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________________ १७६ मयाकरणसूत्रे " प्राणिभयजनक, 'ससारसागर' मसारसागर, वमन्तीत्यग्रेण सम्यन्यः कीदृशं संसारसागरमित्याह - ' अयि जगाला ' अस्थिताऽनालम्बनम विष्ठानम् =अस्थितानाम् = सयमानुष्ठानरहिताना न विद्यते लम्वनम् अन्यः प्रतिष्ठान रक्षाकरण यत्र स तथा त असय मिनामाधारसर्जित प्राणवर्जित चेत्यर्थः तथा 'अप्पमेय ' अममेयम् =भमसेनाऽपरिडेय 'चुल्यो णिमयमद्दस्मत्रिल चतुरशीतियो निशतसहस्रगुपि= चतुरशीतिलक्ष्यो नित्र्याप्त योनिनाम संख्यात्वेऽपि समवर्णगन्धरसस्पर्शानामेवनिगादुक्तमरुयामागञ्जस्य नोप्य तत्र गाया यथाऐसे (ससारमायर) समार मागर में (सति) वमते है, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये | किस प्रकार के समारमागर में सते है मो करते हैं- ( अट्ठि य अणालणारा) असयमी जीवों के आलम्भन एव रक्षा करने के साधन से रहित (अप्पमेय) कोल्हका वेल चारों तरफ फिरनेसे पार नही पाता वैसे ही चतुर्गतिमें जन्ममरणसे पार नहीं पानेसे अप्रमेय, (चुलसीइजोणिनय सहस्सगुलि) चौरामीलक्ष जीव योनीयों से युक्त, ( अगालोग) प्रकाशवर्जिन, एन (अधवार) अधकार से युक्त इस ससार मे ( अगतकाल जान ) अननकाल तक ( णिच्च) सदा (उत्तत्थ सुवणभय सण्णसपत्ता) भयभीत बने हुए तथा किकर्तव्यता से विमूढ हुए भय से एव सज्ञा - आहार, परिग्रह एव मैथुन सज्ञाओं से सम्बद्ध बने हुए जीव (उच्चग्गवासवसर्हि) उद्विग्नों के वासस्वरूप इस संसार में (वसनि) वसते है । जो अदत्तग्राही जीव है ये चतुर्गतिरूप तथा अनत दुःखो से युक्त इस ससारसागर में अनंत काल तक परिभ्रमण करते रहते हैं । चौरासी लाख चोनिया इस प्रकार से है 66 માટે ભયજનક, એવા स सारसायर સસાર સાગરમા " वसति " वास अरे छे तेथे देवा प्रारना संसार सागरमा वसे छे ? " अट्ठिय अणालवणपट्ठाण ” અસયમી જીવને આધાર આપવાને તથા તેમનુ રક્ષણ કરવાના साधनाथी रहित, " अप्पमेय " अभर्वज्ञनी अपेक्षाओगे अप्रमेय, “चुलसीइजोणिस यस हरसगुविल " शोर्याशी साथ लव योनियोथा " अणालोग युक्त, << ," પ્રકાશ રહિત, અને “ अघयार अधारथी युक्त भा स सारभा " अणत कोल जाव " अनन्त जी सुधी " णिन्च " સદા उत्तथसुण्णभय सणस पउत्ती ભયભીત ખનેલ, તથા ર્કિકતવ્યતાથી વિમૂઢ બનેલ, ભય સ જ્ઞા, આહાર સત્તા, मैथुन सज्ञा, अने परिश्रड स ज्ञाभोथी युक्त मनेस वे उब्बिगावासवसहिं " बुद्विशोना - ( हु जीयाराना) वास ठेवा या ससारमा "वसति" बसेछे महत्ताहीन લેનાર જીવે ચાર ગતિરૂપ તથા અનત ૬ ખેાથી યુક્ત આ સ સાર સાગરમાં અનેત કાળ સુધી પરિભ્રમણુ કર્યાં કરે છે. ચાર્યાશી લાખ ચેાનિયા આ છે >> " ܕܕ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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