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________________ प्रश्न याकरण ८, एतेऽष्टो व्यन्तरभेदाः । तथा तिरिय-जोडस-निमाग-पामि तिर्यग्ज्योतिर्वि मानमासिनः तिरधि-तिर्यग्लोके यानिज्योतिर्विमानानि तेपु निगासिनोऽमरुयाता ज्योतिफाः 'मणुय ' मनुना'मनुप्याश तेपा गणा: समृगाः । तथा 'जलयर थलयर खह-चराय ' जलचर स्थलचर सेवराय, तर जरचरा = मत्स्यादयः, स्थलचरागोमरियादय मेचराय-पक्षिणरते तया, पते सर्ने मथुन निपवन्त इति पूर्वेण सम्पन्यः । कीदृशास्ते इत्यार-मोहपडियाद्वचिवा' मोहमतिबद्ध चित्ताः मोहेन=अज्ञानेन प्रतिबद्व ग्रसित चिच येपा ते तथा 'अस्तिहा' अवितृष्णाः विपयलोलुपा:-माप्तामोपमोगेनाप्यनुपशान्तचित्ता इत्यय', 'काम भोगति सिया' कामभोगपिताः-अप्राप्त रागभोगेषु तत्प्राप्तिचिन्तापरायणा, एताशास्ते 'चलाईए' पलपत्या-प्रगाढया 'महईए' महत्या विशालया 'तण्हाए' तृष्णया विषयवान्छया 'अभिभूया' अभिभूता =अान्ता 'गढ़िया किं पुस्प, मोरग,गधर्व, ये आठ व्यन्तर देव, तया तिर्यग्लोक में जितने ज्योतिपियों के विमान है उन विमानों में रहने घाले असरयात ज्यो तिपी देव, तथा मनुष्यों का समूह, (जलयरधलयरखहचरा य) मत्स्य आदि जलचर जीव, गोमहिपी आदि स्थलचर जीव, एव आकाश में उड़ने वाले पक्षी, सर मैयुन सेवन करते हैं। क्यों कि ये सब (मोहपडियद्धचित्ता) अज्ञान से ग्रसित हे चित्त जिन्हों का ऐसे होते हैं । एव (अवितण्डा) प्राप्तकामोपभोग मे भी इनका चित्त शात नहीं हो पाता है। कारण ( काम भोगतिसिया) जो कामभोग इन्हें प्राप्त नही होते हैं उनमें उनकी प्राप्तिकी आज्ञासे चिन्ता से इनका चित्त चलायमान होता रहता है । ऐसा इसलिये होता है कि ये (बलवईए) प्रगाढ एव (महईए) विशाल (तण्डाए) विषयाभिलाषा से ( अभि भूया) आफ्रान्त हो जाते है। इसीलिये ये (गढियाय ) विषयों के લોકમા જેટલા તિષીઓના વિમાન છે તે વિમાનમાં રહેતા અસ ખ્યાત ज्योतिष, तथा मनुष्यानो समूड, तथा “ जलयर, थलयर, खहचराय" મસ્ય આદિ જળચર છે, ગાય ભેસ આદિ સ્થળચર જીવ, અને આકાશમાં ઉડતા પક્ષીઓ, તે સૌ મૈિથુનનુ સેવન કરે છે, કારણ કે તે સૌના ચિત્ત "मोहपडियद्धचित्ता " अज्ञानथी १४आये। हाय छ, मन ,, अवितण्हा" કામગ ભેગવવા મળે તે પણ તેમના ચિત્તને શાંતિ મળતી નથી કારણ "कामभोग तिसिया " आमला तेभने प्रास या नथी तनी साससाथी तमता वित्त सायभान २९ छे अम यवानु २५ मे " बलवईए" प्रसाद भने “ महईए" विun “ तहाए " विषयानियापाथी “ अभिभया"
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
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