SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 780
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रभम्पारवते प्रमोदजकत्वात् , तथा ' मुहिय' सुरुषितम्-नोतरागप्रतिपादितस्यात् , 'मुलय' सुव्रत-सवितमधानवान, क्या-'मुदिह 'मुद्दष्टम्-भतीन्द्रियानिभिरपरगा दिहेतुतया दृष्टत्वात् , ' सुपइद्विय ' मुप्रतिष्ठितम्-समम्तममणिरुपपादितवाद । 'मुपहियजस' गुपतिप्टितयशः-सुप्रतिष्ठित यशो यस्य तत, लोकत्रयप्रसिद्धत्वाद, वथा- 'मुसममिपश्यणाय' मुगंयमितपचनोदित-गुसपमित सम्यनियनित यद्वचन तेनोदित कथितम् , निर्दीपाचनः पवितमित्पर्य , तथा 'सुरवर नरवसभपवर सलबगसुविहिय जगबहुमय ' । सरपरनराममारसलवत्सुविहितजनबहुमतम् -- मुरपराणाम् --- इन्द्रादीनो, नरएपमागो = चक्रवयों अत शुभ विवक्षा से समुत्पन्न रोने के कारण या सृजात है। (सुभा सिय) यर प्रमोद का जनक होता है इसलिये यर सभापित है (मुकरिय) इसका प्रतिपादन वीतराग आत्माओं ने किया है इसलिये या सुकथित है (सुधय) सर्वव्रतों में उसकी प्रधानता मानी गई है इमलिये यह सुव्रतरूप है । (सुदिट्ट) अतीन्द्रिय अर्थो को जानने वाले सर्वज्ञ प्रभुओं ने इसे अपवर्ग (मोक्ष) आदि के हेतु रूप से दवा है इसलिये यह सुदृष्ट है। (सुपइहिय) समस्त प्रमाणो द्वारा उपपादितरोने से यह सुप्रतिष्ठित है। (सुपइडियजस ) तीनों लोकों में इस वचन का यश सुप्रसिद्ध है इसलिये यह सुप्रतिष्ठिन यशवाला है । (सुसजमियवयणयुइय ) इसे सत्य वचन को वे ही मनुष्य योल सकते हैं कि जिनका वचन सुसमित होता है अच्छी तरह से नियत्रित होता है। (सुरवरनरवसभपवर घलवगसुविहियजणयहुमयं) यह वचन इन्द्रादिक उत्तम देवों को, "सुभासिय "ते माह हत्पन्न ३२३ डापाथी सुभापित छ “सुकहिय " વીતરાગ આત્માઓએ તેનું પ્રતિપાદન કર્યું છે, તેથી તે સુકથિત છે "सुव्यय " स मतभा ते भुण्य भनायु छ तेथी ते सुमत छ — सुदिट्ठ, અતીન્દ્રિય અર્થોને જાણનારા સર્વજ્ઞ પ્રભુએ તે અપવગ આદિના હેતુરૂપ नेयु छ, तेथी ते सुष्ट छ “सुपइट्रिय " समस्त प्रमाण वास ते प्रात पाहन थयेलापाथी ते प्रभामृत-सुप्रतिष्ठित “सुपइद्रियजस" ब्र લોકમાં આ વચનને યશ સુપ્રસિદ્ધ છે તેથી તે સુપ્રતિષ્ઠિત ચશવાળું છે " ससजमियवयणवुइय " 21 सत्य ययन से भाएसमासी शो छ : २सना क्यन सुसयभित खाय छ-सारी ते नियत्रित हाय छे “ सुरवर भरवसभपवरवलवगसुविहियजणबहुमय" मा पयन धन्द्र साह उत्तम वान
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy