SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 551
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४७ सुदर्शिनी टीका अ०४ सू०४ ९ १, युगलिपस्वरूपनिरूपणम् सुजातसद्गिसुन्दरागाः सुपुष्टमुन्दराऽवयवाः रत्तप्पलपत्तकतकरचरणकोमलतळा' रक्तोत्पलपत्रकान्तकरचरणकोमलतलाः- रक्तोत्पलस्य पत्रमिव कान्तानि= मुन्दराणि करचरणाना कोमलानि तलानि येपा ते तथा रक्तरुमलदलतुल्य मुकोमलसुरक्त हस्तपादतलाः ' सुपरहियकुम्मचारुचल्णा ' सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणाः = सुप्रतिष्ठितौ = शोभनाकृतिको फर्मवत्-उन्मतत्वेन कच्छपपीठवंद चारू-सुन्दरौं चरणौ येषा ते तया, तया अणुपुञ्चसुसहयगुलिया ' अनुपूर्वमुसंहतालिका अनुपूर्व अनुक्रमेण-गुरुलघुक्रमेण सुसंहताः मुमगठिता अनुल्या= इस्तपादालयो येपां ते तथा गुरुलघुन्यूनाधिकदोपरहिवाइलिकाः 'उण्णयतणुतगनिद्धनखा । उन्नततनुताम्रस्निग्धनखाः = तत्र उन्नता = मध्योन्नता तना प्रतला स्ताम्राः ताम्रवर्णा स्निग्धाः सुकोमला कान्ति युक्ताश्व नग्या येपा ते तथा, 'संठियसुसिलिट्टग्दगोफा' सस्थित मुश्लिष्टगूढगुल्फा. = सस्थिती सम्यक् सस्थानवन्तौ मुश्लिप्टौ-पुष्टत्वात् सुसहती अतएव गूढो अलक्षितो गुल्फोघुटिके येषा ते तथा 'एणीकुरुविंदवत्तावाणुपुत्वजघा ' एणी कुरुविन्दपत्ता पडे सुन्दर होते हैं । ( सुजायसव्वगसुदरगा) इनके प्रत्येक शारीरिक अवयव सुन्दर एव पुष्ट होते हैं । (रत्तुप्पलपत्तकतकर चरणकोमलतला) इनके हाथ और पैरों के तलिये रक्तक्मल के पत्ते के समान लाल और कोमल होते हैं। (सुपइट्ठियकुम्मचारुचरणा) इनके दोनो चरण शोभन आकृतिवाले एव कृर्म की पीठ की तरह उन्नत होने से बड़े सुहावने होते हैं (अणुपुन्वमुसह्यगुलिया) हाथ और पैरों की अगुलिया इनकी गुरू लघु के क्रम से सुसगठित रहती हैं, अर्थात् इनके हाथ पैरों की अगुलियां गुरु, लघु-तथा न्यूनाधिक दोप से रहित होती है। ( उष्णयतणुतबनिनसा ) नख इन्हों के म य में उन्नत, पतले और ताम्रवर्ण के होते है । तथा कोमल और कान्ति सहित होते है । (सठियसुसिलिट्ठगूढगोंफा ) इनके दोनो घुटने मुस स्थान वाले, पुष्ट पुष्ट डाय छ " रतुप्पलपत्तकतकरचरणकोमलतला" तेमनी येणी तथा પગના તળિયા લાલ કમલ પત્ર સમાન લાલ રંગના અને કેમળ હોય છે "सुपइद्वियकुम्मचारुचरणा" तभना भने ५५ सुर घाटपाणी, तथा आयमानी भी 24न्नत जापाथी धपा शामित डाय छ "अणुपुव्वमुसहयगुलिया" तेमना હાથપગની આંગળીઓ સુસ ગઠિત હોય છે એટલે કે ગુરુતા લઘુતા આદિ દેથી २डित डाय छ, सप्रभाए डाय छ “ उण्णयतणुतपनिद्धनखा" तेमना नम मध्यमा उन्नत, पाता, ताम्रव, अभय मने अन्तियुत राय छे ' सठिय सुसिलिंडगूढगोफा" भनी मने यूटय। सभा, पुष्ट मने सडत तथा
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy