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________________ सुदर्शिनी टीका अ0 ३ सू० १४ चौरा किं फल प्राप्नुवन्तीतिनिरूपणम् ३२७ सपशुलिकानि-पास्थिसहितान्यस्थोनि येपा ते तथा उरसि महाकाष्ठस्यचालनेन भनपाङस्थिका इत्यर्थ , 'गलकालकलोहदडउरउदरवत्थिपिद्विपरिपीलिया' गलकालकलोहदण्डोरउदरसस्तिपृष्ठपरिपीडिता:-गत इव-मत्स्यभेदककण्टकात् कालफलोहदण्ड: श्यामलोहदण्डस्तेनोरसि-वक्षःस्थले, उदरे वस्तौ-नाभ्यधोगुह्यप्रदेशे पृष्ठेच परिपीडिता:-आहता येते तथा, 'मस्थतहिययसचुष्णिय गवगा' मध्यमानहृदयसन्चूर्णिताद्गोपाङ्गाः तत्र मध्यमान-महाकाष्ठादिभिर्विलोट्यमान हृदय वक्षःस्थल येपा ते मध्यमानहृदयाः, तथा कठोरभूम्यादौ घर्पणादिना सञ्चूणितान्यगानि-शिर उर उदर पृष्ट्वाहुद्वयचरणद्वयलक्षणाष्टाङ्गानि उगङ्गानि च%3 कर्णनासिका करचरणागल्यादीनि येपा ते सन्चूर्णिताड्रोपागाश्च येते तथा, एते पापा वेदनाः माप्नुवन्तीत्यग्रेण सम्बन्धः । 'केई' केचित् केचन ‘अविराहिय-वैरिएहि' ग्गपसुलिया) उनकी पासली सरित हड्डियां पीस जाती है तर, तथा ( गलकालफलोहदटउरउदरवत्थिपिट्ठपरीपीलिया ) (गल) मत्स्य भेदक केटक की तरह (कालकलोहदड) काले लोहे के दण्ड से ( उर वक्षस्थल, (उदर) पेट, (पत्थि) वस्ति-नाभि के नीचे का गुद्यप्रदेश, एव (पिट्ठ) पृष्ठ इन स्थानों पर जब वे (परिपीलिया) आहत होते है तय, तथा (मत्थतयियसचुणियगुवगा) (मत्थतहियय) जर उनका हृदय महाकाष्ठ आदि से मथित किया जाता है तय, तथा (सचुगियगुवगा) कठोर भूमि के ऊपर घर्पण आदि से जर उनके अग और उपांग अच्छी तरह चूर्णित हो जाते हे तर, बहुत ही अधिक दुःखी होते हैं। शिर, उर, उदर, पृष्ठ, बाहुद्वय और चरणद्वय, ये आठ अग हैं। तथा कर्ण, नासिका, करामुली एव चरणागुली आदि उपाग है। इस प्रकार ये (केइ ) कितनेक अदत्तग्राही चोर ( अविराहियवेरिएहिं) तमनी छाती ५२ ! सारे वनवाजी साडी घोडी "दिण्णगाढपेल्लण" मेयान भाम तम ३२५पामा मा छे, त्यारे “ अद्विक सभग्गापसुलिया" તેમની પાસળીઓના હાડકા પીસાઈ જાય છે, તથા “” માછલીને વી ધનાર डाटानी म “कालकलोहदण्ड " सोढाना जा 43 "उर" छाती "उदर" पेट, “ बत्थि" मस्ति-गुह्य प्रदेश, म " पिट्ठ" ची वगैरे स्थानी ५२ न्यारे "परिपीलिया" तभने भार ५ छ त्यारे, तथा “मत्थत हिय य सचुणियगुवगा" " मत्थत हियय" न्यारे तमनायतु मा४ मा द्वारा मथन ४२वामा मावे के त्यारे, तय "सचुण्णियगुवगा" ४४४ भान ઉપર ઘસડવાને લીધે જ્યારે તેમના અંગ ઉપાગોને સારી રીતે ચૂરો થાય છે ત્યારે તેઓ ઘણુ જ દુખી થાય છે શિર, ઉર, ઉદર પૃષ્ઠ, બે હાથ અને બે પગ એ આઠ અંગો ગણાય છે તથા કાન, નાક, હાથ પગના આગળ वगेरे पाणी उपाय छ में प्रभारी त "केइ" टस महत्तयाही-योर,
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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