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________________ मन्नध्याकरण मूलम् ---जनू । अवभं च चउत्थं सदेवमणुयामुरस्स लोयस्स पत्थणिज्ज पकपणगपासजालभूय इत्थीपुरिसनपुंसगवेदचिह्न तवसजमवभचेरनिग्य भेदाययणबहुपमादमूलं कायरकापुरिससेविय सुयणजणवजणिज्ज उद्य-नरयतिरिय तिलोकपइटाणं जरामरणरोगसोगबहुल वधवंधविघायदुविधाय दसणचरित्तमोहस्स हेउभूयं चिरपरिचियं मणुगयं दुरंत चउत्थं अहम्मदार ॥ सू०१॥ ___टीकाः-हे जम्मू. ! 'चउत्य ' चतुर्थ =हिंसामृपादत्तादानापेक्षया चतुर्थ मास्रवद्वारम् ' अपभ च ' अब्राह्म-अकुशल कर्म तन्चेह मैथुनम्-अधर्महेतुत्वेन सकलानर्थजनकत्वात् । चकारः पुनरर्धः कीदृश तदित्याह-'सदेवमणुयामरस्स लोयस्सपत्यणिज्ज' सदेवमनुजासुरस्य लोकस्य मार्थनीय देवमनुष्यामुरलोकस्य प्राय निरूपण करना चाहते हैं । अत. सर्व प्रथम वे कम प्राप्त "यादृश" इस द्वार को लेकर अव्रम के स्वरूप का निरूपण करते है- 'जबूअपम' इत्यादि। टीकार्य-श्रीसुधर्मा स्वामी जयूस्वामी से कहते हैं कि हे जबू! (चउत्थ) हिंसा, मृपा एव अदत्तादान इन तीन की अपेक्षा यह चतुर्थ आस्रव द्वार (अबभ च) अनम है। यह अत्रम अकुशल कर्म हैं और वह यहा स्वरूप से गृहित हुआ है। क्योंकि यह अधर्म का हेतु होने से सकल अनर्यों का जनक होता है। अब सूत्रकार इसी अवमका आगेके विशेषणो द्वारा विशेष स्पष्टी करण करते है, वे कहते हैं कि-यह अव्रत्म-मैथुनसेवनरूप अकुशल कर्म भागे छ तेथी सीथी पडे तशा मनु मापता “ याश" 24 नामना हारने सधन अझना २१३५नु नि३५ उरे छे “जबू अबभ" त्यादि Atथ-श्री सुधर्मा स्वामी स्वाभान छ । “चउत्थ" હિસા, મૃષા અને અદત્તાદાન એ ત્રણની અપેક્ષાએ ચોથુ અધર્મદ્વાર "अमभ च" अनी छे ते अग्र अयोग्य कृत्य छ भने त सही भथुन३३ જે ગૃહિત થયેલ છે, કારણ કે તે અધમનું કારણ હેવાથી સઘળા અનથનું ઉત્પાદક છે હવે સૂત્રકાર એ જ અબ્રાનુ આગળ આવતા વિશેષણ દ્વારા વિશેષ સ્પષ્ટીકરણ કરે છે, તેઓ કહે છે કે તે અબ્રા-મેથુન સેવનરૂપ પાપકર્મ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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