SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 475
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुदशिनी टीफा अ० ३ सू. २० यदत्तादायिन कोश फल लभन्ते । ३८५ कठिनपरिश्रमेणापि दिनमात्राहारयोग्यमेवरुयश्चित् जन्नादिक प्राप्नुवन्तीत्यर्थः, 'खीणदासारा 'क्षीणद्रव्यसारा: दरिदाः णिच्च वणवण्णकोसपरिभोगविवज्जिया' नित्य धनधान्यकोशपरिभोगविपर्जिता-तत्र नित्य-सदा यन-गणिमादिक धान्य शाल्यादिक कोशाः=भाण्डागारास्तेपा परिभोगेन-उपभोगेन पिनर्जिताः, रहिताः, तथा रहियकामभोगपरिभोगसनसोक्खा रहित कामभोगपरिभोगसर्वसौरयाः =रहित कामयोः शब्दरूपयोः भोगानां गन्धरूपस्पर्शाना परिभोगसौस्य-उपभोग जनित आनन्दः येषा ते तथा कामभोगसुग्वाजिता इत्यर्थः, 'परसिरिभौगोवभोगनिस्साणमन्गणपरायणा' परश्री भोगोपभोगनिश्वाणमार्गगपरायणाः, वत्रपरेपाम् भयेपा श्रिया सम्पत्तेः यौ भोगोपभोगो भोगा सकत भुज्यते यः सः आहार पुप्पादिरूपः, उपभोगच हवस्त्रादिलक्षणः तयोर्यनिश्राण तस्य मार्गणकणों के पिण्ट के सचय करने में ही लगे रहते है अर्थात् सम्पूर्ण दिन उद्योग में तत्पर रहने पर भी ये बडे कठिन परिश्रम से केवल उसी दिन के योग्य अन्नादि सामग्री को जिस किसी प्रकार से अर्जित कर पाते है । (सीणव्वसारा) द्रव्य रूप सार से रहित न होने के कारण ये दरिद्र होते है । (णिच्च धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया) सर्वदा ये गणिमादि रूप धन, शाली आदि धान्य एव भाण्डागार इनके परिभोग-उपभोगसे रहित होते ह । (रहियकामभोगपरिभोगसव्वसोक्खा) शब्द एव रूप स्वरूप कामके, गन्ध रस और स्पर्श स्वरूप भोगों के परिभोग के सुखों से रहित होते है, (परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमग्गणपरायणा) (परसिरि) दूसरे व्यक्तियोकी लक्ष्मी के (भोगोवभोग) भोग और उपभोग के (निस्साणमग्गणपरायणा) आशय की वाछा में ही सदा लगे रहते है । जो एक बार भोगने मे आते है ऐसे आहार, સમૂહને સંગ્રહ કરવામાં જ લાગ્યા રહે છે એટલે કે આ દિવસ મહેનત કરવા છતા પણ તેઓ અતિ ભારે પરિશ્રમથી ફક્તએ એક દિવસ ચાલે એટલી मन्न सामग्री भाउ भाउ प्रास ४ श छ “सीण दव्यसारा" द्रव्य३५ सारथी २डित पाने सणे तसा हरिद्राय " णिच्च धणधण्णकोसपरिभोगविवज्जिया સર્વદા તેઓ સોનામહોરે આદિ વન, શાલી આદિ ધાન્ય અને વાસણના ભડારની तभना पागथी २डित डे, “रहियफामभोगपरिभोगसव्वसोम्सा" शण्ड અને રૂપ સ્વરૂપ કામના ગધ, રસ, અને સ્પર્શ સ્વરૂપ રિગના સુખોથી તેઓ २डित डाय " परसिरिभोगोवभोगनिस्साणमगणपरायणा"" परसिरि" तसा अन्य व्यक्तिसानी सक्ष्मीना" भोगवभोग" लागत पागना" निस्साणमाणपरायणा" मायनी वासनामा सहा दीन २ छ, र म० ४९
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy