SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 831
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुशिंनी टीका अ० २ सू० ८ पञ्चमीभावनास्वरूपनिरूपणम् ७०३ जनित परस्परकृत च भवति हाम्यम् , तथा हास्ये 'अण्णोण्णगमण' अन्योन्यगमन-परस्परापिगमनीय च मम्म' मर्म-पच्छन्नपारदार्यादिदुश्चेष्टित भवति । तथा-'अण्गोण्णगमण' अन्योन्यगमन-परस्परविजेय च 'कम्म' कर्म लोकनिन्दादिरूप 'होज्ज' भनति । हास्येन प्रच्छन्नमपि कर्म प्रकाशित भातीति भावः। तथा-'कदप्पाभिओगगमण' कन्दभियोगगमनम्-कन्दः कान्दर्पिका देवविशेपा हास्यकारिणो भण्डमाया , अभियोगा=आज्ञाकारिणो देवाः, तेषु गमन गमनकारणम् तत्तद्देवरिशेपेपूत्पत्तिकारण च भवति हास्यम् । हास्यकारी साधुश्चारिनलेशाद्देवत्व प्राप्तोऽपि तर कान्दर्पिकेपु आभियोगिकेपु देवेपृत्पद्यते न तु महर्दिकेषु इत्यर्थः। तथा- आसुरिय' अमुरत्व 'किव्यिसत्तण' पिल्विपत्वचाण्डालमायदेव विशेषत्व च 'जणेज्ज' जनयेत् ' हास' हास्यम् । यतो हास्या दीडशो गतिर्गवति जीवस्य, ' तम्हा' तस्मात् ' हास' हास्य न सेवितव्यम् । आपस में दो आदि जन मिलने से होता है। (अण्णोण्णगमण च होज्ज मम्म ) इस हसी मे परदाररमण आदि दुश्चेष्टाये प्रच्छन्न रहा करती हैं। तथा (अण्णोपण गमण च होज्ज कम्म) इसी हसी मे परस्पर में होनेवाले दुष्कृत्यो से उनकी लोक मे निंदा होती है उसे बाहर वे अपने मुख यद्यपि नहीं कहा करते है फिर भी आपस की हँसी से ही उनका दुप्कृत्य लोकों के समक्ष प्रकाशित हो जाता है । (कदप्पाभिओगगमण ) तथा हास्यकारी साधू चारित्र के लेश से यदि देवगति में उत्पन्न होवे तो भी वह भांड जैसे कान्दर्पिक तया आज्ञाकारी आभियोगिक देवों में उत्पन्न होता है महर्द्धिक देवो मे नही । (आसुरिय किब्बिसत्तण चजणेज्ज हाम) यह हास्य चाडालप्राय असुरदेवो में किल्पिपजाति के देवों में उत्पत्ति का कारण होता है। (तम्हा हास न सेवियन्व) इसपाथी थाय " अण्णोण्णगमण च होज्ज मम्म" से हास्यमा ५२६१२२भए। माहिदुश्यष्टासा प्रश्छन्न २७ती डाय तथा “ अण्णोण्णगमण च होज्ज कम्म" मा हास्यमा अन्यान्य यता त्याने सीधे तेनी मेडमा नि थाय છે, તેને તેઓ પિતાના મુખથી બહાર કહ્યા કરતા નથી તે પણ અન્યની सी-भत४थी । तेमनु दुष्कृत्य हो। समक्ष २ 25 लय छे “ कदप्पामि ओगगमण" तथा स्यारी साधु ने वितिभा यन्न थाय तो पY ચારિત્રતાની ન્યૂનતાને કારણે તેઓ ભાડ જેવા કાદપિંક તથા આજ્ઞાકારી આભિ योनिड वोमा पनि थाय छ, भडशि वोमा नहीं “ असुरिय किब्वि सत्तण च जणेज्न हास" डान्य न्याय माहि गतिमा अमुवामा CR तिना वोमा उत्पत्तिनु ॥२६५ मने छ “तम्हा हास न सेवियव्य" ते
SR No.009349
Book TitlePrashna Vyakaran Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1962
Total Pages1106
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy