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________________ ___मन यावरणसूत्रे ३७४ मैथुनपरिग्रहस्पा ये आरम्मा ज्यापारास्तेपा पनि फरणकारणानुमोदनानिकरण स्वय, कारण अन्यैरनुप्ठापनम् , अनुमोदन चतकारितादेः प्रशसन मित्येतैः प्रकारैः 'अविह' अष्टविध यत् 'निहाम्मपिडिय' अनिष्टकर्मपिण्डित-दुःखदकर्मसञ्चयः तदेवगुरुमारस्तेन ' किन ' अनगन्ता ये जीवास्तेषा दुर्गाण्येव-दुःखान्येव यो 'जलोध' जलोपा जगपूर वन दर अत्यय 'निवो लिज्जमाण' निनोल्यमानाः वृदयमानाः, 'उम्मग्गनिमग्ग ' उन्मग्ननिमनाथ दुखरूपजले उर्धाधो गम्यमाना ये माणिनस्तः 'दुल्लहतर' दुल मतलदुर्लभ-दुष्पाप्य तल यस्य स तथा त-हिंसाठीकादिपश्चाजनिताऽष्टविधकर्म भाराकान्तैः नानाविधदु वरूपागाधजले निमजनोन्मज्जन कुद्भिर्जी दुपारा कराना अनुमोदन करना, इन प्रोक्त प्रकारों से जो (अट्ठविर अणिहू कम्मपिडिय) दुःखद आठ प्रकारके कमेंका सचय होता है, उस कम सचय रूप भार से (अक्त) आकान्त-भारी घने हुए तथा (दुग्गजलोध) दुःख रूप जलसमूह में ( दरनिगोलिज्जमाण) अत्यन्त दृयते हुए तथा (उमग्गनिम्मग्ग) ऊन इय करते हुए अर्थात ऊँचे नीचे आते हुए ऐस प्राणियों के लिये यह ससार समुद्र (दुलहतल) अलभ्य तलवाला है अर्थात् इस ससार समुद्र को पूर्वोक्त प्रकार के जीव पार नहीं कर सकते हैं । अर्थात् इस ससारसमुद्र का तल-याह ऐसे जीवोंसे अप्राप्त है जो हिंसा, झूठ, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रहरूप आरभो के करना, कराना, एव उनकी अनुमोदना में लगे हुए हैं, क्यों कि इन पूर्वोक्त प्रकारों से वे जीव दुःखद अष्टविध कर्मों का सवय कर लेते हैं इस कारण उन पर इसका यहुत भारी भार हो जाता है। इससे वे दर जाते १२वी, में पूर्वरित प्रारे २ 'अविहअणिकम्मपिडिय" मा जाना, मह भनी सभ्यय थाय छ, ते भसयय३५ माथी " अक्त" andसारे मनेर तथा दुगजलोघ " म३५ समूडमा दूरनिव्वोलिजमाण" अत्यत सता, तथा “उम्मम्गनिमगा" पाशीमा ३॥ ३५ ४२ता-2 नाय मावत सेवा प्राणीयाने भाट २॥ ससा२ समुद्र "दुलहतल" असल्य त વાળે છે એટલે કે આ સ સારસાગરને પૂર્વોકત પ્રકારના જીવી તરી શકતા નથી એટલે કે હિસા, જૂઠ, અદત્તાદાન, મિથુન, પરિગ્રહરૂપ આર ભ કરનાર, કરાવનાર અને તેમની અનમેદના કરનાર જીવેને આ સ સારસાગરને કિનારે પ્રાપ્ત કરો અશક્ય છે કારણ કે પૂર્વેત પ્રકારે તે જીવે આઠ પ્રકારના દુખદ કર્મોને સચય કરે છે તેથી તેમના પર તેમને ઘણા ભારે બે હોય છે તેનાથી તેઓ દબાઈ જાય છે, અને વિવિધ પ્રકારના
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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