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________________ सुदर्शनी ठीका अ० ३ सू० ३ पञ्चमान्तरगततस्करस्वरूपनिरूपणम् २७५ काश्च तर अपकर्षका: अपर्पयन्ति परगृहेषु चोरयितु चोरानाद्वयन्ति ये तेऽपकपंका, यद्वा-चोरित वनमपनीयाऽन्यस्थाने नमन्ति ये ते तया, क्या शरीरादितो भूपणादि निफामका का, सम्प्रदायकाचोरान् स्वगृहे संस्थाप्य भोजनादि दायका , अन्उिपका-चोरग्शेिपा सार्यातका प्रसिद्वाः पिलकोलीफारसाश्चपरव्यामोहर्थ विचामर पनादिन, देशीगन्दोऽयम् । 'निग्गहनिप्पलुयगा' निग्रहचिपलुम्पका-तुर निप्रदेण-वशीकरपोन शस्त्रादिभयमदर्शनपूर्वक पर निरु येत्यर्थ - चिपलुम्पका:-लुण्टनकारिण., 'पवितेगिकहरणबुद्धी' बहुविधस्तैन्यहरणबुद्धयः= बहुवियेन स्न्ये न-चार्येण हरणे परद्रव्यापहरणे बुद्विर्यपा ते तथा परद्रव्यहरणबुद्धिशालिन. एते पूर्वोक्ताः 'अण्णे य ' अन्ये च ' एमादी जे' एवमादयो येएसम्मकाराः ये ' परम्स दयाहि अपिरया ' परस्य द्रव्येषु अविरताः, सूत्रे तृतीया सप्तम्यर्थे परस्य धनपान्यादि ग्रहणे अनिटत्ता परद्रव्यग्रहणासक्ता इत्यर्थः सन्ति ते चौर्य कुन्तीति पूर्वण सम्बन्ध ॥०॥ अपकर्पक-पर के घर से द्रव्यादिकों को चुराने के लिये साथ में दूसरे चोरों को बुलाकर चोरी करने वाले, अथवा चुराये हुए धन को दूसरे स्थान मे ले जाने वाले, अथवा गरीर आदि से भूपण निकालने वाले, (सपदायग) सप्रदायक-चोरों को अपने घर में रखकर उन्हें भोजन आदि देने वाले, भाठिपक-ये भी चोर होते हैं सार्थघातक जनसमूहका पात करने वाले, विलकोलीकारक-पर को व्यामोह करने के लिये विश्वास वचन बोलने वाले (निग्गर विप्पलुपगा) शस्त्रादिक का भय दिखला करके दूसरों को रोक कर लूट करने वाले (रहरिश्तेणिकरणबुद्धी) तथा अनेकविधचौर्यकर्म करने में निपुण बुद्धिवाले होते है ऐसे ( एते अण्णे य एवमादी परस्स दव्याहिं जे अविरया) ये सब व्यक्ति तथा इनसे દ્રવ્યાદિની ચોરી કરવાને માટે બીજ ચોરોનો સાથ લઈને ચોરી કરનારા, અથવા ચરેલા ધનને બીજી જગ્યાએ લઈ જનારા અથવા શારીર આદિ પરથી આ भूपा। सोनास, 'सपदायग" स प्रहाय-याशने पोताना ५२मा मारा। આપીને ભોજન આદિ દેનાર, અવપિડ–તે પણ ચાર જ હોય છે, સાર્થઘાતક-જનસમૂહની હત્યા કરનાગ, બિલકોલોકારક-બીજાને ફસાવવાને માટે વિશ્વાસ Gपन २ तेवा पयन मारना । निग्गहविप्पलु पगा” नाहन मय तापी भीतने 2425पीने सूट लेनास, ' बहुत्रिहतेणिकहरणशुद्धी" तथा भने हानी या ४२५।। 5. भुद्धिव य 24 " एते अण्णेय एवमादी परस्स दबाहिं जे अपिरया" से था सो तथा ते भिवायना मीत
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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