । तथा -सप्तदशानिधः 'सजमे' असयम । अष्टादशविधम् , ' अपभ' अब्रह्मचर्यम् । तथा-एकोनविंशति सग्यानि, ‘णाय' जानि-ज्ञाता ययनानि । विगति 'असमाहिट्ठाणा' असमाधिस्थानानि, एकविंशतिः 'सबला य' शबलाश्च । द्वारिगति 'परीसहा य' एरीपहाच । त्या-त्रयोविंशति सरयकानि, 'मयगडज्झयणा' सकृता ययनानि । चतुर्तिगतिः 'देवा' देशाः। पश्चविंगति 'भारणा' भावनाः पविंशतिः 'उदेस' उद्देशाः । सप्तविंशति 'गुण' गुणा: अनगारगुणा । अष्टाविंशति. 'पप्पा' ल्पा:-आचारपाल्पा । एकोनविंशतिः 'पारस्य' पापश्रुतानि । विंगत्-'मोहणिज्ज' मोहनीयानि= मोहनीयस्थानानि । एफनिशन्-' सिद्धाइगुणा य' सिद्धादिगुणाश्च सिद्धसहभाविगुणाः । द्वात्रिंशत्-'जोगसगह' योगसग्रहाः, तथा द्वारिंशत्-' मुरिंदा' सोलसा य असजम १७, अपभ १८, णाय १९, असमाहिसाणा २०, सरला २१, २ परीसहा २२ य, सूगयडज्मयगा २३) १३ क्रियास्थान, १४भूतग्राम, १५परमापार्मिक, सत्राताङ्गके प्रथम अतस्धके अ ययन, १७ प्रकारका असयम, १८ प्रकारका अब्रह्मचर्य, १९ ज्ञाताके अध्ययन, २० प्रकारके असमाधिस्थान, ०१ प्रकारके गवल, २२ परीपह, २३ सूत्रकृताङ्गके अध्ययन ( देव २१, मारणा २५, उद्देस २६, गुण २७, कप्प २८ पावसुय २९, मोहणिज्ज ३०, सिद्धाडगुणा ३१, य जोगसगह ३२, सुरिंदा ३३, तित्तीसासायणा ) २४ देव, २५ भावना, २६ उदेश, २७ अनगार गुण, २८ आचारप्रकल्प, २९ पापश्रुत, ३० मोहनीयस्थान, ३१ सिद्वसहभाविगुण, ३२ योगसग्रह, ३३ सुरेन्द्र-भवनपतियों मे २०, अव म १८, णाय ५९, असमाहिट्टाणा २०, सरला २१, य परीसहा २२ य, सूयगडज्झयणा २३” (यास्थान, १४ भूताभ, १५ ५२भाधाभिंड, १६ સૂત્રકૃતાગના પ્રથમ શ્રત ધના અધ્યયન, ૧૭ પ્રકારના અસ યમ, ૧૮ પ્રકારનું અબ્રહાચર્ય, ૧૯ જ્ઞાતાના અધ્યયન, ૨૦ પ્રકારના અસમાધિ સ્થાન, ૨૧ પ્રકા २ना शसस, २२ परी५, २३ सूत्रताना २५ ययन, " देव २४, भावणा २५, उद्देस २६, गुण २७, कप्प २८, पार सुय २९, मोहणिज्ज ३०, सिद्वा इगुणा ३१, य जोगसगह ३२, सुरिंदा ३३ तित्तीसाहायणा " २४ देव, २५ मापना, २६ उदेश, २७ मार गुप, २८ माया२ ५७८५, २८ पापश्रुत, ૩૦ મેહનીય સ્થાન, ૩૧ સિદ્ધ સહભાવિ ગુણ ૩૨ ગ સ ગ્રહ, ૩૨ સુરેન્દ્ર, Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ সবান্ধনে 'तिणि य' तिस्रथ 'निराधणालो' रािधनाः । तथा-'चत्तारि' चत्वारः 'कसाया' कसाया । क्या-चत्वारि 'गाणा' ध्यानानि, 'तहा य ' तया च 'चउरो' चतस्रः 'विगा' मिया', 'एनि' मान्ति । तथा-पच ' पश्च 'किरियागो' किया, तथा-पत्र 'समिउदियमाययाइन' समितीन्द्रियमहा नतानि च । पञ्च समितयः, पञ्चद्रियाणि, पञ्च मातानि च । तथा-'छन्नी. यनिकाया' पजीवनिकाया छिन्चलेसागो' पर चरेशाः। तथा- सत्त भया ' सप्त भयानि । तथा-' अट्टमया' भाटमटाः । 'नाचेर य' नाच भचेरगुत्तीओ' नामचर्यगुप्तयः । 'दसप्पकारे य' दशम कारण दशनिया, 'समणधम्मे' श्रमण धर्मः । तथा-'एकारस' एकादश 'उपासगाण' उपास काना 'वारस य' द्वादश च 'मिक्रसूण' मिशुणा 'पडिमा' प्रतिमा'। 'तेरस' त्रयोदश 'किरियाठाणा' क्रियास्थानानि । 'चउदस' चतुर्दश 'भूयगामा' भूतग्रामाः । 'पनरस' परमाहम्मिया' पञ्चदश परमाधार्मिकः । सोळसगाहा य इति चउरो) तया ये जो असयमादिक एक से लेकर तेतीस घोल है, जैसे-अचिरतिरूप एक असयम, दो राग और हेप तीन दण्ड, तीन गौरव, तीन गुप्ति, तीन विराधना, चार फपाय, चार ध्यान, चार सज्ञो, चार विकथा, (पचफिरियाओ) पाच किया, (समिइदियमहन्वयाइ) पांच समिति, पाच हन्द्रिय पाच महावत, (छज्जीवनिकायउच्चलेसा ओ सत्तभयाअट्ठमया नव चेव य बमचेरगुत्ती, दसप्पकारे य समग धम्मे, एकारस उवासगाण चारसय भिक्खूण पडिमा) छह जीवनिकाय छह लेश्या, सात भय, आठ मद, नौ ब्रह्मचर्य गुप्ति, दश प्रकार का प्रमणधर्म, ग्यारहश्रावको की, बारह भिक्षुभो की प्रतिमाएँ, (तेरस किरियाहाणाइ, चउद्दसभूयग्गामा, पन्नपरसरमाहम्मिया, सोलसगाहा चत्तारि कसाया, झाणसण्णा विगहातहा य हुति चउरो" तथा मा २ सय માદિક એકથી લઈને તેત્રીસ બોલ છે. જેવા કે-અવિરતિરૂપ એક અસયમ, બે રાગ અને દ્વેષ, ત્રણ દડ, ત્રણ ગૌરવ, ત્રણ ગુપ્તિ, ત્રણ વિરાધના ચાર उपाय, या२ ध्यान, या२ सा, यार पिया“च किरियाओ" पाय या " समिइ दियमहब्बयाइ" पाय सभित पाय छन्द्रय, पाय मानत, छज्जीननिकाय छरलेसाओ सत्तभया अदमया नपचेव य ब भचेरगुत्ती, दसापकर य समणधम्मे, एकारस, ज्यासगाण बारसयभिखुण पडिमा " छानाय, છ લેસ્યા, સાત ભય આઠ મદ, નવ બ્રહ્મચર્ય ગુપ્તિ, દશ પ્રકારને શ્રમણ घम, मनिया२ श्रावोनी, मार मिश्सानी प्रतिभाया." तेरस किरियाद्वाणा, च उद्दस-भूयगामा पन्नरसारमाहम्मिया, सोलसगाहा सोइसा य असजम १७, Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा ५०५ सू ६ परिप्रदविरमणनिरूपणम् ८४१ अविरतिपु-अविरतिरूपेण भगता कथितेपु प्राणातिपातादिपु च, तथा-'अण्णेम य' भन्येषु च ' एवमाउण्मु' एवमादिकेपु-एर पियेषु 'बहुमु हाणेसु ' बहुपु स्थानेषु अनेकविधेषु पदार्येषु सग्याम्याने पु वा चतुस्विंगदादिपु, कीदृशेष्वेषु ? 'जिगपसत्येसु ' जिनमस्तेपु-जिनकथिने पु, अतएप–'अपितहेसु' अपितयेपु-सत्येपु, पुन:-'सासयभामु' शाश्वतभावपु ओघतोऽक्षयस्वभावेपु, अतएक-' अवटिएमु ' आरिश्ते-सर्मदा भाविपु ' सक' शड्का सन्देह, 'कख' काङ्क्षा परमतवाञ्छा 'निरामरित्ता' निराकृत्य-दृरीकृत्य अमणेः, 'सद्दहति' श्रद्दधाति ' मगरओ ' भगवतो जिनम्य ' सासण ' शासनम् कीदृश' सन् अमणो जिनस्य गासन अन्धातीत्याह --- 'अणियाणे ' अनिदान =देवद्ध आदिवान्छारहितः, 'गारवे ' अगोर= दयादिगारवर्जितः, 'अलुढे 'पलब्ध =पिपयेप्पल्रपट' ' अमूढे' अमृढः, तथा-'मणोवयणकाय एकाग्रतारूप प्रणिधानी में (अचिरइसु ) भगवान के द्वारा अविरतरूपसे कथित प्राणातिपात आदिको में तथा (अपणेसु य एबमाइग्सु) और भी उसी तररके दूसरे ( बसु हाणेमु) अनेक पदार्थो मे अयया (जिणे पमत्येसु) चोंतीस आदि मरवास्थानो में जो कि जिनकथिन है और उमी कारण ( अवितहेसु) जिन मे अमत्यता का थोड़ा साभी स्थान नहीं, अपात सर्वया सत्य है, तया (सामयमावेसु) सामान्यकी अपेक्षा जिनका अक्षय स्वभाव है, और इसीसे (अवट्टिासु) जिनकी मत्ता सदा रती है उनमें (सम) शका-सदेह ( कम्व) काना-परमतवाला को (निगकरित्ता) दर करके जोश्रमण (अनियाणे) निदान-देवद्धाटि प्राप्तिकी इच्छा से विहीन बन कर ( अगारवे) ऋद्धयादि गौरव से ररित हो कर ( अलुद्धे) विपयों मे लपटतासे रिक्त होकर और " अविरइसु" भगवान दास भवितउथे अथित प्रातिपात माह तथा " अण्णेसु य एवमाइण्सु" भीत ५५५ मे २ना ' बहसु ठाणेसु" मने पार्थाभा अथवा “जिणपसत्थेसु" यात्रीय माहिमच्या स्थानामा मिन थित ? मने मे sel “ अवितहेसु" भनामा असत्यतानु १२। ५] स्थान नथी सटो २ मथा सत्य छ, तथा " सासय भावेसु" मामान्यनी अपेक्षा कितना अक्षय श्वनार छ, मने तेथी। “ अवद्विासु २नी सत्ता सहा २ छ, तमनामा “ सक" st-सहन " कस" अक्षा-५२मत पायनाने 'निराकरित्ता' हर उगने भए " अनियाणे " निशान-विहार प्रालिनी Rutथी त मनीने “अगारवे" ऋद्धयादि गौरवथा २डित यन " अलुध्धे” विषयानी साथी हित Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४० प्रभाकर जसूत्रे 1 " सुरेन्द्राः, निशतिर्भग्नपतिपु, छादश्सु कल्पेषु दश, तत्र-नवम दशमयोरेक, एकादश द्वादनयोक ति ज्योतिष्येषु चन्द्रसूर्याणामसख्या तत्वेऽपि जागा द्वान एवं वार्निशदिन्द्राः । ' वित्तीसागायणा' त्रय खिशदाशातनाः, अरायमाधाशातनान्तानामेपा व्याख्याऽऽपश्यनस्यारमत्कृत मुनितोपण्यान्याया व्यारयाया द्रष्टव्या । एते हि ' आदि पाइय जात्रेका दिन-भादेः प्रथमतः एकादिकम् = एरद्वित्र्यादिकं 'परेचा' कत्ला=भावित्य 'एकुरियाए 'एकोचरिकया = एक उत्तरे यस्याः सा तया 'बुद्धीए' डा क्रमश एक वृद्धयेत्पर्य', 'ड्रिम्स' पर्दितेपुद्धिमाप्तेषु सत्सुं 'य' यावच ' विगाहिया' निकाधिकाः 'तीस' नियसिंग 'भवे' भवति । अन 'एएस ' इति गम्यम्, एतेप्यनुपदमुक्तेषु असयमादिषु तथा-'रिपणिहसु विरतिमणिधिपु= निरतयः =माणातिपातनिरमणानि, मणिधय = प्रणिधानानि चित्तैकाग्रताख्पाणि, आयोर्द्वन्द्वः, तेषु तथोक्तेषु तथा 'अविरइसु' बारहरूपों में १०= ८ आठ कल्पों में ८, नचमें दस में १ ग्यारहवे बारहवे १) ज्योतिषियों में जाति की अपेक्षा चद्र और सूर्य २ इम प्रकार ३२ | और आज्ञातना ३३ । इन सनकी व्याख्या आवश्यक सूत्र की पूज्यश्री घासीलालजी महाराजद्वारा की गई मुनि-तोपणी नामकी टीका से की गई है - अत' जिज्ञासुजन इरा विषयको वहा से देखलें । ( आदि एकाइय करेता) इस प्रकार ये प्रम एकादि सरयासे लेकर के क्रमश. ( एगुत्तरिया बुडि सु) एकर की वृद्धिसे वर्द्धिन होते २ (ती साओ भवेतिहिया ) तीन अधिक तीस अत् तेतीस हो जाते हैं । इन असयमादि तेतीस प्रकार तक के सरया स्थानों में तथा ( बिरपणहि ) प्राणातिपात विरमणरूप विरतियों में, चित्त की ભવનપતિઓમા、૦, ખાર કલ્પેામા૧૦ (આઠ કપેામા૮,નવમા અને દશમા કલ્પમા ૧ અને અગિયાર તથા બારમા ૫મા એક) ન્યાતિષિયામા જાતિની અપેક્ષાએ સૂર્ય અને ચંદ્ર એમ બે સુરેન્દ્ર એ રીતે કુલ ૩૨ સુરેન્દ્રો થયા અને અશાતના ૩૩ આ બધાની વ્યાખ્યા આવશ્યક સૂત્રની પૂજ્ય શ્રી ઘાસીલાલજી મહાગજ દ્વારા કરાયેલ મુનિતેષણી નામની ટીકામા આપેલ છે. તા જિજ્ઞાસુ भन ते विषयने तेमाथी ले से " आदि एकाइय करेत्ता " आ गते पडे येथी એકાદિ સભ્યાને લઇને ક્રમશ ” એક એક एगुत्तरिया वुद्दि वुडिङसु વધારતા જતા “तीक्षाओ जान य भवेत्तिगा दिया" तेत्रीस थ य अस यमादि तेत्रीसभा अमर सुधीना मना स्थानाभा तथा “विर પ્રાણાતિપાત વિરમણુરૂપ વિરતિમા, ચિત્તની એકાગ્રતારૂપ 66 "" पणिहसु પ્રણિધાનામા Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ५ स्०१ परिग्रहविरमणनिरूपणम् ८४३ सः, तथा-'धिडकदो' धृतिकन्दा=वृतिः चित्तम्बार य सैव सन्दो मूलाधोभाग स्पो यस्य स', तथा-रिणयवेडो' विनयवेदिका विनय एव वेदिकान्वेदिर्यस्य स , तथा-'निग्गयतेलोकपिपुलजसनिचियपीगपीचरसुजायसधी' निर्गतत्रैलोक्यविपुलयशोनिचितपीनपीपरसृजातजन्याना निर्गत व्याप्त त्रैलोक्ये यत्तनिर्गतनैलोक्य लोक्त्रयव्याप्तमित्यर्थः, एतादृश यद् विपुल-विशाल गश. स्यातिस्तदेव निचितोनिविड पीनो महान् पीवर =पुष्टः सुजात.-सुनिष्पन्नः स्कन्धो यस्य सः, तथा-पचमहव्ययविसालसालो' पञ्चमदानतपिगालगाल:=पञ्चमहातान्येव विशाल विस्तृताः गालाम्गाग्वा यस्य सः, तथा-'भाषणातयतझाणसुभगजोगनाणपल्लवपरकुरबरो' भावनालगन्त यानसुभगयोगशानपल्लबवराडरघर , तन-भावनेर अनित्यत्वादिचिन्ननलक्षणैन गन्तलापोऽयो यस्य स , भावनारूपत्वचासपन्नइत्यर्थ , तथा- यानम् धर्म यानादि, शुभयोगा'शुभमनोवावायव्यापाराः, ज्ञानबोध्य तान्येव पल्लवावरादुराश्च तेपा धरो यः सः, अनयो कर्मवारय , तथा-' बहुगुणकुसुमसमिद्धो' बहुगुणकुसुमसमृद्धः बहवो ये विशुद्ध मूल सम्यग्दर्शन है । (धिइकदो) चित्तस्वास्थ्यरूप धैर्व ही इस का कद है, (विणयवेइओ) विनय ही इसकी वेदिका-उत्पत्ति भूमि है। (निग्गय-तेलोविउलजसनिचियपीणपीवरसुजायखधो) त्रैलोक्य में व्याप्त यश ही इसका निविड, पीन-घडा-पोवर-पुष्ट और सुजातसुहावना-स्कध है । (पचमचयविसालसालो)पांच महाव्रत ही इसकी विशाल शाखाएं हैं। (भावणातयतज्झाणसुभगजोंगनाणपल्लववरकुरधरो) अनित्य आदि भावनाएँ हो इसकी त्वचा-छाल है, धर्म पान आदि व्यान, मन, वचन और काय की शुभ प्रवृत्तिरूप, व्यापार एवं सम्यक्ज्ञान, ये सब ही इसके पत्ते और उत्तम पलवाडर हैं, (बहुगुण कुमुमसमिद्धो (क्षान्त्यादि अनेक गुणोरूपी पुष्प से यह सदा समृद्ध भूण छ “धिइकदो" वित्त पन्यता३५ धैर्यतेनु छ "विणय वेइओ" विनय तनी हि त्पत्तिनी मुभि छ “निग्गयतेल्लोक्कविउलजस निचियपीवरसुजायसयो" सिमा व्यास यश तेनु निqि3, पीन-माटुभाव२-मरभूत अने सुनत-सुह२ २७ छे “ पचमहत्वय विसालसालो " पाय भामत ४ तेनी nि माया छ “भावणातयतज्झाणसुभगजोगनाण पल्लववर कुरघरो" भनित्य मा सावन तेनी छ , यमयान माह ધ્યાન, મન, વચન અને કાયની ગુભ પ્રવૃત્તિરૂપ વ્યાપાર, અને જ્ઞાન, એ ગૌ तेना पत्ता, भने उत्तम पासवारे। छे “बहुगुणकुसुमसमिद्धो" क्षान्त्य Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટાર मायाकरण गुत्ते' मनोरचनकायगुप्तच अमणो भवति । जापरिग्रहमार प्रक्षोपमया वर्णयन्नाह -'जो सो' यः सः सपरपादपो यः स. स चरम सपरद्वारमिति योग कीदृशः सबरपादपः इत्याह-पोगरवयणविरइपरित्यपाविद्यप्पगारो' पीरवरवचन विरतिप्रविस्तरबहुविधपकास बीयरस्य भगातो महावीरस्य यदयचनम् आना, ततः सकाशाद् या पिरति परिग्रहानिटत्ति सैर प्रपिस्तरो रिस्तरयुक्तो गहविध' अनेकविधः-रिचिापियापेक्षया क्षायोपगमाघपेक्षया च पादपपक्षे मूलकन्दाद्यपेक्षयाऽनेकविध प्रकारः भेदो यस्य स', तथा-'समत्तविमुद्धबद्धमूलो' सम्यक्त्वरिशुद्धबद्धमूला सम्यक्त्वमेर-सम्यग्दर्शनमेव विशुद्ध = बद्ध मूल यस्य ( अमूढे ) मृढता से वर्जित होकर तथा (मणवयणकायगुत्ते ) मन, वचन और काय की सरलता से सपन्न बनकर (भगवओ) भगवान् जिनेन्द्र के (सासण ) शासन का (सहरह) श्रद्वान करता है वही श्रमण सच्चा श्रमण है। अब सूत्रकार इस अपरिग्रहसवर का वृक्ष की उपमा देकर वर्णन करते हैं--(जोमो) जो यह अन्तिम सवरद्वार रूप सवरवृक्ष है वह ( वीरवरवयणविरइपवित्थर विप्पगारो) अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की आज्ञा से जो परिग्रह से जीव की निवृत्ति होती है उम रूप है । यह परिग्रह से निवृत्ति ही इस वृक्ष के विस्तृत अनेक प्रकार-भेद है । तात्पर्य इस का यह है कि जिस प्रकार मृल कन्द आदि की अपेक्षा को लेकर एक ही वृक्ष विविध प्रकारों वाला माना जाता है उसी प्रकार यह परित्यागरूप अपरिग्रह मी विचित्र विषयों के त्याग की अपेक्षा और कर्मों के क्षयोपशम आदि की अपेक्षा से अनेक प्रकार का होता है । (समत्तविसुद्धबद्धमलो ) इस वृक्ष कामनीने भने “ अमूढे " भृढताथी २हित यधने तथा “ मणवयणकायगुत्ते " भन, क्यन मने जायनी सताथी युत मनाने ' भगाओ' सपान लिने न्छन “ सामण " ॥सननु “सदहइ' श्रद्धान ४३ ते श्रम सायोश्रम छ હવે સૂત્રકાર આ અપરિગ્રહ સ વરને વૃક્ષની ઉપમા આપીને તેનું વર્ણન उरे छ-"जो सो" २ मा पनि परिवार ३५ अपरियड स१२ वृक्ष छत "वीरवरवयणविरइपवित्थरबहुविहप्पगारो" मतिम तीथ २ मावान મહાવીરની આજ્ઞાથી જે પરિગ્રહથી જીવની નિવૃત્તિ થાય છે તે રૂપ છે. તે પરિગ્રહથી નિવૃત્તિ લેવી એ જ આ વૃક્ષને વિસ્તૃત અનેક પ્રકાર–ભેદ છે તેનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ મૃળ, કદ આદિની અપેક્ષાએ એક જ વૃક્ષ જેમ અનેક પ્રકારે વાળુ મનાય છે તેમ આ પરિત્યાગરૂપ અપરિગ્રહ પણ વિચિત્ર વિય ચેના ત્યાગની અપેક્ષાએ તથા કર્મોના ક્ષપશમ આદિની અપેક્ષાએ અનેક प्रानु जय छ “ समत्तविसुद्धबद्धमूलो" सभ्य२४-२ मा वृक्षतु विशुद्ध Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका १०५ सू०१ परिग्रहविरमणनिरूपणम् ८४५ ___ भावार्य-चतुर्थ सबर द्वार के प्ररूपण के बाद अब सत्रकार पचम सवर बारका वर्णन कर रहे है । इसके वर्णन करने का प्रयोजन उन्हो ने इस प्रकार कहा है कि जब तक जीव की नायाभ्यन्तर रूप परिग्रसे निवृत्ति नहीं होती तब तक वह चतुर्थ सरकारका पूर्ण रूप से आराधक नहीं बनतारे। धर्मोपकरणों के सिवाय अन्य पदार्थो का ग्रहण करना जयवा धपिकरणों में मृर्जाभाव रग्बना उसका नाम परिग्रह है। मृच्छी का नाम आसक्ति है। वस्तु छोटी हो, रडी हो, चेतन हो चाहे अचेतन हो पाय हो या आन्तरिक हो कैसी ही हो, चाहे न भी हो, तो भी उममे आसक्तिसे बधे रहना-उसकी लगन में विवेक सो धैठना परिग्रह है। उस परिग्रहसे युक्त हुआ प्राणी कोध, मान, माया और लोभ कपायों से बचा रहता है। राग द्वेप उसकी आत्मामे हिलोरे लेते रहते हैं। सयमके महत्व की गणना उसके चित्त मे नही होती है । प्रभु द्वारा प्रतिपादित अपरिग्रह के सिद्धान्त की प्रतिष्ठा यह विचारा नहीं कर सरता है, अतः सच्चे अर्थ में श्रमण वही है जो इस परिग्रह से दूर है-विरक्त है । अपरिग्रही जीवके लिये प्रभुका आदेश है कि वह प्रभु द्वारा प्रतिपादित शासन में न शका करे न काक्षा करे ભાવાર્ય–ચોથા મવદ્વાનુ વર્ણન કર્યા પછી હવે સૂત્રકાર પાચમા સવરદ્ધાનુ વર્ણન કરે છે તેનું વર્ણન કરવાનું હતું તેમણે એ બતાવ્યું છે કે ત્યા સુધી બાહ્ય અને આભ્યન્તર પશ્રિહથી જીવ નિવૃત્ત થતા નથી ત્યા સુધી તે ચોથા મવદ્વાને પૂર્ણ રીતે આગધક બની રાતે નવી ધર્મો પકરણ સિવાયના અન્ય પદાને અપનાવવા અથવા વર્ણોપકર્ણમા (મૂછભાવ) મમત્વભાવ રાખવે તેનું નામ પરિગ્રહ છે મૂછ એટલે આસક્તિ વસ્તુ નાની હોય કે મોટી હોય, જડ હોય કે ચેતન હોય, બાહ્ય હોય કે આન્તરિક હેય, ભલે ગમે તેવી હોય, ભલે ન પણ હોય, તો પણ તેમા અસતિથી બધાઈ રહેવ-તેની લગનમાં વિવેકને ગુમાવી બેસે તે પરિગ્રહ ગણાય છે. આ પરિગ્રહ વાળે માણસ કોધ, માન, માયા, અને લેભ કાપાયે વડે બંધાયેલું રહે છે રાગદ્વેષ તેના આત્મામાં તોફાન મચાવે છે સયમનું મહાન તેના ચિત્તમા નહી જેવું હોય છેપ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાદિત અપરિગ્રહના સિદ્ધાન્તની પ્રતિષ્ઠાને તે વિચાર કરી શકતા નથી, તેથી સાચો શ્રમણ તે એ જ છે કે જે આ પગ્નિથી વિરકત કે અપરિગ્રહી જીવને માટે પ્રભુને આદેશ છે કે તે પ્રભુ દ્વારા પ્રતિપાદિત શાસનમાં પાકા ન કરે ક કાક્ષા ન Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ प्रेमायाकरणसूत्रे गुणाः क्षान्त्यादिस्पास्त एर कुसुमानि-पुष्पाणि तः समृदः, तथा 'सीरमुगयो' शीलमुगन्धः, शील सदाचारो नामचर्य ना, तदेव शोभनो गन्यो यस्मिन् सः, तथा-'अगव्हयफलो' अनामफल आयोनार्मोदयः, न आवमोऽनाया, स एच फर यस्य सः, आसपनिरोधस्पफलसम्पन इत्यर्थः, 'पुणो य' पुनश्च 'मोक्खपरवीयसारो' गोक्षारसीजमारसमोसार' परमोक्षः-भयानाथ सुख रूपः, तस्य नोजसार:-श्रेष्ठ गीजरूपः, ता- 'मटरगिरिसिहरचूलिया हर' मन्दरगिरिशिखरचलि कर मन्द गिरः मेरुपरतस्य यत् गिावर तस्य या चूलिका चूडा सेच, तथा 'इमस्स ' अभ्य-ममिदस्य 'मोकामरगुत्तिमग्गस्स' मोक्षयर मुक्तिमार्गस्य मोक्षः सकलरमशयल मण,तदर्थों वरः श्रेष्ठो मुक्तिम्पो-नि भता रूपएव मार्ग'-पन्थान्तस्य 'सिहरभूओं' शिवरभूतः एतादृशः 'सबरनरपायवो' सवरवरपादप' सवसआस्रवनिरोधः, म एर वरपादप =श्रेष्टरक्षोऽस्ति । एता दृशमिद 'चरिम' चरमम् = पञ्चमु सपरद्वारेप्वन्तिमम् , ' मवरदार ' सरद्वारम् , अस्ति ॥ १० १॥ चना रहता है । (सीलसुगधो) सदाचार अथवा ब्रह्मचर्य इसकी सुहावनी गध है, अणण्हवफलो) आस्रव-नवीन कर्मों के आगमन का जो रुकना होता है वही इसका फल है-इन फलो से ही यह युक्त बना हुआ है। (पुणो य ) फिर (मोक्खवरवीरसारो) अव्यानाध सुखवाले मोक्ष का यह एक श्रेष्ठ बीज है। (मदगिरिसिर चूलिया इय) सुमेरु पर्वत के शिखर की चूलिका के समान है (इमस्स मोरखवरमुतिमग्गस्त सिह हरभूओ) इस प्रसिद्ध सकल कर्मक्षय मोक्ष का जो निर्लोभतारूप माग है उसका शिखग्भूत है । (सवरपायवो) हम तरह का यह सवररूप श्रेष्ठ वृक्ष है। इस प्रकार (चरिम सबरदार ) पाच सवर द्वारो में यह अन्तिम सवर द्वार कहा गया है। मने गुऐ। ३पी पुरुषोया ते सहा समृद्ध २ "सीलसुगधो" सहायार मथवा प्रायः ॥ तेनी मुहर १ छ, " अणण्हवफलो" मासव-नवा भाना આગમનનુ અટકવુ-એજ તેના ફળ છે એ ફળેથી જ તે ચુક્ત હોય છે " पुणोय " qणी "मोक्खवरवीयसारो" अध्याय सुजवा भानु त सष्ट योर ले “मदरगिरिसिंहरचलियाइव" सुभेस पतन शिमरना त्य समान), "इमस्स मोक्पवरमुत्तिमगास्स सिहरभओ" से प्रसिद्ध म કર્મક્ષય મોક્ષને જે નિર્લોભતા રૂપ માર્ગ છે તે તેના શિખર સમાન છે "सवरपायवो" प्रहारनु । सप२३५ J छ २१ प्रारे "चरिम सवरदार" पाय मारमानु या मतिम २२ १२२ ४उवायु छ Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा ०५सू० २ प्रसस्थावरायपरिग्रहनिरूपणम् ८४७ सजमनायगेहि तित्थंकरहि सव्वजगजीववच्छलेहि तिलोय. महिएहि जिणवरिदहि एम जोणी जगाणं दिहा, न कप्पड़ जोणी समुच्छिदोत्ति । तेण हि वजेति समणसीहा ॥सू०२॥ _ टीका-'जत्थ' यत्र-परिग्रहरिरमणलक्षणे चरमसबरद्वारे 'गामागरणग रखेडाबडमडरढोणमुह पट्टणासमगय ' ग्रामाफरनगरखेटकटमडम्मद्रोणमुखपतनाश्रमगत च, ग्रामातीना व्यारया पूर्ववद् वो या, तेषु गत=स्थित च ' किंचि' किञ्चित-रिमपि वस्तु ' अप्प वा' अल्प वा स्वल्पमूल्यकपर्दिकादिक चा 'ह चा' बहु बहुमूल्य रत्नादिक वा 'अणु चा ' अणु चा=प्रमाणतो लघु मुक्ता फलादिक या, 'यूल वा' स्थल चाम्प्रमाणत स्यूल काष्ठादिक चा, अत्र सर्वत्र च शन्दो वाऽर्थकः, 'तसथावरकायदधनाय' सस्थावरकायद्रव्यजातन्नाउसकाय-शिप्यादिक स्थावर माय-रत्नादिक, तद्प द्रव्यजात 'मणसा पि' मन अव मत्रकार उस स्थावरविषयक अपरिग्रह का वर्णन करते हैं'जत्य न कप्पड ' इत्यादि । टीकार्य-(जत्य)जिम परिग्रहविरमणरूप अन्तिमचरमसवरबार मे स्थित साधु को (गामागरनगरसेडकपडमडरदोणमुहपटगासमगर य) ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्यट, मडर, द्रोणमुख, पत्तन और आश्रम, इनमे रक्खी हुई, भूली हुई, पडी हुई (किचि चि) कुल भी चीज ( अप्प वा) चाहे वह कोडी आदि जैसी अल्पसत्यवाली हो (ह बा ) चाहे रत्नाटिक जैसी वहुमत्यवाली हो ( अणु वा ) चाहे छोटी हो (यूल वा) चाहे बडी हो, (तसथावर कायदव्यजाय) चाहे त्रस, स्थावरकायरूप द्रव्य जात हो-शिष्यादिक उसकाय है, रत्नाटिक म्यावर काय हैं। उन्हें હવે સૂત્રકાર ત્રમ સ્થાવર સબ ધી અપરિગ્રહનું વર્ણન કરે છે– 'जत्थ न कापड" त्या : stथ-' जत्य" २ परियड विभ५३५ मतिम ५१२वारनु माराधन उता साधुने “गामागरनगरसेडकबडमडवदोणमुहपट्टणासमगय च” ग्राम, આકર નગર, ખેટ, ડબ ૨, મડબ, દ્રોણુમુખ, પત્તન અને આશ્રમ, તેમા राणेसी, भूखथी ५डी २९सी, ५ २७सी “किंचि ”ि उ ५४ थी। "अप वा" सोते ही माहवा नीमतनी डाय, "वहुवा" म ते २ल्ला हु मृत्यवान डाय, " अणु वा " म नानी जाय, "थूल वा" उ माटी काय, 'तसथावरकायदव्यजाय " लो ब्रम, स्या१२७१य રૂપ દ્રવ્ય જાત હેય-ષ્યિાદિક ત્રસકાય ગણાય છે, રત્નાદિત સ્થાવરકાય ગણાય Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ प्राध्यापरणम सस्थारादि विषयकापरिग्रह वर्णयति-उत्य न' इत्यादि । मूलग-जत्थ न कप्पड़ गामागरणगर-सेडकबडमडवदोणमुहपट्टणासमगय च किंचि अप्प वा वह वा अणु वा शूल वा तसथावरकायदव्यजायं मणसा वि परिधत्तु न धनहिरण्णसुवण्णखत्तवत्थु, न दासीदास-भयक -पेसहय गयगवेलग वा, न जाणजुग्गसयणासणाड, न छत्तक, न कोडिक, नोवाणह, नपेहुणवीयणतालियटगा, ण यात्रि अयतउयतवसीसगकसरयय-जायरूवमणिमुत्ताहरिपुडंगसखदतमणिसिगसेलकायवरचेलचम्मपत्ताड महारिहाड परस्म अज्झोववायलोभजणणाइ परिकड्डिड गुणवओ, न यावि पुप्फफलकदमूलादिकाइ सणसत्तरसाइ सव्वधपणाड तीहि वि जोगेहि परिघेत्तु ओसहभेसजभोयणट्टयाए सजयाणं कि कारण अपरिमियणाणदसणधरेहि सीलगुणविणयतवकेवल इनसे विहीन होकर वह उनके द्वारा प्रतिपादित तत्वों में अपनी पूर्ण अडिग श्रद्धा रखे । प्रभुने जो यहा पर एक आदिसे लेकर तेतीस तक के सख्यास्थान कहे हैं, उनमें तथा अविरति आदि जो और भी स्थान कहे है उनमें नि शकिन भावसे श्रद्धा करनी चाहिए, तभी जा फर वह सच्चा श्रमण कहला सकता है । इत्यादि विषय को प्रतिपादन करते हुए सूत्रकारने इम अपरिग्रहरूप सवर द्वारकी विवेचना वृक्षकी उपमा समता लेकर की है ॥ सू० १॥ કરે ફકત તેનાથી રહિત થઈને તે તેમના દ્વારા પ્રતિપાદિત તમા પિતાની પૂર્ણ તથા અડગ શ્રદ્ધા રાખે પ્રભુએ અહી જે એક આદિથી લઈને તેત્રીસ સુધીના સ ખાસ્થાન બતાવ્યા છે તેમનામા, તથા અવિરતિ આદિ જે બીજા પણ સ્થાન બતાવ્યા છે તેમાં નિશક્તિ ભાવથી શ્રદ્ધા રાખવી જોઈએ, ત્યારેજ તેને સાચો શ્રમણ કહી શકાય છે ઈત્યાદિ વિષયનું પ્રતિપાદન કરતા સૂત્રોએ આ અપરિગ્રહ રૂપ સરકારને વૃક્ષની ઉપમા આપીને તેનું વિવેચન કર્યું છે સૂ૦૧ Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४९ सुशिनी टीका भ०५ सू० प्रसस्थावरायपरिग्रहनिरूपणम् सोऽपि परिग्रहीतु कल्पते । तया न ' आणह ' उपानहम्-उपलक्षणत्वात्पादुकामोजादिक चाऽपि परिग्रहीतु न कल्पते, तया-न 'पेहुणीयणतालियटगा' पेहुण व्यजनतालवृन्तकानि, पेहुण-मयूरपिच्छम् , व्यजनप्रशादि निर्मितम् , ताल वृन्तक-ताल्पानिर्मित न्यजनम् , एतानि 'परया' इति भापापसिद्धानि, एपामि तरेतरयोगद्वन्द्वः तानि मनसापि परिग्रहीतु न क्ल्पन्ते, तया-'ण याविन चापि ' अयतउयतरसीसरसरययजायस्वमणिमुत्ताहारपुटगसग्वदतमणिसिंगसेलकायवरचेलचम्मपत्ताइ ' अयस्त्रपुताम्रसीसकास्यरजतजातरूपमणिमुक्ताहारपुटकशद्दतमणि श्रृगशैलयाचारचे चर्मपात्राणि, तर = अयो = लोहः, त्रपुङ्गम् , 'कथीर'' रागा' प्रति प्रमिद्धम् , ताम्र प्रसिद्धम् , सीस= सीसा' इति प्रसिद्धम् , कास्यम्पु ताम्रसयोगज द्रव्यम् , रजतम्='चान्दी' प्रसिद्धम् , जातरूपम्-सुवर्णम् , मणया-इन्द्रनीलाद्या.. मुक्ताः-मुक्ताफलानि, हारपुटक-लोहविशेष', शत-प्रमिद्धः, दन्तमणि. गजमस्तकसमुत्पनोमणि , श्रृङ्ग-हरिणप्रभृतीना कमण्डल भी वह नहीं रग्वता है । ( नोवाण ) जते, ग्वडाऊँ आदि भी वह रखने की इच्छातक नहीं करता है । (न पेहण वीयण तालियटगा) पेटुणमयरपिच्छ,वश शलाकादिनिर्मित बीजना, तालपत्र निर्मित व्यजन -पखा, उन्हें भी वह रखने की मन से भी चाहन नहीं करता है। (ण यावि अय-तस्य-तबसीस-कम-रचय-जायरूव-मणि-मुत्ता-हार-पुटग-साव-दत-मणि-सिग-सेल-कायवर-चेल-चम्म-पत्ताह गुणवओ पलिकडिट) लोहे का पात्र, पु-रागा पा पात्र, नावे का पात्र, सीस। का पात्र, कासे का पात्र, चादी का पात्र, सुवर्ण का पात्र, इन्द्रनील आदि मणि का पात्र, मुक्ताफव-मोती का पात्र, हारपुटक-लोहविशेप का पात्र, शख का पात्र, गजमोती का पात्र, हरिण आदि पशुओं के श्रृग पाए। माहवा माटे ४भने ५ ते सभी सता नथी "नो वाणह " OM31, माहिराभवानी ते ५ उता नथी “न पेहुणवीयणतालि यटगा" -मयूरचिन, 4AAR निमितविणे, ताप निमित ५मा, तभन रामपानी ते भनयी ५ ते छ। उता नथी “ण यावि अयतउय-तब-सीस-कस-रयय-जायरूब-मणि-मुत्ता-हार पुडग-सस दत-मणि-सिंगसेल-काववर-चेलचम्म-पत्ताइ गुणरओ परिकड्ढि उ " बोटानु पात्र, धु-सानु પાત્ર, તાબાનુ પાત્ર, ગીગાનુ પાત્ર, કાસાનું પાત્ર ચાદીનું પાત્ર, નાનું પાત્ર, ઈન્દ્રનીલ આદિ મણિનુ પાત્ર, મોતીનુ પાત્ર, હારપુરક-લેહવિશેષનું પાત્ર, ગજમોતીનુ પાત્ર, ગુખનું પાત્ર, હરણ આદિ પશુઓના શિગડાનું પાત્ર, प्र १०७ Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૪૮ प्रश्नभ्यारणसूत्र सापि परिवेषु' परिग्रहीतु 'न कप्पहन पल्पते इममेवाथै विशदयति, 'हिर प्णसुवर्णखेत्तात्यु' हिरण्यनुपर्णक्षेत्रवस्तु मनसाऽपि परिवती नाल्पते, नया'दासीदासमयस्पेसहयगयगवेलग ग 'दामीदासमृतर मेयायगजगलक वा, दागीदार प्रसिद्धम् , भृतका वेतन गृहीत्या कार्यरा, प्रेमा'-कार्ये समुप स्थिते ग्रामातरे प्रेपणीय भृत्या', हयाः अध, गनाः मसिद्वाः, गवेल्का! मेपाः पपा समाहार उन्द., मनसाऽपि परिग्रहीतु न यल्पते, तया-जाणजुग्ग सयणासणा' यान युग्यशयनासनानि, यानरयादिकम् , युग्य वाहनमानम् , शयन-शय्या, आसन-प्रसिद्धम् , एतानि मनसापि परिग्रहीतु न पल्पत । तथा'न उत्तक 'न उनम्न उनम् , 'न कोडिका' न जुण्डिनाममण्डल. मन (मणमा वि परिधेत्तु न कप्पड ) साधु को मन से भी ग्रहण करना योग्य नहीं है । अब इमी विषय को सूत्रकार विपदप से ममहाते हैजो अपरिग्रही साधु है उसको (न धनहिरण्णरुवष्णसेत्तयत्यु) हिर प्य, सुवर्ण, क्षेत्र, वास्तु तथा (न दासीदास भयक-पेम-य-गय-ग वेलगा) दासी, दास, भूतक, भैप्य, स्य, गज, गवेलक तथा-(न जाण जुग्गसपणामणाइ) पान, युग्म, शयन, आसन, ये मर वस्तुएँ मन से भी चाहने योग्य नहीं होती है। ग्रामादिक शब्दों की व्यारयो पहिले सबर द्वारो में की जा चुकी है ! वेतन लेकर जो काम करते हैं वे नृतकहलाते है। तथा कार्य आने पर जो उसके निमित्त बाहर गाँव भेजे जाते ते वेध कहलाते है। गलक नाम मेप का है । त्य आदि पान और वाहनमान युग्य हैं। इसी तरह (न छत्तग) पनिवा रण करने के लिये छत्र को, (न कोडिक ) पानी आदि रखने के लिये छ, तेमन "मणसा वि परिवेनु न कप्प" भनथी अ५ ४२वानु साधुन भाटे યોગ્ય નથી હવે એ જ વિષયને સૂત્રકાર વિસ્તારથી સમજાવે છે જે સાધુ અપ रिही ते “ न धनहिरण्णसुपण्णखेत्तपत्थु " हि२९य, सुत, क्षेत्र, १२तु तथा " न दासीदास भयक-पेस ह्य-गय-गवेल्गा " स, हासी, प्रत, प्रय य, , गनेस तथा “ न जाणजुगसयणासणाइ" यान, यु५ शयन, આસન, એ બધી વસ્તુઓ મનથી પણ ચાહવા ગ્ય હોતી નથી પ્રામાદિક શોની વ્યાખ્યા આગળના સ વરદ્વારમાં આપવામાં આવી છે પગાર લઈને आम ४२नारने "भृतक " न२ उडे छे तथा डाम पता भने डायने નિમત્તે બહાર ગામ મેડલાય છે તેમને “a” (દૂત) કહે છે ઘેટાને गणेश उछ २२ मा यान अथवा १२ पाउनने "युग्य" । छे से १ सारे "न छत्तग' astथी अथवा माटे छत्रने तथा "- मोटिक" Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गादा सुदर्शिनी टीका अ०५ सू। २ अयल्पीयनिरूपणम् पुनरप्याल्पनीयानि प्रदर्शयति-'जपि य ' इत्यादि । मूलम्-जपि च ओदाणकुम्मासगंजतप्पण-मथु-भजियपलल-सूपसकुलि वेढिम वरिसोलग-चुण्णकोसग-पिड सिहरिणीवग-मोयक- खीर-दहि-सप्पि नवणीय-तिल्ल-गुड -खडमच्छंडिय--मधु-खजा-वजण--विहिमाय पणोय उवस्सए परघरे रपणे वा न कप्पइ तपि सनिहीकाउ सुविहियाण, ज पिय उद्दिवविय रइयग पज्जवजायपकिण्णपा. अपने मूलगुणों की रक्षा करना चाहता है तो ग्राम जादि स्थानों में पड़ी हुई, भूली हुई, रती हुई, किसी भी वस्तु को चाहे वह थोडी हो, त हो, कीमती हो या कीमती न भी हो, उठाने का विचार तक भी नहीं करे । इसी तरह वर धातु की किसी भी वस्तु को यहण करने की भी इच्छा न करे। दासीदास आदि रूप किसी भी प्रकार का वह परिग्रह रखने का विचार तक भी न करे । न वह औपध भैषज्य और आहार आदि के निमित्त फल पुष्पादिको को अपने उपयोग मे लावे ! समस्त प्रकार के सचित्तपदार्थो, का उसको तीनकरण तीनयोगो से परित्याग कर देना चाहिये । क्यो कि ऐसे पदार्थ ज्ञानियों ने जीवों की उत्पत्ति के योनि भृत कहे हैं । मयूरपिच्छ आदि का भी उसे रखने का प्रमु का आदेश नहीं है । लोहे वस्त्र आदि के पात्र को भी उसको रखना साधुचर्या मे कल्पित नहीं है । सू-२ ॥ શાની રક્ષા કરવા માગતો હોય તે ગ્રામ આદિ સ્થાનમાં પડેવી, ભૂલથી રહી ગયેલી, મૂકેલી કાઈ પણ વસ્તુને-ભલે તે નાની હોય કે મોટી હોય, કીમતી હોય કે કીમતી પણ ન હય, ઉપાડી લેવાનો વિચાર પણ કરવો જોઈએ નહીં એ જ પ્રમાણે તેણે ધાતુની કઈ પણ વસ્તુને ગ્રહણ કરવાની પણ ઈચ્છા કરવી જોઈએ નહી દાસદાસી આદિ કોઈ પણ પ્રકારને પરિગ્રહ રાખવાને તેણે વિચાર પણ કરવો જોઇએ નહી તેણે ઓષધ, દૈવલ્ય અને આહાર આદિને નિમિત્ત ફળ, પુષ્પ આદિને પિતાના ઉપયોગમાં લેવા જોઈએ નહી સમસ્ત પ્રકારના સચિત્ત પદાર્થોને તેણે ત્રણે યોગથી પત્યિાગ કરવો જોઈએ કારણ કે એવા ૫ ને જ્ઞાનીઓએ છરોની ઉત્પત્તિનો સ્વાનરૂપ--નીરૂપ બતાવ્યા છે મયુપિટ આદિ રાખવાને પણ પ્રભુનો આદેશનથી લેતુ-વસ્ત્ર આદિના પાત્ર રાખવા તે પણ સાધુને તપતુ નથી કે સૂ ૨ Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रमयाकरण मान्यः, एतादृशैः 'निणपरिंदेहि' निनवरेन्द्र निनाम्माधिशानमनः पर्ययज्ञानधरा चहास्थजिना', तेषु राम्ग्रेप्टाः केरलिनस्तेपामिन्द्रातीर्थकर नाम कदियवर्तिवाद्येते ते 'एस' पा-पुष्पफरन्टमृगादिसनमान्यरूया 'जोणी' योनिरुत्पत्तिस्थानम् , ' जणाण ' जगताम् = प्राणिना 'दिट्टा' या केवलज्ञा नेन, तस्मात्-कारणतेषां माणिना 'न कप्पइन पते 'जोणीसमुच्छिद्रोत्ति' योनिसमुन्द्रदः इति = योनियम व मिति, 'हि' गत'-' तेण' न हेतुना एतानि पुष्पफलादि सरवान्यानि 'समणसीहा' अमणसिंहा अमणपु सिंहाः मुनिश्रेप्टाः 'ज्जति ' वर्जयन्ति-न सघट्टयन्ति ॥ मु०० ॥ लोयमहिहिं ) तीनो लोकों में मान्य से (जिणवरे जिनवरेन्द्रोंनेअवधिज्ञानी और मन. पर्ययज्ञानीरूप उमास्यजिनों में श्रेष्ठ जो केवली भगवान है, उनके भीतीकर नामकर्म के उदय से युक्त होने के कारण जो हन्द्र बने हुए है ऐसे जिनवरेन्द्रों ने (एम) ये पुप्प, फल, कन्द, मुल,आदि सर्वधान्य (जणाण जोणीदिट्ठा) जीवो की उत्पत्तिस्थान होने से योनि रूप देसे ह । इसलिये सफल सचमी जन को (न कपडजोणी समुच्छि दोत्ति ) जीवो की योनिरूप पुष्पफलादिको का ध्वस करना करिपत नहीं है । ( तेण हि ) इसलिये ये पुष्पफलादि समस्त धान्य (ममणसिंहा) मुनिसिहो के लिये (चज्जेति ) वर्जनीय हे अत' इसी कारण वे इनकी सघटना नहीं करते है। भावयें-इस परिग्रहविरमणरूप अन्तिम मवरद्वार मे सूत्रकार ने सकल सयमी अपरिग्रही श्रमण के लिये यह कहा है कि वह यदि देहि" लिनवरेन्द्रीय-वधिज्ञानी मने भान पवज्ञानी३५ छस्थ जिनामा શ્રેષ્ઠ જે કેવલી ભગવાન છે, તેમના પણ તી કર નામકર્મના ઉદયથી યુક્ત खापाने जाणे रेशा ईन्द्र मन्या छे सेवा लिनपरेन्द्रीय "एस" y०५, १०, ११, भूण मासिव धान्याने " जणाण जोणी दिवा" यानु पात स्थान बाथी योनि३पे ज्या तारो सात सयभी ने “ न कप्पइ जोणीसमुन्छिदोत्ति' वानी योनी ३५ १०५, ३n / माहिना यस 3२१॥ स्पतनथी " तेण हि" ते २२ पुष, २१ मा समस्त धान्य " समण सिहा " नि समान भुनियाने भाट “बजे ति" त्या ४२वाने રોગ્ય બતાવ્યા છે, તે તે જ કારણે તેઓ તેમને ગ્રહણ કરતા નથી ભાવાર્થ-આ પરિગ્રહ વિરમણરૂપ અતિમ - વતામાં સૂત્રકારે સકલ સયમી અપરિગ્રહી સાધુને માટે તે બતાવ્યું છે કે જે તે પિતાના મૂળ Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५३ सुदशिनी टीका अ०५ सू। २ अकल्पनीयनिरूपणम् पुनरप्याल्पनीयानि प्रदर्शयति-'जपि य ' इत्यादि । मूलम्-जपि च ओदाणकुम्मासगंजतप्पण-मथु-भजियपलल-सूपसकुलि वेढिम-वरिसोलग-चुपणकोसग-पिड सिहरिणीवदृग-मोयक- खीर-दहि- सप्पि नवणीय-तिल्ल-गुड -खडमच्छडिय--मधु-खजक-वजण--विहिमाइय पणोय उवस्तए परघरे रपणे वा न कप्पड तपि सनिहीकाउ सुविहियाणं, ज पिय उद्दिवविय रइयग पज्जवजायपकिण्णपाअपने मूलगुणों की रक्षा करना चाहता है तो ग्राम जादि स्थानों मे पडी हुई, भूली हुई, रखी हुई, किसी भी वस्तु को चाहे वह योडी हो, बहुत हो, कीमती हो या कीमती न भी हो, उठाने का विचार तक भी नहीं करे । इसी तरह वर धातु की किसी भी वस्तु को यहण करने की भी इच्छा न करे। दासीदाल आदि स्प किसी भी प्रकार का वह परिग्रह रखने का विचार तक भी न करे । न वह औषध भैषज्य और आहार आदि के निमित्त फल पुष्पादिको को अपने उपयोग मे लावे ! समस्त प्रकार के सचित्तपदार्थों का उसको तीनकरण तीनयोगो से परित्याग कर देना चाहिये । क्यो कि ऐसे पदार्थ ज्ञानियो ने जीवों की उत्पत्ति के योनि भृत कहे है । मयूरपिच्छ आदि का भी उसे रखने का प्रमु का आदेश नहीं है। लोहे वस्त्र आदि के पात्र को भी उसको रखना साधु चर्या में कल्पित नही हे ॥ सू-२॥ ની રક્ષા કરવા માગતો હોય તો ગ્રામ આદિ સ્થાનમાં પડેલી, ભૂલથી રહી ગયેલી, મૂકેલી કઈ પણ વસ્તુને–ભલે તે નાની હોય કે મોટી હોય, કીમતી હોય કે કીમતી પણ ન હોય, ઉપાડી લેવાને વિચાર પણ કરવો જોઈએ નહી એ જ પ્રમાણે તેણે ધાતુની કઈ પણ વસ્તુને ગ્રહણ કરવાની પણ ઈચ્છા કરવી જોઈએ નહી દાદાગી આદિ કઈ પણ પ્રકારને પરિગ્રહ રાખવાને તેણે વિચાર પણ કરવો જોઈએ નહી તેણે ઔષધ, ભેષજ્ય અને આહાર આદિને નિમિત્તે ફળ, પુષ્પ આદિને પિતાના ઉપગમાં લેવા જોઈએ નહી સમસ્ત પ્રકારના સચિત્ત પદાર્થોને તેણે ત્રણે વેગથી પત્યિાગ કરવો જોઈએ કારણ કે એવા પદાર્થોને જ્ઞાનીઓએ કોની ઉત્પત્તિ સ્થાનરૂપ-નીરૂપ બતાવ્યા છે મયુરપિચ્છ આદિ રાખવાને પણ પ્રભુને આદેશનથી લેતુ –વસ્ત્ર આદિના પાત્ર રાખવા તે પણ સાધુને ડપતુ નથી કે ૨ Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- - प्रन्नयाकरणसूत्रे मान्यैः, एतादृशे निणपरिंदै हिं' जिनवरेन्द्र निना:अधिगानमनः पर्ययज्ञानधराश्चास्थजिनाः, तेषु परा' श्रेष्ठाः केवलिनस्तेपामिन्द्राम्तीर्थकर नाम कर्मोदयवर्तिवायेत ते 'एस' पा-पुष्पफलकन्दमूगठिमधान्यरूपा 'जोणी' योनिरुत्पत्तिस्थानम् , ' जणाण ' जगताम् = प्राणिना 'विटा' टष्टा केवलज्ञा नेन, तस्मात्-कारणत्तेपां माणिना 'न कप्पइन पते 'जोगीममुन्छियोति' योनिसमुन्द इति = योनिध्वस पर्नुमिति, 'हि' गत'-' तेण' न हेतुना एतानि पुष्पफलादि सधान्यानि ' ममणसीहा' श्रमणमिहा श्रमणेपु सिंहाः मुनिश्रेप्टाः ‘पज्जति' वर्जयन्ति-न सघयन्ति ।। म्० २ ॥ लोयमहिएहि ) तीनो लोकों में मान्य ऐसे (जिणवरेरि जिनपरेन्द्रोंनेअवधिजानी और मन. पर्ययज्ञानीरूप उभस्थजिनों में श्रेष्ट जो केवली भगवान है, उनके मी तीर्थकर नामकर्म के उदय से युक्त होने के कारण जो इन्द्र बने हुए है ऐसे जिनवरेन्द्रों ने (म) ये पुष्प, फल, कन्द, मुल, आदि सर्वधान्य (जणाण जोणीदिद्वा) जीयो की उत्पत्तिस्थान होने से योनि रूप देखे है । इसलिये सकल सचमी जन को (न कप्पडजोणी समुच्छि दोत्ति ) जीवो की योनिरूप पुष्पफलादिको का ध्वस करना फरिपत नहीं है । (तेण हि ) इसलिये ये पुष्पफलादि समस्त धान्य (समणसिंहा) मुनिसिहो के लिये ( वज्जेति ) वर्जनीय ह अत इसी कारण वे इनकी सघटना नहीं करते है। भावर्थ-इस परिग्रहविरमणरूप अन्तिम सबरद्वार मे सूत्रकार ने सकल सयमी अपरिग्रही श्रमण के लिये यह कहा है कि वह यदि देहिं" नरेन्द्रीय-विज्ञानी मने भान पवज्ञानी३५ सय लिनामा છે. જે કવલી ભગવાન છે, તેમના પણ તીઈ કર નામકર્મના ઉદયથી યુક્ત जापान २0 देसी चन्द्र भन्या छ मेवा जिनपरेन्द्रीय "एस" ते युध्य, ३५, ६, भूक माहिम धान्यने “ जणाण जोणी दिवा" योनु उत्पात स्थान लापाथी योनि३ ज्या 2 ते हो मत सयभी ने “ न कप्पइ जोणीसमुन्छिदोत्ति' यानी योनी ३५ ५०५, ४१ / माहिना वस ७२वी उपती नथी " तेण हि" ते ४ो पुष्प, ३१ मा समस्त धान्य “समण सिहा” भिड समान भुनियान भाट “बजे ति" त्या पान ખ્ય બતાવ્યા છે, તે તે જ કારણે તેઓ તેમને ગ્રહણ કરતા નથી | ભાવાર્થ—આ પરિગ્રહ વિરમણરૂપ અતિમ અવતદ્વારમાં સૂનકારે સકલ સયમી અપરિગ્રહી સાધુને માટે તે બતાવ્યું છે કે જે તે પિતાના મૂળગુ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ४ मु०३ अकल्पनीयनिरूपणम् शप्कुटी' पृडी' इति प्रसिद्धा', वेष्टिमा - हिमी' प्रति प्ररिद्धाः, वोल्का'खाद्यविशेपा, चूर्ण कोशकानि-चूर्णभृताः पराक्रतिका भक्ष्यभेदाः 'गूजा' 'क चोरी ' इति भाषा प्रसिद्धा, पिन्ड' = गुडादिपिष्ट', शिखरिणी = श्रीखण्ड इति प्रसिद्धा , वर्तक बडा' इति भापा प्रसिद्धम् , मोडका =अमिडाः, सीरदुग्धम् , दधिपसिद्धम् , सर्पि -वृतम् , नवनीतम्-' माखन' इति प्रसिद्धम् , तेलगुड प्रसिद्धम् , खण्डम् ' खाड' इति प्रसिद्धम , मरयण्डिका=' मिश्री' इति प्रसिद्धा, मधुप्रसिद्धम् , एते पदार्थी आमाफर्मादि दोपपिता. सायुभिर्जनीया । तथा वायका: 'खाजा' इति भापा प्रसिद्रा , व्यजनानिन्तकादोनि-रसयुकशास्पदार्या ा कही' आदि भाषा प्रसिद्वाः, तेषां ये विधय प्रकाराः, एतेऽपि सदोपा वर्जनीया । एपा द्वन्द्व , एने आदो यस्य तत्तथोक्तम् , एव शिव 'पणीय' प्रणीत-स्निग्यमशन च कारण बिना पर्जनीयम् । एतत्सर्व निःपाप-'उपस्सप' भजित-अग्नि में मुजेहए जो गेटु आदि धान्य-तिलपिष्ट, सपमूग आदि की दाल, शकुली-पुडी, वेष्टिम-वेढमी, वर्षोलक-एक प्र. कार का ग्वायविशेष, चूर्णकीय-कचौड़ी, गजा, पिण्ट-गुड आदि, शिखरणी-श्रीग्वार, वर्तक वडा, मोदक लट्ट, क्षीर-दव, सर्पि-धृत,नवनीत-मरग्यन, तिल, गुड, खड-ग्वाड, मत्स्यण्डिका-मिश्री, मधु-शरद ये पदार्थ यदि आधाकर्म आदि दोपसे दूपित हों तो मातुपुरुपोदारा सदा वर्जनीयहें। ग्वाजा, तक आदि व्यजन, अयमा रमरक्त माक पदार्थ जैसे कढीआदि, तपाइन भक्ष्य पदार्थोके जो और भी भेद होते हे वे सर मी यदि मदोप हों तो साधु को वर्जनीय है। तथा भोज्य ये ओदनादि रूप स्निग्ध पदार्थ निर्दोप भी हों तो भी नायु विना कारण के अपने उपयोग मे इन्हें नहीं लेना चाहिये और इन सब निर्दीप भोज्यपदार्थो का श प, घG मा धान्य,पलल-माउa da, सप-म मानी हाण, शएकुली-धुरी, वेप्टिम-३भी, वोलक-मे २नु ा, चूणकोशक-यी त, पिण्ड-गो 16 शिसरिणीशिप, वर्तक-११, मोक साडू क्षीरदूध, डी साप-नवनीत-भाम, तस, गाण, सड-3, मत्स्यण्टिकाમિશ્રી, સાકર મધુ-મધ એ પદાર્થો જે અધાકર્મ આદિ દોષથી દૂષિત હોય તે સાધુઓએ તેમને ત્યાગ કરવા યોગ્ય છે તથા દાસ અને મારતે સર્વથા ત્યાજ્ય છે ખાજા, તઝ આદિ વ્ય જન, અથવા રસયુક્ત શાક, કઢી વગેરે પદાથ, તથા એ ભઠ્યપદાર્થોના બીજા પણ જે ભેદ હોય છે, તે બધાને પણ જે તે સદોષ હોય તે સાધુએ ત્યાગ કરવો જોઈએ તથા ભોજનને જે તે એનાદિ સ્નિગ્ધ પદાર્થ નિર્દોષ હેડ્ય તો પણ સાધુએ કારણ વિના તેમને Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५४ ধ্বস্বাসে ओकरणपामिव्य मीसगकोयगड पाहुड वा दाण पुण्णहपगड समणवणीमगट्टयाए वा क्य पच्छाकम्म पुरेक्म्म नितिगमुदगमक्खियं अइरित्त मोहर सयगाह आहड महि ओवलितं अच्छेज चेव अणिसिद्ध, ज त तिहिनु जण्णेसु उस्सवेसु य अतो वा वहिं वा होन समणट्टयाए ठविय ठविय हिंसामावजसपउत्ते न कप्पइ तपि य परिधे ॥सू०३॥ टीका-'जपि य ' इत्यादि। जपि य' यदपि च ' मोदणकुम्मासगजतप्पणमधुभज्जियपललमुक्स कुलिचे हिमपरिसोलगचुण्णकोसगपिंडसिहरिणीपगमोयगसीरदहिसप्पिनवणीय तिलगुडखंडमन्उडियमधुग्मजकवजणपिहिमाझ्य ' ओदनकुलमापगातर्पगमन्यु-भर्जितपटलम्पशप्नुलिवेष्टिमरपालाचूर्णकोगपिण्डशिसरिणीवर्तम्मोनरक्षीरदधिसपिर्नवनीततिलगुडखण्डमत्स्यण्डिकामधुरखाद्यकव्यञ्जनविध्यादिकम् , तर - ओदना. प्रसिद्धा', कुल्मापाः = मापाईपत्स्विन्ना मुहादयो या, गजः = भोज्यविशेषः, तर्पणाः = सक्तत्र , मन्यु - पदरादिचूर्णम् , भनित केवलाग्निपक्वयरगोधूमधानादिरम् , पललम् = तिलपिष्टम् , सूप = मुद्गादिदालि', फिर भो अकल्पनीय वस्तुओ को कहते है-'जपिय' इ० । टीकार्य-(जपि य-ओदग-कुम्मास-गज-तप्पण-मथु-भज्जियपलल-सूव-सकुलि-वेदिम वरिसोलग-चुण्णकोसग-पिंड-सिहरिणी बग-मोयग-खीर-दहि-सप्पि-नवणीय-तिल-गुड-खड-मच्छडियमधु--खज्जक-वजण-विहिमाइय-पणीय ) जो भी ओदनभात, कुल्माप-माघ-उड अथवा कुछ २ पके हुए मूग आदि अन्न गज्ज-मोज्यविशेष तर्पण-सत्तू , मथु-यदर (वेर ) आदि का चूर्ण, quote A७८५नीय १•तुम। सूत्रा२ मतावे छे-“जपिय ' त्या6-- ट -"जपिय-ओदण-कुम्मास-गज-तप्पण-मथु-भज्निय-पलल-सूप-स कुलिवोढम-वरिसोलग-पिंड-सिहरिणी बट्टग-मोयग-सीर दहि-सपि-नवणीय-तिल -गुड-मन्छडिय--मस-सज्जक-वजण-पिहिमाइय पणोय "२ जोदन-लात, फुल्म'प-भा५-२५३६ मथवा यो यो हावर्ड भ 6 24-१, गञ्जमे २नु लोन, तपण-सत, मथु-मा२ मानुि यूप, भजिन मनिभा Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टोका अ०५ सू० ३ अकल्पनीयनिरूपणम् ८५९ स्वहस्तेनाशनादेहणमित्यर्थः, अयमपरिणताभिधानदोपउक्तः। दायास्यदानेऽपरिणतत्वात् । तथा-आहड ' आहृतम्-स्वपरग्रामादेः साध्वर्थमानीतमशनादिकमाहृतमुच्यते । तदुक्तम्-'सग्गामपरग्गामा आणिय आहट होइ' आया-स्वग्रामपरग्रामादानीतमाहत भवति । इति । तया-'मट्टियोवलित्त ' मृत्तिकोपलिप्तम्= मृत्तिकया, उपलक्षणत्वाज्जतुगोमयादिना चोपलिप्त सद्यद्भिद्यदोयते तत् , उद्भिनमित्यर्थः । तथा 'अच्छिज्ज ' आच्छेद्य, यदशनादिक स्वामी भृत्यादिभ्य आच्चिय साधुभ्यो ददाति तदशनादिकमान्छेयम् । 'चेव ' चैव-चकार' पुनरर्थक. एवकारो निश्चयार्थः । 'अणिसिद्ध ' अनुसृष्टम् अनेकस्वामिक यदशनादिकम् एक एव ददाति तदनिसृष्टम् , तथा-'ज त' यत्तदशनादिकम् , 'तिहिसु' तिथिपु-शरत्पूर्णिमादि तिथिपु 'जण्णेसु' यज्ञेपु-नागपूजादिपु ' उस्सवेस य' उत्सवेषु च-इन्द्रोत्सवेषु च 'अतो व ' अन्तर्वा-उपाश्रयस्याभ्यन्तरे ना, 'वहि गाह ) स्वयग्राह हो-दाता ने जिसे न दिया हो किन्तु अपने ही हाय से जो उठाकर ले लिया गया हो, (आड ) आहृत हो-स्व और पर के ग्राम आदि से जो साधु के निमित्त लाया गया हो, ( मट्टिओवलित्त ) मृतिकोपलिप्त हो जो आहार किसी कुभ आदि मे रखकर मिट्टी से. गोरर से, तथा लाख आदि से वद किया हुआ हो और देते समय उस मिट्टी आदि को हटाकर बाहिर किया गया हो, (अच्छेज्ज चेव) अच्छेन्य हो-भृत्यादिकों से छीनकर दाता जिसे साधु के लिये दे रहा हो-जिस आहार के अनेक स्वामी हो परन्तु एक ही व्यक्ति उसको साधु के लिये दे रहा हो, ऐसा आहार भी साधु को लेना कर पता नहीं है। तया ( ज त ) जो वह आहार ( तिहिसु) शरत्पूर्णिमा आदि तिथियों के समय मे (जण्णेतु ) नागपूजादिक यज्ञों के समय में और सीधी डाय ५ पोताने लाथे की दीधे हाय, “ आहड " माईत હાયસ્વ અને પારકે ગ્રામ આદિમાથી જે સાધુને નિમિત્તે લાવવામાં આવ્યું डाय, “मट्टिओपलित्त" भृत्तिपलिप्त डाय-2 आडा२ ६ पात्र माहिमा મૂકીને માટીથી, ગેમયથી તથા લાખ આદિથી બધ કરેલ હોય અને આપતી मते ते भाटी महिने GA डा२ स डाय, "अच्छेज्ज चेव" मा२३ હોય-નોકર આદિ પાસેથી છીનવીને દાતા જે સાધુને માટે આપતો હોય જે આહારના માલિક અનેક હોય પણ એક જ વ્યક્તિ તે સાધુને માટે આપી २ही डाय, अ२माडा२ ५ वानु साधुने ४५तु नथी तथा “जत" ते भाडा२ " तिहिसु" १२४ पूर्णिमा तिथिमान समये तथा "जण्णेसु" Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५८ ama- D प्रमायारणसूत्र प्पादितमित्यर्थ 'पन्छाकम्म ' पचाकम, पान-दानान्तर कम-भाजनमक्षा लनादि यत्राशनादौ तत् , तथा 'पुरेसम्म ' पुराकर्म = पुरा = दानात्पूर्व कर्म हस्तलाघवादि यत्र तथा-'नितिग' मैत्यियम् = नित्यपिण्ड, दापोपणप्रमा ण वाऽवस्थितम् , ' उदगमरिखय उदकनक्षितम्-उदकादिना, आदिशळातसवित्तयिनीकायादिभिरवगुण्ठितम् , उक्तत्र " मस्सियमूदगाहणाउज जुन्न" इति । 'अइरित्त' अतिरिक्तम् द्वात्रिंशत् , काला आहारः पुरुषस्य कुक्षिपूरको भवति, खियथाप्टाकिंगति काला, नपुसकस्य चतुर्विगति काठा आहारः। ततो ऽधिक आहारोऽतिरिक्तमुन्यते । तपा-'मोहर' मौसरम्पर्पसस्तवमातापित्रादि पश्चात्संस्तवश्वशुरश्यामादिना सह माग्वर्येण बहुभापित्वेन यल्लभ्यते, नदशनादिक मौखरमुन्यते । तथा ' सयगाह ' सय ग्राहम्म्दाय के नादत्त यद्गृह्यते तत् याचक जनो को देने के प्रयोजन से बनाया गया हो, ऐसाआहार साधु को लेना नहीं क्ल्पता है । इसी प्रकार जो आहार (पच्छाकम्म) पश्चात् कर्म से युक्त हो, और (परेकम्म ) पराकर्म से युक्त हो, तथा (निति गमुदगमक्खिर ) नैत्यिक-नित्यपिंड रो, अथवा-दाता ने जिसे अपने खाने के जितना ही धनाश हो, उदक मुक्षित हो-सचित्त उदक से सचिन पृथिवीकाय आदि से अवगुठित हो (अइरित्त ) अतिरिक्त होपुरुपो की अपेक्षा से बत्तीस ग्रास से, न्नियों की अपेक्षा अट्ठाईस ग्रास से और नपुसक की अपेक्षा चोईस ग्रास से जो अधिक हो, वह आहार भी मुनियों के लिये कल्पित नहीं है। इसी तरह (मोहर ) जो आहार मौखर हो-पूर्वसस्तव मातापिता आदि के साथ तथा पश्चात्सस्तव श्वशुर श्यालक आदि के साथ अधिक घातचीत करने से प्राप्त होता हो, (सय અથવા યાચકજનોને દેવાને માટે બનાવા હોય, એવો આહાર લેવો સાધુને ४६५तो नथी से प्रभारी ने माहा२ " पच्छाकम्म, पश्चात मथी युत डाय भने "पुरेकम्म" ५२१ उमथी युतीय तथा' नितिगमुदगमक्सिय" નૈત્યિક નિત્ય પિડ હોય, અથવા દાતાએ જે પિતાને ખાવા જેટલું જ બની બે હય, ઉદક મુક્ષિત હોય-સચિન પાણીથી, સચિન પૃથ્વીકાય આદિથી भवाशुति डाय," अइरित" अतिरित डाय-५वानी अपेक्षा मास ગ્રાસથી, સ્ત્રીઓની અપેક્ષાએ અઠ્ઠાવીસ ગ્રાસથી. અને નપુસકની અપેક્ષા વીસ ગ્રાસથી જે વધારે હોય તે તે આહાર પણ મુનિઓને કુપતે નમ: से प्रभारी मोहर " मा.२ भौ५२ हाय पूर्वसस्तव माता पिता આદિની સાથે તથા પશ્ચાત્ સસ્તવ સસરા, સાળા આદિની સાથે અધિક વાત यात ४२वाथी प्राप्त थत डाय“ सयगाह " स्याड डाय-हातान Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका अ०५ सट पाल्पगीयमशनादिनिरूपणम् व ओसहभेसज्जभत्तपाण च,त पि सणिहिकय । जं पि य समणस्स मुविह्यिरस तु पडिग्गहधारिस्ल भवइ, भायण भडोवहि - उबगरण-परिग्गहो-पायवधण - पायकेसरिया पायठ्ठवण च पडलाइ तिणि वरयत्ताण गोच्छाओ तिन्नि य पच्छागा रओहरणचालपट्टक सुखणतगमादीय एय पि य सजमस्त उपवूहणट्ठयाए वायायवदसमसगसीयपरिरक्खणट्ठयाए उवगरण रागढोसरहिह्य परिवहियव्व सजएण णिच्च पडिलेहणपप्फोडणपमजणाए अहो य राओ य अप्पमत्तेणं होइ सययं निक्खिवियव्य च गिपिहयवं च भायणभडोवहि उवकरणं ॥ सू० ४ ॥ टीका-सपति कीदृशमशनादिक कल्पते ? इत्याह-'अब केरिसय' इत्यादि। 'अह' अथेति प्रमरणान्तरद्योतकः, अथ अल्पनीयाहारकथनानन्तर 'केरिसय ' कीदृश 'त' तत्-अशनादिक 'कप्पड' कल्पते परिग्रहीतुम् ' इत्याइ 'जत ' यत्तत् — एगारस पिंडवायसुद्ध' एकादशपिण्डपातशुद्धम् , एकादशभि पिण्डपात' - आचाराज द्वितीयश्रुतस्कन्वस्थितपिण्डैषणानामकप्रयमाध्ययनस्य विधिमतिपारेकादशभिरुद्देशै. तत्रोक्तविधानैरित्यथ शुद्ध तत्रोक्तदोपवर्जितमि अथ सूत्रकार साधु को फैसा अशनादि करपता है १ सो कहते हैं-'अह केरिसय ' इत्यादि । टीकाथ-(अह) पूर्वोक्त आहार अकल्पनीय है तो (केरिसय ) किम प्रकार का आहार साधु को ( कप्पइ ) कल्पता है इस पर कहते है (एगारमपिंडवायसुद्ध जत) जो अशन ग्यारह पिण्डपातों से शुद्ध हो-अर्थात् आचाराङ्ग के द्वितीय श्रुतस्कध के पिण्डैपणा नामक प्रथम अध्ययन में विधिप्रतिपादक जो ग्यारह उद्देश है उन से जो आहार वे साधुन उपासनशनाते सूत्रा२४ छ-"अह केरिसय"ऽत्या: टी.-" अह" पूर्वक्ति माडार २५४ पनीयता " केरिसय " ४॥ २। माहा२ साधुने “कप्पइ" ४८१ ते ते विधे सूत्रधार ४ छे है" एगोरसपिंडयायसुद्ध जत" २ मा २ मगिया (पातथा शुद्ध खाय એટલે કે આચાગગન દ્વિતીય કૃતનુ ધના પિંડવણ નામના પહેલા અમે થનમા વિધિ પ્રતિપાદક જે અગિયાર ઉદે છે તેમના વડે જે આહાર શુદ્ધ Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६० प्रश्नव्याकरणसूत्र वा' यहि-उपाश्रयाद पहिर्या ' समणट्टयाए ' अमगार्थतया - श्रमणनिमित्त मित्यर्थः, 'ठविय' स्थापित होज्ज' भरे , “हिमा सारज्जसपउत्त' हिंसा. सापद्यसपयुक्तम्-हिंसया पट्झायोपमर्दीन मायद्या-सोपेण कर्मणा च सप्रयुक्त 'तपि य' तदपि च अनादिक 'परिपत्नु' परिमहीतुं 'नकप्पई' न कल्पते।मु०॥ कोदृशमशनादि कल्पते ? इत्याह--नाकरिसय ' इत्यादि । __ मूलम्-अह केरिसय पुणो त कप्पड जं त एगारसपिडवायसुद्ध किण्णणहणण-पयण-कयकारियाणुमोयण--नवकोडीहि सुपरिसुद्ध दसहि य दोसेहि विप्पमुक्क उग्गम उप्पायणेसणाहि सुद्ध ववगयचुयचवियचत्तदेह च फासुयं च ववगयसजोगमणिगालं विगयधूम छहाणनिमित्त छक्काय परिरक्खणट्र हणि हणि फासुएण भिक्खेण बहियध्वं । ज पि य समणस्स सुविहियस्त रोगायके वहुप्पगारम्मि समुपन्ने वायाहिग -- पित्तसिंभाइरित्तकुवियतहसणिवाए जाए तह उदयप्पत्ते उज्जलवल विउलकक्खड पगाढदुक्खे असुभाडय फरुसचडफलविवागमहत्भए जीवियतकरणे सव्वसरीर परितावणकरणे न कप्पइ । तारिसे वि तह अप्पणो परस्स ( उस्सवेसु ) इन्द्रोत्सवों के समय मे तथा ( अतो वा यहिं वा) उपाश्रय के भीतर अथवा उपायश्रय से घाहिर (रोज्जसमणट्टयाए ठविय) मु. नियो के निमित्त स्थापित कर रग्वा हो ऐसा वह (हिंसासावज्जसपउत्त ) षटकायोपमर्दनरूप हिंसा से एवं सदोष कर्म से सप्रयुक्त अशनादि (न कप्पइ त पिय परिघेत्त ) वह भी आहार साधुको लेना नही कल्पता है।सू३। नागपूत यज्ञोना समय भने " उस्सवेसुन्द्रोत्सवाने समये तथा "अतो वा बहिवा " अाश्रयनी म ४२ ॥ पायनी महा२ " होज्ज समणट्ठयाए ठविय " भुनियाने माटे भी भूसो जाय वो त " हिंसासावज्जसपउत्त" ७४ाय 6पन३५ डिसाथी तथा सहोष उमथा युवत मन "न कप्पइ त पिय परिधेत "ते माडार पाय साधुन सवा ३८५तो नयी ॥ 3 ॥ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीका अ५ सू०४ कल्पनीयमशादिनिरूपणम् ८६३ दिपोडशविधा, एपणा-दशविधा, एपामितरेतरयोगद्वन्द्वः ताभिः, 'मुद्ध' शुद्धम् , तथा-'ववगयचुयचवियचत्तदेह च ' व्यपगतन्युतच्यावितत्यक्तदेह च, तर - व्यपगतम् ओघतश्चेतनापर्यापादचेतनतत्व माप्तम् , न्युतम् जीवनादिनियाभ्यो विनिर्गतम् , च्याषितम् = चेतनापर्यायेभ्यो पृथकारितम् , तथा-त्यक्तदेहम्त्यक्ता परित्यक्तो जीवेन देहो यस्य तत् जीवसम्मन्धरहितमित्यर्थः, एपा समाहार द्वन्द्वः, तद् , उक्तार्थ स्पष्टयति-'फासुय च ' प्रासुफ च-प्रगता असवः प्राणा यस्मात्तत्तथोक्तम् , तथा ' वगयस जोग' व्यपगत-सयोगम् सयोजनादोपनि तम् , 'अणिगाल ' अनगारम् अङ्गारदोपर्जितम् , तथा-'गिय म' विगत उत्पादन दोपो से, तथा दगविध एपणा दोपो से जो शुद्ध हो, तथा(बवगय चुयचवियचत्तदेह च ) जो ओहार व्यपगत हो, च्युत हो, च्यावित हो और त्यक्त देह हो, अर्थात व्यपगत-सामान्यरूप में जो चेतना पर्याय से रहित होकर अचेतनत्त अवस्था को प्राप्त हुआ होसचित्त न हो किन्तु अचित्त हो, च्युन-जीवनादि क्रियाओं से जो सर्वथा रहित हो, च्यावित-भृत्यादि द्वारा चेतना पर्यायों से पृथक कराया गया हो और त्यक्तदेह-जीव के सम्बध से विहीन हो । उसी बात को सूत्रकार स्पष्ट करते है-(फासुय) जिस आहोर को माधु अपने उपयोग में लेवे वह प्रामुक होना चाहिये । प्रामुक में "प्र" रहित अर्थ का योधक है, असु प्राण का वाचक है-अर्थात्-जो आहार प्राणों से-जीवों से रहित होता है वह प्रासुक है । तथा (ववगयसजोग) सयोजनादोप से वह आहार रहित होना चाहिये। (अर्णिगाल) अगार સોળ પ્રકારના ઉત્પાદન દેથી, તથા દસ પ્રકારના એષણ દોષોથી જે શુદ્ધ त्य, तथा " वगयचुय-चवियचत्तदेह च" माहार व्यपगत साय, व्युत હેય, યાવિત હોય, અને ત્યા દેહ હાય, વ્યપગત એટલે સામાન્ય રીતે જે ચેતના પર્યાયથી રહિત થઈને અચેતનત્વ અવસ્થા પામ્ય હેય-સચિત્ત ન હોય, ચુત એટલે જીવનાદિ ક્રિયાઓથી સર્વથા હિત હોય તે, વ્યાવિત એટલે નેકર આદિ દ્વારા ચેતના પર્યાથી અલગ કરાવેલ હોય, ત્યક્ત દેહજીવના સ બ ધથી હિત હોય, એ આહાર સાધુએ લેવો જોઈએ એ જ वातने सूत्रत्र २५८ २ छ-" फासुय" २ माडा२ माधु पाताना उपये! ગમાં લે તે કામુક હોવો જોઈએ પ્રાસુમા “”હિત અર્થને બોધક છે, " असु" प्राणुना मा५४, सो २ माडा२ प्रारथी-वायी २डित हाय छे ते प्रासुर माडार उपाय छे तया "ववगयसोय" सयाना होपथी ते माहार २डित व नये “ अणिंगाल " २५॥२ होपथी २डित Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६२ - মআই त्ययः, यत्तत्तथा, तबा-हिणण हणणपयणकयकारियाणुमोयणानवकोडीहिं 'क्रयण हननपचनकृतकारितानुमोदननरकोटिभिः, तत्र-जयण-मृत्येन ग्रहणम् , हननप्राणनियोजनम् , पचनम् अग्निना, एपा यानि कृतारितानुमोदनानि-स्वय करण परेण कारण कुर्वतोऽनुमोदनम् , तान्येव नरकोटय = नाविभागास्तामिः 'मुपरिसुद्ध' सुपरिशुद्ध-निर्दीपम् , तथा-' दसहि य दोसेहि ' दशमिश्च दोप शद्धितादिभिः, 'विप्पमुक्क' विममुक्त-रदितम् , तथा-'उग्गम-उप्पायणेमणाहि' उद्मोत्पादनैपणाभिः तत्र-उद्गम आधाकर्मादिः-पोडशविधः, उत्पादनाचाव्या. शुद्ध हो, उन उद्दशों में जो आहार के दोप कहे गये है उनसे वर्जित हो, तथा (किणण-हणणपयणकय कारियाणुमोयण-नवकोडीहिं सुपरिसुद्ध) जो आहार क्रयण, हनन और पचन, की न, कारित और अनुमोदनरूप नवकोटियो से परिशुद्ध हो, अर्थात् जो आहार स्वय मूल्य देकर न खरीदा गया हो, दूसरो से मल्य देकर न सरीदवाया गया रो और न उमकी अनुमोदना की गई हो, ३ इसी प्रकार जिस आहार के निमित्त हनन-प्राणियों के प्रागों का वियोजनस्वय न किया हो, दूसरों से न कराया हो और न इमकी अनुमोदना की गइ हो , इसी तरह जो आहार अग्नि से स्वय न पकाया गया हो, दूसरों से न पकवाया गया हो और न इसकी अनुमोदना की गई हो २, इन नव कोटियों से निर्दोष हो, तथा ( दसहि दोसेहि विष्पमुका) शकित आदि दश दोपो से जो रहित हो, तथा-( जग्गम-उपायणेसणाहिं सुद्ध) आधा फर्म आदि सोलह प्रकार के उद्गम दोषों से वायोदि सोलह प्रकार के હોય, તે ઉદ્દેશમાં આહારના જે દો બતાવ્યા છે તેમનાથી રહિત હોય, तथा " किणण-हणणपयण-जयकारियाणु मोयणनकोडीहिं सुपरिसुद्ध " આહાર કયણ, હનન અને પચનની કૃત, કારિત અને અનુદકરૂપ નવ પ્રબરે પરિશુદ્ધ હોય, એટલે કે જે આહાર જાતે કીમત આપીને ખરીદ્યો ન હોય, બીજાઓ મારફત મૂવય આપીને ખરીદ કરાવા ન હોય, અને તેની અનુમોદના પણ ન કરાઈ હોય, એ જ પ્રમાણે જે આહારને નિમિત્તે હનન-પ્રાણીઓના પ્રાણોની હત્યા પિતે ન કરી હય, બીજાની પાસે કરાવી ન હોય, અને તેની અનુમોદના પણ ન કરાઈ હેય, એ જ પ્રમાણે જે આહાર અગ્નિ વડે પોતે રા ન હોય, બીજા પાસે ૨ ધા ન હોય અને તેની અનુમોદના પણ ન उस डाय, ये नजारे याहार निषि होय, तथा " दसहिं दोसेहि विप्पमुक्क" शठित मा म पोथी २डित जाय, तथा " उग्गम-उप्श यणेसणाहिं सुद्ध " माम माहिम ना गम हाथी, घाया Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू०४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् च औपधादि तदपि सनिधीकृत न क्ल्पते इत्येवमन्वय कर्तव्य , कस्य न कल्पते? इत्याह-'समणम्स 'श्रमणस्य साधोः, कीदृशस्य तु अमणस्य न कल्पते इत्याह -' सुविहियस्स उ' सुविहितस्य तु = शोभनानुष्ठानसम्पन्नस्य, कस्मिन् सति ? इत्याह- बहुपगारम्मि' रहुप्रकारे अनेकप्रकारे 'रोगायके' रोगातङ्के रोगो ज्वरादिः, आतङ्कः = सद्योघातीहदयशूलादि', अनयोः कर्मधारयः, तस्मिन् समुप्पन्ने ' समुत्पने, रोगातङ्काना बहुपकारत्वमेन स्पष्टयति- वायागिपित्तसिमाइरित्तकुनियतहसणिपाए पाताधिक्य पित्तश्लेप्मातिरिक्तपिततथासन्निपाते तत्र-पातधिक्य घातस्याविक्य माचुर्यम् , तथा-पित्त लेप्मातिरिक्त-पित्तश्ले प्मणोरतिरेक आधिक्य, तत् कुपितम्-कोपावस्था प्राप्तम्-कुपितवातपित्तकफानामाधिस्यमित्यर्थ , तयेति तपाभूतः एतबितयरूपः सनिपातस्तस्मिन् , जातेसमुत्पन्ने सति ' तह ' तथा- उदयपत्ते ' उदयमाप्त-उदयावस्था प्राप्ते सति, इन पूर्वोक्त छह स्थानख्य कारणों के ध्यान से पट्कायके जीवों की रक्षा करते हुए साधु को भिक्षा वृत्ति करना चाहिये । तपा-(जपि य ) जो औपध आदि है उनका भी सनिधि-संग्रह नही करना गहिये सो कहते हैं-(समणस्स सुविरियस्स) सुविहित श्रमण के (बहुप्पगारम्मि रोगायके ममुप्पन्ने ) रहुत प्रकार के रोगातग उत्पन्न होने पर, जैसे( वायाहियपित्तसिंमाहरित्तवियतहमणिवाए) कुपितवात की अधि कता, कुपितपित्त और कुपिनकफ की अधिकता हो तया इन दोपों से अन्य उसे सनिपात भी (जार) हो ग ग हो, तथा ऐसा दुःश्व कि जो ( उज्जलपलविउल कक्खड पगाढदुक्खे ) उज्ज्वल-सुख के लेशसे वर्जित हो, यल-बलवान् महाकष्टकारक हो, विपुल-आत्मा के प्रतिप्रदेश में नदी वेग की तरह प्रवर्द्धमान हो कर्कश-कठोर हो और प्रगाढप्रतिक्षण असमाधिजनक हो (तह ) तथा ऐसे रोगातक (उदयपत्ते) माधुरी लिक्षावृत्ति २वी न तथा “जपिय" २ मोषध या गाय છે તેને પણ સ ગ્રહ ન કરે છે એ તે બાબતમાં સૂત્રકાર કહે છે કે – "समणस्स सुनिहियस्स" सुविहित श्रभराने "बहु'पगारम्मि रोगायके समुप्पन्ने" भने प्रानाशगत्पन्न यता, रेवा "वायाहियपित्तसिंभाइरितकुबियतहसणिवाए " पुषित वायुनी मधिरता पित पित्त मने दुषित ४३नी मचिंता डाय तथा मे हाथी' तेन सन्निपात ५y " जाए" थ६ गये। हाय, तथा मेहु ५ २ “ उज्जलपलविउलकासडपगाढदुक्खे" Gorar વલ–લેશ પણ સુખ વિનાનું હોય, અતિશય ૩ષ્ટકારક હાય, વિપુલ-આત્માના પ્રતિ પ્રદેશમાં નદીના વેગની જેમ વધતુ જતુ હોય, કર્કશ ઠેર હોય અને प्रगाढ-प्रतिक्षा मसमाधि 115 डाय “ तह " तथा सेवा रोगात “उद १०९ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ मनग्याकरणस्ने धूम-धृमदोपार्जितम् , एतादृशम् अशनादिक ग्रहीतु कल्पते । साधुभिः-4 वर्ति रव्यम्' इत्याह-'उहाणनिमित्त ' पदन्याननिमित्तम्-पटस्थानानि-आहार कारणस्य पटुकारणानि, तेपा निमित्त पटकारणार्थमित्यर्थः । पदमारणानि-पेदन =शुवेदन क्याटग्यशुपा, ई-गमनम् , रायमरक्षा, प्राणधारण, धर्मचिन्तन च उक्तश्च "वेयण वेयापच्चे, इरियहाए य सनमहाए । तह पाणपत्तियाए. छठ पुण धम्मचिंताए ॥ ॥ इति ॥ तथा-'यायपरिक्षण पदसायपरिरक्षणार्थम् , 'णि कणि' अहन्य हनि-प्रतिदिनम् 'फामुएण' प्रासकेन 'मिरोण' मैक्षण-मामुदानिकभिक्षया, 'वटियव्य' पतितव्यम् , माणधारण वर्तव्यमित्यर्थ । तथा-'जपि य' यदपि दोपों से रहित होना चाहिये और (विगयम) धूमदोप से भी रहित होना चाहिये । तभी जाकर वह माधुओं के लिये करिपन हो सकता है। (उद्यानिमित्त ) र कारणो से साधु आहार ग्रहण करते हैं-वे छह स्थानरूप कारण यह हैं-शुपावेदना १, चैयामृत्य २, ईर्या-गमन ३, सयमरक्षा ४, प्राणधारणा ५, और धर्मचिन्तन ६ । करा भी है "वेयण १, वेगावच्चे २, इरियट्ठाए ३ य सजमहाए । तर पाणवत्तियाए ५, छह पुणधम्मचिना ॥१॥" तथा ( छकायपरिरक्खग) आरग्रहण करने से उतार जीवो की रक्षा होती है । इसलिये साबु को (इणिणि ) प्रतिदिन (फास्तुण्ण भि क्खेण ) प्रासुकभिक्षा से (बहियत्व) माणचारण करना चाहिये-अथात् सावो न मने “विगयधूम" धुम होपथी रडित डापोले त्यारे । ते साधुमाने ४६ ते गने छ “छद्राणनिमित्त " ७ शाथी साधु આહાર ગ્રહણ કરે છે-તે છ સ્થાનરૂપ કારણ આ પ્રમાણે છે-(૧) સુધા વેદ (२) यावृत्य, (3) ४ा-मन, (४) मयम २६। (५) प्राणुधार भने (१) ધર્મ ચિન્તન કહ્યું પણ છે – " वेयण १ वेयावच्चे २ इरियट्ठाए ३ य सजमट्ठार ४। तह पाणरत्तियाए ५, छड पुगधम्मचिंताए ६ ॥१॥" तथा “छक्कायपरिरक्खणदारा" भाडा अडाय ४२वाथी छायन यानी पण २६ थाय छे तथा साधुने " इणि हणि " प्रतिनि “फासुण्ण भिक्खेण" प्रासु लक्षाथी “पहियव्य" प्राधार व ते पूवात છ સ્થાનરૂપ કારણેને ધ્યાનમાં લઈને છતાયના જીવોની રક્ષા કરતા થકા Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका १५ सू०४ कहानीयमशनादिनिरूपणम् 'सणिदिकय ' सनिधीकृत न पहन कल्पते-परिग्रहविरतत्वात्तस्य। अथ यत्कल्पते तदाह-'जपि य ' यदपि च किञ्चित् 'समणस्स' अमणस्य ‘सुविहियस्स तु ' सुरिहितस्य शोभनाचारयतस्तु, 'पडिगगह पारिस्स' पतद्ग्रहधारिणः पानधारकस्य ' भायणभडोपहि उपकरण पडिग्गहो ' भाजनमाण्डोपध्युपकरण पतद्ग्रहः, तन-भाजनम् उन्दकम् , भाण्ड जलपानम् , उपधि:वस्त्रादिः, तप यत् उपकरणम् सामग्री, तथा-'पडिग्गहो' पतद्ग्रहाम्भोजनपान 'भाइ' भवति । तथा-'पायनपणपायकेमरियापायठवण च' पानमन्धनपानकेसरिका पानस्थापन च, तन-पासन्धन' झोली' इति भापा प्रसिद्धम् , पानकेसरिकापात्रममार्जिका, पानस्थापनपन बखरखण्ठे पान स्थाप्यते तत् , एपा समाहार द्वन्द्व , 'तिष्णि य' त्रीणि च ' पडलाइ ' पटलानि-उपर्युपरिपावरक्षणममये पात्रपरिरक्षणार्थ पाताभ्यन्तररक्षगीयानि उसखण्डानि, तथा-'रत्तपाण' रजस्वाण परिग्रह विरत साधु को ( सनिहिकय ) सग्रह के रूप में अपने पास रखना (न कप्पड ) नही कल्पता है। उस परिग्रहविरत साधु के लिये अपने पास क्या २ वस्तुएँ रखना कल्पता है ? सो सूत्रकार उन्हें बताते है-(समणस्स सुविहियस्स 3 पडिग्गधारिस्स) पानधारी उस सुधिहित शोमनाचारसपन्नश्रमण-साधुके पास (जपि य ) जो भी (भाय णभडोवहि उवगरणपडिग्गहो भवह ) भाजनउन्दक, भाड-जलपात्र, उपधि-वस्त्रादिरूप उपकरण, तया पतग्रह भोजन पात्र हैं ये, तथा(पायरधणपायकेसरिया पायवण च ) पात्रयधन-झोली, पात्रकेसरिका-पाचप्रमाजिका, पात्रस्थापनवस्त्र, तथा (तिणियपडलाइ ) तीनप. टल-ऊपर ऊपर पात्रों को रखने के समय उन पात्रों की रक्षा के लिये पायों के भीतर रखे हुए तीन वन्न खड, (रयत्ताण) जलपात्र ढकने सपना ३५मा पानी पासे रामपा “न कप्प" ४५ता नयी त परियड વિરત સાધુને માટે પિતાની પાસે કયી કયી ચીજો રાખવી કપે છે ? તે તે सत्रहार उछ -" समणास सुविहियस्स उ पडिगाहधारिस्स" पात्रधारीत सुविहित सहायारयुक्त माधुनी पासे "जोपय' रे " भायण भडोयहि उवगरणपडिगहो भइ " मान-Gras, मा- यात्र, 64धि- ६३५ ९५४२, तशा पता -सारन पात्र हाय ते तथा 'पायब धण पायफेसरिया पायट्रवण च” पात्रधन-जी, पात्रमरिता पात्र प्रभात, पात्रस्थापन पर तथा “तिण्णयपडलाइ" पटस-पात्रान मे भीगनी भूवान मते ते पात्रानी २क्षाने माटे पात्रानी १२ रामेस पक्षम, “ रयत्ताण" Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभम्याकरण फस्मिन् ? इत्याह--'उज्जलपलविउलकरखडपगाहदुरखे' उज्ज्वल्यलविपुलकर्कशप्रगाढदुःखे, तर-उज्ज्वल-मुखलेशवनितम् , बलबलपत्-महाकाटजनकम् विपुलम् आत्मप्रतिप्रदेशे नदीवेगात्मपर्द्धमानम् , कशकठोरम् , दुःसाबस्वाद , प्रगाढ प्रकृष्ट प्रतिक्षणमसमाधिननकत्यात् यदुन तस्मिन , कयम्भूते दुःखे ? 'अमुभाडयफरसचडमलविनागे' अशुभकटुम्परुपचण्डफलविपाके, अशुभः अशुभरूप., कटुकनिम्मरस व्यानिष्टः, परपा परुपस्पर्गद्रव्यमिनानिष्टः, तथाचण्डोन्दारुणो यः फलविपास्तादृशे, पुन'-'महभये । महाभये = महद्भय यस्मातस्मिन् , महाभयजनके इत्यर्थः, पुन:-'जीवियतफरणे' जीवितान्तकरणे जीवितस्य-जीवनस्य अन्तकरण-नाशो यस्मातस्मिन् , माणनाशसमर्थ इत्यर्थः, पुनः कीदृशे ? ' सबमरीरपरितापणकरणे' सर्वशरीरपरितापनकरणे अङ्गमत्यङ्ग सन्तापजनके, 'तह' तथा 'तारिसेवि' तादृशेऽपि यादृशः सोडु न शक्यते तादृशेऽपि रोगातवादी 'अप्पणी परस्सव ' आत्मनः परस्य या निमित्त यदपि 'ओसहभेसज्जभत्तपाण' औपधभैपज्यभक्तपानम् ' त पि य' तदपि च उदय प्राप्त हो रहे हो ( अनुभकडयफसचडफलविवागे) कि जिसका फलरूपविपाक अशुभरूप ही हो, निम्बरस के जैसा कटुक अनिष्ट हो, परुस-पम्प स्पर्श द्रव्य की तरह जो अगचिकारक हो, और चड-दारुण हो तथा ( महाभये) महाभयकर हो ( जीवियतकरे ) जिसमें जीवन के नाश होने की भी समावना हो रही हो, (सव्यसरीरपरितावणकरे) अग, प्रत्यग मे जिसके कारण असह्य सताप बढ रहा हो ( तह तारिसे वि) ऐसे पूर्वोक्त प्रकार के रोगातको के समय में भी (अणणोपरस्सव) चाहे ये रोगातक अपने लिये हो रहे हों चाहे दसरे साधु के लिये ही रहे हों उस समय अपने और पर के निमित्त जो ( ओसहभेसज्जभत्तपाण) औषध, भैषज्य एव भक्तपान हो (तपि य ) वह भी उस यपत्ते" मध्य पान्या हाय ' असभकडयफसचडफलविवागे" ॥ ५॥ રૂપ વિપાક અશુભ રૂપ જ હોય, લી બુ જે કટક અનિષ્ટ હોય, પરુષ-ડેર સ્પર્શદ્રવ્યના જે જે અરુચિ કારક હોય, અને ચડ-દારુણ હેય તથા "महभये" यति सय ४२ डाय, “जीरियतकरे" मा पनन। २५त भाष पानी ५५५ यता डाय " सव्यसरीर-परितावणकरे" २५, प्रत्य मा न (२मसह सता५ पधतो or होय तह तारिसे वि"लते रात પિતાને માટે થતા હોય કે ભલે બીજા સાધુને માટે થઈ રહ્યા હોય, તે એમેય घाताने सन्यन निमित्त "ओसहभेसजभत्तपाण" औ५५, सपन्य अनेमस्तपान डाय " तपिय"ते पण ते पग्रिडविरत साधुन " मनिहिकय" Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६७ सुदर्शिनी टीका अ५ सू०४ कल्पनीयमशनाविनिरूपणम् 'सणिहिकय ' सनिधीकृत न इन क्ल्पते-परिग्रहविरतत्वात्तस्य। अथ यत्कल्पते तदाह-'जपि य ' यदपि च किञ्चित् 'समणस्स' अमणस्य 'सुविहियस्स तु ' मुनिहितस्य शोभनाचारसतस्तु, 'पडिग्गह गारिम्स' पतद्ग्रहधारिणः =पानधारकस्य 'भायणभडोवहि उपकरण पडिग्गही 'भाजनभाण्डोपध्युपकरण पतद्ग्रहः, तत्र-भाजनम् उन्दकम् , भाण्ड जापानम् , उपधिववादिः, तप यत् उपकरणम् सामग्री, तथा-'पडिग्गहो' पतद्ग्रहः भोजनपात्र 'भाइ' भवति । तथा-'पायरधणपाय केमरियापाययण च ' पानमन्धनपान केसरिका पानस्थापन च, वन-पानसत्यन= झोली ' इति भापा प्रसिद्धम् , पात्रकेसरिकापानप्रमाणिका, पारस्थापन-यन वस्त्रसण्डे पान स्थाप्यते तत् , एपा समाहार द्वन्द्व , 'विष्णि य' त्रीणि च ' पडलाइ ' पटलानि-उपर्युपरिपातरक्षणसमये पात्रपरिरक्षणा पागाभ्यन्तररक्षगीयानि उसखण्डानि, तपा-'रचयाण' रजत्राण= परिग्रह विरत साधु को ( सनिहिकय ) सग्रह के रूप में अपने पास रखना (न कप्पड ) नही कल्पता है। उस परिग्रहविरत सायु के लिये अपने पास क्या २ वस्तुएँ रखना कल्पता है ? सो सूत्रकार उन्हें बताते है-(ममणस्स मुविहियस्स उ पडिग्गधारिस्स) पानधारी उस सुविहित शोभनाचारसपन्नश्रमण-साधुके पास (जपि य ) जो भी (भाय णभडोवहि उवगरणपडिग्गहो भवह ) भाजनउन्दक, भाड-जलपात्र, उपधि-वस्त्रादिरूप उपकरण, तथा पतदग्रह भोजन पात्र हैं ये, तथा(पायरधणपायकेसरिया पायवण च ) पायधन-झोली, पात्रकेसरिका-पात्रप्रमाजिका, पात्रस्थापनवस्त्र, तथा (तिष्णियपडलाइ)तीनप. टल-ऊपर ऊपर पात्रों को रखने के समय उन पात्रों की रक्षा के लिये पात्रों के भीतर रखे हुए तीन वस्त्र खड, (रयत्ताण) जलपान ढकने भयन३५मा पातानी पासे रामवा "न कप्पइ" पता नथी व परिश વિત સાધુને માટે પિતાની પાસે થી કયી ચીજે ગાખવી કપે છે? તે તે सूत्रधार ७ छ" समणास सुविहियरस उ पडिग्गधारिस्स" पात्रवारीते सुनिखित सहायारयुक्त माधुनी पासे "पिय' २ "भायण भढोवहि उवगरणपडिगहो भवइ " alti-Grds, मा3-४ , ७५धि-साहि३५ 645२Y, तथा तह-मासन यात्राय तथा 'पायव धण पायकेसरिया पायट्ठवण घ" पात्रमधन-जणी, पात्रमरिक पात्र प्रमति , पान्थापन व तथा "तिण्णयपडलाइ" त्रपटस-पात्राने मे मीनी 6५२ भूपाने मते ते पात्रानी खाने भाट पात्रानी वये गयेव न पश्नम, " रयत्ताण " Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रभव्याकरणसूत्र जलादिपात्राच्छादनवस्त्रखण्डम् , 'गो भो' गोन्जाममानिका, तथा-'तिभि य पन्गा ' यश्च मन्छादकाः, 'चादर ' प्रसिद्धाः, वन-दौ मूत्रनिर्मिता, एक ऊर्णनिर्मितः, तथा-'रओहरणचोलपट्टकमुहणतकमाईय' रजोहरणचोलपटकमुखान न्तकादिकम् , तत्र-रजौहरण प्रसिद्धम् , चोलपटक परिधानास्त्रम् , मुग्मानन्तक सदोरकमुखवस्त्रिका, एतान्यादौ यस्य तत्तथा, 'एयपि य एतदपि च 'उवगरण' उपकरणम् 'सजमस्स' सयमस्य सापद्ययोगविरतिलक्षणसप्तदशनिघस्य ' उववृह हणट्टयाए ' उपत्र हगार्थतायै, वृद्धार्थमित्तयः, अब सार्थे तल्प्रत्ययः । तया'वायायवदसमसगसीपरिरक्खणद्वयाए' गावातपदशमशकशीतपरिरक्षणार्थताये, तत्र वातातपादि सरक्षणार्थ, रागदोसरहिय रागद्वेपरहित यथा भाति तया णिच्च' नित्य 'परिवहिया ' परियोढव्यम्-परिधर्तव्य, 'सजएण' सयतेन। 'पहिलेहणपप्फोडणपमज्जणाए' प्रतिलेखनप्रस्फोटनममार्जनायाम् , तत्र-प्रतिलेखनका वस्त्र, (गोच्छओ) गोच्छ-प्रमाजिका, तथा (तिणि य पच्छागा) तीन प्रच्छादक-चादर (इनमें २ सूत के चादर और १ उनका कपल रहता है ) ( रओहरणचोलपग-मुहणतगमाईय) रजोहरण, चोलपट्टक, मुखानन्तक,-सदोरकमुखबस्त्रिका आदि ये उपकरण रहते हैं सो (ण्यपि य ) ये उपकरण भी (सजमस्स उवगृहणठ्याए ) उस साधु के सत्रह प्रकार के सयम की रक्षा के निमित्त एव वृद्धिके निमित्त ही होते हैं तथा- (वायायवदसमसगसीयपरिरक्खणट्टयाए ) चात, आतप -धूप दशमशक, और शीत से रक्षा करने के लिये है । इसलिये (सज एण) सयत को (रागदोसरहिय ) रागद्वेष से विहीन होकर (णिच्च) मर्चदा ये धौंपकरण ( परिचयिन्च) धारण करना चाहिये अर्थात् अपने पास रखना चाहिये। और इनकी (पडिलेडणपप्फोडणपमज्ज यात्रावानु वस्त्र, "गोन्छओ" गो२७४-मावि तथा "तिण्णी य पच्छागा" a अछा-या४२ (तेमा मे सूत। मने मेड जननी भित हाय छे) ' रओहरण-चोलपग-मुहण-तगमाईय " २७२५, यासप, भुभानन्त-हा। सङितनी मुखपत्ता, मा ५३२-२ , जी " एयपिय" ते ५४२६५ ५ " सजमस्स उवग्रहणयाए" ते साधुना सन्तर २ सय भनी २क्षाने भाटे मन वृद्धिन माटर खोय छ तथा "वायायवद समसग सीयपरिरक्षणट्रयाए" वात, ती भश मन शीतथा २सय ४२वान भाट तेथी " सजएण" स यतने "रागदोसरहिय " रागद्वेषथा ॥ थन "णिच्च" सहा ते घ ५४२५५ परिवहियब्ध " धारधु ४२वा नम, शटले पातानी पामे रामान भने भनी " पडिलेहण Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदोशनी टीका अ० ५ सू० ४ कल्पनीयमशनादिनिरूपणम् प्रत्युपेक्षणम् चक्षुपा निरीक्षणमित्यर्थ , मस्फोटनम्-यतनापूर्वकमास्फालनम् , आभ्या सहिता या प्रमार्जना तस्या कत्ताया सत्याम् 'सयय' सतत 'अहो य रामओ य' अनि च रात्री च, 'भायणभडोवहि अगरण' भाजनभाण्डोप युपकरणम् , 'अप्पमत्तेण ' अममतेन-ममादयनितेन सयतेन 'निविष्वपियव्य' निक्षेप्तव्य-यतनया स्थापयितव्य च, 'गिडियच च यतनया ग्रहीतन्य च 'होइ' भवति । एपाचतुर्थसमित्याराधना विज्ञेया ॥ सू० ४ ॥ णाए) प्रतिलेग्वनाचक्षु द्वारा अच्छी तरह अवलोकन क्रिया और प्रस्फो. टन-यतना पूर्वक अटकारना रूप क्रिरा तथा प्रमार्जना कर लेने पर (अहो य राओ य) दिन में तथा रात्रि मे जन कभी रखने और लेने काम पडे तो इन (भायणभडोवहि उवगरण) माजन, भाड और वस्त्रादि स्प उपधि को (अप्पमत्तेण) अप्रमत्त होकर साधु को (सयय) नित्य (निस्खियच्य) यतनासे धरना चाहिये और (गिण्डियन्य च होइ) यतना से उठाना चाहिये । भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने कैसा आहार मुनि को लेना चाहिये और क्या २ सामग्री अपने पास रसना चाहिये-यह सर प्रकट किया है। आचोराग के द्वितीय श्रुतम्कर में जो पिण्डैपणा नामका प्रथम अध्ययन है उसमे ग्यारह उद्देशों मे आरके जो दोप प्रतिपादित किये गये हैं उन दोषो से जो आहार वर्जित हो, क्रयण आदि की कृत आदि रूप नौकोटियों से जो शुद्ध हो, उद्गम, उत्पादना और एपणा से जो शुद्ध हो, न्यपगत आदि विशेपणो वाला हो, प्रासुक हो, सयोजनादोप पप्फोडणपमज्जणाए" प्रतिवेपना - भाग 43 साग रीते सपन भने प्रन्टन-यतनापू टा२१६३५ दिया तथा प्रभावन यो पछी “अहोय राओय " हिरामा ५४ वा भूवानी १३२ ५3 त्यारे ते " भायणभडोरहिवगरण " मन मार सने पाहि३५ ७५विन “अप्प मत्तण " प्रमत्त ने साधु " सयय " सह " निस्सियव्य " यतना ५४ ४॥ न मने " गियिव्य च होइ" यतनापू' हावा तसे ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે કે આહાર મુનિએ લેવો જોઈએ અને કયી નથી સામગ્રી પિતાની પાસે રાખવી જોઈએ તે બધુ બતાવ્યું છે આચારાંગના બીજા વૃતક ધમાં જે પિકૈવણુ નામનું પહેલું અધ્યયન છે તેના અગિયાર ઉદ્દેશમાં આહારના જે દેનુ પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે તે દેથી જે આહાર હિત હોય, કયણ આદિના કૃત આદિરૂપ નવ પ્રકારે જે શુદ્ધ હેય, ઉગમ, ઉત્પાતના અને એવણથી જે શુદ્ધ હોય, વ્યપગત આદિ વિશેષણે વાળો હોય, પ્રાસુડ હાય, સજના દેષ વિનાને હોય, અગાર Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 | প্রয়াঙ্কা से हीन हो, अगार और धूम दोप से विगत हो ऐसारी आगर मुनि को क्षुधा वेदना आदि उह कारणो के निमित्त को लेकर छकाय के जीवों की रक्षा के अभिप्राय से लेना चाहिये । तया हम परिग्रह विरत साधु के लिये कभी भी चाहे किसी भी प्रकार का कैसा ही रोगातक उदय में आ रहा हो अपने निमित्त एच पर के निमित्त औषधि आदि का सग्रह नहीं करना चाहिये। मुनि के लिये आगम में जिन धर्मों पकरणों को रसने का विधान है-वे २ पोपकरण उसे शीत आतप आदि जन्य बाधा की निवृत्ति के लिये और मावययोगविरतिरूप सत्रह प्रकार के सयम की रक्षा करने के लिये विना किसी रागद्वेपपरिणति के अपने पास रखना चाहिये । उनकी प्रतिदिनयतना पूर्वक प्रमार्जना आदि करके दिन या रात्रि में उन्हें यतनापूर्वक घरनी और उठाना चाहिये। सूत्र में जो "ववगयचुय चवित्तदेह " यह पद आया है उसका शब्दार्थ इस प्रकार है-सामान्यरूप में जो आहार चेतन पर्याय से रहित होकर अचेतन बन जाता है । वह व्यपगत कहलाता है। विशेष रूप में जीवन आदि क्रिया से जो विनिर्गत होता है वह च्युत कहलाता है। चेतना पर्याय से जो भृत्यादि द्वारा रहित कराया जाता है वह च्यावित कहा जाता है । एव जो जीवों के समय से रहित रोता है वह અને ધૂમ દેષથી રહિત હેન, એ જ આહાર મુનિએ સુધાવેદને આદિ છે કારણેને નિમિત્તે છકાયના જીવોની રવાના અભિપ્રાયથી લેવો જોઈએ તથા એ પરિગ્રહ વિરત સાધુએ ગમે તે પ્રકા ગાતકને ઉદય થયેલ હોય તો પણ પિતાને માટે કે અન્યને માટે કદી પણ ઔષધિ આદિને સંગ્રહ કરવો જોઈએ નહી મુનિને માટે જે જે ઉપકરણે રાખવાનું આગમમાં વિધાન છે, તે તે ઉપકરણ તેણે શીત, તડકે આદિથી નડતી મુશ્કેલીઓથી બચવા માટે અને સાવદ્ય વિરતિરૂપ સત્તર પ્રકારના સયમની રક્ષાને માટે કે રાગદ્વેષ પરિણતિ વિના પિતાની પાસે રાખવા જોઈએ તેની દરરોજ યતનાપૂર્વક પ્રમાજના આદિ કરીને રાત્રે કે દિવસે તેમને યતનાપૂર્વક મૂકવા તથા લેવા જોઈએ સૂત્રમાં २ "ववगयचुयचवियचत्तदेह" मा ५- सावते । म ॥ प्रभारी याय છે–સામાન્ય રીતે જે આહાર ચેતન પર્યાયથી રહિત થઈને અચેતન બની જાય છે તેને વ્યપગત આહાર કહે છે વિશેષ રૂપે જીવન આદિ ક્રિયાથી જે વિનિ ગત થાય છે તે વ્યુત અહાર કહેવાય છે ત્યાદિ દ્વારા જે ચેતના પર્યા યથી રહિય થાય છે તે આવિત કહેવાય છે અને જે જીવન સબ ધણી Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०५ सू०५ सयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् मूलम्-एवं से सजए विमुत्ते निस्संगो निप्परिग्गहरुई निम्ममे निस्सिणेहबधणे सव्वपावविरए वासीचदणसमाणकप्पे समतिणमणिमुत्तलेटकचणसमे समे य माणावमाणणाए समियरए समियरागदोसे समिए समिइसु सम्मदिट्टी समे य जे सव्वपाणभूएसु से हु समणे सुयधारए उज्जुए सजए सुमाहु सरण सव्वभूयाण सव्वजगवच्छले सच्चभासए संसारते ठिएय ससारसमुच्छिन्ने सययं सरणाण पारए पारए य सम्वेसि समयाण पवयणमयाहि अहि अठकम्मगंठीविमोयगे अट्टमयमहणे ससमयकुसले य भवड, सुहदुहनिविसेसे अभितरवाहिरम्मि सया तवोवहाणम्मि य सुरज्जुए खते दते य हियनिरए इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेल -जल्लसिघाणपरिटावणासमिए मणगुत्ते वइगुत्ते कायगुत्ते गुत्तिदिए गुत्तवभयारी चाई लज्जुधपणो तवस्सी खंतीखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अवहिलेस्से अममे अकिचणे छिन्नगथे निरुवलेवे सुविमलवरकसभायण चेव मुकतोए सखे विव निरजणे विगयरागदोसमोहे कुम्मोइव इदियसुगुत्ते, अच्चकणग व जायसवे, पुक्खरपत्त व निरुव त्यक्त कहा जाता है । इस तरह इस मूत्र द्वारा चौथी समिति की आराधना प्रकट की गई है ऐसा जानना चाहिये ॥मू-४ ॥ રહિત થાય છે તે ત્યત આહાર કહેવાય છે, આ રીતે આ સૂત્ર દ્વારા ચાથી સમિતિની આરાધના પ્રગટ કરવામાં આવી છે તેમ સમજવું જોઈએ સ ૪ Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ प्रश्नध्याकरणसूत्रे लेवे, चदो इव सोमयाए सूरोव्व दिसतेये, अचले जहमदरे गिरिवरे, अक्सोभो सागरेव्व थिमिय पुढवी विय सत्वफासविहे तवसावि य भासरासिच्छन्नेव जायतेए जलि - यहुयासणो विव तेयसा जलते गोसीसचंदणं पिव सीयले सुगंधीय हरओ विव, समियभावे उग्घोसियसुनिम्मलं आयसमडलतल व पागडभावेण सुद्धभावे, सोंडीरो कुजरो व, वसभो व जायथामे, सीहोत्र जहा मिगाहिवे होइ दुप्पधरिसे, सारयसलिल व सुद्धहियए भारडे चेव अप्पमते खग्गिविसाणं एगजाए खाणू व उड्ढकाए सुण्णागारेव्व अप्पडिकम्मे सुष्णागारावणस्सतो निवायसरणप्पडवज्झामणमित्र निष्पकपे जहा खुरोचेत्र एगधारे जहा अहीचेव एगदिट्ठी आगास चैव निरालवे विहगे विव सव्वओ विप्यमुक्के कयपरनिलए, जहा चेव उरए, अप्पडिबद्धो अनिलोव्व, जीवोव्व अप्प डिहगई, गामे गामे य एगराय नगरे नगरे पचराय दूइज्जते व जितिदिए जियपरिसहे य निभए विऊ सचि ताचित्तमीस एहि दव्वेहि विरागयगए सचयओ विरए मुत्ते लहुगे निरवकखे जीवियमरणासविष्पसुक्के निस्सध निव्वण चरित धीरे कारण फासयते सयय अज्झप्पज्झाणजुत्ते निहुए एगे चरेज धम्म ॥ सू० ५ ॥ ܐ एव ' इत्यादि टीका- ' एव ' एवम् = उक्तप्रकारेण साबुधर्मनिरत' ' से सजए ' स स यतः = सयमी ' विमुत्ते ' विमुक्त' सग्रहकरणाद् विमुक्त ' निस्सगो ' नि सङ्ग = Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंनी टीकाम०५ सू०५ सयताचारपालपम्य स्थितिनिरूपणम् ४७३ आसक्तिवर्जितः ' निप्परिग्गहरुई' निप्परिग्रहरुचिः-परिग्रहरुचिरहित रत्यर्थः, निम्ममे' निर्मम -ममत्वभावर्जितः 'निस्सिनेहबधणे' नि स्नेहवन्धनःनिर्गत स्नेहबन्धन यस्मात्सः-स्नेहबन्धनरहित इत्यर्थः, ' सव्यपावविरए' सर्वपापविरतः कायिकवाचिकमानसिकसर्वविधपापवर्जित इत्यर्थ , तथा-'वासीचदणसमाणकप्पे' वासीचन्दनसमानकल्पः, वासी="वमुला' इति भापामसिद्धा, सेव-वासी-तक्षकत्वेन अपकारी, तस्मिन् तथा चन्दनमिवोपकारकत्वेन चन्दनम्= उपकारी, तस्मिंश्च अपकारके उपकारके द्वयोरपि समानाम्सदृशः क्ल्पः आचारो यस्य स तथोक्तः । यथोक्तम् " योमामपकरोत्येप, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥ १॥" 'एच से ' इत्यादि टीकार्य-(एव) इस प्रकार साधु धर्म में लवलीन यना हुआ ( से सजए ) यह सयमीसाधु (विमुत्ते ) सग्रह करने से विमुक्त बन जाता है (निस्सगो) आसक्ति से वर्जित हो जाता है (निप्परिग्गहराई) परिग्रह की रुचि से रहित हो जाता है ( निम्ममे ) ममत्वभाव से वि. हीन हो जाता है (निस्सिणेयधणे ) स्नेहरूपयधन से मुक्त बन जाता है (सव्वपावविरए) कापिक, वाचिक एव मानसिकसवेंप्रकार के पापों सेविरत हो जाता है (वासीचदणसमाणकप्पे ) तथा वासी (वसुला) के जैसे अपकारक में और चदन के जैसे उपकारक में एकसा आचार वाला बन जाता है । जैसे कहा है " यो मामपकरोत्येप, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ। शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम् ॥१॥" ___ -मा रे माधु धर्ममा दीन पनेस " से सजए" ते सयभी साधु " विमुत्ते " सन २२वाना यथा विभुत यई लय छ, “निस्सगो" मासतिथी २डित मनी नय छ, “निप्परिंगहराई " परियडनी रस्थिी रहित थ लय छ, “निम्ममे" ममत्व मा विनाने। मनी जय छ, “निरिसणेह ने ३५ सघनथी भुत थ य छ, “सव्वपावविरए" यि. वापिड मने मानसिड से सर्व प्रश्ना पापाथी वि२त थ य छ " वासी चदणसमाणकप्पे" तथा वास “वसुला" नवा अ५७१२ प्रत्ये तथा ચદનના જેવા ઉપના પ્રત્યે એક સરખા બની જાય છે જેમકે કહ્યું છે " यो मामपकरोत्येप, तत्त्वेनोपकरोत्यसौ । शिरामोक्षायुपायेन, कुर्वाण इव नीरजम् ॥ १॥ म ११० - Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नध्याकरणसूत्रे 'सरण। शरणम् 'सयनगरच्छले ' सननगरमल -सनीयोनिषु करुणामावयुक्तः, 'सच्चभासए य ' सत्यभापफच, सत्यभापारिवेक्तत्पर तया-'ससारते ठिये य' ससारान्ते स्थिताश्च-भाषिजन्मरहितत्वात् , इममेनार्थ शन्दायेन्तरेणाह 'ससारसमुछिन्ने ' ससारसमुन्छिन्न ससार =चतुर्गतिलक्षणः समुन्छिन्नो येन सः, अतएर 'सयय ' सततम् ' मरणाण ' मरणाना 'पारए' पारगः-मुक्तस्यो' त्पत्त्यभावेन मरणाभान्मरणपारगत्व पोभ्यम् । तथा-'पारगे य' पारगश्च 'सन्वेसि ससयाण' सर्वेपा सशयानाम्न्सनसशयोन्छेदक इत्यर्थ , तथा 'पवयण मायाहिं अट्ठहिं प्रवचनमातृभिरप्टाभि =पञ्चसमितिविगुप्ति ख्यामि साधनभूतामिः करनेमें तत्पर-बन जाता है । तथा(सरण मध्यभृयाण) समस्त भूतो का रक्षक बना हुआ वह साधु (सव्वजगवच्छले) सर्व प्रकारकी जीव योनियों के ऊपर अपार करुणाभाव से सहित हो जाता है। (सच्चभासए) उसकी भाषा में मत्यवादिता की छाप लग जाती है और वर (ससारते ठिए) आगामी जन्मसे रहित होनेके कारण ससार के अत में स्थित हो जाता है । इसी वातको सूत्रकार शब्दान्तरसे समझाते हैं(ससारसमुच्छिन्ने) उस साधुका चतुर्गतिरूप ससार समुच्छिन्न हो जाता है । अत एव ( सयय मरणाणपारएं) वह सतत् मरण का पारगामी बन जाता है। क्यो क्ति मुक्त जीव की फिर ससार मे उत्पत्ति नही होती है, इसलिये उसका मरण भी नही होता है, अत इसी भाव को लेकर वह मरण का पारगामी बन जाता है। ऐसा कहा गया है। (सन्वेसिं ससयाण पारए) वह समस्त प्रकारके संशयो का उच्छेदक निए! साधकाने त५२ सनी 14 छ तथा “सरण सव्वभूयाण" समस्त यानी २क्ष गनेस ते साधु " सव्वजगवच्छले" सब जानी 4 योनिया ५२ अपार ४२माथी युक्त माना तय छ "सच्च भासए" तेनी वालीमा सत्यपालितानी छ।५ जागी जय छ भने ते “ससारते ठिए " सावतामयी રહિત હોવાને કારણે સંસારના અન્તમાં સ્થિત થઈ જાય છે એ જ વાતને સૂત્રકાર भी शत शwall ३२३२थी समन छ-" ससारसमुच्छिन्ने" ते साधुने। सारगति३५ स सा२ समुशिन 20 य छ तथी “ सयय मरणाणपारए" તે કાયમને માટે મરણને પારગામી બની જાય છે, કારણ કે મુક્ત જીવની સંસારમાં ફરીથી ઉત્પત્તિ થતી નથી, તેથી તેનું મરણ પણ થતું નથી તેથી એ सावन आर "ते भरना पारगामी मनीय छ" धुछ “सव्वेसि ससयाण पारए" ते समस्त प्रा२ना सशयाना निवा२४ २७ जय छ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ०५ सू ५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् " " ' " " 'अमराठी विमोय ' अष्टकर्मग्रन्थिविमोचक =अष्टौ = अप्टसख्यका ये कर्मग्रन्ययस्तेषा विमोचकः, तथा - ' अहमयमहणे ' अष्टमदमयनः=अष्टमदस्थाननाशकः ' ससमयकुसलेय' समय कुशलथ = स्वसिद्धान्त निपुणश्च चकारात् परसमयकुशल ' भवइ ' भवति । तथा-' सुहृदुक्खनिविसे से' सुखदुःख निर्विशेषः सुदुःखयोशोकादिरहित इत्यर्थः, 'अभितरसाहिरस्मि तवोरहाणम्मि' आभ्यन्तरवा तप उपधाने, तत्र - चित्तनिरोधप्राधान्येन कर्मक्षपणहेतुत्वात्मायश्चित्तादिषट्कम् - आ भ्यन्तरम् । नाद्यशरीरस्य परिशोपणेन कर्मक्षपणहेतुत्वादनशनादिपट्क बाह्यम्, अन योर्द्वन्द्रः, तस्मिन्, तप उपधाने= तपएव मोक्षमार्गस्योपष्टम्भकत्वादुपधान तस्मिन्, सया सदा सुट् हुज्जए सुष्ठुद्यत = सम्यक्तया तदाराधने तत्पर हो जाता है । तथा (पावयणमायाहि अट्टहिं ) पाचसमिति, तीन गुप्ति रूप अष्ट प्रवचन माताओ के नल पर वह (अट्टकम्मगठीविमोयणे ) आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थियो को छोड़नेवाला वन जाता है। (अट्टमयमरणे) शुद्ध सम्यग्दर्शन का पालनकर्ता होनेके कारण वह आठ मदो का विनाशक होता है । (ससमयकुसले य ) स्वसमय में पूर्ण निष्णात वन जाता है तथा चकारसे परसमयका ज्ञाता भी वन जाता है । (सुहदुक्ख निव्विसेसे) सुख और दुःख उसे एकसे प्रतीत होने लगजाते है। वह उनमें हर्ष और विषाद नहीं करता है । (अभितरवाहिरम्मि तवोवहाणम्मि) चित्तनिरोधकी प्रधानता से कर्मक्षपण के हेतुभूत होने के कारण प्राय चित्त आदि छह प्रकार के आभ्यन्तर तप रूप उपधान में तथा बाह्य में शरीर के परिशोषण से कर्मक्षपण के हेतु होने से अनशन आदि वारह प्रकार के बाह्य तपरूप उपधान मे सदा ( सुटुज्जए ) अच्छी तरह 66 पवयणमायाहिं अहिं " पाय समिति श्रणुगुसिथी भाः प्रवथन भातासोना गजधी ते " अटुकम्मगठीविमोयणे " आठ अजरना भनी गाठीने छोडावनार मनी लय " अट्टमयमहणे " शुद्ध सभ्यग्रहर्शनना पासनज्र्ता होवाने भर તે આઠ મદને વિનાક હોય છે " ससमयकुसले य" स्वसमयमा पू નિષ્ણાત બની જાય છે તથા પારથી પર સમયના જાણુકાર ખની જાય છે सुहदुक्खनिव्विसेसे ” સુખ અને દુખ તેને સરખા લાગવા માટે છે તે તેમા હર્ષ કે વિશાદ કરતા નથી अभितर बाहिरम्भि तोवहाणम्मि ” वित्तनिश ધની પ્રધાનતાથી કર્મક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે પ્રાયશ્ચિત્ત આદિ છ પ્રકા રના આભ્યન્તર તપરૂપ દેવાને ઉપધાનમા તથા બાહ્યમા શરીરના રિશેષણથી કમ ક્ષયના હેતુભૂત હોવાને કારણે અનશન આદિ ખાર પ્રકારના ખાા તપ રૂપ ઉપધાનમા સદા सुदुज्जए" भारी रीते ते तत्पर था लय छे, भेटते "L " "( قى 66 Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नम्याकरणसूत्रे इत्यर्थः तथा खते क्षान्तः क्षमावान् दत्ते य' दान्तथन्द्रियदमनकारी " " 6 च, तथा - ' डियनिरए ' हितनिरतः = आत्म कल्याणपरायण इत्यर्थः तथा-' इरियासमिए' ईर्यासमितः ' भासासमिए ' भाषासमित 'एसणासमिए ' एपणासमितः ' आयाणमडमत्त निवास मिए ' आहानभाण्डामात्र निक्षेपणासमितः ' उच्चारपासरण खेल नल्ल सियाण परिविावणियासमिए' 'उपासनणखेल सिंघा समिए ' उच्चारण श्लेष्मसिद्र्याणजलपरिष्ठापनिकाममित, ' मणगुत्ते ' मनोगुप्त -' वयगुत्ते ' वचोगुप्तः, ' कायगुत्ते ' काय गुप्तः ' गुत्तिदिए ' गुप्तेन्द्रियः, गुप्त नभयारी गुप्तब्रह्मचारी, एसामर्था: पूर्व व्याख्याताः 6 1 1 तथा فال נ उच्चार वह तत्पर हो जाता है अर्थात् बाह्य और आभ्यन्तर तपो की आराधना वह बहुत अच्छी तरह से किया करता है । (ग्वते) सब जीवों पर वह क्षमाभाव रखता हुआ ( दते ) और अपनी इन्द्रियों का दमन करता हुआ (हिरिए ) आत्मकल्याण करने में परायण बन जाता है । तथा (हरियासमिए ) ईग्रीसमिति से युक्त (भासासमिए) भाषा समिति से युक्त, (एसणासमिए) एपणासमिति से युक्त ( आयाणभडमत्तनिखेनगासमिए) आदान भाडमत्रनिक्षेपणा समिति से युक्त तथा ( उच्चार पासवण खेलसिंघाण जल्ल परिद्वावणियासमिए) प्रस्रवणखेल सिंघाणजल्ल परिष्ठापनिका समिति से युक्त (मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुते ) मनोगुप्ति, वचनगुप्ति कायगुप्ति इन तीन गुप्तियो से गुप्त-रक्षित आत्मप्रवृत्ति वाला बना हुआ (गुतिदिए ) अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण अकुश रखने वाला बन जाता है ( गुत्त भयारी ) ब्रह्मचर्य - व्रत की नौ कोटि से सदा रक्षा करने वाला होता है । तथा फिर કે બાહ્ય અને અત્યંતર તપેટની આરાધના તે અહુ સારી રીતે કર્યા કરે છે " खते " रेलवे पर ते समानलाव राखतो " दते " मने पोतानी इन्द्रियोनु इभन उरतो " हियविरए " आत्मज्झ्या श्वामा परायायु जनी लय तथा " इरियासमिए " र्ध्या समितिथी युक्त " भाषासमिए ભાષા સમિતિથી યુક્ત, " एसणासमिए " भेषणा समितिथी युक्त, आयाण-भड मत्तनिक्वणासमिए " महान लाई भत्र निचपणा समितिथी युक्त तथा उच्चार पासवण खेल जल्लसिंघाणपरिट्ठा व नियासमिए " उभ्या असल सह सिधाणु 'परिण्डापनि। समितिथी युक्त मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते " भनाशुसि વચન-ગુપ્તિ અને કાયગુપ્તિ, એ નણે ગુપ્તિથી ગુસ-રક્ષિત આત્મ પ્રવૃત્તિ पाणी मनीने “ गुत्तिदिए ” पोतानी इन्द्रियोपर पू अङ्कुश रामनार बनी જાય છે. गुराब भयारी " ब्रह्म प्रतनी नव असे ग्रहा रक्षा अश्नार ८८ 66 " Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०५० ५ सयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८७२ 'चाई ' त्यागी मर्वसङ्गत्यागात् , 'लज्जू' लज्जापान-मयमी 'धण्यो' धन्यः - सम्यगज्ञान सम्यग्दर्शनसम्यक्चारित्ररूपधन भयोग्यत्वात् , 'तवस्सी' तपस्वी अगस्ततपोयुक्तत्वात् , ' सतिमयमे ' शान्तिक्षम = कल्यादि सामर्थ्य सत्यपि क्षान्त्या-क्षमागुणेन क्षमते-सहते यः स तथोक्तः, तथा-'जिईदिए ' जितेन्द्रियः, ' सोहिए ' गोधित -शुद्धः - क्षालितमिथ्यात्वादिमिमलत्वात् , ' अणियाणे ' अनिदान:-निदानार्जितः, 'पहिलेम्से ' अबहिर्लेश्य - 'अ' अविद्यमाना नदिः सयमाद् सहि लेश्या अन्त. करणवृत्तिः, यम्य सोजहिर्लेश्यः, सयमान्त करण इत्यर्थः, तथा 'अममे' अमम'-ममत्ववर्जित , ' अकि(चाई ) सर्व सग का परित्याग कर देने से वह त्यागी कहलाने लगता है । (लज्जू) लजावान बन जाता है-वह सदा इस बात का ध्यान रग्वता है कि कहीं ऐसी प्रवृत्ति मुझसे नयन जावे जो सयम मार्ग के विरुद्ध होकर मुझे लजाने वाली हो। ऐसा वह सयमी (धण्णा) सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चारित्र स्प धन लाभ के योग्य हो जाने के कारण धन्य माना जाता है । तया (तवस्सी)प्रशस्ततपों को आचरित करने वाला होने से तपस्वी कहलाने लगता है, तथा (खतिस्खमे ) लब्धि आदि रूप सामर्यसपन्न होने पर भी बइ क्षमागुण से सब कुछ सहने वाला स्वभाव बन जाता है। इस तरह (जिइदिए ) जितेन्द्रिय, (सुद्ध) मित्यात्वादि कर्ममलक्षालित होने से शुद्ध (अणियाणे ) निदान से रहित, (अहिलेस्सो) अपहिर्लेश्यसयमयुक्त अन्तः करण वाला (अममे) ममता से रहित ( अकिंचणे) थाय छे त्या चाई" सर्प सपना त्याग गाथी ते त्यागी बापा सा छ " लज्जू" ते मरथी तथा महारथी हीना स२० नय છે અથવા લજજાવાન બની જાય છે તે હમેશા તે વાતની કાળજી રાખે છે કે મારાથી કદાચ એવી પ્રવૃત્તિ થઈ ન જાય કે જે સયમ માર્ગની વિરૂદ્ધ जापान ४ो मारे AM ५ सेवा ते सयभी “धण्णो" सभ्यज्ञान, સમ્યક્ દર્શન, અને સમ્યક ચારિત્રરૂપ ધનલાભને યોગ્ય થઈ જવાને કારણે धन्य भनाय छे तथा “ तबस्सी" प्रशस्त तो उ२ना डावाथी तपस्वी उडे वावा हा छ, तथा “तिम्खमे" Aध माहि३५ सामथ्र्य युक्त डापा છતા પણ તે સમાગુણથી બધું સહન કરવાની વૃત્તિવાળો થઈ જાય છે આ शत “जिइ दिए" Graन्द्रिय, “ सुद्ध" भिरवाह भभजन सय थाने २) शुद्ध, “ अणियाणे " निहानथी हित, "अवहिलेस्सो" समडिसश्यसयभी मात २५पाणे “ अममे" ममताथी २डित, “ अकिंचणे" मध्यन Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० प्रश्नव्याकरण , चणे 'अकिञ्चनः - निर्द्रव्यः, 'छिन्नगवे ' छिन्नग्रन्थः- पायाभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, तथा - ' निरुपलेवे ' निरुपलेपः = रागद्वेपनर्जितः, तथा-' सुनिमलनरकममायण चैव सुविमल पर कांस्य भाजनमित्र = मुरिमल = निर्मल यद्वारकास्यभाजन तदिव 'विमुत्ततोए' विमुक्ततोयः=जलले परहित, श्रमणपक्षे सम्बन्ध हेतुम्नेहर्जित इत्यर्थः तथा - ' सखे विन निरब्जणे' शख इन निरन्जनः, अय भाग:- यथा शखो निर- जनोऽर्थाच्छुको भरति तथा साधुरपि निरव्जनः रागादिकृष्णतारहितो भवति । 'विग रागद समोहे ' विगतरागद्वेपमोह, निगतानष्टा रागद्वेष मोहाः यस्मात् सः तथा 'कुम्मो इझ' कर्म इव दिए गुत्ते' इन्द्रियेषु गुप्त - यथा कच्छपो ग्रीवादि स्वाङ्गानि सगोप्य गुप्तो भरति तथैव साधुरपि निपयेभ्य इन्द्रियाणि सगोप्य गुप्तो भनति । तथा-'जचकणग व' जात्यकनकमिवशुद्धकाञ्चनमिव 'जाय रूवे ' जातरूप. = रागादिक्षाररहितत्वात्, स्वस्वरूपसम्पन्नः, तथा 'पुखरपत्त व ' अकिंचन भाव से युक्त, (छिन्नगये) बाह्य और आभ्यतर परिग्रह से वर्जित, बना हुआ वह साधु ( निरुपलेवे ) राग और द्वेष से निर्लिप्त बन जाना है और (सुविमलवरक सभायण चेव विमुक्ततोए) निर्मल कांस्यपात्र की तरह जल से मुनिपक्ष में सम्बन्ध के हेतुभूत स्नेह से रहित होता हुआ (सखेविव निरजणे ) शख की तरह निरजन- शुक्ल अर्थात रागादिक की कृष्णता से रहित हो जाता है । इसिलिये वह (विगयरागदो समोहे) राग द्वेष एव मोह से रहित हो जाता है तथा ( कुमो इव इदिय मुगु ) कूर्म - कच्छप की तरह इन्द्रियगुप्त कहलाता है अर्थात् जिस प्रकार कच्छपग्रीवादिक अपने अवयवों को छुपाकर शरीर में गुप्त हो जाता है उसी प्रकार वह साधु भी विषयों से इन्द्रियो को हटाकर सुरक्षित बन जाता है । तथा (जवण व जाग्ररुवे) लावधी युक्त, " छिन्नगथे" मात्र भने आल्यन्तर परिवहथी रडित मनेस ते साधु "निरुवलेवे" राग अने द्वेषथी सक्षिप्त जनी लय छे, भने “ सुबिमलवर -कसभायणं चैव विमुततोए' निर्माण जसाना पात्रथी प्रेम भजथी रहित भुनियक्षे असधना हेतुलूत स्नेड्थी रडित-थ ने " सखेविव निरजणे " शमना देवी निरन्न-सह भेटले } " विगयरागदो समोहे " राजाहिनी आजाराथी रहित થઈ જાય છે, તથા कुमो इव इदियसुगुत्ते ' ...” કાચમાના જેવા ઈન્દ્રિયગુપ્ત કહેવાય છે. એટલે જેમ કામા પેાતાના ગ્રીવાદિક અવયવેશને શરીરમા છુપાવીને શુસ થઇ જાય છે તેમ સાધુ પણ વિષયેામાથી ઈન્દ્રિયાને હટાવીને सुरक्षित मनी लय छे तथा “जन्चकण व जायरूवे " शुद्ध सुवानी भ ९८ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिमी टीका भ ५ सू०५ संयताचारपाल्कस्यस्थितिनिरूपणम् ८८१ 1 - पुष्करपत्रमिच-मपत्रमिन ' निरुपलेवे ' निरुपलेप' -भोगगृडिलेपापेक्षा, तथ ' सोमायाए ' सौम्यतया = सौम्य परिणामेन 'चदो इन' चन्द्र इव, तथा - ' मूरोव्य ' सूर व ' दिसतेए, दीप्ततेजाः = दीप्त तेजो यस्य स तथा - गिरिपरे मदरे ' गिरिन मन्दरः ' जह' यथा इन सकलपर्वतश्रेष्ठमेत 'अच अचळ = परीपादौ सत्यपि निश्चलः, तथा-' अक्खोभे ' अक्षोभः = क्षोभवर्जितः - निस्तरङ्ग, ' सागरोध ' सागर इन ' थिमिए' स्तिमितः = कपायतरद्गनर्जिनः, तथा - 'पुढची निव' पृथिवीन 'सच्चफामविसहे ' सर्वस्पर्शविपदः - शुभाशुभस्पर्शेषु समचित्त इत्यर्थ?' तथा - ' तामाचि य ' तपसाऽपि च हेतुभूतेन ' भासरासिठनैन ' जाततेर ' भस्मराशिच्छन्न इव जाततेजा, यथा-भस्माच्छन्नो नहिरुपरि शुद्ध वर्ण की तरह वह रागादिकरूप क्षार से रहित होने के कारण अपने निजरूप से सम्पन्न हो जाता है । (पुक्खरपत्त व निम्वलेवे ) कमल पत्र की तरह भोगों में गृद्धिरूप लेप से वह रहित बन जाता है । (सोमायाए चदोsa ) सौम्यता से वह चद्र की तरह (सूरोव्वदित्ततेए ) सूर्य की तरह वह दीस तेज चमकने वाला हो जाता है। तथा (गिरिवरे मदरे जह अचले ) गिरि वर सुमेरु पर्वत की तरह वह परिपह आदि के आने पर अचल सुस्थिर बना रहता है । और (अम्खो भो सागरोव्व ) निस्तरग सागर की तरह अक्षोभ क्षोभ से रहित बन जाता है (विमिए) स्तिमित-कपायरूपतरगो से रहित पन जाता है। तथा (पुढचीविय सव्वकासविसहे ) जिस प्रकार पृथ्वी समस्त प्रकार के स्पर्शो को सहन करती है उसी प्रकार वह भी शुभ और अशुभ स्पर्शो में समचित्त हो जाता है । ( तवसा वि य भासरासिच्छन्नेव તે રાગાદિક રૂપ ક્ષારચી રહિત હાવાને કારણે પેાતાના નિřરૂપથી સપન્ન થઈ लय छे' पु+सरपत्तत्र निरुपलेवे " उभाण पत्र प्रेम पालीथी अलिप्त रहे छे तेभ ते लोगोथी मक्षिप्त यह नये " सोमायाए चट्टो इत्र " सौभ्यताभा ते यन्दना ?वे! “सूरोव्य दित्ततेए " सूर्यनी प्रेम ते हीस ते-तेनस्वी थ જાય છે તથા ' गिरिवरे मदरे जह अचले " शिविर शुभेरुनी प्रेम ते परीषडु हिनडे तो पशु अयस, सुस्थिर रहे छे भने “ अक्सोभो सागरोव्व " तर गइयी सागरना वो ते मोल झोल रहित मनी लय हे " यिमिए” મ્નિમિત–ષાયરૂપ તરગાથી રહિત બની જાય છે તથા " पुढवीविय सन्त्र फासविस हे " प्रेम पृथ्वी अधा अझरना भ्यशने सहन શુભ અને અશુભ સ્પર્ધામા સમભાવવાળા થઇ જાય છે छे ते ते प तसा विय भास प्र १११ करे " Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ प्रमभ्याकरण हकत्वममकाशयन्नप्यन्तर्जाज्वल्यमानो भवति, तर अमणो बहिः शुष्को समर कान्तिरहितोऽप्यन्तः स्तपोजनितदीप्त्यादेदीप्यमानो भवतीति भार । तथाजलिय यासणो नि' ज्वलितहुताशनइय-पदीप्तानिय तेयसा' तेजसानिरूपतेजसा 'जलते ' ज्वलन्-दीप्यमानः, भावतमोविनाशकत्वात् 'गोसीस पदण पिव ' गोशीपचन्दनमिर 'सीयले शीतला मनस्तापोपशमनात् 'सुगधी न' सुगन्धिना, सरभिगन्धेन शीलमोगध्याव ' हरओ विव' पदक इवन्जलाय इव 'समियभावे ' समिकभारः सम एव समितः, स भानो यस्य सः, अय भाव -यथा इदो वाताभावे तरगाभावेन निम्नोन्नतराहित्येन समाकारतया परि जायतेए) भस्म राशि से छन अग्नि जिस प्रकार ऊपर से अपने दाहकस्व परिणामको प्रकाशित नहीं करती हुई भी भीतरमें जाज्वल्यमान रहा करती है उसी तरहसे यह साधु भी बाहिरसे शुष्ककाय, रूक्ष और कान्तिरहित होता हुआ भी भीतरमें तपजनित दीप्तिसे देदीप्यमान रोता है। तथा-(जलिय यासणोवियतेयसा जलते) प्रदीसबहि जिस प्रकार अपनी प्रभा से चमकती रहती है उसी प्रकार यह भी भावतम का विनाशक होने से ज्ञानरूप तेज से चमकता रहता है। (गोमीसचदणंपिव सीयले ) गोशीर्ष चदन जिस प्रकार शीतल और सुगधित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मनस्ताप के उपशमन से शीतल होतो हैं और (सुगधीय हरओविव समियभावे ) शील की सुगंधी से हूद की तरह समभाववाला अर्थात जिस प्रकार जलाशय वाय के अभाव से तरगो के उत्थान पतन से रहित होने के कारण ऊँचा नीचा नहीं रासिच्छन्नेव जायतेए' रामना सा नाय उसी सिम परथी पातानी દાહકતા પ્રગટ કરતી નથી છતા અદર સળગતી પ્રકાશિત રહે છે, તેમ તે સાધુ પણ બહારથી શુષ્ક શરીર વાળે, રૂક્ષ અને કાન્તિ રહિત હોવા છતા ५ ४थी त५ नित तथा दीप्यमान जाय छ " जलिय हुयासणोविव तेयसा जलते " प्रवास मसिम पोताना तथा यती २ छ तम ते प लावतमना विनाश डापाथी ज्ञान ३५ तेथी न्यभरती २७ छ “गो सीसचदणपिव सीयले ' म जोशीष यह शीत भने सुगधित डाय छ ते मारे मनना तानु शमन थपाने र शीतल डाय छ भने “ सुग घियहरओविव समियभावे" शनी सुगधथी सरोवरना समान समसार વાળ હોય છે, એટલે કે જેમ વાયુના અભાવે તરગોના ઉત્થાન તથા પત નથી રહિત હોવાને કારણે સરોવરની સપાટી ઊંચીનીચી લાગતી નથી પણ Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी टीकाठ अ० ५ सू०५ सयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८८३ लक्ष्यते, तयैव श्रमणोऽपि मानापमानयोरननुभवात् हर्पग्लान्योरभानात्मदैकरूप एव भवतीति । तथा-उग्घोसियमुनिम्मल ' मार्जितमुनिमलम् मार्जित-तलोपरिस्थितमलापनयनेन, अतएप-सुनिर्मल-मुपसन्नम् , ' आयममडलतल ।' आदशमण्डलतलमिव-आदर्शः-दर्पणस्तस्य यन्मण्डलवल मण्डलाकार तल तदिव 'पागडभाषेण ' प्रफटभावन-अमायित्वादनिगहितभावेन ' मुद्धभावे ' शुद्धभावः शुद्धः भावः स्वरूपो यस्य स , तथा-'कुजरो ' कुन्जर इस 'सौडीरो' शौण्डीर:= परीपहसैन्यनिर्दलनसमर्थः, 'वसभो व ' पभ र 'जायथामे' जावस्थामा यथा पभो भारोद्वहने सामथ्र्ययुक्तो भवति, तथर स्वीकृतमहातभारोतहने साम र्थ्यसपन्न इत्यर्थ । तथा-'सीहो व ' सिंह इच अमणः, अमुमेवार्थ स्पष्टयवि'जहा' यथा सिंह 'मिगाहिये , मृगाधिप -अथ च तैः ‘दुप्पधरिसे' दुष्पधृ. दिखता है किन्तु एकसा आकार वाला परिलक्षित होता है उसी प्रकार यह साधु भी मान और अपमान के अनुभव से रहित होने के कारण हर्प और ग्लानि, इन दोनों प्रकार के भावो से रहित बन जाता है, अनावह सर्वदा एक रूप में ही रहा करता है। (उग्घोसिय मडल आयसमडलतल व पागडभावेण सुद्धभावे ) माजने से-ऊपर के मैल के हटा देने से-निर्मल बने हुए दर्पणमडल की तरह इस का स्वरूप अमायी होने के कारण प्रकट रूप से शुद्ध रहता है । ( सोंडीरो कुजरो व) कुजर के जैसा यह शौ डीर-परीपहरूपी सैन्य के निर्दलन करने में समर्थ होता है। (वसभोव जायथामे) वृपम की तरह जातस्थामस्वीकृत महाव्रतरूप भार के वहन करने में शक्तिशाली होता है। (सीहोव जहा मिगाहिवे होइ दुप्पधरिसे) सिंह जैसे मृगो का अधिपति और उनके द्वारा अपराभवनीय होता है उसी तरह वह साधु भी એક સરખી લાગે છે એ જ પ્રમાણે સાધુ ૫ણુ માન અને અને અપમાનના અનુભવથી રહિત હોવાને કારણે હર્ષ અને શેક એ બન્ને પ્રકારના ભાવથી २२ मनी लय छे तेथी ते भेशा समभावधी १ २७ छ “ उग्घोसियमडल आय सम डलतलव पागडभावेण सुद्धभावे " भानपाथी- 6परनो मेट १२ ॥ નાખવાથી નિર્મળ બનેલ દર્પણની જેમ તેનુ સ્વરૂપ અમાથી હેવાને કારણે પ્રગટ ३१ १ २ "साडीरो कुजरोव" थीनी मितेशी १२-परी१७३पी सैन्यन। यधाए दी नावाने समय खाय छ “वसभोव जायथामे " वृपलानी म ते स्वीकृत मानत३५ मतनु पठन ४२वाने शतिशाणी हाय छे “ सीहोव जहा मिगाहिवे होइ दुप्पधरिसे " भनि भृगाना अधिपति तथा तेमनाथी Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ والے WRO प्रश्नमांकरणसूत्र प्या-अपरिभवनीयो ' होइ' भाति, तथैव सायुः परीपदरपगजितो भवति । तथा 'सारयसलिल ' शारदसलिलमिन-शरस्तुसम्बन्धिनलमिर मुदहिया' शुद्धादयः स्पच्छान्तः करण इत्यर्थ, तथा 'भारडे चेर' मारण्ड इमारण्डपसीव 'अपमत्ते' अप्रमताप्रमादवर्जित 'खग्गिनिमाण 'सगिरिपाणमिय यही'गेडा' इतिमसिद्धो बन्यचतुप्पदविशेषः, तस्य निपाण-मिर 'एग जाग' एकनात:यथा-खगिनः शृङ्गामेक भवति, तथैव साधुरपि रागवेपरहित एकाकी भवति । तथा-खाण्व ' स्थाणुरित ' उट्टकाए ' काय कायोत्सर्गकाले, तथा 'मु ष्णगारेष' सन्यागारमित्र अपतिकर्मा-शरीरसस्कारसर्जित इत्यर्थः, तया 'मुण्णा गारावणस्सतो' शून्यागारापणस्यान्तः शून्यस्यागारस्यापणस्य च अन्ताम्मन्ये 'निवायसरणप्पदीपज्झामणमिर' निर्शतशरणप्रदीपध्यापनमि-निर्वातो वातरहितो यः शरणमदीपः-गृहप्रदीपस्तस्य ध्यापनमिरम्पयरितशिसेव' निप्पक्पे' देशविरति श्रावको की अपेक्षा सफलसयम का अधिपति और परिपहों से अपराजित होता है। (सारयमलिल व मुद्धन्यिए) वह शरत् ऋतु सबधी जल के समान स्वच्छ अनः करण वाला होता है, (भारडे घेव अप्पमत्ते) भारडपक्षी के समान वह प्रमाद से वर्जित रोता है, (खग्गिविसाण व एगजाण) गेडो के सीग के समान वह एक जात होता है-अर्थात जैसे गेडा का श्रग एक ही होता है उसी तरह साधु भी रागद्वेप रहित होने से एकाकी ही होता है। (खाणूव उडकाए? स्थाणु जिस प्रकार उर्घकाय होता है उसी प्रकार साधु भी कायोत्सग के समय उर्ध्वकाय होता है। (सुण्णागारेव्व अपडिकम्मे ) शून्य गृह जैसे सस्कार विहीन होता है उसी प्रकार माधु भी शारीरिक संस्कार से धर्जित होता है । (सुण्णागारावणस्सतो निवायसरणप्पईवज्झामणमिव અજેય હોય છે તેમ સાધુ પણ દેશ વિરતિ શ્રાવકોની અપેક્ષાએ સકળ સચ भना मधिपति मन पहाथी अनित डाय छे “सारयसलिल व सुद्धहियए" श२४ तुना नी समान २१२० मत ४२पाणी जाय छ "भारण्डे चेव अप्पमत्ते" ला२७ पक्षानात प्रभार २खित साय छ खग्गिविसाण व एगजाए " गेसना शिानामत से साय छे भेटले કે જેમ ગેડને એક જ શિગડુ હોય છે તે પ્રમાણે સાધુ પણ રાગદ્વેષ डित बाथी यी डाय छे "साणकाए " स्याम पाय छे तेभ साधु ५५] प्रयासगना सभये पाय डाय छ "सुण्णागारेश्व अपडिकम्मे " मासी महान म सा२ विडीन डाय छ म साधु ५ शारीरि: स२ २डित डाय छ, "सुण्णागारावणस्सतो निवायसरणप्पड़ Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८५ 6 सुदर्शिनी टीका थ०५ सू०५ संयताचारपाकलस्य स्थितिनिरूपणम् निष्प्रकम्पः=दिव्याटुपसर्गस सर्गेऽपि धर्म व्यानादा निश्चल इत्यर्थ, जहा सुरो' यथा क्षुर' =क्षुर इव ' एगधारे चैत्र ' एस्थान, यथा क्षुरएकधारस्तथैव साधुत्सर्गरूपैकधारो भवति, वर्द्धमानपरिणामधारकइत्यर्थ, जहा अही' यथाऽहिः = अहिनिसर्प इत्र ' एगदिट्ठी चैन ' एकदृष्टि = मोक्षे बद्धलक्ष्य इत्यर्थः, तथा - ' आगास चैव निराल' आकाशमिन निरालम्म' । यथाऽकाशआलम्बनमर्जितम्तथैव श्रमitsपि ग्रामदेशकुलाद्याम्यनरहित इत्यर्थ, तथा ' विहगे विन' विहग हा पक्षीर 'सव्वओ' सर्वतः 'विप्मुके विमुक्तः निष्परिग्रह इत्यर्थः तथा - ' उरए निप्पकपे) शून्य घर और शून्य आपण दुकान के भीतर निर्वान (वायुरहित) प्रदेश में रखे हुए दीपक की प्रज्वलिन लो जेसे निष्प्रकप होती है उसी प्रकार साधु भी देवादिकृत उपमर्गों के आने पर भी धर्मध्यान आदि में निष्प्रकप निश्चल बना रहता है । (जहाखुरो चेव एगधारे) जैसे क्षुरा ऊस्तरा - एक धार वाला होता है उसी प्रकार साधु भी उत्सर्गरूप एक धार वाला होता है । अर्थात् - साधु के परिणाम प्रकृष्ट विशुद्धि को लिये वढते ही रहते है, वे प्रतिपाती परिणामों वाले नहीं होते हैं । (जहा अही चेव एगदिट्ठीं ) सर्प जिस प्रकार एक दृष्टिवाठा होता है उसी प्रकार साधु भी अपने लक्ष्यरूप एक मोक्ष में निषद दृष्टिवाला होता है । (आगास चे व निरालवे ) आकाशकी तरह वह आलयन - सहारा से रहित होता है अर्थात् साधु को ग्राम देश, कुल आदी का आलनन नहीं होता है। वह इन सन ग्रामादि से सर्वथा रहित ही होता है । (विहगे विव सन्चओ विष्पमुक्के) विहगपक्षी की तरह वह सर्वत. विप्रमुक्त होता है परिग्रह से वर्जित होता fee fotosवे "मासी घर भने भासो हुजननी अहर वायुनी असर રહિત સ્થાનમા રાખેલ દીવાની મળગતી જવાળા જેમ નિષ્પક પ ( સ્થિર ) હાય છે તેમ માધુ પણ દૈવાદિષ્કૃત ઉપસર્ગી નડતા છતા પણુ ધમ ધ્યાન આદિમા यस रहे छे " जहा खुरो चेव एगधारे " प्रेम क्षुरा-अस्त्रो भेट धारवाणी હાય છે તેમ માધુ પણ ઉત્સુગરૂપી એક ધારવાળા હોય છે એટલે કે સાધુની મનેવૃત્તિ પ્રકૃષ્ટ વિશુદ્ધિને માટે વધતી જ રહે છે, તે પ્રતિપાતિ પરિણાभोवाणा होतो नथा “ जहा अहीचेत्र एगदिट्ठी ” नभ साथ गोड दृष्टिवाणी હાય છે તેમ સાધુ પણ પાતાના લક્ષ્યરૂપ એક મેાક્ષમાજ લીન દૃષ્ટિવાળા હાય छे" आगास चेन निरालवे " आधरानी प्रेम ते निरावस भी होय छे भेटते કે સાધુને ગામ, દેશ, કુળ આદિનુ અવલ મનહાતુ નથી તે ગ્રામાદિ સમસ્ત અવલ બનાી રહિત હાય છે "विहगे विव सव्वओ विप्पमुक्के " विडग પક્ષીની જેમ તે સ પ્રકારે મુકત હોય છે-પરિગ્રહ રહિત હોય છે “ कय • Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ %3 प्रभभ्याकरण जहा' उरगो यथा-सर्प इव 'कयपरनिलए चेर' कृतपरनिलयश्चैव-कृत आत्र यीकृतः परनिलयो येन सः, अय भार:-यथा सर्पोऽन्यकृतनिले तिष्ठति, तथेत्र श्रमणः परकृतगृहे तिष्ठति । तथा- अनिलोय' अनिक इरम्परन हर 'अप्पतिबद्धो' अप्रतिमा-अप्रतिमन्याविहारीत्यर्थः, तथा 'जीयोग्य 'जीर इव 'अप दिहयगई' अपतिहतगतिः= सर्पदेशविहारीत्यर्थः । यत्र सर्वत्र 'चैत्र ' शन्दः समुच्चयार्थ., 'गामे गामे य' ग्रामे ग्रामे च 'एगराय' एकरात्र 'णगरे गगरे' नगरे नगरे 'पचराय' पञ्चरानम् , ' दूइज्जतो' द्रान-विहरन् निवास कुर्वनित्यर्थः, तथा ' जिइदिए ' जितेन्द्रियः, 'जियपरीसहे' जितपरिपड , अतएव 'निभ' निर्भयः 'विऊ ' विद्वान-तत्त्वम इत्यर्थः, 'सचित्तावितमीसएहि' है ( कयपरनिलए जहा चेव उरण ) सर्प की तरह वह दूसरे ने अपने निमित्त रनाये हुए घर में रहता है, अर्थात् जिस प्रकार सर्प अन्य चूहे आदि से बनाये गये बिल में रहता है उसी प्रकार साधु भी गृहस्थ के बनाये हुए घर में रहता है। (अप्पडिपद्धो अनिलोव्व ) अनिल पवन-की तरह वह अप्रतिबद्ध - प्रतिवन्ध से रहित होता है अर्थात् वह साधु अप्रतिवन्ध विहारी होता है। तथा (जीवोन्य अप्पडिहयगई) जीव की तरह वह अप्रतिहत गतिवाला होता है-उसका विचरण सर्वत्र होता है-उसे कीसी भी देश में विचरण करने का निषेध नहीं होता है। (गामे गामे य एगराय ) वह हर एक ग्राम में एक रात्रा तथा (णगरे णगरे य पचराय) तथा प्रत्येक नगर में पाच रात्रि तक (दइज्जते) ठहरता है। तथा (जिइदिए) जितेन्द्रिय (जियपरिसहे य) जितपरीषद अत एव (निन्मए) निर्भय (विऊ) विद्वान्-तत्त्वज्ञ, वह परनिलए जहा चेव उरए" सपना मत जान पाताना भाटे मनाया ઘરમાં રહે છે, એટલે કે જેમ સર્ષ ઉદર આદિએ બનાવેલા દરમાં રહે છે तम साधु ५५ १२थे मनासा घरमा २ छ “ अप्पडियद्धो अनिलोब' અનિલ-પવનની જેમ તે અપ્રતિબદ્ધ-પ્રતિબધથી રહિત હોય છે-એટલે કે તે मप्रतिम विडारी डाय छ " जीवोव्व अप्पडिहयगई" नी रेभ ते म તિહત ગતિવાળો હોય છે તેનું વિચરણ સર્વત્ર હોય છે તેને કોઈ પણ પ્રદ शमा वियरवाना विध खात नथी "गामे गामे य एगराय " ते ४२४ गाभा से रात्री तथा “ गरे गरे च पचराय " तथा प्रत्ये: नारमा पाय शनि सुधी “दइज्जते " जय छ तथा "जिइ दिए " Paन्द्रय" जियपरि सइय" ५५डाने सतना पाथी "निभए " निमय “ विऊ" विधान Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म० ५ २०५ संयताचारपालकस्य स्थितिनिरूपणम् ८८७ सचित्ताचित्तमिश्रकेपु 'दन्वेहि ' द्रव्येषु 'चिरागयगए ' विरागतां गतम् मूर्छा. राहित्यं प्राप्त , 'सचयओ' सञ्चयतः-सरयकरणात् 'विरए' पिरतः 'मुत्ते' मुक्ता बायाभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, 'लहुए' लघुका-गौरवमयत्यागात् , 'निरकखे' निरवकाक्षा आमादक्षा जितत्वात् , 'जीरियमरणासपिप्पमुत्ते' जीवितमरणागाविनमुक्ता जीरिताशामरणागाभ्या रहितः, 'धीरे धीर:-बुद्धिमान् , ' निस्सध' सन्धिरहित चातिपरिणाम यवन्ठेदाभागरात् , 'निधण' निण-निरतिचारम् ' चरित्त' चारित्र-सयम ' कायेण' कायेनकायल्यापारेण न तु मनोरयमाण 'फासयते ' स्पृशन् , तथा-'सयय ' सततम् 'अयप्पज्झाणजुत्ते' अध्यात्मध्यानयुक्त 'निहुए ' निभृत =उपशान्तः 'एगे' एका रागादिसहायार्जितः 'धम्म' धर्म-अवचारित्ररक्षण 'चरेज्ज ' चरेत्-अनुपालयेत् ।।सू०५॥ साधु (मचित्ताचित्तमीसएहिं दचेहिं विरागयगण) सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्यों में मृा रहितपने को प्राप्त होकर (सचयओ विरए) सचय करने से विरक्त हो जाता है और ( मुत्ते) नाह्य और आभ्यतर परिग्रह से रहित हो जाता है । इस तरह (लहुए ) गरिव जय के लाग से लघु यना हुआ श्रमण (निरवकखे) आकाक्षा से वर्जित होने के कारण (जीवियमरणासविप्पमुत्ते) जीवन की आशा और मरण की भयसे ररित हो जाता है । इस प्रकार (धीरे) इन समस्त पूर्वोक्त विशेपणों से विशिष्ट बना हुआ तत्वज्ञ श्रमण (निस्सध) चारित्रपरिणाम की सवि-व्यवच्छेद के अभाव से (निव्वणं) निरतिवार (चरित्त) चारित्रसयम को (कारण) काय के व्यापार से, नही की मनोरथ मात्र से (फासयते) धारण कर (अज्झप्पज्झाणजुत्ते ) अध्यास्मध्यान में लवलीन धनता हुआ (निहुए) उपशान्त भाव से सपन्न तत्वज्ञ वो ते साधु "सचित्ताचित्तमोसएहि दव्वेहिं विरागय गए' सचित्त, मचित्त मन भित्र द्रव्योमा भमत्व रहितताने प्रासरीने " सचयओ विरए" सड ४२पाथी वि२४d is onय छ भने " मुत" मा भने मास्यन्तर परियडथी २हित य नय छ मा रीते " लहुए " गौरपत्रयना त्यागी ६५ बनेर श्रम निरवकखे" साक्षायी २डित डावाने को “जीवियमरणा सविप्पमुत्ते" पननी मा भने भनी माथी २डित थ तय छ मा शत “धीरे" ते सघा विशेषथी युत आने dra श्रम " निस्स घ " सारित्र परिणामनी सधि-व्यवछेने मला " नियण " नितिया२ " चरित्त" यारित्र-सयमन 'कारण " अयन व्यापारथी-भना२यथा नही-" फासयते" धारण ४शने “अझप्पज्झाणजुत्ते " मध्यात्मध्यान सीन मनीने "निहुए" Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरणसूत्रे मूलम् - इमं परिग्गहवेरमणपरिराखणट्टयाए पावयर्ण भगवया सुकहियं अत्तहिय पेच्चाभावियं आगमेसिभद्द सुद्ध नेयाउय अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपाचाणं विउसमणं, तस्स इमा पंचभावणाओ चरिमस्स वयस्त हुति, परिग्गहवेरमणरवखण्ड्याए ॥ सू० ६ ॥ टीका -' इम च ' इत्यादि " इम च' इद चापरिग्रहनामक पञ्चम सरद्वार 'परिग्गहवेरमणपरिरक्खण याए' परिग्रहविरमणपरिरक्षगार्थतया परिग्रहविरमणस्य परिरक्षणमेव अर्थः प्रयोजन यस्य तत्, तदेव तत्ता, तया अत्र स्वार्थे तल, परिग्रहविरतिपरित्राणायेत्यर्थः, होकर (गे) रागादिक भावोंसे वर्जित होनेसे एक, ऐसा जो होता है वही (धम्म) चारित्ररूप धर्मको (चरेज) पालन करने वाला हो सकता है। भावार्थ सूत्रकारने इस सूत्र द्वारा यह स्पष्ट किया है कि परिग्रहविरत रूप साधु धर्म में लवलीन बने हुए मनुष्य की स्थिति कैसी हो जाती है। तथा वह इस स्थिति से सपन बनेगा तब ही पूर्णरूप से वह श्रमण धर्म के पालन करने का अधिकारी वन सकता है अन्यथा नही। सूत्र में यही विषय शब्दान्तरो से समझाया गया है ।। सू०५ ॥ फिर भी कहते है- ' इम च' इत्यादि० | टीकार्थ - ( इम च ) यह अपरिग्रह नाम का पाचवा सवर द्वाररूप ( पावयण) प्रवचन ( परिग्ग हवेरमणपरिरक्याए ) परिग्रहविरमग ઉપશાન્ત ભાવથી યુક્ત થઈ ને ‘નૈ” રાગાદિક ભાવાથી રહિત હાવાથી એક, એવા જે થાય છે તે જ ८८ धम्न शास्त्रिय धर्मनु “चरेज्ज" पासन दरनार થઈ શકે છે. ८८८ ܝܕ ભ વાય~~સૂત્રકારે આ સૂત્રમા એ સ્પષ્ટ કર્યું છે કે પરિગ્રહથી વિરક્ત થવા રૂપ ધમમા લીન બનેલ મનુષ્યની સ્થિતિ કેવી થઈ જાય છે તથા જ્યારે તે આ સ્થિતિએ પહેાચે ત્યારે જ તે સપૂર્ણ રીતે શ્રમણ ધ'નુ પાલન કરવાને પાત્ર ખની શકે છે ખીજી કાઈ પણ રીતે નહી સૂત્રમા એ જ વિષય જુદા જુદા શબ્દે દ્વારા સમજાવવામા આવ્યે છે ! સૂપ वजी हे छे - " इम च " इत्यादि 14 टीडअर्थ - " इम च" या परिश्रद्ध नामना पायभा सवरद्वार "पावयण' अवयन परिग्गहवेरमणप रिक्सणट्ट्याए " परियड विरभ व्रतनी रक्षाने भाटे "1 भग Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका १०५ सू। ६ सयताचारपार फस्य स्थितिनिरूपणम् ८८९ 'पारयण ' प्राचन ' भगाया' भगाता ' सुकहिय' मुफथितम् , ' अनहिय' आत्महितम् , ' पेचाभारिय ' मेत्यभाविकम् 'आगमेमिभद्द' आगमिष्यद्भद्रं ‘सुद्ध ' शुद्ध ' नेयाउय' नेयायिम् ' अडिल ' अकुटिलम् 'अणुत्तर ' अनुत्तर 'सव्वदुश्वपापाण' सर्वदुःसपापाना ' पिउसमण ' व्युपशमनम् । एपा व्या ख्या पूर्व गता । ' तस्स' तस्य-अपरिग्रहनामकस्य ' चरिमस्स' चरमस्य अन्ति मस्य ' मारदारस्स' सरद्वारस्य 'इमा पच भावणाओ' इमाः वक्ष्यमाणाः पञ्च भावना 'हुति ' भवन्ति । किमर्थं भवन्ति ? इत्याह-'परिग्गहवेरमणरक्षणयाए ' परिग्रहविरमणरक्षणार्थताये-अपरिग्रहपरिरक्षणार्थमित्यर्थः ॥ सू. ६॥ व्रत की रक्षा के लिये ( भगवया सुकरिय) भगवान ने कहा है । यह (अत्तहिय ) आत्मा का हितकारक है। (पेचाभाविय) परलोक में भी शुभ फल का दाता है । इसी निमित्त से यह (आगमेसि भद ) भविप्यत् काल में कल्याण प्रद है यह (सुद्ध) सर्वथा निर्दोप है । (नेयाउय) वीतराग सर्वज्ञ एव हितोपदेशक प्रभु द्वारा भापित होने से न्याय सपन्न है। (अकुटिल) प्रजुभाव का जनक होने से अकुटिल है। (अणुत्तर) सर्व श्रेष्ठ होने से अनुत्तर है। तथा (सव्यदुक्खपावाण) समस्त प्रकार के दुःख जनक ज्ञानावरणीय आदि अष्ठविध कर्मों का (चिउसमण) उपशमक है। (तस्स चरिमस्स सवरदारस्स) उस अन्तिम सचरद्वार की (इमा पचभावणाओ) ये वक्ष्यमाण पाच भावनाए हैं जो (परिग्गवेरमणरक्खणठयाए हुति) परिग्रह विरमण व्रत की रक्षा करने वाली होती है ।। सू०६ ॥ षया सुकहिय" लगवान ४ छ " अत्तहिय" आत्मानु हित॥२४ छ “पेशा भाविय" ५२ मा ५१ शुम ३॥ ना३ छे से रथे ते “आगमेसि भह "अविष्यमा स्याहायी छे, ते "सुद्ध" तदन निर्दोष छ " नेयाउय" વીતરાગ સર્વજ્ઞ અને હિતોપદેશક પ્રભુ દ્વારા કથિત હોવાથી તે ન્યાયયુક્ત છે " अकुडिल" मनुभावनु न बाथी ते टिम छ “ अणुत्तर " सर्वश्रेष्ठ डापाथी त मनुत्त२ छे तथा “सव्वदुक्सपानाण" समस्त प्रारना Hari शानाय RAILE -10 प्रा२ना उर्भानु “ विउसमण " 6पशमन ४२नार छ 'तस्स चरिमस्स सवग्दारस्स" ते मन्तिम स १२६२नी " इमा पचभावणाओ " 20 प्रमाणे पाय मापनासा छ २ "परिगग्गहवेरमणरक्षण ट्रयाए हुति " परियड वि२म प्रतनी २१४२नारी य छ । सू ॥ म ११२ Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९० प्रश्नभ्याकरण सम्मति पञ्च भाग्ना अभिधातुकामः प्रथमा भाग्नामाह-'पचम 'इत्यादि मूलम्-पढम सोइदिएण सोच्चा सद्दाई मणुण्णभागाई, किंते, वरमुरयमुइंगपणवददुरकच्छभीवीण-विपंचिवष्टईवद्धी सक सुघोस-णंदि-सूअर-परिवादिणि वसतूणग पन्वय ततीतलताल-तुंडिय-निग्घोस-गीयवाइयाइ णडणट्टगजल्लमल्लमुहिगवेलवंग-कहगपवगलासग-आइक्वग-लंख- मख-तुणइल्ल तुर्ववीणिय-तालायर-पकरणाणि य वहूणि महुरंसगीयसुस्सराइ कची मेहलाकलावगपतरक- पतरेकपाय - जालकघटिय खिखिणि रयणोरुजालय छुद्दियनेउरचलणमालियकणगनिग डंजालकभूसंणसंहाणि लीलचकम्ममाणाणुदीरियाइ तरुणीज णहसिय भणिय कलरिभियमजुलाइ गुणवयणाणि य बहूणि महुरजणभासियाइ अण्णेसु य एवमाइएसु सदेसु मणुण्णभदैएसु न तेसु समणेण सज्जियव्व न रजियन न गिज्झियवं न मुझियव्व न विनिघाय आवज्जियव्व न लुभियत्वं न तुसियव्व न हसियव्व न सइ च मइ च तत्थ कुजा । पुणरवि य सोइदिएण सोच्चा सदाइ अमणुण्णपावगाइ किते, अकोसफरूसखिसण अवमाणण तज्जणनिभच्छण दित्तवयण तोसण उक्कूजिय रुपणरडियकदिय विग्घुटरसियकलुणविलवियाइ अण्णेसु य एवमाइएसु सदसु अमणुग्णपावएसुन तेसु समणेण रुसियव न हीलियव्व न निदियव्व, न खिसियव्व, न छिदियब न भिदियव्व, न वहेयव्व, न दु गुछांवत्तियाविलब्भा उप्पाएउ। एव सोइदियभावणाभाविओ Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुर्शिनी दीका अ०५ सू०७ 'निस्पृहता' नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८९१ भवइ अंतरप्पा मणुपणामणुण्ण सुभिदुन्भिरागदोसे पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते सवुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्म ॥ सू० ७ ॥ ___टीका-'पढम' प्रथमा नि:स्पृहत्वाभिधेया भावनामाह-'सोइदिएण' श्रोत्रेन्द्रियेण-कर्णेन 'सोचा' श्रुत्वा 'साई' शब्दान , कीदृशान् ? 'मणुण्णभदगाइ ' मनोज्ञमद्रकान् मनोज्ञाः-मनोहरा अतएव भद्रका कर्णेन्द्रिय सुग्वजनकास्तान 'कि से' कॉस्तान-कथभूताँस्तान् ? इत्याह- वरमुत्यमुइगपणपददुरकच्छभी वीणविपचिवल्लइनद्धीसकसुयोसणदिमूसरपरिवादिणि वसतूणगपव्ययततीतलतालतुडियनिग्धोस अय सूत्रकार इम ग्रन की पांच भावनाओं को प्रकट करने के -अभिप्राय से सर्व प्रथम उसकी प्रथम भावना को कहते है--'पढम' इत्यादि। टीकार्थ-(पढम) इस व्रत की पहिली भावना का नाम निस्पृहता है, वह भावना इस प्रकार से है-(सोइदिएण) श्रोत्रेन्द्रिय से, (मणुप्पणभद्दगाइ ) मनोज अतण्य मधुर ऐसे (सदाइ ) शब्दों को (सोचा) सुन करके साधु का कर्तव्य है कि वह कभी भी उनमें आसक्ति न फरे रागभाव से उनमें न बँधे, उनमें वह गृद्धिभाव न करे और मोहित न हो तथा जो द्वेप पैदा करने वाले हों उनमें वह रुष्ट न हो। इसी विषय को सूत्रकार इन नीचे की पड्डियों द्वारा स्पष्ट करते हैं-(किं ते) चे कौन २ से हैं-इस प्रकार की शका करने वाले के प्रति वे कहते हैं कि सुनो वे इस प्रकार से हैं (वरमुरयमुयगपणवददुरकच्छभी वीण विपचि-बल्लइ-पद्वीसफ-सुघोस-णदि-हसर-परिवादिणिवसतूणक હવે સૂવાર આ વ્રતની પાચ ભાવનાઓ પ્રગટ કરવાના ઉદ્દેશથી સૌથી पसा तेनी प्रथम भावना विधे 33 छ-" पदम " त्याह साथ-"पदम" मा प्रतनी पडती भावनानु नाम निस्पृडता छ, त माना मा प्रभारी छ-"सोइदिएण" श्रीन्द्रियथा, "मणुण्णमहगाइ" भनाज्ञ डावाथी भधु२ सारे छे “ सदाइ " Ava “ सोचा" सामान तमा मासात थर्ड જોઈએ નહી એ સાધુનું કર્તવ્ય છે, તેમાં રાગભાવ ન રાખે, તેમનામાં તેણે મૃદ્ધિભાવ કરવો જોઈએ નહી, મેહિત થવું જોઈએ નહી એ જ વિષયને सूत्रा२ मनी लाटीमा द्वारा २५ष्ट ४२ छ-" किं ते" ते १७या ५॥ ४॥छे से मारनी २४.६२नार त ड छे सामने से मा प्रभार छ-"वर -मुरय-मुया-पाणव-ददुरकच्छभी-वीण-विपचि-पल्लइनद्धीसक-सुघोस- णदिसूसर Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९२ अन्नध्याकरण गीयवाइयाइ ' वरमुरजमृदापणवदर्दुरकन्छपी पीणात्रिपत्रीपरकी बद्धीशकमुयो पनन्दोमुस्वरपरिवादीनीवशतूणकर्पजतन्त्रीतलनालत्रुटिननिघोपगोतमादितानि , तत्र-चरमुरजा श्रेष्ठमृदगाः, मृदगाः-प्रसिद्धा , पणना: रघुपटहा , दुराचर्मा वनद्धमुखा कलशाः कच्छपी-कच्छपाकारी पायविशेषः, वीणाविपश्चीवल्लस्य ए तास्तिस्रो वीणाभेदाः, नद्धीशक परिशेप , मुघोपा घण्टाविशेषः, नन्दिा-द्वाद शतूर्यसमुदायः, द्वादशविधतूर्याणि यथा "भभा १ मुकुद २ मद्दल ३ सडन ४ झल्टरि हुइक ६ कसाला ७१ कलह ८ तलिमा ९ सो १० सखो ११पणन १२यगारसमो ॥१॥” इति । मुस्थरपरिवादिनीचीणानिशेपः, श-पेणुः, तूणको नोयरिशेषः, पर्वजोवशपर्वनिर्मितो वाघरिशेपः, तन्त्री वीणाविशेषः, तालहस्ता , ताला' कासिका, पन्चयततीतल ताल-तुडिय निग्धोसगीयवाइयाइ ) वरमुरजउत्तम एक जात का मृदग, मृदग-सामान्य मृदग, पणव-गोटाढोल, ददुरचमड़े से मडे हुए मुखवाले कलश, कच्छपी-कच्छपाकार वाद्यविशेष, वीणा, विपञ्ची, वल्लकी-ये तीनों वीणा के ही भेद हैं, बद्धीशक-वाद्यविशेष, सुघोषा-एक प्रकार का वाधविशेप घट, नन्दि-पारह प्रकार के बोजा का समूह वे इस प्रकार है-भभा १, मुक़द २, मईल ३, कडब ४, झालर ५॥ हुडक्क ६, कसाल ७, कलह ८, तलिमा २, बस १०, शख ११, पण १२, सुस्वरपरिवादिनि एक विशेष प्रकार की वीणा वश-बाँसुरी तृणक-एक प्रकार का वायविशेष जिसे हिन्दी भाषा में रमतृला करत हैं, पर्वज-वश के पर्यों से निर्मित किया हुआ एक प्रकार का विशेष वाद्य, तन्त्री-वीणा विशेष-जिसे हिन्दिी मे सारगी कहते हैं, तल-परिवादिाण-वसतूणक-पव्यय-ततीतलताल-डिय-निग्घोस-गीय वाइयोइ " १९ સુરજ-એક જાતને ઉત્તમ મૃગ, મૃદગ-સામાન્ય મૃદ ગ, પશુવનાને તેલ દર–ચામડાથી મઢેવ મુખવાળે કળશ, કચ્છપી-કાચબાના આકારનું એ વાજિત્ર, વિષ્ણુ, વિપચી, વલકી-એ ત્રણે વીણાના પ્રકારે છે, બદ્ધીશક પ્રકારનું વાદ્ય, સુષા-એક પ્રકારનો ખાસ ઘટ, નન્દિ-આર પ્રકારના વાડજ, जाना समूड ते मा प्रभाव छ-(१) मा (२) भुद, (3) मka, (४) ४३८, (५) आस२, (६) , (७) सास (८) उसड, () तलामा, (१०) वस (११) शम, मने (१२) शव सस्वर परिवाहिनी- मारना વીણું, વશ–બ સરી, લૂણક-એક પ્રકારનું ખાસ વાદ્ય જેને હિંદી ભાષા ૨મતલા કહે છે, પર્વજ-વાસમાંથી બનાવેલ એક પ્રકારનું ખાસ વાઘ, તેને સારગી, તલ-હાથ, તાલ-મજીર, અથવા તલતાલ-હાથેથી પડાતા લy Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका भ०५ सू०७ निस्पृहता' नामक प्रयमभावनानिरूपणम् ८६३ अथवा-तलतालगा इस्ततालाः, जुटित घाबविशेष , एपा यो नि?पो निनादः, तथा-गीत-गानम् , पादित सामान्यपाद्यम् , एपा द्वन्द्वः, तानि तथोक्तानि, तथा ‘णडणगजल्लमल्लमुहिगलग-कहगपरगासग-आडवखगलखमख तूणइल्लतुवपीणियतालायरपकरणाणि य' नटनर्तकजल्लमल्लमोष्टिकविडम्मक-कथक वक्लासकाख्यायकमाणिकतुम्पीणिक तालाचरप्रकरणानि च, नत्र-नटाः नाटयकारिणः, नर्तकाः नृत्यकारिणः, जल्लमा चर्मरज्जूमालम्ब्य क्रीडापारकाः, मल्ला:-मल्लयुद्ध कोरिणः, मोष्टिका:=मुष्टियुद्धकारकाः, विडम्मका विदूपकाः, कथका = कत्यक' इतिमसिद्धा गान्धर्षविद्याविशारदा , प्लवकार्दनकारिणः, लासका 'लास्य' इति नाटक विशेषकारिग , जरयायकाःकथाकारकाः, लहाः महावशाग्रभागमधिरुह्य क्रीडाकारिण', मझा. चित्रफलकहस्ताः कीडकाः, हाथ, ताल-कसिका-माजे, अथवा तलताल-हायो की ताल, त्रुटितवायविशेष, ईन सत्र के नि?पों-शन्दों को तथा गीतों को एव सामान्य वाजों की आवाजों को तथा (नड़-नगजरलमल्ल-मुहिग-वेलयगकहगपवगलासग-आइक्खग-लखमखतूणइल्ल तुवचीणियतालायर पकरगाणि ) नट-नाटक करने वाले नटों के, नर्तकों-नृत्य करने वालो के, जल्ल चर्म रज्जू का अवलम्बन कर के क्रीडा करने वालों के, मल्लमल्ल युद्ध करने वालों के, मौष्टिक-मुष्टि से युद्ध करने वालों के, विड़म्यक-चिदूपकों के, कयन-गाधर्वविद्या विशारदो के, प्लवक-उछलकूद करने वाले मनुप्या के, लासक-लास्य नामकनाटकविशेप को करने वालों के, आख्यायक-कथा कहने वालों के, लह-घडे २ वश के अग्रभाग पर चढ़कर विविध प्रकार के खेल करने वालो के, मख चित्र फलकों को हाथ मे लेकर खेल तमासा करने वालो के तूणिक-तूण ત્રુટિત-એક જાતનું વાવ, એ બધાના અવાજને તથા ગીતને તથા સામાન્ય पनि अवागने तथा “नडनगजल्लमल्लमुट्ठिगवेल बगकहगपवगलासग आइक्यग-लसमसतूण-इस्तुरचीणिय-तालायरपकरणाणि " नट-नाट ४ २१२ નટેના, નર્તકે-નૃત્યકરનારના, જઘ-ચામડાની દેરી પર કીડા કરનારના, મલ્લभासयुद्ध ४२ना२ना, भौष्टि-मुष्टियुद्ध ४२नारना, विउम्म-विपीना, उ48ગાધર્વવિદ્યા વિશારદેના, લવક-કૂદકા ભરનાર માણસેના, લાસ લાસ્યનામના એક ખાસ પ્રકારના નાટક કરનારના, આખ્યાયક કથા કરનારના લખ ઉચા ઉચા વાસની ટોચે ચડીને વિવિધ પ્રકારના ખેલ કગ્નારના, મખ-ચિત્રના કુલકે હાથમાં લઈને છેલ તમામ કરનારના, તૂણિનૂણનામનું વાજિંત્ર વગા Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - मायाकरण तूणिका: तूणाभिधानपायविशेषपादकाः, तुम्गीणिकाम्बीणावादका , ताला चरा-ताल-हस्ताघातरूपमाचरन्ति ये ते तथोक्ताः-तावादिन इत्यर्थः, एपा द्वन्द्व , तेपा यानि मरणानि-मर्पण करणानि तानि तयोक्तानि, कानि तानी? त्याह- बहूणि ' बहनि-अनेकम काराणि, 'महुरसरगीयमुस्सराणि' मधुरम्ब राणि-मधुरस्वराणा गायकाना गीतानि गानानि च तानि मुस्वराणि । तथा' कचीमेहलाकलावगपतरफपयरेकपायजालमपटियसिखिणिरयणीम्जालयादिय नेउयचलणमालियकणगनिगडजालकभूसणसवाणि' काञ्चीमेग्वलाकलापकमतरक मतरेकपादजालक घण्टिकामिद्विणी-रत्नोरु-जालक-बुद्रिका-नृपुर-चरणमालिका कनकनिगड़ -जालकभूपणशन्दान् । तत्र-काञ्चीसटिभूपणम्, मेग्वलोऽपि कटिभू पणभेदः, कलापको ग्रीनगऽभरणम् , प्रतरकाणि प्रतरेकाय आभरणविशेषा', पादजालक-चरणाभरणम् , घण्टिका = प्रसिद्धा, किङ्किण्यः = क्षुदरण्टिकाः, रत्नोरु जालकम् रत्ननिर्मित जडाभरणम् , शुद्रिका आभरणविशेषाः, नूपुर-पादभूषणम् । चरणमालिका -पादाभरणपिशेपाः, कनकनिगडावर्णभूपणविशेषाः, जालक चाप्या नामक वाचविशेष को बजाने वालों के, तुम्वीणिक-तुम्यवीणा को पजाने वालों के, तालाचर-ताली बजाने वालों के द्वारा अच्छी तरह से किये गये (यहणि) अनेक प्रकार के (महुरसरगीयसुस्सराइ) मधुर स्वरगभित गीतरूप स्वरों को, तथा- (कचा मेहलाकलावग-पतर-काय-रेक-पाय-जालक-घटिय-खिखिणि - रयणोरुजालयछुद्दिय-नेउयचलणमालियफणगनिगड-जालक-भूसणसदाणि) काची-कटिभूषण, मेखला, कलापक-ग्रीवाभरण-प्रतरक, प्रतरक ये दोनो एक प्रकार के आभरण विशेष होते है. पादजालक-चरणा भरण, घण्टिका, किङ्किणी-छोटी २ घटिकाएँ, रत्नोरुजालक-रत्ननिमित जघाभरण, क्षद्रिका-आभरणविशेष, नपुर-पादभ्रषण-विछिया, चरणमालिका-पादाभरणविशेप,कनकनिगड-स्वर्णनिर्मितभूषणविशेप, और - ना२ द्वारा सारी रात ४२पामा मावेल “बहुणि " भने ४२॥ " महुर -सरगीयसुस्सराइ ” मधुर स्वरयुत गीत३५ स्वराने तथा " कची मेहलाक -लावग-पतरक-पयरेक-पायजालक-घटिय--सिंसिणिरयणोरुजालय-छुहियनेउय चलण-मालिय-कणग-निगड-जालक-भूसणसहाणि " डायी-उटिभूषा, भता સેર, કલાપક-ડેકનું ઘરેણુ-પ્રતિરક, પ્રતેરક એ બને એક પ્રકાના ખાસ આભ 1 જાણે છે, પાદજાલક–પગનું આભૂષણ, ઘટિકા,-ઘૂઘરી, કિંકિણી-નાની નાની ઘૂઘરીઓ, નપુર-ઝાઝર, વિછિયા, ચરણમાલિકા, એ બધા આભૂષણોના અવાજને Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २०५ ०७ ' निस्पृहता 'नामकप्रथमभावनानिरूपणम् 1 भूपण विशेष, एपामितरेतयोगद्वन्द्वः, एतान्येन भूषणानि, तेपा शब्दास्ताँस्तथोकान तथा - लीलचम्ममाणुढी रियाङ' लीलाचङ्क्रम्यमाणोदीरितान् लीलया चङ्क्रम्यमाणाना=मलील गच्छन्तीनाम् उदीरितान् =भूपणजनितान् शब्दान्, तथा - 'तरुणीजण सियभणिय कलरिभियमजुलाई' तरणीजनहसिवभणितकलरिभि तमज्जुनि तरुणीजनस्य यानि हसितानि भणितानि, कलरिभितानि=मधुररणनानि = मज्जुलानि=मनोहराणि च तानि तथोक्तानि तथा-' गुणवयणणि य ' गुणवचनानि च कामगुणवर्द्धकवचनानि च ' बहूणि' हूनि - अनेकविधानि तथा 'महूरजणभासियाड' मधुरजनभाषितानि मधुराणि यानि जनभापितानि=वाल स्वरत्युक्तानि गायकजनगानानि तानि श्रुत्वा 'समणेण श्रमणेन साधुना ' तेसृ ' तेषु मणुण्णभद्दएस ' मनोज्ञभद्रकेषु ' सद्देसु ' शब्देषु तथा 'अण्णेसृ य' अन्येषु च एव माइएस' एनमादिकेषु शब्देषु न ' सज्जियन्त्र सक्तव्यम् - आमक्तिर्न कर्तव्येत्यर्थः तथा-' न रज्जियव्व' न रक्तव्य-रागो न कर्तव्यः, 'न गिज्झियन' न गर्धितव्यम् = गृद्धिभावो न कर्तव्यः तथा-' न मुज्झि S 1 न " जालक - एक प्रकार का आभूषण विशेष, इन सब शब्दों को तथा (लोलचकम्ममाणु दीरिया ) लीलासहिन जाती हुई स्त्रीयों के भूषणों के शब्दों को, तथा (तरुणीजण सिय भणियकलरिभियमजुलाइ ) तरुणियों के हसित, मणित, कलरिभिक और मनोहर, ऐसे (बहणि गुवयाणि) अनेक प्रकार के कामगुणवर्धक वचनो को तथा ( महुरजण भासियाइ तालस्वरयुक्त गायकजनो के गानो को सुनकर के साधुको (तेसु मणुण्णमद्दण्ड ) उन मनोज्ञ एव मधुर (सद्देसु) शब्दो में तथा ( अण्णेय एवमाइएस) इसी प्रकार के और भी दूसरे शब्दों में (न सज्जियन) आसक्ति नहीं करना चाहिये, (न रज्जियच्च ) राग नहीं करना चाहिये, (न गिज्जियन) गृद्धिभाव नही करना चाहिये, अर्थात् તથા लोटचकम्ममाणुदीरियाइ " सीसासहित नती श्रीमोना भाभूषशोना भवाने तथा "तरुणीजण - हसिय- भणिय- कल रिभिय-मजुलाइ તરુણીઓના हसित, लक्षित, सरिलित भने मनोहर, मेवा " बहूणि गुणत्रयणाणि " અનેક પ્રકારના કામ વર્ષીક શબ્દોને તથા महुरजणभासियाइ " गायना तास स्वरयुक्त गीताने सालजीने साधुखे " तेसु मणुष्णमद्दए सु " ते मनोज्ञ અને મધુર 66 सहसु " शुण्डोभा तथा " अण्णेसु य एवमाइण्सु अजरना जीन्न राहोमा पशु " न सज्जियन्त्र " मासहित ४२वी लेड से नही " न रज्जियन्त्र " राग रखे। लेयेि नही, "" न गिझियन्त्र " गृद्धिभाव न मेवा (< ८८ ८९५ "" Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९६ प्रभम्याकरण यच ' न मोहितव्यम्-तत्र मोहो न कर्तव्य इत्यर्थः, तथा-'रिणिवाय' विनिघातः तदर्थ चारित्रभ्रशः, आपज्जियन्त्र' आपनव्या कर्तव्यात्पर्यः, तथा-'न लुमियन्त्र 'नरोधव्यम् लोभो न कर्तव्य इत्यर्थ , ' न तुमिययन तोप्टव्यम्मनोज्ञशब्दादिपु प्रसन्नमनसा न भाव्यमित्यर्थः, तथा-'न हसियन्च 'न हसि-- तव्यम्-विस्मयेन हासो न कर्तव्यः, तथा-श्रमणः 'तत्य तत्र-मनोनभद्रकशन्द विपये ' सइ ' स्मृति-स्मरण च ' मड' मति-धुद्विनिवेश च न कुज्जा' न कुर्यात् । 'पुणरवि य' पुनरपि चामनोनादि शब्दपिपये प्रोन्यते- सोइदिएण' योत्रेन्द्रियेण ' सोचा ' श्रुत्वा · सदाइ' गन्दान् कीदृशान् ? ' अमणुष्णपावगाउ' अमनोज्ञपापकान-अमनोज्ञा. अमनोहरा अतए-पापका अशुभास्तान् 'कि ते' ललचाना नहीं चाहिये, (न मुज्झियन) उनमे मोर नरी करना चाहिये, (न विणिघाय आवज्जियव्य ) उनके निमित्त अपने चारित्र को भ्रष्ट नहीं करना चाहिये, (न लुभियन्त्र) उनमें लुभाना नहीं चाहिये, (न तुसियन्व) उनसे प्रसन्नमन नहीं बनाना चाहिये, (न ह सियव्य ) हसना नहीं चाहिये, और (न सइ च तत्यकृज्जा) न उन मनोज्ञशब्दादिकों की याद करना चाहिये और न उनमें अपनी बुद्धि को ही लगाना चाहिये। इसी प्रकार (पुणरवि य) फिर (सोइ दिएण) श्रोत्र इन्द्रिय से (अमणुण्णपावगाइ ) अमनोज्ञ अतएव अरुचि कारक अशुभ (सदाइ) शब्दों को (सोच्चा ) सुनकर साधु का कर्तव्य है कि वह उन पर देष भी न करे-नाक मुंह न सिकोडे, इसी विषय को अब सूत्रकार इन पक्तियो द्वारा स्पष्ट करते हैं-वे कौन से है इस शंका के समाधान ७२३ नो से ससयान नही "न मुझियव्व " तभनामा मोड ४२वे नये नही 'न विणिधाय आवजियव्व" तमना निभित्ते पाताना यारित्रने भ्रष्ट ४२९ नये नही, "न लुभियव्य"तमा सयान से नडी "न तुसियव्य" तभा भनने प्रसन्न रावु नये नही "न हास यव्व " इस नो नही, मने "न सइ च मई ज तत्य कुज्जा" त મનોજ્ઞ શબ્દાદિકોને યાદ કરવા જોઈએ નહીં અને તેમાં પોતાના મનને यावा हेयु नही' से प्रमाणे 'पुणरवि य" जी 'सोइदिएण" श्रोत्र न्द्रियथी " अमणुण्णपावगोइ " मभनाश भने ते २ मयिडा२४ अशुभ " साह" शण्होने “ सोच्चा" सामजान तना प्रत्ये द्वेष ५ न ४२३॥ જઈએ તે સાધુનું કર્તવ્ય છે-તેના તરફના તિરસ્કારથી નાક કે મેઢ સંકોચ બગાડવું જોઈએ નહી, એ જ વિષયને સૂત્રકાર આ પક્તિઓ દ્વારા સ્પષ્ટ કરે છે તે કયા કયા પ્રકારના છે તે શ કાના નિવારણના માટે તેઓ તે અમ Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०७ 'परिग्रहविग्मण' नामक प्रथम भावनानिरूपणम् ८९७ कांस्तान् कथम्भूतस्तान् शब्दान् इत्याह- अोसफरूसखिसणअनाणणतज्जण निव्भणदित्तायणता सण अक्कूजियरुण्णरडियदि यणिग्धुहरसिय कलुणविलवियाइ ' आक्रोशपरुपखिसनावमाननतर्जननिर्भर्त्सनदीप्रवचनना सनोत्कृजितरुदितरटितक्रन्दित निर्घुष्टर सित करुण निलपितानि - तत्र - आक्रोश = रे दृष्ट त्रिस्से' त्यादिवचनम् परुप-रे मूर्ख ! रे चौर । इत्यादि, खिसनम् - निन्दानचन 'कुशीलोऽसि निर्लज्जोऽसी' त्यादिरूपम्, अवमाननम् = अपमानजनकवचन, त्वङ्कारादिरूपम्, तर्जनम् = ' ज्ञास्यसि रे दुष्ट ! ममावनायाः फलम् ' इत्यादिरूपम् = निर्भर्त्सनम् = असर रे निर्दय ? मम दृष्टिपथादित्यादिरूपम् दीप्तवचनम् =कुषितवचनम् = श्रासनम्=अन्धकारादौ फेत्कारादिरूपः शृगालादिशब्दः, उत्कूजितम् = · " " तु , निमित्त वे उन अमनोज पापक शब्दों को कहते है- ( अकोसफरुस - सिंसण-अवमाणण- तज्जण- निग्भच्छण-दित्तवयण-तासणउक्कूजिय-रण- रडिय -कदिय-- णिग्घुटु - रसिय-कलुण-विलवियाइ ) 'रे दुष्ट | मर जा ' इत्यादि प्रकार के जो शब्द होते है वे आक्रोश शब्द हैं, कठोर शब्दों का नाम परुप है - जैसे- 'ओ मृर्ख ! अरे ओ चौर !' आदि । निंदात्मक शब्दो का नाम खिसन है, जैसे- ' बडे खोटे स्वभाव का है, तृ वडा वे शरम है ' इत्यादि । ' तू ' आदि शब्द अपमान जनक शब्द हैं। जिन शब्दों से दूसरों को डाटा होता है वे तर्जना शब्द है, जैसे- ' ओ दुष्ट | अवज्ञा करने का फल मैं तुझे बताऊँगा । तथा 'ओ निर्दय । मेरे सामने से हट जा इत्यादि प्रकार के वाक्य निर्भत्सन वाक्य कहलाते है । कुपित वचनों का नाम दीप्तवचन है । अधकार आदि मे फुत्कार आदि रूप शब्दों का नाज्ञ पाय शब्होने जतावे हे " अक्फोस - फरस- सिंसण - अवमाणण-तज्जणनिव्भच्छण - दित्तवयण - तासण- उक्कूजिय-रुण्ग - रडिय -कदिय - णिग्धुह - रसिय-कलुण - बिलवियाइ " "हे हुष्ट । भरी " इत्यादि प्रजरना शब्होने माझेश राष्ट्र કહે છે, ઠાર શબ્દોને પરુષ શબ્દો કહે છે, જેવા કે “ એ મૂર્ખ ! અરે એ थोर " आदि परुष शब्हो छे' તુ ઘણા ખરામ સ્વભાવવાળા છે, તુ ઘણા બેશરમ છે” આદિ નિંદાત્મક શબ્દોને ખિમન કહે છે “તુ ” આદિ અપ માનજનક શબ્દો છે જે ગબ્દો દ્રાગ ખીજાને ધમકી અપાય છે તે શબ્દોને તર્જના શબ્દો કહે છે, જેવા કે “રે દુષ્ટ મારી અવજ્ઞા કરવાનુ ફળ હું તને यणाडीश " તથા અરે નિય। મારી નજરથી દૂર થા” ઈત્યાદિ પ્રકારના વાયાને નિત્સના વાકય કહે છે ક્રોધયુક્ત વચનાને વીસ વચન કહે છે ८८ " म ११३ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९८ प्रभव्याकरण अव्यक्तमहायनिकरणम् , गदितम् सायुरोग्नम् , रटित कललायित-क्लहवाक्य मित्यर्थः क्रन्दितम् इप्टरियोगादो मन्दम् , निर्युष्टम् उच्चाटकरणम् , रसितम् सूकरादिवत् शब्दकरणम् , करुणपिलपितम् पुगदिगृत्या सकरणपिगपकरणम् , एतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तानि अत्ता अमणेन । तेसु' तेषु 'अमणुष्णपावएम' अमनोज्ञपापकेपु-अमनोशाशुभेपु, 'सद्देन ' गन्देषु नया-जाणेमु य एवमाइणसु अन्येषु च एरमादिकेपु समुपस्थितेषु शब्देषु 'न रसियान रोपितव्यम्-रोषो न कर्तव्य , न हीलियम' न हीलितव्यम् अवज्ञा न कर्तव्येत्यर्थ , 'न निदि यव्य 'न निन्दितव्यम् निन्दा न कर्तव्या, 'न विमियन्य' न खिसितव्यम् नाम वासन है। जिस प्रकार शृगाल आदि के गद होते है । अस्पष्ट जोर २ से घोलने का नाम उत्कृजित है। आन्त निकाल २ कर रोने का नाम रुदित है । कलहवर्धक वाक्यों का नाम रटित है । इष्ट के वियोग आदि होने पर जो न्दन करते समय वचन निकलते है वे ऋदित वचन हैं। ऊँचे स्वर से जो बोलने में आते हैं वे निर्घष्ट शब्द हैं। सूअर आदि के जैसे शब्दो का घोलना इसका नाम रसित है। पुत्र आदि क मर जाने पर जो करुण विलाप किया जाता है। और उस समय जो शब्द मुंह से निकलते हैं वे करुण पिलपित है। ऐसे शब्दों मे तथा (अण्णेसु य एवमाइण्सु सदेसु ) इसी प्रकार के और भी शब्द जो (अमणुण्णपावएस) अमनोज्ञ अशभ हों उन शब्दों में (समणेण ) श्रमण का कर्तव्य है कि वह उनमें (न झसियन) रोष न करें । અધિકાર આદિમા કુત્કાર આદિપ શબ્દનું નામ ત્રાસન છે, શિયાળ આદિના અવાજ તે પ્રકાર હોય છે જોર જોરથી અમ્પષ્ટ બોલવું તેને ઉજિત શા કહે છે આસુ પાડી પાડીને રડવાના અવાજને દિત શબ્દ કહે છે કલહ વર્ધક વાક્યને રટિત વાક્ય કહે છે ઈષ્ટને વિગ આદિ થતા સદનની સાથ જે વચન નીકળે છે તેને ફદિતવચન કહે છે ? ચા આવાજથી બોલતા વચન નિર્દુષ્ટ શબ્દ કહે છે સૂઅર આદિ જેવા શબ્દો બોલવા તે રચિત શબ્દ કહેવાય છે પુત્ર આદિનુ મત્યુ થતા જે કરુણ વિલાપ કરાય છે અને ત્યાર જે શબ્દો મોઢામાંથી નીકળે છે તે કરુણ વિલપિત કહેવાય છે એવા प्रत्ये तथा " अण्णेसुय एवमाइएमु सद्देसु" मेवा १ Astt vilon eval २" अमणुण्णपावएसु" ममना भने अशुभ डाय ते शहाथी “न रसियव्व " ५ न ४२ " समणेण" ते श्रभानु उभिन छ " न हीलिय व्व" मनी अवज्ञा ४२वी नही, "न निदियव्य " निह न ३२वी, "न Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका अ०५ सू०७ परिग्रहरिरमण नामकप्रथमभावनानिरूपणम् ८९९ परसमक्ष च निन्दा न कर्तव्या, 'न छिदियव्य' न छेत्तव्यम् अमनोज्ञ शब्दकर्तु द्रव्यस्य छेदो न कार्यः, तथा-'न भिंदियव्य ' न भेत्तव्यम् , तस्यैव न भेदः कर्तव्यः, 'न वहेयन्य' न हन्तव्यम्=तस्यानिष्ट शब्दकर्तुथो न कर्तव्य , तथा'दुगुछावत्तियावि' जुगुप्सात्तिकाऽपि शब्दपिपये स्वस्य परस्य वा घृणात्तिरपि, 'उप्पाएउ' उत्पादयितु ' न रमा' न लभ्या-नोचिता, यथा-स्वस्य परस्य वा हदि शब्दविपया जुगुप्सा प्रादुर्भवेन्न तथा कर्तव्यमिति भावः । अथ प्रथमभावनानिगमनार्थमाह-एवम्-उक्तरीत्या सोडदियभावणाभाविओ' श्रोत्रेन्द्रियभावनाभावित प्रोत्रेन्द्रिय निरोद्धव्यम् , अन्यथा-महदनर्थमभवः, इत्येव रूपया भावनया भावित , 'तरप्पा' अन्तरात्मा जीनो 'भाइ' भवति, ततश्च 'मणुप्णामणुष्णसुभिदुभिरागदोसे' मनोमनोज्ञमुरभिदुरभिरागद्वेपो मनोज्ञामनोज्ञा (न हीलियन्च ) उनकी अवज्ञा न करे, (न निदिधन्व) निंदा न करे (न खिसियच ) उन पर खिसियावे नहीं-दूसरो के समक्ष उनकी निंदा न करे (न छिदियव्य ) जो अमनोज्ञ शब्दों करने वाला विणादि द्रव्य है उसका वह न छेदन करे और (न भिदियव्व ) न भेदन करे (न बहेयव्व ) अनिष्ट शब्द करने वाले मनुष्य आदि का वध न करे । और (न दुगुठा वत्तिया विलम्भा उप्पाए उ) न उन अनिष्ट शब्दो के विषय मे अपने एव पर के घृणागृत्ति उत्पन्न करने की कोशिश ही करे । अब सूत्रकार इस प्रथम भावना का उपसहार करने के लिये कहतेते है-(एव) इस प्रकार (मोइदियभावणाभाविओ) श्रोत्रेन्द्रिय की भावना से भावित हुआ 'मुझे श्रोत्रेन्द्रिय का निरोध करना चाहिये नहीं तो बडा भारी अनर्थ होगा' इस प्रकार की विचारधारा से वासित हुआ ( अतरप्पा) अन्तरात्मा मुनि (मणुण्णामणुण्णसुन्भिभि रागदोसे पणिरियप्पा) मनोज्ञ रूप शुभ और अमनोज्ञखिसियन" तना ५२ जिसिया नही-भात पासे तना नि! २वी मध्ये नही, "न छिदियव्य" भनान A4 3२॥२ वीणादि वस्तु खाय तेनु छेहन न उरे, “न भिदियन" तेनु सहन न ४२ "न वहेयव्व " मनिष्ट श६ ७२ना२ मनुष्य माहिना ते वध नउरे, भने " न दुगुछोवत्तियो बि लब्भा उप्पाएउ " ते मनिष्ट शण्ट प्रत्ये पोते तृष्णा न ४३ ने भीतमा तया વૃત્તિ પેદા કરવાની કોશિશ ન કરે હવે સૂત્રકાર આ પહેલી ભાવનાને ઉપसडार ४२। उ छ-" एव" मा शत “सोइदियभावणाभाविओ" श्रोत्र ન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થયેલ “મારે તેન્દ્રિય પર અદૃશ રાખે જોઈએ નહી તે ઘણે ભારે અનર્થ થશે ” એ પ્રકારની વિચારધારાથી પ્રભાવિત थये" अंतरप्पा" सन्तरात्मा-मुनि "मणुण्णामणुण्णसुभिदुन्भिरागहोसे पणिहिं Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०० प्रश्नध्याकरणसूत्र ये सुरभिदुरभया-शुभा शुभाः शब्दास्तेषु यद्रागडेप तन, 'पणिरियप्पा' प्रणिहि तात्मा-सटतात्मा 'साह ' साधु 'मणश्यणकागगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः, 'सबुडे' सहतः-सपरवान् 'पणिहिइदिए ' प्रणिहितेन्द्रियः-मणिहिता प्रशीकृतः इन्द्रियो येन तयाभूतः सन् 'धम्म' धर्म 'चरेज' चरेत् ।। मू० ७ ॥ द्वितीयां भावनामाह-वीय" इत्यादि-- मूलम्-बीय चक्खु इदिएण पासिय रुवाणि मगुण्णभद्द. गाइं सचित्ताचित्तमोसगाईकट्टे पोत्थे य चित्तकम्मे लेप्पकम्मे रूप अशुभ शब्दों में रागद्वेप करने को परिणति से रहित हो जोता है। इस प्रकार की स्थिति से सपन्न हुआ (माह ) साधु (मणवयायगुत्त) अपने मन, वचन और काय को शुभाशुभ के व्यापार से सुरक्षित कर लेता है। और (सबुडे ) सवर से युक्त पनार (पणिहिइदिए) अपनी श्रोत इन्द्रिय को वश में करके (धम्म) चारित्ररूप धर्म को (चरेज) पालन करने वाला बन जाता है। __ भावार्थ-इस सूत्र द्वारा सूत्रकार ने परिग्रह विरमणव्रत की प्रथम भावना का विवेचन किया है। इसमें उन्होंने यह कहा है कि सावुको इष्ट श्रोनेन्द्रिय के विपय में ललचाना नही चाहिये और अनिष्ट विषय में द्वेष नहीं करना चाहिये ।इस प्रकार से इस भाग्नासे भावितमुनि अपने चत की रक्षा और उसकी सुस्थिरता करता हआ सवर सेयत बन जाता है और चारित्ररूप धर्म की परिपालना अच्छी तरह से करसकता है।मू०७।। यप्पा" भना३५ शुल मने पशुम शोभा रागद्वेषनी परिणतिथी रात थ/ जय छ 21 मारनी स्थितिथी युस्त " साहू" साधु "मणवयकायगुत्ते" પોતાના મન, વચન અને કાયને શુભાશુભ પ્રવૃત્તિથી સુરક્ષિત કરી નાખે છે सन" सबुडे ' सवरथी युत मनाने ' पणिहिइ दिए" चातानी श्रीन्द्रियन ११ शन “धम्म" यात्रि३५ धनु "चरेज " पासन ४२नार थ य छ ભાવાર્થ-આ સૂત્રદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની પહેલી ભાવનાનું વિવેચન કર્યું છે તેમાં તેમણે એ બતાવ્યું છે કે સાધુએ શ્રોન્દ્રિયના ઈષ્ટ વિષયમાં લલચાવું જોઈએ નહી અને અનિષ્ટ વિષય પ્રત્યે દ્વેષ કર જોઈ એ નેહા આ રીતે આ ભાવનાથી ભાવિત થયેલ નિ પિતાના વ્રતની રક્ષા તથા સુથિ રતા કરતા કરતે સવરથી યુક્ત થઈ જાય છે, અને ચારિત્રરૂપ ધર્મનું સારી शते पालन | श छ ॥ सू०७ ॥ Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनी टीकाम०५ सू०८'चक्षुरिन्द्रियमेवर नामकद्वितीयभावनानिस्पणम् । सेले य दतकम्मे य, पचहि वण्णेहि अणेगसठाणसठियाइ गंथिमवेढिमपूरिमसघाइमणि य मल्लाइ बहुविहाणि य नयणमणसुहकराइ वणसडे पवए य गामागरनगराणि य खुड्डियपुक्खरिणी वावीदीहिय-गुजालिय सरसरपतिय सागरविलपतिय खाइय-नई-सर-तलाग-वप्पिणो फुल्लुप्पलपउमपरिमंडियाभिरामे, अणेगसउणगणमिहुणवियरिए, वरमडवविविहभवण-तोरण-चेइय-देवकुल-सभप्पवावसह-सुकयसयणासण--सीयरह-सगडजाणजुग्गय-सदणे नरनारिंगणे य सोमपडिरूवदरिसणिज्जे, अलांकिय विभूसिय, पुवकय तवप्पभावसोहग्गसंपउत्ते, नड-नदृग-जल्ल-मल्ल-मुट्रिय-चेलंवगकहग-पवग-लासग आइक्खग लख मख तूणइल्ल तुंववीणिय-तालायर पकरणाणि य वहूणि सुकरणाणि अण्णेसु य एवमाइएसु रूवेसु मणुन्नभदएसुन तेसु समणेण सजियव्वं, न रज्जियव्व, जाव न सइ च मड च तत्थ कुज्जा, पुणरवि चक्खुइदिएणपासिय रूवाइ अमणुन्नपावगाइ, कि ते ? गडिकोढि-कुणि-उदरि- कच्छुल्ल---पइल्ल-- कुज्ज---पगुल---वामणअधिल्लग--एगचक्खु विणिहय सप्पिसल्लगवाहिरोगपीलिय विगयाणि य मयककलेवराणि सकिमिणकुहिय च दब्बरासि अन्नेसु य एवमाइएसु अमणुनपावगेसु न तेसु समणेण रूसियव्व, जाव न दुगुछावत्तियावि लब्भा उप्पाएउ, एवं चक्खुइंदियभावणाभाविओ भवइ अतरप्पा मणुपणामणुण्ण Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সালে सुभिदुन्भिरागदोसे पणिहियप्पा साहमणवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज्ज धम्मं ॥ सू० ८ ॥ टीका-पीय ' इत्यादि 'पीय ' द्वितीया चक्षुरिन्द्रियसवरामिया भारनामाइ- 'चाखुइदिएण' चक्षुरिन्द्रियेण 'पासिय ' हान्टा ' वाणि' स्पाणि-आकारान् कीदृशानि ? 'मणुण्णभद्दगाइ' मनोजभद्रकाणि-मनोज्ञानि-मनोहराणि च तानि भद्रकाणि मुन्दराणि चेति कर्मधारयः, तथा-' सचित्ताचितमीमगाइ' सचित्ताचित्तमिश्रकाणि, तत्र-सचित्तानि-नरयुग्मादीनि, अचित्तानि-तत्मविकृतिरूपाणि, मिश्रकाणि बस्वाभरणभूपितानि तान्ये, काष्ठपापाणादीनि ना दृष्ट्वा तेषु श्रमणेन न सक्तव्यमित्यायग्रेण सम्बन्ध । कस्मिन् स्थाने दृष्ट्वा इत्याह-रहें' काप्ठे-काष्ठफलके ' पोत्ये य' पुस्ते च-पुस्तके च 'चित्तकम्मे ' चिकिमणि 'लेप्पक इस व्रत की द्वितीय भावना को करते है-'वीय इत्यादि। टीकार्थ-(वीय) दूसरी चक्षुरिन्द्रिय सवर नाम की भावना है वह इस प्रकार से है-(चरखुइदिएण) चक्षुइन्द्रिय से (मणुण्णभदगाई) मनोज्ञ अतएव सुन्दर ऐसे (ख्वाड ) रूपो को कि जो (सचित्ताचित्त मीसगाई) सचित्त, अचित्त और मिश्रद्रव्य से आश्रित हो उन्हें (पासिय) देख करके साधु को चाहिये कि वह उनमे आसक्तचित्त न बन, यह आगे से सबन्ध है। नर नारी आदि सचित्त द्रव्य हैं, इन के प्रतिकृतिफोटो अचित्तद्रव्य हैं। वस्त्र आभूषण आदि से विभूषित नर नारी आदि मिश्नद्रव्य है । इनके आश्रित जो मनोहर आकार होता है वह मनोज्ञ सद्रकरूप है। इन सब का आकार (कट्टे) काष्ठ के वे सूत्र१२ ॥ व्रतनी मी मापना सतावे -"बीय" त्याह टी -" बीय " मी यक्षुरिन्द्रिय स१२ नामनी साना छे त मा प्रमाणे छ-" चम्खुइ दिएण" यक्ष धन्द्रयथी "मणुण्णभद्दगाइ" भनाश मन सुह२ मेवा " रूवाइ " ३पाने २ " सचित्ताचित्तमीसगाइ" सायत्त, मयित्त मन मिश्र द्रव्याने पाश्रित डाय, तभने “पासिय" धन तेभा સાધુએ આસક્ત થવું જોઈએ નહીં નર, નારી આદિ સચિત્ત દ્રવ્ય છે તેમની પ્રતિકૃતિ-ફેટે અચિત્ત દ્રવ્ય છે વસ્ત્ર, આભૂષણ આદિથી વિભૂષિત નર-નારી આદિ મિશ્ર દ્રવ્ય છે તેમના પર આધાર રાખનાર જે મને હર આકાર હોય છે તે મને ભદ્રકરૂપ છે તે બધાને આકાર “ ” લાકડાના પાટીયા પર Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनीटीका भ० ५ सू० ८ 'चभुरिन्द्रियसंवर'नामकद्वितीयनिरूपणम् ९०३ म्मे' लेप्यममणि मित्यादौ, ' सेले य शैले पापाणे च ' दतकम्मे ' दन्तकमणि इस्तिदन्तादिपु यन्नरयुगादीनामाकृतिरहुरते तदन्तकर्म तस्मिंश्च 'पचहिं वण्णेहि' पञ्चभिर्पणैर्युक्तानि, 'अणेगसठाणसठियाइ' अनेक सस्थानसस्थितानि' अनेकानि अनेकप्रकाराणि यानि सस्थानानि-आकृतयस्तै सस्थितानि-युक्तानि, तथा-'गथिमवेढिमपूरिमसघाइमाणि य' ग्रन्थिमवेप्टिमपूरिमसमातिमानि च , तत्र-ग्रन्धिम-ग्रन्थस्तेन नित्त मालावत् , वेष्टिमम् नेप्टनेन नित्तम् पुष्पगेन्दुकवत् , पूरिम-पूरणेन नित, यन्त्र पित्तलादि रगपूरणेन निप्पादित पुत्तलिकादिकम् , सातिमम् समातेन निवृत्तम् , कपर्दिकादिसघातेन निष्पादित कुक्कुटापटियों पर उकेरा जाता है ( पोत्थे य ) पुस्तको से छापा जाता है, (चित्त. कम्मे य) कागज आदि पर चित्रित किया जाता है मृत्तिका आदि में नाया जाता है ( लेप्पकम्मे ) रँग आदि से भित्ति आदि पर लिखा जाता है ( सेले य) पापण के ऊपर अमित किया जाता है (दतकम्मे य) हाथी दात पर खोदा जाता है । इन सर पदार्थो के ऊपर उकेरे गये उन २ आकारो को (पचहि वण्णेरिं) पाँच वर्णों से भरा जाकर बहुत हो सुन्दर रूप से आकर्षक बनाया जाता है । (अणेगसठाणसठियाड) भिन्न २ रूप में उन चित्रों को सजाया जाता है। इसी प्रकार (गथिम वेढिमपूरिमसघाइमाणि य ) माला की तरह गूय २ कर जो चित्र बनाये जाते हैं वे ग्रन्थिम, पुप्पगेद की तरह जो वेष्टित करके चित्र बनाये जाते हैं वे वेष्टिम, किसी पदार्थ पर जो पुत्तलिकादि की तरह रग से भरकर चित्र बन जाते हे वे पूरिम, तथा कौडी आदि के परस्परजोड़ने से कुक्कुट आदि जैगा जो रूप बनाया जाता है यह सघातिम है। इन सम थितशय छ, “पोत्य" पुस्तामा ७५ाय छ चित्तकम्मेय" stण माह ५२ वितरवामा भावे , माटी माहिया नाकामा मावे छ, “ लेप्पकम्मे" २ माथि Cale मा ५२ मासेमाय छ, “ सेलेय" ५५२ ५२ तराय छ, “दतकम्मेय" थाहात ५२ उतरवामा आवे छे, ते सपा पहा ५२ 2481 ४२० ते २२शने "प चहिं वण्णेहि " पाय २॥ न पर सु. अने ४४ मनाय छे “अणेगसठाणसठियाइ " भिन्न भिन्न शत तनी सजवट राय छे से शत “गंथिमवेढिमपूरिमसघाइमाणि य" માળાની જેમ ગૂથી ગૂંથીને જે ચિત્ર બનાવવામાં આવે છે તે ગ્રથિમ. પુષ્પના દડાની જેમ જે ચિત્ર વેષ્ટિત કરીને બનાવાય છે વેષ્ટિમ, કઈ પદાર્થ પર પુતળી આદિની જેમ રંગથી ભરીને જે ચિત્ર બનાવાય છે તે પૂરિમ, તથા કેડી આદિને એક બીજામાં પરેવીને કૂકડા આદિ જે જે આકાર બનાવાય છે તે Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०४ प्रभण्याकरणको दिस्वरूपम् , एपां द्वहः, तानि तथोक्तानि दृप्टा, तया- बहुविधानि अनेक काराणि च-पुनः ' अहिय ' अधिकम्-अत्यर्थ यथा स्यात्तथा 'नयणमणमुहकराई' नयनमन सुखकराणि = नयनयोर्मनसश्च मुखकराणि-मुग्योत्पादकानि 'मलाउ' माल्यानि 'माला' इति भापा प्रसिद्धानि तथा-' पणसढे ' वनपण्डान्मएकजा तीयानामनेकजातीयाना च वृक्षाणा समूहान् , 'पन्या य' पर्वतांश्च 'गामागरनगराणि य ' ग्रामासरनगराणि च दृष्ट्या, तया-'सुद्दियपुरसरिणी-वावीदीहिय-गुजालिय-सरमरपतिय-सागर-गिलपतिय-खाइय-नई-सर-तलाग-वि पिणो ' क्षुद्रिका पुष्करिणी वापी दीपिका गुञ्जालिका सरः सर. पहितका सागर -पिलपडितका-खातिका-नदी-सरस्तडागवमान् , तत्र-सुद्रिरा-लघुजलाशयति शेपः, पुष्करिणी कमलपती तुलाकारा पापी-चतुप्फोणा, दीर्घिकाम्याकारपापी, गुञ्जालिका-चक्राकारयापी, सर: सर पदिक्तका-येपा म ये एक्स्मात्तड़ा गादपरस्मिस्तडागे जल समायाति, एतादृशजलाशयसमूहः सरसर. पहिस्तकेको निहार कर, (देखकर) तथा (रहविहाणि) अनेक प्रकार की (मल्लाइ) मालाओं को कि जो (अहिय नयणमणसुकराड) अधिक से अधिक रूप में नेत्र एव मन को आलादकारक होती हों देखकर (वणसडे) एक जातीय और अनेक जातीय वृक्षा के समूतो को (पव्यए य) पर्वतों को ___गामागरणगराणि ) त्राम, आकर, नगरों को (सुद्दिय पुस्खरिणी-वावी -दीरिय-गुजालिय-सरसर-पति य-सागर-निलपति य-खाइय-नईसर-तलाग-वप्पिणो) क्षुद्रिका-लघु-जलाशय, पुष्करिणी-कमलों से युक्त गोल आकारवाली वावडी, वापी-चार कोनोवाली वावडी, दीधिका -लम्वे आकार बाली बावडी, गुजालिका-वक आकारवाली बावडी, सरः सरः पक्ति-एक तालाय से दूसरे तालावो मे जल जाने वाले तालाब के समूह, सागर-समुद्र विलपक्ति-विलोंके जैसे आकार वाले कूओं की, सातिम उपाय छ त पचानेनन तथा"बहुविहाणि" मने प्रारनी "मल्लाइ" भावासा “ अहिय नयणमणसुहकराइ" माम अने भनन वारेमा धारे मानहाय डाय, तभनन “वणसडे" मे तन, मने तना वृक्षन। समूहाने "पव्वएय" पप्तान, "गामागरणगराणि" नाम, २४२, नशाशने "खुद्दिय पुक्परिणी पानी-दीहिय गुजालिय सरसर पतिय-सागर बिलप तिय खाइय नई -सर-तलाग-वप्पिणो" क्षुद्धिा-नानु राय, डी -उभगाथा युत l કારની વાવ, વાપી–ચાર ખૂણાવાળી વાવ સર સર પક્તિ-એક તળાવમાંથી બીજા તળાવમાં પાણી જતુ હોય તેવા તળાને સમૂહ, સાગર, બિલપક્તિ-દરના Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०५ सू०८'चक्षुरिन्द्रियसपर नामकहितीयभावनानिरूपणम् ९०५ त्युच्यते, सागरः समुद्रः, लिपङ्गिका.-विलानीवविलानि कूपास्तेपा शिका कूपश्रेणिरित्यर्थः, खातिका-परिखाः, नदी प्रसिद्धा, सर: स्वाभाविकस्तडागः, उडागः कृतिमः सरोवर, वमा:-धान्यक्षेत्राणि, एपामित्तरेतरयोगद्वन्द्वः, तांस्तथोक्तान्, दृष्ट्वा, कीदृशानेतान् ? इत्याह-'फुल्लुप्पल्पउमपरिमडियाभिरामे' फुल्लो स्पलपद्मपरिमण्डिताभिरामान् तर फुल्लानि-विकासितानि यानि उत्पलानि-चन्द्र विकाशिकमलानि, पनानिमूर्यविकासिकमलानि च तैः परितः समन्तान्मण्डिता अतएव-अभिरामा मनोहरास्तांस्तथोक्तान , पुनः कथम्भूतान् ? 'अणेगसउणगणमिणरिचरिए' अनेकशकुनगणमिथुनविचरितान् अनेकानि-बहुविधानि यानि शकुनगणमिथुनानि-पतिगणयुगलानि, विचरितानि-सचरितानि यत्र तान् , फुल्लोपलादिपदानि क्षुद्रिकादिवप्रान्तविशेषणानि । तथा-' वरमडव-विविह-भवणतोरण चेइय-देवकुल-सभप्पा -सह-सुझयमयणासण-सीयरह-सगड - जाणजुग्ग-सदणे' रमण्डपविविधभवनतोरण चैत्य देवकुलसभाप्रपावसथसुकृतशयनासनशिविकारयशकटयानयुग्यस्यन्दनान् , तन-वरमण्डपाः श्रेष्ठमण्डपाः, विविध भानानि, तारणानि प्रसिद्धानि, चैत्यानि-उद्यानानि, देवकुलानि प्रसिद्धानि, श्रेणि, ग्वातिका-परिखाए नदी-नदियां, सर-सामान्यताला तडागकृत्रिम सरोवर, वप्र-धान्य के खेत जो (फुल्लुप्पलपउमपरिमडियाभिरामे ) विकाशित-उत्पलों से, चद्रविकाशिकमलो से सब और मडित हो रहे हो, और इसी कारण जिनसे मन में विशेष प्रफुल्लिता आती, हो, तथा जो (अणेगसउणगणमिणविचरिए) अनेक पक्षियों के युगल जहा विचरण कर रहे हों इन सब को देखकर साधु इनमें आसक्ति न करे । तया (वरमडवविविझवणतोरणचेइयदेवकुलसभापवावमहसुकयसयणासणसीयरहसगडजाणजुग्गसदणे ) वरमडप-श्रेष्ठमडप, विविधभवन, तोरण, चैत्य-उद्यान, देवकुल, सभा, प्रपा-पानीयशाला, જેવા આકાર વાઓની હાર, ખાતિકાફરતી આવેગી ખાઈઓ, નદીઓ, स२-सामान्य तणाव, ता-वृत्रिम सरोवर, 4-धान्यनामेत रे "फुल्ल पलपउमपरियमडियाभिरामे" विजमित Suatथी य द्रविासी भगोथी मधा તરફ ઘેરાયેલા હોય, અને એ જ કારણે મનને વધારે પ્રફુલ્લિત બનાવતા हाय, तथा “अणेगसउणगणमिणविचरिए" मने पक्षीमान युगस या વિચરતા હોય, તે બધું જોઈને માધુએ તથા આસક્તિ કરવી જોઈએ નહી તથા 'वरम डव-विविहभरण-तोरण-चेइय-देवकुल-सभष्प-वावसह-सयणासण-सीयरह मगडजाणजुग्गसदणे" १२भ ३५ श्रेष्टभ ३५, विविधमपन, तार, येत्य,--धान, દેવકુલ, સભા, પ્રપ પરબ, આવસથ પરિબાજોના વાન, સારી રીતે સજાવ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०६ प्रश्नध्याकरणसूत्र सभा प्रसिद्धा, प्रपा-पानीयशाला,आपसया परिनानकरसति ,मुमतशयनासनानि सुकृतानि-मुष्ठ कृतानि-विहितानि यानि शयनानि शग्याः, आमनानि-सिंहासनानि च तानि तथोक्तानि, शिपिका पाठकी ' ति प्रसिद्धा, रया प्रसिद्धः, शकटम् गाड़ा' इति भाषा प्रसिद्धम् , यानम्-मनसाचन स्थादिकम् । यु ग्यम् अश्वादिवाहनम् , स्यन्दनो-रयविशेषः, एपामितरेतरयोगद्वन्द्व , तास्तयोतम् , तथा 'नरनारिंगणेय' नरनारिंगगाचवीपुरुपसमुदायाच, दृष्ट्वा, कयम्भू तानेतान् ? इत्याह--' मोमपडिस्पदरिसणिज्जे' सोमप्रतिरूपदर्शनीयान्-सोम व सौम्यतया चन्द्रा प्रतिरूपा सुन्दराः, अतएव-दर्शनीया:-अष्टु योग्यस्तान् पुनः कथभूतान् ? ' अलकियविभूसिए ' अमृतविभूपितान् अलता-मुकुटाघलंकारै विभूपिताः वस्त्रादिभिः सज्जिताः ये तान् , पुनः कथभूतान् ? पुवकयतवप्पभावसोहग्गसपउत्ते' पूर्वकृततपः प्रभारसौभाग्यसपयुक्तान् पूर्वकृततपः प. भाषेण प्राप्त यत्सौभाग्य तेन सप्रयुक्ता ये ते तथा तान् दृष्ट्वा, तथा-' नड-नटंग जल्ल मल्लमुढियवेलवगकहग-पग-लासग-आइखग-लग्व-मख-तूगइल्ल-तुरवीणिय-तालायरपकरणाणि' नट नर्तक जल्लमल्लमोटिकविडम्बक- कथकआवसथ-परिव्राजकों के स्थान, सुकृत-अच्छी तरह से सजाये गये शयन, आसन, पालकी, रय, गोडा, यान-गमन के साधनभूत वाहन, युग्य-अश्वादिकवाहन, स्यदन-रथविशेप, इन सयको, तथा ( नरनारिगणे य) नर और नारी के वृन्द को कि जो (सोमपडिरूपदरिसणिज्जे) चन्द्रमा के जैसा सुन्दर आकार वाला है और इसी से जो दर्शनीय बना हुआ हैं (अलकियविभूसिए) मुकुट आदि विवध अलकारों से एवं वस्त्रादिको से सुसज्जित है, (पुव्वकय तवप्पभावसोहाग सपउत्ते) पूर्वकृत तप के प्रभाव से प्राप्त मौभाग्य से जो युक्त है इन सब को देखकर के तथा (नडे-नग-जल्ल-मुहिप-वेलांग-कहंग-पवग-लासग-ओईक्खंग-लख-मख-तृण-इल्ल-तुषवीणिय-तालायर-पकरणाणि) ટવાળા શયનસ્થાન, આસન, પાલખી, રથ ગાડા, યાન મુસાફરીના સાધનરૂપ વાહન, યુગ્ય અશ્વાદિ વાહન, સ્ય દન ખાસ પ્રકારના રથ, એ બધાને તથા " नरनारिंगणेय" न२ मने नारीना समूडने “सोमपडिस्वदरिमणिज्जे" ચન્દ્રમા જેવા સુદર આકારવાળા છે અને તેથી જ જે જોવા ગમે તેવા છે, "अलकियविभूसिए " भुगट मा विविध भा तथा पोथी विभूषित छ, "पुवकयतवापभावसोहाग सपउत्ते" पूर्वत तपना माथी प्रात ययस शीमाश्यथा रेसा युत छे, से सौन धन तथा " नड-नट्टग-जल्ल-मल्लमुद्रिय-वेलवग-कहग-पग-लासग आइस्खग-लख-मस-तूण-इल्ल-त -ता Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शनी टीका म०५ सू०८ चक्षुरिन्द्रियपर नामकद्वितीयभावनातिरूपणम् ९०७ प्लवक-लासकारयायक-ला-मस तूणिक तुम्मनोणिक तालाचर प्रकरणाणि च, नटनर्तकादिपदाना व्याख्याऽस्यैवप्रथमभावनातोऽवगन्तव्याः, 'पहूणि ' बहूनि: अनेकविधानि 'सुकरणाणि ' मुकरणानि-गोभनक्रियायुक्तानि दृष्ट्वा, नटनर्तकादीना बहुविधान् मनोहरव्यापारान् दृष्टेत्यर्थः, तेपु तथा 'अण्णेमु य ' अन्येषु चैतद्भिन्नेपु 'एकमाइएमु ' एपमादिकेपु-एपविधेषु 'मणुन्नभदएसु' मनोज्ञभद्रकेषु 'रुवेस' रूपेपु-चक्षुधिविपयेषु 'समणेण' श्रमणेन साधुना 'न सज्जियन' न सक्तव्यम्, न रज्जियव्य' न रक्तव्यम् ‘जार' यावत् यारत्करणात् 'न गिझियन्व' न गर्धितव्यम्' 'न मुज्झियव्य न मोहितव्यम् , 'न विणियायमावज्जियव्च' न विनिघातआपत्तव्य. तया-'न लुभियन्य न लोधव्यम् , 'न तुसिय' न तोप्टव्यम् , नट,-नर्तक, जल्ल, मल्ल, मौष्टिक, वेलवक, कथक, पूलवक, लासक, आख्यायिक, लख, मख, तृणिक, तुम्रवीणिक, तालाचार, इन सब के मनोहर व्यापारों को जों (बहणि) अनेक प्रकार के होते हैं और (मुकराणि ) शोभन क्रिया सपन्न रहा करते हैं उनको देख करके, तथा ( अण्णेसु एवमाइएस्सु स्वेतु मणुण्णभदएसु) और भी जो इसी प्रकार के मनोज्ञभद्रक रूप हों उन्हें देख करके (समणेण) साधु को (तेसु) उनमें (न सज्जियव्य ) आसक्त नहीं बनना चाहिये । (न रज्जियव्व) राग नहीं करना चाहिये। यहा यावत् शब्द से (न गिझियत्व) गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये-अर्यात-उनमे ललचाना नहीं चाहिये। (न मुज्झियव्य)न मोह करना चाहिये, (न चिणिघाय आवज्जि-यव्व ) उनके लिये चारित्र का भग न करे, (न लुभियव्व ) लोभन करे, (न तुमियन्च ) प्रसन्न मन नहीं होना चाहिये, (न हसियन्व) लायर-पकरणाणि" नट, नत, ace, भौष्टिर, येस १४, उय४, aas, दास આખ્યાયિક, લખ, મખ, તુણિક, તુબવીણિક, તાલાચાર, એ બધાના મહેર व्यापा२। २' बहूणि " मने प्रा२ना जाय छ, भने “ सुकराणि " सुहर ठिया युक्त हाय छे, तेभने धन तथा “अण्णेसु एवमाइएसु रूवेसु मणुण्ण भदएसु" मे ४ प्रा२ना मीan ५४२ भनाश मद्र३५ डाय तमन नधन “समणेण" साधु " तेसु" तेमनामा " न सज्जियव्य " भासत थी नही, "न रज्जियव्व " २२ नये नही, “न गिझियव्व" तभी या ने नही, “न मुज्झियव्य " तेने भाटे मोड ४२वो नये नही, "न विणियाय आवज्जियव्व " तेने भाटे यात्रिने। मन ४२व "न लुभियन्ध " बल २वो न नही, " न तुसियव्य " Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०८ | স্বপ্নদােষ 'न हसियन्च' न हसितव्यम् , तवा-श्रमणस्तर 'न सइ च मड च' न स्मृति च मति च 'कुज्जा ' कुर्यात् । एतत्सर्गमस्या प्रथमभाग्नागा व्यान्यातम् । 'पुगरपि' पुनरप्युच्यते श्रमणः 'चाइदिएण' चक्षुरिन्द्रियेण 'अमणुगपारगाड ' अम नोज्ञपापकानि 'रूपाणि ' रूपाणि 'पामिय' दृष्ट्वा 'किं ते 'कानि तानिकथम्भूतानि तानि स्पाणि ' इत्याह-'गडि-कोटि-शुणि-उरि-कच्छुल्छ- पइल्ल -फुज्ज-पगुल-बामण-जविल्लग-एगचासुपिणिय सपिमल्लगमाहिरोगपीलिय' गण्डिकुष्ठिकुण्युदरिकलुल्लली पदकुन पशुल रामनान्धिलकैकवर्षिनिहत सपिशा चकव्याधिरोगपीडित-तन-गण्डी-गण्डो-हि कण्ठरोगविशेषः स च वातपित्त ले मसन्निपातर्भायमानत्वाचतुर्विधः, स यस्यास्ति स गण्डी, गण्डमालावानित्यर्थः, कुष्ठी-कुष्ठमस्यास्तीति कुष्ठी-कुष्ठरोगवान् , अप्ठमष्टादशविषय , तत्र महाकु आश्चर्य से हसना नहीं चाहिये, तया (न सइ च मह च तत्वकुज्जा) और न उनकी याद करना चाहिये और न उनमें अपनी बुद्धि को ही लगाना चाहिये । (पुगरवि) इसी तरह (अमणुण्णपाचगाइ) अमनोज्ञ अशुभ (ख्वाइ) रूपों को (चरसुइदिएण) चक्षु इद्रिय से (पासिय ) देखकर साधु को उनमें रोप-द्वेप नहीं करना चाहिये। (किं ते!) वे अमनोज अशुभ रूप कौन २ से है इस प्रकार की शका का समाधान करते हए सुत्रकार अब उन्हें इन निम्नलिखित पदा द्वारा प्रकाशित करते है-(गडि-कोढि-कुणि-उदरि कच्छल्ल-पडल्लकुज्ज-पंगुल-वामण-अधिल्लग-एगचक्खु-विणिय सपिसल्लग-वाहीरोग-पीलिय) गंडी-गडमाल-रोगवाले, कुष्ठी-कुष्ठरोगवाले, कुणिकुष्ठरोगी, उदररोगी, कच्छुल्लरोगो, स्लीपदोगी, कुब्ज-कुवडा, पगुल, तनाथी भनमा मान पावो नही, "न हसियव्य " तेन नेईन २५ यथी उस ननस, तथा “ न सइ च मइ च तत्थकुन्जा " तेन. या કરવું જોઈએ નહી કે તેમા ધ્યાન પરોવવું જોઈએ નહી "पुणरवि" प्रमाणे “ अमणुण्णपावगाइ " ममना सशुभ "रूवाइ " ३पाने ' चक्खुइ दिएण" यक्षुधन्द्रियथी “ पासिय" न/ने तना प्रत्ये १५-द्वेष ४२ मे नाही, “ कि ते?" ते माल ३५ ४या या છે તે શકાનું સમાધાન કરવાને માટે સૂત્ર૨ નીચેના પદે દ્વારા તેમને જાહેર ४२ छे-“गडि-कोढि-कुणि-उदरि-कन्छल्ल- पइल्ल-कुज-पगुल-वामण-अ धिल्ल ग-एगचक्खु-विविहय-सपिसल्लग-वाहिरोग-पीलिय"10-38णनाशवाजा, टरागी, थि- ४ाणा, २२।गी, Rail, 4800, गुप Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका भ०५ सू०८ चक्षुरिन्द्रियसपर'नामकद्वितीयभायनानिरूपणम् ९०६ प्ठस्य सप्तभेदाः । तद्यथा अरुग-दुम्पर-स्पर्शजिह-करकपाल-काऊन-पौण्डरीक दरणि । इति, महत्त्व चैपामसाध्यत्वात्। सामान्यकुष्ठस्यैकादश भेदाः, स्थूलामारुक १ महाकुप्ठे २ स्कुप्ठ ३ चर्मदल ४ विसर्प ५ परीमर्प ६ पिचर्चिका ७ सिध्म ८ कटिभ ९ पामा १० शतारुष्क ११ सज्ञकाः। एव सर्माणि कुप्ठान्यष्टा दश । यद्यपि सर्व कुष्ठ सन्निपातजमेर जायते, तथापि-वातादिदोपोत्कटतया वामन, अधिल्लग-जन्मान्ध, एफचक्षु-काना, विनिहतचक्षु-जन्म के याद होने वाला अधा, सपिसल्लक-सपिशाच-भृतादि आवेश वाला, अथवा सर्पिशल्यक-घसीते हुए चलने वाला हृदयरोगी, व्याधिपीडित, इन सब को देखकर इनमें द्वेप तथा घृणा नहीं करनी चाहिये। पूर्वोक्त पदों का अलग-अलग अर्थ इस प्रकार है-गडी-वातपित्त और सन्निपात-वातादि त्रिदोप मिश्रित विकार से उत्पन्न होने के कारण चार प्रकार के कठ रोगवाला, कुष्ठी-कुष्ठ अठारह प्रकार का होता है, जिसमे सात प्रकार के महाकुष्ठ होते हैं और ग्यारह प्रकार के सामान्यकुण्ठ होते है । (१) अरुण २ दुम्बर ३ स्पर्शजिह्व ४ करकपाल ५ काकन ६ पौण्डरिक और ७ दद्र । ये असाध्य होने से महाकृष्ठ माने गये हैं। सामान्य कुष्ठ ग्यारह प्रकारके ये है-१स्थूलामारुक २ महाकुष्ठ ३ एककुष्ठ४ चर्मदल ५ विसर्प ६ परिसर्प विचचिका ८ सि म ९ किटिभ १० पामा शतारुक ११ । यद्यपि सर ही कुष्ठ सन्निपात से ही उत्पन्न होते है तथापि वातादिक दोपों की उत्कटता से इसमे भेद माना गया લૂલા, વામન, જન્માધ, વાણીયા જન્મ પછી આધળા બનેલા, સપિસલકસપિશાચ-ભૂતાદિ વળગાડવાળા, અથવા સપિશલ્યક-ઢસડાતા ચાલના હદયરોગી, વ્યાધિ પીડિત અને રોગ પીડિત એ બધાને જોઈને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ અથવા ઘણું કરવી જોઈએ નહી પૂર્વોક્ત પદેને અલગ અલગ અર્થ આ પ્રમાણે छ-"गडी"-पात पित्त भने सन्निपात-पाताल त्रिोष मिश्रित विधारथी उत्पन्न वान डा२णे यार प्रा२ना शिवाणा, “कुष्ठी "- Yष्ट मढ२ ५४॥२॥ હોય છે, જેમાં સાત પ્રકારના મહાકુષ્ટ હોય છે અને અગિયાર પ્રકારના सामान्य जुट जय (१) अरुण, (२) हु०१२, 3) २५Are, (४) ४२ ४पास, (४) १४न, (६) यो उरी मने (७ ६ मे साते असाध्य डावपाथी મહાકુષ્ઠ ગણાય છે અગિયાર પ્રકારના સામાન્ય કુષ્ટ આ પ્રમાણે છે–(૧) સ્થલાभारण, (२) भाट, (3) ४(४) यमस, (५) विस ५ (6) परीस (७) वियर्थि!, (८) भिम(6) टिम (१०) पामा, (११) ता२०४ ने मार કુષ્ટ સન્નિપાતથી જ ઉત્પન્ન થાય છે છતા પણ વાતાદિક દેવેની પ્રબળતાને Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभध्याकरण भेदभाग्भवतीति विज्ञेयम् । तथा-कुणिः कुण्ट., जय हि गर्माधानादि दोपा इस्ते कपादो न्यूनैकपाणिमिति। तया - उदरी-उदररोगवान्, उदररोगा अप्टप्रकारा तदुक्तम् पृथक समस्तैरपिचानिलीधैः प्लीहोदर पद्धगुद तया । आगन्तुक वेसरमष्टम तु जलोदर चेति भान्ति तानि" ॥ इति । एतेषु जलोदरमसाध्य शेषाणि तु सायानि । तथा-कन्एल'कण्डूतिमान , श्लीपदः श्लोपद्रोगयुक्तः, श्लीपढलक्षणमेपमुक्तम्-" प्रकुपिता वातपित्तश्लेष्मा णोऽधोधः प्रपन्ना वक्षस्थलोरुजद्धा-स्वनतिष्ठमाना कालान्तरे पादमाश्रित्य शनेः शनैः शोथमुपजनयति" तदेवश्ठीपदमुच्यते । अन्यदप्युक्तम्है इन अठारर प्रकार के कुष्ठरोगवाला, कुणी-कुष्ठरोगी (२) यह रोग गर्भाधानादि के दोप से होता है । इसमें एक पैर छोटा हो जाता है या एक हाथ छोटा हो जाता है। उदररोगी-उदररोग आठ प्रकार का होता है, कहा भी है" पृथक् १ समस्तै २ रपि चानिलोधैः ३, प्लीहोदर ४ बद्धगुद् ५ तथैव । आगन्तुक ६ वेसर ७-मष्टम तु जलोदर ८ चेति भवन्ति तानि ॥ १॥" पृथक् १, समस्त २, अनिलौघ ३ प्लीहोदर ४ बदगुद ५ आगन्तुक ६ वेसर ७ जलोदर ८ उदररोग के ये ८ प्रकार है। इनमें जलोदर रोग असाध्य है, बाकी सब साध्य हैं । कच्छुल्ल-खुजली रोगवाला, लाप दरोगी-इस रोग के लक्षण इस प्रकार कहे है "कुपि तावातपित्तश्लेष्माणोऽधोध प्रपन्ना वक्षःस्थलोरुजद्धा स्ववतिष्ठमाना कालान्तरे पादमाश्रित्य शनैशन शोथमुपजनयन्ति ॥ કારણે તેમાં ભેદ માનવામાં આવ્યા છેઆ રીતે અઢાર પ્રકારના કુષ્ટરોગ कुणि-४०४रोगी- शग गर्भाधानाविषयी-थायछत शसभा मे हाथ કે એક પગ ટૂક થઈ જાય છે ઉદરરોગી-ઉદરરોગ આઠ પ્રકારના હોય છે કહ્યું પણ છે કે " पृथक् १ समस्तै २ रपि चानिलौधैः ३ प्लीहोदर ४ बद्धगुद ५ तथैव । आगुन्तुक ६ वेसर७ मष्टम तु जलोदर ८ चेति भवन्ति तानि ॥१॥" (१) पृथ५, (२) समस्त, (3) भनितीध, (४) alBER (५) मशुद्ध (६) मागन्तु, (७) वस२ मन (८) रसोरा २ ६२ हाय छे तेभा सोह२ असाध्य रोगछमाजीनामधा साध्य छे “कच्छुल्ल । हा६२, ५२०४, मस, वगैरे सुरसारागी, स्वीपही -(डायौपानी शoil) આ-રોગના લણે નીચે પ્રમાણે કહેલ છે___“कुपिता वातपित्तश्लेष्माणोऽधोध प्रपन्ना वक्षःस्थलोरुजतास्ववतिष्ठ भाना कालान्तरे पादमाश्रित्य शनैः शनैः शोथमुपजनयन्ति " Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुशिनी टीका अ०५ सू०"चभुरिद्वियसपर'नामकद्वितीयभावनानिरूपणम् ९११ 'पुराणोदकभूयिष्ठाः सर्वर्तुषु च शीतलाः । ये देशास्तेपु जायन्ते श्लीपदानि विशेषतः॥१॥' पादयो हस्तयोऽपि जायते श्लीपद नृणाम् । कर्णीष्ठनासास्वपि च, क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥२॥ इति । इद च 'फील पाँर' हाथी पगा' इत्यादि नामभिलॊके प्रसिद्धम् । तथाकुब्जा गइला कुनडा' इति भापाप्रसिद्धः। पडुला पहुगमनासमर्थः, वामन = खर्व-हस्वगरीर इत्यर्थः । एते कुजमनादयो मातापित्शुक्रशोणितदोपेण भवन्ति । तदुक्तम् यह रोग प्रकुपित रोकर जय वात पित्त और कफ नीचे नीचे शारीरिक भागों में पहुँच जाते है और वक्षस्थल, उरु, जघा, इनमें प्रवेश कर जाते हैं तप वे कालान्तर में पैर मे पहुँच कर धीरे • उसमें शोथ-सूजन को उत्पन्न कर देते है इसी का नाम श्लीपद रोग है, इस रोग का नाम फिलपाय हाथीपगा आदि भी है । इसके और भी लक्षण कहे हैं"पुराणोदकभूयिष्ठाः, सर्वर्तुं च शीतलाः। येदेशास्तेपु जागन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥१॥ पादयो हस्तयो वाऽपि, जायतेश्लीपदनृणाम् । कष्ठिनासास्वपि च, क्वचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥ २ ॥ यह रोग उन देशो में विशेप कर होता है जिनदेशों में पुराना पानि अधिक रूप मे भरा रहता है तथा जो सर्व ऋतुओं में शीतल रहा करते है, कितनेक यह भी कहते है कि यह रोग हाथ, पैर, कान, જ્યારે વાત, પિત્ત અને કફ પ્રકુપિત થઈને શરીરના નીચેના ભાગમાં પહેચી જાય છે અને વક્ષસ્થળ, ઉરુ જ ઘા આદિમાં પ્રવેશ કરે છે ત્યારે સમય જતા પગમાં પહોચીને ધીમે ધીમે તેમાં જે ઉત્પન્ન કરે છે તે રોગન નામ લીપદરેગ છે આ રેગના બીજા નામે ફિલાગા હાથીપગા આદિ પણ છે તેના બીજા લક્ષણે પણ કહેલ છે– " पुराणोदकभूयिष्ठाः, सर्व षु च शीतलाः येदेशास्तेपु जायन्ते, श्लीपदानि विशेषतः ॥१॥ पादयो ईस्तयोर्वाऽपि जायते श्लीपद नृणाम् । कर्णीष्ठ नासास्वपि च काचिदिच्छन्ति तद्विदः ॥१॥ જે દેશમાં પ્રાચીન પાણી વિશેષ પ્રમાણમાં ભરાઈ રહે છે તે દેશોમાં આ રોગ વધુ પ્રમાણમાં થાય છે વળી જે પ્રદેશ બધી ઋતુઓમાં શીતળ રડે છે ત્યા પણ આ રોગ વધારે I m nણ છે કેટલાક એમ પણ કહે Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१२ नव्याकरणसूत्रे गर्भे वातप्रकोपेण, दोहदे पापमानिते । भवेत्कुनः कुणिः पशुको मन एव च ॥ १ ॥ इति । तथा - अन्धिल्लक:-जात्यन्धः, एकचक्षुः = काणः, एतद् दोपद्वय च गर्भगतस्य जातस्य चापि भवति । गर्भगतो ययै तदोपद्वयभाग्भवति, तदेव विज्ञातम् - यदा हि गर्भस्थजीवस्य नेनद्वय तेजो न प्रतिपद्यते तदा स गर्भस्यो जात्यन्धो भवति । यदा चैक नेत्र प्रतिपद्यते नापर, त स काणो भवति । तदेव ओठ और नासिका मे भी होता है । कुन्ज पगु और चामन, ये माता पिता के शुक्र शोणित के दोष से उत्पन्न होते हैं, कहा भी है"गर्भे वातप्रकोपेण, दोहदे वाग्यमानिते । भवेत्कुजः कुणि. पशु र्मुको मन्मन एव च ॥ १ ॥ अर्थात् गर्भ मे बात के प्रकोप होने से तथा दोहद-गर्भिणी मनोरथ की तर्फ ध्यान नहीं देने से अर्थात् उसका अपमान करने से कुब्जक, कुणि- कुष्ठ-पहु और लूले तथा तुतलाने वाले बालक उत्पन्न होते है | अधिल जन्मान्य, काना ये दोनो प्रकार के व्यक्ति जब गर्भ अवस्था सपन्न होते हैं तब उस समय यदि दोनों नेत्र इनमें से किसी एक के तेज को प्राप्त नही कर पाते हैं तो वह गर्भ जन्मान्ध होकर उत्पन्न होता है-यदि एक ही नेत्र तेज को प्राप्त कर लेता है दूसरा नहीं कर पाता तो वह उस समय काना उत्पन्न होता है। वही तेज यदि रक्तानुगत हो जाता है तो शिशु रक्ताक्ष उत्पन्न होता है, पित्तानुगत होता है तो शिशु पिङ्गाक्ष होता है और यदि श्लेष्मानुगत होता छे या रोग हाथ, पशु, अन, होड मने नाउमा पशु थाय छे कुब्जપાગળાપણુ અને વામનતા માતાપિતાના શુષ્ક તથા રક્તનાદોષથી થાય છે કહ્યુ પણ છે " गर्भे वातप्रकोपेण, दोहदे वाग्यमानिते । भवेत्कुन्ज कुणिः पशुर्भूको मन्मथ एव च ॥ १॥ એટલે કે ગર્ભ મા વાયુના પ્રકોપ થવાથી તથા ગર્ભિણીને દોહદમનેરથ પૂા નહી કરવાથી, તેના દોહાની અવગણના કરવાથી કૃખડા કુણિ-કષ્ટ, લૂલા, મૂગો અથવા તેાતા બાળક જન્મે છે अघिल-४-भाष, आशु, मे એ બન્ને પ્રકારના ખાળક! જ્યારે ગાઁમા ચાય ત્યારે જો મને આખા તેજ પ્રાપ્ત કરી લેતી નથી તે તે ખાળક જન્મથી જ અધ પેદા થાય છે જો એક જ આખ તેજ પ્રાપ્ત કરી લે છે પણ બીજી આખ તેજ પ્રાપ્ત કરી લેતી નથી તા તે જન્મથી જ કાણા હેાય છે એ જ તેજ ને રસ્તાનુગત થઇ જાય તે બાળક રક્તાક્ષ-લાલ નેત્રવાળુ થાય છે, પિત્તાનુગત થઈ જાય તા બાળક પિંગાક્ષ પીળી આખવાળા જન્મે તે, અને જે શ્લેષ્માનુગત થાય તે તે શુકલાક્ષ પેદા ܙ Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " , सुदर्शिनी टीका २०५ सू०८ 'चलुरिन्द्रियसमर' नामक द्वितीयभावनानिरूपणम् ९१३ तेजो यदि रक्तानुगत पित्तानुगत क्लेमानुगत च भवति, तदा जातकः क्रमेण रक्ताक्षः पिङ्गाक्ष शुहास भगति । तथा — विनिहतः - विनिहतचक्षुष्क इत्यर्थः, उत्पन्यनन्तर यस्य नेत्रद्वय नष्ट स विनिहत उच्यते । तथा सप्पिसलग सपिशाचकः = पिशाचगृहीत इत्यर्थ । अ-सर्पिशल्यकः, इतिच्छाया । तत्र - सर्पी - सर्पतीति सर्पी, सर्पणशील इत्यर्थः । अय हि पीठे समुगविश्य तत् जङ्घायोः कटया च दृढ हस्तनोः पादुके आदाय तदाश्रयणेन सर्पति= सरति, अन एराय सर्पेत्युच्यते । अय किल गर्भदोपात्कर्मदोषान्च भवति । शुल्कः हृदयशल्पादि रोगवान् । उभयो कर्मधारय । तथा-व्याधिरोगपीडित:= व्यापिना - चिरस्थायिपीडया, रोगेण- सोघातिपीडया च पीडितो यः स तथोक्त एपा समाहारद्वन्द्वस्तत्तयोक्तम्, तथा-' विगयाणि य मयकलेवराणि ' विकृतानि च मृतकले राणि तथा - ' सकिमिणकुहिय च ' सकृमिकुथित च सह कृमिभिः, है तो वह शुक्राक्ष उत्पन्न होता है। विनित विनितचक्षु उत्पत्ति के बाद जिसके नेत्र फूट जाते हैं वर विनित्तचक्षुक कहलाता है ऐसे प्रागी नपिसल्ला - पिशाचगृहीत अथवा सर्विशल्यक-सप- पीठ पर बैठ कर जो उसे दोनों जघाओं से कटि पर मजबूती के साथ बांधकर और दोनों में दो कष्ट आदि की पादुकाओं को लेकर उसके सहारे से सरकना है उसका नाम सर्दी है ऐसे सरकने वाले व्यक्ति को कि जो गर्भदोष से और अपने कर्म के दोष से अशुभ कर्म के उदय से उत्पन्न होता है, ऐसा शल्यक- हृदय शल्यादि रोगवाला, व्याधिरोग पीडित - व्याधिरोग से पीडित प्राणी, अर्थात् चिरस्थायी पीडारूप व्याधिसे तथा सात रोगरूप पीडा से जो कष्ट पा रहा है ऐसे दुःखित जीव, इन सब को देख कर इनमे द्वेष त घृणा नहीं करनी चाहिये । ( विगयाणिय भयकलेवराणि) विकृत हुए मृतक कलेवरों को, ( सकिमिण थाय छे विनिहत-विनिहतययु-भ पी लेनी खामो छूटी लय छे ते विनि इतययु उडेवाय छे सर्पिसलग - पिशाथगृहित अथवा राशिट्य -साथ पीठपर એસાને અથવા અન્ને જાઘને કિટ પર મજબૂત રીતે માધીને અને ખને હાથમા એ લાકડા આદિની ઘેાડી લઈને તેની મદદથી જે જમીનપર સરકે છે તેને ર્ષિ કહે છે એ રીતે સરકનાર વ્યક્તિ કે જે ગર્ભ દોષથી અશુભ કર્માંના ઉદયથી ઉત્પન્ન થાયછે, " शल्यक" - हृदयशट्य आदि रोगवाणा, व्याधि रोगपीडितव्याधि रोगथी पीडाता પ્રાણી એટલે કે દીકાળતી ચાલ્યા આવતા પીડારૂપ વ્યાધિથી તથા હુ મેશ રેાગરૂપ પીડાથી પીડાતા હુ ખી જીવે એ મધાને જોઈ ને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કે ઘૃણા કરવી જોઇએ નહી " विगयाणिय मयकलेवराणि " વિસ્તૃત થયેલ મૃત શરી प्र ११५ Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१४ प्राध्याकरण कुथितो दुर्गन्धयुक्तो यः स तथोक्तस्त 'दपरामि' द्रव्यराशि-पुरीपादिद्रव्यममूह च दृष्ट्वा 'एवमाइएमु' मादिकेपु-एच मकारेषु 'अमणुन्नपारगेमु' अमनोनपापकेपु, तथा-एभ्यः 'अन्नेम' अन्येपु च 'तेसु तेषु अमनोनपापकेषु समुपस्थितेषु 'समणेण 'अमणेन साधुना न रुसियन्य' न रोप्टव्यम् , 'जार' यावत्पदाद 'न हीलितव्यम् , न निन्दितव्यम् , न रिसितव्यम्, न रेत्तव्यम् , न भेत्तव्यम् न हन्तव्यम् , इति । पट्पदानि सग्राद्याणि । तया-अमणेन , दुगुडापत्तियावि' जुगुप्सात्तिकाऽपि न 'लभा' लम्या 'उपाण्उ ' उत्पादयितुम् । एवम्-अकुहिय च दब्यरासि ) कृमिसरित सढे टुप दुगंधित पदार्थ को और पुरीप आदि द्रन्य समूह को देय कर के इनमें तथा (अन्नेसु य एव. माइएसु) इनसे भिन्न और जो इसी तरह के (अमणुण्णपावण्सु तेसु) अमनोज्ञ अशुभ पदार्थ समक्ष उपस्थित हो उनके ऊपर (समणेण) साधुको (न रुसियव्य ) रोप नहीं करना चाहिये । यावत् पद से (न हीलियव्य ) अवज्ञा नहीं करनी चाहिये, उनकी (न निदियव्य) निंदा नही करना चाहिये, (न खिसियन्व) उनकी दूसरे के सामने निंदा नही करनी चाहिये । इसी तरह (न डिदियन्त्र ) अमनोज्ञरूप आकृति का छेदन नही करना चाहिये । (न भिदियच्च) न भेदन करना चाहिये। (न बहेयव्य ) न अनिष्ट रूपवाले व्यत्तिका वध करना चाहिये । इसी प्रकार से इन पदार्थों के ऊपर साधु को (न दुगुछा वत्तियावि लब्भा उप्पाएउ ) जुगुप्सावृत्ति भी उत्पन्न करना उचित नही है । (एव) इस शने “ सकिमिणकुहिय च दव्वरासिं " भिसडित सता दुर्गध युत पहायान न्मने पुरीष माहि द्रव्य समूडन ने तमा तथा " अन्नेसुय एवमाइएसु" से रात मे ना ln " अमणुण्णपावएसु तेसु" ममनाश, शुभ पहा पासे भाप होय तमना ५२ " समणेण " साधु " न रुसियन्व" शेष न ४२ न" न हीलियम्" तनी न ४२वी. मे, “न " निदिव्य " भनी निहन ४२वीन, "न सिसियव्व " मानी PM निह न ४२वी नये, ये प्रभारी "न बिंदियव्व " ममनोज्ञ भावना १२तुनु छेदन ४२२१ नही, “न भिंदियव्य , सहन सक्यु नहर, 'न वई यव्ध " अनिष्ट ३५वामी तिने १५ सपन नही मे प्रमाणे से पहायें प्रत्ये माधुणे "न दुगुछा--वत्तियो वि लम्भा उप्पाएउ । शु-सा वृत्ति ५४ रामवी ते योग्य नथी "एब" मानते " चाखुइदिय Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका २०५ सू०८ 'चभुरिन्द्रियसवर'नामकद्वितीयमापनानिरूपणम्२१५ नेन प्रकारेण 'चक्युइदियमा गाभाविभो' चक्षुरिन्द्रियभाग्नाभानितो ' भवइ ' भाति ' अतरप्पा' अन्तरात्मा जीनः। ततश्च 'मणुणामणुण्गमुभिभिरागदोसे' मनोज्ञामनोजमरमिदुरभिगगढेपे, 'पणिहियप्पा' प्रणिहितात्मा 'साहू' साधुः 'मणश्यणकायगुत्ते' मनोवचनकायगुप्त., 'सबुडे' सवृत. 'पणिहिडदिए' मणिहितेन्द्रियो 'धम्म' धर्म 'चरेन ' चरेत् । एपा पदानां व्यायाऽस्यैर प्रथम भागनाया द्रष्टव्या सू० ८॥ प्रकार से (चक्खु इदिय मावणाभाविओ अतरप्पा ) जर चक्षु इन्द्रिय की भावना से भावित अतरात्मा होता हे तर वह (मणुणगामणुण्णसुन्भिदुन्भिरागदोसे पणिहियप्पा) मनोजरूप चक्षुइन्द्रिय के अशुभ विपयमे रागद्वेप से रहित होने से व्यवस्थित आत्मावाला (साहू) साधु(मणवयणकायगुत्ते) अपने मन, वचन और कायरूप योगोको शुभ अशुभके व्यापार से सुरक्षित कर लेता है और (सवुडे ) सवर से युक्त वन कर (पणिहिड दिए) अपनी चक्षुइन्द्रिय को वशमें कर के (धम्म) चारित्र रूप धर्म का (चरेज्ज ) पालक बन जाता है । भावार्थ-सत्रकार ने इस सूत्रद्वारा परिग्रह विरमण व्रतकी द्वितीय भावना जो चक्षु इन्द्रिय सवर नामकी है वह कही है। इस भावना में साधु को ऐसा विचार करना सरझाया गया है कि वह इस प्रकार से अपनी चक्षुरिन्द्रिय की परिणति को ऐसी विचारधारा से सुदृढरूप में वाध कर रखे कि जिससे वह चक्षुरिन्द्रिय के विषयभूत मनोज्ञ रूपमे भावणा भाविओ अन्तरप्पा " स्यारे गतरात्मा सुन्द्रियनी लानाथ लावित थाय छ त्यारे ते “ मणुण्णामणुण्णसुभदुभिरागदासे पणयप्पा" मनास३५ ચક્ષુ ઇન્દ્રિયના શુભ વિષયમાં અને અમને જ્ઞરૂપ ચક્ષુ ઈન્દ્રિયના અશુભ વિષયમાં सगषथी २डित यायी व्यवस्थित सामावाणी "साहू" साधु “ मणवयणका यगुत्ते" पाताना मन, क्यन भने य३५ योगाने शुभ अशुभ प्रवृत्तिथी सुरक्षित मनावी से छे भने “सबुडे "सपरथी युद्धत मनाने “ पणिहिइ दिए" पोतनी यक्ष धन्यने उभा राजान “धम्म" यात्रिय३५ धर्म ना “चरेज" पास अने छ ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા પરિગ્રહ વિરમણ વતની ચક્ષુઈન્દ્રિય સ વર નામની બીજી ભાવના બતાવી છે આ ભાવના દ્વારા સાધુને એ વિષય સમજાવવામાં આવ્યું છે કે તે એવી પિતાની ચક્ષુઈન્દ્રિયની પ્રવૃત્તિને એવા પ્રકારની વિચાર ધારાથી બાંધી રાખે કે જેથી ચક્ષુઈન્દ્રિય વડે દષ્ટિગત થતા Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- ९१६ प्रमभ्याकरणसूत्रे ततीयां भावनामाह-'तउय ' इत्यादि मूलम्-तइयं घाणिदिएण अग्घाडय गधाइ मणुनभदगाई, किं ते ? जलयर- थलयर -सरस- पुप्फल--पाणभोयणकुट्ट-तगर---पत्त--चोय. दमणग-मरुय- एलारस -पक्रमसि • गोसीस- सरसचंदण-कप्पूरलवग अगुरुकुकुमककोल उसीर सेसचंदण सुगंधसारगजुत्तिवरधूववासे उउयपिडिमणिहारिमगंधिएसु अन्नेसु य एवमाइएसु गधेसु मणुन्नभदएसु न तेसु समणेन सजियव्व जाव न सइंच मइ च तत्थ कुजा, पुणरवि धाणिदिएण अग्घाइय गंधाणि अमणुन्नपावगाई, कि ते? अहिमड- अस्समड-हत्थिमड-गोमड--विग-सुणग सियाल--मणुय -मजार--सीह-दीविय- मय कुहिय-विणठतथा अमनोज्ञरूपमें रागद्वेप न कर सके। मनोज्ञरूप समक्ष उपस्थित हो तो उसे देख कर उसमे रागादि परिणतिसे उसे यध नहीं जाना चाहिये और अशुभ रूप हो तो उसमे द्वेष परिणति से अपने आपको दुखित नही करना चाहिये ।दोनो प्रकारकी विषय सनिधानता में उसको समभावी रहना चाहिये । जो ऐसा नहीं करताहै वह महान् अनर्थका भागी बनता है । इस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय की भावना से भावित हुआ वर सोयु अपने त्रियोगों को शुभाशुभ रूप व्यापार से सुरक्षित रखता हुआ चक्षु इन्द्रिय को वशमें कर लेता है और चारित्ररूप धर्मका पालक बन कर अपने परिग्रह विरमणरूप नतको सुस्थिर बना लेता है । सू०८ ॥ મનેશ તથા અમનેણ રૂપમાં તેને રાગદ્વેષ ન થાય છે તેની સમક્ષ મને પદાર્થ હાજર થાય તે તેમનામાં રાગાદિ પણિતિથી બધાવું જોઈએ નહી અને જે અશુભ ૩૫ હેય તે તેના પ્રત્યે દ્વેષ વૃત્તિ દાખવીને પિતાની જાતને દુખી કરવી જોઈ એ નહી અને પ્રકારના વિષય સમક્ષ તેને તે સમભાવ યુકત રહેવું જોઈએ જે તે પ્રમાણે કરતો નથી તે મહા અનર્થને પાત્ર થાય છે આ પ્રમાણે ચક્ષુન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત બનેલ તે સાધુ પિતાના ત્રણે યોગને શુભાશુભ પ્રવૃત્તિઓથી સુરક્ષિત રાખીને ચ ઈન્દ્રિય પર કાબુ જમાવે છે અને ચારિ વરૂપ ધર્મનું પાલન કરીને પોતાના પરિગ્રડ વિરમણવ્રતને સુસ્થિર બતાવે છે Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका- ' तय सुदर्शिनी टीका अ०५ सू ९ 'घ्राणेन्द्रियसवर नामक तृतीयभावनानिरूपणम् ९१७ किमिण बहुदुरभिगंधाई, अन्नेसु य एवमाइएसु गधेसु अमशुनपावएस न तेसु समगेण रूसियव्वं न हीलियव्व जाव पणिहिइंदिए चरेज धम्म ॥ सू० ९ ॥ तृतीया घ्राणेन्द्रियसवरणाभिधेयां भावनामाहघाणिदिएण ' प्राणेन्द्रिएण ' मणुन्नभदगाइ' मनोज्ञ भद्रकान्' गराइ ' गन्धान् 7 अग्वाइय ' अत्राय ' ते ' कान् वान् कथम्भूताँस्तान गन्धान् इत्याहजलयर-थलयर - सरस- पुप्फफलभोयण - कुट्ट - तगर - पत्त-चोय दमणग-मरुय - एलारस परमसि - गोसीस - सरस- चढण - कप्पूर - लवग - अगर - कुकुम +कोलउसीर - सेस - चदण- मुगधसारग - जुत्तिवरधूवना से ' जलचर - स्थलचर- सरस- पुष्पफल- पानभोजन- कुष्ठ- तगरपनत्वचा दमनक - मरु कैलारस - पक्कमांसी- गोशीर्षअब सूत्रकार परिग्रह विरमण व्रत की तीसरी भावना को समझाते हैं- 'तय' इत्यादि । " कार्थ - (a) इसकी तीसरी नावनाका नाम घ्राणेन्द्रिय संवरण है । इस भावनावाले साधु को घ्राणेन्द्रियके मनोज्ञ भद्रक गंध को सूघ करके राग नहीं करना चाहिये और अमनोज्ञ पोपक अशुभगधो को सुघर छेप नहीं करना चाहिये । इस सूत्र में इसी विषय को सूत्रकार विशेषरूप से स्पष्ट करते हैं ( किं ते) वह मनोज्ञ मद्रक गध कौन है इस प्रकार की आशका का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते है - ( जलचर - धलचर- सरस-पुष्पफल - पाणभोषण- कुट्ठ- तगर - पत्त- चोय - दमणकमरुय- एलारस-पक्कवमभिगोसीस - सरसचदण - कप्पूर - लवग - अगुरु कुकुम - ककोल्ल - उसीर - से सचद्ण-मुगध - सारग - जुक्तिवर - धूववासे ) હવે સૂત્રકાર પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની ત્રીજી ભાવના સમજાવે "" तइय त्याहि- "C 6 ' www.da टीअर्थ " तइय " આ વ્રતની ત્રીજી ભાવનાનુ નામ ધ્રાણેન્દ્રિય સવરણ છે. આ ભાવનાવાળા માધુએ પ્રાણેન્દ્રિયને માટે મના ભદ્રક ગધને સૂધીને તેમા રાગ કવા જોઇએ નહી અને અમનેાજ્ઞ પાપક અશુભ ગધેશને સૂધીને તેમના પ્રત્યે દ્વેષ કરવા જોઈએ નહીં એ જ વિષયનુ સૂત્રકાર વિસ્તારથી स्पष्टी४२ रे छे " किं ते " ते मनोज्ञ लट् गध शेनी शेनी होय छेते प्रश्नन। उत्तर भायता सूत्रार हे छे - " जलयर - थलयर - सरस- पुष्कफलपाणभोयण- त्रुट्ट - तगर-पत्त-चोय-दमणक-मध्य- एलारस पक्कमति - गोसीस - सरसचद ण -कपूर- वग-अगुरु- कुकुम - ककोल्ल - उसीर से सचदण-सुगध सारंग जुत्तीवर Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ९१८ प्रश्नध्याकरण सरमचन्दन-कर्पूर-लबागमगुमायोलोशीशेतनन्दनगुगन्धसारनयुक्तिवरधूपवासान्-तर-जलचराणि-जले समुत्पन्नानि पुष्पादीनि, स्थचराणिस्यले समु त्पन्नानि सुगन्धिपुष्पादीनि, सरसानि-रमयुक्तानि पुष्पफलपानभोजनानि, कुष्ठसुगन्धिद्रव्यविशेषः, तगरः, धूपविशेप', परम्तमापनम् , ' चोय ' त्वचासुगन्धिक्षत्वचा, दमनकापुप्पजातिविशेष., मनकाममा' इति मापापसिद्धो वनस्पतिविशेषः, एयरस एलायाः 'इलायची' इति प्रसिद्धाया रसः, 'पिकमसी' पकमासी-परिपकगन्धद्रव्यविशेपः, गोशीपम् एतन्नामक चन्दनम् भारसचन्दनम् =धीखण्डचन्दनम्, कर्पूर -प्रसिद्धः, लाहानि-प्रसिद्धानि, अगुरु-धूपविशेषः, कुङ्कुमम्-'केसर' इति प्रसिद्धम् , ककोल. फलविशेप., उशीरम् बीरगमूल 'खश' इतिप्रसिदम् , श्वेतचन्दन प्रसिद्धम् , सुगन्यसारङ्गयुक्तिवरधूपपामा मुगन्धाना-शो भनगन्यवता सारगाणा-कमलपगाणा युक्तियाजन यतादृशो यो वरधूपनासाधूपद्रव्यविशेपः, एतेपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, तांस्तयोक्तानात्राय ' समणेण' श्रमणेन-साधुना ' उउयपिडिमणिहारिमगधिएसु ' अनुनपिण्डिमनि रिमगन्धिकेषुजलचर-जल में उत्पन्न हुए सुगंधित पुम्पो की, स्थलचर-स्थल में उत्पन्न छए खुशबूदार फूलो की, सरस-रस युक्त पुष्प, फल, पान, भोजनों को, कुष्ठ-सुगंधित द्रव्य की, तगर-धूपविशेप की, पत्र-तमालपत्र की, चोयसुगधित वृक्ष की छाल की, दमनक-पुष्पजाति विशेष की, मरुक-मरुआ की,इलायची के रस की,पक्वमसी-परिपक्वगधद्रव्य विशेषकी, गोशीर्ष चदन की, श्रीग्वडचदन की, कपूर की, लवग-लोगो की, अगुरुधूप की कुकुम-केशर की, ककोल नामक फलविशेप की, उशीर-खश की श्वेतचदन की, तथा जिसमें शोभन गावाठे कमल पत्रों का योजन समिश्रण-आ हो ऐसे उत्तम धूपविशेष की, सुगध को सूघ करके, तथा (उउयपिडिमणिहारिमगधिण्सु) ऐसी सुगन्ध से युक्त द्रव्यों के धूववासे " य२-४! Gत्पन्न येता सुगधित यानी, स्थाय२-४ भान પર ઉત્પન્ન થયેલા સુગ ધિત ફેલોની, સરસ-રમદાર ફ, ફળ, પાન, ભેજના (४-सुगधित द्रव्यनी, तार-2 कतना पनी पत्र-तमासन, न्याय સુગધિત વૃક્ષની છાલની, દમનક-એક જાતના ફલની, મક-ડમરાની, એલાયન ચીના રસની, પકવમ સી-એક જાતનું સુગધિ દ્રિવ્યન, ગશીર્ષ ચદનની, શ્રી ५ यहननी, उधरना, सवीगनी, अ पनी शुभ-शरनी, रास નામના એક જાતના ફૂલની, ઉશીર-સુગ ધિવાળાની ઋતચ દનની, તથા જેમી સુદર ગ ધવાળા કમળ પત્રનુ મિશ્રણ થયું હોય એવા ઉત્તમ પ્રકારના ધૂપી सुगध सूधान तथा "उउय पिडिमणिहारिमगधिएस" ने द्रव्यामा तुन Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीकाम०५ सू०९ 'घाणेन्द्रियसवा'नामर तृतीयभावनानिरूपणम् ९१९ ऋतुजः कालोचितः पिण्डिमा पिण्डिभूतो बहुलो निर्वाग्मिो दुत्तरप्रदेशगामी यो गन्धः, स विधते येपु तेयु टव्येपु, तथा-'अण्णेस य एरमाइएस गयेसु 'अन्येषु चैवमादिकेपु गन्पु, काम्भतेपु ? इत्याह ' मणुण्णभदएसु' मनोज्ञभद्र केपु 'तेमु' तेषु गन्धेषु न सज्जियत्र 'न सक्तव्यम् 'जाव' यारह-यावत्करणात्-न रक्तव्यम् , न गद्धितव्यम् , न मोहितव्यम् , न रिनिवातापत्तव्यः, न लोब्धम् , न तोप्टव्यम् , न हसितव्यम्, इतिसग्राह्यम् । तथा-अमणः 'तन्य' तत्र गन्धविषये 'सइ च मइ च स्मृति च मतिं च 'न पुज्जा ' न कुर्यात् । 'पुणरवि' पुनरप्युच्यते-'पाणिदिएण' त्राणेन्द्रियेण 'अमणुण्णपागाइ ' अमनोज्ञपापकान् , कि जिनमें सुगन्ध ऋतु के अनुकूल पिण्डीभत होकर रह रही हो और दूर प्रदेशतक जिन की यह सुगंध फैल रही हो उपस्थित होने पर उन में तथा (अण्णेसु एबमाइएसु मणुगभद्दएमु ) इन से भिन्न इसी प्रकार के और भी जो मनोज भद्रक गधयुक्त पदार्थ हों उनके समक्ष मे आने पर (समणेण ) सायु को उनकी (तेसु) उन मनोज मद्रक गंधो मे (न सज्जियच जाव न सइ च मड च तत्थ कुज्जा) आसक्त नहीं होना चाहिये-यावत् उनमें स्मृति को और अपनी मति को नहीं लगाना चाहिये । यहा यावत् शब्द से " न रज्जियश्च न गिज्झियय, न मुज्झियन्च, न चिणिधाय आवज्जियव्च, न लुभियन्व, न तुसियव्य न हसियञ्च" इन पदों का संग्रह किया गया है । इनका अर्थ पर ले कर दिया गया है वहा से समझ लेना चाहिये। इसी तरह अमनोज पाप गप में रोप आदि न करना चाहिये इसी यात को कहते हैं-(पुणरवि) इसी तरह से (घाणिदिएण) घ्राणेन्द्रिय અનુકુળ સુગધ ભરેલી હોય અને તેમની તે સુગધ દૂર દૂરના પ્રદેશ સુધી ફેલાતી डाय, सपा मुगधित ट्र०ये। भाद डाय तो तेभा तथा “ अण्णेसु एवमाइण्सु मणुण्णभहएस" रात तमना २१४ भनाश भद्र गधा पहा डाय ते पासे जाय तो ५५ " समणेण" साधुसे तेमनी " तेसु" ते ते भनागपामा "न सज्जियव्व जाब न सइ च मइ च तथज्जा" आमत થવું જોઈએ નહી ત્યાથી શરૂ કરીને તેને યાદ કરવી નહી કે તેનો વિચાર पा! ४२व नही त्या सुधा सभ देवानुछ मही यावत् शपथी “न रज्जियव्य, न गिज्झियव्य , न मुग्झियव्व , न विणिवाय आवज्जियव्य, न लुभियव्य, न तुसियव्य, न हसियव्य " से पहोने। मथ अडएर ४२वाना, छे तमना અર્થ આગળ આવી ગયા છે તે ત્યાથી સમજી લેવા એ જ પ્રમાણે અમનોજ્ઞ પાપક ગધ પ્રત્યે રોષ આદિ કરવા જોઈએ नहीं कर पात सूत्रधार ४ छ-"पुणरवि " 20 शते 'पाणिदिएण" धागे Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममायाकरण गुप्तः सरतः, ' इत्येतेपा राग्रहः, तथा-'पणिहिदिए' प्रणिहितपश्चन्द्रियः-प्रणिहितानियशीकृतानि इन्द्रियाणि येन स तथोक्तः सन् 'धम्म' धर्म 'चरेन' चरेत् अनुतिष्ठेत् ॥ सू० ९ ॥ रूप घाणेन्द्रिय के शुभ और अमनोज्ञ के अशुभ विषय में रागबेप करने से रहित हो जाता है । इस प्रकार की स्थिति से युक्त घना हुआ साधु अपने मन वचन और कायरूप योगों को शुभ अशुभ व्यापार से सुरक्षित कर लेता है और घ्राणेन्द्रिय के शुमाशुम चिसय में शुभाशुभपरिणति जन्य कर्मनधन की निवृत्तिख्य सवर से युक्त हो जाता है और (पणिहिइदिए चरेज धम्म ) वशीकृत इद्रियों वाला होकर चारित्ररूप धर्म का पालक बन जाता है। भावार्थ-सूत्रकार ने इस सूत्र द्वारा परिग्रह-विरमण व्रत की तीसरी भावना का उल्लेख किया है । इस भावनाका नाम घ्राणेन्द्रिय संवरण है। इसमें साधु अपनी घाणेन्द्रियको सुगध और दुर्गन्धके सवन्ध होने पर पक्षपातिनी नहीं बनता है। यदि वह ऐसा करता है तो महान् अनर्थ का पात्र होता है । उसे नगीन कर्मों का यधक माना जाता है। सुगध और दुर्गन्ध के विषयभूत कितनेक पदार्थो को सन्त्रकार ने इस सूत्र द्वारा समझाया है । अतः चरित्रधर्म को पूर्णरूप से पालन करने के लिये सोधु का कर्तव्य है कि वह इस प्रकार की ज१२ स्थिति उसके समक्ष हो तो वह समभावी बना रहे । सू० ९॥ ચના શુભ અને અમનોજ્ઞપ અશુભ વિષમા રાગ અને દ્વેષથી રહિત થઈ જાય છે આ પ્રકારની સ્થિતિથી યુક્ત થયેલ સાધુ પિતાના મન, વચન અને કાયરૂપ યોગને શુભ અટાભ વ્યાપારથી સુરક્ષિત કરી નાખે છે, અને પ્રાણે ન્દ્રિયના શુભાશુભ વિષયમાં શુભાશુભ પરિણતિજન્ય કર્મબ ધનની નિવૃત્તિરૂપ सपरथी युवत थs anय छ भने " पणिहिंइ दिए चरेज धम्भ " सयभी ઈન્દ્રિયવાળે થઈને ચારિત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરનાર બને છે ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂનદ્વારા પરિગ્રહ વિરમણવ્રતની ત્રીજી ભાવ નાનુ સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તે ભાવનાનું નામ ઘાણેન્દ્રિય સવરણ છે તેમાં એ બતાવ્યું છે કે સુગ ધ અને દુર્ગ અને સ બ ધ થતા સાધુ પોતાની ધ્રાણેન્દ્રિયને પક્ષપાતી બનાવતો નથી જે તે એવું કરે તો મહાન અનર્થને પાત્ર થાય છે, તેને નવીન કર્મને બાધનાર માનવામાં આવે છે સૂગ ધ અને દુર્ગધયુક્ત કેટલાક પદાર્થો સૂત્રકારે આ સૂત્રમાં દર્શાવી છે તેથી ચારિત્રધર્મોનું સંપૂર્ણ રીતે પાલન કરવાને માટે સાધુનું કર્તવ્ય છે કે તેણે ધ્રાણેન્દ્રિયના વિષયભૂત સુગધ તથા દુર્ગધયુક્ત પદાર્થો પ્રત્યે સમભાવ રાખવો જોઈએ સૂ૯ છે Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका थ०५ सू० १० जितेन्द्रिय सघर' नामक चतुर्थ भावना निरूपणम् ९२३ चतुर्थी भावनामाह -- ' चत्य' इत्यादि मूलम् - चउत्थं जिव्भिदिएण साइय रसाणिउ मणुण्ण भगाई, कि ते ? उग्गा हिस विविपाणभोयण गुलकय खडकय तेल्लघयकयभक्खेसु बहुविहेमु लवणरससंजुत्तेसु, बहुप्पकारमज्जियनिट्टाणगदालियव सेहंव दुद्धदहि-- सरयमज्जवरवारुणी सीहुकाविसायण सागद्वारसब हुप्पगारेसु य भोयणेसु य मणुण्णवण्णगन्धरसुफासत्र हुदव्त्रसंभिएस अपणेसु य एवमाइएसु रसेसु मण्णभद्दएसु न तेसु समणेण सज्जि - यव्वं जाव न सइ च मइ च तत्थ कुजा । पुणरवि जिव्भिदिएण साइयरसाई अमणुण्ापागाइ, कि ते ' अरसविविरससीयलक्खणिजप्पमाणभायणाइ दोसी वावण्णकुहिय पूइच अमणुण्णविणट्टप्पसूय बहुदुभिगधियाइ तित्तकडुयकसाय अविलरसलिदनरिसाइ अण्णेसु य एवमाइएस रसेसु अमणुण्णपावएसुन तेसु समणेणं रुचियवव्वं जाव चरेज्ज धम्म ॥ सू०१०॥ टीका उत्थ ' चतुर्थी जिवेन्द्रिय सवरणलक्षणा भावनामाह - 'जिभि दिएण ' जिह्वेन्द्रियेण ' मणुष्णभद्दगाइ ' मनोजभद्रकान् ' रसाणि उ' रसाँस्तु अब सूत्रकार इस व्रत की चौथी भावना को कहते है ¿ 'उत्थ' इत्यादि । टीकार्थ - (उत्थ) चौथी भावना का नाम जिह्वेन्द्रियसवरण है। इस भावना के वशवर्ती हुए साधुको जिह्वा इन्द्रियके मनोज्ञभद्रक विषयमे और अमनोज अभद्रक विषय में रागद्वेष नही करना चाहिये - प्रत्युत समभाव वे सूत्रधार माघतनी थोथी लारना बताये छे" चउरथ " त्याहि टीअर्थ–“ चउत्थ " थोयी लावनानु नाम भिड्वेन्द्रिय सवश्य छे આ ભાવનાનું પાલન કરનાર સાધુએ જિલ્લા ઈન્દ્રિયના મનેજ્ઞ ભદ્રક વિષયેામા અને અમનેાજ્ઞ અભદ્રક વિષયામા રાગ દ્વેષ રાખવે જોઈએ નહી, પણ સમ Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमभ्याकरण वक्ष्यामाणपदार्थेषु स्थितान्'साइय' सादायित्वा अन्तिगृहम्यारम्यायामारपाय, 'किं ते ' कॉस्तान् केपु केषु पदार्थेषु स्थितांस्तान् ? इत्याद-'उग्गडिमविपिहपाणभोयणगुलकयखडकय तेलघयायभरखेमु जागादिमविविधपानभोजनगुडकतखण्डकृततैलघृतकृतमक्ष्येपु-तत्र अगादिमानि गाहनेन-वृतत गदिपु पोलनेन पाकतो निप्पन्नानि यानि तानि पकानानि खण्डखाबादीनि अगाहिमानि' कथ्यन्ते, तथा-विविधानि बहुविधानि पानभोजनानि, तया-गुड मतानि-गुडेन निप्पादितानि, खण्ड कृतानिमावण्टेन निप्पादिनानि, तेलघृतानि तैलेन घृतेन च ही धारण करना चाहिये, इसी विषय को मुत्रकार विशेषता से इस सूत्र द्वारा समझाते है-(जिभिदिएण) साधु जिहा इन्द्रिय से (मणुण्ण भद्दगाइ रसाणिउ) मनोज-भद्रक रसको (साइय) अस्वादित करके उसमें राग आदि न करे इस प्रकार का यहा समय लगा लेना चाहिये, (किं ते ) यह मनोज रस सिन २ पदार्थो के सारे रहता है, इस प्रकार की आशका का उत्तर देने के निमित्त सत्रकार यहां उन कितनेक पदार्थो के नाम निर्दिष्ट करते हैं (उग्गारिमविविहपाणभोयणगुलकय खडकयतेल्लघयक्रयभक्खेसु) घृत, तैल आदिका जिनमें पहिले भान (तला जाता) दिया जाता है और फिर बादमें जो उनमें ही चुरोये जाकर पकाये जाते है ऐसे खाजा आदि पक्वान्न अवगाहिम कहलाते हैं तथा अनेक प्रकारका जोपान भोजन होताहै वह विविध पान भोजन कहलाता है गुड मिला कर बनाया गया ' एच खाड मिश्रित कर बनाया गया विशेष भोजन गुड़कृत भोजन और खडकृत भोजन कहलाता है । तेल ભાવ જ રાખવું જોઈએ એ જ વિષયને સૂત્રકાર વિસ્તારપૂર્વક આ સૂત્રધારા सभव छ " जिन्मिदिएण" साधुसे लथी “मणुण्णभद्दगाइ रसाणिउ" भना- भरसना "साइय" मारवागने तमाशाह ४२वा लम नही " किं ते" से मना २४ ४॥ ४पहाभा डाय छे, ते प्रश्नन। ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર અહીં એવા કેટલાક પદાર્થોના નામનો ઉલ્લેખ કરે છે ," उग्गाहिम-विविहपाण-भोयण-गुलमय-सडकय-तेल्ल-घयकय-भक्खेसु" घl, तस આદિનું જેમાં પહેલા જેમા મણ દેવાય છે અને પછી તેમા જ તળીને પક વવામાં આવે છે એવા ખાજા આદિ પકવાનને અવગાહિમ કહે છે તથા અનેક પ્રકારના જે પાન (પી શકાય તેવા) ભજન હોય છે તેમને વિવિધ પાન ભજન કહે છે, ગોળ નાખીને બનાવેલા ભેજનને ગુડકત અને ખાંડ નાખીને બનાવેલા ભેજનને ખાડકૃત ભજન કહે છે તેલ અને ઘીમાં બનાવેલ _લાડ Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिंनी टीका अ०५ सू०१० 'जिहन्द्रियसंपर'नामकचतुर्थभावनानिरूपणम्९२५ निपादितानि यानि भक्ष्याणि मोदकादीनि तानि, एपा द्वन्द्वरतेषु तमोक्तेषु तथा 'यहुनिहेसु' बहुरियेपु-विनियमझारेपु 'लपणरससजुत्तेसु' लपणरससयुक्तेषु भक्ष्येपु. शाफपटाकादिपु तथा- पगारमज्जिय-निहाणगदालियंसेहादुद्धदहि सरयमज्जवरवारुणी सोडकारिमायणमागहारसबहुप्पगारेमु पहकारमज्जिकानिष्ठानक दालिकाम्लसेनाम्लग्यदाधिसरकमयरसारणी सीधुकापिशायनशाकाष्टादशबहुप्रकारेपु-तत्र-एतनास्वादन गृहम्पारस्थासु बोध्यम् , सयमावस्थामु सर्वथा तहर्जनाच , बहुप्रकारा-बहुविधा, मार्जिता-रमाला पिशर्करादिनिष्पादितसुगन्धद्रव्यपासित खाद्यविशेष , श्रीविण्डेतिभापामसिद्ध, निष्ठानक-प्रकृष्टमूल्यनिष्पादितो भक्ष्यविशेषः तदुक्तम्-'निद्वाणति जा सयसहस्म' इति, जय भावः-यलममुद्राभिनिष्पाद्यते तद् भक्ष्यविशेषो निप्ठानमुन्यते । यद्वा-भक्ताधनोपसेचनेन सपादिते दध्यादिव्यजने 'करमा' इतिभापामसिद्धे, तथा दालिकाम्लम्-मरोचराजिकादि सस्कृतोद्विदलनि और घृतमें बनायागया मोदकादि भोजनीय पदार्थ तैल कृत और घृतकृत भोजन कहलाता है । इन खात्य पदार्थो में तथा और भी (बहुविहेसु) अनेक प्रकारके (लवणरससजुत्तेसु) लवणरसमिश्रित शाक, वड़ा आदि खायपदार्थ विशेष है उनमें तथा ( बहुप्पगार-मज्जिय-निट्ठाणग -टालियर-सेव-दुद्ध-दहि-सरय-मज्ज-वरवारुणी-सीहु-का विसा यण-सागद्वारस बहुप्पगारेसु भोयणेसु य) पहिले गृहस्थावस्था में उपयो गमें लाये गये बहुविध भोजनीयपदार्थ जैसा मार्जिता रसाला-दधि शर्करा आदिसे निष्पादित तथा सुगधित द्रव्यसे वासित खाद्यविशेप कि जिसे श्रीखड कहते है, उनमे निष्ठानक-एक लास रुपये लगा कर निष्पादित किये गये भक्ष्य विशेषमें अथवा मेहरी-राबडी मे, दालिकाम्लमें-मरीच राई में सस्कृत हुए तथा द्विदल चना आदि के आटे-वेसन आदिसे આદિ ખાદ્ય પદાર્થને તેલ અને ધૃતકૃત ભજન કહે છે એ ખાદ્ય પદાર્થોમા तथा मा ५२ “बहुविहेसु " मने प्रारना " लपणरससजुत्तेसु " सव२५ मिश्रित श४, १९ माह माय पहा छ तभा तथा “बहुप्पगार -मन्जिय-निट्ठाणग-दालियव-सेहन-दुद्ध-दहि-सरय-मज्ज-घरवारुणी-सीहु-काविसायण-सागट्ठारसबहुप्पगारेसु भोयणेसु य" पडेया गृभ्यावस्थामा यसमा લીધેલ અનેક પ્રકારના ખાઘો જેવા કે દહીં, ખાડ આદિમાથી તૈયાર કરેલ તથા સગ ધિતદ્રવ્યથીયુક્ત એક ખાસ ભેજન જેને શિખડ કહે છે તેમાં રિ -એક ain पाया अस्थीने तैयार ४२स मास मानमा अथवा मेहरी-धामा, દાલિકામ્સમા-મરચા, રાઈ, મેથી, જીરૂ આદિને વઘાર કરેલ તથા ચણું અદિના Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रश्नध्याकरणका पादितोव्यञ्जनविशेषः 'कट' इतिभाषाप्रसिद्धो, सेवासम् साधविशेषः, पत्र सद् यदम्लेन सस्क्रियते तत्वाध सेधारमुच्यते । दुग्धदधि च पमिदम् , सरका-गुड धातकीपुष्पादिना सिद्धः 'सरकाः' इति भाषामसिद्धाः, मद्य-पेट गो मादिचूर्णनिप्पन्नम् , परवारणी श्रेष्ठमदिरा, सीधु-भाम: धादिगनितमयम् , कापिशा यनम् कापिशी नाम नगरी तस्या जात द्राक्षानिर्मित रिशिष्टमद्यम् , एतान्यपि मयानि गृहवस्थास्थामु समास्यादितानि न तु सयमारस्थायामिति गोध्यम् , तथा शाका अष्टादश-अप्टादशसख्यकाः शाका , एपा रहनी हिसमासे तानि तथोक्तानि, तानि च बहुमकाराणीतिकर्मधारयः, तेषु तथोक्तेषु 'मणुनानगरसफा सबहुदयसभिएसु ' मनोज्ञवर्णगन्धरसस्पर्शपमुद्रव्यसभृतेपु-मनोहरपर्णगन्धरसस्पर्शवद् बहुविधद्रव्यसस्कृतेषु ' भोयणेस' भोजनेषु च स्थितान् रमाा गृहस्थावस्था बनाये गये "कढी" रूप व्यजनमे, सेंधाम्लमें पका कर के जो खटाई से सस्कृत किया गया शे, ऐसे खाद्यविशेप में, दुग्ध, दधिमें गुड़, धातकी पुष्प-महुआ-इन दोनों के मेल से पनाये गये सरका में, गोधूम-गेहूं के आटेसे निष्पन्न किये गये मद्य-पैष्ट मन्त्र में, वरवारणो-उत्तम मदिरा मे मुनि अवस्था में नहीं, किन्तु गृहस्थावस्थामें उपयोग में लाई गई श्रेष्ठ मदिरा बराण्डी मे, सीधु-आसव इक्षु आदिके रससे अनाये गये मधमें; कापिशायन-कापिशी नामकी नगरी मे द्राक्षाओ से बनाये विशिष्ट मद्यमे तथा अठारह प्रकार के शाकों में, इत्यादि अनेक प्रकार के भक्ष्य पदार्थो मे तथा (मणुनवनगधरसफासबहदन्यसभिएस भोयणेतु य ) मनोज वर्ण गध, रस और स्पर्शवाले अनेकविध द्रव्यों से निष्पन्न हुए भोजनो मे स्थित रसो को गृहस्थावस्थामें आस्वादित करके उनमे, तथा લેટમાંથી બનાવેલ “કટી નામના વ્ય જનમા, ઘાન્સમા–પકાવીને ખટાશ ઉમેરવામાં આવી હોય એવા ખાદ્યોમા, દૂધ, દહીમા ગેળ, ધાતકી પુષ-મહુડા એ બન્નેના મિશ્રણથી બનાવેલ સરનામા, ગેમ-ઘઉંના લોટમાંથી તૈયાર કરેલ મઘ–પષ્ટમધમા, વરવારણી ઉત્તમ મદિરામા, મુનિ અવસ્થામા નહી પણ ગ્રહ સ્થાવસ્થામાં ઉપયોગમાં લીધેલ શ્રેષ્ઠ મદિરા-વાડીમા, સાધુઆસવ-શેરડી આદિના રસમાંથી બનાવેલ મદિરામા, કાપિશાચન-કાપિશી નામની નગરીમાં દ્રાક્ષમાથી બનાવેલ એક વિશિષ્ટ મધમા, તથા અઢાર પ્રકારના શાકમાં इत्यादि भने ५४१२ना पाय पहाभा तथा "मणुन्नबन्नगधरसफासबहुदव संमिएसु भोयणेसु य” भनी २ व ५, २८ ५it A२४ ॥२॥ કમાથી તૈયાર કરાવેલ ભેજનોમાં રહેલ રસને ગૃહસ્થાવસ્થામાં સ્વાદ Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीकाय०५ सू०१० जिहन्द्रियसंघर'नामक्चतुर्थभावनानिरूपणम् ९२७ यामास्वाद्य तेषु तथा-' भन्नेसु य' अयेषु च = एतद्भिन्नेषु 'एबमाइएमु' एवमादिकेपु = प्रक्तिसदृशेपु- 'मणुण्णभदएमु ' मनोज्ञभद्रकेपु रसेपु कथ म्भूतेषु रसेपु ? तेपु-चे रसा अविरतगृहस्थावस्थायामास्वादितास्तेषु 'समणेण' श्रमणेन-यमणावस्याम्थितेन मुनिना 'न सज्जियन्व' न सक्तव्यम् 'जा' यावत् यावत्करणात्-न रक्तव्यम् , न गर्द्धितव्यम् , न मोहितव्यम् , न पिनिरात आप. तव्यः, न लोब्धव्यम् , न तोष्टव्यम् , न हमितव्यम् , एपामर्थ प्रथम भावनायामुक्तः । न च अमणः 'तत्य' ता-गृहस्थावस्थोपभुक्तरसेपु 'सइ च' स्मृति च-स्मरणमपि, ' म च ' मति च=श्रमणासम्धाया तदुपभोगबुद्धिमपि 'कुज्जा' कुर्यात् । 'पुणरवि' पुणरप्युन्यते-- जिभिदिएण' निवेन्द्रियेण ' अमणुन्नपा (अन्नेसु एबमाइएमु मणुन्न भइएमु ) दूसरे और इसी प्रकारके मनोज भद्रक रसों में कि जो अविरत नित्य गृहस्थावस्था में आस्वादित किये हुए थे (समणेण) श्रमण अवस्थामें स्थित हुए मुनि को (न सज्जियव्य जाव न सइ च मड च तत्य कुज्जा) ओसक्तचित्त नहीं बनना चाहिये यावत् उसे उनकी स्मृति नहीं करना चाहिये और उनमें अपनी कि मैं अमणावस्था में इनका भोग करू इस प्रकार बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये । यहा यावत् शब्द से " न रज्जियब्ध, न गिझिरव्य, न मुज्झियन्च, न विणिघाय आवज्जियव, न लुभियव्य, न तुसियन्व, न हसियव्व" इन पाक्त पदो का ग्रहण किया गया है। इन सबका अर्थ प्रथम भावना मे लिखा जा चुका है । ( पुणरवि ) इसी तरह फिर (जिभिदिएण) जिहा इन्द्रिय से ( अमणुनपावगाड रसाइ ) अरुचिकासन तमनामा तथा “ अन्नेसु एवमाइण्सु मणुन्नभदएसु" से प्रा२ना બીજા ભદ્રઢ મને રસમાં કે જેને ગૃહસ્થાવસ્થામાં સદા સ્વાદ લેવાતું હતું तमा “ समणेण" साधु अवस्थामा २९स मुनि “न सज्जियव्य जाव न सइ च मइ च तस्थ कुज्जा" " शामत यध्ये नही " त्याथी २३ કરીને તેણે તેમને યાદ કરવા જોઈએ નહી અને હુ શ્રમણ – અવસ્થામાં તેમને ઉપભેગ કરૂ એ વિચાર પણ કરવું જોઈએ નહી ” ત્યા સુધી અર્થ ગ્રહણ કરવાને છે मी ' यावत् ' २०४थी " न रज्जियन , न गिझियव्य , न मुझियव्य , न विणिघाय आवज्जियव्य, न लुभियन्च, न तुसियन न हसियव्य" से पूर्यास्त પદે ગ્રહણ કરાયેલ છે એ બધાને અર્થ પહેલી ભાવનામાં અપાઈ ગયા છે " पुणराप" से शत “जिभिदिएण" WHथा " अमणुन्नपारगाइ रसाइ" Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२८ प्रभव्याकरणको वगाइ" अमनोज्ञपारकान-भरुचिकरान् , ' रमाइ' रसान् 'साइय' स्वादयिस्या, ' किं ते ' कांस्तान्कयभूतांस्तान् रसान् । इत्याइ-'अरमपिरमसीयला व णिज्जप्पपाणभोयणाइ' अरसविरसशीतलस्मनिर्याप्यपानगोजनानि, तत्र-अरसानि रसरहितानि हिद्गगादिसस्कारसजितानि, पिसानि-निगवरसानि-पर्युपितानि, शीतानि शीतलानि क्षाणि-घृतादिलेशर्जितानि, निर्याप्याणि-बलपीनशक्ति रहितानि यानि पानगोजनानि तानि तथोक्तानि, तथा-'दोसीणगायनाहियपूइय-अमणुननिगह-पाय-बहुदन्भिगपियाइ' दोपनयापनकुषितपूतिगमनोत्र विनष्टप्रभूतबहुदुरभिगन्धितानि, ता-'दोसीग' त्ति-दोपान-दोपा-रात्रिस्तत्र पक्य यदन्न, रानिपर्युपितमित्यर्थः, आपन्न-चिनिष्ट,वर्णम् , कुयित कोथयुक्तम् , शटितमित्यर्थः, पूतिकम् गन्धयुक्तम् , अत एन-अमनोज्ञम् अमुन्दरम् , पिनष्टम्अत्यन्तरिकृतारस्थामाप्तम् , ततः प्रमृतः मादुर्भूतो यो बहु दुरभिगन्धा अतिदुर्गन्धः स जातो येषु तानि तथोक्तानि, तथा-'वित्ताडयफसायअपिलरमलिंदनीरसाइ' रक रसों का (साइय) आस्वादन करके उनमें साधुको राग द्वेपभाव वारण नहीं करना चाहिये । (किं ते ?) अमचिकारक रस कौन २ से हैं इस प्रश्न का समाधान करने के निमित्त सूनकार कहते हैं-(अरसविरससीयलुक्खणिज्जपण भोयगाइ ) अरस-हिङ आदिके बघार से वर्जित, विरस-रस से विहीन-पर्युपित, शीत-शीतल-ठडे, रूक्षघृतादि के लेश से रहित, निर्याप्य-चल पढाने की शक्ति से रहित, तथा (दोसीणवावनकुट्टिय पूदय अमणुनविणपनययहुदाभिगधियाइ ) दोसी णरानिमें पकाये गये व्यापन-विनष्ट वर्णवाले, कुथित-सडे हुए पूतिक दुगंधयुक्त, अतएव मनोज्ञ-असुन्दर तया विनष्ट-अत्यत विकृत अवस्था वाले और इसी कारण जिनमें से अत्यत दुर्गव निकल रही हो ऐसे तथा जो (तित्ताडयफसायअपिलरसलिंदनीरसाठ ) मरीच-मिर्च के जसा અરુચિકર રસનું “ત્તારૂ” આસ્વાદન કરીને તેમનામાં સાધુએ છેષભાવ રાખવા नमे नही " किं ते?" सचिडा२४ २स ४॥ ४॥ से प्रसनु सभा धान २वान माटे सूत्रा२ उ छ-" अरसविरससीयलक्सणिज्जप्पपाणभाय णाइ " ५२स-3 माहिना पधारथी २हित, विस-२सहित-पित, शात -શીતળ-ઠડા, રૂક્ષ–ઘી વિનાનું, નિર્યાય-ગળ વધારવાની શક્તિથી રફિક तथा “ दोसिणगावन्नकुहियपूइयअमणुन्नविणदपसूयवभिगधियाई " -२२२ राधेस, व्यापन-विनष्ट पवा-थित-मस, पूति:- Epinा, तथा અમને જ્ઞ-અસુ દર તથા વિનષ્ટ–અત્યત વિડત અવસ્થાવાળા અને એ કારણે सभाथी मत्यत नीती डाय तवा तथा २" तित्ताडुयकसायअबिल Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०५सू० १० जिहवेन्द्रियसंघर'नामफचतुर्थभावनानिरूपणम् ९२९ विक्तस्टुकापायाम्लरसलिन्द्रनीरमानि = तत्र तिक्त-मरीचवत् , पटुक-निम्नवत् , कपायम् आमलफल्यत् , आम्लरसम्=अम्लि 'इमली ' कारत् , लिन्द्र-सशैवाल. पुराणजलवत् , नीरस-विगतरसम् एपा द्वन्द्वस्तानि तथोक्तानि' आस्वाध-उपर्यु तारसविरसादि पानभोजनस्थितानमनोज्ञपापकान् रमानास्वादोत्यर्थः, 'समणेण' श्रमणेन-साधुना ' तेमु' तेपु-उक्तपु 'चमणुन्नपारएसु ' अमनोज्ञपापकेषु 'रसेम' रसेपु तथा-एम्यः 'अन्नेसु ' अन्येषु 'एवमाइएमु ' एवमादिकेपु-एव प्रकारेषु च-अमनोनपापकेपु रसेपुन रोसियत' न रोप्टव्यम् , 'जार' याव स्करणात्-न हीलितव्यम् , 'न निदितव्य, न खिसितव्यम् , न छेत्तव्यम् , न तिक्त रो-चरपरा हो, कटुक-नीम के जैसा कटुवा हो, आमले के जैसा कपाय रसवाला हो, कच्ची री-अमिया के जैसा जो खट्टा हो, लिंद्रशैवालसहित पुराने जलके समान हो, विगतरस हो ऐसे इन उपर्युक्त अरस रिस आदि पनि भोजनमे स्थित अमनोज पापक-अरुचिकारक रसों को आस्वादित करके ( समणेण) मुनि को (तेसु) उन (अमणुनपावएम) अमनोज पापक-अरचिकारक-रसोंमे तथा (अण्णेसु एवामाह एसु रसेसु) इसी प्रकार के और भी इनसे भिन्न रसों मे (न सियच्च जाव चरेज्ज धम्म ) रोप नहीं करना चाहिये । " न हीलियन्व, न निंदियन, न खिसियन, न चिंदियच, न मिंदियव्य, न वहेयन्व, न दुगुडावत्तियावि लम्भा उप्पाएउ" उनकी अवजा नहीं करनी चाहिये, उन्हे देसकर उनपर विसयाना-परोक्ष में निंदा नहीं करनी चाहिये । तथा अमनोज्ञ रमस्थित द्रव्यका छेदन नहीं करना चाहिये, भेदन एव रसलिनीरसाइ ' मीय-मया 4 ती डाय, २०५२२ लाय, ४४४લીમડા જેવા કડવા હોય, આમળા જેવા તુરા હય, કાચી કેરી જેવા ખાટા હોય, હિંદૂ-જે શેવાળયુક્ત પુરાણું પાણી જેવા હોય, વિગત રસ હોય, એવા ઉપર કહેલા અરસ વિરસ આદિ ભેજનેમા રહેલ અમનેઝ પાપક–અરુચિકર सोन मास्वाहन र 'समणेण" भुनि “तेसु" a "अमणुनपावएत" अमना पा५४-मयि सभा तथा “ अण्णेसु एवमाइएसु रसेसु" मेर ५४२॥ मी २सोमा पY " न रुसियन्य जाव घरेज्जपम्म" रोष ७२वो न नही " न हीलियब्व', न निदियव्य, न सिंसियव्य, न छिदियव्य. न भिंदियव्व , न पहेयव्व, न दुगुछावत्तियावि लन्भा उप्पाएउ" भनी अज्ञा ન કરવી જોઈએ, તેમને જોઈને તેમની પક્ષ રીતે નિ દા ન કરવી જોઈએ, તથા અરુચિકર રસવાળા દ્રવ્યનુ છેદન ન કરવું જોઈએ, ભેદન અને નાશ ન કરે प्र ११७ Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रभव्याकरण भेत्तव्यम् न इन्तव्यम् न जुगुप्मारत्तिकाऽपि लभ्या उत्पादयितुम् । पव जिहवे. न्द्रियभावनाभारितो भवति अन्तरात्मा-जीवः मुनिः। ततश-मनोज्ञामनोन्नसुरभि दुरभिरागद्वेपे प्रणिहितारमा साधुर्मनोनचनकायगुप्तः संवृतः प्रणिहितेन्द्रियः-एमां संग्रहो योभ्य 'धम्म' धर्म 'चरेज्ज' चरेत् अनुतिष्ठेत् ।। मू० १० ॥ नाश नहीं करना चाहिये । और न अपने मनमें भी उस पर जुगुप्सा वृत्ति जगे ऐसी चेप्टा ही करनी चाहिये । इस प्रकार से 'जिदाहन्द्रिय मुझे वश में करनी चाहिये अन्यथा महान् अनर्थ का भागी मुझे होना पडेगा' इस प्रकारकी जिला इन्द्रियकी भावना से भारित जय मुनि हो जाता है तब वह मनोजरूप एच अमनोत्प सुरभिदुरभि इस में राग देप करने से रहित बन जाता है । इस प्रकारकी स्थिति से सपन्न थना हुआ साधु अपने मन, वचन, और कायरूप तीन योगा को शुभ और अशुभ के व्यापार से रहित कर लेता है और इस इन्द्रिय के सवरणसे युक्त बन जाता है । इस तरह रसनेन्द्रिय के सवरणसे युक्त रोकर वह चारित्ररूप धर्मका पालन करने में सर्व प्रकारसे दृढ हो जाता है। भावार्थ-इस सूत्रद्वारा सूत्रकारने इस व्रत की चौथी भावना का स्वरूप प्रदर्शित किया है । उसमे उन्होने यह समझाया है कि माधुको अपनी रसना इन्द्रिय को रुचिकारक एव अरुचिकारक रसो के आस्वादजन्य रागद्वेपके पक्षपात से ररित कर लेनी चाहिये, तभी जा कर वह रसनेन्द्रिय विजयी हो सकता है । ऐसा नहीं होना चाहिये कि જોઈએ પિતાના મનમાં કે પારકાના મનમાં તેના પ્રત્યે જુગુપ્સાવૃત્તિ થાય તેવું વર્તન કરવું જોઈએ નહી, આ રીતે “મારે જિલ્લા ઈન્દ્રિયને વશ રાખવો જોઈએ નહી તે માટે મહાન અનર્થને પાત્ર બનવું પડશે” આ પ્રકારની જિલ્લા ઇન્દ્રિયની ભાવનાથી જ્યારે મુનિ ભાવિત થાય છે ત્યારે તે મને અને અમને રૂપ, સુંદર અને અસુદર દ્રવ્ય પ્રત્યે રાગ દ્વેષથી રહિત બની જાય છેઆ પ્રકારની ભાવનાથી યુક્ત બનેલ સાધુ મન, વચન અને કાય, એ ત્રણે યોગોને શુભ અને અશુભ વ્યાપારથી રહિત કરી લે છે અને આ ઈન્દ્રિયના સવરણથી યુક્ત બની જાય છેઆ રીતે રસના ઈન્દ્રિયના સવરણથી યુક્ત થઈને તે ચારિત્રરૂપ ધર્મનું પાલન કરવામાં બધી રીતે દઢ બની જાય છે ભાવાર્થ-આ સૂત્ર દ્વારા સૂત્રકારે આ વ્રતની ચોથી ભાવનાનું સ્વરૂપ પ્રગટ કર્યું છે તેમાં તેમણે સમજાવ્યું છે કે સાધુએ પિતાની રસના ઈન્દ્રિયને ચિકર અને અરૂચિકર રસોના આસ્વાદને કારણે ઉત્પન્ન થતા રાગદ્વેષને પક્ષ પાતથી રહિત કરવી જોઈએ, ત્યારે જ તે રસનેન્દ્રિય પર વિજય મેળવી શકે Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टोका भ. सू०११ स्पशंन्द्रियसवर'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३१ पञ्चमी भावनामाह-'पचम' इत्यादि मूलम्-पंचमं पुण फासिदिएण फासिय फासाई मणुन्नभइकाई, कि ते ? दग मंडव-हार-सेयचदण-सीयल-विमल-जलविविह-कुसुमसत्थर -ओसीरमुत्तिय- मुणालदोसिणा पेहुण उक्खेवग-तालियटवीयणग-जणिय-सुहसीयले य पवणे गिम्हकाले, सुहफासाणि य यहूणि सयणाणि य आस णाणि णे व पाउरणगुणे य सिसिरकाले, अगारप्पवावणा रुचिकारक रस मिल जाये तो चित्तमे उसके प्रति रागमात्र उद्भूत हो जाये और अरुचिकारक रस मिल जावे तो उसमें द्वेपभाव उत्पन्न हो जावे। दोनों प्रकारके रसों में समताभाव धारण करना माधु का सर्व प्रथम कर्तव्य है । इसी विपयको लेकर इस सूत्रमे रुचिकारक रसके आअयभृत उग्गाहिम आदि कितनेक पदार्थो को तथा अरुचिकारक रस के आश्रयभूत अरसपिरस आदि पदार्थो को कहा गया है । तथा सायर में यह समझाया गया है कि गृहस्थावस्था में जिन रुचिकारक रसों का आस्वाद लिया या वे रस साधु अवस्था मे स्मरण करने योग्य नहीं है। कारण कि उनकी स्मृति से जिहा इन्द्रिय मे रस के प्रति लोलुपता बढ़ती है। इप्त प्रकार से रसना इन्द्रिय के विषय मे समभाव रखनेवाला साधु चारिन धर्मका निर्वाह अच्छी तरह से करनेवाला हो जाता है ।।सू०१०॥ છે એવું ન બનવું જોઈએ કે રૂચિકર રસ મળે તો તેના પ્રત્યે ચિત્તમા રાગભાવ પિતા થઈ જાય છે, અને અરૂચિકર રસ મળે તે હેવભાવ પેદા થાય અને પ્રકારના રસ્તે પ્રત્યે સમભાવ રાખવે તે સાધુનું પહેલું કર્તવ્ય છે એ વિષયનુ વર્ણન કરતા આ સૂત્રમાં રૂચિકર રસયુક્ત ઉગાહિમ આદિ કેટલાક પદાર્થોને તથા અરૂચિકર રસયુક્ત અરવિરસ આદિ પદાર્થોને બતાવ્યા છે તથા સાથે સાથે એ સમજાવ્યું છે કે ગૃહસ્થાવસ્થામાં જે રૂચિકારક રસેને સ્વાદ લીધે હતા તે રસનું સાધુ અવસ્થામાં સ્મરણ કરવું તે પણ ગ્ય નથી કારણ કે તેને યાદ કરવાની જિવા ઇન્દ્રિયમાં રસના પ્રત્યે લાલસા વધે છે. આ રીતે રસના ઈન્દ્રિયની બાબતમાં સમભાવ રાખનાર સાધુ ચરિત્ર ધર્મનું સારી રીતે પાલન કરનાર બની જાય છે || સૂત્ર ૧૦ | Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ returnine य आयवनिमय-सीय उसिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिन्युइकरा ते, अन्नेसु य एवमाइएस फासेसु मणुन्नभद्दसु न तेसु समणेण सज्जियव्व, न रज्जियव्य, न गिज्झियव्वं, न मुज्झियव्वं, न विणिधाय आवज्जियव्वं, न लुभि यव्व, न अज्झोववजियव्त्र, न तूसियन्नं, न हसियव्व, न सई च मइ च तत्थकुज्जा । पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाइ अमणुन्नपावगाइ, किं ते ? अणेगवहबंध - तालणंकण- अइभारारोवण - अंगभजण- सुईनखप्पवेस- गायपच्छणलक्खारसखारतेल्लकलकलत- तउसीसककाललोह- -सिंचणहडिवधण रज्जुनिगल सकलन हत्थडुयकुभिपाकदहण सीहपुच्छण सूलभेय--गयचलणमलण-करचरणकन्ननासोट्ठसी सछेयण-जिग्भच्छेयण वसणनयण हिययदत्तभजण जोत्तलयकसप्पहारपादप हिजाणुपत्थर निवायपीलणक --विकच्छुअगणि विच्छुथडक्कवायायवदसमसगनिवाए दुट्टणिसज्जदुन्निहिया कक्खड - गुरुसीय उसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अन्नेसु य एवमाइएस फासे अमणुन्न पावगेसु न तेसु समणेण रूसियव्व, न हीलि व्व, न निदियव्य, नगरहियन्त्र, न खिंसियव्व, न छिदियव्वं, न भिदियव्व, न वहेयव्व, न दुगुछावत्तियाविलब्भा उप्पाएउं एव फासिदियभावणाभाविओ भवइ अतरप्पा मणुन्नामणुन्नसुभिदुभिराग दोसपणिहियप्पा साहू मयवयणकायगु ते संबुडे पणिहिइदिए चरेज धम्मं ॥ सू० १९ ॥ Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०५ सू०११ स्पर्शेन्द्रियसंघर'नामकपञ्चममायनानिरूपणम् ९३३ टीका-पुण' पुनः 'पचम' पञ्चमी स्पर्गेन्द्रियसवरणामिया भावना. माह-' फासिदिएण' स्पर्शेन्द्रियेण 'मणुग्णभद्दगाइ' मनोज्ञभद्रकान् ‘फासार्ड' स्पर्शान् ‘फासिय' स्पृष्ट्वा 'किं ते' काँस्तन-कथम्भूतांस्तान्? इत्याह-'दगमडव -हार-सेय चदणसीयलविमलजलरिनिहकुसुमसत्यर उमीर मुत्तियमुणालदोसिणा' दकमण्डपहार श्वेतचन्दनशीतलविमलजलविविधकुमुमसस्तरोशीरमौक्तिकमृणालज्योतनाः, तर-दकमण्डपा-उदकमण्डपाः, जल यन्त्रस्थानानीत्यर्थः, हाराःमतीताः, श्वेतचन्दनानि-श्रीखण्डचन्दनानि, शीतलरिमलजलानि = शीतलानि = विमलानि अव सूत्रकार इस व्रतकी पाचवी भावना कहते है-'पचम पुण' इ० टीकार्य-(पचम पुण) पाँचवीं भावना स्पर्शनेन्द्रिय सवर नाम की है । वह इस प्रकार से है-(फासिदिएण) स्पर्शन इन्द्रिय से ( मणुण्णभद्दगाइ फासाह) मनोज भद्रक-स्पर्शन इन्द्रिय को सुखकारक-स्पी को (फासिय) स्पर्श कर के साधु को उन में रचिभाव-रागपरिणति नहीं करना चाहिये, इस प्रकार से यहा सबध लगा लेना चाहिये(किं ते १) रुचिकारक स्पर्श के विपयभूत कौन २ से पदार्थ है, इस प्रकार के प्रश्नका उत्तर देते हुए सूत्रकार उन कितनेक पदार्थो को नाम निर्देशपूर्वक करते हैं-(गिम्दकाले दगमडव-हार-सेयचदण-सीयल विमल-जलविवि कुसुमसत्य-ओसीर-मुत्तिय-मुणाल-दीसिगा-पेहुणउक्खेवग-तलियट-वीयणग-जणिय सुत्सीयले य पवणे ) ग्रीप्मकालमें दकमडप-जल के फुआरे जहा जल वरसाकर स्थान को ठडा रखते हो,-ऐसा जल यत्र स्थान, हार श्वेतचदन-श्रीखडचदन, शीतल, निर्मल હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની પાચમી ભાવના બતાવે છે-- "पचम पुण" त्याहि-- टीडा-पचम पुण" पायभी सापना २५शेन्द्रिय स५२ नामनी छ ते प्रमाणे छ " फासिदिएण" स्पोन्द्रियथा “ मणुण्णभदगाइ फासाइ" भनीशम २५NCय सुमा२४ पनि! " फासिय" ५। शने साधुसे તેમના પ્રત્યે રૂચિભાવ-રાગપરિણતિ કરવી જોઈએ નહી "किं ते?" ३थिजा२४ २५ उया ४या पहा ते प्रश्न ઉત્તર આપતા સૂત્રકાર એવા કેટલાક પદાર્થોને ઉલેખ કરીને કહે છે કે – “ गिम्हकाले दगम डव-हार सेयचदण सोयलविमलजल विविकुसुमसत्थर - ओसीर मुत्तिय मुणाल -दोसिणा-पेहुण-उक्खेवग तालियट वीयणग -जणिय सुइसी यले य पवणे " श्री ऋतुमा ६४३५ या पीना दुपास पायीन डीन Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नभ्याकरण य आयवनिद्धमउय-सीय उसिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्वुइकरा ते, अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु मणुनभदएसु न तेसु समणेण सजियव्वं,न रज्जियवं, न गिज्झियवं, न मुज्झियव्यं, न विणिघाय आवज्जियन्व, न लुभि यव्व, न अज्झोववजियवं, न तूसियन, न हसियत्व, न सई च मइ च तत्थकुजा। पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाइ अमणुन्नपावगाई, किं ते ? अणेगवहबध-तालणंकण-अइभारारोवण-अगभजण-सुईनखप्पवेस-गायपच्छणलक्खारसखारतेल्लकलकलत-- -तउसीसककाललोह--सिंचणहडिवधण रज्जुनिगल-संकलन हत्थंडुयकुभिपाकदहण सीहपुच्छण-सूलभेय--गयचलणमलण-करचरणकन्ननासोट्ठसीसछेयण-जिब्भच्छेयण वसणनयण हिययदतभजण जोत्तलयकसप्पहारपादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपीलणक -- विकच्छुअगणि विच्छुयडक्कवायायवदसमसगनिवाए दुट्टणिसज्जदुन्निहिया कक्खड गुरुसीयउसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुन्न पावगेसु न तेसु समणेण रूसियव्व, न हीलियत्व, न निदियव्य, न गरहियव्वं, न खिसियव, न छिदियत्व, न भिदियव्व, न वहेयव्वं, न दुगुंछावत्तियाविलब्भा उप्पाएउं एव फासिदियभावणाभाविओ भवइ अतरप्पा मणुन्नामणुन्नसुभिदुम्भिरागदोसपणिहियप्पा साह मयवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्म ॥ सू० ११ ॥ Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका म०५ सू०११ 'स्पर्शेन्द्रियसवर'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३३ ___टीका-'पुण' पुनः 'पचम' पञ्चमी स्पर्शेन्द्रियममरणाभिरेया भावनामाह-'फासिदिएण' स्पर्शेन्द्रियेण ' मणुण्णभद्दगाइ' मनोज्ञभद्रकान् ‘फासाइ' स्पर्शान् ‘फासिय' स्पृष्टा 'किं ते' कांस्तन्-कथम्भूतांस्तान्? इत्याह-'दगमडव -हार-सेय चदणसीयलरिमलजलगिनिहकुसुमसत्यर उसीर मुत्तियमुणालदोसिणा' दकमण्डपहार श्वेतचन्दनशीतलनिमल जलविविधकुमुमसस्तरोशीरमोक्तिममृणालज्योतनाः, तर-दकमण्डपा-उदकमण्डपाः, जल यन्त्रस्थानानीत्यर्थः, हारा. प्रतीताः, श्वेतचन्दनानिन्धीखण्डचन्दनानि, शीतलविमलजलानि = शीतलानि = विमलानि अब सूत्रकार इस व्रतकी पाचवी भावना कहते है-'पचम पुण' इ० टीकार्य-(पचम पुण) पांचवीं भावना स्पर्शनेन्द्रिय सवर नाम की है । वह इस प्रकार से है-(फासिदिण्ण) स्पर्शन इन्द्रिय से (मणुण्णभद्दगाइ फासाइ ) मनोज भद्रक-स्पर्शन इन्द्रिय को मुखकारक-स्पी को (फासिय) स्पर्श कर के साधु को उन में रचिभाव-रागपरिणति नहीं करना चाहिये, इस प्रकार से यहा सबंध लगा लेना चाहिये(किं ते १) रुचिकारक स्पर्श के विपयभूत कौन २ से पदार्थ है, इस प्रकार के प्रश्नका उत्तर देते हुए सूत्रकार उन फितनेक पदार्थो को नाम निर्देशपूर्वक करते हैं-(गिम्हकाले दगमडव-हार-सेयचदण-सीयल विमल-जलविवि कुसुमसत्य-ओसीर-मुत्तिय-मुणाल-दीसिणा-पेहुणउक्खेवग-तलियट-बीयणग-जणिय सुहसीयले य पवणे ) ग्रीष्मकालमें दकमडप-जल के फुआरे जहा जल वरसाकर स्थान को ठडा रखते हो,-ऐसा जल यत्र स्थान, हार श्वेतचदन-श्रीखडचदन, शीतल, निर्मल હવે સૂત્રકાર આ વ્રતની પાચમી ભાવના બતાવે છે – "प चम पुण"त्याहि साथ-' पचम पुण" पायभी सावन स्पशेन्द्रिय स१२ नामनी छ ते मा प्रमाणे छे "फासिदिएण" सपशेन्द्रियथी " मणुण्णभद्दगाइ फासाइ" भनोसम २५शद्रय सुमा२४ २५शनि! " फासिय" २५श ४शन साधुरी તેમના પ્રત્યે રૂચિભાવ-રાગપરિણતિ કરવી જોઈએ નહી किं ते १" ३थि७१२४ २५ उया उया पहा ते प्रश्न ઉત્તર આપતા સૂવાર એવા કેટલાક પદાર્થોનો ઉલ્લેખ કરીને કહે છે કે – ___“ गिम्हकाले दगम डर-हार सेयचदण सोयलविमलजल विविहकुसुमसत्थर • ओसीर मुत्तिय मुणाल दोसिणा-पेहुण-उक्खेग तालियट वीयणग -जणिय सुइसी यले य पवणे " श्रीभ तुमा ४७४ ३५ व्या ५९ना पा२१ पान डीन Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमभ्याकरण य आयवनिद्धमउय-सीय उसिणलहुया य जे उउसुहफासा अंगसुहनिव्वुइकरा ते, अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु मणुन्नभदएसु न तेसु समणेण सज्जियव्वं, न रज्जियव्व, न गिन्झियवं, न मुज्झियम्व, न विणिघाय आवज्जियवं, न लभि यत्व, न अज्झोववजियव्वं, न तूसियव्य, न हसियत्व, न सई च मइं च तत्थकुजा । पुणरवि फासिदिएण फासिय फासाइं अमणुन्नपावगाइ, किं ते ? अणेगवहवध-तालणंकण-अइभारारोवण-अगभजण-सुईनखप्पवेस-गायपच्छणलक्खारसखारतेल्लकलकलंत-- -तउसीसककाललोह--सिंचणहडिवधण रज्जुनिगल-संकलन हत्थंडुयकुभिपाकदहण सीहपुच्छण सूलभेय--गयचलणमलण-करचरणकन्ननासोट्ठसीसछेयण-जिन्भच्छेयण वसणनयण हिययदतभजण-जोत्तलयकसप्पहारपादपण्हिजाणुपत्थरनिवायपीलणक --विकच्छुअगणि विच्छ्यडकवायायवदसमसगनिवाए दुटणिसज्जदुन्निहिया कक्खड गुरुसीयउसिणलुक्खेसु बहुविहेसु अन्नेसु य एवमाइएसु फासेसु अमणुन्न पावगेसु न तेसु समणेण रूसियव्व, न हीलि. यत्व, न निदियव्य, न गरहियव्य, न खिसियत्व, न छिदियन्व, न भिदिय०व, न वहेयव्व, न दुगुछावत्तियाविलभा उप्पाएउं एव फासिदियभावणाभाविओ भवइ अतरप्पा मणुन्नामणुन्नसुभिदुभिरागदोसपणिहियप्पा साहू मयवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइदिए चरेज धम्म ॥ सू० ११ ॥ Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका भ०५ सू०११ स्पोन्द्रियसवर'नामफपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३५ यापणा य' शरीरस्य अङ्गारमतापनाशयतिनिपेपणानि च, 'आयवनिद्धमउयमीयउसिणलहुया य ' आतपस्निग्धमृदुफशीतोष्णलघुकाँश्व, तन-मातपः सूर्यतापः, स्निग्धाः-चिषणा , मृदुका: कोमलाः, उप्णा उप्मयुक्ताः, लघुगमनोज्ञाः, एपामितरेतरयोगद्वन्द्वः, 'जे' ये ' उउसुहफामा ' ऋतुसुग्वस्पर्गाः-ऋतुपु-हेगन्तादिपु मुख-मुखकरः स्पों येपा ते तथोक्ताः, 'अगसुहनिमुडकरा' पङ्गसुखनिवृतिकरा:नगमुस-शरीरमुख, नितिः=मनः स्वास्थ्य च कुर्वन्ति ये ते तथोक्ताः, 'ते' तान् स्पृष्ट्वा, ' ममपेण' अमणेन-साधुना ' तेसु ' तेपु-पूर्वोतेपु ' मणुन्नभद्दएमु फासेस' मनोज्ञभद्रकेपु स्पर्शपु, तथा-एभ्यः 'अन्नेसु य' अन्येषु च ' एमाइएमु ' एवमादिकेषु 'फासेम् ' स्पर्शेषु ' न सज्जिया' न सक्तव्यम् आसक्तिनेर कर्तव्या, तथा--'न रज्जियन्व' न रक्तव्यम्-रागो न कर्तव्य', 'न गिज्नियन्त्र' न गदितव्यम्-गृर्खिभावो न कर्त्तव्यः, 'न मुज्झि यव्व' न मोहितव्यम्-ता मोहो न कर्तव्य , तथा-न 'पिणिपाय' निनिर्घात = तदर्थ चारित्रभ्रशः, 'आज्जियन' आपत्तव्यः-कर्त्तव्य इत्ययः, 'न लुभियन' न लोब्यव्यम्-रोभो न कर्तव्य', 'अज्ञोववज्जियन' न अध्युपपत्तव्यम्=तत्प्रा(आयचनिद्धमयसीय उसिणल्या य) सूर्य के ताप को, चिक्षणपदार्थ को, कोमलपदार्थ को उष्ण पदार्य को, हल्के पदार्थ को, कि (जे ) जो उ उ सुरफासा) ऋतु के अनुसार जिनका स्पर्श मुखजनक होता है और (अगसुहनिब्युडकरा) शरीर को एव मन को आनद प्रदान करता है, उनको शरीर से स्पर्श करके ( समणेण ) सायु को (तेसु) उन २ (मणु नभद्दण्सु फासेसु ) मनोजभद्रक-रुचिकारक-स्पर्धा मे तथा (अण्णेसु य एवमाइण्सु फासेसु) इन से अतिरिक्त और भी स्पो में (न सज्जियन्व, न रज्जियच्च, न गिज्झियन्व, न मुज्झियव्य, न विणिधाय आवज्जियन्व, न लभियन्ब, न अज्झोववज्जियव्य, न तुसियम, न यसीय-उसिण-लहया य" सूर्यना तापनी, भुसायम पहाना, उमण पहाथी, GEY पानी, Sast पार्थना, "जे" "उउसुहफासा" *तु प्रभारी करना २५ सुहाय सागे छे भने “ अगसुहनिव्नु इकरा" शरीरने तथा भनने मान मापे छ, तेभनी शरीरथी २५० शन " समणेण" साधुरी “तेसु" ते ४२४ “ मणुन्नभद्दएसु फासेसु" तनाज्ञसद्र:२शिक्षा२६ प भी तय “ अण्णेसु एवमाइएसु फासेसु" ते सिवाय ॥ पीत ५] २५ मा “ न सज्जियव्य , न रज्जियम, न गिज्झियव्य , न मुझियव्य, न विणिधाय आवज्जियव्व , न लुभियव्य , न अझोववज्जियव्व , न तुसियव्य, Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रभायाकरणमा निर्मलानि च यानि जलानि तानि, तया-विविधकुममसम्रा - विविधानाम् अनेकप्रकाराणा सुमाना-पुष्पाणा ये सस्तरा: शग्गाम्ते, तया-उशीरागि मुगन्धितणानि, 'खश' इति प्रमिद्धानि, माक्तिकानि-मुक्ताफलानि, मृणालानि-पद्मनालानि, ज्योत्स्ना चन्द्रिकाः, एपामितरेतरयोगदन्द', ताः, तया'पेहुगउक्खेगतालियटकीयणगणियमुहसीयले ' पिन्टोत्क्षेपकतालटन्तव्यजन फजनितमुखशीतलान् , तर-पिन्छोरक्षेपमा=पिच्छाना-मयूरपिकाना ये उत्क्षे पकाव्यजनानि, तारन्तानि मारपत्रव्यननानि, व्यजनमानि धगदलनिर्मित व्यजनानि तज्जनिताः सुग्याः सुखकरा: शीतलास्तांस्तथोक्तान् 'परणे य' पव. नांव 'गिम्हकाले ' ग्रीष्मकाले । तथा-'मुहफासाणि य' मुसतानि च सुखः =सुखकरः स्पर्शो येपा तानि-स्पर्शसुखानहानीत्यर्थ', ' पनि-अनेकपाराणि 'सपणाणि आमणागि य शयनान्यामनानि च, प्रावरणगुणांव-मृदुम्पनि शीवा पहारकानुत्तरीयांश्च 'सिसिरकाले ' शिशिरकाले शीतकाले, तथा-' अगारप्प जल, विविध प्रकार के पुष्पो से रचित शय्या, उशीर-गख, मुक्ताफलं, मृणाल-कमलनाल, और दोसिणाचद्रिका-चादनी को, तया पहुणउक्खे वग-मयूर के पिच्छो के बने हुए पम्वों की, ताडपत्र के बने हुए पखों की और वास की शलाकाओं से बने हुए पसों की, सुग्वदायक शीतल वायु को तया-सुखप्रद स्पर्शवाले अनेक प्रकार के शयन और आसनो को, (सिसिरकाले ) शीतर काल में तथा (सुहफासाणि य) नरम स्पर्शवाले शीतापहारक (सहगि सयणाणि आस गाणि य ) अनेक प्रकार के शयन और आसनो को, तथा (पाउरणगुणे य) ओढने के चद्दर आदि वस्त्रों को ( अगारप्पयावणा य ) अग्नि के उष्णस्पर्श को, જગ્યાને ઠડી રાખતા હેય, એવા જલય ત્રવાળા સ્થાન, હાર, વેત ચંદન, શિતલ નિર્મળ જળ, વિવિધ પ્રકારના પુપ વડે બનાવેલી રાખ્યા, ઉશીર ખશ, મુક્તાફળ, મૃણાલ કમળના, અને દેનિણ-ચદ્રિકા-ચાદનીની, તથા હિણુ ઉકખેવગ-મેરના પીછાના બનાવેલ પખાના, તાડપત્રમાથી બનાવેલ પખાના અને વાસની સળીઓમાથી બનાવેલ પખાના, સુખદાયક શીતળ વાયુની તથા સુખપ્રદ સ્પર્શવાળા અનેક પ્રકારના શયન અને આસનને સ્પર્શ કરવા नये नही तथा “ सिसिरकाले " शियाणाना "सुहफासाणि य" नभ शाशीत २ ४२ना। "यहूणि सयणाणि आसणाणि य" अने ना शया भने मासनानी, तथा " पाउरणगुणे य" गाढवाना यावर मात सोनी, "अगारप्पयावणा य " भनिना BY १५शनी, " आयवनिद्धमा Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " सुर्दाशिनी टीका २०५ सू० ११' स्पर्शेन्द्रियसंवर' नामक पञ्चमभावना निरूपणम् ९३५ यारणा य' शरीरस्य अङ्गारमतापनाश्र = पहिनिपेवणानि च, 'आय व निमउयमी - यउसिणलहुया य ' आतपस्निग्धमृदुरुगीतोष्णलघुकाँध, वन - जातपः = सूर्य तापः, स्निग्धाः = चिपणा, मृदुकाः = कोमलाः, उष्णा ऊप्मयुक्ताः, लघुः = मनोज्ञाः, पामितरेतरयोगद्वन्द्वः, 'जे' ये ' उउसुहफासा ऋतुसुखस्पः ऋतुपुदेगन्वादिषु सुसः सुखकरः स्पर्शो येषा ते तथोक्ताः, ' जगसुहनिब्बुह करा ' जनसुसनिर्वृतिकरा'=जङ्गसुख= शरीरमुख, निर्वृतिः = मनः स्वास्थ्य च कुर्वन्ति ये ते तथोक्ताः, 'ते' तान् स्पृष्ट्वा, ' समणेण श्रमणेन = साधुना ' तेसु' तेषु पूर्वीतेषु ' मणुम्नभद्दमु फासे ' मनोज्ञभद्रकेषु स्पर्शेपु, तथा एभ्यः ' अन्नेसु य ' अन्येषु च ' एवमाseसु ' एनमादिकेषु ' फासेट ' स्पर्शेषु ' न सज्जियन' न सक्तव्यम् = आसक्तिनेन कर्तव्या, तथा--' न रज्जियन्त्र' न रक्तव्यम् - रागो न कर्तव्य', 'न गिज्झियन्त्र' न गर्दितव्यम् - गृद्धिभावो न कर्त्तव्यः, 'न मुज्यियव्त्र ' न मोहितव्यम्-वा मोहो न कर्तव्य, तथा-न 'वियाय' निर्घात तदर्थं चारित्रभ्रशः, ' आनज्जियन्त्र ' आपत्तव्य. - कर्तव्य इत्यर्थः, 'न लुमियन्त्र ' न लोव्धव्यम्-लोभो न कर्तव्य', ' अज्ज्ञोववज्नियच्न' न अध्युपपत्तव्यम् = तत्प्रा(आयवनिमयसीय सिणलहुया घ) सूर्य के ताप को, चिकणपदार्थ को, कोमलपदार्थ को उष्ण पदार्थ को, हल्के पदार्थ को, कि (जे) जो उ उ फासा ) ऋतु के अनुसार जिनका स्पर्श सुखजनक होता है और (असुर निम्बुइकरा ) शरीर को एव मन को आनंद प्रदान करना है, उनको शरीर से स्पर्श करके (समणेण ) साधु को (तेसु) उन २ (मणु नभए फासेमु ) मनोजभद्रक - रुचिकारक - स्पर्शो मे तथा (अण्णेसुय एवमाइ फासेसु ) इन से अतिरिक्त और भी स्पर्शो में ( न सज्जियव्व, न रज्जियच्च, न गिज्झियव्व, न मुज्झियच्च, न विणिधाय आवज्जिघन्य, न लुभियव्व, न अज्झोववज्जियव्व, न तुसियन, न = यसीय - उसिण- लहुया य" सूर्यना तापनो, भुलायम पहार्थना, जेभण यहार्थना, उष्णु पहार्थना, हसन पार्थना, ने " जे " ? " 'उउसुहफासा " ने ऋतु प्रभाले नेनो नेनो स्पर्श सुमहाय लागे छे भने " अगसुहनिन्नु इकरा " शरीरने तथा भनने यान आये छे, तेभनो शरीरथी स्पर्श ने " समणेण " साधुये " तेसु " ते हरे " मणुन्नभद्दएस फासेसु " तनेोशलद्ररुचिार४ स्पर्शोभा तथा " अण्णेसु एवमाइएस फासेसु " ते सिवाय ॥ जीन्न પણ સ્પર્ધામા “ न सज्जियन्त्र, न रज्जियव्य, न गिज्झिनव्व, न मुज्झियव्न, न विणिधाय आवज्जियव्व, न लुभियन्त्र, न भज्झोववज्जियव्व, न तुसियन, Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - ९३४ प्रश्नग्याकरण -निर्मलानि च यानि जलानि तानि, तया-विविधतुममसम्नरा - विरियानाम् अनेरप्रकाराणां इसमाना-पुष्पाणा ये सस्तराभग्यान्ते, तया-उगीरागि सुगन्धितणानि, 'खश' इति भगिद्धानि, माक्तिमानिन्मुक्ताफलानि, मृणालानि-पदानालानि, ज्योत्स्नाः चन्द्रिकाः, एपामितरेतरयोगदन्तः, ता, तथा'पेहुगउक्खेगतालियटगीयणगणियमुहसीयले' पिन्छोत्सेपकतारन्तव्यजन राजनितमुखशीतलान् , तत्र-पिन्छोत्क्षेपापिलाना-मयरपिन्माना ये उत्क्षे पकाव्यजनानि, तालगन्तानिस्तारपत्रव्यजनानि, व्यजनानिबदलनिर्मित व्यजनानि तज्जनिताः सुखा:-सुखकराः शीवलगस्तांस्तथोक्तान् 'परणे य' पवनांश्च' गिम्हकाले ' ग्रीष्मकाले । तथा-'मुहफासाणि य' सुसम्पर्शानि च सुखः सुखकरः स्पर्शी येपा तानि-स्पर्शसुखानहानीत्यर्थः, ' पनि अनेकपसाराणि 'सयणाणि आमणाणि य' शयनान्यामनानि च, पापरणगुगांव-मृदुम्पर्शन शीवा पहारकानुत्तरीयांश्च 'सिसिरकाले ' शिशिरकाले शीतकाले, तथा-' अगारप्प जल, विविध प्रकार के पुष्पो से रचित शय्या, उशीर-गख, मुक्ताफल, मृणाल-कमलनाल, और दौसिगाचद्रिका-चादनी को, तथा पेहुणउक्खे धग-मयूर के पिच्छों के बने हुए पवों की, ताडपत्र के बने हुए पखों की और पास की शलाकाओं से बने हुए पखों की, सुखदायक शीतल वायु को तथा-सुखप्रद स्पर्शवाले अनेक प्रकार के शयन और आस नों को, (सिसिरकाले ) शीतलकाल में तथा (सुहफासाणि य) नरम स्पर्शवाले शीतापहारक (बहगि सयणाणि आस गाणि य ) अनेक प्रकार के शयन और आसनो को, तया (पाउरणगुणे य) ओढने के चंदर आदि वस्त्रों को ( अगारप्पयावणा य ) अग्नि के उष्णस्पर्श को, જમાને ઠડી રાખના હૈય, એવા જલ ત્રવાળા સ્થાન, હાર, શ્વેત ચંદન, શીતલ નિર્મળ જળ, વિવિધ પ્રકારના પુપ વડે બનાવેલી શય્યા, ઉશીર ખશ, મુક્તાફળ, મૃણાલ કમળનાળ, અને દેરિણ-ચદ્રિકા-ચાદનીની, તથા પણ ઉકખેવગ--મેરના પીછાના બનાવેલ ૫ખાના, તાડપત્રમાથી બનાવેલ પખાના અને વાસની સળીઓમાથી બનાવેલ પખાના, સુખદાયક શીતળ વાયુનો તથા સુખપ્રદ સ્પર્શવાળા અનેક પ્રકારના શયન અને આસનોને સ્પર્શ કરવા नये नही तथा “सिसिरकाले " शियाना "सुहफासाणि य” नरम श शीत ३२ ४२२। “पहूणि सयणाणि आसणाणि य" मने प्रा२ना शयन भने सामनाना, तथा " पाउरणगुणे य" साढवाना सहर मा सोनी, "अगारप्पयावणा य" अजिना २५शनी, " आयवनिद्धम Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनी टीका भ०५ सू०११ स्पोन्द्रियसंघर'नामफपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३५ यावणा य' शरीरस्य अङ्गारमतापनाश-हिनिपेषणानि च, 'आयवनिद्धमउयसीयउसिणलहुया य ' आतपस्निग्धमृदुकशीतोष्णलघुकांच, ता-जातपः सूर्यतापः, स्निग्धाः चिषणा , मृदुका कोमलाः, उप्णा जन्मयुक्ताः, लघुमा-मनोज्ञाः, एपामितरेतरयोगहन्दः, 'जे' ये ' उउसुइफासा ' ऋतुमुखस्पर्शा:-कन्तुपु-हेगन्वादिपु मुखामुखकरः स्पर्शी येपा ते तथोक्ता', 'अगसुहनियुइकरा' अन-- मुखनिवृतिकरा' अहसुस-शरीरसुस, निर्वृतिः=मनः स्वास्थ्य च कुर्वन्ति ये ते तथोक्ताः, 'ते' तान् स्पृष्ट्वा, 'समणेण' अमणेन-साधुना 'तेसु ' तेपु-पूर्वोतेषु ' मणुनभद्दएसु फासेस' मनोज्ञभद्रकेपु पर्गेपु, तथा-एभ्यः 'अन्नेसु य' अन्येषु च ' एवमाइएसु ' एवमादिकेषु 'फासेस ' स्पर्शपु ' न सज्जियव्य 'न सक्तव्यम् भासक्तिनै फर्तव्या, तथा--'न रज्जियन्व' न रक्तव्यम्-रागो न कर्तव्य', 'न गिज्झियन्त्र' नगडितव्यम्-गृद्धिभावो न कर्त्तव्यः, 'न मुज्झि यन्न ' न मोहितव्यम्-ता मोहो न कर्तव्य , तथा-न 'पिणिपाय' रिनिर्घात = तदर्थ चारितभ्रशः, 'आजिजयन्ध ' आपत्तव्यः कर्तव्य इत्ययः, 'न लुभियन' न लोब्यव्यम्-लोभो न कर्तव्यः, ' अज्ज्ञोवधज्जियन' न अध्युपपत्तव्यम्-तत्मा(आयवनिमयसीय उसिणल्या य) सूर्य के ताप को, चिकणपदार्थ को, कोमलपदार्थ को उष्ण पदार्य को, हल्के पदार्थ को, कि (जे) जो उ उ सुरफासा) ऋतु के अनुसार जिनका स्पर्श सुखजनक होता है और ( अगसुनिन्चुइकरा) शरीर को एव मन को आनद प्रदान करता है, उनको शरीर से स्पर्श करके (समणेण ) साधु को (तेसु) उन २ (मणु नभदएसु फासेसु) मनोजभद्रक-रुचिकारक-स्पर्धा में तथा (अण्णे सु य एवमाइसु फासेसु) इन से अतिरिक्त और भी स्पो मे (न सज्जियव्व, न रज्जियव्य, न गिज्झियव्य, न मुझियव्ध, न विणिवाय आवज्जियन्व, न लुभियन्व, न अज्झोपवज्जियव्च, न तुसियन, न यसीय-उसिण-लहुया य" सूर्यना पनी, मुसायम पहानी, ओमण पहाथनी, GEY पहायना, इस पार्थना, "जे" "उउसुहफासा" रे ऋतु प्रभारी नरेनो स्५श सुहाय सागे छ भने “अगसुहनिम्बु इकरा" शीरने तया भनने यान मापे छ, तेभने। शरीरथी २५श शन " समणेण" साधु " तेसु" ते ६२७ “ मणुन्नभद्दएसु फासेसु" तनाशनद्रथि२८ स्पर्शामा तथा “ अण्णेसु एवमाइएसु फासेसु" ते सिवाय ॥ भी ५५ २५ मा “न सज्जियध, न रज्जियम, न गिझियव्य , न मुज्झियन्त्र, न विणिधाय आवज्जियव्व, न लुभियव्व , न भज्झोववज्जियव्व , न तुसियव्य, Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमण्याकरण प्त्यर्थ नेपाधिको यत्नो पियः, 'न तुसिया'न तोप्टव्य-तत्प्राप्ती परितोपो न कर्तव्य , 'न हसियय न हसितव्यम्-माप्ती विम्मयेन हासो न कर्तन्यः। तथा श्रमण 'तत्थ ' तत्र-पूर्वोक्तमुक्ततद्विपये 'सह च ' स्मृति-स्मरण च' मतिबुद्धिनिवेश च ' न कुज्जा' न कुर्यात् । 'पुणरवि' पुनरपि उच्यते-'फासिंदिएण' स्पर्शेन्द्रियेण ' अमनुष्णपागाइ ' अमनोनपापान अरुचिकरानित्यर्थः, 'फासाइ ' स्पर्शान् ' फासिय' स्पृष्ट्वा पिते' कॉस्तान-अयम्भूनाम्तान् ? इत्याह-~-'अणेगबह-उध-तालण-पण- अइभारारोपण-अग-भनण-मुनग्वप्पवेस हसियन्च, न सह च मइ च तत्थ कुज्जा) कभी भी आसक्ति से अपने चित्त को नहीं चाधना चाहिये, उनमें रागभाव नहीं करना चाहिये। गृद्धि भाव नहीं करना चाहिये । उन में मुग्ध नहीं होना चाहिये-उनके निमित्त अपने चारित्र का परित्याग नहीं कर देना चाहिये। उनमें लुभाना नहीं चाहिये। और न उनकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्न ही करना चाहिये । यदि ये अनायास प्राप्त हो भी जावें तो उनकी प्राप्ति मे परितोप नहीं मानना चाहिये । और प्राप्ति में कोई विस्मय आश्चर्य ही नही करना चाहिये । तथा अमण को इन प्रोक्त अनुभचित स्पर्शों में अपनी स्मृति को एव बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये। (पुणरवि) इसी तरह फिर (फासिदिएण ) स्पर्शन इन्द्रिय से (अमणुष्णपावगाइ) अमनोज्ञपापक-अरुचिकारक-प को स्पर्श करके उनमे सायु को द्वेष नही करना चाहिये । ( किं ते ?) वे अमनोज्ञ पापक स्पर्श किन २ पदार्थो मे रहते है, इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार कहते है कि (अणेगवदध-तालणकण-अइभारारोवणन हसियव्य, न सइ च भइच तत्थ कुज्जा" ही पy सासतिथी पाताना ચિત્તને બાધવુ નહી, તેમનામાં રાગભાવ કરે નહી તેની લાલસા રાખવી નહી તેમાં મુખ્ય થવુ નહી,-તેને ખાતર પિતાના ચારિત્રને પરિત્યાગ ન કરવો જોઈએ તેમાં ભાવું ન જોઈએ અને તેની પ્રાપ્તિ માટે વધુ પ્રયત્ન પણ કરવું જોઈએ નહીં જે તે અનાયાસે મળી જાય તે તેની પ્રાપ્તિથી પરિતોષ માનવે જોઈએ નહી તેની પ્રાપ્તિમાં વિસ્મય પણ બતાવવું જોઈએ નહી અને સાધુએ એ પૂર્વોક્ત અનુભવેલ શેનું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી અને तेभन विया२ ५५ २ नये नही "पुणरवि" मे रीत ' फासि दिएण" स्पशेन्द्रियथा “ अमणण्णपावगाइ " अभनास पा५४-माया२३ સ્પર્શોને સ્પર્શ કરીને તેમના પ્રત્યે સાધુએ ઠેષ કર જોઈએ નહીં * ते}" मभनाश पापड-मयिडा२४ २५शवाय ज्या ज्या पदार्थात उत्तर मापता सत्रा२ ४. छे , “अणेगवहबध तालणकण--अइभाराविण Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका ०५ सू०११ स्पोन्द्रियसंवर'नामफपञ्चमभावनानिरूपणम् ९-७ - गायपच्छण लक्खारस-पारतेल कल्पलत तउअसीसककाललोहसिंचण हडिवण रज्जुनिगल-सरलहत्यय-कुभिपारदहण-सीहपुन्छण- उन्चधण-मूलभेय-गय चलणमलण-फरचगाननामोहमीसडेयण-जिन्भछेयणवसणनयणहिययदतभनणजोतलयकसप्पहार-पादपहि जाणु-पत्थर-निगाय-पीलण कनिकच्छुअगणि-विच्छुय डक्वायायव-दसममग-निवाए 'अनेस्वधरन्धताडनाइनातिभारारोपणागभञ्जनसूचीनखमवेश-गारमतक्षण-लक्षारस खारतैलकलकायमानत्रपुक सीसककाललोहसेचनाडिन्धनरज्जुनिगडसफलहस्तान्दुक कुम्भीपाकदहनसिंहपुन्छोहन्धन शूल भेद-गजचरणमर्दन-रचरणवर्णनासाष्ट शीर्पच्छेदनपणनयन हृदयदन्तमञ्जनयोलत्तास्गाप्रहारपादपणिजानुप्रस्तरनिपातपीडनकपिफच्याग्नि-वृश्चिक-दशवातातपदशमशकनिपातान् , तन-अनेको रहुविधो यो धान्यष्टयाद्याघातः, रज्ज्वादिभिर्मन्धः, ताडनम् चपेटादिताडनम् ,अङ्कनम्-तप्ताय शलाकादिना गाने चिन्नकरणम् , अतिभारारोपणम् प्रमाणाधिनमारामारोपणम् , अङ्गभञ्जनम् शरीरावयव. त्रोटनम् , ' मुईनावप्पवेस' मचीनखप्रवेशमृचीना नखेषु प्रवेश प्रवेशकरणम् , अगभजणसूईनग्वप्पवेस-गायपच्छण-लपवारस खारतेल्लकलकलत-तउ सीसककाललोसिंचण-रडियधण-रज्जुनिगल-सकलन हत्थडुय कुभिपारदहण-सीहपुच्छण-उन्नधण-सूलभेय-गयचलणमलण- करचरणकन्न नासोहसीस यणजिन्भटेयण-वसण-नयणयिय-दतभजण-जोत्तलयकसप्पहार - पाटपणिहजाणुपत्थरनिवायपीलणकविकच्छुअगणिविच्छुयडक्वायायवदसमसगनिवाए ) वह अनेक प्रकार से यष्टयादि द्वारा आघात करने रूप वध, वधण-रज्वादि द्वारा बाधनेस्प वधन, तालणचपेटा-यप्पड आदि मारने रूप ताडन, अकण-तपी हुई लोहे को सलाई से शरीर में चिह करने रूप अकन, (अईभारारोवण) प्रमाण से अधिक भार का लादना, (अगमजण) शारीरिक अवयव को तोडना (सूईनअगभजण-सूईनसप्पवेस-गायपाउण-रक्सारस सारतेह्कलकलत-तउसीसककाल लोहसिंचण-हडिबधण रज्जुनिगल सकलन हत्थडुय्कुभिपाकदहणसीहपुच्छण उच्चधण-सूलभेय गयचल्णमलण करचरणकन्ननासोद्र सीसछेयण जिभछेयण वसण नयण हिययद तभजण-जोत्तल्यकसप्पहार पादपहि जाणुपत्थर निवाय पालणकवि कच्छ-अगणिविच्छय-डक्वायायपदसमसगनिवाए " ते मने प्रारनी साडी माहिना प्रहा२३५ वध, बधण-हा२। माह माधवा३५ मधन तालण-२५४ આદિના માર રૂપ તાડન, સાતપાવેલા લોઢાના સળીયા વડે શરીર પર आम पा३५ निशान, अइभारारोवण-पधारे प्रमाणुमा लार दावो, अगभजणशीना मगनुछेन सृईनसप्पवेस-मायने नसभा ही हवी, गायपच्छण प्र-११८ Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३६ | সন্ধানে त्यर्थ नैयाधिको यत्नो विषयः, 'न सिया'न तोप्टन्य-तत्प्राप्ती परितोपो न कर्तव्य , 'न हसियन्त्र न हसितव्यम्-माप्ती विस्मयेन हासो न कर्तव्यः । तथा श्रमण 'तस्थ' तत्र-पूर्वोक्तभुक्ततद्विपये ' सह च' स्मृति-स्मरण च' मति बुद्धि निवेश च ' न कुज्जा ' न कुर्यात् । 'पुणरवि' पुनरपि उच्यते-' फासिंदिएण' स्पर्शेन्द्रियेण 'अमनुष्णपारगाइ ' अमनोज्ञपापकान्-अरुचिकरानित्यर्थः, 'फासाइ ' स्पर्शान् ' फासिय' स्पृष्ट्वा पिते' फॉस्तान-अयम्भूनाम्तान् ? इत्याह-'अणेगरह-ध-तालण-पण- अइभारारोपण-भाग-भजण-मुनवप्पवेस हसियन्च, न सह च मइ च तत्थ कुज्जा) कभी भी आसक्ति से अपने चित्त को नहीं बाधना चाहिये, उनमें रागभाव नहीं करना चाहिये । गृद्धिभाव नहीं करना चाहिये। उन में मुग्ध नहीं होना चाहिये-उनके निमित्त अपने चारित्र का परित्याग नहीं कर देना चाहिये । उनमें लुभाना नहीं चाहिये। और न उनकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नही करना चाहिये । यदि ये अनायास प्राप्त हो भी जायें तो उनकी प्राप्ति मे परितोप नही मानना चाहिये । और प्राप्ति में कोई विस्मय आश्चर्य ही नहीं करना चाहिये । तया अनण को इन प्रक्ति अनुभचित स्पों में अपनी स्मृति को एव बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये । (पुणरवि) इसी तरह फिर ( फासिदिएण) स्पर्शन इन्द्रिय से (अमगुणगपावगाइ) अमनोजपापक-अरुचिकारक-पर्टी को स्पर्श करके उनमे साधु को द्वेष नही करना चाहिये । (किं ते?) वे अमनोज पापक स्पर्श किन २ पदार्थो मे रहते है, इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार कहते है कि (अणेगववध-तालणकण-अइभारारोवणन हसियव्य , न सइ च मइच तत्थ कुज्जा" ही मासस्तिथी पाताना ચિત્તને બાધવુ નહી, તેમનામાં રાગભાવ કરવો નહી તેની લાલસા રાખવા નહી તેમાં મુગ્ધ થવુ નહી,-તેને ખાતર પિતાના ચારિત્રને પરિત્યાગ ને કરવો જોઈએ તેમાં ભાવું ન જોઈએ અને તેની પ્રાપ્તિને માટે વધુ પ્રયત્ન પણ કરવો જોઈએ નહીં જે તે અનાયાસે મળી જાય તે તેની પ્રાપ્તિથી પરિતેષ માન જોઈએ નહી તેની પ્રાપ્તિમાં વિસ્મય પણ બતાવવું જોઈએ નહી અને સાધુએ એ પૂર્વોક્ત અનુભવેલ રશ નું રમરણ કરવું જોઈએ નહી અને तमना विया२ ५४ व श नही "पुणरवि" से शत ' फासि दिएण" स्पशेन्द्रियथा “ अमणण्णपानगाह" ममनोज पा५५-२२२२४ સ્પશેને સ્પર્શ કરીને તેમના પ્રત્યે સાધુએ ઠેષ કરવો જોઈએ નહી ** ते।" मभनाश पा५४-बिहा२४ स्पर्श वाणा या या पहा छ, त प्रश्नना उत्त२ माता सत्रा२ छ, “अणेगवाहबध--तालणकण-अइभारारोवण Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुदर्शिनी टीका म०५ सू०११ 'स्पछन्द्रियसपर'नामकपञ्चमभायनानिरूपणम् ९७ -गायपच्छण लक्खारस-भारतेल कलालत तउअसीसककाल्लोइसिंचण हडिवण रज्जुनिगल-सरलहत्यइय-कुभिपारदहण-सीहपुन्छण- उबधण- मूलभेय-गय चलणमलण-करचणकननामोडमीसछेयण-जिन्मठेयणवसणनयणहिययदतभनणजोत्तल यकसप्पहार-पादपण्हि जाणु-पत्थर-निगाय-पीलण कनिकच्छुअगणि-विच्छय डकवायायव-दसमसग-निवाए 'अनेकानन्धताडनाइनातिभारारोपणागभञ्जनसूचीनखप्रवेश-गारमतक्षण-लक्षारस खारतैलकलकलायमानत्रपुक सीसककाललोहसेचनहडिवन्धनरज्जुनिगडसफलहस्तान्दुक कुम्भीपाकदहनसिंहपुच्छोद्वन्धन शूल भेद-गजचरणमर्दन-रचरणर्णनासोप्ट शीर्पच्छेदनपणनयन हृदयदन्तमञ्जनयोलत्तारशाप्रहारपादपणिजानुप्रस्तरनिपातपीडनकपिकच्छपग्नि वृश्चिक-दशवातातपदशमशकनिपातान , ता-भनेको बहुविधो यो पधा-यष्टपायाघाता, रज्ज्वादिन्धिः , ताडनम्-चपेटादिताडनम् ,अङ्कनम्=तप्तायः शलाकादिना गाने चित्रकरणम् , अतिभारारोपणम्-प्रमाणारिस मारामारोपणम् , अगभञ्जनम् शरीरावयत्रघोटनम् , ' मुईनग्वप्पवेस' मचीनग्वप्रवेश मचीना नखेषु प्रवेश प्रवेशकरणम् , अगभजणसईनखप्पस-गायपच्छण-लक्खारस खारतेल्लकलकलत-तउ सीसमकाललोरसिंचण-डियधण-रज्जुनिगल-सकलन हत्यड्डय कुभिपाकदहण-सीहपुच्छण-उच्चधण-मूलभेय-गयचलणमलण- करचरणकन्न नासोटसीमठेयणजिम्भयण-वसण-नयणयिय-दतभजण- जोत्तलयसप्पहार -पाटपहिजोणुपत्थरनिवायपीलणकविफच्छुअगणिविच्छुयडरचायायवदसमसगनिवाए) वह अनेक प्रकार से यष्टयादि द्वारा आघात करने रूप वध, बधण-रज्ज्वादि द्वारा बाधनेरूप वधन, तालणचपेटा-यप्पड आदि मारने रूप ताडन, अकण-तपी हुई लोहे की सलाई से शरीर में चित करने रूप अकन, (अईभारारोवण) प्रमाण से अधिक भार का लादना, (अगभजण ) शारीरिक अवयव को तोडना (सूईनअगभजण-सूईनसप्पवेस-गायपन्ण -लम्सारस सारतेल्लकलकलत--तउसीसककाल लोहसिंचण-हडियधण रज्जुनिगल सकल्न हत्थडुय्कुभिपाकदहणसीहपुच्छण उनधण-सूलभेय गयचल्णमलण करचरणकन्ननासोट्ट सीसछेयण जिन्भछेयण -वसण नयण हिययद तभजण-जोत्तल्यकसप्पहार-पादपण्हि जाणुपत्थर निवाय पारणकवि कन्छु-अगणिविच्छय-डक्यायायवदसमसगनिवाए "ते भने अडानी दा माहिना प्रा२३५ वध, बधण-हा२। सामाधा३५ मधन, तालण-२५४ આદિના માર રૂપ તાડન, 18-તપાવેલા લોઢાના સળીયા વડે રાગીર પર भ हेवा३५ निशान, अइभारारोवण-वबारे अभाशुभा मार दाये।, अगभजणशीना मगनु छेन सूईनसम्पवेस-मायने नम ही हवी, गायपच्छण ११८ Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - - ९३६ प्रभण्याकरण प्त्यर्थ नैयाधिको यत्नो पिया, 'न तुसिया न तोष्टव्य-तत्प्राप्ती परितोपो न कर्तव्य , न इसियन न इसितव्यम्-माप्ती विस्मयेन हासो न कर्तव्यः। तथा श्रमण 'तत्थ' तत्र-पूक्तिमुक्ततद्विपये सइ च' स्मृति स्मरण च' मति युद्धिनिवेश च ' न कुज्जा' न कुर्यात् । 'पुणरवि' पुनरपि उच्यते-' फासिंदिएण ' स्पर्शेन्द्रियेण ' अमनुग्णपारगाइ' अमनोजपापमान रुचिकरानित्यर्थः, 'फासाइ ' स्पर्गान ' फासिय' स्पृष्ट्वा पिते' फॉस्तान्अयम्भूतांस्तान् ? इत्याह-'अपोगह-ध-तालण-फण- अइभारारोपण-भग-भजण-मुनखप्पवेस हसियन्च, न सड च मइ च तत्थ कुज्जा) कभी मी आसक्ति से अपने चित्त को नहीं बाधना चाहिये, उनमें रागभाव नहीं करना चाहिये। गृद्धिमाव नहीं करना चाहिये । उन में मुग्ध नहीं होना चाहिये-उनके निमित्त अपने चारित्र का परित्याग नही कर देना चाहिये । उनमें लुभाना नहीं चाहिये। और न उनकी प्राप्ति के निमित्त प्रयत्नही करना चाहिये । यदि ये अनायास प्राप्त हो भी जायें तो उनकी प्राप्ति में परितोप नही मानना चाहिये । और माप्ति में कोई विस्मय आश्चर्य ही नहीं करना चाहिये । तया अनण को इन प्रोक्त अनुभचित स्पों में अपनी स्मृति को एव बुद्धि को भी नहीं लगाना चाहिये। (पुणरवि) इसी तरह फिर (फासिदिएण) स्पर्शन इन्द्रिय से (अमणुण्गपावगाइ) अमनोजपापक-अरुचिकारक-पों को स्पर्श करके उनमे साबु को द्वेष नहीं करना चाहिये । (किं ते ?) वे अमनोज पापक स्पर्श किन २ पदार्थो मे रहते है, इस प्रकार के प्रश्न का उत्तर देने के लिये सूत्रकार कहते है कि (अणेगवध-तालणकण-अहभारारोवणन हसियन , न सइ च मइच तत्थ कुज्जा" ५ मासतिथी पाताना ચિત્તને બાધવુ નહી, તેમનામાં રાગભાવ કરે નહીં તેની લાલસા રાખવી નહી તેમાં મુગ્ધ થવુ નહી,-તેને ખાતર પિતાના ચારિત્રને પરિત્યાગ ને કરવો જોઈએ તેમાં ભાવું ન જોઈએ અને તેની પ્રાપ્તિને માટે વધુ પ્રયત્ન પણ કરવો જોઈએ નહી જે તે અનાયાસે મળી જાય તે તેની પ્રાપ્તિથી પરિતેષ માનવો જોઈએ નહી તેની પ્રાપ્તિમાં વિરમય પણ બતાવવું જોઈએ નહી અને સાધુએ એ પૂર્વોક્ત અનુભવેલ શેનું સ્મરણ કરવું જોઈએ નહી અને तभना विद्यार परवान नही "पुणरवि' ' फासि दिएण" १५शेन्द्रियथी "अमणण्णपागाइ" समनास पा५४-०२-२१२४ સ્પને પૂરી કરીને તેમને પ્રત્યે સાધુએ ઠેષ કરવું જોઈએ નહીં “ ?” અમને પાપક-અરુચિકારક સ્પશ વાળા કયા કયા પદાર્થો છે, તે પ્રશ્નના उत्तर मापता सूत्रा२ ४ छ“अणेगवहबध तालणकण-अइभारारोवण Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदशिनो टोका १०५ सू.१६ सपशेन्द्रियसवर नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३९ प्ठशीपच्छेदनम्= जिम्भयण' जिदान्छेदनम् , 'यसगनयणहिययटतमजण' कृपणनयनहदयदन्तमञ्जनम्=पणम्यमण्डकोशस्य, नयनयोः, रदयस्य दन्ताना च भञ्जनम् विनाशनम् , 'जोत्तलयसापहार' योक्त्रलताकशाप्रहार:-योक्त्रेण रज्जुरिगेपेण, लतया वेगादिलतया कशया च यः प्रहार , प्रहारः, 'पादपण्हिजाणुपत्थरनिवाय ' पादपाणिजानुमस्तरनिपात' पादयोःचरणयोः, पायो :पादपश्चाद्भागयो , जानुनोः= घुटना ' इतिभापा प्रसिद्ध योश्च प्रस्तरनिपातः= पापाणपात', 'पीलण 'पीडन-पन्ने पीडनम् , 'कपिक ' कपिकन्छुः तीवकप्रतिकारकवनस्पतिविशेषः, 'अगणि' अग्नि., 'रियडक' वृश्चिकदश 'वायातवदसमसगनिवाए' वातातपदगमशानिपात घातस्य आतपस्य दशाना मशकाना च निपतेनम् , एतेपा द्वन्द्व , तॉस्तथोक्तान स्पृष्ट्वा, तथा-'दुगिसिज दुनिसीहिया' दुष्टनिपद्यादुनै पेधिक्या-दुष्टनिपया क्षुद्रामनानि, दुनै पेधिकस्य कष्टकर स्वाध्यायभूमयस्ताचस्पृष्ट्वा, 'तेमु तेपु-उक्तेपु 'अमणुन्नपावगेसु' अमनोज्ञपापकेषु नासिका, होठ ओर मस्तक का छेदन करना, 'जिन्भच्छेयण ' जीभ का छेदन करना' वमण-नयग-हियय-दत-भजण' अण्डकोप, नेत्र, हृदय और दातोंका भागना, 'जोत्त लय कस प्पहार' चमडे की रस्सी से, वेत्रादिलता से, तथा चातुक से प्रहार करना, 'पादपण्हिजाणुपत्थर निवोय' पाच, एडी, घुटना,इन पर पत्थर का गिरना, 'पील ग' यत्र में पीलना, 'कवि कच्छु-अगणि-विच्छुय-डक' करेंच की फली,अग्नि और बिच्छू का डक -स्पर्श, 'वायायवदसमसगनिवाए 'शीतकाल में ठडे पवन का लगाना उप्णकाल में धूप का लगना, तथा डांस और मच्छरों का शरीर पर गिरना इन सबके स्पर्श का अनुभव करके(दुणिसिज्जदुनिसीहिया)कष्ट कारकआसन और स्वाध्याय की भूमि के स्पर्श को अनुभव करके (तेस्तु वयु, “जिभच्छेयण " Cसनुन ४२७, “वसण-जयण-हियय-दत-भजण" म आप, नेत्र, ६५ मने हात त31, "जोत्त-लय-क्स प्पहार " याभानी हाथी नेत२-माहि दाताथी तथा यामुउथी २८४२९, " पादपण्हिजाणुपत्थरनिवाय" ५१, मेडी मने यूटए ५२ ५.५२४ ५३षु, "पीलण "-यमा पासपु, "कविकच्छु-अगणि-विच्छय हक "-उरे यानी जी, AG मन विछीन। ७५, “वायायवदसमसगनिवाए " शियामा 83 पवन दावो, जनजामा તડકે લાગવો, તથા ડાસ અને મચ્છરનુ શરીર પર પડતુ, એ બધા સ્પર્શને सरी२ ५२ अनुभव शन " दुणिसिज्जदुनिसीहिया " ८१२४ मासन भने स्वाध्यायनी मिना पशने मनुलपाने " तेसु अमणुन्नपावगेसु" ते Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३८ प्रमायाकरणसूरे 'गायपण' गानमतक्षण यास्यादिना गरीरन्छोलनम् , 'लपारसमारतेल्ल फलरलततउभ-सीसमकाललोहसिंचण' लाक्षारसक्षारतलारकायमानत्रपुक्सी समकाललोहसेचनम् , लाक्षारसेन लाक्षा-जतु तस्या रसेन-तप्तेन द्रवेण क्षार तैलेन-क्षारपदार्थमिश्रिततेलेन, कलकलायमानेन अतितप्ततया शब्दायमानेन अपु फेणरङ्गेण सीसकेन'सीसा' इतिमसिद्धद्रव्येण, कारलोहेन-कृष्णलोहेन च यत्सेचनम् 'डिनधण' हडिबन्धनम्म्म्योडरक्षेप', 'रज्जुनिगलमकलन रज्जु निगडसङ्कलनम्-रज्जवा निगडेन च सफरन-धन्धनम् ' हत्यय ' हस्तान्दुरम्काप्ठादिनिर्मितहस्तपन्धनसाधनेन यदुरन्धन तद्धस्तान्दुकमुच्यते, 'कुभिषाक' कुम्भीपाका-कुभ्या-पातपिशेपे पासा पचनम् ' दहण ' दहनम् अग्निना दाहकरणम् , ' मीहपुच्छण ' सिंहपुन्उन-लिङ्गनोटनम् , ' उत्पघण' उदयन-पाशोल्लम्बनम् , ' मुलभेय' मूलभेदः, ग्लेनभेदाभेदनम् , 'गयचरणमलण' गज चरणमर्दकम् गजचरणैमईनम् , 'करचणाननासोहसीसडेयण' चरणवर्णनासो खप्पवेस ) सईयों को नखो मे भोकना, (गायपाउण) वसलो आदि से शरीर के अवयवो को छोलना, 'लक्सारस' तपे हुए लाग्वके रससे, (खारतेल्ल) क्षारपदार्थ मिश्रित तपे हातैल से तथा (कलकलन) अत्यत उकलने से पिघले हुए (तउ) नपु-कथीर से, (सीसक) सीसे से (काललोह ) काले लोहे से, (सिंचण) शरीर को सींचना-शरीर पर छिडकना (हडियधण) खोडे मे डालना, ' रज्जुनिगलसकलन ' रस्सी और बेडी घाधना, 'हत्थडय' हथकडी में चाधना 'कुभीपाग' कुभी में पकाना, 'दहण ' अग्नि मे जलाना, 'सीहपुच्छण' लिङ्ग को तोडना, 'उब्बवण' फासी में लटकाना, 'सलभेय' स्लीपर चढ़ाना, 'गयचलण'-हाथी के पैरो से कुचलना, 'करचरणकन्ननासोहसीसछेयण' हाथ-पैर, कान, पाससा आहिथी राशनअवयवान छसिवाना लिया, लक्सारस-१२म सामना २सथी सारतेल्ल-क्षारयुक्त हाथी तपासा तसथी, तथा कलकल त-सत्यत गरम ४२वाथी मागणेता "त" थारथी, "सीसक"-सीसाथी "काललोह" सोढाथी, “ सिंघण "-AN२ ५२ २७वानी या, "हडिवण"-3भा पूर, “ रज्जुनिगलसकलन"-ह!२! मने मेडी 43 माध, “हत्थडुय"-- डायरीमा माघ, “ कुमीपाग" सीमा पाच, "दहण'-मनमा भाग " सीहपुच्छण"-तिगत तावु, “घधन' शमीय सजावु, "मूलभेय"सूजी ५२ २१, “गयचलण "-साथीना ५॥ तणे यहा " करचरणकनकासोटुसोसछेयण " डाथ, ५, ४ान, ना5, 813 मने मरतनु छैन ४२१ Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशिनो टोका अ०५ सू.११ स्पोन्द्रियसवर नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९३९ प्ठशीपच्छेदनम् 'जिम्भयण' जिदान्दनम् , 'सणनयणहिययदतमजण' सृपणनयनहदयदन्तमञ्जनम्वृपणम्य-अण्डकोशस्य, नयनयोः, हदयस्य दन्ताना च भञ्जनम्-निनाशनम् , ' जोत्तलयकसम्पहार' योक्नलताकशाप्रहार:-योक्त्रण रजुविशेपेण, लतया वेगादिलतया, कशया च यः प्रहार , महारः, 'पारपण्डिजाणुपत्थरनिकाय ' पादपाणिजानुपस्तरनिपात' पादयोःचरणयोः, पाण्यों : पादपश्चाभागयो , जानुनो. ' घुटना ' इतिभापा प्रसिद्ध योश्च प्रस्तरनिपात:= पापाणपात', 'पीपण ' पीडन-पनो पीडनम् , 'करिक हु' कपिकन्छ.-तीनकप्रतिकारकवनस्पतिविशेषः, 'अगणि' अग्नि., 'विच्छुयडक' वृश्चिकटश 'वायातवदसमसगनिनाए' वातातपदगमशकरिपातः वातस्य आतरस्य दशाना मशकाना च निपतेनम् , एतेपा द्वन्द , तॉस्तथोक्तान स्पृष्ट्वा, तथा-'दुद्रुणिसिन्न दुनिसीहिया' दुष्टनिपद्यादुनै पेधिक्या दुष्टनिपद्या. क्षुद्रामनानि, दुनैपेधिकस्य-कष्टकर स्वाध्यायभूमयस्ताचस्पृष्ट्वा, 'तेमु तेपु-उक्तेषु 'अमणुन्नपावगेस' अमनोज्ञपापकेषु नासिका, शेठ ओर मस्तक का छेदन करना, 'जिन्भच्छेयण ' जीभ का छेदन करना 'वसण-नय ग-दियय-दत-भजण' अण्डकोप, नेत्र, हृदय और दातोंका भागना, 'जोत्त लय इस पहार' चमडे की रस्सी से, वेत्रा दिलता से, तथा चाक से प्रहार करना, 'पादपण्डिजाणुपत्यरनिवाय' पाव, एडी, घुटना,इन पर पत्थर का गिरना, 'पील ग' यत्र में पीलना, 'कवि कच्छु-अगणि-विच्छुय-डक' करेंच की फली,अग्निऔर बिच्छू का डक -स्पर्श, 'वायायवदसमसगनिवाए' गीतकाल में ठडे पवन का लगाना उप्णकाल में धूप का लगना, तथा डांस और मच्छरों का शरीर पर गिरना इन सबके स्पर्श का अनुभव करके(दुणिसिज्जदुनिसीरिया)कष्ट फारकआसन और स्वाध्याय की भूमि के स्पर्श को अनुभव करके (तेस्तु व, “जिब्भच्छेयण " खलनु न ४२७, “यसण-नयण-हियय-दत-भजण" सअप, नेत्र, ६५ अने हात 31, "जोत्त-लय-क्स पहार" याभानी होरीथी नेत२-मा सताथा तथा व्या ४थी ३८४२७, " पादपण्हिजाणुपत्थरनिवाय " 1, मेडी भने धूट ५२ पत्थरनु ५७७, " पोलण"-यत्रमा पास, "कविकच्छु-अगणि-विच्छय डक "-3रे यानी जी, AG मन विछीन! 34, “वायायवदसमसगनिवाए " शियाणामा 83 पवन साnal, Gनामा તડકો લાગવે, તથા ડાસ અને મચ્છરેનુ શરીર પર પડતુ, એ બધા સ્પર્શને शरी२ ५२ अनुभव उरीने " दुदृणिसिजदुन्निसीहिया" 3231२४ मासन भने २१क्ष्यायनी सूभिना १५०ने मनुमपान “ तेसु अमणुन्नपावगेसु" ते Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रभम्याकरण अरुचिकरेपित्यर्थः, ' फामेनु' । पपु भ्यः, 'अन्ने' भन्येषु च बहुरि हेम' बहुविधेषु 'एवमाइएसु' एमादि के पु-पर प्रकारेषु वडगुरुसीय उसिणलक्खेम' कर्फशगुरुगीतोष्णरक्षेपु कगाः कठिना, गुस्ता माराः, भीताः शीतलाः, उष्णाम् तापनाः, लक्षा=परमाः एषा इन्दस्तेषु क्योक्तेयु स्पर्भेषु च 'समण' श्रमणेन-साधुना 'न मसियण' न रोष्टव्यम्पो न कर्तव्य इत्यर्थ, न हीलियन ' न हीलितव्यम् अपना नव्या , न निदियचन निन्दि तव्यम् , स्त्रमनसि निन्दा न कर्त्तव्या, 'नबिसियन ' न ग्विसितव्यम् परममक्षे च निन्दा न कर्तव्या, 'न छिदिया 'न उत्तव्यम् छेदन न कर्त्तव्यम् । 'न मिदियर' न भेत्तव्यम्-भेदन न कर्तव्यम् , 'न बहेका' न हन्तव्यम्-विनाशो न कर्तव्यः, तथा-वद्विपये जुगुवतियापि' जुगुप्मात्तिकाऽपि स्वस्य परस्प चा हृदि 'उप्पाएउ' उत्पादयि तु 'नलमा' न लभ्या-नोचिता यया पूर्वोक्तस्पी अयविषये स्वस्य पाम्य वा हदि जुगुप्मा प्रादुर्भवेन तथा कर्तव्यमिति भावः । अमणुन्नपावगेसु ) उन अमनोजपापक-अचिकारक-स्पर्शो में, तथा (एवमाइएसु यहुविहेसु कम्पगुम्सीय उसिणलुखेसु) इन से भिन्न और जो कर्कश, गुरु, शीत, उष्ण, रुक्ष स्पर्श है उनमें (समणेण न रुसियन्व, न हीलियन्च, न निंदियन्च, न गरहियन्य, न खिप्तियध, न छिदियच, न भिदियञ्च, न वहेयव्य, न दुगुगवत्तियाविलभाउप्पाएउ साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिये, उनकी अवहेलना नही करनी चाहिये। निंदा नहीं करनी चाहिये । गर्दी नहीं करनी चाहिये। उन पर खिसयाना नहीं चाहिये। उस अमनोज स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य का छेदन नहीं करना चाहिये । भेदन नहीं करना चाहिये। नाश नहीं करना चाहिये । और न अपने तथा परके मन मे उनपर ग्लानि उत्पन करने मभनाइ ५४-मयि२४ -पभा, तथा ' एमाइएसु बहुविहेसु कक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु" ते गत भी ५ र ६श, गुरु, शीत, Gasy, स्पश छ भनी प्रत्ये “समणेण न रुसियन, न हीलियव्व न निदियव्य , न गरहियब, न खिसियव्य, न किंदियब, न मिदियब्ध, न, वहेयन, न दुगुहायत्तिया वि लभा उम्पाएउ " साधुसे र य -नये नही, तमन्ना એવહેલના ન કરવી જોઈએ નિદા ન કરવી જોઈએ ગહ ન કરવી જોઈએ તેમના પર ખિસિયાવું જોઈએ નહી તે અમનેz cપર્શવાળા દ્રવનુ છેઠન કરવું જોઈએ નહી, ભેદન કરવું જોઈએ નહી નાશ કરવો જોઈએ નહી અને પિતાના કે અન્યના મનમાં તેમના પ્રત્યે કલાનિ ઉત્પન્ન કરવાની પ્રવૃત્તિ ન Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा २०५सू०११ स्पोन्द्रियमवर'नामफपञ्चमभावनानिरूपणम् ९४१ सम्प्रति पञ्चमी भावनामुपसहरन्नाह-एवम् अनेन प्रकारेण ' फासिदियभावणाभारिओ' म्पन्दिरभावनामाचित . 'अतरप्पा' अन्तरात्मा-जीवो जीवः 'भव' मरति । ततश्च 'मणुनामणुनमुभिदुन्भिरागद्वेपपणिहितात्मा मनोनाऽमनोज्ञा ये सुरभिदुरभय. शुभाशुभम्पर्गास्तेपु यद्रागद्वेप तत्र प्रणिहितात्मा सतात्मा, 'साह' मापु. ' मणमयणरायगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः 'साडे' सहत. सवरवान् 'पणि हिडदिए' प्रणिहितेन्द्रियः, प्रणिहित अगीकृत इन्द्रियो येन तथाभूतः सन् ‘धम्म' धर्मश्रुतवारिवलक्षण धर्म ' चरेज ' चरेत् अनुतिप्ठेन् । मृ० ११ ॥ की चेष्टा ही करना चाहिये । अब सरकार इस पांचवीं भावना का उपसहार करते हुए कहते है ( एव फासिदियभावणाभारिओ अतरप्पाभ वह मणुनसुन्भिनुभिरागोदोसे पणिहियप्पा साह मणवयणकायगुत्ते सबुडे पणिहिदिए चम्म चरेज्ज ) इस प्रकार से स्पर्श इन्द्रिय की भावना से भावित जन मुनि हो जाता है तर वह मनोज रूप शुभ स्पर्श में और अमनोजरूप अशुभ स्पर्श मे रागढेप करने से रहित बन जाता है । इस तरह उनमें रागद्वेप करने से मवृतात्मा बना हुआ सायु अपने मन, वचन और कायरूप नियोंगों को स्पर्श सयपी शुभ अशुभ के व्यापार से रहित कर लेता है तथा इस स्पऊन इन्द्रिय के सवरण से युक्त यन जाता है। इस प्रकार इस इन्द्रिय के सवरण से युक्त बना हुआ वह साधु चारितम्य धर्म की आराधना अच्छी तरह से करने लगता है। भावार्थ-सत्रकार ने इस सूत्र द्वारा इस परिग्रह विरमणव्रत की पाचवीं भावना का स्वरूप प्रगट किया है। इस पाचवीं भावना का કરવી જોઈએ હવે સૂત્રધાર આ પાચમી ભાવનાને ઉપસાર કરતા કહે છે " एव फासिदियभावणाभाविओ अतरप्पा भवइ मणुन्नामनुन्नसुभिदुभि रागदोसे पणिहियप्पा साहू मणरयणेकायगुत्ते सवुडे पणिहिइदिए धम्म चरेज " या રીતે જ્યારે મુનિ સ્પર્શેન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થઈ જાય છે ત્યારે તે મને ક્ષરૂપ શુભ પ પ્રત્યે તથા અમને જ્ઞરૂપ અશુભ મ્પ પ્રત્યે રાગદ્વેષથી રહિત બની જાય છેઆ રીતે તેમના પ્રત્યે રાગદ્વેષ કરવાથી નિવૃત્ત થયેલ સાધ પિતાના મન, વચન અને કાયરૂપ ત્રણે યોગને સ્પર્શ સ બ ધી શુભ અશુભ વ્યાપારથી રહિત કરી લે છે, અને આ સ્પર્શેન્દ્રિય સવરથી યુક્ત થઈ જાય છે આ રીતે આ ઈન્દ્રિયના સાવરથી યુક્ત બનેલ તે સાધુ ચારિત્રરૂપ ધર્મની સારી રીતે આરાધના ડવા લાગી જાય છે ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આ પરિગ્રડ વિરમણ વ્રતની પાંચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તે પાચમી ભાવનાનું નામ પશેન્દ્રિય સવરણ Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसव्याकरणसूत्र 1 1 , " अरुचिकरेनित्यर्थः, 'फामेसु ' ' स्पर्शपु एभ्यः, 'अन्नेसु' अन्येषु च ' बहुवि हेस' हुविधेषु 'एवमाइएस' एवमादिकेषु प्रकारेषु वरुसीय उसिणलु+खे' कर्कशगुरुशीतोष्णरक्षेषु कर्कणाः = कठिनाः, गुरवः = माराः, शीताः = शीतलाः, उष्णाः = तापनाः, रुक्षाः =पना एया उन्हस्तेषु वयोक्तेषु स्पर्गेषु च 'समणेण श्रमणेन - साधुना 'न रूसियन्त्र' न रोष्टमम् =रोपो न कर्तव्य इत्यर्थ, 'न हीलियन ' न हीलितव्यम् = भज्ञा न कर्तव्या न निंदियत्र न निन्दि तव्यम्, स्यमनसि निन्दा न कर्त्तव्या, 'न खिसियव्य' न विसितव्यम् = परसमक्षे च निन्दा न कर्तव्या, 'न छिंदिया 'न छेतव्यम्-प्रेशन न कर्त्तव्यम् । 'न मिंदियां ' न भेतव्यम् - भेदन न कर्तव्यम्, 'नया' न हन्तव्यम् - विनाशो न कर्तव्यः, तथा तद्विपये ' जुगु अवचियानि ' जुगुप्यत्तिकाऽपि स्वस्य परस्य वाहृदि 'उप्पा एउ' उत्पादयि तु 'न लभा' न लभ्या-नोचिता यथा पूर्वोक्तस्पर्शा - वयविपये स्वस्य परस्य वा हदि जुगुप्मा प्रादुर्भवेन्न तथा कर्तव्यमिति भावः । अमणुन्न पावगेसु ) उन अमनोज्ञपापक- अरुचिकारक स्पर्शो में, तथा ( एवमाइए बहुविसु कम्यगुरुसी उसिक्खे ) इन से भिन्न और जो कर्कश, गुरु, शीत, उष्ण, रूक्ष स्पर्श है उनमें ( समणेण न रुसियन्य, न हीलियन्य, न निंदियन्च, न गरहियव्य, न खितियच्व, न छिंदियम्, न भिदियन्य, न वहेयव्व, न दुगुडाबत्तियावि लम्भाउ पाएउ साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिये, उनकी अवहेलना नही करनी चाहिये । निंदा नही करनी चाहिये । गर्दा नहीं करनी चाहिये। उन पर खिस याना नहीं चाहिये | उस अमनोज्ञ स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य का छेदन नहीं करना चाहिये । भेदन नही करना चाहिये । नाश नही करना चाहिये । और न अपने तथा परके मन मे उनपर ग्लानि उत्पन्न करने १४० - " અમનેાજ્ઞ પાપડ-અરુચિકારક સ્પર્ધામા, તથા मासु बहुविसु कक्सडगुरुसी उसिणलुक्खेसु " ते उपरांत जीन्न पशु ने रा, गुरु, शीत, यु, स्पर्श' छे तेमना प्रत्ये “ समणेण न रुसियन, न हीलियन न निंदियव्व, न गरहियन न खिसियव्य न जिंदियन न मिंडियन, न, वद्देयन्त्र, न हुगु छावत्तिया वि लब्भा उप्पाएउ " साधुये रुष्ट थषु लेखेनही, तेमनी એવહેલના ન કરવી જોઇએ. નિંદા ન કરવી જોઈએ ગહોં ન કરવી જોઈ એ તેમના પર ખિસિયાવુ જોઇએ નહી તે અમનાર પવાળા દ્રબનુ છેદન કરવુ જોઈએ નહી, ભેદન કરવુ જોઇએ નહી નાશ કરવા જોઇએ નહી અને પાતાના કે અન્યના મનમા તેમના પ્રત્યે પ્લાનિ ઉત્પન્ન કરવાની પ્રવૃત્તિ ન T Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीफा अ०५सू०११ स्पोन्द्रियमवर'नामकपञ्चमभावनानिरूपणम् ९४१ सम्प्रति पञ्चमी भाग्नामुपसहरन्नाह-एवम् अनेन प्रकारेण ' फासिदियभावणाभाविनो' स्पर्गन्द्रियभावनाभारित . 'अतरप्पा' अन्तरात्मा-जीवो जीसः 'भवई' भाति । ततश्च 'मणुनामणुनमुभिदुभिरागद्वेपाणिहितात्मा-मनोनाऽमनोज्ञा ये सुरभिदुरभया शुभाशुभम्पर्गास्तेपु यद्रागद्वेप तत्र प्रणिहितात्मा सस्तात्मा, 'साहू' साधु. ' मणरयणायगुत्ते' मनोवचनकायगुप्तः ' सडे' सरत. सवसान ' पणि हिइदिए' प्रणिहितेन्द्रियः, प्रणिहिता-वशीकृत इन्द्रियो येन तथाभूत. सन् 'धम्म' धर्म श्रुतचारिवलक्षण धर्म ‘चरेज्ज ' चरेत् अनुतिष्ठेन् ॥ मृ० ११ ॥ की चेष्टा ही करना चाहिये । अब सत्रकार इस पाचवीं भावना का उपसहार करते हुए कहते है ( फामिदियभावणाभानिओ अतरप्पाभ वह मणुन्नमुभिदुन्भिरागोदोसे पणिहियप्पा साह मणवयणकायगुत्ते सवुडे पणिहिटदिए चम्म चरेज्ज ) इस प्रकार से स्पर्श इन्द्रिय की भावना से भावित जन मुनि हो जाता है तब वह मनोज रूप शुभ स्पर्श में और अमनोजरूप अशुभ स्पर्श मे रागद्वेप करने से रहित बन जाता है । इस तरह उनमें रागद्वेप करने से सवृतात्मा बना हुआ साधु अपने मन, वचन और कायरूप नियोंगों को स्पर्श सबबी शुभ अशुभ के व्यापार से रहित कर लेता है तथा इस स्पर्शन इन्द्रिय के सवरण से युक्त यन जाता है । इस प्रकार इस इन्द्रिय के सवरण से युक्त बना हुआ वह साधु चारित्रम्प धर्म की आराधना अच्छी तरह से करने लगता है। भावार्थ-सत्रकार ने इस सून द्वारा इस परिग्रह विरमणव्रत की पाची भावना का स्वरूप प्रगट किया है। इस पाचवी भावना का કરવી જોઈએ હવે સૂત્રમાર આ પાચમી ભાવનાને ઉપસાર કરતા કહે છે " एव फासिंदियभावणाभाविओ अतरप्पा भवइ मणुन्नामनुन्नसुन्भिदुभि रागदोसे पणियिप्पा साहू मणययणकायगुत्ते सवुडे पणिहिड दिए धम्म चरेज्ज " मा રીતે જ્યારે મુનિ સ્પર્શેન્દ્રિયની ભાવનાથી ભાવિત થઈ જાય છે ત્યારે તે મનોશરૂપ શુભ ૫ પ્રત્યે તથા અમનેશરૂપ અશુભ સ્પર્શ પ્રત્યે રાગદ્વેષથી રહિત બની જાય છેઆ રીતે તેમના પ્રત્યે રાગદ્વેષ કરવાથી નિવૃત્ત થયેલ સાધુ પિતાના મન, વચન અને કાયરૂપ ત્રણે યોગને સ્પર સ બ ધી શુભ અશુભ વ્યાપારથી રહિત કરી લે છે, અને આ સ્પર્શેન્દ્રિય સ વરથી યુક્ત થઈ જાય છે આ રીતે આ ઇન્દ્રિયના સાવરથી યુક્ત બનેલ તે સાધુ ચારિત્રરૂપ ધર્મની સારી રીત આગધના કરવા લાગી જાય છે - ભાવાર્થ-સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આ પરિગ્રહ વિરમણ વ્રતની પાંચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તે પાચમી ભાવનાનુ નામ સ્પશેન્દ્રિય સવરણું Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ঘক্ষণে अरुचिकरेपित्यर्थः, 'फामेनु स्पर्शपु सभ्य', 'मन्नेमु अन्येषु च बहुवि हेसु' बहुविधेपु ' एवमाइएसु' एपमादि के पु-~-पर प्रकारेषु ' कावडगुममीय उसिणलरखेनु' कर्कशगुमशीतोष्णरक्षेपु कगा: कठिनागुरवः-माराः, शीताः शीतला, उप्णाम् तापनाः, रूक्षा परुगा, पपा बन्नस्तेयु वयोक्तेषु पत्रेषु च 'समणेण ' श्रमणेन-साधुना 'न रसियन' न रोष्टन्यम्-रोपो न कर्तव्य इत्यर्थ , न हीलिया' न हीलितव्यम् अमना न कर्तव्या, 'न निंदियन 'न निन्दि तव्यम् , समनसि निन्दा न कर्तव्या, 'न घिसियन्त्र' न खिसितव्यम् परसमक्षे च निन्दा न कर्तव्या, 'नछिदियान छत्तव्यम् हेदन न कर्तव्यम् । 'न मिदियनं ' न भेत्तव्यम्-भेदन न कर्तव्यम् , 'न वहेया' न हन्तव्यम्-विनाशो न कर्तव्यः, तथा-वद्विपये ' जुगुलावत्तियागि' जुगुप्साटतिकाऽपि स्वस्य परस्य वा हदि 'उप्पाएउ' उत्पादयि तु 'न लभा' नलभ्या-नोचिता यया पूर्वोक्तस्पनों -अयरिपये स्वस्य परस्य वा हदि जुगुणा मादर्भचेन तथा कर्तव्यमिति भावः। अमणुन्नपावगेस्लु ) उन अमनोजपापक-अचिकारक-स्पर्शो में, तथा (एवमाइएस्सु पहुविहेसु कम्पगुम्सीय उसिणलाखेसु)दन से भिन्न और जो कर्कश, गुरु, शीत, उण, रूक्ष स्पर्श है उनमें (समणेण न रुसियव्य, न हीलियन्च, न निंदियन्ध, न गरहियव्य, न खिप्तियब, न छिंदियन्व, न भिदियन्च, न वहेयन्व, न दुगुवत्तियावि लभाउप्पाएउ साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिये, उनकी अवहेलना नहीं करनी चाहिये। निंदा नहीं करनी चाहिये । गर्दा नहीं करनी चाहिये। उन पर खिस याना नहीं चाहिये । उस अमनोज स्पर्श के आश्रयभूत द्रव्य का छेदन नहीं करना चाहिये । भेदन नहीं करना चाहिये । नाश नहीं करना चाहिये । और न अपने तथा परके मन में उनपर ग्लानि उत्पन्न करने समनोज्ञ ५.५४-२२थि।२४ २५ मा, तथा ' एमाइएसु बहुविहेसु कक्खडगुरुसीयउसिणलुक्खेसु" ते रात भीत ५२ , शुरु, शात, Ge, २५श छे तभना प्रत्ये “समणेण न रुसियन्त्र, न हीलियव्व न निदियव्य, न गरहियव्य , न सिसियव्य, न किंदियध, न मिंदियव्य, न, वहेयन्त्र दुगु छापत्तिया वि लम्मा उप्पाएउ" साधुरी २८ यधु-नये नही, तमना એવહેલને ન કરવી જોઈએ નિ દા ન કરવી જોઈએ ગોં ન કરવી જઈ આ તેમના પર ખિસિયાવું જોઈએ નહી તે અમને સ્પર્શવાળા દ્રવ્યનું છે કરવું જોઈએ નહી, ભેદન કરવું જોઈએ નહી નાશ કરે જોઈએ નહી અને પિતાના કે અન્યના મનમાં તેમના પ્રત્યે તાનિ ઉત્પન્ન કરવાની પ્રવત્તિ ને Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुदर्शिनी टीका म०५सू०११ स्पोन्द्रियमवर'नामफपञ्चममायनानिरूपणम् २४१ सम्पति पञ्चमी भानामुपसहरन्नाह एवम् अनेन प्रकारेण ' फासिदिनभावणामावियो' म्पन्द्रियभावनामानित , 'अतरप्पा' अन्तरात्मा-जीवो जीन'भव' भाति । ततश्र 'मणुनामणुन मुभिदुन्भिरागद्वेपप्रणिहितात्मा-मनोनाऽमनोज्ञा ये मुरमिदुरभय =शुभाशुभस्पर्गास्तेषु यद्रागद्वेष तत्र प्रणिहितात्मा सस्तात्मा, 'साहू' सा. 'मणायणकायगुत्ते' मनोवचनकायगतः 'सरडे' सत्ता-सपरवान् 'पणि हिडदिए ' प्रणिहितेन्द्रियः, पणिहिता-वगीकृत इन्द्रियो येन तयाभूत. सन 'धम्म' वमन्त चारित्रललण धर्म ‘चरेज ' चरेत् अनुनिष्ठेन् । मू० ११ ॥ की चेष्टा ही करना चाहिये । अब सरकार इस पाचवीं भावना का उपमहार करते हुए कहते है ( एव फामिदियभावणाभाविओ अतरप्पाभ वह मणुनसुम्मिनुम्भिरागोटोसे पणिहियप्पा साह मणवयणकायगुत्ते सघुडे पणिहिदिए धम्म चरेज्ज ) इस प्रकार से स्पर्श इन्द्रिय की भावना से भावित जर मुनि हो जाता है तर वह मनोज्ञ रूप शुभ स्पर्श में और अमनोजरूप अशुमस्पर्श मे रागद्वेप करने से रहित बन जाता है। इस तरह उनमें रागद्वेप करने से सवृतात्मा बना हुआ साधु अपने मन, वचन और कायस्प नियोंगों को स्पर्श सवधी शुभ अशुभ के व्यापार से रहित कर लेता है तथा इस स्पर्शन इन्द्रिय के सवरण से युक्त धन जाता है । इस प्रकार इस टन्द्रिय के सवरण से युक्त बना हुआ वर सायु चारित्रम्प धर्म की आराधना अच्छी तरह से करने लगता है। भावार्थ-सत्रकार ने इस सन द्वारा इस परिग्रह विरमणव्रत की पाचवी भावना का स्वरूप प्रगट किया है। इस पाचवी भावना का કરવી જોઈએ હવે સૂત્રધાર આ પાચમી ભાવનાને ઉપસ હાર કરતા કહે છે " एवं फासिंदियभावणाभाविओ अतरप्पा भवइ मणुनामनुन्नसुठिभदुन्भि राग दोसे पणिहियप्पा साहू मणयणकायगत्ते सखुडे पणिहिइदिए धम्म चरेज्ज " मा રીતે જ્યારે મુનિ પશેજિયની ભાવનાથી ભાવિત થઈ જાય છે ત્યારે તે મને રૂપ શુભ ૫ પ્રત્યે તથા અમને જ્ઞરૂપ અશુભ સ્પર્મ પ્રત્યે રાગદ્વેષથી રહિત બની જાય છે. આ રીતે તેમના પ્રત્યે રાગદ્વેષ કરવાથી નિવૃત્ત થયેલ સાધુ પોતાના મન, વચન અને કાયરૂપ ત્રણે ગાને સ્પર્શ સ બ ધી શુભ અશુભ વ્યાપારથી રહિત કરી લે છે, અને આ સ્પર્શેન્દ્રિય સવરથી યુક્ત થઇ જાય છે આ રીતે આ ઈન્દ્રિયના વિરથી યુક્ત બનેલ તે સાધુ ચાગ્નિરૂપ ધર્મની સારી રીતે આગધના કરવા લાગી જાય છે ભાવાર્ધ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા આ પરિગ્રહ વિરમણ વતની પાંચમી ભાવનાનું સ્પષ્ટીકરણ કર્યું છે તે પાચમી ભાવનાનું નામ પશેન્દ્રિય સવરણું Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ प्रभाकरणसूत्रे , } " " , अपरिस्रावी = कर्मजलम पेशरहितत्यात्, 'असकिलिट्ठी ' अलि असमाधिमा ववर्जितत्वात् 'सुद्धो 'शुद्धः कर्ममलनर्जितत्वात् 'मव्यजिणमणुण्णाओ ' सर्व जिनानुज्ञातः - सकमाणि हितकारकत्वात्सर्वे रईद्भिरङ्गीकृतास्ति । एवम् उक्तमकारेण ' पचमं सरदार ' पचमं सवरद्वार ' फासिय ' स्पृष्ट कायेन, 'पालिय' पालित - सततमुपयोगेन सेविनम्' सोडिय' शोधितम् - प्रतीचा रवर्जनेन 'तीरिय' दीर्ण- तीर प्रापित सम्यपालनात् किट्टिय कीर्तितम् स्तुनम् = कल्याणका रक्त्वात् ' आराहिय' आराधितम् - निकरण नियोगे सम्यगाचरितत्वात्, 'आणाए आनया-सर्वज्ञवचनेन 'अणुवालिय' अनुपालित = दृढमनस्कताच्च है, (अपरिस्साई ) विन्दुमात्र भी कर्मजल इसमें प्रविष्ट नहीं हो पाता है इसलिये यह अपरिस्रावी है । (असकिलिहो ) असमाधि भाव से रहित होने के कारण यह असक्लिष्ट है, और (सुद्रो) कर्ममल से वर्जित होने के कारण यह शुद्ध है । ( सव्यजिण मणुण्णाओ ) इससे समस्त प्राणियों का हित हुआ है और आगे भी हिन होगा ऐसा जानकर ही समस्त अरिहतभगवतों ने इसे अगीकृत किया है । ( पचम सवरदार) इस उक्त प्रकार से जो इस सवरद्वार को ( फासिय) अपने शरीर से आचरित करते है ( पालिय ) निरन्तर उपयोगपूर्वक इसका सेवन करते है, ( सोहिय ) अतिचारों से इसे रहित करते है, (तरिय ) पूर्णरूप से इसका सेवन करने है, (फिटिय) दूसरो को' इसके पालन करने का उपदेश देते हैं ( आराहिय ) तीनकरण तीन योग से इसकी भली प्रकार से अनुपालना करते है, (अणाए अणुपालिय भवइ) उनके द्वारा यह योग तीर्थंकर प्रभु की आज्ञा अनुसार ही पालित तेनाथी पायनो स्रोत छिन्न थर्ध लय छे तेथी ते सच्छिद्र छे, "अपरिस्साई " બિન્દુ જેટલુ પણ કરેંજળ તેમા પ્રવેશ પામી શકતુ નથી, તે અપચ્ચિાવી छे, " असकिलिठ्ठो " समाधिलावधी रहित होवाने असो ते अस डिसष्ट छे भने ' सुद्धो " भज विन्ननु होवाथी ते शुद्ध छे " सव्वजिणमणुण्णाओ” તેનાથી સમસ્ત પ્રાણીઓનુ હિત થયુ છે અને ભવિષ્યમા પશુ હિત થશે એવુ જાણીને જ સમસ્ત અરિહંત ભગવાનેાએ તેને માન્ય કરેલ છે एब पचम सवरदार આ સૂત્રમા કહ્યા પ્રમાણે જે આ પાચમા સવરદ્વારનુ “ા सिय' पोताना शरीरथी आयर अरे छे, 'पालिय" निरन्तर उपयोग व तेनु सेवन रे छे, 'सोहिय " अतियारोथी तेने रहित उरे छे, 'तीरिय पू रीते तेनु सेवन उरे छे "किहिय" मन्यने तेना पासननो उपदेश आये छे " आराहिय "" ત્રણ કરણ અને ત્રણ ચેાગથી સારી રીતે તેની આરાધના કરે छे, आणाए अनुपालिय भवइ ” તેમના દ્વારા તે ચાગનુ તીર્થંકર પ્રભુની " "" "" ८८ Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनीटीका अ० ५ सू० १२ अध्ययनोपसंहर भवति । एवम् उक्तरूप पचम सवरद्वार, ' णायमुणिणा' ज्ञातमुनिना-प्रसिद्धक्षत्रियवंशोद्भवेन मुनिना भगरता महारीरेण 'पण्णविय' प्रज्ञापितम्-शिष्येभ्य सामान्यतया कथितम् ' परूविय' प्ररूपितम्-भेदानुभेदप्रदर्शनपूर्वक कथितम् , 'पसिद्ध ' प्रसिद्धम्मग्यातम् , प्रमाणप्रतिष्ठितत्वात् 'सिद्धवरसासण' सिद्धवरशासनम् सिद्धाना-निष्ठिताना कृतकृत्यानामितियारत् वरशासन-प्रधानाज्ञारूपम् , ' इण' इदम् ' आपरिय' आल्यात-समतोमावेन कथितम् , ' मुदेसिय' सदेशितम् सदेवमनुजामुराया सभाया सुष्टुपदिष्ट 'पसत्य' प्रशस्त 'पचम सबरदार' पचम सरकार 'समत्त ' समाप्तम् ' तिमि ' इति ब्रवीमि, अस्या र्यः पूर्वमुक्तः ॥ सू-१२॥ हुआ माना जाता है । (एव) इस प्रकार से ( नायमुणिणा भगवया) जात नामक क्षत्रियवश में उत्पन्न हुए मुनिराज भगवान् महावीर ने (पण्णविय ) शिष्यों के लिये इस पचम सवर द्वार को सामान्यरूप से समझाया, (परुविय) भेद प्रभेदपूर्वक उसका कथन किया है । (पसिद्ध) प्रमाणप्रतिष्ठित होने से जिन वचन में यह प्रख्यात हुआ है, अर्थात् जिनवचन के अनुसार ही आचार्यपरपरा से इसका पालन करना इसी रूप से चला आ रहा है । तथा (सिद्धवरसासणमिण) भूतकाल में जितने भी सिद्ध हो चुके हैं उनका यह प्रधान आज्ञारूपशासन है। (आपविय ) ऐसा भगवान महावीर प्रभुने सर्वभाव से इसके विषय में कहा है और (सुदेसिय ) देवो, मनुजों तथा असुरो से युक्त परिपदा में इसका उपदेश दिया है । ( पसत्य) सर्व प्राणिया का हितकारक होने से मगलमय है, इस प्रकार यह ( पचम सवरदार समत्त) पुचमसवरद्वार समाप्त हुआ, (त्तिमि ) ऐसा में कहता है। अर्थात् माज्ञा प्रभारी १ पादान थयु गाय छे “एव" मारीते " नायमणिणा भगवया" ज्ञातृ ण नामना क्षत्रिय १शमा लत्पन्न ये मुनिराकर भगवान महावीरे “पण्णविय" सिध्याने भाटे या पायमा स१२वारने सामान्य समन्यु छे, " परूविय " ले प्रसे पूर्व तेनु विवयन यु छ, “पसिद्ध" પ્રમાણ પ્રતિષ્ઠિત હોવાથી જિનવચનમાં તે પ્રખ્યાત થયું છે, એટલે કે જિન વચન પ્રમાણે જ આચાર્ય પરંપરાથી તેનું આ રીતે પાલન થતું આવ્યું છે. तथा " सिद्धवरसासणमिण" मृतकमा २८सा सिद्धो थक गया तभनु मा प्रधान आज्ञा३५ ॥सन छ, “ अधविय " मे लगवान महावीर सर्व माथी त विष छु छ, भने “ सुदेसिय" वे मनुष्य! भने अमुशनी परिपामा तन। पहेश या छ “पसत्य" ते भ प्रामानु हित ४२. ना२ उपाथी भणमय छ, म २ "पचम" पायभु " सवरदार समत्त" सवार सभात थयु 'तिवेमि " म छु. मेट Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ୧99 अपरिस्रावी-कर्मजलमरेशरहितत्वात् , ' असफिलिट्ठी' असंक्लिअसमाधिमा ववर्जित्तत्वात् ' मुद्धो' शुद्धः-कर्ममलजितवाद , ' सपनिणमणुण्गाओ' सर्व जिनानुज्ञातः- सकलमाणिहितकारकत्वात्सर्वे रईदिरणीकृतभास्ति । पम्-उक्तमपारेण ' पचमं सरदार' पचम सारद्वार ' फासिय ' स्पृष्ट कार्यन, 'पालियं' पालित-सततमुपयोगेन सेपितम् ' सोहिय' शोधितम्-प्रतीचारपर्जनेन 'तीरिय' तीर्ण-तीर प्रापित सम्यरूपालनात् , 'किट्टिय' कीर्तितम्-स्तुतम् कल्याणका सत्वात् , 'आराहिय' आराधितम्-निकरणतियोगे, मम्यगाररितत्वात् , 'आणाए । आजया-सर्वज्ञरचनेन 'अणुपालिय' अनुपालितहमनस्कत्याच है, (अपरिस्साई ) विदुमात्र भी कर्मजल इममें प्रविष्ट नहीं पाता हैं इसलिये यह अपरिस्रावी है । (असफिलिट्ठो) असमाधि भार से रहित होने के कारण यह असक्लिष्ट है, और (सुढो) कर्ममल से वर्जित होने के कारण यह शुद्ध है । (सन्यजिणमणुण्णाओ) इससे समस्त प्राणियो का हित हुआ है और आगे भी हित होगा ऐसा जानकर हरी समस्त अरिहतभगवती ने इसे अगीकृत किया है। (एव पचम सवरदार ) इस उक्त प्रकार से जो इस सपरद्वार को (फासिय) अपने शरीर से आचरित करते है (पारिय) निरन्तर उपयोगपूर्वक इसका सेवन करते है, (सोहिय ) अतिचारों से इसे रहित करते है, (तीरिय) पूर्णरूप से इसका सेवन करते है, (किटिय) दूसरों को इसके पालन करने का उपदेश देते हैं (आराहिय ) तीनकरण तीन योग से इसकी भली प्रकार से अनुपालना करते हैं, (अणाए अणुपालिय भवइ) उनके द्वारा यह योग तीर्थकर प्रभु की आज्ञा अनुमार ही पालित तनाथा पापना योत छिन्न थ य छ तेथी त मछिद्र छ, "अपरिस्साई" બિન જેટલું પણ કર્મ જળ તેમાં પ્રવેશ પામી પાકતું નથી, તે અપરિસ્ત્રાવ छ, “असफिलिट्रो" असमाधिलायी हित पाने २0 ते अस सिट छ मन 'सुद्धो" भभ लिनु डावाथी ते शुद्ध छे “सम्वजिणमणुण्णाओ" તેનાથી સમસ્ત પ્રાણીઓનું હિત થયું છે અને ભવિષ્યમાં પણ હિત થશે मे तीन समस्त मरिहत लगवानास तेने मान्य ३२ छ 'एब पचम सवरदार " ॥ सूत्रमा ४ा प्रभारी २ सपायमा सवारनु "फा सिय ' पाताना शरीरथी माय२९५ ४२ छ, “पालिय" निरन्तर रुपये पू: तनु सेवन ४२ छ, 'सोहिय" मतियाशथी तर २डित ४२ छ, 'तीरिय " पूरी रीत तेनु सेवन ४२ छ "किट्टिय" अन्यने तना पासना ५३२ मा छ "आराहिय " ] ४२६५ मने जाए। योथी साशते तेनी माराधना ४२ छ, “ आणाए अनुपालिय भवइ" तभना द्वारा ते योगनु तार्थ ४२ प्रभुना Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टोका अ०५ म् १ १३ उपसंहार ६४७ " 1 पि' या 'नानि - अहिंमादीनि ' महव्ययाह ' महानतानि ' हे उसयनिमित्तपुक्लाइ' हेतुशत विरिक्तपु'कला नि= हेतुशतैः = उपपत्तिशः विविक्ते:-निर्दोषः कृत्या पुष्करानि=वितीर्णानि 'कहियाह ' कथितानि 'अरिहतसामणे' अर्हच्छासने - जिनमाचने । ते च ' सारा. 'समासेण ' समासेन सक्षेपेण ' पच' पञ्चपञ्चसरयकाः, 'त्थरेण उ' विस्तरेण तु ' पण्णत्रीसह ' पञ्चविंशतिः - प्रतिसत्ररद्वार पञ्चपञ्चभावनामयेन पञ्चत्रिंशतिसरयकाः भवन्ति । अथ सपरधारिणा भाविनी दशा - 'सजए 'सयत साधु 'समिए ' समित: - ईर्यासमित्या - दिभिः पञ्चविंशतिभावना गिर्युक्त सहिए' सहितः - ज्ञानादर्शनाभ्या युक्त, 'सजुढे ' सटतः = कपायेन्द्रियसमरणयुक्तः 'सया' सदा ' जयणघडण विशुद्ध 6 3 अब सूत्रकार पाचो सचरों का उपसहार करते हुए कहते हैं'एयाइ ' इत्यादि । ( टीकार्य - ( सुन्वय 1) शोभनवत सपन्न हे जम्मू 1 (एयाइ पचचि मह जयाह) ये पाचों ही अहिंसा आदिक महाव्रत (अरिहत सासणे हेउसयविवित्तपुलाइ कहियाह ) अर्त प्रभु के शासन में सैकडो निर्दोष युक्तियों से विस्तृत करके कहे गये हैं । (सवरा समासेण पच ) वे सवर सक्षेप से पाच है परन्तु (चित्वरेण उ पणचीसई) विस्तार से पाच २ अपनी२ भावनाओ से सहित होने के कारण ये पचीस हो जाते है । ( सजए ) इन सवरदारों का पालन करने वाला सयत ( समिए ) ईर्यासमिति आदि पच्चीस भावनाओ से युक्त (सहिए) ज्ञानदर्शन से सहित और ( सघुडे ) कपाय एव इन्द्रियो के सारण से युक्त होता हुआ (सया ) सदा ( जयणघडण सुविसुद्वदसणे ) अपने तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप दर्शन को હવે સૂત્રકાર પાસે સવરાના ઉપહાર કરતા કહે છે 66 एयाइ 'त्याहि टीडार्थ - ' सुव्यय ! " शोलननत युक्त हे न्यू! " याइ पचवि मह ध्वयोइ " महिमा माहि ते पाये महानत "अरिहत सासणे हेउसर्याविवित्त पुधलाइ पहियाइ " अर्हत अलुना शासनना सेडो निर्दोष युक्तियोथी विस्ता થી કહેવામા આવ્યા છે सवरा समासेण पच " ते भवर सक्षिप्तभा पाय छेपायु “ विरथरेण उ पणनीसई " विस्तारथी पोत पोतानी पाय पाय लाव नागो सहित होवाने जगणे पशीस थाय छे " सजए" मे सवरद्वारनु पालन अरनार सयत “समिए” यममिति आद्दि पथीस लावनाओोथी युक्त " सहिए" જ્ઞાનદર્શનથી યુકત અને सबुडे " उपाय भने इन्द्रियोना सवरथी युक्त जयणघडणसुविसुद्धद सणे " पोताना तत्त्वार्थ श्रद्धान 66 , 66 थाने " सया सहा Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमध्याकरण अथ सरपञ्चसमुपसहरन्नाह--'एयाह' इत्यादि । ___ मूलम्-एयाई वयाइ पंचवि सुव्वय महावयाइ हेउसय विवित्तपुक्खलाइ कहियाई अरिहंतमासणे पत्र समासेणसवरा वित्थरेण उ पणवीसई समिए सहिए संवुडे सया जयण घडण सुविसुद्धदसणे एए अणुचरिय सजए चरमसरीरधरे भविस्स तीति ॥ सू० ॥ १३ ॥ ॥इय पंचम सवरदार समत्त ॥ टीका-'एयाइ ' इत्यादि 'सुजय ' सुनत-हे शोभननत जम्यूः । 'एयाइ' एतानि 'पववि ' पहे जवू ! इस पचम सवरद्वार का जैसा कथन में ने साक्षात् भगवान् महावीर के मुख से सुना हे वैसा ही यह मैं ने तुमसे कहा है। अपनी तरफ से इसमे मैंने कुछ भी मिश्रित कर नहीं कहा है। भावार्थ-इन पूर्वोक्त पाच भावनाओ से अच्छी तरह सेवित होने पर यह अपरिग्रह नामक पाचवा सवरद्वार स्थिर हो जाता है । इसलिये मुनिजन को इसका पालन इस रूप से करना अवश्य हैं। समस्त तीर्थंकरों ने इसे सर्वप्राणियों का हितकारक जानकर पालित किया है। यह अनाव आदि विशेपणों वाला है। भगवान महावीर प्रभु ने भी इसके पालन करने का उपदेश परिषदा में जीवों को दिया है। ऐसा मगलमय यह पाचवा सवरद्वार समाप्त हुआ ।। सू० १२॥ “હે જ બૂ! આ પાચમા સ વરદ્વારનું કથન જે પ્રમાણે મે સાક્ષાત્, મહાવીર પ્રભુને મુખે સાંભળ્યું હતું, એ જ પ્રમાણે તે હું તમને કહુ છુ મારી તર ફથી તેમાં કઈ પણ ઉમેરવામાં આવ્યું નથી ભાવાર્થ–પૂર્વોક્ત પાચ ભાવનાઓનુ સારી રીતે સેવન કરવામાં આવે તે અપરિગ્રહ નામનું પાચમુ સવરદ્વાર સ્થિર થઈ જાય છે તેથી મુનિજને તેનુ તે રીતે પાલન કરવું અતિ આવશ્યક છે બધા તીર્થ કરેએ તેને સઘળી પ્રાણીઓનુ હિતકારક સમજીને તેનું પાલન કરેલ છે તે અનાશ્રવ આદિ વિશે ષણે વાળુ છે ભગવાન મહાવીરે પણ પરિષદાઓમાં તેનું પાલન કરવાની ઉપદેશ જીને આપે છે એવું મirળમય આ પારગ ચ વટાર સમાપ્ત થય સાર Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू०१३ दशमा श्रुतस्कघादिनिरूपणम् ९४९ विलेसु निरुद्धेसु आउत्तभत्तपाणएण अग जहा आयारस्त ॥सू०१४॥ ॥ इय पण्हावागरणं संमत्तं ॥ टीका-'पण्हापागरणेण ' इत्यादि प्रश्नव्याकरणे खलु एकः श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि, एतानि कीदृशानि ? एक्सरफाणि-उद्देशविभागादिरहितानि । एतान्य-ययनानि दशस्वेर दिवसेद्दिश्यन्ते । तथा-एकान्तरेषु आचाम्लेपु निरुद्धेपु-स्वीकृतेषु सत्सु आयुक्तभक्तपानेन भक्तपाने आयुक्त -आयुक्तभक्तपानस्तेन तथा, अशनादी दत्तोपयोगेनेत्यर्थ, इदमनमुश्यिते । अस्यावशिष्ट सर्व यया आचारस्य आचारागस्य तथैव विज्ञेयम्१४ ॥ इतिमश्नव्याकरण नाम दशमाङ्ग संपूर्णम् ॥ अथ सूत्रकार इस दशवे अग मे कितने श्रुतस्कंध आदि है यह दिखलाते है-'पण्डावागरणेण' इत्यादि। टीकार्थ- (पहावागरणेण) इन प्रश्नव्याकरण में (एगो सुयस्खधो) एक श्रुतस्कध है । (दस अज्झयणा) दश अध्ययन है । ये दशों ही अध्ययन ( एक सरगा) उद्देश विभाग आदि से रहित है। (दससुचव दिवसेसु उद्दिसिज्जति ) और दश ही दिनों में इनकी वाचना की जाती है । (एगतरेसु आयबिटेसु निरूद्धेसु आउत्तभत्तपोणएण) सभा में इसकी वाचना करने वाले साधु को दशदिन तक एकान्तर से आयविल करना चाहिये । आचाम्लत्रत करने मे अशनादि सामग्री पर एपणादि शुद्धि का विशेप ध्यान रखना चाहिये ।इस सूत्र का अवशिष्ट अश जैसा आचाराग सूत्र का है वैसा ही जानना चाहिये । सू-१५ ॥ ॥ इस तरह प्रश्नव्याकरण नामका यह दशयां अग समाप्त हुआ। હવે આ દરામાં અગમાં કેટલા શ્રુતસ્ક ધ આદિ છે તે સૂત્રકાર બતાવે 2-" पाहावागरणेण" त्या: डा--" पण्हावागरणेण" मा प्रश्नव्या४२मा “एगो सुयस्सधो" मे श्रत छ "दस अज्झयणा" इस मध्ययन छे ते से मध्ययन 'एकसरगा" शविला माहिथी २डित छ “दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति" मने इस हिवसमा तेनु पायरीशय छ “एगतरेसु आयबिलेसु निरद्धेसु आउत्त भत्तपा णपण" सलामा तनु पायन उ२नार साधु सहस सुधी आन्तरे आय मिस કરવા જોઈએ આ બિલવત કરતા અશનાદિ સામગ્રી પર એષણાદિ શુદ્ધિનું ખાસ ધ્યાન રાખવું જોઈએ આ સૂત્રને અવશિષ્ટ અને જે આચારાગ સત્રને છે તે જ સમજી લેવું જોઈએ સ્ ૧૫ છે છે આ રીતે પ્રશ્નવ્યાકરણ નામનું આ દશમુ અગ સમાપ્ત થયું છે Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---11-00 -- ९५८ प्रभव्याकरणमत्र दसणे' यतनघटनमविशुद्धदर्शनः, यतनेन-माससयमसयोगेषु प्रयत्नेन, घटनेन अमाप्तसयमसयोगमाप्त्यर्थघटनया च मुविमुख दर्शन-प्रदानरूप यस्य स तया, 'एए' एतान् उक्तरूपान सपरान् अणुचरिय ' अनुचर्य आसेव्य 'चरमसरीरधरे' चरमशरीरधरः अन्तिमशरीरधारी भरिस्सतीति-भविष्यतीतिविनेयम् ।।मु०१॥ __ इति पञ्चम सपरद्वार समाप्तम् ।। साम्प्रतं दशमाङ्गेऽस्मिन् कियन्टस्कन्धादि तदर्शयति 'पहावागरणेण' इत्यादि मूलम् -पण्हावागरणेणं एगो सुयरखंधो दस अज्झयणा एकसरगा दससु चेव दिवसेसु अदिसिज्जति, एगंतरेसु आयंयतन से प्राप्तसयम के सरक्षणरूप प्रयत्न से तथा घटन से-अप्राप्तसयम की प्राप्ति करने की घटना से मुविशुद्ध रखता है । (एए अणुचरिए) इन पूर्वोक्तरूप सवरों को पालन करके ( चरिमसरीरधरे ) अन्तिमशरी रधारी ( भविस्सइ) होवेगा। ऐसा जान लेना चाहिये । भावार्थ-सूत्रकार ने इस सून दारा समझाया है कि जो मुनि इन पांचों सवरहारों का शास्त्रमर्यादा के अनुसार पालन करेगा और पच्चीस भावनाओसे इन्हे स्थिर रखेगा, वह चरमशरीरी होगा, अर्थात् उसका पुन. जन्म ससार में नहीं होगा, वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करने वाला होगा। ये सक्षेपतः सवरद्वार पाच ही हैं-परन्तु विस्तार का अपेक्षा अपनी २ पाच भावनाओं से सहित होने के कारण ये पच्चीस भी हो जाते हैं । सू० १३ ॥ पाचवा सवरद्वार समाप्त || રૂપ દર્શનને પ્રયત્નપૂર્વક-માસ સ યમના સરક્ષણરૂપ પ્રયત્નથી તથા ઘટનથી सात सयभनी प्रालि ४२वानी घटनाथी सत्यत विशुद्ध रामेछे “ए ए अणुचरिए" से पूरित सवरानु पासन शन " चरिमसरीरधरे" मन्तिम शरीरधारी " भविस्सइ" थशे मे प्रमाणे सम से ભાવાર્થ–સૂત્રકારે આ સૂત્ર દ્વારા એ સમજાવ્યું છે કે જે મુનિ આ પાચે સ વરદાનું શાસ્ત્રમર્યાદા અનુસાર પાલન કરશે અને પચીસ ભાવનાઓ વડે તેમને રિથર રાખશે, તે ચરમ શરીરી થશે, એટલે કે તેને સંસારમાં ફરી જન્મ લે પડશે નહી, તે અવશ્ય મોક્ષ પ્રાપ્ત કરશે સંક્ષિપ્તમાં થાય જ સ વરદ્વાર છે, પણ વિસ્તારની અપેક્ષાએ પિત પિતાની પાચ પાચ ભાવ નાઓ સહિત હોવાને કારણે તે પચીસ પણ કહી શકાય છે. સૂ૦ ૧૩ છે પાચમુ સવરદ્વાર સમાપ્ત છે Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शिनी टीका अ० ५ सू०१३ दशमाई श्रुतस्कघादिनिरूपणम् ९४२ विलेसु निरुद्धेसु आउत्तभत्तपाणएणं अंग जहा आयारस्स ॥सू०१४॥ ॥इय पण्हावागरणं संमत्त ॥ टीका-'पण्हापागरणेण ' इत्यादि प्रश्नव्याकरणे खलु एकः श्रुतस्कन्धः दश अध्ययनानि, एतानि कीदृशानि ' एक्सरकाणि-उद्देशविभागादिरहितानि । एतान्यध्ययनानि दशस्वेत्र दिवसेपूदिश्यन्ते । तथा-एकान्तरेषु आचाम्लेपु निरुद्धेपु-स्वीकृतेषु सत्सु आयुक्तभक्तपानेन-भक्तपाने आयुक्त -आयुक्तभक्तपानस्तेन तथा, अशनादी दत्तोपयोगेनेत्यर्थ, इदमनमुद्दिश्यते । अस्यावशिष्ट सर्वे यथा आचारस्य आचारागस्य तथैव विज्ञेयम्१४ ॥ इतिप्रश्नव्याकरण नाम दशमाङ्ग संपूर्णम् ।। अय सूत्रकार इस दशवे अग मे कितने श्रुतस्कंध आदि है यह दिखलाते हैं-'पण्हावागरणेण' इत्यादि। टीकार्थ- (पहावागरणेण) इन प्रश्नव्याकरण में (एगो सुयस्खघो) एक श्रुतस्कंध है। (दम अज्झयणा) दश अध्ययन हैं । ये दशों ही अध्ययन ( एक सरगा) उद्देश विभाग आदि से रहित हैं । (दससु चेव दिवसेसु उधिसिज्जति ) और दश ही दिनों में इनकी वाचना की जाती है । (एगतरेसु आयविटेसु निरुद्धेसु आउत्तभत्तपाणएण) सभा में इसकी चाचना करने वाले साधु को दशदिन तक एकान्तर से आयबिल करना चाहिये । आचाम्लत करने में अशनादि सामग्री पर एपणादि शुद्धि का विशेप ध्यान रखना चाहिये ।इस सूत्र का अवशिष्ट अश जैसा आचाराग सूत्र का है वैसा ही जानना चाहिये । मु-१५॥ || इस तरह प्रश्नव्याकरणा नामका यह दशवा अग समाप्त हुआ। હવે આ દરામાં અગમાં કેટલા થતષ્ક ધ આદિ છે તે સૂત્રકાર બતાવે 2-" पण्होवागरणेण" त्याह टी---" पण्हावागरणेण" मा प्रश्नव्या२शुभा "एगो सुयक्सघो" ! श्रत छ “दस अज्झयणा" इस अध्ययन छे ते से अध्ययन 'एकसरगा" शविला आहिथी २डित छ “दससु चेव दिवसेसु उद्दिसिज्जति” भने इस हिसभा तेनु पायरी शाय छ “एगतरेसु आयबिलेसु निरुद्धेसु आउत्त भत्तपा Org” સભામાં તેનું વાચન કરનાર સાધુએ દસ દિવસ સુધી એકાન્તરે આય બિલ કરવા જોઈએ આય બિલવ્રત કરતા અશનાદિ સામગ્રી પર એષણાદિ શુદ્ધિન ખાસ ધ્યાન રાખવું જોઈએ આ સૂત્રને અવશિષ્ટ અગ જેવો આચારાગ સુત્રને છે તે જ સમજી લેવું જોઈએ છે સૂ ૧૫ છે છે આ રીતે પ્રશ્વવ્યાકરણ નામનું આ દશમુ અગ સમાપ્ત થયુ || Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- प्रभव्याकरण ॥ अथ शास्त्रमगस्तिः ।। सौराष्ट्र मुनिभि साक, विहार कुर्वता मया। चातुर्मास्य.मुसेनेव, नीतं जेतपुरे पुरे ॥१॥ ततो विहरमाणोऽह, धोराजीनाम विश्रुते । पुरे समागतः शेप,-काले तैमुनिभिः सह ॥२॥ सप्ताधिके वैक्रमान्दे, सहमद्वयसरयके । पोपे पुप्ये पौर्णमास्या, शुभद भौमवासरे ॥ ३ ॥ प्रश्नव्याकरणस्येय, रत्तिर्नाम्ना सुर्दशनो । रचिता धासिलालेन, श्रीसन समारता ।। ४ ।। लिमड़ो सघस्थापित-पौषधशाला च विद्यते तत्र । प्रवचनरहस्यपूर्णा, सेय शिरसौर यदा पूर्णा ॥ ५ ॥ टीकाकार की प्रशस्ति सौराष्ट्रदेश में मुनिजनो के साथ विहार करते हुए मैं ने जेतपुर में आनदपूर्वक चौमासा किया। वहा से विहार कर मैं उन मुनिजनों के साथ धोराजी नाम से प्रसिद्ध शहर में आया । शेप काल वहाँ रहकर विक्रम सवत् २००७ के पोप मास, पौर्णमासी निधि मगलवार और पुष्य नक्षत्रके दिन प्रश्नव्याकरणकी यर वृत्ति जिसका नाम सुदर्शिनी है मैं ने-घासीलाल ने-रची है । वहा के श्रीसघ ने इसका अच्छा आदर किया । उस शहर में रिमड़ी सब के द्वारा स्थापित की हुई एक पौषध शाला है। उसमें ठहर कर प्रवचन के रहस्य से परिपूर्ण और शिव के सुख की दाता यह वृत्ति पूर्ण हुई है ॥ ॥टानी शास्ति સૌરાષ્ટ્રમાં મુનિજની સાથે વિહાર કરતા કે જેતપુરમા, આન દપૂર્વક ચિમાસુ વ્યતીત કર્યું, ત્યાથી વિહાર કરીને હું મુનિઓ સાથે રાજી નામના પ્રસિદ્ધ શહેરમાં આવ્યે શેષ કાળમા ત્યા રહીને વિક્રમ સંવત ૨૦૦૭ના પોષ માસની પૂર્ણિમાની તિથિને મગળવાર અને પુષ્ય નક્ષત્રના દિવસે પ્રશ્નવ્યાકર ણની આ વૃત્તિ જેનું નામ સુદર્શિની છે, તે મે-ઘાસીલાલે રચી છે ત્યાના શ્રી સશે તેને ઘણો આદર કર્યો તે શહેરમા લિમડી સ ધ દ્વારા સ્થપાયેલ એક પૌષધશાળા છે ત્યાં રહીને પ્રવચનના રહસ્યથી પરિપૂર્ણ અને મેક્ષના સુખની દાતા આ વૃત્તિ મે પૂરી કરી છે . પ . Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५१ - दशिनी टीका शाखपशस्ति सघमहिमाधोराजी नगरस्य एप परमोदारो महाधार्मिकः, शुद्धस्थानकनासिधर्मनिरतः सम्यक्त्वभानान्वितः । तत्त्वातत्वपयोविवेचनविधी इसायमानः सदा, सर्वेषामुपकारको विजयते श्री जैनसयोमहान् ॥ ६ ॥ देवे गुरौ धर्मपये च भक्ति थैमा सदाचाररचिश्च नित्यम् । ते श्रावका धर्मरता उदारा , मुबारिकाः सन्ति गृहे गृहेऽत्र ॥७॥ मगल भगवान् पीरो मङ्गल गौतमः प्रभुः । मुधर्मा मङ्गल जम्बू-जैनधर्मश्च मगलम् । ॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्गल्लभ - प्रसिद्धवाचकपञ्चदशभापाकलिवललितकलापालापक-प्रपिशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्थनिर्मारक- वादिमानमर्दकश्रीशाहू छत्रपतिकोल्हापुरराजप्रदत्त 'जेनशास्त्राचार्य' पद्भपितकोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकरपूज्यश्री घासीलालप्रतिविरचिता दशमागस्य श्री प्रश्नव्याकरणसूत्रस्य सुदर्शन्यारया व्याख्या समाप्ताः ॥ शुभ भूयात् ॥ ॥ श्रीरस्तु॥ Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 प्राध्यापसूत्रे सघमहिमा__ धोराजी शहर का यह महान् श्री जैनसघ अत्यत उदार है, परमधार्मिक है, शुद्धस्थानकवासी धर्म में लवलीन है, सम्यत्र भाव से युक्त है, तच अतत्व का क्षीर नीर की तरह विरेक करने में इस के जैसा है / समस्त प्राणियों का उपकारक है, अतः यह सदा जययता वों // 6 // जिनकी देव गुरु और धर्म में नित्य भक्ति है / तथा सदाचार में जिनकी रुचि है ऐसे धर्मरत उदार श्रावक और सुश्राविकाएँ यहां घर 2 में है // 7 // अतिम मगलाचरण अतिम तीर्थकर भगवान् महावीर मगलरूप है, गौतमप्रभु मगल रूप हैं, सुधर्मास्वामी मगलरूप है अन्तिम केली जम्वामी मगलरूप हैं और यह जैनधर्म मगलरूप है // 8 // // श्रीरस्तु-शुभ भूयात् // - - સઘમહિમા ધોરાજી શહેરનો તે મહાન શ્રીસ ઘ અત્યત ઉદાર છે, ઘણે જ ધાર્મિક છે, શુદ્ધ થાનકવાસી ધર્મમા દેઢ રીતે માનનાર છે, સમ્યકત્વ ભાવથી યુક્ત છે, તત્વ અતત્વને દૂધ અને પાણીની જેમ વિવેક કરવામાં હ સ સમાન છે સઘળા પ્રાણીઓને ઉપકાર કરનાર છે, તેથી તેને સદા જય જયકાર હે દા જેમને દેવ, ગુરૂ અને ધર્મ પ્રત્યે નિત્ય ભકિતભાવ છે, તથા સદાચાર પ્રયે જેમની અભિરૂચિ છે એવા ધર્મરત ઉદાર શ્રાવક અને સુશ્રાવિકાઓ અહી દરેક ઘરમાં છે કે 7 છે અતિમ મ ગલાચરણ અન્તિમ તીર્થંકર ભગવાન મહાવીર મગળરૂપ છે, ગૌતમપ્રભુ મગલરૂપ \ છે સુધર્માસ્વામી મંગળરૂપ છે અતિમ કેવળી જ બૂસ્વામી મગળરૂપ છે, અને આ જૈન ધર્મ મગળરૂપ છે કે 8 // श्रीरस्तु-शुभं भूयात् //