SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 960
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नव्याकरण एव गुह्यापकाशिकानि स्त्रीणा गुप्ताहानीत्यर्थः । तथा-'अण्णाणि य एषमाइयाणि' अन्यामि च एवमादिकानि हमितादिसटशान्यन्यान्यपि, ' तवसयमनभरघाओवघाइयाइ ' तपः सयमब्राह्मचर्यघातोपातकानि, 'पारकम्माड ' पापकर्माणि 'व. भचेर ' प्रहमचर्यम् ' अणुचरमाणेण' अनुचरता 'न चारसुसा' न चक्षुषा 'न मणसा' न मनसा 'न यसा' न वचसा 'पत्येयचाइ' मार्थयितव्यानिम्न चक्षुपा द्रष्टव्यानि, न मनसा चिन्तयितव्यानि, न वचसा प्रार्थयितव्यानीत्यर्थः । एवम् अनेन प्रकारेण ' इत्योपपिरइसमिइजोगेण स्त्रीरूपपिरतिममितियोगेन: स्त्रीणा यद् स्प ततो या विरतिस्तदूपो यः समितियोगस्तेन भारितोऽन्तरात्मा जीवः 'आरयमणा' आरतमना:-ब्राह्मचर्यासत्तचित्तो विरतग्रामधर्मों जितेन्द्रियो ब्रह्मचर्यगुप्तश्च भाति ।।सू०८॥ पावकम्माइ तवसजमयभचेरघाओवाझ्याह) इसी प्रकार की और भी पाप कर्मरूप बातों का कि जो तप, सनम एव ब्रह्मचर्य व्रत को एकदेश से अथवा सर्वदेश से घात करने वाली हों (यभचेर अणुचरमाणेण) ब्रह्मचर्य रत की आराधना करने वाले साधु को (न चस्खुसा) राग संयुक्त होकर न आखों से निरीक्षण करना चाहिये, (न मणसा) न मन से विचार करना चाहिये, और (न वयसा) न वचन से (पत्थेयव्वाइ) प्रार्थना करना चाहिये । ( एव इत्यीत्वविरहसमिइ जोगेण भाविओ अतरप्पा आरयमगा विरयगामधम्मे जिइ दिए बभवेर-- गुत्ते भवइ ) इस तरह से स्त्रीरूप निरीक्षण विरतिरूप समिति के योग से सबंधित जीव ब्रह्मचर्य व्रत में आसक्त मनवाला हो जाता है और ग्रामधर्म-मैथुन सेवन से निवृत्त हो जाता है। अत एव वह जीवजितेन्द्रिय बनकर नव विध ब्रह्मचर्य की गुप्ति से अथवा दशविध ब्रह्मपावकम्भाइ तवसजमय भचेरधाओवघाइयाइ" से प्रा२नी भी पाप કર્મરૂપ વાતે કે જે તપ, સ યમ અને બ્રહ્મચર્યવ્રતને એક દેશથી અથવા सशथी घात ४२नारी डाय "व भचेरअणुवरमाणेण' प्रायनतनु पालन ४२नार साधु "न चक्चुसा" श युक्त न तभनु निरीक्षण ४२७ मे नडा, "न मणसा" भनथी विया२ ४२वो नये नहीं भने "न वयसा " क्यनथी न " पत्थेयव्याइ" प्रार्थना ४२वी नये " एव इत्थीरूव विरइसमिइजोगेण भाविओ अतरप्पा आरयमणा विरयगामधम्मे जिइदिए ब भचेरगुत्ते भव" मा प्रमाणे रा३५ નિરીક્ષણ વિરતિરૂપ સમિતિના ચેગથી ભાવિત જીવ બ્રહ્મચર્યવ્રતમા આસક્ત મનવાળે થઈ જાય છે, અને ગામધર્મ ગ્રંથનના સેવનથી નિવૃત્ત થઈ જાય છે તેથી તે જીવ જિતેન્દ્રિય બનીને નવવિધ બ્રહ્મચર્યની ગુપ્તિથી અથવા દેશવિધ
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy