SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - प्रश्न यारणसूत्र फीलकाः 'खूटा' इति प्रसिद्धाः 'जूर' यूपाः स्तम्भविगेपाः 'चाक' चक्राणि स्थानानि 'पहिया' इति भापा प्रसिद्वानि तेपु रितवन्धन बाहुनहादिरियाटनेन नियन्त्रण तथा ' खमारण' स्तम्भालगन-स्तम्भा-सह रज्ज्यादिमिरावेप्टन गले रज्जु पद्मा स्तम्भेपु समालम्बन पा तथा 'उद्धचलणाधण' चरणमन्वन चम्पादयोरुपरिकत्य बन्धनमित्यादिर्या 'विहम्मणाहिं' सिर्पगारपीडास्ताभिः 'विहेडियता' रिव्यमाना-पीड्यमानाः सकोटिता मोटिताः क्रियन्त हत्यग्रेण सम्बन्धः । तथा- अहमोडगगाढउरसिरबद्ध उद्धपूरियफरत उरकडगमोडणेहि' अधः कोटकगाढोरः शिरोपद्धो पूरितस्फुरदुर काण्ड कमोटने, तत्र--अधः फोटकेन अधो नमयनेन गाढम् अत्यर्थमुरसिम्यक्ष स्थले शिर' मस्त गद्ध येपा ते तथा अतएव ऊर्थपूरिताः श्वासप्रश्वामैः पूरितगरीरोप्रभागास्तथा स्फुरदुरः फण्डकाच-कम्पमानवक्ष स्थलपृष्ठास्थिका ये चौरास्तेषां यानि मोटनानि-पुनः पुन हथकडी आदि में बाध दिये जाते हैं, सूटों पर लटका दिये जाते हैं, (जूव) स्तभविशेषों से जकड़ कर याध दिये जाते हैं, (चक) पहियों से (वित. तयधण) हाथ पैर याहर निकालकर रस्सियों से पहुत बुरी रतह से जकड़ दिये जाते हैं, (खभालण) बड़े २ खभों के ऊपर गले में रज्जु आदि बाधकर लटका दिये जाते है। तथा (उद्धचलणवधण) पैरों में रस्सी आदि से घाधकर मुँह नीचा करके वृक्षादिको में स्टका दिये जाते हैं। (विहम्मणाहिंय ) इस प्रकार की-विविध प्रकार की पीडाओं से वे (विहेडियता) पीडित किये जाते हैं। तथा (अहकोडगाढ उरसिरबद्ध उदपूरियफुरतउरकडगमोडणेहिं ) (अहकोडगगाढउरसिरबद्धपूरिय ) इनका मस्तक इतने अधिक रूप में नीचे झुकाया जाता है कि जिससे वह वक्षस्थल पर आकर चिपक जाता है, और इसी कारण श्वास उच्छूवासों से इनका शरीर का उर्चभाग पूरित होता रहता है, (फुरतउर मा6ि143 माधवामा आवे छे, भूटा ५२ पपामा भाव, “जूव" स्था साथे माधयामा माघे छे, " चक" योथी ४४वामा मावे छ “विततबधण " थ प २७ पडे घी १ प२रा शत माधवामा मा छ " सभालण" भाटा मोटा थालमाया 6५२ गणे हा२७॥ माधान दास भाव छ, तथा “उद्धचलणव धण" पणे हा२३१ माधान वृक्षा ५२ अधे माथे Gटामा भाव छ, “विहम्मणाहिय" या प्रारनी विविध यातनायाथी तभने “विहोडियता" पाउामा मावे छे तथा "अहकोडगगाढउरसिरयद्धपूरिय" तमना भत्ताने मेदु मधु नीय નમાવવામાં આવે છે કે જેથી તે છાતી ઉપર ચેટી જાય છે, અને તે કારણે श्वासारश्वासथी तभना शरीरने माग पूर्ण २३ छ, “पुर तउरकडग"
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy