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सुदर्शनीटीका २०३ सू० २१ अध्ययनोपसहार
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तदनुसारेणैव ' गाकुलनदणो ' ज्ञातकुनन्दनः = सिद्वार्थकुलानन्दकरः ' महप्पा ' महात्मा-परमात्मरूपः ' जिणो' जिनो- रागद्वेपविजेता 'श्रीरपरनामधेज्जो' वीरपरनामधेयः=प्रख्यातनामा भगवान् महावीर. 'जदिण्णादाणस्म' जदत्तादानस्य फळविवाग ' फलविपाक ' कहेसी ' कथितवान् । एव त' तत् पूर्वोपदर्शित स्वरूपम्, ' तज्ञ्यपि अदिष्णादाण ' तृतीयमप्यदत्तादान - 'हर - दह - मरण - कलुम - वासण - परसविगिज्झ लोभमूल ' हर दह - मरण- कलपनासनपरसत्कग्राह्यलोभ मूलम्, तत्र 'हर ' इति हरण-परद्रव्यापहरण, 'दह' दहन = दाह - हृदयसन्तापः, 'मरण' मृत्यु', 'कलुस ' कलुप= मनोमालिन्य, 'तासण ' त्रासन = त्रासः - अकस्माद्भयम् 'परसतियगिज्झलोभ ' परसत्कग्राद्यलोभः = परवस्तुग्राहको लोभ, एतेपा मूल-मूलकारणमिदमदत्तादानम् । एव 'जान' यानत् यावच्छब्देन द्वितीयालीक
तीर्थकरों ने इस अदत्तादान का ऐसा ही फल कहा है तथा उन्ही तीर्थकरों के अनुसार ( नकुलनगो ) ज्ञातकुलनदन - सिद्धार्थ के कुलको आनद कारक ( महप्पा ) परमात्मरूप ( जिणो ) रागदेष विजेता ( वीरवरना मधेज्जो ) श्री भगवान महावीर ने भी ( अदिण्णादाणस्स ) इस अदत्तादान का ( फलविवाग ) ऐसा ही फल ( कहेसी ) कहा है | ( एव ) इस प्रकार (त) पूर्वोपदर्शित स्वरूपवाला यह (तह यपि ) तीसरा अदत्तादान भी ( हर - दह - मरण - कलुस - परसतिगिज्जलोभमूल ) (हर) परद्रव्य का हरण करना, (दह ) हृदय मे सताप पहुँचाना, (मरण ) मृत्यु ( कलस ) मनोमालिन्य ( नासण) अकस्मात् भय होना, (परसति गिज्झ लोभमूल ) दूसरे की वस्तु का हरण कराने वाला लोभ, इन सबका मूल कारण यह अदत्तादान है । यहा पर
"C एवमाहसु ” ઋષભદેવ આદિ તીર્થંકરાએ આ અદત્તાદાનનુ આવુ જ इस छे तथा ते तीर्थ रोना प्रभाणे " णायकुलनदणो " ज्ञातमुझे नेहनસિદ્ધાના કુળને આનંદ દાયક महापा " जिणो પરમાત્મ રૂપ, ગગદ્વેષ विक्रेता, "वीरवर नामज्जो श्री लगवान महावीरे पशु " अदिष्णा
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दाणरस
महत्ताहीन " फळविवाग" मेवुन
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" " हर" परद्रभ्यनु
या प्रमाणे “ त ” धूपदर्शित उपवाणु ते " तइयपि " પણ हर - दह - मरण - कलम - तासण-परसति गिज्झ लोभमूल હરણ કરવુ हृदयमा भताय पडोयाउथे, "मरण दह मृत्यु, "कलुस મનની મલિનતા, सण " अस्मात ल थवेो, “परसतिगिज्झ लोभमूल
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